क्या मंजिल तक पहुंच पाएगी ‘स्वाभिमान से संविधान यात्रा’

दलितों के सिर पर इन दिनों आरक्षण के छिन जाने का एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है. कुछ का अंदाजा है कि भाजपा पहले राम मंदिर बनाने को प्राथमिकता देगी, जबकि कुछ को डर है कि वह पहले आरक्षण खत्म करेगी और उस के तुरंत बाद ही राम मंदिर का काम होगा जिस से संभावित दलित विद्रोह और हिंसा का रुख राम की तरफ मोड़ कर उसे ठंडा किया जा सके.

पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण को ले कर अपनी मंशा यह कहते हुए जाहिर की थी कि आरक्षण विरोधी और समर्थकों को शांति के माहौल में बैठ कर इस मसले पर बातचीत करनी चाहिए, मतलब, ऐसी बहस जिस पर हल्ला मचेगा और यही भगवा खेमा चाहता है.

यह बातचीत हालांकि एकतरफा ही सही, सोशल मीडिया पर लगातार तूल पकड़ रही है जिस में सवर्ण भारी पड़ रहे हैं और इस की अपनी कई वजहें भी हैं.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार दलित बड़े पैमाने पर भाजपा की तरफ झुके थे तो इस की एक बड़ी वजह बतौर प्रधानमंत्री पेश किए गए खुद नरेंद्र मोदी का उस तेली साहू जाति का होना था जिस की गिनती और हैसियत आज भी दलितों सरीखी ही है.

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तब लोगों खासतौर से दलितों को लगा था कि भाजपा केवल सवर्णों की नहीं, बल्कि उन की भी पार्टी है जो उस ने तकरीबन एक दलित चेहरा पेश किया.

इस के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ने दलित प्रेम का अपना दिखावा जारी रखा और तरहतरह के ड्रामे किए, जिन में उस के बड़े नेताओं का दलितों के घर जा कर उन के साथ खाना खाना और दलित संतों के साथ कुंभ स्नान प्रमुख थे.

इस का फायदा उसे मिला भी और दलित उसे वोट करते रहे. साल 2019 के चुनाव में आरक्षण मुद्दा बनता लेकिन बालाकोट एयर स्ट्राइक की सुनामी उसे बहा ले गई और राष्ट्रवाद के नाम पर सभी लोगों ने नरेंद्र मोदी को दोबारा चुना.

3 तलाक और कश्मीर में मनमानी थोपने के बाद जैसे ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण का मुद्दा उठाया तो दलित समुदाय बेचैन हो गया, क्योंकि अब राजनीति में उस का कोई माईबाप नहीं है और बसपा प्रमुख मायावती भी भाजपा के सुर में सुर मिला रही हैं.

पिछले 5 साल में भाजपा तकनीकी तौर पर दलितों को दो फाड़ कर चुकी है और ज्यादातर नामी दलित नेता उस की गोद में खेल रहे हैं, जिन्होंने उस की असलियत भांपते हुए इस साजिश का हिस्सा बने रहने से इनकार कर दिया, उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकने में भी भाजपा ने देर नहीं की. इन में सावित्री फुले और उदित राज के नाम प्रमुख हैं.

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कांग्रेस का दांव

इधर कांग्रेसी खेमे को यह अच्छी तरह समझ आ रहा है कि उस की खिसकती जमीन की अहम वजह परंपरागत वोटों का उस से दूर हो जाना है जिन में मुसलमानों से भी पहले दलितों का नंबर आता है.

अब कांग्रेस भूल सुधारते हुए फिर दलितों को अपने पाले में लाने के लिए ‘स्वाभिमान से संविधान’ नाम की यात्रा निकालने जा रही है. इस बाबत उस का फोकस हालफिलहाल 3 राज्यों हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव हैं.

कुछ दिन पहले ही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के नेताओं से मुलाकात कर इस यात्रा को हरी झंडी दे दी है जिस के तहत फिर से दलितों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए युद्ध स्तर पर कोशिशें की जाएंगी.

कांग्रेस के अनुसूचित जाति विभाग के मुखिया नितिन राऊत की मानें, तो ‘स्वाभिमान से संविधान यात्रा’ के तहत हरेक विधानसभा में एक कोऔर्डिनेटर नियुक्त किया जाएगा जो अपनी विधानसभा में इस यात्रा को आयोजित करेगा.

दलितों को लुभाने का यह दांव कितना कामयाब हो पाएगा, यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे, लेकिन कांग्रेस की एक बड़ी मुश्किल यह है कि उस के पास भी बड़े और जमीनी दलित नेताओं का टोटा है.

इधर सोशल मीडिया पर भगवा खेमा लगातार यह कह रहा है कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव समेत दलितों को सताने के मामले अब कम ही होते हैं. फसाद या बैर की असल जड़ तो आरक्षण है जिस के चलते दलित अपनी काबिलीयत नहीं दिखा पा रहे हैं. सवर्ण तो चाहते हैं कि दलित युवा अपनी काबिलीयत के दम पर आगे आ कर हिंदुत्व की मुख्यधारा से जुड़ें, उन का इस मैदान में स्वागत है.

यह कतई हैरानी की बात नहीं है कि मुट्ठीभर दलित युवा इसे एक चुनौती के रूप में ले रहे हैं और ये वे दलित हैं, जिन्हें अपने ही समुदाय के लोगों की बदहाली की असलियत और इतिहास समेत भविष्य का भी पता नहीं.

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ये लोग भरे पेट हैं, शहरी हैं और यह मान बैठे हैं कि पूरा दलित समुदाय ही उन्हीं की तरह है जिसे आरक्षण की बैसाखी फेंक देनी चाहिए.

यही दलित युवा भाजपा की ताकत हैं जो आरक्षण खत्म होने पर तटस्थ रह कर अपने ही समाज की बरबादी में योगदान देंगे, क्योंकि सवर्ण उन्हें गले लगा कर बराबरी का दर्जा देते हैं. उन के लिए यह साजिश भरी बराबरी ही ऊपर वाले का प्रसाद है.

बारीकी से गौर किया जाए तो भाजपा दलितों को बहलाफुसला कर आरक्षण छोड़ने पर राजी करने की भी कोशिश कर रही है और वही धौंस भी दे रही है जो 3 तलाक और धारा 370 के मुद्दों पर मुसलमानों को दी थी कि यह कोई बदला या ज्यादती नहीं, बल्कि तुम्हारे भले की ही बात है.

अगर सीधे से नहीं मानोगे तो यह काम दूसरे तरीकों से भी किया जा सकता है, लेकिन भाईचारा और भलाई इसी में है कि सहमत हो जाओ.

अब ऐसे में अगर कांग्रेस की यात्रा हवाहवाई बातों और सीबीएससी की बढ़ी हुई फीस जैसे कमजोर मुद्दों में सिमट कर रह गई तो लगता नहीं कि वह मंजिल तक पहुंच पाएगी.

सर्विलांस: पुलिस का मारक हथियार

मोबाइल क्रांति ने पुलिस को ऐसा हथियार दे दिया है, जिसे वह कभी खोना नहीं चाहेगी. छोटेबड़े अपराधों की गुत्थी सुलझाने में सर्विलांस का रोल बेहद अहम हो गया है. निगरानी करने और अपराधी तक पहुंचने में इस से बड़ा जरीया कोई दूसरा नहीं है.

वैसे, सर्विलांस को लोगों की निजता में सेंध मान कर विरोध का डंका भी पिटता रहा है कि कानून व सिक्योरिटी के नाम पर पुलिस कब और किस की निगरानी शुरू कर दे, इस बात को कोई नहीं जानता. लेकिन पुलिस न केवल डकैती, हत्या, लूट, अपहरण व दूसरे अपराधों को इस से सुलझाती है, बल्कि अपराधी इलैक्ट्रोनिक सुबूतों के चलते सजा से भी नहीं बच पाते हैं.

क्या है सर्विलांस

आम भाषा में मोबाइल फोन को सैल्युलर फोन व वायरलैस फोन भी कहा जाता है. यह एक इलैक्ट्रोनिक यंत्र है. अपराधियों तक इस की पहुंच आसान हो जाती है. उन की लोकेशन को ट्रेस करने में सब से अहम रोल सर्विलांस का होता है. किसी अपराधी की इलैक्ट्रोनिक तकनीक के जरीए निगरानी करना ही सर्विलांस कहा जाता है.

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80-90 के दशक तक पुलिस अपनी जांच के लिए मुखबिरों पर निर्भर रहती थी, लेकिन साल 1998 में आपसी संचार के लिए मोबाइल कंपनियों के आने के साथ ही अपराधियों ने वारदातों में मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. पुलिस ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाए और सर्विलांस का दौर शुरू हो गया.

इस से निगरानी और अपराध की जांच का तरीका बदल गया. कई बड़ी वारदातों को सर्विलांस के जरीए आसानी से सुलझाया गया, तो यह पुलिस के लिए मारक हथियार साबित हुआ. इस के बाद पुलिस वालों को सर्विलांस के लिए ट्रेनिंग दी जाने लगी.

सर्विलांस ऐसे करता काम

किसी भी अपराध के होने पर सब से पहले पुलिस पीडि़त व संदिग्ध लोगों के मोबाइल नंबरों की मोबाइल सेवा देने वाली कंपनियों से काल की डिटेल निकलवाती है. इस से कई तरह की जानकारियां मिल जाती हैं यानी कब, कहां व किस से बात की गई. इस के जरीए काल या एसएमएस के समय का पता लगा लिया जाता है.

सभी मोबाइल कंपनियां ऐसा डाटा महफूज रखती हैं. इन कंपनी के मेन स्विचिंग सैंटर (एमसीए) में यह सब डाटा जमा रहता है. सिक्योरिटी संबंधी नियमों का सख्ती से पालन किया जाता है. इतना ही नहीं, वारदात के वक्त कौन कहा था, इस का भी पता चल जाता है.

अगर इस से भी बात नहीं बनती है, तो पुलिस वारदात वाले इलाके के उन सभी मोबाइल नंबरों का पता लगा लेती है जो उस वक्त मोबाइल टावर के संपर्क में थे. यह जरूरी नहीं कि काल की जाए, बिना काल के भी मोबाइल की सक्रियता का पता लगाया जा सकता है.

दरअसल, नैटवर्क सबस्टेशन के मुख्य भाग पब्लिक स्विचिंग टैलीफोन नैटवर्क (पीसीटीएन) की तरंगें मोबाइल फोन पर लगातार पड़ती रहती हैं जिन के जरीए नैटवर्क की तारतम्यता बनी रहती है. वौइस चैनल लिंक का काम टावर ही करता है. ट्रांसीवर के जरीए काल का लेनादेना होता है. डाटा से पता चल जाता है कि किस वक्त कितने मोबाइल टावर के संपर्क में थे. वारदात से पहले या बाद के सक्रिय मोबाइल फोन पर खास नजर होती है.

इस के बाद संदिग्ध नंबरों की निशानदेही कर ली जाती है. यह पता किया जाता है कि नंबर को किस आदमी के एड्रैस प्रूफ पर कंपनी ने अलौट किया है. हालांकि पुलिस के लिए यह काम कई बार भूसे के ढेर से सूई निकालने के समान होता है. हजारों नंबरों में से संदिग्ध नंबरों को ढूंढ़ना आसान काम नहीं होता है. ऐक्सपर्ट इस में दिनरात एक करते हैं. नामपता निकलवा कर संबंधित लोगों से पूछताछ की जाती है.

पुलिस से बचने के लिए बहुत से अपराधी गलत नामपते पर मोबाइल सिमकार्ड खरीदते हैं. नियमों की सख्ती के बाद अब सिमकार्ड खरीदना इतना आसान नहीं रहा. सरकार ने इस के लिए सख्त गाइडलाइंस बना दी हैं.

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सर्विलांस के दूसरे चरण में पुलिस के सर्विलांस ऐक्सपर्ट की टीम संदिग्ध नंबर को ट्रेस कर उसे सर्विलांस पर लगा देती है. सर्विलांस पर लगने के बाद वह कहां आताजाता है, इस का पता पुलिस को चलता रहता है. संभावित ठिकानों और उस की गतिविधियों समेत 6 तरह के खास बिंदुओं से पुलिस अनजान नहीं होती. पुलिस उन के मोबाइल पर हर आनेजाने वाली काल सुनती है. उस की लोकेशन को आसानी से ट्रेस कर अपराधियों तक पहुंच जाती है.

इलैक्ट्रोनिक सुबूतों को झुठलाना किसी के लिए आसान भी नहीं होता. अपराधी शातिराना अंदाज दिखा कर कई बार सब्सक्राइबर आइडैंटिफाई मौड्यूल (सिमकार्ड) बदल लेते हैं, पर हर मोबाइल का अपना इंटरनैशनल मोबाइल इक्यूपमैंट आइडैंटिटी (आईएमईआई) नंबर होता है. सिमकार्ड के बदलते ही उस की इंफोर्मेशन सेवा देने वाली कंपनी तक पहुंच जाती है.

इतना ही नहीं, यह भी पता लगा लिया जाता है कि किस मोबाइल पर कब और कितने नंबरों का इस्तेमाल किया गया. सारा डाटा मिलने पर अपराधियों तक पुलिस की पहुंच हो जाती है.

मोबाइल कंपनियां इस काम में पुलिस को भरपूर सहयोग करती हैं. भारत सरकार द्वारा इस संबंध में सभी मोबाइल कंपनियों को नियमावली दी गई?है. पुलिस को चकमा देने के लिए अपराधी इस में भी हथकंडे अपनाते हैं. वे सिमकार्ड के साथ मोबाइल भी बदलते रहते हैं.

सर्विलांस अपराध और अपराधी दोनों पर ही लगाम लगाता है. मोबाइल फोन चोरी होने की दशा में आईएमईआई नंबर के जरीए ही पुलिस मोबाइल को खोजती है. यह एक ऐसी पहचान है, जिसे किसी भी दशा में मिटाया नहीं जा सकता.

बच नहीं पाते अपराधी

देश के बड़े मामलों की बात करें, तो संसद पर आतंकी हमला, शिवानी भटनागर हत्याकांड व फिरौती के लिए किए गए अपहरण के बड़े मामलों में पुलिस सर्विलांस के जरीए ही खुलासे व गिरफ्तारियां करने में कामयाब रही.

शिवानी भटनागर हत्याकांड में काल डिटेल के आधार पर पुलिस आरोपियों तक पहुंची. संसद हमले में जांच एजेंसी ने पाया कि आतंकवादियों का प्लान पहले से बनाया हुआ था.

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सर्विलांस की उपयोगिता को नकारने वाला कोई नहीं है. पुलिस के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है. ट्रेनिंग के दौरान पुलिस वालों को अब ट्रेनिंग सैंटरों में ऐसी तमाम तकनीकों का पाठ भी पढ़ाया जाता है.

मोबाइल के जरीए होने वाले अपराध में अपराधियों के खिलाफ अदालत में सुबूत पेश करना आसान होता है. उन्हें झुठलाना आसान नहीं होता है.

संसद हमले में फैसला देते हुए कोर्ट ने आतंकवादियों से संबंधित मोबाइल फोन के आईएमईआई नंबर व काल डिटेल को अहम सुबूत माना था. सुबूतों के तौर पर मोबाइल व सिमकार्ड की फोरैंसिक ऐक्सपर्ट से जांच भी कराती है, ताकि सुबूत मजबूत हो सकें.

सीमित है अधिकार

ग्लोबल वैब इंडैक्स के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 88.6 करोड़ से ज्यादा लोगों के पास मोबाइल हैं. 70 फीसदी से ज्यादा आबादी मोबाइल उपभोक्ता हैं.

ये आंकड़े साल 2014 के हैं. यह तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. वर्तमान दौर में 10 में से 3 लोगों के पास मोबाइल फोन हैं.

लेकिन किसी के व्यापारिक हितों, निजी जिंदगी में ताकझांक व राजनीतिक दुश्मनी के चलते मोबाइल नंबरों को सर्विलांस पर लेना तकनीक के साथसाथ अधिकारों का गलत इस्तेमाल है. पकड़े जाने पर ऐसे पुलिस वालों को सजा देने का नियम है. इस के लिए बने ऐक्ट व संविधान के अनुच्छेद पुलिस को इस की इजाजत नहीं देते.

पुलिस को देश के किसी भी नागरिक का मोबाइल टेप करने का अधिकार नहीं होता. इंटरनल सिक्योरिटी ऐक्ट, पोस्ट ऐंड टैलीग्राफ ऐक्ट और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के जरीए आपराधिक गतिविधियों में लिप्त लोगों के नंबर पुलिस सर्विलांस पर ले सकती है. इस के लिए भी आला अफसरों व शासन की इजाजत लिया जाना अनिवार्य होता है. मोबाइल फोन सेवादाता कंपनी को लिखित प्रस्ताव देना होता है और उचित कारण भी बताया जाता है.

मोबाइल कंपनियां इस के बाद जरूरी डाटा मुहैया कराने के साथ ही उपभोक्ता के मोबाइल के सिगनल पुलिस के मोबाइल पर डायवर्ट कर देती हैं. एक बार नंबर के सर्विलांस पर लगने के बाद न सिर्फ रोजाना की उस की लोकेशन मिल जाती है, बल्कि उस के मोबाइल पर आनेजाने वाली काल को सुनने के साथ टेप भी किया जा सकता है.

निगरानी रखना भी जरूरी

आतंक और अपराध से दोदो हाथ करते देश में सरकार का सैंट्रल मौंनिटरिंग सिस्टम, खुफिया एजेंसियां, सुरक्षा एजेंसियां व पुलिस की विभिन्न यूनिट ला ऐंड और्डर व सुरक्षा के चलते शक होने पर निगरानी करती रहती हैं. उन्हें चंद औपचारिकताओं के बाद यह अधिकार है.

सुरक्षा और गोपनीयता के मद्देनजर इस तकनीक को विस्तृत रूप से और आंकड़ों को उजागर नहीं किया जा सकता. एजेंसियों के ऐसा करते रहने से कई बार बड़ी वारदातों के साथ देश भी खतरों से बचता है.

एक इलैक्ट्रोनिक जासूस हमारे इर्दगिर्द होता है. कई बार पुलिस वाले अपने पद का गलत इस्तेमाल कर किसी के नंबर की काल डिटेल्स निकलवाने के साथ ही फोन टैप कर लेते हैं. इस तरह के चंद मामले सामने आने के बाद अब यह इतना आसान नहीं है. अब उचित कारण बता कर इस की इजाजत बड़े अफसरों से लेनी होती है. गंभीर मामलों में सरकार इस की इजाजत देती है. प्राइवेसी के मद्देनजर सख्त गाइडलाइंस हैं.

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हाईटैक होगी देश की पुलिस

भारतीय पुलिस को ज्यादा से ज्यादा हाईटैक बनाने की कोशिशें लगातार जारी हैं. देश में क्राइम कंट्रोल टैकिंग नैटवर्क सिस्टम (सीसीटीएनएस) लागू करने की योजना है. इस सिस्टम के सक्रिय होते ही अपराधियों को पकड़ना पुलिस के लिए और भी ज्यादा आसान हो जाएगा.

इस योजना के जरीए देश के सभी थाने इंटरनैट के जरीए आपस में जुड़ जाएंगे. किसी अपराधी का पूरा प्रोफाइल औनलाइन मिलने के साथ ही उस की गतिविधियों पर तीखी नजर रखने ब्योरा आपस में लिया व दिया जा सकेगा.

कुछ राज्यों में यह योजना शुरू भी हो चुकी है. उत्तराखंड के सभी थाने सीसीटीएनएस से लैस हैं. उत्तर प्रदेश में भी इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाने लगा है.

अफसरों की राय

ला ऐंड और्डर व राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर सरकारी तंत्र को सक्रिय रहना ही पड़ता है. तकनीक के विकास में हम दावे से कह सकते हैं कि पुलिस हाईटैक हो चुकी है. सर्विलांस पुलिस के लिए निश्चित ही अब एक बड़ा हथियार है.

-जीएन गोस्वामी, पूर्व आईजी उत्तराखंड पुलिस.

संचार क्रांति के दौर में अपराधियों से लड़ने के लिए तकनीकी रूप से और अधिक मजबूत करने के लिए पुलिस वालों को लगातार ट्रेनिंग दी जा रही है.

पुलिस का काम हर हाल में जनता की सुरक्षा करना है. किसी तरह से नियमों का उल्लंघन न हो, इस बात का भी खास खयाल रखा जाता है.

-रमित शर्मा, आईजी उत्तर प्रदेश पुलिस.

हम गृह मंत्रालय की गाइडलाइंस के मुताबिक ही काम करते हैं. समयसमय पर इस बाबत विभाग को निर्देश भी मिलते रहते हैं. गंभीर मामलों में उचित जांचपड़ताल कर के पुलिस को सहयोग किया जाता है. सर्विलांस की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होती.

-आशीष घोष, अफसर, बीएसएनएल.

किसी शख्स को लगता है कि पुलिस व मोबाइल कंपनी द्वारा उस के निजी अधिकारों का हनन हो रहा है, तो वह कानूनी लड़ाई लड़ सकता है. सर्विलांस की पुष्टि होने पर वह शख्स कोर्ट के अलावा मानवाधिकार आयोग भी जा सकता है.

-राजेश कुमार दुबे, वकील इलाहाबाद हाईकोर्ट.

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‘साहो’ की इस एक्ट्रेस ने की सगाई की अनाउंसमेंट, KISS करते हुए शेयर की रोमांटिक फोटो

बौलीवुड इंडस्ट्री की जानी मानी एक्ट्रेस एवलिन शर्मा काफी समय से अपनी लव लाइफ को लेकर काफी चर्चा में थीं. खबरों के अनुसार एवलिन औस्ट्रेलियन डेंटल सर्जन और व्यवसायी डौक्टर तुशान भिंडी को डेट कर रही थीं तो वहीं बीते दिन अपने औफिशियल इंस्टाग्राम अकाउंट पर एक पोस्ट के जरिए अपने इस रिलेशन का खुलाया किया है. उन्होनें अपनी और तुशान की एक फोटो इंस्टाग्राम उकाउंट पर शेयर कर कैप्शन में लिखा- “Yessss!!!”

किस करते हुए शेयर की फोटो…

 

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Yessss!!! 🥰💍🥳😍🤩

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एवलिन शर्मा और तुशान भिंडी इस फोटो में एक क्रूज़ में एक दूसरे को किस करते नजर आ रहे हैं. एवलिन के इस एक शब्द के कैप्शन ने उनके फैंस के सारे सवालों के जवाब दे डाले जो कि उनकी लव लाइफ से जुड़े थे. एवलिन ने इस फोटो में फ्लावर प्रिंटेड गाउन पहना हुआ है जो कि काफी सुंगर लग रहा है.

बौलीवुड अंदाज में किया था प्रोपोज…

 

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💐 #flowerchild

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खबरों की मानें तो तुशान भिंडी ने एवलिन शर्मा को एक खूबसूरत फिल्मी स्टाइल में प्रोपोज किया था जिसका खुलासा एवलिन ने एक इंटरव्यू में किया था. एवलिन ने बताया कि,- ‘तुषान और मैं सिडनी के पौपुलर हार्बर ब्रिज पर गए थे. वहां पर उन्होंने रोमांटिक अंदाज में घुटनों के बल बैठकर एक स्पेशल नोट सुनाते हुए मुझे प्रपोज किया था. जब वो मुझे प्रपोज कर रहे थे तब गिटारिस्ट इस दौरान हमारे लिए गिटार बजा रहा था और गिटारिस्ट उस समय मेरा फेवरिट सौन्ग प्ले कर रहा था.’

जल्द ही करेंगे शादी की डेट अनाउंस…

इसके आगे एवलिन शर्मा ने बताये कि,- ‘ये सब कुछ किसी सपने के सच होने जैसा था. तुषान मुझे अच्छी तरह जानते हैं और समझते हैं कि मुझे क्या पसंद है और क्या नहीं. उस दौरान उनका प्रपोजल परफेक्ट था.’ एवलिन शर्मा और तुशान भिंडी बहुत ही जल्द शादी के बंधन के बंधने जा रहे हैं पर अभी दोनों मे से किसी ने भी शादी की डेट अनाउंस नहीं की है.

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बता दें, एवलिन शर्मा की सबसे पसंदीदा जगहों में से एक है सिडनी और खबरों के अनुसार एवलिन शादी के बाद सिडनी में ही शिफ्ट होने का प्लैन कर रही हैं.  हाल ही में वे साउथ के सुपर स्टार प्रभास के साथ फिल्म ‘साहो’ में भी नजर आई थीं.

मुंबई के फेफड़ों पर फर्राटा मारेगी मेट्रो रेल, कितनी जल्दी भुला दिया न ग्रेटा की बातों को…

आपको याद है ग्रेटा थनबर्ग. कुछ दिनों पहले पूरी दुनिया में उसकी चर्चा हो रही थी. कलमकारों ने भी लंबे-चौड़े आर्टिकल लिखे और उसने जो किया उसको सराहा. लेकिन जिस वजह से वो 16 साल की लड़की न्यूयौर्क के यूएन औफिस में रोई थी आज भारत में उसी की अवहेलना की जा रही है. खैर, हम लोगों की एक खास आदत है और हमारी इस बुरी आदत से हुक्कमरां भली-भांति वाकिफ भी हैं. हम लोग किसी भी घटना को बहुत जल्दी भूलते हैं. जिस वक्त कोई घटना घटती है उस वक्त हमारा खून उबलता है. लेकिन कुछ वक्त हम भूल जाते हैं. आज अगर भारत में ग्रेटा थनबर्ग होती तो शायद वो फूट-फूटकर रोती.

इस आरे कौलोनी के भीतर 27 छोटे-छोटे गांव हैं और इन गांवों में सदियों से तकरीबन 8,000 आदिवासी रहते आए हैं. कई युवा आदिवासी व्यस्त मुंबई शहर में न रहकर इन शांतिपूर्ण गांवों में ही रहना पसंद करते हैं. लेकिन सरकार ने इनकी एक नहीं सुनी. युवाओं को पेड़ से लिपटे हुए तो देखा होगा. वो फूट-फूटकर रो रहे थे. प्रशासन से फरियाद कर रहे थे कि हमारी सांसों को मत छीनों. लेकिन उसका कोई फर्क नहीं पड़ा. मुंबई के आरे गांव में विकास की गंगा बहाई जा रही है. विकास के नाम पर हजारों पेड़ों को काट दिया गया.

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अब यहां बताते हैं कि गोरे गांव का इतिहास…

अरब सागर के किनारे. फिल्में बनती हैं, और रोजाना लोगों की भीड़ जमा होती है फिल्मी सितारों को देखने के लिए, शूटिंग देखने के लिए, और शहर की आपाधापी से थोड़ा दूर, समंदर से थोड़ा दूर एक मोहल्ला है, गोरेगांव. गोरेगांव फिल्म सिटी भी यहीं, और यहीं पर है “आरे मिल्क कौलोनी”. आरे मिल्क कौलोनी को देश के आज़ाद होने के थोड़े दिनों बाद ही बसाया गया था. सोचा गया था कि इस मिल्क कौलोनी के बनने से डेयरी के काम को बढ़ावा मिलेगा. 4 मार्च 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू खुद आए और पौधारोपण करके आरे कौलोनी की नींव रखी थी. आजादी के बाद जिस हरी-भरी कौलोनी की नींव रखी गई, देखते ही देखते उजाड़ दी गई.

आरे जंगल में करीब 2600 से ज्यादा पेड़ों को काटकर मेट्रो शेड के लिए इस्तेमाल किए जाने की योजना है. गोरेगांव और फिल्मसिटी के पास स्थित इस इलाके के पेड़ों को काटे जाने के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई थी जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया और इस इलाके को जंगल मानने से इनकार कर दिया.

मुंबई के जिस इलाके में पेड़ काटने के खिलाफ विरोध हो रहा है उसे ‘आरे मिल्क कौलोनी’ के नाम से भी जाना जाता है और इस इलाके को देश की आजादी के कुछ समय बाद ही बसाया गया था. 4 मार्च 1951 को पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पौधारोपण करने के साथ आरे कौलोनी की नींव रखी थी. पेड़ों से ढका यह इलाका 3166 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है. धीरे- धीरे आरे में पेड़ों की संख्या बढ़ी और बाद में यह इलाका संजय गांधी नेशनल पार्क से जुड़ गया. इसे बाद में आरे जंगल, छोटे कश्मीर, मुंबई का फेफड़ा जैसे नामों से भी पहचान मिली.

मुंबई को औक्सीजन देने वाले आरे पर खतरा तब मंडराना शुरु हुआ जबकि मायानगरी में मेट्रो ने दस्तक दी. साल 2014 में वर्सोवा से घाटकोपर तक मेट्रो की शुरुआत हुई. इसी के साथ मेट्रो का जाल बढ़ाने की बात होने लगी और मेट्रो को कार पार्किंग के लिए जगह की जरूरत महसूस हुई. इसके लिए आरे में करीब 2000 से ज्यादा पेड़ काटकर मेट्रो के लिए हजारों करोड़ की परियोजना शुरु करने की बात हुई.

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हर तरफ इसका पेड़ों को काटे जाने का विरोध होने लगा. पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में काम करने वालीं कई संस्थाओं और लोगों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई लेकिन वन विभाग की ओर से कहा गया कि आरे का इलाका कोई जंगल नहीं है. जब इसकी स्थापना हुई थी तो इसे व्यावसायिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने की ही योजना बनाई गई थी. बीएमसी ने साल 2019 में मुंबई मेट्रो रेल कॉरपोरेशन को 2600 पेड़ काटने की इजाजत दे दी.

फिलहाल ये तो है आरे की सच्चाई और अब तक उसमें क्या हुआ. इस मामले में राजनीति भी शुरू हो गई है. आदित्य ठाकरे ने भी मौका का फायदा उठाना चाहा. ठाकरे भी पहली बार चुनावी मैदान में उतरे हैं. बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश की लेकिन वो इसमें सफल नहीं हो पाए. अब एक प्रश्न और भी उठता है. आखिरकार मोदी सरकार इसको क्यों कटवाने चाहती है. हम ये नहीं कहते कि विकास नहीं होना चाहिए. मेट्रो की सुविधा होनी चाहिए लेकिन इसका कोई और उपाय और भी निकाला जा सकता है. कई प्रदर्शनकारियों ने बताया था कि इसको बचाया जा सकता था लेकिन नहीं बचाया गया.

यहां रहने वाले आदिवासी युवा श्याम प्रकाश भोइर कहते हैं, “जैसे एक बेटा अपनी मां के बगैर नहीं रह सकता, वैसे ही हम इस जंगल के बिना नहीं रह सकते. “एक पेड़ सिर्फ़ पेड़ नहीं होता. उसमें छिपकली, बिच्छू, कीड़े, झींगुर और चिड़िया भी रहती हैं. हर पेड़ की अपनी इकौलजी है. यह सिर्फ़ पेड़ की नहीं बल्कि हमारे अस्तित्व की बात है.” आरे के ही एक गांव में रहने वाली मनीषा ने बताया, “हमसे पिछली पीढ़ी पढ़ी-लिखी नहीं थी. वह कृषि पर निर्भर थी और आदिवासी लोग जंगलों से ही सब्ज़ियां इकट्ठा करते थे. हम भी उसी पर निर्भर थे. हम बाज़ार से कुछ भी नहीं ख़रीदते थे.”

मुंबई मेट्रो रेल प्राधिकरण ने कहा है कि किसी भी आदिवासी या वन्यजीव की जगह को कार डिपो के लिए नहीं लिया जाएगा लेकिन आदिवासियों का मानना है कि मेट्रो परियोजना के यहां आने के बाद वन्यजीवन पर इसका असर पड़ेगा. रेल प्राधिकरण के अनुसार, “यह एक महत्वपूर्ण परियोजना है. इलाके में यात्रा करने के दौरान हर दिन 10 लोग मर जाते हैं. मेट्रो शुरू होने के बाद मुंबई के स्थानीय लोगों का तनाव कम हो जाएगा.”

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फेस्टिवल स्पेशल: हर तरह की पार्टीज के लिए परफेक्ट हैं मनीष पौल के ये लुक्स

टेलिविजन इंडस्ट्री के सबसे पौपुलर एंकर और होस्ट मनीष पौल की जबरदस्ट एंकरिंग के तो करोड़ों फैंस है पर आज हम आपको दिखाने जा रहे हैं उनके कुछ स्पेशल लुक्स जिसे देख आप ना सिर्फ उनकी एंकरिंग बल्कि उनके लुक्स के भी दीवाने हो जाएंगे. मनीष पौल अपने आप में ही काफी बड़ा नाम है और उन्होनें अपनी एंकरिंग से हम सब को खूब हसाया है. वैसे तो हम सब उनकी जबरदस्त पर्सनैलिटी और डैशिंग स्टाइल के बारे में जानते हैं लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि मनीष के पहनावे में से सबसे हटकर होते हैं उनके ब्लेजर, तो चलिए आपको दिखाते हैं उनके ब्लेजर वाले कुछ लेटेस्ट लुक्स जिसे देख आप भी इन्हें ट्राय करने पर मजबूर हो जाएंगे.

ट्राय करें मनीष पौल जैसा ग्रीन ब्लेजर…

इस लुक में मनीष पौल ने ग्रीन कलर का डैशिंग ब्लेजर पहना हुआ है जो कि उनके ग्रीन ट्राउसर और सेम कलर के ही बेस कोट के ऊपर काफी अच्छा लग रहा है. यह यूनीक कलर किसी के भी ऊपर सूट कर सकता है तो अगर आप भी चाहते हैं अपने कलर चोवाईस से सबको इम्प्रेस करना तो जरूर ट्राय करें ये कलर.

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व्हाइट चैक…

चैक के ट्रेंड ने आज भी लोगों के दिलों में अपनी अलग ही जगह बनाई हुई है तो अगर आप भी हैं चैक के शौकीन तो जरूर ट्राय करें मनीष पौल का ये व्हाइट चैक लुक. इस लुक में मनीष ने मैरून कलर की शर्ट के ऊपर व्हाइट चैक बेस कोट और साथ ही सेम डिजाइन का ट्राउसर पहना हुआ है. इस लुक में मनीष पौल का व्हाइट चैक कोट बेहद अच्छा लग रहा है.

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ब्लेजर इन ब्लू…

मनीष पौल के इस ब्लू ब्लेजर का तो क्या ही कहना. इस ब्लेजर को देख कर पता चलता है कि मनीष को ब्लेजर काफी पसंद है और वे अच्छे से ये बात जानते हैं कि कौन सा ब्लेजर उनकी पर्सनैलिटी पर चार चांद लगाएगा. इस ब्लू ब्लेजर पर यैल्लो लाइनिंग काफी सूट कर रही है जो कि मनीष के शूज से भी मैच हो रही है. इस ब्लेजर लुक को ट्राय कर आप किसी को भी इम्प्रेस कर सकते हैं.

बता दें, मनीष पौल ने अब तक कई शो होस्ट किए हैं और उन्होने अपने सेन्स औफ ह्यूमर से हमें खूब गुदगुदाया है. मनीष ने होस्टिंग और एंकरिंग के साथ-साथ फिल्मों में भी काम किया है और फिल्म “मिकी वायरस” से बौलीवुड में डेब्यू किया था.

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आखिर क्यों बिग बौस की इस कंटेस्टेंट ने शेयर की ऐसी फोटोज

कलर्स टी.वी. के सबसे पौपुलर शो बिग बौस सीजन 11 फेम अर्शी खान इन दिनों काफी चर्चा मे हैं. अर्शी खान खान को सोशल मीडिया क्वीन भी कहा जाता है क्योंकि वे सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहती हैं और फैंस के साथ अपनी फोटोज और वीडियो शेयर करती रहती हैं. अर्शी कमाल की अदाकारा होने के साथ साथ एक बहतरीन मौडल भी रह चुकी हैं. वे शुरू से ही अपने बोल्ड और हौट अवतार के कारण जानी जाती थीं लेकिन इन दिनों उन्होनें अपने बोल्ड किरदार को छोड़ कर सिंपल किरदार अपना लिया है.

भारतीय महिला अंदाज…

 

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THE GOAL ISNT MONEY. THE GOAL IS LIVING YOUR LIFE ON UR TERMS. #dadasaheb #dadasahebphalkeaward #arshikhan LOVE U AWAAM

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दरअसल बीते दिनों अर्शी खान ने अपने औफिशियल इंस्टाग्राम अकाउंट से अपनी कुछ ऐसी फोटोज शेयर की थी जिसमें वे काफी सिंपल और अच्छी दिख रही थीं. इस फोटोज में अर्शी ने अपना बोल्ड अंदाज ना दिखा कर एक भारतीय महिला का अंदाज दिखाया. आखिर क्या वजह रही होगी जो अर्शी खान ने अपना हौट अंदाज दर्शकों को ना दिखाया जिसका उनके फैंस बेसबरी से इंतजार कर रहे थे.

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इंडियन आउटफिट में आईं नजर…

 

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“Meri shakhsiyat kya hai agar tum ye jaan logay…. Apni auqaat ko phir tum pehchaan logay… Mujh say dushmani k liye chahiye ek alagsa hunar… Us kay qaabil nahi ho tum ye jaan logay….!!! #arshikhan🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🥀🥀🥀🥀🥀🥀🌹🌹🌹🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎉🎉🎉🎉🎉🎉♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥🎊🎊🎊🎊🎊🎊🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥 #arshikofficial #arshikhan

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हैरान कर देने वाली बात ये भी है कि अर्शी खान अपनी इन फोटोज में भी काफी सुंदर लग रही हैं. इन फोटोज में अर्शी ने इंडियन आउटफिट पहने हैं जबकि पहले वे सिर्फ वेस्टर्न आउटफिट में ही नजर आया करती थीं. पर चाहे इंडियन आउटफिट हों या वेस्टर्न आउटफिट अर्शी के फैंस उनके हर अंदाज को खूब प्यार देते हैं. इन फोटोज पर भी उनके फैंस जमकर लाइक्स और कमेंट्स की बरसात कर उनकी तारीफ कर रहे हैं.

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फैंस के दिलों में आया सवाल…

 

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🙏🏻🕉🙏🏻 *|| या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ||* 1. *माँ शैलपुत्री* *मां शैलपुत्री पर्वतों के राजा हिमालय की पुत्री हैं। नवरात्र का पहला दिन मां शैलपुत्री को समर्पित होता है। मां शैलपुत्री अखंड सौभाग्य देनेवाली माता हैं। कार्य सिद्धि और सफलता के लिए मां के इस स्वरूप का पूजन किया जाता है। भगवान की साधना में हमारा मन पर्वत की तरह अडिग रहे, इसी भाव के साथ नवरात्र के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है।* *•||नवरात्री||•* की *” हार्दिक शुभकामनाएं !!!* *माता रानी अपनी कृपादृष्टि आप पर हमेशा बनाये रखें!!* #arshikhan🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🥀🥀🥀🥀🥀🥀🌹🌹🌹🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎉🎉🎉🎉🎉🎉♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥🎊🎊🎊🎊🎊🎊🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥 @sneha_gogoi_eiluza

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अर्शी खान जो कि अपने हौट और बोल्ड अंदाज के लिए जानी जाती थीं, उनका अब एक ऐसा रूप देखने को मिला है जिसने फैंस के दिलों में एक सवाल पैदा कर दिया कि आखिर अर्शी खान की क्या मजबूरी रही होगी जो उन्होनें ऐसी फोटोज शेयर की. अर्शी खान के हौट अंदाज की दुनिया काफी दिवानी है और हर कोई उनको उसी अंदाज में देखना पसंद करता है. लेकिन इतना तो तय है कि अर्शी अपने पर रूप में किसी का भी दिल जीत सकती हैं.

बता दें, अर्शी खान कुछ समय पहले कांग्रेस पार्टी का हिस्सा भी बनी थीं लेकिन अपनी प्रोफेशनल लाइफ और बिजी स्कैड्यूल के चलते उनको पार्टी छोड़नी पड़ी.

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समस्याओं के चाक पर घूमते कुम्हार

माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोय.

कबीरदास की यह बानी खरा सच साबित हो रही है. मिट्टी से बरतन बनाने की कला हजारों साल पुरानी है, लेकिन बदलते दौर में अब मिट्टी के बरतनों का चलन काफी घट गया है. मौजूदा हालात में ज्यादातर कुम्हार मिट्टी, पानी, पैसे और जातीय भेदभाव जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं.

शहर ले जा कर मिट्टी के बरतन बेचने में टूटफूट ज्यादा होती है. वैसे भी कागज और प्लास्टिक के बरतनों ने मिट्टी के बरतनों के खरीदार कम कर दिए हैं, इसलिए मिट्टी के बरतन बनाने के काम से गुजरबसर करना टेढ़ी खीर है.

वैसे भी अब मिट्टी के बरतनों की ज्यादा बिक्री नहीं होती, वाजिब कीमत भी नहीं मिलती, इसलिए बहुत से कुम्हार अपना पुश्तैनी कामधंधा छोड़ने को मजबूर हैं.

किल्लत ही किल्लत

उत्तर प्रदेश में हसनपुर, मेरठ के राधे कुम्हार ने बताया, ‘‘बरतन बनाने के लिए साफसुथरी और बढि़या किस्म की मिट्टी की जरूरत होती है, जो पहले गांव के आसपास ही मिल जाती थी, लेकिन अब तालाब गुम हो गए हैं. उन पर नाजायज कब्जे हैं. ग्राम सभाओं की पंचायती जमीनें भी ज्यादातर बिक चुकी हैं.

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‘‘हर तरफ बहुत तेजी से बड़ीबड़ी इमारतें बन रही हैं. बाकी कसर खनन माफिया ने पूरी कर दी है. किसी के खेत की उपजाऊ जमीन से मिट्टी नहीं ले सकते. पहले चारागाह व बंजर जमीनें होती थीं, जो अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती हैं. दूर से मिट्टी लाने में लागत बहुत आती है.

‘‘मिट्टी के अलावा अब पानी भी आसानी से और भरपूर नहीं मिलता है.  पहले गांव में कुएं और पोखर होते थे. वे सब अब सूख गए हैं या पाट दिए गए हैं. सरकारी हैंडपंप भी टूटे व खराब पड़े हैं. कहीं कोई सुनने वाला नहीं है, इसलिए मिट्टीपानी की किल्लत हमारे काम पर भारी पड़ रही है.’’

माली तंगहाली

कुम्हार टोले के धर्मवीर ने बताया, ‘‘दिक्कतों का कोई अंत नहीं है. पहले हमारी बस्ती में मिट्टी लाने और बरतन ले जाने के लिए गधे व खच्चर होते थे, पर अब एक भी नहीं हैं. किराए के टैंपो, ट्रौली या छोटे ट्रक से ढुलाई बहुत महंगी पड़ती है. इतने रुपए कहां से लाएं?

‘‘खादी ग्रामोद्योग से छूट और बैंक से कर्ज लेना आसान नहीं है. घूस और सिफारिश के बिना अब काम नहीं होते. महाजन से कर्ज लेना मजबूरी है. वह लिखता ज्यादा और देता कम है. कोई चीज गिरवी रखो तो 5 रुपए सैकड़ा और बिना गिरवी रखे 10 रुपए सैकड़ा तक का तगड़ा सूद लेता है. ऐसे में किस्त देना तो दूर सूद भी अदा नहीं होता.

‘‘ऐसे हालात में मिट्टी के बरतन बना कर गुजारा करना बहुत मुश्किल हो गया है. यह बड़ा नाजुक काम है. पहले सावधानी और सफाई से बनाना, फिर उसे धूप में सुखाना, उस के बाद आंच पर पकाना, फिर उसे रंगना और सजाना, तब जा कर एक बरतन तैयार होता है.

‘‘उसे अलगअलग रखने, उठाने, लादने और ले जाने, उतारने से बेचने तक में बहुत ज्यादा ध्यान रखना पड़ता है कि जरा सी भी ठसक न लगे. आजकल बढ़ती भीड़भाड़ और भागदौड़ में यह सब कर पाना हर किसी के लिए आसान काम नहीं रह गया है, इसलिए नई पीढ़ी इस काम को छोड़ रही है.’’

होता है भेदभाव

दरअसल, कुम्हार खुद को प्रजापति यानी दुनिया बनाने वाले ब्रह्मा का वंशज मानते हैं, लेकिन सदियों से चली आ रही जाति प्रथा के जहर ने इस तबके को भी नहीं छोड़ा है. पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे बहुत से पिछड़े गंवई इलाकों में कुम्हारों को आज भी अपने बराबर में नहीं बैठने दिया जाता है.

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कुम्हारों के बनाए गए घड़ों, सुराही और मटकों का पानी पीने वाले अगड़े हर मामले में उन्हें अपने से कमतर मान कर उन के साथ ऊंचनीच का भेदभाव बरतते हैं. सामाजिक भेदभाव होने की वजह से ही कुम्हारों के बच्चे इस धंधे से अपना मुंह मोड़ रहे हैं. वे शहर जा कर मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट भरने को ज्यादा तरजीह देने लगे हैं.

बदलाव है जरूरी

कुम्हारों की बदहाली को दूर करने के लिए सब से पहले यह जरूरी है कि उन्हें जमीनों के पट्टे, पंपसैट दिए जाएं, ताकि उन्हें उन का कच्चा माल यानी मिट्टीपानी मयस्सर हो सके.

मिट्टी के लोंदे से बरतन बनाने वाले पुराने चाक भारी होने से कम देर तक घूमते हैं. उन्हें डंडी से घुमाने में मेहनत ज्यादा लगती है, इसलिए थकान जल्दी होती है. वैसे, अब बिजली की मोटर से तेज घूमने वाले हलके व सुधरे हुए चाक बनने लगे हैं, जो सस्ते दाम पर मुहैया होने चाहिए.

राज्यों के ग्रामोद्योग बोर्ड व हस्तकला के महकमे मुहिम चला कर कुम्हारों को सौर ऊर्जा, बैटरी या बिजली से चलने वाले नए चाक व सुधरे हुए औजारों की किट और ट्रेनिंग की सहूलियत मुहैया कराएं, ताकि कुम्हार खुद को नए दौर में ढाल सकें.

ये हैं उपाय

कुम्हारों में पढ़ाईलिखाई, हुनरमंदी, नई तकनीक की जानकारी होने और जागरूकता बढ़ाना बेहद जरूरी है, ताकि वे बदलते वक्त के साथ कदम मिला कर तरक्की की दौड़ में शामिल हो सकें. साथ ही, उन के माल की बिक्री यानी बाजार की समस्या भी हल की जाए. ऐसा करना मुश्किल या नामुमकिन नहीं है. गुजरात के दूध उत्पादकों का कामयाब मौडल हमारे सामने है.

‘अमूल’ की तर्ज पर कुम्हारों के लिए सहकारी समितियां या स्वयंसहायता समूह बना कर उन्हें रियायती ब्याज दर पर कर्ज, छूट व माली इमदाद दी जाए, ताकि उन की बुनियादी समस्याएं हल हो सकें. साथ ही, उन का माल वाजिब कीमत पर सीधे गांव से खरीद कर बड़े शहरों में खुले शोरूमों तक वैसे ही लाया जाए, जैसे मदर डेरी की सफल स्कीम के तहत किसानों व बागबानों से उन की सब्जियां मंगाई जाती हैं.

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छत्तीसगढ़ के कोंडागांव जिले में एक गांव है कुम्हारपारा. वहां आज भी मिट्टी के बरतन व टैराकोटा की मूर्तियां बनाने का काम बखूबी होता है. तैयार माल त्योहारों, मेलों, आदिवासी इलाकों व हर हफ्ते के हाट बाजारों में बिक जाता है. ऐसे कई खास इलाके कई राज्यों में हैं.

आज भी ज्यादातर कुम्हार यह नहीं जानते हैं कि घड़े, मटके, सुराही, दीए, कुल्हड़ व गमलों वगैरह के अलावा मिट्टी की बोतल, तवे, कुकर, ज्वैलरी व फ्रिज वगैरह बहुत सी नई चीजें बन और बिक रही हैं, इसलिए ज्यादा कमाने के लिए नई तकनीक, नए तरीके व नए डिजाइन अपनाना बेहद जरूरी भी है और फायदेमंद भी. करदाताओं के पैसों से चल रहे ग्रामोद्योग बोर्ड अगर कुम्हारों को अपने खर्च पर बड़ेबड़े शहरों में लगी नुमाइशों में ले जाएं, तो उन की सोच और काम करने के पुराने तरीके सुधर सकते हैं.

न के बराबर कोशिशें

कुछेक सरकारी संगठनों ने खुद को ईकोफ्रैंडली यानी माहौल को माकूल दिखाने के लिए चंद ऐलान किए हैं. उत्तरपूर्व रेलवे की एक स्कीम के तहत गोरखपुर, लखनऊ, रायबरेली, आगरा, वाराणसी समेत कई बड़े रेलवे स्टेशनों पर मिट्टी के बरतनों में खाना परोसा जाएगा. इस बाबत कुम्हारों से मिट्टी के बरतन थोक में खरीदे जाएंगे. कामयाब रहने पर यह स्कीम देश के 400 बड़े रेलवे स्टेशनों पर लागू की जाएगी, ताकि कुम्हारों का माल बिके.

इसी तरह भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने देश के छोटे 29 हवाईअड्डों को जीरो प्लास्टिक करने के लिए स्ट्रा, प्लास्टिक की कटलरी, प्लास्टिक की प्लेट वगैरह के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई है. इस से भी मिट्टी के कुल्हड़ व प्लेटों का इस्तेमाल बढ़ेगा. प्लास्टिक हटाने व पर्यावरण बचाने के नाम पर ऐसे फरमान जारी करना कोई नई बात नहीं है.

केंद्रीय रेल मंत्री रहे लालू प्रसाद यादव ने कुम्हारों को राहत व रोजगार दिलाने के लिए रेलवे स्टेशनों पर कुल्हड़ में चाय देने का ऐलान किया था, पर प्लास्टिक व पेपर कप की भीड़ में मिट्टी के कुल्हड़ गुम हो गए.

दरअसल, सरकारी महकमों में घुसे दलालों की फौज के सामने असंगठित, कमपढ़े व गरीब कुम्हार नहीं टिक पाते हैं, इसलिए कुम्हारों का संगठित होना जरूरी है.

सरकारें भी गाल ज्यादा बजाती हैं. मसलन, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा वगैरह में माटी कला बोर्ड हैं, लेकिन इन का मकसद कुम्हारों को बढ़ावा व राहत देना कम, बल्कि छुटभैए नेताओं को बैठकों के नाम पर तफरीह व भत्ते की सहूलियतें दे कर नवाजना ज्यादा लगता है. किसी राज्य में कुम्हारों की भलाई की कोई नजीर नहीं बनी. हां, पिछले दिनों हरियाणा माटी कला बोर्ड से इस्तीफा दे चुके चेयरमैन करोड़ों रुपए की जमीन हड़पने में जरूर फंसे थे.

मिट्टी के बरतन बनाना बहुत पुराना व ऐसा ग्रामोद्योग है, जिस के रोजगार में आज भी लाखों लोग लगे हुए हैं, इस के बावजूद सरकारी अनदेखी, लापरवाही व भ्रष्टाचार के चलते यह पिछड़ व घिसट रहा है.

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पुरानी दस्तकारी को बढ़ावा देने के नाम पर चंद कारीगरों को नवाजना अलग बात है, इस से कुम्हारों के पूरे तबके का कोई भला नहीं होने वाला है, बल्कि हाथों से नायाब नमूने बना कर मिट्टी पर इबारत लिखने की सदियों पुरानी कला को बचाने के लिए कुम्हारों को मिट्टी, पानी, पूंजी, बाजार, कर्ज, छूट, माली इमदाद वगैरह की सहूलियतें देना जरूरी है.

जगनमोहन की राह पर अमित जोगी

छत्तीसगढ़

अमित जोगी हर दूसरे-तीसरे दिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को चैलेंज करते थे कि ‘मुझे गिरफ्तार किया जाए, मुझे गिरफ्तार किया जाए’. भूपेश बघेल ने उन की यह मंशा 3 सितंबर को पूरी कर ही दी.

अपने ही धुर विरोधी रहे अजीत जोगी पर भूपेश बघेल की ‘टेढ़ी’ नजर है, इसे सभी जानते हैं, मगर भूपेश बघेल उतने तल्ख नहीं हुए, जितने भाजपा की मंडली पर रहे हैं. शायद इस की वजह अजीत जोगी का विशाल कद और पहले के खट्टेमीठे संबंध रहे हैं.

अमित जोगी अपने पिता अजीत जोगी की बनाई राजनीतिक धरोहर छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस पार्टी की कमान संभालने के बाद धुआंधार ढंग से भूपेश बघेल पर हमले कर रहे थे.

30 अगस्त को थाने पहुंच कर उन्होंने एक ज्ञापन सौंपा था और कहा था कि उन के पिता को जाति के मामले पर रंजिश के चलते फंसाया गया है.

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भूपेश बघेल के इशारे पर अमित जोगी को भी गिरफ्त में ले लिया गया. सब से अहम बात यह है कि जिस तरह ‘महाभारत’ में कृष्ण ने शिशुपाल को 100 गलतियां करने तक की छूट दे रखी थी, उस के बाद उसे मारने के लिए सुदर्शन चक्र चलाया था, यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ है. जब अमित जोगी के चैलेंज की हद हुई तो गिरफ्तारी हो गई…

मगर जरा रुकिए… छत्तीसगढ़ की राजनीति का यह घटनाक्रम एक ‘चैलेंजर गेम’ में भी बदल सकता है. कैसे… आगे देखते हैं…

भूपेश की घेराबंदी

इस में कोई दो राय नहीं है कि अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के राजनीतिक परिवारों में अपनी अहम जगह रखते हैं और शुरू से प्रदेश की राजनीति के केंद्र में रहे हैं. ये वे शख्सीयत हैं जो कभी चुप नहीं रहते, हमेशा जद्दोजेहद करते रहते है.

ऐसे में खास बात यह है कि अमित जोगी का यह कदम भूपेश बघेल को घेरना है और यह संदेश देना भी है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भूपेश बघेल बेदर्दी के साथ अपने राजनीतिक विरोधियों को निबटा रहे हैं.

एक बड़ा सच यह भी है कि जिस मामले में अमित जोगी को गिरफ्त में लिया गया है, वह चुनाव में उन की दोहरी नागरिकता को छिपाने का है और साल 2013 के विधानसभा चुनाव के दरमियान दी गई शपथ का है.

मजे की बात यह है कि तब अमित जोगी कांग्रेस के उम्मीदवार थे और भाजपा उम्मीदवार समीरा पैकरा ने यह शिकायत की थी. यही वजह है कि भाजपा के बड़े नेता डाक्टर रमन सिंह, धर्मजीत कौशिक, प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी इस मामले पर खामोश हैं.

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यह है चाहत

अमित  जोगी अपनी पार्टी को जनता के बीच ले जा कर राजनीतिक हालात बदलना चाहते हैं. उन्होंने एक दफा कहा था कि जगनमोहन रेड्डी जब 15 साल तक जद्दोजेहद कर के मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो यह एक अच्छा उदाहरण है. जगनमोहन रेड्डी को एक तरह से अपना आदर्श बना कर अमित जोगी छत्तीसगढ़ की राजनीति में पेंगें भर रहे हैं.

मेरी पत्नी को सफेद पानी की समस्या है. उस की उम्र 25 साल है. क्या इस से मां बनने में परेशानी हो सकती है?

सवाल-

मेरी पत्नी को सफेद पानी की समस्या है. उस की उम्र 25 साल है. क्या इस से मां बनने में परेशानी हो सकती है?

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जवाब-

सफेद पानी की परेशानी पत्नी के अंग में संक्रमण की निशानी है. इस का असर उस की माहवारी पर पड़ सकता है, जिस से उस के पेट से होने की समस्या आ सकती है. सफेद पानी का इलाज बहुत आसान होता है. आप डाक्टर से मिल लें. कुछ दवाओं से सफेद पानी की परेशानी को दूर किया जा सकता है.

बिन मांझी कैसे समंदर पार कर पाएगी कांग्रेस, अशोक तंवर का जाना पार्टी को पड़ेगा महंगा

दुनिया की सबसे पुरानी पार्टी आज सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के पास बहुत अच्छा मौका था कि इन दो राज्यों में वो बीजेपी को कड़ी टक्कर दे. इस तरह कांग्रेस एक तीर से दो शिकार कर सकती थी. पहला तो ये कि लोकसभा के बाद बीजेपी का ग्राफ गिरा है दूसरा ये कि आर्टिकल 370 को खत्म करने के बाद बीजेपी को ये दिखाना कि आपके इस फैसले को जनता का समर्थन नहीं मिला. लेकिन ऐसा संभव नहीं दिख रहा. महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस भितरघात से जूझ रहा है. उसका मुस्तकबिल खुद कांग्रेस को भी नहीं बता.

21 अक्टूबर को हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने हैं. बीजेपी सहित तमाम छोटे छोटे राजनीतिक दल चुनावी तैयारियों में जुटे हैं, सिर्फ कांग्रेस को छोड़कर. कांग्रेस में चुनावी तैयारी की कौन कहे – हरियाणा कांग्रेस का झगड़ा तो दिल्ली की सड़कों पर उतर आया है. हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने भूपिंदर सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के खिलाफ नया मोर्चा खोल दिया है. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने मुश्किल ये खड़ी हो गयी है कि चुनावी तैयारियों को आगे बढ़ायें या फिर इन पचड़ों को निपटाएं. लेकिन ये कोई छोटा पचड़ा नहीं है. इसने सियासत में तूफान ला दिया है.

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तंवर कांग्रेस के दलित चेहरा थे और युवाओं में उनकी खास पकड़ है. ऐसे वक्त में तंवर को पार्टी से अलविदा कहना अपने आपमें बीजेपी की राह आसान करना है. हरियाणा में बीजेपी पहले से ही काफी मजबूत स्थिति में थी लेकिन अब तो लगता है यहां खेल एकतरफा ही होता जा रहा है. जब महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी संदेश यात्रा में व्यस्त थे, हरियाणा कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर अचानक कांग्रेस मुख्यालय पहुंचे और समर्थकों के साथ धरने पर बैठ गये. अशोक तंवर का आरोप है कि हरियाणा कांग्रेस में उम्मीदवारों को पैसे लेकर टिकट दिया जा रहा है और जो कार्यकर्ता पार्टी के लिए लगातार पसीना बहाते रहे हैं उन्हें को पूछ भी नहीं रहा है.

चुनाव की तारीख आने से पहले हरियाणा में सोनिया गांधी ने कई बदलाव किये थे. कांग्रेस नेतृत्व ने अशोक तंवर को हटा कर कुमारी शैलजा को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया था और विधानमंडल दल का नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा को. इस तरह किरन चौधरी को भी किनाने कर दिया गया. अशोक तंवर ने तब तो कुछ नहीं बोला लेकिन अब वो खुलेआम टिकट बंटवारे में पैसे के लेन-देन का इल्जाम लगा रहे हैं.

बीजेपी ने 2009 विधानसभा से लगातार अपने वोट शेयर में बड़ा इज़ाफ़ा किया है. 2009 में बीजेपी के पास महज़ 9 फीसदी वोट थे और सिर्फ़ 4 सीटें मिली थी. लेकिन 2014 में 47 सीटें मिली और वोट शेयर 34.7 फीसदी हो गया जो कि 2014 लोकसभा चुनावों के वोट शेयर के आस-पास ही था. वहीं कांग्रेस ने 2009 विधानसभा चुनाव में 40 सीटें जीती थी और वोट शेयर लगभग 36 फीसदी था. लेकिन 2014 में सिर्फ 15 सीटें मिली और वोट शेयर 21 फीसदी पर आ गिरा जो कि लोकसभा चुनावों के वोट शेयर के आस-पास ही था.

लेकिन इस बार 2019 लोकसभा चुनावों में बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस के वोट शेयर में भी इज़ाफ़ा हुआ है जिसका एक फैक्टर इनेलो के वोटों का बंट जाना भी हो सकता है. बीजेपी ने 58 फीसदी वोट हासिल किए हैं और कांग्रेस ने 28 फीसदी. लगभग 30 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना कांग्रेस के लिए बहुत मुश्किल होगा.

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अशोक तंवर को लेकर माना जाता रहा है कि वो राहुल गांधी के करीबी रहे हैं और चुनावों के ऐन पहले दबाव बनाकर हुड्डा ने उनका पत्ता साफ कर दिया. ये बात सही भी है कि राहुल गांधी की टीम में तंवर का नाम होता था. हुड्डा ने हरियाणा में एक रैली की थी और संकेत देने की कोशिश की कि अगर कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी मांगें नहीं मानीं तो वो नयी पार्टी बना लेंगे. चुनाव सिर पर आ गये थे लिहाजा सोनिया गांधी को हुड्डा की शर्तें माननी पड़ी. सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से तात्कालिक तौर पर झगड़ा तो खत्म हो गया लेकिन टिकट बंटवारे को लेकर लड़ाई फंस गयी. जाहिर है जो हुड्डा लगातार पांच साल तक अशोक तंवर के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे, भला उनके समर्थकों कों टिकट देकर अपने लिए आगे की मुसीबत क्यों मोल लेंगे?

हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार और राज्य की राजनीति को निकटता से देखने वाले सुभाष शर्मा बतातें हैं कि साल 2004 का जिक्र करना यहां बहुत जरूरी हो जाता है. क्योंकि ये वो साल था जब कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थी. इन चुनावों में भजनलाल को चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा गया था. इन चुनावों में कांग्रेस को 90 में से 67 सीटें मिलीं थी. प्रचंड बहुमत देख सोनियां गांधी ने प्रदेश की कमान भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सौंप दी गई. विरोध की आवाज भी दबा दी गई. क्योंकि उस वक्त कांग्रेस अपने पूरे रंग में थी. वाजपेयी सरकार को हराकर कांग्रेस सत्ता में लौटी थी. लेकिन उसके बाद क्या हुआ. हुड्डा के नेतृत्व में हरियाणा कांग्रेस का कद घटता गया. 2009 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की लहर के बावजूद हरियाणा में जीत केवल 40 सीटें ही जीती. अब बहुमत का आंकड़ा भी दूर था लेकिन किसी तरह जोड़-मोड़ के सरकार बनी और हुड्डा को फिर से प्रदेश की कमान सौंपी गई. पांच साल तक सरकार चली और फिर 2014 को चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस महज 15 सीटों पर सिमट गई. भाजपा ने केंद्र में सरकार बनाई और इसके  बाद हरियाणा में भी सरकार बनाई. मतलब साफ था कि हुड्डा से जनता नाखुश थी.

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हरियाणा की जनता को जो मैसेज गया है वो वहां के मतदाताओं का दिमाग बदलने में वक्त नहीं लगेगा. सब जानते हैं कि हरियाणा का वोटर दो खेमों में बंट हुआ है. हरियाणा का जाट समुदाय कभी भी दलितों को पसंद नहीं करता. ऐसे में कांग्रेस का जो पुश्तैनी वोटर था वो भी अब कांग्रेस से अलग हो जाएगा.

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