जब आंसू बन जाए जिंदगी
मदन बतातेबताते रो पङा,”साहेब, बहुत परेशान हैं. एक भी रूपया नहीं है जेब में. ठेकेदार भी हाथ खङे कर चुका है. ऊपर से कोरोना से डर लगता है. मांबाबूजी फोन पर कह रहे हैं घर आ जाओ. मगर कैसे जाएं? तिलतिल कर जीने को मजबूर हैं. दिल्ली बङा ही बेदर्द शहर है. यहां कोई किसी का नहीं होता. अब गांव जा कर ही रहूंगा और वहीं कुछ काम कर के पेट पालूंगा.”
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रहनाखाना नहीं अपनों का साथ चाहिए
उधर सरकार ने श्रमिकों के लिए ट्रेनें चलाईं तो चंदन किसी तरह गांव पहुंच गया. वह 6 महीने पहले ही कानपुर काम करने आया था.
उस ने फोन पर बताया,”शहरों में बिना पैसा किसी को कोई पहचानता तक नहीं. अब कभी लौट कर शहर नहीं जाऊंगा. गांव तो थोङा खुलाखुला है पर जहां रहता था वहां दम घुटता था. अब कभी लौट कर शहर नहीं जाऊंगा.”
ट्रेन नहीं तो पैदल ही चल दिए
दिल्ली के गांधी नगर में एक गारमैंट फैक्टरी में काम करने वाला शिव कुमार पैदल ही गांव जाने को बेताब है, तो वहीं रोहिला 12-13 दिन पहले कुछ लोगों के साथ गांव की ओर निकल चुका था मगर अभी तक गांव पहुंच नहीं पाया है.
दिल्ली में 35-40 लाख के करीब प्रवासी मजदूर हैं जो गांव लौट जाना चाहते हैं. ये नहीं चाहते कि दोबारा यहां लौट कर आएं और इन के कभी न लौटने की कसम एक्सपर्ट्स को डराने लगा है.
परदेश में कोई अपना कहां
यों इन के रहनेखाने का इंतजाम दिल्ली सरकार ने कर रखा है बावजूद प्रवासी मजदूर हर हाल में गांव लौट जाना चाहते हैं.
उत्तर प्रदेश से दिल्ली आए मनोज की हालत भी कुछ ऐसा ही कुछ है. वह पहले ₹8-9 हजार महीना कमा लेता था.
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वह बताता है,”इस बात का कोई मतलब नहीं कि मैं ने यहां रह कर कितना कमाया, अब तो बस यही है कि जल्द से जल्द घर पहुंच जाऊं. मैं पिछले महीने भी गांव जाने के लिए पैदल ही निकल गया था मगर पुलिस ने पकङ कर शैल्टर होम में डाल दिया. यहां रहनाखाना तो हो रहा पर कोरोना वायरस से बहुत डर लग रहा है. कम से कम गांव तो यहां से सुरक्षित है न.”
अब गांव में ही रहूंगा
बिहार में सहरसा का रहने वाला सूरज गांव पहुंच चुका है. उस ने फोन पर बताया,”हरियाणा से गांव वापस आना आसान नहीं रहा. बहुत पापङ बेले. वहां प्लंबर का काम करता था. कमाई भी ठीकठाक हो जा रही थी. अब गांव छोडूंगा भी या नहीं कुछ कह नहीं सकते. घर के लोग अब जाने देना नहीं चाहते. मेरे दादाजी बारबार कहते हैं कि उधर की हवा ठीक नहीं. कोरोना के बाद डेंगू और फिर प्रदूषण में जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा. सोच रहा हूं यहीं कुछ काम कर के कमाऊं.”
मनरेगा से कितनों का पेट भरेगा
पिंटू भी गांव लौट चुका है और फिर वापस दिल्लीमुंबई नहीं जाना चाहता. उस की बीवी रेखा गांव में ही मनरेगा से कमाई कर लेती है.
वैसे भी गांव में बङी संख्या में मजदूर मनरेगा से जुङे हैं पर समय पर भुगतान नहीं मिलने के कारण परेशान हो जाते हैं.
हालांकि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के तहत वृद्धि 1अप्रैल से सरकार ने कर दी है और इस के तहत मनरेगा के लिए राष्ट्रीय औसत मजदूरी ₹182 से बढ़ कर प्रतिदिन ₹ 202 हो जाएगी.
मनरेगा के तहत अभी 13.62 करोङ जौब कार्डधारक हैं और योजना के जरीए ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को प्रतिदिन की मजदूरी और साल में 100 दिन रोजगार की गारंटी दी जाती है. अब जब लाखों की तादाद में शहरों में रहने वाले प्रवासी मजदूर अपनेअपने गांव लौटेंगे तो जाहिर है इस से रोजगार की स्थिति भयावह ही होगी. मजदूरों को काम मिलना आसान नहीं होगा.
बिहार की स्थिति और भी भयावह
इस में बिहार की स्थिति तो और भी भयावह है. बिहार सरकार ने साल 2017-18 में ₹ 168 मनरेगा के लिए मजदूरी तय की थी. इस के 3 साल में सरकार ने महज ₹3 ही बढ़ाए जो अब 2019-20 में ₹171 ही तय की गई है. ऐसे में एक मजदूर खुद और परिवार का पेट कैसे पालेगा, यह सोचने वाली बात है.
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उधर, इस महामारी के बीच सरकारी राहत फिसड्डी ही साबित हुई है तिस पर केंद्र और राज्य सरकारों ने पैट्रोल व डीजल के दामों में भी बढ़ोतरी कर दी है. जाहिर है, इस से महंगाई भी बढ़ेगी ही.
मगर फिलहाल तो देश कोरोना वायरस की जद में है और आम लोगों की तरह देश के तमाम राज्यों के मजदूर यही चाहते हैं कि जान बच जाए बस. अभी तो उन का गांव और अपनों का साथ मिलना ही काफी है.