लोकसभा चुनाव 2024 : ‘डबल इंजन’ की सरकार पर जनता का ‘ब्रेकडाउन’

साल 2024 के चुनाव नतीजों में जो सब से बड़ी बात निकल कर सामने आई है, वह यह है कि देश की आम, गरीब, वंचित जनता ने भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व के नारे को सिरे से नकार दिया है. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, बिहार और महाराष्ट्र में, जहां के गरीब लोग सिर्फ रोजीरोटी की आस में सरकार की तरफ देखते हैं और अपने घरबार छोड़ कर परदेश में एक अदना सी नौकरी पाने के लालच में बिना कुछ सोचेसमझे निकल पड़ते हैं, उन्हें राम मंदिर, धारा 370, तीन तलाक, यूनिफार्म सिविल कोड, एक देश एक चुनाव जैसे मोदी की गारंटी वाले वादों से कुछ लेनादेना नहीं है.

इस का नतीजा भी देखने को मिला, जहां भारतीय जनता पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा. पंजाब में तो इस बार भाजपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई. हरियाणा में उस ने साल 2019 के चुनाव में 10 में से 10 सीटें जीती थीं, पर इस बार वह 5 सीटें गंवा बैठी.

यही हाल राजस्थान में रहा. भाजपा को 14 सीटें मिलीं. पिछली बार के मुकाबले 10 सीटें गंवाईं. महाराष्ट्र में 9 सीटें जीतीं और 14 सीटें गंवाईं. बिहार में 40 में से कुल 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5 सीटें गंवाईं.

उत्तर प्रदेश में तो भारतीय जनता पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. उसे वहां महज 33 सीटें ही मिलीं, जबकि उसे 29 सीटों का नुकसान हुआ.

इस प्रदेश में भाजपा को और ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता अगर बहुजन समाज पार्टी की मायावती अपने वोटरों से दगा न करतीं. इसे कुछ सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की जीत के अंतर से समझते हैं.

मेरठ से भारतीय जनता पार्टी के अरुण गोविल 10,585 वोटों से जीते थे. यहां बहुजन समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार देवव्रत कुमार त्यागी को 87,025 वोट मिले थे. अगर ये वोट समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को मिल जाते तो भाजपा का जीतना नामुमकिन था.

ऐसे ही अमरोहा में बहुजन समाज पार्टी को मिले वोटों ने भारतीय जनता पार्टी को जिताने का काम किया. वहां कांग्रेस के कुंअर दानिश अली 28,670 वोटों से हारे थे, जबकि बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार मुजाहिद हुसैन को 1,64,099 वोट मिले थे.

हम यह बात यहां इसलिए कह रहे हैं कि इस बार का वंचित तबका भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा में कहीं फिट नहीं बैठ रहा था. वैसे भी मायावती अब कांशीराम के विचारों पर नहीं आगे बढ़ रही हैं और उन्हें अपने दबेकुचले समाज की भी कोई परवाह नहीं दिखती है.

अगर इस बार बहुजन समाज पार्टी इंडी गठबंधन से तालमेल कर लेती तो उसे प्रदेश में सीटें भी मिलतीं और भारतीय जनता पार्टी का और ज्यादा बुरा हाल होता.

इस बार के चुनाव नतीजे इस लिहाज से भी माने रखते हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह देश को मंदिरमय कर के अपना हिंदुत्व का कार्ड खेलने की कोशिश की थी, उस की हवा निकल गई. ‘जो राम को लाए हैं, हम उन को लाएंगे’ जुमले ने लोगों में निराशा भर दी कि ये हैं कौन और इन की क्या हैसियत है, जो राम को लाएंगे?

जिस किसी ने अपने ईष्ट को मानना है वह उसे अपने घर में मंदिर तक सीमित रखना चाहता है. यह उस का निजी हक है. पुराने जमाने में ऐसा ही होता था. फिर धीरेधीरे कहींकहीं धार्मिक स्थल दिखाई देने लगे जो अकसर राहगीरों की सेवा करने या उन्हें आराम करने की जगह की तरह इस्तेमाल होते थे. चूंकि वहां ईश्वर का वास मान लिया जाता था, तो चोरीचकारी का डर भी कम ही रहता था. राहगीर इस मिली सेवा के बदले वहां की साफसफाई कर देते थे या दान में कुछ दे देते थे.

पर जब से धार्मिक स्थलों पर पैसे की बरसात होने लगी है, तब से ये कमाई के साधन बन गए हैं. दान के नाम पर लोगों को बहलायाफुसलाया जाने लगा है और इसे कमाई का धंधा बना लिया है. अब तो मंदिरों को भव्य बनाने के लिए कोरिडोर बनने लगे हैं.

भारतीय जनता पार्टी को लगा था कि अगर वह देश के बड़े मंदिरों को भव्य बना देगी तो उस का वोटबैंक मजबूत हो जाएगा और देशभर में मंदिरों के नाम पर राजनीति भी चमक जाएगी. वाराणसी, उज्जैन के बाद वह अयोध्या की तरफ गई और उसे ऐसे चमका दिया जैसे कोरोना के बाद भारत ने इतनी कमाई की है कि ऐसे पुण्य के काम तो होते रहने चाहिए.

पर मोदी सरकार यह भूल गई कि वह जिन 80 करोड़ भूखों को मुफ्त अनाज देने का दावा कर रही है, उन्हें इन भव्य मंदिरों से मिलेगा क्या? कोढ़ पर खाज यह रही कि देश में बढ़ती महंगाई पर केंद्र सरकार ने कोई रोक नहीं लगाई. भारतीय जनता पार्टी ने इसे कभी मुद्दा माना ही नहीं. उसे तो लग रहा था कि मंदिर चमका दो तो लोगों का पेट अपनेआप भर जाएगा.

पर हुआ क्या? अयोध्या को समाहित करने वाली फैजाबाद सीट पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार अवधेश प्रसाद ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार लल्लू सिंह को पटकनी दे दी. खुद नरेंद्र मोदी, जो वाराणसी से उम्मीदवार थे, की जीत का अंतर कम हो गया.

इस धार्मिक प्रपंच को एक उदाहरण से भी समझते हैं. 4 जून, 2024 की शाम. मेरी अपने औफिस की एक महिला साथी से लोकसभा चुनाव पर आ रहे नतीजों पर चर्चा हो रही थी. तब उन्होंने जो कहा, वह एक जागरूक वोटर के बड़े सटीक विचार थे. उन का मानना था कि यह सच है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत जरूर मिला है, पर यह उस ब्रांड पर करारी चोट है, जिसे मोदी के नाम का मुल्लमा चढ़ा कर जनता के सामने पेश किया गया.

फिर मैं ने सवाल किया कि भारतीय जनता पार्टी ने तो ‘इस बार 400 पार’ का नारा दिया था और ऐसा लग भी रहा था कि जनता सत्ता पक्ष को भरभर कर वोट देगी, इस के बावजूद राजग 300 सीटें भी क्यों नहीं पार कर पाया?

इस पर उन महिला साथी ने कहा, ”इन लोगों ने राम को राजनीति में घसीट दिया. मुझे राम मंदिर को चुनावी मुद्दा बनाना बिलकुल पसंद नहीं आया. इतना ही नहीं, इन लोगों ने अपने काम न गिना कर विपक्ष को कोसने का काम ज्यादा किया. शिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी वगैरह पर तो कोई बात ही नहीं की. मेरी नजर में इस चुनाव ने यह साबित कर दिया है कि मोदी और शाह की जोड़ी को हराना नामुमकिन नहीं है.”

कभीकभार एक वोटर के विचार पूरे देश का मिजाज बता देते हैं और सत्ता पक्ष पर इस तरह चोट करते हैं कि ‘सावधान हो जाओ, ‘डबल इंजन’ की सरकार को पटरी से उतारना कोई मुश्किल काम नहीं है’.

बेरोजगारों को छला

दूसरी तरफ, कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने इन चुनाव में नौकरियों की कमी का मुद्दा अच्छे ढंग से हैंडल किया. उन्होंने केंद्र सरकार की ‘अग्निवीर योजना’ को आड़े हाथ लिया. यह सच भी था कि देश के नौजवान नौकरी की कमी का दंश झेल रहे थे. उन्हें कांवड़ जैसी धार्मिक यात्राओं का भागीदार बनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, बल्कि वे चाहते थे एक अदद नौकरी.

कोरोना के बाद तो बेरोजगारों की फौज बढ़ती ही चली गई. कहीं चंद नौकरियों का इश्तिहार निकलता तो बेरोजगार नौजवानों के झुंड के झुंड उस तरफ दौड़ पड़ते. रेलों और बसों में धक्के खा कर सैंटर पर पहुंचते, तो पता चलता कि पेपर ही लीक हो गया है.

पर इन 10 सालों में भारतीय जनता पार्टी ने कभी रोजगार देने को बड़ी और ठोस पहल नहीं की. हां, सेना में भरती के नाम पर ‘अग्निवीर’ का कारतूस जरूर छोड़ा, पर वह फायरबैक कर गया. केंद्र सरकार के खुद के ही हाथ झुलस गए.

विपक्ष को ताने मारे

सत्ता पक्ष के प्रवक्ता से ले कर प्रधानमंत्री तक अपने काम गिनाने से ज्यादा विपक्ष के नेताओं पर निशाना साधते नजर आए और यही बात जनता जनार्दन को रास नहीं आई.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी के खिलाफ ‘शहजादा’ शब्द का कई बार इस्तेमाल किया और इसे हिंदूमुसलिम रंग देने की कोशिश की. उन्होंने यह शब्द इतनी बार बोला कि जनता ने राहुल गांधी को इस चुनाव का वाकई शहजादा बना दिया और इंडी गठबंधन को सरकार बनाने की दहलीज पर खड़ा कर दिया.

भारतीय जनता पार्टी ने पूरी कोशिश की कि वह विपक्ष को देश का दुश्मन और पाकिस्तान व चीन का एजेंट बता दे या कांग्रेस के घोषणापत्र पर मुसलिम लीग की छाप होने की बात कहे, पर यह भी जनता को रास नहीं आया.

इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर सत्ता में आने के बाद लोगों की संपत्ति छीन कर अल्पसंख्यकों देने की साजिश रचने का आरोप लगाया, लेकिन यह बात भी लोगों को हजम नहीं हुई.

मजदूरकिसान सब नाराज

नरेंद्र मोदी की सरकार ने हर किसी को नाराज किया, नाउम्मीद किया. कोरोना में मजदूर दरदर भटके, मर गए, खप गए, पर उन्हें राहत पहुंचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए. गरीब जमात की कहीं सुनवाई नहीं हुई.

एक मेहनती मजदूर को तो रहने के लिए घर और पीने के लिए पानी की सहूलियत मिल जाए, रोटी तो वह खुद ही कमा लेगा. पर तरक्की के नाम पर सरकार ने उसे घर से बड़ी सड़क तक पक्का खड़ंजा नहीं दिया, बल्कि ऐसे हाईवे बना दिए जो उस के किसी काम के नहीं. किसी बड़ी कार वाले के लिए ऐसे महंगे हाईवे पर जाने से उस का वक्त तो थोड़ा कम हो जाएगा, पर आम जनता तो अभी भी उन भीड़ भरी सड़कों पर चलती है, जहां उस के समय की कोई बचत नहीं होती है.

याद रहे कि केंद्र सरकार जब 3 कृषि कानून लाई थी तब किसान आंदोलन करने पर उतर आए थे और मजबूरी में मोदी सरकार को वे तीनों कानून वापस लेने पड़े थे. हालांकि, तब केंद्र सरकार ने किसान आंदोलन करने वाले लोगों को देश का दुश्मन साबित करने की कोशिश की थी, लेकिन कामयाब नहीं हो पाई थी. इस के बाद से उत्तर भारत के किसान सत्ता पक्ष से नाराज हो गया था.

होता भी क्यों नहीं, जब फसल ज्यादा उगा ली जाती है तो सरकार उसे कम दाम पर खरीदती है और अब भी उपज कम होती है तो विदेश से खरीदी कर ली जाती है. दोनों तरफ से किसान की मार होती है. लेकिन यह वर्ग आज भी बहुत बड़ा वोटर है और किसी की चूलें हिलाने की ताकत रखता है. उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के किसान तबके ने इस बार के चुनाव में भारतीय पार्टी को आईना दिखाया है.

कुलमिला कर इस लोकसभा चुनाव ने साबित कर दिया है कि लोकतंत्र में जनता से ऊपर कोई नहीं. कांग्रेस अभी खत्म नहीं हुई है. देश को तरक्की चाहिए, मंदिरमसजिद का पचड़ा नहीं. संविधान सब से ऊपर है, फिर चाहे कोई कितना ही 56 इंच का सीना फुला कर खड़ा हो जाए.

भारतीय जनता पार्टी को याद रखना चाहिए कि उस के घटक दलों जैसे जनता दल (यूनाइटेड), तेलुगु देशम पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), हिंदुस्तानी अवाम मोरचा (सैक्युलर) वगैरह ने कभी भी मंदिरमसजिद की राजनीति को हवा नहीं दी है. महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की शिव सेना जरूर अपने नाम से हिंदुत्ववादी पार्टी लगती है, पर उस ने भी कभी खुल कर भारतीय जनता पार्टी की धर्म से जुड़ी कट्टरता का समर्थन नहीं किया.

बहुत से नेता भाजपा के साथ जरूर हैं, पर उन की नीतियां और सोच भी तुष्टिकरण की नहीं हैं. मध्य प्रदेश में जो चुनावी नतीजे आए हैं, उन में शिवराज सिंह चौहान की छवि का बहुत बड़ा हाथ है. वे कई साल यहां के मुख्यमंत्री रहे हैं और किरार समुदाय से हैं. मतलब वे कर्मकांडी परिवार से नहीं हैं. इसी तरह वर्तमान मुख्यमंत्री डाक्टर मोहन यादव भी ओबीसी तबके से आते हैं.

ऐसे बहुत से नेताओं ने अपने काम के दम पर यह चुनाव जीता है खासकर एसीएसटी और ओबीसी तबके के नेताओं ने अपना वजूद अपने दम पर बनाया है और अब जब भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का कद घटा है, तो वे भी सोच रहे होंगे कि उन्हें आगे की अपनी राजनीति को क्या दिशा देनी है.

यह पौलिथीन आपके लिए जहर है!

Society News in Hindi: संपूर्ण दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक बार इस्तेमाल किए जाने वाली सभी प्रकार की प्लास्टिक हमारे लिए  जहर के समान है. लगभग 10 वर्षों से प्लास्टिक को लेकर वैज्ञानिक तथ्य सामने आ चुके हैं कि इसे जल्द से जल्द प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. इसमें रखा हुआ खाद्यान्न जहरीला हो जाता है. कई रोगों का कारण बनता है, यह सब मालूम होने के बावजूद हम प्लास्टिक का इस्तेमाल बेखौफ कर रहे हैं और अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं. अनेक प्रकार के रोगों की सौगात हमारे जीवन को दुश्वार कर रही है. यही नहीं यह प्लास्टिक मानव समाज के साथ-साथ पर्यावरण को भी नष्ट कर रही है और मासूम जानवरों पर भी यह प्लास्टिक कहर बनकर टूट रही है.

गाय के पेट से निकला प्लास्टिक

पौलीथिन का उपयोग  पर्यावरण के लिए घातक है, वहीं मनुष्य समाज के लिए जहरीला और जानलेवा साबित हो रहा है. इसे अनजाने में खाकर मवेशियों की भी असामयिक मौत की खबरें निरंतर आ रही हैं. ऐसा ही एक वाक्या छत्तीसगढ़ के धमतरी शहर से लगे ग्राम अर्जुनी कांजी हाउस में देखने को मिला. अर्जुनी के कांजी हाउस में ढाई साल की बछिया की मृत्यु प्लास्टिक का सेवन करने से हो गई. सहायक पशु शल्यज्ञ डा. टी.आर. वर्मा एवं उनकी टीम के द्वारा शव परीक्षण के दौरान पाया गया कि बछिया के उदर में  बड़ी मात्रा में पौलीथिन साबुत स्थिति में है.

साथ ही प्लास्टिक, रस्सी के गट्ठे के अलावा भी कुछ  वस्तुएं  पाई गईं. उप संचालक पशु चिकित्सा सेवाएं डौ. एम.एस. बघेल के बताते हैं कि लोग अनुपयोगी अथवा सड़े-गले भोजन को पौलीथिन में रखकर सड़क किनारे फेंक देते हैं, जिसे अनजाने में भोजन के साथ-साथ पौलीथिन को भी घुमंतू किस्म के लावारिस जानवर अपनी भूख मिटाने खा जाते हैं. प्लास्टिक से निर्मित पौलीथिन को मवेशी पचाने में असमर्थ होते हैं, जो आगे चलकर ठोस अपचनीय अपशिष्ट पदार्थ का रूप ले लेती है, जिसके कारण बाद में भारी तकलीफ होती है और उनकी मौत हो जाती है. प्रसिद्ध पशु प्रेमी निर्मल जैन बताते हैं गायों के पेट की अधिकांश जगह में पौलीथिन स्थायी रूप से रह जाती है जिससे पशु चाहकर भी अन्य प्रकार के भोजन को ग्रहण करने में असमर्थ  होता  है.

जिलाधिकारी  (आई ए एस) रजत बंसल ने उक्त घटना की जानकारी  मिलने पर संवेदनशीलता व्यक्त  करते हुए दु:ख व्यक्त कर  कहा – दैनिक जीवन में प्रतिबंधित प्लास्टिक थैलियों एवं कैरी बैग को पूर्णतः परित्याज्य करने आमजनता को प्रशासन के साथ आगे आना होगा. एक बात प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक से सिर्फ मानव जीवन, पर्यावरण को ही खतरा नहीं  है, बल्कि बेजुबान जानवर गाय, भैंस, बकरी की भी अकाल मृत्यु हो रही है.

प्लास्टिक की जगह जूट के बैग अपरिहार्य

पौलीथिन के स्थान पर जूट के बैग तथा गैर प्लास्टिक से निर्मित कैरी बैग का उपयोग करने एवं पैकेटों को ढके हुए डस्ट बिन में ही डालने की आवश्यकता है. देश परदेश के आवाम को चाहिए कि प्लास्टिक का जल्द से जल्द इस्तेमाल बंद कर दें. हम सरकार के आह्वान अथवा जागरूकता अभियान का इंतजार क्यों करें समझदारी इसी में है कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो.

इसके अलावा यह भी एक सच है कि पशु मालिक अपने मवेशियों को खुला छोड़ देते हैं परिणाम स्वरूप आवारा लावारिसों  की तरह घूमते हुए जानवर अनेक बीमारियों का शिकार हो रहा है. प्लास्टिक खाकर मौत का बुला रहा  है .अच्छा हो हम अपने जानवरों की रक्षा स्वयं करें और उसे कदापि खुला छोड़ने का स्वार्थ भरा कृत्य न करें, इससे पशुधन की हानि को रोका जा सकेगा, साथ ही सड़क दुर्घटनाएं घटित नहीं  होंगी.कहा जाता है कि भारतीय नागरिक परजब तलक कठोर दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाती, वह सही रास्ते पर नहीं आते हैं.

अभी हाल ही में मोटर यान अधिनियम लागू हुआ तो त्राहि-त्राहि मच गई, दस हजार से पचास हजार तक जुर्माने लगने लगे तो लोगों के दिमाग ठिकाने आ गए और घटनाक्रम सुर्खियों में आ गया. क्या सरकार को सड़कों पर घूमने वाले पशुओं के संदर्भ में भी ऐसे नियम कानून बनाने होंगे, क्या नियम बनने के बाद ही इस पर लगाम लग सकेगी, अच्छा हो, हम अपने पशुधन की रक्षा स्वयं करें और आदर्श नागरिक समाज बनाने में मदद करें.

गरीबों की मदद के नाम पर ढोंग हो रहा है

एक तरफ तो सरकार ने लगभग पूरे देश में पढ़ाई को निजी हाथों में दे कर बेहद महंगा बना दिया और दूसरी तरफ गरीबों की हाय को बंद कराने के नाम पर उन्हें ईडब्लूएस कोटे में 25 फीसदी सीटें दिलवा दीं. निजी स्कूल इन सीटों पर बच्चों को नहीं लेना चाहते क्योंकि एक तो इन बच्चों से फीस नहीं मिलती और दूसरे इन फटेहाल बच्चों से ऊंचे घरों से आए बच्चों की शान घटती है.

क्योंकि ईडब्लूएस कोटा हर स्कूल में है, इसे लागू न करने के बहाने ढूंढ़े जाते हैं और पते को वैरीफाई करना उन में से एक है. मेधावी पर ?ाग्गीझोंपड़ी में रहने वाले बच्चों के पते पक्के नहीं होते. जिस ?ाग्गी में वे रहते हैं, वह कब टूट जाए, कब इलाके का दादा उन्हें निकाल फेंके या कब मां या बाप की नौकरी छूट जाए और उन्हें मकान बदलना पड़े, कहा नहीं जा सकता. सही पता न होना एक बहाना मिल गया है स्कूलों को इन ईडब्लूएस (इकोनौमिकली वीकर सैक्शन) बच्चों को एडमिशन न देने का.

असल में बात यह है कि कोई नेता, कोई अफसर, कोई स्कूल मालिक नहीं चाहता कि नीची जातियों के बच्चे उन के स्कूलों में आएं. वे एक तो उन जातियों से आते हैं जिन्हें अछूत माना जाता रहा है और दूसरे वे बातबात पर स्कूल के प्रोग्रामों के लिए पैसे नहीं दे सकते. संगमरमर के फर्श पर वे सीमेंट का पैच लगते हैं और सब को चुभते हैं. अमीर घरों के बच्चों को इन गरीब बच्चों को परेशान करने के लिए भी लगाया जाता है पर चूंकि दमखम में ये हट्टेकट्टे होते हैं, कई बार उग्र हो उठते हैं और हंगामा खड़ा कर देते हैं, तो पते का बहाना बड़ा मौजूं है.

दिल्ली सरकार ने एक मामले में कोर्ट को कहा कि पते के नाम पर स्कूल एडमिशन देने से इनकार या पहले दिया एडमिशन रद्द नहीं कर सकता पर स्कूल के वकील अड़े हुए हैं कि पता जांचने का हक उन के पास है. यह तो उन इक्केदुक्के मामलों में है जिन में एडमिशन न देने या कैंसिल करने पर गरीब बच्चे के मांबाप कोर्ट चले गए. आमतौर पर तो उन के पास न अक्ल होती है, न पैसे कि अदालत में जाया जा सकता है.इन मांबाप को मालूम है कि अदालत तो फैसला देने में 4-5 साल लगा देती है और इतने में उन का बच्चा स्कूल की राह देखता हुआ जवान हो जाएगा, इसलिए वे चुपचाप सरकारी स्कूल में चले जाते हैं या घर बैठ जाते हैं.

सरकारी स्कूल वह मशीन है जहां गरीबों के बच्चों को उन की सही औकात बताई जाती है. यहां अध्यापक पढ़ाने नहीं, कमाने आते हैं या जाति का जहर घोलने. यहां हर टीचर द्रोणाचार्य होता है जो एकलव्य को हुनर सीखने नहीं देना चाहता या वह पंडित होता है जिस ने शंबूक के वेद पढ़ने पर एतराज जताया था.

पहला मामला महाभारत का है और दूसरा रामायण का. दोनों ग्रंथों में हिंदुओं के तरहतरह के भगवान हैं और सरकारी स्कूलों के टीचर निजी स्कूलों के टीचरों की तरह इन धर्मग्रंथों के हुक्म की तामील ही करते हैं– कुछ भी हो जाए, नीची जाति के लोगों के बच्चों को पढ़ने न दो. वे भगवा ?ांडा उठा लें, कांवड़ उठा लें, हिंदुत्व के नाम पर किसी का भी सिर फोड़ दें, सही है पर पढ़ लें, छीछी घोर कलयुग.
आज का हिंदुत्व असल में मुसलमानों के खिलाफ नहीं दलितों और शूद्रों के खिलाफ है. हिंदुत्ववादी जानते हैं कि मुसलमान तो मदरसों के चक्कर में पढ़लिख नहीं रहे और वे दलितों व शूद्रों को भी पढ़ने नहीं देना चाहते, इसलिए स्कूलों ने पढ़ाने या एडमिशन न देने के रोज नएनए बहाने ढूंढ़ लिए हैं.

नरेंद्र मोदी को परेशान कर रही है ओपोजिशन पार्टियां!

नरेंद्र मोदी ने कहा है कि ओपोजिशन उन्हें काम करने से रोक रही है और ओपोजिशन को चाहिए कि दल और नेता को जो भी कहें देश को न कहेंदेश के आड़े न आएं.
ईडीसीबीआईपुलिसबुल्डोजरभगवा भीड़ का सपोर्टविधायकों और सांसदों की खरीदफरोक्त सब तो देश के लिए हो रहा है न. जब सत्ताका दलसत्ता में बैठे लोग खुद का देश बता चुके हों तो क्या करा जाएयह वह क्यों बताएंगे.

हमारे पुराणों में भाइयों की हुई लड़ाई को आज धर्म की लड़ाई बताया जा रहा हैअपनी पत्नी को छुड़ाने की लड़ाई को सच की लड़ाई बताया जा रहा हैअपनी पत्नी को छुड़ाने की लड़ाई को सच की लड़ाई बताया जाता हैअमृत को निकालने पर बंटवारे में बेहमानी को देवताओं का कार्य बताया जाता हैकुंआरियों का मां बना देने को लीला बना दिया जाता हैअपने रिश्तेदारों को मारने की महिमा गाई जाती हैवहां सरकार को छलने वालों की कमियोंबेइमानियों को बताने वालों की अगर पार्टी और उस के नेता आने को देश मानना शुरू कर दिया जाए तो बड़ी बात नहीं है.

गांवों में आज भी सरपंच को परमेश्वर मानने की आदत डली हुई है. लोग विधायकोंसांसदों के पैर पूजते हैं क्योंकि वे तो साक्षात ईश्वर हैंदेश हैं. नरेंद्र मोदी जो कह रहे हैं वह मानसिकता हमारे यहां कूटकूट कर भरी है कि जो ऊंचा हैंऊंचे स्थान पर बैठा हैऊंचे कुल में पैदा में हुआ हैउस की सही गलत हर बात मानेखुद को देश के बराबर मान कर नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि सरकार का जो भी फैसला उन्होंने लिया वह देश का फैसला है और इस में कमियां निकालने या उस के पीछे नीयत का पर्दाफाश करना देशद्रोहसमाज द्रोह हैधर्मद्रोह है.

सत्ता इस तरह कुछ हाथों में सिमटती जा रही है कि किसी दूसरे की कोई पूछ ही न होकोई शंबूक न होकोई एकलव्य न हो. सारी समस्याओं के लिए पुराणों में देवता या वो इंद्र के पास पहुंचते थे या ब्रह्मïविष्णुमहेश के पास. आज भी क्या वही दोहराने की वकालत की जा रही है. दूसरी पाॢटयांप्रेसजज अगर सरकार की हां में हां न मिलाएं तो क्या वे देश के खिलाफ हैं. यह उस डैमोक्रेसी के खिलाफ  है जिस का सपना गांधी ने देखा थाउन आजादी के परवानों ने देखा था जिन्होंने अपने घर परिवार कुरवान किए.

आजादी के 75 साल वे जश्न में आजादी को सिर्फ  मूॢत की तरह पूजने के उकसाना आजादी आम आदमी के हाथों से छीन कर सरकारके हाथों में सौंपना है.

आदिवासियों पर जुल्म करती सरकार

देश में अपने हक बनाए रखना उतना ही मुश्किल हो रहा है जितना रोटी कमाना. सरकार की मशीन ऐंसी है कि अच्छेअच्छे हक मांगने वालों की कमर तोड़ देती है. आजकल पुलिस का हथकंडा है कि अगर कहीं जुर्म हुआ है तो किसी भी बेगुनाह को पकड़ कर जेल में ठूंस दो और खूब जुल्म करो. उस के घरवाले अपनेआप जुर्म करने वाले को पकड़ लाएंगे.

यदि असल गुनाहगार नहीं पकड़ा गया तो क्या, 5-7 साल बाद उसे कोई जज छोड़ेगा कि सुबूत तो हैं ही नहीं. बेगुनाह की ङ्क्षजदगी तो गई. 2017 में मध्यप्रदेश के कुरकापाल में माओवादियों ने एक हमला किया तो पुलिस ने गुनाहगारों के नाम पर 112 गरीब फटेहाल आदिवासियों को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया जिन्हें जुलाई 2022 में जज ने रिहा किया. इन में से एक मदकम हूंगा जब घर पहुं्र्रचा तो मां मिली, 2 में से एक बेटी मिली जिसे वह पहचान तक नहीं पाया. बीबी किसी और मर्द के साथ रहने चली गई जैसा उन की विरादरी में आम होता है.

आदिवासी क्या मांग रहे हैं. वे चाहते हैं कि जैसे ही रहे हैं, जीने दो पर देश के शासकों की उन की जमीनों पर नजर है, उन की मजूरी पर नजर है, उन की औरतों पर नजर है. जमीन छीन कर वहां या तो खनिज निकाले जाएंगे या खेत बनाए जाएंगे जिन में ये आदिवासी कम दाम पर मजूरी करेंगे, बाकी शहरों में जाएंगे. औरतें चकलाघरों में जाएंगी या ऊंचों के घरों में बर्तन साफ करेंगी.

आदिवासियों को पढ़ाने या सही धारा में डालने में न कांग्रेस ने कोई काम किया न भाजपा ने. ईसाई मिशनरी जरूर कुछ करते रहे जिस से घबरा कर संघ के लोग इन इलाकों में उन लोगों को अपने भगवान दे रहे हैं पर इन से काम वैसे ही लिया जाएगा जैसे राम रावण युद्ध में लिया गया था. लड़ाई जीतने के बाद बाली की फौज को घरों में भेज दिया गया. उन्हें कोई मुआबजा मिला हो, अयोध्या लाया गया हो ऐसा नहीं दिखता.

आज यही दिख रहा है. आदिवासी अगर आवाज उठाता है तो बंदूक के बल पर उस की आवाज दवाई जाती है. वह बंदूक का जवाब बंदूक से देने की कोशिश करता है तो पूरे गांव जला दिए जाते हैं.

अपने हकों को बचाना आदिवासी हो, आम मैदानी इलाकों के किसान हो, सोचने वाले हो, बड़ा मुश्किल होता जा रहा है. न्याय नाम की चीज देश में दिखावटी ज्यादा लगती है क्योंकि असल में सजा तो न्याय की देहरी तक पहुंचने से पहले दे दी जाती है. मुट्ठी भर जज बड़ी साजिशों का खजाना लिए सरकारी मशीनरी के सामने कहां टिक सकते है?

अगर देश में हरेक को न्याय चाहिए तो उसे आवाज उठाने के ढंग सीखने होंगे. संविधान में खुद ऐसे रास्ते हैं जिन्हें बाईपास किया जाता है पर रास्तों को खत्म नहीं किया जा पा रहा. उसी रास्ते पर चलना होगा. आदिवासी हो, सवर्णों की औरतें हो, पिछड़ों हों, दलित हों, अल्पसंख्यक हो, उन्हें अपने को बिकाऊ होने से बचना होगा. कुछ को प्रसाद के पकाने डाल कर जब तक खरीदा जा सकेगा. तब तक न उन का कल्याण होगा न देश का कल्याण होगा.

पुलिस जुल्म आज भी पूरी दुनिया पुराने धाॢमक युगों की तरह कायम है पर इसलिए कि दुनिया की बड़ी जनता आज भी धर्म के नाम पर सरकारें चुन रही हैं. जब तक यह होगा मदकम हूंगा की तरह के आदिवासी सालों साल जेलों में सड़ेंगे.

आईना: रंग बदलती भारतीय जनता पार्टी

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा पैगंबर मोहम्मद पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी और दिल्ली के मीडिया प्रमुख नवीन जिंदल की इसी तरह की टिप्पणी से नाराज खाड़ी देश कतर, कुवैत, ईरान और सऊदी अरब व पाकिस्तान के साथसाथ दुनियाभर के कई देशों ने आड़े हाथ लेते हुए भारतीय राजदूतों को तलब किया. इसी दबाव की वजह से भारतीय जनता पार्टी ने नूपुर शर्मा को निलंबित कर दिया, वहीं नवीन जिंदल को निष्कासित कर दिया. भाजपा को लगने लगा था कि हिंदूमुसलिम के बीच आपसी विवाद से ही उस का विकास हुआ है और आगे भी कामयाबी उसी से मिलेगी. इस के पहले विवादित बयान देने वाले लोगों को भाजपा सम्मानित करती रही है.

बहुत लोगों का कद भाजपा में इसलिए बढ़ता रहा कि वे विवादित बयान देने में माहिर थे, पर इन दोनों नेताओं पर भाजपा ने तत्काल क्यों ऐक्शन लिया? यह एक अहम सवाल है. खाड़ी देशों में भारतीय सामान का बहिष्कार किया जाने लगा. इन नेताओं के विवादित बयान की वजह से खाड़ी देशों में काम कर रहे गैरमुसलिम भारतीय प्रवासियों को वापस जाने की भी बात की जाने लगी. भारतीय राजदूतों से उन के देशों में जवाबतलब किया जाने लगा. इन देशों में गुजराती कारोबारियों का लगा पैसा खतरे में पड़ गया है. भाजपा सरकार सबकुछ बरदाश्त कर सकती है,

लेकिन अपने फाइनैंसर के पैसे को खतरे में नहीं डाल सकती. सऊदी अरब, जो तेल भेजता है, उस में से ज्यादातर तेल मुकेश अंबानी की जामनगर रिफाइनरी में प्रोसैस होता है. अडानी ने चावल कंपनी मोहसिन को खरीद लिया था. कोहिनूर राइस ब्रांड को भी खरीद लिया है. महंगा चावल तो बिरयानी बनाने के ही काम आएगा. अडानी ग्रुप पैक्ड फूड कहां ऐक्सपोर्ट करेगा? सब से ज्यादा खपत तो खाड़ी देशों में ही है. सब से ज्यादा निर्यात करने वाले गुजराती लोग ही हैं. हीरा कारोबारी भी अपने बड़ेबड़े दफ्तर मुंबई से उठा कर दुबई में शिफ्ट कर रहे हैं. ये कई वजहें हैं. जिन पूंजीपतियों के इशारे पर सरकार चल रही है, उन्हें किसी भी शर्त पर नाराज नहीं होना चाहिए.

इन्हीं वजहों से भाजपा ने आननफानन ही इन दोनों नेताओं पर कार्यवाही कर दी. अचानक इंटरनैशनल दबाव में ‘छप्पन इंच का सीना’ सिकुड़ कर 6 इंच का हो गया. सारी हेकड़ी निकल गई. भारतीय जनता पार्टी हिंदी, इंगलिश, उर्दू और तमिल हर भाषा के अखबारों में यह घोषणा करने लगी कि भारतीय जनता पार्टी सभी धर्मों की समान रूप से इज्जत करती है. भाजपा की अगुआई वाली सरकारें भी धर्मों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं करती हैं. सरकार की नजर में सब बराबर हैं. अखबारों में इन संदेशों को पढ़ कर लोग हंस रहे हैं और मखौल उड़ा रहे हैं कि इस देश का छोटा बच्चा भी जानता है कि भाजपा एक सांप्रदायिक पार्टी है, जो हिंदुत्व का राग अलाप कर अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति नफरत पैदा कर के सत्ता पर काबिज है.

भाजपा द्वारा इन दोनों नेताओं पर की गई कार्यवाही से इसी दल के कई नेता और कार्यकर्ता नाराज हैं. इस के लिए वे पार्टी आलाकमान को दोषी मान रहे हैं. इन नेताओं और कार्यकर्ताओं को जो पढ़ाया गया है, वह वही सीखे हैं. इन्होंने तो दूसरे धर्म वालों से नफरत करना ही सीखा है. आज मजबूरी में उन्हें अचानक अपने स्वार्थ में प्रेम का पाठ पढ़ाएंगे, तो वे उसे स्वीकार नहीं कर पाएंगे. इस मुद्दे पर प्रोफैसर राम अयोध्या सिंह कहते हैं कि नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल के संबंध में भाजपा या मोदी सरकार जो भी स्पष्टीकरण दे और अपनेआप को जितना भी धर्मनिरपेक्ष साबित करने की कोशिश करे, यह तो दिन की तरह साफ है कि संघ, भाजपा और मोदी सरकार अपने विचार, चरित्र, चेहरा, आचरण और राजनीतिक क्रियाकलापों से अंदर और बाहर से सौ फीसदी एक घनघोर सांप्रदायिक राजनीतिक दल और सरकार है.

संघ एक ऐसा सांस्कृतिक संगठन है, जो सबकुछ बंद दरवाजे के भीतर तय करता है और खुले रूप में भाजपा और अपनी सरकारों को करने की छूट भी देता है. अपने जन्म से ले कर अब तक संघ और भाजपा सांप्रदायिक रहे हैं और सांप्रदायिकता ही उन का बीजमंत्र रहा है. आजादी के बाद इस संगठन और इस से जुड़ी इकाइयां सांप्रदायिकता के लिए पूरे देश में जमीन तैयार करती रही हैं. अपनी विचारधारा को कई माध्यमों से लोगों तक ले जाने का काम कर रही हैं. संविधान, लोकतंत्र, तिरंगा और राष्ट्र की महान हस्तियों का अपमान इन का खुला एजेंडा रहा है. मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता और लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा इन के संज्ञान में नहीं है.

हिंदू राष्ट्र, हिंदुत्व और रामराज्य का सपना साकार करने के लिए ये लगातार कोशिश में लगे हुए हैं. वर्तमान संविधान की जगह जो संगठन ‘मनुस्मृति’ और वर्णव्यवस्था की वकालत करता हो, वह भला कैसे और कब से धर्मनिरपेक्ष हो गया? यह इन के गिरगिट की तरह रंग बदलने की असलियत है. शिक्षाविद गालिब साहब का कहना है कि इस देश के लोगों को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि कुछ विदेशी मुल्कों द्वारा विरोध करने से उग्र हिंदुत्ववादियों की राष्ट्र विरोधी, संविधान विरोधी और समाज विरोधी कारनामों पर रोक लगाई जा सकती है. इस का निदान तभी संभव है, जब इस देश के लोग लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करेंगे.

अतिक्रमण की समस्या सरकार की खुद की देन है

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली के बाद अब बिहार में शासक जो अपने को किसी पौराणिक चक्रवर्ती राजा से कम नहीं समझते, बुलडोजर ऐसे चला रहे हैं जैसे चतुरंगी सेनाएं चल रही हों. ऐसा एक दृश्य हौलीवुड की फिल्म ‘अवतार’ में है जब पृथ्वीवासी एक अन्य ग्रह में रह रहे लोगों की जमीन से खनिज निकालने के लिए विशाल बुलडोजर टाइप मशीनें ले कर चलते हैं. उन का उद्देश्य उस जमीन से नीले रंग के उन लंबे कान व पूंछ वाले आदिवासियों को हटाना ही नहीं था, उन्हें या तो गुलाम बनाना था या मार डालना था.

ये राज्य सरकारें और उन के अधीन काम करने वाले नगरनिगम भी बुलडोजरों के इस्तेमाल से पूरीपूरी कौमों को नष्ट करने की कोशिश में हैं. आज ये बुलडोजर मुसलमानों पर चल रहे हैं, आज सरकारी या पब्लिक जमीन पर अतिक्रमण पर चलाए जा रहे हैं, कल दूसरे विरोधियों पर नहीं चलेंगे, इस की क्या गारंटी है? महाभारत में बहुत से ऐसे अस्त्रों का बखान है जो झूठा ही सही, है, था शत्रुओं के लिए. उस समय के पौराणिक शत्रु दस्यु और दानव थे जो महाभारत के ही अनुसार लाखों में थे, उन के अपने राज्य भी थे.

लेकिन उन अस्त्रों का इस्तेमाल हुआ कहां. अर्जुन का गांडीव भाइयों पर चला. कर्ण का शक्ति शस्त्र घटोत्कच पर चला. कृष्ण का सुदर्शन चक्र शिशुपाल पर चला. ये सब एक ही घर के लोग थे. ये पराए नहीं थे, ये विदेशी नहीं थे, ये विधर्मी नहीं थे, ये नीची जाति वाले भी नहीं थे. ये एक परिवार के ही थे जिन से राज और संपत्ति को ले कर विवाद हुआ और दादा पर चले, चचेरे भाइयों पर चले, मामा पर चले, भतीजों पर चले, गुरुओं पर चले, पत्नियों, बहुओं, सगों पर चले.

ये बुलडोजर भी अपनों पर चल सकते हैं. पी. चिदंबरम जब गृह मंत्री और वित्त मंत्री थे तो उन्होंने बहुत से कठोर कानून बनवाए, ताकि देश में आर्थिक व शासकीय अनुशासन बने. इन कानूनों का इस्तेमाल उन्हीं के खिलाफ  106 दिन की जेल में किया गया जिस में कुछ दिन तो वे एक ऐसे कमरे में बंद रहे जिस में नहाने का गुसलखाना तक न था, ऐसी जेल में रहे जिस में पखाने में भी सीसीटीवी लगा था.

यह बुलडोजर संस्कृति कौनकहां चलाएगा, पता नहीं. बुलडोजर निर्माण के लिए है, विनाश के लिए नहीं. कुछ बनाने के लिए जमीन समतल करने के लिए है, तोड़ने के लिए नहीं. यह आधुनिक तकनीक का सिंबल है जिस पर चढ़ कर इंगलैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जौनसन भारत आने पर तसवीर खिंचवाते हैं, क्योंकि ज्यादातर बुलडोजर इंगलैंड की कंपनी जेसीबी की फैक्टरी से ही निकल कर आ रहे हैं.

निर्माण की चीज को तोड़ने का प्रयोग 1975-76 में संजय गांधी ने भी किया था और दिल्ली के तुर्कमान गेट के आसपास काफी इलाके में मुसलिम मकान तोड़े गए थे.

अतिक्रमण की समस्या सरकार की खुद की देन है. सरकारी अफसर पहले हफ्ता ले कर पटरियों, सड़कों, खाली पड़ी निजी या सरकारी जमीन पर कब्जा होने देते हैं और जब लोग वहां अपनी गृहस्थी जमा लेते हैं तो उन्हें डरानेधमकाने लगते हैं. सरकारों ने शहरी जमीनों पर तो नियंत्रण कर ही रखा है, शहर के बाहर खेती की जमीन पर मकान बनाने पर बीसियों कानून और भारी फीस लगा रखी है. जहां उन की कौड़ी नहीं लगती वहां काम शुरू होने से पहले वसूलना अन्याय और लूट है पर जो इस के खिलाफ बोलेगा उस के लिए न कानून है, न अदालत, न दलील, न वकील, बस फैसला वह भी बुलडोजर का.

निश्चित है कि ऐसी सरकारों का अंत पांडवों और कृष्ण जैसा होता है. इंदिरा गांधी को गोल्डन टैंपल में बुलडोजर चलाने की सजा मिली और राजीव गांधी को श्रीलंका में 3,000 तमिल टाइगर्स के खिलाफ  एक लाख इंडियन पीस कीपिंग फोर्स बुलडोजरों समेत भेजने की मिली.

किसान आत्महत्या कर रहे, मुख्यमंत्री मौन हैं!

छत्तीसगढ़ में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं सन् 2019 में 629 आत्महत्याओं में 233 किसान व खेतिहर मजदूर हैं जिन्होंने आत्महत्या की. और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल किसानों की कथित”आत्महत्या” पर मौन है आखिर क्यों?

पहला पक्ष- अभनपुर के विधायक पूर्व मंत्री धनेंद्र साहू ने कहा  किसान की मानसिक दशा ठीक नहीं थी, इसलिए आत्महत्या कर ली है. ऐसा ही तोरला गांव के सरपंच और सचिव ने अपने बयान में कहा है जिसका विरोध मृतक किसान के परिजनों ने किया.

दूसरा पक्ष – छत्तीसगढ़ सरकार के जांच टीम ने पाया फसल क्षति, कर्ज और भुखमरी का आत्महत्या से कोई संबंध नहीं. दरअसल सरकार किसान आत्महत्या मामलों को स्वतंत्र जांच एजेंसियों के मध्यम से नहीं कराना चाहती.

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तीसरा पक्ष – हमारे संवाददाता ने रायगढ़ ,जांजगीर और कोरबा के कई किसानों से चर्चा की और पाया सरकार की नीतियों और  नकली कीटनाशक दवाइयों के कारण वर्तमान में किसान बेहद क्षुब्ध अवसाद में हैं.

छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के अभनपुर तहसील के ग्राम तोरला के कृषक  प्रकाश तारक की आत्महत्या देशभर में सुर्खियों में रही. इसी तरह मुख्यमंत्री के गृह जिला दुर्ग में एक युवा किसान दुर्गेश निषाद किसान ने आत्महत्या कर ली है.

यहां उल्लेखनीय है कि जब भी कोई किसान  आत्महत्या करता है तो सरकार यही कहती है कि इसमें हमारी नीतियों का कोई लेना देना नहीं है. यह किसान के परिवारिक और व्यक्तिगत कारण से हुआ है. वहीं विपक्ष हमेशा यही कहता है कि यह सरकार की नीतियों के कारण आत्महत्या हुई है. वही चौथा स्तंभ प्रेस मीडिया सच को दिखाने का प्रयास करता है.

छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की सरकार हो अथवा डॉक्टर रमन सिंह की 15 वर्ष की लंबी अवधि की भाजपा सरकार. प्रत्येक सरकार के समय काल में किसान लगातार आत्महत्या करते रहे हैं. यह मामले राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में बने, मगर सरकार ने हर दफा यही कहा कि हम तो बेदाग है. तो आखिर सरकार के  कोशिशों के बाद किसान आत्महत्या क्यों कर लेता है? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब अगर आप गांव के चौराहे और चौपाल पर पहुंचे तो आसानी से मिल सकता है. मगर सरकार का दावा यही रहता है कि इसमें हमारी छोटी सी भी खामी नहीं है. आज हम इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के किसानों के हालात पर और सरकार की नीति की खामियों पर आपको महत्वपूर्ण तथ्य बताने जा रहे हैं-

भूपेश बघेल का सरकारी ढोल..

किसान की आत्महत्या के संदर्भ में कलेक्टर रायपुर द्वारा अधिकारियों की गठित जांच टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया कि कृषक  प्रकाश तारक की आत्महत्या का फसल क्षति, कर्ज और भुखमरी से कोई संबंध नहीं है. मृतक ने मानसिक अवसाद के चलते फांसी लगाकर आत्महत्या की है. अनुविभागीय दण्डाधिकारी अभनपुर, तहसीलदार एवं नायब तहसीलदार अभनपुर ने अपने संयुक्त जांच प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया है. फसल बर्बाद होने से निराश किसान  प्रकाश तारक द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबरों को जांच टीम ने बेबुनियाद बताया है नाराजगी व्यक्त करते हुए कड़ी प्रतिक्रिया  व्यक्त की है.

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सनद रहे कि कृषक  प्रकाश तारक द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या किए जाने के मामले की कलेक्टर रायपुर ने एसडीएम अभनपुर के नेतृत्व में एक संयुक्त टीम गठित कर इसकी जांच कराई है. अधिकारियों की संयुक्त टीम ने ग्राम तोरला पहुंचकर मृतक के परिजनों, ग्रामीणों एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों के बयान लिए और मृतक की परिवारिक स्थिति के बारे में भी जानकारी ली.अधिकारियों की संयुक्त टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मृतक प्रकाश तारक की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी.  अधिकारियों की संयुक्त टीम ने ग्राम तोरला में ग्रामवासियों, हल्का पटवारी, जन प्रतिनिधियों और मृतक परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में जांच कर पंचनामा तैयार किया.

अनुविभागीय दण्डाधिकारी अभनपुर और अधिकारियों की संयुक्त टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में मृतक की पत्नी  दुलारी बाई के शपथपूर्वक कथन में बताई गई बातों का उल्लेख करते हुए कहा है कि मृतक को कोई परेशानी नहीं थी न ही उसके उपर कोई कर्ज था, न ही किसी के द्वारा उसको परेशान एवं धमकाया जा रहा था. खेत में लगी फसल की स्थिति सामान्य है। मृतक फसल की कटाई करने के लिए खेत गया हुआ था. मृतक की पत्नी ने अपने बयान में यह भी कहा है कि उसके पति बीते कुछ दिनों से गुमसुम रहा करते थे। तोरला गांव के सरपंच और सचिव ने अपने प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मृतक की बीते तीन-चार महीनों से मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी. वह गुमसुम रहता था.किसी से कोई बात-चीत नहीं करता था. पूछने पर दवाई लेता हूं, यह कहता था. मृतक के परिवार को शासकीय उचित मूल्य दुकान से नियमित रूप से चावल प्रदाय किया जाता रहा है परिवार में भुखमरी की कोई नौबत नहीं है. हल्का पटवारी ने अपने रिपोर्ट में मृतक  प्रकाश तारक के फसल की स्थिति को सामान्य बताया है. ग्रामीणों एवं जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति में तैयार किए गए पंचनामा के आधार पर जांच अधिकारियों की संयुक्त टीम ने मृतक पर कोई कर्ज न होने, उसके परिवार को नियमित रूप से पीडीएस का राशन मिलने, उसके गुमसुम तथा अवसाद से ग्रसित होने का उल्लेख किया है.

जांच अधिकारियों की संयुक्त टीम ने मृतक की पत्नी  दुलारी बाई, परिवार के अन्य सदस्यों, ग्राम के कोटवार के शपथ पूर्व कथन तथा गोबरा नवापारा थाना में कायम मर्ग तथा विवेचना में इस बात का उल्लेख है कि मानसिक बीमारी से दुखी होकर मृतक प्रकाश तारक ने आत्महत्या की है. वस्तुतः सरकार के कारिंदों द्वारा जारी की गई जांच रिपोर्ट पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस तरह किसान की आत्महत्या को झुठलाया जा रहा है.

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सरकार का “सफेद झूठा” होना

यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किसान प्रकाश के परिजन क्षेत्रीय विधायक व पूर्व मंत्री धनेंद्र साहू से बेहद नाराज हैं जिन्होंने सबसे पहले यह कहा कि प्रकाश मानसिक रूप सेअवसाद ग्रस्त था. और साफ साफ कह रहे हैं कि ऐसी कोई बात नहीं थी. सवाल यह है कि सरकार अपने शासकीय अमले से किसान की आत्महत्या की जांच क्यों करवाती है.क्यों नहीं किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी के द्वारा किसान की आत्महत्या की सच्चाई को जानने का प्रयास किया जाता इसे हेतु “न्यायिक जांच” भी गठित की जा सकती है अथवा विपक्ष को भी जांच का अधिकार दिया जाना चाहिए. मगर कोई भी सरकार किसान आत्महत्या के मामले में सिर्फ अपने अधीनस्थ एसडीएम, कलेक्टर अथवा पटवारी से जांच करवा कर मामले की इतिश्री कर लेती है. और इस तरह किसान की आत्महत्या की सच्चाई को दबा दिया जाता है. अगर सरकार किसानों की हितैषी है जैसा कि वह हमेशा ढोल बजाते जाती है छत्तीसगढ़ में तो प्रति क्विंटल 25 सो रुपए धान का मूल्य दिया जा रहा है करोड़ों रुपए विज्ञापन पर खर्च किए जाते हैं और यह प्रचार प्रसार किया जाता है कि भूपेश बघेल की सरकार किसानों की हितैषी सरकार है, ऐसे में कोई किसान आत्महत्या कर ले तो यह सरकार के सफेद कपड़े पर एक काला दाग बन कर उभर आता है. शायद यही कारण है कि

अनुविभागीय दण्डाधिकारी, अभनपुर ने बताया कि मृतक मृतक के परिवार में उसकी पत्नी और 4 बच्चे है. संयुक्त परिवार बंटवारा में प्राप्त 1.79 हेक्टेयर भूमि में  प्रकाश तारक कृषि करता था. उसे मनरेगा से जॉब कार्ड भी मिला है. पारिवारिक बंटवारा में उसे तीन कमरा और एक किचन वाला मकान मिला है. मृतक के उपर कोई कर्ज नहीं था। उसके परिवार को नियमित रूप से शासकीय उचित मुल्य दुकान से चावल मिल रहा था. परिवार में भुखमरी की नौबत नहीं है. मृतक के घर से 1 कट्टा धान शासकीय उचित मूल्य दुकान से प्राप्त चावल पाया गया. हल्का पटवारी के अनुसार फसल की स्थिति सामान्य है.समिति के माध्यम से पिछले खरीफ धान विक्रय के दौरान मृतक के  सम्मिलात खाते में 105 क्विटल धान बेचा था. जिसके एवज में एक लाख 83 हजार की राशि मिली थी.

गांव गांव के किसान हलाकान!

हमारे संवाददाता की जमीनी रिपोर्ट यह बताती है कि छत्तीसगढ़ के अनेक गांवों में किसान  नकली कीटनाशक दवाइयों के कारण त्रासदी भोग रहे हैं.

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यह पहली बार हुआ है कि 1 एकड़ के कृषि में किसान को पांच हजार रुपए के कीटनाशक दवाइयों की जगह लगभग 12000  रूपए  कीटनाशकों पर खर्च करना पड़ रहा है. मगर इसके बावजूद  कीट रातों-रात खेतों को सफाचट कर रहे हैं, किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि यह सब क्या हो रहा है. हमारे संवाददाता ने रायगढ़ के जोबी गांव के किसान कृपाराम राठिया, कोरबा जिला के ग्राम मुकुंदपुर के शिवदयाल कंवर, राम लाल यादव, तरुण कुमार देवांगन से चर्चा की तो यह तथ्य सामने आया कि सत्र 2019 -20 में किसानों के कीटनाशकों के खरीदी में बेइंतेहा पैसे खर्च हुए हैं इसके बावजूद खेतों में कीट रातो रात फसल को साफ कर रहे हैं. जिससे किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है. जानकार सूत्रों के अनुसार छत्तीसगढ़ में नकली कीटनाशक दवाइयों की बिक्री जोरों पर है जिससे किसान लूटे जा रहे हैं, बर्बाद हो रहे हैैं. सरकार कोई एक्शन नहीं ले  रही है. परिणाम स्वरूप किसान आत्महत्या करने के कगार पर है.

बिहार में का बा : लाचारी, बीमारी, बेरोजगारी बा

जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के नाम अपने संदेश में लोगों को कोरोना से बचने के लिए आगाह कर रहे थे, उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा बिहार विधानसभा चुनाव के सिलसिले में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. उस भीड़ में न मास्क था और न ही आपस में 2 गज की दूरी. इसी साल के मार्च महीने में जब कोरोना की देश में आमद हो रही थी, तब 2,000 लोगों के जमातीय सम्मेलन को कोरोना के फैलने की वजह बता कर बदनाम किया गया था, पर अब बिहार चुनाव में लाखों की भीड़ से भी कोई गुरेज नहीं है.

बिहार चुनाव इस बार बहुत अलग है. नीतीश कुमार अपने 15 साल के सुशासन की जगह पर लालू प्रसाद यादव के 15 साल के कुशासन पर वोट मांग रहे हैं. इस के उलट बिहार के 2 युवा नेताओं चिराग पासवान और तेजस्वी यादव ने बड़ेबड़े दलों के समीकरण बिगाड़ दिए हैं.

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बिहार चुनाव में युवाओं की भूमिका अहम है. बिहार में बेरोजगारी सब से बड़ा मुद्दा बन गई है. एक अनजान सी गायिका नेहा सिंह राठौर ने ‘बिहार में का बा’ की ऐसी धुन जगाई है कि भाजपा जैसे बड़े दल को बताना पड़ रहा है कि ‘बिहार में ई बा’ और नीतीश कुमार अपने काम की जगह लालू के राज के नाम पर वोट मांग रहे हैं.

बिहार की चुनावी लड़ाई अगड़ों की सत्ता को मजबूत करने के लिए है. एससी तबके की अगुआई करने वाली लोक जनशक्ति पार्टी को राजग से बाहर कर के सीधे मुकाबले को त्रिकोणात्मक किया गया है, जिस से सत्ता विरोधी मतों को राजदकांग्रेस गठबंधन में जाने से रोका जा सके.

जिस तरह से नीतीश कुमार का इस्तेमाल कर के पिछड़ों की एकता को तोड़ा गया, अब चिराग पासवान को निशाने पर लिया गया है, जिस से कमजोर पड़े नीतीश कुमार और चिराग पासवान पर मनमाने फैसले थोपे जा सकें.

बिहार चुनाव में अगर भाजपा को पहले से ज्यादा समर्थन मिला, तो वह तालाबंदी जैसे फैसले को भी सही साबित करने की कोशिश करेगी. बिहार को हिंदुत्व का नया गढ़ बनाने का काम भी होगा.

बिहार के चुनाव में जातीय समीकरण सब से ज्यादा हावी होते हैं. यह कोई नई बात नहीं है. आजादी के पहले से ही यहां जातीयता और राजनीति में चोलीदामन का साथ रहा है. 90 के दशक से पहले यहां की राजनीति पर अगड़ों का कब्जा रहा है.

लालू प्रसाद यादव ने मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीति की दिशा को बदल दिया था. अगड़ी जातियों ने इस के खिलाफ साजिश कर के कानून व्यवस्था का मामला उठा कर लालू प्रसाद यादव के राज को ‘जंगलराज’ बताया था. उन के सामाजिक न्याय को दरकिनार किया गया था.

पिछड़ी जातियों में फूट डाल कर नीतीश कुमार को समाजवादी सोच से बाहर कर के अगड़ी जातियों के राज को स्थापित करने में इस्तेमाल किया गया था. बिहार की राजनीति के ‘हीरो’ लालू प्रसाद यादव को ‘विलेन’ बना कर पेश किया गया था.

भारतीय जनता पार्टी को लालू प्रसाद यादव से सब से बड़ी दुश्मनी इस वजह से भी है कि उन्होंने भाजपा के अयोध्या विजय को निकले रथ को रोकने का काम किया था. साल 1990 में जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ ले कर भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी निकले, तो उन को बिहार में रोक लिया गया.

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भाजपा को लालू प्रसाद यादव का यह कदम अखर गया था. केंद्र में जब भाजपा की सरकार आई, तो लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में उल झाया गया और इस के सहारे उन की राजनीति को खत्म करने का काम किया गया.

लालू प्रसाद यादव के बाद भी बिहार की हालत में कोई सुधार नहीं आया. बिहार में पिछले 15 साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इस के बाद भी बिहार बेहाल है.

साल 2020 के विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव का ‘सामाजिक न्याय’ भी बड़ा मुद्दा है. लालू प्रसाद यादव भले ही चुनाव मैदान में नहीं हैं, पर उन का मुद्दा चुनाव में मौजूद है.

नई पीढ़ी का दर्द

तालाबंदी के बाद मजदूरों का पलायन एक दुखभरी दास्तान है. नई पीढ़ी के लोगों को यह दर्द परेशान कर रहा है. नौजवान सवाल कर रहे हैं कि 15 साल तक एक ही नेता के मुख्यमंत्री रहने के बाद भी बिहार की ऐसी हालत क्यों है? अब उसी नेता को दोबारा मुख्यमंत्री पद के लिए वोट क्यों दिया जाए?

मुंबई आ कर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग अपनी रोजीरोटी के लिए तिलतिल मरते हैं. अगर उन के प्रदेशों में कामधंधा होता, रोजीरोटी का जुगाड़ होता, तो ये लोग अपने प्रदेश से पलायन क्यों करते?

फिल्म कलाकार मनोज बाजपेयी ने अपने रैप सांग ‘मुंबई में का बा…’ में मजदूरों की हालत को बयां किया है.  5 मिनट का यह गाना इतना मशहूर  हुआ कि अब बिहार चुनाव में वहां की जनता सरकार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’.

दरअसल, बिहार में साल 2005 से ले कर साल 2020 तक पूरे 15 साल नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रहे हैं. केवल एक साल के आसपास जीतनराम मां झी मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ पाए थे, वह भी नीतीश कुमार की इच्छा के मुताबिक.

किसी भी प्रदेश के विकास के लिए 15 साल का समय कम नहीं होता. इस के बाद भी बिहार की जनता नीतीश कुमार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’ यानी बिहार में क्या है?

तालाबंदी के दौरान सब से ज्यादा मजदूर मुंबई से पलायन कर के बिहार आए. 40 लाख मजदूर बिहार आए. इन में से सभी मुंबई से नहीं आए, बल्कि कुछ गुजरात, पंजाब और दिल्ली से भी आए.

ये मजदूर यह सोच कर बिहार वापस आए थे कि अब उन के प्रदेश में रोजगार और सम्मान दोनों मिलेंगे. यहां आ कर मजदूरों को लगा कि यहां की हालत खराब है. रोजगार के लिए वापस दूर प्रदेश ही जाना होगा. बिहार में न तो रोजगार की हालत सुधरी और न ही समाज में मजदूरों को मानसम्मान मिला.

बीते 15 सालों में बिहार की  12 करोड़, 40 लाख आबादी वाली जनता भले ही बदहाल हो, पर नेता अमीर होते गए हैं. बिहार में 40 सांसद और 243 विधायक हैं. इन की आमदनी बढ़ती रही है. पिछले 15 सालों में  85 सांसद करोड़पति हो गए और 468 विधायक करोड़पति हो गए.

मनरेगा के तहत बिहार में औसतन एक मजदूर को 35 दिन का काम मिलता है. अगर इस का औसत निकालें तो हर दिन की आमदनी 17 रुपए रोज की बनती है. राज्य में गरीब परिवारों की तादाद बढ़ती जा रही है.

गरीबी रेखा से नीचे यानी बीपीएल परिवारों की तादाद तकरीबन 2 करोड़, 85 लाख है. नीतीश कुमार के 15 सालों में गरीबों की तादाद बढ़ी है और नेताओं की आमदनी बढ़ती जा रही है.

जंगलराज या सामाजिक न्याय

मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीतिक और सामाजिक हालत में आमूलचूल बदलाव हुआ. लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय के पुरोधा बन कर उभरे. उन के योगदान को दबाने का काम किया गया.

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साल 1990 से साल 2020 के  30 सालों में बिहार पर दलितपिछड़ा और मुसलिम गठजोड़ राजनीति पर हावी रहा है. अगड़ी जातियों का मकसद है कि  30 सालों में जो उन की अनदेखी हुई, अब वे मुख्यधारा का हिस्सा बन जाएं.

भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में अगड़ी जातियां काफीकुछ अपने मकसद में कामयाब भी हो गई हैं. बिहार में भाजपा का युवा शक्ति के 2 नेताओं तेजस्वी यादव और चिराग पासवान से सीधा मुकाबला है.

भाजपा के पास बिहार में कोई चेहरा नहीं है, जिस के बल पर वह सीधा चुनाव में जा सके. सुशील कुमार मोदी भाजपा का पुराना चेहरा हो चुके हैं.

विरोधी मानते हैं कि बिहार में लालू प्रसाद यादव के समय जंगलराज था. जंगलराज का नाम ले कर लोगों को डराया जाता है कि लालू के आने से बिहार में जंगलराज की वापसी हो जाएगी.

राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘मंडल कमीशन के बाद वंचितों को न्याय और उन को बराबरी की जगह दे कर सामाजिक न्याय दिलाने का काम किया गया था. अब आर्थिक न्याय देने की बारी है.

‘जो लोग जंगलराज का नाम ले कर बिहार की छवि खराब कर रहे हैं, वे बिहार के दुश्मन हैं. इन के द्वारा बिहार की छवि खराब करने से यहां पर निवेश नहीं हो रहा. लोग डर रहे हैं. अब हम आर्थिक न्याय दे कर नए बिहार की स्थापना के लिए काम करेंगे.’

वंचितों के नेता

लालू प्रसाद यादव की राजनीति को हमेशा से जातिवादी और भेदभावपूर्ण बता कर खारिज करने की कोशिश की गई. लालू प्रसाद यादव अकेले नेता नहीं हैं, जिन को वंचितों के हक की आवाज उठाने पर सताया गया हो. नेल्सन मंडेला, भीमराव अंबेडकर, मार्टिन लूथर किंग जैसे अनगिनत उदाहरण पूरी दुनिया में भरे पड़े हैं.

लालू प्रसाद यादव सामंतियों के दुष्चक्र के शिकार हुए, जिन की वजह से उन का राजनीतिक कैरियर खत्म करने की कोशिश की गई. इस के बाद भी लालू प्रसाद यादव के योगदान से कोई इनकार नहीं किया जा सकता है.

लालू प्रसाद यादव साल 1990 से साल 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे. साल 2004 से साल 2009 तक उन्होंने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग सरकार में रेल मंत्री के रूप में काम किया.

बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो अदालत ने 5 साल के कारावास की सजा सुनाई. चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद उन्हें लोकसभा से अयोग्य ठहराया गया.

लालू प्रसाद यादव मंडल विरोधियों के निशाने पर थे. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि साल 1990 में लालू प्रसाद यादव ने राम रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया.

मंडल विरोधी भले ही लालू प्रसाद यादव के राज को जंगलराज बताते थे, पर सामाजिक मुद्दे के साथसाथ आर्थिक मोरचे पर भी लालू सरकार की तारीफ होती रही है.

90 के दशक में आर्थिक मोरचे पर विश्व बैंक ने लालू प्रसाद यादव के काम की सराहना की. लालू ने शिक्षा नीति में सुधार के लिए साल 1993 में अंगरेजी भाषा की नीति अपनाई और स्कूल के पाठ्यक्रम में एक भाषा के रूप में अंगरेजी को बढ़ावा दिया.

राजनीतिक रूप से लालू प्रसाद यादव के जनाधार में एमवाई यानी मुसलिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है. लालू ने इस से कभी इनकार भी नहीं किया है.

साल 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री बने. उन के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई.

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भारत के सभी प्रमुख प्रबंधन संस्थानों के साथसाथ दुनियाभर के बिजनैस स्कूलों में लालू प्रसाद यादव के कुशल प्रबंधन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया.

अगड़ी जातियों की वापसी

राजनीतिक समीक्षक अरविंद जयतिलक कहते हैं, ‘जनता यह मानती है कि राज्य की कानून व्यवस्था अच्छी रहे. यही वजह है कि लालू प्रसाद यादव के विरोधियों ने उन की पहचान को जंगलराज से जोड़ कर प्रचारित किया. उन के प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार के राज को सुशासन कहा गया.

‘इसी मुद्दे पर ही नीतीश कुमार हर बार चुनाव जीतते रहे और 15 साल तक मुख्यमंत्री बने रहे. लालू प्रसाद यादव ने जो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी और जो आर्थिक सुधारों के लिए काम किया, उस की चर्चा कम हुई.

‘लालू प्रसाद यादव की आलोचना में विरोधी कामयाब रहे. बहुत सारे काम करने के बाद भी लालू यादव को जो स्थान मिलना चाहिए था, नहीं मिला.’

बिहार में तकरीबन 20 फीसदी अगड़ी जातियां हैं. पिछड़ी जातियों में 200 के ऊपर अलगअलग बिरादरी हैं. इन में से बहुत कोशिशों के बाद कुछ जातियां ही मुख्यधारा में शामिल हो पाई हैं. बाकी की हालत जस की तस है. इन में से 10 से 15 फीसदी जातियों को ही राजनीतिक हिस्सेदारी मिली है.

1990 के पहले बिहार की राजनीति में कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय और भूमिहार प्रभावी रहे हैं. दलितों की हालत भी बुरी है. बिहार की आबादी का 16 फीसदी दलित हैं. अगड़ी जातियों ने दलितों में खेमेबंदी को बढ़ावा देने का काम किया है.

साल 2005 में भाजपा और जद (यू) ने अगड़ी जातियों को सत्ता में वापस लाने का काम किया. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अब नीतीश कुमार को भी दरकिनार करने की कोशिश कर रही है.

मरवाही : भदेस राजनीति की ऐतिहासिक नजीर

राजनीति में कहा जाता है, सब कुछ संभव है .मगर छत्तीसगढ़ के बहुप्रतीक्षित और बहुप्रतिष्ठित “मरवाही उपचुनाव” में सत्तारूढ़ कांग्रेस के मुखिया भूपेश बघेल ने जिस राजनीति का चक्रव्यू बुना है, वैसा शायद इतिहास में कभी नहीं देखा गया . आज हालात यह है कि अमित जोगी का मामला देश के उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुका अगर यहां अमित जोगी को किंचित मात्र भी राहत मिल जाती है तो यह मामला देश भर में चर्चा का विषय बनने के साथ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कार्यशैली पर भी एक प्रश्नचिन्ह बन कर खड़ा हो सकता है.

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यह शायद छत्तीसगढ़ की राजनीति में अपने आप में एक नजीर बन जाएगा, क्योंकि चुनाव को  भदेस करने का काम आज तलक किसी भी सत्ता प्रतिष्ठान ने नहीं किया था. सनद रहे, मरवाही विधानसभा अनुसूचित जनजाति प्रत्याशी के लिए सुरक्षित है और विधानसभा उप चुनाव इसलिए हो रहा है क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी का देहांत हो चुका है. अजीत जोगी कभी यहां से कांग्रेस से विधायक हुआ करते थे, बाद में जब उन्होंने अपनी पार्टी बनाई तो उन्होंने मरवाही से चुनाव लड़ा और जीता. मगर कभी भी उनके आदिवासी होने पर कम से कम कांग्रेस पार्टी ने  प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा किया था. आज छत्तीसगढ़ की  राजनीति में तलवारें कुछ इस तरह भांजी जा रही है कि  कांग्रेस पार्टी भूल गई है कि अजीत जोगी कभी कांग्रेस में अनुसूचित जनजाति के सर्वोच्च नेता हुआ करते थे.

राजनीतिक मतभेदों के कारण उन्होंने जनता कांग्रेस जोगी का गठन किया और 2018 के चुनाव में ताल ठोकी थी. मगर उनके देहावसान के पश्चात उनके सुपुत्र और जनता कांग्रेस जोगी के अध्यक्ष अमित जोगी ने यहां ताल ठोकी तो कांग्रेस का पसीना निकलने लगा. अमित जोगी ने नाजुक माहौल को महसूस किया और अपनी पत्नी डाक्टर ऋचा ऋचा जोगी का भी यहां से नामांकन दाखिल कराया. मगर राजनीति की एक काली मिसाल यह की अमित जोगी व उनकी धर्मपत्नी ऋचा जोगी दोनों के जाति प्रमाण पत्र और नामांकन खारिज कर दिए गए. और प्रतिकार ऐसा कि जिन लोगों ने अमित जोगी का आशीर्वाद लेकर डमी रूप में फॉर्म भरा था उनका भी चुन चुन करके नामांकन रद्द कर दिया गया ताकि कोई भी जोगी समर्थक निर्दलीय भी चुनाव मैदान में रहे ही नहीं.

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सभी मंत्री और विधायक झोंक दिए !

कभी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी डॉ रमन सिंह सरकार पर चुनाव के समय सत्ता के दुरुपयोग की तोहमत लगाया करती थी. और यह सच भी हुआ करता था. भाजपा  हरएक चुनाव में पूरी  ताकत लगाकर कांग्रेस पार्टी को हराने का काम करती थी, तब कांग्रेस के छोटे बड़े नेता, भाजपा  पर खूब लांछन लगाते और आज जब कांग्रेस पार्टी स्वयं सत्ता में आ गई है तो मरवाही के प्रतिष्ठा पूर्ण चुनाव में अपने सारे मंत्रियों संसदीय सचिवों, विधायक को चुनाव मैदान में उतार दिया है. स्वयं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल चुनाव पर  पल पल की निगाह रखे हुए थे, ऐसे में जनता कांग्रेस जोगी के अध्यक्ष और मरवाही उपचुनाव में प्रत्याशी अमित जोगी रिचा जोगी को जिस तरह चुनाव से बाहर किया गया. वह अपने आप में एक गलत परंपरा बन गई है और यह इंगित कर रही है कि चुनाव किस तरह सत्ता दल के लिए प्रतिष्ठा पूर्व बन जाता है और सत्ता का दुरुपयोग “खुला खेल फर्रुखाबादी” होता है .

भूपेश बघेल का चक्रव्यूह

दरअसल, अजीत जोगी के जाति के मामले को लेकर भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल के 15 वर्ष में डॉ रमन सिंह सरकार नहीं कर पाई वह काम चंद दिनों में भूपेश बघेल सरकार ने कर दिखाया. कुछ नए नियम कायदे बनवाकर भूपेश बघेल ने पहले अजीत प्रमोद कुमार जोगी के कंवर जाति प्रमाण पत्र को निरस्त करवाया इस आधार पर अमित जोगी का भी प्रमाण पत्र निरस्त होने की कगार पर पहुंच गया जिसका परिणाम अब सामने आया है.

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आज मुख्यमंत्री बन चुके भूपेश बघेल और कभी पूर्व मुख्यमंत्री रहे अजीत प्रमोद कुमार जोगी का  आपसी द्वंद्व छतीसगढ़ की जनता ने चुनाव से पहले लंबे समय तक देखा है. जब भूपेश बघेल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे अजीत जोगी ने कांग्रेस को उसके महत्वपूर्ण नेताओं को   राजनीति की चौपड़ पर हमेशा  घात प्रतिघात करके जताया  कि वे छत्तीसगढ़ के राजनीति के नियंता हैं. मगर अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल मुख्यमंत्री है, ऐसे में भूपेश बघेल ने  यह चक्रव्यूह  बुना और दिखा दिया कि सत्ता को  कैसे साधा और निशाना लगाया जाता है. यहां अजीत जोगी और भूपेश बघेल में अंतर यह है कि अजीत जोगी  के राजनीतिक दांव में एक नफासत हुआ करती थी. विरोधी बिलबिला जाते थे और अजीत जोगी पर दाग नहीं लगता था.अब परिस्थितियां बदल गई हैं अमित जोगी और ऋचा जोगी  नामांकन खारिज के मामले में सीधे-सीधे भूपेश बघेल सरकार कटघरे में है. अमित जोगी अब देश की उच्चतम न्यायालय में अपना मामला लेकर पहुंच चुके हैं आने वाले समय में ऊंट किस करवट बैठेगा यह देश और प्रदेश की जनता देखने को उत्सुक है.

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