डाक्टर जीः आयुष्मान खुराना की भटकी हुई कहानी और भटकी हुई सोच

रेटिंग: दो स्टार

निर्माताः जंगली पिक्चर्स

निर्देषकः अनुभूति कष्यप

कलाकारः आयुष्मान खुराना, रकूल प्रीत सिंह,षेफाली छाया, शीबा चड्ढा व अन्य

अवधिः दो घंटे चार मिनट

आयुष्मान खुराना हमेशा लीक से हटकर व समाज में टैबू समझे जाने वाले विषयों पर आधारित फिल्मों में अभिनय करने के लिए जाने जाते हैं.एक बार फिर आयुश्मान ख्ुाराना ने इसी तरह की एक अलहदा विषय वाली फिल्म ‘‘डाक्टर जी’’ में अभिनय किया है, जिसका निर्देशन अनुभूति कश्यप ने किया है.फिल्म ‘डाक्टर जी’ एक ऐसे पुरुष की है,जो स्त्री रोग विशेषज्ञ की पढ़ाई नही करना चाहता.उसका मानना है कि यह क्षेत्र तो लड़कियों के लिए है.इसी के साथ इसमें ‘लिंग भेद’ का मुद्दा भी उठाया गया है.मगर यह फिल्म और इस फिल्म में आयुश्मान खुराना निराष करती है.भारतीय समाज में ‘लिंग भेद’ आम बात नही है.इस पर सैकड़ांे फिल्में अलग अलग अंदाज मंे बन चुकी हैं.इसी तरह फिल्म की निर्देशक अनुभूति कश्यप को शायद पता नही कि एक पुरुष का ‘स्त्रीरोग विशेषज्ञ डाक्टर बनना ‘टैबू’ नही रहा.अब लड़कियां भी इंजीनियर बन रही हैं.तो वहीं कई स्त्री रोगविशेषज्ञ  डाक्टर पुरूष हैं.शायद निर्देशक को पता ही नही है कि दक्षिण मंुबई में पिछल तीस वर्षों से भी अधिक समय से डाॅं पुरंदरे स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में बहुत बड़ी हस्ती रहे हैं.इतना ही नही सिर्फ गांवदेवी,मंुबई में ही बीस से अधिक स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर पुरूष हैं.

कहानीः

फिल्म की कहानी के केंद्र में भोपाल के डाक्टर उदय गुप्ता (आयुश्मान खुराना) हैं. जिन्हे एमबीबीएस करने के बाद आर्थोपेडीशियन बनना है,मगर रैंकिंग कम होने के चलते उन्हे आर्थोपैडिक कालेज में प्रवेष नहीं मिल रहा है.वह भोपाल में अपनी मां लक्ष्मी देवी गुप्ता (शीबा चड्ढा)के साथ रहते हैं.उनके घर में एक लड़का किराएदार है,जो कि आईएएस की तैयारी कर रहा है.इस लड़के के शरीर पर बनियान या षर्ट कभी नजर नही आती.उदय की मंा ने अकेले अपने दम पर उदय को पाला है.अब उम्र के दूसरे पड़ाव पर पहुॅचने के बाद उनके मन में भी पुरूष के साथ की इच्छा बलवती होती है.वह यूट्यूब पर रेसिपी का चैनल चलाने का प्रयास करती नजर आती हैं.डा.उदय का एक विवाहित भाई डाक्टर अषोक है,जो कि आर्थोपैडिक सर्जन है और उसका अपना क्लीनिक,पत्नी व दो बच्चे हैं.लेकिन डाक्टर अशोक बारहवीं में पढ़ रही और पीएमटी की तैयारी कर रही काव्या संग अफेयर है.डा. उदय का अफेयर डाॅं. रिचा से है,जो कि अब टूट चुका है.

डा.अशोक की सलाह पर डाॅ. उदय बेमन से एक साल बर्बाद होने से बचाने के लिए भोपाल के मेडिकल कालेज में गायनकोलाजिस्ट / स्त्री रोग विभाग में प्रवेश ले लेता है.जहंा मेडिकल इथिक्स का सख्ती से पालन करने वाली डाॅ.नंदिनी श्रीवास्तव (शेफाली शाह ) हैं.डाॅं.उदय को ‘स्त्री रोग विशेषज्ञ नही बनना है,इसलिए कुछ सीखने या किसी काम को सही ढंग से करने में उनकी कोई रूचि नही है.पर उन्हे अपनी सहकर्मी डाॅ. फातिमा सिद्दिकी (रकूल प्रीत सिंह ) से प्यार हो जाता है.डाॅ. फातिमा के उकसाने पर डाॅ. उदय ‘स्त्री रोग ’ विशेेषज्ञ के रूप में कई अच्छे आपरेशन कर लेते हैं.उधर डाॅ. अशोक  चाहते हैं कि उनसे गभर््ावती हुई काव्या शर्मा का गर्भपात चोरी छिपे डाॅं. उदय कर दें,जो कि अंततः डाॅ. उदय करते हैं.पर काव्या के नाबालिग होने के चलते पुलिस केस बन जाता है.कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं.

लेखन व निर्देशनः

‘गैंग्स आफ वासेपुर’,‘देव डी’ सहित कई फिल्मों के निर्देशक अनुराग कश्यप की बहन और उनके साथ सहायक निर्देशक के रूप में काम करती आ रही अनुभूति कश्यप पहली बार ‘डाक्टर जी’ से स्वतंत्र निर्देशक बनी हैं.और अपनी पहली फिल्म में उन्होने काफी निराश किया है.फिल्म देखकर इस बात का अहसास होता है कि अनुभूति कश्यप ने स्वतंत्र निर्देशक के रूप में एक ऐसा विषय उठाया है,जिस पर उनका अपना ज्ञान काफी कम है.इंटरवल से पहले फिल्म कछुए की चाल चलते हुए नीरस दृश्यों की वजह से इस कदर बोर करती है कि दर्शक सोचने लगता है कि अब इसे न देखा जाए.हकीकत में पूरी फिल्म बिखरी हुई है.निर्देशक यही तय नही कर पायी है कि उन्हे फिल्म में किस मुद्दे पर बात करनी है.निर्देशिका ने एक लड़के का ‘स्त्रीरोग विभाग’ में काम करने का संघर्ष , अधेड़ उम्र में सिंगल मां की अपनी ख्वाहिशें,‘लिंग भेद’,कालेज में होने वाली रैगिंग,मेल टच सहित कई मुद्दों को उठाया है.‘औरत का जो काम है, उसे मर्द नहीं कर सकते. मर्द का जो काम है,वह औरत नहीं कर सकती.’इसे भी वह ठीक से चित्रित नही कर पायीं.

निर्देशिका ने पुरूष व स्त्री को लेकर सामाजिक पूर्वाग्रहों को महज कुछ संवाद डालकर इतिश्री समझ ली.मसलन- आयुष्मान ख्ुाराना का एक संवाद है-‘हमारे मोहल्ले में लड़के क्रिकेट खेलते हैं और लड़कियां बैडमिंटन‘.अफसोस फिल्म के ज्यादातर संवाद स्तरहीन हैं.बेवजह ‘हे राम’ और ‘अल्लाह’ शब्द भी पिरो दिए गए हैं.मुस्लिम लड़की के मुॅह से ‘हे राम’ और हिंदू लड़के के मंुॅह से ‘अल्लाह’ षब्द बुलवाकर निर्देषिका क्या संदेश देना चाहती हैं,यह तो वही जाने.

आईएएस करने वाले लड़के की कहानी का ट्ैक जबरन ठॅॅंूसा हुआ लगता है.इसी तरह डाॅ. अशोक व काव्या शर्मा की कहानी का ट्ैक भी जबरन ठॅूंसा हुआ है.पूरी फिल्म में यह स्पष्ट नही है कि डाॅ.उदय, डां. अशोक को अपना बड़ा भाई क्यों कहते हैं? किसी भी किरदार को ठीक से रेखंाकित ही नही किया गया.शायद फिल्म की सह लेखक व निर्देशक अनुभूति कश्यप को ख्ुाद नहीं पता है कि वह इस फिल्म के माध्यम से कहना क्या चाहती हैं.वह पूरी तरह से इस कदर दिग्भ्रमित हैं कि उन्होने एक अति बोर करने वाली फिल्म दर्शकों को परोस दी.फिल्म में अश्लील व द्विअर्थी संवाद भी अखरते हैं.फिल्म का क्लायमेक्स भी काफी गड़बड़ है.

लेकिन फिल्म दो मुख्य मुद्दें जरुर समझाने में सफल रही है कि पुरूष डाक्टर को एक महिला,फिर चाहे वह नर्स ही क्यों न हो,की मौजूदगी मंे ही औरत का परीक्षण करना चाहिए.इसके अलावा नाबालिग लड़की का गर्भपात करते समय सभी प्रोटोकाॅल का पालन किया जाना चाहिए.मगर फिल्म यहीं पर चूक जाती है कि नाबालिग लड़की की सहमति से बने सेक्स संबंध में लड़की के गर्भवती हो जाने व गर्भपात कराने की नौबत आने पर किसे दोषी माना जाए? इसके अलावा इसका एक नाबालिग लड़की के दिमाग पर क्या असर पड़ता है? इस पर उभी यह फिल्म मौन रहती है.

फिल्म के कुछ दृश्य काफी आपत्तिजनक हैं.जिसमें से एक प्रसव पीड़िता महिला का अस्पताल के बरामदे में ही खुले आम सैकड़े पुरूषों व महिलाओं की मौजूदगी में डॅंा. उदय द्वारा प्रसव करवाना और नर्स का बच्चे को निकालना..क्या उस वक्त एक परदा नही लगना चाहिए था? सेंसर बोर्ड का इन दृश्यों की अनदेखी समझ से परे है.

फिल्म खत्म होने के बाद एक गाना ‘‘दिल धक धक करता..’’आता है,जिसमें आयुष्मान ख्ुाराना के साथ कम वस्त्रों में अपनी छाती को फुलाते हुए नृत्य करते हुए फिल्म में कहीं गयी सारी बातों को गलत साबित कर देता है…अब इसे क्या कहा जाए..

एक डाली के तीन फूल- भाग 3: 3 भाईयों ने जब सालो बाद साथ मनाई दीवाली

मुझे व गोपाल को अपनेअपने परिवारों सहित देख भाई साहब गद्गद हो गए. गर्वित होते हुए पत्नी से बोले, ‘‘देखो, मेरे दोनों भाई आ गए. तुम मुंह बनाते हुए कहती थीं न कि मैं इन्हें बेकार ही आमंत्रित कर रहा हूं, ये नहीं आएंगे.’’

‘‘तो क्या गलत कहती थी. इस से पहले क्या कभी आए हमारे पास कोई उत्सव, त्योहार मनाने,’’ भाभीजी तुनक कर बोलीं.

‘‘भाभीजी, आप ने इस से पहले कभी बुलाया ही नहीं,’’ गोपाल ने  झट से कहा. सब खिलखिला पड़े.

25 साल के बाद तीनों भाई अपने परिवार सहित एक छत के नीचे दीवाली मनाने इकट्ठे हुए थे. एक सुखद अनुभूति थी. सिर्फ हंसीठिठोली थी. वातावरण में कहकहों व ठहाकों की गूंज थी. भाभीजी, मीना व गोपाल की पत्नी के बीच बातों का वह लंबा सिलसिला शुरू हो गया था, जिस में विराम का कोई भी चिह्न नहीं था. बच्चों के उम्र के अनुरूप अपने अलग गुट बन गए थे. कुशाग्र अपनी पौकेट डायरी में सभी बच्चों से पूछपूछ कर उन के नाम, पते, टैलीफोन नंबर व उन की जन्मतिथि लिख रहा था.

सब से अधिक हैरत मु झे कनक को देख कर हो रही थी. जिस कनक को मु झे मुंबई में अपने पापा के बड़े भाई को इज्जत देने की सीख देनी पड़ रही थी, वह यहां भाई साहब को एक मिनट भी नहीं छोड़ रही थी. उन की पूरी सेवाटहल कर रही थी. कभी वह भाईर् साहब को चाय बना कर पिला रही थी तो कभी उन्हें फल काट कर खिला रही थी. कभी वह भाई साहब की बांह थाम कर खड़ी हो जाती तो कभी उन के कंधों से  झूल जाया करती. भाई साहब मु झ से बोले, ‘‘श्याम, कनक को तो तू मेरे पास ही छोड़ दे. लड़कियां बड़ी स्नेही होती हैं.’’

भाई साहब के इस कथन से मु झे पहली बार ध्यान आया कि भाई साहब की कोई लड़की नहीं है. केवल 2 लड़के ही हैं. मैं खामोश रहा, लेकिन भीतर ही भीतर मैं स्वयं से बोलने लगा, ‘यदि हमारे बच्चे अपने रिश्तों को नहीं पहचानते तो इस में उन से अधिक हम बड़ों का दोष है. कनक वास्तव में नहीं जानती थी कि पापा के बिग ब्रदर को ताऊजी कहा जाता है. जानती भी कैसे, इस से पहले सिर्फ 1-2 बार दूर से उस ने अपने ताऊजी को देखा भर ही था. ताऊजी के स्नेह का हाथ कभी उस के सिर पर नहीं पड़ा था. ये रिश्ते बताए नहीं जाते हैं, एहसास करवाए जाते हैं.’’

दीवाली की संध्या आ गई. भाभीजी, मीना व गोपाल की पत्नी ने विशेष पकवान व विविध व्यंजन बनाए. मैं ने, भाई साहब व गोपाल के घर को सजाने की जिम्मेदारी ली. हम ने छत की मुंडेरों, आंगन की दीवारों, कमरों की सीढि़यों व चौखटों को चिरागों से सजा दिया. बच्चे किस्मकिस्म के पटाखे फोड़ने लगे. फुल झड़ी, अनार, चक्कर घिन्नियों की चिनगारियां उधरउधर तेजी से बिखरने लगीं. बिखरती चिनगारियों से अपने नंगे पैरों को बचाते हुए भाभीजी मिठाई का थाल पकड़े मेरे पास आईं और एक पेड़ा मेरे मुंह में डाल दिया. इस दृश्य को देख भाई साहब व गोपाल मुसकरा पड़े. मीना व गोपाल की पत्नी ताली पीटने लगीं, बच्चे खुश हो कर तरहतरह की आवाजें निकालने लगे.

कुशाग्र मीना से कहने लगा, ‘‘मम्मी, मुंबई में हम अकेले दीवाली मनाते थे तो हमें इस का पता नहीं चलता था. यहां आ कर पता चला कि इस में तो बहुत मजा है.’’

‘‘मजा आ रहा है न दीवाली मनाने में. अगले साल सब हमारे घर मुंबई आएंगे दीवाली मनाने,’’ मीना ने चहकते हुए कहा.

‘‘और उस के अगले साल बेंगलुरु, हमारे यहां,’’ गोपाल की पत्नी तुरंत बोली.

‘‘हां, श्याम और गोपाल, अब से हम बारीबारी से हर एक के घर दीवाली साथ मनाएंगे. तुम्हें याद है, मां ने भी हमें यही प्रतिज्ञा करवाई थी,’’ भाई साहब हमारे करीब आ कर हम दोनों के कंधों पर हाथ रख कर बोले.

हम दोनों ने सहमति में अपनी गर्दन हिलाई. इतने में मेरी नजर छत की ओर जाती सीढि़यों पर बैठी भाभीजी पर पड़ी, जो मिठाइयों से भरा थाल हाथ में थामे मंत्रमुग्ध हम सभी को देख रही थीं. सहसा मु झे भाभीजी की आकृति में मां की छवि नजर आने लगी, जो हम से कह रही थी, ‘तुम एक डाली के 3 फूल हो.’

अनोखा रिश्ता: कैसी थी सास और बहू की जोड़ी – भाग-2

अपने पति की बातों पर वे हंसीं और फिर कहने लगीं, ‘‘मैं ने यह भी सोचा था

कि शायद मेरी बहू मेरे मनमुताबिक न आएलेकिन फिर भी मैं उस से निभाऊंगी. उसे इतना प्यार दूंगी कि वह भी मेरे रंग में रंग जाएगी. जानते हैं शंभूजीअगर एक औरत चाहे तो फिर चाहे वह सास हो या बहूअपने रिश्ते को बिगाड़ भी सकती है और चाहे तो अपनी सूझबूझ से रिश्ते को कभी न टूटने वाले पक्के धागे में पिरो कर भी रख सकती है. हर लड़की चाहती है कि वह एक अच्छी बहू बनेपर इस के लिए सास को भी तो अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी न. अगर घर के किसी फैसले में बहू की सहमति न लेंउसे पराई समझेंतो वह हमें कितना अपना पाएगीबोलिएउफबातोंबातों में समय का पता  ही नहीं चला,’’ घड़ी की तरफ देखते हुए ललिता ने कहा, ‘‘आज आप को दुकान पर नहीं जाना क्या?’’

‘‘सोच रहा हूं आज न जाऊं. वैसे भी लेट हो गया और मंदी के कारण वैसे भी ग्राहक कम ही आते हैं,’’ शंभूजी ने कहा. उन का अपना कपड़े का व्यापार था.

 ‘‘पर यह तो बताओ कि तुम सासबहू ने क्या प्रोग्राम बनाया हैमुझे तो बता दो,’’ वे बोले.

शंभूजी के पूछने पर पहले तो ललिता झूठेसच्चे बहाने बनाने लगींपर जब उन्होंने जोर दियातो बोलीं, ‘‘आज हम सासबहू फिल्म देखने जा रही हैं.’’

‘‘अच्छाकौन सी?’’ पूछते हुए शंभूजी की आंखें चमक उठीं.

‘‘अरेवह करीना कपूर और सोनम कपूर की कोई नई फिल्म आई है न… क्या नाम है उस का… हांयाद आया, ‘वीरे दी वैडिंग.’ वही देखने जा रही हैं. आज आप घर पर ही हैंतो ध्यान रखना घर का.’’

‘‘अच्छातो अब तुम सासबहू फिल्म देखो और हम बापबेटा खाना पकाएंयही कहना चाहती हो न?’’

‘‘हांसही तो है,’’ हंसते हुए ललिता बोलीं और फिर किचन की तरफ बढ़ गईं.

‘‘अच्छा ठीक हैखाना हम बना लेंगेपर

कप चाय और पिला दो,’’ शंभूजी ने कहा तो ललिता भुनभुनाईं यह कह कर कि घर में रहते हैंतो बारबार चाय बनवा कर परेशान कर देते हैं.

जो भी हो पतिपत्नी अपने जीवन में बहुत खुश थे और हों भी क्यों नजब पल्लवी जैसी बहू हो. शादी के साल हो गएपर कभी उस ने ललिता को यह एहसास नहीं दिलवाया कि वह उन की बहू है. पासपड़ोसनातेरिश्तेदार इन दोनों के रिश्ते को देख कर आश्चर्य करते और कहते कि क्या सासबहू भी कभी ऐसे एकसाथ इतनी खुश रह सकती हैंलगता ही नहीं है कि दोनों सासबहू हैं.

पल्लवी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी कर रही थी और वहीं उस की मुलाकात विपुल से हुईजो जानपहचान के बाद दोस्ती और फिर प्यार में बदल गई. साल तक बेरोकटोक उन का प्यार चलता रहा और फिर दोनों परिवारों की सहमति से विवाह के बंधन में बंध गए. वैसे तो बचपन से ही पल्लवी को सास नाम के प्राणी से डर लगता थाक्योंकि उस के जेहन में एक हौआ सा बैठ गया था कि सास और बहू में कभी नहीं पटतीक्योंकि अपने घर में भी तो उस ने आएदिन अपनी मां और दादी को लड़तेझगड़ते ही देखा था.

ज्योंज्यों वह बड़ी होती गई दादी और मां में लड़ाइयां भी बढ़ती चली गईं. उसे याद है जब उस की मांदादी में झगड़ा होता और उस के पापा किसी एक की तरफदारी करतेतो दूसरी का मुंह फूल जाता. हालत यह हो गई कि फिर उन्होंने बोलना ही छोड़ दिया. जब भी दोनों में झगड़ा होतापल्लवी के पापा घर से बाहर निकल जाते. नातेरिश्तेदारों और पासपड़ोस में भी तो आएदिन सासबहू के झगड़े सुनतेदेखते वह घबरा सी जाती.

उसे याद है जब पड़ोस की शकुंतला चाची की बहू ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली थी. तब यह सुन कर पल्लवी की रूह कांप उठी थी. वैसे हल्ला तो यही हुआ था कि उस की सास ने ही उसे जला कर मार डालामगर कोई सुबूत न मिलने के कारण वह कुछ सजा पा कर ही बच गई थी. मगर मारा तो उसे उस की सास ने ही थाक्योंकि उस की बहू तो गाय समान सीधी थी. ऐसा पल्लवी की दादी कहा करती थीं. पल्लवी की दादी भी किसी सांपनाथ से कम नहीं थीं और मां तो नागनाथ थीं हीक्योंकि दादी एक सुनातींतो मां हजार सुना डालतीं.

खैरएक दिन पल्लवी की दादी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं. लेकिन आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब दादी की 13वीं पर महल्ले की औरतों के सामने घडि़याली आंसू बहाते हुए पल्लवी की मां शांति कहने लगीं कि उन की साससास नहीं मां थीं उन की. जाने अब वे उन के बगैर कैसे जी पाएंगी.

मन तो हुआ पल्लवी का कि कह दे कि क्यों झूठे आंसू बहा रही हो मांकब तुम ने दादी को मां मानामगर वह चुप रही. मन ही मन सोचने लगी कि बस नाम ही शांति है उस की मां काकाम तो सारे अशांति वाले ही करती हैं.

मेरा ब्वायफ्रैंड शादी से पहले फिजिकल रिलेशन बनाना चाहता है, कृप्या सलाह दें उसे कैसे मना करूं?

सवाल
मैं 17 वर्षीय युवती हूं, 20 वर्षीय युवक से प्यार करती हूं. समस्या यह है कि वह विवाह से पूर्व शारीरिक संबंध कायम करना चाहता है लेकिन मैं ऐसा हरगिज नहीं चाहती. मैं उसे कैसे मना करूं. क्या शारीरिक संबंध के लिए मना करना सही होगा, कहीं इस से हमारे संबंधों में कड़वाहट तो नहीं आ जाएगी? सलाह दें.

जवाब
सब से पहली बात अभी आप की उम्र छोटी है. यह उम्र कैरियर व शिक्षा पर ध्यान देने की है. आप का निर्णय बिलकुल सही है और आप अपनी बात अपने बौयफ्रैंड से साफसाफ बिना किसी हिचकिचाहट के कह दें. अगर वह आप से सच्चा प्यार करता है तो आप की बात को अवश्य समझेगा और अगर उसे आप के निर्णय से कोई परेशानी होगी तो इस का अर्थ साफ होगा कि उस की आप में रुचि सिर्फ सैक्स संबंध बनाने तक है. सैक्स संबंध दोनों की आपसी सहमति व चाहत पर ही बनने चाहिए और दोनों को उस के जोखिमों को साथ सहने का संकल्प लेना चाहिए.

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शादी से पहले जानिए प्यार की सीमाएं

प्राय: मंगनी होते ही लड़का लड़की एकदूसरे को समझने के लिए, प्यार के सागर में गोते लगाना चाहते हैं. एक बात तो तय रहती है खासकर लड़के की ओर से, क्या फर्क पड़ता है, अब तो कुछ दिनों में हम एक होने वाले हैं, फिर क्यों न अभी साथ में घूमेंफिरें. उस की ओर से ये प्रस्ताव अकसर रहते हैं कि चलो रात में घूमने चलते हैं, लौंग ड्राइव पर चलते हैं. वैसे तो आजकल पढ़ीलिखी पीढ़ी है, अपना भलाबुरा समझ सकती है. वह जानती है उस की सीमाएं क्या हैं. भावनाओं पर अंकुश लगाना भी शायद कुछकुछ जानती है. पर क्या यह बेहतर न होगा कि जिसे जीवनसाथी चुन लिया है, उसे अपने तरीके से आप समझाएं कि मुझे आनंद के ऐसे क्षणों से पहले एकदूसरे की भावनाओं व सोच को समझने की बात ज्यादा जरूरी लगती है. मन न माने तो ऐसा कुछ भी न करें, जिस से बाद में पछतावा हो.

मेघा की शादी बहुत ही सज्जन परिवार में तय हुई. पढ़ालिखा, खातापीता परिवार था. मेघा मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे ओहदे पर थी. खुले विचारों की लड़की थी. मंगनी के होते ही लड़के के घर आनेजाने लगी. जिस बेबाकी से वह घर में आतीजाती थी, लगता था वह भूल रही थी कि वह दफ्तर में नहीं, ससुराल परिवार में है. शुरूशुरू में राहुल खुश था. साथ आताजाता, शौपिंग करता. ज्योंज्यों शादी के दिन नजदीक आते गए दूरियां और भी सिमटती जा रही थीं. एक दिन लौंग ड्राइव पर जाने के लिए मेघा ने राहुल से कहा कि क्यों न आज शाम को औफिस के बाद मैं तुम्हें ले लूं. लौंग ड्राइव पर चलेंगे. एंजौय करेंगे.

पर यह क्या, यहां तो अच्छाखास रिश्ता ही फ्रीज हो चला. राहुल ने शादी से इनकार कर दिया. कार्ड बंट चुके थे, तैयारियां पूरी हो चली थीं. पर ऐसा क्या हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ? पूछने पर नहीं बताया, बस इतना दोटूक शब्दों में कहा कि रिश्ता खत्म. बहुत बाद में जा कर किसी से सुनने में आया कि मेघा बहुत ही बेशर्म, चालू टाइप की लड़की है. राहुल ने मेघा के पर्स में लौंग ड्राइव के समय रखे कंडोम देख लिए. यह देख कर उस ने रिश्ता ही तोड़ना तय कर लिया. शायद उसे भ्रम था मेघा पहले भी ऐसे ही कई पुरुषों के साथ इस बेबाकी से पेश आ चुकी होगी. आजकल की लड़कियों में धीरेधीरे लुप्त होती जा रही लोकलाज, लज्जा की भनक भी मेघा के सरल व्यवहार में मिलने लगी थी. इन बातों की वजह से ही रिश्ता टूटने वाली बात हुई.

कौन सी बातें जरूरी

इसलिए बेहतर है कोर्टशिप के दौरान आचरण पर, अपने तौरतरीकों पर, बौडी लैंग्वेज पर विशेष ध्यान दें. वह व्यक्ति जिस से आप घुलमिल रही हैं, भावी जीवनसाथी है, होने वाला पति है, हुआ नहीं. तर्क यह भी हो सकता है, सब कुछ साफसाफ बताना ही ठीक है. भविष्य की बुनियाद झूठ पर रखनी भी तो ठीक नहीं. लेकिन रिश्तों में मधुरता, आकर्षण बनाए रखने के लिए धैर्य की भावनाओं को वश में रखने की व उन पर अंकुश लगाने की जरूरत होती है.

प्यार में डूबें नहीं

शादी के पहले प्यार के सागर में गोते लगाना कोई अक्षम्य अपराध नहीं. मगर डूब न जाएं. कुछ ऐसे गुर जरूर सीखें कि मजे से तैर सकें. सगाई और शादी के बीच का यह समय यादगार बन जाए, पतिदेव उन पलों को याद कर सिहर उठें और आप का प्यार उन के लिए गरूर बन जाए और वे कहें, काश, वे पल लौट आएं. इस के लिए इन बातों के लिए सजग रहें-

हो सके तो अकेले बाहर न जाएं. अपने छोटे भाईबहन को साथ रखें.

बहुत ज्यादा घुलनामिलना ठीक नहीं.

मुलाकात शौर्ट ऐंड स्वीट रहे.

घर की बातें न करें.

अभी से घर वालों में, रिश्तेदारों में मीनमेख न निकालें.

एकदूसरे की भावनाओं का सम्मान करें.

अनर्गल बातें न करें.

बेबाकी न करें. बेबाक को बेशर्म बनते देर नहीं लगती.

याद रहे, जहां सम्मान नहीं वहां प्यार नहीं, इसलिए रिश्तों को सम्मान दें.

कोशिश कर दिल में जगह बनाएं. घर वाले खुली बांहों से आप का स्वागत करेंगे.

मनमानी को ‘न’ कहने का कौशल सीखें.

चटोरी न बनें

भाभी: क्यों बरसों से अपना दर्द छिपाए बैठी थी वह- भाग 2

मैं मन ही मन सोचती, मेरी हमउम्र भाभी और मेरे जीवन में कितना अंतर है. शादी के बाद ऐसा जीवन जीने से तो कुंआरा रहना ही अच्छा है. मेरे पिता पढ़ेलिखे होने के कारण आधुनिक विचारधारा के थे. इतनी कम उम्र में मैं अपने विवाह की कल्पना नहीं कर सकती थी. भाभी के पिता के लिए लगता है, उन के रूप की सुरक्षा करना कठिन हो गया था, जो बेटी का विवाह कर के अपने कर्तव्यों से उन्होंने छुटकारा पा लिया. भाभी ने 8वीं की परीक्षा दी ही थी अभी. उन की सपनीली आंखों में आंसू भरे रहते थे अब, चेहरे की चमक भी फीकी पड़ गई थी.

विवाह को अभी 3 महीने भी नहीं बीते होंगे कि भाभी गर्भवती हो गईं. मेरी भोली भाभी, जो स्वयं एक बच्ची थीं, अचानक अपने मां बनने की खबर सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और आंखों में आंसू उमड़ आए. अभी तो वे विवाह का अर्थ भी अच्छी तरह समझ नहीं पाई थीं. वे रिश्तों को ही पहचानने में लगी हुई थीं, मातृत्व का बोझ कैसे वहन करेंगी. लेकिन परिस्थितियां सबकुछ सिखा देती हैं. उन्होंने भी स्थिति से समझौता कर लिया. भाई पितृत्व के लिए मानसिक रूप से तैयार तो हो गया, लेकिन उस के चेहरे पर अपराधभावना साफ झलकती थी कि जागरूकता की कमी होने के कारण भाभी को इस स्थिति में लाने का दोषी वही है. मेरी मां कभीकभी भाभी से पूछ कर कि उन्हें क्या पसंद है, बना कर चुपचाप उन के कमरे में पहुंचा देती थीं. बाकी किसी को तो उन से कोई हमदर्दी न थी.

प्रसव का समय आ पहुंचा. भाभी ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. नन्हीं परी को देख कर, वे अपना सारा दुखदर्द भूल गईं और मैं तो खुशी से नाचने लगी. लेकिन यह क्या, बाकी लोगों के चेहरों पर लड़की पैदा होने की खबर सुन कर मातम छा गया था. भाभी की ननदें और चाची सभी तो स्त्री हैं और उन की अपनी भी तो 2 बेटियां ही हैं, फिर ऐसा क्यों? मेरी समझ से परे की बात थी. लेकिन एक बात तो तय थी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. मेरे जन्म पर तो मेरे पिताजी ने शहरभर में लड्डू बांटे थे. कितना अंतर था मेरे चाचा और पिताजी में. वे केवल एक साल ही तो छोटे थे उन से. एक ही मां से पैदा हुए दोनों. लेकिन पढ़ेलिखे होने के कारण दोनों की सोच में जमीनआसमान का अंतर था.

मातृत्व से गौरवान्वित हो कर भाभी और भी सुडौल व सुंदर दिखने लगी थीं. बेटी तो जैसे उन को मन बहलाने का खिलौना मिल गई थी. कई बार तो वे उसे खिलातेखिलाते गुनगुनाने लगती थीं. अब उन के ऊपर किसी के तानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मां बनते ही औरत कितनी आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से पूर्ण हो जाती है, उस का उदाहरण भाभी के रूप में मेरे सामने था. अब वे अपने प्रति गलत व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध भी करने लगी थीं. इस में मेरे भाई का भी सहयोग था, जिस से हमें बहुत सुखद अनुभूति होती थी.

इसी तरह समय बीतने लगा और भाभी की बेटी 3 साल की हो गई तो फिर से उन के गर्भवती होने का पता चला और इस बार भाभी की प्रतिक्रिया पिछली बार से एकदम विपरीत थी. परिस्थितियों ने और समय ने उन को काफी परिपक्व बना दिया था.

गर्भ को 7 महीने बीत गए और अचानक हृदयविदारक सूचना मिली कि भाई की घर लौटते हुए सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह अनहोनी सुन कर सभी लोग स्तंभित रह गए. कोई भाभी को मनहूस बता रहा था तो कोई अजन्मे बच्चे को कोस रहा था कि पैदा होने से पहले ही बाप को खा गया. यह किसी ने नहीं सोचा कि पतिविहीन भाभी और बाप के बिना बच्चे की जिंदगी में कितना अंधेरा हो गया है. उन से किसी को सहानुभूति नहीं थी.

समाज का यह रूप देख कर मैं कांप उठी और सोच में पड़ गई कि यदि भाई कमउम्र लिखवा कर लाए हैं या किसी की गलती से दुर्घटना में वे मारे गए हैं तो इस में भाभी का क्या दोष? इस दोष से पुरुष जाति क्यों वंचित रहती है?

एकएक कर के उन के सारे सुहाग चिह्न धोपोंछ दिए गए. उन के सुंदर कोमल हाथ, जो हर समय मीनाकारी वाली चूडि़यों से सजे रहते थे, वे खाली कर दिए गए. उन्हें सफेद साड़ी पहनने को दी गई. भाभी के विवाह की कुछ साडि़यों की तो अभी तह भी नहीं खुल पाई थी. वे तो जैसे पत्थर सी बेजान हो गई थीं. और जड़वत सभी क्रियाकलापों को निशब्द देखती रहीं. वे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थीं कि उन की दुनिया उजड़ चुकी थी.

एक भाई ही तो थे जिन के कारण वे सबकुछ सह कर भी खुश रहती थीं. उन के बिना वे कैसे जीवित रहेंगी? मेरा हृदय तो चीत्कार करने लगा कि भाभी की ऐसी दशा क्यों की जा रही थी. उन का कुसूर क्या था? पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पर न तो लांछन लगाए जाते हैं, न ही उन के स्वरूप में कोई बदलाव आता है. भाभी के मायके वाले भाई की तेरहवीं पर आए और उन्हें साथ ले गए कि वे यहां के वातावरण में भाई को याद कर के तनाव में और दुखी रहेंगी, जिस से आने वाले बच्चे और भाभी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. सब ने सहर्ष उन को भेज दिया यह सोच कर कि जिम्मेदारी से मुक्ति मिली. कुछ दिनों बाद उन के पिताजी का पत्र आया कि वे भाभी का प्रसव वहीं करवाना चाहते हैं. किसी ने कोई एतराज नहीं किया. और फिर यह खबर आई कि भाभी के बेटा हुआ है.

हमारे यहां से उन को बुलाने का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने बुलावे का इंतजार नहीं किया और बेटे के 2 महीने का होते ही अपने भाई के साथ वापस आ गईं. कितना बदल गई थीं भाभी, सफेद साड़ी में लिपटी हुई, सूना माथा, हाथ में सोने की एकएक चूड़ी, बस. उन्होंने हमें बताया कि उन के मातापिता उन को आने नहीं दे रहे थे कि जब उस का पति ही नहीं रहा तो वहां जा कर क्या करेगी लेकिन वे नहीं मानीं. उन्होंने सोचा कि वे अपने मांबाप पर बोझ नहीं बनेंगी और जिस घर में ब्याह कर गई हैं, वहीं से उन की अर्थी उठेगी.

मैं ने मन में सोचा, जाने किस मिट्टी की बनी हैं वे. परिस्थितियों ने उन्हें कितना दृढ़निश्चयी और सहनशील बना दिया है. समय बीतते हुए मैं ने पाया कि उन का पहले वाला आत्मसम्मान समाप्त हो चुका है. अंदर से जैसे वे टूट गई थीं. जिस डाली का सहारा था, जब वह ही नहीं रही तो वे किस के सहारे हिम्मत रखतीं. उन को परिस्थितियों से समझौता करने के अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं पड़ रहा था. फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था. सारा दिन सब की सेवा में लगी रहती थीं.

कंडोम को टैबू मानने से होने वाली दिक्कतों पर बात करती है ‘रबरबैंड’- सारिका संजोत

हम सभी अत्याधुनिक जीवन षैली के आदी होते जा रहे हंै. मगर आज भी हमारे देष में ‘कंडोम’ टैबू बना हुआ है. आज भी लोग दुकानदार से ‘कंडोम’ मांगने में झिझकते हैं. जबकि ‘कंडोम’ कोई बुराई नहीं बल्कि जरुरत है. लोगो के बीच जागरूकता लाने व ‘कंडोम’ को टैबू न मानने की बात करने वाली फिल्म ‘कहानी रबर बैंड की’’ 14 अक्टूबर को सिनेमाघरों में प्रदर्षित होने जा रही है.

इस फिल्म की खासियत यह है कि इसके लेखन व निर्देषन की जिम्मेदारी किसी पुरूष ने नहीं, बल्कि एक महिला ने संभाली है. जिनका नाम है-सारिका संजोत. सारिका संजोत की बतौर लेखक व निर्देषक यह पहली फिल्म है.पहली बार ही ‘कंडोम’ जैसे टैबू माने जाने वाले विषय पर फिल्म बनाकर सारिका संजोत ने एक साहसिक कदम उठाया है. पर वह इसे सामाजिक जिम्मेदारी मानती हैं.

फिल्म ‘कहानी रबरबैंड की’’ में ‘ससुराल सिमर’ फेम अभिनेता मनीष रायसिंघन व ‘बालिका वधू’ फेम अविका गोर के साथ ही ‘स्कैम 92’ फेम प्रतीक गांधी सहित कई अन्य कलाकारों ने अभिनय किया है.

पेष है सारिका संजोत से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंष…

अब तक की आपकी यात्रा क्या रही है? फिल्मों की तरफ मुड़ने की कोई खास वजह रही?

-मैं गैर फिल्मी बैकग्राउंड से हॅूं. बचपन से फिल्में देखने का षौक रहा है. हर परिवार में मां बाप अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर बनाना चाहता है,वहीं मेरे पिता मुझे फिल्म निर्देषक बनाना चाहते थे. जबकि उनका खुद का इस क्षेत्र से कोई जुड़ाव नहीं था. वह मुझे ढेर सारे सपने दिखाते थे. मुझे हर तरह की फिल्में दिखाते थे. मैने मूक फिल्म ‘राजा हरिष्चंद्र से लेकर अब तक की लगभग हर भारतीय व कई विदेषी फिल्में देखी हैं.

मेरे पिता जी का नियम था कि वह हर षुक्रवार को रिलीज होने वाली फिल्म देखने के लिए मुझे खुद ले जाते थे या मुझे फिल्म देखने के लिए जाने के लिए कहते थे.तो दिन प्रतिदिन मेरे अंदर फिल्मों को लेकर एक उत्साह बढ़ता गया.धीरे धीरे मैने फिल्म तकनीक को लेकर पढ़ना भी षुरू कर दिया और मेरे दिमाग में यह बात आ गयी थी कि मुझे फिल्म निर्देषित करनी है.

मगर बीच में कुछ जिम्मेदारियों का वहन करना था. षादी के बाद पति व बच्चे की भी देखभाल करनी थी. उन जिम्मेदारियों से थोड़ी सी राहत मिलने पर मैने फिल्म के लिए कहानी लिखनी षुरू की. पटकथा लिखी. उसके बाद अब बतौर लेखक व निर्देषक फिल्म ‘‘कहानी रबरबैंड की’’ लेकर आयी हॅूं.

यह फिल्म बहुत ही अलग तरह के विषय पर है. मेरा मकसद लोगों को मनोरंजन के साथ संदेष देना भी है.

फिल्म ‘‘कहानी रबरबैंड’’ की कहानी का बीज कहां से मिला?

-देखिए,फिल्म देखते देखते मेरे अंदर समाज में घट रही घटनाओं में से कहानी तलाषने की स्वतः स्फूर्ति एक आदत सी बन गयी थी.मैने कई घटनाक्रमों पर कई छोटी छोटी कहानियां लिख रखी हैं,जिन्हे फिल्म के अनुरूप विकसित करने की प्रक्रिया कुछ वर्ष पहले षुरू किया था.मैने कई काॅसेप्ट पर काम किया है.

मेरी अगली फिल्म ‘कहानी रबरबैंड की’ से एकदम अलग है.मेरा मानना है कि हमारे आस पास ही कहानियांे का अंबार है.हमारे एक सहेली ने उसके साथ ‘कंडोम’ को लेकर घटी एक घटना का जिक्र किया था,उसी से प्रेरित होकर मंैने ‘कहानी रबरबैंड की’ की कहानी को लिखा.मेरी राय में हमारे आस पास जो कहानियां होती हंै, उनसे हर इंसान रिलेट करता है.मैने अपने अनुभवों से सीखा कि आम कहानियों को किस तरह से ‘खास’ बनाया जाए.हमारी फिल्म‘ कहानी रबरबैंड की’ एक हास्य फिल्म है. मगर हमने इसमें एक गंभीर व संजीदा मुद्दे पर बात की है.

आपने फिल्म का नाम कहानी रबरबैंड कीक्यों रखा?

-देखिए,हमारी फिल्म का विषय समाज में टैबू समझे जाने वाले ‘कंडोम’ पर है. लोग ‘कंडोम’ खरीदने वाले को अजीब सी नजर से देखते हैैं.जबकि ‘कंडोम’ हर मर्द और औरत की जरुरत है.सिर्फ परिवार नियोजन के ही दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी ‘कंडोम’ अत्यावष्यक है.मगर लोगों को दुकान पर जाकर ‘कंडोम’ मांगने में षर्म आती है.या यॅूं कहंे कि संकोच होता है.तो हमने सोचा कि क्यांे न इसे एक ऐसा नाम दिया जाए,जिसे लोग सहजता से ले सके.तो हमने इसे ‘रबरबैंड’ नाम दे दिया.‘रबरबैंड’ बोलने में किसी को भी न संकोच होगा और न ही षर्म आएगी. जब नाम यानी कि षब्द ‘सहज’ होगा,तो दुकानदार से मंागना भी सहज हो जाएगा.इतना ही नहीं हमने इसके पीछे पूरी एक कहानी गढ़ी है.इसलिए हमने इसे नाम दिया ‘कहानी रबर बैंड की’.तो फिल्म के ेनाम में ही कहानी है.मेरे पापा कहा करते थे कि हर सवाल में जवाब निहित होता है.देखिए,‘कंडोम’ को लेकर समस्या तो है.यह षब्द ही अपने आप मंे ‘टैबू’ है.

क्या आपने इस बात पर षोध किया कि हमारे देष में कंडोमटैबू क्यों बना हुआ है?

-देखिए,जब हम छोटे हुआ करते थे,तब हमने एक विज्ञापन देखा था- ‘हम दो हमारे दो’.बहुत ही सिंपल विज्ञापन था.यह विज्ञापन मुझे आज भी याद है.एकदम सरल व सटीक.इस विज्ञापन में कहीं कोई अष्लीलता नही थी.कुछ भी गलत नहीं था.मगर यदि बेडरूम की बात बेडरूम से बाहर आती है, मतलब बेडरूम की गतिविधि को आप बाहर लाते हैं,तो वह अष्लील है,गलत है.फिर आप कहेंगे कि ऐसे मंेे आप ‘कंडोम’ की बात क्यों कर रही हैं.तो इसलिए जैसा कि मैने पहले ही कहा कि ‘कंडोम’ जरुरत है.‘कंडोम’ टैबू नही बल्कि एक दवा है.हमें अपने बच्चांे का मुंॅह ‘कंडोम’ की तरफ से मोड़ने की बजाय उन्हे बताना चाहिए कि यह बड़े लोगों की दवा है.कुछ लोग इसे सही ढंग से बताने की बजाय काॅमेडी बना देते हैं,तब वह अष्लील हो जाता है.दूसरी दवाओं की ही तरह ‘कंडोम’ भी एक दवा है.इस बात को समझना होगा.हर पुरुष के पास पत्नी या गर्लफ्रेंड है.इतना ही नही हम मानते हैं कि हमारा देष तरक्की कर रहा है,काफी आगे जा रहा है.हम आधुनिक हो रहे हैं.फिर भी ‘कंडोम’ खरीदना ‘टैबू’ है. मैं इस बात से इंकार नहीं करती कि हमारा देष आगे बढ़ रहा है.हमारे बच्चों की सोच भी बढ़ी है.हमारे बच्चे कितने तरह के गेम खेलने लगे हैं.वह यूट्यूब व सोषल मीडिया पर बहुत कुछ देख व पढ़ रहे हैं.यदि हम पहले से उन्हे बताएंगे कि यह बड़ो की दवा है,तो युवावस्था में उन्हें दुकानदार से ‘कंडोम’ मांगने में षर्म महसूस नहीं होगी.अब जिस तरह से लड़कियों के लिए ‘सैनेटरी पैड’ उपयोगी है,उसी तरह ‘कंडोम’ भी उपयोगी है.

फिल्म ‘‘कहानी रबरबैंड की’’ की कहानी को लेकर क्या कहना चाहेंगी?

-हम विस्तार से सब कुछ बता देंगंे, तो फिर दर्षकों की फिल्म देखने की उत्सुकता ही खत्म हो जाएगी.देखिएचूक तो हर इंसान से होती है.हमारी फिल्म के ेनायक से भी चूक होती है.वह जब दुकानदार से इषारे में ‘कंडोम’ खरीदा और दुकानदार ने भी उसे कागज मंे लपेटकर पकड़ा दिया.वह चुपचाप घर आ गया.उसने उसकी एक्सपायरी की तारीख या कीमत कुछ भी चेक नही किया.पर इसी चूक की वजह से उसके परिवार में किस तरह की समस्याएं आती हैं.लड़की यानी कि उसकी पत्नी की जिंदगी मंे किस तरह की समस्याएं आती हैं.उसी का इसमंे चित्रण है. चोरी करने वाले को सजा मिलती है.पर यहां चोर कौन हैं? गलती किसकी है और जिसकी गलती है,उसे साबित कैसे किया जाए? फिल्म में हमारा नायक जिस ‘कंडोम’ को खरीदकर लाता है,वह फट जाता है,जिससे समस्याएं पैदा होती हैं. स्वाभाविक तौर पर दुकानदार ने सस्ता या एक्सपायरी वाला ‘कंडोम’ दिया था.पर सवाल है कि इस बात को अदालत में कैसे साबित क्या जाए?

लेकिन कंडोमपर ही कुछ समय पहले फिल्म जनहित में जारी आयी थी, जिसे लोगों ने पसंद नहीं किया था?

-देखिए,हर फिल्मकार अपने हिसाब से अच्छी फिल्म ही बनाता है.हर फिल्मकार चाहता है कि उसकी फिल्म को ज्यादा से ज्यादा दर्षक देखें.मगर ‘जनहित में जारी’ के फिल्मकार का संदेष अलग था और मेरी अपनी फिल्म ‘कहानी रबरबैंड की’ का संदेष अलग है.हम किसी एक जेंडर को सहज नही करना चाहते.हम हर इंसान को ‘कंडोम’ के संदर्भ में सहज करना चाहते हैं.देखिए,हम किसी लड़की से कहेंगे कि वह ‘कंडोम’ बेचकर आए,तो इससे बदलाव आएगा.जी नहीं…इसेस टैबू खत्म होगा,जी नहीं..हमें बैठकर बड़ी सरलता से हर बच्चे को ‘ंकडोम’ को दवा के रूप में बताना होगा.जब तक हम अपने बच्चों से कहेंगे कि ‘बेटा,उधर से मंुॅह मोड़ ले’या उधर मत ेदेख,तब तक ‘कंडोम’ टैबू बना रहेगा.हम जब अपने बच्चों से कहते हैं कि उधर मत देखो,तभी हम अपने बच्चांे के मन में गलत बात डाल देते हैं.मैं यह भी नही कहती कि आप उपयोग किया हुआ या बिना उपयोग किया हुआ ‘कंडोम’ख्ुाले आम सड़क पर फंेक दो,पर यदि कहीं ‘कंडोम’ कहीं रखा है,तो उसे बच्चे न देखेें,यह सोच गलत है.हम यह बताकर कि यह बड़ांे की दवा है,सब कुछ सहज कर सकते हैं.हम अपनी फिल्म के माध्यम से टैबू को खत्म करने की बात कर रहे हैं. हमारी फिल्म की कहानी ‘कंडोम’ को ‘टैबू’ मानने की वजह से होने वाली समस्याओं पर बात करती है.हमारी फिल्म किसी लड़की से कंडोम बेचकर पैसा कमाने की बात नही कर रही.हमारी फिल्म में यह कहीं नही है कि किसी के पास थोक में ‘कंडोम’ आ गए हैं,तो अब वह सोच ेमें है कि इन्हें कैसे बेचा जाए? तो ‘जनहित में जारी के फिल्मकार का कहानी व समस्या को देखने का नजरिया अलग था. मेरा अपना एक अलग नजरिया है.यदि कोई भी लड़का या लड़की 14 वर्ष का होगा,तो उसे मेरी फिल्म की बात समझ में आएगी. दूसरी बात मेरा मानना है कि ‘कंडोम’ खरीदने की जो झिझक है,वह एक दिन में नहीं जाने वाली है.हमें बच्चों के साथ बैठकर मीठी मीठी बातें करते हुए उन्हे यह समझाकर की यह बड़ांे की दवा है,उनके मन से झिझक को दूर करना होगा.

फिल्म के प्रदर्षन के बाद किस तरह के बदलाव की उम्मीद करती हैं?

-मुझे उम्मीद है कि ‘कंडोम’ टैबू नही रह जाएगा.कंडोम को लेकर समाज में जो हालात हैं,वह बदलेंगें.लोगों के मन से झिझक दूर होगी.लोग इस पर ख्ुालकर बात करंेगंे और अपने बच्चों को भी ‘कंडोम’ को बड़ांे की दवा के रूप में बताना षुरू करेंगें.

एक डाली के तीन फूल- भाग 2: 3 भाईयों ने जब सालो बाद साथ मनाई दीवाली

मैं विचारों में डूबा ही था कि मेरी बेटी कनक ने कमरे में प्रवेश किया. मु झे इस तरह विचारमग्न देख कर वह ठिठक गई. चिहुंक कर बोली, ‘‘आप इतने सीरियस क्यों बैठे हैं, पापा? कोई सनसनीखेज खबर?’’ उस की नजर मेज पर पड़ी चिट्ठी पर गई. चिट्ठी उठा कर वह पढ़ने लगी.

‘‘तुम्हारे ताऊजी की है,’’ मैं ने कहा.

‘‘ओह, मतलब आप के बिग ब्रदर की,’’ कहते हुए उस ने चिट्ठी को बिना पढ़े ही छोड़ दिया. चिट्ठी मेज पर गिरने के बजाय नीचे फर्श पर गिर कर फड़फड़ाने लगी.

भाई साहब के पत्र की यों तौहीन होते देख मैं आगबबूला हो गया. मैं ने लपक कर पत्र को फर्श से उठाया व अपनी शर्ट की जेब में रखा, और फिर जोर से कनक पर चिल्ला पड़ा, ‘‘तमीज से बात करो. वह तुम्हारे ताऊजी हैं. तुम्हारे पापा के बड़े भाई.’’

‘‘मैं ने उन्हें आप का बड़ा भाई ही कहा है. बिग ब्रदर, मतलब बड़ा भाई,’’ मेरी 18 वर्षीय बेटी मु झे ऐसे सम झाने लगी जैसे मैं ने अंगरेजी की वर्णमाला तक नहीं पड़ी हुई है.

‘‘क्या बात है? जब देखो आप बच्चों से उल झ पड़ते हो,’’ मेरी पत्नी मीना कमरे में घुसते हुए बोली.

‘‘ममा, देखो मैं ने पापा के बड़े भाई को बिग ब्रदर कह दिया तो पापा मु झे लैक्चर देने लगे कि तुम्हें कोई तमीज नहीं, तुम्हें उन्हें तावजी पुकारना चाहिए.’’

‘‘तावजी नहीं, ताऊजी,’’ मैं कनक पर फिर से चिल्लाया.

‘‘हांहां, जो कुछ भी कहते हों. तावजी या ताऊजी, लेकिन मतलब इस का यही है न कि आप के बिग ब्रदर.’’

‘‘पर तुम्हारे पापा के बिग ब्रदर… मतलब तुम्हारे ताऊजी का जिक्र कैसे आ गया?’’ मीना ने शब्दों को तुरंत बदलते हुए कनक से पूछा.

‘‘पता नहीं, ममा, उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा है जिसे पढ़ने के बाद पापा के दिल में अपने बिग ब्रदर के लिए एकदम से इतने आदरभाव जाग गए, नहीं तो पापा पहले कभी उन का नाम तक नहीं लेते थे.’’

‘‘चिट्ठी…कहां है चिट्ठी?’’ मीना ने अचरज से पूछा.

मैं ने चिट्ठी चुपचाप जेब से निकाल कर मीना की ओर बढ़ा दी.

चिट्ठी पढ़ कर मीना एकदम से बोली, ‘‘आप के भाई साहब को अचानक अपने छोटे भाइयों पर इतना प्यार क्यों उमड़ने लगा? कहीं इस का कारण यह तो नहीं कि रिटायर होने की उम्र उन की करीब आ रही है तो रिश्तों की अहमियत उन्हें सम झ में आने लगी हो?’’

‘‘3 साल बाद भाई साहब रिटायर होंगे तो उस के 5 साल बाद मैं हो जाऊंगा. एक न एक दिन तो हर किसी को रिटायर होना है. हर किसी को बूढ़ा होना है. बस, अंतर इतना है कि किसी को थोड़ा आगे तो किसी को थोड़ा पीछे,’’ एक क्षण रुक कर मैं बोला, ‘‘मीना, कभी तो कुछ अच्छा सोच लिया करो. हर समय हर बात में किसी का स्वार्थ, फरेब मत खोजा करो.’’

मीना ने ऐलान कर दिया कि वह दीवाली मनाने देहरादून भाईर् साहब के घर नहीं जाएगी. न जाने के लिए वह कभी कुछ दलीलें देती तो कभी कुछ, ‘‘आप की अपनी कुछ इज्जत नहीं. आप के भाई ने पत्र में एक लाइन लिख कर आप को बुलाया और आप चलने के लिए तैयार हो गए एकदम से देहरादून एक्सप्रैस में, जैसे कि 24 साल के नौजवान हों. अगले साल 50 के हो जाएंगे आप.’’

‘‘मीना, पहली बात तो यह कि अगर एक भाई अपने दूसरे भाई को अपने आंगन में दीवाली के दीये जलाने के लिए बुलाए तो इस में आत्मसम्मान की बात कहां से आ जाती है? दूसरी बात यह कि यदि इतना अहंकार रख कर हम जीने लग जाएं तो जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘मुझे दीवाली के दिन अपने घर को अंधेरे में रख कर आप के भाई साहब का घर रोशन नहीं करना. लोग कहते हैं कि दीवाली अपने ही में मनानी चाहिए,’’ मीना  झट से दूसरी तरफ की दलीलें देने लग जाती.

‘‘मीना, जिस तरीके से हम दीवाली मनाते हैं उसे दीवाली मनाना नहीं कहते. सब में हम अपने इन रीतिरिवाजों के मामले में इतने संकीर्ण होते जा रहे हैं कि दीवाली जैसे जगमगाते, हर्षोल्लास के त्योहार को भी एकदम बो िझल बना दिया है. न पहले की तरह घरों में पकवानों की तैयारियां होती हैं, न घर की साजसज्जा और न ही नातेरिश्तेदारों से कोई मेलमिलाप. दीवाली से एक दिन पहले तुम थके स्वर में कहती हो, ‘कल दीवाली है, जाओ, मिठाई ले आओ.’ मैं यंत्रवत हलवाई की दुकान से आधा किलो मिठाई ले आता हूं. दीवाली के रोज हम घर के बाहर बिजली के कुछ बल्ब लटका देते हैं. बच्चे हैं कि दीवाली के दिन भी टेलीविजन व इंटरनैट के आगे से हटना पसंद नहीं करते हैं.’’

थोड़ी देर रुक कर मैं ने मीना से कहा, ‘‘वैसे तो कभी हम भाइयों को एकसाथ रहने का मौका मिलता नहीं, त्योहार के बहाने ही सही, हम कुछ दिन एक साथ एक छत के नीचे तो रहेंगे.’’ मेरा स्वर एकदम से आग्रहपूर्ण हो गया, ‘‘मीना, इस बार भाई साहब के पास चलो दीवाली मनाने. देखना, सब इकट्ठे होंगे तो दीवाली का आनंद चौगुना हो जाएगा.’’

मीना भाई साहब के यहां दीवाली मनाने के लिए तैयार हो गई. मैं, मीना, कनक व कुशाग्र धनतेरस वाले दिन देहरादून भाईर् साहब के बंगले पर पहुंच गए. हम सुबह पहुंचे. शाम को गोपाल पहुंच गया अपने परिवार के साथ.

प्यार का रिश्ता : कौनसा था वह अनाम रिश्ता – भाग 4

सब रीना से रोने को बोल रहे थे, लेकिन उसे रोना ही नहीं आ रहा था. कोई रोने को बोल रहा, कोई चूड़ी तोड़ रहा तो कोई मांग से सिंदूर पोंछ रहा था. रीना मन ही मन सोच रही थी, ‘मैं क्यों रोऊं? चला गया तो अच्छा हुआ. मेरी जान का क्लेश चला गया. कभी चैन नहीं लेने दिया, कभी कोठी के अंकल के साथ नाम जोड़ देता तो कभी सुनील तो कभी अखिल के साथ. जिस से भी मैं दो पल बात करती, उसी के साथ रिश्ता जोड़ देता. गाली तो हर समय जबान पर रहती…’ रमेश की अर्थी उठनी थी, इसलिए पैसे की जरूरत थी. उस ने मान्या मैडम को फोन कर के बताया था कि उस का आदमी नहीं रहा है, इसलिए पैसे की जरूरत है.

सुनील जा कर पैसे ले आया था. रीना मन ही मन सोच रही थी ‘वाह रे पैसा, जब बच्चा पैदा हुआ था, तो आपरेशन, दवा के लिए पैसा चाहिए, इनसान की मौत हो गई है तो दाहसंस्कार के लिए भी पैसा.’  रमेश की अर्थी सज चुकी थी. सुनील घर के सदस्य की तरह आगे बढ़ कर सारे काम जिम्मेदारी से कर रहा था. सासू मां और चाल की औरतें चिल्लाचिल्ला कर रो रही थीं. तीसरे दिन हवन और शांतिपाठ हो कर शुद्धि हो गई थी. अगली सुबह जब वह काम पर जाने के लिए निकलने लगी, वैसे ही सासू मां उस पर चिल्ला उठी थीं ‘‘कैसी लाजशर्म छोड़ दी है. शोक तो मना नहीं रही और देखो तो काम पर जा रही है. ऐसी बेशर्मबेहया औरत तो देखी नहीं.’’ बूआ ने नहले पर दहला मारा था, ‘‘कैसी सज के जा रही है, किसी के संग नैनमटक्का करती होगी. इसी बात से रमेश दुखी हो कर शराब पीने लगा होगा.’’

रीना अब किसी की परवाह नहीं करती. वह रंगबिरंगे कपड़े पहनती, हाथों में भरभर चूडि़यां पहनती, पाउडर, लिपिस्टिक और बालों में गजरा भी लगाती. देखने वाले उसे देख कर आह भरते. ‘किस पर बिजली गिराने चल दी.’  ‘अब तो रमेश भी नहीं रहा. किस के लिए यह साजसिंगार करती हो…’ ‘‘मैं अपनी खुशी के लिए सजती हूं.’’ ‘‘रीना कुछ तो डरो. विधवा हो, विधवा की तरह रहा करो,’’ पीछे से सासू मां की आवाज थी, पर वह अनसुनी कर के चली जाती. सुनील उस के लिए चांदी की झुमकी ले आया था. वह पहनने को बेचैन थी. उस ने सासू मां से कहा, ‘‘मैडम ने दीवाली के लिए दी है.’’ हाथ में पैसा रहता, रीना तरहतरह की सजनेसंवरने की चीजें खरीदती और मैडम लोगों के कपड़े भी मिल जाते.

उसे बचपन से शोख रंग के कपड़े पसंद थे. अब वह अपने सारे शौक पूरे कर रही थी. अब उसे न तो सासू मां के निर्देशों की परवाह थी और न ही चाल वालों के तानों की. सासू मां को रमेश का जाना और रीना की मनमानी बरदाश्त नहीं हो रही थी. वे कमजोर होती जा रही थीं. एक दिन वे रात में बाथरूम के लिए उठीं तो गिर पड़ीं.

मालूम हुआ कि उन्हें लकवे का अटैक आ गया है. रात में तो किसी तरह बच्चों की मदद से उन्हें चारपाई पर लिटा लिया, लेकिन सुबह जब डाक्टर बुला कर सुनील लाया तो पता चला कि उन का आधा शरीर बेकार हो गया है.  ऐसे मुश्किल समय में सुनील रीना की मदद को आगे आया था. वह भी परेशान था, सोसाइटी की नौकरी छूट गई थी, कहीं रहने का ठिकाना भी नहीं था. उस ने उसे अपने घर में रख लिया. वह रिया और सोम को पढ़ाता. घर के लिए सागसब्जी ले आता.

सब से ज्यादा तो सासू मां के काम में सहारा करता. रीना को उस के रहने से सहूलियत हो गई थी. दोनों के बीच एक अनाम रिश्ता हो गया था. वह पढ़ालिखा था, नौकरी छूटने के चलते वह आटोरिकशा चलाने लगा था. लोग तरहतरह की बातें बनाते. रीना एक कान से सुनती दूसरे से निकाल देती. एक दिन सासू मां सोई तो सोती रह गई थीं. खबर सुनते ही लोगों की भीड़ तरहतरह की कानाफूसी कर रही थी. सासू मां के जाने का गम रीना सहन नहीं कर पा रही थी, इसलिए वह रोरो कर बेहाल थी.  सुनील ने ही आगे बढ़ कर सारा काम किया था. रिश्तेदार ‘चूंचूं’ कर  रहे थे. ‘‘यह कौन है?

दूसरी बिरादरी का है.’’ ‘‘यह रीना का नया खसम है. इसी के चक्कर में तो रमेश को नशे की लत लग गई थी और सास भी इसी गम में चली गई,’’ कहते हुए रिश्ते की एक ननद रोने का नाटक कर रही थी. रीना के लिए चुप रहना मुश्किल हो गया था, ‘‘इतने दिन से सासू मां खटिया पर सब काम कर रही थीं, तो कोई नहीं आया पूछने को कि रीना अम्मां को कैसे संभाल रही हो. सुनील ने उन की सारी गंदगी साफ की. अम्मां तो उसे आशीर्वाद देते नहीं थकती थीं.

आज सब बातें बनाने को खड़े हो गए.’’ सब तरफ सन्नाटा छा गया था. अब रीना को किसी की परवाह नहीं थी कि कौन क्या कह रहा है. कई दिनों से सुनील अनमना सा रहता. वह देख रही थी कि वह बच्चों से भी बात नहीं करता. सुबह जल्दी चला जाता और देर रात लौटता. ‘‘क्यों सुनील, कोई परेशानी है तो बताओ?’’ ‘‘नहीं, मैं अपने लिए खोली ढूंढ़  रहा था. पास में मिल नहीं रही थी, इसलिए दूर पर ही लेना पड़ा. आज एडवांस दूंगा.’’ ‘‘क्यों? यहीं रहो, मुझे सहारा है  और बच्चों के भी कितने अच्छे नंबर आ रहे हैं.’’ ‘‘लोगों की उलटीसीधी गंदी बातें सुनसुन कर मेरे कान पक गए हैं.

अब बरदाश्त नहीं होता. अब अम्मां भी नहीं रहीं. मेरा यहां क्या काम?’’ ‘‘लोगों का तो काम है कहना. आज एडवांस मत देना. शाम को बात करेंगे,’’ कह कर रीना अपने काम पर चली गई थी. सुनील अभी लौटा नहीं था. बच्चे सो गए थे. उस ने सुहागिनों की तरह अपना सोलह सिंगार किया था. वही लाल साड़ी पहन ली, जो सुनील उस के लिए लाया था. सिंगार कर के जब आईने में अपने अक्स को देखा, तो अपनी सुंदरता पर वह खुद शरमा उठी थी.  तभी आहट हुई थी और सुनील उस को देखता ही रह गया था. रीना ने कांपते हाथों से सिंदूर का डब्बा सुनील की ओर बढ़ा दिया. उस रात वह सुनील की बांहों में खो गई थी. अनाम रिश्ते को एक नाम मिल गया था ‘प्यार का रिश्ता’.

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