सियासत : कांग्रेस में रार, होनी चाहिए आर या पार

राजनीति में जब मनमुताबिक हालात नहीं होते हैं तो किसी सियासी दल की हालत उस डूबते जहाज की तरह हो जाती है, जिस के चूहे सब से पहले उसे छोड़ कर समुद्र में छलांग लगाते हैं. पर चूहे अगर कद्दावर हों तो जहाज के कप्तान को काटने से भी गुरेज नहीं करते हैं.

आज अगर सरसरी निगाहों से देखा जाए तो कांग्रेस इसी डूबते जहाज सी हो गई है. देश को अपने कई साल के राज से नई दिशा देने वाली कांग्रेस आज खुद दिशाहीन लग रही है. इतनी ज्यादा कि कोई भी छुटभैया नेता उसे ज्ञान बघार देता है.

हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार को ले कर अब इसी पार्टी में बगावत के सुर सुनाई दे रहे हैं. इस के वरिष्ठ नेता और नामचीन वकील कपिल सिब्बल ने जैसे ही इस के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाए कि पार्टी की भीतरी कलह एक बार फिर सामने आ गई.

पर इसे भितरघात बताते हुए राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कपिल सिब्बल को ही निशाने पर ले लिया और साथ ही दूसरे नेता सलमान खुर्शीद ने कपिल सिब्बल को ही ‘डाउटिंग थौमस’ करार दे दिया.

दरअसल, ‘डाउटिंग थौमस’ उस आदमी को कहते हैं जो किसी भी चीज पर यकीन करने से इनकार करता है जब तक कि वह खुद न अनुभव करे या सुबूत न हो. इतना ही नहीं, सलमान खुर्शीद ने एक इंटरव्यू में कपिल सिब्बल को पार्टी छोड़ने तक की सलाह दे दी.

एक न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में सलमान खुर्शीद ने कपिल सिब्बल की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अगर आप पार्टी में हैं और चीजों को खराब कर रहे हैं तो सब से अच्छा यही है कि आप पार्टी छोड़ दें.

सिब्बल का दुखती रग पर हाथ

सवाल यह है कि कपिल सिब्बल ने ऐसा क्या कहा कि कांग्रेस के दूसरे नेता उन पर हावी हो गए? दरअसल, कपिल सिब्बल ने एक इंगलिश अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में कथित तौर पर कहा था कि ऐसा लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने शायद हर चुनाव में पराजय को ही अपनी नियति मान लिया है… बिहार ही नहीं, उपचुनावों के नतीजों से भी ऐसा लग रहा है कि देश के लोग कांग्रेस पार्टी को प्रभावी विकल्प नहीं मान रहे हैं.

अपनी पार्टी को कठघरे में खड़ा करने वाले कपिल सिब्बल अकेले ही नहीं हैं, उन के साथसाथ कांग्रेस महासचिव तारिक अनवर ने भी कथित तौर पर कहा था कि बिहार चुनाव को ले कर पार्टी को आत्मचिंतन करना चाहिए.

एक हिंदी अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में तारिक अनवर ने बिहार विधानसभा चुनाव पर कांग्रेस के प्रदर्शन पर कहा, ‘इस का जायजा लेना होगा कि हम लोगों से कहां चूक हो रही है. यह भी हो सकता है कि लंबे वक्त तक सत्ता में बने रहने से हमारे जो स्टेट लीडर हैं, वे आलसी हो गए हों, काम करने की ताकत न रही हो. इस खुशफहमी से बाहर निकलना होगा कि गांधी परिवार से कोई आएगा और हम जीत जाएंगे. ऐसा नहीं चलने वाला…’

तारिक अनवर की चिंता जायज है, पर यह भी कड़वा सच है कि कांग्रेस आज भी गांधी परिवार के इर्दगिर्द ही सिमटी दिखाई देती है और अगर कोई अपना ही इस परिवार पर उंगली उठाता है, तो उसे ‘डाउटिंग थौमस’ करार दे दिया जाता है.

फिर दिक्कत क्या है

ऐसा नहीं है कि जनता को गांधी परिवार से कोई दुश्मनी है या इस पार्टी में बड़े कद के नेताओं की कमी हो गई है, पर इतना जरूर है कि फिलहाल इस पार्टी का कोई भी पासा सही नहीं पड़ रहा है.

इस की एक खास वजह यह है कि कांग्रेस यह नहीं फैसला कर पा रही है कि वह अपने वोटरों का दिल जीतने के लिए दो नावों की सवारी का करतब कब तक करेगी. दो नावों की सवारी का मतलब है अपनी धर्मनिरपेक्षता पर अडिग रहना या सौफ्ट हिंदुत्व का राग अलापना.

पिछले कुछ साल में भारतीय जनता पार्टी लोगों के दिमाग में यह भरने में कामयाब रही है कि वह इस देश में हिंदुत्व की हिफाजत करने वाली एकलौती पार्टी है और तीन तलाक कानून, धारा 370, राम मंदिर पर लिए गए उस के फैसले ने देश में हिंदूमुसलिम तबके के बीच एक लकीर खींच दी है, जिसे मिटाने में कांग्रेस के हाथपैर फूल रहे हैं. वह अगर मुसलिम समाज के हित की बात करती है तो हिंदू समाज की नाराजगी झेलती है और अगर सौफ्ट हिंदुत्व की तरफ जाती है तो मुसलिमों से दूर हो जाती है.

बिहार में दिखा असर

हालांकि बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ महागठबंधन की मजबूत साथी थी और उसे 70 सीटें भी दी गई थीं, पर वह उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं ला पाई. हाल यह हुआ कि हाथ आया पर मुंह को न लगा. यह महागठबंधन 12 जरूरी सीटों से पिछड़ गया और विपक्ष बन कर रह गया.

बाद में सब से बड़ा सवाल यही उभरा कि क्या कांग्रेस को 70 सीटें दी जानी चाहिए थीं? 70 सीटों में से महज 19 सीटें जीत कर कांग्रेस ने कोई कारनामा नहीं किया था. लिहाजा, उसे ही महागठबंधन की कमजोर कड़ी माना गया.

बिहार में कांग्रेस मुसलिमों को रिझाने में पूरी तरह नाकाम रही. उस ने असद्दुदीन ओवैसी को कम आंका या जानबूझ कर उन्हें नजरअंदाज किया, यह अलग सवाल है, पर खुद अपनी 70 सीटों में से उस ने महज 12 सीटों पर मुसलिम उम्मीदवार उतारे थे. उस ने खुद को तो मुसलिमों की हिमायती बताया पर ओवैसी को भाजपा का एजेंट बताते हुए उस पर खूब वार किए.

उधर, असदुद्दीन ओवैसी के पास खोने को कुछ नहीं था, लिहाजा उन्होंने भी कांग्रेस को यह कहते हुए खूब आड़े हाथ लिया कि अपने को सैकुलर कहने वाले दूसरे दलों को मुसलमानों के वोट तो अच्छे लगते हैं, पर उन की दाढ़ी और टोपी उन्हें पसंद नहीं.

जब बिहार में ओवैसी ने अपने खाते में 5 सीटें कर लीं, तो सियासी गलियारों में यह सुगबुगाहट शुरू हो गई कि क्या मुसलिम समाज का कांग्रेस या तथाकथित सैकुलर दलों से मोह भंग हो रहा है? कहीं ओवैसी में उन्हें अपना रहनुमा तो नहीं दिखाई दे रहा है? और अगर ऐसा है तो पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में कुछ अलग ही रंगत देखने को मिलेगी, जो कांग्रेस जैसे सैकुलर दलों के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है.

पर अभी भी कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ा है. कांग्रेस को दूसरे दलों की ताकत के साथसाथ अपनी अंदरूनी कमियों पर भी गंभीरता से सोचना होगा. अगर उसे गांधी परिवार की जरूरत है तो वह इस बात को खुल कर स्वीकार करे, जिस से राहुल गांधी को नई ताकत मिलेगी. बाकी नेताओं को भी आपसी निजी रंजिश भुला कर एकजुट होना होगा. उन्हें अपने नेतृत्व पर सवाल उठाने का पूरा हक है, पर अगर कोई दूसरा मजबूत विकल्प नहीं है तो जो सामने है, उस में वे अपनी आस्था बनाएं और मजबूती के साथ जनता के सामने जाएं. बिल्ली देख कर कबूतर की तरह अपनी आंखें बंद करने से समस्या का हल नहीं होगा. आरपार की ही लड़ाई सही, पूरी ताकत से लड़ें, फिर नतीजा चाहे कुछ भी रहे.

गहरी पैठ

हाथरस, बलरामपुर जैसे बीसियों मामलों में दलित लड़कियों के साथ जो भी हुआ वह शर्मनाक तो है ही दलितों की हताशा और उन के मन की कमजोरी दोनों को दिखाता है. 79 सांसदों और 549 विधायक जिस के दलित हों, वह भारतीय जनता पार्टी की इस बेरुखी से दलितों पर अत्याचार करते देख रही है तो इसलिए कि उसे मालूम है कि दलित आवाज नहीं उठाएंगे.

पिछले 100 सालों में पहले कांग्रेसी नेताओं ने और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं ने जम कर पौराणिक व्यवस्था को गांवगांव में थोपा. रातदिन पुराणों, रामायण, महाभारत और लोककथाओं को प्रवचनों, कीर्तनों, यात्राओं, किताबों, पत्रिकाओं, फिल्मों व नाटकों से फैलाया गया कि जो व्यवस्था 2000 साल पहले थी वही अच्छी थी और तर्क, तथ्य पर टिकी बराबरी की बातें बेकार हैं.

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जिन लोगों ने पढ़ कर नई सोच अपनाई थी उन्हें भी इस में फायदा नजर आया चाहे वे ऊंची जातियों के पढ़े-लिखे सुधारक हों या दलितों के ही नेता. उन्हें दलितों में कम पैसे में काम करने वालों की एक पूरी बरात दिखी जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे.

यही नहीं, दलितों के बहाने ऊंची जातियों को अपनी औरतों को भी काबू में रखने का मौका मिल रहा था. जाति बड़ी, देश छोटा की बात को थोपते हुए ऊंची जातियों ने दहेज, कुंडली, कन्या भ्रूण हत्या जम कर अपनी औरतों पर लादी. औरत या लड़की चाहे ऊंची जाति की हो या नीची, मौजमस्ती के लिए है. इस सोच पर टिकी व्यवस्था में सरकार, नेताओं, व्यापारियों, अफसरों, पुलिस से ले कर स्कूलों, दफ्तरों में बेहद धांधली मचाई गई.

हाथरस में 19 साल की लड़की का रेप और उस से बुरी तरह मारपीट एक सबक सिखाना था. यह सबक ऊंची जातियां अपनी औरतों को भी सिखाती हैं, रातदिन. अपनी पढ़ीलिखी औरतों को रातदिन पूजापाठ में उलझाया गया. जो कमाऊ थीं उन का पैसा वैसे ही झटक लिया गया जैसा दलित आदमी औरतों का झटका जाता है. जिन आदमियों को छूना पाप होता है, उन की औरतों, बेटियों के गैंगरेप तक में पुण्य का काम होता है. यह पाठ रोज पढ़ाया जाता है और हाथरस में यही सबक न केवल ब्राह्मण, ठाकुर सिखा रहे हैं, पूरी पुलिस, पूरी सरकार, पूरी पार्टी सिखा रही है.

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दलितों के नेता चुपचाप देख रहे हैं क्योंकि वे मानते हैं कि जिन का उद्धार नहीं हुआ उन्हें तो पाप का फल भोगना होगा. मायावती जैसे नेता तो पहले ही उन्हें छोड़ चुके हैं. भारतीय जनता पार्टी के 79 सांसद और 549 विधायक अपनी बिरादरी से ज्यादा खयाल धर्म की रक्षा के नाम पर पार्टी का कर रहे हैं. दलित लड़कियां तो दलितों के हाथों में भी सुरक्षित नहीं हैं. यह सोच कर इस तरह के बलात्कारों पर जो चुप्पी साध लेते हैं, वही इस आतंक को बढ़ावा दे रहे हैं.

सरकार की हिम्मत इस तरह बढ़ गई है कि उस ने अपराधियों को बचाने के लिए पीडि़ता के घर वालों पर दबाव डाला और हाथरस के बुलगढ़ी गांव को पुलिस छावनी बना कर विपक्षी दलों और प्रैस व मीडिया को जाने तक नहीं दिया. वे जानते हैं कि जाति शाश्वत है. यह हल्ला 4 दिन में दब जाएगा.

बिहार चुनावों की गुत्थी समझ से परे हो गई है. भारतीय जनता पार्टी नीतीश कुमार का साथ भी दे रही है और उसी के दुश्मन चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी से भी मिली हुई है. इस चक्कर में हाल शायद वही होगा जो रामायण और महाभारत के अंत में हुआ. रामायण में अंत में राम के पास न सीता थी, न बच्चे लवकुश, न लक्ष्मण, न भरत. महाभारत में पांडवों के चचेरे भाई मारे भी जा चुके थे और उन के अपने सारे बेटेपोते भी.

लगता है कि हिंदू पौराणिक कथाओं का असर इतना ज्यादा है कि बारबार यही बातें दोहराई जाती हैं और कुछ दिन फुलझड़ी की तरह हिंदू सम्राट का राज चमकता है, फिर धुआं देता बुझ जाता है. बिहार में संभव है, न नीतीश बचें, न चिराग पासवान.

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जो स्थिति अब दिख रही है उस के अनुसार चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार भाजपा की सहयोगी पार्टी सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार खड़ी करेगी. वे कितने वोट काटेंगे पता नहीं, पर चिराग पासवान के पास अगर अभी भी दलित व पासवान वोटरों का समर्थन है तो आश्चर्य की बात होगी, क्योंकि चिराग पासवान जाति के नाम पर वोट ले कर सत्ता में मौज उठाने के आदी हो चुके हैं. हो सकता है कि उन्हें एहसास हो गया हो कि नीतीश कुमार निकम्मेपन के कारण हारेंगे तो लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ गठबंधन करने में आसानी रहेगी और तब वे भाजपा को 2-4 बातों पर कोस कर अलग हो जाएंगे.

जो भी हो, यह दिख रहा है कि कम से कम नेताओं को तो बिहार की जनता की चिंता नहीं है. बिहार की जनता को अपनी चिंता है, इस के लक्षण दिख नहीं रहे, पर कई बार दबा हुआ गुस्सा वैसे ही निकल पड़ता है जैसे 24 मार्च को लाखों मजदूर दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु से पैदल ही बिहार की ओर निकले थे. वह हल्ला का परिणाम था, चुनावों में गुस्से का दर्शन हो सकता है.

बिहार के मुद्दे अभी तक चुनावी चर्चा में नहीं आए हैं. बिहार में बात तो जाति की ही हो रही है. बिहार की दुर्दशा के लिए यही जिम्मेदार है कि वहां की जनता बेहद उदासीन और भाग्यवादी है. उसे जो है, जैसा है मंजूर है, क्योंकि उसे पट्टी पढ़ा दी गई है कि सबकुछ पूजापाठी तय करते हैं, आम आदमी के हाथ में कुछ नहीं है.

बिहार देश की एक बहुत बड़ी जरूरत है. वहां के मजदूरों ने ही नहीं, वहां के शिक्षितों और ऊंची जाति के नेताओं ने देशभर में अपना नाम कमाया है. बिहार के बिना देश अधूरा है पर बिहार में न गरीब की पूछ है, न पढ़ेलिखे शिक्षित की चाहे वह तिलकधारी हो या घोर नास्तिक व तार्किक. ऐसा राज्य अपने नेताओं के कारण मैलाकुचला पड़ा रहे, यह खेद की बात है और नीतीश कुमार जीतें या हारें कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

बिहार में का बा : लाचारी, बीमारी, बेरोजगारी बा

जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के नाम अपने संदेश में लोगों को कोरोना से बचने के लिए आगाह कर रहे थे, उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा बिहार विधानसभा चुनाव के सिलसिले में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. उस भीड़ में न मास्क था और न ही आपस में 2 गज की दूरी. इसी साल के मार्च महीने में जब कोरोना की देश में आमद हो रही थी, तब 2,000 लोगों के जमातीय सम्मेलन को कोरोना के फैलने की वजह बता कर बदनाम किया गया था, पर अब बिहार चुनाव में लाखों की भीड़ से भी कोई गुरेज नहीं है.

बिहार चुनाव इस बार बहुत अलग है. नीतीश कुमार अपने 15 साल के सुशासन की जगह पर लालू प्रसाद यादव के 15 साल के कुशासन पर वोट मांग रहे हैं. इस के उलट बिहार के 2 युवा नेताओं चिराग पासवान और तेजस्वी यादव ने बड़ेबड़े दलों के समीकरण बिगाड़ दिए हैं.

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बिहार चुनाव में युवाओं की भूमिका अहम है. बिहार में बेरोजगारी सब से बड़ा मुद्दा बन गई है. एक अनजान सी गायिका नेहा सिंह राठौर ने ‘बिहार में का बा’ की ऐसी धुन जगाई है कि भाजपा जैसे बड़े दल को बताना पड़ रहा है कि ‘बिहार में ई बा’ और नीतीश कुमार अपने काम की जगह लालू के राज के नाम पर वोट मांग रहे हैं.

बिहार की चुनावी लड़ाई अगड़ों की सत्ता को मजबूत करने के लिए है. एससी तबके की अगुआई करने वाली लोक जनशक्ति पार्टी को राजग से बाहर कर के सीधे मुकाबले को त्रिकोणात्मक किया गया है, जिस से सत्ता विरोधी मतों को राजदकांग्रेस गठबंधन में जाने से रोका जा सके.

जिस तरह से नीतीश कुमार का इस्तेमाल कर के पिछड़ों की एकता को तोड़ा गया, अब चिराग पासवान को निशाने पर लिया गया है, जिस से कमजोर पड़े नीतीश कुमार और चिराग पासवान पर मनमाने फैसले थोपे जा सकें.

बिहार चुनाव में अगर भाजपा को पहले से ज्यादा समर्थन मिला, तो वह तालाबंदी जैसे फैसले को भी सही साबित करने की कोशिश करेगी. बिहार को हिंदुत्व का नया गढ़ बनाने का काम भी होगा.

बिहार के चुनाव में जातीय समीकरण सब से ज्यादा हावी होते हैं. यह कोई नई बात नहीं है. आजादी के पहले से ही यहां जातीयता और राजनीति में चोलीदामन का साथ रहा है. 90 के दशक से पहले यहां की राजनीति पर अगड़ों का कब्जा रहा है.

लालू प्रसाद यादव ने मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीति की दिशा को बदल दिया था. अगड़ी जातियों ने इस के खिलाफ साजिश कर के कानून व्यवस्था का मामला उठा कर लालू प्रसाद यादव के राज को ‘जंगलराज’ बताया था. उन के सामाजिक न्याय को दरकिनार किया गया था.

पिछड़ी जातियों में फूट डाल कर नीतीश कुमार को समाजवादी सोच से बाहर कर के अगड़ी जातियों के राज को स्थापित करने में इस्तेमाल किया गया था. बिहार की राजनीति के ‘हीरो’ लालू प्रसाद यादव को ‘विलेन’ बना कर पेश किया गया था.

भारतीय जनता पार्टी को लालू प्रसाद यादव से सब से बड़ी दुश्मनी इस वजह से भी है कि उन्होंने भाजपा के अयोध्या विजय को निकले रथ को रोकने का काम किया था. साल 1990 में जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ ले कर भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी निकले, तो उन को बिहार में रोक लिया गया.

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भाजपा को लालू प्रसाद यादव का यह कदम अखर गया था. केंद्र में जब भाजपा की सरकार आई, तो लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में उल झाया गया और इस के सहारे उन की राजनीति को खत्म करने का काम किया गया.

लालू प्रसाद यादव के बाद भी बिहार की हालत में कोई सुधार नहीं आया. बिहार में पिछले 15 साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इस के बाद भी बिहार बेहाल है.

साल 2020 के विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव का ‘सामाजिक न्याय’ भी बड़ा मुद्दा है. लालू प्रसाद यादव भले ही चुनाव मैदान में नहीं हैं, पर उन का मुद्दा चुनाव में मौजूद है.

नई पीढ़ी का दर्द

तालाबंदी के बाद मजदूरों का पलायन एक दुखभरी दास्तान है. नई पीढ़ी के लोगों को यह दर्द परेशान कर रहा है. नौजवान सवाल कर रहे हैं कि 15 साल तक एक ही नेता के मुख्यमंत्री रहने के बाद भी बिहार की ऐसी हालत क्यों है? अब उसी नेता को दोबारा मुख्यमंत्री पद के लिए वोट क्यों दिया जाए?

मुंबई आ कर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग अपनी रोजीरोटी के लिए तिलतिल मरते हैं. अगर उन के प्रदेशों में कामधंधा होता, रोजीरोटी का जुगाड़ होता, तो ये लोग अपने प्रदेश से पलायन क्यों करते?

फिल्म कलाकार मनोज बाजपेयी ने अपने रैप सांग ‘मुंबई में का बा…’ में मजदूरों की हालत को बयां किया है.  5 मिनट का यह गाना इतना मशहूर  हुआ कि अब बिहार चुनाव में वहां की जनता सरकार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’.

दरअसल, बिहार में साल 2005 से ले कर साल 2020 तक पूरे 15 साल नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रहे हैं. केवल एक साल के आसपास जीतनराम मां झी मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ पाए थे, वह भी नीतीश कुमार की इच्छा के मुताबिक.

किसी भी प्रदेश के विकास के लिए 15 साल का समय कम नहीं होता. इस के बाद भी बिहार की जनता नीतीश कुमार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’ यानी बिहार में क्या है?

तालाबंदी के दौरान सब से ज्यादा मजदूर मुंबई से पलायन कर के बिहार आए. 40 लाख मजदूर बिहार आए. इन में से सभी मुंबई से नहीं आए, बल्कि कुछ गुजरात, पंजाब और दिल्ली से भी आए.

ये मजदूर यह सोच कर बिहार वापस आए थे कि अब उन के प्रदेश में रोजगार और सम्मान दोनों मिलेंगे. यहां आ कर मजदूरों को लगा कि यहां की हालत खराब है. रोजगार के लिए वापस दूर प्रदेश ही जाना होगा. बिहार में न तो रोजगार की हालत सुधरी और न ही समाज में मजदूरों को मानसम्मान मिला.

बीते 15 सालों में बिहार की  12 करोड़, 40 लाख आबादी वाली जनता भले ही बदहाल हो, पर नेता अमीर होते गए हैं. बिहार में 40 सांसद और 243 विधायक हैं. इन की आमदनी बढ़ती रही है. पिछले 15 सालों में  85 सांसद करोड़पति हो गए और 468 विधायक करोड़पति हो गए.

मनरेगा के तहत बिहार में औसतन एक मजदूर को 35 दिन का काम मिलता है. अगर इस का औसत निकालें तो हर दिन की आमदनी 17 रुपए रोज की बनती है. राज्य में गरीब परिवारों की तादाद बढ़ती जा रही है.

गरीबी रेखा से नीचे यानी बीपीएल परिवारों की तादाद तकरीबन 2 करोड़, 85 लाख है. नीतीश कुमार के 15 सालों में गरीबों की तादाद बढ़ी है और नेताओं की आमदनी बढ़ती जा रही है.

जंगलराज या सामाजिक न्याय

मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीतिक और सामाजिक हालत में आमूलचूल बदलाव हुआ. लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय के पुरोधा बन कर उभरे. उन के योगदान को दबाने का काम किया गया.

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साल 1990 से साल 2020 के  30 सालों में बिहार पर दलितपिछड़ा और मुसलिम गठजोड़ राजनीति पर हावी रहा है. अगड़ी जातियों का मकसद है कि  30 सालों में जो उन की अनदेखी हुई, अब वे मुख्यधारा का हिस्सा बन जाएं.

भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में अगड़ी जातियां काफीकुछ अपने मकसद में कामयाब भी हो गई हैं. बिहार में भाजपा का युवा शक्ति के 2 नेताओं तेजस्वी यादव और चिराग पासवान से सीधा मुकाबला है.

भाजपा के पास बिहार में कोई चेहरा नहीं है, जिस के बल पर वह सीधा चुनाव में जा सके. सुशील कुमार मोदी भाजपा का पुराना चेहरा हो चुके हैं.

विरोधी मानते हैं कि बिहार में लालू प्रसाद यादव के समय जंगलराज था. जंगलराज का नाम ले कर लोगों को डराया जाता है कि लालू के आने से बिहार में जंगलराज की वापसी हो जाएगी.

राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘मंडल कमीशन के बाद वंचितों को न्याय और उन को बराबरी की जगह दे कर सामाजिक न्याय दिलाने का काम किया गया था. अब आर्थिक न्याय देने की बारी है.

‘जो लोग जंगलराज का नाम ले कर बिहार की छवि खराब कर रहे हैं, वे बिहार के दुश्मन हैं. इन के द्वारा बिहार की छवि खराब करने से यहां पर निवेश नहीं हो रहा. लोग डर रहे हैं. अब हम आर्थिक न्याय दे कर नए बिहार की स्थापना के लिए काम करेंगे.’

वंचितों के नेता

लालू प्रसाद यादव की राजनीति को हमेशा से जातिवादी और भेदभावपूर्ण बता कर खारिज करने की कोशिश की गई. लालू प्रसाद यादव अकेले नेता नहीं हैं, जिन को वंचितों के हक की आवाज उठाने पर सताया गया हो. नेल्सन मंडेला, भीमराव अंबेडकर, मार्टिन लूथर किंग जैसे अनगिनत उदाहरण पूरी दुनिया में भरे पड़े हैं.

लालू प्रसाद यादव सामंतियों के दुष्चक्र के शिकार हुए, जिन की वजह से उन का राजनीतिक कैरियर खत्म करने की कोशिश की गई. इस के बाद भी लालू प्रसाद यादव के योगदान से कोई इनकार नहीं किया जा सकता है.

लालू प्रसाद यादव साल 1990 से साल 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे. साल 2004 से साल 2009 तक उन्होंने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग सरकार में रेल मंत्री के रूप में काम किया.

बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो अदालत ने 5 साल के कारावास की सजा सुनाई. चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद उन्हें लोकसभा से अयोग्य ठहराया गया.

लालू प्रसाद यादव मंडल विरोधियों के निशाने पर थे. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि साल 1990 में लालू प्रसाद यादव ने राम रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया.

मंडल विरोधी भले ही लालू प्रसाद यादव के राज को जंगलराज बताते थे, पर सामाजिक मुद्दे के साथसाथ आर्थिक मोरचे पर भी लालू सरकार की तारीफ होती रही है.

90 के दशक में आर्थिक मोरचे पर विश्व बैंक ने लालू प्रसाद यादव के काम की सराहना की. लालू ने शिक्षा नीति में सुधार के लिए साल 1993 में अंगरेजी भाषा की नीति अपनाई और स्कूल के पाठ्यक्रम में एक भाषा के रूप में अंगरेजी को बढ़ावा दिया.

राजनीतिक रूप से लालू प्रसाद यादव के जनाधार में एमवाई यानी मुसलिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है. लालू ने इस से कभी इनकार भी नहीं किया है.

साल 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री बने. उन के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई.

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भारत के सभी प्रमुख प्रबंधन संस्थानों के साथसाथ दुनियाभर के बिजनैस स्कूलों में लालू प्रसाद यादव के कुशल प्रबंधन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया.

अगड़ी जातियों की वापसी

राजनीतिक समीक्षक अरविंद जयतिलक कहते हैं, ‘जनता यह मानती है कि राज्य की कानून व्यवस्था अच्छी रहे. यही वजह है कि लालू प्रसाद यादव के विरोधियों ने उन की पहचान को जंगलराज से जोड़ कर प्रचारित किया. उन के प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार के राज को सुशासन कहा गया.

‘इसी मुद्दे पर ही नीतीश कुमार हर बार चुनाव जीतते रहे और 15 साल तक मुख्यमंत्री बने रहे. लालू प्रसाद यादव ने जो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी और जो आर्थिक सुधारों के लिए काम किया, उस की चर्चा कम हुई.

‘लालू प्रसाद यादव की आलोचना में विरोधी कामयाब रहे. बहुत सारे काम करने के बाद भी लालू यादव को जो स्थान मिलना चाहिए था, नहीं मिला.’

बिहार में तकरीबन 20 फीसदी अगड़ी जातियां हैं. पिछड़ी जातियों में 200 के ऊपर अलगअलग बिरादरी हैं. इन में से बहुत कोशिशों के बाद कुछ जातियां ही मुख्यधारा में शामिल हो पाई हैं. बाकी की हालत जस की तस है. इन में से 10 से 15 फीसदी जातियों को ही राजनीतिक हिस्सेदारी मिली है.

1990 के पहले बिहार की राजनीति में कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय और भूमिहार प्रभावी रहे हैं. दलितों की हालत भी बुरी है. बिहार की आबादी का 16 फीसदी दलित हैं. अगड़ी जातियों ने दलितों में खेमेबंदी को बढ़ावा देने का काम किया है.

साल 2005 में भाजपा और जद (यू) ने अगड़ी जातियों को सत्ता में वापस लाने का काम किया. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अब नीतीश कुमार को भी दरकिनार करने की कोशिश कर रही है.

नितीश के सियासी रंग और बिहार का चुनाव

सबसे अधिक छह बार बिहार के मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले नितीश कुमार भारतीय राजनीति मे सत्ता के लिए सबसे अधिक रंग बदलने वाले चेहरे भी हैं. उनके पास सुशासन का तमगा, केवल मंचों से नैतिकता का पाठ पढ़ाने और आश्वासन देने का हुनर भी है. नितीश जब सफेद मुस्लिम टोपी और हरे गमछे मे होते थे तब भी उनके पास सत्ता थी और केसरिया साफे और गमछे के साथ भी सत्ता है. इससे जाहिर है कि वह देश‌ के ऐसे नेता हैं जो सत्ता के लिए कभी भी रंग बदल सकते हैं. जबकि वह खुद आज भी मंचों से सबसे अधिक नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं.

बहुत पीछे जाने की जरूरत नही है.नितीश ने मुस्लिम वोटर्स को रिझाने के लिए ट्रिपल तलाक़ और जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने का विरोध किया था. यहां तक कि तीन तलाक और आर्टिकल 370 के मुद्दे पर वोटिंग के दौरान दोनों सदनों से उनकी पार्टी के सांसद वॉकआउट कर गए थे. बिहार विधान सभा मे एनआरसी और एनपीआर लागू न करने का प्रस्ताव पास करवाने वाले नितीश कुमार की पार्टी ने केंद्र में सीएए का समर्थन किया, राज्यसभा और लोकसभा मे उनके सांसदों ने वोट किया. यहां तक की राज्य सभा मे उनके मुस्लिम सांसदों ने भी वोट किया.

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वहीं साल 2010 के नितीश कुमार सब को याद होंगें, जब वह हर कुछ महीनों में केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार के पास बिहार के मदरसों के अनुदान का प्रस्ताव भेजते थे. मनमोहन सरकार उसे बार बार नकार देती थी. केंद्र में सत्ता बदली तो यही नितीश केसरिया साफे में आ गये और अपने पुराने प्रस्ताव को भूल गए. आपको ये भी बता दें कि ये वही नितीश हैं जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी का 10 साल से ज्यादा का सत्ता का साथ छोड़ कर अपने धुर विरोधी लालू यादव का, जिनको वह डेढ़ दशक से ज्यादा समय से कोसते आए थे, हाथ थाम लिया था.

यही नही नितीश उन्हें अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का सबसे बड़ा मसीहा बताने लगे और भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे थे. बात यहीं खतम नही होती, फिर वही नितीश थे कि अभी सुहाग की मेहंदी सूखी भी नहीं थी कि पाला बदला भाजपा के बगलगीर हो गये और फिर भाजपा के साथ सरकार बना ली. जो दुनिया के प्रजातंत्र में एक अनूठी अनैतिकता कही जा सकती है? राजनीति में नैतिकता के साथ खिलवाड़ का या जनमत के साथ इतना हास्य शायद इससे पहले नहीं हुआ होगा. वैसे पाला बदलने की घटनाएं पिछले छह सालों मे अब देश के कई राज्यों मे हो चुकी हैं. लेकिन वह नितीश कुमार जैसे नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले लोग नही थे.

बिहार विधानमंडल के पिछले सत्र मे विधानसभा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी ने अपना भाषण उर्दू में पढ़ा,क्या ये मुसलमानों को पटाने की कवायद नही थी. जबकि भाजपा विधायकों ने इस पर एतराज भी जताया. उसके बाद ही नितीश कुमार ने अजमेर शरीफ चादर भेजी हजरत ख्वाजा गरीब नवाज के मजार पर चढ़ाने के लिए. जबकि उनका उस्र नही था, पर बिहार मे चुनाव की आहट जरूर थी. बिहार की राजनीति मे 17 प्रतिशत मुसलमान चुनावी नतीजे को प्रभावित करते हैं. लालू के बाद बिहार के मुसलमानों के लिए नितीश कुमार ही पसंदीदा चेहरें हैं.

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सत्ता मे आने के बाद उन्होने इस समुदाय को लेकर तमाम घोषणएं भी की थी. लेकिन सथानीय लागों का कहना हे कि अधीकांश धोष्णओं की जमीनी हकीकत आज भी, मंचों और भाषणों तक सीमित है.अलबत्ता कब्रिस्तानों की धेराबंदी के मामले मे बड़े पैमाने पर काम दिखता है. उर्दू शिक्षकों की बहाली का मामला हो,मदरसा शिक्षकों के वेतन, मदरसों के अनुदान का मामला हो, मुस्लिम नौजवानों के रोजगार का मामला हो, शिक्षा और स्वास्थ्य का मामला हो, मुस्लिम क्षेत्रों के अस्पताल और सरकारी स्कूलों का मामला हो या अल्पसंख्यक लोन का मामला हो, पर जदयू सरकार ने अब तक काम ठोस काम नही किया है.

नितीश कुमार कभी मुसलमानों को लाली पाप देते हैं तो कभी दलितों और पिछड़ों को. दरअसल, बिहार में अब तक राजनीति जाति से संचालित होती रही है, यानी वह जाति के लचीले खोल में समाकर ही आकार लेती रही है. लेकिन नितीश कुमार ने यहां भी एक दांव खेला और जाति समूहों और उन समूहों से बनने वाले समीकरण को साधा. जैसे कि लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय का नारा देकर पिछड़ों और दलितों को गोलबंद कर अपनी राजनीति को परवान चढ़ाया था. वहीं नितीश ने सामाजिक न्याय के साथ विकास का नारा दिया.जातीय न्याय के साथ ही आर्थिक न्याय और लैंगिक न्याय के नारें को भी उन्होने उछाला.

महिलाओं को पंचायती चुनाव में आरक्षण देकर, अतिपिछड़ा और महादलित नाम से नए राजनीतिक समूह का गठन कर वे ऐसा करने में सफल हो सके. वहीं मुस्लिम में अशराफ मुस्लिम के मुकाबले पसमांदा समूह को उभारकर भी वे ऐसा करने में कामयाब रहे. दरअसल बिहार में जाति का समीकाण उतना आसान है भी नहीं.ओबीसी में दस जातियां हैं, बात सिर्फ कोईरी, कुरमी, यादव और बनिया पर होकर रह जाती है. दलितों मे करीब दो दर्जन जातियां हैं. मुस्लिमों में ही 42 जातियां हैं.अतिपिछड़ा समूह में तो जातियों की संख्या 120 के पार है.गौरतलब है कि ये वही बिहार है जहां आजादी से पहले जनेऊ आंदोलन हुआ था, यादवों और कुछ अन्य ग़ैर-ब्राह्मण पिछड़ी जातियों ने जनेऊ पहनना शुरू किया. फिर समय ने करवट बदला तो इसी बिहार मे जेपी आंदोलन के वक़्त संपूर्ण क्रांति के लिए हज़ारों लोगों ने पटना के गांधी मैदान में जनेऊ तोड़े भी थे. यानी बिहार मे जाति का गणीत बेहद जटिल है और हर राजनीतिक दल उसे अपने हिसाब से हल करना चाहता है.

दरअसल  लालू-राबड़ी के 15 साल के काल के बाद नितीश कुमार बिहार के लिए उम्मीदों और अरमानों की गठरी ले कर आए थे. वादों की लम्बी फेहरिस्त के साथ और कुछ अच्छा करेंगे जैसे भरोसे के साथ. अगर लालू के 15 साल और नितीश के 15 सालों की तुलना की जाये तो बिहार मे बदलाव तो दिखता है, लेकिन उनके अधिकांश वादे फाइलों मे कैद रह गये. खासकर दलितों और मुस्लिमों से जुड़े मामलों पर वह उतने खरे नही उतरे जितना इन वर्गों को सपना दिखाया गया था.

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कोरोना वायरस के चलते हुए लाकडाउन के दौरान बिहार के प्रवासी मजदूरों और छात्रों को लेकर जिस तरह से सुशासन बाबू ने रूख अपनाया था, उससे सत्ता के पहले वाले नितीश कुमार के मुकाबाले मुख्यमंत्री नितीश कुमार ही एक अकुशल प्रशासक के तौर पर दिखे थे.बहुत तेज़ी से उनकी लोकप्रियता मे कमी आयी है. बिहार मे उनकी साख को बट्टा बहुत तेज़ी से लग रहा है. आपको याद होगा कि नितीश को लोगों ने लालू प्रसाद यादव से ज्यादा सक्षम प्रशासक माना था. लेकिन आज राज्य में भ्रष्टाचार हर स्तर पर है. कानून व्यवास्था का मजाक हर जगह, हर रोज़ उड़ता है. कहा जाता है कि शराबबंदी ने राज्य में पुलिस के लिए कमाई का एक नया रास्ता खोल दिया है.छह साल पहले केंद्र से बेटी बचाओ का नारा खूब जोर से उछला था, लेकिन बिहार मे अक्सर बेटियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं होती है.

इसके बावजूद खाकी के बड़े ओहदेदार राजनीति की आकांक्षा रखते हैं. आईपीएस अफसर सुनील कुमार और पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने खाकी से खादी की तरफ रूख कर भी लिया है. यहां भी वही जाति का खेल दिख रहा है. आपको याद होगा कि सुशांत सिंह राजपूत मामले मे तब डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पांडेय ने जिस तरह की टिप्पणीयां की थी, इतने बड़े पद पर रहने के दौरान ऐसी टिप्पणीयां सुनने को नही मिलती हैं. राजनीतिक हलकों मे कहा जा रहा है कि नितीश कुमार ने हाल मे दलितों के साथ कुछ कागजी और कुछ असल की जो दरियादिली दिखायी है, कहीं वो सब भारी न पड़ जाये इसलिए बैलेंस करने के लिए  गुप्तेश्वर पांडेय को सवर्ण कार्ड के तौर पर प्रयोग करेगें. वैसे इन चुनावों मे श्री पांडेय को नितीश ने कहीं से उम्मीदवार नही बनाया है. बिहार मे रोजगार की समस्या सारे पुराने आंकड़ों को पार कर गयी है. याद रहे इन में से कई मुद्दों के खिलाफ ही माहौल बना कर नितीश कुमार बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे. आज वो सब कुछ किसी न किसी रूप मे उनके शासन का अंग है.

बिहार में 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव जीतने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मतदाता महत्वपूर्ण हैं. राज्य में एससी/एसटी वोट करीब 16 प्रतिशत से ज्यादा है. यही वजह है कि सभी पार्टियों और गठबंधन की रणनीती के केंद्र में ये वोटबैंक है. कुमार शुरू से दलितों को किसी न किसी रूप मे रिझातें रहें हैं. ये बात अलग है कि चुनावों से ठीक पहले उन्होने दलितों को रिझाने के लिए एक और दांव खेला, कि अनुसूचित जाति-जनजाति के किसी व्यक्ति की हत्या हो जाने पर उसके परिवार के किसी एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी.

राजनीतिक हलके मे इसे केवल चुनावी ऐलान माना जा रहा है.क्यों कि घोषण मे पिछली हत्यायों का कोई जिक्र नही है. नितीश ने दलितों को 3 डिसमिल जमीन देने का वादा किया गया था जो आज तक पूरा नहीं हो पाया है. इसी लिए चिराग पासवान जैसे दलित नेताओं ने कहा है कि सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अपराधियों में क़ानून का भय हो. जिससे भविष्य में न सिर्फ़ दलितों बल्कि किसी भी वर्ग के लोगों की हत्या न हो सके. बहरहाल बिहार की राजनीति में पिछले 15 दिनों में दिलचस्प बदलाव देखने को मिल रहा है.जो चुनाव अब तक राजग के लिए काफी आसान लग रहा था जिसमें भाजपा आगे नजर आ रही थी लेकिन अब हालात बिल्कुल बदल चुके हैं.

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राजग ने 180 से अधिक सीटें जीतने की बात करनी बंद कर दी है. इसके अलावा, भाजपा ने नितीश कुमार के शासन का बचाव करना शुरू कर दिया है. हालांकि जब चुनावी प्रक्रिया की शुरुआत हो रही थी तब पार्टी के कई नेताओं ने इसको नजरअंदाज किया था और मांग की थी कि चुनाव के बाद नितीश की जगह भाजपा के किसी और नेता को लाया जाए. भाजपा को डर सताने लग रहा है कि नितीश तो खुद डूबेंगे ही,उसके साथ-साथ भाजपा को भी नुकसान हो सकता है. इस लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा फिर एक बार सामने किया जा रहा है. नितीश और प्रधानमंत्री की संयुक्त रैलियों और सभाओं की रणनीति बन रही है.देखना है कि आने वाले दिनों मे चुनाव कितना और करवट बदलता है, क्योंकि कई छोटे-छोटे राजनीतिक दल भी अपने अंदाज मे ताल ठोंक रहें हैं.

बिहार चुनाव में नौजवान चेहरों ने संभाली कमान

बिहार चुनाव में इस बार नौजवान चेहरों ने धूम मचा रखी है. राजद के तेजस्वी यादव और लोजपा के चिराग पासवान ने तो वर्तमान सत्ता पक्ष की नींद हराम कर दी है. सोशल मीडिया पर नौजवान तबका इस बार के चुनाव में बहुत ज्यादा जोश में है. उम्मीदवारों के साथ नौजवान कार्यकर्ता ज्यादा दिखाई पड़ रहे हैं.

प्लूरल्स पार्टी से इस बार पुष्पम प्रिया चौधरी नौजवान उम्मीदवार हैं. अखबारों में पहले पेज पर इश्तिहार दे कर वे खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी हैं. दिग्गज नेता अपना भविष्य अपने बच्चों में देखने लगे हैं. अपनी राजनीतिक विरासत अपने बच्चों को सौंपने लगे हैं. अपने बच्चों के मोहपाश में फंसे नेता अपने विचार और धारा दोनों भूल कर अपने बच्चों को सियासी गलियारे में उतार चुके हैं.

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पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव की पूरी राजनीति कांग्रेस के खिलाफ रही. वे समाजवादी नेता के रूप में पूरे देश में चर्चित रहे. वे लोकदल, जनता दल से ले कर जद (यू) तक में रहे और कांग्रेस की विचारधारा का विरोध करते रहे. लेकिन इस बार उन की बेटी सुभाषिनी कांग्रेस का दामन थाम कर बिहारीगंज से चुनाव मैदान में उतर चुकी हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान  का राजनीति में प्रवेश राजग के रास्ते हुआ. राजग के जरीए लोजपा से 2014 और 2019 में चिराग पासवान जमुई से सांसद बने. इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने उसी राजग के खिलाफ बिगुल फूंक दिया है. जिस विधानसभा क्षेत्र से जद (यू) के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, चिराग पासवान वहां से लोजपा के उम्मीदवार खड़े कर चुके हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और फिल्म स्टार शत्रुध्न सिन्हा की राजनीति की शुरुआत भाजपा से हुई थी. वे भाजपा के स्टार प्रचारक रहे थे, लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लड़ा. उन की पत्नी पूनम सिन्हा 2019 का लोकसभा चुनाव लखनऊ से समाजवादी पार्टी से लड़ी थीं. इस बार उन के बेटे लव सिन्हा बांकीपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

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प्लूरल्स पार्टी की प्रमुख पुष्पम प्रिया चौधरी ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. अपनी पार्टी की वे मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार हैं. उन्होंने साफ कहा है कि चुनाव के बाद उन का किसी दल के साथ गठबंधन नहीं करेगा. उन के पिता विनोद कुमार चौधरी जद (यू) के पूर्व विधानपार्षद रहे हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी 2015 में राजग के साथ रहे. उस के बाद वे महागठबंधन में चले गए. उन के बेटे संतोष कुमार सुमन को राजद ने विधानपार्षद बनाया. इस के बाद वे फिर राजग में शामिल हो गए. इस बार जीतन राम मांझी इमामगंज और उन के दामाद देवेंद्र मांझी मखदूमपुर से चुनाव लड़ रहे हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह पूरी उम्र राजद में रहे. वे राजद का प्रमुख चेहरा थे. अब उन के बेटे सत्यप्रकाश सिंह ने जद (यू) का दामन थाम लिया है. पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह हमेशा जद (यू) में रहे. उन के बड़े बेटे इस बार रालोसपा के टिकट पर जमुई से चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि छोटे बेटे सुमित सिंह चकाई से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतर रहे हैं.

राजनीति की मलाई का स्वाद चख चुके नेता और उन के बच्चे इस बात को अच्छी तरह समझ गए हैं कि राजनीति से अच्छा किसी भी क्षेत्र में स्कोप नहीं है, इसलिए तो नेता अपने बेटाबेटी को जिस भी दल से जैसे भी टिकट मिले, दिला देते हैं और जैसे भी हो चुनाव जिता कर सत्ता सुख का फायदा जिंदगीभर उठाते हैं.

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यही वजह है कि सिद्धांत और अपनी विचारधारा पर अडिग रहने वाले लोग राजनीति की मुख्यधारा से किनारे होते जा रहे हैं.

बिहार चुनाव : नेताओं की उछलकूद जारी

आम लोगों के बीच किस पार्टी से किस को टिकट मिलेगा, इस पर अभी चर्चा ज्यादा हो रही है. अपनेअपने दलों से टिकट लेने वाले लोग आलाकमान तक पहुंच बनाने में रातदिन एक किए हुए हैं. कई दलों के संभावित उम्मीदवार अपनेअपने इलाके में प्रचार के काम में भी लग गए हैं.

सियासी गलियारे में पक्षविपक्ष के बीच आरोपप्रत्यारोप का दौर जारी है. एक दल से दूसरे दल में नेताओं की उछलकूद जारी हो गई है. गठजोड़ और मोरचे बनने लगे हैं. राजनीतिक पैतरेबाजियां शुरू हो चुकी हैं.

बिहार की 243 विधानसभा सीटों पर अक्तूबरनवंबर में चुनाव होना है. वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 29 नवंबर को खत्म होने वाला है. वर्तमान सरकार से भी बहुतेरे लोग खफा हैं. युवा राजद के राष्ट्रीय महासचिव ऋषि कुमार ने बताया कि राजद छोड़ कर भाजपा के साथ मिल कर सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार की इमेज लगातार गिरती गई. एससी और ओबीसी तबके के लोगों को जितना विश्वास इन के ऊपर था, वह लगातार घटता गया. नीतीश कुमार भाजपा के इशारे पर ही चलने लगे. ऊंचे तबके के लोगों को नीतीश कुमार प्रश्रय देने लगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हर बात में सुर में सुर मिलाने लगे. विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करने वाले और डीएनए की जांच के लिए नाखूनबाल केंद्र सरकार को भेजने वाले नीतीश कुमार ने भाजपा के सामने घुटने टेक दिए. बौद्ध धर्म से प्रभावित नीतीश कुमार ने कुरसी के चक्कर में भाजपा का थाम लिया. इस के चलते लोग इन्हें सोशल मीडिया पर ‘पलटू चाचा’ और ‘कुरसी कुमार’ के नाम से भी लोग ट्रोल करने लगे हैं.

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सामाजिक सरोकारों से जुड़े अवध किशोर कुमार का कहना है कि जब कोई भी शख्स सत्ता में लंबे अरसे तक रह जाता है तो वह मगरूर हो जाता है, इसलिए सत्ता में बदलाव भी जरूरी है.

महागठबंधन की ओर से अब तक तय नहीं हो पाया है कि किस पार्टी का उम्मीदवार किस क्षेत्र से चुनाव लड़ेगा. इस की वजह से गठबंधन वाले सहयोगी दलों के बीच बेचैनी बढ़ने लगी है. सभी दल अपनाअपना गठबंधन मजबूत करने में लगे हुए हैं. महागठबंधन में लोग असमंजस की स्थिति में है. अब तक महागठबंधन के कई नेता अपनी अपनी पार्टी छोड़ कर जद (यू) में शामिल हो गए हैं. महागठबंधन में सीटों को ले कर दिक्कत आ रही है. कांग्रेस ने जिला स्तरीय वर्चुअल रैली के साथ अपना चुनावी अभियान तेज कर दिया है, लेकिन अभी तक सीटों का बंटवारा नहीं हो पाया है. राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन अब तक तय नहीं कर पाया है कि किस पार्टी का उम्मीदवार किस क्षेत्र से चुनाव लड़ेगा. उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा, मुकेश साहनी का वीआईपी, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के उम्मीदवार और पार्टी प्रमुख अभी असमंजस की स्थिति में हैं. महागठबंधन से इस बात का खयाल रखा जा रहा है कि सत्ता विरोधी वोटों का बंटवारा किसी भी कीमत पर नहीं हो सके.

नीतीश कुमार से नाराज चल रहे चिराग पासवान के बोल बदल गए हैं. उन्होंने कहा कि मुझे राजग के चेहरे के रूप में नीतीश कुमार से कोई समस्या नहीं है. चिराग पासवान भाजपा से तत्काल रिश्ते नहीं खराब नहीं करना चाहते हैं. रामविलास पासवान ने कहा है कि वे चिराग के सभी फैसलों पर दृढ़ता से खड़े हैं. हाल के दिनों तक नीतीश कुमार चिराग पासवान के बोल से परेशान रहे हैं.

जद (यू) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा कि उन का गठबंधन भाजपा के साथ है और लोक जनशक्ति पार्टी भाजपा के साथ गठबंधन में है. फिलहाल नीतीश कुमार और चिराग पासवान के बीच विवाद पर विराम लग गया है. दोनों नेताओं के शीर्ष पर भाजपा है, इसलिए दोनों नेताओं को भाजपा की बात माननी ही पड़ेगी.

इस बार का चुनाव प्रचार वर्चुअल संवाद के जरीए जारी है. आमसभा के दौरान किसी सभा में कितने लोग जुटे इस का आकलन तो सही तरीके से नहीं हो पाता था, लेकिन वर्चुअल संवाद में इसे कितने लोगों ने देखा है, इस का आंकड़ा पता चल जाता है.

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नीतीश कुमार के वर्चुअल संवाद में 31.2 लाख यूजर का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन बिहार में यह आंकड़ा 12 लाख को भी पार नहीं कर सका.

जब सत्ता पक्ष के पास सारे संसधान रहते वर्चुअल संवाद की स्थिति यह है तो विपक्ष इस में कितनी कामयाबी हासिल कर पाएगा, यह शायद आने वाला समय ही बताएगा. इस बार का चुनाव पहले के चुनाव से हट कर होगा. नेता और आम नागरिक को भी एक नए तजरबे के साथ जुड़ना होगा.

कोरोना का कहर और बिहार में चुनाव

ज्यों ज्यों कोरोना का कहर बिहार में बढ़ते जा रहा है उसी रफ्तार से चुनावी सरगर्मी भी बढ़ रही है. सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एन डी ए और महागठबंधन दोनों में आपसी खींचतान शुरू है. अधिक से अधिक सीट लेने के लिए दोनों गठबंधन में सुप्रीमो पर दबाव बनाना जारी है.

एन डी ए में जद यू ,भाजपा और लोजपा के बीच गठबंधन है. वहीं  महागठबंधन में राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हम और वी आई पी के बीच गठबंधन है. दोनों गठबंधन में सबकुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है.

एन डी ए गठबंधन में लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान लगातार नीतीश कुमार पर आरोप लगा रहे हैं.अपने दल के कार्यकर्ताओं से सभी सीट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयारी करने की बात भी बोल रहे हैं.

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गठबंधन में कई पार्टी भले ही एक दूसरे से टैग हैं. मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा भाजपा के सुशील कुमार मोदी, रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा,राजद के तेजस्वी यादव,रालोसपा के चिराग पासवान,हम के जीतन राम माँझी के अंदर भी हिलोरें मार रही हैं.

हम पार्टी के संस्थापक जीतन राम माँझी जो यू पी ए गठबंधन में है. वे इस समय नीतीश कुमार की तारीफ करने लगे हैं. इससे इनके ऊपर भी ऊँगली उठने लगी है. ये किसके तरफ कब हो जायेंगे. कहना मुश्किल है.

महागठबंधन में मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव के पूर्व घोषणा का मामला भी आपस में विवाद का कारण बना हुआ है. सभी दल वाले अधिक से अधिक सीट लेने के लिए दबाव बनाने में लगे हुवे हैं.

गरीबो दलितों और प्रबुद्ध वर्ग के लोग जिस वामपंथी दलों से जुड़े हुवे हैं. जैसे कम्युनिस्ट पार्टी,मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भाकपा माले ये दल भी एन डी ए गठबंधन को हर हाल में हराने के लिए  महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ना चाहते हैं. लेकिन इनलोगों को महागठबंधन में उतना तवज्जो नहीं दिया जाता.अगर वामपंथी दल आपस में गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ते हैं तो उससे  महागठबंधन को ही घाटा होगा क्योंकि इनका जनाधार महागठबंधन के जो वोटर हैं.उन्हीं के बीच में है.पप्पू यादव का जाप पार्टी भी चुनाव मैदान में आने के लिए कमर कसकर तैयार है.जनता की हर तरह की समस्याओं के निदान के लिए जाप पार्टी के प्रमुख पप्पू यादव के साथ उनके कार्यकर्ता सक्रिय दिख रहे हैं. महागठबंधन के साथ ये चुनाव लड़ेंगे या अलग अभी तक मामला स्पष्ट नहीं हो सका है. महागठबंधन के वोटर के बीच वोटों का आपस में बिखराव की संभावना अधिक दिख रही है. अगर एन डी ए गठबंधन से अलग सारे दल आपसी ताल मेल से चुनाव लड़ते हैं. तभी वर्तमान सरकार को चुनौती मिल सकती है.

एन डी ए गठबंधन में भाजपा भले ही जद यू के नीतीश कुमार के साथ है. लेकिन भाजपा के समर्थक की हार्दिक इक्षा यही होती है कि मुख्यमंत्री मेरा अपना हो.

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इस चुनाव को लेकर सभी दल डिजीटल माध्यम से प्रचार प्रसार में लगे हुवे हैं. इस खेल में एन डी ए गठबंधन माहिर है.इनके पास संसाधन भी अधिक उपलब्ध है. राज्य चुनाव आयोग से संकेत मिलते ही बिहार की सभी पार्टियाँ चुनाव को लेकर सक्रिय होने लगी है.कोरोना की वजह से राजनीतिक गतिविधि पर रोक है. इस परिस्थिति में सभी दल डिजिटल प्रचार की तैयारी में जुट गए है. बिहार के सभी राजनीतिक दल के लिए चुनौती सिर्फ एक ही है भारतीय जनता पार्टी .सभी दलों को पता है कि डिजिटल प्रचार के मामले में भाजपा को महारत हासिल है. सभी दल वाले इसका काट ढूंढने में लगे हैं.

यह तो स्पष्ट हो गया है कि अगर समय पर चुनाव हुआ तो कोरोना के साये में ही होगा.महामारी के बीच सभी पार्टियाँ डिजिटल माध्यम से प्रचार करने के लिए कमर कसने लगा है. भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता और गृह मंत्री से इस डिजिटल प्रचार का आगाज वर्चुअल रैली के माध्यम से कर चुके हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कार्यकर्ताओं से डिजिटल माध्यम से  संवाद कर चुके हैं. जद यू के महासचिव एवं राज्य सभा सांसद आर सी पी सिंह लगातार सभी संघटनों के साथ फेसबुक लाइव और जूम ऐप के माध्यम से सम्पर्क बनाये हुवे है. जद यू ने अपने तीन मंत्री अशोक चौधरी ,संजय झा और नीरज कुमार को डिजटली मजबूत करने की जिम्मेवारी सौंपी है. इन तीन मंत्रियों को प्रमंडल स्तर की जिम्मेदारी दी गयी है.

सत्तापक्ष के साथ साथ विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. इनकी टीम भी लगी हुवी है. अपने विधयकों को डिजीटल माध्यम से सक्रिय करने का कार्य तेज गति से चल रहा है. कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल और प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा भी कई बार वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये अपने कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग कर चुके हैं.

बी जे पी कोरोना संकट के बीच पी एम के आर्थिक पैकेज की घोषणा को मुद्दा बनाने की तैयारी में है. इसके लिए पार्टी ने पाँच सदस्यीय टीम की घोषणा कर दी है. इसमें उपाध्यक्ष राजेश वर्मा,राजेन्द्र गुप्ता,महामंत्री देवेश कुमार ,मंत्री अमृता भूषण और राकेश सिंह शामिल हैं. ये सभी प्रधानमंत्री के विशेष पैकेज का प्रचार प्रसार हाईटेक तरीके से करेंगे.

प्रवासी मजदूरों के साथ किये गए पुलिसिया जुल्म अत्याचार और अन्याय के खिलाफ विरोधी दल भी आवाज उठायेंगे.

बिहार सरकार द्वारा प्रवासी मजदूरों के साथ की गयी उपेक्षा को नीतीश कुमार किसी रूप से उसपर मरहम लगाना चाहते हैं. जिसका लाभ चुनाव में वोट के रूप में भंजा सकें.देश भर में जब लॉकडाउन की वजह से मजदूर महानगरों में फँस गए तो मुख्यमंत्री ने साफ तौर पर इंकार कर दिया कि मजदूरों को बाहर से नहीं लाया जाएगा.निराश उदास और मजबूर होकर महानगरों से अपने गाँव के लिए ये मजदूर पैदल सायकिल और ट्रकों में जानवर की तरह अपने गांव लौटे.

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इन मजदूरों के साथ हर जगह पर पुलिस,पदाधिकारी और आमजनों ने भी इनके साथ अमानवीय ब्यवहार किया.यहाँ तक कि इन मजदूरों को एक ब्यक्ति के रूप में नहीं देखकर इन्हें हर जगह कोरोना वायरस के रूप में देखा गया.लोग अपने दरवाजे पर बैठने और चापाकल तक का पानी तक नहीं पीने दिया.नीतीश कुमार अखबारों और टी वी पर ब्यान देते रहे.सभी मजदूरों को रोजगार दिया जाएगा.लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि यहाँ पर रोजगार के कोई अवसर और विकल्प नहीं दिख रहा है.

कोरोना काल मे चुनाव नहीं कराने के लिए विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव और लोजपा के युवा नेता चिराग पासवान ने आवाज उठाया है.पक्ष विपक्ष के बीच आरोप प्रत्यारोप जारी है.अपने अपने दल के नेता टिकट लेने के लिए जुगत भिड़ाने में जोर शोर से जुट गए हैं.

कोरोना के साथ साथ चुनाव की चर्चा पटना से लेकर चौक चौराहों और गांव की गलियों में होने लगा है.

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