Romantic Story: भीगी पलकों में गुलाबी ख्वाब

Romantic Story: मालविका की गजल की डायरी के पन्ने फड़फड़ाने लगे. वह डायरी छोड़ दौड़ी गई. पति के औफिस जाने के बाद वह अपनी गजलों की डायरी ले कर बैठी ही थी कि ड्राइंगरूम के चार्ज पौइंट में लगा उस का सैलफोन बज उठा.

फोन उठाया तो उधर से कहा गया, ‘‘मैं ईशान बोल रहा हूं भाभी, हम लोग मुंबई से शाम तक आप के पास पहुंचेंगे.’’

42 साल की मालविका सुबह 5 बजे उठ कर 10वीं में पढ़ रहे अपने 14 वर्षीय बेटे मानस को स्कूल बस के लिए  रवाना कर के 49 वर्षीय पति पराशर की औफिस जाने की तैयारी में मदद करती है. नाश्तेटिफिन के साथ जब पराशर औफिस के लिए निकल जाता और वह खाली घर में पंख फड़फड़ाने के लिए अकेली छूट जाती तब वह भरपूर जी लेने का उपक्रम करती. सुबह 9 बजे तक उस की बाई भी आ जाती जिस की मदद से वह घर का बाकी काम निबटा कर 11 बजे तक पूरी तरह निश्ंिचत हो जाती.

इस वक्त शेरोशायरी, गीतगजलों की लंबी कतारें उस के मनमस्तिष्क में आ खड़ी होती हैं. अपने लिखे कलामों को धुन में बांधने की धुन पर सवार हो जाती है वह. नृत्य में भी पारंगत है मालविका और नृत्य कलाओं की प्रस्तुति से ले कर गीत गजलों के कार्यक्रमों में अकसर हिस्सा लेती है. वह अपने शहर में एक नामचीन हस्ती है और अपनी दुनिया में उस के फैंस की लिस्ट बड़ी लंबी है.

गजलों के फड़फड़ाते पन्नों को बंद कर उस ने डायरी को टेबल की दराज के हवाले किया और जल्द ही अपने चचेरे देवर ईशान व उस की नवेली पत्नी रिनी के स्वागत की तैयारी में लग गई.

लगभग सालभर पहले चचेरे देवर 34 साल के ईशान की शादी हुई थी. तब पराशर इन की शादी में चंडीगढ़ गए थे. लेकिन मालविका नहीं जा पाई थी, बेटे का 9वीं कक्षा का फाइनल एग्जाम था. अब ईशान पत्नी रिनी के साथ उस के मायके होते हुए लक्षदीप से मुंबई और फिर नागपुर आ रहे थे.

मालविका ने पराशर को फोन पर सूचना दी और आइसक्रीम व बुके लाने को कहा. वैसे यह पराशर के मूड पर निर्भर करता है कि वह मालविका के सु झाव पर गौर करेगा या नहीं.

देवर ईशान और उस की पत्नी 28 साल की रिनी के आने से घर रंग और रौनक से भर गया था. मालविका का बेटा मानस अपनी कोचिंग और पढ़ाई के बीच थोड़ाबहुत हायहैलो करने का ही समय निकाल पाता, लेकिन भैया पराशर का रिनी को ले कर अतिव्यस्त हो जाना कभीकभी ईशान को हैरत में डाल रहा था. ईशान रहरह कर मालविका की ओर तिरछी निगाहों से देखने लगा था और मालविका?

16 सालों से अपने पति को लगातार सम झती हुई भी मालविका जैसे अनबू झ मकड़जाल में उल झी हुई थी. कौन कोशिश करे इन उल झे जालों को हटाने की? मालविका को तो इस की इजाजत ही नहीं थी. हां, बिना इजाजत मालविका को कोई भी निर्णय लेने का यहां अधिकार नहीं था.

हां, उल झनों के मकड़जाल हट सकते थे अगर मालविका पराशर की बात मान ले. लेकिन यह संभव नहीं. अवहेलना, ईर्ष्या, व्यंग्य, हिंसा  झेल कर भी मालविका ने अपने मौनस्वर को किस तरह जिंदा रखा है, यह वही जानती है. खैर, रिनी मदमस्त हिरनी सी खूब खेल रही है पराशर के साथ.

चंडीगढ़ में नारी मुक्ति आंदोलन और बेटी बचाओ एनजीओ की प्रैसिडैंट है वह. आजादी का उपयोग करने में इतनी बिंदास है कि मालविका को खुद पर तरस हो आता. क्या वह दूसरों के मुकाबले ज्यादा घुटी हुई सी नहीं रहती. कुछ ज्यादा संत्रस्त?

पराशर यों तो अच्छीभली नौकरी में है, देखनेभालने में भी स्मार्ट है लेकिन उस की एक ही परेशानी है मालविका.

ईशान जब से आया है, हर प्रकार की मौजमस्ती, खानपान, घूमनेफिरने के बीच एक और चीज जो सब से ज्यादा महसूस कर रहा था वह यह कि पराशर मालविका को ले कर काफी अशांत था. वह जानने को आतुर था कि मालविका जैसी सुंदर, सुघड़, मितभाषी स्त्री के प्रति भी किसी पुरुष में आक्रोश हो सकता है. फिजी से आते वक्त एक मधुर मजाकिया माहौल की कल्पना उस के जेहन में बसी थी, लेकिन यहां माहौल इतना तनावभरा होगा, उस के खयालों में भी नहीं रहा था.

साउथ पैसिफिक ओशन के देश फिजी से वह आया था जहां उस के पिता डाक्टर और मां एक मौल की मालकिन है. वह खुद भी वहां सरकारी अस्पताल में डाक्टर है. चंडीगढ़ में उस की शादी एक वैबसाइट के माध्यम से हुई थी और रिनी के साथ तालमेल बैठाने की उस की कोशिश जारी थी.

शादी के एक साल बाद भारत के रिश्तेदारों से मिल कर अगले 10 दिनों में उन के वापस जाने का प्रोग्राम था. इस लिहाज से 4 दिन ही बचे थे और इन दिनों मालविका ईशान को अपने किसी तनाव के घेरे में नहीं लेना चाहती थी लेकिन पराशर का असामान्य व्यवहार बारबार मालविका के प्यारे मेहमान को असमंजस में डाल देता था.

34 साल का ईशान 42 साल की भाभी से अब धीरेधीरे बहुत खुल चुका था. ईशान को इस के पहले मालविका ने 2 बार ही देखा था. पहली दफा उस से जब मुलाकात हुई थी. तब मालविका की शादी हुए 3 साल ही हुए थे और वह 27 की तथा ईशान 19 साल का था. उस वक्त सालभर का मानस मालविका को कितना तंग करता था और वह किस तरह  झल्लाती थी, यह बोलबोल कर ईशान मालविका को आज खूब चिढ़ा रहा था.

पराशर ने इस मौके को गंवाना नहीं चाहा. ईशान का भाभी के प्रति नम्र रुख पराशर को भी सम झ आ ही रहा था, कहा, ‘‘अब भी क्या कम है? न बच्चे में रुचि है न पति में. सारा दिन नाच, गाना और चाहने वाले.’’

ईशान से रहा नहीं गया. उस ने कहा, ‘‘क्यों भैया, सारा दिन तो सबकुछ मैनेज करने में ही बिता रही हैं भाभी, एकएक को खुश करने पर तुली हैं. अब कोई किसी भी कीमत पर खुश न हो तो भाभी भी क्या करें. अगर इस के बाद समय निकाल कर कुछ क्रिएटिव कर रही हैं तो यह तो गौरव की बात हुई न? रिनी भी तो चंडीगढ़ में महिलाशक्ति की नेत्री है. आप इस बारे में क्या कहेंगे?’’

पराशर के लिए रिनी एक मनोरंजन मात्र थी. अकसर ऐसा ही होता भी है और स्त्री सोचती है वह कितनी महत्त्वपूर्ण है जो एक पुरुष अपनी पत्नी को बेबस छोड़ उसे तवज्जुह दे रहा है. खैर, पराशर ने बात घुमा दी, ‘‘चलो, तुम लोगों को यहां का प्रसिद्ध बाजार घुमा दूं.’’

रिनी मचल उठी, ईशान को सुने बिना ही कह पड़ी, ‘‘चलो, चलें.’’

‘‘अरे, भाभी से तो पूछो,’’ ईशान रिनी से यह कहते हुए जरा तल्ख हो चुका था.

मालविका जानती थी कि पराशर उसे कतई साथ ले जाना नहीं चाहेगा. उस ने खुद ही कहा, ‘‘मु झे घर पर काम है, तुम सब जाओ.’’

कार पराशर ने ड्राइव की और तीनों साथ गए. लेकिन आधी दूरी पर जा कर ईशान ने कहा, ‘‘भैया, आप मु झे यहां उतार दें, मु झे बैंक में कुछ जरूरी काम है, आप लोकेशन बता जाइए. मेरा काम होते ही मैं वहां आ कर आप को कौल कर लूंगा.’’

पराशर फिलहाल रिनी को ले कर वक्त बिताने में ज्यादा उत्सुक था और साथ ही उस के लिए यह राहत की बात थी कि ईशान और मालविका अकेले साथ नहीं हैं.

मालविका बेमिसाल हुस्न की मलिका थी. गुलाब सी खूबसूरत गालों से भोर की लाली सा नूर  झरता था. सुगठित देहयष्टि में तरुणी सी लचक, नृत्य की मुद्रा में जैसे सर्वश्रेष्ठ शिल्पी की किसी नायाब कलाकृति सी नजर आती थी वह.

कौन किसे देखे, कौन किसे देख कर ज्यादा मुग्ध हो जाए? ईशान भी क्या कम स्मार्ट, जहीन और खूबसूरत नौजवान था. 6 फुट की बलिष्ठ कदकाठी में वह एक बोलती आंखों वाला स्मार्ट प्रोफैशनल था, जिस के साथ देखनेभालने में बेहद मौडर्न, सुंदर रिनी का अच्छा मैच था.

मालविका आज हफ्तेभर बाद अपनी डायरी के पन्ने पलट रही थी कि ईशान को वापस आया देख वह अवाक रह गई.

‘‘क्या हुआ, तुम अकेले? गए नहीं उन के साथ?’’

‘‘बरदाश्त करो थोड़ी देर, पराशर भैया और रिनी का अकेले घूमना.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘क्या नहीं हुआ भाभी.’’

ईशान मालविका के पास आ कर सोफे पर बैठ गया. उस के हाथ पर अपना हाथ यों रखा जैसे वह उस का संबल हो, फिर शांति से पूछा, ‘‘मालविका, हां, नाम ही सही रहेगा. इस मामले में मैं तुम्हारी राय नहीं मांगूंगा क्योंकि मै जानता हूं तुम संस्कारों की दुहाई दोगी और हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाएंगे.’’

मालविका बेहद उल झन वाली स्थिति में आ गई थी,  उस ने  िझ झकते हुए पूछा, ‘‘आखिर क्या कहना चाह रहे हो तुम ईशान?’’

‘‘तुम्हें क्या हुआ मालविका, मु झे बताओ. भैया क्यों तुम से खफाखफा रहते हैं? तुम इतनी खूबसूरत हो, मितभाषी, सब का दिल जीत लेने वाली, गीत नृत्य में माहिर हो, फिर क्यों भैया अकसर व्यंग्य कसते रहते हैं, जैसे उन के अंदर बहुत क्रोध जमा है तुम्हारे लिए?’’

‘‘ईशान यह दुविधा मेरे लिए आग का दरिया है और इस में डूबे रहना मेरा समय.’’

‘‘आप इतनी टैलेंटेड और खूबसूरत हो, क्यों सहती हो इतना?’’

‘‘मानस के लिए, उसे मैं टूटे घरौंदे का पंख टूटा पंछी नहीं बनाना चाहती.’’

‘‘तुम ने जो सोचा है, वह एक मां का दृष्टिकोण है.’’

‘‘मैं अभी सब से पहले मां ही हूं ईशान.’’

‘‘और तुम खुद?’’

‘‘तुम जैसा प्यारा दोस्त अगर साथ रहे, तो खुद को भी धीरेधीरे सम झने लगूंगी.’’

‘‘मालविका, मैं कब से तुम से यही कहने वाला था. हम अब से पक्के दोस्त. तुम मु झे अपनी सारी परेशानी बताओगी और घुटन से खुद को मुक्त रखोगी. मैं जानता हूं तुम कितनी अकेली हो. अपने मायके में तुम इकलौती बेटी थी और अब तुम्हारे मातापिता रहे नहीं. मैं यह भी सम झता हूं कि तुम्हारी पहचान की वजह से तुम बाहर अपना दुख किसी से सा झा भी नहीं कर पाती होगी, कितनी घुटती होगी तुम. मालविका, आज तुम्हें जानने के लिए मैं ने भैया के साथ रिनी को भी अकेला छोड़ देना पसंद कर लिया.’’

मालविका की आंखों से टपटप आंसू उस की गोद में गिरने लगे, जैसे सालों से धरी रखी ग्लानि अब तोड़ चुकी थी अपनी सीमाएं.

‘‘ये बड़ी उल झन भरी बातें हैं,  तुम कैसे सम झोगे ईशान. तुम तो अभी बच्चे हो.’’

‘‘अब कान खींच लूंगा तुम्हारा, सम झी. हमारी दोस्ती के बीच अब कभी भी उम्र को मत लाना.’’

आंसुओं के बीच मालविका की आंखों में वैसी ही चमक उठी जैसी बारिश के बाद कई बार दिखती है. निगाहें मिलीं दोनों की और छोटीछोटी सम झ की बड़ी सी जगह बन गई.

‘‘तो बताओ.’’

हक से यह कहा ईशान ने तो मालविका ने मुंह खोला, ‘‘पराशर खुद बहुत हैंडसम और अच्छी नौकरी में हैं, मगर वे स्वीकार नहीं पाते कि उन के रहते कोई मेरी प्रशंसा करे. रिश्तेदार, जानपहचान वाले या मेरे परिचितअपरिचित फैंस. मैं अपना काम और नाम छोड़ कर सिर्फ उन के हाथों की कठपुतली बन जाऊं, तो शायद उन का दिल पसीजे. दरअसल, पराशर में प्रतिद्वंद्विता और तुलना करने की भावना हद से ज्यादा है जो उन्हें कभी चैन की सांस लेने नहीं देती. जब तक वे मेरा आत्मविश्वास नहीं तोड़ते उन का आत्मविश्वास नहीं गढ़ता. रातें मेरी कभी खुद की नहीं रहतीं, वे अपनी मरजी थोप कर मु झे कमतर का एहसास कराने की कोशिश करते हैं.’’

मालविका बोलते हुए अचानक रुक गई, शायद ज्यादा खुल जाने की  िझ झक ने उस के शब्दों को रोक लिया.

‘‘यानी, तुम्हारी इच्छा या अनिच्छा का कोई मोल नहीं, जो वे चाहें. पतिपत्नी में रिश्ता तो बराबरी का होता है.’’

‘‘परेशानी और भी है, सोच यह भी है कि अगर स्त्री कुछ अपनी खुशी के लिए कर रही है, जिस से समाज में उस की पहचान बनती है तो वह स्वार्थी और क्रूर है, क्योंकि वह अपने लिए समय निकालती है. जिस पति की ऐसी सोच रहे वह पत्नी को प्यार और सम्मान किस तरह दे सकेगा? तुम्ही बताओ ईशान.’’

‘‘लड़कियों को देख उन से ऐसा व्यवहार करते, जिस से मैं परेशान होऊं. जतलाने की यही मंशा रहती है कि चाहें तो वे अभी भी बहुतकुछ कर सकते हैं, लड़कियां अब भी उन के पीछे दीवानी हो सकती हैं, अर्थात मु झे भ्रम न हो कि लोग मेरे ही दीवाने हैं. क्या कहूं ऐसे बचकानेपन को. मैं ने उन्हें माफ करना सीख लिया है.’’

‘‘मालविका, तुम अपनी प्यारी सी दोस्ती मु झे दोगी? मैं एहसान मानूंगा तुम्हारा. तुम इतनी गुणी होते हुए भी कितनी सिंपल हो, तुम से बहुतकुछ सीखना है मु झे. जिंदगी को तुम्हारे नजरिए से जानना है मु झे. एक सुकूनभरा एहसास मैं भी दे पाऊंगा तुम्हें, ऐसा भरोसा दिलाता हूं. हमेशा रिश्ता लेने और देने का ही नहीं होता, कभी यह बिन कुछ लिएदिए आपस में खोए रहने का भी होता है. तुम कितनी अकेली हो, दोस्ती वाला यह हाथ थाम लो मालविका. मैं तुम्हारे दिल को थाम लूंगा.’’ ईशान ने अपना हाथ मालविका की ओर बढ़ा दिया था.

‘‘एक अच्छा दोस्त जो आप के दर्द का सा झीदार भी हो, बहुत मुश्किल से मिलता है. लेकिन तुम्हें संभाल कर कैसे रखूं ईशान? तुम जो मु झ से कितने छोटे हो. पराशर भी कभी नहीं चाहेंगे कि मैं तुम से संपर्क रखूं और फिर रिनी? उसे क्यों पसंद होगी हमारी दोस्ती?’’

‘‘तो मालविका तुम अभी भी उल झी हुई हो. सामाजिक संपर्क में मैं तुम्हारा देवर हूं. लेकिन जहां दोस्ती का संबंध सब से ऊंचा होता है वहां रिश्तों की थोपी हुई पाबंदियां माने नहीं रखतीं. रही बात पराशर भैया और रिनी की, तो एक बात का उत्तर दो, तुम्हें उत्तर खुद ही मिल जाएगा. पराशर भैया क्या तुम्हारे दिल के राजदार हैं? क्या उन्होंने तुम्हें यह अधिकार दिया है? क्या वे तुम्हारे दिल के हमदम हैं? उन का वास्ता तुम्हारे शरीर से है, तुम से नहीं. घुटघुट कर बच्चे को बड़ा कर तो लिया, अब बाकी जिंदगी में एक अच्छी सी दोस्ती को भी अपनाना नहीं चाहोगी? जहां तक रिनी की बात है, तो वह आज की मौडर्न प्रोफैशनल लड़की है और उस के खुद के पक्के व अच्छे पुरुष दोस्त हैं.

‘‘मालविका, जैसे तुम अपने रचना संसार को पराशर भैया के न चाहते हुए भी जिंदा रखे हुए हो, क्योंकि तुम जानती हो कि तुम सही कर रही हो, उसी तरह हमारी दोस्ती को खुद के दिलदिमाग के सुकून के लिए जीने का हक दो. बात है हम दोनों अपनेअपने पार्टनर के साथ सच्चे और अच्छे रहें और इस के लिए शादी से अलग रिश्तों में भी सम झ कर चलें. सब की अपनी जिंदगी के माने हैं और शादी से वे माने खत्म नहीं होते.’’

कम बोलने वाला ईशान इतना बोल कर एकदम चुप हो गया. थक कर बेबस सा मालविका की ओर देखने लगा.

मालविका बोली, ‘‘यानी, अब मेरे मन के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान पैदा हो गया है और मै आसानी से उस में दो घड़ी बिता सकती हूं,’’ मालविका ने ईशान के हाथ पर अपना हाथ रख दिया था. ईशान अब संतुष्ट था. 2 दिनों बाद जब ईशान और रिनी ने फिजी के लिए फ्लाइट पकड़ी तब ढेर सारी अच्छीबुरी बातों के बीच एक बात बहुत अच्छी थी कि मालविका के पास मुसकराने की एक बेहतरीन वजह हो गई थी. इन भीगी सी पलकों में एक गुलाबी सा ख्वाब पैदा हो गया था जो बड़ी आसानी से अब उसे सहलाता, बहलाता और वह बेवजह ही मुसकराने लगती.

Romantic Story: अधूरा सपना – हर शाम अभीन गुप्ता स्टोर के पास क्यों जाता था

Romantic Story, लेखक- पंकज कुमार यादव

पता नही क्यों जब भी शादी में , बैंड बाजे की धुन में कोइ फिल्मी गाने की सैड सैंाग बजती है, अभीन की धड़कने तेज हो जाती. उसकी आंखे बंद हो जाती कुछ पल के लिए ,दिल और मन रूआंसा सा हो जाता है  कुछ पल के लिए.  रभीना हां यही तो नाम था उस लड़की का जिसे देख देख वो फिल्मी प्यार मे डुब जाता था. रभीना अभीन को के प्रति सीरियस है इसका एहसास कभी भी नही होने देती थी. ये बात अभीन को भी पता था. पर अभीन हर शाम गुप्ता स्टोर के पास पांच बजे के करीब खडा़ हो जाता था ,ताकि वो टियूशन जाती रभीना का दीदार कर सके. रोज दीदार के नाम पर खडा़ तो नही हो सकता था गुप्ता जी के स्टोर पर ,इसलिए कुछ ना कुछ रोज अभीन को दुकान से खरीदना ही पड़ता था. गुप्ता अंकल सब कुछ जानते हुए भी अंजान बने रहते थे. अभीन अभी अभी बारहवीं में तो गया था.

मैथ ,फिजिक्स ,केमिस्ट्री के प्रशनो केा रट्टा मारने के बाद वो तुरंत रभीना के याद में डूब जाता था. और याद में भी ऐसे डूबता मानो सच में गोता लगा रहा हो. रभीना उसकी बाहों में ,रभीना उसके जोक पर लागातार हंसते हुए. अभीन, रभीना को बस सोचता जाता और अपना होश खोता जाता. अभीन के इस पढ़ाकू व्यवहार से मां चिंतित रहने लगी. ऐसी भी क्या पढाइ जो बंद कमरे में पढते -पढते बिना खाये पिये सो जाये. मां को कहां पता था कि अभीन बंद कमरे सिर्फ पढाई नही करता. वारहवीं का इग्जाम खत्म होते होते ही अभीन का प्यार और भी परवान चढ़ने लगा. अभीन से रभीना कभी बात नही करती थी. इन दो सालो में भी अभीन रभीना से बात नही कर पाया. पर इससे अभीन को कोइ फर्क नही पड़ता था. वो हर रोज गुप्ता स्टोर से खरीदारी कर आता. गुप्ता जी के दुकान की ऐसी कोइ चीज नही रही हो जिसे अभीन ने नही खरीदी हो. अब तो गुप्ता अंकल ही अभीन को बता देते थे कि बेटे आज सर्ट में लगाने वाली बटन ही खरीद ले ,बेटे आज ना हेयर डाई खरीद ले. और फिर अभीन दे देा अंकल कह कर टियूशन जाती अभीना को निहारता निढाल हो जाता कुछ पलो के लिए. अभीन पढ़ने में तो तेज था ही साथ ही उसने अपने बेहतर जीवन के सपने भी बुने थे.

उसका प्यार जितना फिल्मी था उतना ही फिल्मी उसके सपने थे. पर उसकी खूबसूरत सपने में भी खूबसूरत रभीना भी थी. एक अच्छी पैकेज वाली नौकरी ,एक मकान और छोटी सी कार में खुद से डाªइव करते हुए रभीना को बारिश के बूदों में घुमााना. अपनी इसी सपने को पूरा करने के लिए अभीन दिन रात पढा़ई करता था. अभी भी अभीना उसके लिए सपना ही थी , एक कल्पना जिसे देख वो खुश हुआ करता था. जिसे महसूस कर वो अपने सपनो को सच करने के लिए आइ लीड को पीटते नींद केा भगाने के लिए आंख के पुतलियों पे उर्जा देती पानी की छिंटो के सहारे पढाई करता था.

पहली कोशिश में पहली ही दफा में ही अभीन ने इजीनियरिंग परीक्षा इंट्रेस निकाल ली. अपार खुशी ,पर दुखः इस बात की थी  ,कि अब गुप्ता अंकल के दुकान पर रोज समान खरीदने का मौका नही मिलेगा. अब वो अब अपनी सपना को अपने खव्वाब को रोज अपनी आंखो से दीदार नही कर पायेगा. अभीन वापस अपने घर आते ही चिंतित हो उठा. उसके कइ दिनो से इस तरह के व्यवहार से उसके माता पिता भी चिंतित हो उठे. हमेशा खुश रहने वाला लड़का इतना परेशान क्यों है ?

अभीन के होश उड़े हुए थे. वो थोड़ा बेसुध सा रहने लगा. अभीन अब उतावले से रभीना से बात करने और उसे मिलने के रास्ते तलाशने लगा. अपने मोहल्ले में ही रहने वाली रभीना के लिए उसने कभी ऐसी कोशिश नही की थी. उसने कभी ये बात नही सोची थी कि ऐसा भी कभी अवस्था आयेगा. आखिरकर वो अपने मासी के घर रहने वाली रेंटर निकली. किसी बहाने से अभीन अपने मासी के यहां पहुंच भी गया. पर ये क्या रभीना दो बार सामने से गुजरी , उसने ध्यान ही नही दिया.

गुप्ता अंकल के स्टोर पर तो रोज मुझे देख हंसती थी. वो मुझसे कही ज्यादा खुश लगती थी ,मुझे गुप्ता अंकल के स्टोर पर इंतजार करता देख. पर आज ना जाने ऐसा व्यवहार क्यू कर रही है. अभीन को रभीना पर गुस्सा भी आ रहा था. ऐसी भी क्या बेरूखी. आखिर अभीन गुस्सा होकर यो कहें निराश होकर अपने हल्के कदम और भारी मन के साथ कब अपने घर पहुच गया उसे भी  पता ना चला. अभीन अभी भी गुस्से में ही था. रात का भोजन नही ,अगले दिन, दिन भर कमरे से बाहर निकलना नही. अभीन के माता पिता परेशान हो गये. कही ऐसा तो नही कि अभीन घर से दूर इंजीनियरिंग की पढाई करने जाने से दुखी है.

अभीन माता पिता से, घर से दूर रहने के फायदे और स्वालंबी बनने की जरूरत पर लम्बी लेक्चर सूनते सूनते बोर होने लगा. तो घर से निकला. माता पिता समझे अब अभीन समझदार हो गया. अभीन गुप्ता अंकल क स्टोर पर पहुंचा. दो साल में पहली बार अभीन गुप्ता अंकल के स्टोर पर साम पांच बजे के बाद मुरझाया चेहरा लेकर पहुंचता है. गुप्ता अंकल ने पुछा ’’ अरे तुमने बताया नही  तुमने आइआइटी एक बार में ही निकाल ली.’’ ’’ हां अंकल निकाल ली  ’’ कह कर अभीन चुपचाप हो गया. और एका एक अपने मासी के घर की ओर बढ चला. आज रभीना से पुछ ही लुंगा कि शादी करोगी या नही ? और कुछ ही देर में अभीन रभीना के घर के दरवाजे पर था. पर ये क्या उसके दरवाजे पर ताला लगा हुआ था. तभी उसकी मासी आवाज देती हैं. ’’ अरे अभीन उधर रेंटर के कमरे की ओर क्या कर रहा है ़ इधर आ ’’  ’’ आता हूं मासी  ये आपके रेंटर कहां गये ,इनका दवाजा बंद है  लगता है मार्केट गये हैं !’’  ’’ नही नही !

मार्केट नही गये अपने गांव गये हैं. उनकी बेटी है ना रभीना उसकी शादी है अगल हप्ते ’’. अभीन अंदर से हिल जाता है. रोते हुए अपने घर की ओर दैाड़ता है. उसका दिमाग भारी लगने लगता है. अपने बहते आॅशु को पोछते हुए दौड़ते हुए चलने लगता है. अभीन को मालुम है कि लोग उसे रोते हुए देख रहे हैं. पर आंशु रोकना उसके बस की बात नही थी , सो उसने दौड़ कर घर जल्द पहुंचना ही अच्छा समझा. और बंद कमरे में जी भर रोया अभीन और रोते हुए थक कर सो गया.

रात को सपने में भी आयी राभीना ,पर कहीं से ऐसा नही लगा जैसे रभीना उसकी जिंदगी से चली गयी हो. पहले की ही तरह अभीन के बाहों में लिपटी अभीन के बाल को खींचती. और अभीन के जोक पर पहले चुपचाप रहती ये भी कोइ जोक है. और फिर खिलखिला कर हसंती और जी खोल कर हंसती. अभीन के चेतन में अभी भी था कि रभीना उसकी जिंदगी से चली गयी है. पर उसकी हिम्म्त ही नही हुइ पुछने की ,क्यूकिं रभीना तो अभी उसकी बाहों मे थी. सुबह तैयार होकर अपने सपने को पूरा करने के लिए अभीन आईआईटी दिल्ली निकल रहा था. पर उसका सपना थोड़ा थेाड़ा अधूरा सा लग रहा था क्यूकि इस सपने में रभीना नही थी.

Romantic Story: महानायक – आखिर विष्णुजी के नखरे का क्या राज था?

Romantic Story, लेखिका – वीना शर्मा

शालिनी ने घड़ी देखी. 12 बज रहे थे. अभी आधा रास्ता भी पार नहीं हुआ था.

‘‘हम लोग 1 बजे तक बच्चों के स्कूल पहुंच जाएंगे न?’’ शालिनी ने कुछ अधीर स्वर में अपने ड्राइवर भुवन से पूछा.

‘‘पहुंच जाएंगे मैडम. इसीलिए तो मैं इस रोड से लाया हूं. यहां ट्रैफिक कम होता है.’’

‘‘ट्रैफिक तो अब किसी भी रोड पर कम नहीं होता,’’ पास बैठी शालिनी की सहेली रीना बोली.

रीना का बेटा चिंटू भी उसी स्कूल में पढ़ता था, जिस में शालिनी के दोनों बच्चे अनूषा और माधव थे.

शालिनी और रीना बचपन की सहेलियां थीं. साथ पढ़ी थीं और समय के साथ दोस्ती बढ़ती ही गई थी. शालिनी के पति अमर कुमार मशहूर फिल्म अभिनेता थे और रीना के पति बिशन एक बड़े व्यापारी. दोनों का जीवन अति व्यस्त था.

अमर कुमार की व्यवस्तता तो बहुत ही अधिक थी. पिछले 7 सालों में उन की इतनी फिल्में जुबली हिट हुई थीं कि शालिनी को अब गिनती भी याद नहीं थी. इतनी अधिक सफलता की कल्पना तो न शालिनी ने की थी न अमर कुमार ने. शालिनी को गर्व था अपने पति पर. हर जगह अमर के नाम की धूम मची रहती थी. बच्चों को भी अपने पापा पर कम गर्व नहीं था. पापा की वजह से वे स्कूल में वीआईपी थे.

आज अनूषा और माधव ने चिंटू और अपनी क्लास के अन्य साथियों के साथ पापा की नई गाड़ी में घूमने का प्रोग्राम बनाया था. स्कूल में जल्दी छुट्टी होने वाली थी.

बच्चों में पापा की नई गाड़ी के लिए बहुत उत्साह था. सब से बढि़या गाड़ी जो अभी तक सिर्फ उन के पापा के पास थी. कितने उत्साह से दोनों आज के दिन का इंतजार कर रहे थे, जब उन के स्कूल में जल्दी छुट्टी होने वाली थी.

गाड़ी सिगनल पर रुकी. शालिनी परेशान होने लगी कि अब और देर होगी. उस ने फिर घड़ी देखी. तभी अचानक शालिनी का मोबाइल बजा.

‘‘हैलो,’’ शालिनी धीरे से बोली.

‘‘मैडम बहुत गड़बड़ हो गई है… आप कहां हैं?’’ उधर से आने वाला स्वर अमर के सैके्रेटरी वसु का था.

‘‘क्या हुआ वसु? हम स्कूल के रास्ते में हैं.’’

‘‘मैडम, विष्णुजी अभी तक नहीं आए हैं. यहां इतना बड़ा सैट लगा हुआ है. प्लीज आप…’’

‘‘हां बोलो वसु, क्या करना है?’’

‘‘आप वह नई गाड़ी जल्दी से विष्णुजी के यहां पहुंचा दीजिए. जब तक वह गाड़ी नहीं पहुंचेगी विष्णुजी नहीं आएंगे और आप तो जानती हैं, जब तक विष्णुजी नहीं आएंगे…’’

‘‘शूटिंग नहीं होगी,’’ शालिनी ने गुस्से में कहा.

‘‘जी मैडम, आप जल्दी से भुवन को उनझ्र के यहां भेज दीजिए. आप के लिए दूसरी गाड़ी पहुंच जाएगी.’’

शालिनी ने फोन बंद किया ही था कि वह फिर बजा. इस बार अमर ने फोन किया था.

‘‘हां बोलिए,’’ शालिनी ने अपने गुस्से को भरसक रोकते हुए कहा.

‘‘शालू प्लीज, वह नई गाड़ी फौरन…’’

‘‘विष्णुजी के यहां भेज दूं?’’

‘‘हां, प्लीज, जल्दी…’’

शालिनी ने तेजी से फोन बंद किया और फिर बोली, ‘‘भुवन गाड़ी रोको.’’

भुवन हैरान था. अभीअभी तो ग्रीन सिगनल हुआ था. फिर भी उस ने गाड़ी किनारे लगा दी. शालिनी तेजी से नीचे उतर गई. पीछेपीछे रीना भी उतर गई.

‘‘भुवन, जल्दी से विष्णुजी के घर उन्हें लेने जाओ.’’

‘‘लेकिन मैडम आप?’’

‘‘हम टैक्सी से चले जाएंगे.’’

शालिनी और रीना टैक्सी में जा रही थीं. शालिनी का परेशान चेहरा देख कर रीना भी परेशान हो रही थी.

‘‘इतना परेशान मत हो शालू… ये सब तो…’’

‘‘मैं विष्णुजी से तंग आ गई हूं,’’ शालिनी रोंआसे स्वर में बोली.

रीना क्या कहती? वह शालिनी से कितना कुछ तो सुनती रहती थी, इन विष्णुजी के बारे में.

अमर के गुरु हैं वे. उन के सैट पर आए बिना अमर शूटिंग नहीं करता. उन के नखरे उठातेउठाते निर्माता परेशान हो जाते हैं. महंगी से महंगी दारू, बढि़या से बढि़या होटल से खाना और क्या कुछ नहीं…

आउटडोर पर तो उन की फरमाइश और भी बढ़ जाती है. उन्हें वही फल और सब्जियां चाहिए होती हैं, जिन का मौसम नहीं होता.

कालेज के जमाने में अमर नाटकों में काम करता था, जिन के निर्देशक यही विष्णुजी हुआ करते थे. इन की योग्यता पर कोई संदेह नहीं था, बहुत सफल निर्देशक थे ये. अपने काम में बहुत मेहनत करते थे. हर कलाकार पर विशेष ध्यान देते थे. उन से प्रशंसा के 2 बोल सुनने के लिए अमर जमीनआसमान एक कर देता था.

अमर को फिल्मों का बेहद शौक था. इसीलिए तो जब उस ने एक फिल्मी पत्रिका में टेलैंट कौंटैस्ट के बारे में पढ़ा तो जल्दी से फार्म भर कर भेज दिया. फिर जब वहां से बुलावा आया तो अमर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन वहां ‘स्क्रीन टैस्ट’ होगा, बड़ेबड़े लोगों के सामने डायलौग बोलने पड़ेंगे, वह कालेज का नाटक नहीं है कि हंसतेखेलते ट्राफी जीती जा सके, विष्णुजी ने अमर को कई दिनों तक अभ्यास कराया, हिम्मत बंधाई…

‘‘अपने पर भरोसा रखो. तुम बहुत अच्छे कलाकार हो…’’

अमर चुन लिया गया. उसे फिल्म मिल गई. शूटिंग पर विष्णुजी साथ रहे.

अमर की फिल्म हिट हो गई. धड़ाधड़ नई फिल्में मिलने लगीं. विष्णुजी हर जगह साथ होते. उन के बिना अमर काम नहीं कर पाता था.

अमर स्टार बन गया. नाम और पैसा सभी कुछ बरसने लगा. विष्णुजी के घर की हालत बदलने लगी. उन की तीनों बेटियां अच्छे स्कूल में जाने लगीं. बढि़या फ्लैट, नौकरचाकर सभी कुछ…

उन की पत्नी मालती खुश रहने लगी, क्योंकि उस ने अभी तक अच्छे दिन देखे ही नहीं थे. विष्णुजी कभी कोई नौकरी नहीं कर पाए थे और दारू पीना भी कम नहीं करते थे.

अमर की शादी हुई. शादी की पार्टी में पहली बार शालिनी ने विष्णुजी को देखा. नाटे, मोटे शराब का गिलास पर गिलास खाली करते हुए… उस व्यक्ति को शालिनी आश्चर्य से देख रही थी.

अमर ने शालिनी का परिचय करवाया, ‘‘ये मेरे गुरुजी हैं.’’

अमरके इशारे पर शालिनी ने  झुक कर उन के पांव छूए. पार्टी भर शालिनी देखती रही. बहुत से लोग विष्णुजी के आगेपीछे घूम रहे थे और वे सब से अकड़अकड़ कर बातें कर रहे थे.

जैसेजैसे अमर की सफलता बढ़ती गई, विष्णुजी की यह अकड़ भी बढ़ती रही.

शालिनी के मन में उन के लिए कभी कोई श्रद्धा पैदा नहीं हुई, लेकिन अमर की वजह से वह उन्हें हमेशा चुपचाप सहती रही.

सारे निर्मातानिर्देशक भी अमर की वजह से ही चुप रहते. अमर उन के बिना शौट नहीं दे सकता. उन का सैट पर होना जरूरी है. वे हर निर्देशक को काम सिखाने लगते. निर्माता को छोटीछोटी बातों पर डांटनेफटकारने लगते. फिर भी अमर की वजह से कोई कुछ नहीं कहता.

मम्मी और आंटी को टैक्सी से उतरता देख, बच्चों के मुंह उतर गए.

रीना ने बात संभाली, ‘‘वह बात यह है कि रास्ते में गाड़ी खराब हो गई… अभी आती ही होगी… तब तक सब लोग आइसक्रीम खाते हैं.’’

दूसरी गाड़ी जल्दी आ गई. लेकिन यह तो पापा की नई गाड़ी नहीं है. अनूषा और माधव का मुंह उतर गया. उन के चेहरे देख कर शालिनी को धक्का जैसा लग रहा था.

बच्चों के घूमने का कार्यक्रम एक औपचारिकता की तरह निभाया गया. रीना ही उन्हें बहलाती रही.

शालिनी का उखड़ा मूड देख कर अमर परेशान हो गया. बोला, ‘‘वह क्या है न शालू… विष्णुजी की जिद थी उन्हें लेने वही गाड़ी आए. बेचारे कुमार का लाखों का नुकसान हो रहा था… मैं क्या करूं?’’

‘‘लेकिन विष्णुजी को हमेशा आप की नई गाड़ी ही क्यों चाहिए होती है?’’ शालिनी अपने गुस्से पर काबू नहीं रख सकी.

‘‘उन का ईगो संतुष्ट होता है… तुम तो जानती हो उन्हें.’’

‘‘हां, मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूं. ईगो के सिवा और है क्या उन के पास?’’

अमर कुछ नहीं कह सका. घर का वातावरण कई दिनों तक तनावपूर्ण रहा.

शालिनी को अब अमर की चिंता होने लगी थी, क्योंकि अमर विष्णुजी पर इतना निर्भर करता है? क्यों काम नहीं कर सकता उन के बिना? सफलता के इस शिखर पर पहुंच कर भी आत्मविश्वास क्यों नहीं आ पाया अमर में? इस तरह कितने दिन चलेगा? कहीं ऐसा न हो कि अमर को काम मिलना बंद हो जाए. फिर क्या होगा? अमर सम झता क्यों नहीं?

नीरज साहब एक बहुत बड़ी फिल्म बना रहे थे. अमर उन की अनेक हिट फिल्मों का हीरो ही नहीं, बल्कि बहुत अच्छा दोस्त भी था. जाहिर है मुख्य भूमिका इस बार भी उसे ही निभानी थी. नीरज साहब की यह फिल्म एकसाथ कई भाषाओं में बन रही थी और इस में कई विदेशी कलाकार भी काम कर रहे थे.

आज बहुत ही भव्य सैट लगा था. प्रैस वाले, मीडिया वाले सब आने वाले थे. अमर चाहता था कि शानिली भी सैट पर आए.

वैसे शालिनी अमर के सैट पर बहुत कम जाती थी और कुछ सालों से तो उस ने जाना बिलकुल छोड़ दिया था. वह लोगों के साथ विष्णुजी का व्यवहार सहन नहीं कर पाती थी. लेकिन इस बार अमर और नीरज साहब के बारबार आग्रह करने पर शालिनी को जाना पड़ा.

सारी तैयारी हो चुकी थी. विदेशी कलाकारों सहित सारे कलाकार तैयार थे. सैट तैयार था. लेकिन शूटिंग शुरू नहीं हो पा रही थी. विष्णुजी अभी तक नहीं पहुंचे थे. कई बार फोन किया गया, गाड़ी भेज दी गई थी. लेकिन वे नहीं आए. इस फिल्म के मुहूर्त वाले दिन से ही वे काफी नाराज थे, क्योंकि इस बार नीरज साहब ने मुहूर्त उन से नहीं बल्कि एक नामी विदेशी कलाकार से करवाया था.

जब बहुत देर हो गई तो अमर ने खुद फोन लगाया. मालती ने ही फोन उठाया, बोली, ‘‘क्या बताऊं अमर भैया, मैं तो सम झासम झा कर थक गई. ये सुबह से ही पी रहे हैं और नीरज साहब को गालियां दे रहे हैं.’’

शालिनी की मनो:स्थिति बहुत खराब हो रही थी. क्या सोच रहे होंगे सब लोग अमर के लिए… यह इतना बड़ा नायक… इतना असमर्थ… इतना असहाय है.

आखिर शूटिंग शुरू हुई. अमर ने विष्णुजी के बिना ही काम किया.

‘‘कमाल कर दिया तुम ने,’’ नीरज साहब ने अमर को गले लगा लिया. विदेशी कलाकार अमर के अभिनय से बेहद प्रभावित हुए.

मेकअप रूम में शालिनी अमर की ओर प्रशंसा से देख रही थी. बोली, ‘‘आप उन के बिना काम कर सकते हैं… क्यों सहते हैं उन के इतने नखरे? आप उन के मुंहताज नहीं हैं… आप उन के बिना भी…’’

‘‘जानता हूं शालू मैं उन के बिना काम कर सकता हूं,’’

‘‘तो फिर हमेशा क्यों नहीं करते?’’

‘‘शालू… वह आदमी… जिंदगी में कुछ नहीं कर पाया… मेरी स्टारडम को जी रहा है वह… यह उस से छिन गई तो वह टूट जाएगा, फिर क्या होगा उस का? क्या होगा उस के परिवार का? बोलो?’’ शालिनी अवाक सी अमर को देख रही थी.

न जाने कब वहां आ कर खड़े हो गए थे नीरज साहब. फिर धीरे से बोले, ‘‘यह बात हम लोग सम झते हैं भाभीजी.’’

शालिनी को लग रहा था वह सचमुच एक महानायक की पत्नी है.

Romantic Story: एक रिश्ता प्यारा सा – माया और रमन के बीच क्या रिश्ता था?

Romantic Story: “अरे रमन जी सुनिए, जरा पिछले साल की रिपोर्ट मुझे फॉरवर्ड कर देंगे, कुछ काम था” . मैं ने कहा तो रमन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया “क्यों नहीं मिस माया, आप फरमाइश तो करें. हमारी जान भी हाजिर है.

“देखिए जान तो मुझे चाहिए नहीं. जो मांगा है वही दे दीजिए. मेहरबानी होगी.” मैं मुस्कुराई.

इस ऑफिस और इस शहर में आए हुए मुझे अधिक समय नहीं हुआ है. पिछले महीने ही ज्वाइन किया है. धीरेधीरे सब को जानने लगी हूं. ऑफिस में साथ काम करने वालों के साथ मैं ने अच्छा रिश्ता बना लिया है.

वैसे भी 30 साल की अविवाहित, अकेली और खूबसूरत कन्या के साथ दोस्ती रखने के लिए लोग मरते हैं. फिर मैं तो इन सब के साथ काम कर रही हूं. 8 घंटे का साथ है. मुझे किसी भी चीज की जरूरत होती है तो सहकर्मी तुरंत मेरी मदद कर देते हैं. अच्छा ही है वरना अनजान शहर में अकेले रहना आसान नहीं होता.

दिल्ली के इस ब्रांच ऑफिस में मैं अपने एक प्रोजेक्ट वर्क के लिए आई हुई हूं. दोतीन महीने का काम है. फिर अपने शहर जयपुर वाले ब्रांच में चली जाऊंगी. इसलिए ज्यादा सामान ले कर नहीं आई हूं.

मैं ने लक्ष्मी नगर में एक कमरे का घर किराए पर ले रखा है. बगल के कमरे में दो लड़कियां रहती हैं. जबकि मेरे सामने वाले घर में पतिपत्नी रहते हैं. शायद उन की शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ है. पत्नी हमेशा साड़ी में दिखती है. मैं सुबहसुबह जब भी खिड़की खोलती हूं तो सामने वह लड़का अपनी बीवी का हाथ बंटाता हुआ दिखता है. कभीकभी वह छत पर एक्सरसाइज करता भी दिख जाता है.

उस की पत्नी से मेरी कभी बात नहीं हुई मगर वह लड़का एकदो बार मुझे गली में मिल चुका है. काफी शराफत से वह इतना ही पूछता है,” कैसी हैं आप ? कोई तकलीफ तो नही यहां.”

“जी नहीं. सब ठीक है.” कह कर मैं आगे बढ़ जाती.

इधर कुछ दिनों से देश में कोरोना के मामले सामने आने लगे हैं. हर कोई एहतियात बरत रहा है. बगल वाले कमरे की दोनों लड़कियों के कॉलेज बंद हो गए. दोनों अपने शहर लौट गई .

उस दिन सुबहसुबह मेरे घर से भी मम्मी का फोन आ गया,” बेटा देख कोरोना फैलना शुरु हो गया है. तू घर आ जा.”

“पर मम्मी अभी कोई डरने की बात नहीं है. सब काबू में आ जाएगा. यह भी तो सोचो मुझे ऑफिस ज्वाइन किए हुए 1 महीना भी नहीं हुआ है. इतनी जल्दी छुट्टी कैसे लूं? बॉस पर अच्छा इंप्रेशन नहीं पड़ेगा. वैसे भी ऑफिस बंद थोड़े न हुआ है. सब आ रहे हैं.”

“पर बेटा तू अनजान शहर में है. कैसे रहेगी अकेली? कौन रखेगा तेरा ख्याल?”

“अरे मम्मी चिंता की कोई बात नहीं. ऑफिस में साथ काम करने वाले मेरा बहुत ख्याल रखते हैं. सरला मैडम तो मेरे घर के काफी पास ही रहती है. उन की फैमिली भी है. 2 लोग हैं और हैं जिन का घर मेरे घर के पास ही है. इसलिए आप चिंता न करें. सब मेरा ख्याल रखेंगे.”

“और बेटा खानापीना… सब ठीक चल रहा है ?”

“हां मम्मा. खानेपीने की कोई दिक्कत नहीं है . मुझे जब भी कैंटीन में खाने की इच्छा नहीं होती तो सरला मैडम या दिवाकर सर से कह देती हूं. वे अपने घर से मेरे लिए लंच ले आते हैं. ममा डोंट वरी. मैं बिल्कुल ठीक हूं. गली के कोने में ढाबे वाले रामू काका भी तो हैं. मेरे कहने पर तुरंत खाना भेज देते हैं. ममा कोरोना ज्यादा फैला तो मैं घर आ जाऊंगी. आप चिंता न करो .”

उस दिन मैं ने मां को तो समझा दिया था कि सब ठीक है. मगर मुझे अंदाज भी नहीं था कि तीनचार दिनों के अंदर ही देश में अचानक लॉकडाउन हो जाएगा और मैं इस अनजान शहर में एक कमरे में बंद हो कर रह जाऊंगी. न घर में खानेपीने की ज्यादा चीजें हैं और न ही कोई रेस्टोरेंट ही खुला हुआ है .

मैं ने सरला मैडम से मदद मांगी तो उन्होंने टका सा जवाब दे दिया,” देखो माया अभी तो अपने घर में ही खाने की सामग्री कब खत्म हो जाए पता नहीं . अभी न तुम्हारा घर से निकलना उचित है और न हमारे घर में ऐसा कोई है जो तुम्हें खाना दे कर आए. आई एम सॉरी. ”

“इट्स ओके .” बस इतना ही कह सकी थी मैं. इस के बाद मैं ने दिवाकर सर को फोन किया तो उन्होंने उस दिन तो खाना ला कर दे दिया मगर साथ में अपना एक्सक्यूज भी रख दिया कि माया अब रोज मैं खाना ले कर नहीं आ सकूंगा. मेरी बीवी भी तो सवाल करेगी न.

“जी मैं समझ सकती हूं . मुझे उन की उम्मीद भी छोड़नी पड़ी. अब मैं ने रमन जी को फोन किया जो हर समय मेरे लिए जान हाजिर करने की बात करते रहते थे. उन का घर भी लक्ष्मी नगर में ही था. हमेशा की तरह उन का जवाब सकारात्मक आया. शाम में खाना ले कर आने का वादा किया. रात हो गई और वह नहीं आए. मैं ने फोन किया तो उन्होंने फोन उठाया भी नहीं और एक मैसेज डाल दिया, सॉरी माया मैं नहीं आ पाऊंगा.

अब मेरे पास खाने की भारी समस्या पैदा हो गई थी. किराने की दुकान से ब्रेड और दूध ले आई. कुछ बिस्किट्स और मैगी भी खरीद ली. चाय बनाने के लिए इंडक्शन खरीदा हुआ था मैं ने. उसी पर किसी तरह मैगी बना ली. कुछ फल भी खरीद लिए थे. दोतीन दिन ऐसे ही काम चलाया मगर ऐसे पता नहीं कितने दिन चलाना था. 21 दिन का लॉकडाउन था. उस के बाद भी परिस्थिति कैसी होगी कहना मुश्किल था.

उस दिन मैं दूध ले कर आ रही थी तो गेट के बाहर वही लड़का जो सामने के घर में रहता है मिल गया. उस ने मुझ से वही पुराना सवाल किया,” कैसी हैं आप? सब ठीक है न? कोई परेशानी तो नहीं?”

“अब ठीक क्या? बस चल रहा है. मैगी और ब्रेड खा कर गुजारा कर रही हूं .”

“क्यों खाना बनाना नहीं जानती आप?

उस के सवाल पर मैं हंस पड़ी.

“जानती तो हूं मगर यहां कोई सामान नहीं है न मेरे पास. दोतीन महीने के लिए ही दिल्ली आई थी. अब तक ऑफिस कैंटीन और रामू काका के ढाबे में खाना खा कर काम चल जाता था. मगर अब तो सब कुछ बंद है न. अचानक लॉक डाउन से मुझे तो बहुत परेशानी हो रही है.”

“हां सो तो है ही. मेरी वाइफ भी 5-6 दिन पहले अपने घर गई थी. 1 सप्ताह में वापस आने वाली थी. संडे मैं उसे लेने जाता तब तक सब बंद हो गया. उस के घरवालों ने कहा कि अभी जान जोखिम में डाल कर लेने मत आना. सब ठीक हो जाए तो आ जाना. अब मैं भी घर में अकेला ही हूं.”

“तो फिर खाना?”

“उस की कोई चिंता नहीं. मुझे खाना बनाना आता है. ” उस के चेहरे पर मुस्कान खिल गई.

“क्या बात है! यह तो बहुत अच्छा है. आप को परेशानी नहीं होगी.”

“परेशानी आप को भी नहीं होने दूंगा. कल से मैं आप के लिए खाना बना दिया करूंगा. आप बिल्कुल चिंता न करें. कुछ सामान लाना हो तो वह भी मुझे बताइए. आप घर से मत निकला कीजिए. मैं हूं न.”

एक अनजान शख्स के मुंह से इतनी आत्मीयता भरी बातें बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा.” थैंक यू सो मच “मैं इतना ही कह पाई.

अगले दिन सुबहसुबह वह लड़का यानी अमर मेरे लिए नाश्ता ले कर आ गया. टेबल पर टिफिन बॉक्स छोड़ कर वह चला गया था. नाश्ते में स्वादिष्ट पोहा खा कर मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई. मैं दोपहर का इंतजार करने लगी. ठीक 2 बजे वह फिर टिफिन भर लाया. इस बार टिफिन में दाल चावल और सब्जी थे. मैं सोच रही थी कि किस मुंह से उसे शुक्रिया करूं. अनजान हो कर भी वह मेरे लिए इतना कुछ कर रहा है.

मैं ने उसे रोक लिया और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. वह थोड़ा सकुचाता हुआ बैठ गया. मैं बोल पड़ी ,” आई नो एक एक अनजान, अकेली लड़की के घर में ऐसे बैठना आप को अजीब लग रहा होगा. मगर मैं इस अजनबीपन को खत्म करना चाहती हूं. आप अपने बारे में कुछ बताइए न. मैं जानना चाहती हूं उस शख्स के बारे में जो मेरी इतनी हेल्प कर रहा है.”

“ऐसा कुछ नहीं माया जी. हम सब को एकदूसरे की सहायता करनी चाहिए.” बड़े सहज तरीके से उस ने जवाब दिया और फिर अपने बारे में बताने लगा,

“दरअसल मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं. मेरठ में मेरा घर है . स्कूल में हमेशा टॉप करता था. मगर घर के हालात ज्यादा अच्छे नहीं थे. सो इंटर के बाद ही मुझे नौकरी करनी पड़ी. करोल बाग में मेरा ऑफिस है. वाइफ भी मेरठ की ही है. बहुत अच्छी है. बहुत प्यार करती है मुझ से. हम दोनों की शादी पिछले साल ही हुई थी. दिल्ली आए ज्यादा समय नहीं हुआ है.”

“बहुत अच्छे. मैं भी दिल्ली में नई हूं. हमारे इस ऑफिस का एक ब्रांच जयपुर में भी है. वही काम करती थी मैं. यहां एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आई हुई हूं .अगर प्रमोशन मिल गया तो शायद हमेशा के लिए भी रहना पड़ जाए.”

अच्छा जी अब आप खाना खाएं. देखिए मैं ने ठीक बनाया है या नहीं.”

आप तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाते हैं. सुबह ही पता चल गया था. कह कर मैं हंस पड़ी. वह भी थोड़ा शरमाता हुआ मुस्कुराने लगा था. मैं खाती रही और वह बातें करता रहा.

अब तो यह रोज का नियम बन गया था. वह 3 बार मेरे लिए खाना बना कर लाता. मैं भी कभीकभी चाय बना कर पिलाती. किसी भी चीज की जरूरत होती तो वह ला कर देता . मुझे निकलने से रोक देता.

मेरे आग्रह करने पर वह खुद भी मेरे साथ ही खाना खाने लगा. हम दोनों घंटों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करते.

इस बीच मम्मी का जब भी फोन आता और वह चिंता करतीं तो मैं उन्हें समझा देती कि सब अच्छा है. मम्मी जब भी खाने की बात करतीं तो मैं उन्हें कह देती कि सरला मैडम मेरे लिए खाना बना कर भेज देती हैं. कोई परेशानी की बात नहीं है.

इधर अमर की वाइफ भी फोन कर के उस का हालचाल पूछती. चिंता करती तो अमर कह देता कि वह ठीक है. अपने अकेलेपन को टीवी देख कर और एक्सरसाइज कर के काट रहा है.

हम दोनों घरवालों से कही गई बातें एकदूसरे को बताते और खूब हंसते. वाकई इतनी विकट स्थिति में अमर का साथ मुझे मजबूत बना रहा था. यही हाल अमर का भी था. इन 15- 20 दिनों में हम एकदूसरे के काफी करीब आ चुके थे. और फिर एक दिन हमारे बीच वह सब हो गया जो उचित नहीं था.

अमर इस बात को ले कर खुद को गुनहगार मान रहा था. मगर मैं ने उसे समझाया,” तुम्हारा कोई दोष नहीं अमर. भूल हम दोनों से हुई है. पर इसे भूल नहीं परिस्थिति का दोष समझो. यह भूल हम कभी नहीं दोहराएंगे. मगर इस बात को ले कर अपराधबोध भी मत रखो. हम अच्छे दोस्त हैं और हमेशा रहेंगे. एक दोस्त ही दूसरे का सहारा बनता है और तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. मुझे खुशी है कि मुझे तुम्हारे जैसा दोस्त मिला.”

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर से भी तनाव की रेखाएं गायब हो गई और वह मंदमंद मुस्कुराने लगा.

Romantic Story: मौसमी बुखार – पति के प्यार को क्यों अवहेलना समझ बैठी माधवी?

Romantic Story, लेखिका – डा. मीरा दिक्षित

‘‘उठो भई, अलार्म बज गया है,’’ कह कर पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना राकेश ने फिर करवट बदल ली.

चिडि़यों की चहचहाहट और कमरे में आती तेज रोशनी से राकेश चौंक कर जाग पड़ा, ‘‘यह क्या तुम अभी तक सो रही हो? मधु…मधु सुना नहीं था क्या? मैं ने तुम्हें जगाया भी था. देखो, क्या वक्त हो गया है? बाप रे, 8…’’

जल्दी से राकेश बिस्तर से उठा तो माधवी के हाथ से अचानक उस का हाथ छू गया, वह चौंक पड़ा. माधवी का हाथ तप रहा था. माधवी बेखबर सो रही थी. राकेश ने एक चिंता भरी नजर उस पर डाली और सोचने लगा, ‘यदि मौसमी बुखार ही हो तो अच्छा है, 2-3 दिन में लोटपोट कर मधु खड़ी हो जाएगी. अगर कोई और बीमारी हुई तो जाने कितने दिन की परेशानी हो जाए,’ सोचतेसोचते राकेश बच्चों को जगाने पहुंचा.

चाय बना कर माधवी को जगाते हुए राकेश बोला, ‘‘उठो, मधु, चाय पी लो.’’

माधवी ने आंखें खोलीं, ‘‘क्या समय हो गया? अरे, 9. आप ने मुझे जगाया नहीं. आज बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?’’

राकेश मुसकरा कर बोला, ‘‘बच्चे तो स्कूल गए, तुम क्या सोचती हो, मैं कुछ कर ही नहीं सकता. मैं ने उन्हें स्कूल भेज दिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘चिंता न करो. टिफिन दे कर ही भेजा है.’’

माधवी को खुशी भी हुई और अचंभा भी कि राकेश इतने लायक कब से बन गए? वह सोई रह गई और इतने काम हो गए.

राकेश पुन: बोला, ‘‘मधु और बिस्कुट लो, तुम्हें बुखार लगता है. यह रहा थर्मामीटर. बुखार नाप लेना. अब दफ्तर जा रहा हूं.’’

‘‘नाश्ता?’’

‘‘कर लिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘जरूरत नहीं, वहीं दफ्तर में खा लूंगा. यह दवाइयों का डब्बा है, जरूरत के मुताबिक गोली ले लेना,’’ एक सांस में कहता हुआ राकेश कमरे से बाहर हो गया.

पर दूसरे ही पल फिर अंदर आ कर बोला, ‘‘अरे, दूध तो गैस पर ही चढ़ा रह गया,’’ शीघ्र ही राकेश थर्मस में दूध भर कर माधवी के पास रखते हुए बोला, ‘‘थोड़ी देर बाद पी ले.’’

राकेश के जाते ही माधवी सोचने लगी, ‘इतनी चिंता, इतनी सेवा,’ फिर भी खुश होने के बजाय उस का मन भारी होता जा रहा था, ‘इतना भी नहीं हुआ कि माथे पर हाथ रख कर देख लेते. खुद बुखार नाप लेते तो लाट- साहबी पर धब्बा लग जाता? कितने मजे से सब संभाल लिया. वही पागल है जो सोचती रहती है कि उस के बिना सब को तकलीफ होगी. दिन भर जुटी रहती है सब के आराम के लिए. देखो, सब हो गया न? उस के न उठने पर भी सब काम हो गया? वह सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी बन कर नाचती रहती है और सब उसे नचाते रहते हैं. आज तो सब को सबकुछ मिल गया न? लगता है सब जानबूझ कर उसे परेशान करते हैं.’

सोचतेसोचते माधवी का सिर दुखने लगा. चाय के साथ एक गोली सटक कर वह फिर लेट गई. झपकी आई ही थी कि बिन्नो की आवाज से नींद खुल गई, ‘‘बहूजी, आज दरवाजा कैसे खुला पड़ा है? अरे, लेटी हो. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

माधवी की आंखें छलछला आईं, ‘‘बिन्नो, जरा देखना, स्नानघर में कपड़े पड़े होंगे. धो देना. गीले कपड़े मेरी छाती पर बोझ बढ़ाते हैं. सब यह जानते हैं पर कपड़े ऐसे ही फेंक गए होंगे.’’

बिन्नो ने स्नानघर से ही आवाज लगाई, ‘‘बहूजी, स्नानघर एकदम साफ है. यहां तो एक भी कपड़ा नहीं.’’

‘क्या एक भी कपड़ा नहीं?’ विस्मय से माधवी ने सोचा. उस की मनोस्थिति ऐसी हो रही थी कि राकेश और बच्चों के हर कार्य से उसे अपनेआप पर अत्याचार होता ही महसूस हो रहा था.

बिन्नो ने काम खत्म कर के उस का सिर और हाथपैर दबा दिए. माधवी कृतज्ञता से भर गई, ‘घर वालों से तो महरी ही अच्छी है. बेचारी कितनी सेवा करती है, अब की दीवाली पर इसे एक अच्छी सी साड़ी दूंगी.’

कुछ तो हाथपैर दबाए जाने से और कुछ दवा के असर से दर्द कम हो गया था. इसलिए माधवी दोपहर तक सोती ही रही.

अचानक ही आंखें खुलीं तो प्रिय सखी सुधा को देख माधवी आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गई, ‘‘तू आज अचानक कैसे?’’

सुधा ने हंस कर कहा, ‘‘मन ने कहा और मैं आ गई,’’ सुधा सुरीले स्वर में गुनगुनाने लगी, ‘‘दिल को दिल से राह होती है. तू बीमार पड़ी है, अकेली है, कितने सही समय पर मैं आई हूं.’’

माधवी कुछ बोले बिना एकटक सुधा को देखती रही. फिर उस की आंखें छलछला आईं. सुधा ने अचरज से पूछा, ‘‘अरे, क्या हुआ?’’

भीगे हुए करुण स्वर में अपने दिन भर के विचारबिंदु एकएक कर सुधा के सामने परोस दिए माधवी ने. स्वार्थी राकेश और बच्चों के किस्से, उस की सेवाटहल में की गई कोताही, जानबूझ कर उस से फायदा उठाने के लिए की गई लापरवाहियों के किस्से, उदाहरण सब सुनाते हुए अंत में न चाहते हुए भी माधवी के मुंह से वह निकल गया जो उसे सवेरे से परेशान किए था, ‘‘देखो न, मेरे बिना भी तो सब का काम होता है. मेरी इन लोगों को जरूरत ही क्या है? सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी की तरह नाचती हूं. मुझ से तो राकेश ज्यादा कार्यकुशल है, सुबह फटाफट बच्चों को स्कूल भेज दिया.’’

सुधा मुंह दबा कर मुसकान रोक रही थी. उस पर नजर पड़ते ही  माधवी भभक उठी, ‘‘तुम हंस रही हो? हंसो, मैं ने बेवकूफी में जो इतने साल गंवाएं हैं, उन के लिए तुम्हारा हंसना ही ठीक है.’’

सुधा ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘सच मधु, तुम बहुत भोली हो,’’ फिर गंभीर होते हुए समझाने लगी, ‘‘क्या मैं अपनेआप आ गई हूं? राकेश भैया ने ही मुझे फोन किया था कि आप की मित्र बहुत बीमार है, कृपया दोपहर में उन्हें देख आइएगा. जरूरत पड़े तो डाक्टर को दिखा दीजिए.’’

‘‘अब यही बचा है? मेरी बीमारी का ढिंढ़ोरा सारे शहर में पीटना था. खुद नहीं दिखा सकते थे डाक्टर को? डाक्टर की बात छोड़ो, माथा तक छू कर नहीं देखा. क्या पहले कभी मुझे छुआ नहीं?’’

सुधा हंस कर बोली, ‘‘खुद छुआ है भई, इस में क्या शक है? पर मधु इतना गुस्सा केवल इसीलिए कि माथा छू कर बुखार नहीं देखा? तुम्हें डाक्टर को दिखाने के लिए क्या वे बिना छुट्टी लिए घर बैठ जाते? तुम्हीं सोचो जो काम तुम 3 घंटे में करती हो, बेचारे ने इतनी जल्दी कैसे किया होगा?’’

‘‘यही तो बात है, मेरी उन्हें अब जरूरत ही नहीं. इतने कार्यकुशल…’’

‘‘खाक कार्यकुशल,’’ सुधा गुस्से से बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारे आराम के लिए खुद कितनी परेशानी उठाई उन्होंने? इस में तुम्हें उन का प्यार नहीं दिखता? अच्छा हुआ, मैं आ गई. डाक्टर से ज्यादा तुम्हें मेरी जरूरत थी. ऐसा करो, आंखों से गुस्से की पट्टी उतार कर देखो चुपचाप. आंखें खुली, जबान बंद. सब पता लग जाएगा कि सचाई क्या है और उन लोगों को तुम्हारी कितनी जरूरत है? तुम्हारी चिंता कम करने के लिए ही वे सब तुम्हारी देखभाल कर रहे हैं.’’

माधवी को सुधा की बातें कुछ समझ आईं, कुछ नहीं पर उस ने तय किया कि जबान बंद और आंखें खुली रख कर देखने की कोशिश करेगी. शाम को एकएक कर सब घर लौटे. पहले बच्चे, फिर राकेश. उस ने आते ही पूछा, ‘‘क्या हाल है? बिन्नो आई थी? दवा ली?’’

‘‘हां, एक गोली ली थी,’’ माधवी ने धीरे से कहा.

ठीक है, आराम करो. और कोई तो नहीं आया था?’’

‘‘नहीं तो. किसी को आना था क्या?’’

‘‘नहीं भई, यों ही पूछ लिया.’’

‘‘हां, याद आया, सुधा आई थी,’’ माधवी बोली. सुनते ही राकेश के चेहरे पर इतमीनान झलक उठा. वह उत्साह से बोला, ‘‘चलो बच्चो, दू पी लो. फिर हम सब खिचड़ी बनाएंगे.’’

गुडि़या सोचते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमें खिचड़ी बनानी तो आती नहीं है.’’

‘‘अच्छा, तो क्या बनाना आता है?’’

गुडि़या चुप हो गई क्योंकि उसे तो कुछ भी बनाना नहीं आता था. उसे देख कर सब हंसने लगे.

राकेश उत्साहपूर्वक बोला, ‘‘चलो, हम सब मिल कर बनाएंगे. तुम्हारी मां आराम करेंगी.’’

रसोई से आवाजें आ रही थीं. माधवी सुन रही थी, ‘‘पिताजी, चावलदाल बीनने होंगे?’’

‘‘नहीं बेटा, धो कर काम चल जाएगा.’’

‘‘पर पिताजी मां तो शायद बीनती भी हैं.’’

‘‘शायद न? तुम्हें पक्का तो नहीं मालूम?’’

माधवी का मन हुआ कि चिल्ला कर बता दे, ‘चावल, दाल बीने जाएंगे,’ पर फिर सोचा, ‘हटाओ, कौन उस से पूछने आ रहा है जो वह बताने जाए?’

खिचड़ी बन कर आई. राकेश ने पहली प्लेट उसी को पेश की. पहला चम्मच मुंह में डालते ही कंकड़ दांतों के नीचे बज गया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोचार कौर के बाद राकेश ने खिसियाते हुए कहा, ‘‘कंकड़ हैं खिचड़ी में.’’

पप्पू बोला, ‘‘पिताजी, कहा था न कि चावल, दाल बीनने पड़ेंगे.’’

‘‘चुप, पिताजी क्या रोज बनाते हैं? जैसा मालूम था बेचारों को वैसा बना दिया,’’ गुडि़या पप्पू को घूरते हुए बोली.

‘‘बेटा, डबलरोटी खा लो,’’ राकेश ने धीरे से कहा.

‘‘पिताजी, सवेरे से बस डबलरोटी ही तो खा रहे हैं. नाश्ते में, टिफिन में, दूध के साथ, अब फिर?’’ पप्पू गुस्से से बोला. गुडि़या बिगड़ कर बोली, ‘‘तू एकदम बुद्धू है क्या? मां इतनी बीमार हैं, एक दिन डबलरोटी खा कर तू दुबला हो जाएगा? पिताजी ने भी सवेरे से क्या खाया है? कितने परेशान हैं?’’

गुडि़या की इस बात से कमरे में  सन्नाटा छा गया. सब अपनीअपनी प्लेटों के सामने चुप बैठे थे.

पप्पू अपनी प्लेट छोड़ कर उठा और मां की बगल में लेटता हुआ बोला, ‘‘मां, आप कब ठीक होंगी? जल्दी ठीक हो जाइए, कुछ सही नहीं चल रहा है.’’

गुडि़या मां का सिर दबाते हुए बोली, ‘‘अभी चाहें तो और आराम कर लीजिए, हम लोग काम चला लेंगे.’’

राकेश ने माधवी का माथा छू कर कहा, ‘‘अब लगता है, बुखार कम है.’’

माधवी आनंद की लहरों में डूबती उतराती उनींदे स्वर में बोली, ‘‘तुम सब जा कर होटल से खाना खा आओ.’’

‘‘और तुम?’’ राकेश के प्रश्न के जवाब में असीम तृप्ति से उस का हाथ अपने माथे पर दबा कर माधवी ने कहा, ‘‘मैं अब सोऊंगी.’’

Romantic Story: परिंदे प्यार के – अब्दुल लड़कियों को देखकर क्यों घबराता था?

Romantic Story: अब्दुल आज पहली बार कालेज जा रहा है, इसलिए थोड़ा सा नर्वस था.

“यार, क्या हुआ? तू तो लड़कियों के जैसे कर रहा है… इतना क्यों घबरा रहा है?” हामिद ने पूछा.

“यार, पता नहीं क्यों मुझे घबराहट क्यों हो रही है, वहां इतनी सारी लड़कियां होंगी न…”

“तो? लड़कियां तुझे खा जाएंगी क्या? चल, अब चलें. देर हो रही है.”

वे दोनों जैसे ही कालेज में एंटर हुए कि सामने से कुरतीसलवार पहने, दुपट्टा ओढ़े एक लड़की आई, जिस के लंबेघने बाल, गोराचिट्टा रंग, बड़ीबड़ी आंखों में काजल, चांद जैसे मुखड़े पर छोटा सा काला तिल था और अचानक से वह अब्दुल से टकरा गई. अब्दुल के हाथ से किताबें गिर गईं.

“ओह, सौरी. दरअसल, मैं जल्दी में थी. शायद बस से उतरते समय मेरा पर्स कहीं गिर गया, वही ढूंढ़ने जा रही हूं,” वह लड़की हड़बड़ाहट में बोली.

हामिद ने धीरे से कहा, “जी मोहतरमा, कहीं यह तो नहीं है… मुझे यह कालेज के गेट पर पड़ा मिला था. मैं ने उठा लिया और सोचा कि अंदर औफिस में जमा करा दूंगा, जिस का भी होगा खुद ले जाएगा.”

“जीजी, यही है…” पर्स लेते हुए वह लड़की बोली, “थैंक्स मिस्टर…”

“हामिद नाम है मेरा और यह मेरा दोस्त है… अब्दुल.”

“हामिदजी, अब्दुलजी… आप दोनों का शुक्रिया,” वह लड़की बोली.

“आप पर्स चैक कर लीजिए,” अब्दुल ने कहा.

“इस की कोई जरूरत नहीं. इस में पैसे तो थे ही नहीं.”

“पैसे नहीं थे… फिर क्या आप एक खाली पर्स के लिए इतनी परेशान हो रही थीं?”

“किसी की निशानी है, इसलिए… बहुत सी यादें जुड़ी हैं इस पर्स के साथ.”

अब्दुल ने कहा, “लगता है कोई बहुत खास शख्स है, जिस की यादें इस पर्स से जुड़ी हैं. मिस, क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?”

अचानक अब्दुल को इतना ज्यादा बोलता देख कर हामिद हैरान रह गया कि जो लड़का आज लड़कियों के नाम से घबरा रहा था, वह बेतकल्लुफ हो कर इस लड़की से बात कर रहा था.

“जी हां, बहुत ही खास. वैसे, सब मुझे खुशी कहते हैं,” इतना कह कर वह लड़की चली गई.

अब्दुल उसे जाते हुए देखता रह गया.

“अमा यार अब्दुल, अब चलो भी… क्लास का समय हो गया है,” हामिद ने कहा.

यह क्या… अब्दुल ने क्लास में जा कर देखा तो खुशी वहीं नजर आई.

“हामिद भाई, मुझे कुछ हो गया है, जो हर जगह मुझे खुशी ही नजर आ रही है,” अब्दुल ने कहा.

“यार, यह तेरा वहम नहीं है, सच है. खुशी भी इसी क्लास में पढ़ती है.”

यह सुन कर तो अब्दुल को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. वह खुशी के साथ बैंच पर बैठ गया.

हामिद अब्दुल के बरताव पर हैरान था. वह हर पल खुशी से या खुशी के बारे में ही बात करता था. खुशी भी अब्दुल की बातों से प्रभावित होती थी.

वे दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे. साथ में बैठना, साथ में खाना, बस हर समय मन कहता कि दोनों साथ रहें, अकसर फोन पर भी काफी देर तक बातें करते रहते.

“अब्दुल, क्या हुआ रे तुझे, तू आजकल बाकी सब से कटा सा रहता है, बस खुशी का ही नाम रटता है… लगता है कि तुझे प्यार हो गया है,” हामिद ने कहा.

“अमा हामिद, कैसी बात करते हो… प्यार और मैं… यह प्यार किस परिंदे का नाम है, मुझे तो यह भी नहीं मालूम,” अब्दुल बोलता.

इधर खुशी की सहेलियां उसे छेड़ती कि तुझे अब्दुल से प्यार हो गया है.

“हां शायद, मुझे भी ऐसा ही लगता है. उसे न देखूं तो मुझे चैन नहीं आता है,” खुशी भी बोलती.

फरवरी का महीना था. 2 दिन बाद वैलेंटाइन डे था. खुशी ने सोचा कि शायद अब्दुल उसे अपना वैलेंटाइन बनाएगा, लेकिन जब अब्दुल ने कुछ नहीं कहा, तो खुशी ही उसे लाल गुलाब दे दिया और बोली, “अब्दुल,
आई लव यू.”

“खुशी, मैं भी तुम्हें बहुत ज्यादा मुहब्बत करता हूं, लेकिन अभी मुझे आगे पढ़ना है और अपने अब्बा का सपना पूरा करना है.

“लेकिन क्या तुम्हारे घर वाले इस शादी के लिए मान जाएंगे? और क्या तुम मेरा इंतजार करोगी? वैसे, मैं ने अपने अम्मीअब्बू को सब बता दिया है. उन्हें कोई एतराज नहीं है.”

“मेरे मम्मीपापा भी नए खयालात के हैं, उन्हें इस रिश्ते से कोई एतराज नहीं होगा,” खुशी ने कहा.

उस दिन खुशी और अब्दुल बहुत खुश थे. मनचाही मुराद जो मिल गई थी. घूमतेफिरते शाम ढल गई. अचानक से बहुत जोरों से बारिश होने लगी. कोई बस भी नहीं रुक रही थी.

वे दोनों भीगतेभागते पैदल चलते जा रहे थे कि जहां कोई सवारी मिलेगी तो चढ़ जाएंगे, लेकिन कहीं कुछ नहीं रुक रहा था. वे बुरी तरह से थके हुए थे, उस पर भूख और बारिश से भीगने के चलते उन्हें ठंड महसूस हो रही थी.

रास्ते में एक गैस्ट हाउस नजर आया. वे थोड़ी देर वहीं रुके. कमरे में अकेले, जवानी का जोश, बारिश ने भी आग लगा दी थी, लिहाजा रोक नहीं पाए वे खुद को. एक तूफान आया और बहा दिया सबकुछ, छीन लिया दोनों का कुंआरापन.

खैर, जो होना था हो चुका था. उन दोनों ने अपनेअपने घर में पहले से बताया हुआ था कि वे शादी करना चाहते हैं. दोनों के घर वाले राजी थे.

अचानक कुछ दिनों बाद एक महामारी आई कोरोना, जिस में हिंदूमुसलिम जमात के बीच दंगाफसाद हुआ, एकदूजे पर तलवार, गोली, पत्थर चले.
सब का प्यार नफरत में बदल गया.

अब्दुल चीख रहा था, “अब्बा, उन्हें मत मारिए, वे खुशी के परिवार वाले हैं. खुशी आप की होने वाली बहू है… कुछ तो सोचिए.”

उधर खुशी चिल्ला रही थी, “पापा, अब्दुल मेरा प्यार है. आप उस के परिवार को कैसे मार सकते हैं…”

लेकिन कोई उन दोनों की नहीं सुन रहा था. सब के नए खयालात पीछे छूट गए थे, बस नजर आ रहा था तो केवल हिंदू या मुसलिम.

वे दोनों सब को मना करते हुए, समझातेसमझाते बीच में आ गए और मारे गए. अब दोनों परिवार अपने बच्चों की लाशें देख कर रो रहे थे, अपनेआप को धिक्कार रहे थे कि हिंदूमुसलिम के झगड़े में प्यार के 2 परिंदे उड़ गए, छोड़ गए यह मतलबी दुनिया.

अब वे दोनों आसमान में आजाद परिंदे बन कर अब उड़ेंगे, जहां न कोई हिंदू होगा, न मुसलिम, बस प्यार ही प्यार होगा.

Romantic Story: तेरी मेरी कहानी – कैसे बदल गई रिश्तों की परिभाषा

Romantic Story: नींद कोसों दूर थी. कुछ देर बिस्तर पर करवटें बदलने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे के आगे की छोटी सी बालकनी में जा खड़ा हुआ. पूरा चांद साफ आसमान में चुपड़ी रोटी की तरह दमक रहा था… कुछ फूला सा कुछ चकत्तों वाला, लेकिन बेहद खूबसूरत, दूरदूर तक चांदनी छिटकाता… धुले हुए से आसमान में तारे बिखरे हुए थे, बहुत चमकीले, हवा के संग झिलमिलाते. मंद बयार उस के कपोलों को सहला गई थी, आज हवा की उस छुअन में एक मादकता थी जो उसे कई बरस पीछे धकेल गई थी.

तब वह युवा था, बहुत से सपने लिए हुए… जिंदगी को दिशा न मिली थी पर मन में उत्साह था. आज जिंदा तो था पर जी कहां रहा था… एक आह के साथ वह वहां पड़ी कुरसी पर बैठ गया. सिगरेट बहुत दिन से छोड़ दी थी पर आज बेहद तलब महसूस हो रही थी, कमरे में गया और माचिस व सिगरेट की डिबिया उठा लाया, लौटते हुए दोनों बच्चों और पत्नी पर नजर पड़ी. वे अपनी स्वप्नों की दुनिया में गुम थे. अब वे ही उस की दुनिया थे पर आज जाने क्यों दिल हूक रहा था यह सोच कर कि उस की दुनिया कितनी अलग हो सकती थी…

ऐसी ही दूरदूर तक फैली चांदनी वाली रात तो थी, वह उन दिनों हारमोनियम सीखता था. सभी स्वर सधे हुए न थे पर कर्णप्रिय बजा लेता था. जाने चांदनी ने कुछ जादू किया था या फिर दबी हुई कामना ने पंख फैलाए थे. न जाने क्या सोच कर उस ने हारमोनियम उठाया था और बजाने लगा था… ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है…’ गीत का दर्द सुरों में पिघल कर दूर तक फैलता रहा था… रात गहरा चुकी थी, चांदनी को चुनौती देती कोई बिजली कहीं नहीं टिमटिमा रही थी पर शब्द जहां भेजे थे वहां पहुंच गए थे.

उस ने क्यों मान लिया था कि गीत उस के लिए बजाया गया था. चार शब्द कानों में बस गए थे… तेरी मेरी कहानी है और तब से दुनिया उस के लिए अपनी और उस की कहानी हो गई थी. वे बचपन में साथ खेले थे, वह लड़का था हमेशा जीतता पर वह कभी अपनी हार न मानती. वह हंसता हुआ कहता, ‘‘कल देखेंगे…’’ तो वह भी, ‘‘हांहां, कल देखेंगे,’’ कह कर भाग जाती. उसे यकीन था एक दिन वह जीतेगी. लड़की थी लेकिन बड़ेबड़े सपने देखती थी. वह उन दिनों की कुछ फिल्मों की नायिका की तरह बनना चाहती थी जो सबला व आत्मनिर्भर थी, एक ऐसी स्त्री जिस पर उस के आसपास की दुनिया टिकी हो.

कसबे के उस महल्ले में ज्यादातर घर एकमंजिले थे. बड़ेबड़े आंगन, एक ओर लाइन से कुछ कमरे, एक कोने में रसोई व भंडार जिस का प्रयोग सामान रखने के लिए अधिक होता था और खाना रसोई के बाहर अंगीठी रख कर पकाया जाता था, वहीं पतलीपतली दरियां बिछा कर खाना खाया जाता था. कोई मेहमान आता तो आंगन में चारपाई के आगे मेज रख दी जाती, गरमगरम रोटियां सिंकतीं और सीधे थाली में पहुंचतीं.

आंगन के बाहर वाले कोने की ओर 2 छोटे दरवाजे थे, शौच व गुसलखाने के. लगभग सभी घरों का ढांचा एकसा था. उस महल्ले में बस एक एकलौता घर तीनमंजिला था उस का. तीसरी मंजिल पर एक ही कमरा था, जिसे उस की पढ़ाई के लिए सब से उपयुक्त माना गया. आनेजाने वालों के शोर से परे वहां एकांत था. मामा के निर्देश थे कि मन लगा कर पढ़ाई की जाए. उस के और पढ़ाई के बीच कुछ न आए. मामा पुलिस में थे. ड्यूटी के कारण हफ्तों घर न आते थे. मामी और उन के 2 बच्चे उन के साथ रहते थे. घर में कुल मिला कर वह, उस की मां, उस के दादाजी, जिन्हें वह बाबा पुकारता था और मामी व उन के बच्चे रहते थे. वह समझ न पाता था कि मामा ने उस की विधवा मां को अकेले न रहने दे कर उसे सहारा दिया या अपना घोंसला न होने के कारण कोयल का चरित्र अपनाया. खैर जो भी कारण रहा हो, मामा उसे बहुत प्यार करते थे. घर में पित्रात्मक सत्ता प्रदान करते थे पर मामी ऐसी न थीं. मामा न होते तो मां से खूब झगड़तीं, शायद उन के मन में कुछ ग्रंथियां थीं. तीनमंजिला घर के भूतल पर वे रहते थे, बाहर बैठक थी और उस के साथ में एक गलियारा आंगन में ला छोड़ता था जहां एक ओर रसोई, सामने एक कमरा और कमरे के भीतर एक और कमरा था. बैठक में बाबाजी रहते थे, अंदर के कमरों में वे सब. पहली और दूसरी मंजिल के कुल 4 कमरों में कभी 3 किराएदार रहते तो कभी 4. उन कमरों का किराया उस के परिवार के लिए पर्याप्त था.

जब से उसे ऊपर वाला कमरा मिला था वह वहीं पर पढ़ाई करने लगा था. कमरे के बाहर छोटी सी 4 ईंटों की मुंडेर वाले छज्जे पर छोटी मेजकुरसी लगा कर वह पढ़ता… जानता था उसे कोई देख रहा है, पर वह किताब से नजरें न हटाता. बहुत होशियार न था पर पढ़ाई तो पूरी करनी ही थी. वह भटक भी नहीं सकता था, मां को दुख नहीं देना चाहता था. मामा प्रेरणा देते थे पर पिता की कमी को कब कोई पूरा कर पाया है? उस का मन पढ़ने में बहुत न था, उसे डाक्टर इंजीनियर न बनना था. कोई बड़े ख्वाब भी न थे, मामा जैसी नौकरी न करनी थी जिस में महीने के 25 दिन शहर से बाहर काटने पड़ें और बाकी के 5 दिन आप के घर वाले छठे दिन का इंतजार करें. उसे पिता सी पुरोहिताई भी नहीं करनी थी. एक समय इंटर पास बड़े माने रखता था. पर अब ऐसा न था. उस पर घर के गुजारे का बोझ न था पर जिंदगी बिताने को कुछ करना जरूरी था… भविष्य के विषय में संशय ही संशय था.

वह बारबार चबूतरे तक चक्कर लगा आती. चबूतरे से छज्जा साफ दिखाई पड़ता था, लेकिन उसे शाम को 8 से 9 बजे तक का बिजली की कटौती वाला समय पसंद था, क्योंकि मिट्टी के तेल के लैंप की आभा में पढ़ने वाले का चेहरा चमक उठता था. वह स्वयं अनदेखा रह कर उसे देख पाती. अब वे बच्चे न रहे थे, किशोरवय को बड़ी निगरानी में रखा जाता था, कोई बंदिश तो न थी, लेकिन पहले की उन्मुक्तता समाप्त हो गई थी. तब वह 10वीं में थी और वह 12वीं में था. वह अकसर सोचती, ‘काश, दोनों एक ही कक्षा में होते तो वह पढ़ाई और किताबों के आदानप्रदान के बहाने ही एकदूसरे से बात कर पाते. यदाकदा मां के काम से ताईजी के पास जाने में सामना हो जाता, पर बात न हो पाती,’ शायद मन के भीतर जो था, वह सामान्य बातचीत करने से भी रोकता था. संस्कारों में बंधे वे 2 युवामन कभी खुल न पाए. उस दिन भी नहीं जब अम्मां ने उसे गला बुनने की सलाई लेने भेजा था लेकिन ताईजी घर पर नहीं थीं और वह बैठक में अकेला था. वह चाह कर भी कह नहीं पाया कि दो पल रुको और वह मन होते भी रुक नहीं पाई. शायद वह तब भी सोच रहा था, ‘कल देखेंगे.’

दादाजी के गुजर जाने के बाद बहुत दिन तक बैठक खाली रही, फिर मां के कहने पर उस ने उसे अपना कमरा बना लिया. दादाजी के कमरे में आते ही उसे लगा वह बड़ा हो गया है. दोस्त पहले ही बहुत न थे, जो थे वे भी धीरेधीरे छूटते गए. मन बहलाव को कुछ तो चाहिए सो उस ने तीसरी मंजिल के कमरे में कबूतरों के दड़बे रख दिए थे. सुबहशाम वह कबूतरों को दानापानी देने ऊपर चढ़ता, कबूतरों को पंख पसारने के लिए ऊपर छोड़ता… और जब उन्हें वापस बुलाने को पुकारता आ आ आ… तो उसे लगता वह पुकार उस के लिए है. वह किसी न किसी बहाने छत पर चढ़ती, कभी कपड़े सुखाने, कभी छत पर सूख रहे कपड़े इकट्ठे करने तो कभी छोटे भाईबहनों को खेल खिलाने.

वह जिस अंगरेजी स्कूल में पढ़ती थी वह कक्षा 12वीं से आगे न था. वह शुरू से अंगरेजी स्कूल में पढ़ी थी. सरकारी स्कूल में जाने का स्वभाव न था… मौसी दिल्ली रहती थीं, उसे वहीं भेज दिया गया. वह भारी मन से चली थी, जाने से पहले की रात चांद पूरा खिला था, उस के कान हारमोनियम की आवाज को तरसते रहे… काश, एक बार वह सुन पाती पर उस रात कहीं कोई संगीत न था.

रात आंखों में कटी और सुबह तैयार हो गई. मां मौसी के घर छोड़ने गई थी. वह पिता की बात गांठ बांध कर साथ ले गई थी. मन लगा कर पढ़ना और कुछ बन कर लौटना.

वह पढ़ती रही, बढ़ती रही, यह संकल्प लिए कि कुछ बन कर ही लौटेगी. आज 10 बरस बाद लौटी. पिता बहुत खुश, मां बारबार आंख के कोने पोंछतीं, उसे देखती निहाल हो रही हैं. लड़की पढ़लिख कर सरकारी अफसर बन गई, आला अधिकारी. मौका लगते ही वह छत पर जा पहुंची. सब बदल गया था… कहीं कोई न था. महल्ले के ज्यादातर घर दोमंजिले हो गए थे, दूर कुछ तीनचार मंजिले घर भी दिखाई दे रहे थे.

शाम को बाहर चबूतरे पर निकली ही थी कि देखा एक छोटा बालक तीनमंजिले घर की देहरी पार कर बाहर निकल आया था, घुटनों के बल चलते उस बालक को उठाने का लोभ वह संवरण न कर पाई, ‘कहीं यह?’

वह उसे पहुंचाने के बहाने घर के भीतर ले गई थी. तेल चुपड़े बालों की कसी चोटी, सिर पर पल्ला, गोरी, सपाट चेहरे वाली एक महिला सामने आई और अपने मुन्ना को उस की बांहों में झूलते देख सकपका गई.

एक अजब सा क्षण, जब आमनेसामने दोनों के प्रश्न चेहरे पर गढ़े होते हैं किंतु शब्द खो जाते हैं… और एक मसीहा की तरह ताईजी आ गई थीं… ‘अरे, बिट्टो तुम, अभी तो शन्नो की अम्मां से सुना कि तुम आई हो… कितने बरस बाहर रहीं, आंखें तरस गईं तुम्हें देखने को… बहुत बड़ा कलेजा है तुम्हारी मां का जो इत्ती दूर छोड़े रही… बहू, रजनी जीजी के पैर छू कर आशीर्वाद लो, जानो कौन हैं ये?’ हां अम्मां, मैं समझ गई थी.

वह अचानक जिज्जी और बूआ बन गई.

तभी वह आया था, सामने के बाल उड़ चुके थे, सुना था किसी दुकान पर सहायक लगा था… खबरें तो कभीकभार मिलती रही थीं, उस के ब्याह की खबर भी मिली थी पर खबर मिलने और प्रत्यक्ष देखने में बड़ा अंतर होता है. इस सच से अब रूबरू हुई. 2 बच्चों का पिता 30-32 वर्ष का वह आदमी उस की कल्पना के पुरुष से बिलकुल अलग था.

पल भर के लिए वह वहां नहीं थी, मानो 10 सदी से लगने वाले 10 बरसों में उसे खोजने का प्रयास कर रही थी, देखना चाह रही थी कि उस के चेहरे की लकीरें इतना कैसे गहरा गईं.

उस ने नाम से संबोधित करते हुए कहा था… ‘‘रजनी, बैठो. खाना खा कर जाना…’’ उफ्फ, वह औपचारिकता भरी आवाज उस का कलेजा चीर गई थी. कसी चोटी वाली एक आत्मीयता भरी नजर भर तुरंत रसोई में चली गई थी, वह समझ नहीं पाई कि वह भोजन लगाने का निमंत्रण था या उस के लिए प्रस्थान करने का संकेत. वह क्षमा याचना सी करती, मां के इंतजार का बहाना कर ताईजी को प्रणाम कर लौट आई थी.

एक गहरी निश्वास के साथ उस के मुंह से निकला… ‘अब कल न होगी.’

वह समझ गया था कि कहीं कुछ चटका है, भीतर या बाहर, यह अंदाजा नहीं कर पा रहा था.

Romantic Story: जीत – क्या मंजरी को अपना पाया पीयूष का परिवार?

Romantic Story: वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को छेड़ रहे थे. बारबार लटें उस के गालों पर आ कर झूल जातीं, जिन्हें वह बहुत ही प्यार से पीछे कर देता. ऐसा करते हुए जब उस के हाथ उस के गालों को छूते तो वह सिहर उठती. कुछ कहने को उस के होंठ थरथराते तो वह हौले से उन पर अपनी उंगली रख देता. गुलाबी होंठ और गुलाबी हो जाते और चेहरे पर लालिमा की अनगिनत परतें उभर आतीं.

मात्र छुअन कितनी मदहोश कर सकती है. वह धीरे से मुसकराई. पेड़ से कुछ पत्तियां गिरीं और उस के सिर पर आ कर इस तरह बैठ गईं मानो इस से बेहतर कोमल कालीन कहीं नहीं मिलेगा. उस ने फूंक मार कर उन्हें उड़ा दिया जैसे उन लहराते गेसुओं को छूने का हक सिर्फ उस का ही हो.

वह पेड़ के तन से सट कर खड़ी हो गई और अपनी पलकें मूंद लीं. उसे देख कर लग रहा था जैसे कोई अप्रतिम प्रतिमा, जिस के अंगअंग को बखूबी तराशा गया हो. उसे देख कौन पुरुष होगा जो कामदेव नहीं बन जाएगा. उसे चूमने का मन हो आया. पर रुक गया. बस उसे अपलक देखता रहा. शायद यही प्यार की इंतहा होती है… जिसे चाहते हैं उसे यों ही निहारते रहने का मन करता है. उस के हर पल में डूबे रहने का मन करता है.

‘‘क्या सोच रही हो,’’ उस ने कुछ क्षण बाद पूछा.

‘‘कुछ भी तो नहीं.’’ वह थोड़ी चौंकी पर पलकें अभी भी मुंदी हुई थीं.

‘‘चलें क्या? रात होने को है. तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘मन नहीं कर रहा है तुम्हें छोड़ कर जाने को. बहुत सारी आशंकाओं से घिरा हुआ है मन. तुम्हारे घर वाले इजाजत नहीं देंगे तो क्या होगा?’’

‘‘वे नहीं मानेंगे, यह बात मैं विश्वास से कह सकता हूं. गांव से बेशक आ कर मैं इतना बड़ा अफसर जरूर बन गया हूं और मेरे घर वाले शहर में आ कर रहने लगे हैं, पर मेरे मांबाबूजी की जड़ें अभी भी गांव में ही हैं. कह सकती हो कि रूढि़यों में जकड़े, अपने परिवेश व सोच में बंधे लोग हैं वे. पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बहू को स्वीकारना अभी भी उन के लिए बहुत आसान नहीं है. पर चलो इस चीज को स्वीकार भी कर लें तो भी दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाना… संभव ही नहीं है उन का मानना.’’

‘‘तुम खुल कर कह सकते हो यह बात पीयूष… दूसरी अन्य कोई जाति होती तो भी कुछ संभावना थी… पर मैं तो मायनौरिटी क्लास की हूं… आरक्षण वाली…’’ उस के स्वर में कंपन था और आंखों में नमी तैर रही थी.

‘‘कम औन मंजरी, इस जमाने में ऐसी बातें… वह भी इतनी हाइली ऐजुकेटेड होने के बाद. तुम अपनी योग्यता के बल पर आगे बढ़ी हो. फिलौसफी की लैक्चरर के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती हैं. ऊंची जाति नीची जाति सदियों पहले की बातें हैं. अब तो ये धारणाएं बदल चुकी हैं. नई पीढ़ी इन्हें नहीं मानती…

‘‘पुरानी पीढ़ी को बदलने में ज्यादा समय लगता है. दोष देना गलत होगा उन्हें भी. मान्यताओं, रिवाजों और धर्म के नाम पर न जाने कितनी संकीर्णताएं फैली हुई हैं. पर हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा.’’

मंजरी ने पीयूष की ओर देखा. ढेर सारा प्यार उस पर उमड़ आया. सही तो कह रहा है वह… पर न जाने क्यों वही बारबार हिम्मत हार जाती है. शायद अपनी निम्न जाति की वजह से या पीयूष की उच्च जाति के कारण. वह भी ब्राह्मण कुल का होने के कारण. बेशक वह जनेऊ धारण नहीं करता. पर उस के घर वालों को अपने उच्च कुल पर अभिमान है और इस में गलत भी कुछ नहीं है.

वह भी तो निम्न जाति की होने के कारण कभीकभी कितनी हीनभावना से भर जाती है. उस के पिता खुद एक बड़े अफसर हैं और भाई भी डाक्टर है. पर फिर भी लोग मौका मिलते ही उन्हें यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वे मायनौरिटी क्लास के हैं. उन का पढ़ालिखा होना या समाज में स्टेटस होना कोई माने नहीं रखता. दबी जबान से ही सही वे उस के परिवार के बारे में कुछ न कुछ कहने से चूकते नहीं हैं.

मंजरी ने पेड़ के तने को छुआ. काश, वह सेब का पेड़ होता तो जमाने को यह तो कह सकते थे कि सेब खाने के बाद उन दोनों के अंदर भावनाएं उमड़ीं और वे एकदूसरे में समा गए. खैर, सेब का पेड़ अगर दोनों ढूंढ़ने जाते तो बहुत वक्त लग जाता, शहर जो कंक्रीट में तबदील हो रहे हैं. उस में हरियाली की थोड़ीबहुत छटा ही बची रही, यही काफी है.

उस ने अपने विश्वास को संबल देने के लिए पीयूष के हाथों पर अपनी पकड़ और

कस ली और उस की आंखों में झांका जैसे तसल्ली कर लेना चाहती हो कि वह हमेशा उस का साथ देगा.

इस समय दोनों की आंखों में प्रेम का अथाह समुद्र लहरा रहा था. उन्होंने मानों एकदूसरे को आंखों ही आंखों में कोई वचन सा दिया. अपने रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगाई और आलिंगनबद्ध हो गए. यह भी सच था कि पीयूष मंजरी को चाह कर भी आश्वस्त नहीं कर पा रहा था कि वह अपने घर वालों को मना लेगा. हां, खुद उस का हमेशा बना रहने का विश्वास जरूर दे सकता था.

मंजरी को उस के घर के बाहर छोड़ कर बोझिल मन से वह अपने घर की

ओर चल पड़ा. रास्ते में कई बार कार दूसरे वाहनों से टकरातेटकराते बची. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे घर में इस बारे में बताए. वह अपने मांबाबूजी को दोष नहीं दे रहा था. उस ने भी तो जब परंपराओं और आस्थाओं की गठरी का बोझ उठाए आज से 10 वर्ष पहले नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कदम रखा था तब कहां सोचा था कि उस की जिंदगी इतनी बदल जाएगी और सड़ीगली परंपराओं की गठरी को उतार फेंकने में वह सफल हो पाएगा… शायद मंजरी से मिलने के बाद ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाया था.

जातिभेद किसी दीवार की तरह समाज में खड़े हैं और शिक्षित वर्ग तक उस दीवार को अपनी सुलझी हुई सोच और बौद्धिकता के हथौड़े से तोड़ पाने में असमर्थ है. अपनी विवशता पर हालांकि यह वर्ग बहुत झुंझलाता भी है… पीयूष को स्वयं पर बहुत झुंझलाहट हुई.

‘‘क्या बात है बेटा, कोई परेशानी है क्या?’’ मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा.

‘‘बस ऐसे ही,’’ उस ने बात टालने की कोशिश की.

‘‘कुछ लड़कियों के फोटो तेरे कमरे में रखे हैं. देख ले.’’

‘‘मैं आप से कह चुका हूं कि मैं शादी नहीं करना चाहता,’’ पीयूष को लगा कि उस की झुंझलाहट चरम सीमा पर पहुंच रही है.

‘‘तू किसी को पसंद करता है तो बता दे,’’ बाबूजी ने सीधेसीधे सवाल फेंका. अनुभव की पैनी नजर शायद उस के दिल की बात समझ गई थी.

‘‘है तो पर आप उसे अपनाएंगे नहीं और मैं आप लोगों की मरजी के बिना अपनी गृहस्थी नहीं बसाना चाहता. मुझे लायक बनाने में आप ने कितने कष्ट उठाए हैं और मैं नहीं चाहता कि आप लोगों को दुख पहुंचे.’’

‘‘तेरे सुख और खुशी से बढ़ कर और कोई चीज हमारे लिए माने नहीं रखती है. लड़की क्या दूसरी जाति की है जो तू इतना हिचक रहा है बताने में?’’ बाबूजी ने यह बात पूछ पीयूष की मुश्किल को जैसे आसान कर दिया.

‘‘हां.’’

उस का जवाब सुन मां का चेहरा उतर गया. आंखों में आंसू तैरने लगे. बाबूजी अभी चिल्लाएंगे यह सोच कर वह अपने कमरे की ओर जाने के लिए मुड़ा ही था कि बोले, ‘‘किस जाति की?’’

‘‘बाबूजी वह बहुत पढ़ीलिखी है. लैक्चरर है और उस के घर में भी सब हाइली क्वालीफाइड हैं. जाति महत्त्व नहीं रखती, पर एकदूसरे को समझना ज्यादा जरूरी है,’’ बहुत हिम्मत कर वह बोला.

‘‘बहुत माने रखती है जाति वरना क्यों बनती ऐसी सामाजिक व्यवस्था. भारत में जाति सीमा को लांघना 2 राष्ट्रों की सीमाओं को लांघना है. अभी सुबह के अखबार में पढ़ रहा था कि पंजाब में एक युवक ने अपनी शादी के महज 1 हफ्ते बाद केवल इस कारण आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे शादी के बाद पता चला कि उस की पत्नी दलित जाति की है. उस की शादी एक बिचौलिए के माध्यम से हुई थी. इस बात का खुलासा तब हुआ जब वह अपनी ससुराल गया. दलित पत्नी पा कर वह आत्मग्लानि और अपराधबोध से इस कदर व्यथित हो गया कि ससुराल से लौट कर उस ने आत्महत्या कर ली. तुम भी कहीं प्यार के चक्कर में पड़ कर कोई गलत कदम मत उठा लेना.’’

बाबूजी की बात सुन पीयूष को अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई. मंजरी ने जब यह सुना तो उदास हो गई.

पीयूष बोला, ‘‘एक आइडिया आया है. मैं अपनी कुलीग के रूप में तुम्हें उन से मिलवाता हूं. तुम से मिल कर उन्हें अवश्य ही अच्छा लगेगा. फिर देखते हैं उन का रिएक्शन. रूढि़यां हावी होती हैं या तुम्हारे संस्कार व सोच.’’

मंजरी ने मना कर दिया. वह नहीं चाहती थी कि उस का अपमान हो. उस के बाद से मंजरी अपनेआप में इतनी सिमट गई कि उस ने पीयूष से मिलना तक कम कर दिया. संडे को अपने डिप्रैशन से बाहर आने के लिए वह शौपिंग करने मौल चली गई. एक महिला जो ऐस्कलेटर पर पांव रखने की कोशिश कर रही थी, वह घबराहट में उस पर ही गिर गई. मंजरी उन के पीछे ही थी. उस ने झट से उन्हें उठाया और हाथ पकड़ कर उन्हें नीचे उतार लाई.

‘‘आप कहें तो मैं आप को घर छोड़ सकती हूं. आप की सांस भी फूल रही है.’’

‘‘बेटा, तुम्हें कष्ट तो होगा पर छोड़ दोगी तो अच्छा होगा. मुझे दमा है. मैं अकेली आती नहीं पर घर में सब इस बात का मजाक उड़ाते हैं. इसलिए चली आई.’’

घर पर मंजरी को देख पीयूष बुरी तरह चौंक गया. पर मंजरी ने उसे इशारा किया कि

वह न बताए कि वे एकदूसरे को जानते हैं. पीयूष की मां तो बस उस के गुण ही गाए जा रही थीं. बहुत जल्द ही वह उन के साथ घुलमिल गई. पीयूष की बहन ने तो फौरन नंबर भी ऐक्सचेंज कर लिए. जबतब वे व्हाट्सऐप पर चैट करने लगीं. मां ने कहा कि वह उसे घर पर आने के लिए कहे. इस तरह मंजरी के कदम उस आंगन में पड़ने लगे, जहां वह हमेशा के लिए आना चाहती थी.

पीयूष इस बात से हैरान था कि जाति को ले कर इतने कट्टर रहने वाले उस के मातापिता ने एक बार भी उस की जाति के बारे में नहीं पूछा. शायद अनुमान लगा लिया होगा कि उस जैसी लड़की उच्च कुल की ही होगी. उस के पिता व भाई के बारे में जान कर भी उन्हें तसल्ली हो गई थी.

मंजरी को लगा कि उस दिन पीयूष ने ठीक ही कहा था कि हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा. पीयूष जब उस के साथ है तो उसे भी लगातार कोशिश करते रहना होगा. मांबाबूजी का दिल जीत कर ही वह अपनी और पीयूष दोनों की लड़ाई जीत सकती है.

हालांकि जब भी वह पीयूष के घर जाती थी तो यही कोशिश करती थी कि उन की रसोई में न जाए. उसे डर था कि सचाई जानने के बाद अवश्य ही मां को लगेगा कि उस ने उन का धर्म भ्रष्ट कर दिया है. एक सकुचाहट व संकोच सदा उस पर हावी रहता था. पर दिल के किसी कोने में एक आशा जाग गई थी जिस की वजह से वह उन के बुलाने पर वहां चली जाती थी.

कई बार उस ने अपनी जाति के बारे में बताना चाहा पर पीयूष ने यह कह कर मना कर दिया कि जब मांबाबूजी तुम्हें गुणों की वजह से पसंद करने लगे हैं तो क्यों बेकार में इस बात को उठाना. सही वक्त आने पर उन्हें बता देंगे.

‘‘तुझे मंजरी कैसी लगती है?’’ एक दिन मां के मुंह से यह सुन पीयूष हैरान रह गया.

‘‘अच्छी है.’’

‘‘बस अच्छी है, अरे बहुत अच्छी है. तू कहे तो इस से तेरे रिश्ते की बात चलाऊं?’’

‘‘यह क्या कह रही हो मां. पता नहीं कौन जाति की है. दलित हुई तो…’’ पीयूष ने जानबूझ कर कहा. वह उन्हें टटोलना चाह रहा था.

‘‘फालतू मत बोल… अगर हुई भी तो भी बहू बना लूंगी,’’ मां ने कहा. पर उन्हें क्या पता था कि उन का मजाक उन पर ही भारी पड़ेगा.

‘‘ठीक है फिर मैं उस से शादी करने को तैयार हूं. उस के पापा को कल ही बुला लेते हैं.’’

‘‘यानी… कहीं यह वही लड़की तो नहीं जिस से तू प्यार करता है,’’ बाबूजी सशंकित हो उठे थे.

‘‘मुझे तो मंजरी दीदी बहुत पसंद हैं मां,’’ बेटी की बात सुन मां हलके से मुसकराईं.

मंजरी नीची जाति की कैसे हो सकती है… उन से पहचानने में कैसे भूल हो गई. पर वह तो कितनी सुशील, संस्कारी और बड़ों की इज्जत करने वाली लड़की है. बहुत सारी ब्राह्मण लड़कियां देखी थीं, पर कितनी अकड़ थी. बदमिजाज… कुछ ने तो कह दिया कि शादी के बाद अलग रहेंगी. कुछ के बाप ने दहेज दे कर पीयूष को खरीदने की कोशिश की और कहा कि उसे घरजमाई बन कर रहना होगा.

‘‘क्या सोच रही हो पीयूष की मां?’’ बाबूजी के चेहरे पर तनाव की रेखाएं नहीं थीं जैसे वे इस रिश्ते को स्वीकारने की राह पर अपना पहला कदम रख चुके हों.

‘‘क्या हमारे बदलने का समय आ गया है? आखिर कब तक दलित बुद्धिजीवी अपनी जातीय पीड़ा को सहेंगे? हमें उन्हें उन की पीड़ा से मुक्त करना ही होगा. तभी तो वे खुल कर सांस ले पाएंगे. हमारी बिरादरी में हमारी थूथू होगी. पर बेटे की खुशी की खातिर मैं यह भी सह लूंगी.’’

पीयूष अभी तक अचंभित था. रूढि़यों को मंजरी के व्यवहार ने परास्त कर दिया था.

‘‘सोच क्या रहा है खड़ेखड़े, चल मंजरी को फोन कर और कह कि मैं उस से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, तुम कितनी अच्छी हो, मैं अभी भाभी को व्हाट्सऐप पर मैसेज कर सरप्राइज देती हूं,’’ पीयूष की बहन ने चहकते हुए कहा.

वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को इस बार भी छेड़ रहे थे. उसे अपलक निहारतेनिहारते उसे चूमने का मन हो आया. पर इस बार वह रुका नहीं.

उस ने उस के गालों को हलके से चूम लिया. मंजरी शरमा गई. अपनी सारी आशंकाओं को उतार फेंक वह पीयूष की बांहों में समा गई. उसे उस का प्यार व सम्मान दोनों मिल गए थे. पीयूष को लगा कि वह जैसे कोई बहुत बड़ी लड़ाई जीत गया है.

Romantic Story: लिव टुगैदर का मायाजाल – हर सुख से क्यों वंचित थी सपना

Romantic Story: ‘अभी तुम 10-15 मिनट हो न यहां?’’ वैभव ने गार्डन में निशा के करीब जा कर पूछा.

‘‘कुछ काम है?’’ निशा ने पलट कर सवाल किया.

निशा का यह औपचारिक व्यवहार वैभव को अजीब लगा. वह झेंपता हुआ बोला, ‘‘कोई काम नहीं है. बस, तुम्हें न्यू ईयर का गिफ्ट देना है. तुम्हारे लिए एक डायरी खरीद कर रखी है. तुम पहली जनवरी को तो आई नहीं, 10 को आई हो. मैं कई दिन डायरी ले कर गार्डन आया, लेकिन आज नहीं ले कर आया. रुकना, मैं डायरी ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘तुम डायरी लेने घर जाओगे? रहने दो, मुझे नहीं चाहिए. कई डायरियां हैं घर में,’’ निशा बोली.

‘‘यह मैं ने कब कहा कि तुम्हारे पास डायरी नहीं है. तुम्हारे पास सबकुछ है. बस, मेरी खुशी के लिए ले लो. मैं ने बड़े प्रेम से उसे तुम्हारे लिए रखा है. मैं लेने जा रहा हूं,’’ निशा के जवाब को सुने बिना वैभव वहां से चला गया.

कुछ देर बाद वह बतौर गिफ्ट डायरी ले कर गार्डन में वापस आया. तब तक निशा के आसपास काफी लोग आ गए थे. वहां उस ने गिफ्ट देना उचित नहीं समझा, लेकिन जब निशा गार्डन से जाने लगी तो वैभव रास्ते में उस से मिला.

‘‘लो,’’ वैभव ने डायरी आगे बढ़ाते हुए बड़े प्रेम से कहा.

लेकिन निशा ने डायरी लेने के लिए हाथ आगे नहीं बढ़ाया. वह चुपचाप खड़ी रही.

‘‘लो,’’ वैभव ने दोबारा कहा.

‘‘नहीं, मैं इसे नहीं ले सकती,’’ निशा ने सीधे शब्दों में इनकार कर दिया.

‘‘आखिर क्यों?’’ वैभव ने खुद को अपमानित महसूस करते हुए जानना चाहा.

‘‘मैं घरपरिवार वाली हूं, मैं इसे किसी भी हालत में नहीं ले सकती,’’ निशा यह कह कर आगे बढ़ गई.

इस बार वैभव ने भी कुछ नहीं कहा. उस के दिल को जबरदस्त धक्का लगा. वह डायरी को अपनी कमीज के नीचे छिपाते हुए विपरीत दिशा की ओर चल पड़ा. उस की आंखों में आंसू उमड़ आए थे. कुछ दूर चलने के बाद वह एकांत में बैठ गया और सोचने लगा कि वह उस डायरी का क्या करे?

तभी उस के मन में आया कि डायरी को वह योग सिखाने वाले गुरुजी को दे देगा. तत्काल उस ने उस पृष्ठ को फाड़ा, जिस पर बड़े प्यार से निशा को संबोधित करते हुए नववर्ष की शुभकामना लिखी थी. उस ने जा कर गुरुजी को डायरी दे दी. गुरुजी ने गिफ्ट सहर्ष स्वीकार कर लिया और उसे आशीर्वाद दिया, लेकिन उसे वह खुशी नहीं मिली, जो निशा से मिलती. अभी भी उस का मन अशांत था और वह यकीन ही नहीं कर पा रहा था कि एक छोटी सी डायरी स्वीकार करने में निशा ने इतनी हठ क्यों दिखाई.

वह तरहतरह की बातें सोच रहा था, ‘चलो, इस गिफ्ट के बहाने हकीकत पता लग गई. जिस निशा को मैं जीजान से चाहता हूं, उस के मन में मेरे प्रति इतनी भी भावना नहीं है कि वह मेरा गिफ्ट तक ले सके. मैं भ्रम में जी रहा था.

‘अब उस से कोई संबंध नहीं रखूंगा. आज से सारा रिश्ता खत्म…नहीं…नहीं, लेकिन क्या मैं ऐसा कर पाऊंगा? क्या मैं उस से दूर रह कर जी पाऊंगा…शायद नहीं…क्यों नहीं जी पाऊंगा? उस से दूरी तो बना ही सकता हूं. दूर से देख लिया करूंगा, लेकिन मिलूंगा नहीं और न ही बात करूंगा. वह यही तो चाहती है. कब उस ने मुझ से मन से बात की? मैं ही तो उस से बात करता था. 10 शब्द बोलता था तो ‘हांहूं’ वह भी कर देती थी. कोई लगाव थोड़े ही था. लगाव तो मेरा था कि उस के बिना रातदिन बेचैन रहा करता था. उस के लिए तड़पता रहा, जिस ने आज मेरा इतना बड़ा अपमान कर दिया.

‘अगर ऐसा मालूम होता तो मैं उसे गिफ्ट देने का विचार ही मन में न लाता. ऐसी बेइज्जती मेरी इस से पहले कभी नहीं हुई. अब मैं उस से नजरें मिलाने लायक भी नहीं रहा. क्या मुंह ले कर उस के सामने जाऊंगा? अब तो दूरी ही ठीक है.’

लेकिन क्या ऐसा सोचने से मन बदल सकता था वैभव का? उस का प्यार बारबार उस पर हावी हो जाता और वह निशा से दूर रहने का निर्णय ले पाने में असफल हो जाता.

दिनभर उस का मन किसी काम में नहीं लगा. वह बेचैन रहा. उसे रात को ठीक से नींद भी नहीं आई. तरहतरह के विचार उस के मन में आते रहे.

वह उस बात को अपनी पत्नी सरिता से भी शेयर नहीं कर सकता था. हालांकि निशा के बारे में वह सरिता को बताया करता था, लेकिन यह बताने की उस की हिम्मत न थी. उसे डर था कि सरिता उस का मजाक उड़ाएगी. अंदर ही अंदर वह घुट रहा था.

अगले दिन सुबह 5 बजे वह जागा. रात को उस ने निश्चय किया था कि कुछ दिन तक वह गार्डन नहीं जाएगा, लेकिन सुबह खुद को रोक नहीं सका. निशा की एक झलक पाने के लिए वह बेचैन हो उठा और घर से चल पड़ा.

रास्ते में तरहतरह के विचार उस के मन में आते रहे, ‘आज निशा मिलेगी तो उस से बात नहीं करूंगा. अभिवादन भी नहीं. वह अपनेआप को समझती क्या है? उसे खुद पर घमंड है, तो मैं भी किसी मामले में उस से कम नहीं हूं. उस से मेरा कोई स्वार्थ नहीं है. बस, एक लगाव है, अपनापन है, जिसे वह गलत समझती है.’

लेकिन जब गार्डन आती हुई निशा अचानक दिखी, तो वैभव खुद को रोक नहीं पाया. वह उसे देखने लगा. निशा भी उसी की ओर देख रही थी. वैभव के मन में आया कि वह रास्ता बदल ले, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका.

निशा वैभव के करीब आ गई, लेकिन वह उस की ओर न देख कर सामने देख रही थी. वैभव की निगाहें उसी पर थीं. वह सोच रहा था, ‘देखो न, आज इस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. जाओजाओ, मैं ही कौन सा मरा जा रहा हूं, तुम से बात करने के लिए. मैं आज निशा की तरफ बिलकुल नहीं देखूंगा आखिर वह अपनेआप को समझती क्या है और ऐसे ही कब तक अपनी मनमरजी चलाती है.‘

तभी निशा उस की ओर पलटी. वैभव के हाथ तत्काल अभिवादन की मुद्रा में जुड़ गए. निशा ने भी अभिवादन का जवाब दिया, लेकिन आगे उन दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई.

इस के बाद गार्डन में दोनों अपनेअपने क्रियाकलाप में लग गए, लेकिन वैभव का मन बारबार निशा की ओर भाग रहा था.

ऐसे ही कई दिन गुजर गए. वैभव को निशा के बिना चैन नहीं था, लेकिन वह ऊपर से खुद को ऐसा दिखाने की कोशिश करता कि जैसे उस का निशा से कोई सरोकार ही नहीं है.

निशा सबकुछ समझ रही थी. एक दिन उस ने वैभव को रोका और मुसकराते हुए पूछा, ‘‘नाराज हो क्या?’’

‘‘नहीं. नाराज उन से हुआ जाता है, जो अपने हों. आप से मैं क्यों नाराज होने लगा?’’

निशा मुसकराते हुए बोली, ‘‘कुछ भी कहो, लेकिन नाराज तो हो. तुम्हारा चेहरा, दिल का हाल बयान कर रहा है, लेकिन तुम ने मेरी मजबूरी नहीं समझी.’’

‘‘एक छोटा सा गिफ्ट लेने में क्या मजबूरी थी?’’ वैभव ने तल्खी के साथ पूछा.

‘‘मजबूरी थी, वैभव. तुम ने समझने की कोशिश नहीं की,’’ निशा ने कहा.

‘‘मैं भी जानूं कि क्या मजबूरी थी?’’ वैभव ने जानना चाहा.

‘‘वैभव, सिर्फ भावनाओं से ही काम नहीं चलता. आगेपीछे भी सोचना पड़ता है. मैं ने कहा था न कि मैं घरपरिवार वाली हूं. तुम ने इस पर तो विचार नहीं किया और नाराज हो कर बैठ गए,’’ निशा ने कहा, ‘‘मैं अगर तुम्हारा गिफ्ट ले कर घर जाती तो घर के लोगपूछते कि किस ने दिया? सोचो, मैं क्या जवाब देती?

‘‘डायरी में तुम ने अपना नाम तो जरूर लिखा होगा. तुम्हारा नाम देख कर घर वाले क्या सोचते? इस बारे में तो तुम ने कुछ सोचा नहीं. बस, मुंह फुला लिया. बेवजह शक पैदा होता और मेरे लिए परेशानी खड़ी हो जाती. ऐसा भी हो सकता था कि मेरा गार्डन में आना हमेशा के लिए बंद हो जाता. तब हम दोनों मिल भी न पाते.’’

यह सुन कर वैभव को अपनी गलती का एहसास हुआ. उस के सारे गिलेशिकवे दूर हो गए और वह बोला, ‘‘तुम अपनी जगह सही थी, निशा.

‘‘तुम ने तो बड़ी समझदारी का काम किया. मुझे माफ कर दो. तुम्हारा फैसला ठीक था.

‘‘अब मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. एक छोटा सा गिफ्ट तुम्हें वाकई परेशानी में डाल सकता था.’’

Romantic Story: विराम – क्यों मोहिनी अपने पति को भूल गई?

Romantic Story: आज महेश सुबह बिना नहाएधोए ही उपन्यास पढ़ने बैठ गया. यकायक उस की नजर एक शब्द पर आ कर रुक गई और चेहरे का उजास उदासी में बदल गया. ‘उस का’ नाम उपन्यास की एक पंक्ति में लिखा हुआ था. उदास मन से वह सोचने लगा कि आज मोहिनी को उस से बिछड़े हुए एक अरसा हो गया और आज उस का नाम इस तरह से क्यों उस के मन में दस्तक दे रहा है? यह मात्र संयोग है या और कुछ? वैसे तो एक जैसे हजारों नाम होते हैं मगर महेश ने लंबे समय से उस का नाम कहीं पढ़ासुना नहीं था, तो इस प्रकार की बेचैनी स्वाभाविक थी. अचानक ही उस का बेचैन मन उस से मिलने की हूंक भरने लगा. मगर यह इतना आसान कहां था? उस ने दिल की इस अभिलाषा को पूरा करने का काम दिमाग को सौंप दिया. उस को अपने रणनीति विशेषज्ञ दिमाग पर पूरा भरोसा था.

महेश की एक कजिन थी विशाखा. विशाखा मोहिनी की पड़ोसिन थी. वह मोहिनी की खास सहेली थी मगर महेश कभी उस से मोहिनी के विषय में बात करने का साहस नहीं जुटा पाया. पर एक दिन बातोंबातों में ही उस ने विशाखा से मोहिनी के पति का नाम वगैरह जान लिया. फिर महेश ने मोहिनी के पति शाम को फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी. श्याम ने उस की रिक्वैस्ट स्वीकार कर ली. उस की हसरतों को एक खुशनुमा ठहराव मिला. यहां से महेश और श्याम फेसबुकफ्रैंड बन गए. अब मिशन शुरू हो चुका था.

महेश श्याम की फेसबुक पोस्ट्स पर कमैंट्स या लाइक्स जरूर देता. अब लाइक और कमैंट की वजह से महेश और श्याम में जानपहचान भी हो चुकी थी. वैचारिक रूप से भी काफी करीब आ चुके थे दोनों.

एक दिन महेश ने श्याम से उस का पर्सनल नंबर मांगा, ‘‘मेरे सभी फेसबुक फ्रैंड्स का नंबर मेरे पास है. आप भी दे दें. कभी न कभी मुलाकात भी होगी.’’

इस पर श्याम ने कहा, ‘‘कभी हमारे शहर आना हो तो जरूर मिलिएगा. मुझे खुशी होगी.’’ महेश तो इसी मौके की तलाश में था. अगले हफ्ते सैकेंड सैटरडे था. महेश को वह दिन उपयुक्त लगा और उस दिन महेश उस के शहर पहुंच गया. उस ने मोहिनी के पति को कौल किया कि मैं अपनी कंपनी के किसी काम से आया हुआ था. सोचा आप से भी मिलता चलूं. आप कृपया अपना पता बता दें.’’ ‘‘आप वहीं रुकिए, मैं अभी पहुंचता हूं,’’ कह कर श्याम ने फोन रख दिया.

‘‘बस चंद मिनट का फासला है मेरे और मोहिनी के बीच,’’ महेश सोच रहा था. इसी मौके का तो बेसब्री से इंतजार कर रहा था वह. एक सपना सच होने जा रहा था. ‘‘उसे करीब से देखूंगा तो कैसा महसूस होगा, वह अब कैसी दिखती होगी, उस ने क्या पहना होगा…?’’ ढेर सारी अटकलों में घिरा उस का बावरा मन व्याकुल हुआ जा रहा था.

तभी श्याम उसे लेने आ गए. दोनों ने एकदूसरे के हालचाल पूछे. फिर वे महेश को ले कर अपने साथ अपने घर पहुंचे और पानी लाने के लिए अपनी पत्नी को आवाज दी.

अपने दिल की धड़कनों पर काबू करते हुए महेश ने दरवाजे की ओर आंखें गड़ा दी

थीं कि अब मोहिनी ही पानी ले कर आएगी. लेकिन पल भर में ही उम्मीदों पर पानी फिर गया. पानी नौकरानी ले कर आई. इतने में

श्याम बोले, ‘‘मैं ने आप की फेसबुक प्रोफाइल देखी है. आप तो राजनीति पर अच्छाखासा लिख लेते हैं.’’ ‘‘आप भी तो कहां कम हैं जनाब,’’ महेश ने हंसते हुए जवाब दिया.

फिर सिलसिला चल पड़ा चर्चाओं का… लोकल पौलिटिक्स, गांव और शहर की समस्या, आतंकवाद और न जाने क्याक्या. बातों ही बातों में महेश का स्वर एकदम से रुक गया. आंखें पथरा गईं. चेहरे पर सन्नाटा छा गया. सोफे और कुरसी की हलचल थम सी गई. श्याम महेश की भावभंगिमा परख तो पा रहे थे, मगर समझ नहीं पा रहे थे.

यह क्या? अपने हाथों में चाय की ट्रे पकड़े हुए वह महेश के सामने खड़ी थी. उस की आंखों में अनुराग की अकल्पनीय असीमता थी. उस का चेहरा चंचलता की स्वाभाविक आभा से अलौकित हो रहा था और उस के होंठों पर मधुरिमा मुसकान थी. महेश की रगों में उसे छूने की अतिउत्सुकता जाग उठी. उस का मन कर रहा था कि इसी पल उसे आलिंगनबद्ध कर ले. किंतु यह संभव नहीं था. वह ज्योंज्यों महेश के करीब आ रही थी त्योंत्यों महेश की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. ‘‘कैसे हो?’’ उस ने महेश को चाय का प्याला थमाते हुए पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं और आप कैसी हो?’’ महेश ने पूछा. उस का जी और महेश का आप नाटकीयता का प्रकर्ष था.

मोहिनी ने कहा, ‘‘मैं भी ठीक हूं.’’ मोहिनी के पति आश्चर्य से दोनों का चेहरा देख रहे थे. उन के मन में उठते हुए भावों को मोहिनी पढ़ चुकी थी. इसलिए उस ने कहा, ‘‘अरे हां, मैं आप को बताना भूल गई, मैं इन को जानती हूं… मेरी जो सहेली है विशाखा, जिस से मैं ने आप को अपनी शादी में मिलवाया था, ये उस के कजिन हैं. इन से एकदो बार विशाखा के घर पर ही मुलाकात हुई थी. तभी से जानती हूं.’’

प्रेम अपने वास्तविक धरातल पर आ ही जाता है. महेश को यकीन नहीं हो रहा था और शायद मोहिनी को भी. 2 प्रेमी आमनेसामने खड़े थे और महेश चाह कर भी उसे छू नहीं सकता था. दोनों के बीच अब समाज की दीवार थी. महेश श्याम से बात कर रहा था और कोशिश कर रहा था कि सब सही रहे. फिर भी महेश की आंखें उसी की चंदन सी काया को निहार रही थीं. ‘‘ढेर सारी बातें और किस्से हो गए. अब चलूंगा, आज्ञा दीजिए,’’ कह कर महेश जाने के लिए उठने लगा.

‘‘अरे, कहां जा रहे हो? खाना तैयार है. आप पता नहीं फिर कब आओगे,’’ श्याम ने कहा. एक अजब सी कशमकश थी मन में. महेश आत्मीय निवेदन ठुकराने का दुस्साहस नहीं कर सका और बैठ गया. महेश को जब भोजन परोसा जा रहा था तब वह रसोई से आतीजाती मोहिनी को बड़े ध्यान से देख रहा था और सोच रहा था, ‘‘कितनी खूबसूरत लग रही है… वैसे ही तेज कदमों से चलना, हाल बदले थे पर चाल वैसी ही थी… उस के हाथ का बना खाना बहुत स्वादिष्ठ था.’’

भोजन किया और निकलने लगा. फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘आप अपना नंबर दे दो. विशाखा को दे दूंगा. आप को बहुत मिस करती है.’’ मोहिनी ने पति की तरफ देखा और स्वीकृति मिलने पर नंबर दे दिया. इसी के साथ महेश की यह अंतिम इच्छा भी पूरी हो गई.

पूरी रात मोहिनी सोचती रही कि महेश उस का नंबर ले कर गया है तो कौल भी जरूर करेगा. महेश से कैसे मिले और कैसे उस को समझाए कि अब हालात बदल गए हैं? महेश उस को अगले दिन से ही फोन करने लगा. मोहिनी 4-7 दिन तक तो उस की कौल को अवौइड करती रही, पर बाद में महेश से बात करने का निश्चय किया.

महेश, ‘‘क्या इतनी पराई हो गई हो कि मिलने भी नहीं आ सकतीं?’’ मोहिनी, ‘‘अब मेरा नाम किसी और के नाम के साथ जुड़ चुका है.’’

महेश, ‘‘ये दूरियां जिंदगी भर की होंगी, ये सोचा न था.’’ मोहिनी, ‘‘तुम ही तो चाहते थे ऐसा. याद करो तुम ने ही कहा था कि यह मेरी गलतफहमी है. प्यार नहीं है तुम्हें मुझ से. और हो भी नहीं सकता. साथ ही यह भी कहा था कि मुझ से प्यार कर के कुछ नहीं पाओगी. क्यों अपनी जिंदगी खराब कर रही हो. अच्छा लड़का देखो और शादी कर के जाओ यहां से. मेरा क्या है.’’

महेश, ‘‘सब याद है मुझे,’’ कई बार जिंदगी में कुछ ऐसे फैसले करने पड़ते हैं कि आप चाह कर भी उन को बदल नहीं सकते. मेरे पास कुछ नहीं था उस समय तुम्हें देने के लिए, खोखला हो चुका था मैं.’’ मोहिनी, ‘‘ऐसा क्यों हुआ अब सोचने से कोई फायदा नहीं.’’

महेश, ‘‘तुम तो जानती हो मेरे मातापिता अपनी पसंद की लड़की से ही मेरा विवाह कराना चाहते थे. मां की जिद थी कि उन की सहेली की लड़की से ही मेरा विवाह हो.’’ मोहिनी, ‘‘तुम ने उन्हें मेरे बारे में नहीं बताया.’’

महेश, ‘‘बताना चाहता था, पर उन को अपनी जिद के आगे मेरी खुशी नहीं दिखाई दे रही थी. मुझे उन्हें समझाने के लिए कुछ वक्त चाहिए था. मैं उन का दिल नहीं दुखाना चाहता था.’’ मोहिनी, ‘‘और मेरे दिल का क्या होगा? मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा.’’

महेश, ‘‘सोचा था, बहुत सोचा था, लेकिन जिंदगी के भंवर में बुरी तरह फंस चुका था. जब तक वे मानते तब तक तुम्हारा विवाह हो चुका था. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता. अब तो इस भंवर से बाहर आ कर मेरे साथ चल पड़ो. तुम भी अपने पति से प्यार नहीं करती हो, यह मैं जान गया हूं.’’ मोहिनी, ‘‘वे बहुत अच्छे हैं. अब मैं उन का साथ नहीं छोड़ सकती.’’

महेश, ‘‘क्यों बेनामी के रिश्ते को जी रही हो, घुटघुट के जीना मंजूर है तुम्हें?’’ मोहिनी, ‘‘समाज ने नाम दिया है इस रिश्ते को. तो बेनामी कैसे हुआ? मैं उन के साथ बहुत खुश हूं.’’

महेश, ‘‘प्लीज छोड़ दो सब कुछ और भाग चलो मेरे साथ. हम अपनी एक नई दुनिया बसाएंगे. चले जाएंगे यहां से बहुत दूर. मैं तुम्हें इतना प्यार करूंगा जितना किसी ने आज तक न किया हो.’’ मोहिनी, ‘‘नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती. अब मेरे साथ मेरी ही नहीं, किसी और की भी जिंदगी जुड़ी है.’’

महेश, ‘‘इस का मतलब तुम मेरा प्यार भूल गई हो या फिर वह सब झूठ था.’’ मोहिनी, ‘‘प्यार एक एहसास होता है उन ओस की बूंदों की तरह जो धरती में समा जाती हैं और फिर किसी को नजर नहीं आतीं. हमारा प्यार भी ओस की बूंदों की तरह था, जो हमेशा मेरे दिल की जमीन पर समाहित रहेगा. इस एहसास को किसी रिश्ते का नाम देना जरूरी तो नहीं. तुम्हारे साथ कुछ पलों के लिए जिस राह पर चली थी. वह बहुत ही खुशगवार थी. उन राहों में लिखी कहानी शायद मैं कभी नहीं मिटा पाऊंगी. लेकिन अब और उन राहों पर नहीं चल पाऊंगी. मैं तुम से बहुत प्यार करती थी और शायद आज भी करती हूं और करती रहूंगी पर…’’

महेश, ‘‘पर क्या?’’ मोहिनी, ‘‘अब हम एक नहीं हो सकते. तुम्हारा प्यार हमेशा याद बन कर मेरे दिल में रहेगा. अब तुम कोई दूसरा हमसफर ढूंढ़ लो. मैं 4 कदम चली तो थी मंजिल पाने के लिए पर कुदरत ने मेरी राह ही बदल दी.’’

महेश, ‘‘तुम चाहो तो फिर से राह बदल सकती हो.’’

मोहिनी, ‘‘प्यार का एहसास ही काफी है मेरे लिए. प्यार को प्यार ही रहने दो. कभीकभी जीवन में कुछ रिश्तों को नाम देना जरूरी नहीं होता. क्या हम दोनों के लिए इतना ही काफी नहीं कि हम दोनों ने एकदूसरे से प्यार किया.’’

‘‘सब कह दिया है तुम ने. बस एक आखिरी सवाल का जवाब भी दे दो,’’ महेश ने कहा. ‘‘हां, पूछो,’’ मोहिनी बोली.

‘‘आज तक, कभी एक मिनट या एक सैकंड के लिए भी तुम मुझे भूल पाईं,’’ महेश ने पूछा. ‘‘नहीं,’’ अपनी हिचकियों को रोकने की नाकाम कोशिश करते हुए मोहिनी बोली.

महेश, ‘‘एक वादा चाहता हूं तुम से.’’ मोहिनी, ‘‘क्या?’’

महेश, ‘‘वादा करो जिंदगी में जब कभी तुम्हें मेरी जरूरत महसूस होगी, तुम मुझे फौरन याद करोगी. मैं दुनिया के किसी भी कोने में होऊंगा, तो भी जरूर आऊंगा. चलो खुश रहना. कोशिश करूंगा कि दोबारा कभी तुम्हें परेशान न करूं. लेकिन दोस्त बन कर तो तुम से मिलने आ ही सकता हूं?’’ मोहिनी, ‘‘नहीं अब हम कभी नहीं मिलेंगे. दोस्ती को प्यार में बदल सकते हैं पर प्यार दोस्ती में नहीं. मेरे जीवन की आखिरी सांस तक मैं तुम्हें नहीं भूलूंगी.’’

मोहिनी, इतने पर ही नहीं रुकी, ‘‘सवाल तो बहुत से थे, मन में. बस आज उन सवालों पर विराम लगाती हूं. मेरे लिए इतना ही काफी है कि तुम मुझे प्यार करते हो.’’ महेश, ‘‘यह कैसा प्यार है. चाह कर भी मैं तुम्हें छू नहीं सकता. तुम्हें देख नहीं सकता. तुम से बात नहीं कर सकता.’’

मोहिनी, ‘‘यह फैसला तुम्हारा था. अब तुम्हें अपने फैसले का सम्मान करना चाहिए. बहुत देर हो गई. बस यही चाहूंगी कि तुम सदा खुश रहो और कामयाबी की ओर बढ़ते रहो, बाय.’’ महेश, ‘‘बाय.’’

महेश को दूर से आते एक गीत के बोल सुनाई दे रहे थे, ‘क्यों जिंदगी की राह में मजबूर हो गए इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए…’

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