डाक्टर के बजाय चपरासी क्यों बनना चाहते हैं युवा

2017 में मध्य प्रदेश और 2018 में उत्तर प्रदेश के बाद इस साल खबर गुजरात से आई है कि गुजरात हाईकोर्ट और निचली अदालतों में वर्ग-4 यानी चपरासी की नौकरी के लिए 7 डाक्टर और 450 इंजीनियरों सहित 543 ग्रेजुएट और 119 पोस्टग्रेजुएट चुने गए. इस खबर के आते ही पहली आम प्रतिक्रिया यह हुई कि क्या जमाना आ गया है जो खासे पढ़ेलिखे युवा, जिन में डाक्टर भी शामिल हैं, चपरासी जैसी छोटी नौकरी करने के लिए मजबूर हो चले हैं. यह तो निहायत ही शर्म की बात है.

गौरतलब है कि चपरासी के पदों के लिए कोई 45 हजार ग्रेजुएट्स सहित 5,727 पोस्टग्रेजुएट और बीई पास लगभग 5 हजार युवाओं ने भी आवेदन दिया था. निश्चितरूप से यह गैरमामूली आंकड़ा है, लेकिन सोचने वालों ने एकतरफा सोचा कि देश की और शिक्षा व्यवस्था की हालत इतनी बुरी हो चली है कि कल तक चपरासी की जिस पोस्ट के लिए 5वीं, 8वीं और 10वीं पास युवा ही आवेदन देते थे, अब उस के लिए उच्चशिक्षित युवा भी शर्मोलिहाज छोड़ कर यह छोटी नौकरी करने को तैयार हैं. सो, ऐसी पढ़ाईलिखाई का फायदा क्या.

शर्म की असल वजह

जाने क्यों लोगों ने यह नहीं सोचा कि जो 7 डाक्टर इस पोस्ट के लिए चुने गए उन्होंने डाक्टरी करना गवारा क्यों नहीं किया. वे चाहते तो किसी भी कसबे या गांव में क्लीनिक या डिस्पैंसरी खोल कर प्रैक्टिस शुरू कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसी तरह इंजीनियरों के लिए भी प्राइवेट कंपनियों में 20-25 हजार रुपए महीने वाली नौकरियों का टोटा बेरोजगारी बढ़ने के बाद भी नहीं है, लेकिन उन्होंने सरकारी चपरासी बनना मंजूर किया तो बजाय शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा के गिरते स्तर को कोसने के, इन युवाओं की मानसिकता पर भी विचार किया जाना चाहिए.

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दरअसल, बात शर्म की इस लिहाज से है कि इन उच्चशिक्षित युवाओं ने अपनी सहूलियत और सरकारी नौकरी के फायदे देखे कि यह नौकरी गारंटेड है जिस में एक बार घुस जाने के बाद आसानी से उन्हें निकाला नहीं जा सकता. तनख्वाह भी ठीकठाक है और ट्रांसफर का भी ?ां?ाट नहीं है. अलावा इस के, सरकारी नौकरी में मौज ही मौज है जिस में पैसे काम करने के कम, काम न करने के ज्यादा मिलते हैं. रिटायरमैंट के बाद खासी पैंशन भी मिलती है और छुट्टियों की भी कोई कमी नहीं रहती. घूस की तो सरकारी नौकरी में जैसे बरसात होती है और इतनी होती है कि चपरासी भी करोड़पति बन जाता है.

इन युवाओं ने यह भी नहीं सोचा कि उन के हाथ में तकनीकी डिगरी है और अपनी शिक्षा का इस्तेमाल वे किसी भी जरिए से देश की तरक्की के लिए कर सकते हैं. निश्चित रूप से इन युवाओं में स्वाभिमान नाम की कोई चीज या जज्बा नहीं है जो उन्होंने सदस्यों को चायपानी देने वाली, फाइलें ढोने वाली और ?ाड़ ूपोंछा करने वाली नौकरी चुनी.

देश में खासे पढ़ेलिखे युवाओं की भरमार है लेकिन डिगरी के बाद वे कहते क्या हैं, इस पर गौर किया जाना भी जरूरी है. इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी के इस युग में करोड़ों युवा प्राइवेट कंपनियों में कम पगार पर नौकरी कर रहे हैं जो कतई शर्म की बात नहीं क्योंकि वे युवा दिनरात मेहनत कर अभावों में रह कर कुछ करगुजरने का जज्बा रखते हैं और जैसेतैसे खुद का स्वाभिमान व अस्तित्व दोनों बनाए हुए हैं.

ऐसा नहीं है कि उन युवाओं ने एक बेहतर जिंदगी के ख्वाब नहीं बुने होंगे लेकिन उन्हें कतई सरकारी नौकरी न मिलने का गिलाशिकवा नहीं. उलटे, इस बात का फख्र है कि वे कंपनियों के जरिए देश के लिए कुछ कर रहे हैं.

इस बारे में इस प्रतिनिधि ने भोपाल के कुछ युवाओं से चर्चा की तो हैरत वाली बात यह सामने आई कि मध्य प्रदेश के लाखों युवाओं ने चपरासी तो दूर, शिक्षक, क्लर्क और पटवारी जैसी मलाईदार सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन ही नहीं किया. उन के मुताबिक, इस से उन की पढ़ाई का मकसद पूरा नहीं हो रहा था.

एक नामी आईटी कंपनी में मुंबई में नौकरी कर रही 26 वर्षीय गुंजन का कहना है कि उस के मातापिता चाहते थे कि वह भोपाल के आसपास के किसी गांव में संविदा शिक्षक बन जाए. लेकिन गुंजन का सपना कंप्यूटर साइंस में कुछ करगुजरने का था, इसलिए उस ने विनम्रतापूर्वक मम्मीपापा को दिल की बात बता दी कि अगर यही करना था तो बीटैक में लाखों रुपए क्यों खर्च किए, बीए ही कर लेने देते.

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यही रोना भोपाल के अभिषेक का है कि पापा चाहते थे कि वह एमटैक करने के बाद कोई छोटीमोटी सरकारी नौकरी कर ले जिस से घर के आसपास भी रहे और फोकट की तनख्वाह भी मिलती रहे. लेकिन उन की बात न मानते हुए अभिषेक ने प्राइवेट सैक्टर चुना और अब नोएडा स्थित एक नामी सौफ्टवेयर कंपनी में अच्छे पद और पगार पर काम कर रहा है.

गुंजन और अभिषेक के पास भले ही सरकारी नौकरी न हो लेकिन एक संतुष्टि जरूर है कि वे ऐसी जगह काम कर रहे हैं जहां नौकरी में मेहनत करनी पड़ती है और उन का किया देश की तरक्की में मददगार साबित होता है. सरकारी नौकरी मिल भी जाती तो उस में सिवा कुरसी तोड़ने और चापलूसी करने के कुछ और नहीं होता.

लेकिन इन का क्या

गुजरात की खबर पढ़ कर जिन लोगों को अफसोस हुआ था उन्हें यह सम?ाना बहुत जरूरी है कि गुजरात के 7 डाक्टर्स और हजारों इंजीनियर्स के निकम्मेपन और बेवकूफी पर शर्म करनी चाहिए.

इन लोगों ने मलाईदार रास्ता चुना जिस में अपार सुविधाएं और मुफ्त का पैसा ज्यादा है. घूस भी है और काम कुछ करना नहीं है. डाक्टर्स चाहते तो बहुत कम लागत में प्रैक्टिस शुरू कर सकते थे, इस से उन्हें अच्छाखासा पैसा भी मिलता और मरीजों को सहूलियत भी रहती. देश डाक्टरों की कमी से जू?ा रहा है गांवदेहातों के लोग चिकित्सकों के अभाव में बीमारियों से मारे जा रहे हैं और हमारे होनहार युवा डाक्टर सरकारी चपरासी बनने को प्राथमिकता दे रहे हैं.

क्यों इन युवाओं ने किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी की नौकरी स्वीकार नहीं कर ली, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि इन की मंशा मोटी पगार वाली सरकारी चपरासी की नौकरी करने की थी. यही बात इंजीनियरों पर लागू होती है जिन्हें किसी बड़े शहर में 30-40 हजार रुपए महीने की नौकरी भार लगती है, इसलिए ये लोग इतनी ही सैलरी वाली सरकारी चपरासी वाली नौकरी करने के लिए तैयार हो गए. हर साल इन्क्रिमैंट और साल में 2 बार महंगाईभत्ता सरकारी नौकरी में मिलता ही है जिस से चपरासियों को भी रिटायर होतेहोते 70 हजार रुपए प्रतिमाह तक सैलरी मिलने लगती है.

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गुंजन और अभिषेक जैसे देशभर के लाखों युवाओं के मुकाबले ये युवा वाकई किसी काम के नहीं, इसलिए ये सरकारी चपरासी पद के लिए ही उपयुक्त थे. इन्हीं युवाओं की वजह से देश पिछड़ रहा है जो अच्छी डिगरी ले कर कपप्लेट धोने को तैयार हैं लेकिन किसी प्रोजैक्ट इनोवेशन या नया क्रिएटिव कुछ करने के नाम पर इन के हाथपैर कांपने लगते हैं, क्योंकि ये काम और मेहनत करना ही नहीं चाहते.  इस लिहाज से तो बात वाकई शर्म की है.

पिता के रिकशा से आईएएस तक का सफर

लेखक- डा. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

दुकान जब बंद हो जाती तो वे रात में बनारस की सड़कों पर रिकशा चलाते थे. उन के 4 बच्चे थे, 3 बेटियां और सब से छोटा बेटा, जिस का नाम गोविंद रखा गया था.

पिता ने कुछ पैसे जोड़ कर धीरेधीरे एक रिकशे से 4 रिकशे बना लिए. समय बीतता रहा. पिता ने तीनों बेटियों को बीए तक पढ़ाया और उन की शादी कर दी.

इस परिवार का सब से छोटा सदस्य गोविंद बहुत मेधावी था. वे लोग जिस महल्ले में रहते थे, उस के बगल में ही एक पौश कालोनी थी. 12 साल का गोविंद चूंकि मेधावी था, इसलिए पौश कालोनी के एक बच्चे से उस की दोस्ती हो गई.

एक दिन गोविंद उस के घर गया, जहां दोस्त के पिताजी उस से मिले.

दोस्त के पिताजी ने अपने बेटे से पूछा, ‘‘यह बच्चा कौन है?’’

दोस्त ने कहा, ‘‘मेरा दोस्त है.’’

उन्होंने गोविंद से पूछा, ‘‘किस क्लास में पढ़ते हो?’’

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गोविंद ने बताया, ‘‘7वीं क्लास में.’’

‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’’

‘‘जी, वे रिकशा चलाते हैं.’’

इतना सुनते ही दोस्त के पिताजी आगबबूला हो गए. उन्होंने अपने बेटे को फटकारा, ‘‘अब यही बचा है… रिकशे वालों से दोस्ती करोगे.’’

दोस्त चुप हो कर रह गया और दोस्त के अमीर पिता ने गोविंद को वहां से बेइज्जत कर के निकाल दिया.

मासूम गोविंद को यह समझ ही नहीं आया कि उस के साथ ऐसा क्यों हुआ? उस ने अपने एक रिश्तेदार को यह बात बताई. रिश्तेदार ने कहा कि इन हालात से बाहर निकलने का बस एक ही रास्ता है कि तुम आईएएस बन जाओ.

लेकिन 12 साल के बच्चे को यह जानकारी न थी कि आईएएस क्या होता है? पर उस ने यह ठान लिया था कि उसे आईएएस ही बनना है. उस ने बनारस से ही पहले इंटर किया, फिर गणित से बीए. साथसाथ वह यूपीएससी की तैयारी करने लगा.

उधर पिता रिकशा चला कर परिवार पाल रहे थे और एक के बाद एक बेटियों की शादियां भी कर रहे थे, साथ ही, वे बेटे को पढ़ा भी रहे थे.

यह वह समय था, जब बनारस में 14 घंटे के पावर कट लगते थे और उस दौरान सब लोग जनरेटर चलाया करते थे. किराए के जिस छोटे से कमरे में उन का परिवार रहता था, उस के इर्दगिर्द चारों तरफ जनरेटर चलते थे और उन का भयंकर शोर और धुआं होता था. ऐसे में गोविंद सभी खिड़कियांदरवाजे बंद कर अपने कानों में रुई ठूंस कर पढ़ा करता था.

ग्रेजुएशन करने के बाद गोविंद को यूपीएसएसी की तैयारी के लिए दिल्ली जाना था. लेकिन उस के पिता को एक दिन पैर में हलकी सी चोट लग गई. उन का कायदे से इलाज नहीं हुआ और न ही उन्हें आराम मिला, जिस के चलते घाव बढ़ने लगा, जो बाद में सैप्टिक की हालत तक पहुंच गया.

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उधर गोविंद दिल्ली के मुखर्जी नगर में यूपीएससी की तैयारी के लिए रहने लगा. वह घर से पैसे मंगाता नहीं था. वह दिल्ली में बच्चों को ट्यूशन के रूप में गणित पढ़ाता था और फिर उस के बाद अपनी यूपीएससी की तैयारी करता था.

गोविंद के पास कोचिंग में पढ़ने तक के पैसे नहीं थे. पिता का पैर खराब होता जा रहा था. ट्यूशन भी साल में सिर्फ 8 महीने ही मिलती थी. इस माली मुसीबत के चलते धीरेधीरे सभी रिकशे बिक गए. एकमात्र जमीन का टुकड़ा बचा था, वह पिताजी ने मजबूरी में सिर्फ 4,000 रुपए में बेच दिया. घर में फाका होने लगा था. ऐसे में बहनों ने अपने पति व परिवार से छिपा कर भाई की मदद की.

गोविंद इतिहास और मनोविज्ञान पढ़ रहा था. मनोविज्ञान की कोचिंग में उस की दोतिहाई फीस माफ हो गई. इतिहास की कोचिंग के लिए पैसे न थे, इसलिए उस की तैयारी खुद की. वह अनगिनत रातें भूखे पेट सोया होगा, तब जा कर कड़ी मेहनत से पहली ही कोशिश में गोविंद को यूपीएससी के इम्तिहान में 48वां रैंक मिला और अब वह अरुणाचल प्रदेश में बतौर आईएएस तैनात है.

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अंधविश्वास: समाधि ने ले ली बलि!

एक समुदाय विशेष के शख्स चमन लाल जोगी  ने यह ऐलान किया कि मैं समाधि लूंगा यह खबर सुर्खियों में रही. शासन प्रशासन अर्ध निंद्रा में उंघता रहा. हालात यह हो गए कि सार्वजनिक रूप से भीड़ की उपस्थिति मे उसने समाधि ले ली. और उसे रोका भी नहीं जा सका.

दरअसल, छत्तीसगढ़ की छवि वैसे भी देश दुनिया में अंधविश्वास रूढ़िवादिता और भोले भाले लोगों की स्वर्ण भूमि के रूप में जाना जाता रहा है. अक्सर यहां अंधविश्वास की घटनाएं घटती रहती हैं शासन सिर्फ औपचारिकता निभाता है, कुछ विज्ञापन जारी कर देता है. कुछ आंसू बहा देता है और फिर सब कुछ वही ढाक के तीन पात होने लगता है. महासमुंद के पचरी गांव में बाजे-गाजे और धूम धाम के साथ समाधि लेने वाले बाबा को जब लोग निर्धारित तिथि पर पांच  दिवस पश्चात  समाधि से निकालने पहुँचे तो सभी की आँखे फटी की फटी रह गयी….!!

समाधि, ढोंग और अंधविश्वास

सबसे त्रासद  स्थिति यह है कि छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिला में एक श्वेत कपड़ा धारी शख्स  ने जब यह घोषणा की कि वे समाधि लेगा और दो चार घंटे नहीं, बल्कि 5 दिन की समाधि लेगा.तब  यह घोषणा  आग की तरह फैल गई . पक्ष में लोग खड़े हो गए . धार्मिक मामला होने के कारण  पुलिस प्रशासन के हाथ बंधे हुए थे,  उसमें इतना साहस नहीं था कि  लोगों को समझा सके  कि ऐसा कतई संभव नहीं है.

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परिणाम स्वरूप समुदाय विशेष की धार्मिक गतिविधि सार्वजनिक रूप से घटित होती चली गई.

पांच दिन होने पर जब समाधि स्थल  पर लोग पहुंचे और सच देखा तो हतप्रभ रह गए.क्योंकि समाधि से बाहर निकलने से पूर्व  का समाधि के अंदर उस शख़्स  का दम घूंट चुका था . सच तो यह है कि समाधि साधना के जूनून ने आखिर एक युवक की जान ले ली… पांच दिनों तक समाधि लेने के बाद जब उसे निकाला गया तो वह मृत था.

जिला प्रशासन ने आत्महत्या रोकने यहां नाम मात्र का ‘नवजीवन’ कार्यक्रम चला रखा है…वहीं अंधविश्वास की आंधी के प्रवाह में  बहकर  ग्राम पचरी का रहवासी  चम्मन लाल जोगी ने समाधि के दौरान दम तोड़ दिया. कुल जमा यह की तपोबल से समाधि लगाना महासमुंद जिले के ग्राम पचरी के एक युवक के लिए जानलेवा साबित हो गया.

दम घुटने से हो गई मौत

दरअसल, 30 वर्षिय चमनदास  ग्राम पचरी के निवासी पिछले पांच सालों से अलग  अलग  अवधि की  खतरनाक समाधि लिया  करता  रहा था. इस समाधि में उसने पहले साल 24 घंटे, दूसरे साल 48 घंटे, तीसरे साल 72 घंटे, चौथे साल 96 घंटे की समाधि ली थी. समाधि लेने के बाद हर साल किसी तरह जान बच जाने की वजह से इस दफे 16 दिसंबर 2019 को 108 घंटों की समाधि के लिए 4 फिट गड्ढे में भुमिगत समाधि के लिए उतरा था.

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पर उसको और उसके भक्तों को क्या मालूम था कि अंधविश्वास की ये समाधि चमनदास को मौत के बाद ही बाहर निकालेगी. पांच दिन बाद जब चमनदास को जब गड्ढे से बाहर निकाला गया तब वह बेहोश था…जहाँ उसे आनन  फानन मे जिला चिकित्सालय ले जाया गया. महासमुंद जिला अस्पताल में जांच  के बाद चिकित्सकों नें उसे मृत घोषित कर दिया.मृतक के रिश्तेदार का कहना है कि  हमने लंबे समय तक समाधि लेने को मना किया था लेकिन  वह नही माना और जान गवा दी. चिकित्सक जी. आर. पंजवानी ने इस संदर्भ में बताया कि  जमीन के अंदर ऑक्सीजन की कमी के वजह से दम घुटने से उसकी मौत हुई है.

CAA PROTEST: यूपी में हिंसा के बाद 15 लोगों की मौत, 705 गिरफ्तारियां

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे हैं. बिल पास होने तक ये विद्रोह पूर्वोत्तर के राज्यों तक ही सीमित था लेकिन अब ये देश के ज्यादातर हिस्सों तक फैल चुका है. यूपी में प्रदर्शन के दौरान हिंसा भड़क गई. फिलहाल अभी तक यूपी के कई हिस्सों में रह रहकर प्रदर्शनकारी सड़कों पर आ रहे हैं और पत्थरबाजी और आगजनी कर रहे हैं. पुलिस प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस, वाटर कैनन जैसे प्रसाधनों से उन पर काबू पाने की कोशिश कर रही है.

शनिवार को कानपुर और रामपुर में प्रदर्शन के दौरान हिंसा हुई. रामपुर में एक की मौत हो गई. अन्य जिलों में छिटपुट घटनाएं हुई हैं. पुलिस के मुताबिक, विरोध प्रदर्शनों के दौरान 11 दिनों के भीतर 15 लोगों की मौत हो चुकी है और 705 गिरफ्तारियां हुई हैं. 4500 लोगों को हिरासत में लिया गया है.

आईजी (कानून व्यवस्था) प्रवीण कुमार के मुताबिक, “पूरे प्रदेश में 10 दिसंबर से लेकर अब तक 15 लोगों की मौत हो चुकी है. हिंसक प्रदर्शनों में 705 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. पूरे प्रदेश में धारा 144 लागू कर दी गई है. पुलिस हिंसाग्रस्त इलाकों में गश्त कर लोगों से शांति की अपील कर रही है.”

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अब लखनऊ समेत 15 जिलों में सोमवार को दोपहर 12 बजे तक इंटरनेट और एसएमएस सेवाएं बंद रहेंगी. मोबाइल ऑपरेटरों को गृहमंत्रालय द्वारा आदेश भेजे गए हैं. लखनऊ, सहारनपुर, मेरठ, शामली, मुजफरनगर, गाजियाबाद, बरेली, मऊ, संभल, आजमगढ़, आगरा, कानपुर, उन्नाव, मुरादाबाद, प्रयागराज शामिल हैं. अन्य जिलों में भी इंटरनेट सेवाओं को बंद रखने का फैसला वहां के डीएम पर छोड़ा गया है. स्थितियों के अनुरूप वे इंटरनेट सेवाओं को प्रतिबंधित कर सकते हैं.

शनिवार को लखनऊ की एसएसपी कलानिधि नैथानी ने बताया कि 250 लोगों को वीडियो फुटेज और फोटो के आधार पर चिन्हित कर गिरफ्तार किया गया है. फिलहाल बाकी प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी के लिए छापेमारी जारी है. प्रशासन इन आरोपियों पर रासुका और संपत्ति कुर्क की कार्रवाई करने की तैयारी कर रही है. उधर, गोरखपुर में भी प्रदर्शन करने वालों के पुलिस ने स्केच जारी किए हैं.

शनिवार को कानपुर के यतीमखाना में जुलूस निकाला गया. इस दौरान बड़ी संख्या में मौजूद प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर पथराव करना शुरू कर दिया. भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया और आंसूगैस के गोले भी छोड़े. इसमें 12 से अधिक लोगों के घायल होने की जानकारी है. सपा के विधायक अमिताभ बाजपेयी और हाजी इरफान सोलंकी को पुलिस ने हिरासत में ले लिया। स्थिति अभी भी तनावपूर्ण है.

दूसरी ओर, रामपुर में प्रशासन से अनुमति नहीं मिलने के बावजूद उलेमाओं ने बंद बुलाया. इस दौरान हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए. ईदगाह के पास इकट्ठा होकर लोगों ने जमकर नारेबाजी की. इस दौरान पुलिस और भीड़ बिल्कुल आमने-सामने हो गई. प्रदर्शन के दौरान भीड़ इतनी उग्र हो गई कि उन्होंने एक पुलिस जीप के अलावा अन्य आठ वाहनों को भी फूंक दिया. इस हिंसक प्रदर्शन के दौरान एक शख्स की मौत हो गई. हालांकि पुलिस ने कहा कि उसकी ओर से कोई फायरिंग नहीं की गई है.

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मुजफ्फरनगर के सिविल लाइन थाना क्षेत्र में कच्ची सड़क के पास केवलपुरी में शनिवार को दो पक्षों के बीच पथराव हो गया. इस दौरान दोनों पक्षों की ओर से पथराव किया गया. मौके पर पहुंची पुलिस ने लाठियां फटकारकर भीड़ को वहां से खदेड़ दिया. तनाव को देखते हुए भारी पुलिस बल तैनात कर दिया गया है.

झांसी में सोशल मीडिया की निगरानी कर रही पुलिस ने भड़काऊ पोस्ट वाली 300 फेसबुक आईडी ब्लॉक कर दी हैं. इन सभी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने की तैयारी हो रही है. शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद ने बढ़ती हिंसा के बीच कहा कि मुस्लिम समुदाय से शांति बनाए रखने की अपील की. पुलिस महानिदेशक सिंह ने कहा, “हिंसा करने वालों को छोड़ा नहीं जाएगा. हिंसा में बाहरी लोगों का हाथ है। उन्होंने आशंका जताई कि हिंसा में एनजीओ और राजनीतिक लोग भी शामिल हो सकते हैं. हम किसी निर्दोष को गिरफ्तार नहीं करेंगे.”

प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (कानून-व्यवस्था) प्रवीण कुमार ने बताया कि सीएए को लेकर लगातार हो रहे विरोध प्रदर्शनों में अब तक 124 एफआईआर दर्ज की गई हैं. 705 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, वहीं 4500 लोगों के खिलाफ निरोधात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें हिरासत में लिया गया है. आईजी के अनुसार, पथराव व आगजनी में 263 पुलिसकर्मी घायल हुए हैं, जिनमें से 57 पुलिसकर्मियों को गोली लगी है.

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उन्होंने बताया कि हिंसा में 15 लोगों की मौत हुई है. पुलिस ने 405 खोखे बरामद किए हैं. आईजी ने बताया कि सोशल मीडिया के 14,101 आपत्तिजनक पोस्टों से संबंधित लोगों पर कार्रवाई की गई है. इनमें ट्विटर की 5965, फेसबुक की 7995 और यूट्यूब की 142 आपत्तिजनक पोस्टों पर कार्रवाई की गई है. इनमें 63 एफआईआर दर्ज की गई हैं, वहीं 102 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है, इनके अलावा 442 पाबंद किए गए हैं.

खजाने के चक्कर में खोदे जा रहे किले

लेखक- रामकिशोर पंवार

गोंड राजाओं, मुगलों और मराठों के राज के इन किलों में सब से ज्यादा मशहूर खेड़ला राजवंश का किला है, जिस के बारे में पारस पत्थर से जुड़ी हुई कई कहानियां भी सुनाई जाती हैं.

मध्य प्रदेश के बनने से पहले बैतूल सीपी ऐंड बरार स्टेट का हिस्सा था. मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा की निशानदेही करती सतपुड़ा की हरीभरी वादियों व महाराष्ट्र के मेलघाट क्षेत्र से लगा सतपुड़ामेलघाट टाइगर का रिजर्व्ड कौरिडोर इस में शामिल है. धारूल की अंबा देवी की पहाडि़यों में मौजूद गुफाओं के राज की खोजबीन व उन को बचाए रखने की आ पड़ी जरूरत ने सब को चौंका दिया है.

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आदिमानव की कला

धारूल की इन पहाडि़यों में अनेक राज दबे होने के बारे में कहा जाता है कि अंबा देवी क्षेत्र में अजंता, एलोरा, भीमबेठिका की तरह पाषाणकालीन आदिमानव द्वारा बनाए गए शैलचित्र, भित्तिचित्र और अजीबोगरीब आकृतियां देखने को मिलती हैं. इस पूरी पहाड़ी में साल 2007 से 2012 में 100 से ज्यादा प्राचीन गुफाओं की खोज की गई. अब तक की खोज में पाया गया है कि 35 गुफाओं में पेड़पौधों के रंगों से अनेक तरह की आकृति बनाई गई हैं.

मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर बनी इन गुफाओं पर बाकायदा लघु फिल्में बनी हैं और कई किताबें भी लिखी जा चुकी हैं. बैतूल जिले में इस समय 5 किले होने के सुबूत मिलते हैं. 4 किले पहाड़ी पर बने हैं, जिन में सब से प्राचीन खेड़ला राजवंश का खेड़ला किला है. उस के बाद असीरगढ़, भंवरगढ़, सांवलीगढ़ के किले हैं, जो गवासेन के पास एक पहाड़ी पर मौजूद हैं. खेड़ला किले में 35 परगना शामिल थे.

खेड़ला राज्य की राजधानी वर्तमान महाराष्ट्र का शहर अचलपुर है, जो उस समय राजा ईल-एल के नाम पर एलिजपुर के रूप में पहचाना जाता था. इस राजा के बारे में यहां पर यह किस्सा मशहूर है कि राजा के पास सोने का इतना भंडार था कि वह खेड़ला से एलिजपुर तक सोने की सड़क बनवा सकता था.

खेड़ला राज्य का सोने का भंडार और राजा के पास पारस पत्थर का होना ही खेड़ला राजवंश के खत्म होने की वजह बना. मुगल शासक ने अपने सेनापति रहमान शाह दुल्हा को उसी पारस पत्थर को हासिल करने के लिए हजारों सैनिकों के साथ इस किले पर हमला करने के लिए भेजा था. उस के बाद यह किला मुगलों के कब्जे में आ गया और खेड़ला महमूदाबाद के रूप में अपनी पहचान को सामने लाया. मराठों ने इस किले को मुगलों से छीन कर एक बार फिर यहां पर राजा जैतपाल को राजा बना कर भेजा.

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खेड़ला के राज खजाने की खोज में खेड़ला से एलिजपुर तक बनी सुरंगों को अनेक बार खोदा जा चुका है. पूरा किला बेइंतिहा खुदाई के चलते खंडहर बन चुका है. पारस पत्थर को किले से रावण बाड़ी के तालाब में फेंके जाने की कहानी के बाद हाथियों के पैरों में लोहे की चेन बांध कर उन्हें तालाब के चारों ओर घुमाया गया. आज भी पारस पत्थर की तलाश में तालाब के पानी के सूखते ही उस की खुदाई शुरू हो जाती है.

मुलताई नगर से 8 किलोमीटर दूर गांव शेरगढ़ के पास वर्धा नदी के तट पर शेरगढ़ किला बना हुआ है. यह बैतूल जिले का एकमात्र मैदानी किला है, जिस का वजूद पूरी तरह खत्म होने की कगार पर आ गया है. समय के साथ इस किले की दीवारें ढहने लगी हैं. पूरे किले में झाडि़यां उग आई हैं. यहां पर भी खजाने की खोज में सोने के सिक्कों की अफवाह के चलते चोरों द्वारा की गई जगहजगह खुदाई से किले की बुनियाद को नुकसान हो रहा है.

बेरहम वक्त की मार ने भले ही इस किले को आज खंडहर में बदल दिया हो, पर किले का भीमकाय दरवाजा आज भी आसमान को चुनौतियां देता लगता है. बहुत ही सुंदर क्षेत्र में बने इस किले का मेन दरवाजा व परकोटा पत्थरों को काट कर बनाया गया है.

किले के भीतर पानी की एक बावड़ी भी बनी हुई है, जो ठीकठाक हालात में दिखाई देती है. इस के साथ ही इस की लंबी सुरंग का मुहाना भी दिखाई देता है. माना जाता है कि इस सुरंग का इस्तेमाल बाहर निकलने के लिए भी किया जाता था.

खस्ताहाल होने के बावजूद भी इस किले की बनावट और कुदरती छटा मन को मोह लेती है. एक ही पत्थर को काट कर मेहराब की शक्ल में बनाए गए दरवाजे कारीगरी के बेहतरीन नमूने से रूबरू कराते हैं. हालांकि दीवारें टूटने के बाद ये पत्थरों की बनी चौखट जैसे ही दिखाई देते हैं, पर फिर भी इस की खूबसूरती देखते ही बनती है.

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अंधविश्वास: भक्ति या हुड़दंग

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

11 नवंबर, 2019 को लखनऊ से तकरीबन 110 किलोमीटर दूर सीतापुर रोड पर सीतापुर जिले के हरगांव नामक कसबे में एक वाकिआ देखने को मिला. यह मौका था कार्तिक पूर्णिमा से एक दिन पहले ‘दीपदान महोत्सव’ का, जो वहां के सूर्य कुंड तीर्थ में दीप जला कर मनाया जाता है.

आसपास के गांवों से सैकड़ों की तादाद में लोग वहां पहुंचे हुए थे और दीपदान कर रहे थे. वहीं पर शिव के मंदिर के ही पास एक मंच भी बनाया गया था. यहां तक तो सब अच्छा लग रहा था, पर हद तो तब हो गई, जब 2-3 किशोर लड़के राधाकृष्ण के वेश में आए और एक लड़का मोर के पंख लगा कर आ गया. वह लड़का एक अलग अंदाज में अपने पंखों को फैला रहा था और सब लोग उस के साथ सैल्फी लेने के लिए टूट पड़ रहे थे.

राधाकृष्ण और मोर बने लड़के मंच पर पहुंच गए और नाचना शुरू कर दिया. जनता तो जैसे इसी के लिए इंतजार में ही थी. तमाम नौजवान उन के वीडियो बनाते रहे, क्योंकि लोगों को उस समय धर्म से मतलब न हो कर उन लड़कों के नाच में ज्यादा मजा आ रहा था. जनता खुश हो कर पैसे लुटा रही थी और इस का मजा वहां की आयोजक समिति के लोग, जो मंदिर के पंडे ही थे, उठा रहे थे, जबकि इस पैसे का एक बड़ा हिस्सा इन लोक कलाकारों और नर्तकों को दिया जाना चाहिए था, पर ऐसा होता नहीं दिखा, पैसे पर तो हक पंडे-पुजारियों का ही होता दिख रहा था. नतीजतन, लोगों के लिए वह एक डांस पार्टी जैसा कार्यक्रम हो गया था.

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उन्हीं लोगों में एक लड़का शिव के रूप में भी वहां पर आया था. अपने रौद्र रूप के चलते वह भी लोगों के कौतूहल और सैल्फी का केंद्र नजर आ रहा था और उस ने भी नाचनागाना शुरू किया. लोगों ने आस्था के नाम पर पैसे भी चढ़ाए.

माइक पर बोलता आदमी इस डांस को झांकी बोल रहा था, पर इस नाच में कलाकारों का अच्छा मेकअप था, उन के कपड़े अच्छे थे, उन की अच्छी भाव-भंगिमा थी, पर धार्मिकता कहीं नहीं थी. शायद सारी जनता इसे बस इस मनोरंजन का साधन मान कर देख रही थी और जी भर कर पैसा लुटा रही थी.

इस दीपदान नामक महोत्सव में ही थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर मौत के कुएं में मोटरसाइकिल चलाने का खेल चल रहा था, जिस में एक लड़का अपनी जान की बाजी लगा कर अपनी रोजीरोटी जुटाने की कोशिश कर रहा था.

कितना फर्क था एक ही जगह के 2 कार्यक्रमों और उन के पैसे कमाने के तरीके में.

इसी तरह का नजारा कांवड़ यात्रा में देखने को मिलता है. कुछ समय पहले सच्चे कांवड़ श्रद्धालु चुपचाप कांवड़ ले कर चलते जाते थे, फिर धीरेधीरे वे अपने साथ डीजे वगैरह ले जाने लगे और फिर इस तरह की झांकियां आने लगीं. झांकी वाले ये लड़के पूरे रास्ते डांस करते हुए जाते हैं. इन में न कोई श्रद्धा होती है और न ही कोई भक्ति, बल्कि जो हरकतें कांवडि़ए करते हैं, वे नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं लगती हैं. पर धार्मिक लोगों को धर्म और आस्था से बढ़ कर तो इन लोगों के डांस में मजा आता है और जितना ज्यादा मजा, उतना ज्यादा चढ़ावा. जितना ज्यादा चढ़ावा आता है, अगले साल कांवडि़यों की तादाद में उतना इजाफा होता जाता है. आज की कांवड़ यात्रा भक्ति कम और हुड़दंग व दिखावा ज्यादा हो गई है.

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हुड़दंगी कांवडि़ए न ही ट्रैफिक की परवाह करते हैं, न ही किसी नियम और कायदेकानून की. कांवड़ के बहाने उन के अंदर जो हिंसा छिपी होती है, वह इस दौरान खूब बाहर आती है. हालांकि, इन में बड़ी उम्र के कुछ सुलझे हुए कांवडि़ए भी होते हैं, जो इन को काबू में करने की कोशिश करते हैं, पर वे नाकाम ही रहते हैं.

आम जनता को लूटने का यह दोतरफा तरीका है. एक तो उसे कामधाम से हटा कर धर्म में लगाया कि उस की आमदनी कम हो जाए. दूसरा यह कि उस की जेब में जो भी रुपएपैसे हैं, वे नाचगाने, सैरसपाटे, चाटपकौड़ी और भगवान की भक्ति के नाम पर लूट लेना. इस माहौल में गरीबी कैसे  दूर होगी और नगर पार्षद व पंच से ले कर प्रधानमंत्री व अदालतें तक इसी का गुणगान कर रही हैं.

केंद्र के खजाने की बरबादी

यह तो ठीक है कि 1911 से बनने शुरू हुए दिल्ली के ये भवन जो 1935 तक बने थे, अब पुराने पड़ गए और काम के नहीं रह गए हैं पर इस तरह की धरोहर वाली इमारतों को तो कई पीढि़यों तक रखा जाता है. जिस तरह लालकिला 400 वर्षों बाद आज भी अपना वजूद रखता है वैसे ही संसद भवन और उस के आसपास के धौलपुर स्टोन के विशाल भवन एक युग के परिचायक हैं.

नया युवा नए की उम्मीद करता है पर वह आनंद पुराने में ही लेता है. आज देशभर में सैकड़ों साल पुराने किलों, महलों में होटल खुल रहे हैं. दुनियाभर में पुरानी गुफाओं को पर्यटन स्थलों में तबदील किए जाने के साथ उन्हें रहने लायक बनाया जा रहा है.

संसद भवन चाहे छोटा हो, थोड़ा तकलीफ वाला हो, लेकिन उसे बदला जाना ठीक नहीं है. उस के बरामदों में बरामदे बना कर उन्हें एयरकंडीशंड किया जा सकता है. गुंबदों में हेरफेर कर के उन्हें आधुनिक बनाया जा सकता है. लेकिन अगर भाजपा का इरादा इसे पूरी तरह बदलना है, तो यह बेमतलब में सरकारी पैसा बरबाद करना है. एक तरफ तो भाजपा मंदिर के लिए लड़मर रही है जिस का न अता है न पता है, गाय के लिए लोगों का गला काट रही है, भारतमाता के मंदिर बनवा रही है, अयोध्या में दीयों को लगा कर विश्व रिकौर्ड बनाने के दावे ठोंक रही है जबकि दूसरी ओर महज 100 साल पुराने संसद क्षेत्र से ऊबना जता रही है.

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शायद उस का इरादा ऐसा भवन बनाना है जिस में मूर्तियों की जगह हो, घंटेघडि़याल दिखें, नयापन नहीं बल्कि पुरातन का ढोल पीटा जाए. जैसे भाजपा मंडली हर पढ़ेलिखे के हाथ में मैला सा लाल धागा बंधवाने में सफल हो गई है और नयों को पुराना बना सकी है, वैसे ही वह ससंद क्षेत्र को नए की जगह पुराना ही बनाएगी और इसीलिए अहमदाबाद की ही फर्म को ठेका दिया गया है जो शायद पुरातनपंथी डिजाइन बना दे. वैसे, यह कंपनी अब तक आधुनिक डिजाइन के साथ विश्वनाथ धाम, वाराणसी  डिजाइन कर चुकी है.

संसद भवन कहीं पार्लियामैंट हाउस की जगह परमानंद हाउस न बन जाए, ऐसी आशंका भी उठती है. हाल के सालों में अहमदाबाद की उक्त फर्म को ऐसे कामोंकी वजह से पुरस्कार मिले हैं.

संसद भवन आज भी पुराना नहीं लगता. भारतीय पत्थर से बना यह एंग्लोमुगल राजपूती स्टाइल अभिनव है और इसे थोड़ाबहुत ठीक करना ज्यादा अच्छा है, बजाय दूसरा बनाने के.

सरकार की ठेकेदारी प्रथा

देशभरमें अधिकांश युवाओं का मुख्य काम सरकारी नौकरियों की तलाश ही रहता है. जब उन्हें मोबाइल पर टिकटौक या फेसबुक से फुरसत होती है तो नौकरी की फिक्र सताती है, पर नौकरी सरकारी ही हो. कुछ नौकरियां, जैसे मैक्डोनल्ड, स्विगी और जमैटो भी चल सकती हैं, क्योंकि उन में एक चमक है, इंग्लिश में बोलने का मौका है. लेकिन ये नौकरियां थोड़ी ही हैं और थकाऊ हैं.

सरकारी नौकरियों में काम कम, वेतन ठीक और रोब की पूरी गुंजाइश होती है लेकिन अब यह सब है कहां, सरकारों ने हर तरह के काम ठेकों पर देने जो शुरू कर दिए हैं. रेलवे का एक विज्ञापन था कि उस की सीएनसी लेथ मशीनों के ऐनुअल मैंटेनैंस के लिए कौंटै्रक्टर चाहिए. यानी कि जो काम नौकरी पर रखे गए कामगारों को करना होता था, वह अब ठेकेदार के जरिए कराया जाएगा.

ठेकेदार अपने निरीक्षण में दिहाड़ी मजदूरों से काम कराएगा. वह उन्हें मेहनताना कम देगा, न दे तो भी चलेगा. ठेकदार सरकारी अधिकारियों को खिलानेपिलाने वाला हो, अपने हाथ गंदे न करे, ऐसा होगा. ईटैंडर से ठेका मिलेगा, तो यही होगा न.

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कर्नाटक में बेंगलुरु का मैट्रो विभाग मैट्रो के नीचे बागबगीचे डैवलप करने के लिए कौंट्रैक्टर रख रहा है. यानी जो माली, सुपरवाइजर पक्की नौकरी पर रखे जाते थे, अब वार्षिक ठेके पर रखे जाएंगे. कौंट्रैक्टर खुद कच्ची नौकरी पर और उस के कारीगर भी. ऐक्सपीरियंस और इनोवेशन की अब कोई गुंजाइश ही नहीं. काम अच्छा हो, करने वालों को सैटिस्फैक्शन हो, इस की भी गुंजाइश नहीं.

किसी भी अखबार को खोल कर देख लें, किसी भी ईटैंडर साइट पर चले जाएं, ऐसे विज्ञापन भरे हैं जिन में कौंट्रैक्टरों की जरूरत है. सरकारी नौकरियों के विज्ञापन नहीं दिखेंगे. सरकारी नौकरियां जिन्हें मिलेंगी वे तो टैंडर पास करेंगे, रिश्वत लेंगे. सरकारी नौकरियां कम हैं पर हैं बहुत वजनदार.

अब अगर आप सरकारी नौकरी में आ गए, तो काम न करने के भी बहाने ही बहाने. जिस कौंटै्रक्टर के लेबर भाग गए उस का दिवाला निकल गया. वह गायब हो गया. वह निकम्मा है. टैंडर कैंसिल हो गया. नया जारी कर रहे हैं. काम न हो, तो चिंता नहीं. मुश्किल यह है कि सरकारी नौकरी मिले, तो कैसे मिले?

लगता है देश में 2 जातियां रह जाएंगी. एक सरकारी नौकरी वालों की और दूसरी कौंट्रैक्टर के लेबर वालों की. सम झ सकते हैं कि कौन ऊंचा होगा, कौन अछूत. ऐसे में देश का हाल बेहाल न हो, कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. जब धर्म के इशारों पर देश चलाया जाएगा, तो ऐसा ही होगा.

डैमोक्रेसी और भारतीय युवा

हौंगकौंग और मास्को में डैमोक्रेसी के लिए हजारों नहीं, लाखों युवा सड़कों पर उतरने लगे हैं. मास्को पर तानाशाह जैसे नेता व्लादिमीर पुतिन का राज है जबकि हौंगकौंग पर कम्युनिस्ट चीन का. वहां डैमोक्रेमी की लड़ाई केवल सत्ता बदलने के लिए नहीं है बल्कि सत्ता को यह जताने के लिए भी है कि आम आदमी के अधिकारों को सरकारें गिरवी नहीं रख सकतीं.

अफसोस है कि भारत में ऐसा डैमोक्रेसी बचाव आंदोलन कहीं नहीं है, न सड़कों पर, न स्कूलोंकालेजों में और न ही सोशल मीडिया में. उलटे, यहां तो युवा हिंसा को बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं. वे सरकार से असहमत लोगों से मारपीट कर उन्हें डराने में लगे हैं. यहां का युवा मुसलिम देशों के युवाओं जैसा दिखता है जिन्होंने पिछले 50 सालों में मिडिल ईस्ट को बरबाद करने में पूरी भूमिका निभाई है.

डैमोक्रेसी आज के युवाओं के लिए जरूरी है क्योंकि उन्हें वह स्पेस चाहिए जो पुराने लोग उन्हें देने को तैयार नहीं. जैसेजैसे इंसानों की उम्र की लौंगेविटी बढ़ रही है, नेता ज्यादा दिनों तक सक्रिय रह रहे हैं. वे अपनी जमीजमाई हैसियत को बिखरने से बचाने के लिए, स्टेटस बनाए रखने का माहौल बना रहे हैं. वे कल को अपने से चिपकाए रखना चाह रहे हैं, वे अपने दौर का गुणगान कर रहे हैं. जो थोड़ीबहुत चमक दिख रही है उस की वजह केवल यह है कि देश के काफी युवाओं को विदेशी खुले माहौल में जीने का अवसर मिल रहा है जहां से वे कुछ नयापन भारत वापस ला रहे हैं. हमारी होमग्रोन पौध तो छोटी और संकरी होती जा रही है. देश पुरातन सोच में ढल रहा है. हौंगकौंग और मास्को की डैमोक्रेसी मूवमैंट भारत को छू भी नहीं रही है.

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नतीजा यह है कि हमारे यहां के युवा तीर्थों में समय बिताते नजर आ रहे हैं. वे पढ़ने की जगह कोचिंग सैंटरों में बिना पढ़ाई किए परीक्षा कैसे पास करने के गुर सीखने में लगे हैं. वे टिकटौक पर वीडियो बना रहे हैं, डैमोक्रेसी की रक्षा नहीं कर रहे.

उन्हें यह नहीं मालूम कि बिना डैमोक्रेसी के उन के पास टिकटौक की आजादी भी नहीं रहेगी, ट्विटर का हक छीन लिया जाएगा, व्हाट्सऐप पर जंजीरे लग जाएंगी. हैरानी है कि देशभर में सोशल मीडिया पोस्टों पर गिरफ्तारियां हो रही हैं और देश का युवा चुप बैठना पसंद कर रहा है. वह सड़कों पर उतर कर अपना स्पेस नहीं मांग रहा, यह अफसोस की बात है. देश का भविष्य अच्छा नहीं है, ऐसा साफ दिख रहा है.

निजता के अधिकार पर हमला

भाजपा सरकार ने नैशनल इंटैलीजैंस ग्रिड तैयार किया है जिस में एक आम नागरिक की हर गतिविधि को एक साथ ला कर देखा जा सकता है. बिग ब्रदर इज वाचिंग वाली बात आज तकनीक के सहारे पूरी हो रही है. आज के कंप्यूटर इतने सक्षम हैं कि करोड़ों फाइलों और लेनदेनों में से एक नागरिक का पूरा ब्यौरा निकालने में कुछ घंटे ही लगेंगे, दिन महीने नहीं. अब एक नागरिक के घर के सामने गुप्तचर बैठाना जरूरी नहीं है. हर नागरिक हर समय फिर भी नजर में रहेगा.

इसे कपोलकल्पित न सम झें, एक व्यक्ति आज मोबाइल पर कितना निर्भर है, यह बताना जरूरी नहीं है. मोबाइलों का वार्तालाप हर समय रिकौर्ड करा जा सकता है क्योंकि जो भी बात हो रही है वह पहले डिजिटली कन्वर्ट हो रही है, फिर सैल टावर से सैटेलाइटों से होती दूसरे के मोबाइल पर पहुंच रही है. इसे प्राप्त करना कठिन नहीं है. सरकार इसलिए डेटा कंपनियों को कह रही है कि डेटा स्टोरेज सैंटर भारत में बनाए ताकि वह जब चाहे उस पर कब्जा कर सके.

नागरिक की बागडोर बैंकों से भी बंधी है. हर बैंक एक मेन सर्वर से जुड़ा है, नागरिक ने जितना जिस से लियादिया वह गुप्त नहीं है. अगर सैलरी, इंट्रस्ट, डिविडैंड मिल रहा है तो वह भी एक जगह जमा हो रहा है. सरकार नागरिक के कई घरों का ब्यौरा भी जमा कर रही है ताकि कोई कहीं रहे वहां से जोड़ा जा सके.

सरकार डौक्यूमैंट्स पर नंबर डलवा रही है. हर तरह का कानूनी कागज एक तरह से जुड़ा होगा. बाजार में नागरिक ने नकद में कुछ खरीदा तो भी उसे लगभग हर दुकानदार को मोबाइल नंबर देना होता है, यानी वह भी दर्ज.

सर्विलैंस कैमरों की रिकौर्डिंग अब बरसों रखी जा सकती है. 7 जुलाई, 2005 में जब लंदन की ट्यूब में आतंकी आत्मघाती हमला हुआ था तो लावारिस लाशें किसमिस की थी, यह स्टेशन पर लगे सैकड़ों कैमरों की सहायता से पता चल गया था. आदमी को कद के अनुसार बांट कर ढूंढ़ना आसान हो सकता है. अगर कोई यह कह कर जाए कि वह मुंबई जा रहा है पर पहुंच जाए जम्मू तो ये कंप्यूटर ढूंढ़ निकालेगा कि वह कहां किस कैमरे की पकड़ में आया. सारे कैमरे धीरेधीरे एकदूसरे से जुड़ रहे हैं.

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यह भयावह तसवीर निजता के अधिकार पर हो रहे हमले के लिए चेतावनी देने के लिए काफी है. देश की सुरक्षा के नाम पर अब शासक अपनी मनमानी कर सकते हैं, किसी के भी गुप्त संबंध को ट्रेस कर के ब्लैकमेल कर सकते हैं. इन कंप्यूटरों को चलाने वालों के गैंग बन सकते हैं जो किसी तीसरे जने को डेटा दे कर पैसा वसूलने की धमकी दे सकते हैं. हैकर, निजी लोग, सरकारी कंप्यूटर में घुस कर नागरिक की जानकारी जमा कर के ब्लैकमेल कर सकते हैं.

शायद इन सब से बचने के लिए लोगों को काले चश्मे पहनने होंगे, सारा काम नकद करना होगा, चेहरे पर नकली दाढ़ीमूंछ लगा कर चलने की आदत डालनी होगी. सरकार के शिकंजे से बचना आसान न होगा. यह कहना गलत है कि केवल अपराधियों को डर होना चाहिए, एक नागरिक का हक है कि वह बहुत से काम कानून की परिधि में रह कर बिना बताए करें. यह मौलिक अधिकार है. यह लोकतंत्र का नहीं जीवन का आधार है. हम सब खुली जेल में नहीं रहना चाहते ना.

 देहधंधे में मोबाइल की भूमिका

देहधंधा आजकल सड़क पर खड़े दलालों के जरिए नहीं बल्कि फेसबुक, ट्विटर आदि से चल रहा है. इन पर डायरैक्ट मैसेज की सुविधा है. कोई भी किसी भी लड़की को मैसेज भेज कर अपना इंटरैस्ट दिखा सकता है. एक बार आप ने किसी लड़की का अकाउंट खोल कर देखा नहीं कि ये सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स अपनेआप आप को ढूंढ़ कर बताने लगेंगे कि इस तरह के और अकाउंट कौनकौन से हैं जिन्हें फौलो किया जा सकता है.

दिखने में यह बड़ा सेफ लगता है पर अब चालाकों ने इसे लूट का जरिया बना लिया है. इस को इस्तेमाल कर के हनीट्रैप करना आसान हो गया है. डायरैक्ट मैसेज दिया तो हो सकता है कि कोई सुरीली, मदमाती, खनकती आवाज में फोन कर दे और फिर वह अपने शहर की किसी बताई जगह पर मिलने का इनविटेशन दे दे. सैक्स के भूखे हिंदुस्तानी बड़ी जल्दी फंस जाते हैं चाहे वे तिलकधारी और हाथ पर 4 रंगों के धागे बांधे क्यों न हों.

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अगर मुरगा फंस गया तो हजार तरीके हैं लूटने के. कई बार धमकियों से पैसे वसूले जाते हैं तो कई बार सैक्स सीन के फोटो खींच कर लंबे समय तक ब्लैकमेल किया जाता है. कोचीन में कतर के एक हिंदुस्तानी बिजनैसमैन की सैक्स करने के दौरान की वीडियो बना ली गई और उस के जरिए उस से 50 लाख रुपए मांगे गए. बिजनैसमैन ने हिम्मत दिखा कर पुलिस से शिकायत तो कर दी है पर यह पक्का है कि दलाल प्लेटफौर्म्स पकड़े नहीं जाएंगे. बस, लड़की को पकड़ लो, उस के कुछ साथी हों तो उन्हें पकड़ लो.

सोशल मीडिया की ये साइटें, जो लोकतंत्र की नई आवाज की तरह लगी थीं, अब प्रौस्टिट्यूशन मार्केट और नाइटक्लबों की कतार लगने लगी हैं जहां लड़कियों की भरमार है. अब चूंकि ग्राहक मौजूद हैं, लोग फंसने को तैयार हैं तो फंसाने वालों को भी तैयार किया ही जाएगा. लड़कियों को कभी पैसे का लालच दे कर तो कभी ब्लैकमेल कर के इस धंधे में उतार दिया जाता है. पहले लड़कियों को मारपीट का डर दिखाया जाता था, अब उन की नंगी तसवीरें या उन के रेप करते वीडियो को वायरल करने की धमकी दे कर मजबूर किया जाता है.

लड़कियों के लिए मोबाइल और सारे ऐप्स स्वतंत्रता की चाबी नहीं हैं, ये गुलामी की नई जंजीरें हैं जिन में जरा सी असावधानी या चूक उन्हें बेहद महंगी पड़ सकती है.

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निर्भया कांड के दोषी ने कोर्ट में कहा, “दिल्ली गैंस चैंबर फिर मुझे मौत की सजा क्यों”?

दिल्ली की आबो हवा किस तरह प्रदूषित हो रही है ये किसी से भी छिपा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने तो यहां तक कह दिया कि आप लोग जनता को मौत के मुंह में ढकेलते जा रहे हैं. अक्टूबर महीने से शुरू हुआ प्रदूषण नवंबर आखिरी तक चला. इस मामले को निपटाने के लिए जहां सभी सरकारों को एकजुट होकर समस्या का निदान करना चाहिए तो सियासतदान राजनीति करने में जुटे हुए हैं. खैर इन सब के अलावा एक मौत की सजा पाए हुए बलात्कार के आरोपी ने ऐसा बयान दिया है जिसने सभी के रोंगटे खड़े कर दिए.

निर्भया सामूहिक दुष्कर्म और हत्याकांड में मौत की सजा पाए चार दोषियों में से एक अक्षय कुमार सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में मामले को लेकर पुनर्विचार याचिका दायर करते हुए कहा कि दिल्ली गैस चैंबर है, ऐसे मैं मौत की साज देने की क्या जरूरत है. वकील ए.पी.सिंह के माध्यम से दायर समीक्षा याचिका में अक्षय ने कहा, “दिल्ली-एनसीआर में पानी और हवा को लेकर जो कुछ हो रहा है, उससे हर कोई वाकिफ है. जीवन छोटा होता जा रहा है, फिर मृत्युदंड क्यों?”

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सुप्रीम कोर्ट 9 जुलाई 2018 को ही अन्य तीन दोषियों की पुनर्विचार याचिका को रद्द कर चुका है. उस समय अक्षय ने याचिका दायर नहीं की थी. वकील सिंह ने अपने मुवक्किल की ओर से मंगलवार को शीर्ष अदालत में याचिका दायर की. याचिका में अक्षय ने निवेदन करते हुए दावा किया कि दिल्ली की हवा की गुणवत्ता बिगड़ गई है, और राजधानी शहर सचमुच गैस चैंबर बन गया है. यहां तक कि शहर में पानी भी जहर से भरा है.

गौरतलब है कि 16 दिसंबर, 2012 की रात दक्षिण दिल्ली में एक चलती बस में छह लोगों ने निर्भया (23) के साथ मिलकर दुष्कर्म किया था. सामूहिक दुष्कर्म इतना वीभत्स था कि इससे देशभर में आक्रोश पैदा हो गया था और सरकार ने दुष्कर्म संबंधी कानून और सख्त किए थे.

छह दुष्कर्म दोषियों में से एक नाबालिग था, जिसे बाल सुधार गृह में भेज दिया गया और बाद में रिहा कर दिया गया. एक दोषी ने जेल में ही आत्महत्या कर ली थी. शीर्ष अदालत ने मुकेश (30), पवन गुप्ता (23) और विनय शर्मा (24) की पुनर्विचार याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि मृत्युदंड की समीक्षा के लिए अभियुक्तों द्वारा कोई आधार स्थापित नहीं किया गया है.

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जाति की राजनीति में किस को फायदा

इस देश में शादीब्याह में जिस तरह जाति का बोलबाला है वैसा ही राजनीति में भी है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ मिल यादवोंपिछड़ों को दलितों के साथ जोड़ने की कोशिश की थी पर चल नहीं पाई. दूल्हे को शायद दुलहन पसंद नहीं आई और वह भाजपा के घर जा कर बैठ गया. अब दोनों समधी तूतू मैंमैं कर रहे हैं कि तुम ने अपनी संतान को काबू में नहीं रखा.

इस की एक बड़ी वजह यह रही कि दोनों समधियों ने शादी तय कर के मेहनत नहीं की कि दूल्हेदुलहन को समझाना और पटाना भी जरूरी है. दूसरी तरफ गली के दूसरी ओर रह रही भाजपा ने अपनी संतान को दूल्हे के घर के आगे जमा दिया और आतेजाते उस के आगे फूल बरसाने का इंतजाम कर दिया, रोज प्रेम पत्र लिखे जाने लगे, बड़ेबड़े वायदे करे जाने लगे कि चांदतारे तोड़ कर कदमों में बिछा दिए जाएंगे. वे दोनों समधी अपने घर को तो लीपनेपोतने में लगे थे और होने वाले दूल्हेदुलहन पर उन का खयाल ही न था कि ये तो हमारे बच्चे हैं, कहना क्यों नहीं मानेंगे?

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अब दूल्हा भाग गया तो दोष एकदूसरे पर मढ़ा जा रहा है. यह सांप के गुजर जाने पर लकीर पीटना है. मायावती बेवकूफी के बाद महाबेवकूफी कर रही हैं. यह हो सकता है कि पिछड़ों ने दलितों को वोट देने की जगह भाजपा को वोट दे दिया जो पिछड़ों को दलितों पर हावी बने रहने का संदेश दे रही थी.

इस देश की राजनीति में जाति अहम है और रहेगी. यह कहना कि अचानक देशभक्ति का उबाल उबलने लगा, गलत है. जाति के कारण हमारे घरों, पड़ोसियों, दफ्तरों, स्कूलों में हर समय लकीरें खिंचती रहती हैं. देश का जर्राजर्रा अलगअलग है. ब्राह्मण व बनियों में भी ऊंचनीच है. कुंडलियों को देख कर जो शादियां होती हैं उन में न जाने कौन सी जाति और गोत्र टपकने लगते हैं.

जाति का कहर इतना है कि पड़ोसिनें एकदूसरे से मेलजोल करने से पहले 10 बार सोचती हैं. प्रेम करने से पहले अगर साथी का इतिहास न खंगाला गया हो तो आधे प्रेम प्रसंग अपनेआप समाप्त हो जाते हैं. अगर जाति की दीवारें युवकयुवती लांघ लें तो घर वाले विरोध में खड़े हो जाते हैं. घरघर में फैला यह महारोग है जिस का महागठबंधन एक छोटा सा इलाज था पर यह नहीं चल पाया. इसका मतलब यह नहीं कि उसे छोड़ दिया जाए.

देश को जाति की दलदल से निकालने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपना अहंकार छोड़ें और पिछड़े और दलित अपनी हीनभावना को. अखिलेश यादव और मायावती ने प्रयोग किया था जो अभी निशाने पर नहीं बैठा पर उन्होंने बहुत देर से और आधाअधूरा कदम उठाया. इस के विपरीत जाति को हवा देते हुए भाजपा पिछले 100 सालों से इसे हिंदू धर्म की मूल भावना मान कर अपना ही नहीं रही, हर वर्ग को सहर्ष अपनाने को तैयार भी कर पा रही है.

अखिलेश यादव और मायावती ने एक सही कदम उठाया था पर दोनों के सलाहकार और आसपास के नेता यह बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं.

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भीड़ को नहीं है किसी का डर

मामला परशुराम के पिता का पुत्रों को मां का वध करने का हो, अहिल्या का इंद्र के धोखे के कारण अपने पति को छलने का या शंबूक नाम के एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर राम के हाथों वध करने का, हमारे धर्म ग्रंथों में तुरंत न्याय को सही माना गया है और उस पर धार्मिक मुहर लगाई गई है. यह मुहर इतनी गहरी स्याही लिए है कि आज भी मौबलिंचिंग की शक्ल में दिखती है. असम में तिनसुकिया जिले में भीड़ ने पीटपीट कर एक पति व उस की मां को मार डाला, क्योंकि शक था कि उस ने अपनी 2 साल की बीवी और 2 महीने की बेटी को मार डाला.

मजे की बात तो यह है कि जब पड़ोसी और मृतक बीवी के घर वाले मांबेटे की छड़ों से पिटाई कर रहे थे, लोग वीडियो बना कर इस पुण्य काम में अपना साथ दे रहे थे.

देशभर में इस तरह भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने और भीड़ में खड़े लोगों का वीडियो बनाना अब और ज्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि शासन उस तुरंत न्याय पर नाकभौं नहीं चढ़ाता. गौरक्षकों की भीड़ों की तो सरकारी तंत्र खास मेहमानी करते हैं. उन्हें लोग समाज और धर्म का रक्षक मानते हैं.

तुरंत न्याय कहनेसुनने में अच्छा लगता है पर यह असल में अहंकारी और ताकतवर लोगों का औरतों, कमजोरों और गरीबों पर अपना शासन चलाने का सब से अच्छा और आसान तरीका है. यह पूरा संदेश देता है कि दबंगों की भीड़ देश के कानूनों और पुलिस से ऊपर है और खुद फैसले कर सकती है. यह घरघर में दहशत फैलाने का काम करता है और इसी दहशत के बल पर औरतों, गरीबों, पिछड़ों और दलितों पर सदियों राज किया गया है और आज फिर चालू हो गया है.

जब नई पत्नी की मृत्यु पर शक की निगाह पति पर जाने का कानून बना हुआ है तो भीड़ का कोई काम नहीं था कि वह तिनसुकिया में जवान औरत की लाश एक टैंक से मिलने पर उस के पति व उस की मां को मारना शुरू कर दे. यह हक किसी को नहीं. पड़ोसी इस मांबेटे के साथ क्यों नहीं आए, यह सवाल है.

लगता है हमारा समाज अब सहीगलत की सोच और समझ खो बैठा है. यहां किसी लड़केलड़की को साथ देख कर पीटने और लड़के के सामने ही लड़की का बलात्कार करने और उसी समय उस का वीडियो बनाने का हक मिल गया है.

यहां अब कानून पुलिस और अदालतों के हाथों से फिसल कर समाज में अंगोछा डाले लोगों के हाथों में पहुंच गया है, जो अपनी मनमानी कर सकते हैं. पिछले 100-150 साल के समाज सुधार और कानून के सहारे समाज चलाने की सही समझ का अंतिम संस्कार जगहजगह भीड़भड़क्के में किया जाने लगा है. यह उलटा पड़ेगा पर किसे चिंता है आज. आज तो पुण्य कमा लो.

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सतर्क रहना युवती का पहला काम

शराब बलात्कारों का दरवाजा खोलती है, क्योंकि शराब के नशे में न तो लड़कियों को सुध रहती है कि उन के साथ क्या हो रहा है न बलात्कारियों को. देशी एयरलाइनों में काम करने वाली एअरहोस्टेसें अपनेआप में खासी मजबूत होती हैं और यात्रियों से डील करतेकरते उन्हें दिलफेंक लोगों को झिड़कना आता है. उन की ट्रेनिंग ऐसी होती है कि वे छुईमुई नहीं होतीं और उन के मसल्स मजबूत होते हैं.

ऐसे में कोई एअरहोस्टेस पुलिस में शिकायत करे कि उस के साथ बलात्कार हुआ तो यह काफी जोरजबरदस्ती और शराब के साथ नशीली दवा के कारण ही हुआ होगा. हैदराबाद में रहने वाली इस युवती की शिकायत है कि वह कुछ ड्रिंक्स लेने अपने सहयोगी के साथ गई थी और फिर उस के साथ उस के घर चली गई. वहां सहयोगी और 2 अन्य ने उसे बेहोश कर के उस के साथ बलात्कार किया.

इस दौरान उस का मंगेतर और पिता लगातार फोन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे और जब सुबह उस के होश आने पर उस ने फोन उठाया और पिता व मंगेतर से बात की तो पुलिस कंप्लेंट फाइल की.

बलात्कार के बारे में अकसर यह कह दिया जाता है कि उस में लड़की की सहमति होगी जो बाद में मुकर गई पर इस पर प्रतिप्रश्न यही है कि यदि उस ने पहले सहमति से अपने सुख के लिए संबंध बनाया तो वह आगे भी संबंध बनाएगी न कि शिकायतें करेगी. वह शिकायत तो तभी करेगी जब उस से जबरदस्ती करी जाए.

यह कुछ ऐसा ही है कि यदि दोनों में से एक दोस्त दूसरे की लंबे दिनों तक आर्थिक सहायता करता रहे पर एक दिन जब वह मना कर दे तो क्या सहायता मांगने वाले के पास देने वाले का पर्स चोरी करने का अधिकार है? हां, शराब के नशे में दोस्त दोस्त का पर्स साफ कर जाए तो संभव है पर यह भी अपराध ही है. पैसे का अपराध छोटा है, शारीरिक अपराध बड़ा है. एक घूंसा मारने पर लोग बदले में दूसरे पर गोली तक चला देते हैं. यह अपने अधिकारों का इस्तेमाल है.

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अपने बारे में सतर्क रहना हर युवती का पहला काम है. यदि उसे किसी से सैक्स संबंध बनाने पर एतराज नहीं है तो उसे खुली छूट है कि वह रात उस के घर जाए, उस के साथ नशा करे. पर यदि किसी कारण उसे किसी युवक दोस्त के साथ रहना पड़े तो शराब का रिस्क तो वह ले ही नहीं सकती. अपनी सुरक्षा पहले अपने हाथ में है. छुईमुई न बनें, पर बेमतलब रिस्क भी न लें. रात अंधेरे में आदमी भी जेब में पर्स और मोबाइल लिए चलने में घबराते हैं, यह न भूलें.

मर्दों की नसबंदी: खत्म नहीं हो रहा खौफ

सियासत में तानाशाही ताकत के साथ बढ़ती जाती है. यह किसी एक दल की बपौती नहीं होती है. साल 1975 में कांग्रेस सरकार के समय इमर्जैंसी में मर्दों की नसबंदी को ले कर संजय गांधी के खौफ को हिटलर की तानाशाही से भी बड़ा माना गया था. उस समय संजय गांधी केंद्र सरकार तो छोडि़ए, कांग्रेस दल में भी किसी तरह के पद पर नहीं थे. इस के बाद भी उन का आदेश सब से ऊपर था, क्योंकि वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे जो थे.

उस के बाद इस मुहिम का डर मर्दों में इस कदर बैठा कि आज 44 साल के बाद भी सरकार मर्दों की नसबंदी कराने के अपने टारगेट से काफी पीछे है. आज भी देश की परिवार नियोजन योजना में मर्दों का योगदान औरतों के मुकाबले काफी कम है.

इमर्जैंसी में मर्दों की जबरदस्ती नसबंदी कराने से नाराज लोगों ने तब कांग्रेस सरकार को यह बताते हुए भी उस का तख्ता पलट कर दिखा दिया था कि सियासत में तानाशाही का जवाब देना जनता को आता है. तब लोगों ने मर्दों की नसबंदी को राजनीतिक मुद्दा बना दिया था.

वैसे, आज भी ज्यादातर मर्दों को यही लगता है कि नसबंदी कराने से उन की सैक्स ताकत घट जाएगी. ऐसे में वे नसबंदी से दूर रहते हैं.

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मर्दों की नसबंदी का जिक्र आते ही पिछली पीढ़ी के सामने साल 1975 की इमर्जैंसी की ज्यादती की घटनाएं आंखों के सामने घूम जाती हैं. आज की पीढ़ी ने भले ही उस दौर को न देखा हो, पर गांवगांव, घरघर में ऐसी कहानियां सुनने को मिलती हैं, जब गांव में मर्दों को पकड़ कर जबरदस्ती नसबंदी करा दी जाती थी. गांव के गांव घेर कर पुलिस नौजवानों तक को उठा लेती थी.

सरकारी मुलाजिमों के लिए तो यह काम सब से जरूरी हो गया था. उन की नौकरी पर संकट खड़ा हो गया था. इस दायरे में बड़ी तादाद में स्कूली टीचर भी आए थे. कई जगहों पर अपना कोटा पूरा करने के लिए गैरशादीशुदा और बेऔलाद लोगों को भी नसबंदी करानी पड़ी थी. कई गरीब इस के शिकार हुए थे.

इस से देश के आम जनमानस में उस समय की कांग्रेस सरकार के खिलाफ गुस्सा भड़का था और उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था.

मर्दों में नसबंदी का यह खौफ आज भी जस का तस कायम है. भारत में औरतों के मुकाबले बहुत कम मर्द नसबंदी कराते हैं. 70 के दशक में जब परिवार नियोजन कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी, तो भारत में आबादी पर रोक लगाने के लिए औरतों पर ही ध्यान दिया गया. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि औरतें इस के लिए आसानी से तैयार हो जाती थीं.

70 के दशक में भारत गरीबी के दौर से गुजर रहा था. गरीबी को खत्म करने के लिए हरित क्रांति जैसे कार्यक्रम चलाए गए थे, जिस से देश में ज्यादा से ज्यादा अनाज उगाया जा सके और देश खाने के मामले में आत्मनिर्भर रह सके.

इस के लिए दूसरा बेहद जरूरी कदम आबादी को काबू में रखने का भी था. इस की जरूरत हर जाति और धर्म में महसूस की जा रही थी.

संजय गांधी को लगा था कि इमर्जैंसी इस के लिए सब से बेहतर समय है. उन्होंने मुसलिम धर्म के लोगों को भी इस दायरे में लिया था, पर तब मुसलिमों को लगता था कि यह उन की आबादी को कम करने के लिए किया जा रहा है.

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संजय गांधी का दबदबा

साल 1975 में इमर्जैंसी के दौरान संजय गांधी ने आबादी पर काबू पाने से जुड़े कानून के सहारे अपने असर को पूरे देश में दिखाने का काम किया था. इस के लिए उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने नसबंदी को ले कर ‘उग्र’ अभियान शुरू किया था. उन्होंने उस समय टैलीग्राफ के जरीए अपना एक संदेश हर प्रदेश के सरकारी अफसरों को भेजा था कि ‘सब को सूचित कर दीजिए कि अगर महीने के टारगेट पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ तनख्वाह रुक जाएगी बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी देना होगा. सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मु झे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें.’

इस संदेश ने नौकरशाही में खौफ पैदा कर दिया था, जिस की वजह से नसबंदी कराने के लिए लोगों को तैयार करने के काम में पुलिस की मदद भी ली गई थी.

इस में सब से ज्यादा गरीब आदमी परेशान हुए थे. पुलिस ने पूरे गांव को घेर लिया और मर्दों को जबरन घरों से खींच कर उन की नसबंदी करा दी गई थी. साल के भीतर ही तकरीबन 62 लाख लोगों की नसबंदी की गई थी. इस में गलत आपरेशनों से 2,000 लोगों की मौत भी हुई थी.

साल 1933 में जरमनी में भी ऐसा ही एक अभियान चलाया गया था. इस के लिए एक कानून बनाया गया था जिस के तहत किसी भी आनुवांशिक बीमारी से पीडि़त आदमी की नसबंदी का प्रावधान था. तब तक जरमनी नाजी पार्टी के कंट्रोल में आ गया था.

इस कानून के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि आनुवांशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में नहीं जाएंगी तो जरमन इनसान की सब से बेहतर नस्ल वाला देश बन जाएगा जो बीमारियों से दूर होगा. बताते हैं कि इस अभियान में तकरीबन 4 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी.

भारत में नसबंदी को ले कर संजय गांधी के अभियान का खौफ पूरे देश पर इस कदर छाया था कि वे हिटलर से भी आगे निकल गए. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि संजय गांधी कम से कम समय में एक प्रभावी नेता के रूप में पूरे देश में छा जाना चाहते थे. ऐसे में वे नसबंदी के बहाने तानाशाही को दिखाने लगे थे.

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साल 1975 में इमर्जैंसी लगने के बाद राजनीति में आए संजय गांधी को लगने लगा था कि गांधीनेहरू परिवार की विरासत वे ही संभालेंगे. कम से कम समय में एक प्रभावशाली नेता बनने की फिराक में वे इस कदम को उठाने के लिए तैयार हुए थे.

लेकिन संजय गांधी की हवाई हादसे में हुई मौत और कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद उस के बाद आई जनता पार्टी सरकार ने नसबंदी के इस उग्र अभियान को दरकिनार कर दिया था और परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रचार और प्रोत्साहन के बल पर आगे बढ़ाने का काम किया था.

खत्म नहीं हो रहा खौफ

इमर्जैंसी के 44 साल के बाद भी मर्दों में नसबंदी का खौफ खत्म नहीं हो रहा है. आज सरकार मर्दों की नसबंदी पर 3,000 रुपए नकद प्रोत्साहन राशि दे रही है, जबकि औरतों की नसबंदी पर केवल 2,000 रुपए की प्रोत्साहन राशि दी जा रही है.

सरकारी अस्पतालों में नसबंदी के आंकड़े देखे जाएं तो यह अनुपात 10 औरतों पर एक मर्द का आता है. हैरान करने वाली बात यह है कि पतिपत्नी जब सरकारी अस्पताल आते हैं, तो पत्नी खुद कहती है, ‘डाक्टर साहब, इन को कामकाज करना होता है. खेतीकिसानी में बो झ उठाना पड़ता है. साइकिल चलानी पड़ती है. ऐसे में इन की जगह पर हम ही नसबंदी करा लेते हैं.’

जब पत्नी को सम झाने की कोशिश की जाती है, तो वह बताती है कि उस की सास भी यही चाहती है. असल में पत्नी पर पति का ही नहीं, बल्कि सास और दूसरे घर वालों के साथसाथ समाज तक का दबाव होता है.

आजमगढ़ जिले के रानी सराय ब्लौक के बेलाडीह गांव की रानी कन्नौजिया कहती हैं कि औरतों को यह भी लगता है कि नसबंदी न होने से बारबार बच्चा पैदा करने से उन को ही परेशानी होगी. ऐसे में वे आसानी से खुद ही नसबंदी करा कर परिवार नियोजन का काम कर लेती हैं.

कई गांवों में मर्दों की नसबंदी को अंधविश्वास से भी जोड़ दिया जाता है. कई बार मर्दों को यह बताया जाता है कि इस को कराने से किस तरह लोग प्रभावित होते हैं. ऐसे में डर के मारे वे नसबंदी नहीं कराते हैं. बहुत सारी कोशिशों के बाद भी मर्दों की नसबंदी अभी भी बहुत पिछड़ी हालत में है.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 2016-17 के दौरान 40 लाख नसबंदियां की गई थीं. इन में मर्दों की नसबंदी के मामले में यह आंकड़ा एक लाख से भी कम रहा.

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महफूज है मर्द नसबंदी

मक्कड़ मैडिकल सैंटर के सर्जन डाक्टर जीसी मक्कड़ कहते हैं कि मर्दों की नसबंदी ज्यादा आसान और सुरक्षित होती है. इस में समय भी कम लगता है. उन की नसबंदी भी औरतों की नसबंदी जितनी ही असरदार है. मर्दों की नसबंदी को ले कर गलतफहमियों को दूर करने की जरूरत होती है.

इस नसबंदी में मर्द के बच्चा पैदा करने वाले अंग व अंडकोष को नहीं काटा जाता और न ही नसबंदी से उन को कोई नुकसान होता है.

नसबंदी के बाद न तो अंग और अंडकोष सिकुड़ते हैं और न ही छोटे होते हैं. नसबंदी के चलते किसी भी तरह की जिस्मानी कमजोरी नहीं आती है. मर्द की मर्दानगी में कोई फर्क नहीं आता है. पतिपत्नी को जिस्मानी संबंधों में भी पहले जैसा ही मजा मिलता है.

मर्दों की नसबंदी बिना चीरे, बिना टांके के होती है. इस में सब से पहले अंडकोषों के ऊपर वाली खाल को एक सूई लगा कर सुन्न की गई खाल में एक खास चिमटी से एक बहुत बारीक सुराख करते हैं. ऐसा करने में न दर्द होता है और न ही खून निकलता है.

इस बारीक सुराख से उस नली को बाहर निकालते हैं जो अंडकोष से मर्दाना बीजों को पेशाब की नली तक पहुंचाती है. फिर इस नली को बीच से काट देते हैं. नली के कटे हुए दोनों छोरों को बांध कर उन का मुंह बंद कर देते हैं और अंडकोष वापस थैली के अंदर डाल देते हैं.

कम समय, आसान तरीका

नलियों को अंडकोष की थैली में वापस डालने के बाद सुराख पर डाक्टर टेप चिपका देते हैं. इस तरह खाल के लिए किए गए सुराख पर टांका लगाने की जरूरत भी नहीं पड़ती है. 3 दिन बाद वह सुराख खुद ही बंद हो जाता है. इस तरीके से नसबंदी करने में 5 से 10 मिनट का समय लगता है.

नसबंदी कराने के आधे घंटे बाद आदमी घर भी जा सकता है. 48 घंटे बाद वह सामान्य काम भी कर सकता है.

अगर नसबंदी के बाद 2 दिन तक लंगोट पहने रखें तो इस से अंडकोष को आराम मिलता है. 3 दिन सुराख पर टेप चिपकी रहनी चाहिए और जगह को गीला होने, मैल और खरोंच से बचाना चाहिए.

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नसबंदी कराने के अगले दिन आदमी नहा सकता है. इस जगह को गीला होने से बचा कर नहाएं. 3 दिन बाद अगर लगे कि सुराख बिलकुल ठीक हो गया है, तो टेप हटा कर उसे साबुन और पानी से धो लें.

किसी तरह की असुविधा से बचने के लिए नसबंदी के 7 दिन बाद ही साइकिल चलाएं. सुराख वाली जगह ठीक होने के बाद आदमी सैक्स संबंध भी बना सकता है.

सैक्स संबंधों में कमी नहीं

नसबंदी के बाद कम से कम 20 वीर्यपात या संभोगों तक आदमी कंडोम या उस की पत्नी दूसरे गर्भनिरोधक तरीके का इस्तेमाल जरूर करे. आपरेशन के 3 महीने बाद वीर्य की डाक्टरी जांच कराएं कि वह शुक्राणुरहित हो गया है या नहीं. वीर्य के शुक्राणुरहित पाए जाने के बाद सैक्स के लिए कंडोम या किसी दूसरे गर्भनिरोधक तरीके की जरूरत नहीं रहती है.

नसबंदी के बाद आदमी में किसी भी तरह की सैक्स समस्या नहीं आती है. वह पहले की ही तरह से सैक्स कर सकता है. आम लोगों को यह लगता है कि मर्दों की नसबंदी के बाद उन की सैक्स ताकत कम हो जाती है. यह बात पूरी तरह से गलत है.

नसबंदी करने से पहले यह देखा जाता है कि मर्द शादीशुदा हो. मर्द की उम्र 50 साल से कम और उस की पत्नी 45 साल से कम हो. पति या पत्नी दोनों में से किसी ने भी पहले नसबंदी न कराई हो या पिछली नसबंदी नाकाम हो गई हो. उस जोड़े का कम से कम एक जीवित बच्चा हो, उस की उम्र एक साल से ज्यादा हो. मर्द की दिमागी हालत ऐसी हो कि वह नसबंदी के नतीजों को सम झ सकता हो. उस ने नसबंदी कराने का फैसला अपनी इच्छा से और बगैर किसी दबाव के लिया हो.

नसबंदी कराने के लिए सरकारी अस्पताल से जानकारी ले सकते हैं. मर्दों की नसबंदी को बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रोत्साहन के रूप में पैसे भी देती है.

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