तलाक के लिए गुनाह और फसाद क्यों

शादीशुदा जीवन में कलह व विवाद होना आम है़ ये विवाद मुकदमे की शक्ल में अदालत तभी पहुंचते हैं जब पानी सिर से ऊपर उठने लगता है. ऐसे में तलाक की वजह से पतिपत्नी कई बार ऐसे फसादों व गुनाहों को अंजाम देने की तरफ बढ़ चलते हैं जो दोनों के लिए ठीक नहीं होते. कैसे, जानें इस लेख में.

27 साला चेतन सुभाष सुराले पेशे से सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. पुणे में रहने वाले चेतन की शादी इसी साल मार्च में स्मितल सुराले नाम की लड़की से धूमधाम से हुई थी जो मेकैनिकल इंजीनियर है. चेतन बहुत खुश था क्योंकि 25 साला खूबसूरत और पढ़ीलिखी स्मितल मौडर्न और स्मार्ट भी थी. ऐसी बीवी आजकल के लड़कों की पहली पसंद होती है. एकदूसरे को नजदीक से सम झने और मौजमस्ती के लिए दोनों हनीमून पर नहीं जा पाए थे क्योंकि शादी के तुरंत बाद लौकडाउन लग गया था.

लौकडाउन हटा और जिंदगी पटरी पर आने लगी तो दोनों बीती 18 अक्तूबर को हनीमून मनाने के लिए महाबलेश्वर जा पहुंचे जहां की खूबसूरती और आबोहवा दुनियाभर में मशहूर है. दोनों ने अपने बजट के मुताबिक एक अच्छे होटल में डेरा डाल लिया और जिंदगी के हसीन लमहों को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, खासतौर से चेतन ने जिस का दिल एक सैकंड भी नईनवेली बीवी से जुदा होने को नहीं करता था. दोनों दिनभर बांहों में बांहें डाले महाबलेश्वर में घूमते थे और रात को होटल के अपने कमरे में आ कर एकदूसरे के आगोश में ऐसे खो जाते थे मानो दुनिया की कोई ताकत अब उन्हें जुदा नहीं कर पाएगी.

अजब प्यार की गजब कहानी

होटल में दोनों की मुलाकात 22 साला कोस्तुभ अनिल गोगाटे नाम के नौजवान से हुई जो अकेला ही महाबलेश्वर आया था. अनिल खुशमिजाज था और यारबाज भी. लिहाजा, उस की पहल पर चेतन 2 दिनों में ही उस का दोस्त बन गया क्योंकि वह भी पुणे का ही था. शाम को दोनों जिगरी दोस्तों की तरह साथ बैठते हमप्याला, हमनिवाला हो गए.

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स्मितल ने इस दोस्ती और नजदीकी पर कोई एतराज नहीं जताया बल्कि दोनों के साथ बैठ कर वह भी इन की महफिल में शरीक होने लगी. इस तरह खाली वक्त और अच्छे से गुजरने लगा.

तीसरे दिन ही अनिल ने बातों ही बातों में चेतन के सामने रोना रोया कि लौकडाउन के चलते उस की नौकरी छूट गई है और अब तो उस के पास मकान का किराया देने को भी पैसे नहीं बचे हैं. ऐसे में अगर वह उस की मदद करे तो बड़ा एहसान होगा. नौकरी मिल जाने के बाद वह उस की पाईपाई चुका देगा. मदद के नाम पर उस ने मांगा यह कि चेतन उसे कुछ दिन अपने घर में रहने की इजाजत दे दे. नरम दिल चेतन पसीज गया और हामी भर दी. महाबलेश्वर से ये लोग वापस पुणे आए, तो अनिल भी उन के घर में रहने लगा.

हफ्ताभर ठीकठाक गुजरा, अनिल इन दोनों से कुछ इस तरह घुलमिल गया जैसे सालों से इन्हें जानता हो और घर का ही सदस्य हो. लेकिन जब उस की हकीकत चेतन को पता चली तो उस के पैरोंतले जमीन खिसक गई और वह बेइंतहा घबरा उठा क्योंकि अनिल उस को तो नहीं, बल्कि स्मितल को न केवल सालों से जानता था बल्कि उस से प्यार भी करता था और दोनों शादी भी करने वाले थे पर जाति अलग होने के चलते उन के घर वाले तैयार नहीं हुए थे जिन के दबाव में आ कर स्मितल ने मजबूरी में चेतन से शादी कर ली थी.

दरअसल, एक दिन चेतन ने अनिल का मोबाइल खोला तो वह यह जान कर सकते में आ गया कि उस के साथ जिंदगी का सब से बड़ा धोखा हुआ है. महाबलेश्वर में अनिल का अचानक या इत्तफाक से मिल जाना पत्नी और उस के प्रेमी की तयशुदा साजिश थी. बात यहीं खत्म हो जाती तो और थी, लेकिन अनिल और स्मितल के मोबाइल पर एकदूसरे से लिपटते हुए फोटो और चैटिंग उस ने पूरी देखी तो उस के रहेसहे होश भी फाख्ता हो गए. इन दोनों ने यह तक तय कर लिया था कि स्मितल मौका देख कर चेतन के अंग की नस काट कर उसे हमेशा के लिए नामर्द बना देगी और इसी नामर्दी की बिना पर वह उस से तलाक ले कर अनिल से शादी कर हमेशा के लिए उस की हो जाएगी.

इतना सबकुछ हो गया और चेतन को भनक भी नहीं लगी. लेकिन सचाई उजागर होते ही उस ने तुरंत पुणे के मालवाड़ी थाने में दोनों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. वह इतना डरा हुआ था कि रिपोर्ट लिखाने के पहले सीधा अपने घर अहमदाबाद जा कर मांबाप को सारी कहानी बताई थी. अब पुलिस इस अजब प्यार की गजब कहानी की तफ्तीश कर रही है जिस की जड़ में एक कड़वा सच स्मितल का यह सोचना भी है कि अगर वह बिना किसी तगड़ी वजह के तलाक के लिए अदालत जाती तो तलाक मिलने में सालोंसाल लग जाते. लिहाजा, वजह उस ने आशिक के साथ मिल कर पैदा कर ली, लेकिन उस में कामयाब नहीं हो पाई.

यह वाकेआ जिस ने भी सुना, उस ने दांतोंतले उंगली दबा ली कि ऐसा भी होता है. लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया कि इस फसाद की जड़ स्मितल की गलती के साथसाथ आसानी से तलाक न मिलने का डर भी था हालांकि इस में कोई शक नहीं कि वह प्यार अनिल से करती थी और इस हद तक करती थी कि उस से शादी की खातिर सीधेसादे और बेगुनाह पति का प्राइवेट पार्ट काटने तक की हिम्मत जुटा बैठी थी. अगर यही हिम्मत वह प्रेमी से शादी करने को दिखा पाती तो आज बजाय कोर्टकचहरी करने के, सुकून से जिंदगी  अनिल के साथ गुजार रही होती.

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और भी हैं फसाद

स्मितल ने तलाक के लिए बजाय अदालत का दरवाजा खटखटाने के एक संगीन गुनाह करने का मन क्यों बना लिया था, इस सवाल का जवाब आईने की तरह साफ है कि देश की अदालतों में तलाक के मुकदमे सालोंसाल घिसटते हैं लेकिन पतिपत्नी को तलाक के बजाय मिलती है तारीख पर तारीख जिस से उन की जिंदगी नरक से भी बदतर हो जाती है. कई तो पेशियां करतेकरते बूढ़े हो जाते हैं. लेकिन अदालत को उन की परेशानियों से कोई वास्ता नहीं रहता कि वे भयंकर तनाव में जी रहे होते हैं. मुकदमे के फैसले तक वे दूसरी शादी भी नहीं कर पाते क्योंकि यह कानूनन जुर्म है.

घर, परिवार और समाज में भी तलाक का मुकदमा लड़ रहे पतिपत्नी को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. एक तरह से उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है मानो वे अछूत हों. औरतों को ज्यादा दुश्वारियां  झेलनी पड़ती हैं क्योंकि हर किसी की गिद्ध सी निगाह उन की जवानी पर रहती है.

भोपाल की वसंती (बदला नाम) का तलाक का मुकदमा अपने पति से 3 साल से चल रहा है. वह बताती है कि उस की हालत तो कटी पतंग जैसी हो गई है जिसे हर कोई लूटना चाहता है. घरों में  झाड़ूपोंछा कर गुजरबसर कर रही

गैरतमंद वसंती को उस वक्त गहरा धक्का लगा था जब उस के एक पड़ोसी, जिसे उस ने भाई माना हुआ था, ने उस की कलाई पकड़ते बेशर्मों की तरह यह कहा था कि कब तक प्यासी भटकती रहोगी, जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता तब तक हम से प्यास बु झा लो और हमारी भी प्यास बु झा दो.

गरीब वसंती के दिल पर क्या गुजरी होगी, इस का अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता सिवा उन लोगों के जो सालों से तलाक का मुकदमा लड़ते जिंदगी से बेजार होने लगे हैं. ऐसे ही भोपाल के ही  एक नौजवान पत्रकार योगेश तिवारी 12 साल से तलाक के लिए अदालतों के चक्कर काटते 44 साल के हो चुके हैं. अब तो उन की दूसरी शादी कर घर बसाने की ख्वाहिश भी दम तोड़ चुकी है और बूढ़े मांबाप की सेवा करतेकरते वे खुद बूढ़े दिखने लगे हैं. योगेश अपनी इस हालत का जिम्मेदार तलाक कानूनों और अदालतों के ढुलमुल तौरतरीकों को ठहराते हैं, तो उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता.

गुनाह की तरफ बढ़ते कदम

पुणे की स्मितल जैसा ही एक मामला लौकडाउन के ही दौरान 20 अगस्त को बहादुरगढ़ से भी सामने आया था जब शहर के सैक्टर 9 में रहने वाले प्रदीप शाह की हत्या उस की पत्नी ने 10 अगस्त को अपने प्रेमी दिल्ली के रहने वाले यशपाल के साथ मिल कर कर दी थी क्योंकि पति उसे तलाक देने को राजी नहीं हो रहा था. बिलाशक, यह खतरनाक गुनाह था. लेकिन अगर कानून में ऐसे कोई इंतजाम होते कि पति या पत्नी, वजह कोई भी हो, तलाक की फरियाद ले कर अदालत जाए और तुरंत तलाक हो जाए तो ऐसे जुर्म होंगे ही नहीं क्योंकि पति व पत्नी दोनों को आजादी और मरजी से जीने का हक मिल जाएगा.

तलाक आसानी से न होने पर पत्नी की हत्या का एक मामला मार्च के तीसरे सप्ताह में बहराइच से उजागर हुआ था. इस मामले में नेपाल से सटे गांव अडगोडवा में हसरीन नाम की औरत की लाश मिली थी. पुलिसिया छानबीन में पता चला था कि हसरीन का पति रियाज 3 साल से सऊदी अरब में रह रहा था. उस की पटरी मायके में रह रही पत्नी से नहीं बैठती थी, जिस के चलते वह उसे तलाक दे कर दूसरी शादी करना चाहता था. पत्नी की हत्या के लिए रियाज ने मुंबई में रहने वाले अपने भाई मेराज को बहराइच भेजा, जिस ने साजिश रच कर हसरीन को मार डाला. लेकिन, पकड़ा गया.

ऐसे हजारों मामले हैं जिन में पति या पत्नी ने तलाक के लिए हत्या जैसा गुनाह किया या फिर एकदूसरे को किसी न किसी तरीके से नुकसान पहुंचाया. अगर तलाक आसानी से मिलता होता तो ये अपराध शायद ही होते. जो हिंसा नहीं कर पाते या नहीं कर सकते वे घटिया और ओछे हथकंडे अपना कर तलाक हासिल करने की कोशिश करते हैं. उन की मंशा भी अपना पक्ष मजबूत करने की होती है जिस से उन्हें लगता है कि अदालत पसीज जाएगी और आसानी से तलाक उन्हें मिल जाएगा.

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आजमगढ़ की एक औरत ने थाने में रिपोर्ट लिखाई थी कि कुछ लोग उसे गंदे मैसेज और वीडियो भेज रहे हैं जिस से वह दिमागीतौर पर परेशान है. छानबीन में पता चला कि उस का पति पुनीत ही यह सब खुद कर रहा था और कुछ दोस्तों से भी करवा रहा था कि जिस से पत्नी परेशान हो कर तलाक के लिए राजी हो जाए. पुनीत ने अपनी पत्नी की नंगी सी तसवीरें उस के फोन नंबर के साथ फेसबुक पर डालते लिखा था कि सेवा के लिए हमेशा मौजूद. इस से कई मनचले पत्नी को फोन कर उस का रेट पूछने लगे थे. यानी, तलाक के लिए पति, पत्नी घटिया से घटिया तरीका आजमाने से नहीं चूकते. पुनीत की मंशा यह थी कि पत्नी बदनाम हो जाएगी तो इस बिना पर उसे जल्द तलाक मिल जाएगा.

मुकदमे से तंग आ कर खुदकुशी भी

यह तो तलाक के लिए हैरानपरेशान पति, पत्नियों का एक पहलू था लेकिन दूसरा भी कम चिंताजनक नहीं जिस में तलाक के मुकदमे के चलते पति, पत्नी में से कोई उम्मीद के साथसाथ खुदकुशी कर जिंदगी भी छोड़ जाते हैं क्योंकि इंसाफ की उन की आस पूरी होती नहीं लगती. वजह, मुकदमे का लंबा खिंचना होता है.

ललितपुर के गांव थवारी के 23 साला नौजवान राजकुमार ने भी यही रास्ता चुना था जिसे वक्त रहते तलाक नहीं मिला तो उस ने परेशान हो कर नरक होती जिंदगी  ही छोड़ दी. 13 फरवरी को राजकुमार ने जहर खा कर खुदकुशी कर ली थी. उस के पिता बसन्ते के मुताबिक, राजकुमार तलाक न मिलने से टैंशन में आ गया था. अदालत में पेशियों पर पेशियां लगती जा रही थीं और अदालत को कोई सरोकार उस के तनाव से नहीं था. राजकुमार का गुनाह इतनाभर था कि उस की अपनी बीवी से पटरी नहीं बैठ रही थी.

ऐसा ही एक चर्चित मामला ग्रेटर नोएडा के सैक्टर डेल्टा 1 में रहने वाले अरुण कुमार का है, जिस की पत्नी शीतल ने सुहागरात के हसीन वक्त में उस के ख्वाब यह कहते चकनाचूर कर दिए थे कि मांबाप ने उस की शादी जबरदस्ती कर दी है जबकि वह 7 साल से मनीष नाम के नौजवान से प्यार करती है और उस के साथ जिंदगी नहीं गुजार सकती. अरुण को सम झ आ गया कि अब कुछ नहीं हो सकता, तो उस ने तलाक की बात कही. लेकिन शीतल और उस के घर वाले तलाक के एवज में 60 लाख रुपए की मांग पर अड़ गए. दोहरी परेशानी से आजिज आ गए बेकुसूर अरुण ने फांसी लगा कर जान दे दी. उसे यह सम झ आ गया था कि तलाक का मुकदमा सालों चलेगा और उसे दहेज मांगने के इलजाम में जेल की हवा भी खानी पड़ेगी.

असली गुनाहगार तो ये हैं

आखिर क्यों पति, पत्नी तलाक के लिए अदालत जाने के बजाय फसाद और गुनाह का शौर्टकट अपनाने लगे हैं, इस सवाल का जवाब बेहद कड़वा है कि पति, पत्नी अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़तेरगड़ते रो देते हैं लेकिन कानून बजाय उन की परेशानी सुल झाने के, हर पेशी पर उन्हें तारीख दे देता है. तलाक के लिए उस की वजह बताना जरूरी होती है जो अगर अदालत के गले न उतरे तो मुकदमा खारिज भी हो जाता है. पति, पत्नी का यह कहना कोई माने नहीं रखता कि आपसी मनमुटाव और खयालात न मिलने के चलते वे एक छत के नीचे सुकून से नहीं रह सकते, इसलिए तलाक की उन की अर्जी मंजूर की जाए.

अदालतों में उलटी गंगा बहती है. पति या पत्नी अपना दुखड़ा और फरियाद  लिए कोर्ट पहुंचते हैं, तो जज कहता है, और सोच लो और फिर अगली तारीख लगा देता है. इस से तलाक चाहने वालों, जो घुटघुट कर जी रहे होते हैं, को लगता है कि कोई ऐसी तगड़ी और वजनदार  वजह बताई जाए जिस से अदालत जल्द तलाक दे दे. इसलिए, अधिकांश मामलों में पति पत्नी के चालचलन पर उंगली उठाता है, उसे कलह करने वाली बताता है तो पत्नी पति पर नामर्दी और मारपीट वगैरह के इलजाम लगाती है. दोनों ही अधिकतर मामलों में  झूठे होते हैं.

अदालतें क्यों पति, पत्नी को साथ रहने को मजबूर करती हैं, जबकि दोनों अच्छी तरह सम झ चुके होते हैं कि अब पति पत्नी की तरह साथ रहना मुमकिन ही नहीं. इस का जवाब न तो कानून बनाने वाली संसद के पास है न इंसाफ करने वाले जजों के और न ही तलाक के मुकदमों की आग में घी डालने वाले वकीलों के पास, जो हर पेशी पर तगड़ी दक्षिणा अपने हैरानपरेशान मुवक्किलों से पंडेपुजारियों की तरह  झटकते रहते हैं.

पहली पेशी पर तलाक चाहने वाला अपनी बात रखता है, तो अदालत कहती है कि पहले फैमिली कोर्ट या परिवार परामर्श केंद्र में जाओ. वहां काउंसलर तुम्हें सम झाएगा कि तलाक के बजाय सम झौता कर लो, इस से तुम्हारी घरगृहस्थी बसी रहेगी. यह सम झाइश बेहद बेकार का टोटका साबित होने लगी है क्योंकि पति या पत्नी तलाक के लिए तभी जाते हैं जब वे दूसरे के साथ रह नहीं पाते. 3 नवंबर को भोपाल की आयशा (बदला नाम) से पेशी के दिन अदालत ने कहा कि पहले ससुराल जा कर करवाचौथ का त्योहार मनाओ, फिर हमें रिपोर्ट दो कि क्या हुआ. आयशा ने शादी के लिए इस शर्त पर ही हामी भरी थी कि वह शादी के बाद अपनी पढ़ाई जारी रखेगी और अपने पांवों पर खड़ी होगी.

लेकिन वादे से मुकरते शादी के बाद पति और ससुराल वालों ने उसे आगे पढ़ने से मना कर दिया. यहीं से कलह शुरू हुई और मामला अदालत तक जा पहुंचा जहां आयशा को इंसाफ के बजाय अदालती नसीहत मिली और वह मजबूर हो कर दोबारा ससुराल चली गई. अब आगे कुछ भी हो, लेकिन यह जरूर साफ हो गया कि एक औरत को अपना कैरियर बनाने और पढ़ने देने से अदालत ने कोई वास्ता नहीं रखा.

औरत ज्यादा घुटती है

आयशा को सम झ आ रहा होगा कि तलाक यों ही नहीं मिल जाता, इसलिए मुमकिन है वह अपने सपनों का गला घोंट कर ससुराल वालों के कहे मुताबिक रहने लगे जो उस की मजबूरी बना दी गई है. अदालत ने देखा जाए तो कोई नई बात नहीं कही है बल्कि वही बात कही है जो धर्म, समाज और संस्कृति के ठेकेदार औरतों से कहते रहते हैं कि औरत का वजूद और जिंदगी पति और उस के घर वालों से ही है. उसे आजादी और अपनी मरजी से जीने का कोई हक नहीं. फिर भले ही पति शराबी, कबाबी, लंपट, जुआरी, लुच्चा, लफंगा और दूसरी औरतों से ताल्लुक रखने वाला क्यों न हो.

अहम बात यह है कि अदालतों के ऐसे ही फरमानों और तलाक की कार्रवाई कठिन होने के चलते पत्नी तो पत्नी, कई बार पति भी अदालत का रुख नहीं करते क्योंकि उन्हें उपदेशों और प्रवचनों की बेअसर खुराक नहीं, बल्कि घुटनभरी शादीशुदा जिंदगी से छुटकारा चाहिए रहता है. जो नहीं मिलता तो कई बार वे गुनाह और फसाद का रास्ता पकड़ने को मजबूर हो जाते हैं या फिर घुटघुट कर ही जीते रहते हैं.

शादीशुदा जिंदगी में कलह या विवाद आम बात है. लेकिन यह बात मुकदमे की शक्ल में अदालत तक तभी पहुंचती है जब पानी सिर से गुजरने लगता है. ऐसे में अदालतों को चाहिए कि वे पति, पत्नी की परेशानी सम झते तुरंत उन के रास्ते अलग कर दें, यानी, तलाक की डिक्री दे दें. इस से होगा यह कि इंसाफ मिलने के साथसाथ तलाक से जुड़े जुर्म भी कम होंगे जो दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं. वरना जो पुणे की स्मितल ने किया, जो बहराइच के रियाज ने किया वह और तेजी से बढ़ेगा जो समाज या देश या किसी के भी हित में किसी लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता. और इस फसाद की इकलौती वजह तलाक मिलने में देरी है, इसलिए शादी की तर्ज पर तलाक भी  झटपट होना चाहिए.

धर्म का धंधा: कुंडली मिलान, समाज को बांटे रखने का बड़ा हथियार!

लेखक- शाहनवाज

लड़केलड़की की कुंडलियों में यदि 36 गुणों में सभी गुणों का मिलान हो जाए तो क्या इस की कोई गारंटी है कि वैवाहिक जीवन खुशहाल रहेगा? यदि ऐसा न हुआ तो इस में किस का दोष माना जाएगा? क्या शादी से पहले कुंडली मिलान करना आवश्यक है या फिर कुंडली मिलान की प्रक्रिया के पीछे समाज को बांटे रखने वाली मानसिकता काम करती है? क्या यह सिर्फ एक धर्म में ही है या इस जैसी कोई प्रक्रिया अन्य धर्मों में भी पाई जाती है?

साल था जनवरी 2018, जब राजीव की शादी के लिए जगहजगह लड़की तलाशने के लिए लोगों के घर जाया जा रहा था. उन के घर वाले ऐसी बहू की तलाश में थे जो सुंदर हो, सुशील हो, घरबार का काम करना आता हो, पढ़ीलिखी हो इत्यादि. खानदान के पंडित बड़ी मेहनत से कुंआरी लड़कियों के रिश्ते का पता करते और एक के बाद एक लड़के की कुंडली के अनुसार लड़कियों को छांटते रहे. घर वालों ने तो पंडितजी से साफ कह दिया था कि लड़केलड़की की कुंडली में कम से कम 24 गुण तो मिलने ही चाहिए.

राजीव की कुंडली के अनुसार घर के पंडित का लड़की ढूंढ़ना थोड़ा मुश्किल होने लगा तो घर वालों ने अपने गांव के कुछ और पंडितों को भी लड़की ढूंढ़ने के इस काम में शामिल कर लिया. अंत में पंडितों के काफी तलाशने के बाद ऐसी लड़की मिल ही गई जिस से राजीव की कुंडली के 36 में से 32 गुणों का मिलान हो गया. राजीव के घर वाले बहुत खुश हुए और जल्द ही लड़की वालों से मिल कर रिश्ते की बात भी पक्की कर आए. अप्रैल तक आतेआते राजीव की शादी हो गई और नया जोड़ा हनीमून के वास्ते कुछ दिनों के लिए शिमला चला गया.

राजीव और कल्पना की शादी के कुछ महीने अभी हुए भी नहीं थे कि उन के बीच छोटीमोटी बातों को ले कर अनबन होनी शुरू हो गई. पहले बात केवल एकदूसरे के प्रति नाराजगी तक थी, लेकिन कुछ समय बाद यह छोटीमोटी अनबन छोटेमोटे  झगड़ों का रूप धारण करने लगी.

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घर वाले उन के बीच इन छोटे  झगड़ों को इग्नोर किया करते थे और कहते थे, ‘‘जिन पतिपत्नी के बीच  झगड़ा होता है उन के बीच प्यार भी उतना ही होता है.’’ अब यह बात कितनी सही कितनी गलत थी, यह तो बाद में ही सम झ आया जब छोटेमोटे  झगड़े इतने बढ़ने लगे कि सभी को चिंता होने लगी.

जैसेतैसे राजीवकल्पना की शादी को 7-8 महीने गुजर गए. उन का कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता था जब वे  झगड़ा न करते हों. साल 2019 की शुरुआत में ही वे दोनों एकदूसरे से इतने परेशान हो गए कि उन दोनों ने ही अपने परिवार की न मानते हुए एकदूसरे को तलाक देने का फैसला कर लिया. और अप्रैल 2019 के आतेआते वे दोनों कानूनी तरीके से एकदूसरे से अलग हो गए.

जिस जोड़े की कुंडली में 36 में से 32 गुणों का मिलान हो जाए, उस के बाद भी यदि शादी के बाद इतनी समस्याएं हों तो इस में किस का दोष है? क्या कुंडली मिलान करने वाले पंडित से गलती हुई? या फिर यह कुंडली वाला पूरा सिस्टम ही इस के पीछे का दोषी है? क्या शादीब्याह से पहले कुंडली देखना और गुणों का मिलान करना मात्र ढकोसला है या फिर इस के पीछे समाज को बांटे रखने वाली मानसिकता काम करती है?

एक पल के लिए यदि हम मान भी लें कि कुंडली मिलाने वाले पंडित की गलती के कारण ये सभी समस्याएं नवविवाहित जोड़े को सहनी पड़ीं, लेकिन हम ने अपने जीवन में कई ऐसे उदाहरण देखे हैं जिन में सर्वगुण संपन्न कुंडली मेल के बाद भी विवाहित जोड़ा अपना वैवाहिक जीवन सफल नहीं बना पाता. और हम ने यह भी देखा है कि कुंडली मेल बिलकुल भी न होने पर कई जोड़े बेहद सुखद वैवाहिक जीवन गुजारते हैं. ऐसे में कुंडली मिलान की परंपरा पर सवाल उठना उचित हो जाता है कि जब इस के मिलने या न मिलने से विवाहित जोड़े के जीवन में कोई असर नहीं पड़ता तो अभी भी बहुसंख्य शादीब्याहों में इस परंपरा को इतना अधिक मोल क्यों दिया जाता है?

क्या है कुंडली मिलान

दावा किया जाता है कि कुंडली आप की ऊर्जा प्रणाली और उस पर ग्रहों की प्रणाली के प्रभावों का वर्णन करती है.

विवाह के समय लड़के और लड़की की जन्म कुंडलियों को मिला कर देखा जाता है. कुंडली मिलान की इस विधि में 36 गुण होते हैं. विवाह की मान्यता के लिए 36 में से कम से कम 18 गुणों का मिलान होना चाहिए. इन 18 गुणों में नाड़ी, माकुट, गण, मैकी, योनि, तारा वासिफ वर्ण जैसे 8 कूटों में बंटे अंक होते हैं.

कुंडली मिलान अपनेआप में वैज्ञानिक नहीं है. सब से पहले तो एस्ट्रोलौजी को ही वैज्ञानिक नहीं माना गया है.

क्यों बन गया जरूरी

यदि हम कुंडली मिलान प्रथा को और इस की प्रक्रिया को ध्यान से अध्ययन करें तो पाएंगे कि इस मिलान के 36 गुणों में सब से महत्त्वपूर्ण गुण (जिसे गुण नहीं माना जाना चाहिए) वर्ण कूट है. वर्ण कूट से अभिप्राय वर्ण व्यवस्था से है. यानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. इन्हीं वर्णों से ही जातियों का उत्थान होता है. और तो और, वर्ण कूट को कुंडली मिलान की प्रक्रिया में सब से पहला स्थान दिया गया है.

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कुंडली मिलान की यह प्रक्रिया समाज में तब से ही चलती आ रही है जब से भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का उत्थान हुआ. पुराने समय में कुंडली मिलान की उपयोगिता केवल बेहतर साथी की तलाश के लिए (जिस की कोई गारंटी अभी भी नहीं है) ही नहीं, बल्कि जाति व्यवस्था कायम रखने के लिए भी थी.

वर्ण व्यवस्था समाज में एक तरह की छतरी के समान होती है, जिस के अंदर अलगअलग जातियों का समावेश होता है. हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था को बेहद अहम स्थान दिया गया है. ब्राह्मण का विवाह ब्राह्मण से, क्षत्रिय का विवाह क्षत्रिय से, वैश्य का विवाह वैश्य से और शूद्र का विवाह शूद्र से ही हो, इस चीज का क्रियान्वयन कुंडली मिलान की प्रक्रिया से ही संभव था.

भारत में जाति व्यवस्था ने समाज को हमेशा बांट कर रखा. उस के पीछे सब से बड़ा कारण समाज में कुछ लोगों के पास ही सब से अधिक संसाधन और सब से अधिक अधिकारों को अपने हाथों में बनाए रखना था. और यह सब समाज में बिना धर्म के लागू करना संभव ही नहीं था. मुट्ठीभर लोग, जिन के हाथों में संसाधन और अधिकारों का केंद्रीयकरण हो गया, समाज को अपने आने वाली पीढि़यों में हस्तांतरित करना चाहते थे.

इसी कारण उन्होंने समाज में लोगों के पेशे के अनुसार उन्हें विभाजित कर दिया. किसी दूसरी जाति का व्यक्ति किसी अन्य जाति के साथ संबंध न बना ले, इसीलिए तरहतरह की पाबंदियां लगा दी गईं. यह केवल संबंध बनाने की बात नहीं थी, बल्कि एक जाति का खून दूसरी जाति में मिश्रित न हो जाए, इस के ऊपर कंट्रोल करने के लिए कुंडली मिलान की प्रथा सब से अहम थी.

आज के समय में भी शादी से पहले कुंडली मिलान की यह प्रथा आम घरों में बेहद आम है. चाहे लड़के के लिए लड़की तलाशनी हो या फिर लड़की के लिए लड़का, कुंडली में जब तक 18 गुण नहीं मिल जाते तब तक शादी के लिए मंजूरी नहीं मिलती. और कुंडली मिलान की यह प्रथा, पढ़ाईलिखाई से वंचित लोगों के साथसाथ खूब पढ़ेलिखे लोग भी अपनी शादी के लिए योग्य  वर या वधू की तलाश के लिए प्रयोग करते हैं.

सफल होने की नहीं है गारंटी

चूंकि ज्योतिष विद्या या एस्ट्रोलौजी किसी तरह का कोई विज्ञान नहीं है, इसलिए इस का एक हिस्सा यानी कि कुंडली मिलान का भी किसी तरह का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. कुंडली प्रथा में जिस तरह ग्रहों और नक्षत्रों के मेल या अमेल से किसी व्यक्ति के लिए कौन योग्य है और कौन नहीं, इस का आकलन करने की नाटकनौटंकी की जाती है, उस से यह कहीं से भी न तो वैज्ञानिक लगती है और न ही यह कोई विज्ञान है.

मामला केवल जाति व्यवस्था को बनाए रखना है, बाकी सब तो मदारी के खेल जैसा है. जिस से लोगों को लगता है कि ज्योतिषी जो भी राहू, केतु, शनि, मंगल कर रहा है वह सब ठीक ही होगा. जबकि, कुंडली मिलान से बनाए जाने वाले संबंध अपने वैवाहिक जीवन में सफल हों, इस की कोई गारंटी नहीं है.

मसलन, राजीव का ही उदाहरण ले लीजिए. 36 में से 32 गुणों के मिलान के बावजूद शादी का एक साल भी नहीं हुआ और दोनों का तलाक हो गया.

उसी प्रकार रवि की शादी का किस्सा है. कालेज के दिनों में रवि का कालेज में एक लड़की से प्रेम हो गया. लड़की का नाम बुशरा हसन था. बुशरा और रवि ने अपने घर पर एकदूसरे के बारे में बताया. लेकिन कोई बात नहीं बनी. अंत में रवि और बुशरा ने कानूनी तरीके से कोर्ट में जा कर शादी कर ली. हाल में उन से मुलाकात हुई तो वे एकदूसरे के साथ बेहद खुश नजर आए.

आजकल इन शादियों को रोकने के लिए लव जिहाद का नारा दिया जा रहा है ताकि धार्मिक भेदभाव की लकीरों को ऊंची दीवारों में बदला जा सके.

यदि हम पौराणिक कथाओं की बात करें तो भगवान राम और सीता की जोड़ी के समय जब उन की कुंडली का मिलान महर्षि गुरु वशिष्ठ द्वारा किया गया, तो कहा जाता है कि उन की जोड़ी में 36 में से 36 गुणों का ही मिलान हो गया था. परंतु जब 36 गुणों का मेल हो ही गया था तो अंत में सीता को क्यों धरती में समाना पड़ा?

कुंडली प्रथा कितनी व्यावहारिक

कुंडली मिलान की प्रथा केवल समाज में पहले से मौजूद जाति व्यवस्था को मजबूती देती है. इस से यह सवाल बनता है कि आज के आधुनिक समाज में कुंडली मिलान अपनी कितनी व्यावहारिकता रखता है?

उदाहरण के लिए रवि और बुशरा की जोड़ी को ही ले लीजिए. यदि हम नाम से दोनों के धर्म का अंदाजा लगाएं तो रवि हिंदू धर्म से और बुशरा मुसलिम धर्म से ताल्लुक रखती है. इस हिसाब से तो रवि का मेल किसी भी तरीके से बुशरा के साथ होना ही नहीं चाहिए. लेकिन सचाई कुछ और ही बयां करती नजर आ रही है कि दोनों एकदूसरे के साथ बेहद खुश हैं.

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में कई ऐसे हैं जिन्होंने विधर्मी से विवाह किया और उन के विवाह भी सफल रहे, कैरियर भी. उसी प्रकार एक सवाल यह भी बनता है कि जिन धर्मों में कुंडली मिलान जैसी प्रथाओं को प्रैक्टिस नहीं किया जाता, क्या उन के यहां रिश्ते होते ही नहीं? या फिर क्या उन में शादियां होती ही नहीं? और अगर होती हैं तो क्या उन के रिश्ते टूट जाते हैं?

आज के आधुनिक समाज में एस्ट्रोलौजी, हौरोस्कोप इत्यादि पर भरोसा करना खुद को वक्त में पीछे धकेलने जैसा है. एक तरह दुनिया में विज्ञान तेजी से प्रगति के रास्ते पर है तो कुछ लोग दूसरी तरफ धर्म का चश्मा लगा कर दुनिया को पीछे धकेलने का काम कर रहे हैं.

बाकी धर्म वाले भी पीछे नहीं

यदि यह लगता है कि केवल हिंदू धर्म में ही कुंडली मिलान की प्रथा विद्यमान है तो आप गफलत में हैं. कुंडली मिलान की प्रक्रिया एक ही समाज में एक वर्ग को दूसरे वर्ग से रिश्ते जोड़ने से रोकती है, एक तरह से यह बैरिकेड की तरह काम करती है.

भारत के मुसलिम समुदाय के लोग अपना आंगन बड़ा साफसुथरा दिखाने की कोशिश करते हैं. कहते हैं कि मुसलमानों में किसी तरह की कोई जाति नहीं होती, सब बराबर होते हैं इत्यादि. मुसलिम समुदाय में जाति होती है कि नहीं, यह जानने के लिए सब से सीधा और आसान तरीका इंटरनैट पर सर्च करना है. इंटरनैट खोलिए. गूगल पर मुसलिम मैट्रिमोनी टाइप कीजिए. किसी भी एक वैबसाइट पर विजिट कीजिए और थोड़ा सा सर्फिंग कीजिए. शेख, सिद्दीकी, अनवर, आरिफ, मलिक, अली इत्यादि कर के आप को मुसलमानों में जातियों की एक लंबी लिस्ट देखने को मिल जाएगी.

बेशक, मुसलिम में कुंडली मिलान जैसी प्रक्रिया नहीं फौलो की जाती लेकिन जाति का ध्यान तो रखा जाता है. मुसलिम समुदाय में अगड़े माने जाने वाले (मुगल, पठान, सैयद, शेख आदि) नहीं चाहते कि उन की शादी पिछड़े माने जाने वाले (अंसारी, नाई, सिद्दीकी, जोलाहा आदि) के घर में हो चाहे आर्थिक व शैक्षिक स्थिति एकजैसी हो. किसी ऊंची जाति के मुसलिम से यदि आप पूछ लेंगे कि क्या वे अपने बच्चों की शादी भंगी (अछूत मुसलिम) के घर में करेंगे, तो उन का जवाब न में ही होगा. वैसे, बता दें कि मुसलिम समुदाय में यह दावा किया जाता है कि वे छुआछूत प्रैक्टिस नहीं करते. दरअसल, कह देने भर से किस का क्या जाता है.

भारत में वैसे तो मुसलिम समुदाय अल्पसंख्यक है लेकिन इसी समुदाय की बहुसंख्य आबादी गरीब है, पिछड़ी है. जाहिर सी बात है कि भारत के मुसलिम समुदाय का बहुसंख्य हिस्सा पिछड़ा है या दलित है, जो कि अलगअलग पेशों में लगा हुआ है. जब शादीब्याह की बात होती है तो मुसलिम समुदाय में जाति व्यवस्था क्लीयर कट नजर नहीं आती.

कुछ ऐसा ही सिख समुदाय का भी हाल है. कुंडली मिलान यहां भी प्रैक्टिस नहीं की जाती, लेकिन जाति व्यवस्था तो कायम है. इंटरनैट पर ही सिख मैट्रिमोनी टाइप करने और किसी ंवैबसाइट पर विजिट करने भर से मालूम हो जाएगा कि यहां भी जाति के अनुसार ही लोग अपने घर के लड़केलड़कियों की शादी तय करते हैं. जाट, राजपूत, सैनी, अरोड़ा, भाटिया, बत्रा इत्यादि अपने या अपने से ऊपर की जातियों में अपने बच्चों की शादी करवाना चाहते हैं, अपने से निचली जाति में नहीं.

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क्या करना चाहिए

बात सिर्फ कुंडली मिलान तक ही सीमित नहीं है. कुंडली मिलान समाज में एक धर्म में ही मुख्यरूप से प्रैक्टिस की जाती है, लेकिन वैसी ही प्रक्रिया अन्य धर्मों में भी तो विद्यमान है.

एक तरफ तो पहले ही ज्योतिष ज्ञान (एस्ट्रोलौजी) को वैज्ञानिक नहीं माना गया है, वहीं दूसरी ओर इन को मानने वाले लोगों की संख्या समाज में बहुत बड़ी है. अर्थात, वे सभी अवैज्ञानिक चीजों पर भरोसा करते हैं. इस की वजह से आधुनिक समाज की यह ट्रेन आज भी कहीं न कहीं उन्हीं पुरानी अवैज्ञानिक, रूढि़वादी, अंधविश्वास की पटरी पर सवार है जो कि अकसर जातिवाद जैसे स्टेशन पर ही प्रस्थान करती है.

भारत को आजाद हुए 73 साल हो चुके हैं परंतु आज भी हमारे समाज से जातिवाद खत्म नहीं हुआ. इस की वजह केवल एक है कि हमारे दादादादी, नानानानी, मांबाप ने इस जाति व्यवस्था को कायम किया हुआ है.

अपनी जाति में बच्चों की शादियां करवा के अगर हम भी अपने पूर्वजों के किए हुए काम को करेंगे तो हमें कोई हक नहीं यह सवाल करने का कि, ‘भारत से जाति कभी क्यों नहीं जाती?’ इस जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए यह जरूरी है कि हम इस कुंडली मिलान की सब से पहली सीढ़ी को ही न चढ़ें.

समय विज्ञान का है, न कि धार्मिक अंधविश्वास और पोंगेपन का. खुद को तैयार कर लें और अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य प्रदान करें. ज्योतिष ने कोविड जैसी महामारी की कोई भविष्यवाणी नहीं की थी. किसी पूजापाठ ने कोविड को खत्म नहीं किया.

शिक्षा: ऑनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक

लेखक- सौमित्र कानूनगो

शिक्षा का व्यापारीकरण होते तो हम सभी ने बीते कई सालों में देखा है लेकिन अब जो हो रहा है वह केवल व्यापारीकरण भर नहीं है. महामारी में बच्चों को औनलाइन शिक्षा देना अच्छा सुनाई पड़ता है, परंतु असमृद्ध परिवारों के लिए यह एक नई महामारी के जन्म जैसा है.

लौकडाउन और कोरोना महामारी के खतरे से जहां एक ओर पूरा मानव जीवन प्रभावित हो रहा है वहीं बच्चों की पढ़ाई भी सब से ज्यादा प्रभावित होती नजर आ रही है. मार्च में लौकडाउन लागू किए जाने के बाद से ही देश के शिक्षण संस्थान बंद हैं और पढ़ाई के लिए बच्चे अब औनलाइन एजुकेशन पर निर्भर हैं.

महामारी के खतरे को देखते हुए हमारे देश के विद्यार्थियों के लिए औनलाइन एजुकेशन एक अच्छा रास्ता है. लेकिन जहां हमारे देश में लगभग 70 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं और उन के पास लैपटौप या मोबाइल जैसी सुविधा भी नहीं होती है, वहां रहने वाले विद्यार्थी औनलाइन शिक्षा कैसे ले पाएंगे?

उत्तर प्रदेश के नोएडा शहर के सरकारी विद्यालय में पढ़ाने वाली शिक्षिका शुभ्रा बनर्जी बताती हैं, ‘‘हमारे यहां 99 प्रतिशत बच्चे इतने समर्थ नहीं हैं कि उन के पास लैपटौप या उन के घर पर वाईफाई की सुविधा हो. कई बच्चों के घरों में फोन भी एक ही है, उस में भी कुछ ही बच्चों के पास स्मार्टफोन है, बाकी बच्चों के पास स्मार्टफोन भी नहीं है.’’

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स्क्रौल की वैबसाइट पर प्रकाशित एक आर्टिकल के मुताबिक, सिर्फ 24 प्रतिशत भारतीयों के पास स्मार्टफोन हैं और सिर्फ 11 प्रतिशत घर ऐसे हैं जहां किसी प्रकार का कंप्यूटर है, मतलब डैस्कटौप, लैपटौप, टेबलेट आदि है.

2017-2018 की शिक्षा पर नैशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक,

सिर्फ 24 प्रतिशत भारतीय घरों में ही इंटरनैट की सुविधा है.

ये आंकड़े हमें यह दिखाते हैं कि हमारे देश के कुछ विद्यार्थी तो सुविधा पा कर अपनी पढ़ाई कर पा रहे हैं पर एक बड़ी संख्या में विद्यार्थी सुविधा के अभाव में शिक्षा से दूर हैं.

स्मार्टफोन, लैपटौप, इंटरनैट के खर्चे ने अभिभावकों को भी परेशान कर दिया है. औनलाइन शिक्षा से वे अभिभावक ज्यादा परेशान हैं जिन के बच्चे निजी स्कूलों में निशुल्क शिक्षा अधिनियम के तहत पढ़ते हैं. सोचिए, जिन के पास फीस देने के पैसे नहीं, आखिर वे स्मार्टफोन और लैपटौप का खर्चा कैसे उठाएंगे?

कुछ महीने पहले तक बच्चों को मोबाइल फोन पर गेम खेलने के लिए मांबाप की डांट पड़ती थी. जब से कोरोना का कहर टूटा है, वही मातापिता अपने बच्चों के लिए लौकडाउन में भी बाजारबाजार घूम कर स्मार्टफोन, मोबाइल, टैबलेट खरीदते दिखे. वे अच्छी से अच्छी कंपनी का मोबाइल फोन ढूंढ़ रहे हैं जिस में पिक्चर भी क्लीयर आए, स्क्रीन भी बड़ी हो और जिस पर इंटरनैट भी धांसू चले.

घर की कमजोर आर्थिक स्थिति में बच्चों की पढ़ाई को ले कर मातापिता की बड़ी हुई चिंताओं की बानगी देखिए कि कोरोना महामारी ने एक गरीब पिता को अपनी बेटी के लिए स्मार्टफोन खरीदने और स्कूल की फीस भरने के लिए अपनी गाय बेचने पर मजबूर कर दिया.

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के एक पिता ने ऐसा इसलिए किया ताकि कोरोना के चलते उन की बेटी की पढ़ाई में कोई रुकावट न आए. लखनऊ में सैफ अयान के पिता आरिफ, जो खुद भी एक टीचर हैं, 7वीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने बेटे सैफ की पढ़ाई को ले कर बहुत चिंतित हैं. सैफ आजकल औनलाइन पढ़ाई कर रहा है. खुद उन्हें भी अपने स्टूडैंट्स को औनलाइन पढ़ाना पड़ रहा है. बेटे की औनलाइन पढ़ाई के लिए उन को अलग से 12 हजार रुपए का नया स्मार्टफोन खरीदना पड़ा. इस के अलावा ट्राइपौड, ब्लैकबोर्ड, अच्छा इंटरनैट प्लान और पढ़ाई से संबंधित दूसरी जरूरी चीजों की खरीदारी में करीब 20 हजार रुपए खर्च हो गए.

लेकिन इतने ताम?ाम के साथ चल रही औनलाइन पढ़ाई का हाल यह है कि ढाई घंटे की औनलाइन पढ़ा के बाद आरिफ जब खुद सैफ को ले कर पढ़ाने बैठते हैं तब जा कर उस की सम?ा में कुछ आता है. शाम को उस को घर के पास ही चलने वाली ट्यूशन क्लास में भी भेजते हैं.

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आरिफ कहते हैं, ‘‘मोबाइल फोन पर टीचर जो लैक्चर दे रही हैं उस का 5 फीसदी भी बच्चे को सम?ा में आ जाए तो बहुत है. मोबाइल फोन पर लगातार आंखें गड़ाए रखने के बाद जब मेरा बेटा ढाई घंटे बाद उठता है तो उस की आंखों से पानी गिरता है, रातभर बच्चा सिरदर्द से परेशान रहता है. इस तरह और कुछ महीने पढ़ाई चली, तो बच्चा बीमार पड़ जाएगा.’’

औनलाइन शिक्षा की परेशानी

आरिफ कहते हैं, ‘‘औनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक भर है. गाइडलाइन है कि 8वीं तक के छात्रों की औनलाइन क्लास डेढ़ घंटे से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. लेकिन स्कूल वाले 3 से 4 घंटे तक बच्चों को पीस रहे हैं. सैकंडथर्ड क्लास का बच्चा भी 4-4 घंटे मोबाइल फोन में आंखें गड़ाए बैठा है. उधर, टीचर को पता ही नहीं चलता है कि 40-50 बच्चों में कौन गंभीरता से पढ़ रहा है और कौन खेल कर रहा है, किस का ध्यान पढ़ाई पर है और किस का नहीं.

ऐसे छोटे बच्चों के साथ भी औनलाइन एजुकेशन का विकल्प काम नहीं कर रहा है, जो स्वभाव से शरारती हैं और एक जगह बैठ कर ध्यान लगा कर अपना काम नहीं करना चाहते हैं. ऐसे बच्चों के लिए बहुत देर तक स्क्रीन के सामने बैठना समस्या ही है.’’

मातापिता का भी यह कहना है कि हमारे खुद के पास इतना समय नहीं है कि हम बच्चे को पढ़ा सकें क्योंकि हमें भी घर से अपना काम करना पड़ रहा है. कुछ बच्चों के मातापिता पढ़ेलिखे न होने के कारण इस स्थिति में असहाय महसूस कर रहे हैं.

औनलाइन कक्षाओं के तहत संसाधनों की कमी का सब से अधिक सामना 10वीं और 12वीं के छात्रों को करना पड़ रहा है. मध्य प्रदेश राज्य के नरसिंगपुर शहर के प्राइवेट स्कूल में 12वीं कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी संचित बताता है, ‘‘हमारी औनलाइन क्लास में पढ़ाई ठीक से नहीं चल रही है. हमें व्हाट्सऐप ग्रुप पर अलगअलग विषय की, बस, पीडीएफ भेज देते हैं. हफ्ते में एक दिन भी कोई औनलाइन क्लास नहीं हो रही है, टैस्ट वगैरह कुछ नहीं हो रहा है, पूरा साल खराब जा रहा है. 12वीं है, पता नहीं कैसे क्या होगा.’’

दिल्ली के नजफगढ़ शहर के सरकारी स्कूल में 12वीं में पढ़ने वाली राधा कहती है, ‘‘औनलाइन पढ़ाई में हमारे सवाल, जो हमें टीचर से पूछने हैं, वे रह जाते हैं क्योंकि टीचर सभी बच्चों को रिप्लाई नहीं कर पाते हैं और हमारे सवालों के जवाब नहीं दे पाते हैं. क्लासरूम में यह आसान था क्योंकि टीचर से आप सामने खड़े हो कर सवाल पूछ सकते थे. हम क्लासरूम में दोस्तों से भी किसी विषय पर जो सम?ा न आ रहा हो, आसानी से उस पर चर्चा कर सकते थे. पर औनलाइन में वह नहीं हो पाता है.’’

इस के अलावा कुछ बड़ी कक्षाओं और छोटी कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों ने बताया कि वे संयुक्त परिवारों में रहते हैं तो उन के लिए पढ़ाई का माहौल ही नहीं बन पाता है. मध्य प्रदेश का संचित, जो 12वीं कक्षा में पढ़ता है, का कहना है, ‘‘पहले स्कूल जा कर मैं आराम से पढ़ सकता था. वह समय सिर्फ मेरे स्कूल का था. पर घर में इतनी चहलपहल के बीच मु?ो वह माहौल नहीं मिल पाता है.’’ कई बच्चों के घर छोटे हैं, उन में उन के लिए अलग कमरा या जगह नहीं है जिस वजह से भी उन्हें पढ़ने में मुश्किल हो रही है.

शिक्षा का बेड़ा गर्क

औनलाइन क्लासेस ने शिक्षा और छात्र दोनों का बेड़ा गर्क कर दिया है. छोटेछोटे बच्चों की 4-4 घंटे तक औनलाइन क्लास चल रही है. बच्चे पस्त हो रहे हैं, गार्जियन के सामने नएनए बहाने बना रहे हैं. बच्चे अवसाद के शिकार भी हो रहे हैं. सोचिए कि केजी क्लास का नन्हा सा बच्चा औनलाइन क्या सीख और पढ़ रहा होगा? क्या औनलाइन क्लासेज पैरेंट्स को बेवकूफ बना कर पैसे ऐंठने का जरिया नहीं हैं?

लखनऊ के क्राइस्ट चर्च स्कूल में पढ़ने वाले 5वीं कक्षा के विद्यार्थी आलिंद नारायण अस्थाना की मां शिफाली अस्थाना कहती हैं, ‘‘हम स्कूल की इतनी लंबीचौड़ी फीस क्यों भरें जब बच्चा औनलाइन कुछ सीख ही नहीं पा रहा है? इस औनलाइन क्लास ने हमारी तो कमर ही तोड़ दी है. बिजली हमारी, इंटरनैट का खर्चा हमारा, अलग से ट्यूशन टीचर हमें रखनी पड़ रही है, स्मार्टफोन, लैपटौप हमें खरीदने पड़ रहे हैं, तो स्कूल वाले किस बात की फीस और किस बात का मेंटेनैंस चार्ज मांग रहे हैं? न तो उन की बिल्ंिडग इस्तेमाल हो रही है, न बिजलीपानी और न ही बच्चे को लाने व ले जाने के लिए बस, तो स्कूल ट्यूशन फीस में ये तमाम चार्जेस क्यों जोड़ रहे हैं? हम ने तो 4 महीने से फीस नहीं दी है और आगे भी अगर इसी तरह औनलाइन क्लास चलेगी, तो कोई फीस नहीं देंगे.’’

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उन अभिभावकों की हालत तो और भी ज्यादा खराब है जो प्राइवेट नौकरी में रहते हुए छंटनी के शिकार हो गए या फिर बिजनैस में थे और कोरोनाकाल के लौकडाउन में उन के बिजनैस की रीढ़ ही टूट गई. जिंदगी में दो जून की रोटी के लाले पड़ गए तो बच्चों की फीस का इंतजाम कहां से करें? जिन के 3 या 4 बच्चे हैं, भला वे कहां से इतना पैसा लाएं कि हर बच्चे के हाथ में एक नया स्मार्टफोन और इंटरनैट कनैक्शन दे सकें?

घर में पहले एक स्मार्टफोन था, तो अब जरूरत उस से ज्यादा की है. स्मार्टफोन पर औनलाइन क्लास तो सजा ही है, सही माने में तो लैपटौप चाहिए. लेकिन 3-4 बच्चों के लिए 3-4 लैपटौप का इंतजाम अभिभावक कैसे करें? गाजियाबाद में रहने वाले अशोक मिश्रा के 3 बच्चे हैं, तीनों की क्लास एक ही वक्त शुरू हो जाती है. वे बेचारे अड़ोसपड़ोस से मोबाइल फोन मांग कर लाते हैं. घर में एक लैपटौप है, उस को ले कर ?ागड़ा मचता है.

फाइवस्टार स्कूलों की चांदी

हालांकि बड़े शहरों के फाइव स्टार स्कूलकालेज, जिन में बड़ेबड़े नेताओं और व्यापारियों का पैसा लगा है, को कोरोना महामारी से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है. कई मैडिकल, इंजीनियरिंग कालेज लौकडाउन के बावजूद पैरेंट्स से पूरी फीस वसूल रहे हैं. ऐसे स्कूलों में फीस न देने का कोई रास्ता नहीं है. कोई मुरव्वत नहीं, फीस नहीं तो नाम कट. अब जहांतहां से इंतजाम कर के लोग फीस भर रहे हैं. यही नहीं, कुछ नामी स्कूल तो तय सीमा से ज्यादा फीस ले रहे हैं. सैमेस्टर की फीस जमा करने के लिए फाइव स्टार प्राइवेट यूनिवर्सिटी सिर्फ 2 दिन का वक्त देती हैं, वह भी बिना पूर्व सूचना के. फीस में एक दिन की भी देरी हुई, तो लेट पेमैंट के नाम पर करीब हजार रुपए का चूना लग जाता है. ज्यादा देर हो गई, तो दोगुनी फीस भी देनी पड़ सकती है.

इन यूनिवर्सिटीज में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले उन तमाम मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय परिवारों की परेशानियों का कोई अंत नहीं है, जिन के 2 या उस से ज्यादा बच्चे हैं. सब की औनलाइन क्लास एक ही वक्त चलनी है, इसलिए सभी को लैपटौप और स्मार्टफोन इंटरनैट कनैक्शन के साथ चाहिए. अब स्कूल प्रशासन के सामने छात्रों के बीच अनुशासन मैंटेन करने का कोई ?ां?ाट नहीं है. स्कूल के रखरखाव की परेशानी भी कम हो गई है. खेल एक्टिविटीज बंद हैं. वाहन चल नहीं रहे हैं. लेकिन उन सब की फीस ली जा रही है. पढ़ाई की क्वालिटी के बारे में कोई सवाल नहीं उठ रहे. स्कूल प्रशासन को अच्छी तरह पता है कि कोरोनाकाल में अभिभावक संगठित नहीं हो सकते. सो, इन की पहले भी चांदी थी, अब भी चांदी है.

शिक्षा एक महंगा प्रोडक्ट

हम सारे आंकड़ों को, शिक्षकों और विद्यार्थियों के अनुभव को देखें तो लगता है कि औनलाइन एजुकेशन शिक्षा को एक बाजार से खरीदी जाने वाली चीज की तरह बना रही है जिस के पास पैसा और संसाधन हैं वे तो इसे आसानी से खरीद कर इस का लाभ उठा पा रहे हैं पर गरीब तबका और ऐसे लोग, जो गांव या कसबे में रहते हैं, सुविधा के अभाव के चलते अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे पा रहे.

इस का मतलब यह नहीं है कि औनलाइन एजुकेशन नहीं होनी चाहिए. लेकिन प्रशासन को यह सोचना होगा कि अगर औनलाइन एजुकेशन के अलावा और कोई भी कदम उठाए जाएं तो उस का लाभ सिर्फ समृद्ध लोगों को ही न मिले, हमारे देश का वह तबका जो समृद्ध नहीं है वह छूट न जाए. संसाधनों के अभाव से ग्रस्त हमारे देश के शिक्षक और विद्यार्थी महामारी के दौर में अगली पूरी पीढ़ी की शिक्षा को दांव पर लगा देख इन सवालों के साथ प्रशासन की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं.

आर्थिक तंगी से जूझ रहे स्कूल 

स्कूल, कालेज प्रशासन का भी हाल खस्ता है. कोरोनाकाल में कई छोटे स्कूल आर्थिक तंगी का शिकार हो कर बंद होने की कगार पर हैं. एक कसबाई स्कूल के प्रिंसिपल साहब कहते हैं, ‘‘छात्रों ने स्कूल में आना बंद कर दिया तो अभिभावकों ने फीस भी बंद कर दी. अध्यापक से ले कर चपरासी तक पैदल हो गए और सरकार बिजली का बिल, पानी का बिल भेजने में शर्म नहीं कर रही है. आखिर कुछ तो रियायत सरकार भी दिखाए.’’

तमाम प्राइवेट स्कूलकालेजों की हालत खस्ता है. प्राइवेट कालेज के कई अध्यापक अब सब्जी और फल बेच रहे हैं, ऐसी खबरें रोज आ रही हैं.

-साथ में नसीम अंसारी कोचर 

आधुनिकता उम्र की मुहताज नहीं

लेखिका- रेखा व्यास

‘आधुनिकता’ शब्द की हमारे दिमाग में ऐसी छवि बनती है जैसे कोई समसामयिक और नई बात है. ज्यादातर लोग इसे नए जमाने की देन समझते व मानते हैं. संभवतया इस का मुख्य कारण आधुनिकता को बाहरी या परिधान, मेकअप आदि के स्तर तक सीमित कर देना लगता है. विचारों की आधुनिकता को खुलापन या पाश्चात्य जीवनशैली और सोच मान लिया जाता है. दोनों ही रूपों में आधुनिकता निखरती है. अपने असली रूप में यह हमें लाभ पहुंचाती है.

अकसर कोई बुजुर्ग हमें अपने जैसा या अपने से आगे सोचता हुआ मिलता है तो हम ताज्जुब करते हैं. जनरेशन गैप खत्म होता जान पड़ता है. विचारशील लोग इसे शाश्वत सोच का नाम दे देते हैं जो कालजयी तथा लिंगभेद और देशकाल से ऊपर होती है.

19वीं शताब्दी के आखिर में मेवाड़ में गंगा बाई आमेरा ने अपने 8 भाइयों की मृत्यु के बाद स्वयं घरपरिवार का बीड़ा उठाया. शिक्षा ग्रहण की. 1907 में डिलिवरी के 27 दिनों बाद ही देवरानी और उस के कुछ दिनों बाद देवर की मृत्यु हो जाने पर उन के बच्चे को अपनाया, पालापोसा. मेवाड़ में गांधीजी के चलाए स्त्रीशिक्षा आंदोलन में चर्चित रहीं. उस समय हर घर से एक बेटी और एक बहू को पढ़ाने का आंदोलन चला. उन्होंने अपने 2 पोतों की बहुओं को पढ़ाने की अगुआई की. नौकरी लगने पर स्वयं पोते की बहू को नौकरी जौइन कराने ले गईं. प्रपौत्री के जन्म पर उन्होंने शानदार जश्न आयोजित किया, तो लोगों ने हंसी उड़ाई.

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उस समय लड़कियों को इतना महत्त्व नहीं दिया जाता था. लोग आज भी इस बात की चर्चा करते हुए कहते हैं कि गंगाबाई ने सब को मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा कि लड़का कहां से आता है और लड़की कहां से आती है? प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया तो हम क्यों करें? मुझे इस बच्चे के जन्म पर जो खुशी हुई है, मैं उस का आनंद उत्सव मना रही हूं.

आज यह बात भले ही आम लगे पर उस समय बहुत खास थी. ऐसा सोचने और करने वाले लोग न के बराबर थे. स्त्रियां परदे में रहती थीं. उस समय वे बहुओं से कहती थीं, ‘कोई घूंघट नहीं निकालेगा. मेरे सामने पैदा हुई हो, तुम्हीं मुझ से न हंसोबोलो और मन की बात न करो तो यह क्या बात हुई.’ बहुएं घरपरिवार, पड़ोस या गांव की हों, सभी उन्हें प्यार से गंगा बूआजी कहती थीं और उन से सलाहमशवरा कर लिया करती थीं.

हमारा सामाजिक परिवेश बनेबनाए ढर्रे पर चलता है, तो हम भी भेड़चाल में शामिल हो जाते हैं. ऐसा क्यों हो रहा है या यह होना भी चाहिए या नहीं, इस पर सोचने की फुरसत भी हमारे पास नहीं रहती. आज रहनसहन, खानपान चमकदमक के नाम पर जितनी आधुनिकता दिखती है, यदि उस की आधी भी सोच के स्तर पर आती तो जातिबिरादरी, अस्पृश्यता, ऊंचनीच जैसी तमाम नकारात्मक सामाजिकता काफी हद तक दूर हो जाती. लोग इन्हें परंपरा के प्रति आस्था और पूर्वजों की देन (?) मान कर इस तरह की धारणाओं को बदलने की कोशिश भी नहीं करते.

कुछ लोग मिलते हैं तो भी अपवाद के स्तर पर. सुशीला देवी शर्मा 85 साल की हैं, पर शुरू से ही इन की सोच काफी आधुनिक रही. चूंकि बाहरी स्तर पर इन्होंने सादगी ही अपनाई, इसलिए कई बार लोगों की उपेक्षा का शिकार भी रहीं. छोटी उम्र में शादी हो जाने के कारण इन पर घर की जिम्मेदारी आ गई. पति वकालत करना चाहते थे. ऐसे में अपने सिलाईकढ़ाई के हुनर से कमाई कर के पति को इंदौर पढ़ने भेजा. सिलाई कक्षाएं चला कर कमाई बढ़ाई. खुद ने श्रमजीवी कालेज जौइन किया. अपनी कूवत से पढ़लिख कर शिक्षिका बनीं. बच्चे भी खूब पढ़ाए. एक बेटा सर्जन, एक प्रोफैसर और 2 बेटे वकील हैं तो एक बेटी प्रोफैसर और एक डाक्टर है.

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आज से 30-35 वर्ष पहले छोटे शहरों में ब्राह्मण ब्राह्मण में भी आपस में शादी अंतर्जातीय विवाह मानी जाती थी. जो ब्राह्मण गौड़, औदीचय, आमेरा, पुषकरणा आदि जिस जाति का होता था उसी में विवाह करता था. ऐसे में इन के 2 पुत्रों ने ईसाई लड़कियों से विवाह किया तो इन्होंने सहज रूप से उन्हें अपनाया. घर के बेहद सगों ने इन दोनों के बहिष्कार व संपत्ति से वंचित करने की राय दी व दबाव डाला तो इन्होंने उसे खारिज कर दिया. ये तो अपनी लड़कियों को भी संपत्ति में हिस्सा देने की पक्षधर हैं. यह बदलाव एकदम तो नहीं पर धीरेधीरे पुख्ता हो कर आता गया.

इन के पोतेपोती डाक्टर हैं, जज हैं. वे भी इन की सोच व काम के कायल हैं. वे इन पर बहुत गर्व करते हैं. इन के हाथ की बनाई गई पौलिथीन की आसन, पैचवर्क की साडि़यां, परदे, गिलाफ आदि खूब पसंद करते हैं. ‘कूड़ा’ शब्द सुशीलाजी के शब्दकोश में नहीं है. वे कहती हैं, कभी उन्होंने कूड़ाघर का मुंह नहीं देखा. ये इस तरह की नई चीजें बनाबना कर बांटती रहती हैं.

रानी भारद्वाज 62 साल की हो रही हैं. वे दिल्ली में रहती हैं. वे आधुनिकता को खास उम्र और क्षेत्र की बपौती नहीं मानतीं. उन के दोनों बच्चों ने विदेशी जीवनसाथी चुने तो इन्होंने खुशीखुशी उन का साथ दिया. अपने अरमान पूरे करने के नाम पर बच्चों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने वाले मांबाप को ये ठीक पेरैंटिंग न कर सकने का दोषी मानती हैं. उन का कहना है कि बच्चों को लिखापढ़ा दो, सहीगलत समझा दो, आगे उन की मरजी. हमें फिर उन की जिंदगी में दखल और उन से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए.

यही नहीं, ये बच्चोंबहू के साथ ब्यूटीपार्लर, मौल घूमनेफिरने तथा बाहर खानेपीने में भी खूब रुचि लेती हैं. पति गांधीवादी और आर्यसमाजी हैं. वे रात को जल्दी सो जाते हैं. वे इतनी भ्रमणशील और देररात तक चलने वाली जिंदगी पसंद नहीं करते तो ये अपनी ओर से उन पर कोई विचार नहीं थोपतीं. बच्चे छोटे थे, तब ये अकेली ही जा कर सिनेमा देख आती थीं.

ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सोच के सम्मान को महत्त्व देती हैं. ये अपनेआप को या अपने विचारों को किसी पर लादना ठीक नहीं समझतीं. हर उम्र और विचारधारा वाले लोगों से इन की पटरी बैठ जाती है. हाल ही में बेटे द्वारा रशियन मूल की लड़की से शादी करने पर जब बहू ने भारतीय रीतिरिवाज से शादी की इच्छा प्रकट की, तो लड़की वालों की ओर से भी सारा इंतजाम स्वयं कर के उस की इच्छा का सम्मान किया.

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शादी में ये फालतू खर्च पसंद नहीं करती हैं, इसलिए नहीं किया. व्यर्थ रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते, लेनादेना, उपहारबाजी और ऐसी ही रस्मों के बहाने व्यक्ति को कर्जदार बनाने वाली परंपराएं ये पसंद नहीं करतीं. जिस से सचमुच खुशी मिले, वही सामाजिकता इन्हें रास आती है. हां, शादीब्याह में टैंट वाले, फूल वाले और बैरों द्वारा टिप मांगने और उस की राशि बढ़वाने पर ये आसानी से खुलेहाथ से देना पसंद करती हैं.

प्रतिभा रोहतगी का व्यक्तित्व भी बहुआयामी है. वे 74 वर्ष की हैं. 1993 तक राजनीति में सक्रिय  रहीं. वे लेखिका भी हैं. उन की 3 पुस्तकें छपी हैं, ‘किसी से कुछ मत कहना’, ‘प्रतीक’ और ‘कहता चल.’

वे कविताएं भी लिखती हैं. उन का सब से ज्यादा जोर शिक्षा पर है. उन्होंने अपने चारों बच्चों को खूब पढ़ाया. 2 डाक्टर हैं, एक वकील और एक बेटी अमेरिका में बैंककर्मी. पोतेपोती भी अच्छी तरह पढ़लिख रहे हैं. उन के दोनों बेटे दिल्ली में हैं. एक डीएलएफ और दूसरा यमुनापार में. वे फिर भी दरियागंज में किराए के मकान में रहती हैं, उन के अपने मकान का किराया आता है.

वे कहती हैं, ‘‘मैं सब के साथ प्रेम से रहना चाहती हूं. उन की भी खुशी बनी रहे और मेरी भी. मेरे  3-3 घर हैं. जब जहां मन करता है, चली जाती हूं. खास मौके पर पूरे परिवार को कनाट प्लेस या किसी और अच्छी जगह अपनी ओर से पार्टी देती हूं. वे बुलाते हैं तो भी एंजौय करती हूं.’’

राजनीति के बारे में वे कहती हैं, ‘‘मैं ने भाजपा में रह कर व निर्दलीय दोनों स्थितियों में राजनीति को देखा. राजनीति में स्वार्थ और निजी महत्त्वाकांक्षाओं का खेल ज्यादा है. बड़े राजनेता छोटों को अपने मातहत समझ कर खूब कुटवातेपिटवाते हैं. मुझे कुछ करने की इच्छा थी, तो मैं जुड़ी, लेकिन जब लगा कि कुछ करने नहीं दिया जा रहा है, तो क्यों समय बरबाद करती. समाज का भला राजनीति में रहे बगैर भी खूब किया जा सकता है. मैं अब खूब मस्त रहती हूं. जब जितना बन पड़े, कर लेती हूं. घूमनाफिरना, मिलनाजुलना, हंसीमजाक सब मेरे जीवन में खूब है.’’

प्रतिभाजी के अधिवक्ता पुत्र अफसोसपूर्वक कहते हैं, ‘‘सच, हम मम्मी को समझ नहीं पाए. इन्हें हलके में ही लेते रहे. यदि हम ने और पापा ने मम्मी का समय पर ठीक से साथ दिया होता तो स्थितियां आज कुछ और होतीं. मम्मी ने जो कुछ किया, अकेले अपने दम पर किया. वाकई, यह सब कम नहीं है.’’

प्रतिभाजी हर समय को एंजौय करती हैं, कहती हैं, ‘‘छोटीमोटी नोकझोंक के अलावा हम में बड़े डिफरैंस नहीं होते. बाहर रहने के बावजूद हमारे बच्चे नग्नता पसंद नहीं करते. हम ने उन्हें संस्कार और मूल्य दिए हैं. आगे उन की अपनी सोच और समझ. वे क्या चाहते हैं और हम क्या चाहते हैं, यह एकदूसरे को बताए बिना भी हम अच्छी तरह समझते हैं. आज इसी सोचसमझ के अभाव से परिवारों में टूटन और गैप आ रहे हैं.’’

जनरेशन गैप को लोग बहुत बड़ा मुद्दा बना कर पेश करते हैं. इसे पुरातनता और आधुनिकता के बीच न पटने वाली खाई के रूप में भी मानते हैं. यह इतना बड़ा हौआ है नहीं, जितना बड़ा बना दिया जाता है.

94 वर्षीया विद्यावती जैन दिल्ली के दरियागंज में अकेली रहती हैं. 1997 में पति का निधन हुआ और उन्होंने जीवन की गाड़ी को अवसाद की पटरी पर न चढ़ने दिया. उन की 6 बेटियां हैं. वे मुंबई, गाजियाबाद व दिल्ली में रहती हैं. विद्यावतीजी के पास 2 नौकर हैं. फिर भी वे काफी काम खुद करती हैं.

जब मैं ने उन से पूछा कि क्या 6 बेटियां बेटे की उम्मीद में हो गईं? तो वे सहजरूप से कहती हैं, ‘‘बेटे की उम्मीद? यह आप क्या कह रही हैं. मेरी तो छहों बेटियां बेटों से भी ज्यादा हैं. आसपड़ोस में कहीं भी पूछ आओ, कोई भी आप को बता देगा, मैं ने छहों के जन्म पर मिठाइयां बांटी हैं. आज इन बेटियों की बदौलत जाने कितने परिवारों से हमारा संबंध जुड़ गया है. नातेरिश्ते बढ़ गए हैं. 6 दामाद व बच्चे.’’

क्या आप के समय में परिवार नियोजन के साधन थे, इस पर वे कहती हैं, ‘‘आज जितने तो नहीं थे, फिर भी थे. हां, जो थे वे 4-5 साल ही कारगर थे, इसीलिए हमारे 4-6 साल के गैप पर बच्चे हुए.

आप ने बच्चे कैसे पालेपोसे? इस सवाल पर वे बोलीं, ‘‘मैं समय के अनुसार चलने में विश्वास रखती हूं. मैं ने सब को खूब पढ़ायालिखाया. मेरी सब बेटियां अच्छी पढ़ीलिखीं और अच्छे ओहदों पर हैं. यह नहीं कि पढ़ रही हैं तो वे और कुछ काम न करें. हम ने उन्हें गाना, डांस, सिलाईकढ़ाई वगैरह सब सिखाया. इस वजह से हमें उन की ससुरालों में भी बहुत मान मिला. वरना पढ़ाई के नाम पर लड़केलड़कियां समय खूब बरबाद करते हैं और टाइम पर जो सीखना चाहिए वह नहीं सीखते. घर के बाकी लोग थकतेपिसते रहते हैं. ऐसे में बच्चों में संवेदना व समझने की भावना भी नहीं पनपती.’’

आज का आधुनिक खानपान और परिधानशृंगार को देख वे कैसा अनुभव करती हैं? इस पर वे कहती हैं, ‘‘खानपान पहले ज्यादा अच्छा था मौसम व मिजाज के अनुसार. अब तो जंक व बाजारू खानपान बढ़ गया है. ठंडागरम इकट्ठा खाया जाता है. पोषण के बजाय स्वाद पर ज्यादा जोर है. फैशन और दिखावा बढ़ रहा है. बौडी प्रदर्शन हो रहा है भले ही बौडी दिखाने योग्य न हो. हमारे समय में व्यायाम, घुमाईफिराई की वजह से लोगों के शरीर ज्यादा स्वस्थ रहते थे. मनोरोग भी कम थे. अब पैसा तो बढ़ा है पर खुशी कम दिखती है.’’

आप परंपराओं को कितना मानती हैं? इस पर वे बताती हैं, ‘‘जितना जरूरी हो और जो आसानी से निभ जाए. बेटियों की शादी हम ने ऐसी जगह नहीं की जहां परंपराओं के नाम पर लड़की वालों का शोषण हो. वे बलि के बकरे बनाए जाएं. न ही हम ने ये परंपराएं मानीं कि बेटी के घर पानी न पियो, उन के घर खाओ मत. हम तो उन के वहां खातेपीते और रहते हैं. मैं सब बेटियों के पास जाती रहती हूं.

‘‘फालतू ढकोसलों में मेरा विश्वास नहीं. दूसरों के लिए कुछ कर सकूं, तो उस में मुझे जीवन की सार्थकता लगती है. मैं अपनी जिंदगी से बहुत खुश हूं. अभी भी फोन पर बात, कभीकभी बाहर जाना व घर के काम भी करती हूं. समय बरबाद करना मुझे आज भी पसंद नहीं.’’

लज्जा गोयल मूलतया उत्तर प्रदेश की हैं. अब वे दिल्ली में रहती हैं. ये हर स्थिति से जूझनेनिबटने का माद्दा रखती हैं. इन के पति का मसूरी में मर्डर हो गया था. वे पत्रकार थे. इन्होंने हत्यारे की तफतीश की पूरी कोशिश की. पुलिस, कानून, परिचित आदि सब से संपर्क रखा. ये निसंतान थीं, सो, एक बच्चा गोद लिया. लोग ऐसे बच्चों से सच छिपाते हैं पर इन्होंने तो गोद लेने के बाद कुबूल किया. उसे पढ़ानेलिखाने की कोशिश की. वह ज्यादा पढ़लिख न पाया तो उसे हुनर की ओर प्रेरित किया. इन्होंने बेटे को अपनी पसंद से शादी करने की छूट दे रखी है.

बस, प्यार करो, तो निभाओ, यही इन की अपेक्षा है. इन्होंने कई लड़कियों को बेटी का प्यार दिया. ससुराल वालों ने इन्हें संपत्ति से बेदखल किया तो व्यर्थ कानूनी पचड़ों में पड़ने के बजाय इन्होंने अपने हुनर व आत्मसम्मान पर ध्यान दिया.

चिकित्सा पद्धति पर इन्हें विश्वास है. कमरदर्द की इन्हें शिकायत रहती थी, सो, कमरदर्द का कई जगह से परामर्श कर के इन्होंने औपरेशन कराया. देशीघरेलू दवाओं के फेर में उसे बढ़ने या बिगड़ने न दिया. इन के घर में पति की पुस्तकों का कलैक्शन है. ये पढ़ने के शौकीनों को पुस्तकें पढ़ने व ले जाने देने में सार्थकता समझती हैं. स्वयं भी पढ़ती रहती हैं.

इन्हें नईनई बातें जाननेसमझने का शौक है. प्रसिद्ध जगहों पर भ्रमण करना तथा व्यायाम करने में इन्हें रुचि है. व्यंजन चाव से बनातीं व खिलाती हैं. बिजली, पानी और बैंक जैसे तमाम जरूरतमंद विभागों में आजा कर अपने काम करा लेती हैं.

बात व मुद्दों की तह तक पहुंचने की इन की क्षमता के कारण कोई समस्या इन के सामने ज्यादा देर टिक नहीं पाती. ये धार्मिक ढकोसलों और कर्मकांडों में विश्वास नहीं रखतीं. पति की बौद्धिकता के कारण इन्होंने राजनीति व लेखन, पठनपाठन में रुचि ली. स्वयं एमए तक पढ़ाई की. संपादन कार्य में पति का सहयोग किया.

ये पढ़ीलिखी बहू चाहती हैं, ताकि आगे की पीढ़ी भी पढ़ीलिखी बने. परदे या दिखावे में इन का विश्वास नहीं. बहू जो चाहे करे, नौकरी करे तो अच्छा है. नौकरी करने से खाली टाइम नहीं रहेगा व दोनों अपना घर ठीक चला सकेंगे. सेवा के लिए बेटेबहू या औलाद होती है, ये ऐसा नहीं मानतीं.

इन्हें रिऐलिटी शो या शोशा बनाने वाली न्यूज अथवा तमाशबीन सीरियलों पर विचारविमर्श करने की आदत है. ये प्रसारण पर कुछ नीति चाहती हैं. घरघर में इस तरह का सांस्कृतिक आक्रमण पसंद नहीं करतीं.

आधुनिकता को खास उम्र से जोड़ना उस के साथ अन्याय करना है. उसे बाहरी रूप में ही माननासमझना एकांगी रूप को देखना है. उसे होहुल्लड़ या पार्टीबाजी में ही जाननाबूझना अपने ही चश्मे से उसे देखना है. आधुनिकता जेहनी और वैचारिक है, जहां मिल जाए वहीं और उसी रूप में स्वागतयोग्य है.

आधुनिक होने से जीवन सहज हो जाता है. व्यक्ति तकनीक व माहौलफ्रैंडली हो कर बेहतर जीवन की ओर बढ़ता है. लोगों को समझनेबूझने, जाननेसमझने की औटोमैटिक क्षमता उस का सब जगह अनुकूलन करती है, घरदफ्तर, बाहरभीतर सब जगह.

दरअसल, ऐसा तथाकथित आधुनिक तो हम में से कोई नहीं होना चाहेगा जो बाहर तो आधुनिक दिखे पर दकियानूस रहे. आधुनिकता को सही रूप में जाननेसमझने के बाद तो उस का मजा ही कुछ और है. जीवन बहती धार है. हम न हों, तो भी हमारे आसपास लोग व माहौल आधुनिक होते ही हैं.

रीति रिवाजों में छिपी पितृसत्तात्मक सोच

हम पुरुषवादी समाज में रहते हैं जहां स्त्रियों को हमेशा से दोयम दर्जा दिया जाता रहा है. स्त्री कितना भी पढ़लिख ले, अपनी काबिलीयत के बल पर ऊंचे से ऊंचे पद पर काबिज हो जाए पर घरपरिवार और समाज में उसे पुरुषों के अधीन ही माना जाता है. उस के परों को अकसर काट दिया जाता है ताकि वह ऊंची उड़ान न भर सके. स्त्रियों को दबा कर रखने और उन की औकात दिखाने के लिए तमाम रीतिरिवाज व परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं.

रक्षाबंधन : भाईबहन के रिश्ते को मजबूत करते इस त्योहार को मनाने का रिवाज हमारे देश में बरसों से चला आ रहा है. बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती हैं और भाई यह प्रण लेते हैं कि वे जीवनभर अपनी बहन की रक्षा करेंगे. गौर किया जाए तो यहां पितृसत्तात्मक सोच की परछाईं दिखती नजर आएगी.

सवाल उठता है कि आखिर क्यों हमेशा बहन को ही भाई से सुरक्षा की आस होनी चाहिए? आजकल बहनें पढ़लिख कर ऊंचे पदों पर पहुंच रही हैं, काबिल और शक्तिशाली बन रही हैं. कई दफा ऐसे मौके आते हैं जब वे अपने भाई के लिए संबल बन कर आगे आती हैं. कई बहनें अपने छोटे भाई की परवरिश भी करती हैं. वे भाई का मानसिक संबल बनती हैं. लेकिन रक्षाबंधन जैसी प्रथाओं में हमेशा बहनों के दिमाग में यह डाला जाता है कि भाई का खयाल रखना, उस की पूजा करना, उसे खुद से बहुत ऊंचा मानना जरूरी है. उन्हें सम झाया जाता है कि भाई ही उन के काम आएगा, वही उसे सुरक्षा देगा. यदि बहन बड़ी है, काबिल है और भाई का संबल बन रही है, तो फिर क्यों ऐसा कोई त्योहार या रिवाज नहीं जिस में बड़ी बहन को उस के हिस्से का महत्त्व दिया जाए?

करवाचौथ : करवाचौथ को सुहागिन महिलाओं के लिए खास त्योहार माना जाता है. इस दिन रिवाज है कि सभी सुहागन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए पूरे दिन व्रत रखेंगी और शाम में सुहागिनों वाले सारे शृंगार कर के चांद को पूजने के बाद पति के हाथ से अपना व्रत खोलेंगी.

इस रिवाज की पहली शर्त यह है कि इसे केवल सुहागिन ही मनाएंगी. यानी, यह रिवाज शुरुआत में ही भेदभाव स्थापित करता है. इस में इस बात को बल दिया जाता है कि पतिहीन औरतों को सजनेसंवरने या खुश होने व धार्मिक रीतिरिवाजों व उत्सवों का हिस्सा बनने का कोई हक नहीं. यानी, पुरुष से ही उस के जीवन की सारी खुशियां हैं और पुरुष ही उस के जीवन का आधार है. पुरुष की उम्र बढ़ाने के लिए उसे भूखा रहना है और इस भूख को भी बहुत प्यार से एंजौय करना है क्योंकि पति से बढ़ कर उस के लिए कुछ है ही नहीं.

पतिपत्नी तो एक गाड़ी के दो पहिए हैं. दोनों का साथ ही संसाररूपी गाड़ी को आगे बढ़ाता है. ऐसे में यदि पति के बिना पत्नी के जीवन में कुछ नहीं रखा तो पत्नी के बिना पति की जिंदगी में कोई अंतर क्यों नहीं पड़ता? पति अपनी पत्नी की लंबी उम्र के लिए व्रत क्यों नहीं रखता?

सुहाग की निशानियां : शादी हर किसी की जिंदगी का एक खास मौका होता है. इस दिन दो दिल एक हो जाते हैं. इसी दिन एक लड़की महिला बनती है और उस की वेशभूषा, आचारविचार, बातव्यवहार सब में आमूलचूल परिवर्तन आता है. सिंदूर और मंगलसूत्र उस के जीवन का  सब से महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन जाते हैं. उसे हर वक्त इन्हें धारण करना होता है. इस के अलावा अंगूठी, बिछुआ और देश के ज्यादातर हिस्सों में चूडि़यां भी स्त्री के शादीशुदा होने की निशानी होती हैं. यह सदियों से चलता आ रहा रिवाज है कि स्त्री के लिए शादी के बाद इन चीजों को धारण करना जरूरी है.

जाहिर है, स्त्रियों को सुहाग की निशानियां पहनाने के पीछे धर्म के ठेकेदारों की मंशा यही रही होगी कि स्त्री को पति की अहमियत हमेशा, हर पल महसूस हो. उसे पता चले कि पति के बिना वह कुछ भी नहीं. पति से ही उस का शृंगार है. पति से ही चेहरे की रौनक और रंगबिरंगे कपड़े हैं. पति से ही उस के जीवन में खुशियां हैं वरना जीवन में कालेपन और रीतेपन के सिवा कुछ नहीं. इन रिवाजों के मुताबिक तो पति बिना स्त्री अधूरी सी है.

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सवाल उठता है कि स्त्री के बिना पुरुष अधूरा क्यों नहीं? ऐसा कोई रिवाज क्यों नहीं जिस से पुरुषों को देख कर भी पता चल जाए कि वह अविवाहित है? उसे सुहाग की कोई भी निशानी पहनने का भार क्यों नहीं सौंपा गया? पत्नी के  गुजरने के बाद पति को केवल काले या सफेद कपड़े क्यों नहीं पहनाए जाते? विधुर होने के बावजूद वह हर तरह के शौक पूरे कैसे कर सकता है? उस के जीवन में रत्तीभर भी बदलाव क्यों नहीं आता?

दहेजप्रथा : पितृसत्ता का पोषक एक और रिवाज है जो सदियों से चलता आ रहा है और वह है दहेजप्रथा. इस प्रथा ने जाने कितनी ही लड़कियों की जान ली, कितनी ही लड़कियों की खुशियां उन से छीन ली. जन्म लेने के बाद ही नहीं, इस रिवाज ने तो अजन्मी बच्चियों को भी काल का ग्रास बना दिया.

आखिर लड़की के मांबाप को बेटी के साथ एक मोटी रकम ससुराल वालों को क्यों सौंपनी पड़ती है? यह रकम इतनी ज्यादा होती है कि मांबाप की कमर ही टूट जाती है. बेटी के जन्म के साथ मांबाप उस के लिए दहेज इकट्ठा करने की चिंता में घुलते रहते हैं और इसी वजह से वे पुत्री नहीं, बल्कि पुत्रप्राप्ति की कामना करते हैं.

दहेज के नाम पर ससुराल वाले महिला को मारतेपीटते हैं, उस पर अत्याचार करते हैं और इस का नतीजा यह होता है कि औरत को समाज में दीनहीन और बेचारी का तमगा दे दिया जाता है.

विदाई : विवाह के बाद विदाई के रिवाज पर जरा गौर कीजिए. शादी में लड़की और लड़के दोनों जीवनसाथी बन कर एक नए बंधन में बंधते हैं. दोनों के ही जीवन में बदलाव आता है, लेकिन विदाई हमेशा लड़कियों की ही होती है, क्योंकि यह रिवाज है. सवाल उठता है कि लड़की को ही अपना घर छोड़ कर ससुराल जाने की जिम्मेदारी क्यों दी गई है? वह लड़के के रिश्तेदारों की सेवा करती है, पति के घर की खुशियां और गम को अपनाती है और अपने मांबाप, जिन्होंने उसे जन्म दिया, से मिलने के लिए ससुराल वालों का मुंह ताकती रह जाती है. यह कैसा न्याय है?

कभी लड़का अपना घर छोड़ कर लड़की के घर को क्यों नहीं अपनाता? अगर कोई लड़का ऐसा करता भी है तो उसे पितृसत्तात्मक सोच वाले इस समाज में मजाक का पात्र बनना पड़ता है. आज पुरुष भी कमाते हैं और स्त्री भी. कई घरों में स्त्री की सैलरी पुरुष से ज्यादा होती है. ऐसे में शादी के बाद लड़की की ही विदाई हो, इस रिवाज को हम पितृसत्तात्मक सोच की कवायद ही मानें. यह रिवाज भी दूसरे रिवाजों की तरह ही लड़कियों को कमजोर और पराधीन दिखाने की वकालत करता है.

कन्यादान : कन्यादान को भारत में महादान कहा जाता है. कन्यादान की रस्म हर शादी में निभाई जाती है, जिस का मतलब होता है कि अपनी बेटी को किसी और को दान किया जा रहा है. सवाल उठता है कि बचपन से बड़े होने तक बेटी को लाड़प्यार से पालने वाले मातापिता अपनी बेटी को दान कैसे कर सकते हैं? अपनी बेटी पर उन का अधिकार कैसे खत्म हो सकता है? क्या लड़की कोई चीज है, जिसे दान कर दिया? पुरुषवादियों की सोच लड़कियों की भावनाओं को कोई अहमियत नहीं देती.

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दूल्हे के पैर धोना

शादी के दौरान लड़की वालों को कमतर दिखाने वाली यह एक और रस्म है. सदियों से दुलहन के मातापिता दूल्हे के पैर धोते हैं. ऐसा कहीं भी नहीं देखा गया कि दूल्हे के मातापिता दुलहन के पैर धो रहे हों. इस तरह की रस्में हर कदम पर लड़की और उस के मांबाप को नीचा दिखाती हैं.

सोलह सोमवार का व्रत

बचपन से ही लड़कियों को शिक्षा दी जाती है कि अच्छा पति पाना है तो व्रतउपवास करो, तपस्या करो. खासकर सोलह सोमवार का व्रत करने से अच्छे पति की प्राप्ति होती है, ऐसा कहा जाता है. सोचने वाली बात है कि क्या अच्छा जीवनसाथी पाना लड़कियों का ही सपना होना चाहिए? क्या लड़कों को अच्छे जीवनसाथी की जरूरत नहीं? इस तरह की बातें कहीं न कहीं लड़कियों के मन में यह भरती हैं कि उस की खुशियों का आधार केवल उस का पति है. पति से ही उस का वजूद है.

संपत्ति में भाइयों का नैसर्गिक तौर पर बराबर के हिस्से पर बहन को हिस्सा देने में नाक कटना : हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 पिता की पैतृक संपत्ति में बेटे और बेटी दोनों को बराबर का हिस्सा देने की बात करता है. महिला का इस पैतृक संपत्ति पर पूरा मालिकाना हक होता है. वह चाहे तो इसे बेच सकती है या किसी के नाम कर सकती है.

विवाह के बाद यदि बेटी का वैवाहिक जीवन सही तरह से न चले, तो यह पैतृक संपत्ति उसे एक सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार देती है. लेकिन जैसी कि हमेशा की रीत रही है, बहनों को बचपन से ही भाइयों के लिए अपने छोटेबड़े हकों को छोड़ने की सीख दी जाती रही है. भाई हमेशा से घर पर और घर की चीजों पर अपना एकछत्र साम्राज्य सम झते रहे हैं. इसी वजह से बड़े होने पर भाई इस बात के लिए तैयार नहीं हो पाते कि संपत्ति में उन्हें अपनी बहनों को बराबर का हिस्सा देना है. घर के बड़ेबुजुर्ग भी इसी बात पर मुहर लगाते हैं.

नतीजा, यह कानून एक तरफ जहां महिलाओं को मजबूत आर्थिक आधार देता है वहीं दूसरी तरफ गहरी भावनात्मक टूटन का कारण भी बनता नजर आता है. यदि बहन पैतृक संपत्ति में अपना बराबर का हक लेने की बात करती है तो भाई इस बात से आहत हो कर उस से अपने संबंध खत्म कर लेते हैं. ऐसी स्थिति से बचने के लिए अकसर बहनें अपने आर्थिक हकों को छोड़ देती हैं.

पत्नी का नाम बदलना

ज्यादातर महिलाएं शादी के बाद अपना सरनेम बदल लेती हैं. वैसे, यह जरूरी नहीं. उन पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता. यह उन का कानूनी अधिकार भी है. लेकिन फिर भी महिलाएं चाह कर भी इस का खुल कर विरोध नहीं कर पाती हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान ऐलान किया था कि महिलाएं अब अपनी शादी से पहले वाले नाम के साथ भी विदेश यात्रा कर सकती हैं. अब महिलाओं को पासपोर्ट के लिए अपनी शादी या तलाक के दस्तावेज दिखाने की जरूरत नहीं है. महिलाएं इस बात को ले कर पूरी तरह स्वतंत्र होंगी कि वे अपने मातापिता के नाम का इस्तेमाल करें.

मगर सदियों पुरानी रीत इतनी आसानी से कैसे बदल सकती है. एक स्टडी से पता चला है कि जो महिलाएं शादी के बाद भी पहले का सरनेम इस्तेमाल करती हैं, पुरुष उन के प्रति नकारात्मक भावना रखते हैं. शोध में यह भी सामने आया कि जो महिलाएं पति का नाम लगाती हैं वे उन के प्रति अपनी वफादारी दिखाती हैं. लोगों की सोच यही है कि लड़की जिस घर जाती है वहीं की हो जाती है. इसलिए नाम में क्या रखा है? जो पति का नाम है वही उस की पहचान है. पर क्या आप को नहीं लगता कि पुरुषसत्ता वाली इस रीत से आजाद होने का समय आ गया है. नाम इंसान की पहचान होती है और भला, शादी के बाद पहचान क्यों बदली जाए? हालांकि, हमारा समाज अभी भी इस बदलाव के लिए तैयार नहीं है.

पिंडदान : हिंदू धर्म में पुत्र का कर्तव्य माना जाता है कि वह अपने जीवनकाल में मातापिता की सेवा करे और उन के मरने के बाद उन की बरसी तथा पितृपक्ष में पिंडदान करे. इसे श्राद्ध भी कहा जाता है. पुराणों और स्मृति ग्रंथों के अनुसार, पिता की मृत्यु के बाद आत्मा की तृप्ति और मुक्ति के लिए पुत्र द्वारा पिंडदान और तर्पण कराना जरूरी है. इस के बिना जहां पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता है वहीं पुत्रों को भी पितृऋण से छुटकारा नहीं मिलता.

इन रिवाजों की मानें तो मांबाप बेटी पर कोई कर्ज नहीं छोड़ते. बेटे को ही कर्ज चुकाना है और बेटे के हाथों ही उन्हें मुक्ति व सद्गति मिल सकती है. जिन के बेटे नहीं, उन के भतीजे या भाई यह काम कर सकते हैं. कुल मिला कर लड़कियों का कोई वजूद ही नहीं.

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विधवा विवाह पर आपत्ति : भले ही 16 जुलाई, 1856 को भारत में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिल गई हो, मगर आज भी लोगों के दिमाग में पुरानी रीत ही गहरी बैठी हुई है कि विधवाओं के लिए फिर से शादी करने की बात सोचना भी पाप है और उसे दोबारा खुशियां ढूंढ़ने का हक नहीं क्योंकि वह तो अपने कर्मों की सजा भोग रही है. वहीं, हमारा समाज पुरुषों की दूसरी शादी को सौ प्रतिशत सही मानता है. यह भेदभाव और पुरुषवादी सोच विधवा महिलाओं को कहीं का नहीं छोड़ती.

हरतालिका तीज : पति की लंबी उम्र की कामना और पति को पाने की चाहत को पूरा करने के लिए यह व्रत किया जाता है. इस में महिलाएं सजधज कर पूरे दिन भूखी रहती हैं. सवाल यहां भी यही है कि पुरुष ऐसा कोई व्रत क्यों नहीं करते.

परदा प्रथा : ज्यादातर भारतीय महिलाओं को शादी के बाद परदे में कैद कर दिया जाता है. उन्हें घर के पुरुष सदस्यों के आगे परदा करना अनिवार्य माना जाता है. शहर की पढ़ीलिखी महिलाएं भी अकसर जेठ या ससुर के आगे सिर पर पल्लू डाल लेती हैं.  ऐसा न करने पर उन्हें बेशर्म का तमगा दिया जाता है. जबकि पुरुषों को किसी से परदा नहीं करना पड़ता. परदा प्रथा एक तरह से महिलाओं के बढ़ते कदमों को रोकने और उन पर पुरुषों का आधिपत्य जताने का बहाना है.

कुछ क्षेत्रीय त्योहार

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  झीं झीं टेसू, गोरखपुर में जौतिया, बनारस में छठपूजा, पूर्वांचल में छड़ी शगुन, गुडि़या पटक्का आदि कुछ ऐसे त्योहार हैं जिन में एक बात सामान्य है कि सब में औरत ही अपने घर के पुरुषों की लंबी उम्र, उत्तम स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि की कामना करती है. छड़ी शगुन परंपरा में जब लड़की विदा हो कर ससुराल आती है तो उस की सास उसे तालाब के किनारे ले जा कर सात छड़ी लगाते हुए बहू का स्वागत करती है.

अफसोस इस बात का है कि ऐसे बहुत सारे रीतिरिवाज हैं जिन का पालन हमारे देश का हर इंसान करता है. इस बात का फर्क नहीं पड़ता कि लोग अशिक्षित हैं या शिक्षित, अमीर हैं या गरीब. भारत के हर तबके और हर वर्ग के लोग आंख बंद कर इन रीतिरिवाजों को पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ मनाते हैं. किसी के दिमाग में कोई सवाल नहीं उठता कि आखिर वे ऐसा कर क्यों रहे हैं? ऐसा करने के पीछे तर्क क्या है?

लोग यह नहीं सम झते कि ये सारे रिवाज पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा हैं और आज जमाना बहुत बदल चुका है. आज लड़कियों का स्थान समाज में बहुत अलग है. लड़कियों ने काफीकुछ हासिल किया है. पर जब बात इन रिवाजों की आती है तो सब के दिमाग कुंद हो जाते हैं. न कोई सवाल पूछता है न कोई तर्क करने की हिम्मत करता है. बस, जो जैसा चला आ रहा है, वे निभाते जाते हैं. और इस निभाने के चक्कर में यह बात और गहराई से दिमाग में बैठती जाती है कि लड़कों से लड़कियां कमजोर हैं. वे पुरुष के अधीन रहने के लिए बनी हैं. उन को सहारे और पुरुष के साथ की जरूरत है. पुरुष ही समाज का नेतृत्व कर सकता है.

जब तक हम अपने अंदर नई सोच और तर्क करने की शक्ति पैदा नहीं करते, हम पितृसत्तात्मक सोच वाले समाज के बुने हुए जालों से आजाद नहीं हो सकेंगे. जाल में फंसे रहेंगे और अपनी उन्नति के रास्ते का अवरोध हम खुद तैयार करते जाएंगे.

अफगानिस्तान-तालिबान: युद्ध के बाद फिर सेक्स गुलाम

हर युद्ध के बाद ज्यादा जुल्म हमेशा महिलाओं को ही झेलने होते हैं. भोगविलास की वस्तु समझते हुए सैनिकों द्वारा उन के जिस्म को रौंदा जाता है. अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा हो जाने के बाद वहां की महिलाओं को भी सैक्स गुलाम बनाने की कोशिश हो रही है…

अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज हो जाने के साथ ही महिलाओं पर अत्याचार की नई कहानी शुरू हो गई है. नाबालिग लड़कियों और युवतियों को सैक्स गुलाम बनाए जाने की आशंका है. महिलाओं को एक बार फिर यौन दासता की ओर धकेला जा सकता है.

हालांकि विभिन्न देश इन हालात पर नजर रखे हुए हैं, लेकिन अभी हालात ज्यादा साफ नहीं हुए हैं. इस से अफगान में फिर से आदिम युग लौट सकता है.

यह कहानी इसलिए शुरू हुई है कि काबुल पर जीत के बाद तालिबानी लड़ाके जश्न मना रहे हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो सामने आए हैं. इन में आतंकी महलों और गवर्नर हाउस के भीतर अय्याशी करते हुए नजर आ रहे हैं.

तालिबानी लड़ाकों द्वारा घरघर जा कर लड़कियों और कम उम्र की महिलाओं को सैक्स गुलाम बना कर अपनी हवस का शिकार बनाया गया है. अफगानिस्तान के अलगअलग शहरों से लड़कियों और महिलाओं को अगवा किया गया है.

तालिबानी जिहादी कमांडरों ने अफगानिस्तान के इमामों से अपने इलाकों की 12 से 45 साल की लड़कियों और महिलाओं की सूची मांगी है ताकि उन की शादी अपने समूह के लड़ाकों से कराई जा सके. अगर ये निकाह हुए तो इन महिलाओं को पाकिस्तान के वजीरिस्तान ले जा कर इस्लामी तालीम दी जाएगी और प्रामाणिक इसलाम में परिवर्तित किया जाएगा. तालिबान की वापसी से महिलाएं सब से ज्यादा खौफजदा हैं. पिछले दिनों कुछ प्रांतों पर कब्जे के बाद से ही तालिबानी नेताओं ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था.

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तालिबान के ताजा आदेश ने अफगानिस्तान की महिलाओं और बेटियों तथा उन के परिवारों में गहरा खौफ पैदा कर दिया है. लोगों की आंखों में 1996 से 2001 का भयावह मंजर तैर रहा है.

तालिबान ने उस समय 5-6 साल के क्रूर शासन में महिलाओं पर तरहतरह के जुल्म किए थे. उन्हें पढ़ाई से दूर रखा गया. बुर्का पहनने पर मजबूर किया गया और बिना पुरुष संरक्षक के घर से बाहर जाने पर पाबंदियां लगा दी गई थीं. उस समय भी हजारों महिलाओं को सैक्स गुलाम बनाया गया था.

अब फिर से तालिबान में शामिल होने के लिए लड़ाके बनने वाले युवाओं को सैक्स सुख की पेशकश की जा रही है. उन्हें शादी करने के लिए महिलाएं मुहैया कराने का प्रलोभन दिया जा रहा है. यह शादी की आड़ में महिलाओं को यौन दासता की ओर धकेलने की एक रणनीति है.

तालिबान के खौफ से खूबसूरत अफगानी लड़कियों को उन के परिवार वाले घरों या दूसरी जगहों पर छिपा रहे हैं, ताकि तालिबानी लड़ाकों की कामुक नजर उन पर न पड़े.

ये लड़कियां अपनी जान और अस्मत की सलामती की दुआ कर रही हैं. मुंह पर मोटी चादरें लपेटे महिलाएं अपना दर्द किसी से कह भी नहीं पा रही हैं.

दुनिया में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. चाहे रूस हो या ब्रिटेन या फिर चीन अथवा पाकिस्तान, हर बार जंग में महिलाओं को ही सब से ज्यादा रौंदा गया. वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिकों का दिल बहलाने के लिए एक पूरी की पूरी सैक्स इंडस्ट्री खड़ी हो गई थी.

मोम की तरह फिसलती चमड़ी वाली वियतनामी युवतियों के सामने केवल एक ही विकल्प था कि या तो वे अपना खूबसूरत और गदराया जिस्म उन अमेरिकी सैनिकों के हवाले कर दें अन्यथा उन्हें जबरन सैक्स का शिकार बनाया जाएगा.

उस दौरान हजारों कम उम्र की वियतनामी लड़कियों को हार्मोंस के इंजेक्शन लगाए गए थे ताकि उन के उरोज और नितंब उभर सकें तथा उन लड़कियों का भरा हुआ गुदगुदाया जवान बदन अमेरिकी सैनिकों की काम पिपासा शांत कर सके.

उस युद्ध के दौरान सीली गंध वाले वियतनामी बारों में सुबह से ले कर रात तक उकताए हुए अमेरिकी सैनिक आते थे. उन के साथ कोई न कोई वियतनामी महिला होती थी, जिसे उन्होंने अपना सैक्स गुलाम बनाया हुआ था.

बाद में वियतनाम युद्ध खत्म हो गया था. अमेरिकी सेना भी वापस लौट गई थी. लेकिन इस के कुछ ही महीनों के भीतर वियतनाम में 50 हजार से ज्यादा बच्चे जन्म ले कर इस दुनिया में आए.

ये बच्चे उन अमेरिकी सैनिकों की पैदाइश थे. इन बच्चों को बुई-दोय यानी जीवन की गंदगी कहा गया. इन बच्चों की आंसू भरी मोटीमोटी आंखें देख कर उन की वियतनामी मां का कलेजा टूट जाता था. कलेजा इन बच्चों को गले लगाने के लिए नहीं टूटता था, बल्कि उन बलात्कारों को याद कर वे सिहर उठती थीं, जिन की वजह से वे मां बनीं.

सन 1919 से करीब ढाई साल तक चले आयरिश युद्ध की कहानी भी क्रूरता की कहानी दोहराती है. ब्यूरो औफ मिलिट्री हिस्ट्री ने भी माना था कि इस पूरे युद्ध के दौरान महिलाओं से बर्बरता हुई थी.

सैनिकों ने बलात्कार और हत्या से अलग एक नया तरीका निकाला था. वे दुश्मन देश की महिलाओं के सिर के सारे बाल काट देते थे. इन महिलाओं को सिर ढंकने की मनाही थी.

सिर मुंडाए चलती ये महिलाएं गुलामी का इश्तिहार होती थीं. राह चलते उन के शरीर को दबोचा जाता और अश्लील ठहाके लगाए जाते.

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इतिहास में नाजियों की गिनती सब से क्रूर सोच में होती है. हालांकि जरमन महिलाएं भी सुरक्षित नहीं रहीं. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत की सेना ने पूर्वी प्रूशिया पर कब्जा कर लिया. घरों से खींचखींच कर जरमन महिलाएं और बच्चियां बाहर निकाली गईं और दसियों सैनिक एक साथ उन पर टूट पड़े थे. इन का एक ही मकसद था जर्मनी के गुरूर को तोड़ना.

किसी पुरुष के गुरूर को चकनाचूर करने का सब से ताकतवर तरीका है उस की महिला से बलात्कार करना. रेड आर्मी ने यही किया.

सोवियत सेना के एक कैप्टन अलेक्जेंडर सोलजेनिज्न ने एक किताब लिखी थी. गुलाग आर्किपेलगो नामक इस किताब में सोवियत सेना के युवा कैप्टन ने माना था कि जरमन महिलाओं से बलात्कार रूस के लिए जीत का ईनाम था.

युद्ध खत्म होने के बहुत बाद तक भी हजारों जरमन महिलाएं साइबेरिया में कैद रहीं. वहां कैंप में थके हुए रूसी सैनिक आते और नग्न जरमन महिलाओं की परेड कराते.

जो महिला किसी सैनिक को पसंद आ जाती, वह उसे उठा ले जाता और मन भर जाने के बाद वापस उसी कैंप में पटक जाता था.

अपने कट्टरपन के लिए कुख्यात इस्लामिक स्टेट आईएसआईएस के लड़ाके यजीदी महिलाओं के नाम लिख कर एक कटोरदान में डाल देते थे. फिर लौटरी निकाली जाती. जिस भी महिला का नाम जिस लड़ाके के हाथ लगता, उसे वह औरत तोहफे में दे दी जाती थी.

यह उस लड़ाके की इच्छा पर निर्भर करता था कि वह उस औरत से यौन सुख भोगे या उसे बैलगाड़ी में बैल की तरह जोते.

पूर्वी बोस्निया के घने जंगलों के बीचोबीच विलिना व्लास नाम का एक रिसौर्ट है. यहां चीड़ के पत्तों की सरसराहट के बीच प्रेमी जोड़े टहला करते थे. बोस्निया की ट्रेवल गाइड में इसे हेल्थ रिसौर्ट भी कहा जाता था.

नब्बे के दशक में हुए बाल्कन वार ने इस रिसौर्ट का चेहरा बदल दिया. इस रिसौर्ट को रेप कैंप में बदल दिया गया. यहां बोस्निया की औरतों से सर्बियन लड़ाकों ने महीनों तक गैंगरेप किया.

इस दौरान कुछ महिलाएं संक्रमण से मर गईं, तो कुछ ज्यादती से. कुछ महिलाओं ने आत्महत्या कर मौत को गले लगा लिया. संयुक्त राष्ट्र ने 2011 में यह राज खोला था, तब दुनिया को बर्बरता की इस कहानी का पता चला. तब तक बलात्कारी गायब हो चुके थे और मुर्दा औरतें जुल्म की गवाही देने के लिए हाजिर नहीं हो सकीं.

युद्ध कभी भी हुआ हो. चाहे हजारों साल पहले या आज. युद्ध 2 देशों के बीच हो या अंदरूनी. महिलाएं हमेशा से दरिंदगी की शिकार बनती रहीं. उन पर जुल्म ढहाए गए. अब अफगानिस्तान में भी यही हो रहा है.

हिंदुस्तान की बात करें, तो हमारे देश में भी महिलाओं को सैकड़ोंहजारों साल तक गुलामों की तरह जिंदगी जीनी पड़ी थी. पहले जब राजामहाराजाओं और बादशाहों के राज हुआ करते थे, तब वे अपना साम्राज्य और बढ़ाने के लिए युद्ध करते थे.

इन युद्धों में शहरगांव और जमीनों पर कब्जा कर लूटपाट तो की ही जाती थी. साथ ही पराजित राजा या बादशाह के हरम पर कब्जा कर लिया जाता था.

उस जमाने में हरेक राजामहाराजा और बादशाहों के किले महल, गढ़ और दूसरे ठिकानों में हरम हुआ करते थे. इस हरम में रानीमहारानी और बेगमों से इतर सैकड़ों महिलाएं होती थीं.

रानीमहारानी और बेगमों के लिए महल, गढ़ और किले में ऐशोआराम के हर साधन होते थे, लेकिन हरम में रहने वाली महिलाओं को वे सुखसुविधाएं नहीं मिलती थीं.

हरम की इन महिलाओं को वे शासक कभीकभार भोगते थे. कभीकभार शासकों के बड़े ओहदेदार भी हरम की इन महिलाओं को अपनी वासना का शिकार बना लेते थे.

विदेशी आततायियों को भी हिंदुस्तानी महिलाएं खूब पसंद आती थीं. विदेशी आक्रमणकारियों ने जब भी भारत में किसी सूबे पर हमला किया तो कीमती सामान के साथ हरम को भी लूटा था.

भारत में प्राचीन समय में राजामहाराजाओं के बीच महिलाओं को ले कर युद्ध होते रहे हैं. दूसरे राजा की रानियों की खूबसूरती के चर्चे सुन कर कई राजाओं ने युद्ध किए.

अब अफगानिस्तान की महिलाएं तालिबानियों से अपनी जिंदगी और अस्मत बचाने की चिंता में हैं.

अफगानी-पाकिस्तानी एक्ट्रेस मलीशा ने बताए तालिबानियों के जुल्म

अब तालिबान दुनिया के सामने अपनी उदार छवि पेश करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उस की हुकूमत में जिस तरह से महिलाओं पर बंदिशें लगाई जा रही हैं, उस से जाहिर है कि वह बिलकुल नहीं बदला है. तालिबान ने अफगानी-पाकिस्तानी एक्ट्रेस मलीशा हीना खान के खिलाफ फतवा जारी किया है.

मौडल और एक्ट्रेस मलीशा फिलहाल भारत में ही रहती हैं. वह अफगानिस्तान में महिलाओं पर हो रहे हर जुल्म की खबर लगातार ट्विटर पर शेयर करती रहती हैं. इसी बात से नाराज तालिबान ने उन के खिलाफ फतवा जारी किया है.

तालिबान की ओर से फतवा जारी किए जाने से 2 दिन पहले ही मलीशा ने कहा था कि काबुल में तालिबानियों ने आम लोगों को ले जा रही एक गाड़ी पर अंधाधुंध फायरिंग की. ये लोग जंग के मैदान से किसी सुरक्षित जगह पनाह लेने के लिए जा रहे थे.

तालिबानी मशीन गन से फायर कर रहे थे. उन्होंने सि विलियंस की गाड़ी पर ग्रेनेड भी फेंके. कई लोगों ने गाड़ी धीमी कर के यह भी दिखाने की कोशिश की कि उस में महिलाएं और बच्चे बैठे हैं. इस के बावजूद तालिबानी लड़ाकों ने उन पर फायरिंग की.

इस से कार में धमाका हुआ और सभी की मौके पर मौत हो गई. एक ट्विटर पोस्ट में मलीशा ने लिखा था कि 10 दिन के भीतर 300 महिलाओं, लड़कियों और नाबालिगों के साथ रेप किया गया. उन्हें जबरन शादी के लिए मजबूर किया गया है.

तालिबानी लड़ाके घरघर जा कर महिलाओं और जवान लड़कियों की तलाश कर रहे हैं. इन से जबरदस्ती शादी की जा रही है. कुछ लड़कियों की उम्र तो 14-15 साल ही है. ये शादी तो बस नाम की है. इन के साथ कई मर्द संबंध बनाते हैं. कई बार तो एक वक्त में 10-10 मर्द ऐसा करते हैं.

मलीशा हीना खान काबुल में हुई हिंसा और लड़ाई में अपने परिवार के 4 सदस्यों को खो चुकी हैं. मलीशा पिछले कई सालों से मुंबई में रहती हैं. मलीशा का भाई व बहन सहित परिवार के 5-6 सदस्य अफगानिस्तान में ही छिपे हुए हैं. उन के चाचा, भतीजे और 2 चचेरे भाई लड़ाई में मारे गए.

मलीशा हीना खान 2018 में तब सुर्खियों में आई थीं, जब उन्होंने लोकप्रिय पाकिस्तानी गायिका राबी पीरजादा का समर्थन किया, जिन के प्राइवेट न्यूड फोटो और वीडियो लीक हो गए थे.

कैसे सच होगा: “हाथी मेरा साथी”

परिणाम स्वरूप हाथी को जंगल में असुविधा हो रही है. क्योंकि आम आदमी जंगल में मकान बनाकर गांव पर गांव बसाता चला जा रहा है.

इस रिपोर्ट के लेखक स्वयं ऐसी जगह रहते हैं, जहां अक्सर हाथी सड़कों पर घूमते रहते हैं.
इस रिपोर्ट में हम आपको बताने जा रहे हैं कि इस तरह मनुष्य और हाथी का द्वंद बढ़ता चला जा रहा है और उसे किस तरह रोका जा सकता हैं क्योंकि पृथ्वी पर सभी यानी मनुष्य और वन्य जीवों का सहअस्तित्व जरूरी है. ऐसे में क्या होना चाहिए की हाथियों की मौत जो लगातार चिंता का सबब बनी हुई है वही मनुष्य की हाथियों के जद में आने से हो रही मौत भी रूकनी चाहिए.

हाथियों के जीवन को निकट से देखने वाले वन्य प्रेमी और अधिकारियों के मतानुसार
हाथियों के लिए डरावने शब्दों का उपयोग किया जाता है जब कभी हाथी गांव अथवा शहर आ जाते हैं तो उन्हें देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है हाथियों को छेड़ा जाता है और तत्व की आवाज निकाल कर उन्हें परेशान किया जाता है इससे मानव हाथी द्वन्द बढ़ जाता है.भारत सरकार ने इस हेतु एक गाइडलाइन जारी की है. मगर उसे अनदेखा किया जाता है इसी तरह मीडिया में भी हाथी के लिए ऐसे शब्दों का उपयोग किया जाता है जो आपत्तिजनक है.

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गजराज के लिए मीडिया यह करें और यह ना करें

हाथियों के लिए अक्सर अखबार व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उपयोग हो रहे डरावने शब्दों के उपयोग बंद कराने के लिए भारत सरकार पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने देश के सत्रह प्रोजेक्ट एलीफेंट राज्यों के मुख्य वन जीव संरक्षकों को पत्र भेजकर अपने अपने प्रदेश में मीडिया के साथ सहयोग कर उचित कदम उठाने को कहा है. ताकि मीडिया हाथियों के लिए उचित एवं सौम्य शब्दों का उपयोग करे. क्योंकि अनुसंधान में यह बातें बारंबार आई है कि मीडिया द्वारा वन्य प्राणी हाथियों के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिससे आम लोगों में उनके प्रति दुराग्रह और कठोर भाव उत्पन्न हो जाता है. इसे रोकने के लिए वन मंत्रालय ने एक पहल की है और मीडिया से उपेक्षा की जा रही है कि मनुष्य और वन्यजीवों के बीच सम्बन्ध बनाने का काम करें ऐसी खबरें और रिपोर्टिंग नहीं आनी चाहिए जिससे हाथियों को नुकसान है क्योंकि देखा जाता है कि अक्सर बिजली लगाकर की या जहर खिलाकर के हाथियों को मारा जा रहा है.

वन्यजीव प्रेमी नितिन सिंघवी ने भारत सरकार को पत्र लिखकर आशंका जताई थी कि जिस प्रकार हाथियों के लिए डरावने शब्दों का उपयोग मीडिया में हो रहा है उस से आने वाली पीढ़ी हाथियों को उसी प्रकार दुश्मन मानने लगेगी. जैसे कि मानव अमूनन सांपों को दुश्मन मान लेता है और देखते ही मारने का प्रयत्न करता है. जबकि 95 प्रतिशत सांप तो जहरीले ही नहीं होते परंतु इसलिए मार दिए जाते हैं कि हमें बचपन से यही सिखाया जाता है कि साँप खतरनाक होते हैं. नितिन सिंघवी के मुताबिक
हाथियों के , साथ भी यही होगा. जबकि हम सबको हाथियों के साथ रहना सीखना पड़ेगा.

प्रेस और जनता की निगाह में हाथी!

हाथियों के व्यवहार के संदर्भ में मीडिया में जो भाषा पढ़ने को मिल रही है वह आपत्तिजनक है आप भी देखिए जैसे उत्पाती, हत्यारा हाथी , हिंसक , पागल, बिगड़ैल हाथी , गुस्सैल,दंतैल और दल से भगाया हुआ, हाथी ने मौत के घाट उतारा, सिरदर्द बना हुआ है हाथी, यहां जान का दुश्मन है हाथी इत्यादि शब्दों का प्रयोग होता है. जबकि हाथी ही एक मात्र ऐसा वन्य प्राणी है जिसके लिए दुनिया में सबसे अच्छे शब्दों जैसे कि मैजेस्टिक, रीगल, महान, जेंटल, डिग्निफाइड जीव, आला दर्जे का जीव जैसे शब्दों का उपयोग होता है. हाथी को दुनिया के सभी धर्मों में पवित्र प्राणी माना गया है. भारतीय शास्त्रों में हाथी को पूजना गणेश जी को पूजना माना जाता है, हाथी को शुभ शकुन वाला एव लक्ष्मी दाता माना गया है.भारत में राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड की स्थाई समिति की 13 अक्टूबर, 2010 को हुई बैठक में हाथियों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करा है.

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वन्य प्रेमियों का संदेश

जहां एक तरफ आपकी और मनुष्य का द्वंद जारी है वहीं सरंक्षण अभियान भी छोटे ही पैमाने पर सही लेकिन सतत चलता रहता है इसका एक उदाहरण है वन्यजीव प्रेमी नितिन सिंघवी. जिन्होंने हाथियों के लिए जहां सरकार को लगातार पत्र लिखे हैं वहीं उच्च न्यायालय तक दस्तक दी है.

हमारे संवाददाता से चर्चा में उन्होंने बताया वर्तमान में पदस्थ एवं पूर्व मे पदस्थ प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यप्राणी) छत्तीसगढ़ को उन्होंने व्यक्तिगत रूप से मिलकर सुझाव दिया था कि नकारात्मक शब्दों को प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए इस हेतु मीडिया को सुझाव दिया जा सकता है, परंतु ऐसा लगा कि मानव हाथी द्वंद के प्रति वे चिंतित नहीं है. अतः मजबूर होकर उन्होंने भारत सरकार को सुझाव प्रेषित किया था. परिणाम स्वरूप वन मंत्रालय के उच्च अधिकारियों ने देशभर के सभी हाथी विचरण क्षेत्र के राज्यों को इस हेतु निर्देशित किया है.

सामाजिक कार्यकर्ता घनश्याम तिवारी के अनुसार हाथी और मनुष्य का साथ पूरा काल से चला आ रहा है और चलता रहेगा ऐसे में मीडिया के द्वारा उपयोग किए जा रहे शब्दों को सोच समझकर के प्रयोग करने की आवश्यकता है और इस हेतु लगातार प्रयास जारी है.

टोक्यो पैरालिंपिक 2020: कल तक अनजान, आज हीरो

भारत जैसे देश में जहां खेलों को सरकारी नौकरी पाने का जरीया माना जाता है, वहां खेल के प्रति इज्जत और खेल प्रेमी बहुत कम ही हैं. उन के लिए वही खिलाड़ी बड़ा है, जो ओलिंपिक खेलों में मैडल जीते.

इस बार के मेन टोक्यो ओलिंपिक खेलों में नीरज चोपड़ा ने भाला फेंक खेल इवैंट में सोने का तमगा क्या जीता, वे रातोंरात हीरो बन गए. राखी सावंत भी बीच सड़क पर लकड़ी को भाला बना कर फेंकती नजर आईं.

चूंकि नीरज चोपड़ा देखने में हैंडसम हैं, लंबेचौड़े हैं, तो वे जवान लड़कियों के क्रश बन गए. इस सब में खेल कहीं खो गया और वह सारी मेहनत भी जो नीरज चोपड़ा ने कई साल से एक गुमनाम खिलाड़ी की तरह की थी.

अब उन खिलाडि़यों की बात करते हैं, जो शरीर से कमतर होते हैं, पर मन से ताकतवर और जिन्हें सरकार ‘दिव्यांग’ कहती है. चूंकि इस बार के ओलिंपिक खेलों में भारत ने 7 तमगे जीत कर 48वां नंबर पाया था, तो टोक्यो में हुए पैरालिंपिक खेलों पर भी लोगों की नजर थी, जिन में ‘दिव्यांग’ खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं.

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24 अगस्त, 2021 से 5 सितंबर, 2021 तक चले दिव्यांग खिलाडि़यों के इस विश्व खेल में भारतीय खिलाडि़यों  ने शानदार प्रदर्शन किया और कुल  19 तमगे जीते.

इस बार कुल 54 खिलाड़ी टोक्यो पैरालिंपिक में हिस्सा लेने गए थे, जिन में से कामयाब खिलाडि़यों ने 19 तमगे जीते. इन में 5 सोने के तमगे, 8 चांदी के तमगे और 6 कांसे के तमगे शामिल थे. भारत का रैंक 24वां रहा, जो अपनेआप में रिकौर्ड है.

मैडल जीतने की शुरुआत टेबल टैनिस खिलाड़ी भाविनाबेन पटेल ने की थी. उन्होंने भारत के लिए चांदी का तमगा जीता था, जबकि इस खेल में चीन, जापान जैसे देशों का दबदबा ज्यादा है.  29 अगस्त, 2021 को भाविनाबेन पटेल ने टेबल टैनिस क्लास 4 इवैंट के महिला एकल फाइनल में चीन की ?ाउ यिंग से मुकाबला किया, पर 7-11, 5-11, 6-11 की शिकस्त के साथ उन्हें चांदी के तमगे से संतोष करना पड़ा.

34 साल की भाविनाबेन पटेल गुजरात के मेहसाणा की रहने वाली हैं. यहां तक पहुंचने के लिए उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है. महज एक साल की उम्र में उन्हें पोलियो हो गया था. भाविनाबेन पटेल के पिता हंसमुख पटेल ने बेटी के पैरालिंपिक के लिए ठीक से ट्रेनिंग दिलाने के लिए अपनी दुकान बेचने का फैसला किया था. जैसा हर जगह होता है, सरकार की सहायता तो नाम की थी.

इस के बाद एथलैटिक्स में दूसरा तमगा आया. 29 अगस्त, 2021 को ऊंची कूद टी 47 इवैंट में भाग लेने वाले निषाद कुमार ने 2.06 मीटर की ऊंची छलांग लगाने के साथ चांदी का तमगा अपने नाम किया.

हिमाचल प्रदेश के अंब शहर के निषाद कुमार के पिता किसान हैं. जब निषाद 8 साल के थे, तब उन का दायां हाथ खेत पर घास काटने वाली मशीन से कट गया था. इस के बाद उन की मां ने ही उन्हें हौसला दिया था. पिता ने भी उन्हें यह महसूस नहीं होने दिया कि वे दिव्यांग हो गए हैं. हमारे देश में तो इस तरह के लोगों को पाप का भागी ही माना जाता रहा है.

मैडल जीतने के बाद निषाद कुमार बोले थे कि अगर वे अपनी दिव्यांगता या गरीबी के बारे में सोचते रहते तो यकीनन आज पैरालिंपिक में चांदी का तमगा नहीं जीत पाते.

इस के बाद देश को पहला सोने का तमगा मिला. 30 अगस्त, 2021 को जयपुर की रहने वाली पैराशूटर अवनि लेखड़ा ने महिलाओं के 10 मीटर एयर राइफल स्टैंडिंग एसएच 1 इवैंट में यह तमगा जीता. उन्होंने फाइनल मुकाबले में 249.6 अंक हासिल किए और वर्ल्ड रिकौर्ड की बराबरी की.

अवनि लेखड़ा साल 2012 में अपने पिता के साथ जयपुर से धौलपुर जा रही थीं, तो एक सड़क हादसे में वे दोनों घायल हो गए थे. पिता प्रवीण लेखड़ा तो कुछ समय बाद ठीक हो गए, पर अवनि रीढ़ की हड्डी में चोट लगने के चलते खड़े होने और चलने में नाकाम हो गईं.

इस के बाद अवनि लेखड़ा बहुत निराशा से भर गईं और अपनेआप को कमरे में बंद कर लिया, पर बाद में मातापिता की कोशिशों और अभिनव बिंद्रा की जीवनी से प्रेरणा ले कर वे निशानेबाजी करने लगीं.

30 अगस्त, 2021 को ही योगेश कथुनिया ने पुरुष डिस्कस थ्रो एफ 56 इवैंट में चांदी का तमगा जीता. उन्होंने अपना बैस्ट थ्रो 44.38 मीटर का किया.

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3 मार्च, 1997 को जनमे योगेश कथुनिया जब 8 साल के थे, तभी उन्हें लकवा हो गया था. काफी इलाज के बाद उन के हाथों ने तो काम करना शुरू कर दिया, लेकिन पैर वैसे ही रहे. हालांकि, वे ह्वीलचेयर से अपने पैरों पर आ गए थे.

योगेश कथुनिया को एक बार पैरिस में होने वाली ओपन ग्रांप्री चैंपियनशिप में जाना था. इस के लिए टिकट और दूसरे खर्चों के लिए उन्हें 86,000 रुपए की जरूरत थी. पर, घर में पैसे की तंगी पहले से ही थी. इस के बाद योगेश के एक दोस्त सचिन ने उन की मदद की और वहां जा कर उन्होंने सोने का तमगा जीता था. कोई मंदिर, कोई खाप, कोर्ट, बड़ी कंपनी उन की मदद के लिए नहीं आई.

30 अगस्त, 2021 को ही भारत के देवेंद्र ?ा?ाडि़या ने पुरुषों के जैवलिन थ्रो एफ 46 इवैंट में चांदी का तमगा हासिल किया. उन्होंने 64.35 मीटर भाला फेंक कर यह कारनामा किया.

देवेंद्र ?ा?ाडि़या एकलौते पैरालिंपिक एथलीट हैं, जिन के नाम पुरुष भाला फेंक में 2 सोने के तमगे हैं. उन्होंने अपना पहला सुनहरी तमगा साल 2004 में एथेंस पैरालिंपिक में और दूसरा साल 2016 में रियो पैरालिंपिक में जीता था.

देवेंद्र ?ा?ाडि़या जब 8 साल के थे, तब करंट लगने के चलते उन का हाथ बुरी तरह से जख्मी हो गया था. जब उन्होंने अपने स्कूल में भाला फेंकना शुरू किया, तो उन्हें लोगों के ताने ?ोलने पड़े, मगर उन्होंने हार नहीं मानी.

40 साल के देवेंद्र ?ा?ाडि़या का जन्म राजस्थान के एक साधारण किसान परिवार में हुआ था. उन के पिता किसान हैं और उन की मां गृहिणी हैं. उन के पिता राम सिंह ने दूर रहते हुए भी उन्हें खेत की ताजा दाल और गेहूं भेजा था, ताकि वे सेहतमंद रह कर प्रैक्टिस करते रहें.

इतना ही नहीं, इसी इवैंट में भारत के सुंदर सिंह गुर्जर ने कांसे का तमगा जीता. 25 साल के सुंदर सिंह गुर्जर ने साल 2015 में एक हादसे में अपना बायां हाथ गंवा दिया था. दरअसल, अपने एक दोस्त के घर पर काम करने के दौरान वे टिन की चादर पर गिर गए थे. इस से उन के बाएं हाथ की हथेली कट गई थी.

सुंदर सिंह गुर्जर का जन्म राजस्थान के करौली जिले में हुआ था. जब वे छोटे थे, तो पढ़ाई में उन का मन नहीं लगता था. वे 10वीं जमात में फेल हो गए थे. तब उन के एक टीचर ने खेलों में जाने को कहा था.

30 अगस्त, 2021 को भारत का दूसरा सोने का तमगा आया. सुमित अंतिल ने पुरुषों के भाला फेंक एफ 64 इवैंट में वर्ल्ड रिकौर्ड के साथ यह तमगा जीता. उन्होंने 68.55 मीटर का थ्रो करते हुए इतिहास रचा.

7 जून, 1998 को पैदा होने वाले सुमित अंतिल ने 6 साल पहले हुए एक सड़क हादसे में अपना एक पैर गंवा दिया था. इस के बावजूद उन्होंने हर हालात का डट कर सामना किया. उन के पिता भी नहीं थे और 3 बेटियों और सुमित को पालना मां के लिए आसान नहीं था.

सुमित पहलवान बनना चाहते थे, पर हादसे के बाद लगे नकली पैर और भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा के हौसला बढ़ाने से उन्होंने यह कारनामा किया.

31 अगस्त को भारतीय निशानेबाज सिंहराज अधाना ने पी 1 पुरुष 10 मीटर एयर पिस्टल एसएच 1 इवैंट में कांसे का तमगा जीता.

जन्म से पोलियोग्रस्त सिंहराज अधाना मूलरूप से फरीदाबाद के तिगांव निवासी हैं. परिवार ने तमाम तरह की मुश्किलों का सामना कर उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है.

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सिंहराज अधाना की जिंदगी में एक ऐसा समय भी आया था, जब उन की पत्नी कविता ने अपने गहने गिरवी रख कर उन्हें खेल के लिए बढ़ावा दिया था.

रियो पैरालिंपिक में सोने का तमगा जीतने वाले मरियप्पन थंगवेलु ने  31 अगस्त, 2021 को हाई जंप के टी 42 वर्ग में 1.86 मीटर की छलांग के साथ चांदी का तमगा जीता.

मरियप्पन थंगवेलु का जन्म तमिलनाडु के सेलम जिले से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर पेरिअवाडागमपत्ती गांव में हुआ था. पिता उन के बचपन में ही परिवार को छोड़ कर कहीं चले गए थे. अब परिवार की जिम्मेदारी उन की मां पर थी, जिन की रोज की आमदनी महज 100 रुपए थी.

5 साल के मरियप्पन थंगवेलु एक दिन सुबह अपने स्कूल जा रहे थे कि तभी किसी शराब पिए हुए बस चालक ने उन्हें टक्कर मार दी. इस से घुटने के नीचे का पैर काटना पड़ा.

मरियप्पन थंगवेलु की मां के पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वे उन का अच्छा इलाज करा सकें. उन्होंने इस के लिए बैंक से 3 लाख रुपए का लोन लिया था.

इसी इवैंट में बिहार के मोतिहारी  में पैदा हुए शरद कुमार ने 1.83 मीटर की छलांग के साथ कांसे का तमगा अपने नाम किया. जब वे महज 2 साल के थे, तब डाक्टर ने उन्हें गलत इंजैक्शन दे दिया था, जिस से वे पोलियो से ग्रसित हो गए थे. मांबाप ने उन्हें दूर दार्जिलिंग के बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया था, जिस की फीस वे रिश्तेदारों से उधार मांग कर भरा करते थे.

3 सितंबर, 2021 को महज 18 साल के प्रवीण कुमार ने हाई जंप टी 44 इवैंट में 2.07 मीटर की छलांग लगाते हुए चांदी का तमगा जीता. उन्होंने एशियन रिकौर्ड भी बनाया. वे उत्तर प्रदेश के नोएडा के रहने वाले हैं. उन का एक पैर सामान्य रूप से छोटा है, लेकिन इसी को उन्होंने अपनी ताकत बनाया और नया इतिहास रच दिया.

शुरू में प्रवीण कुमार ने वौलीबाल खेलना शुरू किया था, पर बाद में उन्होंने हाई जंप में अपना कैरियर बनाना चाहा. जब वे 16 साल के थे, तो उस दौरान उन्हें ऊंची कूद करने का जुनून चढ़ गया था, जिस के बाद वे स्कूल की तरफ से जिला स्तर पर भी खेले.

पैराशूटर अवनि लेखड़ा ने  3 सितंबर, 2021 को हुए महिलाओं के 50 मीटर राइफल  3 पोजिशन एसएच 1 इवैंट में 445.9 पौइंट के साथ कांसे का तमगा जीता. इस से पहले उन्होंने 10 मीटर राइफल में सोने का तमगा हासिल किया था.

3 सितंबर, 2021 को तीरंदाज हरविंदर सिंह ने पुरुषों के व्यक्तिगत रिकर्व इवैंट में भारत को कांसे का तमगा दिलाया. उन्होंने रोमांचक शूट औफ मैच में दक्षिण कोरिया के एमएस किम को  6-5 से हराया. वे पैरालिंपिक में तमगा जीतने वाले पहले भारतीय तीरंदाज बने.

हरियाणा के कैथल गांव के मध्यम तबके के किसान परिवार के हरविंदर सिंह जब डेढ़ साल के थे, तो उन्हें डेंगू हो गया था और स्थानीय डाक्टर ने एक इंजैक्शन लगाया, जिस का गलत असर पड़ा और तब से उन के पैरों ने ठीक से काम करना बंद कर दिया.

हरविंदर सिंह वर्तमान में पंजाब यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे हैं.

4 सितंबर, 2021 को निशानेबाज मनीष नरवाल ने भारत की ?ाली में तीसरा सोने का तमगा डाला. उन्होंने निशानेबाजी के मिक्स्ड 50 मीटर पिस्टल इवैंट में 218.2 स्कोर किया.

मनीष नरवाल का जन्म 17, अक्तूबर 2001 में हरियाणा के फरीदाबाद में हुआ था. दाहिने हाथ में जन्मजात बीमारी के साथ पैदा हुए मनीष नरवाल को फुटबाल खेलने का काफी शौक था, लेकिन शारीरिक कमी के चलते वे प्रोफैशनल फुटबालर नहीं बन पाए. पिता दिलबाग के दोस्तों ने मनीष नरवाल को निशानेबाजी में कैरियर बनाने की राय दी, जिस के बाद उन्होंने साल 2016 में फरीदाबाद में ही निशानेबाजी की शुरुआत की.

इसी इवैंट में सिंहराज अधाना ने 216.7 अंक बना कर चांदी का तमगा अपने नाम किया. इस से पहले वे भारत के लिए कांसे का तमगा भी जीत चुके थे.

4 सितंबर, 2021 को बैडमिंटन में प्रमोद भगत ने पुरुष के एसएल 3 वर्ग में सोने का तमगा जीत कर इतिहास रच दिया. उन्होंने ब्रिटेन के डेनियल बेथेल को फाइनल मुकाबले में हराया.

प्रमोद भगत का जन्म ओडिशा के बरगढ़ जिले के अट्ताबीर गांव में 4 जून, 1989 को हुआ था. उन्हें बचपन से ही खेल में बहुत दिलचस्पी थी, पर बचपन में ही वे पोलियो के शिकार हो गए. उन्हें बैडमिंटन खेल में काफी दिलचस्पी थी और पैसों की कमी के चलते वे एक शटल खरीद कर उस से कई दिनों तक खेलते थे.

प्रमोद भगत के पिता खेल को पसंद नहीं करते थे. लिहाजा, प्रमोद दिन में पढ़ाई करते थे और रात में चोरीछिपे बैडमिंटन की प्रैक्टिस करते थे.

4 सितंबर, 2021 को मनोज सरकार ने बैडमिंटन में कांसे का तमगा जीता. उन्होंने जापान के दैसुके फुजिहारा को सीधे सैटों में 22-20 और 21-13 से हराया. मनोज सरकार ने एसएल 3 वर्ग में यह मैच जीता.

उत्तराखंड के मनोज सरकार जब डेढ़ साल के थे, तो उन्हें तेज बुखार आया था. एक ?ालाछाप से इलाज कराया गया. इस इलाज का उन पर बुरा असर पड़ा और दवा खाने के बाद उन के पैर में कमजोरी आ गई.

लोगों को बैडमिंटन खेलता देख मनोज ने भी परिवार से रैकेट खरीदने की मांग की, लेकिन रैकेट खरीदने के लिए परिवार के पास पैसे नहीं थे. मां जमुना ने खेतों में काम कर पैसे जुटाए और बेटे के लिए बैडमिंटन रैकेट खरीदा.

5 सितंबर, 2021 को नोएडा के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और बैडमिंटन खिलाड़ी सुहास यथिराज पुरुष एकल एसएल 4 क्लास बैडमिंटन इवैंट के फाइनल मुकाबले में फ्रांस के लुकास माजूर से 21-15, 17-21, 15-21 से हार गए. उन्हें चांदी के तमगे से ही संतोष करना पड़ा.

सुहास यथिराज का जन्म कर्नाटक के शिमोगा में हुआ था. जन्म से ही दिव्यांग सुहास की बचपन से ही खेल के प्रति बेहद दिलचस्पी थी. इस के लिए उन्हें पिता और परिवार का भरपूर साथ मिला.

सुहास यथिराज की शुरुआती पढ़ाई गांव में हुई थी. इस के बाद उन्होंने नैशनल इंस्टीट्यूट औफ टैक्नोलौजी से कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग की. साल 2005 में पिता की मौत के बाद वे टूट गए थे. इस के बाद उन्होंने ठान लिया था कि उन्हें आईएएस बनना है और वे बने भी, लेकिन अपना बैडमिंटन के प्रति लगाव नहीं छोड़ा.

इस खेल महाकुंभ के आखिरी दिन  5 सितंबर, 2021 को बैडमिंटन खिलाड़ी कृष्णा नागर ने पुरुष एकल एसएच 6 वर्ग के फाइनल मुकाबले में हौंगकौंग के चू मान काई को हरा कर सोने का तमगा अपने नाम किया.

कृष्णा नागर का जन्म 12 जनवरी, 1999 को जयपुर में हुआ था. 2 साल की उम्र में उन के बौनेपन का पता चला था. उन्हें समाज में आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता था और लोग उन के छोटे कद का मजाक उड़ाते थे.

फिर कृष्णा नागर ने अपनी कमजोरी को ताकत बनाया और बैडमिंटन खेलना शुरू किया. बाद में कोच गौरव खन्ना ने उन के खेल को निखारा और इस मुकाम तक पहुंचाने में मदद की.

टोक्यो पैरालिंपिक में भारतीय दिव्यांग खिलाडि़यों ने अपने खेल जज्बे से यह साबित कर दिया है कि वे भी किसी से कम नहीं हैं. उन्होंने खेल को अपनाने के लिए बहुत पापड़ बेले हैं. उन्होंने अपनी शारीरिक कमियों पर जीत हासिल की, समाज की टोकाटोकी को नजरअंदाज किया, अपने खेल पर  फोकस किया और कड़ी मेहनत से यह मुकाम हासिल किया.

इन खिलाडि़यों को मिलने वाली सरकारी मदद पर भारतीय पैरालिंपिक संघ की अध्यक्ष दीपा मलिक ने बताया, ‘‘भारत सरकार ने 17 करोड़ रुपए पैरा खिलाडि़यों की ट्रेनिंग, विदेशी दौरे और दूसरी सुविधाएं देने में खर्च किए हैं. अब जिस चीज की सब से ज्यादा जरूरत है, वह है अच्छे कोच और अच्छी ट्रेनिंग की सुविधाएं.’’

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इन खिलाडि़यों की जीत का सेहरा अपने सिर बांधना चाहती है, पर उस की दी गई सुविधाएं ऊंट के मुंह में जीरा हैं. सरकार को ध्यान रखना चाहिए कि ये साधारण खिलाड़ी नहीं हैं. ये तन के साथसाथ मन की कमियों से भी जू?ा रहे होते हैं. इन को खेल की सुविधाएं देने के साथसाथ मानसिक ताकत भी चाहिए, तभी इन से सीख ले कर दूसरे ‘दिव्यांग’ बच्चे भी खेलों को अपनाने की सोचेंगे.

वैसे, यह उन बच्चों के लिए अपनेआप में नई राह है, जो ‘दिव्यांग’ होने के चलते खुद को नकारा मान लेते हैं. बहुत से तो भीख मांगने की राह पर निकल पड़ते हैं. पर अगर उन के घर वाले थोड़ा ध्यान दें, तो वे भी कल के ‘तमगावीर’ हो सकते हैं.

बहरहाल, इन खिलाडि़यों की इस ऐतिहासिक जीत से हर कोई प्रेरणा ले सकता है कि शारीरिक कमी आप की राह में तब तक रोड़ा नहीं बन सकती है, जब तक आप मानसिक तौर पर मजबूत हैं. इस लिहाज से इन खिलाडि़यों की यह उपलब्धि शानदार है.

सब से बड़ी बात यह है कि ये सारे खिलाड़ी उस वर्ग से आते हैं, जिन्हें जरा सी सुविधाएं देने पर ऊंची जातियों के लोगों की छातियों पर सांप लोटने लगते हैं. आजकल वे इन लोगों को मंदिरों में बहलाफुसला कर ले जा रहे हैं ताकि हिंदूमुसलिम खेल में उन का साथ दें. यह बहुत बड़ी बात है कि गरीब घरों से आने वाले ये वंचित, ओबीसी या एससी खिलाड़ी हर तरह का अभाव ?ोल कर देश का नाम ऊंचा कर रहे हैं.

जागरूकता: रेप करना महंगा पड़ता है

‘बड़ेबड़े पहुंच रखने वाले लोग भी अपना बचाव नहीं कर पा रहे हैं. अगर ऐसे आरोप सही न भी हों, फिर भी आरोपी को बहुत तरह के दर्द सहने ही पड़ जाते हैं. लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है. जमानत मुश्किल से मिलती है और जमानत के लिए बड़ी कोर्ट में जाना पड़ता है, जहां वकील की फीस देने में ही आरोपी बरबाद हो जाता है.

‘रेप के मामलों में अगर कोर्ट कोई गलत लगने वाला फैसला सुना दे तो भी जनता उस की खिंचाई करने लगती है. यही नहीं, निचली अदालतों के फैसले पलटने में बड़ी कोर्ट देर नहीं लगाती. वह अब जज के खिलाफ टिप्पणी करने में भी कोई संकोच नहीं करती है. ऐसे कई मामले प्रकाश में आए हैं. नागपुर का मामला सभी ने देखा.’

यह कहना है उत्तर प्रदेश की अपर महाधिवक्ता रह चुकी इलाहाबाद हाईकोर्ट में सीनियर क्रिमिनल एडवोकेट सुनीति सचान का.

नागपुर में पास्को ऐक्ट के तहत मामले की सुनवाई करते हुए वहां की नागपुर हाईकोर्ट की जज ने कहा था कि ‘जब तक स्किन से स्किन का सीधा टच न हो, तब तक यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा.’’

इस फैसले के आधार पर 39 साल के आरोपी सतीश को 12 साल की लड़की के यौन उत्पीड़न मामले में पास्को के कड़े कानून से बाहर कर दिया गया.

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इस फैसले की हर जगह खिंचाई होने लगी. सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले को अपने संज्ञान में लिया. इस फैसले पर पहले स्टे दे दिया गया. सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर हुई और महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी किया गया. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला बदला. ऐसे में अब कोर्ट बहुत सचेत हो कर काम करने लगी है.

निर्भया कांड के बाद महिलाओं के खिलाफ अपराध को ले कर कानून में कड़े नियम बनाए गए हैं, जिन में न केवल रेप की परिभाषा बदली गई है, बल्कि सजा को भी दोगुना कर दिया गया है. रेप करने वाला आरोपी अगर नाबालिग है, तब भी उस के लिए किसी भी तरह से बचाव का रास्ता बंद कर दिया गया है. पुलिस से ले कर कोर्ट तक ऐसे मामलों को तेजी से निबटाने लगी है.

उत्तर प्रदेश में महिला अपराधों के बाद सजा पाने वाले अपराधियों की सजा सब से ज्यादा है. प्रदेश में तकरीबन 55 फीसदी ऐसे अपराधी हैं, जिन्हें अब तक सजा मिल चुकी है.

उत्तराखंड और राजस्थान में भी  यही हाल है. यहां 50 फीसदी और  45.5 फीसदी महिला अपराधों में सजा मिल चुकी है. रेप और महिलाओं के खिलाफ होने वाले दूसरे मामलों में पुलिस से ले कर कोर्ट तक अब मामले जल्दी निबटाने लगी हैं. ऐसे अपराधों में अब जमानत बहुत मुश्किल से मिल रही है. महिलाओं को कानूनी मदद देने के लिए एक विशेष हैल्पलाइन भी बनाई  गई है.

रेप की शिकार महिलाओं को कानूनी मदद भी मिलने लगी है. उन्नाव का कुलदीप सेंगर का मामला हो या हाथरस कांड या स्वामी चिन्मयानंद का मामला हो. आसाराम तक को रेप के आरोप में जेल जाना पड़ा है.

बड़े मामलों के अलावा तमाम छोटे मामले हैं, जहां रेप करना महंगा पड़ा है. कानूनी लड़ाई में जमीनजायदाद बिकने लगी है. मुकदमा दर्ज होने के बाद आरोपी को जेल जाना ही पड़ता है. वहां सालोंसाल अपनी सुनवाई के इंतजार में कट जा रहे हैं. ऐसे में साफ है कि रेप करना महंगा पड़ने लगा है.

बलात्कार के मामलों को ‘सम्मान’ से जोड़ा

फैमिली कोर्ट की सीनियर एडवोकेट मोनिका सिंह कहती हैं, ‘‘निर्भया केस के बाद कानून में कड़ा बदलाव किया गया है. इसे काफी सख्त बनाया गया, है, जिस की वजह से रेप करना महंगा पड़ना लगा है.’’

बलात्कार के मामलों में सजा की अवधि को दोगुना तक बढ़ा कर 20 साल किया गया है. पहले बलात्कार के मामले दर्ज नहीं होते थे, पर अब ज्यादातर मामले दर्ज होने लगे हैं. बलात्कार के मामलों को ‘सम्मान’ से जोड़ कर देखा जाता है. इस के चलते रजामंदी से अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय संबंधों को ‘बलात्कार’ का रूप दे दिया जाता है.

इस के चलते बचाव के लिए हत्या जैसे अपराध बढ़ने लगे हैं. लंबे समय तक मुकदमों की सुनवाई चलती है. किसी मामले में तब तक आरोप मुक्त नहीं किया जाता है, जब तक आरोप तय नहीं किए गए हों. वहीं कुछ मामलों में आरोपियों को तब बरी किया जाता है, जब मुकदमे की सुनवाई पूरी हो जाती है. साल 2020 में बलात्कार के 1,60,642 मामले लंबित थे.

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समाजसेवी सुमन सिंह रावत कहती हैं, ‘‘बलात्कार का अपराध पूरे समाज को हिला चुका है. बलात्कार की शिकार लड़कियां और महिलाएं ही नहीं, बल्कि दुधमुंही बच्चियां तक हो रही हैं. बलात्कार के बाद उन की हत्याएं तक करा दी जा रही हैं.

‘‘ऐसी बहुत सी घटनाएं सामने आ चुकी हैं. कड़े कानून के बाद भी जिस तरह का असर दिखना चाहिए था, वह अभी उतना नहीं दिख रहा है. हालांकि पहले से ज्यादा सुधार हुआ है.’’

साल 2020 में एक स्टडी में पाया गया कि फास्ट ट्रैक कोर्ट हकीकत में तेज हैं, लेकिन वे बहुत ज्यादा मामले नहीं संभाल पाते हैं.

फास्ट ट्रैक कोर्ट अभी भी औसतन 8.5 महीने केस निबटाने में लेते हैं, जो 4 गुना से ज्यादा हैं. ऐसे में फास्ट ट्रैक का फायदा नहीं मिल रहा है. रेप मामलों की सुनवाई बहुत ही कम समय में होनी चाहिए.

रेप में बदल गई ‘सहमति’ की परिभाषा

सीनियर एडवोकेट शिवा पांडेय कहती हैं, ‘‘रेप के अपराध में आईपीसी की धारा 375 और 376 के तहत सजा तय की जाती है. धारा 375 में कहा गया है कि रेप ऐसा अपराध है, जिस में संभोग के साथ स्त्री की सहमति पर प्रश्न होता है. संभोग की परिभाषा भी इस धारा के तहत बताई गई है. किसी समय लिंग का योनि में प्रवेश संभोग माना जाता था, पर आज इस में बदलाव किया गया है.’’

कोई आदमी किसी महिला की योनि, उस के मुंह, मूत्र मार्ग या गुदा में अपना लिंग किसी भी स्तर पर प्रवेश करता है या उस से ऐसा अपने किसी अन्य व्यक्ति के साथ कराता है या किसी महिला की योनि, मूत्र मार्ग या गुदा में ऐसी कोई वस्तु या शरीर का कोई भाग जो लिंग न हो किसी भी सीमा तक प्रवेश करता है या उस से ऐसा अपने किसी अन्य व्यक्ति के साथ कराता है, वह रेप माना जाता है.

बदले गए कानून में सैक्स की परिभाषा भी बदल गई है. इस में महिलाओं को काफी अधिकार दिए गए हैं. योनि पर मुंह तक लगाने या फिर उंगली तक डालने को रेप माना जाएगा और इस प्रकार का सैक्स करना ही अपराध नहीं है, बल्कि ऐसा सैक्स करवाना भी अपराध है.

अगर लड़की की उम्र 18 साल से कम है, तब पास्को ऐक्ट के तहत मुकदमा चलता है, जो और भी गंभीर माना जाता है.

अगर किसी महिला की मरजी से सैक्स हुआ हो तो भी कानून यह देखता है कि यह मरजी कैसे हासिल की गई थी. यह सहमति डराधमका कर, नशा दे कर, पति होने का विश्वास दिला कर या फिर विकृत मन स्त्री से या फिर सहमति दे पाने में असमर्थ स्त्री से ली गई है, तो ऐसी सहमति से हुए संभोग को रेप ही माना जाता है.

नाबालिग लड़की के संबंध में, जो 18 साल से कम है, उस के साथ भी सैक्स को रेप ही माना गया है, भले ही सैक्स के लिए उस की स्पष्ट सहमति रही हो. सहमति के होने के बाद भी अभियुक्त रेप के दोषी माने जाएंगे.

उत्तर प्रदेश में रेप के मामलों से जुड़ी एक रिपोर्ट से पता चलता है कि रेप के 57 फीसदी मामले ऐसे होते हैं, जिन में किसी पीडि़ता को शादी का झांसा दे कर बलात्कार किया गया हो.

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रेप के 37 फीसदी मामलों में बलात्कार करने वाला पीडि़ता का कोई रिश्तेदार या जानने वाला ही होता है.  6 फीसदी रेप आरोपी ऐसे होते हैं, जिन से कि पीडि़ता अनजान हो.

सख्ती के बाद भी नहीं घट रहे रेप

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है कि भारत में साल 2020 में औसतन हर रोज 91 महिलाओं ने बलात्कार की शिकायत दर्ज कराई थी.

साल 2018 में महिलाओं ने तकरीबन 33,356 बलात्कार के मामलों की रिपोर्ट दर्ज की थी. साल 2017 में बलात्कार के 32,559 मामले दर्ज किए गए थे, तो साल 2016 में यह संख्या 38,947 थी.

जेल भेजने के बाद दोषियों को सजा देने की दर सिर्फ 27 फीसदी है. साल 2017 में दोषियों को सजा देने की दर  32 फीसदी थी, वहीं साल 2020 में यह दर 45 फीसदी तक पहुंच चुकी थी.

एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में पिछले साल के मुकाबले बढ़ोतरी हुई है.

साल 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में हर दिन औसतन तकरीबन 80 लोगों की हत्या के मामले दर्ज हुए. इस के साथ ही 289 अपहरण और 91 मामले दुष्कर्म के आए. साल 2002-2017 के बीच भारत में कुल 4,15,786 मामले बलात्कार के दर्ज हुए.

बीते 17 सालों में हर घंटे औसतन  3 महिलाओं के साथ रेप के मामले दर्ज हुए. महिलाओं के खिलाफ हिंसा को कई बार कम गंभीरता से लिया जाता है और पुलिस ऐसे मामलों की जांच में संवेदनशीलता की कमी दिखाती है.

200 हल्ला हो: दलित समाज का धधकता लावा

हम सब ने बचपन में एक कहानी जरूर सुनी होगी, शेर और खरगोश की. एक शेर का जंगल में आतंक था. चूंकि वह उस जंगल का राजा था, तो बिना वजह दूसरे जानवरों को मार देता था. इस से उस की प्रजा बहुत दुखी थी. सब ने मिल कर शेर के सामने प्रस्ताव रखा कि रोजाना कोई एक जानवर उस के पास भेज दिया जाएगा, ताकि उस की भूख मिट जाए और जंगल में शांति भी  बनी रहे.

शेर ने वह प्रस्ताव मान लिया और उस दिन के बाद से जंगल में खूनखराबा बंद हो गया. पर क्या जो अब सही लग रहा था, वह सच भी था? नहीं. लिहाजा, यह बात छोटे से खरगोश के दिमाग में बैठ गई कि वह बिना प्रतिरोध किए शेर का निवाला नहीं बनेगा और हो सके तो शेर को ही निबटा कर जंगल को उस के खौफ से आजाद कराएगा.

ऐसा हुआ भी. उस खरगोश ने अपनी चालाकी से शेर को यह जता दिया कि उस जंगल में दूसरा शेर आ चुका है और एक कुएं में छिपा है.

अपने दंभ में भरा शेर खरगोश की चाल में फंस गया और अपनी परछाईं को दूसरा शेर समझ कर कुएं में कूद गया और डूब कर मर गया.

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हिंदी फिल्म ‘200 हल्ला हो’ देख कर मुझे अचानक यह शेर और खरगोश की कहानी याद आई. इस फिल्म का जालिम शेर कोई बल्ली चौधरी है, जो एक दलित बस्ती पर एकछत्र राज करता है. वह किसी का भी दिनदहाड़े मर्डर करने से नहीं चूकता है.

एक दलित औरत उस के खिलाफ कुछ बोल देती है, तो वह बीच बस्ती में पहले उस का रेप करता है, फिर चाकुओं से गोद देता है. इस के बाद तो उस का खौफ हद पर होता है. इतना ज्यादा कि वह जिस जवान लड़की या औरत पर अपना हाथ रख देता, वह निरीह जानवर की तरह खुद उस की मांद में जा कर खुद को सौंप देती है.

इस सब जुल्म के बावजूद बस्ती वालों को उम्मीद होती है कि एक दिन सबकुछ सही होगा और उन की जिंदगी खुशियों से भर जाएगी या फिर शायद वे इसे अपनी नियति मान लेते हैं कि चलो, कोई नहीं, इज्जत ही तो गई है, जिंदगी तो बची है. जी लो किसी तरह.

पर अचानक एक दिन 200 औरतें कोर्ट में घुस कर दिनदहाड़े 70 से भी ज्यादा बार उस बल्ली चौधरी को चाकू वगैरह से बड़े ही बेरहम तरीके से जान से मार देती हैं.

ऐसा करने से पहले वे परदा की हुई औरतें पूरे कोर्ट रूम में लाल मिर्च पाउडर फेंकती हैं, ताकि बाकी सब की आंखें बंद हो जाएं और कोई भी उन्हें देख न सके.

वे सब बल्ली चौधरी से इतनी ज्यादा नफरत करती हैं कि उस की मर्दानगी की निशानी को भी काट डालती हैं.

वह कौन सा खरगोश था, जिस ने उन दलित औरतों में इतना ज्यादा जुनून और जज्बा भर दिया था कि अभी नहीं तो कभी नहीं? इस फिल्म में यह किरदार हीरोइन ने निभाया है, जो कई साल से इस बस्ती से बाहर थी, पढ़ीलिखी और होनहार थी, तभी तो उस के परिवार और बस्ती वाले नहीं चाहते थे कि वह दोबारा इस दलदल में धंसे.

पर ऐसा हो नहीं पाता है. वह बस्ती में लौटती है, अपनी एक सहेली पर बल्ली चौधरी का जुल्म देखती है और पुलिस में चली जाती है.

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इस के बाद बल्ली चौधरी उस को सबक सिखाने घर आता है, पर आतंकी शेर भूल जाता है कि अदना से खरगोश को भी अपनी जान प्यारी है और वह अकेली लड़की उस के गैंग पर भारी पड़ती है. इस से बस्ती वाले भी जोश में आ जाते हैं और बल्ली चौधरी व उस के गुरगों की खूब मरम्मत करते हैं.

इतना ही नहीं, बल्ली चौधरी के खिलाफ एकसाथ 40 एफआईआर दर्ज होती हैं. पर वह तो ताकत के नशे में चूर था, इसलिए पुलिस कस्टडी में होने के बावजूद वह सब बस्ती वालों को कोर्ट परिसर में देख लेने की धमकी देता है. बस, यहीं वे सब औरतें समझ जाती हैं कि इस जानवर को हलाल करना ही पड़ेगा. ऐसा होता भी है और बाद में उन औरतों को सुबूतों की कमी में छोड़ भी दिया जाता है.

इस फिल्म की कहानी को एक सच्ची घटना पर आधारित बताया गया है. नागपुर शहर की बैकग्राउंड पर बनी इस फिल्म में अमोल पालेकर ने एक रिटायर्ड दलित जज का किरदार अदा किया है. हीरोइन रिंकू राजगुरु हैं, जो अपनी दलित बस्ती में बदले की चिनगारी भरती हैं.

पर इस फिल्म की सब से बड़ी खासीयत यह है कि इस में दलित औरतों की आज की हालत को बड़ी ही बारीकी से दिखाया गया है. वे सामाजिक ढांचे में सब से निचले पायदान पर खड़ी हैं. उन की समस्याओं के जरीए दलित समाज की बदहाली का बेबाक बखान किया गया है.

वे ही नहीं, बल्कि अमोल पालेकर, जो एक रिटायर्ड जज हैं और संविधान को सर्वोच्च स्थान देते हैं, खुद ‘सैलिब्रेटी दलित जज’ के टैग से जूझ रहे होते हैं. रिटायर होने के बाद भी समाज उन्हें इज्जत देता है, पर उन की जाति न जाने क्यों उन का पीछा नहीं छोड़ पाती है.

वे मौब लिंचिंग को गलत मानते हैं, पर साथ ही सवाल भी उठाते हैं कि ऐसी क्या मजबूरी रही होगी कि उन औरतों ने कोर्ट परिसर में ही एक आदमी का कोल्ड ब्लडेड मर्डर कर दिया? वे उसे मर्डर नहीं, बल्कि ‘मृत्युदंड’ की संज्ञा देते हैं.

इतना ही नहीं, जब उन की इस केस से संबंधित कमेटी को भंग करने की बात आती है, तो वे कोई सवालजवाब नहीं करते हैं, बल्कि जिस डायरी में अपने फाउंटेन पैन से नोट लिख रहे होते हैं, उस की निब को डायरी पर ही तोड़ देते हैं. ठीक वैसे ही जैसे किसी जज ने किसी आरोपी को मृत्युदंड देने के बाद अपनी कलम तोड़ दी हो.

इस पूरी फिल्म में बल्ली चौधरी के जरीए भारतीय पुरुषवादी और जातिवादी सोच का घिनौना रूप भी दिखाया है. यह किरदार नफरत के लायक है और अपने अहंकार में इतना ज्यादा डूबा हुआ है कि पूरी बस्ती उस के लिए कीड़ेमकोड़े से ज्यादा कुछ नहीं है. वह औरतों को अपने बाप का माल समझता है और कोई राजामहाराजा न होते हुए भी बर्बर है.

बल्ली चौधरी जातिवाद का ऐसा आईना है, जहां भरे शहर में दलित समाज को उस की औकात दिखाई जाती है. अगर उस बस्ती से बाहर कहीं चले गए तो आप की जान बच गई, वरना आप कहीं के नहीं रहेंगे. गरीब दलित ही क्यों, खुद जज बने अमोल पालेकर एक जगह बाबा साहब अंबेडकर के फोटो के सामने कहते हैं कि दलित का कहीं घर नहीं है.

इस के अलावा फिल्म में पुलिस का भी दोहरा चरित्र दिखाया गया है कि कैसे भी केस निबटा कर मामला खत्म करो और अपनी गरदन बचाओ. देश की हकीकत भी ऐसी ही है. पुलिस गरीब की हिमायती कभी नहीं दिखती है.

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यही वजह है कि अच्छे पढ़ेलिखे लोग भी थाने जा कर एफआईआर दर्ज कराने से पहले कई बार सोचते हैं. जब शहरों, महानगरों का यह हाल है, तो गांवदेहात और कसबाई इलाकों में क्या होता होगा, इस का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

यही वजह है कि अखबारों में रोज रेप, छेड़छाड़, एसिड अटैक की खबरें भरी पड़ी रहती हैं, पर हम उन्हें ऐसे नजरअंदाज कर देते हैं, जैसे जिन पर यह जुल्म हुआ है, वे इनसान ही नहीं हैं.

नतीजतन, आज भी दलितों को अगड़ों के साथ कुरसी पर बैठने नहीं दिया जाता है. सरकारी दफ्तरों तक में ऊंची जाति के चपरासी निचली जाति के बड़े अफसरों को पानी तक नहीं पूछते हैं. निचलों को मंदिर में घुसने तक नहीं दिया जाता है. उन्हें उन के देवीदेवता थमा दिए गए हैं. शादी में घोड़ी पर नहीं बैठने नहीं दिया जाता है.

दलित औरतों और लड़कियों पर होने वाले जोरजुल्म के मामले तो रोजाना बढ़ रहे हैं. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य गुजरात में बीते 10 सालों के दौरान हुए अपराध के आंकड़ों से पता चलता है कि हर 4 दिन में अनुसूचित जाति की एक औरत के साथ रेप होता है.

साल 2019 में पूरे देश में दलित महिलाओं के बलात्कार के 2,369 अपराध घटित हुए, जिन में से अकेले उत्तर प्रदेश में रेप के 466 मामले दर्ज हुए, जो राष्ट्रीय स्तर

पर कुल अपराध का 19.6 फीसदी है.

एनसीआरबी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2019 में बिहार में दलित अत्याचार के मामलों में 7 फीसदी का इजाफा हुआ. साल 2018 में 42,792 मामले दलित अत्याचार से जुड़े सामने आए, तो साल 2019 में इन की संख्या बढ़ कर 45,935 हो गई. यही नहीं, साल 2019 में 3,486 रेप के ऐसे मामले आए, जिन में पीडि़ता दलित समाज से थीं.

पूरे देश में कमोबेश ऐसे ही हालात हैं और शासनप्रशासन लीपापोती में लगा रहता है. 200 औरतों द्वारा किसी वहशी को यों मौत के घाट उतारना भी समस्या का हल नहीं है, पर अगर पानी सिर से ऊपर चला जाए तो ऐसा हल्ला हो ही जाता है, जो बेहद दुखद है और समाज की कड़वी सचाई भी.

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