कोरोना ने यह बात तो साबित कर दी है कि यह बीमारी मठ, मंदिरमसजिद, मजारों, गिरिजाघरों वगैरह में हाथपैर पटकने से भागने वाली नहीं है. इस के बावजूद लोग धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड से बच नहीं पा रहे हैं.

यही वजह है कि कोरोना को सोशल डिस्टैंसिंग, फेस मास्क और दूसरे तमाम सुरक्षा उपायों से दूर रखने के बजाय झाड़फूंक, पूजापाठ, हवनयज्ञ का सहारा लिया जा रहा है.

हमारे देश में पाखंड की अमरबेल इस कदर फैल चुकी है कि समाज को सभ्य और पढ़ालिखा बनाने के बजाय उसे माली तौर पर खोखला बनाने का काम किया जा रहा है. धार्मिक आडंबरों और समाज में फैले पाखंड के जिम्मेदार वही पंडेपुजारी, मौलवी, पादरी ज्यादा हैं, जिन की दुकान इन पाखंडों के बलबूते चल रही है.

धर्म के ठेकेदार परजीवी की तरह समाज से मिली दानदक्षिणा से जिंदगी की तमाम सुखसुविधाओं को भोग कर हरेभरे रहते हैं.

दरअसल, पाखंड का सीधा संबंध जाति व्यवस्था से है. लोगों को मनुवादी व्यवस्था के मुताबिक ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय और शूद्र जातियों में बांट कर कुछ पढ़ेलिखे ब्राह्मणों ने खुद को भगवान मान लिया और शूद्र कहे जाने वाले दलितपिछड़ों को गुलाम बना लिया.

अपनेआप को श्रेष्ठ समझने वाले पंडेपुजारियों ने ही जाति के नाम पर लोगों को एक नहीं होने दिया और खुद बिना मेहनत किए दानदक्षिणा के बल पर समाज पर हुकूमत चलाते रहे. यही वजह है कि आज भी गांवकसबों में ब्राह्मणों के घर पैदा होने वाले बिना पढ़ेलिखे, शराब पीने वालों को भी दूसरी जाति के लोगों द्वारा ‘पांवलागी’ (पैर छूने का सम्मान) की जाती है और दलितपिछड़ों के घर के पढ़ेलिखे लोगों को हिकारत की नजर से देखा जाता है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...