भेड़बकरियों से भी बदतर हालात में प्रवासी मजदूर

महानगरों से प्रवासी मजदूरों का बिहार में आने का सिलसिला लगातार जारी है. ये मजदूर दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक समेत कई दूसरे राज्यों से अपने गांव पैदल, रिकशा, साइकिल, ठेला, ट्रक, बस, ट्रेन से आदमी की शक्ल में नहीं बल्कि किसी जानवर से भी बदतर हालात में अपने घर आ रहे हैं.

शहर तो गए थे अपना और परिवार का पेट पालने के लिए, लेकिन वहां तो रोजगार के साथसाथ रोटी के भी लाले पड़ने लगे. जो थोड़ेबहुत पैसे जमा थे सब खत्म हो गए. कंपनी के मालिक, मैनेजर, ठेकेदार ने हाथ खड़े कर दिए. मकान मालिक किराया लेने के लिए मजबूर करने लगा. किराना दुकानदार एक पैकेट बिसकुट भी उधार देने से इनकार करने लगा. ट्रेन, बस सब बंद. भूख से मरने के हालात पैदा होने लगे तो ये कर्मवीर मजदूर, कुछ ऐसे भी जो अपने बीवीबच्चे के साथ इन नगरों में रहते थे, पैदल, साइकिल और ठेला तक से चल दिए.

भूखप्यास से तड़पते, बिना चप्पलजूते के गरमी से तपती सड़कों पर लाखों की तादाद में लोग महानगरों से अपने घरों के लिए जान जोखिम में डाल कर निकल पड़े. ट्रकों ट्रॉलियों में भेड़बकरी की तरह लदे अपनी मंजिल की तरफ. जितने मजदूर उतनी तरह की अलगअलग परेशानियां.

बिहार लौटे कुछ मजदूरों की दिल दहला देने वाली दास्तां सुनिए. दरभंगा जिले के मोहन पासवान गुरुग्राम, हरियाणा में भाड़े का ईरिकशा चलाते थे. लौकडाउन के पहले वे एक हादसे का शिकार हो गए. खाने के लाले पड़ गए और रिकशा मालिक का दबाव बढ़ गया. अब उन्हें गुरुग्राम में रह कर मरने से अच्छा घर जाना उचित लगने लगा. कोई साधन नहीं था. थकहार कर उन की 15 साल की बेटी ज्योति ने साइकिल पर अपने पिता को बैठा कर 1,000 किलोमीटर की दूरी नाप दी और वे सहीसलामत घर पहुंच गए. लोग ताज्जुब करने लगे कि वाह बेटी हो तो ऐसी. लेकिन मरता क्या नहीं करता. इनसान हालात के हिसाब से कुछ ऐसा कर जाता है कि उस पर आसानी से यकीन भी नहीं होता. इस लड़की ने वह कर दिखाया जो बड़ेबड़े ताकतवर लोग भी नहीं कर सकते.

औरंगाबाद जिले के तहत बारुण ब्लॉक के हसनपुरा के रहने वाले जितेश कुमार अपने पत्नी और बेटी के साथ महाराष्ट्र के ठाणे जिले में रहते थे. वे लोहे की एक दुकान में मजदूरी का काम करता थे. लौकडाउन की वजह से काम बंद हो गया. खानेपीने की किल्लत होने लगी. कुछ दिन किसी तरह उधार पर काम चलाया. लेकिन अब उधार मिलना बंद हो गया तो उन के पास कोई रास्ता नहीं बचा. उन्होंने 850 रुपए में एक पुरानी साइकिल खरीदी, जरूरी सामान साथ में लिया और अपनी पत्नी सरिता देवी और 3 साल की बेटी को साइकिल पर बैठाया और अपने घर के लिए चल दिए.

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जितेश कुमार ने बताया कि सब से ज्यादा परेशानी नासिक में पहाड़ की घाटियों में हुई, क्योंकि पहाड़ की घाटियों में साइकिल पर  बोझ ले कर चलना बड़ा मुश्किल का काम है. रातभर और सुबह 10 बजे तक वे साइकिल चलाते, दोपहर में कहीं आराम करते और शाम 5 बजे से फिर चल देते. कई बार साइकिल खराब भी हो गई. कहींकहीं गांव वालों की मदद से साइकिल बनवाई और आगे बढ़ते रहे. रास्ते में चूड़ागुड़ खाया तो कहीं कुछ और खाने को मिला तो वह खा लिया.

अपने इस दर्दनाक सफर के बारे में सुनाते हुए जितेश कुमार रोने लगे. 12 दिनों तक बीवी और बेटी को साइकिल पर बैठा कर 1,700 किलोमीटर की दूरी तय कर वे अपने गांव हसनपुरा पहुंचे. वे अब किसी भी शर्त पर बाहर कमाने के लिए नहीं जाने की बात बोल रहे हैं.

दरभंगा जिले के आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले से 15 की तादाद में 1,600 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर रहे मजदूरों ने बताया कि वे मिर्च फैक्टरी में काम करते थे. लौकडाउन की वजह से कंपनी बंद हो गई. जब काम ही नहीं रहा और पैसे भी खत्म हो गए तो दानेदाने के लिए वे लोग मुहताज होने लगे. जब कोई उपाय नहीं निकला तो वे लोग पैदल ही चल पड़े. पैदल चलतेचलते इन के पैरों में छाले पड़ गए. पैर लहूलुहान और सूज गए. कई लोगों के चप्पलजूते टूट गए. वे लोग नंगे पैर ही तवे के समान जल रही सड़कों पर लगातार दिनरात चलते रहे.

मुजफ्फरपुर, बिहार का रहने वाला श्रवण कुमार गुरुग्राम, हरियाणा में सिलाईकढ़ाई का काम करता था. कामधंधा बंद हो गया. कुछ दिनों तक ट्रेन खुलने का इंतजार करते रहा, पर तबतक सारे पैसे खत्म हो गए. न इधर का रहा, न उधर का. मकान मालिक किराया मांगने लगा. घर से उस के मजदूर पिता ने कुछ पैसे भेजे. मकान मालिक को किराया दिया, बैग उठाया और चल दिया. अगर रास्ते में कोई गाड़ी मिली भी तो हाथ देता रहा, लेकिन रोका किसी ने नहीं. लगातार 10 दिनों से पैदल चलतेचलते उस का शरीर जवाब दे चुका है. पैरों में छाले पड़ गए हैं, फिर भी वह अपनी मंजिल के तरफ चलता जा रहा है.

बिहार के नवादा जिले के सूरज पासवान कोलकाता में कुली का काम करते थे. लौकडाउन की वजह से काम बंद हो गया. वे मजबूर हो कर कोलकाता से अपने गांव के लिए पैदल चल दिये. रास्ते में नवादा पहुंचाने के नाम पर 800 रुपए भी लोगों ने ठग लिए. बेगूसराय स्टेशन पहुंचते ही उन का शरीर जवाब दे गया और वे बेहोश हो कर गिर पड़े.

अभिषेक आनंद नामक एक शख्स, जो छात्र संगठन से जुड़े हुए हैं, उन्हें जब मालूम हुआ तो उन्होंने उन के खाने का इंतजाम किया और उन्हें घर तक भिजवाया.

इसी तरह हजारोंहजार लोग महानगरों से बिहार के अपने गांवों के लिए लगातार चल रहे हैं. इन मजदूरों का इन महानगरों से मन उचट गया. वे हर हाल में अपने गांवघर आना चाहते हैं. इन की चाहत है कि अब हम मर भी जाएं तो अपने लोगों के बीच. बहुत से लोग तो रास्ते में ही गाड़ियों से कुचल कर और भूखप्यास से दम तोड़ चुके हैं.

आफताब मुंबई में जरी का काम करता है. आफताब की पत्नी फातिमा ने बताया, “उन का काम बंद हो गया. जमा किए हुए पैसे भी खत्म हो गए. मेरे पास फोन किया. किसी तरह कुछ पैसों का इंतजाम कर अकाउंट पर भेजा. अपने कान की बाली गिरवी रख कर 2,000 रुपए भेजे हैं. किसी तरह वे मुंबई से अपने घर के लिए चल दिए हैं.”

हर मजदूर की एक अलग कहानी है. ट्रकों में कंटेनर को पूरी तरह तिरपाल से पैक कर मजदर 5,000 रुपए किराया दे कर भेड़बकरी की तरह आ रहे हैं. कभीकभी तो ऐसा लगता है मानो इन्होंने कहीं डकैती डाली है और अब लुकछिप कर अपनी मंजिल की तरफ जा रहे हैं.

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इतना ही नहीं, ये मजदूर जगहजगह पर पुलिसिया जुल्म के शिकार भी हुए हैं. थके पैर, शरीर जवाब दे रहा है. साथ में बीवी बच्चे भी हैं. बहुत से पुलिस वाले इन मजदूरों के साथ मारपीट, गालीगलौज और करते दिखे.हां, कहींकहीं मदद भी करते पाए गए.

मजदूर और छात्रों के साथ दोहरी नीति

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले तो बोले कि वे मजदूरों और छात्रों को दूसरे प्रदेशों से नहीं लाएंगे. लेकिन विपक्ष और दूसरे राजनीतिक दलों, समाजसेवियों, सोशल मीडिया से जब दबाव बढ़ने लगा तो आखिरकार वे तैयार हुए. कोटा से लाए गए छात्रों से भाड़ा नहीं लिया गया, जबकि इन छात्रों के मांबाप भाड़ा दे सकते थे. पर मजदूरों से भाड़ा लिया गया. ट्रेन में मजदूरों के लिए साधारण खाना और छात्रों के लिए बढ़िया क्वालिटी का खाना. पटनादानापुर स्टेशन पर भी 2 तरह का इंतजाम. मजदूर क्वारंटीन सैंटर में 14 दिन रहेंगे, जबकि छात्र अपनेअपने घरों में अलग कमरे में रहेंगे. इस से साफ हो गया कि बिहार की सरकार भी सिर्फ अमीरों के बारे में सोचती है, गरीबों के बारे में नहीं. लेकिन सरकार को यह मालूम होना चाहिए कि ये मजदूर अनदेखी के पात्र नहीं. ये इस देश की तरक्की में बुनियाद का काम करते हैं.

मजदूरों ने खींचा सरकार का ध्यान

महानगरों में फंसे मजदूर सरकार द्वारा जारी हैल्पलाइन पर फोन करते रहे, पर कोई उठाता ही नहीं था. अगर उठाया भी गया तो कोई नोटिस नहीं लिया गया. इन मजदूरों ने अपना दर्द वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाला. एक मजदूर ने एक गीत का वीडियो डाला जो सोशल मीडिया पर काफी मशहूर हो रहा है. :

‘हम मजदूरों को गांव हमारे भेज दो सरकार,

सूना पड़ा घरद्वार.

मजबूरी में हम सब मजदूरी करते हैं,

घरबार छोड़ कर के शहरों में भटकते हैं…’

मजदूरों की बेबस हालत को चित्रकारों ने कागजों पर भी उतार कर लोगों को ध्यान खींचा.

बिहार में क्वारंटीन सैंटरों का हाल

बाहर से आ रहे मजदूरों के लिए 14 दिन तक रहनेखाने का पूरा इंतजाम प्रवासी लोगों के लिए करना है. पर इन सैंटरों पर लूट का बाजार गरम है. सैंटरों के इंचार्ज पदाधिकारी ज्यादा से ज्यादा पैसे बचाने और घटिया इंतजाम करने में जुटे हुए हैं. कई केंद्रों पर मजदूरों द्वारा सड़क जाम करने तक की घटनाएं आएदिन घट रही हैं. बिहार में कई लोगों की मौत भी इन सैंटरों पर हो गई. कुछ जिलों में इन सैंटरों पर पत्रकारों को जाने पर रोक लगा दी गई है, ताकि सच को उजागर नहीं किया जा सके और लूट की छूट लगातार चलती रहे.

अब तो आलम यह हो गया है कि इन सैंटरों पर प्रवासी मजदूरों के लिए जगह नहीं है. गांव वाले लोग इन का अपने घरों में रहने का विरोध कर रहे हैं. ये मजदूर जाएं तो जाएं कहां?

रोहतास जिले के कर्मकीला गांव में दिल्ली से लौटे 2 प्रवासी लोगों का परिवार को क्वारंटीन सैंटर में जगह नहीं मिली. मजबूर हो कर दोनों परिवार के सदस्य बाहर रहने के लिए मजबूर हुए.

आखिर क्यों होता है पलायन

बिहार में उद्योगधंधे नहीं के बराबर हैं. उत्तरी बिहार में जहां लोग हर साल बाढ़ से परेशान होते हैं, वहीं दक्षिण बिहार के लोग सुखाड़ और सिंचाई के उचित साधन नहीं होने की वजह से मार झेलते रहते हैं. कृषक मजदूरों को सालभर काम नहीं मिल पाता. जो पढ़ेलिखे गरीब युवा हैं, वे भूस्वामियों के खेतों में काम करना पसंद इसलिए भी नहीं करते कि उन्हें नीचा देखा जाता है. छोटेमझोले किसानों की खेतीबारी से मुश्किल से लागत कीमत ही निकल पाती है. खेती करना घाटे का सौदा है. खेतीकिसानी में भी मजदूरों को सालभर काम नहीं है. कुछ खास सीजन रोपाईकटाई के समय में मजदूरों की मांग होती है, बाकी दिनों में नहीं, जिस से मजदूर महानगरों की तरफ रुख करते हैं.

नफरत से देखे जा रहे मजदूर

अपने ही गांवघरों में आ रहे महानगरों से इन मजदूरों से कोई बातचीत भी नहीं करना चाहता, बल्कि गांवों में तो लोग इन्हें ‘करोना’ के नाम से बुलाने लगे हैं. इस महामारी ने इन मजदूरों का कचूमर ही निकाल दिया. सरकार, कंपनी, मकान मालिक और अब तो अपनों ने भी दूरी बनानी शुरू कर दी है.

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हसपुरा क्वारंटीन सैंटर में रह रहे मुन्ना कुमार ने बताया, “लोग हम लोगों से नफरत कर रहे हैं. क्या हम लोग उस के पात्र हैं? क्या हम लोग इस बीमारी को विदेशों से लाए हैं? इस में हम लोगों का क्या कुसूर है? बाहर से आए जिन मजदूरों को एक महीने से भी ज्यादा हो गया है और वे पूरी तरह ठीक भी हैं, तो लोग उन्हें काम पर इसलिए नहीं लगा रहे हैं कि उस से कोरोना फैल जाएगा.”

किस तबके के लोग करते हैं पलायन

बिहार से पलायन तो सभी तबके के लोग करते हैं, लेकिन महानगरों की कंपनियों में ज्यादातर मजदूर दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग के होते हैं. ऊंची जाति के लोग इंजीनियरिंग समेत दूसरी तरह की टैक्निकल डिगरी की वजह से कंपनियों में अच्छे पदों पर होते हैं. उन का कंपनियों में भी दबदबा चलता है. निचले तबके के लोगों का हर जगह शोषण होता है.

जो लोग टैक्निकल डिगरीधारी हैं और बड़े महानगरों में बड़ीबड़ी कंपनियों में काम करते हैं, उन्हें कंपनी का मालिक आज भी तनख्वाह दे रहा है. उन के पास सारी सुखसुविधाएं हैं. इस लौकडाउन में वे आज भी महफूज हैं.

गुजरात में फोर्ड कंपनी में इंजीनियर के पद पर काम कर रहे बिहार के औरंगाबाद जिले के सुधीर कुमार और प्रैस्टिसाइज कंपनी अंकलेश्वर, गुजरात में अकाउंट्स मैनेजर अनिल कुमार रंजन ने बताया कि जब तक लौकडाउन चलेगा तब तक कंपनी बैठा कर पेमेंट देगी. जल्द ही कंपनी चालू होने वाली है.

सरकार क्या चाहती है

सरकार चाहती है कि किसी तरह मजदूर रुक जाएं. फैक्टरी चालू हो जाएं, ताकि सरकार और पूंजीपतियों का गठजोड़ जारी रहे. लेकिन इन कंपनी मालिकों, मैनेजरों और ठेकेदारों की गलत मंशा की वजह से इन मजदूरों का मन उचट गया है. हर हाल में मजदूर अपने गांवघर आना चाहते हैं. इन का अब रुकना मुश्किल हो गया है. बहुत सारी कंपनियां चालू कर दी गई हैं. मजदूर कम होने की वजह से जो मजदूर काम में लगे हैं उन्हें ज्यादा काम करना पड़ रहा है. इसी बीच कई राज्यों में श्रम संशोधन कानून लागू कर मजदूरों से 8 घंटे की जगह 12 घंटे काम लेने की कवायद तेज हो गई है.

हिंदू राष्ट्र बनाने वाले कहां हैं

कोरोना महामारी के चलते देश जल रहा है. देश की जनता पर संकट का पहाड़ टूट पड़ा है. इस जनता की मेहनत की कमाई से मंदिर रोशन होते थे. मंदिरों में भगवानों का तरहतरह का सिंगार किया जाता था. आज ऐसे भगवान संकट की घड़ी में अवतार ले कर उन की मदद करने क्यों नहीं आ रहे हैं? इन मेहनतकशों की अरबोंखरबों की मेहनत की कमाई को पाखंडरूपी भगवानों की दुकानदारी से लूटने वाले आज कौन से बिल में घुस गए हैं? वे उन की मदद के लिए आगे क्यों नही आ रहे हैं? हाईवे पर हर किलोमीटर पर मंदिर हैं, लेकिन इन प्रवासियों को उन मंदिरों पर पानी पीने का इंतजाम नहीं है. जो अपने आप को स्वयंसेवक कहते हैं, अपने आप को हिंदुओं के रक्षक कहते हैं, आज वे कौन से बिल में घुस गए हैं? आज देश की करोड़ों जनता सड़क पर संकट से जूझ रही है. लोगों पर संकट का ऐसा पहाड़ टूटा है कि वे हर तरह से मजबूर हो चुके हैं .लेकिन देश को लूटने वाले ऐसे लोग जो अपने आप को देशभक्त कहते हैं, वे कहां हैं? आज लोग भूखेप्यासे तड़पतड़प कर सड़क पर दम तोड़ रहे हैं, पर इन पाखंडियों का दिल जरा सा भी नही पसीज रहा है .इस से पुष्टि होती है कि ये लोग भारतीय लोगों को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करते हैं. अगर यह संकट मंदिर, पुजारियों पर या उन से जुड़े दूसरे लोगों पर आता तो पूरा देश हिल जाता, पूरी सरकार हिल जाती, लेकिन इन गरीबों की मदद के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है. आगे वे लोग आ रहे हैं, जिन से उन का नाता कभी नही रहा है. जैन, बौद्ध और सिख लोग तनमनधन से इन गरीबों की मदद कर रहे हैं, लेकिन जो अपने आप को देशभक्त कहते थे, हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करते थे, अपने आप को हिंदुओं के ठेकेदार कहते थे, वे राष्ट्रभक्त किस बिल में घुस गए हैं? इन मनुवादी लोगों में कोरोना का इतना डर घुस गया है कि ये लोग इन गरीबों को एक गिलास पानी तक देने के लिए तैयार नही हैं. रास्ते में ज्यादातर ढाबे और मंदिर इन्हीं के हैं, पर मजदूरों को मंदिर और ढाबों के पास तक नही फटकने दिया जा रहा है.

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हम कैसे कह सकते हैं कि ये ब्राह्मणी सोच के लोग और उन की सरकार भारत की जनता की शुभचिंतक है? इन के लोग जो विदेशों में पढ़ रहे थे और नौकरी या कारोबार कर रहे थे, उन को करोड़ों रुपए खर्च कर के सरकार ने विदेशों से तुरंत हवाईजहाज से लिवा लिया. इन्होंने मानव कल्याण हेतु काम कभी नहीं किए हैं, हमेशा जनता का शोषण किया है.

भगवान और अल्लाह भी नहीं आए काम

प्रबुद्ध भारत समाज के संस्थापक और भाकपा माले के विधायक रह चुके केडी यादव ने कहा कि कोरोना के कहर ने धार्मिक ढकोसलों को उजागर कर के रख दिया. काबा से ले कर काशी तक सभी धार्मिक स्थलों पर ताला जड़ दिया गया. जिन ईश्वर और अल्लाह को याद करने के लिए पूजापाठ, रोजानमाज सबकुछ करते थे, वे आज इन बुरे हालात में काम नहीं आए. अब तो इस देश के नेताओं की आंख की पट्टी खुलनी चाहिए. इस देश को धार्मिक स्थलों की नहीं, बल्कि बल्कि अस्पतालों और स्कूलों की जरूरत है.मंदिरोंमसजिदों को हमेशा के लिए बंद कर उन में स्कूल, लाइब्रेरी और अस्पताल खोल दिए जाएं. इन धार्मिक संस्थानों में बंद पड़े अकूत पैसे को गरीबों के बीच बांट दिया जाए. यह सभी लोग जानते हैं कि इस महामारी का इलाज भी विज्ञान के द्वारा ही मुमकिन है. जिस तरह से चेचक, प्लेग, हैजा जैसी महामारी पर हमारे वैज्ञनिकों ने कामयाबी हासिल की है, उसी तरह से कोविड 19 का भी निदान विज्ञान द्वारा ही मुमकिन है.

बिहार आए ज्यादातर मजदूर दोबारा लौट कर महानगरों में जाने के नाम पर इनकार करते हुए बोल रहे हैं कि किसी भी हाल में अब नहीं जाएंगे. लेकिन काफी तादाद में आए इन मजदूरों

को बिहार सरकार रोजगार दिलवा पाएगी? फिलहाल उम्मीद तो नहीं दिखती, लेकिन आने वाला समय ही बताएगा आगे क्या होगा?

जिन के खूनपसीने की कमाई से दुनिया की सारी बेशकीमती चीजें बनीं हैं. बड़ी इमारतें, लंबी सड़कें, पुल यानी आप जो भी विकास देख रहे हैं, उस में मजदूरों का बड़ा हाथ है. जिन हाथों ने दुनिया को खूबसूरत बनाया उन्हीं हाथों को तुम काटने पर उतारू हो गए. मजदूरों की अनदेखी का यह दंश इस देश को झेलना पड़ेगा.

इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जब भी कोई महामारी या आपदा आई है, सब से ज्यादा प्रभावित यही गरीब तबका होता है. इस तबके के लोगों को भी इन चीजों से सीख ले कर नयापन लाने की जरूरत है. अगर नहीं सुधरे तो हालात बद से बदतर हो जाएंगे.

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Lockdown में घर लौटती मजदूर औरतों की मुसीबत

लौकडाउन के चलते देश के बड़े शहरों से अपने गांव लौट रहे मजदूरों में सब से ज्यादा मुसीबतें  महिला मजदूरों को झेलना पड़ी हैं. दुधमुंहे बच्चों को अपनी छाती से चिपकाए चुभती धूप में महिलाएं यही आस लिए पैदल चल रही हैं कि जल्द अपने घर पहुंच सकें. सरकारों की बद‌इंतजामी और अनदेखी से इन महिला मजदूरों का दर्द तब और बढ़ जाता है जब उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिलती हैं.

14 म‌ई, 2020 को मध्य प्रदेश में गर्भवती मजदूर महिलाओं के प्रसव की घटनाओं ने तो सरकारी योजनाओं की पोल खोल कर रख दी. गुजरात से बस में आई बड़वानी जिले की सुस्तीखेड़ा गांव की महिला मजदूर को प्रसव पीड़ा होने पर एंबुलैंस और जननी सुरक्षा ऐक्सप्रैस वाहन का इंतजाम तक न हो सका. तहसील के एसडीएम की दरियादिली ने अपने वाहन से महिला को अस्पताल तो भेज दिया, पर दर्द से कराहती महिला को समय पर डाक्टर न मिलने से प्रसव वाहन में ही हो गया.

इसी तरह राजगढ़ जिले के ब्यावरा में मुंबई से उत्तर प्रदेश जा रही एक 30 साल की गर्भवती महिला कौशल्या ने ट्रक में ही बच्चे को जन्म दे दिया. उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिला बस्ती के मनोज कुमार मुंबई से पैदल तो निकल पड़े, लेकिन रास्ते में गर्भवती पत्नी की हालत देख कर ट्रक में किराया दे कर चले तो मध्य प्रदेश के ब्यावरा में दर्द बढ़ा तो ट्रक में ही महिला की डिलीवरी हो गई. जैसेतैसे मनोज पत्नी को बच्चे समेत अस्पताल  ले कर पहुंचे, लेकिन अस्पताल में कोई खास इंतजाम न होने से उन्हें  राजगढ़ के जिला अस्पताल रैफर किया गया.

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प्रदेश में स्वास्थ्य योजना का ढोल पीटने वाली सरकारों की जमीनी हकीकत यह है कि आजादी के 73 सालों के बाद भी वे गांवकसबों के अस्पतालों में महिला डाक्टर तक का इंतजाम नहीं कर पाई हैं.

महिला मजदूरों के लिए लौकडाउन ने जो मुश्किलें बढ़ाई हैं, वे भी किसी त्रासदी से कम नहीं हैं. ट्रक, लोडिंग वाहन,आटोरिकशा में भेड़बकरियों की तरह यात्रा के लिए मजबूर 2-4 महिला मजदूर अपने छोटे बच्चों के साथ 40-50 मर्दों के समूह में सफर करती हैं, तो उन की परेशानियाें को तवज्जूह ही नहीं मिलती. ड्राइवर अपनी तेज रफ्तार से गाडी भगाने की जल्दबाजी में रहता है, अगर महिला को पेशाब के लिए भी रुकना है तो संकोच के मारे नहीं कहेगी, क्योंकि उसे भी घर जल्दी पहुंचना है और एक अकेली महिला के लिए ड्राइवर गाड़ी रोकने की हिमाकत करता भी नहीं है.

जब कभी सड़क पर ट्रक रुकता भी है, तो जरूरी नहीं कि ऐसी जगह महिला शौचालय मिल ही जाए. कहीं भी किसी भी पेड़ के बगल में, खेत की मेंड़ पर सड़क के किनारे उन्हें बैठना पड़ता है. क‌ई बार ट्रक रुकते ही धड़ाधड़ सारे मर्द मजदूर उतरते हैं और शुरू हो जाते हैं, पर वे 2-4 महिलाएं सिकुड़ी सी उसी ट्रक या  बस के कोने में मन मसोस कर अपने वेग को रोके रखती हैं.

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ऐसे संकट के वक्त में अगर किसी महिला को माहवारी शुरू हो जाए तो परेशानी और भी बढ़ जाती है, क्योंकि उन के पास 2 जोड़ी कपड़े से ज्यादा कपड़े नहीं हैं. एक कपड़े की पोटली में ही सारी कमाई है.

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली से मध्य प्रदेश के गांवों में लौट रही एक महिला मजदूर रामवती अपनी पीड़ा बताती है कि सफर में माहवारी के दौरान कितनी मुश्किल हुई थी, लेकिन नरसिंहपुर जिले के नांदनेर पहुंचते ही ‘पैडवुमन’ के नाम से मशहूर माया विश्वकर्मा ने सैनेटरी पैड दिए तो सारी परेशानी दूर हो गई. रामवती के मुताबिक माहवारी के चलते पति का सहयोग भी नहीं मिलता. पति उस की शारीरिक परेशानी को समझने के बजाय उसे रास्ते भर डांटडपट ही लगाता रहा. महिला मजदूरों की परेशानी यही है कि महीनेभर उस के शरीर को नोचने वाला खुद का पति भी माहवारी के 5 दिन उसे अछूत समझ कर झिड़कता रहता है.

प्रवासी भारतीय माया विश्वकर्मा बताती हैं कि पिछले 2 महीने से जबलपुरपिपरिया स्टेट हाईवे नंबर 22 पर उन की संस्था ‘सुकर्मा फाउंडेशन’ मजदूरों को भोजन पानी ,जूताचप्पल के साथ महिला मजदूर के लिए नो टैंशन सैनेटरी पैड का मुफ्त में इंतजाम कर रही है.

गुजरात के सूरत की कपड़ा मिल में काम करने वाली रुक्मिणी ने भी पति और बच्चों के साथ अपना आधा सफर पैदल ही तय किया है. 2 साल की बेटी और 6 महीने के बेटे की जिम्मेदारी के साथ रास्ते में लकड़ी बीन कर ईंटपत्थर का चूल्हा बना कर खाना पकाती है. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले से एक ट्रक ने मंडला तक के लिए 1,500 रुपए सवारी के हिसाब से किराया वसूल किया. ट्रक ड्राइवर और क्लीनर ने उसे बच्चों के साथ आगे केबिन में बिठा लिया. रास्ते में सफर के दौरान उन की गंदी बातों और घूरती निगाहों का सामना करती जैसेतैसे वह घर पहुंच सकी.

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रुक्मिणी जैसी और भी कई महिला मजदूर ऐसी भी होंगी, जिन्हें रात के सफर में मर्दों द्वारा छेड़खानी के अलावा अपनी इज्जत भी गंवानी पड़ी हो. क्या पता घर पहुंचने की जद्दोजेहद में चुपचाप यह दर्द भी सहन करना उन की मजबूरी बन गया हो.

बहरहाल, सरकारी कोशिशों के दावों का सच तो मजदूरों को भी समझ आ गया है. जिस तरह चुनावी रैलियों में झंडा, बैनर पकड़ कर नारे लगाने के लिए जुटाई गई भीड़ में महिलाओं को दिनभर का मेहनताना, खाना देने वाले ‌नेता सड़कों पर कहीं ‌दिखे? प्रजातंत्र की हकीकत यही है कि एक बार जनता से ‌वोट की भीख मांगने वाले नेता पूरे 5 साल सोशल डिस्टैंसिंग यानी सामाजिक दूरी बना कर रखते हैं. नेता जानते हैं कि कम पढ़ेलिखे इन मजदूरों को नोट, कंबल और‌ शराब की बोतलें दे कर बरगलाना आसान काम है.

हमारे समाज में महिला मजदूरों के साथ आज भी बुरा बरताव किया जाता है. अपने परिवार का पेट भरने के लिए ठेकेदारों, राजमिस्त्री और साथी मर्द मजदूरों की बदसुलूकी का शिकार महिलाओं को बनना पड़ता है. महिला आयोग और मजदूर यूनियन में बैठी महिला प्रतिनिधि भी महिला मजदूरों की समस्याओं को साल में एक दिन किसी मीटिंग या सैमिनार में उजागर कर अपने फर्ज को पूरा होना मान लेती हैं. मौजूदा समय में जरूरत इस बात की है कि मर्दों के दबदबे वाली सोच में बदलाव के साथ महिलाओं को उन के हकों के प्रति जागरूक किया जाए तो ही महिलाओं की हालत में सुधार मुमकिन है.

धरातल पर नदारद हैं सरकारी ऐलान

लेखक- धीरज कुमार

मुंबई में 25 साल के सरोज कुमार ठाकुर अपने 2 दोस्तों 20 साल के सोनू कुमार और 23 साल के विकास कुमार के साथ रहते थे. तीनों हास्पिटल में हास्पिटल ब्रदर का काम करते थे. लौकडाउन के बाद वे अपने पैसे से खातेपीते रहे, लेकिन जब पैसा खत्म हो गया तो जिंदगी बचाने के लिए सिर्फ एक ही उपाय था, किसी तरह घर पहुंचना. और फिर उन तीनों ने मिल कर घर जाने का फैसला किया. घर से खाते पर पैसे मंगवाए. किसी तरह वहां से पैदल निकले. कुछ दिन पैदल चलने के बाद उन्हें एक ट्रक वाला मिला जिस ने पहले तो उन्हें लिफ्ट दी लेकिन बाद में उन तीनों से 9,000 रुपए भाड़े के रूप में ले लिए.

ट्रक वाले ने उन्हें बनारस छोड दिया. बनारस से छोटी गाड़ी कर के वे रोहतास, बिहार पहुंचे. घर पहुंचने के बाद शांति महसूस हुई, लेकिन गांव वालों ने गांव के बाहर ही रोक कर क्वारंटीन सैंटर, जो अपने ही पंचायत के सरकारी स्कूल में बना है, वहां जाने का आदेश दिया .अभी वे तीनों कुछ दिन यही रहेंगे. खानेपीने का इंतजाम सरकार द्वारा किया गया है, लेकिन इंतजाम ठीक नहीं है. गांव वाले ऐसे बरताव कर रहे हैं जैसे वे सब अछुत हैं. जिन दोस्तों व परिवार के लिए इतनी मुश्किलें झेलने के बाद जिंदगी पर खेल कर गांव पहुंचे हैं, सभी मिलने से डर रहे हैं. चाहे फिर घरपरिवार के लोग हों या दोस्त.

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डेहरी ब्लौक के पहलेजा गांव के 42 साल के सत्येंद्र शर्मा और 37 साल के संजय शर्मा इंदौर, मध्य प्रदेश में रहते थे. वे वहां फर्नीचर बनाने का काम करते थे. उन का 17 साल का भतीजा इम्तिहान देने के बाद घूमने गया था. वहां काम बंद हो गया. खाने के लाले पड़ने लगे. तीनों ने अपनी मोटरसाइकिल से घर आने का फैसला किया. वे 3 दिनरात मोटरसाइकिल चला कर घर पहुंच गए. सिर्फ रात में कुछ घंटे के लिए पेट्रोल पंप पर सोए. रास्ते में किसी से भी खानापीना तक नहीं लिया, क्योंकि वे काफी डरे हुए थे. अब वे लोग गांव के स्कूल में क्वारंटीन सैंटर पर रह रहे हैं.

दिल्ली में 26 साल के अनुज कुमार, 24 साल के अनूप कुमार और 19 साल के मुकेश प्रसाद कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करते थे. तीनों एक ही गांव के थे. वे कंस्ट्रक्शन कंपनी में मिक्चर मशीन में ड्राइवर और हैल्पर का काम करते थे. तीनों का एक ही मकसद था, पैसा कमा कर घर के लोगों को बेहतर जिंदगी देना. लेकिन वे कभी सपने में भी नहीं सोचे थे कि इस महामारी में फंस जाएंगे और जिंदगी को बचाना भी बड़ा मुश्किल हो जाएगा.

वे तीनों कहते हैं कि अब कभी भी दिल्ली नहीं जाएंगे. जब से महामारी फैली है, वे दहशत में जी रहे थे. जिस तरह से दिल्ली में माहौल बन चुका था, ऐसा नहीं लगता था कि वे कभी घर पहुंच पाएंगे. घर की दहलीज पर आ कर भी वे घरपरिवार से दूर हैं, इस बात का अफसोस रहेगा, लेकिन सिर्फ कुछ दूरी पर घर होने के बाद भी वे लोग फोन से घर का हालचाल ले रहे हैं.

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जब उन से कहा गया कि सरकार तो ट्रेन चला रही है, वहां से मजदूरों को ला रही है तो उन का कहना था कि ट्रेन आप के मोबाइल में चल रही होगी. हम मजदूरों के लिए तो ट्रेन नहीं चल रही है. अगर ट्रेन चल रही होती तो हम पैदल या इस तरह से ट्रक में जानवरों की तरह बैठ कर घर नहीं आते. सुने तो हम लोग भी थे कि मोदीजी विदेश में रहने वाले लोगों को हवाईजहाज से अपने देश वापस ला रहें हैं, पर हम मजदूरों को मरने के लिए छोड़ दिए, क्योंकि हम सब गरीब थे. ऐसी जिल्लत भरी जिंदगी कभी नहीं देखी थी, लेकिन हम लोगों को कोरोना महामारी ने ऐसा दिखा दिया. अब घर पर ही छोटामोटा काम कर लेंगे, लेकिन दोबारा पलट कर वहां कभी नहीं जाएंगे

ये उदाहरण तो सिर्फ बानगी भर हैं. बहुत से लोगो के जिंदगी संकट में पड़ गई थी. बहुत से लोग काफी परेशान थे. परेशानी के इस आलम में जिंदगी बचाना मुश्किल लग रहा था. जो बच कर आए थे वे अपनेआप को खुशनसीब समझ रहे थे. ज्यादातर लोगों का यही कहना था कि जब हम लोग संकट में घिर गए थे, तो ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम लोग इस देश के नागरिक नहीं हैं. लोगों का  बरताव बदल गया था.

उन लोगों का कहना था कि राज्य सरकार के पास इतना इंतजाम नहीं है कि हम सब को रोजगार दे. वर्तमान मुख्यमंत्री हमारे राज्य में 15 साल से शासन कर रहे हैं, लेकिन अभी तक हम बेरोजगारों के लिए कोई इंतजाम नहीं कर पाए हैं. जब हम दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए जाते हैं और पैसा कमा कर अपने राज्य में भेजते हैं, तो हमारे परिवार के लोग उसब्से सामान खरीदते हैं. सरकार उन सामानों पर टैक्स लेती है. क्या उस पैसे से राज्य का विकास नहीं हो रहा है?

बहुत से क्वारंटीन सैंटरों पर इंतजाम इतना खराब था कि कई जगह पर तो मजदूर बगावत भी कर रहे थे. लोग देखरेख करने वाले पर अपना गुस्सा उतार रहे थे. राज्य सरकार की बदइंतजामी का आलम यह था कि लोग कहीं भोजन के लिए परेशान थे, तो कहीं रहने का इंतजाम भी ठीक नहीं था. देखरेख करने वाले शिक्षकों को भी उचित किट नहीं दी गई थी.

डेहरी के पहलेजा पंचायत के सरकारी स्कूल को क्वारंटीन सैंटर बनाया गया है जिस में अलगअलग राज्यों से आए हुए मजदूरों की तादाद 60 है. इसी पंचायत के मुखिया प्रमोद कुमार सिंह ने बताया, “क्वारंटीन सैंटर पर 30 मजदूरों के लिए इंतजाम किया गया है. जिस तरह से राज्य सरकार ने ऐलान किया है, उस तरह सरकारी मुलाजिम इंतजाम करने में कतरा रहे हैं, क्योंकि यहां अफसरशाही ज्यादा है.

“लेकिन गांव का मुखिया होने के नाते मैं अपने खर्च पर लोगों के लिए सब्जी बनवाने और दूसरी तरह के इंतजाम कर रहा हूं, क्योंकि वे लोग हमारे हैं. राज्य सरकार सारी घोषणाएं अखबार में तो कर दी है, लेकिन सुविधाएं धरातल पर नदारद हैं.”

लौकडाउन की घोषणा होने से पहले केंद्र सरकार को मजदूरों के बारे में भी सोचना चाहिए था. जो समस्याएं आज आई हैं, उन के बारे में अगर पहले सरकार सजग होती तो आज जिस तरह से उन के साथ समस्याएं हो रही हैं, वे नहीं होतीं.

सरकार चाहती तो उन मजदूरों को तबाह होने से बचा सकती थी, क्योंकि पहला मामला 22 जनवरी को केरल में मिला था. सरकार को अंतर्राष्ट्रीय सेवाएं बंद कर देनी चाहिए थीं. देश के विभिन्न राज्यों में जो मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे थे, उन्हें सुरक्षित अपने राज्य में जाने की सूचना दी जा सकती थी. केंद्र सरकार ने भी इन मजदूरों के बारे में कुछ नहीं सोचा, क्योंकि ये गरीब परिवार से आते थे. सरकार ने सिर्फ नेताओं ,पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के बारे में सोचा.

अब देखना यह होगा कि इस महामारी के बाद राज्य सरकार आए हुए मजदूरों के लिए क्या इंतज करती है. सरकार ने तो यह घोषणा कर दी है कि सभी मजदूरों को हर महीने 1,000 रुपये खाते में दिए जाएंगे, साथ ही मजदूरों के लिए राशन भी दिया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं लगता है. सरकार की घोषणाएं अखबार में तो खूब दिख जाएंगी, पर धरातल पर नदारद रहती हैं.

आपदा बनी सत्ता के लिए एक अवसर

कहा जाता है कि आपदा अपने साथ मौके ले कर आती है. सत्ता साजिशों में कामयाब होती है, तो उन्हें अपने लिए मौकों में तबदील कर लेती है और जनता जागरूक व लड़ाकू होती है तो हालात को अपने मुताबिक ढाल लेती है.

भारत के लिहाज से आज के हालात देखें तो सत्ता इस कोरोना रूपी आपदा को मौके में तबदील करती नजर आ रही है. सरकारों ने लौकडाउन के बीच नियम बनाया कि 33 फीसदी से ले कर 50 फीसदी तक लोग काम कर सकते हैं, मगर साथ में श्रम कानूनों में बदलाव कर के काम के घंटे 8 से बढ़ा कर 12 कर दिए हैं यानी तैयारी ऐसी कि जो मजदूर पलायन कर के जा रहे हैं, उन में से 50 फीसदी के लिए दोबारा आने के दरवाजे बंद हो जाएंगे. कम वेतन में ज्यादा काम करवाने का इंतजाम कर लिया गया है.

भारत में  43 करोड़ मजदूर हैं, जिन में से तकरीबन 39 करोड़ असंगठित क्षेत्र से हैं. मतलब साफ है कि तकरीबन 18 करोड़ मजदूरों की नौकरी जा सकती है. सरकार ने 40,000 करोड़ रुपए मनरेगा के लिए अतिरिक्त आवंटित किए हैं, ताकि कुछ दिनों के लिए मजदूर वहीं लग जाएं और उस समय का इस्तेमाल करते हुए पूंजीवादी मौडल को दुरुस्त कर लिया जाए.

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विदेशों से लाखों लोग हवाईजहाजों से लाए गए व विभिन्न राज्यों में फंसे पैसे वाले परिवारों के छात्रों को एसी बसों से घर लाया गया, मगर मजदूरों की गांव वापसी की राहों में कांटे बिछा कर डरावना अनुभव करवाया जा रहा है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कह रही हैं कि विपक्ष राजनीति कर रहा है, राज्य सरकारें अतिरिक्त ट्रेनों की मांग क्यों नहीं कर लेतीं? वित्त मंत्री को पता है कि सब से बुरी हालत मध्य प्रदेश, बिहार व उत्तर प्रदेश के मजदूरों की हो रही है और तीनों राज्यों में इन की ही सरकार है, मगर वे विपक्ष पर आरोप लगाते हुए कह रही हैं कि पलायन करने वालों की पीड़ा पर राजनीति नहीं करनी चाहिए.

सरकार ने बड़ी चतुराई के साथ राहत पैकेज को पूंजीवादी मौडल को दुरुस्त करने की तरफ बढ़ा दिया और बातें किसानमजदूर की हो रही हैं. फिजाओं में स्वदेशी अपनाओ व आत्मनिर्भर सरीखे जुमले फेंक कर विदेशी निवेश की सीमा बढ़ा दी गई और यहां तक रक्षा उद्योगों तक मे 50 फीसदी से ज्यादा के निवेश की अनुमति दे दी गई यानी अब हमारे लिए रक्षा उपकरण बनाने वाली कंपनियों पर मालिकाना हक विदेशियों का होगा.

लाजिम है जो करोड़ों मजदूर शहरों से गांवों में गए हैं तो उन का आर्थिक भार गांवों को ही उठाना होगा और जो मनरेगा में 40,000 करोड़ रुपए अतिरिक्त दिए हैं, वे कुछ दिन मजदूरों को थामने का लौलीपौप मात्र है. किसानों को अतिरिक्त कर्जे की जो घोषणा हुई है वह किसानों को कर्ज में डुबोने वाली साबित होगी. बड़े लुटेरों के लिए दिवालिए कानून पर एक साल के लिए रोक लगा दी गई, मगर किसानों की जमीनों की कुर्की पर कोई रोक नहीं लगाई गई है. संकेत साफ है कि नई कृषि नीति के तहत कंपनियां किसानों की जमीनों पर खेती के लिए निवेश करेंगी और किसान व जो मजदूर फ्री किए गए हैं, दोनों मिल कर खेतों में मजदूरी करेंगे.

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किसानों व मजदूरों के लिए सत्ता की तरफ से इशारा साफ है कि उद्योगों में कम मैनपावर से ज्यादा श्रम करा कर पूंजी निर्माण करवाया जाएगा और खेतीकिसानी में ज्यादा मजदूर धकेल कर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरीए खेतों पर कब्जा करवाया जाएगा. जब मजदूर व किसान सत्ता की नीतियों से समान रूप से प्रभावित होने जा रहे हैं तो आज अकेले ही मजदूर सड़कों पर क्यों पिट रहे हैं? लुटेपिटे मजदूर आने किसानों के हिस्से में ही हैं तो मजदूरों के साथ अभी किसान एकजुटता दिखाते हुए लड़ क्यों नहीं लेते?

अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि सब्र की भी एक सीमा होती है. गुजरात के राजकोट में मजदूरों के सब्र की सीमा टूट पड़ी और उस की भेंट चढ़ गए मीडिया के लोग. दरअसल, मजदूरों की आवाज न उठाने के चलते लोग मीडिया से भी सख्त नाराज हैं.

Corona : यहां “शिक्षक” नाकेदार हैं 

शिक्षक की हमारे मन में कितनी इज्जत है. कहते हैं शिक्षक दीपक की तरह होता है जो खुद जलकर “रोशनी” फैलाता है. इतिहास में से बढ़कर एक शिक्षक हुए जिन्होंने समाज को दिशा देने में अहम भूमिका निभाई. मगर छत्तीसगढ़  में शिक्षक स्कूलों में ताले लगाकर सरकारी फरमान का निर्वहन करते  आस-पास के गांव में, पेड़ के नीचे, कहीं धूप में नाकेदार बने हुए हैं और करोना काल में आने जाने वालों का हिसाब किताब रख रहे हैं.

दुनिया भर के देशों में फैली कोरोना महामारी (कोविड 19) का असर  छत्तीसगढ़ में भी फैला हुआ है ऐसे में लाॅक डाउन की स्थिति बनी हुई है गांव गांव में लोगों ने नाके और गेट बना कर आवाजाही को रोक दिया है ताकि कोई अनजान व्यक्ति गांव में प्रवेश न कर सके मगर सरकार ने छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में एक फरमान निकाल कर शिक्षकों को गांव गांव के नाको  पर तैनात कर दिया है अब हालात यह है कि स्कूलों में ताले लगे हुए हैं और जो शिक्षक स्कूल में बच्चों को पढ़ाता वह छत्तीसगढ़ सरकार की मेहरबानी से एक अदना सा गेटकीपर बन  कर नाके पर बैठा सरकार की असलियत को उजागर कर रहा है प्रस्तुत है एक खास रिपोर्ट-

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आप हैं हेड मास्टर  राठिया !

और सच  जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती वह सब हमने देखा और आपके लिए लाए हैं वह संपूर्ण  बातचीत वह सारा वीडियो जिसे देख पढ़ कर छत्तीसगढ़ शासन की असलियत को समझ पाएंगे आइए आपको ले चलते हैं छत्तीसगढ़ के जिला रायगढ़ के ग्राम धसकामुड़ा . जहां ग्रामीणों द्वारा बनाए गए  एक नाका दिखाई दे रहा है  यहाँ  एक बुजुर्ग  खड़ा हुआ है. हमने उनसे जानना चाहा आप कौन हैं क्या कर रहे हैं?

उनका जवाब सुनकर हम हैरान रह गए और हमें अपनी व्यवस्था पर शर्म आई. शख्स ने बताया कि वे गांव के प्राथमिक विद्यालय मे हेड मास्टर है.यह है हमारी  नग्न व्यवस्था!  सरकारें शिक्षक के साथ ऐसा ही व्यवहार करती रही है. बुजुर्ग हेड मास्टर ने बताया कि उसका नाम भोजराम राठिया है और वह प्राथमिक शाला धसका  मुड़ा में पदस्थ है. उसके चेहरे के हाव भाव बता रहे थे कि वह अपनी ड्यूटी बड़े ही ईमानदारी से निभा रहा है.हमारा दूसरा प्रश्न  यह था कि  गुरुजी आपको तनख्वाह कितनी मिलती है ? तो उन्होंने बड़े  शालीनता के साथ बताया कि लगभग 74000 हजार  रुपये मासिक वेतन उन्हें मिलता है.

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यह दृश्य यह बताने के लिए पर्याप्त है कि सरकार हमारे शिक्षकों का कितना ख्याल रख रही है.  और सबसे बड़ी विसंगति यह की उन्हें एक  तहसीलदार के लिखित  आदेश पर नाकेदार की ड्यूटी निभानी पड़ रही है. यह संपूर्ण व्यवस्था यह बयां करती है कि किस तरह कोरोना महामारी संक्रमण काल में जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बारंबार ऑनलाइन पढ़ाई की बात कर रहे हैं करोड़ों रुपए  शासन इस पर खर्च कर रहा है मगर इसका  हश्र क्या है उसकी सच्चाई क्या है यहां जमीन पर दिखाई देती है.

भूपेश बघेल की ऑनलाइन पढाई

एक तरफ छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बारंबार यह कहते दिखाई दे रहे हैं कि नौनिहालों को ऑनलाइन शिक्षा देने की व्यवस्था छत्तीसगढ़ सरकार ने की है. इस हेतु  आदेश जारी कर दिए गए हैं मगर लगता है कि  ऑनलाइन का यह  अश्वमेघ का घोड़ा  यहाँ आकर ठहर गया है . यहां शिक्षकों को गांव गांव के नाकों में ड्यूटी पर लगा दिया गया है जो  बेहद बेहद शर्मनाक है.

कोरोना के अंधविश्वास और टोटकों में उलझे ‌लोग

कोरोना वायरस के फैलते संक्रमण के चलते देश में उत्पन्न संकट के वक्त हमारे तौर तरीकों और आचरण ने यह साबित कर दिया है कि हिन्दुस्तान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बजाय अंधविश्वास और धार्मिक रीति रिवाज कितने हावी हैं.
मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले के  ईसागढ़ के कंडेलगंज की चालीस वर्षीय शांतिबाई  की मौत भोपाल के एम्स  में कोरोना संक्रमण की वजह से हो गई. एम्स से सैंपल रिपोर्ट आने के बाद शांतिबाई की मौत की वजह कोरोना संक्रमण बताया गया. लेकिन इस रिपोर्ट के बाद भी मृतका का पति अजब सिंह इस मौत की वजह जादू-टोना बताता रहा. पड़ोसियों की मानें तो पत्नी के बीमार होने पर उसने घर में ही झाड़-फूंक भी कराया. लेकिन शांति बाई की हालत बिगड़ने के बाद उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, लेकिन कोरोना संक्रमण से पीड़ित शांतिबाई को बचाया नहीं जा सका.

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कहा जाता है कि सच जब तक जूते पहनता है, तब तक झूठ पूरी दुनिया का चक्कर लगा आता है. फिलहाल यह हाल  देश के गांव, कस्बों का है ,जहां कोरोना वायरस को लेकर तरह-तरह की अफवाहें फैल रही हैं. 19 मार्च को रात 8 बजे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जैसे ही रविवार 22 मार्च को “जनता कर्फ्यू” के बाद देशवासियों से “थाली-ताली बजाने” की अपील की, वैसे ही  गांव देहातों में क‌ई प्रकार की अफवाहें तेजी से फैलने लगीं.
उत्तरप्रदेश के पिछड़े इलाके के एक गांव रामगढ़वा में अपनी ससुराल में  रह रही  वेदिका बताती कि शाम के समय गांव की महिलाएं स्नान कर पैरों में हल्दी लगाकर देहरी वाली दीवार के दोनों ओर पैरों की छाप लगाती है. और घर में जितने पुरुष सदस्य हैं, उतनी संख्या में दिया जलाती हैं.  घर की बड़ी-बूढ़ी औरतें आजकल हर रोज थाली बजाकर  “कोरोना” को भगाती हैं.
उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जिले के गुरेथा गांव से गुड़ बनाने मध्यप्रदेश आये आत्माराम अब अपने गांव पहुंच गए हैं. मोबाइल फोन पर  हालचाल पूछने पर बताते है कि गांव के पंडित ने यहां लोगों से कहा है कि कोरोना से बचने के लिए घर में हर रोज नियमित पूजा पाठ करना चाहिए.नीम के पेड़ के पास दिया जलाना और पेड़ को दो लोटा जल चढ़ाना, घर की चौखट पर लोहबान (लोबान) और कपूर का दिया रखना है. यही नहीं  घर के बाहर गाय के गोबर से ऊँ नमः शिवाय लिखने और बुजुर्ग महिलाओं से हर शाम थाली बजाने को भी कहा जा रहा है.
मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के क‌ई गांवों में लोग कोरोना को देवी प्रकोप मान रहे हैं.जिले के नवापाड़ा,रोटला, कंजवानी, वागलाघाट, टिकड़ी जैसे दर्जनों गांवों की महिलाएं कोरोना की बीमारी से बचने के लिए देवी-देवताओं की मूर्तियों पर जल और फूल चढ़ा रही हैं . इतना ही नहीं ये महिलाएं पांच से लेकर ग्यारह दिन का उपवास भी रख रही है. दिन भर के उपवास के बाद शाम को महिलाओं द्वारा देवी स्थल पर जाकर बायरस के गांव में न आने की प्रार्थना की जाती है और तभी भोजन ग्रहण करती हैं. महिलाओं का कहना है कि देवी देवताओं को ठंडा रखेंगे तो कोरोना वायरस अपने आप ठंडा हो जायेगा.

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राणापुर ब्लौक के मेडिकल आफिसर डॉ जी एस चौहान  इसे ग्रामीणों को अंधविश्वास बताते हुए कहते हैं कि आदिवासी महिलाएं अपने भोलेपन, अज्ञानता और शिक्षा के अभाव के चलते कही सुनी बातों पर जल्दी यकीन कर‌ लेती हैं.सच तो यह है कि जब धर्म की हिमायती सरकारों और  धर्म के ठेकेदार धर्म गुरुओं, मौलाओं , शंकराचार्यों, संत-महंतों द्वारा कोरोना से बचने जो दलीलें दी जा रही हैं ,उनका अनुकरण तो देश की भोली भाली जनता आखिर करेगी ही .
मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक इलाके में तो‌ पंडे पुजारियों ने‌ यह खबर फैला दी कि तुलसीदास के रामचरितमानस मानस की पुस्तक के सुंदरकांड के पन्नों को उलटाकर देखें. इन पन्नों पर उन्हें  हनुमान जी का बाल मिलेगा, उसे पानी में घोलकर पीने से कोरोना वायरस का कोई असर नहीं होगा . फिर क्या था भेड़ चाल का सिलसिला चला तो गांव के तमाम घरों में हनुमान जी के बालों की खोज शुरू हो गई. आज भी गांव कस्बों में मंगलवार, शनिवार को रामायण के सुंदरकांड का पाठ होता है ,सो रामायण के पन्नों पर पढ़ने वालों के बाल भी मिल गये. इस बाल को  हनुमान जी का प्रसाद मानकर कोरोना भगाने का अभियान शुरू हो गया.
राजस्थान के अजमेर में किशनगढ़ के गांव गुदली में तो एक पुजारी (भोपा) ने  झाड़ फूंक के जरिए कोरोना भगाने का धंधा शुरू कर दिया था. फिर क्या था गांव वालों की भीड़ कोरोना झड़वाने उसके पास आने लगी.यह पुजारी लोगों से दावा करता कि एक वार उसका झाड़ा लगने के बाद कोरोना किसी के पास तक नहीं फटकेगा .कोरोना की मार से जहां लोगों के काम धाम बंद होने से मंदी की मार पड़ रही थी ,वहीं पुजारी की झाड़ फूंक का धंधा चलने लगा और पुजारी को अच्छी खासी चढ़ोत्तरी मिलने लगी. झाड़ फूंक के चक्कर में पुजारी ने न तो लोगों से दूरी बनाई और न ही सुरक्षा उपायों की चिंता की. आखिरकार एक दिन पुजारी खुद ही कोरोना की चपेट में आ गया.जब हालत बिगड़ी तो दरगाह  पुलिस थाने में तैनात पुजारी के भाई ने उसे अजमेर के जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के कोविड वार्ड में भर्ती कराया. जांज में यह पुजारी कोरोना पाज़ीटिव निकला तो पूरे गुदली गांव में प्रशासन ने कर्फू लगा दिया.
देश के बड़े-बड़े अस्पतालों में  जहां डाक्टर अपनी जान की परवाह किए विना कोरोना पीड़ितों की जान बचाने में लगे हैं और रिसर्च सेन्टरों में कोरोना की वैक्सीन खोजने का काम चल रह है , वहीं दूसरी ओर अंधविश्वास पंख लगाकर अपने पैर फैला रहा है. देश के इस तर के हालात देखकर तो नहीं लगता कि इस वैश्विक महामारी से जल्द छुटकारा भारत वासियों को मिलेगा.

भूपेश का छत्तीसगढ़ : नशीले पदार्थ का स्वर्ग!

छत्तीसगढ़ कोरोना महामारी के समयकाल मे नशीले पदार्थों के स्वर्ग के रूप में बदल गया है. प्रदेश के गली कूचे और शहरों, कस्बों में चारों तरफ नशे का व्यापार खुलेआम चल रहा है. यह भूपेश बघेल की प्रशासनिक दक्षता पर यह एक प्रश्न लगाता है और बताता है कि किस तरह प्रशासन की घोड़े पर भूपेश बघेल की लगाम कितनी कितनी ढीली है. छत्तीसगढ़ में चाहे प्रतिबंधित गुटखा, तंबाकू हो या अवैध शराब सब कुछ धड़ल्ले से बिक रहा है. और यह सब इन दिनों मानो किसी नदी में आई बाढ़ की भांति बौराई हुई स्थिति में है.

आपको आश्चर्य होगा कि नशीले पदार्थों की बिक्री और कालाबाजारी सारी सीमाएं तोड़ चुकी है. 5 रूपये का गुड़ाखू यहां 30 रुपए में बिकता है. 30 रूपये का गुड़ाखू छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में 120 रूपये में बेचा जा रहा है. यही हाल विभिन्न कंपनियों के गुटखा आदि का भी हो चुका है. जिससे लोगों को एक तरह से लूटा जा रहा है.सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न तो यह है कि जब सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है तो यह गली गली में, दुकान दुकान में, अबाध गति से कैसे बेचा जा रहा है?

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दरअसल, जिस चीज पर सरकार की निगाहें इनायत अर्थात सरकार की गाज गिरती है, वह चीज ब्लैक में अवैध रूप से बिकने लगती है और भारी कीमत पर बिकती है और जिसे प्रशासन का पूरा संरक्षण रहता है.

ढीली घोड़े की लगाम

खाद्य पदार्थों के अवैध भंडारण, कालाबाजारी एवं बिक्री करने वालों पर प्रशासन सिर्फ दिखावे की कार्रवाई करता है. राजस्व, पुलिस, खाद्य और नगरीय निकायों के अधिकारी छत्तीसगढ़ के एक शहर मुंगेली के शिवाजी वार्ड में एक किराना स्टोर्स के गोदाम में दबिश देते हैं . दुकान से लगभग 30 लाख रूपये की अवैध रूप से भंडारित 48 बोरी (प्रति बोरी 200 पैकेट) राजश्री, गुटखा तंबाकू गुडाखू आदि जप्त होता है जो बताता है कि किस तरह शहरों में अवैध भंडारण जारी है और बिक्री की जा रही है. यह एक छोटा सा उदाहरण एक जिले की एक दुकान का है इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि छत्तीसगढ़ में हालात कितने गंभीर हो चुके हैं.

मुंगेली कलेक्टर डाॅ. सर्वेश्वर नरेंद्र भुरे ने निर्देश दिया की खाद्य पदार्थों के अवैध भंडारण, कालाबाजारी एवं बिक्री करने वालों के विरूद्ध राजस्व, पुलिस, खाद्य और नगरी निकायों के अधिकारियों द्वारा लगातार कार्रवाई की जाए . मगर अधिकारी भी तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज पर दिखावा कर रहे हैं . कृषि उपज मंडी में संचालित एक किराना स्टोर्स में छापा मारा गया. अधिकारियों ने शेखी बघारते हुए बताया कि यहां अधिक दर पर नमक बिक्री की शिकायत मिली थी. किराना स्टोर्स में अवैध रूप से भंडारित 81 बोरी नमक और मंडी गोदाम में भंडारित 47 बोरी नमक जब्त किया गया. दुकान सील कर दुकान संचालक के खिलाफ आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत सख्त कार्रवाई की गई. मगर लाखों करोड़ों की आबादी में चंद दुकानों तक पहुंचकर अधिकारी वर्ग सिर्फ औपचारिकता ही पूरी कर रहा है जमीनी सच्चाई यह है कि गांव गली मोहल्लों में यह सब अपने उफान पर है. ऐसा प्रतीत होता है कि भूपेश बघेल का अंकुश भोथरा हो चुका है.

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एक नजीर यह भी

अधिकारियों द्वारा एक नमकीन फैक्टरी मे छापेमारी की कार्रवाई की गई. छापेमारी के दौरान फैक्टरी में सिलौनी निर्माण के लिए उनके कर्मचारी द्वारा बिना मास्क लगाये पैर से मैदा को मिलाया जा रहा था और सिलौनी को तला जा रहा था. फैक्टरी में साफ-सफाई का भी अभाव था. सिलौनी के पैकिंग में न ही निर्माण कम्पनी का नाम और न तिथि, वैधता तिथि और न ही दर का उल्लेख किया गया था. इनके विरूद्ध प्रकरण पंजीबद्ध कर वैधानिक कार्रवाई की गयी .

इसी तरह एक अन्य किराना स्टोर्स द्वारा टाटा नमक की खुदरा मूल्य 18 रूपये प्रति पैकेट को 60 रूपये प्रति पैकेट की दर से बेचा जा रहा था. इनके विरूद्ध भी कार्रवाई करते हुए 25 हजार रूपये की जुर्माना लगाया गया . एक एजेसीं द्वारा सोशल डिस्टेसिंग का पालन नहीं करने पर एक हजार रूपये और छापामारी कार्रवाई के दौरान एक पान मसाला के दुकान में अवैध रूप से गुटखा और पान मसाला बिक्री करने पर 20 हजार रूपये की जुर्माना किया गया .

इसके अलावा नाप तौल विभाग द्वारा भी छापेमारी की कार्रवाई जारी है . छापेमारी के दौरान एक ट्रेडर्स द्वारा इलेक्ट्रानिक मशीन का सत्यापित नहीं करने पर उसके विरूद्ध दो हजार रूपये की जुर्माना किया गया. यह सब कार्रवाई बेहद अल्प रूप में हो रही है और अधिकांश जगह तो संबंधों व दबाव के कारण जुर्माना राशि वापिस भी की गई है. यही नहीं यह सत्य भी प्रकट हुआ है कि चंद दिनों में पांच लाख रुपए कमाने वाले पर अगर 20 हजार का जुर्माना लग गया तो वह खुश है. क्योंकि उसने लाखों रुपए तो कमा कर तिजोरी भर ही ली हैं.

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Corona Virus : मैं जिंदा हूं

  • कोरोना और लॉक डाउन की वजह से जिंदा हुआ 3 साल पहले मरा हुआ सख्स..
  • तीन साल पहले मृत सामझ परिजनों ने किया था अंतिम संस्कार..
  • मृत समझकर नाबालिक के नरकंकाल को किया था अंतिम संस्कार..
  • 3 साल बाद आया वापस, उलझा अज्ञात नर कंकाल को जलाने का मामला..

“कोरोना काल में जिंदा हुआ कंकाल, 3 साल पहले हुई थी मौत, बेटा समझकर कंकाल का किया अन्तिमसंस्कार और तेरहवीं, अब लॉक डाउन में लौट आया बेटा तो मचा हड़कंप सब पहुंचे थाने, ये ज़िंदा है तो मरा कौन था..”

छतरपुर: लॉकडाउन होने के चलते तीन साल पहले अपने पुत्र को मृत समझकर अंतिम संस्कार करने के बाद बीते रोज वह अपने परिजनों के घर पहुंचा. जिसेे देख किशोर के माता पिता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा जहां इसकी जानकारी पुलिस को दी गई.

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कोरोना काल में ‘जिंदा’ हुआ कंकाल..

कोरोना काल में एक तरफ जहां लोगों की मौत हो रही है वहीं दूसरी तरफ बिजावर में एक कंकाल जिंदा हो गया. जहां एक तरफ इस महामारी से लोगों की मौतें हो रहीं हैंतो वहीं दूसरी ओर इस बीमारी और लॉक डाउन की वजह से एक मरा हुआ शख्स जिंदा अपने घर वापस आ गया है. इस ख़बर से लोगों में कौतूहल है तो वहीं पुलिस प्रशासन हैरान परेशान है कि अब क्या करे.

क्या है पूरा मामला..

जिले के प्राकृतिक स्थान मोनासैया के जंगल में 3 साल पहले एक नर कंकाल मिला था कपड़ों की पहचान को लेकर पुलिस ने एक व्यक्ति को सौंप दिया था जिसका पुत्र गायब था और परिजनों ने जनसमूह की उपस्थिति में उस नर कंकाल को अपना पुत्र समझकर अंतिम संस्कार कर दिया था. लेकिन मामले में उस समय नया मोड़ आ गया जब वही नाबालिक जिसको मृत समझकर 3 वर्ष पूर्व अंतिम संस्कार किया गया था.

उक्त युवक दिल्ली से रविवार की रात अपने घर वापस आया. जानकारी के अनुसार शाहगढ थाना क्षेत्र के डिलारी गांव निवासी उदय कुमार आदिवासी पिता भगोला आदिवासी (13) वर्ष गायब हो गया था. जिसमें थाना पुलिस ने फरियादी भगोला की शिकायत पर पुलिस ने धारा 363 का मामला दर्ज किया था और तभी से पूरे मामले की जांच थाना पुलिस द्वारा की जा रही थी और संदेह के आधार पर कई लोगों से पूछताछ भी की गई थी.

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वहीं इसी दौरान मोनासैया के जंगल में एक नरकंकाल मिलने पर पुलिस ने भगोला को सौंप दिया और उसने अपने पुत्र का नरकंकाल समझकर अंतिम संस्कार और दिन तेरहवीें कर दी थी. इसके बाद बीते दिनों से जारी लॉकडाउन होने से रविवार की रात वही नाबालिक उदय कुमार अपने घर वापस आ गया.

उदय कुमार आदिवासी ने बताया कि वह घर से परेशान होकर 3 वर्ष पूर्व दिल्ली चला गया था. उसके बाद गुडग़ांव में 3 वर्ष से काम करके अपनी गुजर बसर कर रहा था. लेकिन कोरोना वायरस के चलते पिछले 2 माह से काम बंद होने से वह परेशान हो गया था और सभी मजदूरों को प्रशासन की देख-रेख में अपने-अपने गांव वापस भेजने का प्रबंध किया जा रहा था. इसी दौरान उदय कुमार आदिवासी भी रविवार को किसी तरह अपने गांव डिलारी पहुंच गया और परिजनों से जा मिला.

किशोर के पिता भगोला ने बताया कि इसकी सूचना उसने थाना पुलिस को दी और सोमवार को पूरे परिजन और खुद उदय कुमार एस.डी.ओ.पी. कार्यालय बिजावर पहुंचे. जहां जांच पड़ताल के बाद पुलिस ने उदयभान को परिजनों के सुपुर्द कर दिया.

किसके कंकाल का किया गया था अंतिम संस्कार..

3 साल पहले अज्ञात नर कंकाल को उदय कुमार का कंकाल समझ कर परिजनों द्वारा अंतिम संस्कार किया गया था. लेकिन वह किसका था, पुलिस द्वारा इस मामले में जांच करने की बात कह रही है.

थाना प्रभारी छत्रपाल सिंह ने बताया कि जब उदय कुमार वापस लौट आया है तो निश्चित ही वह नर कंकाल किसी अन्य का होगा. इसयकी जांच कराई जाएगी.

इनका कहना है..

SDOP बिजवार सीताराम की मानें तो तीन साल पहले गायब व्यक्ति वापस आया है, जिससे परिजनों में खुशी की लहर है. वहीं जो नर कंकाल वहां पर मिला था इसकी जांच कराई जाएंगी. जांच के बाद भी मामले में स्पष्ट जानकारी हो सकेगी.

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मामला चाहे जो भी हो पर हैरानी इस बात की है कि जो मर चुका था वो जिंदा वापिस आ गया पर जो मरा था आखिर वो कौन था.

अब पुलिस भी हैरान है कि जिस युवक को मरा हुआ समझकर 3 साल पहले कंकाल का अन्तिमसंस्कार कर फाइल बंद कर दी थी. अब वो फिर से खोलनी पड़ेगी. कि आखिर मरा कौन था.

हालांकि ऐसे में पुलिस की कार्यप्रणाली पर बड़े सवाल भी खड़े हो रहे हैं. और अब पुलिस कंकाल मिलने वाले केस की फाईल दोबारा खोलने की तैयारी कर रही है.

कोरोना: छत्तीसगढ़-मध्य प्रदेश मे “भारत-पाक” का बॉर्डर!

कोरोना विषाणु महामारी से दुनिया के 112 देश  त्राहिमाम कर रहे हैं. कोरोना के दंश से आम जनता कितनी पीड़ित है यह  बार-बार  उजागर हो रहा है. इस दरमियान जहां संवेदनशीलता की कई खबरें आ आ रही है वहीं कुछ  घटनाएं झकझोर देने वाली भी हो रही है.  इस दरमियान छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के बॉर्डर पर एक ऐसी घटना घटी है जो शायद दो देशों के बीच ही घटित हो सकती है.छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश राज्य  कोरोना महामारी के कारण ऐसा व्यवहार कर रहे हैं मानो यह अपने आप में अलग अलग हों. और दूसरे प्रदेश के नागरिकों से उसका कोई सरोकार ना हो. छत्तीसगढ़ सरकार की हठधर्मिता के कारण कहें या अधिकारियों की नासमझी कि एक बुजुर्ग की मौत बॉर्डर पर  इसलिए हो गई क्योंकि अधिकारियों ने उन्हें रोक इलाज के लिए हॉस्पिटल नहीं जाने दिया दिया. जबकि परिजन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही राज्यों में निवास करते हैं उनके पास विधिवत ई- पास भी था. बुजुर्ग इलाज के अभाव में बॉर्डर पर ही मौत का ग्रास बन गया.

कोरोना का भय!

मध्य प्रदेश में कोरोना  महामारी के कारण हाहाकार मचा हुआ है. मगर छत्तीसगढ़ इससे एक तरह से बहुत कुछ  सुरक्षित  है. आंकड़ों के मुताबिक अभी तक छत्तीसगढ़ में एक भी कोरोना पॉजिटिव की मृत्यु नहीं हुई है.

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ऐसे में छत्तीसगढ़ का सत्ता प्रतिष्ठान कुछ ज्यादा ही कड़ाई करने पर उतारू हो गया है. छत्तीसगढ़ की सीमाओं को सील कर दिया गया है. परिणाम स्वरूप दूसरे  पड़ोसी प्रदेश के लोग यहां नहीं आ पा रहे उनमें ऐसे लोग भी हैं जो छत्तीसगढ़ के ही रहवासी हैं. मगर नियम कायदों का हवाला देकर रोका जा रहा है परिणाम स्वरूप एक बुजुर्ग केशव मिश्रा  की बॉर्डर पर इलाज के अभाव में मृत्यु हो गई. दरअसल यह घटना

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मनेन्द्रगढ़ के समीप घुटरीटोला बैरियर में घटित हुई जहां बुजुर्ग के परिजनों द्वारा  बीमार को इलाज के लिए ड्यूटी पर तैनात अफसरों से छत्तीसगढ़ से मनेंद्रगढ़ स्थित सेंटर हॉस्पिटल जाने की अनुमति मांगी जा रही थी. मगर संवेदनशील कहे जाने वाली भूपेश सरकार के अधिकारी और कारिंदों ने उन्हें घंटों रोक रखा, वे रोते और गिडागिड़ाते रहे जिसकी वीडियो भी वायरल हो चुका हैं.  नतीजा यह हुआ कि 70 वर्षीय बुजुर्ग की बेरियर के निकट एक कार में अचानक  मौत हो गई.

कई प्रदेशों की सीमाएं हैं छत्तीसगढ़ से लगी

वस्तुतः राकेश और उसके भाई निलेश मिश्रा एसईसीएल  कोल इंडिया के कोरबा खदान में कार्यरत हैं. मंगलवार को अपने बीमार पिता केशव मिश्रा 70 वर्ष का उपचार कराने कार के द्वारा दोनों भाई उमरिया, मध्य प्रदेश से बिलासपुर जा रहे थे. इसी बीच रास्ते में बुजुर्ग केशव की तबियत अचानक बिगड़ने लगी.दोनों भाइयों ने सोचा कि पास मनेंद्रगढ़, छत्तीसगढ़  में एसईसीएल का सेंट्रल हॉस्पिटल है जहां उनका उपचार कराया जा सकता है. घुटरी टोला बैरियर में पहुंचने के बाद राकेश और नीलेश ने बैरियर में तैनात पुलिसकर्मियों और अधिकारियों से विनती की उन्हें पिता के उपचार के लिए सेंट्रल हॉस्पिटल तक जाने की परमिशन दे दी जाए. लेकिन लाकडाउन के चलते ड्यूटी में तैनात  अफसरों ने छत्तीसगढ़ का परमिशन न होने का हवाला देकर उन्हें मना कर दिया. दोनों भाई और उनकी बुजुर्ग  माता के रोने-गिड़गिड़ाने का भी इन कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा.

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नतीजा यह हुआ कि बुजुर्ग की हार्टअटैक से कार में ही मौत हो गई.जिसके बाद दोनों भाइयों का रोना बिलखना आरम्भ हो गया.  घटना की जानकारी मिलते ही मदद की और रिश्तेदार भी वहां आ पहुंचे और उन्होंने जमकर हंगामा मचाया. मामले की जानकारी फैलते ही कई अधिकारी भी घुटरी टोला बेरियर पर पहुंच गए मगर मानो उनके भी हाथ बंधे हुए थे . यहां यह बताना लाजमी होगा कि छत्तीसगढ़ एक ऐसा प्रदेश है जिसके साथ मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा ,आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे देशों की सीमाएं सीधे-सीधे लगी हुई है.

जब सड़क किनारे ही एक महिला ने दिया बच्चे को जन्म

जब से लौकडाउन लगा है मजदूरों की स्थिति बेहद भयावह हो गई है. इन की दर्दनाक घटनाएं आएदिन समाचारों की सुर्खियां बनती जा रही हैं.

लौकडाउन के बाद जहां मजदूरों को भूखे पेट रहने पर मजबूर होना पङ रहा है, वहीं अपने गांव जाने की छटपटाहट में ये जानलेवा घटनाओं के भी शिकार हो रहे हैं. सरकारी प्रयास पर्याप्त साबित नहीं हो पा रही, ऐसे में दूसरे राज्यों में फंसे मजदूर हजारों किलोमीटर तक का सफर पैदल ही तय कर रहे हैं.

हाल ही में महाराष्ट्र के अहमदाबाद में 16 मजदूरों की मौत ट्रेन से कट कर हो गई थी और हालात ऐसे हो चुके हैं कि अब तो मजदूरों की दर्दभरी कहानियां देखसुन कर रौंगटे खड़े हो जा रहे हैं.

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इस बीच मजदूरों से जुङी एक घटना दिल को झकझोर देने वाली है.

एमपीमहाराष्ट्र के बिजासन बौर्डर पर नवजात बच्चे के साथ पहुंची महिला मजदूर की कहानी बेहद दर्दनाक है.

बच्चे के जन्म के 1 घंटे बाद ही उसे गोद में ले कर महिला 160 किलोमीटर तक पैदल चल कर बिजासन बौर्डर पर पहुंची.

वह गर्भ से थी और जाना 1 हजार किलोमीटर दूर था

शकुंतला नाम की एक महिला अपने पति के साथ नासिक में रहती थी. गर्भावस्था के 9वें महीने में वह अपने पति के साथ नासिक से सतना के लिए पैदल निकली. नासिक से सतना की दूरी करीब 1 हजार किलोमीटर है.

रास्ते में चलते हुए उसे लेबर पेन हुआ तो साथ चल रहे पति और दूसरे लोगों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उधर महिला दर्द से तङपने लगी थी. पति की स्थिति बेहद खराब थी. जेब में फूटी कौङी भी नहीं था.

हालात इतने खराब हो गए कि बिजासन बौर्डर से 160 किलोमीटर पहले सड़क किनारे ही महिला ने बच्चे को जन्म दिया.

पुलिस वाले भी हैरान रह गए

शनिवार को महिला बिजासन बौर्डर पर पहुंची तो उस के गोद में नवजात बच्चे को देख चेकपोस्ट की एक महिला इंचार्ज उस के पास जांच के लिए पहुंची. उन्हें लगा कि महिला को मदद की जरूरत है. उस के बाद उस से बात की, तो कहने को कुछ शब्द नहीं थे.

महिला 70 किलोमीटर चलने के बाद रास्ते में मुंबई-आगरा हाइवे पर बच्चे को जन्म दिया था. इस में 4 महिला साथियों ने मदद की थी.

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महिला की बातों को सुन कर पुलिस टीम अवाक रह गई. महिला ने जब यह बताया कि वह बच्चे को जन्म देने तक 70 किलोमीटर पैदल चली थी, तो पुलिस वालों का दिल भी पसीज गया.

जन्म देने के बाद भी निकल पड़ी पैदल

आश्चर्य तो यह भी है कि बच्चे को  जन्म देने के बाद वह महिला 1 घंटे सड़क किनारे ही रुकी और फिर दोबारा पैदल चलने लगी. बच्चे के जन्म के बाद वह बिजासन बौर्डर तक पहुंचने के लिए 160 किलोमीटर पैदल चली.

महिला के पति की लौकडाउन के बाद नौकरी छूट गई थी और जेब में फूटी कौङी भी नहीं थी. ऐसे में उस ने पैदल ही सतना जाने की सोची. दिक्कत यह थी कि उस की बीवी गर्भ से थी और इतनी दूर पैदल जाना इतना आसान भी नहीं था. मगर मरता क्या न करता. आखिरकार उन के बीच एक ही रास्ता था कि वे अपने गांव लौट जाएं.

साहस बटोर कर वे अन्य लोगों के साथ गांव की ओर निकल पङे मगर रास्ते में ही उस की बीवी को लेबर पेन शुरू हो गया. हालांकि बौर्डर पर मौजूद पुलिस वालों ने उस महिला की जरूर हरसंभव मदद की.

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मगर इस दर्दनाक कहानी के पीछे सरकारी निकम्मापन सरकार की उन दावों की भी पोल खोलता है, जिस में आम जनता और खासकर मजदूर वर्ग पिस रहा है मगर इन की सुनने वाला फिलहाल कोई नहीं.

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