हिंदी फिल्मों के बेहतरीन कलाकार नवाजुद्दीन सिद्दीकी अपनी नई फिल्म ‘हरामखोर’ में हरामखोरी करते नजर आ रहे हैं. इस फिल्म की शूटिंग गुजरात के एक छोटे से गांव में हुई है, जिस में नवाजुद्दीन सिद्दीकी स्कूल टीचर बने हैं और श्वेता त्रिपाठी 14 साल की छात्रा का किरदार निभा रही हैं. इस फिल्म में वे दोनों एकदूसरे से प्यार करते नजर आए, जिस में कौमेडी का तड़का तो था ही, लोगों को जागरूक करने की सीख भी थी.
लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और बदतमीजी करना आजकल आम बात हो गई है. लड़के खुद की सोच बदलने के बजाए लड़कियों को ही दोष देते हैं. कभी उनके पहनावे को लेकर या फिर कभी उनके बात करने के तरीके को लेकर. हैरानी की बात तो ये है कि लड़कियों के साथ सरेआम होती ऐसी शर्मनाक घटनाओं को देखकर भी लोग अंजान बने रहते हैं. कोई भी उनकी मदद करने के लिए सामने नहीं आता.
आज हम आप को एक ऐसा ही वीडियो दिखाने जा रहे है जिसमे एक लड़की के साथ बीच सड़क पर लड़का बदतमीजी करता है और आस-पास खड़े लोग मूकदर्शक बने खड़े रहते हैं.
इस वीडियो को दो भाग में दिखाया गया है. पहले में ये दर्शाया गया है की मॉर्डन ड्रेस में एक लड़की अपने दोस्तों के साथ सिगरेट पी रही है. उसे देखने के बाद सभी लड़के उस लड़की को घूरते और कमेंट करते नजर आ रहे हैं. यह दिखाता है कि अगर लड़की भी लड़कों की तरह ही सिगरेट या ड्रिंक करती दिख जाए तो लोगों में सनसनी ही फैल जाती है.
वहीं दूसरे पार्ट में दिखाया गया है कि अगर कोई लड़का किसी लड़की को छेड़े तो सभी लोग नजरें छुपाते और बगले झांकते नजर आते हैं. वह मुसीबत में फंसी लड़की की मदद करना भी वाजिब नहीं समझते. दरअसल इस वीडियो के जरिये हमारे समाज में मौजूद दोहरे चरित्र को दिखाया गया है. किस तरह अलग-अलग सिचुएशन में लोग अपना व्यवहार बदलते दिखाई देते हैं.
इस वीडियो को काफी पसंद किया गया है और ये वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है. आप भी देखें समाज को आइना दिखाते इस वीडियो को.
आजकल बहुत जल्दी लड़के और लड़कियों से एक दूसरे के दिल मिल जाते हैं या कहें डेट करने लगते हैं. लड़कों की तो आम बात हो गई है कुछ मीठी बातें की उसका नंबर लिया और उसे डेट करने लगे, लेकिन यह टैलेंट और हिम्मत हर किसी लड़के में नहीं होता है, तो वहीं हर लड़की भी ऐसी नहीं होती कि लड़का नंबर मांगे और वो तुरंत नंबर दे ही दे, तो वहीं आज हम आपको उस लड़की के बारे में बताने जा रहे हैं जिसने अपना नंबर भी नहीं दिया और अपना काम भी करा लिया. ये है वो लड़की.
आमतौर पर देखा जाता है कि कोई भी लड़का हो वह लड़कियों को घूरता ही है, जिससे लड़की को यही लगता है कि वह काफी अच्छी लग रही है, लेकिन अगर कोई लड़का, लड़की के प्राइवेट पार्ट को बार-बार घूरता है तो लड़की फिर कुछ और ही सोचने लगती है जैसा इस लड़की को लगा.
कुछ लोगों की आदत ही होती है कि लड़कियों को कुछ ज्यादा ही घूरते हैं और जब तक वे ऐसा न करें तब तक उनका खाना तक नहीं पचता है, लेकिन हम आपको जो वीडियो दिखाने जा रहे हैं उसमें लड़की, लड़के को इस तरह समझाती है कि अगर आप भी देखेंगे तो देखते ही रह जाएंगे.
वीडियो में लड़का लड़की से नंबर मांगता है जिसके बाद लड़की उसकी ऐसी क्लास लेती है कि लड़के के हाथ-पैर तक कांपने लगते हैं, लड़के ने लड़की को ऐसा सबक सिखाया है जिसे लड़का जिंदगी भर नहीं भूलेगा.
भारतीय जनता पार्टी की नजर में राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल की इमेज किसी मसखरे नेता जैसी है. देश के सब से बडे़ प्रदेश में 5 साल मुख्यमंत्री की कुरसी संभालने वाले अखिलेश यादव को भाजपा ने कभी पूरा मुख्यमंत्री ही नहीं माना. चुनावी रणनीति में इन तीनों ने अब भाजपा के सामने चुनौतियों के पहाड़ खडे़ कर दिए हैं. इस से भाजपा के त्रिलोक विजयी की छवि दांव पर लग गई है. अपनी छवि को बचाने के लिए भाजपा ने परिवारवाद से ले कर दलबदल की नीतियों तक को अपना लिया है. इस से भाजपा को अपने अंदर से ही चुनौती मिलने लगी.
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर के विधानसभा चुनाव केंद्र की भाजपा सरकार के लिए चुनौतियों से भरे हैं. चुनौतियों का आभास भाजपा को भी है. इसलिए अब वह अपने सारे सिद्धांतों को दरकिनार कर हर समझौता कर रही है. परिवारवाद से ले कर दलबदल तक के सभी समझौते उस ने कर लिए. भाजपा में जहां पहले सभी फैसले पार्टी के संगठन द्वारा लिए जाते थे, वहीं अब भाजपा हाईकमान अकेले फैसले लेने लगा है. नोटबंदी से ले कर चुनावी रणनीति तक में आपसी विचारविमर्श नहीं दिखा.
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जिस तरह के फैसले भाजपा ने टिकट वितरण में किए हैं उन से पार्टी में व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के सामने केवल तब की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ही थी. वह चुनाव असल में भाजपा की जीत के लिए नहीं, कांग्रेस की हार के लिए याद रखा जाएगा. कांग्रेस ने 10 साल के राजकाज में जनता को राहत देने वाले फैसले कम किए पर भ्रष्टाचार खूब किया. सरकार ने अगर अच्छे काम किए भी तो उन को जनता तक पहुंचाया नहीं जा सका. भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने प्रचार और भाषण की जोरदार शैली के बल पर जनता के कांग्रेसविरोध को अपनी ओर करने का काम किया था. दूसरी पार्टियां बिखरी हुई थीं. ऐसे में भाजपा ने मौके का फायदा उठाया और बहुमत से जीत कर सरकार बना ली.
बाद में कई राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए और जहां भाजपाकांग्रेस की टक्कर थी वहां तो भाजपा जीत गई पर जहां भाजपा के सामने दूसरे दल थे उसे वहां हार का सामना करना पड़ा. दिल्ली विधानसभा के चुनाव सब से अहम थे जहां अरविंद केजरीवाल की अगुआई में आम आदमी पार्टी ने भाजपा को करारी मात दी. उस के बाद बिहार विधानसभा चुनावों में विरोधी दलों राजद, जदयू और कांग्रेस ने मिल कर भाजपा को घेरा और मात दे दी. अब यही फार्मूला उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस व समाजवादी पार्टी ने अपनाया है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जहां राहुलअखिलेश फैक्टर भाजपा को परेशान कर रहा है वहीं गोआ और पंजाब में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल उस के लिए चुनौती बने हुए हैं.
केजरीवाल की रणनीति
पंजाब और गोआ की सब से खास बात यह है कि वहां भाजपा की सरकारें हैं. पंजाब में भाजपा और अकाली दल की मिलीजुली सरकार है. इस चुनाव में भी भाजपा-अकाली गठजोड़ मिल कर चुनाव लड़ रहा है. परेशानी का सबब यह है कि भाजपा और अकाली दल के बीच आपसी मतभेद हैं. इसी का नतीजा है कि भाजपा के स्टार नेता, क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू को भाजपा छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. अकाली दल और भाजपा के मुकाबले कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ रही थी. आम आदमी पार्टी के चुनावी मैदान में आ जाने से मामला और भी रोचक हो गया. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बड़ी चतुराई से अपनी पार्टी को पंजाब और गोआ के विधानसभा चुनावों में उतारा है. वे उत्तर प्रदेश जैसे बडे़ प्रदेश के चुनावी संग्राम से बाहर रहे हैं. यह उन की रणनीति का एक हिस्सा है.
पंजाब में नशे को मुद्दा बनाने वाले अरविंद केजरीवाल ने गोआ में कैसीनों को निशाने पर लिया है.
अरविंद केजरीवाल ने गोआ और पंजाब में युवाओं व महिलाओं पर सब से अधिक फोकस करते हुए जुआ व नशे के खिलाफ आवाज उठाई है. लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को सब से अधिक पंजाब से ही सफलता मिली थी. पंजाब में अकाली दल और भाजपा के विरोध में सत्ताविरोधी हवा चल रही है. अकाली दल के बादल परिवार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. पंजाब दिल्ली के करीब है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने जिस तरह से सरकार चलाई है उस से पंजाब के लोग प्रभावित हैं. अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में किसानों, दलितों, सिखों, महिलाओं के बीच अपने जनाधार को बढ़ाया है. अरविंद केजरीवाल ने इस को ले कर विरोध जताया है. अरविंद केजरीवाल की छवि और उन की सादगी सब से बड़ा हथियार है. केजरीवाल का रिकौर्डेड मैसेज पंजाब के लोगों को खूब पसंद आ रहा है. इस में अरविंद केजरीवाल पंजाब में अकाली दल के नेता विक्रम मजीठिया पर सब से ज्यादा आरोप लगाते हैं. अरविंद कहते हैं कि मजीठिया ने घरघर नशा पहुंचाने का कृत्य किया है. उन की सरकार बनने पर मजीठिया को जेल में डाला जाएगा.
पंजाब में नशे को मुद्दा बनाने वाले अरविंद केजरीवाल ने गोआ में कैसीनों को निशाने पर लिया है. अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि भाजपा के राज में गोआ में कैसीनों खोले गए. कैसीनों में जुआ खेला जाता है. कैसीनों के चलते युवा जुए का शिकार हो रहे हैं. गोआ में अपराध बढ़ रहा है. अब विदेशी पर्यटक भी गोआ आने से कतराने लगे हैं. गोआ में पहली बार विधानसभा चुनाव में कैसीनों मुद्दा बन रहे हैं. इस मुद्दे पर गोआ की जनता अरविंद केजरीवाल का समर्थन भी कर रही है.
भाजपा में ‘नो सीएम फेस’
पंजाब और गोआ की ही तरह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी भाजपा को अपनी साख बचाने के लिए हर तरह के फैसले लेने पड़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश में सपाकांग्रेस गठजोड़ के तहत सपा 298 और कांग्रेस 105 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के युवा नेता व राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं, ‘‘प्रदेश की जनता साइकिल की सवारी कर रही है. हमारी सरकार ने जिस तरह से 5 साल विकास के काम कर अपने चुनावी वादों को पूरा किया है, उस से लोग फिर से साइकिल की हवा बनाने लगे हैं. कांग्रेस के साथ आने से हमारी साइकिल की रफ्तार और भी तेज हो गई है.’’
अखिलेश यादव की गणना कुछ समय पहले तक ऐसे सुसंस्कृत नेता की थी जो पिता का मानसम्मान करता था. सत्ता के 5 सालों ने इस चेहरे को इतना बदल दिया कि उस ने पिता को जबरन कुरसी से उतार कर पार्टी को हथिया लिया. मुलायम सिंह लगातार इस बात को कह रहे हैं कि अखिलेश उन की नहीं सुनते. अब सरकार और संगठन दोनों अखिलेश के पास हैं. चुनाव चिह्न की लड़ाई भी वे जीत चुके हैं. इतनी सारी जीत के बाद अगर वे कुछ हारे हैं तो वह उन की अपनी छवि है. यह बात और है कि पूरी कोशिश इस बात की है कि पिता मुलायम को बुरे लोगों से घिरा दिखा कर अपनी छवि को बचाया जाए. अखिलेश के करीबी लोग मानते हैं कि इस लड़ाई में वे निखर कर सामने आए हैं. राजनीति को जाननेपरखने वाले लोग समझते हैं कि यह सही आकलन नहीं है. चाटुकारिता में लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं.
अखिलेश यादव की गणना कुछ समय पहले तक ऐसे सुसंस्कृत नेता की थी जो पिता का मानसम्मान करता था. सत्ता के 5 सालों ने इस चेहरे को इतना बदल दिया कि उस ने पिता को जबरन कुरसी से उतार कर पार्टी को हथिया लिया.
चुनाव के मैदान में अखिलेश के सामने मुश्किलें अभी बाकी हैं. सब से अहम लड़ाई सपा के खास यादव बिरादरी को एकजुट करने की है. मुलायम का हताश, निराश और बेबस चेहरा यादव बिरादरी भूल जाएगी, यह संभव नहीं लगता. कोई भी पिता यह नहीं चाहता कि पुत्र इस तरह से सत्ता के लिए पिता को बेबस कर दे. यादव बिरादरी में इस तरह की सोच और भी मजबूत है. मुलायम सिंह यादव के साथ पुरानी पीढ़ी का भावनात्मक रिश्ता है. सपा के कुछ वरिष्ठ नेता अपने बेटों के भविष्य के लिए भले ही अखिलेश को सही और मुलायम को गलत कह रहे हों, पर यादव वोटबैंक के लोगों को अखिलेश के साथ ऐसा कोई स्वार्थ नहीं है. ऐसे में वे खुल कर अखिलेश के साथ खड़े होंगे, ऐसा संभव नहीं लगता है.
सपा की लड़ाई चुनावभर की नहीं है. यह आगे तक जाएगी. इस का सही आकलन चुनाव के बाद ही हो पाएगा. अखिलेश की जीत और हार दोनों ही पार्टी का भविष्य तय करेगी. असल में अभी अखिलेश और मुलायम के बीच सीधा मुकाबला नहीं था.अखिलेश सत्ता के शिखर पर थे तो मुलायम लाचार, हथियारविहीन थे. चुनाव के बाद अखिलेश और मुलायम के बीच बराबर का मुकबला होगा. सत्ता के चलते जो लोग अखिलेश के साथ में अपना भविष्य देख रहे हैं, कल बदले हालात में वे कितना अखिलेश के करीब होंगे, यह समझने वाली बात है. भारत में लोकतंत्र जरूर है पर यहां जाति, बिरादरी, धर्म और भावनाओं पर वोट पड़ते हैं. यह बात अखिलेश भी समझते हैं. यही वजह है कि वे कांग्रेस और दूसरे दलों से तालमेल कर अपने दरकते जनाधार की कमी को पूरा करना चाहते हैं.
अब मुलायम सिंह यादव ने अखिलेशराहुल के गठबंधन को नकार दिया है. ऐसे में सपा का बड़ा वोटबैंक अखिलेश के खिलाफ खड़ा हो सकता है. यह समाज ऐसा है कि खुद चाहे कितनी भी गलती करे पर दिखावे में वह सब से बड़ा ईमानदार बनता है. ऐसे में मुलायम के बयान अखिलेश की राह मुश्किल करेंगे और विरोधी दलों को हमले का एक अवसर देंगे. अब जीत और हार ही अखिलेश की छवि को बदल सकती है. पिता मुलायम का बेबस, लाचार चेहरा बारबार नए सवाल उठाता रहेगा. इस से निबटना सरल नहीं होगा.
हालांकि, परिवार के विवाद को सुलझाने और उस से बाहर निकलने के बाद अखिलेश यादव के निशाने पर भाजपा और उस की अगुआई में चलने वाली केंद्र की मोदी सरकार है. अखिलेश यादव लगातार भाजपा द्वारा लोकसभा चुनाव में किए गए वादों और केंद्र सरकार के फैसलों पर सवाल उठा रहे हैं.अखिलेश यादव जनता के बीच जा कर पूछ रहे हैं, ‘अच्छे दिन कहां आए?’ और ‘नोटबंदी से क्या हासिल हुआ?’ ये दोनों सवाल भाजपा के लिए परेशानीभरे साबित हो रहे हैं. भाजपा के बडे़ नेताओं के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं. ऐसे में एक बार फिर से वे राममंदिर के मुद्दे पर आ रहे हैं.
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य ने कहा, ‘‘अगर प्रदेश में भाजपा बहुमत से सरकार बनाएगी तो राममंदिर जरूर बनेगा.’’ यह बात और है कि प्रदेश की जनता को अब भाजपा के वादों पर यकीन नहीं है. भाजपा केवल अखिलेश यादव के सवालों का जवाब ही नहीं दे पा रही बल्कि उन की तरह लोकप्रिय, साफसुथरा और स्मार्ट नेता भी अपने लिए खोज नहीं पाई है. बहुत सारे समीकरण बनाने के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री लायक कोई चेहरा नहीं मिल पा रहा है. उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा दोनों के पास अपने मुख्यमंत्री के चेहरे हैं. भाजपा ने बहुत प्रयास किया पर उस को ऐसा कोई नहीं मिला जिस को वह मुख्यमंत्री का चेहरा बना सकती. ऐसे में पार्टी ने मुख्यमंत्री पद को चुनाव बाद के हालात पर छोड़ दिया है. ऐसा नहीं है कि भाजपा ने पहले मुख्यमंत्री का चेहरा आगे कर चुनाव नहीं लड़ा है. दिल्ली में किरन बेदी, बिहार में सुशील मोदी, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर के नाम सामने हैं. उत्तर प्रदेश में अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने यहां के नेताओं पर कम भरोसा किया है. जिस की वजह से गुटबाजी में भाजपा पूरी तरह से फंस गई है. भाजपा ने भीतरघात की परेशानी से बचने के लिए मुख्यमंत्री पद के लिए नाम की घोषणा नहीं की है.
आलोचनाओं को दरकिनार करते राहुल
कांग्रेस नेता के रूप में राहुल गांधी भाजपा की आलोचना का सब से अधिक शिकार हुए. भाजपा ने अपने मजबूत प्रचारतंत्र के दम पर राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी. चुनावी हार के चलते हवा राहुल के विरोध में बनी रही. इस के बाद भी राहुल गांधी ने हार नहीं मानी. लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस के सामने चुनाव में खडे़ रहने की सब से बड़ी चुनौती थी.बडे़बडे़ राजनीतिक समीक्षकों ने यह मान लिया कि पूरे देश से कांग्रेस का सफाया हो गया. अब कांग्रेस की वापसी संभव नहीं है. गांधी परिवार को पूरी तरह से हाशिए पर ढकेल दिया गया. कांग्रेस के लिए वह चुनौतीभरा दौर था. कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी बीमारी के कारण पार्टी को पहले जैसा समय और नेतृत्व नहीं दे पा रहीं. राहुल गांधी लगातार असफल होते दिख रहे थे. प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए आगे नहीं बढ़ रही थीं.
कांग्रेस को आगे बढ़ाने व उस को एकजुट रखने के लिए गांधी नेहरू परिवार की सब से अधिक जरूरत होती है. विरोधी दलों को यह पता है कि बिना गांधीनेहरू परिवार के कांग्रेस बिखर जाएगी. भाजपा ने मान लिया था कि125 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी लोकसभा में विपक्षी पार्टी बनने भर की संख्या में संसद सदस्य नहीं ला पाई, इसलिए वह अब वापस नहीं आ सकती. वहीं, अपनी सभी अलोचनाओं को दरकिनार कर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुकाबले कचुनौती को स्वीकार किया. भाजपा हमेशा कहती थी कि राहुल गांधी को लोकसभा में बोलना नहीं आता, वे दूसरों का लिखा भाषण पढ़ते हैं. ऐसे समय में राहुल गांधी ने केंद्र की ताकतवर मोदी सरकार पर हमला बोला और उस को ‘सूटबूट वाली सरकार’ का नाम दिया.
लोकसभा चुनाव के बाद दूसरे प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार का सिलसिला जारी रहा. इस के बाद भी राहुल गांधी ने अपने मनोबल को टूटने नहीं दिया. वे भाजपा से मुकाबले की धुन में लगे रहे. कांग्रेस को अपनी कमजोरी का आभास हो चला था. प्रदेश स्तर पर वह लगातार जनाधार खोती जा रही थी. कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता सत्ता से बाहर रहने के कारण संतुलन खोते जा रहे थे. ऐसे में राहुल गांधी ने बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन तैयार किया. इस में कांग्रेस के साथ जदयू और राजद जैसे प्रमुख सहयोगी साझीदार बने. बिहार में अपनी जीत पक्की मान रही भाजपा को हार का सामना करना पड़ा. दिल्ली में केजरीवाल के बाद बिहार की हार से साबित हो गया कि नरेंद्र मोदी के विजयरथ को रोका जा सकता है.
भाजपा ने अपने मजबूत प्रचारतंत्र के दम पर राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी. चुनावी हार के चलते हवा राहुल के विरोध में बनी रही. इस के बाद भी राहुल गांधी ने हार नहीं मानी.
बहुत सारे विरोधों को दरकिनार करते उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और राहुल गांधी की पहल पर भाजपा के खिलाफ एक ताकतवर मोरचा बना है. भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश की लड़ाई सब से अहम है. सब से बड़ी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सब से अधिक सीटें हैं. यहां का विधानसभा चुनाव जीतने का अलग प्रभाव पड़ता है. लोकसभा चुनाव में भाजपा को 73 सीटें मिली थीं. इस प्रदर्शन को दोहराना किसी चुनौती से कम नहीं है. उत्तर प्रदेश में अयोध्या है. जहां पर रामजन्मभूमि मंदिर की राजनीति कर के ही भाजपा ने लोकसभा में 2 सीटों से शुरू हो कर बहुमत की सरकार बनाने तक के सफर को पूरा किया है. उत्तर प्रदेश में हार से भाजपा का मनोबल टूटेगा. कांग्रेस को यह पता चल जाएगा कि भाजपा की चुनावी जीत पानी के बुलबुले जैसी थी. उत्तर प्रदेश में चुनावी जीत के लिए भाजपा ने जिस तरह से दलबदल करने वाले नेताओं को अहमियत दी है उस से पार्टी के संगठन से जुडे़ कार्यकर्ता और नेता बेहद क्षुब्ध हैं. भाजपा के नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि कांग्रेस को खत्म कर भाजपा का कांग्रेसीकरण हो गया है. जब तक भाजपा में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं तब तक लोग चुप हैं. अनुशासन के नाम पर दबी विरोध की आवाज 2019 के चुनाव परिणामों को तय करेगी. जिस कांग्रेस को खत्म हुआ मान लिया गया था वह फिर से मुकाबले में इतनी जल्दी खड़ी हो जाएगी, इस बात की उम्मीद भाजपा को नहीं थी.
अरविंद केजरीवाल की जुझारू छवि
16 अगस्त, 1968 को हरियाणा के सिवानी में पैदा हुए अरविंद केजरीवाल आईआईटी खड़गपुर से बीटैक करने के बाद 1989 में टाटा स्टील से जुडे़. 1992 में वहां से इस्तीफा दे दिया. 1995 में वे असिस्टैंट कमिश्नर, इनकम टैक्स के रूप में भारतीय राजस्व सेवा से जुडे़. 2006 में नौकरी छोड़ कर आरटीआई ऐक्टिविस्ट के रूप में सूचना अधिकार कानून के लिए काम करना शुरू किया. यहीं से वे अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का हिस्सा बने. 2012 में आम आदमी पार्टी बनाई. इस में वे राष्ट्रीय संयोजक बने. पार्टी बनाने के एक साल के अंदर ही 2013 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ा और कांग्रेस, जदयू व निर्दलीय विधायकों के साथ मिल कर सरकार बनाई. 38 साल की उम्र में वेदिल्ली के सब से युवा मुख्यमंत्री बने. यह सरकार ज्यादा नहीं चली. 2014 में मुख्यमंत्री की कुरसी छोड़ कर वे दोबारा चुनाव मैदान में उतरे. 2015 में पूरे बहुमत से दिल्ली में सरकार बनाई. दोबारा मुख्यमंत्री बने.
जहां सारे नेता मुख्यमंत्री बनने के बाद सब से अधिक विभाग अपने पास रखते हैं वहां अरविंद केजरीवाल ने एक भी विभाग अपने पास नहीं रखा. पंजाब और गोआ विधानसभा चुनावों में अगर अरविंद केजरीवाल जीत हासिल कर लेते हैं तो वे राष्ट्रीय राजनीति में अपना दखल बढ़ा लेंगे.
अखिलेश की बेदाग छवि
उत्तर प्रदेश में 5 साल सरकार चलाने के बाद भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की छवि साफसुथरी और बेदाग है. अखिलेश के पास संसद से ले कर विधानसभा तक का पर्याप्त अनुभव है. अखिलेश साल 2000 में पहली बार कन्नौज लोकसभा सीट से संसद सदस्य चुने गए. वे केंद्र सरकार की कई महत्त्वपूर्ण समितियों में सदस्य बने. 2004 और 2009 में वे दोबारा लोकसभा सदस्य चुने गए. इंजीनियरिंग से पढ़ाई कर चुके अखिलेश अपनी पत्नी डिंपल और बच्चों के साथ सुखद परिवारिक जीवन जी रहे हैं. समयसमय पर परिवार के साथ बिताए पलों की फोटो वे सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहते हैं.
2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अखिलेश यादव को अपना चेहरा बनाया. अखिलेश ने उस समय उत्तर प्रदेश में पार्टी का खूब प्रचार किया. प्रदेश के लोगों को अखिलेश पसंद आए. जनता ने अखिलेश पर भरोसा करबहुमत की सरकार दी. 15 मार्च, 2012 को अखिलेश सब से कम उम्र में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. 5 साल सरकार चलाने के दौरान अखिलेश ने अपने चुनावी वादों को पूरा किया. अपने काम पर भरोसा ही था, जिस के चलते अखिलेश ने परिवार के विवाद के बाद भी अलग रहते हुए चुनाव लड़ने का साहस दिखाया था. बहरहाल, जाहिरी तौर पर परिवार में अब एकजुटता है.
अलग छवि की पहचान है राहुल
अमेठी लोकसभा से 2004 में पहली बार सांसद चुने गए राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बहाल करने की शुरुआत की तो पार्टी में उन का विरोध शुरू हुआ. अपनी धुन के पक्के राहुल गांधी ने विरोध को दरकिनार कर युवा नेताओं को तरजीह देने का काम जारी रखा. राहुल ने 2009 और 2014 में भी लोकसभा चुनाव जीता. 2009 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बेहद मजबूत आधार दिया. कांग्रेस ने उम्मीद से उलट 22 लोकसभा सीटों पर कब्जा कर सभी को चौंका दिया था. विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी को वह सफलता नहीं मिली. राहुल गांधी ने यूथ कांग्रेस में संगठनात्मक बदलाव की पहल की. 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रचार की शुरुआत राहुल गांधी ने ‘खाट सभा’ से की. इस को प्रदेश के लोगों ने पूरा समर्थन दिया. प्रदेश में सब से अधिक यात्रा करने वाले नेताओं में राहुल गांधी का नाम आता है. किसानों के पक्ष में उन की भट्ठा परसौल यात्रा बेहद सफल रही है.
तमाम विरोधों के बाद भी राहुल गांधी की पहल पर उत्तर प्रदेश में गठजोड़ बना जो भाजपा के लिए परेशानी का बड़ा सबब है. राहुल गांधी 2013 में कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने. लोकसभा में भले ही कांग्रेस के सदस्य कम हों पर राहुल गांधी ने भाजपा के विरोध के सुर को कमजोर नहीं होने दिया. नोटबंदी के मौके पर जहां दूसरे नेता विरोध में स्वर उठाने में संकोच कर रहे थे वहीं राहुल गांधी ने संसद से ले कर सड़क तक अपनी आवाज को बुलंद कर भाजपा को घेरने का काम किया. भाजपा लोकसभा में नोट से जुडे़ मुद्दों पर जवाब देने से बचती रही.
स्टार प्रचारक बनीं प्रियंका और डिंपल
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी वाड्रा और अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव स्टार प्रचारक होने के साथ ही साथ सहयोगी भी हैं. प्रियंका के प्रचार की बात करते ही भाजपा में खलबली मच गई. भाजपा के बडे़ नेता विनय कटियार तो यहां तक कह गए कि प्रियंका से सुदंर भाजपा नेता स्मृति ईरानी हैं. उन को देखनेसुनने के लिए ज्यादा भीड़ आती है. कांग्रेस और सपा के गठबंधन में अखिलेश और राहुल के अलावा प्रियंका व डिंपल का भी बड़ा अहम रोल रहा है. ऐसे में चुनावप्रचार अभियान और आगे की रणनीति में इन की भूमिका प्रभावी रहेगी. खुद प्रियंका और डिंपल के बीच मधुर संबंध हैं. इन दोनों का सौम्य व्यवहार जनता को भी पसंद आता है. कांग्रेस और सपा दोनों ही दलों में लंबे समय से प्रियंका और डिंपल को आगे करने का दबाव रहा है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इन की भूमिका अलग दिखेगी.
प्रियंका के प्रचार की बात करते ही भाजपा में खलबली मच गई. भाजपा के बडे़ नेता विनय कटियार तो यहां तक कह गए कि प्रियंका से सुदंर भाजपा नेता स्मृति ईरानी हैं.
अखिलेश यादव की दोस्ती जितनी राहुल गांधी से है, उस से कहीं अधिक दोस्ती प्रियंका से है. अखिलेश की पत्नी और सांसद डिंपल यादव राहुल से अधिक उन की मां सोनिया गांधी के करीब हैं. संसद में सदन के दौरान सोनिया और डिंपल अकसर आपस में बात करती दिखती रही हैं. राहुल की बहन प्रियंका भी डिंपल के साथ मधुर रिश्ते रखती हैं. आपसी बातचीत में दोनों ही बहुत सहज रही हैं. उत्तर प्रदेश की राजनीति में डिंपल खामोशी से पति अखिलेश यादव के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं तो बहन प्रियंका, अपने भाई राहुल गांधी के साथ खड़ी नजर आती हैं.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में डिंपल खामोशी से पति अखिलेश यादव के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं
चुनावी जुमला साबित हुई मोदी की सीख
परिवारवाद पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीख चुनावी जुमला साबित हुई. नरेंद्र मोदी ने सांसदों से अपने करीबी रिश्तेदारों को चुनावी टिकट दिलाने की पैरवी करने से मना किया था. प्रधानमंत्री ने इस बहाने पार्टी में परिवारवाद को रोकने का दिखावा ही किया था. भाजपा ने केवल अपने ही दल के नेताओं और उन के परिवार वालों को ही टिकट नहीं दिया, बल्कि दलबदल करने वाले नेताओं के परिवार वालों को भी टिकट दिया. भाजपा चुनावी हमाम में दूसरे दलों से भी बदतर साबित हुई है. पार्टी जिस तरह सेअपने उसूलों और सिद्धांतों की दुहाई देती रही है वे इस चुनाव में तारतार नजर आ रहे हैं. लखनऊ में मलिहाबाद सीट से भाजपा से मोहनलालगंज लोकसभा सीट के सांसद कौशल किशोर की पत्नी जय देवी को टिकट दिया है. विधानसभा चुनाव में बसपा छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्य को भाजपा ने पडरौना से और उन के पुत्र उत्कर्ष मौर्य को ऊंचाहार सीट से टिकट दिया है. उत्तराखंड में भी भाजपा ने यही किया है. कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आए यशपाल आर्य के बेटे संजीव को नैनीताल से और विजय बहुगुणा के बेटे सौरभ को सितारगंज से टिकट दिया है. इसी तरह भाजपा ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, कल्याण सिंह के पौत्र संदीप सिंह, प्रेमलता कटियार की बेटी नीलिमा कटियार, हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह, ब्रहमदत्त द्विवेदी के बेटे मेजर सुनील दत्त द्विवेदी, लालजी टंडन के बेटे आशुतोष टंडन और भुवनचंद्र खंडूरी की बेटी रितुयमकेश्वर को भी चुनावी मैदान में उतारा है.
चुनाव में जीत के लिये प्रबंधन और वाक पटुता का सबसे अहम रोल हो गया है. अब यह पार्टी संगठन और कार्यकर्ताओं के बस की बात नहीं रह गई है. इसके लिये प्रोफेशनल टीम बेहतर काम करती है. यह टीम पूरी तरह से अपने काम पर फोकस करती है. जिससे पार्टी हर जगह सबसे आगे दिखती है. प्रोफेशनल टीम के चुनाव प्रबंधन और नेताओं की वाकपटुता के मामले में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपने विरोधी बसपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन पर हावी है.
मीडिया के साथ बेहतर तालमेल सबसे अधिक भाजपा की टीम कर रही है. बसपा में सारा तालमेल पार्टी प्रमुख मायावती के आसपास घूमता है. कांग्रेस में काफी अच्छी तरह से तालमेल रखा जाता है. कांग्रेस की परेशानी यह है कि हाईकमान के आदेश नीचे के कार्यकर्ताओं को सीधे नहीं मिल रहे जिससे ग्राउंड पर काम करने वाले को ऊपर की नीतियों का पता ही नहीं होता है.
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार होने के कारण समाजवादी पार्टी से यह उम्मीद थी कि वहां पर चुनाव प्रबंधन बेहतर होगा. खासकर मीडिया को हर जानकारी समय पर सटीक तरह से मिल सकती है. सपा में मीडिया की भीड़ तो बड़े स्तर पर दिखती है पर बिना किसी भेदभाव के सटीक जानकारी नहीं मिलती. पार्टी प्रवक्ताओं का बड़ा फोकस केवल अखिलेश यादव के करीब रहता है. जिसकी वजह से भाजपा के हमलों का सही जवाब वहां तैयार नहीं किया जाता. आज के दौर में मीडिया का मतलब केवल अखबार या टीवी चैनल नहीं रह गये हैं. वेब मीडिया सबसे बडे हथियार के रूप में काम कर रही है. वेब मीडिया को लेकर सपा और बसपा में कोई नीति नहीं है. जबकि भाजपा में यह बडी प्रमुखता के साथ देखा जा रहा है.
यह सच है कि जमीनी जनाधार और वोटबैंक के स्तर पर बात करे तो उत्तर प्रदेश में जो प्रभाव मायावती का है या अखिलेश यादव का है वह भाजपा और कांग्रेस दोनो का नहीं है. दोनो ही दलों में प्रदेश स्तर पर एक भी ऐसा नेता नहीं है जो मायावती और अखिलेश यादव की लोकप्रियता का मुकाबला कर सके. सबसे बड़ा वोटबैंक भी इन दोनो दलों के पास ही है. इसके बाद भी यह लड़ाई में पीछे दिखते हैं. इसका यही कारण है कि वाक पटुता और चुनाव प्रबंधन में अखिलेश और मायावती दोनो ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से बहुत पीछे हैं. अखिलेश और मायावती दोनो के ही पास बोल पाने की वह कला नहीं है जो नरेंद्र मोदी के पास है.
अखिलेश और मायावती कोई अकुशल नेता नहीं हैं. दोनों की जमीनी पकड़ है. चुनाव में पैसा दोनों दल भी खर्च कर रहे हैं. अंतर केवल यह है कि भाजपा से चुनाव प्रबंधन और वाकपटुता के मामलें में दोनों ही दल पिछड़ रहे हैं. जिस प्रभावी ढंग से भाजपा अपनी बात को रख रही है चुटीले संवादों से सुनने वालों को प्रभावित कर रही है उस तरह से मायावती और अखिलेश नहीं कर पा रहे हैं. इंटरनेट से लेकर प्रचार के सभी साधनों में सबसे आगे भाजपा है. अब सपा बसपा अगर यह समझ रहे हैं कि उनके कार्यकर्ता गांव में रहते हैं उनको इंटरनेट देखने, अखबार और पत्रिकायें पढ़ने से कोई मतलब नहीं तो वह गलत सोच रहे हैं.
लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार का सबसे प्रमुख कारण यही था कि वहां चुनाव प्रबंधन और वाकपटुता का अभाव था. यही हालत उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में सपा-बसपा के सामने है. 2 फेस के विधानसभा चुनाव होने के बाद अभी 5 फेस के चुनाव बाकी हैं. अगर इस स्तर पर भी सपा-बसपा कुछ बदलाव कर सके तो बेहतर है. चुनावी बाजी को जीतने के लिये चुनाव प्रबंधन और वाक पटुता का होना भी जरूरी है. केवल कुशल नेता होने भर से चुनाव नहीं जीते जा सकते.
अपनी उलजलूल हरकतों और बयानों से अकसर अपनी सरकार और पार्टी के लिए मुश्किलें खड़ी करने वाले बिहार के स्वास्थ्य मंत्री तेज प्रताप यादव अब खुद मुश्किलों में घिर गए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राजद सुप्रीमो लालू यादव के दुलारे तेज प्रताप यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया है. पिछले दिनों जेल में बंद राजद के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन के शार्प शूटर और सिवान के पत्रकार राजदेव की हत्या के मुख्य आरोपी मोहम्मद कैफ के साथ तेज प्रताप की तस्वीरें अखबारों में छपी थी. उसी आधार पर राजदेव की बीबी आशा रंजन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. याचिका में कहा गया है कि राजदेव की हत्या के आरोपी को शहाबुद्दीन और तेज प्रताप ने पनाह दिया हुआ है. गौरतलब है कि 13 मई 2016 को सिवान में राजदेव की हत्या कर दी गई थी.
तेज प्रताप कभी कृष्ण का रूप धर कर बांसुरी बजाते नजर आते हैं तो कभी हलवाई की दुकान में जलेबी छानने लगते हैं. कभी कुम्हार की चाक पर हाथ साफ कर मिट्टी के बर्तन बनाने लगते हैं. इस साल एक जनवरी के मौके पर उन्होंने अपने सिर पर पगड़ी बांधी और उसमें मोर का पंख जड़ डाला. उसके बाद गायों के साथ बांसुरी बजाने लगे. काफी देर तक भाव विभोर होकर बांसुरी बजाते रहे और उसके बाद खुद को कृष्ण का वंशज बताया. पिछले एक फरवरी को सरस्वती पूजा के मौके पर वह हलवाई के साथ चूल्हे के पास जा बैठे और लगे जलेबियां छानने. जलेबी छानने के बाद उन्होंने स्कूली बच्चों को जलेबियां खिलाई और खुद भी उसका लुत्फ उठाया. पिछले 6 फरवरी को पटना पुस्तक मेले में घूमने पहुंचे तो कुम्हार का चाक देख कर वहीं बैठ गए और चाक को घूमा कर मिट्टी के बर्तन बनाने लगे.
हमेशा सुर्खियों में रहने वाले तेज प्रताप ने पिछले दिनों गो हत्या पर रोक लगाने की मांग कर अपनी पार्टी के लिए ही मुसीबत खड़ी कर दी थी. वृंदावन पहुंच कर उन्होंने केंद्र के मोदी सरकार से अपील कर डाला कि नोटबंदी की तरह से गायों की हत्या पर भी रोक लगाई जाए. उन्होंने यह भी कहा कि बिहार में शराब को बंद कर दिया गया है, अब गो हत्या को भी बंद किया जाएगा. उनकी इस बयानबाजी से उनके पिता लालू यादव और ‘चाचा’ नीतीश कुमार सकते में आ गए. गौरतलब है कि लालू और नीतीश का बड़ा मुस्लिम वोट बैंक है और तेज प्रताप ने गाय को मारने पर रोक लगा का मुसलमानों को नाराज कर डाला.
पिछले दिनों भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने चुटकी लेते हुए कहा था कि लालू यादव ने अपने बेटों को राजनीति में सेटेल कर दिया है और अब उनकी शादी कर देनी चाहिए. मोदी के इस मजाक पर तेज प्रताप तैश में आ गए और कह डाला कि मोदी अपने बेटे का विवाह क्यों नहीं करते हैं? क्या वह नपुंसक है? उनके इस बात पर बिहार की सियासत गरमा गई तो लालू और नीतीश को उस पर पानी डालने के लिए आगे आना पड़ा. पार्टी की बैठकों या किसी सभा में वह बात-बेबात फोटोग्राफरों से उलझ पड़ते हैं. पार्टी की एक बैठक में वह किसी फोटोग्राफर का कैमरा लेकर फोटो खींचने लगे. उनका फोटो खींचता फोटो किसी फोटोग्राफर ने खींच लिया तो इस पर वह बिदक गए और फोटोग्राफर को धमकाने लगे. कैमरा छीन कर तोड़ने की धमकी दे डाली. उनकी इस हरकत पर पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने राजद के कार्यक्रमों के बहिष्कार का ऐलान कर डाला. आखिर लालू ने बीच में कूद कर मामले को शांत कराया.
अकसर अपने ललाट पर चंदन-टीका लगा कर घूमने वाले 28 साल के तेज प्रताप राजद की टिकट और महुआ विधान सभा सीट से पहली बार 2015 में विधायक बने थे. बिहार में महागठबंधन की सरकार में उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया था. राजद के सूत्रों की मानें तो वह अपने छोटे भाई तेजस्वी को उप मुख्यमंत्री बनाए जाने से खासे नाराज हैं. इस बात को लेकर वह अपने पिता लालू यादव से भी नाराज रहते हैं. अकसर वह मंदिरों के चक्कर लाने लगे हैं. कई बार देर रात को उठ कर भी किसी मंदिर की ओर निकल पड़ते हैं.
आप लोग किसी मुगालते में न रहें, सरकार तो अकेले शिवराज के दम पर चल रही है, शिवराज तम्बू हैं ,विधायकों और कार्यकर्ताओं को बम्बू बनना होगा, तभी सरकार ठीक से चल सकती है. संगठन के पास सबकी परफ़ार्मेंस रिपोर्ट है, उसी के आधार पर टिकिट दिये जाएंगे, ये उद्गार मध्य प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नन्दकुमार सिंह चौहान ने पचमढ़ी में सम्पन्न विधायक प्रशिक्षण वर्ग में व्यक्त किए, तो कई बातें एक साथ उजागर हुईं. इनमे से पहली जो आखिरी भी है यह है कि हाल फिलहाल मध्य प्रदेश भाजपा में शिवराजसिंह पहले और आखिरी विकल्प हैं, इसलिए किसी और को मुंगेरीलाल सरीखे सपने देखने की जहमत नहीं उठानी चाहिए. दूसरा संदेशा यह दिया गया कि ये बातें महज बकवास और कोरी अफवाहें हैं कि आरएसएस और शिवराज के बीच कोई अनबन है. तीसरी अहम बात यह थी कि इसके बाद भी जिसे सपने आना बंद न हों, तो उसकी नींद रिपोर्ट कार्ड नाम के चिट्ठे के जरिये उड़ा दी जाएगी, अब जिसे जो करना हो कर ले.
विधायकों के लिए यह प्रशिक्षण वर्ग चेतावनी और मुख्यमंत्री के लिए वरदान साबित हुआ, जिसमे हमेशा की तरह हीरो शिवराजसिंह चौहान ही रहे. लाख टके के इस सवाल का जबाब किसी के पास नहीं कि आखिर क्यों भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को शिवराज की सर्वमान्यता का नवीनीकरण कराना पड़ा, वह भी धोंस धपट बाले लहजे में. दरअसल में एमपी में सब कुछ ठीक ठाक नहीं है. बहुत कुछ होने के बाद भी कुछ होता नहीं दिख रहा है, जिससे जनता त्रस्त हो चली है. सिवा शिवराज के किसी के पास कोई अधिकार नहीं है, नौकरशाही हावी हो रही है और सूबे की कानून व्यवस्था चरमराने लगी है. अगला साल चुनावी है लिहाजा भाजपा ने अपने इस गढ़ को बनाए रखने कसरत अभी से शुरू कर दी है और यह ऐलान भी कर दिया है कि भाजपाई जिम के ट्रेनर शिवराज ही रहेंगे.
इधर परेशानी वे राजनैतिक विश्लेषक खड़ी कर रहे हैं जो दबी जुबान में यह मशवरा देने लगे हैं कि अगर भाजपा को प्रदेश अपने हाथ में रखना है तो सीएम बदल देना चाहिए, क्योंकि लोग शिवराज से ठीक वैसे ही ऊब चले हैं जैसे साल 2003 में दिग्विजयसिंह से ऊब गए थे. इतिहास तो नहीं पर हालात अपने आप को दोहरा रहे हैं, मसलन कर्मचारी सातवां वेतन आयोग लागू न होने से खफा हैं, उन्हे मालूम है कि सरकार यह घोषणा चुनाव के पहले कर देगी, पर यह हक वक्त पाए दे दे तो उसमें निष्ठा बनाए रखी जा सकती है. किसानों की परेशानियां जस की तस हैं और दलित वर्ग भाजपा से छिटकने लगा है और काम उतने हुये नहीं हैं जितने कि गिनाए जाते हैं.
यह ठीक है कि कांग्रेस की हालत पतली है पर लोकतन्त्र में कुछ भी हो सकता है. अरविंद केजरीवाल ने सूबे पर नजरें गड़ा दी हैं और अगर कमलनाथ या ज्योतिरादित्य सिंधिया में से किसी एक ने प्रदेश कांग्रेस की कमान संभाल ली, तो बदलाव की मानसिकता में आ रहा वोटर उनसे चेटिंग शुरू न कर दे. लेकिन भाजपा शिवराज के बारे में कुछ सुनने तैयार नहीं तो कुछ विधायकों और कई कार्यकर्ताओं को भी महसूस होने लगा है कि पार्टी में आंतरिक लोकतन्त्र नाम की व्यवस्था खत्म हो चली है. अगर शिवराज की ही पालकी ढोने मजबूर किया जा रहा है, तो दूसरे दर्जे के नेताओं से मौका छीनना इसे क्यों न कहा जाये. चुनाव के वक्त जिन कार्यकर्ताओं की तारीफ में कसीदे गढ़े जाते हैं, आज उसके कहने पर राशन कार्ड भी नहीं बन रहा, तो प्रचार के वक्त वोटर को क्या मुंह दिखाएंगे.
पचमढ़ी में कुछ विधायकों ने मंत्रियों की शिकायत की तो उन पर ध्यान नहीं दिया गया उलटे नसीहत विधायकों को ही दे दी गई. ऐसे में इसी तम्बू के नीचे बम्बू बनकर खड़े रहने की मजबूरी बड़ी उठा पटक की भी वजह बन सकती है. एक पूर्व भाजपा विधायक की मानें तो पार्टी अति आत्म विश्वास का शिकार हो चली है. पचमढ़ी में किसी को मुंह खोलने की इजाजत नहीं थी, पर कान खुले रखने सभी को निर्देश थे. हमने सुना पर हमारी कौन सुनेगा, वे अध्यक्ष महोदय जो सीएम की चाटुकारिता करते रहे, ताकि अध्यक्ष बने रहें, तो बेहतर होगा कि अध्यक्ष भी शिवराज को ही बना दिया जाये. इस नेता के मुताबिक जब बुरा वक्त आता है तो अच्छे अच्छे तम्बू उखड़ जाते हैं. शिवराज का जरूरत से ज्यादा गुणगान और महिमामंडन यूं ही होता रहा तो उनसे चिढ़ने वालों की तादाद और बढ़ेगी, इसलिए वक्त रहते पार्टी को संभल जाना चाहिए .
अगर आपको अपने चुनाव क्षेत्र का कोई प्रत्याशी पसंद नहीं है, तो आप ‘नोटा’ का बटन दबा सकते हैं. चुनाव सुधार के तहत वोटर को यह अधिकार मिल गया है. यह बात अलग है कि वोटर के इस अधिकार का कोई प्रचार नहीं कर रहा है. राजनीतिक दल और चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी तो इसका प्रचार कर ही नहीं सकते. चुनाव आयोग भी इसका व्यापक ढंग से प्रचार नहीं कर रहा है. यही कारण है कि जिन लोगों को चुनाव से कोई लाभ नहीं दिख रहा वह वोट डालने घर से नहीं निकल रहे. चुनाव आयोग द्वारा वोट डालने के प्रचार में लाखों करोडों खर्च करने के बाद भी शतप्रतिशत मतदान दूर की कौडी है. चुनाव सुधारों के लिये काम कर रहे लोकतांत्रिक मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष प्रताप चन्द्रा कहते हैं ‘चुनाव आयोग को नोटा का प्रचार करना चाहिये. जिससे राजनीतिक दलों से नाराज लोग वोट देने के अपने विकल्प को जान सके.’
चुनाव आयोग भले ही नोटा का प्रचार न कर रहा हो, पर लखनऊ में कुछ कारोबारी ‘नोटा’ के प्रचार के लिये पूरे शहर में होर्डिंग लगा रहे हैं. यह कारोबारी ज्यादातर लखनऊ के अमीनाबाद बाजार के रहने वाले हैं. कारोबारियों को शिकायत है कि चुनाव के समय सभी दल इस बात के लिये तैयार हो जाते हैं कि चुनाव के बाद अमीनाबाद बाजार में सुधार करेंगे. चुनाव जीतने के बाद कोई इस दिशा में काम नहीं करता है. इससे परेशान कारोबारी अब चुनाव में ‘नोटा’ का प्रचार कर रहे हैं. यह लोग अपने स्तर से भी प्रचार कर रहे हैं और होर्डिंग लगाकर पूरे शहर को भी जागरुक कर रहे हैं.
चुनाव का बहिष्कार पहले भी बहुत सारे चुनाव क्षेत्रों में होता रहा है. ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में इस तरह के कदम लोग गुस्से में आकर उठाते रहे हैं. कई जगहों में वोट मांगने वालों को वापस जाने को कहा जाता है. बैनर पोस्टर लगाने से खबरे छप जाती हैं तो प्रशासन कुछ इस क्षेत्र का ख्याल रख लेता है. प्रदेश की राजधानी के अंदर पहली बार इस तरह का प्रचार ‘नोटा’ को लेकर किया जा रहा है. चुनाव आयोग के मुताबिक अगर किसी क्षेत्र में 50 फीसदी वोटर ‘नोटा’ का बटन दबा देंगे तो इलाके का चुनाव रद्द हो जायेगा.
प्रताप चन्द्रा कहते हैं ‘अगर जनता को लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया से जोडे रखना है तो कई सुधार करने की जरूरत है. नोटबंदी का असर चुनाव पर नहीं दिख रहा है. सभी दल पहले की ही तरह जोरशोर से खर्च कर रहे हैं. इससे यह बात साफ हो गई कि नोटबंदी की पाबंदी केवल जनता के लिये थी, राजनीतिक दलों पर इसका असर नहीं पडा. आज भी चुनाव जीतना गरीब आदमी के बस की बात नहीं है. चुनाव में हर कोई बराबरी से तभी चुनाव लड़ पायेगा जब वोट डालने के लिये ईवीएम मशीन पर केवल प्रत्याशी का नाम दर्ज हो. किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह न हो. निर्दलीय को एक सप्ताह पहले सिंबल दिया जाता है और पार्टी के प्रत्याशी के पास पहले से चुनाव चिन्ह होता है. ऐसे में चुनाव मैदान में मुकाबला बराबरी का नहीं होता. यही कारण है कि प्रत्याशी काम न करके दलों से किसी भी तरह टिकट हासिल करने के प्रयास में रहता है.’
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा के चुनाव प्रचार देखकर ऐसा लगता है जैसे यह लोकसभा के चुनाव हों. भाजपा पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांग रही है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस तरह से अपने भाषण दे रहे हैं जैसे वह खुद मुख्यमंत्री पद के दावेदार हों. भाजपा के स्टार प्रचारकों के नामों वाली सूची में वैसे तो बहुत सारे नाम हैं पर सबसे अहम नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का है. इनके प्रभाव के सामने उत्तर प्रदेश के भाजपा नेता फकत तमाशाई नजर आ रहे हैं. विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के बढ़ते महत्व ने प्रदेश स्तर के नेताओं को हाशिये पर ढकेल दिया है.
खुद प्रधानमंत्री मोदी भी अपने बयानों से यही जाहिर कर रहे हैं कि विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश के विकास की जिम्मेदारी उनकी अपनी है. राजधानी लखनऊ से लगे बाराबंकी जिले में चुनाव प्रचार करते प्रधानमंत्री मोदी ने कहा ‘मैं उत्तर प्रदेश का गोद लिया बेटा हूं. यह गोद लिया बेटा मां बाप को छोड़ेगा नहीं. जो खुद का बेटा नहीं कर पाया वह गोद लिया बेटा कर दिखायेगा.’ प्रधानमंत्री के बयान से साफ है कि उत्तर प्रदेश में जो भी नेता मुख्यमंत्री बनेगा वह नाम का होगा. असल राज नरेन्द्र मोदी ही करेंगे.
विरोधी नेता प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी के बयान को अपने अंदाज में पेश कर रहे हैं. बसपा नेता मायावती कहती हैं ‘गोद लिया बेटा बताना मोदी का नाटक है. लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश ने सबसे अधिक सीटें भाजपा को दी थी. लोकसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश को क्या मिला? मोदी ने लोकसभा चुनाव में किया अपना कौन सा वादा निभाया? यह उत्तर प्रदेश की जनता देख रही है. लोकसभा चुनाव की ही तरह मोदी विधानसभा चुनाव में भी वादा कर रहे हैं. प्रदेश के लोग अब इस झांसे में आने वाले नहीं है.’
सपा नेता और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मोदी के बयानों का जवाब देते कहा कि मोदी जी केवल अचछा बोलते हैं. अच्छे दिन लाने का वादा करके लोकसभा में वोट हासिल किया और फिर अच्छे दिन के नाम पर लोगों को लाइन में लगाने का काम किया. विधानसभा चुनाव में लोकसभा वाला झांसा नहीं चलेगा. यह चालू पार्टी के लोग हैं झूठ बोल कर वोट लेने में महिर हैं. अब इनकी पोल खुल चुकी है.
राजनीतिक समीक्षक योगेश श्रीवास्तव कहते हैं ‘विधानसभा चुनाव में इसके पहले किसी प्रधानमंत्री ने इतना अधिक व्यापक प्रचार नहीं किया है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा ने विधानसभा चुनावों में किसी नेता को अपना चुनावी चेहरा नहीं बनाया. अब विधानसभा चुनावों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मोदी-शाह की जोड़ी पर है. उत्तर प्रदेश का न होने के बाद भी दोनों ही नेता उत्तर प्रदेश की बोली में भाषण कर जनता का दिल जीतने की कोशिश में रहते हैं. कांग्रेस-सपा गठबंधन पर ही उनका सबसे बड़ा हमला हो रहा है. बसपा पर भाजपा के यह नेता सीधे हमले से बच रहे है. इससे यह लगता है कि चुनाव के बाद के लिये भाजपा बसपा के साथ तालमेल का रास्ता खुला रखना चाहती है. बसपा इस बात से बचना चाहती है इसीलिये प्रधानमंत्री के बयान की पहली आलोचना मायावती की तरफ से आती है. बसपा को यह डर है कि भाजपा के साथ पुराने रिश्तो के चलते मुसलिम मतदाता बसपा से दूरी न बना ले.’