साल 2024 के चुनाव नतीजों में जो सब से बड़ी बात निकल कर सामने आई है, वह यह है कि देश की आम, गरीब, वंचित जनता ने भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व के नारे को सिरे से नकार दिया है. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, बिहार और महाराष्ट्र में, जहां के गरीब लोग सिर्फ रोजीरोटी की आस में सरकार की तरफ देखते हैं और अपने घरबार छोड़ कर परदेश में एक अदना सी नौकरी पाने के लालच में बिना कुछ सोचेसमझे निकल पड़ते हैं, उन्हें राम मंदिर, धारा 370, तीन तलाक, यूनिफार्म सिविल कोड, एक देश एक चुनाव जैसे मोदी की गारंटी वाले वादों से कुछ लेनादेना नहीं है.
इस का नतीजा भी देखने को मिला, जहां भारतीय जनता पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा. पंजाब में तो इस बार भाजपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई. हरियाणा में उस ने साल 2019 के चुनाव में 10 में से 10 सीटें जीती थीं, पर इस बार वह 5 सीटें गंवा बैठी.
यही हाल राजस्थान में रहा. भाजपा को 14 सीटें मिलीं. पिछली बार के मुकाबले 10 सीटें गंवाईं. महाराष्ट्र में 9 सीटें जीतीं और 14 सीटें गंवाईं. बिहार में 40 में से कुल 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5 सीटें गंवाईं.
उत्तर प्रदेश में तो भारतीय जनता पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. उसे वहां महज 33 सीटें ही मिलीं, जबकि उसे 29 सीटों का नुकसान हुआ.
इस प्रदेश में भाजपा को और ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता अगर बहुजन समाज पार्टी की मायावती अपने वोटरों से दगा न करतीं. इसे कुछ सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की जीत के अंतर से समझते हैं.
मेरठ से भारतीय जनता पार्टी के अरुण गोविल 10,585 वोटों से जीते थे. यहां बहुजन समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार देवव्रत कुमार त्यागी को 87,025 वोट मिले थे. अगर ये वोट समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को मिल जाते तो भाजपा का जीतना नामुमकिन था.
ऐसे ही अमरोहा में बहुजन समाज पार्टी को मिले वोटों ने भारतीय जनता पार्टी को जिताने का काम किया. वहां कांग्रेस के कुंअर दानिश अली 28,670 वोटों से हारे थे, जबकि बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार मुजाहिद हुसैन को 1,64,099 वोट मिले थे.
हम यह बात यहां इसलिए कह रहे हैं कि इस बार का वंचित तबका भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा में कहीं फिट नहीं बैठ रहा था. वैसे भी मायावती अब कांशीराम के विचारों पर नहीं आगे बढ़ रही हैं और उन्हें अपने दबेकुचले समाज की भी कोई परवाह नहीं दिखती है.
अगर इस बार बहुजन समाज पार्टी इंडी गठबंधन से तालमेल कर लेती तो उसे प्रदेश में सीटें भी मिलतीं और भारतीय जनता पार्टी का और ज्यादा बुरा हाल होता.
इस बार के चुनाव नतीजे इस लिहाज से भी माने रखते हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह देश को मंदिरमय कर के अपना हिंदुत्व का कार्ड खेलने की कोशिश की थी, उस की हवा निकल गई. ‘जो राम को लाए हैं, हम उन को लाएंगे’ जुमले ने लोगों में निराशा भर दी कि ये हैं कौन और इन की क्या हैसियत है, जो राम को लाएंगे?
जिस किसी ने अपने ईष्ट को मानना है वह उसे अपने घर में मंदिर तक सीमित रखना चाहता है. यह उस का निजी हक है. पुराने जमाने में ऐसा ही होता था. फिर धीरेधीरे कहींकहीं धार्मिक स्थल दिखाई देने लगे जो अकसर राहगीरों की सेवा करने या उन्हें आराम करने की जगह की तरह इस्तेमाल होते थे. चूंकि वहां ईश्वर का वास मान लिया जाता था, तो चोरीचकारी का डर भी कम ही रहता था. राहगीर इस मिली सेवा के बदले वहां की साफसफाई कर देते थे या दान में कुछ दे देते थे.
पर जब से धार्मिक स्थलों पर पैसे की बरसात होने लगी है, तब से ये कमाई के साधन बन गए हैं. दान के नाम पर लोगों को बहलायाफुसलाया जाने लगा है और इसे कमाई का धंधा बना लिया है. अब तो मंदिरों को भव्य बनाने के लिए कोरिडोर बनने लगे हैं.
भारतीय जनता पार्टी को लगा था कि अगर वह देश के बड़े मंदिरों को भव्य बना देगी तो उस का वोटबैंक मजबूत हो जाएगा और देशभर में मंदिरों के नाम पर राजनीति भी चमक जाएगी. वाराणसी, उज्जैन के बाद वह अयोध्या की तरफ गई और उसे ऐसे चमका दिया जैसे कोरोना के बाद भारत ने इतनी कमाई की है कि ऐसे पुण्य के काम तो होते रहने चाहिए.
पर मोदी सरकार यह भूल गई कि वह जिन 80 करोड़ भूखों को मुफ्त अनाज देने का दावा कर रही है, उन्हें इन भव्य मंदिरों से मिलेगा क्या? कोढ़ पर खाज यह रही कि देश में बढ़ती महंगाई पर केंद्र सरकार ने कोई रोक नहीं लगाई. भारतीय जनता पार्टी ने इसे कभी मुद्दा माना ही नहीं. उसे तो लग रहा था कि मंदिर चमका दो तो लोगों का पेट अपनेआप भर जाएगा.
पर हुआ क्या? अयोध्या को समाहित करने वाली फैजाबाद सीट पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार अवधेश प्रसाद ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार लल्लू सिंह को पटकनी दे दी. खुद नरेंद्र मोदी, जो वाराणसी से उम्मीदवार थे, की जीत का अंतर कम हो गया.
इस धार्मिक प्रपंच को एक उदाहरण से भी समझते हैं. 4 जून, 2024 की शाम. मेरी अपने औफिस की एक महिला साथी से लोकसभा चुनाव पर आ रहे नतीजों पर चर्चा हो रही थी. तब उन्होंने जो कहा, वह एक जागरूक वोटर के बड़े सटीक विचार थे. उन का मानना था कि यह सच है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत जरूर मिला है, पर यह उस ब्रांड पर करारी चोट है, जिसे मोदी के नाम का मुल्लमा चढ़ा कर जनता के सामने पेश किया गया.
फिर मैं ने सवाल किया कि भारतीय जनता पार्टी ने तो ‘इस बार 400 पार’ का नारा दिया था और ऐसा लग भी रहा था कि जनता सत्ता पक्ष को भरभर कर वोट देगी, इस के बावजूद राजग 300 सीटें भी क्यों नहीं पार कर पाया?
इस पर उन महिला साथी ने कहा, ”इन लोगों ने राम को राजनीति में घसीट दिया. मुझे राम मंदिर को चुनावी मुद्दा बनाना बिलकुल पसंद नहीं आया. इतना ही नहीं, इन लोगों ने अपने काम न गिना कर विपक्ष को कोसने का काम ज्यादा किया. शिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी वगैरह पर तो कोई बात ही नहीं की. मेरी नजर में इस चुनाव ने यह साबित कर दिया है कि मोदी और शाह की जोड़ी को हराना नामुमकिन नहीं है.”
कभीकभार एक वोटर के विचार पूरे देश का मिजाज बता देते हैं और सत्ता पक्ष पर इस तरह चोट करते हैं कि ‘सावधान हो जाओ, ‘डबल इंजन’ की सरकार को पटरी से उतारना कोई मुश्किल काम नहीं है’.
बेरोजगारों को छला
दूसरी तरफ, कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने इन चुनाव में नौकरियों की कमी का मुद्दा अच्छे ढंग से हैंडल किया. उन्होंने केंद्र सरकार की ‘अग्निवीर योजना’ को आड़े हाथ लिया. यह सच भी था कि देश के नौजवान नौकरी की कमी का दंश झेल रहे थे. उन्हें कांवड़ जैसी धार्मिक यात्राओं का भागीदार बनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, बल्कि वे चाहते थे एक अदद नौकरी.
कोरोना के बाद तो बेरोजगारों की फौज बढ़ती ही चली गई. कहीं चंद नौकरियों का इश्तिहार निकलता तो बेरोजगार नौजवानों के झुंड के झुंड उस तरफ दौड़ पड़ते. रेलों और बसों में धक्के खा कर सैंटर पर पहुंचते, तो पता चलता कि पेपर ही लीक हो गया है.
पर इन 10 सालों में भारतीय जनता पार्टी ने कभी रोजगार देने को बड़ी और ठोस पहल नहीं की. हां, सेना में भरती के नाम पर ‘अग्निवीर’ का कारतूस जरूर छोड़ा, पर वह फायरबैक कर गया. केंद्र सरकार के खुद के ही हाथ झुलस गए.
विपक्ष को ताने मारे
सत्ता पक्ष के प्रवक्ता से ले कर प्रधानमंत्री तक अपने काम गिनाने से ज्यादा विपक्ष के नेताओं पर निशाना साधते नजर आए और यही बात जनता जनार्दन को रास नहीं आई.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी के खिलाफ ‘शहजादा’ शब्द का कई बार इस्तेमाल किया और इसे हिंदूमुसलिम रंग देने की कोशिश की. उन्होंने यह शब्द इतनी बार बोला कि जनता ने राहुल गांधी को इस चुनाव का वाकई शहजादा बना दिया और इंडी गठबंधन को सरकार बनाने की दहलीज पर खड़ा कर दिया.
भारतीय जनता पार्टी ने पूरी कोशिश की कि वह विपक्ष को देश का दुश्मन और पाकिस्तान व चीन का एजेंट बता दे या कांग्रेस के घोषणापत्र पर मुसलिम लीग की छाप होने की बात कहे, पर यह भी जनता को रास नहीं आया.
इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर सत्ता में आने के बाद लोगों की संपत्ति छीन कर अल्पसंख्यकों देने की साजिश रचने का आरोप लगाया, लेकिन यह बात भी लोगों को हजम नहीं हुई.
मजदूरकिसान सब नाराज
नरेंद्र मोदी की सरकार ने हर किसी को नाराज किया, नाउम्मीद किया. कोरोना में मजदूर दरदर भटके, मर गए, खप गए, पर उन्हें राहत पहुंचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए. गरीब जमात की कहीं सुनवाई नहीं हुई.
एक मेहनती मजदूर को तो रहने के लिए घर और पीने के लिए पानी की सहूलियत मिल जाए, रोटी तो वह खुद ही कमा लेगा. पर तरक्की के नाम पर सरकार ने उसे घर से बड़ी सड़क तक पक्का खड़ंजा नहीं दिया, बल्कि ऐसे हाईवे बना दिए जो उस के किसी काम के नहीं. किसी बड़ी कार वाले के लिए ऐसे महंगे हाईवे पर जाने से उस का वक्त तो थोड़ा कम हो जाएगा, पर आम जनता तो अभी भी उन भीड़ भरी सड़कों पर चलती है, जहां उस के समय की कोई बचत नहीं होती है.
याद रहे कि केंद्र सरकार जब 3 कृषि कानून लाई थी तब किसान आंदोलन करने पर उतर आए थे और मजबूरी में मोदी सरकार को वे तीनों कानून वापस लेने पड़े थे. हालांकि, तब केंद्र सरकार ने किसान आंदोलन करने वाले लोगों को देश का दुश्मन साबित करने की कोशिश की थी, लेकिन कामयाब नहीं हो पाई थी. इस के बाद से उत्तर भारत के किसान सत्ता पक्ष से नाराज हो गया था.
होता भी क्यों नहीं, जब फसल ज्यादा उगा ली जाती है तो सरकार उसे कम दाम पर खरीदती है और अब भी उपज कम होती है तो विदेश से खरीदी कर ली जाती है. दोनों तरफ से किसान की मार होती है. लेकिन यह वर्ग आज भी बहुत बड़ा वोटर है और किसी की चूलें हिलाने की ताकत रखता है. उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के किसान तबके ने इस बार के चुनाव में भारतीय पार्टी को आईना दिखाया है.
कुलमिला कर इस लोकसभा चुनाव ने साबित कर दिया है कि लोकतंत्र में जनता से ऊपर कोई नहीं. कांग्रेस अभी खत्म नहीं हुई है. देश को तरक्की चाहिए, मंदिरमसजिद का पचड़ा नहीं. संविधान सब से ऊपर है, फिर चाहे कोई कितना ही 56 इंच का सीना फुला कर खड़ा हो जाए.
भारतीय जनता पार्टी को याद रखना चाहिए कि उस के घटक दलों जैसे जनता दल (यूनाइटेड), तेलुगु देशम पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), हिंदुस्तानी अवाम मोरचा (सैक्युलर) वगैरह ने कभी भी मंदिरमसजिद की राजनीति को हवा नहीं दी है. महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की शिव सेना जरूर अपने नाम से हिंदुत्ववादी पार्टी लगती है, पर उस ने भी कभी खुल कर भारतीय जनता पार्टी की धर्म से जुड़ी कट्टरता का समर्थन नहीं किया.
बहुत से नेता भाजपा के साथ जरूर हैं, पर उन की नीतियां और सोच भी तुष्टिकरण की नहीं हैं. मध्य प्रदेश में जो चुनावी नतीजे आए हैं, उन में शिवराज सिंह चौहान की छवि का बहुत बड़ा हाथ है. वे कई साल यहां के मुख्यमंत्री रहे हैं और किरार समुदाय से हैं. मतलब वे कर्मकांडी परिवार से नहीं हैं. इसी तरह वर्तमान मुख्यमंत्री डाक्टर मोहन यादव भी ओबीसी तबके से आते हैं.
ऐसे बहुत से नेताओं ने अपने काम के दम पर यह चुनाव जीता है खासकर एसीएसटी और ओबीसी तबके के नेताओं ने अपना वजूद अपने दम पर बनाया है और अब जब भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का कद घटा है, तो वे भी सोच रहे होंगे कि उन्हें आगे की अपनी राजनीति को क्या दिशा देनी है.