भ्रम भंग

लेखक- दिनेश पालीवाल

बहुत तेज रफ्तार से दौड़ती उस मोटरसाइकिल पर बीच में बैठी होने के बाद भी लतिका भय से कांप रही थी. भय कम हो जाए इस के लिए उस ने अभय की कमर कस कर पकड़ ली. अभय के साथ उस की मोटरसाइकिल पर वह पहली बार बैठी थी पर अब मन ही मन सोच रही थी कि आज किसी तरह बच जाए तो फिर कभी इस के साथ मोटरसाइकिल पर नहीं बैठेगी.

‘‘तुम गाड़ी धीरे नहीं चला सकते, अभय?’’ उस से सटी पीछे बैठी लतिका एक प्रकार से चिल्लाते स्वर में बोली.

हर हिचकोले के साथ लतिका से और अधिक सटने का प्रयत्न करता परमजीत हंसा और बोला, ‘‘डरो नहीं, डार्ल्ंिग, इस का अभय नाम यों ही नहीं है. इसे तो मौत का सामना करते हुए भी डर नहीं लगता.’’

‘‘लेकिन मैं लड़की हूं. इतनी तेज रफ्तार से डरती हूं. प्लीज, रोको न इसे वरना मैं चिल्लाने लगूंगी कि ये लोग मुझे जबरन कहीं भगाए लिए जा रहे हैं,’’ लतिका ने धमकी दी.

अपनी पीढ़ी की तरह रफ्तार और तेज रफ्तार जिंदगी तो लतिका को भी पसंद थी पर यह रफ्तार तो एकदम हवाई रफ्तार थी. इस में होने वाली दुर्घटना का मतलब था, शरीर का एकएक कीलकांटा बिखर जाना.

मोटरसाइकिल पर बैठेबैठे उसे याद आया कि फैसला करने में उस से गलती हो गई थी. कनक ठीक कहती थी कि ये लोग भरोसे के लायक नहीं हैं. तुम्हें अभय के प्रेम में पड़ने से पहले उस के बारे में ठीक से जान लेना चाहिए.

उस समय लतिका ने कनक की बातों पर इसलिए ध्यान नहीं दिया था क्योंकि कनक कभी खुद अभय की तरफ आकर्षित थी पर अभय ने उसे भाव नहीं दिया था क्योंकि वह एक साधारण नाकनक्श की लड़की थी.

लतिका उस के मुकाबले अपने को हर तरह से बेहतर पाती थी. शक्लसूरत में ही नहीं पढ़ाई में भी अंगरेजी से एम.ए. कर रही लतिका ने प्रथम वर्ष की परीक्षा में 75 प्रतिशत अंक पाए थे और कालिज के प्राध्यापकों ने उस की पीठ ठोंकी थी. प्रो. चोपड़ा तो उस से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने उसे एम.ए. फाइनल में एक पेपर के रूप में लघु शोध लिखने का महत्त्वपूर्ण काम भी सौंप दिया था और स्वयं ही उस के लिए एक उपयुक्त विषय का चुनाव किया था. विषय था फ्रांस की सुप्रसिद्ध उपन्यासकार  ‘साइमन बोऊवा की स्त्री स्वतंत्रता की अवधारणा और उन के उपन्यास.’ चोपड़ा साहब ने बोऊवा की एक खास पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ अपने निजी पुस्तकालय से निकाल कर लतिका को पढ़ने को दी थी. यही नहीं उन्होंने खुद पत्र लिख कर लतिका को विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय का सदस्य बना दिया था और इसी के बाद लतिका अपने इस महती कार्य में जुट गई थी.

ये  भी पढ़ें- सहयात्री

केंद्रीय पुस्तकालय एक विशाल बगीचे के बीचोंबीच बना हुआ था. मुख्य गेट से उस तक आने के लिए जो पक्की सड़क बनी थी वह उस बगीचे के घने वृक्षों और ऊंची झाडि़यों से हो कर गुजरती थी. चूंकि वहां आम लोग नहीं आतेजाते थे और वाहनों को भी बाहर ही रोक दिया जाता था इसलिए वहां भीड़भाड़ नहीं रहती थी. ज्यादातर सन्नाटा पसरा रहता था, जिसे देख कर दिन में भी भय लगता था.

लतिका 1-2 बार अपने भय को कम करने के लिए कनक को साथ लाई थी, ‘यार, बगीचे में रास्ता बेहद सुनसान हो जाता है. डर लगता है कि कहीं कोई गुंडाबदमाश दबोच ले तो क्या होगा?’

‘शहर में अभय ही एक ऐसा गुंडा है जो हमेशा अपने कालिज की लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करता रहता है,’ कनक बोली.

‘कौन अभय? वही जो फेडेड जींस और चमड़े की काली जैकेट पहने मोटरसाइकिल पर फर्राटे भरता घूमता रहता है?

‘हां, वही. और वह कभी मोटरसाइकिल पर अकेला नहीं चलता. हमेशा 3 लड़के उस के साथ होते हैं.’

‘कुछ भी हो, मुझ से तो वह बहुत तमीज से पेश आता है,’ लतिका ने उस का पक्ष लेते हुए कहा, ‘विभाग में आतेजाते जब भी वह सामने पड़ा उस ने मेरा रास्ता छोड़ दिया.’

‘तेरा भ्रम जल्दी भंग हो जाएगा लाड़ो,’ कनक भी हंस दी थी, ‘जब किसी से इश्क हो जाता है तो बुद्धि काम नहीं करती, तर्क के तीर तरकस में पड़े जंग खाते रहते हैं और वह अंधा बना प्रेम की तरफ दौड़ता चला जाता है.’

कनक की कही हुई सब बातें अचानक मोटरसाइकिल पर बैठी लतिका को याद आ गईं. कनक के समझाने के बाद भी वह अभय व उस के दोस्तों पर विश्वास कर के इस सुनसान इलाके में उन के साथ चली आई. अगर वे इस सुनसान इलाके में उस के साथ मनमानी करने लगें तो वह इन 2 राक्षसों का क्या कर लेगी?

यह सोचते ही भय और आतंक से किसी तरह साहस कर के पूछा ही लिया, ‘‘हम लोग आखिर जा कहां रहे हैं?’’

‘‘डरो नहीं, लतिका,’’ बहुत देर की खामोशी के बाद अभय बोला, ‘‘हम लोग तुम्हारे साथ ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिस से तुम्हें किसी तरह का नुकसान पहुंचे. असल में तुम इस मोटरसाइकिल को जिस प्यार भरी नजरों से देखती

थीं, उसे देख कर ही मैं ने तय किया था कि एक दिन तुम्हें इस पर बैठा कर

सैर कराई जाए. आज तुम साथ आने को तैयार हो गईं तो हम इधर सैर को

आ गए.’’

‘‘लेकिन इस सुनसान इलाके में क्यों?’’ किसी तरह थूक निगल कर लतिका ने कहा. उसे अब अपने पर ही गुस्सा आ रहा था कि उस ने जरा भी बुद्धि से काम नहीं लिया जबकि रोज ही अखबारों में बलात्कार की घटनाएं वह पढ़ती है. यहां तक कि केंद्रीय पुस्तकालय तक आतेजाते भी कई बार लड़कियों के साथ छेड़छाड़ हुई है फिर यह तो एकदम सुनसान और एकांत स्थान है. यहां तो ये लोग कुछ भी कर सकते हैं उस के साथ.

इसी तरह के डरावने विचारों में डूबतीउतराती लतिका को अनायास ही अपने भाई नकुल के मनोविज्ञान में चल रहे शोध की याद आ गई. वह टीनएजर्स और बाल अपराधों के मनोविज्ञान पर शोध कर रहा है. उस के शोध को टाइप करते समय उन्हें पढ़ कर वह अकसर आश्चर्यचकित हो जाती है कि इतनी कम उम्र के लड़के बलात्कार का अपराध कर गुजरते हैं.

अचानक लतिका को लगा वह गलत फंस गई. उसे इन लोगों की बातों में नहीं आना चाहिए था. पुस्तकालय गई थी. भाई अब घर पर इंतजार कर रहा होगा पर अब वह क्या करे, कैसे बचे. कैसे सुरक्षित घर पहुंचे.

लतिका की जान में तब जान आई जब अभय की मोटरसाइकिल आ कर एक छोटी बस्ती में रुक गई. उस बस्ती के बाहर ही एक पुराना सा मकान था. उस के फाटक और टूटीफूटी चारदीवारी को अभय और परमजीत गौर से देखते रहे. फिर उस मकान के चारों तरफ एक चक्कर भी लगाया.

‘‘हम यहां क्यों आए हैं?’’ लतिका ने पूछा.

‘‘एक दोस्त को देखने आए हैं,’’ अभय बोला.

‘‘दोस्त को देखना है तो अंदर जा कर देखो. तुम तो इस मकान का बारबार चक्कर लगा रहे हो.’’

परमजीत बोला, ‘‘चलो, लतिका को योगी के घर ले कर चलते हैं.’’

‘‘यह योगी कौन है?’’ लतिका ने मुसकराने का प्रयास किया.

‘‘योगी, हमारा जिगरी दोस्त है और वह यहीं रहता है,’’ अभय ने कहा और मोटरसाइकिल एक सड़क पर दौड़ा दी.

लतिका को कुछ तसल्ली हुई कि चलो, यह जगह इन के लिए अनजान जगह नहीं है. यहां भी इन का एक दोस्त रहता है जिसे वह शक्ल से पहचानती है. नाम आज जान गई….अजीब नाम है…योगी.

बहुत आवभगत की योगी ने लतिका की. काफी अच्छा मकान था उस का. मां बहुत सरल स्वभाव की. एक छोटी बहन थी जो 10वीं कक्षा में पढ़ती थी. उस से देर तक लतिका बातें करती रही. चायनाश्ते के बाद वह अभय और परमजीत के साथ वापस लौटी.

अब उसे उतना डर नहीं लग रहा था. पर एक सवाल उस के दिमाग में बारबार उठ रहा था कि आखिर अभय और परमजीत उस पुराने मकान को क्यों चारों तरफ  से घूमघूम कर गौर से देख रहे थे? अगर उन्हें योगी से ही मिलना था तो सीधे उसी के घर क्यों नहीं चले गए?

अभय लतिका को ले कर सीधे उस के घर आया. नकुल बाहर ही बेचैनी से लतिका का इंतजार कर रहा था. उन लोगों के साथ लतिका को देख कर वह गुस्से को किसी तरह जज्ब किए रहा.

अभय और परमजीत को घर में बुला कर लतिका ने पानी पिलाया. नमकीन और मिठाई खाने को दी और अपने भाई से उस का परिचय कराया. जब अभय को विदा करने लगी तो वह बोला, ‘‘मैं नकुलजी को अच्छी तरह जानता हूं. ये कम उम्र के लड़कों और बच्चों के अपराधों पर शोध कर रहे हैं और उस के लिए अकसर बालसुधार गृह और जेल व पुलिस वालों के पास आतेजाते रहते हैं. आप के पिताजी एक इंजीनियरिंग कंपनी के उत्पाद बेचने के सिलसिले में दूसरे शहरों की यात्रा करते रहते हैं. घर की देखरेख और तुम्हारी रक्षा नकुलजी ही करते हैं. मां हैं नहीं इसलिए घरगृहस्थी का सारा काम तुम करती हो. तुम प्रोफेसर चोपड़ा की खास छात्रा हो. केंद्रीय पुस्तकालय में अपने लघु शोध के सिलसिले में कनक के साथ आतीजाती हो और कनक मुझे कोसती रहती है,’’ एक सांस में सब कह गया अभय.

‘‘अरे, तुम तो मेरा पूरा इतिहास जानते हो और यह भी कि तुम्हारे बारे में कनक मुझसे क्या कहती है.’’

रात को खाना खाते समय लतिका ने हमेशा की तरह भाई नकुल को सब बता दिया. हालांकि नकुल 2-3 साल ही लतिका से बड़ा था पर ज्यादातर बाहर रहने वाले पिता ने बेटी की सारी जिम्मेदारी बेटे को ही सौंप रखी थी. वह लतिका का भाई कम पिता अधिक था और उस के रहते लतिका भी अपने को बहुत सुरक्षित अनुभव करती थी.

नकुल को लतिका की चिंता भी बहुत रहती थी. अगर कालिज या पुस्तकालय से लौटने में उसे जरा भी देर हो जाती तो फौरन साइकिल से लतिका को खोजने निकल पड़ता था. कई बार लतिका उसे पुस्तकालय से आती हुई उन सुनसान रास्तों पर मिली है फिर दोनों भाईबहन पैदल ही साथसाथ आए हैं.

खाने के बाद जब लतिका अपने कमरे में पढ़ने चली गई तो कुछ देर बाद एक फाइल में कुछ कागज लिए नकुल उस के पास आया और उस के बिस्तर पर ही बैठ गया.

‘‘पहचानो इन चित्रों को. पुलिस के रिकार्ड से इन की फोटोकापी कराई है.’’

एकदम चौंक पड़ी लतिका, ‘‘अरे, यह तो अभय, परमजीत और योगी हैं. इन का रिकार्ड पुलिस में?’’ अचरज से उस की आंखें फैल गईं.

‘‘अच्छे लोग नहीं हैं ये पुलिस की नजरों में,’’ नकुल बोला, ‘‘अब तक कई अपराधों को अंजाम दे चुके हैं. अनेक लड़कियां इन की हवस का शिकार हुई हैं. ये पहुंच वाले बड़े लोगों के बिगड़ैल बेटे हैं. अभय तो शहर के प्रसिद्ध नेता का लड़का है. मेरी सलाह है कि तुम इन लोगों से दूर ही रहो. हम लोग इतने साधन संपन्न नहीं हैं कि इन का कुछ बिगाड़ पाएंगे.’’

‘‘जानते हो नकुल,’’ लतिका गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं तुम्हें पापा के बराबर ही मान देती हूं. सवाल सिर्फ उम्र का नहीं है जिस तरह तुम मेरी रक्षा करते हो, मेरा खयाल रखते हो, मेरी चिंता करते हो, उस सब का महत्त्व मैं समझती हूं. कोई भी लड़की तुम्हारे जैसे भाई को पा कर धन्य हो सकती है. मैं ने आज तक कभी तुम्हारी सलाह की अनदेखी नहीं की. पर भैया, मैं अभय को पसंद करती हूं.’’

‘‘अभय के जाते समय जो चमक तुम्हारी आंखों में मैं ने देखी थी उसे देख कर ही मैं समझ गया था,’’ नकुल बोला, ‘‘इसलिए यह सच भी तुम्हारे सामने रखा है वरना यह रिकार्ड मेरे पास काफी दिनों से है और मैं ने तुम्हारे सामने नहीं रखा था.’’

‘‘ठीक है भाई, मैं सावधान रहूंगी,’’ लतिका ने कुछ सोच कर कहा.

इश्क एक अजीब तरह का बुखार है. आंखों से चढ़ता है और शरीर के सारे अंगप्रत्यंग को कंपकंपा देता है. इतना सब जानने, सुनने के बावजूद लतिका अभय की सूरत को दिलोदिमाग से निकाल नहीं पाती थी. शरीर इस कदर उत्तेजित हो जाता था कि वह अपने तनाव और उत्तेजना को शांत करने के लिए अनेक उपाय करती थी. फिर उस मुक्ति के बाद वह देर तक हांफती हुई बिस्तर पर निढाल पड़ी रहती थी.

दूसरे दिन सुबह लतिका कालिज जाने लगी तो नकुल ने नाश्ते की मेज पर उस से कहा, ‘‘देखो, गलत रास्ते पर तुम बहुत आगे निकल जाओ उस से पहले ही मैं ने तुम्हें आगाह कर दिया है. आशा है तुम मेरी बात मानोगी.’’

रात को जो कुछ अभय को ले कर सोते समय लतिका ने अपने शरीर के स्तर पर महसूस किया था, उस के बाद वह नकुल की बात को बहुत मन से नहीं मान पाई थी. अभय को ले कर उस के मन में अभी भी कहीं कमजोर भावना थी.

कालिज जाते समय लतिका ने जल्दीजल्दी अखबार की खास खबरों पर नजरें दौड़ाईं तो अचानक एक खबर पढ़ कर वह हड़बड़ा गई, ‘‘नकुल भाई, यह खबर पढ़ो.’’

शहर के पास वाले कसबे में एक एकांत मकान के बूढ़े पतिपत्नी की हत्या कर सारी जमापूंजी लूट ली गई.

‘‘बेचारे ये बूढ़े दंपती तो अब अकसर ही मारे जाते हैं. कभी उन के अपने ही बच्चे उन्हें जमीनजायदाद पर कब्जा पाने के लिए मार देते हैं तो कभी बदमाश, लुटेरे यह काम कर देते हैं,’’ नकुल बोला, ‘‘कोई खास बात नहीं है. अब तो यह रोज की बात हो गई है.’’

‘‘खास बात है, नकुल,’’ लतिका कुछ सोच कर बोली, ‘‘मैं कल इसी कसबे में अभय और परमजीत के साथ गई थी और जिस मकान का विवरण यहां छपा है उस मकान के सामने अभय और परमजीत बहुत देर तक न केवल रुके बल्कि उन्होंने मोटरसाइकिल से उस मकान के कई चक्कर भी लगाए थे.’’

ये  भी पढ़ें- मिनी की न्यू ईयर पार्टी

‘‘लेकिन हमारे पास पुलिस को देने के लिए सुबूत क्या है?’’ नकुल बोला, ‘‘फिर तुम खुद उन के साथ थीं. खामखा पुलिस तुम्हें भी लपेटेगी. इसलिए इस मामले में चुप रहना बेहतर होगा.’’

उस घटना के बाद काफी दिनों तक अभय, परमजीत और योगी कालिज में दिखाई नहीं दिए. अखबार में छपी वह घटना कुछ दिन चर्चा का विषय भी बनी रही पर जल्दी ही दूसरी घटनाओं की तरह वह भी भुला दी गई.

लतिका केंद्रीय पुस्तकालय आतीजाती रही. नोट्स लेती रही. प्रो. चोपड़ा के दिशा- निर्देशन में फ्रांस की महान उपन्यासकार बोऊवा के उपन्यासों और उन के समाजदर्शन, स्त्री की स्वतंत्रता संबंधी विचारों का मंथन करती रही. इस बीच वह चोपड़ा साहब से बोऊवा की पुस्तकों पर लंबी बहस भी करती रहती थी.

लतिका के प्रयास और मेहनत को देख कर प्रो. चोपड़ा बहुत खुश हो कर बोले, ‘‘पहले इस लघु शोध को पूरा कर लो. एम.ए. के बाद मैं तुम्हें इसी विषय पर दीर्घ शोध ग्रंथ लिखने का काम दूंगा.’’

‘‘धन्यवाद सर, आप ने मुझे इस योग्य समझा,’’ कह कर जब वह चोपड़ा साहब के बंगले से बाहर निकली तो कनक मुसकराई, ‘‘बूढ़े पर तो दिल नहीं आ गया मेरी गुल की बन्नो का?’’

‘‘कनक, मैं धर्मवीर भारती की कहानी की कुबड़ी नहीं हूं,’’ बेसाख्ता, ठहाका लगा कर लतिका हंसी, ‘‘तू जानती है कि मैं अपने मन में अभी भी अभय को पसंद करती हूं.’’

‘‘इस के बावजूद कि पास के कसबे में हुई बूढ़े दंपती की हत्या और लूट में पुलिस को उन लोगों पर ही संदेह है.’’

‘‘मेरा विश्वास है कि अंत में सब ठीक हो जाता है,’’ लतिका बोली.

‘‘क्यों जीते जी जलती आग में कूद कर जान देने पर उतारू है, लतिका.’’

बूढ़े दंपती की हत्या का मामला जब रफादफा हो गया तो अभय, परमजीत और योगी फिर कालिज में दिखाई देने लगे.

एक दिन लतिका को रास्ते में रोक कर अभय हंसहंस कर उस से बातें कर रहा था और वह भी उस की बातों में रुचि ले रही थी कि परमजीत निकट आया और बड़े आदर से उस ने लतिका को नमस्कार किया तो उसे अच्छा लगा. कोई कुछ भी कहे, ये लड़के उस से तो हमेशा ही तमीज से पेश आते हैं.

जब परमजीत जाने लगा तो अभय ने जेब से एक परची निकाल कर परमजीत को देते हुए कहा, ‘‘योगी को दे देना.’’

लतिका ने यह सोच कर ध्यान नहीं दिया कि लड़कों की आपस की बातों में वह क्यों पड़े.

कालिज के बाद जब वह चाय वगैरह पीने कैंटीन पहुंची तो एक सीट पर किसी लड़की से बात करते योगी को देखा. लेकिन वह जल्दी ही उठ गया और काउंटर पर जा कर चायनाश्ते के पैसे देने लगा. वह लड़की भी उस के साथ थी. दोनों कुछ जल्दी में थे.

लतिका ने देखा, पर्स निकालते समय योगी की जेब से एक कागज का टुकड़ा निकल कर गिरा है. वह लपक कर गई और झुक कर उसे उठा लिया. वेटर ने उस के लिए चाय, पानी और डोसा मेज पर लगा दिया था. वह उस परची को ले कर अपनी मेज पर आ गई. उसे यह पहचानते देर न लगी कि यह वही परची है जो अभय ने योगी को देने के लिए परमजीत को दी थी. परची में लिखा था:

‘‘रात 8 बजे के करीब सी.एल. से एक मुरगी निकलेगी. बाएं रास्ते से जाते समय आज उसे हलाल करना है.’’

डोसा खाती लतिका कई बार उस परची को पढ़ गई पर ‘मुरगी के हलाल’ करने का मतलब वह ठीक से समझ नहीं पाई. सी.एल. का मतलब भी उस की समझ में बहुत देर के बाद आया कि हो न हो यह सेंट्रल लाइब्रेरी की बात है. इतना समझ में आते ही वह एकदम हड़बड़ा गई. इस का मतलब मुरगी कोई और नहीं या तो खुद लतिका है या उस जैसी कोई अन्य लड़की, क्योंकि रात के 8 बजे तक लगभग सभी लड़कियां वहां से निकल आती हैं.

लतिका की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. वह अपने को बचाने के लिए आज पुस्तकालय न जाए पर जो हलाल होने वाली लड़की है उसे कैसे बचाए. फिर मन में एक फैसला ले कर वह वहां से चल दी.

कैंटीन से बाहर निकली तो शाम के 6 बज रहे थे. तेजतेज कदमों से वह केंद्रीय पुस्तकालय की तरफ चल दी. वहां तक पहुंचने में उसे आधा घंटा लगा. उस ने पहुंचते ही पुस्तकालय के सभी कमरों में एक बार घूम कर पढ़ रहे लड़केलड़कियों को देखा. उन में वह लड़की भी दिखाई दी जो योगी के साथ कैंटीन में थी. बेहद सुंदर चेहरेमोहरे की उस लड़की को देख कर वह सकुचाई कि कहीं यही तो वह मुरगी नहीं जिसे आज हलाल करने का इन लोगों ने इरादा बनाया है.

‘‘मैं यहां बैठ सकती हूं?’’

लतिका के इस सवाल को सुन कर लड़की ने एक बार को ऊपर निगाह उठा कर देखा और फिर पढ़ने में डूब गई.

‘‘आप का नाम पूछ सकती हूं?’’ लतिका ने पूछा.

‘‘क्यों?’’ मुसकरा दी वह.

‘‘इसलिए कि मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं.’’

‘‘पर मैं तो आप को जानती नहीं.’’

‘‘मुझे जानना जरूरी भी नहीं है,’’ लतिका बोली, ‘‘लेकिन आप का यहां से उठ कर अभी घर चले जाना ज्यादा जरूरी है.’’

इस से पहले कि वह लड़की और कोई सवाल पूछे लतिका ने धीरे से पर्स से कागज की वह परची निकाल कर उसे पढ़वा दी.

‘‘आप जिस लड़के के साथ कैंटीन में थीं उस की जेब से निकल कर यह परची गिरी है. उस के 2-3 साथी हैं, यह आप भी जानती होंगी.’’

ये  भी पढ़ेंबेकरी की यादें

लड़की के काटो तो खून नहीं. चेहरा एकदम सफेद पड़ गया. डरीसहमी हिरनी की तरह वह लतिका को देखती रही फिर किसी तरह बोली, ‘‘तभी योगी का बच्चा मुझ से चिकनीचुपड़ी बातें करता रहा था. मुझे खूब नाश्ता कराया और कहा कि पुस्तकालय में देर तक पढ़ती हो तो भूख लग आती होगी, अच्छी तरह खापी कर जाओ.’’

वह एकदम उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘किताबें रख कर आती हूं. मुझे डर लग रहा है. आप साथ चल सकती हैं?’’

‘‘बशर्ते इस परची का जिक्र कभी मुंह पर मत लाना और मेरे बारे में उन लोगों को न बताना कि मैं ने तुम्हें आज यहां से निकाल दिया.’’

घर आ कर लतिका ने सारी बात नकुल को बताई तो वह गंभीर हो कर बोला, ‘‘उस लड़की को बचाया तो अच्छा किया लेकिन अगर उस ने उन लोगों से कभी यह बात कह दी तो वे लोग तुम्हारी जान के दुश्मन हो जाएंगे.’’

एक दिन कालिज में लतिका को अभय ने एक परची थमाई और बोला, ‘‘मुझे एक काम से अभी जाना है. प्लीज, लतिका, इस परची को तुम परमजीत को दे देना. पता नहीं वह कालिज में कितनी देर बाद आए.’’

‘‘अभय, तुम्हारा कोई काम करने में मुझे खुशी होती है.’’

‘‘जानता हूं, इसलिए तुम पर विश्वास भी करता हूं और कभीकभी छोटा सा काम भी सौंप देता हूं,’’ कहता हुआ अभय मोटरसाइकिल स्टार्ट कर चला गया.

बहुत देर तक उस परची को लतिका पढ़ती रही पर वह कुछ समझ नहीं पाई. सिर्फ एक पता लिखा हुआ था और पते के अंत में 9 की संख्या लिखी हुई थी. उस ने उस पते को वैसा का वैसा ही अपने पास लिख लिया और कालिज के बाहर ही एक बैंच पर बैठी पढ़ती रही ताकि परमजीत को देख सके.

लगभग डेढ़ घंटे बाद परमजीत आया तो लतिका ने उसे वह परची दे दी. परमजीत ने परची पढ़ी और फाड़ कर फेंक दी. फिर देर तक हंसता हुआ उस से बातें करता रहा. जब वह उठ कर कक्षा में चली गई तो वह भी कहीं चला गया. उस के जाते ही लतिका लपकी हुई आई और उस ने परची के फटे सारे टुकडे सावधानी से बटोर लिए और एक कागज में पुडि़या बना कर अपने पास रख लिए.

घर आ कर उस ने वे सारे कागज के टुकड़े नकुल को दिए और उस में क्या लिखा था यह नकुल को पढ़ा दिया. नकुल सावधान हुआ. तुरंत लतिका को ले कर थाने गया और अपने उस नौजवान पुलिस अफसर से मिला जो शोध मेें उस की बहुत मदद कर रहा था.

लतिका से मिल कर उसे भी प्रसन्नता हुई और वह बोला, ‘‘आप च्ंिता न करें. आज मैं इन लड़कों को रंगेहाथ पकड़ूंगा. फिर भले ही मेरी नौकरी क्यों न चली जाए.’’

पुलिस अफसर ने सिपाहियों को सावधान किया. कुछ हथियार लिए. फिर सब को जीप में साथ ले कर वह उस पते पर पहुंच गया जो लतिका ने लिख रखा था. इस सब में 8 बज गए. दरवाजे में लगी घंटी बजाई तो देर तक दरवाजा नहीं खुला. आखिर कोई काफी कठिनाई से चलता हुआ गैलरी में आया और उस ने पूछा, ‘‘कौन?’’

‘‘पुलिस. दरवाजा खोलिए. आप से मिलना जरूरी है,’’ उस अफसर ने कहा.

बहुत समझाने पर उस बूढ़ी औरत ने दरवाजा खोला. पुलिस के साथ एक लड़की को देख कर वह महिला कुछ संतुष्ट हुई. लतिका ने तुरंत उस वृद्धा का हाथ पकड़ा और उसे भीतर ले जा कर सारी बात समझाई. फिर भी वह बूढ़ी महिला पुलिस की कोई मदद करने को तैयार नहीं हुई. उस का बारबार एक ही कहना था कि मैं ऐसा नहीं करूंगी. वे हत्यारे मुझे मार डालेंगे. पड़ोस के कसबे में भी एक बूढ़े दंपती को हत्यारों ने ऐसे ही मार डाला था. आप लोग यहां रहें जरूर पर मैं दरवाजा नहीं खोलूंगी, उन्हें अंदर नहीं आने दूंगी, वे मुझे मार डालेंगे.’’

बहुत देर तक समझानेबुझाने पर वह तैयार हुई कि दरवाजा खोल देगी पर वे लोग पिछले कमरे में जहां छिपें वहां से आने में कतई देर न करें वरना वे बदमाश उस की जान ले लेंगे.

रात लगभग 9 बजे घंटी बजी. सब सावधान हो गए.

बूढ़ी महिला फिर भय से कांपने लगी पर किसी तरह टसकती हुई दरवाजे तक पहुंची, ‘‘कौन है?’’

‘‘हम हैं, नानी, तुम्हारे पोते.’’ एक आवाज बाहर से आई. लतिका ने आवाज पहचान ली. यह अभय की आवाज थी. लतिका की भी आंखें भय से फैल गईं. अभी तक वह भ्रम में रही थी. अभय का जादू उस के सिर पर सवार था पर आज उस का भ्रम भंग हो गया.

दरवाजा खुलते ही अभय ने एकदम चाकू उस बूढ़ी औरत की गरदन पर रख दिया और बोला, ‘‘बुढि़या, जल्दी से हमें बता कि माल कहांकहां रखा है. अगर न बताया तो हम तुझे अभी मार देंगे. फिर सारे घर को खंगाल कर सब ले जाएंगे. पास के कसबे की घटना सुनी है कि नहीं तू ने? उन लोगों ने बताने में आनाकानी की तो हम ने उन्हें नरक में भेज दिया और सब ले लिया. तू भी अगर नरक में जाना चाहती है तो मत बता वरना चुपचाप साथ चल और सब माल हमारे हवाले कर दे.’’

बुढि़या को ले कर वे लोग आगे बढ़े ही थे कि झपट कर सारे सिपाही और पुलिस अफसर हथियार ताने पिछले कमरे से निकल कर वहां आ गए. उन के साथ लतिका व नकुल को देख कर अभय सकपका गया. परमजीत और योगी भागने की कोशिश करने लगे पर हथियारबंद सिपाहियों ने उन्हें पकड़ लिया और अभय को तुरंत हथकडि़यां पहना दीं.

अभय गरजा, ‘‘तुम ने अपनी मौत मोल ले ली, लतिका. हम देख लेंगे तुम्हें.’’

‘‘देख लेना बच्चू, पर पहले तो अपने दिए गए अभी हाल के बयान का यह टेप सुन लो जिस में तुम ने पास के कसबे के बूढ़े दंपती की हत्या की और लूट को स्वीकारा है,’’ पुलिस अफसर ने हंस कर कहा, ‘‘दूसरे, इस जगह वारदात करने के  इरादे से अपने ही हाथ के लिखे इस परचे को पढ़ो जिसे परमजीत ने फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर वहीं फेंक दिया था.’’

सबकुछ देख कर परमजीत और योगी तो लगभग गिड़गिड़ाने लगे पर अभय के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं थी, ‘‘तुम चाहे जो कर लो इंस्पेक्टर, हमारा बाप नेता है. वह घुड़क  देगा तो तुम्हारे सारे होश ठिकाने लग जाएंगे.’’

‘‘वह सब तो अब अदालत में देखेंगे. फिलहाल तो तुम पुलिस के साथ थाने की हवालात में चलो,’’ पुलिस अफसर उन्हें साथ ले गया.

जाते समय लतिका और नकुल से बोला, ‘‘तुम लोग फ्रिक मत करना. डरने की जरूरत नहीं है. ऐसे जाने कितने अपराधियों को मैं ने सीधा किया है.’’

फिर अनायास ही लतिका का हाथ पकड़ कर धीरे से दबाया और कहा, ‘‘धन्यवाद देना चाहता हूं आप को. आप मदद न करतीं तो ये लोग कभी रंगेहाथों न पकड़े जाते.’’

कुछ दिनों बाद पुलिस अफसर लतिका और नकुल से मिलने उन के घर आया तो लतिका के पिता भी घर पर ही थे. खूब सत्कार किया उन का. फिर किसी तरह अपने संकोच को भूल कर पुलिस अफसर ने लतिका के पिता से कुछ कहने का साहस बटोरा, ‘‘मेरे मांबाप नहीं हैं. इसलिए यह बात मुझे ही आप से करनी पड़ रही है. अगर आप लोगों को एतराज न हो तो मैं लतिका जैसी बहादुर युवती से शादी करना चाहूंगा.’’

‘‘आप ने तो हम लोगों के मन की बात कह दी, इंस्पेक्टर,’’ बहुत खुश हुए लतिका के पिता, ‘‘अब विश्वास हो गया कि मेरी बेटी इस कांड के बाद सुरक्षित रह सकेगी वरना हम लोग भयभीत थे कि बदमाशों को सजा दिलवा कर कहीं हम लोग जान न गंवा बैठें.’’

ये भी पढ़ें- अगला मुरगा

‘‘जिम्मेदार नागरिकों के प्रति कुछ हमारी भी जिम्मेदारियां हैं, सर,’’ अफसर ने कहा तो सब मुसकराने लगे और लतिका लजा कर भीतर चली गई.           द्य

भूत की व्यथा

लेखक-  प्रियदर्शी खैरा

मैं ने आवाज की दिशा में देखा तो वहां कोई नहीं था. अंधेरा होने लगा था. मैं मंत्रालय में भूत की कल्पना कर सिहर उठा. लोकतांत्रिक व्यवस्था में मंत्रालय एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, जहां वर्तमान राजामहाराजा  अपने मंत्रियों एवं कारिंदों के साथ बैठ कर राजकाज चलाते हैं. यहां का दरबारे-आम और दरबारे-खास चिट पद्धति अथवा पहुंच पद्धति से चलता है. पहले इन्हें सचिवालय कहते थे. अब मंत्रालय के नाम से जाना जाता है. नाम क्रांति से ले कर कार्य क्रांति तक की संस्कृति का विकास यहीं से हुआ है.

यहां की तख्तियों पर नाम बदलते रहते हैं, किंतु पदनाम स्थायी होते हैं. देश एवं प्रदेश की राजधानियों के ये दर्शनीय

स्थल होते हैं. इन के बाहर

का वातावरण हराभरा और स्वास्थ्यवर्धक रखा जाता है. ताकि यहां से बाहर आ कर आदमी चैन की सांस ले सके.

नया आदमी इन के अंदर आ कर इन की भूलभुलैया में रास्ता भटक जाता है और पुराना आदमी अपने नियत रास्ते पर अनवरत आताजाता रहता है, यही इस स्थान की मूल विशेषता है.

मुझे लगा कोई भूत रास्ता भटक कर मंत्रालय में आ गया है. तभी फिर आवाज आई, ‘‘डरिए नहीं, मैं भी सरकारी कर्मचारी था. मुझे मरे 20 साल हो गए, घर में पत्नी और 2 बच्चे छोड़ कर मरा था. वे 3 से 10 हो गए पर आज तक पेंशन नहीं मिली. आप क्या पेंशन देखते हैं?’’

‘‘नहीं भाई, मुख्य मार्ग से जुलूस निकल रहा था, रास्ता बंद था, इसलिए यहां से आ गया,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘देखो मियां, चिडि़या देख के पहचान लेता हूं, क्यों डर रहे हो. चूना है क्या?’’ उस ने बड़ी आत्मीयता से पूछा.

अब ये तंबाकू मांगेगा, फिर चाय की पूछेगा. कैसा भूत है जो चाय भी पीता  है, तंबाकू भी खाता है, मैं सोच रहा था, फिर पूछा, ‘‘भूत भाई, चूने का क्या करोगे?’’

‘‘कुछ नहीं, फाइल में लगाएंगे. आज ही काम मिला है. ‘नाट अप्रूव्ड’ में ‘नाट’ पर लगाना है. आप की कोई फाइल दबानी हो तो बताएं. स्टोर में फेंक आऊंगा, कभी नहीं मिलेगी,’’ उस ने कहा.

मुझे उस की बातों में मजा आने लगा. पूछा, ‘‘क्या चौकीदार नहीं देखता?’’

एक जोरदार ठहाके की आवाज आई, ‘‘भूत को कौन देखेगा. क्या तुम मुझे देख पा रहे हो? यहां तो कई भूत सक्रिय हैं. तभी तो फाइलें दबती और उड़ती हैं. पर फाइलों के भूत हमेशा जिंदा रहते हैं, मरने पर भी नहीं छोड़ते.’’

फाइलों की महिमा से कौन परिचित नहीं होगा. मंत्रालय फाइलों के माध्यम से ही चलता है.

ये  भी पढ़ें- मुझे नहीं जाना

मैं सोचने लगा जब ईसवी सन 3000 में ऐसे भवन

इतिहास की वस्तु हो जाएंगे

तब इतिहासविद अलगअलग शासनकाल की अपनीअपनी दृष्टि से व्याख्या करेंगे. खुदाई में मिले फाइलों के अवशेषों की इस शोध में विशेष

भूमिका रहेगी. भविष्य में ये फाइलें ऐतिहासिक महत्त्व

की दस्तावेज होंगी. इसलिए इन्हें   राष्ट्रीय   अभिलेखागारों में सुरक्षित रखने की आवश्यकता है. इस में लिखी गई टिप्पणियों पर शोध होगा एवं उन के शब्दार्थ व भावार्थ पर बहसें होंगी कि कौन सी फाइल कितने शासनकालों में चलती हुई सद्गति को प्राप्त हुई, निर्णयों  को किनकिन तत्त्वों ने प्रभावित किया, किस प्रकार निर्णय बदले गए आदि से शासन की विचारधारा संबंधी नतीजे निकाले जाएंगे. अत: यह आवश्यक है कि फाइलें कागजों पर नहीं स्थायी प्रकृति की प्लास्टिक पर अमिट स्याही से लिखी जाएं, जिस से हम आने वाली पीढि़यों को ऐतिहासिक धरोहरें सौंप सकें.

तभी भूत की आवाज ने मेरा ध्यान भंग किया, ‘‘क्या सोच रहे हो मियां, ड्रेस से तो नेता लग रहे हो, ट्रांसफर केस है क्या?’’

भूत मुझे जरूरत से ज्यादा चालाक लगा, धीरेधीरे अपनी औकात दिखा रहा था. मैं ने सहमते हुए कहा, ‘‘नहीं, भूत भाई, यों ही निकल रहा था. रास्ते में आप टकरा गए.’’

‘‘टकराए कहां मियां, हम तो भूत हैं, हम से कौन टकराएगा. हम जब जिंदा थे तब किसी ने हम से टकराने की जुर्रत नहीं की. यूनियन के लीडर थे. बड़ेबड़े अफसरों को छठी का दूध याद दिला दिया. वह भी क्या दिन थे. अफसर भी दमदार होते थे, आज जैसे ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए नहीं घूमते थे.’’

थोड़ी देर की खामोशी के बाद फिर आवाज आई, ‘‘आप तो पहुंचे हुए नेता लग रहे हैं, सर.’’

‘‘नहीं, विधायक हूं,’’ मैं ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘यही तो, मेरी नजर धोखा नहीं खाती श्रीमान. मेरा पेंशन केस निबटवा दें. जनरल केटेगरी का भूत हूं, बच्चे की नौकरी नहीं लगी, कुछ हेल्प कीजिए, पूरी फेमिली परेशान है,’’ भूल का याचनापूर्ण स्वर सुनाई दिया.

‘‘तुम भूत हो, सबकुछ कर सकते हो, खुद क्यों नहीं करते?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘सर, फाइल उड़ाना अलग बात है, काम कराना अलग. मैं यहीं रहा हूं, सब समझता हूं पर क्या करूं, भूत हूं, बेबस हूं, यहां जिंदों के काम नहीं होते, भूतों के क्या होंगे?’’ भूत बेबसी से बोला.

‘‘अरे, भूत तो कहीं भी जा सकता है, फाइल में घुस जाओ और निबटवा लो…’’ मैं ने सुझाव दिया.

‘‘क्या बताऊं सर, भूत तो हवा है और हवा में वजन नहीं होता. एक बार फाइल में घुस गया तो फाइल उड़ गई, फिर से फाइल बनने में 2 वर्ष लग गए…’’ भूत ने व्यथा सुनाई.

‘‘तो फिर काम पूरा करने वाले के सिर पर क्यों नहीं सवार हो जाते?’’ मैं ने रास्ता सुझाया.

‘‘न बाबा न, एक भूत से इस तरह की गलती हो गई थी. फाइल निबटवाने के चक्कर में नेताजी के सिर पर सवार हो गया था. फाइल तो निपटी नहीं, लौट कर आया तो उन के संस्कार साथ ले आया. यहां आ कर यमराज की कुरसी पर दावा ठोक दिया. भूततंत्र में प्रजातंत्र की मांग करने लगा.

हवाई क्रांति की बात उठने लगी. भूतलोक में बवंडर मच गया. यमराज ने बड़ेबड़े आदमी उतारने वाले भूत बुलाए, पर नहीं उतरा. फिर एक सयाना भूत आया, उस ने उसे कुरसी दिखाई. कुरसीमंत्र फूंका, जब से वह भूत उसी कुरसी के चक्कर लगा रहा है.

‘‘एक और मजेदार केस है. एक भूत अफसर को लग गया. लौट के आया तो अंगरेजी बोलने लगा. अब छोटे भूतों पर रौब झाड़ता है, बड़ों की चमचागीरी करता रहता है. एक दिन तो हद ही हो गई. यमराज को पारब्रह्म परमेश्वर कह दिया…’’ कह कर भूत हंसा फिर बोला, ‘‘आप ही कुछ कीजिए न, सर.’’

‘‘बताओ, मैं क्या कर सकता हूं,’’ मैं ने पूछा.

‘‘आप सबकुछ कर सकते हैं, सर. आप महान हैं. बेटे को अनुकंपा नियुक्ति दिला दें. मैं उसे 10 वर्ष का छोड़ के मरा था, अब 30 साल का हो गया है, उम्र निकल जाएगी. अनुकंपा नियुक्ति की फाइल 10 साल से चर्चा में उलझी है,’’ भूत घिघियाता हुआ बोला.

‘‘ठीक है, देखूंगा. एक बात बताओ. यहां तो बहुत से भूत होंगे,’’ मैं ने पूछा.

‘‘बहुत सारे, सर. जगह कम पड़ गई है. कुछ भूतों को नई जगह शिफ्ट कर रहे हैं. साइट सलेक्शन की फाइल महाभूत के यहां 2 साल से पेंडिंग में है. छोटे भूतों ने आपत्ति की है कि वे नई जगह नहीं जाएंगे,’’ भूत ने राज की बात बताई.

‘‘भूत हड़ताल पर जा रहे हैं क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘सर, धीरे बोलिए, महाभूत का चमचा मेरे पीछे ही खड़ा है. आप को नहीं दिखेगा. नमकमिर्च लगा कर चुगली कर देगा. वैसे यहां हड़ताल पर प्रतिबंध है, महाभूत का बड़ा आतंक है. कहीं किसी जिले में पटक दिया

तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा,’’ भूत फुसफुसाया.

‘‘यहां ऐसी क्या खास बात है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘सर, यहां अच्छी सुविधा है, जिलों के बड़ेबड़े भूत भी राजधानी के छोटे भूतों को सलाम करते हैं. जिला पंचायत के अध्यक्ष और मंत्री में अंतर तो स्पष्ट है. यहां काम करने के लिए वाइड फील्ड है, कहीं भी बेटिंग करो,’’ भूत ने समझाया.

‘‘तुम्हारे यहां राजनीति के क्या हाल हैं?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

तभी पत्ते खड़खड़ाए. भूत की डूबती हुई आवाज आई, ‘‘मृत्युलोक की राजनीति का असर अब यहां भी पड़ रहा है. राजनीति पर फिर कभी चर्चा करेंगे. महाभूत का बुलावा आया है, मेरा काम करा दें, सर. यह भूत आप का गुलाम हो जाएगा…’’

ये  भी पढ़ें- टूटे कांच की चमक

मैं मन ही मन मुसकरा रहा था. भूत को क्या बेवकूफ बनाया? भूत भी विधायक के नाम पर पानीपानी हो गया.    द्य

मुझे नहीं जाना

लेखक रंजना शर्मा

शाम 7 बजे जब फोन की घंटी बजी तब ड्राइंगरूम में अलका, उस की मां गायत्री और पिता ज्ञानप्रकाश उपस्थित थे. फोन पर वार्तालाप अलका ने किया.

अलका की ‘हैलो’ के जवाब में दूसरी तरफ से भारी एवं कठोर स्वर में किसी पुरुष ने कहा, ‘‘मुझे अलका से बात करनी है.’’

‘‘मैं अलका ही बोल रही हूं. आप कौन?’’

‘‘मैं कौन हूं इस झंझट में न पड़ कर तुम उसे ध्यान से सुनो जो मैं तुम से कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कहना चाहते हैं आप?’’

‘‘यही कि अपने पतिदेव को तुम फौरन नेक राह पर चलने की सलाह दो, नहीं तो खून कर दूंगा मैं उस का.’’

‘‘ये क्या बकवास कर रहे हो.’’

‘‘मैं बकवास न कर के तुम्हें चेतावनी दे रहा हूं. अलका मैडम,’’ बोलने वाले की आवाज क्रूर हो उठी, ‘‘अगर तुम्हारे पति राजीव ने फौरन मेरे दिल की रानी कविता पर डोरे डालने बंद नहीं किए तो जल्दी ही उस की लाश को चीलकौवे खा रहे होंगे.’’

‘‘ये कविता कौन है मैं नहीं जानती… और न ही मेरे पति का किसी से इश्क का चक्कर चल रहा है. आप को जरूर कोई गलतफहमी…’’

‘‘शंकर उस्ताद को कोई गलतफहमी कभी नहीं होती. मैं ने पूरी छानबीन कर के ही तुम्हें फोन किया है. अगर तुम अपने आप को विधवा की पोशाक में नहीं देखना चाहती हो तो उस मजनू की औलाद राजीव से कहो कि वह मेरी जान कविता के साए से भी दूर रहे.’’

अलका कुछ और बोल पाती इस से पहले ही फोन कट गया.

अपने मातापिता के पूछने पर अलका ने घबराई आवाज में वार्तालाप का ब्योरा उन्हें सुनाया.

गायत्री रोने ही लगीं. ज्ञानप्रकाश ने गुस्से से भर कर कहा, ‘‘तो राजीव इस कविता के चक्कर में उलझा हुआ है. मैं भी तो कहूं कि साल भर अभी शादी को हुआ नहीं और 2 महीने से पत्नी को मायके में छोड़ रखा है. जरूर उस ने इस कविता से गलत संबंध बना लिए हैं.’’

‘‘उस अकेले को दोष मत दो, जी,’’ गायत्री ने सुबकते हुए कहा, ‘‘दामादजी ने तो दसियों बार इस मूर्ख के सामने वापस लौट आने की विनती की होगी, लेकिन इस की जिद के आगे उन की एक न चली.’’

‘‘अलका को कुसूरवार मत कहो. हमारी बेटी ने राजीव से प्रेमविवाह किया है. उसे सुखी रखना उस का कर्तव्य है. अगर अलका अलग घर में जाने की जिद पर अड़ी हुई है तो वह मेरी समझ से कुछ गलत नहीं कर रही,’’ कह कर ज्ञानप्रकाश अलका की तरफ देखने लगे.

‘‘पापा, आप ठीक कह रहे हैं. मैं ने नौकरानी बनने के लिए शादी नहीं की थी राजीव से,’’ अलका ने अपने मन की बात फिर दोहराई.

‘‘अलका, तुम राजीव को फोन कर के इसी वक्त यहां आने के लिए कहो. ऐसी डांट पिलाऊंगा मैं उसे कि इश्क का भूत फौरन उस के सिर से उतर कर गायब हो जाएगा,’’ ज्ञानप्रकाश की आंखों में चिंता व क्रोध के मिलेजुले भाव नजर आ रहे थे.

अलका राजीव को फोन करने के लिए उठ खड़ी हुई.

करीब घंटे भर बाद राजीव अपनी ससुराल पहुंचा. उस के पिता ओंकारनाथ और मां कमलेश भी उस के साथ आए थे. उन तीनों के चेहरों पर चिंता और तनाव के भाव साफ झलक रहे थे.

कुछ औपचारिक वार्तालाप के बाद ओंकारनाथ ने परेशान लहजे में ज्ञानप्रकाश से कहा, ‘‘बहू से फोन पर मेरी भी बात हुई थी. मुझे लगा कि वह किसी बात को ले कर बहुत परेशान है. इसलिए राजीव के साथ उस की मां और मैं ने भी आना उचित समझा.’’

‘‘ये अच्छा ही हुआ कि आप दोनों साथ आए हैं राजीव के. सारी बात आप दोनों को भी मालूम होनी चाहिए. शाम को 7 बजे हमारे यहां एक फोन आया था. फोन करने वाले ने हमें राजीव के बारे में बड़ी गलत व गंदी तरह की सूचना दी है,’’ ज्ञानप्रकाश ने नाराज अंदाज में राजीव को घूरना शुरू कर दिया था.

‘‘फोन किसी शंकर नाम के आदमी का था?’’ कमलेश के इस सवाल को सुन कर अलका और उस के मातापिता बुरी तरह से चौंक उठे.

‘‘आप को कैसे मालूम पड़ा उस का नाम, बहनजी?’’ गायत्री अचंभित हो उठीं.

‘‘क्योंकि उस ने शाम 6 बजे के आसपास हमारे यहां भी फोन किया था. राजीव और उस के पिता घर पर नहीं थे, इसलिए मेरी ही उस से बातें हो पाईं.’’

‘‘क्या कहा उस ने आप से?’’

‘‘उस ने आप से क्या कहा?’’ कमलेश ने उलट कर पूछा.

गायत्री के बजाय ज्ञानप्रकाश ने गंभीर हो कर उन के प्रश्न का जवाब दिया, ‘‘बहनजी, शंकर ऐसी बात कह रहा था जिस पर विश्वास करने को हमारा दिल तैयार नहीं है, लेकिन वह बहुत क्रोध में था और राजीव को गंभीर नुकसान पहुंचाने की धमकी भी दे रहा था. इसलिए राजीव से हमें पूछताछ करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘क्या वह किसी कविता नाम की लड़की से मेरे अवैध प्रेम संबंध होने की बात आप को बता रहा था?’’ राजीव गहरी उलझन और परेशानी का शिकार नजर आ रहा था.

अलका ने उस के चेहरे पर

पैनी नजरें गड़ा कर कहा, ‘‘हां,

कविता की ही बात कर रहा था वह. कौन है ये कविता?’’

‘‘मैं तो सिर्फ एक कविता को ही जानता हूं, जो मेरे विभाग में मेरे साथ काम करती है. तुम्हें याद है शादी के बाद हम एक रात नीलम होटल में डिनर करने गए थे. तब एक लंबी सी लड़की अपने बौयफैं्रड के साथ वहां आई थी. मैं ने तुम्हें उस से मिलाया था, अलका.’’

अलका ने अपनी सास की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘मम्मी, मैं ने आप से उस लड़की का जिक्र घर आ कर किया था. वह राजीव से बहुत खुली हुई थी. उसे ‘यार, यार’ कह कर बुला रही थी. वह अपने बौयफ्रैंड के साथ न होती तो राजीव से उस के गलत तरह के संबंध होने का शक मुझे उसी रात हो जाता. मेरा दिल कहता है कि राजीव जरूर उस के रूपजाल में फंस गया है और उस के पुराने प्रेमी शंकर ने क्रोधित हो कर उसे जान से मारने की धमकी दी है,’’ बोलते- बोलते अलका की आंखें डबडबा आईं, चेहरा लाल हो चला.

‘‘बेकार की बात मुंह से मत निकालो, अलका,’’ राजीव को गुस्सा आ गया, ‘‘घंटे भर से अपने मातापिता को यह बात समझाते हुए मेरा मुंह थक गया है कि कविता से मेरा कोई चक्कर नहीं चल रहा है. अब तुम भी मुझ पर शक कर रही हो. क्या तुम मुझे चरित्रहीन इनसान समझती हो?’’

‘‘अगर दाल में कुछ काला नहीं है तो ये शंकर क्यों जान से मार देने की धमकी तुम्हें दे रहा है?’’ अलका ने चुभते स्वर में पूछा.

‘‘उस का दिमाग खराब होगा. वह पागल होगा. अब मैं कैसे जानूंगा कि वह क्यों ऐसी गलतफहमी का शिकार हो गया है?’’ राजीव चिढ़ उठा.

‘‘अगर वह सही कह रहा हो तो तुम कौन सा अपने व कविता के प्रेम की बात सीधेसीधे आसानी से कुबूल कर लोगे?’’ अलका ने जवाब दिया.

‘‘तब मेरे पीछे जासूस लगवा कर मेरी इनक्वायरी करा लो, मैडम,’’ राजीव गुस्से से फट पड़ा, ‘‘मैं दोषी नहीं हूं, लेकिन मैं एक सवाल तुम से पूछना चाहता हूं. तुम 2 महीने से मुझ से दूर यहां मायके में जमी बैठी हो. ऐसी स्थिति में अगर मैं किसी दूसरी लड़की के चक्कर में पड़ भी जाता हूं तो तुम्हें परेशानी क्यों होनी चाहिए? जब तुम्हें मेरी फिक्र ही नहीं है तो मैं कुछ भी करूं, तुम्हें क्या लेनादेना उस से?’’

‘‘मेरा दिल कह रहा है कि तुम ने मुझ पर लौटने का दबाव बनाने के लिए ही शंकर वाला नाटक किया है. लेकिन तुम मेरी एक बात ध्यान से सुन लो. जब तक तुम मेरे मनोभावों को समझ कर उचित कदम नहीं उठाओगे तब तक मैं तुम्हारे पास नहीं लौटूंगी,’’ अलका झटके से उठ कर अपने कमरे में चली गई.

चायनाश्ता ले कर मेहमान अपने घर लौटने लगे. चलतेचलते ओंकारनाथ ने स्नेह भरा हाथ अलका के सिर पर रख कर कहा, ‘‘बहू, मैं ने कुछ प्रापर्टी डीलरों से कह दिया है तुम दोनों के लिए किराए का मकान ढूंढ़ने के लिए. तुम दोनों का साथसाथ सुखी रहना सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. किराए का मकान मिलने तक अगर तुम घर लौट आओगी तो हम सब को बहुत खुशी होगी.’’

जवाब में अलका तो खामोश रही लेकिन गायत्री ने कहा, ‘‘ये आगामी इतवार को पहुंच जाएगी आप के यहां.’’

मेहमानों के चले जाने के बाद अलका ने कहा, ‘‘मां, एक तो मुझे इस कविता के चक्कर की तह तक पहुंचना है. दूसरे, अगर मैं राजीव के साथ रहूंगी तो उस पर मकान जल्दी ढूंढ़ने के लिए दबाव बनाए रख सकूंगी. इन बातों को ध्यान में रख कर ही मैं ससुराल लौट रही हूं.’’

शुक्रवार की दोपहर में एक अजीब सा हादसा घटा. अलका अपने कमरे में आराम कर रही थी कि खिड़की का कांच टूट कर फर्श पर गिर पड़ा. वह भाग कर ड्राइंगरूम में पहुंची. तभी उस के पिता ने घबराई हालत में बाहर से बैठक में प्रवेश किया और अलका को देख कर कांपती आवाज में उस से बोले, ‘‘शंकर दादा के 2 गुंडों ने पत्थर मार कर शीशा तोड़ा है. पत्थर पर कागज लिपटा है…उसे ढूंढ़. उस में हमारे लिए संदेश लिख कर भेजा है शंकर दादा ने.’’

पत्थर पर लिपटे कागज में टाइप किए गए अक्षरों में लिखा था :

‘अलका मैडम,

अपने पति राजीव की करतूतों का फल भुगतने को तैयार हो जाओ. आज शीशा तोड़ा गया है, कल उस का सिर फूटेगा. कविता सिर्फ मेरी है. उस पर गंदी नजर डालने वाले के पूरे खानदान को तबाह कर दूंगा मैं, शंकर दादा.’

पत्र पढ़ने के बाद गायत्री, ज्ञानप्रकाश व अलका के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं.

पूरी घटना की खबर दोपहर में ही ओंकारनाथ के परिवार तक भी पहुंच गई. खबर सुन कर सभी मानसिक तनाव व चिंता का शिकार हो गए. सब से ज्यादा मुसीबत का सामना राजीव को करना पड़ा. हर आदमी उसे कविता से अवैध प्रेम संबंध रखने का दोषी मान रहा था. वह सब से बारबार कहता कि कविता से उस का कोई गलत संबंध नहीं है, पर कोई उस की बात पर विश्वास करने को राजी न था.

रविवार की सुबह अलका अपने पिता के साथ ससुराल पहुंच गई.

रात को शयनकक्ष में पहुंच कर उन दोनों के बीच बड़ी गरमागरमी हुई. राजीव अपने को दोषी नहीं मान रहा था और अलका का कहना था कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है जो शंकर उस्ताद यों गुस्से से फटा जा रहा है.

आखिरकार राजीव ने अलका को मना ही लिया. तभी उस ने अपनेआप को राजीव की बांहों के घेरे में कैद होने

दिया था.

पूरा एक सप्ताह शांति से गुजरा और फिर शंकर दादा की एक और हरकत ने उन की शांति भंग कर डाली. किसी ने रात में उस की मोटरसाइकिल की सीट को फाड़ डाला था. हैंडिल पर लगे शीशे फोड़ दिए थे. ऊपर से उस पर कूड़ा बिखेरा गया था.

उस के हैंडिल पर एक चिट लगी हुई थी जिस पर छपा था, ‘अब भी अपनी जलील हरकतों से बाज आ जा, नहीं तो इसी तरह तेरा पेट फाड़ डालूंगा.’

राजीव चिट उखाड़ कर उसे गायब कर पाता उस से पहले ही ओंकारनाथ वहां पहुंच गए. उन के शोर मचाने पर पूरा घर फिर वहां इकट्ठा हो गया. जो भी राजीव की तरफ देखता, उस की ही नजरों में शिकायत व गुस्से के भाव होते.

शंकर दादा का खौफ सभी के दिल पर छा गया. दिनरात इसी विषय पर बातें होतीं. राजीव को उस के घर व ससुराल का हर छोटाबड़ा सदस्य चौकन्ना रहने की सलाह देता.

शंकर दादा का अगला कदम न जाने क्या होगा, इस विषय पर सोचविचार करते हुए सभी के दिलों की धड़कनें बढ़ जातीं.

लगभग 10 दिन बिना किसी हादसे के गुजर गए. लेकिन ये खामोशी तूफान के आने से पहले की खामोशी सिद्ध हुई.

एक रात राजीव और अलका 10 बजे के आसपास घर लौटे. एक मारुति वैन उन के घर के गेट के पास खड़ी थी, इस पर उन दोनों ने ध्यान नहीं दिया.

राजीव की मोटरसाइकिल के रुकते ही उस वैन में से 3 युवक निकल कर बड़ी तेज गति से उन के पास आए और दोनों को लगभग घेर कर खड़े हो गए.

‘‘क…कौन हैं आप लोग? क्या चाहते हैं?’’ राजीव की आवाज डर के मारे कांप उठी.

‘‘अपना परिचय ही देने आए हैं हम तुझे, मच्छर,’’ बड़ीबड़ी मूंछों वाले ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘और साथ ही साथ सबक भी सिखा कर जाएंगे.’’

फिर बड़ी तेजी व अप्रत्याशित ढंग से एक अन्य युवक ने अलका के पीछे जा कर एक हाथ से उस का मुंह यों दबोच लिया कि एक शब्द भी उस के मुंह से निकलना संभव न था. बड़ीबड़ी मूंछों वाले ने राजीव का कालर पकड़ कर एक झटके में कमीज को सामने से फाड़ डाला. दूसरे युवक ने उस के बाल अपनी मुट्ठी में कस कर पकड़ लिए.

‘‘हमारे शंकर दादा की चेतावनी को नजरअंदाज करने की जुर्रत कैसे हुई तेरी, खटमल,’’ मूंछों वाले ने आननफानन में 5-7 थप्पड़ राजीव के चेहरे पर जड़ दिए, ‘‘बेवकूफ इनसान, ऐसा लगता है कि न तुझे अपनी जान प्यारी है, न अपने घर वालों की. कविता भाभी पर डोरे डालने की सजा के तौर पर क्या हम तेरी पत्नी का अपहरण कर के ले जाएं?’’

‘‘मैं सौगंध खा कर कहता हूं कि कविता से मेरा कोई प्रेम का चक्कर नहीं चल रहा है. आप मेरी बात का विश्वास कीजिए, प्लीज,’’ राजीव उस के सामने गिड़गिड़ा उठा.

2 थप्पड़ और मार कर मूंछों वाले ने क्रूर लहजे में कहा, ‘‘बच्चे, आज हम आखिरी चेतावनी तुझे दे रहे हैं. कविता भाभी से अपने सारे संबंध खत्म कर ले. अगर तू ने ऐसा नहीं किया तो तेरी इस खूबसूरत बीवी को उठा ले जाएंगे हम शंकर दादा के पास. बाद में जो इस के साथ होगा, उस की जिम्मेदारी सिर्फ तेरी होगी, मजनू की औलाद.’’ फिर उस ने अपने साथियों को आदेश दिया, ‘‘चलो.’’

एक मिनट के अंदरअंदर वैन राजीव व अलका की नजरों से ओझल हो गई. वैन का नंबर नोट करने का सवाल ही नहीं उठा क्योंकि नंबर प्लेट पर मिट्टी की परत चिपकी हुई थी.

पूरे घटनाक्रम की जानकारी पा कर ज्ञानप्रकाश व ओंकारनाथ के परिवारों में चिंता और तनाव का माहौल बन गया. 3 दिन बाद अलका के मातापिता ने सब को रविवार के दिन अपने घर लंच पर आमंत्रित किया.

कुछ मीठा ले आने के लिए ज्ञानप्रकाश और ओंकारनाथ बाजार की तरफ चल दिए. रास्ते में ज्ञानप्रकाश ने तनाव भरे लहजे में अपने समधी से पूछा, ‘‘अलका कैसी चल रही है?’’

ओंकारनाथ ने मुसकरा कर जवाब दिया, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. कल मैं ने राजीव से कहा कि जा कर वह मकान देख आओ जिस का पता प्रापर्टी डीलर ने बताया है. अलका ने मेरी बात सुन कर फौरन कहा कि वह किसी किराए के मकान में जाने की इच्छुक नहीं है. उस का ऐसा ‘मुझे नहीं जाना’ वाला कथन सुन कर मुझे अपनी मुसकान को छिपाना बहुत मुश्किल हो गया था दोस्त. हमारी योजना सफल रही है.’’

‘‘यानी कि अलका की अकेले रहने की जिद समाप्त हुई?’’ ज्ञानप्रकाश एकाएक प्रसन्न नजर आने लगे थे.

‘‘बिलकुल खत्म हुई. सुनो, हमारा कितना नुकसान हुआ है कुल मिला कर?’’ ओंकारनाथ ने जानना चाहा.

‘‘छोड़ो यार,’’ ज्ञानप्रकाश ने कहा, ‘‘मेरी बेटी अलका का जो खून सूख रहा होगा आजकल उस की कीमत क्या रुपयों में आंकी जा सकती है समधी साहब.’’

‘‘ज्ञानप्रकाश, हमतुम अच्छे दोस्त न होते तो अलका की अलग रहने की जिद से पैदा हुई समस्या का समाधान इतनी आसानी से नहीं हो पाता. अब बहू सब के बीच रह कर घरगृहस्थी चलाने के तरीके बेहतर ढंग से सीख जाएगी और चार पैसे भी जुड़ जाएंगे उन के पास,’’ ओंकारनाथ ने अपने समधी के कंधे पर हाथ रख कर अपना मत व्यक्त किया.

‘‘आप का लाखलाख धन्यवाद कि उस के सिर से अलग होने का भूत उतर गया,’’ ज्ञानप्रकाश ने राहत की गहरी सांस ली.

‘‘मुझे धन्यवाद देने के साथसाथ अपने दोस्त के बेटे को भी धन्यवाद दो,  जिस ने शंकर उस्ताद की भूमिका में ऐसी जान डाल दी कि उस की आवाज व हावभाव को याद कर के अलका के अब भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.’’

‘‘नाटकों में भाग लेने का उस का अनुभव हमारे खूब काम आया.’’

‘‘उस को हिदायत दे देना कि जो उस ने किया है हमारे कहने पर, उस की चर्चा किसी से न करे.’’

‘‘मेरे बेटे व बहू को अगर कभी पता लग गया कि उन की रातों की नींद उड़ाने वाला नाटक हमारे इशारे पर खेला गया था तो मेरा तो बुढ़ापा बिगड़ जाएगा. मैं कभी एक शब्द नहीं मुंह से निकालूंगा,’’ ओंकारनाथ ने संकल्प किया.

‘‘हम ने जो किया है, सब के भले को ध्यान में रख कर किया है, समधीजी. कांटे से कांटा निकल गया है. अब शंकर दादा गायब हो जाएंगे तो धीरेधीरे राजीव व अलका सामान्य होते चले जाएंगे. नतीजा अगर अच्छा निकले तो कुछ गलत कार्यशैली को उचित मानना समझदारी है,’’ ज्ञानप्रकाश की बात का सिर हिला कर ओंकारनाथ ने अनुमोदन किया और दोनों अपने को एकदूसरे के बेहद करीब महसूस करते हुए बाजार पहुंच गए.  द्य

मारिया

लेखक- पंकज धवन

दिल्ली का इंदिरागांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा. जहाज से बाहर निकल कर इस धरती पर पांव रखते ही सारे बदन में एक सिहरन सी दौड़ गई. लगा यहां कुछ तो ऐसा है जो अपना है और बरबस अपनी तरफ खींच रहा है. यहां की माटी की सौंधीसौंधी खुशबू के लिए तो पूरे 2 साल तक तरसता रहा है.

ट्राली पर सामान लादे एअरपोर्ट से बाहर निकला. दर्शक दीर्घा में मेरी नजर चारों तरफ घूमने लगी. लंबी कतारों में खड़ी भीड़ में मैं अपनों को तलाश रहा था. मेरे पांव ट्राली के साथसाथ धीरेधीरे आगे बढ़ रहे थे कि पास से ही चाचू की आवाज आई.

मेरी नजर आवाज की ओर घूम गई.

‘‘अरे, नेहा तू?’’ मैं ने हैरानी से उस की ओर देखा.

‘‘हां, चाचू, इधर से आ जाइए. सभी लोग आए हुए हैं,’’ नेहा बोली.

‘‘सब लोग?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी. अपनों से मिलने के लिए मन एकदम बेचैन हो उठा. सामने दीदी, मांबाबूजी को देखा तो मन एकदम भावुक हो गया. मेरी आंखें छलछला आईं. मां ने कस कर मुझे अपने सीने में भींच लिया. भाभी के हाथ में आरती की थाली थी.

‘‘मारिया कहां है,’’ भाभी ने इधरउधर झांकते हुए पूछा.

‘‘भाभी, अचानक उस की तबीयत खराब हो गई इसलिए वह नहीं आ सकी. वैसे आखिरी समय तक वह एकदम आने को तैयार थी.’’

मेरा इतना कहना था कि भाभी का चेहरा उतर गया जिसे मैं ने बड़े करीब से महसूस किया.

‘‘हम लोग तो यह सोच कर यहां आए थे कि बहू को सबकुछ अटपटा न लगे. पर चलो…’’ कहतेकहते मां चुप हो गईं.

‘‘चलो, मारिया न सही तुम ही तिलक करा लो,’’ भाभी ने कहा तो मैं झेंप गया.

‘‘नहीं भाभी, मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता. सब लोग क्या सोचेंगे.’’

‘‘यही सोचेंगे न कि कितने प्यार से भाभी देवर का स्वागत कर रही है. आखिर हमारा भरापूरा परिवार है. भारतीय परंपराएं हैं…’’ बाबूजी बोले.

सच, ऐसे घर को तो मैं तरस गया था. सभी घर आ गए.

‘‘मारिया नहीं आई कोई बात नहीं, तू तो आ गया न,’’ मां ने कहा.

‘‘राहुल क्यों नहीं आता? आखिर अपना खून है, फिर बहन की शादी है. तब तक तो मारिया भी आ जाएगी क्यों बाबू…’’ भाभी ने चुहल की.

‘‘हां भाभी,’’ मैं ने यों ही टालने के लिए कह दिया. बातों का सिलसिला मारिया से आगे बढ़ ही नहीं रहा था फिर उठ कर अनमने मन से सोफे पर लेट गया और सोने का प्रयास करने लगा. तब तक भाभी चाय बना कर ले आईं.

मुझे ऐसे लेटा देख कर बोलीं, ‘‘भैया, आप बहुत थक गए होंगे. भीतर कमरे में चल कर लेट जाइए. बातें तो सुबह भी हो जाएंगी.’’

मेरी आंखों में नींद कहां. परिवारजनों का इतना स्नेह उस विदेशी लड़की के लिए जिस को मैं ने चुना था. मांबाबूजी कितने दिन मुझ से नाराज रहे थे. महीनों तक फोन भी नहीं किया था. आखिर मां ने ही चुप्पी तोड़ी और बेमन से ही सही सबकुछ स्वीकार कर लिया था. स्नेह को बटोरने के लिए वह नहीं थी जिस के लिए यह सबकुछ हुआ था. मुझे रहरह कर बीते दिन याद आने लगे.

मेरी कंपनी ने मुझे अनुभव और योग्यता के आधार पर यूनान भेजने का निर्णय लिया था. मैं भरसक प्रयास करता रहा कि मुझे वहां न जाना पड़े क्योंकि एक तो मुझे विदेशी भाषा नहीं आती थी दूसरे वहां भारतीय मूल के लोगों की संख्या नहीं के बराबर थी. अत: शाकाहारी भोजन मिलने की कोई संभावना न थी. मेरे स्थान पर कोई  और व्यक्ति न मिल पाने के कारण वहां जाना मेरी मजबूरी बन गई थी.

मुझे एथेंस आए 15 दिन हो चुके थे. खाने के नाम पर उबले हुए चावल, ग्रीक सलाद, फ्राई किए टमाटर और गोल सख्त डबलरोटी थी जिन को 15 दिनों से लगातार खा कर मैं पूरी तरह से ऊब चुका था.

भारतीय रेस्तरां मेरे आफिस से 20 किलोमीटर दूर एअरपोर्ट के पास था जहां हर रोज खाने के लिए जाना आसान नहीं था. मेरे आफिस वाले भी इस मामले में मेरी कोई ज्यादा मदद नहीं कर पाए क्योंकि मैं उन्हें ठीक से यह समझा नहीं पाया कि मैं शाकाहारी क्यों हूं.

एथेंस यूरोप का प्रसिद्घ टूरिस्ट स्थान होने के कारण लोग यहां अकसर छुट्टियां मनाने आते हैं. यही वजह है कि यहां के हर चौराहे पर, सड़क के किनारे रेस्तरां तथा फास्टफूड का काफी प्रचलन है. घंटों बैठ कर ठंडी ग्रीक कौफी पीना तथा भीड़ को आतेजाते देखना भी यहां का एक फैशन और लोगों का शौक है.

उस दिन मैं यहां के मशहूर फास्टफूड चेन ‘एवरेस्ट’ के बाहर बिछी कुरसियों पर बैठा वेटर के आने का इंतजार कर ही रहा था कि लालसफेद ड्रेस में लिपटी एक महिला वेटर ने आ कर मुझे मीनू कार्ड पकड़ाना चाहा.

मैं ने उसे देखते ही कहा, ‘मुझे यह कार्र्ड नहीं, बस, एक वेज पिज्जा और कोक चाहिए.’

‘आप कुछ नया खाना नहीं खाना चाहेंगे. कल भी आप ने खाने के लिए यही मंगाया था. यहां का चिकन सूप, क्लब सैंडविच…’

उस महिला वेटर की बात को काटते हुए मैं ने कहा, ‘माफ कीजिए, मैं सिर्फ शाकाहारी हूं.’

‘तो शाकाहारी में वेजचीज सैंडविच, नूडल्स, मैश पोटेटो, फ्रेंच फाइज क्यों नहीं खाने की कोशिश करते?’ वह मुसकरा कर बोलती रही और मैं उस का मुंह देखता रहा कि कब वह चुप हो और मैं ‘नो थैंक्स’ कह कर उस को धन्यवाद दूं्.

मेरे चेहरे को देख कर शायद उस ने मेरे दिल की बात जान ली थी. इसलिए और भीतर आर्डर दे कर मेरे पास आ कर खड़ी हो गई.

‘आप कहां से आए हैं?’

‘इंडिया से,’ मैं ने छोटा सा उत्तर दिया.

‘पर्यटक हैं? ग्रीस घूमने अकेले

ही आए हैं.’

‘नहीं, मैं यहां वास निकोलस में काम करता हूं और कुछ दिन पहले ही यहां आया हूं…और आप?’

‘मैं पढ़ती हूं. यहां पार्र्ट टाइम वेटर  का काम करती हूं, शाम को 4 से 10 तक.’

तब तक भीतर के बोर्ड पर मेरे आर्डर का नंबर उभरा और वह बातों का सिलसिला बीच में ही छोड़ कर चली गई. मैं ने महसूस किया कि यूरोप के बाकी देशों से यूनान के लोग ज्यादा सुंदर, हंसमुख और मिलनसार होते हैं. खाने के साथ यहां भी भारत की तरह पीने को पानी मिल जाता है जिस की कोई कीमत नहीं ली जाती.

उस ने बड़ी तरतीब से मेरी मेज पर कांटे, छुरियों और पेपर नेपकिन के साथ पिज्जा सजा दिया, जिसे देखते ही मेरा मन फिर से कसैला सा हो गया. न जाने क्यों मैं यहां की चीज की गंध को बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.

‘क्या हुआ, ठीक नहीं है क्या?’ मेरे चेहरे के भावों को पढ़ते हुए वह बोली.

‘नहीं यह बात नहीं है. 5 दिन से लगातार जंक फूड खातेखाते मैं बोर हो गया हूं. यहां आसपास कोई भारतीय रेस्तरां नहीं है क्या?’

‘नहीं, पर एक और शाकाहारी भोजनालय है, हरे रामा हरे कृष्णा वालों का, एकदम शुद्घ शाकाहारी. अंडा और चाय भी नहीं मिलती वहां.’

‘वह कहां है?’ मैं ने बड़ी उत्कंठा से पूछा.

‘मुझे उस का पता तो नहीं पर जगह मालूम है. आज मेरी ड्यूटी के बाद तक रुको तो मैं तुम को ले चलूंगी या फिर कल 4 बजे से पहले आना.’

‘मैं कल आऊंगा. क्या नाम है तुम्हारा?’ मैं ने पूछा.

‘मारिया.’

‘और मेरा राहुल.’

इस तरह हमारे मिलने का सिलसिला शुरू हुआ. अब हर शनिवार को हम साथ घूमते और खाते. वह सालोनीकी की रहने वाली थी जो एथेंस से 500 किलोमीटर दूर था. उस के पिता का वहां सिलेसिलाए वस्त्रों का स्टोर था. वह वहां पर अपनी एक सहेली के साथ किराए पर कमरा ले कर रहती थी जिस का खर्च दोनों ही मिलजुल कर वहन करती थीं.

एक दिन बातोंबातों में मारिया ने बताया कि उस के पिता भी मूलत: भारतीय हैं जो बरसों पहले यहां आ कर बस गए थे. परिवार में मातापिता के अलावा एक भाई क्रिस्टोस भी है जो उन के पास ही रहता है. अपने पिता से उस ने भारत के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. उस की मां उस के पिता की भरपूर प्रशंसा करती हैं और कहा करती हैं कि भारतीय व्यक्ति से विवाह कर के मैं ने कोई भूल नहीं की. परिवार के प्रति संजीदा, व्यवहारकुशल, बेहद केयरिंग पति कम से कम यूनानी लोगों में तो कम ही होते हैं.

इस बार एकसाथ 4 छुट्टियां मिलीं तो मारिया बेहद खुश हुई और कहने लगी, ‘चलो, तुम को सैंतारीनी द्वीप ले चलती हूं. यहां के सब से खूबसूरत द्वीपों में से एक

है. वहां का सनसेट और

सन राईज देखने दुनिया भर से लोग आते हैं.’

मेरे तो मन में लाखों घंटियां एकसाथ बजने लगीं कि अब कई दिन एकसाथ रहने और घूमनेफिरने को मिलेगा. चूंकि साथ रहतेरहते वह अब मेरे बारे में बहुत कुछ जान चुकी थी इसलिए रेस्तरां में खुद ही आर्र्डर कर के सामान बनवाती और मुझे उस व्यंजन के बारे में विस्तार से समझाती. मेरी तो जैसे दुनिया ही बदल गई थी. हर चीज इतनी आसान हो गई थी कि मुझे अब एथेंस में रहना अच्छा लगने लगा था.

मारिया के साथ गुजारी गई उन छुट्टियों को मैं कभी नहीं भूल सकता. मैं ने यह भी महसूस किया कि उस को भी मेरा साथ अच्छा लगने लगा था. होटल में हम ने अलगअलग कमरे लिए थे पर उस शाम मारिया मेरे कमरे में आ कर मुझ से बुरी तरह लिपट गई और चुंबनों की बौछार कर दी. मैं भी उसे चाहने लगा था इसलिए सारा संकोच त्याग कर उसे कस कर पकड़ लिया और वह सबकुछ हो गया जो नहीं होना चाहिए था. हम एकदूसरे के और करीब आ गए.

दिन बीतते गए. एक दिन मारिया ने बताया कि उस की रूमपार्टनर वापस अपने शहर जा रही है. मारिया अकेली उस फ्लैट का किराया नहीं दे सकती थी और मुझे भी एक रूम की तलाश थी सो मैं होटल से सामान ले कर उस के साथ रहने लगा.

एक दिन मारिया ने कहा कि वह मुझ से शादी करना चाहती है. नैतिक तौर पर यह मेरी जिम्मेदारी थी क्योंकि मैं भी उसे अब उतना ही चाहने लगा था जितना कि वह. पर तुरंत मैं कोई फैसला नहीं कर सका.

मैं ने कहा, ‘मारिया, मैं तुम्हें चाहता हूं फिर भी एक बार अपने घर वालों से इजाजत ले लूं तो…’

‘इजाजत,’ वह थोड़ा माथे पर त्योरियां चढ़ाते हुए बोली, ‘तुम सब काम उन की इजाजत ले कर करते हो. मेरे साथ घूमने और रहने के लिए भी इजाजत ली थी क्या? खाना खाने, रहने, सोने के लिए भी उन की इजाजत लेते हो क्या?’

‘ऐसी बात नहीं है मारिया, मैं भारतीय हूं. इजाजत न भी सही पर उन को बताना और आशीर्वाद लेना मेरा कर्तव्य है.’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, ‘यह हमारी परंपराएं हैं.’

‘ये परंपराएं तुम्ही निभाओ,’ मारिया बोली, ‘मेरी बात का सीधा उत्तर दो क्योंकि मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनना चाहती हूं.’

एकदम सीधासीधा वाक्य उस ने मेरे ऊपर थोप दिया. मुझे उस से इस तरह के उत्तर की अपेक्षा नहीं थी.

‘मैं ने मम्मीपापा को यह सब बताया तो वे नाराज हो गए और मैं कितने ही दिन तक उन के रूठनेमनाने में लगा रहा. फिर जब मैं ने बताया कि लड़की के पिता भारतीय मूल के हैं तो उन्होंने बड़े अनमने मन से इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया.

कुछ ही दिनों बाद पता चला कि मेरी छोटी बहन की शादी तय हो गई है. मेरा मन भारत जाने के लिए एकदम विचलित हो गया. इसी बहाने मुझे छुट्टी भी मिल गई और भारत जाने को टिकट भी.

मैं ने यह सब मारिया को बताया तो वह भी साथ चलने की तैयारी करने लगी लेकिन जाने से ठीक एक दिन पहले मारिया को न जाने क्या सूझा कि उस ने मेरे साथ जाने से मना कर दिया. मैं ने नाराज हो कर मारिया को कहा कि ऐसे कैसे तुम मना कर रही हो.

‘राहुल मैं अब भारत नहीं जाना चाहती, बस…’

‘परंतु मारिया, मैं ने वहां सब को बता दिया है कि तुम मेरे साथ आ रही हो. सब लोग तुम से मिलने की राह देख रहे हैं. सच तुम भी वहां चल कर बहुत खुश होगी.’

‘मुझे नहीं जाना तो जबरदस्ती क्यों कर रहे हो,’ वह उत्तेजित हो कर बोली.

मैं मायूस हो कर रह गया. मैं यह बात अच्छी तरह जानता था कि मारिया अब मेरे साथ नहीं जाएगी क्योंकि जिस बात को वह एक बार मन में बैठा ले उस पर फिर से विचार करना उस ने सीखा नहीं था.

सुबह काम करने वालों के शोर के साथ ही मेरी निद्रा टूटी. बहन की शादी की घर पर चहलपहल तो थी ही.

बहन को विदा करने के साथसाथ मैं भी पूरा थक चुका था. जब से यहां आया ठीक से मांबाबूजी के पास बैठ भी नहीं सका. मां का पुराना कमर दर्द फिर से उभर कर सामने आ गया और मां बिस्तर पर पड़ गईं.

जैसेजैसे मेरे जाने के दिन करीब आते गए मांबाबूजी की उदासी बढ़ती गई. मेरा भी मन भारी हो आया और मैं ने छुट्टी बढ़वा ली. सभी लोग मेरे इस कुछ दिन और रहने से बहुत खुश हो गए परंतु मारिया नाराज हो गई.

‘‘राहुल तुम वापस आ जाओ. मेरा मन अकेले नहीं लग रहा है.’’

‘‘मारिया, अभी तो सब से मैं ठीक से मिला भी नहीं हूं. शादी की भागदौड़ में इतना व्यस्त रहा कि…फिर अचानक मां की तबीयत खराब हो गई. मैं ने छुट्टी 15 दिन के लिए बढ़वा ली है फिर न जाने कब यहां आना हो सके…’’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया.

कुछ दिनों बाद मारिया का फिर फोन आया. वह थोड़ा गुस्से में थी.

‘‘अब क्या हुआ?’’ मैं ने थोड़ा खीज कर पूछा.

‘‘पापा ने रविवार को मेरे और तुम्हारे लिए एक पार्टी रखी है और उस में तुम को आना ही पड़ेगा,’’ वह निर्णायक से स्वर में बोली.

‘‘मारिया, तुम समझती क्यों नहीं हो,’’ मैं ने थोड़ा गुस्से से कहा, ‘‘यह सब हठ छोड़ दो. मैं जल्दी ही वहां पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘नहीं राहुल, जब पापा को पता चलेगा कि तुम नहीं आ रहे हो तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. मैं ने ही जिद की थी कि आप पार्टी रख लो, राहुल तब तक आ जाएगा. उन के मन में तुम्हारे प्रति कितनी इज्जत है…’’

‘‘यही बात जब मैं ने तुम से कही थी कि मेरे घर वाले…’’

‘‘वह बात और थी डार्ल्ंिग…’’ मारिया बात को टालने की कोशिश करती रही.’’

‘‘नहीं, वह भी यही बात थी. सिर्फ सोच का फर्क है. हमारी परंपराएं इसीलिए तुम से अलग हैं. संयुक्त परिवारों की परंपराएं और एकदूसरे की भावनाओं का आदर करना ही हमारी सब से बड़ी धरोहर है.’’

‘‘देखो राहुल, तुम जानते हो कि यह सब मुझे बरदाश्त नहीं है. एक बार फिर सोच लो कि रविवार तक यहां आ रहे हो या नहीं.’’

‘‘मैं नहीं आ रहा हूं,’’ मैं ने स्पष्ट कहा.

‘‘फिर इस ढंग से तो यह रिश्ता नहीं निभ सकता. मुझे अब तुम्हारी जरूरत नहीं है,’’ मारिया तेज स्वर में बोली.

‘‘मैं भी यही सोच रहा हूं मारिया कि जो लड़की परिवार में घुलमिल नहीं सकती, मुझे भी उस की जरूरत नहीं है. मैं उन में से नहीं हूं कि विदेशी नागरिकता लेने के लिए अपनी आजादी खो दूं. अच्छा है मेरी तुम से शादी नहीं हुई.’’

मुझे आज लग रहा है कि उस से अलग हो कर मैं ने कोई गलती नहीं की है. मांबाबूजी की आंखों में मैं ने अजीब सी चमक देखी है. अपनी कंपनी से मैं ने अपने देश में ही ट्रांसफर करा

लिया है.

मरीचिका

लेखक- मधुप चौधरी

अंतिम भाग

पूर्व कथा

इस बीच विवेक की पुरानी फाइल में सीमा को एक लड़की की तस्वीर और कुछ चिट्ठियां हाथ लगती हैं जिन में ‘मेरे प्यारे पतिदेव’ के संबोधन के साथ उस लड़की ने विवेक को प्रेम संबंधी बातें लिखी थीं. मौका देखते ही इस बात को ले कर सीमा विवेक से झगड़ती है. और गुस्से में हाथ की नस भी काट लेती है. फिलहाल इलाज करवा कर ससुराल वाले घबरा कर उसे मायके भेज देते हैं.

मायके आ कर सीमा ननिहाल जा कर राहुल से मिलती है. लेकिन राहुल उसे यही एहसास दिलाता है कि अब वह एक

विवाहिता है.

सीमा ससुराल वापस आ जाती है लेकिन उसे अब भी विवेक पर भरोसा नहीं होता.  विवेक सीमा को समझाता है कि प्रतिमा से वह प्यार जरूर करता था लेकिन उस के साथ विवाह नहीं हुआ था क्योंकि पता चल गया था कि वह पहले से शादीशुदा है. अब आगे…

गतांक से आगे

विवेक ने फिर ठहर कर कहा, ‘‘मैं जानता था इस बारे में तुम्हें किसी भी सूत्र से जानकारी मिलेगी तो तुम्हें आघात पहुंचेगा और मुझे गलत समझने लगोगी. अच्छा हुआ, आज तुम ने मुझे बताने का मौका दे दिया. वह मेरा अतीत था सीमा, जिस से अब मेरा कोई वास्ता नहीं. मेरा वर्तमान तुम हो. मां, पापा, घर के सभी लोग तुम से प्यार करते हैं, यही चाहते हैं कि तुम भी इस घर को अपना घर समझो. यह तुम्हारा घर है.’’

मन के भीतर महीनों से छिपे गुबार को निकाल कर विवेक को बड़ा हलका महसूस हुआ. उसे लगा, सीमा के सामने अपना दिल खोल कर उस ने बहुत अच्छा किया. सीमा निर्णय और अनिर्णय के दोराहे पर खड़ी थी. इसी उधेड़बुन और अनिर्णय की स्थिति में ढाई साल का वक्त गुजर गया. इस बीच एक पुत्र को जन्म दे कर सीमा ने मातृत्व का सुख भी प्राप्त कर लिया.

विवेक के घरवालों ने सोचा, ‘मां बनने के बाद सीमा अब सहज हो जाएगी और बारबार मायके पहुंचा देने की जिद छोड़ कर इस घर को अपना समझने लगेगी.’

पर मां बनने के बावजूद सीमा अपनी सोच और स्थितियों में ठीक तालमेल नहीं बैठा पा रही थी. तभी एक घटना घट गई. उस वक्त विवेक की मां घर पर नहीं थी, किसी पड़ोसिन के घर गई थी. समर नारायण और विवेक दोनों अपने काम पर निकले हुए थे. समीर भी घर पर नहीं था. छोटी बहन रजनी की शादी हो चुकी थी और वह अपने ससुराल में रहने लगी थी. सीमा का बच्चा भी 6 महीने का हो चुका था. अब वह स्थिर नहीं रहता था. पलटनियां मारने लगा था. सीमा उसे पलंग पर सुला कर किसी काम से बाहर निकली तभी पलटनियां मारते हुए वह पलंग से नीचे गिर पड़ा. उस का सिर फट गया. चीख सुन कर पड़ोस से सास और बाहर से सीमा दौड़ी. बच्चा खून से लथपथ बेहोश हो गया था. देख कर सासबहू दोनों के होश उड़ गए. उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. टांके पड़े. बच्चा बाद में होश में आ गया. घर लौटने पर विवेक को जब सारी बात का पता चला तो वह होश खो बैठा.

पहली बार सीमा पर वह

क्रुद्ध शेर की

तरह दहाड़ा, ‘‘तुम्हें बारबार कहा है, कहीं जाओ तो उस के तीनों तरफ तकिया लगा दो. आज उसे कुछ हो जाता तो…’’

‘‘आप को क्या, मेरा बच्चा है, मैं समझती,’’ सीमा ने पलट कर जवाब दिया. ‘‘तुम्हारा बच्चा, तुम क्या अपने बाप के यहां से ले कर आई हो इसे?’’

‘‘आप बारबार मेरे बाप का नाम मत लिया कीजिए…’’

बच्चे की हालत पर विवेक का दिमाग गरम था. सीमा के जबान लड़ाने से उस का पारा और भी चढ़ गया. क्रोध में अनजाने ही हाथ उठ गया और उस ने  सीमा के गाल पर कस कर तमाचा जड़ दिया.

सीमा हतप्रभ रह गई. विवेक ऐसी हिम्मत कर सकता है, यह उम्मीद नहीं थी उसे. वह कु्रद्ध नागिन सी फुंकारती विवेक से उलझ गई. उस ने विवेक की शर्ट फाड़ डाली. बनियान नोच डाली. शरीर पर कई जगह खरोंचें डालीं. विवेक अपना बचाव करता रहा. उसे पश्चात्ताप हो रहा था कि उस ने नाहक सीमा पर हाथ उठाया. बच्चे की दशा देख क्रोध में आपा खो बैठा. सीमा के शांत होने पर उस ने माफी मांग लेने की सोची. मां और छोटे भाई समीर ने बीचबचाव कर विवेक को वहां से हट जाने के लिए कहा.

दूसरे दिन विवेक और समर नारायण अपनेअपने काम पर चले गए. समीर भी दोस्तों के साथ निकल गया.

सीमा को अटैची में कपड़े रखते देख विवेक की मां ने सशंकित स्वर में पूछा, ‘‘क्या कर रही हो बहू?’’

सीमा ने जलती आंखों से सास को देखा. कोई जवाब नहीं दिया. अपना काम करती रही.

इस के बाद बच्चे को गोद में ले कर अटैची उठा कर चलने लगी तो सास ने टोका, ‘‘कहां जा रही हो, बहू?’’

‘‘कहीं भी जाऊं, आप को क्या?’’

‘‘बहुएं इस तरह घर से नहीं जाया करतीं, बेटी,’’ विवेक की मां ने दीनता से कहा, ‘‘कल विवेक ने गुस्से में तुम पर हाथ उठा दिया, पर इस का दुख उसे भी है. बच्चे की हालत देख वह आपे से बाहर हो गया था.’’

‘‘आप का बेटा मर्द है न, औरत को गुलाम और पांव की जूती समझने वाला. आप अपने जमाने में यह सब सहती और बरदाश्त करती होंगी, मैं नहीं सहने वाली.’’

विवेक की मां असहाय हो गिड़गिड़ाती रही. कोई आसपास था भी नहीं जिसे वह सीमा को रोकने के लिए कहती. सीमा उसे धकिया कर, गोद में बच्चा और हाथ में अटैची लिए निकली और बाहर जाते हुए एक रिक्शे पर बैठ कर चली गई. विवेक की मां धम्म से जमीन पर बैठ गई.

राहुल सुबह की दौड़ लगा कर अभी लौटा ही था. अपने घर के बंद दरवाजे के सामने गोद में बच्चा और हाथ में अटैची लिए सीमा को खड़े देखा तो अवाक् रह गया.

‘‘क्या बात है, सीमा, इतनी सुबहसुबह, ससुराल से आ रही हो?’’ उस ने पूछा.

‘‘हां, मैं वह घर हमेशा के लिए छोड़ कर तुम्हारे पास रहने के लिए आ गई हूं, राहुल.’’

राहुल संभल कर बोला, ‘‘तुम अभी अपनी नानी के घर जाओ, समय निकाल कर बातें करते हैं. चलो, मैं तुम्हें छोड़ आऊं,’’ सीमा को राहुल का जवाब कुछ अच्छा नहीं लगा. उसे ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी.

अटैची उठाते हुए वह बोली, ‘‘नहीं, मैं चली जाऊंगी.’’

दोपहर बाद लगभग 3 बजे सीमा राहुल से मिली, मंदिर के पास वाले बगीचे में. उस की नजर राहुल के चेहरे पर टिकी हुई थी कि वह कुछ बोलेगा, जिस से उस की आगे की दिशा तय होगी. पर राहुल किसी सोच में डूबा हुआ था. नजरें झुकी हुई थीं. चेहरे पर उत्साह के बजाय गहरी चिंता की रेखाएं थीं.

सीमा ने ही टोका, ‘‘तुम ने कुछ बताया नहीं, राहुल, क्या तय किया?’’

‘‘कैसे बताऊं सीमा, जिंदगी के गंभीर निर्णय क्या इतनी आसानी से लिए जा सकते हैं, जिस तरह तुम लेती हो,’’ राहुल के स्वर में झुंझलाहट थी, ‘‘कुंआरेपन की बात अलग थी. अब तुम शादीशुदा हो, किसी की पत्नी हो, किसी परिवार की बहू हो, और अब एक बच्चे की मां भी हो. अगर मैं तुम्हें अपनाऊं तो दुनिया क्या कहेगी? मेरे मातापिता कभी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे. समाज हम पर थूकेगा.’’

राहुल की बातें सुन कर सीमा सन्न रह गई. उस ने अविश्वास से राहुल के चेहरे की ओर देखा.

‘‘भावना और यथार्थ में फर्क होता है. किसी की भागी हुई पत्नी के साथ शादी कर लूं्. मेरी आत्मा इस की गवाही नहीं देती. आखिर मेरे मांबाप हैं, समाज है. हमारा समाज अभी इतना उन्नत नहीं हुआ कि हम अमेरिका की नकल करने लगें. तुम्हें सुनने में बुरा लगेगा, सीमा, पर मैं मन की बात कह ही दूं.’’ राहुल ने बगैर रुके कहना जारी रखा, ‘‘जब अग्नि के 7 फेरे ले कर 7 वचन निभाने की कसमें खाने के बावजूद तुम ने अपने मातापिता, समाज, पति और उस के परिवार के विश्वास के साथ घात किया तो तुम पर कैसे यकीन किया जा सकता है कि तुम मेरे साथ भी वैसा ही विश्वासघात नहीं करोगी?’’

‘‘राहुल,’’ सीमा तिलमिला उठी, ‘‘क्यों झूठ बोल रहे हो. मैं तुम्हारे प्यार की खातिर…’’

सीमा की बात राहुल ने बीच में ही काट दी, ‘‘झूठ मैं नहीं तुम बोल रही हो, सीमा. मेरे प्यार की खातिर नहीं, अपनी जिद, अहंकार और बदमिजाजी के कारण तुम वह घर छोड़ कर आई हो. मेरे प्यार का तुम्हें इतना ही खयाल होता तो लग्न मंडप में विवेक के गले में वरमाला नहीं डालतीं, मुझ से शादी की आवाज उठातीं. तुम समझती हो मैं तुम्हारी शादी में नहीं गया था. मैं गया था और तुम्हें विवेक को वरण करते देख लौट आया था.’’

सीमा टूट गई. पहली बार उस ने स्वयं को इतना असहाय महसूस किया. प्रयत्न कर के भी वह अपने आंसुओं को रोक नहीं सकी.

‘‘मैं चलता हूं,’’ कह कर राहुल उठ खड़ा हुआ और सीमा को सुबकता छोड़ चला गया.

थोड़ी देर में सीमा की आंखों के आंसू सूख गए. आंचल से चेहरे को पोंछती हुई वह उठी, फिर थकेहारे मन और निष्प्राण से शरीर से पांव जिधर उठे, चल पड़ी.

सीमा अपने नाना के घर के सामने पहुंची तो शाम होने को थी. दिन भर की तीखी धूप वाले सूर्य का ताप ठंडा पड़ चुका था. क्षितिज पर गोधूलि की लालिमा फैलने से वातावरण सुहावना लगने लगा था.

नानी ने उसे देखते ही कहा, ‘‘कहां चली गई थी तू. हमें कितनी चिंता हुई. बच्चा कब से भूख से रो रहा है.’’

अचानक सीमा की प्राणशक्ति जैसे लौट आई. वह घर के भीतर दौड़ी. देख कर अवाक् रह गई. विवेक आया हुआ था. बच्चा उसी की गोद में था. शायद भूख के मारे रोतेरोते थक कर सो गया था. विवेक को देख कर सीमा के पैर ठिठक गए.

‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं, सीमा. मां और पापा ने तुम्हें साथ ही लेते आने को कहा है,’’ सीमा को देखते ही विवेक ने कहा.

सीमा से कुछ कहते नहीं बन पड़ा, वह चुप रही.

विवेक ने कहा, ‘‘मेरी गलती थी, जो मैं ने तुम पर हाथ उठाया.’’

‘‘घर से पैर बाहर निकाल कर मैं ने भी गलती की,’’ सीमा बुदबुदाई.

‘‘जो हो गया उसे भूल जाओ, सीमा,’’ विवेक बोला, ‘‘गलती आदमी से ही होती है और गलतियों पर पश्चात्ताप कर के आदमी ऊपर उठता है, महान बनता है.’’

‘‘मुझे मालूम है, अभी तुम कहां से आ रही हो,’’ सीमा की आंखों में बेचैनी को भांप कर विवेक ने फिर कहा, ‘‘घबराओ मत, राहुल के बारे में हमें शादी के पहले से पता है. मां और पापा को भी. पर राहुल तुम्हारा अतीत है, जैसे प्रतिमा मेरा. अतीत की यादें तो ठीक हैं पर उन की चाहत की मरीचिका में जिया नहीं जा सकता.’’

तभी बच्चे ने सूसू कर दिया. वह गीलेपन के कारण रोने लगा. सीमा दौड़ कर विवेक के पास पहुंची. बच्चे को उस के हाथ से ले कर उस की गीली पैंट उतारी. फिर गोद में ले कर उसे दूध पिलाने लगी.      द्य

हमकदम

अधिक खुशी से रहरह कर अनन्या की आंखें भीग जाती थीं. अब उस ने एक मुकाम पा लिया था. संभावनाओं का विशाल गगन उस की प्रतीक्षा कर रहा था. पत्रकारों के जाने के बाद अनन्या उठ कर अपने कमरे में आ गई. शरीर थकावट से चूर था पर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. एक पत्रकार के प्रश्न पर पति द्वारा कहे गए शब्द कि इन की जीत का सारा श्रेय इन की मेहनत, लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति को जाता है, रहरह कर उस के जेहन में कौंध जाते.

कितनी आसानी से चंद्रशेखर ने अपनी जीत का सेहरा उस के सिर बांध दिया. अगर कदमकदम पर उसे उन का साथ और सहयोग नहीं मिला होता तो वह आज विधायक नहीं गांव के एक दकियानूसी जमींदार परिवार की दबीसहमी बहू ही होती.

इस मंजिल तक पहुंचने में दोनों पतिपत्नी ने कितनी मुश्किलों का सामना किया है यह वे ही जानते हैं. जीवन की कठिनाइयों से जूझ कर ही इनसान कुछ पाता है. अपने वजूद के लिए घोर संघर्ष करने वाली अनन्या सिंह इस महत्त्वपूर्ण बात की साक्षी थी.

उस का मन रहरह कर विगत की ओर जा रहा था. तकिए पर टेक लगा कर अधलेटी अनन्या मन को अतीत की उन गलियों में जाने से रोक नहीं पाई जहां कदमकदम पर मुश्किलों के कांटे बिछे पड़े थे.

बचपन से ही अनन्या का स्वभाव भावुक और संवेदनशील था. वह सब के आकर्षण का केंद्र बन कर रहना चाहती थी. दफ्तर से घर आने पर पिता अगर एक गिलास पानी के लिए कहीं उस के छोटे भाई या बहन को आवाज दे देते तो वह मुंह फुला कर बैठ जाती. पूछो तो होंठों पर बस, एक ही जुमला होता, ‘पापा मुझ से प्यार नहीं करते.’

ये भी पढ़ें- स्वस्थ दृष्टिकोण

बातबात पर उसे सब के प्यार का प्रमाण चाहिए था. कभीकभी मां बेटी की हठ देख कर चिंतित हो उठतीं. एक बार उन्होंने अनन्या के पिता से कहा भी था, ‘अनु का स्वभाव जरा अलग ढंग का है. अगर इसे आप इतना सिर पर चढ़ाएंगे तो कल ससुराल में कैसे निबाहेगी? न जाने कैसा घरपरिवार मिलेगा इसे.’

‘तुम चिंता क्यों करती हो, समय सबकुछ सिखा देता है. हम से जिद नहीं करेगी तो किस से करेगी?’ अनु के पिता ने पत्नी को समझाते हुए कहा था.

एक दिन अनन्या के मामा ने उस के लिए चंद्रशेखर का रिश्ता सुझाया तो उस के पिता सोच में पड़ गए.

‘अभी उस की उम्र ही क्या हुई है शिव बाबू, इंटर की परीक्षा ही तो दी है. इस साल आगे पढ़ने का उसे कितना चाव है.’

‘देखिए जीजाजी, इतना अच्छा रिश्ता हाथ से मत निकलने दीजिए, पुराना जमींदार घराना है. उन का वैभव देख कर भानजी के सुख की कामना से ही मैं यह रिश्ता लाया हूं. अनन्या के लिए इस से अच्छा रिश्ता नहीं मिलेगा,’ शिवप्रकाशजी ने समझाया तो अनन्या के पिता राजी हो गए.

पहली मुलाकात में ही चंद्रशेखर और उस का परिवार उन्हें अच्छा लगा था. उन्होंने बेटी को समझाते हुए कहा था, ‘चंद्रशेखर एक नेक लड़का है, तुम्हारी इच्छाओं का वह जरूर आदर करेगा.’

शादी के बाद अनन्या दुलहन बन कर ससुराल चली आई. गांव में बड़ा सा हवेलीनुमा घर, चौड़ा आंगन, लंबेलंबे बरामदे, भरापूरा परिवार, कुल मिला कर उस के मायके से ससुराल का परिवेश बिलकुल अलग था. मायके में कोई रोकटोक नहीं थी पर ससुराल में हर घड़ी लंबा घूंघट निकाले रहना पड़ता था. आएदिन बूढ़ी सास टोक दिया करतीं, ‘बहू, घड़ीघड़ी तुम्हारे सिर से आंचल क्यों सरक जाता है? ढंग से सिर ढंकना सीखो.’

चंद्रशेखर अंतर्मुखी प्रवृत्ति का इनसान था. प्रेम के एकांत पलों में भी वह मादक शब्दों के माध्यम से अपने दिल की बात कह नहीं पाता था और बचपन से ही बातबात पर प्रमाण चाहने वाली अनन्या उसे अपनी अवहेलना समझने लगी थी.

पुराना जमींदार घराना होने के कारण उस की ससुराल वाले बातबात पर खानदान की दुहाई दिया करते थे और उन के गर्व की चक्की में पिस जाती साधारण परिवार से आई अनन्या. सुनसुन कर उस के कान पक गए थे.

एक दिन अनन्या ने दुखी हो कर पति से कहा, ‘आप के जाने के बाद मैं अकेली पड़ी बोर हो जाती हूं. गांव में कहीं आनेजाने और किसी के साथ खुल कर बातें करने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं समय का सदुपयोग करना चाहती हूं. आप तो जानते ही हैं कि मैं ने प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया है. मैं और आगे पढ़ना चाहती हूं, पर मुझे नहीं लगता यह संभव हो पाएगा. बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी, दादी मां, बाबूजी क्या मुझे आगे पढ़ने देंगे?’

चंद्रशेखर ने पत्नी की ओर गहरी नजर से देखा. पत्नी के चेहरे पर आगे पढ़ने की तीव्र लालसा को महसूस कर उस ने मन ही मन परिवार वालों से इस बारे में सलाह लेने की सोच ली.

उधर पति को चुपचाप देख कर अनन्या सोच में पड़ गई. उस के अंतर्मन की मिट्टी से पहली बार शंका की कोंपल फूटी कि यह मुझ से प्यार नहीं करते तभी तो चुप रह गए. आखिर खानदान की इज्जत का सवाल है न.

ये भी पढ़ें- विरासत

अनन्या 2-3 दिनों तक मुंह फुलाए रही. चंद्रशेखर ने भी कुछ नहीं कहा. एक दिन आवश्यक काम से चंद्रशेखर को पटना जाना पड़ा. लौटा तो चेहरे पर एक अनजानी खुशी थी.

रात का खाना खाने के बाद चंद्रशेखर भी अपने बाबूजी के साथ टहलने चला गया. थोड़ी देर में बाबूजी का तेज स्वर गूंजा, ‘शेखर की मां, देखो, तुम्हारा लाड़ला क्या कह रहा है.’

‘क्या हुआ, क्यों आसमान सिर पर उठा रखा है?’ चंद्रशेखर की मां रसोई से बाहर आती हुई बोलीं.

‘यह कहता है कि बहू आगे पढ़ने कालिज जाएगी. विश्वविद्यालय जा कर एडमिशन फार्म ले भी आया है. कमाता है न, इसलिए मुझ से पूछने की जरूरत भी क्या है?’ ससुरजी फिर भड़क उठे थे.

‘लेकिन बाबूजी, इस में गलत क्या है?’ चंद्रशेखर ने पूछा तो मां बिदक कर बोलीं, ‘तेरा दिमाग चल गया है क्या? हमारे खानदान की बहू पढ़ने कालिज जाएगी. ऐसी कौन सी कमी है महारानी को इस घर में, जो पढ़लिख कर कमाने की सोच रही है?’

‘मां, तुम क्यों बात का बतंगड़ बना रही हो? यह तुम से किस ने कहा कि यह पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती है? इसे आगे पढ़ने का चाव है तो क्यों न हम इसे बी.ए. में दाखिला दिलवा दें,’ चंद्रशेखर ने कहा तो अपने कमरे में परदे के पीछे सहमी सी खड़ी अनन्या को जैसे एक सहारा मिल गया.

पास ही खड़ी बड़ी भाभी मुंह बना कर बोलीं, ‘देवरजी, हम भी तो रहते हैं इस घर में, बी.ए. करो या एम.ए., आखिरकार चूल्हाचौका ही संभालना है.’

‘छोड़ो बहू, यह नहीं मानने वाला, रोज कमानेखाने वाले परिवार की बेटी ब्याह कर लाया है. छोटे लोग, छोटी सोच,’ अनन्या की सास ने कहा और भीतर चली गईं.

दरवाजे के पास खड़ी अनन्या सन्न रह गई, छोटे लोग छोटी सोच? यह क्या कह गईं मांजी? क्या अपने भविष्य के बारे में चिंतन करना छोटी सोच है? बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी यह क्यों भूल जाती हैं कि अच्छे खानदान की जड़ में अच्छे संस्कार होते हैं और शिक्षित इनसान ही अच्छे संस्कारों को हमेशा जीवित रखने का प्रयास करते हैं.

रात बहुत बीत चुकी थी. अनन्या की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. चंद्रशेखर भी करवटें बदल रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, ‘अनन्या, तुम कल सुबह फार्म भर कर मुझे दे देना. मैं ने सोच लिया है कि तुम आगे जरूर पढ़ोगी.’

अनन्या को आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई, ‘सच?’

‘हां, मैं परसों पटना जा रहा हूं, तुम्हारा फार्म भी विश्वविद्यालय में जमा करता आऊंगा.’

एक दिन चंद्रेशेखर बैंक से लौटा तो बेहद खुश था. उस ने अनन्या से कहा, ‘आज पटना से मेरे दोस्त रमेश का फोन आया था. बता रहा था कि तुम्हारा नाम प्रवेश पाने वालों की सूची में है. प्रवेश लेने की अंतिम तिथि 25 है. तुम कल से ही सामान बांधना शुरू कर दो. हमें परसों जाना है क्योंकि जल्दी पहुंच कर तुम्हारे लिए होस्टल में रहने की भी व्यवस्था करनी होगी.’

‘मैं होस्टल में रहूंगी?’ अनन्या ने पूछा, ‘घर से दूर…अकेली…क्या यहां कालिज नहीं है?’ उस ने अपने मन की बात कह ही डाली.

‘देखो, विश्वविद्यालय की बात ही अलग होती है. तुम ज्यादा सोचो मत. चलने की तैयारी करो. मैं बाबूजी को बता कर आता हूं,’ कहते हुए चंद्रशेखर बाबूजी के कमरे की ओर चला गया.

पटना आते समय अनन्या ने सासससुर के चरणस्पर्श किए तो सास ने उसे झिड़क कर कहा था, ‘जाओ बहू, बेहद कष्ट में थीं न तुम यहां…अब बाहर की दुनिया देखो और मौज करो.’

चंद्रशेखर के प्रयास से अनन्या को महिला छात्रावास में कमरा मिल गया. उसे वहां छोड़ कर आते वक्त उस ने कहा था, ‘तुम्हारे भीतर की लगन को महसूस कर के ही मैं ने अपने परिवार वालों की इच्छा के खिलाफ यह कदम उठाया है. मैं जानता हूं कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी. किसी चीज की जरूरत हो तो फोन कर देना.’

अनन्या ने धीरे से सिर हिला दिया था. होस्टल के गेट पर खड़ी हो कर वह तब तक पति को देखती रही जब तक वह नजरों से ओझल नहीं हो गए.

उस का मन यह सोच कर दुख से भर उठा था कि उन्होंने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. कितनी निष्ठुरता से छोड़ गए मुझे. इतना तो कह ही सकते थे न कि अनु, मुझे तुम्हारी कमी खलेगी, पर नहीं, सच में मुझ से प्यार हो तब न…

आंसू पोंछ कर वह अपने कमरे में चली आई. कुछ दिनों तक उस का मन खिन्न रहा पर धीरेधीरे सबकुछ भूल कर वह पढ़ाई में रम गई. तेज दिमाग अनन्या ने बी.ए. फाइनल की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए.

एम.ए. में प्रवेश लेने के बाद वह कुछ दिन की छुट्टी में घर आई थी. एक दिन चंद्रशेखर ने उस से कहा, ‘एम.ए. में तुम्हें विश्वविद्यालय में पोजीशन लानी है. उस के लिए बहुत मेहनत की जरूरत है तुम्हें.’

अनु ने सोचा, छुट्टियों में घर आई हूं तब भी वही पढ़ाई की बातें, प्रेम की मीठीमीठी बातों का मधुरिम एहसास और वह दीवानापन न जाने क्यों चंद्रशेखर के मन में है ही नहीं. जब देखो पढ़ो, कैरियर बनाओ…उन्हें मुझ से जरा भी प्यार नहीं.

‘अनु, कहां खो गईं?’ चंद्रशेखर ने कहा, ‘देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं.’

ये भी पढ़ें- आईना

चंद्रशेखर कहता जा रहा था और अनु जैसे जड़ हो गई थी. मन में विचारों का बवंडर चल रहा था, ‘क्या यही प्यार है? न रस पगे दो मीठे बोल, न मनुहार…ज्यादा खुश हुए तो गए और हिंदी साहित्य की किताब उठा कर ले आए. स्वार्थी कहीं के…’

‘अनु, मैं तुम्हें कुछ दिखा रहा हूं,’ चंद्रशेखर ने फिर कहा तो अनन्या बनावटी हंसी हंस कर बोली, ‘हां, अच्छी किताब है.’

अनन्या ने मन ही मन एक ग्रंथि पाल ली थी कि चंद्रशेखर मुझ से प्यार नहीं करते. तभी तो अपने से दूर मुझे होस्टल भेज कर भी खुश हैं. क्या प्रणय की वह स्वाभाविक आंच जो मुझे हर समय जलाती रहती है, उन्हें तनिक भी नहीं जलाती होगी? शायद नहीं, उन्हें मुझ से प्यार हो तब न…

इन्हीं दिनों अनन्या को पता चला कि वह मां बनने वाली है. पूरा परिवार खुश था. एक दिन चंद्रशेखर ने उस को समझाते हुए कहा, ‘तुम्हें बच्चे के जन्म के बाद परीक्षा देने जरूर जाना चाहिए. साल बरबाद मत करना, बीता समय फिर लौट कर नहीं आता.’

अनन्या पति के साथ कुछ दिनों के लिए मायके आई थी. एक शाम घूमने के क्रम में वह गोलगप्पे वाले खोमचे के सामने ठिठक गई तो चंद्रशेखर ने पूछ लिया, ‘क्या हुआ?’

‘मुझे गोलगप्पे खाने हैं.’

‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं चल गया. अपना नहीं तो कम से कम बच्चे का तो खयाल करो,’ चंद्रशेखर ने गुस्से से कहा तो अनन्या पैर पटकती हुई घर चली आई.

‘आप ने एक छोटी सी बात पर मुझे इतनी बुरी तरह क्यों डांटा? एक छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते? अरमान ही रह गया कि आप कभी कोई उपहार देंगे या फिर कहीं घुमाने ले जाएंगे. मेरी खुशी से आप को क्या लेनादेना…मुझ से प्यार हो तब न. जब देखो, पढ़ो…कैरियर बनाओ, जैसे दुनिया में और कुछ है ही नहीं,’ रात में अनन्या मन की भड़ास निकालते हुए बोली.

चंद्रशेखर कुछ पलों तक अपलक पत्नी को निहारता रहा फिर संजीदा हो कर बोला, ‘तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम से प्यार नहीं करता, पतिपत्नी का रिश्ता तो प्रेम और समर्पण की डोरी से बंधा होता है.’

‘अपनी सारी फिलासफी अपने तक ही रखिए. मैं अच्छी तरह जानती हूं कि आप मुझ से…’ ‘हांहां, मैं तुम से प्यार नहीं करता, मुझे प्रमाण देने की जरूरत नहीं है,’ चंद्रशेखर बीच में ही अनन्या की बात काट कर बोला.

एक दिन अनन्या गुडि़या जैसी बेटी की मां बन गई. जब बच्ची 3 महीने की हो गई तब चंद्रशेखर ने पत्नी से कहा कि उसे अब एम.ए. की परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए.

‘क्या मैं 6 महीने में परीक्षा की तैयारी कर पाऊंगी? सोचती हूं इस साल ड्राप कर दूं. अभी गुडि़या छोटी है.’

पत्नी की बातों को सुन कर उसे समझाते हुए चंद्रशेखर बोला, ‘देखो, अनन्या, पढ़ाईर् एक बार सिलसिला टूट जाने के बाद फिर ढंग से नहीं हो पाती. मैं गुडि़या के बारे में मां से बात करूंगा.’

अनन्या को लगा जैसे कोई मुट्ठी में ले कर उस का दिल भींच रहा हो. इतना बड़ा फैसला ऐसे सहज ढंग से सुना दिया जैसे छोटी सी बात हो. मेरी नन्ही सी बच्ची मेरे बिना कैसे रहेगी?

अनन्या की सास ने पोती को पास रखने से साफ मना कर दिया, ‘मुझे

तो माफ ही करो तुम लोग. कैसी मां है यह जो बेटी को छोड़ कर पढ़ने जाना चाहती है.’

अनन्या ने चीख कर कहना चाहा कि यह आप के बेटे की इच्छा है, मेरी नहीं पर कह नहीं पाई. एक दिन उस के पिता का फोन आया तो उस ने सारी बातें उन्हें बताते हुए पूछा, ‘अब आप ही बताइए, पापा, मैं क्या करूं?’

‘तुम गुडि़या को हमारे पास छोड़ कर होस्टल जा सकती हो बेटी, समय सब से बड़ी पूंजी है. इसे गंवाना नहीं चाहिए. मेरे खयाल से चंद्रशेखर बाबू ठीक कहते हैं,’ उस के पिता ने कहा.

अनन्या के सिर से एक बोझ सा हट गया. दूसरे ही दिन वह होस्टल जाने की तैयारी करने लगी. नन्ही सी बेटी को मायके छोड़ कर जाते समय अनन्या का दिल रोनेरोने को हो आया था पर मन को मजबूत कर वह रिकशे पर बैठ गई.

धीरेधीरे 6 माह बीत गए. अनन्या जब भी अपनी बेटी के बारे में सोचती उस का मन पढ़ाई से उचट जाता. वह इतनी भावुक हो जाती कि आंसुओं पर उस का बस नहीं रह जाता.

कभीकभी वह खुद को समझाती हुई सोचती कि जिंदगी में कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. इस तरह के सकारात्मक सोच उस के मन में नवीन उत्साह भर जाते. आखिरकार उत्साह की परिणति लगन में और लगन की परिणति कठोर परिश्रम में हो गई. नतीजा सुखदायक रहा. अनन्या ने विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में दूसरा स्थान पाया.

चंद्रशेखर ने भी खुश हो कर कहा था, ‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी अनु.’

अनन्या ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से ‘नेट’ करने के बाद उस ने हिंदी साहित्य में पीएच.डी. की उपाधि भी हासिल की.

उच्च शिक्षा ने अनन्या की सोच को बहुत बदल डाला. सहीगलत की पहचान उसे होने लगी थी. कभीकभी वह सोचती कि आज उस के पास सबकुछ है. प्यारी सी बिटिया, स्नेही पति, उच्च शिक्षा, आगे की संभावनाएं. क्या यह बिना चंद्रशेखर के सहयोग के संभव था? उस की राह की सारी मुश्किलों को चंद्रशेखर ने अपने मजबूत कंधों पर उठा रखा था. वह जान गई थी कि प्रेम शब्दों का गुलाम नहीं होता. प्रेम तो एक अनुभूति है जिसे महसूस किया जा सकता है.

अनन्या को लेक्चरर पद के लिए इंटरव्यू देने जाना था. वह तैयार हो कर बैठक में आई तो एक सुखद एहसास से भीग उठी, जब उस ने यह देखा कि चंद्रशेखर उस की मार्कशीट और प्रमाणपत्रों को फाइल में सिलसिलेवार लगा रहे थे. उसे देखते ही चंद्रशेखर ने कहा, ‘जल्दी करो, अनु, नहीं तो बस छूट जाएगी.’

असीम स्नेह से पति को निहारती हुई अनन्या ने धीरे से कहा, ‘मुझे आप से कुछ कहना है.’

‘बातें बाद में होंगी, अभी चलो.’.

‘नहीं, आप को आज मेरी बात सुननी ही होगी.’

‘तुम क्या कहोगी, मुझे पता है, वही रटारटाया वाक्य कि आप मुझ से प्यार नहीं करते,’ चंद्रशेखर व्यंग्य से हंस कर बोला तो अनन्या झेंप गई.

‘ठीक है, चलिए,’ उस ने कहा और तेजी से बाहर निकल गई. आज वह अपने पति से कहना चाहती थी कि वह अपने प्रति उन के प्यार को अब महसूस करने लगी है. पर मन की बात मन में ही रह गई.

साक्षात्कार दे कर आई अनन्या को नौकरी पाने का पूरा भरोसा था. पर उस समय वह जैसे आकाश से गिरी जब उस ने चयनित व्याख्याताओं की सूची में अपना नाम नहीं पाया. हृदय इस चोट को सहने के लिए तैयार नहीं था अत: वह फूटफूट कर रोने लगी.

पत्नी को रोता देख कर चंद्रशेखर भी संज्ञाशून्य सा खड़ा रह गया. जानता था, असफलता का आघात मौत के समान कष्ट से कम नहीं होता.

‘देखो, अनु,’ पत्नी को दिलासा देते हुए चंद्रशेखर बोला, ‘यह भ्रष्टाचार का युग है. पैरवी और पैसे के आगे आज के परिवेश में डिगरियों का कोई महत्त्व नहीं रहा. तुम दिल छोटा मत करो. एक न एक दिन तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी.’

एक दिन चंद्रशेखर ने अनन्या को समझाते हुए कहा था, ‘शिक्षा का अर्थ केवल धनोपार्जन नहीं है. हमारे समाज में आज भी शिक्षित महिलाओं की कमी है, तुम इस की अपवाद हो, यही कम है क्या?’

‘आप मुझे गलत समझ रहे हैं. मैं केवल पैसों के लिए व्याख्याता बनने की इच्छुक नहीं थी. अपनी अस्मिता की तलाश…समाज में एक ऊंचा मुकाम पाने की अभिलाषा है मुझे. मैं आम नहीं खास बनना चाहती हूं. अपने वजूद को पूरे समाज की आंखों में पाना चाहती हूं मैं.’

चंद्रशेखर पत्नी की बदलती मनोदशा से अनजान नहीं था. समझता था, अनन्या अवसाद के उन घोर दुखदायी पलों से गुजर रही है जो इनसान को तोड़ कर रख देते हैं.

एक दिन चंद्रशेखर के दोस्त रमेश ने बातों ही बातों में उसे बताया कि 4-5 महीने में ग्राम पंचायत के चुनाव होने वाले हैं और उस की पत्नी निशा जिला परिषद की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ने वाली है.

चंद्रशेखर ने कहा, ‘आज के माहौल में तो कदमकदम पर राजनीति के दांवपेच मिलते हैं. कई लोग चुनाव मैदान में उतर जाएंगे. कुछ गुंडे होंगे, कुछ जमेजमाए तथाकथित नेता. ऐसे में एक महिला का मैदान में उतरना क्या उचित है?’

ये भी पढ़ें- एक कश्मीरी

‘ऐसी बात नहीं है. पंचायत चुनाव में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है. अगर सीट महिला के लिए आरक्षित हो तो प्रयास करने में क्या हर्ज है? देखना, कई पढ़ीलिखी महिलाएं इस क्षेत्र में आगे आएंगी,’ रमेश ने समझाते हुए कहा.

चंद्रशेखर के मन में एक विचार कौंधा, अगर अनन्या भी कोशिश करे तो? उस ने इस बारे में पूरी जानकारी हासिल की तो पता चला कि उस के इलाके की जिला परिषद सीट भी महिला आरक्षित है. चंद्रशेखर के मन में एक नई सोच ने अंगड़ाई ले ली थी.

‘मैं चुनाव लडूं? क्या आप नहीं जानते कि आज की राजनीति कितनी दूषित हो गई है?’ अनन्या बोली.

‘इस में हर्ज ही क्या है. वैसे भी अच्छे विचार के लोग यदि राजनीति में आएंगे तो राजनीति दूषित नहीं रहेगी. तुम अपनेआप को चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लो.’

अनन्या के मन में 2-3 दिन तक तर्कवितर्क चलता रहा. आखिरकार उस ने हामी भर दी.

यह बात जब अनन्या के ससुर ने सुनी तो वह बुरी तरह बिगड़ उठे, ‘लगता है दोनों का दिमाग खराब हो गया है. जमींदार खानदान की बहू गांवगांव, घरघर वोट के लिए घूमती फिरे, यह क्या शोभा देता है? पुरखों की इज्जत क्यों मिट्टी में मिलाने पर तुले हो तुम लोग?’

‘ऐसा कुछ नहीं होगा, बाबूजी, इसे एक कोशिश कर लेने दीजिए. जरा यह तो सोचिए कि अगर यह जीत जाती है तो क्या खानदान का नाम रोशन नहीं होगा?’ चंद्रशेखर ने भरपूर आत्मविश्वास के साथ कहा था.

चंद्रशेखर ने निश्चित तिथि के भीतर ही अनन्या का नामांकनपत्र दाखिल कर दिया. फिर शुरू हुई एक नई जंग.

अनन्या ने आम उम्मीदवारों से अलग हट कर अपना प्रचार अभियान शुरू किया. वह गांव की भोलीभाली अनपढ़ जनता को जिला परिषद और उस से जुड़ी जन कल्याण की तमाम बातों को विस्तार से समझाती थी. धीरेधीरे लोग उस से प्रभावित होने लगे. उन्हें महसूस होने लगा कि जमींदार की बहू में सामंतवादी विचारधारा लेशमात्र भी नहीं है. वह जितने स्नेह से एक उच्च जाति के व्यक्ति से मिलती है उतने ही स्नेह से अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों से भी मिलती है. और उस का व्यवहार भी आम नेताओं जैसा नहीं है.

धीरेधीरे उस की मेहनत रंग लाने लगी. 50 हजार की आबादी वाले पूरे इलाके में अनन्या की चर्चा जोरों पर थी.

मतगणना के दिन ब्लाक कार्यालय के बाहर हजारों की भीड़ जमा थी. आखिरकार 2 हजार वोटों से अनन्या की जीत हुई. उस की जीत ने पूरे समाज को दिखा दिया था कि आज भी जनता ऊंचनीच, जातिपांति, धर्म- समुदाय और अमीरीगरीबी से ऊपर उठ कर योग्य उम्मीदवार का चयन करती है. बड़ी जाति के लोगों की संख्या इलाके में कम होने पर भी हर जाति और धर्म के लोगों से मिले अपार समर्थन ने अनन्या को जीत का सेहरा पहना दिया था.

घर लौट कर अनन्या ने ससुर के चरणस्पर्श किए तो पहली बार उन्होंने कहा, ‘खुश रहो, बहू.’

अनन्या आंतरिक खुशी से अभिभूत हो उठी. उसे लगा, वास्तव में उस की जीत तो इसी पल दर्ज हुई है.

उस ने फिर कभी मुड़ कर पीछे नहीं देखा. हमकदम के रूप में चंद्रशेखर जो हर पल उस के साथ थे. 3 साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी वह भारी बहुमत से विजयी हुई. उस का रोमरोम पति के सहयोग का आभारी था. अगर वह हर मोड़ पर उस का साथ न देते तो आज भी वह अवसाद के घने अंधेरे में डूबी जिंदगी को एक बोझ की तरह जी रही होती.

ये भी पढ़ें- उलझन

‘‘खट…’’ तभी कमरे का दरवाजा खुला और अनन्या की सोच पर विराम लग गया. चंद्रशेखर ने भीतर आते हुए पूछा, ‘‘तुम अभी तक सोई नहीं?’’

‘‘आप कहां रह गए थे?’’

‘‘कुछ लोग बाहर बैठे थे. उन्हीं से बातें कर रहा था. तुम से मिलना चाहते थे तो मैं ने कह दिया कि मैडम कल मिलेंगी,’’ चंद्रशेखर ने ‘मैडम’ शब्द पर जोर डाल कर हंसते हुए कहा.

भावुक हो कर अनन्या ने पूछा, ‘‘अगर आप का साथ नहीं मिलता तो क्या आज मैं इस मुकाम पर होती? फिर क्यों आप ने सारा श्रेय मेरी लगन और मेहनत को दे दिया?’’

‘‘तो मैं ने गलत क्या कहा? अगर हर इनसान में तुम्हारी तरह सच्ची लगन हो तो रास्ते खुद ही मंजिल बन जाते हैं. हां, एक बात और कि तुम इसे अपना मुकाम मत समझो. तुम्हारी मंजिल अभी दूर है. जिस दिन तुम सांसद बन कर संसद में जाओगी और इस घर के दरवाजे पर एक बड़ी सी नेमप्लेट लगेगी…डा. अनन्या सिंह, सांसद लोकसभा…उस दिन मेरा सपना सार्थक होगा,’’ चंद्रशेखर ने कहा तो अनन्या की आंखें खुशी से छलक पड़ीं.

‘‘हर औरत को आप की तरह प्यार करने वाला पति मिले.’’

‘‘अच्छा, इस का मतलब तो यह हुआ कि तुम अब मुझ पर यह आरोप नहीं लगाओगी कि मैं तुम से प्यार नहीं करता.’’

‘‘नहीं, कभी नहीं,’’ अनन्या पति के कंधे पर सिर टिका कर असीम स्नेह से बोली.

‘‘तो तुम अब यह पूरी तरह मान चुकी हो कि मैं तुम से सच्चा प्यार करता हूं,’’ चंद्रशेखर ने मुसकरा कर कहा तो अनन्या भी हंस कर बोल पड़ी, ‘‘हां, मैं समझ चुकी हूं, प्यार की परिभाषा बहुत गूढ़ है. कई रूप होते हैं प्रेम के,

कई रंग होते हैं प्यार करने वालों के, पर सच्चे प्रेमी तो वही होते हैं जो जीवन साथी की तरक्की के रास्ते में अपने अहं का पत्थर नहीं आने देते, ठीक आप

की तरह.’’

एक स्वर्णिम भोर की प्रतीक्षा में रात ढलने को बेताब थी. कुछ क्षणों में पूर्व दिशा में सूर्य की किरणें अपना प्रकाश फैलाने को उदित हो उठीं.             द्य

स्वस्थ दृष्टिकोण

लेखक- सुधा गुप्ता

मैं इस चेहरे के बारे में. कुछ ऐसा जो इस चेहरे से बहुत जुड़ा हुआ सा, कुछ इस के अतीत से, कुछ इस के बीते हुए कल से, कौन है आखिर वह? कार्यालय में भी मैं फुरसत में उसी चेहरे के बारे में सोचता रहा, कौन था आखिर वह?

वापसी में भी मैं भीड़ में नजर दौड़ाता रहा, शायद वह चेहरा नजर आ जाए.

ऐसा होता है न अकसर, हम बिना वजह परेशान हो उठते हैं. अचेतन में कुछ ऐसा इतना सक्रिय हो उठता है कि बीता हुआ कुछ धुंधली सी सूरत में मानस पटल पर आनेजाने लगता है. न साफ नजर आता है न पूरी तरह छिपता ही है.

‘‘क्या बात है, आज आप कुछ परेशान से नजर आ रहे हैं. कुछ सोच रहे हैं?’’ पत्नी ने आखिर पूछ ही लिया. उस ने भी पहचान लिया था मेरा भाव. हैरान हूं मैं, कैसे मेरी पत्नी झट से जान जाती है कि मैं किसी सोच में हूं. 28 साल से साथ हैं हम. हजार बार ऐसा हुआ होगा जब मैं ने चाहा होगा कि पत्नी से कुछ छिपा जाऊं मगर आज तक मेरा हर प्रयास असफल रहा.

‘‘आज मुझे एक चेहरा जानापहचाना लगा और ऐसा लगा कि उसे मैं बहुत करीब से जानता हूं और इतना भी आभास है कि जो भी उस चेहरे से जुड़ा है सुखद कदापि नहीं है. यहां तक कि मैं अपनी जानपहचान में भी दूर तक नजर दौड़ा आया हूं वह कहीं भी नजर नहीं आया.’’

‘‘होगा कोई. एक दिन अपनेआप याद आ जाएगा. आप आराम से खाना खाइए,’’ झुंझला कर उत्तर दिया पत्नी ने.

मेरी यह आदत उसे अच्छी नहीं लगती थी सो बड़बड़ाने लगी थी वह, ‘सारे जहां का दर्द मेरे दिल में है.’

‘‘तो क्या तुम्हारे दिल में नहीं है? पड़ोस में कोई गलत काम करता है तो यहां तुम्हारा खून उबलने लगता है. तब मुझे सुनासुना कर मेरा दिमाग खराब करती हो. अब जब मैं सुना रहा…’’

‘‘आप तो हवाई तीर चला रहे हो. जिस की चिंता है उसे जानते भी तो नहीं हो न. कम से कम मैं जिस की बात करती हूं उसे जानती तो हूं.’’

ये भी पढ़ें- प्यार का पलड़ा

‘‘मैं उसे जानता हूं, नंदा, यही तो परेशानी है कि याद नहीं आ रहा.’’

मैं बुदबुदा रहा था, ‘आखिर कौन था वह?’

दूसरे दिन, तीसरे दिन और उस के बाद कई दिन मैं उस के बारे में सोचता रहा. लोकल ट्रेन से आतेजाते निरंतर नजर भी दौड़ाता रहा, पर वह चेहरा नजर नहीं आया. धीरेधीरे मैं उसे भूल गया.

सच है न, समय से बड़ा कोई मरहम नहीं है. समय से बड़ा कोई आवरण भी नहीं. समय सब ढक लेता है. समय सब छिपा जाता है. चाहे सदा के लिए छिपा पाए तो भी कुछ समय का भुलावा तो होता ही है.

एक शाम पता चला, पड़ोस में कोई रहने आया है. पत्नी बहुत खुश थी. हमारी दोनों बेटियों के ससुराल चले जाने के बाद उसे अकेलापन बहुत खलता था न. पड़ोस में कोई बस जाएगा ऐसा सोच कर मुझे भी सुरक्षा का सा भाव प्रतीत होने लगा. कभी देरसवेर हो जाए तो मुझे चिंता होती थी. अब बगल के आंगन में होने वाली खटरपटर बड़ी सुखद लगने लगी थी. अभी जानपहचान नहीं थी फिर भी उन का एहसास ही बड़ी गहराई से हमें पुलकित करने लगा था.

‘‘चलो, उन से मिलने चला जाए या फिर उन्हें ही अपने घर पर बुला लें,’’ मैं ने पत्नी से कहा.

‘‘लगता है

वे किसी से

भी मिलना नहीं चाहते. आज

वह लड़की

सब्जी लेने बाहर निकली थी, मैं ने बात करनी चाही थी मगर वह बिना कुछ सुने ही चली गई.’’

‘‘क्यों?’’

पलक झप- काना ही भूल गया मैं. भला ऐसा क्यों? क्या इतने बूढ़े हैं हम जो एक जवान जोड़ा हम से बातें करना भी नहीं चाहता.

‘‘हम इतने बुरे लगते हैं क्या?’’

‘‘पता नहीं,’’ कह कर मुसकरा पड़ी थी नंदा.

नंदा सब्जी उठा कर रसोई में चली गई. अखबार पढ़ने में मन नहीं लगा मेरा सो उठ कर घर के बाहर निकल आया. गली में चक्कर लगाने लगा पर आतेजाते नजर पड़ोसी के बंद दरवाजे पर ही थी.

बहुत ही सुहानी हवा चल रही थी मगर उस के घर के दरवाजेखिड़कियां सब बंद थे. मैं सोचने लगा, क्या वे ठंडी हवा लेना नहीं चाहते? क्या दम नहीं घुटता उन का बंद घर में?

सुबह जब मैं कार्यालय जाने को निकला तो सहसा चौंक गया. पड़ोस के द्वार पर वही खड़ा था. वही सूरत जिसे मैं ने स्टेशन पर भीड़ में उस रोज देखा था. उसे देखते ही मैं पलक झपकाना भूल गया और दिमाग पर जोर डालने लगा, कौन है यह लड़का? कहां देखा है इसे?

मुझ से उस की नजरें मिलीं और वह झट से मुंह फेर कर निकल गया. तब मुझे ऐसा लगा, वह परिवार वास्तव में किसी से मिलना नहीं चाहता. यह लड़का कौन है? मैं कुछ जानता हूं इस के बारे में. अरे, मुझे सहसा सब याद आ गया, यह तो भाईसाहब का दामाद था, था क्या अभी भी है. इतना ध्यान आते ही काटो तो खून नहीं रहा मुझ में.

यह मेरी भतीजी का पति है जिस से उस का रिश्ता निभ नहीं पाया था और वह शादी के 4-5 महीने बाद ही वापस लौट आई थी.

भाई साहब तो यही बताते थे कि लड़के वाले दहेज के लालची थे. काफी लंबीचौड़ी कहानी बन गई थी. बाद में पुलिस काररवाई और दामाद की  जेलयात्रा, कितना दुखद था न सब.

मुझे तो यही पता था कि अभी भतीजी का तलाक नहीं हुआ है. भला बिना तलाक वह लड़का दूसरी शादी कैसे कर सकता है? मन में आया वापस घर आ कर पत्नी को सब बता दूं.

बेचैन हो उठा था मैं. यह समस्या तो मेरे ही घर की थी न, हमारी ही बेटी का जीवन अधर में लटका कर यह लालची पुरुष चैन से जी रहा था.

वापस चला आया मैं. जब नंदा को बताया तो हक्कीबक्की रह गई वह. सोचने लगी, तो क्या यह मानसी का पति है? जेठजी तो घुलघुल कर आधे रह गए हैं बेटी के दुख में और लड़का दूसरा घर बसा कर चैन से जी रहा है.

एक बार तो जी चाहा झट से साथ वाले घर पर जाएं और…मगर फिर सोचा, आखिर उस लड़की का क्या दोष है? कौन जाने उसे कुछ पता भी है या नहीं. पता नहीं यहां इस लड़के ने क्या रंग घोल रखा है. हम भी बेटियों वाले हैं, कैसे किसी की बेटी का घर ताश के पत्ते सा गिरा दें? पहले भाई साहब से ही क्यों न बात कर लें?

उसी शाम भाई साहब से फोन पर बात हुई और पता चला, मानसी का तलाक हो गया है. चलो, एक बात तो साफ हो गई. चैन की सांस ली मैं ने

परंतु वह प्रश्न तो वहीं रहा न, अगर यह लड़का लालची था तो इस लड़की के साथ तो ऐसा नहीं लगता कि बहुत अमीरी में रह रहा हो. उन का सामान तो

हमारे सामने ही छोटे से ट्रक से उतरा था. नईनई गृहस्थी जमाने को बस,

ठीकठाक सामान ही था. क्या पता इस लड़की के पिता से नकद दहेज ले

लिया हो?

पत्नी ने बताया कि लड़की भी बड़ी मासूम, सीधीसादी, प्यारी सी है. तब वह क्या था जब मानसी के साथ दुखद घटा था? सीधासादा सा सामान्य परिवार ही तो है इस लड़के का. हम जैसा सामान्य वर्ग, तो फिर उस कार की मांग का क्या हुआ? भाई साहब तो बता रहे थे कि लड़का कार की मांग कर रहा है. मानसी के बाद अब यहां मुझे तो कोई कार दिखाई नहीं दी.

उथलपुथल मच गई थी मेरे अंतर्मन में. हजारों सवाल नागफनी से मुझे डसने लगे थे. क्यों मानसी का घर उजड़ गया और यह लड़का यहां अपना घर बसा कर जी रहा है? एक जलन का सा भाव पनप रहा था मन में, हमारी बच्ची को सता कर वह सुखी क्यों है?

ऐसे ही 2-3 दिन बीत गए. हम समझ नहीं पा रहे थे कि सचाई कैसे जानें.

दरवाजे की घंटी बजी और हम पतिपत्नी हक्के- बक्के रह गए. सामने वही लड़की खड़ी थी. हमारी नन्ही पड़ोसिन जो अब मानसी के तलाकशुदा पति की पत्नी है.

ये भी पढ़ें- मै भी “राहुल गांधी” बनूंगा ….!

कुछ पल को तो हम समझ ही नहीं पाए कि हम क्या कहें और क्या नहीं. स्वर निकला ही नहीं. वह भी चुपचाप हमारे सामने इस तरह खड़ी थी जैसे कोई अपराध कर के आई हो और अब दया चाहती हो.

‘‘आओ…, आओ बेटी, आओ न…’’ मैं बोला.

पता नहीं क्यों स्नेह सा उमड़ आया उस के प्रति. कई बार होता है न, कोई इनसान बड़ा प्यारा लगता है, निर्दोष लगता है.

‘‘आओ बच्ची, आ जाओ न,’’ कहते हुए मैं ने पत्नी को इशारा किया कि वह उसे हाथ पकड़ कर अंदर बुला ले.

इस से पहले कि मेरी पत्नी उसे पुकारती, वह स्वयं ही अंदर चली आई.

‘‘आप…आप से मुझे कुछ बात करनी है,’’ वह डरीडरी सी बोली.

बहुत कुछ था उस के इतने से वाक्य में. बिना कहे ही वह बहुत कुछ कह गई थी. समझ गया था मैं कि वह अवश्य अपने पति के ही विषय में कुछ साफ करना चाहती होगी.

पत्नी चुपचाप उसे देखती रही. हमारे पास भला क्या शब्द होते बात शुरू करने के लिए.

‘‘आप लोग…आप लोगों की वजह से चंदन बहुत परेशान हैं. बहुत मेहनत से मैं ने उन्हें ठीक किया था. मगर जब से उन्होंने आप को देखा है वह फिर से वही हो गए हैं, पहले जैसे बीमार और परेशान.’’

‘‘लेकिन हम ने उस से क्या कहा है? बात भी नहीं हुई हमारी तो. वह मुझे पहचान गया होगा. बेटी, अब जब तुम ने बात शुरू कर ही दी है तो जाहिर है सब जानती होगी. हमारी बच्ची का क्या दोष था जरा समझाओ हमें? चंदन ने उसे दरबदर कर दिया, आखिर क्यों?’’

‘‘दरबदर सिर्फ मानसी ही तो नहीं हुई न, चंदन भी तो 4 साल से दरबदर हो रहे हैं. यह तो संयोग था न जिस ने मानसी और चंदन दोनों को दरबदर…’’

‘‘क्या कार का लालच संयोग ने किया था? हर रोज नई मांग क्या संयोग करता था?’’

‘‘यह तो कहानी है जो मानसी के मातापिता ने सब को सुनाई थी. चंदन के घर पर तो सबकुछ था. उन्हें कार का क्या करना था? आज भी वह सब छोड़छाड़ कर अपने घर से इतनी दूर यहां राजस्थान में चले आए हैं सिर्फ इसलिए कि उन्हें मात्र चैन चाहिए. यहां भी आप मिल गए. आप मानसी के चाचा हैं न, जब से आप को देखा है उन का खानापीना छूट गया है. सब याद करकर के वह फिर से पहले जैसे हो गए हैं,’’ कहती हुई रोने लगी वह लड़की, ‘‘एक टूटे हुए इनसान पर मैं ने बहुत मेहनत की थी कि वह जीवन की ओर लौट आए. मेरा जीवन अब चंदन के साथ जुड़ा है. वह आप से मिल कर सारी सचाई बताना चाहते हैं. आखिर, कोई तो समझे उन्हें. कोई तो कहे कि वह निर्दोष हैं.

‘‘कार की मांग भला वह क्या करते जो अपने जीवन से ही निराश हो चुके थे. आजकल दहेज मांगने का आरोप लगा देना तो फैशन बन गया है. पतिपत्नी में जरा अलगाव हो जाए, समाज के रखवाले झट से दहेज विरोधी नारे लगाने लगते हैं. ऐसा कुछ नहीं था जिस का इतना प्रचार किया गया था.’’

‘‘तुम्हारा मतलब…मानसी झूठ बोलती है? उस ने चंदन के साथ जानबूझ कर निभाना नहीं चाहा? इतने महीने वह तो इसी आस पर साथ रही थी न कि शायद एक दिन चंदन सुधर जाएगा,’’ नंदा ने चीख कर कहा. तब उस बच्ची का रोना जरा सा थम गया.

‘‘वह बिगड़े ही कब थे जो सुधर जाते? मैं आप से कह रही हूं न, सचाई वह नहीं है जो आप समझते हैं. दहेज का लालच वहां था ही नहीं, वहां तो कुछ और ही समस्या थी.’’

‘‘क्या समस्या थी? तुम्हीं बताओ.’’

‘‘आप चंदन से मिल लीजिए, अपनी समस्या वह स्वयं ही समझाएंगे आप को.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं उस के पास?’’

‘‘तो क्या मैं उन्हें भेज दूं आप के पास? देखिए, आज की तारीख में आप अगर उन की बात सुन लेंगे तो उस से मानसी का तो कुछ नहीं बदलेगा लेकिन मेरा जीवन अवश्य बच जाएगा. मैं आप की बेटी जैसी हूं. आप एक बार उन के मुंह से सच जान लें तो उन का भी मन हलका हो जाएगा.’’

‘‘वह सच तुम्हीं क्यों नहीं बता देतीं?’’

‘‘मैं…मैं आप से कैसे कह दूं वह सब. मेरी और आप की गरिमा ऐसी अनुमति नहीं देती,’’ धीरे से होंठ खोले उस ने. आंखें झुका ली थीं.

नंदा कभी मुझे देखती और कभी उसे. मेरे सोच का प्रवाह एकाएक रुक गया कि आखिर ऐसा क्या है जिस से गरिमा का हनन होने वाला है? मेरी बेटी की उम्र की बच्ची है यह, इस का चेहरा परेशानी से ओतप्रोत है. आज की तारीख में जब मानसी का तलाक हो चुका है, उस का कुछ भी बननेबिगड़ने वाला नहीं है, मैं क्यों किसी पचड़े में पड़ूं? क्यों राख टटोलूं जब जानता हूं कि सब स्वाहा हो चुका है.

अपने मन को मना नहीं पा रहा था मैं. इस चंदन की वजह से मेरे भाई

का बुढ़ापा दुखदायी हो गया, जवान बेटी न विधवा हुई न सधवा रही. वक्त की मार तो कोई भी रोतेहंसते सह ले लेकिन मानसी ने तो एक मनुष्य की मार

सही थी.

‘‘कृपया आप ही बताइए मैं क्या करूं? मैं सारे संसार के आगे गुहार नहीं लगा रही, सिर्फ आप के सामने विनती कर रही हूं क्योंकि मानसी आप की भतीजी है. इत्तिफाकन जो घट गया वह आप से भी जुड़ा है.’’

‘‘तुम जाओ, मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता.’’

‘‘चंदन कुछ कर बैठे तो मेरा तो घर ही उजड़ जाएगा.’’

‘‘जब हमारी ही बच्ची का घर उजड़ गया तो चंदन के घर से मुझे क्या लेनादेना?’’

‘‘चंदन समाप्त हो जाएंगे तो उन का नहीं मेरा जीवन बरबाद…’’

‘‘तुम उस की इतनी वकालत कर रही हो, कहीं मानसी की बरबादी

का कारण तुम्हीं तो नहीं हो? इस जानवर का साथ देने का भला क्या

मतलब है?’’

‘‘चंदन जानवर नहीं हैं, चाचाजी. आप सच नहीं जानते इसीलिए कुछ समझना नहीं चाहते.’’

‘‘अब सच जान कर हमारा कुछ भी बदलने वाला नहीं है.’’

‘‘वह तो मैं पहले ही विनती कर चुकी हूं न. जो बीत गया वह बदल नहीं सकता. लेकिन मेरा घर तो बच जाएगा न. बचाखुचा कुछ अगर मेरी झोली में प्रकृति ने डाल ही दिया है तो क्या इंसानियत के नाते…’’

‘‘हम आएंगे तुम्हारे घर पर,’’ नंदा बीच में ही बोल पड़ी.

मुझे ऐसी ही उम्मीद थी नंदा से. कहीं कुछ अनचाहा घट रहा हो और नंदा चुप रह जाए, भला कैसे मुमकिन था. जहां बस न चले वहां अपना दिल जलाती है और जहां पूरी तरह अपना वश हो वहां भला पीछे कैसे रह जाती.

‘‘तुम जाओ, नाम क्या है तुम्हारा?’’

‘‘संयोगिता,’’ नाम बताते हुए हर्षातिरेक में वह बच्ची पुन: रो पड़ी थी.

‘‘मैं तुम्हारे घर आऊंगी. तुम्हारे चाचा भी आएंगे. तुम जाओ, चंदन को संभालो,’’ पत्नी ने उसे यकीन दिलाया.

उसे भेज कर चुपचाप बैठ गई नंदा. मैं अनमना सा था. सच है, जब मानसी का रिश्ता हुआ भैया बहुत तारीफ करते थे. चंदन बहुत पसंद आया था उन्हें. सगाई होने के 4-5 महीने बाद ही शादी हुई थी. इस दौरान मानसी और चंदन मिलते भी थे. फोन भी करते थे. सब ठीक था, पर शादी के बाद ही ऐसा क्या हो गया? अच्छे इनसान 2-4 दिन में ही जानवर कैसे बन गए?

भाभी भी पहले तारीफ ही करती रही थीं फिर अचानक कहने लगीं कि चंदन तो शादी वाले दिन से ही उन्हें पसंद नहीं आया था. जो इतने दिन सही था वह अचानक गलत कैसे हो गया. हम भी हैरान थे.

तब मेरी दोनों बेटियां अविवाहित थीं. मानसी की दुखद अवस्था से हम पतिपत्नी परेशान हो गए थे कि कैसे हम अपनी बच्चियों की शादी करेंगे? इनसान की पहचान करना कितना मुश्किल है, कैसे अच्छा रिश्ता ढूंढ़ पाएंगे उन के लिए? ठीक चलतेचलते कब कोई क्यों गलत हो जाता है पता ही नहीं चलता.

‘मैं ने तो मानसी से शादी के हफ्ते बाद ही कह दिया था, वापस आ जा, लड़कों की कमी नहीं है. तेरी यहां नहीं निभने वाली…’ एक बार भाभी ने सारी बात सुनातेसुनाते कहा था, ‘फोन तक तो करने नहीं देते थे, ससुराल वाले. बड़ी वाली हमें घंटाघंटा फोन करती रहती है, यह तो बस 5 मिनट बाद ही कहने लगती थी, बस, मम्मी, अब रखती हूं. फोन पर ज्यादा बातें करना ससुरजी को पसंद नहीं है.’

मानसी शिला सी बैठी रहती थी. एक दिन मैं ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ रखा तो मेरे गले से लिपट कर रो पड़ी थी, ‘पता नहीं क्यों सब बिखरता ही चला गया, चाचाजी. मैं ने निभाने की बहुत कोशिश की थी.’

‘तो फिर चूक कहां हो गई, मानसी?’

‘उन्हें मेरा कुछ भी पसंद नहीं आया. अनपढ़ गंवार बना दिया मुझे. सब से कहते थे. मैं पागल हूं. लड़की वाले तो दहेज में 10-10 लाख देते हैं, तुम्हारे घर वालों ने तो बस 2-4 लाख ही लगा कर तुम्हारा निबटारा कर दिया.’

ये भी पढ़ें- उपहार

हैरानपरेशान था मैं तब. मैं भी तब अपनी बच्चियों के लिए रिश्तों की तलाश में था. सोचता था, मैं तो शायद इतना भी न लगा पाऊं. क्या मेरी बेटियां भी इसी तरह वापस लौट आएंगी? क्या होगा उन का?

‘देखो भैया, उन लोगों ने इस की नस काट कर इसे मार डालने की कोशिश की है. यह देखो भैया,’ भाभी ने मानसी की कलाई मेरे सामने फैला कर कहा था. यह देखसुन कर काटो तो खून नहीं रहा था मुझ में. जिस मानसी को भैयाभाभी ने इतने लाड़प्यार से पाला था उसी की हत्या का प्रयास किया गया था, और भाभी आगे बोलती गई थीं, ‘उन्होंने तो इसे शादी के महीने भर बाद ही अलग कर दिया था.

‘जब से हम ने महिला संघ में उन की शिकायत की थी तभी से वे लोग इसे अलग रखते थे. चंदन तो इस के पास भी नहीं आता था. वहीं अपनी मां के पास रहता था. राशनपानी, रुपयापैसा सब मैं ही पहुंचा कर आती थी. इस के बाद तो मुझे फोन करने के लिए पास में 10 रुपए भी नहीं होते थे.’

सारी की सारी कहानी का अंत यह हुआ कि चंदन काफी समय जेल में रहा था, उस की नौकरी छूट गई थी सो अलग. वे लोग तलाक ही नहीं देते थे. न जीते थे न जीने ही देते थे.

‘‘आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं, मुझे तब भी दाल में कुछ काला लगता था जब मानसी वापस आ गई थी. इस चंदन को अगर मानसी की हत्या करनी होती तो वह उस की गरदन काटता न कि जरा सी नस काट कर छोड़ देता ताकि वह जिंदा रह कर सब को बताए कि सच क्या है. बेटी का मसला था न, मैं क्या कहती, मगर यह सत्य है कि लड़की वालों को सदा सहानुभूति मिलती है और लड़का इसी बात का अपराधी बन जाता है कि उस ने सात फेरे ले लिए थे, बस,’’ नंदा बोली तो बस, बोलती ही चली गई, ‘‘बड़ी वाली बेटी घंटाघंटा अपनी ससुराल से हर रोज फोन करती थी तो क्या जरूरी था कि मानसी भी हर रोेज घंटाघंटा मां से बातें करती? हमारी भी तो बेटियां हैं न, हम क्या रोज उन से बातें करते हैं?’’

‘‘फोन मात्र सुविधा के लिए होते हैं ताकि समय पर जरूरी बात की जाए, गपशप लगाएंगे तो क्या फोन का बिल नहीं आएगा? हमारी ही बहू अगर हर रोज अपनी मां से फोन पर गपशप करेगी तो क्या हजारों रुपए बिल देते हुए हम चीखेंगे नहीं? आखिर इतनी क्या बातें होती हैं जो मानसी मां से करना चाहती थी?’’

‘‘ससुराल भेज दिया है बेटी को तो उसे वहां बसने का मौका भी देना चाहिए. ससुराल में घटने वाली जराजरा सी बातें अगर मायके में बताई जाएं तो वे मिठास कम खटास ज्यादा पैदा करती हैं. मुझे तब भी लगता था कि कहीं कुछ गलत हुआ है. अब तो संयोगिता ने भी कुछ बताना चाहा है न, सच कुछ और होगा, आप देख लेना.’’

‘‘घर की बहू शादी के एक महीने बाद ही सहायता के लिए महिला संघ में पहुंच जाए तो क्या ससुराल वाले डर कर उसे अलग नहीं कर देंगे. बेटा क्या पत्नी को स्नेह दे पाएगा जब उस के सिर पर हर पल पुलिस और महिला संघ की तलवार लटकती रहेगी? कोई भी रिश्ता डर से नहीं प्यार से पनपता है. चंदन और मानसी में प्यार कब पनपा होगा जो उन की निभ पाती?’’

मैं चुपचाप सुनता रहा. यह सच है कि हमारी बेटियां अपनेअपने घर में खुश हैं. 15-20 दिन बाद वह हमें फोन कर के हमारा हालचाल पूछ लेती हैं, जराजरा सी बात न वह हमें फोन पर बताती हैं और न ही हम. अनुशासन तो जीवन में हर कदम पर होना चाहिए न. सीमित आय वाला हजारों रुपए का बिल कैसे चुका पाएगा. व्यर्थ क्लेश तो होगा ही न.

जल्दी ही हम दोनों चंदन से मिलने जा पहुंचे. दूल्हा बने कभी मानसी की बगल में बैठे देखा था उसे और अब ऐसा लग रहा था जैसे पूरे जीवन का संत्रास एकसाथ ही सह कर थकाहारा एक इनसान हमारे सामने खड़ा है.

चंदन ने हमारे पैर छू कर प्रणाम किया. मैं सोचने लगा, क्या अब भी हमारा कोई ऐसा अधिकार बचा है?

‘‘जीते रहो,’’ स्वत: निकल गया मेरे होंठों से.

कुछ पल हम आमनेसामने बैठे रहे. बात कैसे शुरू की जाए. मैं ने ही चंदन को पास बुला लिया, ‘‘यहां आ कर मेरे पास बैठो, चंदन. आओ बेटा.’’

एक पुरुष बच्चों की तरह कैसे रो पड़ता है मैं ने पहली बार देखा था. मेरे घुटनों पर सिर रख कर वह ऐसी दर्द भरी चीखों से रोया कि नंदा भी घबरा उठी. संयोगिता ने ही लपक कर उसे संभाला, ‘‘आप चाचाजी से सब कह दीजिए, चंदन. रोइए मत, आप इसी तरह रोते रहेंगे तो बात कैसे कर पाएंगे? मैं चाची को ले कर दूसरे कमरे में चली जाती हूं. आप चाचाजी से बात कीजिए. रोइए मत, चंदन.’’

तब सहसा मैं ने ही चंदन को संभाला और इशारे से नंदा को संयोगिता के साथ जाने का इशारा किया. तब एक संतोष भाव उभर आया था संयोगिता के चेहरे पर मानो मेरे इशारे से एक डूबते को तिनके का सहारा मिला हो. संयोगिता भरी आंखों से मेरा आभार जताती हुई नंदा के साथ चली गई.

हम दोनों अकेले रह गए. कुछ समय लग गया चंदन को सामान्य होने में. फिर धीरे से चंदन ने ही कहा, ‘‘मेरा जीवन इस कदर बरबाद हो जाएगा मैं ने कभी सोचा भी न था.’’

‘‘यह सब क्यों और कैसे हो गया, मुझे सचसच बताओ, चंदन. किस का कितना दोष था, समझाओ मुझे. क्या मानसी निभा नहीं पाई या…?’’

‘‘सब से बड़ा दोष तो मेरा ही था, चाचाजी. मुझे तो पता नहीं था कि मेरे शरीर में कोई कमी है. मेरा शरीर मेरा साथ नहीं दे पाएगा मैं नहीं जानता था.’’

यह सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. चंदन कुछ देर चुप रहा फिर बोला, ‘‘यह सचाई मुझे स्वीकार करनी चाहिए थी न. जो मेरे बस में नहीं था मुझे उसे अपनी कमी मान कर मानसी को आजाद कर देना चाहिए था. मैं अपनी कमजोरी स्वीकार ही नहीं कर पाया.

‘‘हर बीमारी का इलाज है. ठंडे दिमाग से हल निकालता तो हो सकता था सब ठीक हो जाता. मानसी को सचाई से अवगत कराता तो हो सकता था वह मेरा साथ देती, मेरा मानसम्मान संभाल कर रखती. मगर मैं तो अपनी कुंठा, अपनी हताशा मानसी पर उतारता रहा. उस ने निभाने की कोशिश की थी मगर मैं ने ही कोई रास्ता नहीं छोड़ा था.

ये भी पढ़ें- आखिरी बाजी

‘‘मानसी जराजरा सी बात अपने मायके में बताती. मैं चिढ़ कर फोन ही काट देता. मैं ने मानसी की हत्या करने की कोशिश नहीं की थी. मानसी ने खुद ही तंग आ कर अपनी नसें काट ली थीं.

‘‘यह भी सच है कि मानसी अपनी बड़ी बहन की अमीर ससुराल से हमारी तुलना करती थी कि दीदी दिन में 2-2 बार मम्मी को फोन करती हैं इसलिए वह भी करेगी. पहली बार में ही जब लंबाचौड़ा बिल आ गया तो पिताजी ने साफसाफ मना कर दिया, जिस पर मानसी ने काफी बावेला मचाया.

‘‘हमारे घर में अनुशासन था जिस में बंधना मानसी को गंवारा नहीं था. हमारी नपीतुली आमदनी पर जब मानसी ने ताना कसा तो मैं ने भी कह दिया था कि लोग तो दामाद को 10-10 लाख देते हैं, इतना ही खुला हाथ है तो अपनी मां से मांग लो.

‘‘बस, इसी बात को मुद्दा बना कर मानसी के परिवार ने महिला संघ में शिकायत कर दी कि मैं दहेज की मांग कर रहा हूं. मैं ने घबरा कर मानसी को उस के पूरे दानदहेज के साथ अलग कर दिया. मैं नहीं चाहता था कि मेरे मातापिता पर कोई आंच आए.

‘‘हालात बिगड़ते ही चले गए, चाचाजी. सब मेरे हाथ से निकलता चला गया. मेरा दोष था, मैं मानता हूं. मैं ने सब का हित सोचा, अपने मांबाप का हित सोचा, अपनी कमजोरी छिपा कर सोचा कि अपना हित कर रहा हूं लेकिन बेचारी मानसी का हित नहीं सोचा. उसे कुछ नहीं दिया. मेरे जीवन से वह रोतीबिलखती ही चली गई.

‘‘मैं अपनी भूल मानता हूं लेकिन यह सच नहीं है कि मैं ने मानसी की हत्या का प्रयास किया था. मैं ने दहेज की मांग कभी नहीं की थी, चाचाजी. मैं ने मानसी को अपनी समस्या नहीं बताई, यह सच है लेकिन यह सच नहीं है कि मैं मानसी को पागल प्रमाणित करना चाहता था.

‘‘अखबारों में मुझ पर जोजो आरोप छपे वे सच नहीं हैं. सच तो सामने आया ही नहीं. जो अन्याय मैं ने कभी किया ही नहीं उस की सजा मैं ने क्यों पाई? इतना अपमान और इतनी बदनामी होगी मैं ने नहीं सोचा था.

‘‘मानसी के साथ एक सुखी गृहस्थी का सपना था मेरा. नहीं सोचा था, 2 दिन बाद ही मेरा घर जंग का मैदान बन जाएगा. मानसी का सहज सामीप्य ही असहनीय हो जाएगा.

‘‘मैं मानसी से दूर रहने के बहाने ढूंढ़ने लगा था. अपनी नपुंसकता को मानसी से अवगत कराता तो शायद वह मुझे सहारा देती. अपने मांबाप को भी कुछ बता पाता तो हो सकता था वही मुझे कोई रास्ता दिखाते. अपने ही खोल में घुटघुट कर मैं ने अपने साथसाथ मानसी का भी जीना हराम कर दिया था. मेरी वजह

से मानसी का जीवन बरबाद हो गया. मुझे अपनी कमी का एहसास होता तो मैं कभी शादी नहीं करता. सच का सामना करता तो शायद कोई आसान रास्ता निकल आता.

‘‘मेरी हताशा हर रोज कोई नई समस्या खड़ी करती और मानसी का मुझ से झगड़ा हो जाता. असहाय मानसी करती भी तो क्या?

‘‘चाचाजी, 4 साल बीत गए उस घटना को, मेरी सांस घुटती  है वह सब याद कर के. हम ने मानसी का जीवन तबाह किया है.’’

मैं भारी मन से सबकुछ सुनता रहा. आखिर कहता भी क्या.

‘‘मैं आज भी मानसी को भुला नहीं पाया हूं, चाचाजी,’’ चंदन ने आगे कहना जारी रखा, ‘‘मैं मानसी के लिए परेशान हूं््. मैं उस से सिर्फ एक बार मिलना चाहता हूं.

‘‘आज इतना सब भोगने के बाद सच का सामना करने की हिम्मत है मुझ में. चाचाजी, आप मुझे सिर्फ एक बार मानसी से मिला दें.

‘‘संयोगिता से जब शादी की तब क्या उसे पूरी सचाई बताई थी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी, संयोगिता मेरे एक दोस्त की बहन है. मेरी सचाई जान गई थी. दोस्त की पत्नी ने सब बताया था इसे. मेरा दोस्त ही मुझे डाक्टर के पास ले गया था. मैं मानता हूं, मुझ से ही गलती हुई थी. जो कदम मैं ने इतनी बड़ी सजा भोगने के बाद उठाया वह तभी उठा लेता तो इतनी बड़ी घटना न होती.’’

‘‘अब मानसी से मिल कर दबी राख क्यों कुरेदना चाहते हो? जो हो गया उसे सपना समझ कर भूलने का प्रयास करो. क्या संयोगिता का दिल भी दुखाना चाहते हो, जिस ने जीवन का सब से बड़ा जुआ खेला तुम्हारा हाथ पकड़ कर? तुम्हारा मन हलका हो जाए, मैं इसीलिए चला आया हूं, मगर अब अगर संयोगिता का मन दुखाओगे तो एक और भूल करोगे,’’ कहते हुए मेरी नजर बाहर की बंद खिड़कियों पर पड़ी. मैं ने उठ कर सारे पट खोल दिए. ताजा हवा अंदर चली आई. मैं फिर बोला, ‘‘घुटघुट कर मत जिओ, चंदन, खुल कर जिओ और अपना जीवन सरल बनाना सीखो. संयोगिता, जो तुम्हें संयोग ने दी है, अब उसी को सहेजो. जो नहीं रहा उस का दुख मत करो, समझेन.’’

शांत हो चुका था चंदन. उस का कंधा थपक कर मैं बाहर चला आया.

बाहर नंदा मेरा ही इंतजार कर रही थी.

घर आ कर मैं देर तक सामान्य नहीं हो पाया. सोचने लगा, क्या दोष था चंदन का? अपनी सामयिक नपुंसकता को सहज स्वीकार नहीं कर पाया, क्या यही दोष था इस का? हम में से कितने ऐसे पुरुष हैं जो अपनी नपुंसकता को सहज स्वीकार कर कोई स्वस्थ दृष्टिकोण अपना पाते हैं? लड़की वाले अकसर अपनी हालत यह प्रमाणित कर के ज्यादा दयनीय बना लेते हैं कि उन्हीं के साथ ज्यादा अन्याय हुआ है. मानसी भी तो सचाई अपनी मां को बता सकती थी. वह चंदन पर हत्या करने का आरोप लगा कर इतना बड़ा बखेड़ा तो खड़ा न करती. यह सच है कि चंदन से प्यार मिलता तो मानसी सब सह जाती लेकिन चंदन से मिली थी मात्र हताशा, मानसिक यातना, जिस का प्रतिकार मानसी ने भी इस तरह किया. दोनों में से किसी का भी तो भला नहीं हुआ न.

ये भी पढ़ें- सन्नाटा

‘‘क्या सोच रहे हैं आप?’’ नंदा ने पूछा.

‘‘बस, इतना ही कि हमारा भी कोई बेटा होता तो…’’

‘‘एकाएक बेटा क्यों सूझा आप को?’’

‘‘बेटा नहीं सूझा, एक जरूरत सूझी है. क्या बेटे की शादी से पहले उस का पूरा मेडिकल चेकअप जरूरी नहीं है? जन्मपत्री की जगह रक्त मिलाना चाहिए. तुम क्या सोचती हो. मेरा बेटा होता तो उस की पूरी जांच कराए बिना कभी शादी न कराता.

‘‘यह संकोच की बात नहीं एक जरूरत होनी चाहिए. मानसी का जीवन अधर में न लटकता अगर चंदन के मांबाप ने यह स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया होता.’’

चुप थी नंदा. इस का मतलब वह मेरे शब्दों से सहमत थी. संयोगिता ने इसे शायद सारा सच बताया होगा न.

ठंडी सांस ली नंदा ने. मेरी तरफ देखा. उस की आंखों में भी पीड़ा थी. बस, यही सोच कर कि जो हो गया उसे समय पर संभाल लिया जाता तो जो सब हो गया वह कभी न होता.                                                    द्य

स्वामी श्री आडंबरानंद की आत्मकथा

लेखक-दामोदर अग्रवाल

सफलता की चरम सीमा पर पहुंच जाने के बाद आज मुझे अपनी आत्मकथा लिखते हुए चरम आनंद का अनुभव हो रहा है. मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के एक गांव में हुआ था. मेरे पिता एक कर्मकांडी ब्राह्मण थे. घर में संस्कृत की कुछ पुरानी पोथियां थीं. उन्हें मैं बारबार पढ़ता और आगे चल कर एक महान उपदेशक और महात्मा बनने की कल्पना किया करता था. उसी के फलस्वरूप आज मैं जेटयुग का महान योगी माना जाता हूं.

मेरे प्रवचनों के वीडियो और आडियो कैसेटों की मांग रहती है. टेली-विजन के धार्मिक चैनलों पर भी मेरे प्रवचन होते हैं. पैसे को मैं हाथ का मैल समझता हूं अत: उन से जो आमदनी होती है उसे मैं अपने आश्रम को दान में दे देता हूं.

भारत में मेरे आश्रम की एक शाखा अहमदाबाद में है. वहां जेटयुग के अन्य ऋषिमुनियों का भी जमघट रहता है. धर्म के धंधे की दृष्टि से यह एक अद्भुत नगरी है. दूसरी शाखा जयपुर में है. वहां का नगरसेठ मेरा परम शिष्य है. अपने अथाह धन के सदुपयोग से उस ने मेरे लिए एक और आश्रम धार्मिक नगरी बंगलौर में  बनवाया है.

इन आश्रमों की देखरेख के लिए कर्मचारियों की एक सेना भी है. नियमानु- सार वे सफेद लकदक कपड़ों में आश्रम में विचरण करते, तिलक लगाते और कंठीमाला धारण करते हैं. हाथ में एक पुस्तिका ले कर पाठ भी करते रहते हैं. भोग और प्रसाद ग्रहण करने के कुछ घंटे पहले से ही उन के उदर में गुड़गुड़ाहट होने लगती है जो इस बात का प्रतीक है कि प्रसाद पाने के लिए वे परम प्रतीक्षारत हैं.

आश्रम के भंडारे में दूध, घी और शक्कर की नदी बहती है. सेवार्थ नगर की उच्च कुलों की महिलाएं आती हैं और इलायची, बादाम आदि छील कर भोग तैयार करने में अपना योगदान करती हैं. उन के चेहरों पर एक दिव्य आभा सी उतर आती है. वे मेरे लिखे भजन गाती हैं और मेरा आवाहन करती हैं. तब जो गुलाबी रंग उन के कोमल कपोलों पर उभर कर आता है, वह कितना अलौकिक एवं नैसर्गिक होता है, यह मुझ से अधिक कौन बता सकता है.

आश्रम का वीडियो फोटोग्राफर उन की फिल्म उतारता, फिर मुझे दिखाने के लिए उन्हें ले कर मेरे वातानुकूलित कक्ष में आता और धन्य हो जाता है. मेरे चरण स्पर्श की बलवती इच्छा से पे्ररित हो कर

2-4  श्रद्धालु सेविकाएं भी उस के साथ आ जाती हैं. मैं उन्हें प्रेम से बैठने को कहता हूं लेकिन

वे खड़ीखड़ी मुझे निहारती रहती हैं और मैं उन को निहारता हूं. मैं तब उन्हें बताता हूं कि यह जो शरीर है वह इतना आकर्षक इसलिए है कि उस में दिव्यात्मा का वास है.

अब मैं आप को अपने जीवन के एक रहस्य से परिचित कराता हूं. 13 साल की आयु में ही मेरा एक लड़की से प्रेम हो गया था. 11 वर्षीया वह सुंदर एवं कमनीय कन्या मेरे अपने ही स्कूल के हेडमास्टर की बेटी थी. फलस्वरूप मुझे पीटा गया और मैं गांव से भाग गया.

कई सालों तक काशी, मथुरा और हरिद्वार के साधुसंतों की संगत में रहा. मैट्रिक पास कर के कोई सरकारी नौकरी करने की मेरी तमन्ना धरी रह गई लेकिन इस दौरान एक उत्तम उपदेशक बनने के गुण और कलाएं मैं ने सीख लीं. देखने में मैं कोमल और चित्ताकर्षक तो था ही इसलिए महात्माओं ने मुझे हाथोंहाथ लिया. मेरा नाम भी रामखेलावन से बदल कर आडंबरानंद हो गया. नाम के बावजूद मैं आडंबर से रहित और ईश्वर भक्ति के आनंद में रमित रहता हूं.

ये भी पढ़ें- बुझते दिए की लौ

एक उच्चकोटि के स्वामी और उपदेशक के रूप में मुझे अब सारा देश जानता है. मेरे व्याख्यानों का अंगरेजी अनुवाद कैलिफोर्निया तक जाता है. वहां मेरी न जाने कितनी भक्तिनें हैं. मेरे एक इशारे पर वे भागी चली आती हैं और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त कर चली जाती हैं. बदले में जो हजारों डालर का दान दे जाती हैं उन से मेरे आश्रमों का खर्च चलता है. सारा पैसा आश्रम के ट्रस्ट में चला जाता है. पैसे को मैं स्वयं कभी नहीं छूता क्योंकि मेरा मानना है कि पैसा हाथ का मैल है. आश्रम में मेरा जो एक हेलिकाप्टर खड़ा रहता है,  वह भी एक भक्त द्वारा दान में ही मिला है.

एक रहस्य और बताऊं कि मैं किशोरावस्था के अपने उस प्रथम प्रेम को आज भी भूल नहीं पाया हूं.  मेरी विदेशी भक्तिनें जो मेरा चरण स्पर्श  करती हैं और जिन की उंगलियों को मैं अपने पैर के अंगूठे से चुपके से दबा कर उन्हें कृतार्थ कर देता हूं, वे भी उस कमनीय कन्या की तुलना में तुच्छ लगती हैं. लेकिन उस की याद को ईश्वर के स्मरण में बदल देने की अपनी असीम क्षमता के कारण मैं गांव लौट जाने की बलवती इच्छा से बचा रहता हूं. वैसे भी उस लड़की को अब तक कई पुत्रपुत्रियां हो चुकी होंगी और वह मेरे जैसे स्वामी को अपना निजी स्वामी बनाने के योग्य ही कहां रह गई होगी.

मेरे आश्रमों का जो संयुक्त आफिस है उसी के ऊपरी कमरे में मेरा मनन और अध्ययन केंद्र है. वहां तक पहुंचने की अनुमति मेरे शिष्यशिष्या विशेषों को ही है. वहीं मेरा एक धार्मिक पुस्तकालय भी है. मेरा अपना एक सैटेलाइट और वेबसाइट भी है. मेरा अपना एक केबल एंटीना और टीवी भी है. एक बड़ा पलंग, रेडियो और म्यूजिक सिस्टम, फोन और मोबाइल सबकुछ है. सीसी टीवी पर देखता रहता हूं कि आश्रम में कहां क्या हो रहा है.

अपने कृपापात्रों से मिलने और उन की समस्याओं को सुलझाने का मुझे वरदान प्राप्त है. स्त्री हो या पुरुष सब परमात्मा के ही अंश हैं. अत: समभाव से मैं उन्हें एकांत कक्ष में ले जाता हूं और अपने दिव्य स्पर्श से उन्हें तनावमुक्त कर देता हूं. इस उदाहरण के लिए आप मुझे क्षमा करें, लेकिन जैसे फिल्म ‘मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस.’ में संजय दत्त लोगों को अपने आलिंगन में ले कर मोह लेता था वैसे मैं भी करता हूं. कहना न होगा कि सांसारिक समस्याओं को सुलझाने का इस से अधिक आलौकिक कोई दूसरा तरीका नहीं है. भक्त की सब से कमजोर कड़ी कौन सी है इस को समझना है.

दूसरों को प्रभावित करने के लिए मुझे अपने शरीर के आडंबर को बनाए रखना पड़ता है. आध्यात्मिक आकर्षण भी तभी होता है जब शरीर आकर्षित करे. इसलिए मैं कोई भी ऐसा वस्त्र धारण नहीं करता जिस में बटन या किसी धातु का इस्तेमाल हुआ हो. बारीक मलमल का धवल वस्त्र ही अधिक रास आता है. इन्हें जरूरत पर उतारना भी आसान होता है. शास्त्रों में केसरिया कपड़ों का भी उल्लेख मिलता है. उस से शरीर की आभा और निखर आती है. भीतर तन का रंग भी दीप्त हो जाता है. दाढ़ी और सिर के केशों को भी स्वच्छ और सुगंधमय रखता हूं. वाणी में भी ओज रखता हूं. इस के लिए मैं अपने आश्रम के अपने शयनकक्ष में दर्पण के सामने अभ्यास करता हूं.

भक्तों के समूह में मुझे जो सुंदरियां दिखती हैं उन्हें देख कर मेरा मन डोलने लगता है. तब मैं आंख बंद कर ईश्वर का ध्यान करता हूं. इस से मेरे चंचल मन को शांति मिलती है और मेरा ब्रह्मचर्य बना रहता है. अब तो चरण छूने के लिए लालायित सुंदरियों के स्पर्श से भी मन पुलकित नहीं होता. धर्म का धंधा चलता रहे इसलिए यह नाटक करना जरूरी है.

ये भी पढ़ें- शहीद

मेरे आश्रम में मेरा प्रवचन सुनने बड़ेबड़े नेता और अफसर भी आते हैं जो मेरे एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. मैं जिसे चाहूं अपने लिए समर्पित कर सकता हूं लेकिन धर्म के धंधे  में मैं वासना को नहीं आने देता. इसी का मैं उपदेश जो देता हूं तो स्वयं उस का पालन क्यों न करूं?

सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए मेरा कैलिफोर्निया वाला आश्रम ही काफी है. इधर भारत में कुछ बच के चलना पड़ता है.

बात इंदौर की है. एक विख्यात स्वामी के भक्तों को पता चला कि कहीं गांव में बाबा की एक बीवी और 3 बच्चे भी हैं, जिन्हें वह छोड़ आए हैं तो बात अखबारों में छप गई और आश्रम डूबतेडूबते बचा. एक कहानी पूना अर्थात पुणे की भी है. बाबा प्रवचन कर रहे थे कि एक औरत हल्ला मचाने लगी कि मेरे पेट में जो बच्चा है वह इन्हीं का है. यद्यपि पुलिस ने उसे पकड़ कर बाहर कर दिया पर बाबा की दुकानदारी तो प्रभावित हुई न. सच कहूं तो इसीलिए मैं इस क्षणिक सुख का भोग लगाना नहीं चाहता. द्य

बुझते दिए की लौ: भाग 1

अपने वीरान से फ्लैट से निकल कर मैं समय काटने के लिए सामने पार्क में चला गया. जिंदगी जीने और काटने में बड़ा अंतर होता है. पार्क के 2 चक्कर लगाने के बाद मैं दूर एकांत में पड़ी बैंच पर बैठ गया. यह मेरा लगभग रोज का कार्यक्रम होता है और अंधेरा होने तक यहीं पड़ा रहता हूं.

बाग के पास कुछ नया बन रहा था. वहां की पहली सीढ़ी अभी ताजा थी इसलिए उस को लांघ कर सीधे दूसरी सीढ़ी पर पहुंचने में लोगों को बहुत परेशानी हो रही थी. मैं लोगों की असुविधा को देखते हुए हाथ बढ़ा कर उन्हें ऊपर खींचता रहा. बडे़बूढ़ों का पांव कांपता देख मैं पूरी ताकत से उन्हें ऊपर खींच रहा था पर बेहद आहिस्ता से.

‘हाथ दीजिए,’ कह कर मैं लगातार उस औरत को आगे आने को कहता और वह हर बार हिचकिचा कर सीढि़यों की बगल में खड़ी हो जाती. हलके भूरे रंग के सूट के ऊपर सफेद चुन्नी से उस ने अपना सिर ढांप रखा था. मैं ने फिर से आग्रह किया, ‘‘हाथ दीजिए, अब तो अधेरा भी शुरू होने वाला है.’’

उस ने धीरे से मुझे अपना हाथ पकड़ाया. मैं ने जैसे ही उस के हाथ को स्पर्श किया उस के कोमल स्पर्श ने मुझे भीतर तक हिला दिया. इसी प्रक्रिया में उसे सहारा देते समय उस की चुन्नी सिर से ढलक कर कंधे पर आ गई. उस ने मुझे देखते ही कहा, ‘‘तब तुम कहां थे जब मैं ने इन हाथों का सहारा मांगा था?’’

‘‘तुम नूपुर हो न,’’ मैं ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘शुक्र है, तुम्हारे होंठों पर मेरा नाम तो है,’’ कहतेकहते उस की आंखों में पानी आ गया और वह सीढि़यों से हट कर एक कोने में चली गई. मैं भी उस के पीछेपीछे वहां आ गया. वह बोली, ‘‘मैं ने परसों तुम को पार्क में देखा तो इन आंखों को सहज विश्वास ही नहीं हुआ कि वह तुम हो…कैसे हो?’’

‘‘ठीक ही हूं,’’ मैं ने बुझे मन से कहा और उस का पता जानने के लिए अधीर हो कर पूछा, ‘‘यहां कहां रहती हो?’’

‘‘सेक्टर 18 में. मेरे बडे़ भाई वहीं रहते हैं. जब मन बहुत उदास हो जाता है तो यहां आ जाती हूं.’’

मैं उस के चेहरे को देखता रहा. उस के बाल समय से पहले सफेदी पर थे. पर उस की सफेद चुन्नी और सूनी मांग देख कर मैं सहम सा गया. कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सका. दोनों के बीच में एक गहरा सा सन्नाटा पसर गया था. भाव व्यक्त करने के लिए शब्दों का अभाव लगने लगा. वर्षों की चुप्पी के बाद भी शब्दों को तलाशने में बहुत समय लग गया. खामोशी को तोड़ते हुए मैं ने ही कहा, ‘‘चलो, दूर पार्क में चल कर बैठते हैं.’’

एक आज्ञाकारी बालक की तरह वह मेरे साथ चल दी थी. हमारे बीच का गहरा सन्नाटा मौन था. उस के बारे में सबकुछ जानने के लिए मैं बेहद उतावला हो रहा था पर बातें शुरू करने का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था.

मरकरी लाइट के पोल के पास नीचे हरी घास में हम दोनों ही एकदूसरे की मूक सहमति से बैठ गए. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में बैठा करते थे. उस के  शरीर से छू कर आने वाली ठंडी हवा मुझे भीतर तक सुखद एहसास दे रही थी.

‘‘और कौनकौन है यहां तुम्हारे साथ?’’ मैं ने डूबते हुए दिल से पूछा.

‘‘कोई नहीं. बस मैं, भैयाभाभी और उन की एक 8 साल की बेटी. और तुम्हारे साथ कौन है?’’

‘‘बस, मैं ही हूं,’’ मेरा स्वर उदास हो गया.

बातोंबातों में उस ने बताया कि शादी के 10 साल बाद ही उस के पति एक सड़क दुर्घटना में चल बसे थे. एक बेटी है जो वनस्थली में पढ़ती है और वहीं होस्टल में रहती है. संयुक्त परिवार होने के नाते सबकुछ वैसा चला जो नहीं चलना चाहिए था. उस घर में रहना और ताने सहना उस की मजबूरी बन चुकी थी. पति के गुजर जाने के बाद कुछ दिन तो सहानुभूति में कट गए, बस उस के बाद सब ने अपनेअपने कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.

पिछले साल बेटी के होस्टल जाने के बाद थोड़ी राहत सी महसूस की पर मन बहुत ही उदास और अकेला हो गया. जिंदगी की लड़ाइयां कितनी भयंकर होती हैं, मन बहुत उदास होता है तो कुछ दिनों के लिए यहां चली आती हूं. सच, बहुत कुछ सहा है मैं ने.’’ इतना कह कर वह बिलखती रही और मैं पाषण बना चुपचाप उस का रुदन सुनता रहा. मेरे मन में इस इच्छा ने बारबार जन्म लिया कि किसी न किसी बहाने उसे स्पर्श करूं, उस को सीने से लगाऊं, उस के लंबे केशों को सहला कर उसे चुप करा दूं पर शुरू से ही संकोची स्वभाव का होने के कारण कुछ भी न कर पाया.

मेरी आंखें भर आईं. मैं मुंह दूसरी तरफ कर के सुबकने लगा. एक लंबी ठंडी सांस ले कर मैं ने कहा, ‘‘पता नहीं यह संयोग है कि तुम्हें एक बार फिर से  देखने की हसरत पूरी हो गई.’’

बातों का क्रम बदलते हुए उस ने अपनी आंखों को पोंछा और बोली, ‘‘तुम ने अपने बारे में तो कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘मेरे पास तुम्हारे जैसा बताने लायक तो कुछ नहीं है,’’ मैं ने कहा तो गहरे उद्वेग के साथ कही गई मेरी बातों में छिपी वेदना को उस ने महसूस किया और मेरा हाथ जोर से दबा कर सबकुछ कह कर मन हलका करने का संकेत दिया.

‘‘अपने से कहीं ऊंचे स्तर के परिवार में मेरा विवाह हो गया. पत्नी के स्वछंद एवं स्वतंत्र होने की जिद ने मुझे डंस लिया. अत्यधिक धनसंपदा ने भी इस को मुझ से दूर ही रखा. बातबात पर झगड़ कर मायके जाना और मायके वालों का मेरी पत्नी पर वरदहस्त, कुल मिला कर हमारी बीच की दूरियां बढ़ाता ही रहा. वह चाहती थी कि मैं घरजमाई बन कर हर ऐशोआराम की वस्तु का उपभोग करूं मगर मेरे जमीर को यह मंजूर नहीं था. 1-2 बार मेरे मातापिता उसे मनानेसमझाने भी गए पर उन्हें तुच्छ एवं असभ्य कह कर उस ने बेइज्जत किया. फिर मैं वहां नहीं गया.

 

शहीद

लेखक- संजीव जायसवाल ‘संजय’

ऊबड़खाबड़ पथरीले रास्तों पर दौड़ती जीप तेजी से छावनी की ओर बढ़ रही थी. इस समय आसपास के नैसर्गिक सौंदर्य को देखने की फुरसत नहीं थी. मैं जल्द से जल्द अपनी छावनी तक पहुंच जाना चाहता था.

आज ही मैं सेना के अधिकारियों की एक बैठक में भाग लेने के लिए श्रीनगर आया था. कश्मीर रेंज में तैनात ब्रिगेडियर और उस से ऊपर के रैंक के सभी सैनिक अधिकारियों की इस बैठक में अत्यंत गोपनीय एवं संवेदनशील विषयों पर चर्चा होनी थी अत: किसी भी मातहत अधिकारी को बैठक कक्ष के भीतर आने की इजाजत नहीं थी.

बैठक 2 बजे समाप्त हुई. मैं बैठक कक्ष से बाहर निकला ही था कि सार्जेंट रामसिंह ने बताया, ‘‘सर, छावनी से कैप्टन बोस का 2 बार फोन आ चुका है. वह आप से बात करना चाहते हैं.’’

मैं ने रामसिंह को छावनी का नंबर मिलाने के लिए कहा. कैप्टन बोस की आवाज आते ही रामसिंह ने फोन मेरी तरफ बढ़ा दिया.

‘‘हैलो कैप्टन, वहां सब ठीक तो है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां सर, सब ठीक है,’’ कैप्टन बोस बोले, ‘‘लेकिन अपनी छावनी के भीतर भारतीय सैनिक की वेशभूषा में घूमता हुआ पाकिस्तानी सेना का एक लेफ्टिनेंट पकड़ा गया है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि वह पाकिस्तानी सेना का लेफ्टिनेंट है? वह छावनी के भीतर कैसे घुस आया? उस के साथ और कितने आदमी हैं? उस ने छावनी में किसी को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाया?’’ मैं ने एक ही सांस में प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘सर, आप परेशान न हों. यहां सब ठीकठाक है. वह अकेला ही है. उस से बरामद पहचानपत्र से पता चला कि वह पाकिस्तानी सेना का लेफ्टिनेंट है,’’ कैप्टन बोस ने बताया.

‘‘मैं फौरन यहां से निकल रहा हूं तब तक तुम उस से पूछताछ करो लेकिन ध्यान रखना कि वह मरने न पाए,’’ इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया.

श्रीनगर से 85 किलोमीटर दूर छावनी तक पहुंचने में 4 घंटे का समय इसलिए लगता है क्योंकि पहाड़ी रास्तों पर जीप की रफ्तार कम होती है. मैं अंधेरा होने से पहले छावनी पहुंच जाना चाहता था.

ये भी पढ़ें- बबली की व्यथा… बब्बन की प्रेमकथा

मेरे छावनी पहुंचने की खबर पा कर कैप्टन बोस फौरन मेरे कमरे में आए.

‘‘कुछ बताया उस ने?’’ मैं ने कैप्टन बोस को देखते ही पूछा.

‘‘नहीं, सर,’’ कैप्टन बोस दांत भींचते हुए बोले, ‘‘पता नहीं किस मिट्टी का बना हुआ है. हम लोग टार्चर करकर के हार गए लेकिन वह मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है.’’

‘‘परेशान न हो. मुझे अच्छेअच्छों का मुंह खुलवाना आता है,’’ मैं ने अपने कैप्टन को सांत्वना दी फिर पूछा, ‘‘क्या नाम है उस पाकिस्तानी का?’’

‘‘शाहदीप खान,’’ कैप्टन बोस ने बताया.

इन 2 शब्दों ने मुझे झकझोर कर रख दिया था.

मैं ने अपने मन को सांत्वना दी कि इस दुनिया में एक नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं किंतु क्या ‘शाहदीप’ जैसे अनोखे नाम के भी 2 व्यक्ति हो सकते हैं? मेरे अंदर के संदेह ने फिर अपना फन उठाया.

‘‘सर, क्या सोचने लगे,’’ कैप्टन बोस ने टोका.

‘‘वह पाकिस्तानी यहां क्यों आया था, यह हर हालत में पता लगाना जरूरी है,’’ मैं ने सख्त स्वर में कहा और अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ.

कैप्टन बोस मुझे बैरक नंबर 4 में ले आए. उस पाकिस्तानी के हाथ इस समय बंधे हुए थे. नीचे से ऊपर तक वह खून से लथपथ था. मेरी गैरमौजूदगी में उस से काफी कड़ाई से पूछताछ की गई थी. मुझे देख उस की बड़ीबड़ी आंखें पल भर

के लिए कुछ सिकुड़ीं फिर उन में एक अजीब बेचैनी सी समा गई.

मुझे वे आंखें कुछ जानीपहचानी सी लगीं किंतु उस का पूरा चेहरा खून से भीगा हुआ था इसलिए चाह कर भी मैं उसे पहचान नहीं पाया. मुझे अपनी ओर घूरता देख उस ने कोशिश कर के पंजों के बल ऊपर उठ कर अपने चेहरे को कमीज की बांह से पोंछ लिया.

खून साफ हो जाने के कारण उस का आधा चेहरा दिखाई पड़ने लगा था. वह शाहदीप ही था. मेरे और शाहीन के प्यार की निशानी. हूबहू मेरी जवानी का प्रतिरूप.

मेरा अपना ही खून आज दुश्मन के रूप में मेरे सामने खड़ा था और उस के घावों पर मरहम लगाने के बजाय उसे और कुरेदना मेरी मजबूरी थी. अपनी इस बेबसी पर मेरी आंखें भर आईं. मेरा पूरा शरीर कांपने लगा. एक अजीब सी कमजोरी मुझे जकड़ती जा रही थी. ऐसा लग रहा था कि कोई सहारा न मिला तो मैं गिर पड़ ूंगा.

‘‘लगता है कि हिंदुस्तानी कैप्टन ने पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट से हार मान ली, तभी अपने ब्रिगेडियर को बुला कर लाया है,’’ शाहदीप ने यह कह कर एक जोरदार कहकहा लगाया.

यह सुन मेरे विचारों को झटका सा लगा. इस समय मैं हिंदुस्तानी सेना के ब्रिगेडियर की हैसियत से वहीं खड़ा था और सामने दुश्मन की सेना का लेफ्टिनेंट खड़ा था. उस के साथ कोई रिआयत बरतना अपने देश के साथ गद्दारी होगी.

मेरे जबड़े भिंच गए. मैं ने सख्त स्वर में कहा, ‘‘लेफ्टिनेंट, तुम्हारी भलाई इसी में है कि सबकुछ सचसच बता दो कि यहां क्यों आए थे वरना मैं तुम्हारी ऐसी हालत करूंगा कि तुम्हारी सात पुश्तें भी तुम्हें नहीं पहचान पाएंगी.’’

‘‘आजकल एक पुश्त दूसरी पुश्त को नहीं पहचान पाती है और आप सात पुश्तों की बात कर रहे हैं,’’ यह कह कर शाहदीप हंस पड़ा. उस के चेहरे पर भय का कोई निशान नहीं था.

मैं ने लपक कर उस की गरदन पकड़ ली और पूरी ताकत से दबाने लगा. देशभक्ति साबित करने के जनून में मैं बेरहमी पर उतर आया था. शाहदीप की आंखें बाहर निकलने लगी थीं. वह बुरी तरह से छटपटाने लगा. बहुत मुश्किल से उस के मुंह से अटकते हुए स्वर निकले, ‘‘छोड़…दो मुझे…मैं…सबकुछ…. बताने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘बताओ?’’ मैं उसे धक्का देते हुए चीखा.

‘‘मेरे हाथ खोलो,’’ शाहदीप कराहा.

कैप्टन बोस ने अपनी रिवाल्वर शाहदीप के ऊपर तान दी. उन के इशारे पर पीछे खड़े सैनिकों में से एक ने शाहदीप के हाथ खोल दिए.

हाथ खुलते ही शाहदीप मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘क्या पानी मिल सकता है?’’

मेरे इशारे पर एक सैनिक पानी का जग ले आया. शाहदीप ने मुंह लगा कर 3-4 घूंट पानी पिया फिर पूरा जग अपने सिर के ऊपर उड़ेल लिया. शायद इस से उस के दर्द को कुछ राहत मिली तो उस ने एक गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘हमारी ब्रिगेड को खबर मिली थी कि कारगिल युद्ध के बाद हिंदुस्तानी फौज ने सीमा के पास एक अंडरग्राउंड आयुध कारखाना बनाया है. वहां खतरनाक हथियार बना कर जमा किए जा रहे हैं ताकि युद्ध की दशा में फौज को तत्काल हथियारों की सप्लाई हो सके. उस कारखाने का रास्ता इस छावनी से हो कर जाता है. मैं उस की वीडियो फिल्म बनाने यहां आया था.’’

इस रहस्योद्घाटन से मेरे साथसाथ कैप्टन बोस भी चौंक पड़े. भारतीय फौज की यह बहुत गुप्त परियोजना थी. इस के बारे में पाकिस्तानियों को पता चल जाना खतरनाक था.

‘‘मगर तुम्हारा कैमरा कहां है जिस से तुम वीडियोग्राफी कर रहे थे,’’ कैप्टन बोस ने डपटा.

ये भी पढ़ें- हमारी अमृता

शाहदीप ने कैप्टन बोस की तरफ देखा, इस के बाद वह मेरी ओर मुड़ते हुए बोला, ‘‘आज के समय में फिल्म बनाने के लिए कंधे पर कैमरा लाद कर घूमना जरूरी नहीं है. मेरे गले के लाकेट में एक संवेदनशील कैमरा फिट है जिस की सहायता से मैं ने छावनी की वीडियोग्राफी की है.’’

इतना कह कर उस ने अपने गले में पड़ा लाकेट निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. वास्तव में वह लाकेट न हो कर एक छोटा सा कैमरा था जिसे लाकेट की शक्ल में बनाया गया था. मैं ने उसे कैप्टन बोस की ओर बढ़ा दिया.

उस ने लाकेट को उलटपुलट कर देखा फिर प्रसंशात्मक स्वर में बोला, ‘‘सर, भारतीय सेना के हौसले आप जैसे काबिल अफसरों के कारण ही इतने बुलंद हैं.’’

‘काबिल’ यह एक शब्द किसी हथौड़े की भांति मेरे अंतर्मन पर पड़ा था. मैं खुद नहीं समझ पा रहा था कि यह मेरी काबिलीयत थी या कोई और कारण जिस की खातिर शाहदीप इतनी जल्दी टूट गया था. मेरे सामने मेरा खून इस तरह टूटने के बजाय अगर देश के लिए अपनी जान दे देता तो शायद मुझे ज्यादा खुशी होती.

‘‘सर, अब इस लेफ्टिनेंट का क्या किया जाए?’’ कैप्टन बोस ने यह पूछ कर मेरी तंद्रा भंग की.

‘‘इसे आज रात इसी बैरक में रहने दो. कल सुबह इसे श्रीनगर भेज देंगे,’’ मैं ने किसी पराजित योद्धा की भांति सांस भरी.

शाहदीप को वहीं छोड़ मैं कैप्टन बोस के साथ चल पड़ा था कि उस ने आवाज दी, ‘‘ब्रिगेडियर साहब, मैं आप से अकेले में कुछ बात करना चाहता हूं.’’

मैं असमंजस में पड़ गया. ऐसी कौन सी बात हो सकती है जो वह मुझ से अकेले में करना चाहता है. कैप्टन बोस ने मेरे असमंजस को भांप लिया था अत: वह सैनिकों के साथ दूर हट गए.

मैं वापस बैरक के भीतर घुसा तो देखा कि घायल शाहदीप का पूरा शरीर कांप रहा था.

मैं उस के करीब पहुंचा ही था कि उस का शरीर लहराते हुए मेरी ओर गिर पड़ा. मैं ने उसे अपनी बांहों में संभाल कर सामने बने चबूतरे पर लिटा दिया. वह लंबीलंबी सांसें लेने लगा.

उस की उखड़ी हुई सांसें कुछ नियंत्रित हुईं तो मैं ने पूछा, ‘‘बताओ, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘सिर्फ इतना कि मैं ने आप का कर्ज चुका दिया है.’’

‘‘कैसा कर्ज? मैं कुछ समझा नहीं.’’

‘‘अगर मैं चाहता तो आप मुझे मार भी डालते तो भी मेरे यहां आने का राज कभी मुझ से न उगलवा पाते. मैं यह भी जानता था कि देशभक्ति के जनून में आप मुझे मार डालेंगे किंतु यदि ऐसा हो जाता तो फिर जिंदगी भर आप अपने को माफ नहीं कर पाते.’’

‘‘फौजी तो अपने दुश्मनों को मारते ही रहते हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘‘लेकिन एक बाप को फर्क पड़ता है. अपने बेटे की हत्या करने के बाद वह भला चैन से कैसे जी सकता है?’’ शाहदीप के होंठों पर दर्द भरी मुसकान तैर गई.

‘‘कैसा बाप और कैसा बेटा. तुम कहना क्या चाहते हो?’’ मेरा स्वर कड़ा हो गया.

शाहदीप ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें मेरे चेहरे पर टिका दीं और बोला, ‘‘ब्रिगेडियर दीपक कुमार सिंह, यही लिखा है न आप की नेम प्लेट पर? सचसच बताइए कि आप ने मुझे पहचाना या नहीं?’’

मेरा सर्वांग कांप उठा.

मेरी ही तरह मेरे खून ने भी अपने खून को पहचान लिया था. हम बापबेटों ने जिंदगी में पहली बार एकदूसरे को देखा था किंतु रिश्ते बदल गए थे. हम दुश्मनों की भांति एकदूसरे के सामने खड़े थे. मेरे अंदर भावनाओं का समुद्र उमड़ने लगा था. मैं बहुत कुछ कहना चाहता था किंतु जड़ हो कर रह गया.

‘‘डैडी, आप को पुत्रहत्या के दोष से बचा कर मैं पुत्रधर्म के ऋण से उऋण हो चुका हूं. आज के बाद जब भी हमारी मुलाकात होगी आप अपने सामने पाकिस्तानी सेना के जांबाज और वफादार अफसर को पाएंगे, जो कट जाएगा लेकिन झुकेगा नहीं,’’ शाहदीप ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘इस का मतलब तुम ने जानबूझ कर अपना राज खोला है,’’ बहुत मुश्किलों से मेरे मुंह से स्वर फूटा.

‘‘मैं कायर नहीं हूं. मैं आप की सौगंध खा कर वादा करता हूं कि जिस देश का नमक खाया है उस के साथ नमकहरामी नहीं करूंगा,’’ शाहदीप की आंखें आत्मविश्वास से जगमगा उठीं.

शाहदीप के स्वर मेरे कानों में पिघले शीशे की भांति दहक उठे. मैं एक फौजी था अत: अपने बेटे को अपनी फौज के साथ गद्दारी करने के लिए नहीं कह सकता था किंतु जो वह कह रहा था उस की भी इजाजत कभी नहीं दे सकता था. अत: उसे समझाते हुए बोला, ‘‘बेटा, तुम इस समय हिंदुस्तानी फौज की हिरासत में हो इसलिए कोई दुस्साहस करने की कोशिश मत करना. ऐसा करना तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकता है.’’

‘‘दुस्साहस तो फौजी का सब से बड़ा हथियार होता है, उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूं. आप अपना फर्ज पूरा कीजिएगा मैं अपना फर्ज पूरा करूंगा,’’ शाहदीप निर्णायक स्वर में बोला.

मैं दर्द भरे स्वर में बोला, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास समय बहुत कम है. मेहरबानी कर के तुम इतना बता दो कि तुम्हारी मां इस समय कहां है और यहां आने से पहले क्या तुम मेरे बारे में जानते थे?’’

‘‘साल भर पहले मां का इंतकाल हो गया. वह बताया करती थीं कि मेरे सारे पूर्वज सेना में रहे हैं. मैं भी उन की तरह बहादुर बनना चाहता था इसलिए फौज में भरती हो गया था. अपने अंतिम दिनों में मां ने आप का नाम भी बता दिया था. मैं जानता था कि आप भारतीय फौज में हैं किंतु यह नहीं जानता था कि आप से इस तरह मुलाकात होगी,’’ बोलतेबोलते पहली बार शाहदीप का स्वर भीग उठा था.

मैं भी अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पा रहा था. अत: शाहदीप को अपना खयाल रखने के लिए कह कर तेजी से वहां से चला आया.

‘‘सर, वह क्या कह रहा था?’’ बाहर निकलते ही कैप्टन बोस ने पूछा.

‘‘कह रहा था कि मैं ने आप की मदद की है इसलिए मेरी मदद कीजिए, और मुझे यहां से निकल जाने दीजिए,’’ मेरे मुंह से अनजाने में ही निकल गया.

मैं चुपचाप अपने कक्ष में आ गया. बाहर खड़े संतरी से मैं ने कह दिया था कि किसी को भी भीतर न आने दिया जाए. इस समय मैं दुनिया से दूर अकेले में अपनी यादों के साथ अपना दर्द बांटना चाहता था.

कुरसी पर बैठ उस की पुश्त से पीठ टिकाए आंखें बंद कीं तो अतीत की कुछ धुंधली तसवीर दिखाई पड़ने लगी.

उस शाम थेम्स नदी के किनारे मैं अकेला टहल रहा था. अचानक एक अंगरेज नवयुवक दौड़ता हुआ आया और मुझ से टकरा गया. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाता उस ने अत्यंत शालीनता से मुझ से माफी मांगी और आगे बढ़ गया. अचानक मेरी छठी इंद्री जाग उठी. मैं ने अपनी जेब पर हाथ मारा तो मेरा पर्स गायब था.

‘पकड़ोपकड़ो, वह बदमाश मेरा पर्स लिए जा रहा है,’ चिल्लाते हुए मैं उस के पीछे दौड़ा.

मेरी आवाज सुन उस ने अपनी गति कुछ और तेज कर दी. तभी सामने से आ रही एक लड़की ने अपना पैर उस के पैरों में फंसा दिया. वह अंगरेज मुंह के बल गिर पड़ा. मेरे लिए इतना काफी था. पलक झपकते ही मैं ने उसे दबोच कर अपना पर्स छीन लिया. पर्स में 500 पाउंड के अलावा कुछ जरूरी कागजात भी थे. पर्स खोल कर मैं उन्हें देखने लगा. इस बीच मौका पा कर वह बदमाश भाग लिया. मैं उसे पकड़ने के लिए दोबारा उस के पीछे दौड़ा.

‘छोड़ो, जाने दो उसे,’ उस लड़की ने लगभग चिल्लाते हुए कहा था.

उस की आवाज से मेरे कदम ठिठक कर रुक गए. उस बदमाश के लिए इतना मौका काफी था. मैं ने उस लड़की की ओर लौटते हुए तेज स्वर में पूछा, ‘आप ने उसे जाने क्यों दिया?’

‘लगता है तुम इंगलैंड में नए आए हो,’ वह लड़की कुछ मुसकरा कर बोली.

‘हां.’

‘ये अंगरेज आज भी अपनी सामंती विचारधारा से मुक्त नहीं हो पाए हैं. प्रतिभा की दौड़ में आज ये हम से पिछड़ने लगे हैं तो अराजकता पर उतर आए हैं. प्रवासी लोगों के इलाकों में दंगा करना और उन से लूटपाट करना अब यहां आम बात होती जा रही है. यहां की पुलिस पर सांप्रदायिकता का आरोप तो नहीं लगाया जा सकता, फिर भी उन की स्वाभाविक सहानुभूति अपने लोगों के साथ ही रहती है. सभी के दिमाग में यह सोच भर गई है कि बाहर से आ कर हम लोग इन की समृद्धि को लूट  रहे हैं.’

मैं ने उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘तुम भी इंडियन हो?’

‘पाकिस्तानी हूं,’ लड़की ने छोटा सा उत्तर दिया, ‘शाहीन नाम है मेरा. कैंब्रिज विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन कर रही हूं.’

‘मैं दीपक कुमार सिंह. 2 दिन पहले मैं ने भी वहीं पर एम.बी.ए. में प्रवेश लिया है,’ अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए मैं ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो यह कहते हुए शाहीन ने मेरा हाथ गर्मजोशी से पकड़ लिया कि फिर तो हमारी खूब निभेगी.

उस अनजान देश में शाहीन जैसा दोस्त पा कर मैं बहुत खुश था. उस के पापा का पाकिस्तान में इंपोर्टएक्सपोर्ट का व्यवसाय था. मां नहीं थीं. पापा अपने व्यापार में काफी व्यस्त रहते थे इसलिए वह यहां पर अपनी मौसी के पास रह कर पढ़ने आई थी.

शाहीन के मौसामौसी से मैं जल्दी ही घुलमिल गया और अकसर सप्ताहांत उन के साथ ही बिताने लगा. शाहीन की तरह वे लोग भी काफी खुले विचारों वाले थे और मुझे काफी पसंद करते थे. सब से अच्छी बात तो यह थी कि यहां पर ज्यादातर हिंदुस्तानी व पाकिस्तानी आपस में बैरभाव भुला कर मिलजुल कर रहते थे. ईद हो या होलीदीवाली, सारे त्योहार साथसाथ मनाए जाते थे.

शाहीन बहुत अच्छी लड़की थी. मेरी और उस की दोस्ती जल्दी ही प्यार में बदल गई. साल बीततेबीतते हम ने शादी करने का फैसला कर लिया. हमें विश्वास था कि शाहीन के मौसीमौसा इस रिश्ते से बहुत खुश होंगे और वे शाहीन के पापा को इस शादी के लिए मना लेंगे, किंतु यह हमारा भ्रम निकला.

‘तुम्हारी यह सोचने की हिम्मत कैसे हुई कि कोई गैरतमंद पाकिस्तानी तुम हिंदुस्तानी काफिरों से अपनी रिश्तेदारी जोड़ सकता है,’ शाहीन के मौसा मेरे शादी के प्रस्ताव को सुन कर भड़क उठे थे.

‘अंकल, यह आप कैसी बातें कर रहे हैं. इंगलैंड में तो सारे हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी आपस का बैर भूल कर साथसाथ रहते हैं,’ मैं आश्चर्य से भर उठा.

‘अगर साथसाथ नहीं रहेंगे तो मारे जाएंगे इसलिए हिंदुस्तानी काफिरों की मजबूरी है,’ मौसाजी ने कटु सत्य पर से परदा उठाया.

शाहीन ने जब अपने मौसामौसी को समझाने की कोशिश की तो उन्होंने यह कह कर उसे चुप करा दिया कि अभी अच्छाबुरा समझने की तुम्हारी उम्र नहीं है.

उस दिन के बाद से मेरे और शाहीन के मिलने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया.

मुझे विश्वास था कि मेरे घर वाले मेरा साथ जरूर देंगे किंतु मैं यहां भी गलत था.

डैडी ने फोन पर साफ कह दिया, ‘हम फौजी हैं. हम लोग जातिपांति में विश्वास नहीं रखते. हमारा धर्म, हमारा मजहब सबकुछ हमारा देश है इसलिए अपने जीतेजी मैं दुश्मन की बेटी को अपने घर में घुसने की इजाजत नहीं दे सकता.’

चुपचाप अदालत में जा कर शादी करने के अलावा हमारे पास अब दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा था और हम ने वही किया. शाहीन के मौसामौसी को जब पता चला तो उन्होंने बहुत हंगामा किया किंतु कुछ कर न सके. हम दोनों बालिग थे और अपनी मरजी की शादी करने के लिए आजाद थे.

अपनी दुनिया में हम दोनों बहुत खुश थे. शाहीन ने तय किया था कि छुट्टियों में पाकिस्तान चल कर हम लोग उस के पापा को मना लेंगे. मैं ने पासपोर्ट के लिए आवेदनपत्र भर कर भेज दिया था.

एक दिन शाहीन ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो मैं खुशी से झूम उठा. मेरे चौड़े सीने पर सिर रखते हुए उस ने कहा, ‘दीपक, जानते हो अगर मेरा बेटा हुआ तो मैं उस का नाम शाहदीप रखूंगी.’

‘ऐसा नाम तो किसी का नहीं होता,’ मैं ने टोका.

‘लेकिन मेरे बेटे का होगा. शाहीन और दीपक का सम्मिलित रूप शाहदीप. इस नाम का दुनिया में केवल हमारा ही बेटा होगा. जो भी यह नाम सुनेगा जान जाएगा कि वह हमारा बेटा है,’ शाहीन मुसकराई.

कितनी निश्छल मुसकराहट थी शाहीन की लेकिन वह ज्यादा दिनों तक मेरे साथ नहीं रह पाई. एक बार मैं 2 दिन के लिए बाहर गया हुआ था. मेरी गैरमौजूदगी में उस के पापा आए और जबरदस्ती उसे पाकिस्तान ले गए. वह मेरे लिए एक छोटा सा पत्र छोड़ गई थी जिस में लिखा था, ‘हमारी शादी की खबर सुन कर पापा को हार्टअटैक हो गया था. वह बहुत कमजोर हो गए हैं. उन्होंने धमकी दी है कि अगर मैं तुम्हारे साथ रही तो वह जहर खा लेंगे. मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं. मैं उन की मौत की गुनहगार बन कर अपनी दुनिया नहीं बसाना चाहती इसलिए उन के साथ जा रही हूं. लेकिन मैं तुम्हारी हूं और सदा तुम्हारी ही रहूंगी. अगर हो सके तो मुझे माफ कर देना.’

इस घटना ने मेरे वजूद को हिला कर रख दिया था. मैं पागलों की तरह पाकिस्तान का वीजा पाने के लिए दौड़ लगाने लगा किंतु यह इतना आसान न था. बंटवारे ने दोनों देशों के बीच इतनी ऊंची दीवार खड़ी कर दी थी जिसे लांघ पाने में मुझे कई महीने लग गए. लाहौर पहुंचने पर पता चला कि शाहीन के पापा अपनी सारी जायदाद बेच कर कहीं दूसरी जगह चले गए हैं. मैं ने काफी कोशिश की लेकिन शाहीन का पता नहीं लगा पाया.

ये भी पढ़ें- प्यार का पलड़ा

मेरा मन उचट गया था. अत: इंगलैंड न जा कर भारत लौट आया. एम.बी.ए. तो मैं केवल डैडी का मन रखने के लिए कर रहा था वरना बचपन से मेरा सपना भी अपने पूर्वजों की तरह फौज में भरती होने का था. मैं ने वही किया. धीरेधीरे 25 वर्ष बीत गए.

अपने अतीत में खोया मुझे समय का एहसास ही न रहा. ठंड लगी तो घड़ी पर नजर पड़ी. देखा रात के 2 बज गए थे. चारों ओर खामोशी छाई हुई थी. पूरी दुनिया शांति से सो रही थी किंतु मेरे अंदर हाहाकार मचा हुआ था. मेरा बेटा मेरी ही कैद में था और मैं अभी तक उस की कोई मदद नहीं कर पाया था.

बेचैनी जब हद से ज्यादा बढ़ने लगी तो मैं बाहर निकल आया. अनायास ही मेरे कदम बैरक नंबर 4 की ओर बढ़ गए. मन का एक कोना वहां जाने से रोक रहा था किंतु दूसरा कोना उधर खींचे लिए जा रहा था. मुझे इस बात का एहसास भी न था कि इतनी रात में मुझे अकेला एक पाकिस्तानी की बैरक की ओर जाते देख कोई क्या सोचेगा. इस समय अपने ऊपर मेरा कोई नियंत्रण नहीं बचा था. मैं खुद नहीं जानता था कि मैं क्या करने जा रहा हूं.

शाहदीप की बैरक के बाहर बैठा पहरेदार आराम से सो रहा था. मैं दबे पांव उस के करीब पहुंचा तो देखा वह बेहोश पड़ा था. बैरक के भीतर झांका, शाहदीप वहां नहीं था.

‘‘कैदी भाग गया, कैदी भाग गया,’’ मैं पूरी शक्ति से चिल्लाया. रात के सन्नाटे में मेरी आवाज दूर तक गूंज गई.

मैं ने पहरेदार की जेब से चाबी निकाल कर फुरती से बैरक का दरवाजा खोला. भीतर घुसते ही मैं चौंक पड़ा. बैरक के रोशनदान की सलाखें कटी थीं और शाहदीप उस से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था किंतु रोशनदान छोटा होने के कारण उसे परेशानी हो रही थी.

‘‘शाहदीप, रुक जाओ,’’ मैं पूरी ताकत से चीख पड़ा और अपना रिवाल्वर उस पर तान कर सर्द स्वर में बोला, ‘‘शाहदीप, अगर तुम नहीं रुके तो मैं गोली मार दूंगा.’’

मेरे स्वर की सख्ती को शायद शाहदीप ने भांप लिया था. अपने धड़ को पीछे खिसका सिर निकाल कर उस ने कहर भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा. अगले ही पल उस का दायां हाथ सामने आया. उस में छोटा सा रिवाल्वर दबा हुआ था. उसे मेरी ओर तानते हुए वह गुर्राया, ‘‘ब्रिगेडियर दीपक कुमार सिंह, वापस लौट जाइए वरना मैं अपने रास्ते में आने वाली हर दीवार को गिरा दूंगा, चाहे वह कितनी ही मजबूत क्यों न हो.’’

इस बीच कैप्टन बोस और कई सैनिक दौड़ कर वहां आ गए थे. इस से पहले कि वे बैरक के भीतर घुस पाते शाहदीप दहाड़ उठा, ‘‘तुम्हारा ब्रिगेडियर मेरे निशाने पर है. अगर किसी ने भी भीतर घुसने की कोशिश की तो मैं इसे गोली मार दूंगा.’’

आगे बढ़ते कदम जहां थे वहीं रुक गए. बड़ी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई थी. हम दोनों एकदूसरे पर निशाना साधे हुए थे.

‘‘लेफ्टिनेंट शाहदीप, तुम यहां से भाग नहीं सकते,’’ मैं गुर्राया.

‘‘और तुम मुझे पकड़ नहीं सकते, ब्रिगेडियर,’’ शाहदीप ने अपना रिवाल्वर मेरी ओर लहराया, ‘‘मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि वापस लौट जाओ वरना मैं गोली मार दूंगा.’’

मेरे वापस लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. शाहदीप जिस स्थिति में लटका हुआ था उस में ज्यादा देर नहीं रहा जा सकता था. जाने क्या सोच कर उस ने एक बार फिर अपने शरीर को रोशनदान की तरफ बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘धांय…धांय…’’ मेरे रिवाल्वर से 2 गोलियां निकलीं. शाहदीप की पीठ इस समय मेरी ओर थी. दोनों ही गोलियां उस की पीठ में समा गईं. वह किसी चिडि़या की तरह नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा.

मुझे और बरदाश्त नहीं हुआ. अपना रिवाल्वर फेंक मैं उस की ओर दौड़ पड़ा और उस का सिर अपने हाथों में ले बुरी तरह फफक पड़ा, ‘‘शाहदीप, मेरे बेटे, मुझे माफ कर दो.’’

कैप्टन बोस दूसरे सैनिकों के साथ इस बीच भीतर आ गए थे. मुझे इस तरह रोता देख वे चौंक पड़े, ‘‘सर, यह आप क्या कह रहे हैं.’’

‘‘कैप्टन, तुम तो जानते ही हो कि मेरी शादी एक पाकिस्तानी लड़की से हुई थी. यह मेरा बेटा है. मैं इस के निशाने पर था अगर चाहता तो यह पहले गोली चला सकता था लेकिन इस ने ऐसा नहीं किया,’’ इतना कह कर मैं ने शाहदीप के सिर को झिंझोड़ते हुए पूछा, ‘‘बता, तू ने मुझे गोली क्यों नहीं मारी? बता, तू ने ऐसा क्यों किया?’’

शाहदीप ने कांपते स्वर में कहा, ‘‘डैडी, जन्मदाता के लिए त्याग करने का अधिकार सिर्फ हिंदुस्तान के लोगों का ही नहीं हम पाकिस्तानियों का भी इस पर बराबर का हक है.’’

शाहदीप ने एक बार फिर मुझे बहुत छोटा साबित कर दिया था. मैं उसे अपने सीने से लगा कर बुरी तरह रो पड़ा.

‘‘डैडी, जीतेजी तो मैं आप की गोद में न खेल सका किंतु अंतिम समय मेरी यह इच्छा पूरी हो गई. अब मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है.’’

इसी के साथ शाहदीप ने एक जोर की हिचकी ली और उस की गरदन एक ओर ढुलक गई. मेरे हाथ में थमा उस का हाथ फिसल गया और इसी के साथ उस की उंगली में दबी अंगूठी मेरे हाथों में आ गई. उस अंगूठी पर दृष्टि पड़ते ही मैं एक बार फिर चौंक पड़ा. उस में भी एक नन्हा सा कैमरा फिट था. इस का मतलब उस ने एकसाथ 2 कैमरों से वीडियोग्राफी की थी. एक कैमरा हमें दे कर उस ने अपने एक फर्ज की पूर्ति की थी और अब दूसरा कैमरा ले कर अपने दूसरे फर्ज की पूर्ति करने जा रहा था.

शाहदीप के निर्जीव शरीर से लिपट कर मैं विलाप कर उठा. अपने आंसुओं से उसे भिगो कर मैं अपना प्रायश्चित करना चाहता था तभी कैप्टन बोस ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘सर, आंसू बहा कर शहीद की आत्मा का अपमान मत कीजिए.’’

मैं ने आंसू भरी नजरों से कैप्टन बोस की ओर देखा फिर भर्राए स्वर में पूछा, ‘‘कैप्टन, क्या तुम मेरे बेटे को शहीद मानते हो?’’

ये भी पढ़ें- मै भी “राहुल गांधी” बनूंगा ….!

‘‘हां, सर, ऐसी शहादत न तो पहले कभी किसी ने दी थी और न ही आगे कोई देगा. एक वीर के बेटे ने अपने बाप से भी बढ़ कर वीरता दिखाई है. इस का जितना भी सम्मान किया जाए कम है,’’ इतना कह कर कैप्टन बोस ने शाहदीप के पार्थिव शरीर को सैल्यूट मारा फिर पीछे मुड़ कर अपने सैनिकों को इशारा किया.

सब एक कतार में खड़े हो कर आसमान में गोली बरसाने लगे. पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट को 101 गोलियों की सलामी देने के बाद ही हिंदुस्तानी रायफलें शांत हुईं. दुनिया में आज तक किसी भी शहीद को इतना बड़ा सम्मान प्राप्त नहीं हुआ होगा.

मेरे कांपते हाथ खुद ही ऊपर उठे और उस वीर को सलामी देने लगे.  द्य

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें