सच लिखा, क्योंकि सत्ता से गलबहियां करना तो मीडिया का काम नहीं है. एक राजनीतिक पत्रकार की भूमिका, जनता की तरफ से सिर्फ जरूरी सवाल करना ही नहीं होता, बल्कि अगर राजनेता सवाल से बचने की कोशिश कर रहा है या तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहा है, तो उसको दृढ़तापूर्वक चुनौती देना भी होता है. मीडिया का काम है शक करना और सवाल पूछना. सरकार के काम का विश्लेषण करना और जनता को सच से रूबरू कराना. इसीलिए इसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है, मगर आज मीडिया खुद सवालों में घिरा हुआ है. सत्ता ने डराओ, धमकाओ, मारो और राज करो, की नीति के तहत मीडिया की कमर तोड़ दी है. उसकी स्वतंत्रता हर ली है. जो बिका उसे खरीद लिया, जो नहीं बिका उसका दम निकाल दिया. ऐसे में तानाशाही फरमानों से डरे हुए देश में सच की आवाज कौन उठा सकता है? सत्ता से सवाल पूछने की हिम्मत कौन कर सकता है? सरकार के कामों का विश्लेषण करने की हिम्मत किसकी है? सरकार की ओर उंगली उठाने की गुस्ताखी कौन कर सकता है? जिसने की उसे नेस्तनाबूद कर दिया गया. उखाड़ फेंका गया. सलाखों में जकड़ दिया गया. मौत के घाट उतार दिया गया. जी हां, हम उस लोकतांत्रिक देश की बात कर रहे हैं, जहां जनता द्वारा चुनी हुई सरकार से जनता को सवाल पूछने की मनाही है.
आपको जज बी.एच.लोया याद हैं? जज प्रकाश थोंबरे और वकील श्रीकांत खंडेलकर याद हैं? पत्रकार गौरी लंकेश याद हैं? नरेन्द्र दाभोलकर याद हैं? गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी याद हैं? गुजरात दंगे की हकीकत खोलने वाले आईपीएस संजीव भट्ट का क्या हाल हुआ, देखा आपने? इन्होंने सच की राह पर चलने का जोखिम उठाया और सत्ता द्वारा खेत दिये गये. इनके साथ क्या – क्या हुआ वह सच्चाइयां कभी सामने नहीं आईं. सत्ता के डर से सच दफ़ना दिया गया, हमेशा के लिए. सत्ता के स्याह और डरावने सच की अनगिनत कहानियां हैं. मगर इन कहानियों को कौन कहे? जिनको कहना चाहिए वे बिक गये, मारे डर के सत्ता के भोंपू हो गये. जो नहीं बिके, उनका गला घोंट दिया गया. मीडिया यानी लोकतन्त्र का चौथा खम्भा अब पूरी तरह जर्जर हो चुका है. कब ढह जाये कहा नहीं जा सकता.
भारत से लेकर दुनिया का बाप कहलाने वाले देश अमरीका तक में मीडिया पर सत्ता के हंटर बरस रहे हैं. अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने देश के स्थापित अखबारों पर प्रहार कर रहे हैं तो यहां मीडिया की स्वतंत्रता लगभग खत्म हो चुकी है. सत्ताधारियों के डर और दबाव में मीडिया-मालिकों और पत्रकारों के पास बस एक काम बचा है – चाटुकारिता. आज ज्यादातर अखबारों-पत्रिकाओं में जो कुछ छप रहा है या टीवी चैनलों पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह सरकार की ‘गौरव-गाथा’ के सिवा कुछ नहीं है. अरबों-खरबों के विज्ञापनों की खैरात बांट कर सत्ता मीडिया से अपने तलुए चटवा रही है, अपनी वाहवाही करवा रही है और लालची, लोलुप मीडिया-मालिक इसे अपना ‘अहो भाग्य’ कह रहे हैं. भारतीय मीडिया का एक धड़ा, जिसे झोली भर-भर कर बख्शीशों से नवाजा गया है, सरकारी भोंपू बना हुआ है. और सख्त कलमों की नोंकें तुड़वा दी गयी हैं. जो तोड़ने पर राजी नहीं हुए उन्हें उनकी कलम के साथ उठा कर संस्थानों से बाहर फेंक दिया गया है.
ये भी पढ़ें- मोदी का योग: भूपेश बघेल का बायकाट
आवाज दबाने का अनोखा अंदाज
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल के दिनों में ‘फेक न्यूज अवार्ड्स’ की घोषणा की. अपने खिलाफ अमेरिकी अखबारों में छपने वाली खबरों को झूठी और भ्रामक बताना शुरू कर दिया. अमेरिकी मीडिया की धज्जियां उड़ाने के लिए बकायदा ‘अवॉर्ड्स’ घोषित कर दिये. अपने गुनाह छिपाने के लिए ट्रंप ने ‘सबसे भ्रष्ट और बेईमान’ कवरेज के लिए अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को विजेता घोषित किया. एबीसी न्यूज, सीएनएन, टाइम और वाशिंगटन पोस्ट को भी इन अनोखे अवार्ड में जगह दी और यह साबित करने की कोशिश की कि यह तमाम मीडिया हाउस सरकार के बारे में सिर्फ गलत ही लिखते-छापते हैं. उन्होंने ‘विजेताओं’ की सूची बकायदा रिपब्लिकन नेशनल कमेटी की वेबसाइट पर भी जारी की. जनता की आवाज दबाने का कितना शर्मनाक तरीका है यह. मीडिया पर इस तरह का हमला आश्चर्यजनक है.
गौरतलब है कि ट्रंप हमेशा से अपने ट्वीट्स और बड़बोलेपन को लेकर चर्चित रहे हैं. वे हमेशा से मीडिया विरोधी हैं. अपने चुनाव अभियान के दौरान भी उन्होंने जम कर ‘फेक न्यूज’ शब्द का इस्तेमाल किया था. राष्ट्रपति बनने के बाद से वे लगातार मीडिया हाउसों और उनके मालिकों-सम्पादकों पर निशाना साधते रहे हैं. आजकल वे अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के सम्पादक ए.जी. सल्जबर्जर के पीछे पड़े हुए हैं और प्रिंट मीडिया और जर्नलिज्म पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे हैं. वह मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं और उसे एक मरता हुआ उद्योग करार देते हैं. ट्रंप वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स पर आरोप लगाते हैं और कहते हैं कि मेरी सरकार अच्छा काम कर रही है, लेकिन यह दोनों अखबार सरकार के अच्छे कामों को भी नकारात्मक तरीके से पेश करते हैं. वह इन अखबारों द्वारा किये गये खुलासों और आरोपों से खुद को बचाने की कोशिश में मीडिया को ‘लोगों का दुश्मन’ करार देते हैं. वे उन सवालों के जवाब नहीं देना चाहते जो सवाल ये अखबार उठा रहे हैं. दरअसल ट्रंप अपने हमेशा सकारात्मक न्यूज कवरेज चाहते हैं और अपने विरोधियों के लिए आलोचनात्मक खबरें. ‘फेक न्यूज’, ‘लोगों का दुश्मन’ जैसे वाक्यों से मीडिया को लगातार कोसना उनका इस लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता है. जो अखबार उनके इस उद्देश्य में बाधा बनते हैं, वह उनके पीछे पड़ जाते हैं. राजनीति के पिच पर ट्रंप रेफरी को हर हाल में अपने पाले में करना चाहते हैं. वह रेफरी के फैसलों को अपने पक्ष में नहीं करना चाहते, बल्कि उनका उद्देश्य रेफरी की विश्वसनीयता को पूरी तरह खत्म कर देना है. और उनकी यह रणनीति काम भी कर रही है, कम से कम ट्रंप के सबसे वफादार समर्थकों के बीच में तो जरूर.
‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के पीछे ट्रंप इसलिए पड़े हुए हैं क्योंकि इस अखबार ने उनकी नाजायज सम्पत्ति और कर चोरी का खुलासा किया था. अखबार ने लिखा था कि ट्रंप ने अपनी मेहनत से कोई सम्पत्ति अर्जित नहीं की, जैसा प्रचार उन्होंने अपने चुनाव के वक्त किया था. ट्रंप और उनके भाई-बहनों को उनके बिल्डर पिता से अथाह सम्पत्ति हासिल हुई है. यह सम्पत्ति नाजायज तरीके से बनायी गयी थी. अखबार कहता है कि ट्रंप और उनके भाई-बहनों ने अपने पिता से तोहफे में मिली अरबों डॉलर की सम्पत्ति छिपाने के लिए कई फर्जी कम्पनियां बनायीं. यही नहीं ट्रंप ने लाखों रुपये के कर को छिपाने में भी अपने पिता की मदद की थी. जबकि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ट्रंप ने दावा किया था कि उनके पास जो सम्पत्ति है वह उन्होंने अपने दम पर बनायी है और उनके पिता फ्रेड ट्रंप से उन्हें कोई वित्तीय मदद नहीं मिली है. जो गोपनीय दस्तावेज, टैक्स रिटर्न के पेपर्स और अन्य वित्तीय रिकॉर्ड्स न्यूयार्क टाइम्स के पास हैं, उनके मुताबिक ट्रंप को अपने पिता के रियल एस्टेट के साम्राज्य से आज के हिसाब से कम से कम 41.3 करोड़ डॉलर मिले थे और इतनी बड़ी धनराशि उन्हें इसलिए मिली थी क्योंकि ट्रंप ने कर अदा करने से बचने में पिता की मदद की थी. यही नहीं, ट्रंप ने अपने माता-पिता की रियल एस्टेट की सम्पत्तियों की कम कीमत आंकने की रणनीति बनाने में भी मदद की थी, जिससे जब ये सम्पत्तियां उन्हें तथा उनके भाई-बहनों को हस्तांतरित की गयीं तो काफी हद तक कर कम हो गया. ट्रंप ने पिता से तोहफे में मिली अरबों डॉलर की सम्पत्ति छिपाने के लिए फर्जी कम्पनियां बनायीं और इस तरह सारा ब्लैक मनी वाइट किया गया.
ये भी पढ़ें- भूपेश सरकार का ढोल…!
एक के बाद एक तीन शादियां करने वाले ट्रंप के महिलाओं के साथ भी नाजायज रिश्ते, अश्लील हरकतें और फब्तियां भी किसी से छिपी नहीं हैं. उनकी अश्लील हरकतों की कई कहानियां समय-समय पर अखबारों में उजागर होती रही हैं. डोनाल्ड ट्रंप का एक ऑडियो भी सामने आ चुका है, जिसमें वो महिलाओं के बारे में अभद्र बातें करते सुने गये हैं. ये ऑडियो एक टीवी शो की शूटिंग के दौरान का है. वहीं गैर-धर्म के प्रति उनकी नफरत भी जगजाहिर है. मुसलमानों के प्रति ट्रंप की नफरत उस वक्त जाहिर हुई थी, जब 7 दिसंबर 2015 को डोनाल्ड ट्रंप ने सबसे विवादित बयान दिया. उन्होंने साउथ कैरोलिना में एक चुनावी रैली में कहा था कि मुसलमानों के लिए अमरीका के दरवाजे पूरी तरह बंद कर दिए जाने चाहिए. साथ ही उन्होंने कहा था कि अमेरिका में रहने वाले मुसलमानों के बारे में भी पूरी जांच पड़ताल होनी चाहिए. उन्होंने अपने इस सख्त प्रस्ताव से सिर्फ लंदन के मेयर सादिक खान को ही छूट दी थी. इस पर काफी हंगामा मचा था. आज भी बहुत से लोगों को लगता है कि ट्रंप की मुस्लिम विरोधी छवि पूरी दुनिया के लिए खतरनाक है.
उग्र राष्ट्रवाद के प्रणेता
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोनों मीडिया विरोधी हैं. दोनों के बीच कई मामलों में काफी समानता है. दोनों के बीच पटती भी खूब है. ट्रंप मोदी को अपना दोस्त बताते नहीं थकते. अमेरिका आने पर उनका शानदार स्वागत-सत्कार करते हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव 2019 की प्रचंड जीत पर बकायदा टेलीफोन करके बधाईयां दीं. तू मेरी खुजा, मैं तेरी खुजाता हूं, वाली दोस्ती है दोनों के बीच. वही अमेरिका, जिसने कभी मोदी को वीजा देने से इन्कार कर दिया था, आज मोदी की राह में पलक-पांवड़े बिछाये हुए है. क्यों? क्योंकि सत्ताशीर्ष पर बैठे दोनों धुरंधरों के मिजाज़ मिलते हैं, व्यवहार मिलते हैं, कर्म मिलते हैं, सोच मिलती है, रवैय्या मिलता है. दोनों अपने आगे पूरी दुनिया को बौना समझते हैं. दोनों अपने मन के मालिक हैं. दोनों सवाल पूछने वालों से नफरत करते हैं. दोनों सच से परहेज करते हैं. दोनों मीडिया को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहते हैं.
ट्रंप मोदी के बड़े फैन हैं. वे कई मौकों पर प्रधानमंत्री मोदी और भारत की तारीफ भी कर चुके हैं. दोनों गे्रट शो-मैन हैं, अच्छे वक्ता हैं, उन्हें पता है भीड़ को कैसे खुश करना है और विरोधियों को कैसे नीचा दिखाना है. मोदी और ट्रंप- दोनों ही ‘नार्सिसिस्ट’ हैं. नार्सिसिस्ट यानी ऐसे शख्स जो खुद से बेहद प्यार करते हैं. जो अपनी वाक्-प्रतिभा के चलते अपनी कमजोरियों को छिपा सकते हैं. अपनी अलग आदतों के चलते आकर्षक लगते हैं और जनता को आकर्षित कर लेते हैं, मगर उनका मोह मानसिक और शारीरिक रूप से हानि पहुंचाता है. ऐसे लोगों को लगता है कि वे बेहद प्रतिभाशाली हैं और जनता की दिक्कतें दूर करने के लिए ऊपर वाले ने उन्हें धरती पर भेजा है.
ये भी पढ़ें- मौत का तांडव और नीतीश का मजाक
कुछ यही हाल ट्रंप और मोदी का है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने भारतीय मूल के वोटरों का दिल जीतने के लिए नरेंद्र मोदी के मशहूर नारे ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ की नकल कर अपना नारा बनाया, ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’. मोदी ने आम चुनाव में जनता को ‘अच्छे दिन’ का सपना दिखाया था. ट्रंप ने इसी तर्ज पर अमेरिका को फिर से महान बनाने की अपील जनता से की. ट्रंप और मोदी दोनों पर ही अल्पसंख्यकों के प्रति दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगता रहा है. मोदी ने कोलकाता में अपने एक भाषण के दौरान बांग्लादेशी प्रवासियों पर पाबंदी लगाये जाने की धमकी दी थी. हालांकि उन्होंने एक बार यह भी कहा था कि बांग्लादेशी हिन्दू प्रवासियों का भारत में स्वागत है. दूसरी तरफ ट्रंप के दिल में मुसलमानों और मेक्सिको के प्रवासियों के प्रति नफरत भरी हुई है. चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने मुसलमानों को अमेरिका में घुसने से रोकने और मेक्सिको के प्रवासियों को अमेरिका में घुसने से रोकने के लिए बड़ी दीवार बनाये जाने की बात कही थी. इस तरह दोनों पर ही ‘उग्र राष्ट्रवाद’ हावी है. और इस उग्र राष्ट्रवाद की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है मीडिया, जिसको खत्म करना दोनों की प्राथमिकता है.
जवाबदेही तय करने की जरूरत
अब अमेरिकी मीडिया जहां हार मानने को तैयार नहीं है और जिसने एकजुट होकर ट्रंप की जवाबदेही तय करने का फैसला किया है, वहीं भारतीय मीडिया का एक धड़ा, जिसे खूब बख्शीश और मुआवजों से लाद दिया गया है, मोदी का भोंपू बनकर उभरा है. ये अब मोदी की सेना की तरह काम कर रहा है. खूब शोर मचा रहा है और जनता से जुड़े हर मुद्दे, हर सवाल को पीछे ढकेल देता है. यह प्रधानमंत्री के लिए प्रधानमंत्री के कहे अनुसार मनमाफिक इन्टरव्यू प्लैन करता है. उनके मनमाफिक सवाल-जवाब तैयार करता है और उसका खूब प्रचार-प्रसार करता है. वह देशहित से जुड़ा, जनता की समस्याओं से जुड़ा प्रधानमंत्री को असहज करने वाला कोई सवाल नहीं पूछता. कितनी हैरत की बात है कि 26 मई 2014 को कुर्सी पर बैठने के बाद पूरे पांच साल तक मोदी ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की. जबकि किसी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करना स्वतंत्र मीडिया पर (जिसे वर्तमान सरकार सिकुलर्स और प्रेसिट्यूट्स कहकर पुकारती है) किया जाने वाला एहसान नहीं है, बल्कि यह सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है. सत्ता से सवाल पूछना स्वतंत्र प्रेस का अधिकार है. मगर प्रधानमंत्री मोदी ने इस अधिकार से मीडिया को वंचित रखा. सोशल मीडिया के जरिए मोदी का सम्मानित बुजुर्ग जैसा इकतरफा संवाद और रेडियो पर प्रसारित होने वाला उनका निजी एकालाप, वास्तव में लोकतंत्र और एक स्वतंत्र प्रेस की भूमिका के प्रति निकृष्ट अवमानना के भाव को प्रकट करता है. इसे सवालों से बचने की रणनीति कहा जाता है. जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी, मुख्यधारा के मीडिया के प्रति जिनकी नफरत के बारे में सबको पता है, व्हाइट हाउस (अमेरिकी राष्ट्रपति निवास) में नियमित प्रेस कांफ्रेंस की परम्परा को अभी समाप्त नहीं किया है.
लोकतांत्रिक दुनिया में मोदी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने आधिकारिक तौर पर सवाल पूछे जाने की प्रथा को अंगूठा दिखा दिया है. उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रेस सलाहकार तक की नियुक्ति नहीं की है, जबकि इसका रिवाज-सा रहा है. भाजपा के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसका पालन किया था. इस पद पर किसी को बैठाये जाने से प्रेस को प्रधानमंत्री के उनके अनेक वादों के बारे में सवाल पूछने में आसानी होती, मगर जब वादे पूरे ही नहीं करने हैं तो सवाल कैसे पूछने देते?
विदेशी दौरों के वक्त प्रधानमंत्री के हवाई जहाज में पत्रकारों को साथ ले जाने की परंपरा को भी खत्म कर दिया है. जबकि प्रधानमंत्री के सहयात्री होने से संवाददाताओं और संपादकों को प्रधानमंत्री से सवाल पूछने का मौका मिलता था.
गौरतलब है कि मोदी के पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह, जिनका ‘मौनमोहन सिंह’ कहकर मोदी मजाक उड़ाया करते थे, यात्रा के दौरान हवाई जहाज में पत्रकारों के साथ प्रेस कांफ्रेंस किया करते थे. इसमें वे पत्रकारों के तमाम सवालों का जवाब दिया करते थे और ये सवाल पहले से तय या चुने हुए नहीं होते थे. मनमोहन सिंह ने कार्यालय में रहते हुए कम से कम तीन बड़ी प्रेस कांफ्रेंस कीं (2004, 2006, 2010), जिसमें कोई भी शिरकत कर सकता था. जिसमें पत्रकार राष्ट्रीय हित के मसलों पर प्रधानमंत्री से सीधे अहम सवाल पूछ सकते थे.
अमेरिकी राष्ट्रपति भी विदेश दौरों के दौरान अपने साथ मीडिया के दल को लेकर जाते हैं और जरूरी सवाल पूछने के इस मौके को पत्रकारों के लिहाज से काफी सामान्य सी चीज माना जाता है. मगर मोदी को आजाद प्रेस बिल्कुल नहीं सुहाता है. और उनका यह स्वभाव आज का नहीं है. इसका इतिहास 2002 के गुजरात दंगों से ही शुरू होता है. अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके उन्होंने संवाद के परम्परागत माध्यमों को दरगुजर करने की कोशिश की है.
ये भी पढ़ें- आखिर क्यों छत्तीसगढ़ के इस समुदाय के बीच खिला
ऐसे में अब मीडिया घरानों, पत्रकारों और देश के बुद्धिजीवियों को तय करना होगा कि जो बात गुजरात के मुख्यमंत्री रहते चल गयी, और मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पांच साल तक चलती रही, वह क्या आगे भी चलेगी या इस पर कोई कड़ा फैसला लेने की जरूरत है. मीडिया को नहीं भूलना चाहिए कि उसका काम सवाल पूछना है, उसका अस्तित्व ही सवाल पूछने पर टिका हुआ है. लोकतंत्र के चौथे खम्भे को आज पहले खुद से यह सवाल पूछना है कि उसे सत्ता से गलबहियां करनी है या जनता की आवाज बनना है. एकजुट होकर अपनी अपनी स्वतंत्रता को फिर हासिल करना है या टुकड़े-टुकड़े होकर अपना अस्तित्व मिटा देना है. किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में सत्ता पर काबिज सरकार के कामों का मूल्यांकन तभी हो सकता है, जब उस राष्ट्र कर मीडिया स्वतंत्र हो और जिसमें सत्ता से सवाल करने की क्षमता व ताकत हो. अगर मीडिया स्वतंत्र और ताकतवर नहीं है तो आप किन सूचनाओं के आधार पर सरकार का मूल्यांकन कर पाएंगे? मीडिया का अस्तित्व ही सवाल पूछने और सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही तय करने के लिए है. पत्रकारिता में इसके अलावा बाकी जो कुछ होता है वह जनसम्पर्क की कवायत भर है. सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के लिए पूरे पन्ने का विज्ञापन देने के लिए आजाद है. बगैर सूचना और सवाल के न मीडिया का कोई अस्तित्व है और न जनता लोकतंत्र की नागरिक कहलाने लायक है.
Edited By- Neelesh Singh Sisodia