जातिवाद के चेहरे को उजागर करता सीसीटीवी कैमरा

सीसीटीवी कैमरा आज आम आदमी को बौना बना रहे हैं और उन को ज्यादा फर्क पड़ने लगा है जिन के पास अगर कुछ है तो थोड़ी सी इज्जत है. देश के गरीब किसानों, मजदूरों, कारीगरों के पास आज बस थोड़ी सी इज्जत होती है, रुपयापैसा नहीं. उन की इस इज्जत की खुली नीलामी होने लगे तो इस से बुरा कुछ न होगा.
मद्रास हाईकोर्ट के एक सिंगल जज ने कहा कि राज्य के हर ब्यूटी पार्लर और मसाज स्पा में सीसीटीवी होना चाहिए ताकि वहां कोई अनैतिक काम न हो. यह हुक्म असल में उस हुक्म की तरह है कि दलित औरतें अपनी छातियों को न ढकें जो कभी केरल में जबरन लागू किया जाता था और बाकी जगह अपनेआप लागू हो जाता था क्योंकि गरीब औरतों के पास 2 जोड़ी तक कपड़े होते ही नहीं थे और नहाते या कपड़े धोते समय उन्हें अपना बदन सब की आंखों के सामने खोलना पड़ता. अंगरेजी में बनी फिल्म ‘गांधी’ में एक सीन यह बड़ी अच्छी तरह दिखाया गया है जब नदी में नहाती एक बिना कपड़ों के गरीब लड़की को गांधी अपनी धोती दे देते हैं.
हाईकोर्ट के फैसले का मतलब है कि इन ब्यूटी पार्लरों और मसाज स्पाओं में काम करने वाली लड़कियां असल में देह बेचती हैं और ऊंची जातियों के लोग खरीदते हैं. वे न ब्यूटी ट्रीटमैंट कराते हैं, न मालिश. यह पूरी जमात को बदनाम करने वाला फैसला है. ब्यूटी पार्लरों व मसाज स्पाओं में काम करने वाली ज्यादातर लड़कियां निचली जातियों की होती हैं. फाइवस्टार होटलों को भी धर्म के हिसाब से ऊंची कही जाने वाली लड़कियां इन कामों के लिए कम मिलती हैं.
ये लड़कियां अगर देह व्यापार में हैं तो भी क्या? यह उन का हक है. वे मेहनत की कमाई करती हैं. ऊंचे हाईकोर्ट में बैठे जज कमाऊ लड़की की आमदनी को रोकने या उस की इज्जत को खराब करने का हक नहीं रखते. देह व्यापार से जुड़ा सारा कानून असल में देश की दलित व ओबीसी लड़कियों के खिलाफ साजिश है जिस में ग्राहकों को तो बरी कर दिया जाता है पर लड़कियों, उन को घर में रखने वालियों, दलालों, सहायकों पर मुकदमे चलाए जाते हैं जो सब निचली जातियों के होते हैं. हां, ऊंची जातियों के पुलिस वाले, फाइनैंसर, नेता, मकान मालिक, म्यूनिसिपल कमेटी के इंस्पैक्टर वगैरह इन से अच्छी कमाई करते हैं.
गनीमत है कि सिंगल जज के फैसले को 2 जजों की बैंच ने जल्दी ही उलट दिया. 2 जजों ने जाति का मसला तो नहीं लिया, पर उन की चिंता थी ऊंची जातियों के ग्राहकों की, जिन की सीसीटीवी फुटेज ब्लैकमेल के लिए इस्तेमाल हो सकती हैं और जो निजता के हक का हनन करती हैं. उन्हें भी उन लड़कियों की चिंता नहीं थी जो ब्यूटी ट्रीटमैंट दे रही थीं या मसाज कर रही थीं और सीसीटीवी में आ जातीं.
चाहे ये लड़कियां ज्यादातर दलित और पिछड़ी क्यों न हों, इन को इज्जत से रहने का हक है, पूरा हक है. इन की फोटो ब्यूटी पार्लर या स्पा मालिक या पुलिस वालों के पास नहीं हो सकती. तमिलनाडु सरकार का आदेश कि ब्यूटी पार्लर या मसाज स्पा में घुसने के रास्ते पर सीसीटीवी लगा हो जजों ने बहाल किया है पर वह भी गलत है क्योंकि वह फुटेज वहां काम कर रही लड़कियों की इज्जत को तारतार करती है.    

शोषण की शिकार पिछड़े दलित वर्ग की लड़कियां

अपनी सहेली की शादी के पार्टी से लौटकर 11 बजे रात्रि को ज्योंहि शिवानी अपने घर का कॉलवेल बजाती है. उसके पापा की ऑंखें गुस्से से लाल है. दरवाजा खोलते ही बोलने लगते हैं.अय्यासी करके आ गयी.घर आने का यही समय है. जबकि बेटा हर रोज शराब और सड़कों पर दोस्तों के साथ आवारागर्दी करके घर में बारह बजे रात्रि तक भी आता है. उसे पापा कुछ भी नहीं बोलते.

पिछड़े और दलित वर्ग की महिलाएं सदियों से आज तक उपेक्षित लांक्षित और शोषित हैं. अपने ऊपर हो रहे शोषण की आवाज तो हम उठाते रहें हैं. लेकिन इस समुदाय से जुड़े लोग स्वयं लड़कियों और औरतों पर शोषण कई माध्यमों से करते रहते हैं. अशिक्षित से लेकर इस समुदाय के शिक्षित लोग भी किसी न किसी रूप में शामिल हैं. शिवानी रहती तो एक बड़े शहर की एक बस्ती में पर उसके पिता की रगों में अभी भी गांव के रीति-रिवाज भरे पड़े हैं.

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आज भी लड़के और लड़कियों में अधिकांशतः घरों में फर्क समझा जाता है. लड़का और लड़की के साथ भेदभाव किया जाता है. पहली चाहत आज भी लोगों के अंदर लड़के की है. तीन चार लड़की होने या लड़के की चाहत में छिप छिपाकर लड़की को पेट में ही गिरवा देते हैं. लड़के लड़की में खान पान ,पढ़ाई लिखाई सभी मामले में भेदभाव किया जाता है. लड़का है तो उसे दूध और लड़की है तो उसे छांछ पीने को मिलेगा. लड़की सरकारी विद्यालय में और लड़का प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए जाएगा.

औरंगाबाद जिले के सरकारी मध्य विद्यालय भाव विगहा के प्रधानाध्यपक उदय कुमार ने बताया कि उनके स्कूल में अधिक लड़कियाँ आती हैं. इस गाँव में सिर्फ पिछड़ी और दलित जाति के लोग रहते हैं. लड़के को प्राइवेट विद्यालयों में लोग पढ़ने के लिए भेजते हैं. ज्यादातर लड़कियाँ इंटर के बाद उच्च शिक्षा या टेक्निकल एजुकेशन इसलिए नहीं ले पाती कि पढ़ाने में अधिक खर्च आता है. शहरों में रखकर लड़कियों को लोग नहीं पढ़ाना चाहते हैं.साफ जाहिर होता है कि आज भी लोगों के अंदर यह सोच घर करी हुई  है कि बेटियों को अच्छी शिक्षा देने से क्या फायदा है. लड़कों को कर्ज लेकर भी लोग पढ़ाना चाहते हैं. लड़का है तो आने वाले दिनों में घर का सहारा बनेगा.इस तरह की सोच से लोग बिमार हैं.

दलित और पिछड़ी जाति के पढ़ने वाली छोटी छोटी लड़कियाँ बर्तन धोने,छोटे बच्चों को खिलाने, बकरी चराने के अलावे घरेलू काम करतीं हैं. जबकि लड़के स्कूल से आने के बाद ट्यूशन ,मोबाइल,गेम और क्रिकेट खेलने में मस्त रहते हैं.

दलित और पिछड़ी जातियों में लड़कियों की शादी 15 से लेकर 22 वर्ष तक के उम्र में कर दी जाती है. साधरण घर की लड़कियाँ तो अपने मैके में भी अपने माता पिता के साथ खेती किसानी मजदूरी में हाँथ बंटाती रहतीं हैं.

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ससुराल जानें पर भी ससुराल के हैसियत के अनुसार काम करना पड़ता है. ईंट भट्ठा पर काम कर रही 23 वर्षीय शादी शुदा रजंती ने दिल्ली प्रेस को बताया कि उसका घर गया जिला के आजाद बिगहा गाँव में है. उसके बाबूजी  सभी परिवार को लेकर उत्तरप्रदेश बनारस  के पास ईंट भट्ठा पर काम करने के लिए लेकर चले जाते थे.सिर्फ बरसात के दिनों में तीन महीने वे लोग अपने गाँव में रहते बाकी दिनों बचपन से आज तक ईंट भट्ठे पर ही उसने जिंदगी गुजारी .पहले अपने माँ बाबूजी के साथ में काम करता थी.आज अपने सास ससुर और पति के साथ में काम करती है. शादी के बाद तीन महीने अपने घर पर ससुराल में रही.फिर अपने ससुराल वालों के साथ इंट भट्ठा पर निकल पड़े.

इसी तरह काजल  ने बताया, “मेरी शादी 15 वर्ष की उम्र में हो गयी थी. हमसे छोटा एक भाई और एक बहन थी. माँ बाबूजी दूसरे के खेतों मजदूरी करते थे. घर पर खाना बनाना और भाई बहन को देखना मेरा काम रहता था. जब वे लोग थोड़ा बड़े हुए और स्कूल जाने लगे तो मैं माँ बाबूजी के साथ साथ में धान गेहूँ काटने,सोहने और रोपने के कार्य में जाने लगी. जब शादी हुई तो ससुराल गई. 6 माह घर में रहे उसके बाद पति लुधियाना काम करने के लिए गाँव के दोस्तों के साथ चले गए.

सास ससुर साथ में मजदूरी पर चलने के लिए विवश करने लगे. मैं मजबूर होकर काम पर जाने लगी. कोई उपाय नहीं था. पति भी बोले क्या करोगी जो माँ बाबूजी कह रहे हैं, वह करो. चार बजे भोर में उठती हूँ. सभी लोगों का खाना बनाकर खाकर काम पर निकल जाती हूँ. शाम में काम से आती हूँ. वर्तन धोती हूँ. खाना बनाती हूँ. बिस्तर पर जाते ही नींद लग जाती है. चार बजे उठ जाती हूँ. जब काम नहीं रहता तो दिन भर घर में रहती हूँ. गाँव में औरतों को सालों भर काम भी नहीं मिलता.खासकर फसल काटने और रोपने के समय ही काम मिल पाता है.”

ये उदाहरण सिर्फ गाँवों में ही देखने को नहीं मिलते शहरों में भी इस तरह की समस्याएँ हैं. शहर में गरीब परिवारों की थोड़ी समस्या अलग ढंग की है.

शिवानी एक कम्पनी में टाइपिस्ट की नौकरी करती है. बेटा भी इंजीनियरिंग करके जॉब करता है. उसे कभी ताना नहीं सुनने पड़ता .लेकिन लड़की होने के उसे नाते ताना सुनने पड़ते हैं.

कहीं लड़कियों को बाजार ,पार्टी ,दोस्त के यहाँ जब जाने की जरूरत पड़ती है तो बड़ी लड़कियों के साथ में घर के छोटे लड़कों को सुरक्षा के हिसाब से भेजा जाता है. जबकि ये छोटे लड़के आफत होने पर किसी भी तरह से बहन को में बचा नहीं सकते लेकिन परिवार वालों को बेटे पर अधिक भरोसा होता है, बेटियों पर नहीं. बेटी को घर की इज्जत समझा जाता है.

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बचपन से ही बेटियों को तरह तरह के आचरण और ब्यवहार करने के लिए सिखाया जाता है. ऊँची आवाज में बात नहीं करो हँसों नहीं. कहीं आओ जाओ नहीं तमाम तरह की पाबन्दियाँ लगायी जाती हैं.

प्यार करने वाली कितने लड़कियों को तो माँ बाप और उसके परिवार वालों द्वारा ही हत्या तक कर दी जाती है.

लड़कियों के साथ गैरबराबरी और शोषण बचपन से लेकर वृद्ध होने तक साधारण परिवारों में होते रहता है. बचपन में मां बाप और भाई , युवा अवस्था में सास ससुर और पति वृद्ध होने पर उसके जवान बेटों द्वारा प्रताड़ित होने की कहानी आम है. साधारण हैसियत वाले लोगों के घरों में आवश्यक समानों के लिए भी परिवार लड़ाई झगड़ा आम बात है. शराबी पति शराब पीकर आता है. गाली गलौज मार पीट करता है. फिर भी समाज और परिवार का दबाव पति को परमेश्वर मानने का बना ही रहता है.

ग्रामीण इलाकों में एक तरीका है कि घरों में पहले मर्द खाते हैं. अंत में औरतें खातीं हैं. अगर सब्जी दाल खत्म हो गई तो औरतें अपने लिए नहीं बनातीं. नमक मिर्च या अचार के साथ रोटी चावल खाकर सो जातीं हैं.

इन साधारण लड़कियों के साथ हर जगह, पढ़ाई करते हुए, खेत खलिहान और आफिस तक में काम करते हुए, मजाक करना, शरीर को टच करना और मौका मिलने पर यौन शोषण का शिकार हो जाना आम बात है. कमजोर तबके से आने की वजह से मुँह खोलना जायज इसलिए नहीं समझतीं इन दबंग लोगों के समक्ष उसे इंसाफ नहीं मिल पाएगा और सिर्फ बदनामी का ही सामना करना पड़ेगा.

लड़कियों को तो हर बात में परिवार वालों द्वारा तमीज सिखायी जाती है. लेकिन लड़कों को नहीं.  घर के लड़के किसी लड़की के साथ गलत ढंग से पेश आते हैं. उसी तरह से दूसरे घर के लड़के भी इस घर की बहू बेटियों से गलत ढंग से पेश आ सकते हैं. जिस तरह से लड़कियों को तमीज सिखाते हैं. उसी तरह से लड़कों को भी सही गलत का पाठ  पढ़ाया जाना चाहिए.

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अगर आने वाली पीढ़ी के लिए स्वस्थ और सुंदर समाज बनाना चाहते हैं तो लड़का और लड़की में नहीं सही और गलत में भेद करना सिखायें.

क्या मंजिल तक पहुंच पाएगी ‘स्वाभिमान से संविधान यात्रा’

दलितों के सिर पर इन दिनों आरक्षण के छिन जाने का एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है. कुछ का अंदाजा है कि भाजपा पहले राम मंदिर बनाने को प्राथमिकता देगी, जबकि कुछ को डर है कि वह पहले आरक्षण खत्म करेगी और उस के तुरंत बाद ही राम मंदिर का काम होगा जिस से संभावित दलित विद्रोह और हिंसा का रुख राम की तरफ मोड़ कर उसे ठंडा किया जा सके.

पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण को ले कर अपनी मंशा यह कहते हुए जाहिर की थी कि आरक्षण विरोधी और समर्थकों को शांति के माहौल में बैठ कर इस मसले पर बातचीत करनी चाहिए, मतलब, ऐसी बहस जिस पर हल्ला मचेगा और यही भगवा खेमा चाहता है.

यह बातचीत हालांकि एकतरफा ही सही, सोशल मीडिया पर लगातार तूल पकड़ रही है जिस में सवर्ण भारी पड़ रहे हैं और इस की अपनी कई वजहें भी हैं.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार दलित बड़े पैमाने पर भाजपा की तरफ झुके थे तो इस की एक बड़ी वजह बतौर प्रधानमंत्री पेश किए गए खुद नरेंद्र मोदी का उस तेली साहू जाति का होना था जिस की गिनती और हैसियत आज भी दलितों सरीखी ही है.

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तब लोगों खासतौर से दलितों को लगा था कि भाजपा केवल सवर्णों की नहीं, बल्कि उन की भी पार्टी है जो उस ने तकरीबन एक दलित चेहरा पेश किया.

इस के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ने दलित प्रेम का अपना दिखावा जारी रखा और तरहतरह के ड्रामे किए, जिन में उस के बड़े नेताओं का दलितों के घर जा कर उन के साथ खाना खाना और दलित संतों के साथ कुंभ स्नान प्रमुख थे.

इस का फायदा उसे मिला भी और दलित उसे वोट करते रहे. साल 2019 के चुनाव में आरक्षण मुद्दा बनता लेकिन बालाकोट एयर स्ट्राइक की सुनामी उसे बहा ले गई और राष्ट्रवाद के नाम पर सभी लोगों ने नरेंद्र मोदी को दोबारा चुना.

3 तलाक और कश्मीर में मनमानी थोपने के बाद जैसे ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण का मुद्दा उठाया तो दलित समुदाय बेचैन हो गया, क्योंकि अब राजनीति में उस का कोई माईबाप नहीं है और बसपा प्रमुख मायावती भी भाजपा के सुर में सुर मिला रही हैं.

पिछले 5 साल में भाजपा तकनीकी तौर पर दलितों को दो फाड़ कर चुकी है और ज्यादातर नामी दलित नेता उस की गोद में खेल रहे हैं, जिन्होंने उस की असलियत भांपते हुए इस साजिश का हिस्सा बने रहने से इनकार कर दिया, उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकने में भी भाजपा ने देर नहीं की. इन में सावित्री फुले और उदित राज के नाम प्रमुख हैं.

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कांग्रेस का दांव

इधर कांग्रेसी खेमे को यह अच्छी तरह समझ आ रहा है कि उस की खिसकती जमीन की अहम वजह परंपरागत वोटों का उस से दूर हो जाना है जिन में मुसलमानों से भी पहले दलितों का नंबर आता है.

अब कांग्रेस भूल सुधारते हुए फिर दलितों को अपने पाले में लाने के लिए ‘स्वाभिमान से संविधान’ नाम की यात्रा निकालने जा रही है. इस बाबत उस का फोकस हालफिलहाल 3 राज्यों हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव हैं.

कुछ दिन पहले ही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के नेताओं से मुलाकात कर इस यात्रा को हरी झंडी दे दी है जिस के तहत फिर से दलितों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए युद्ध स्तर पर कोशिशें की जाएंगी.

कांग्रेस के अनुसूचित जाति विभाग के मुखिया नितिन राऊत की मानें, तो ‘स्वाभिमान से संविधान यात्रा’ के तहत हरेक विधानसभा में एक कोऔर्डिनेटर नियुक्त किया जाएगा जो अपनी विधानसभा में इस यात्रा को आयोजित करेगा.

दलितों को लुभाने का यह दांव कितना कामयाब हो पाएगा, यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे, लेकिन कांग्रेस की एक बड़ी मुश्किल यह है कि उस के पास भी बड़े और जमीनी दलित नेताओं का टोटा है.

इधर सोशल मीडिया पर भगवा खेमा लगातार यह कह रहा है कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव समेत दलितों को सताने के मामले अब कम ही होते हैं. फसाद या बैर की असल जड़ तो आरक्षण है जिस के चलते दलित अपनी काबिलीयत नहीं दिखा पा रहे हैं. सवर्ण तो चाहते हैं कि दलित युवा अपनी काबिलीयत के दम पर आगे आ कर हिंदुत्व की मुख्यधारा से जुड़ें, उन का इस मैदान में स्वागत है.

यह कतई हैरानी की बात नहीं है कि मुट्ठीभर दलित युवा इसे एक चुनौती के रूप में ले रहे हैं और ये वे दलित हैं, जिन्हें अपने ही समुदाय के लोगों की बदहाली की असलियत और इतिहास समेत भविष्य का भी पता नहीं.

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ये लोग भरे पेट हैं, शहरी हैं और यह मान बैठे हैं कि पूरा दलित समुदाय ही उन्हीं की तरह है जिसे आरक्षण की बैसाखी फेंक देनी चाहिए.

यही दलित युवा भाजपा की ताकत हैं जो आरक्षण खत्म होने पर तटस्थ रह कर अपने ही समाज की बरबादी में योगदान देंगे, क्योंकि सवर्ण उन्हें गले लगा कर बराबरी का दर्जा देते हैं. उन के लिए यह साजिश भरी बराबरी ही ऊपर वाले का प्रसाद है.

बारीकी से गौर किया जाए तो भाजपा दलितों को बहलाफुसला कर आरक्षण छोड़ने पर राजी करने की भी कोशिश कर रही है और वही धौंस भी दे रही है जो 3 तलाक और धारा 370 के मुद्दों पर मुसलमानों को दी थी कि यह कोई बदला या ज्यादती नहीं, बल्कि तुम्हारे भले की ही बात है.

अगर सीधे से नहीं मानोगे तो यह काम दूसरे तरीकों से भी किया जा सकता है, लेकिन भाईचारा और भलाई इसी में है कि सहमत हो जाओ.

अब ऐसे में अगर कांग्रेस की यात्रा हवाहवाई बातों और सीबीएससी की बढ़ी हुई फीस जैसे कमजोर मुद्दों में सिमट कर रह गई तो लगता नहीं कि वह मंजिल तक पहुंच पाएगी.

दलित दूल्हा घोड़ी नहीं चढ़ेगा

गुरुवार. 13 दिसंबर, 2018. बरात पर पथराव व मारपीट. दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारा गया. राजस्थान के अलवर जिले के लक्ष्मणगढ़ थाना इलाके के गांव टोडा में गुरुवार, 13 दिसंबर, 2018 को दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारने और बरात पर पथराव व मारपीट करने का मामला सामने आया.

पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक, गांव टोडा के हरदयाल की बेटी विनिता की शादी के लिए पास के ही गांव गढ़काबास से बरात आई थी.

बरात ज्यों ही गांव में घुसी, राजपूत समाज के 2 दर्जन से भी ज्यादा लोग लाठियां व सरिए ले कर बरातियों पर टूट पड़े. इस दौरान दर्जनभर लोगों को गंभीर चोटें आईं.

बाद में सूचना मिलने पर मौके पर पहुंचे पुलिस प्रशासन ने दूल्हे की दोबारा घुड़चढ़ी करा कर शादी कराई.

शादियों के मौसम में तकरीबन हर हफ्ते देश के किसी न किसी हिस्से से ऐसी किसी घटना की खबर आ ही जाती है. इन घटनाओं में जो एक बात हर जगह समान होती है, वह यह कि दूल्हा दलित होता है, वह घोड़ी पर सवार होता है और हमलावर ऊंची जाति के लोग होते हैं.

दलित समुदाय के लोग पहले घुड़चढ़ी की रस्म नहीं कर सकते थे. न सिर्फ ऊंची जाति वाले बल्कि दलित भी मानते थे कि घुड़चढ़ी अगड़ों की रस्म है, लेकिन अब दलित इस फर्क को नहीं मान रहे हैं. दलित दूल्हे भी घोड़ी पर सवार होने लगे हैं.

यह अपने से ऊपर वाली जाति के जैसा बनने या दिखने की कोशिश है. इसे लोकतंत्र का भी असर कहा जा सकता है जिस ने दलितों में भी बराबरी का भाव पैदा कर दिया है. यह पिछड़ी जातियों से चल कर दलितों तक पहुंचा है.

ऊंची मानी गई जातियां इसे आसानी से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं. उन के हिसाब से दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना ऊंची जाति वालों का ही हक है और इसे कोई और नहीं ले सकता. वैसे भी जो ऊंची जातियां दलितों के घोड़ी चढ़ने पर हल्ला कर रही हैं, आजादी तक वे खुद घोड़ी पर चढ़ कर शादी नहीं कर सकती थीं.

आजादी के बाद पिछड़ी जातियों के जोतहारों को जमीनें मिल गईं और ऊंची जातियों के लोग गांव छोड़ कर शहर चले गए तो वे जातियां खुद को राजपूत कहने लगी हैं.

लिहाजा, वे इस बदलाव को रोकने की तमाम कोशिशें कर रही हैं. हिंसा उन में से एक तरीका है और इस के लिए वे गिरफ्तार होने और जेल जाने तक के लिए भी तैयार हैं.

देश में लोकतंत्र होने के बावजूद भी ऊंची जाति वालों में यह जागरूकता नहीं आ रही है कि सभी नागरिक बराबर हैं.

जब तक बराबरी, आजादी और भाईचारे की भावना के साथ समाज आगे बढ़ने को तैयार नहीं होगा, तब तक सामाजिक माहौल को बदनाम करने वाली इस तरह की घटनाएं यों ही सामने आती रहेंगी.

ऐसी घटनाएं हजारों सालों की जातीय श्रेष्ठता की सोच का नतीजा है जो बारबार समाज के सामने आता रहता है या यों कहें कि कुछ लोग आजादी समझ कर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं तो तथाकथित ऊंचे लोगों के अंदर का शैतान खुलेआम नंगा नाच करने को बाहर आ जाता है.

जिस राजस्थान को राजपुताना कहा जाता है वह रामराज्य का समानार्थी सा लगता है. दोनों का गुणगान तो इस तरह किया जाता है कि जैसे दुनिया में इन से श्रेष्ठ सभ्यता कहीं रही ही नहीं होगी, मगर जब इन दोनों की सचाई की परतें खुलती जाती हैं तो हजारों गरीब इनसानों की लाशों की सड़ांध सामने आने लगती है और वर्तमान आबोहवा को दूषित करने लगती है.

रामराज्य के समय के ऋषिमुनियों और राजपुताना के ठाकुरों व सामंतों में कोई फर्क नहीं दिखता. रामराज्य में औरतें बिकती थीं. राजा व ऋषि औरतों की बोली लगाते थे. राजपुताना के इतिहास में कई ऐसे किस्से हैं जहां शादी के पहले दिन पत्नी को ठाकुर के दरबार में हाजिरी देनी होती थी. सामंत कब किस औरत को पकड़ ले, उस के विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती थी.

माली शोषण मानव सभ्यता के हर समय में हर क्षेत्र में देखा गया, मगर दुनिया में दास प्रथा से भी बड़ा कलंक ब्राह्मणवाद रहा है जिस में शारीरिक व मानसिक जोरजुल्म सब से ऊंचे पायदान पर रहा है.

जातियां खत्म करना इस देश में मुमकिन नहीं है. अगर कोई जाति खुद को श्रेष्ठ बता कर उपलब्ध संसाधनों पर अपने एकलौते हक का दावा करती है, तो वह कुदरत के इंसाफ के खिलाफ है. कोई जाति खुद को ऊंची बता कर दूसरी जाति के लोगों को छोटा समझती है, वही जातीय भेदभाव है, जो इस जमाने में स्वीकार करने लायक नहीं है.

सब जातियां बराबर हैं, सब जाति के इनसान बराबर हैं और मुहैया संसाधनों पर हर इनसान का बराबर का हक है, यही सोच भारतीय समाज को बेहतर बना सकती है.

दलितों में इस तरह सताए जाने के मामलों की तादाद बहुत ज्यादा है जो कहीं दर्ज नहीं होते, नैशनल लैवल पर जिन की चर्चा नहीं होती.

दरअसल, एक घुड़चढ़ी पर किया गया हमला सैकड़ों दलित दूल्हों को घुड़चढ़ी से रोकता है यानी सामाजिक बराबरी की तरफ कदम बढ़ाने से रोकता है.

भाजपा सरकार व पुलिस अगर दलितों को घोड़ी पर नहीं चढ़वा सकती तो इस परंपरा को ही समाप्त कर दे. पशुप्रेम के नाम पर किसी भी शादी में घोड़ी पर चढ़ना बंद करा जा सकता है.

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