मैंने औफिस की अपने पीछे वाली दीवार पर महापुरुषों की तसवीरें इसलिए नहीं लगाई हैं कि मैं उन की तरह हूं या होना चाहता हूं या कि मैं उन के पदचिह्नों पर चलने वाला सरकारी मुलाजिम हूं. होना बहुत मुश्किल होता है, दिखाना बहुत आसान.

होने का जोखिम मैं ही क्या, आज कोई भी नहीं उठाना चाहता. दिखने का सब आसानी से उठा लेते हैं, उठा रहे हैं. देश की मिट्टी तक बेच कर उस मिट्टी से सोना कमा रहे हैं.

मैं सरकार बदलते ही कई महापुरुषों की तसवीरें एकदम हटा कर रातोंरात उन की जगह नई सरकार के महापुरुषों की तसवीरें अपने औफिस की दीवार पर लटकाता रहने वाला महापुरुष हूं. और तब तक यह काम सारे काम छोड़ करता रहूंगा, जब तक सरकारी नौकरी में हूं, ताकि हर नई सरकार को मैं अपना बंदा लगूं.

तब मुझ से काम करवाने कोई आए, तो उस में यही इंप्रैशन जाए कि मैं टुच्चेपुच्चे टाइप का पिछली सरकार का अफसर नहीं, वर्तमान सरकार का खांटी पार्टी वर्कर हूं, नई सरकार का कोई महापुरुष टाइप का पुरुष हूं कि इन के उन के नीचे मुझे लेटेबैठे देख सब मुझे भी महापुरुष समझें, क्योंकि इन दिनों इसी तरह के महापुरुष होने का प्रचलन चलन में है.

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अब औफिसों में कुछ बदलें या न, पर सरकार के बदलने के साथ सरकारी औफिसों के फ्रेम में बंद दीवारों पर टंगने वाले महापुरुष भी बदलते रहते हैं. सरकारों की कोई विचारधारा हो या न, पर अपनेअपने मार्क्ड महापुरुष जरूर होते हैं, जिन की पीठ पर सवार हो कर ये भी महापुरुष बने फिरते हैं. आज के समय का कोई ऐवरग्रीन महापुरुष नहीं, सत्ता समय महापुरुष हैं.

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