लेखक- पमा मलिक

सरला आंटी के सहयोग  से ही उसे एक फ्लैट में बतौर ‘पेइंग गेस्ट’ स्थान मिला था. इस पार्टी में आने के लिए सरला आंटी ने ही जोर दिया था. वह पार्टी की गहमागहमी से अलगथलग शीतल पेय का गिलास लिए किनारे की कुरसी पर बैठी थी. अचानक अपने सामने कुरसी खींच कर बैठे शख्स को उस ने ध्यान से देखा.

‘‘मुझे पहचाना, मैं भगवानदास,’’ उस शख्स ने पूछा.

‘‘हां, हां,’’ उस ने कहा. उस शख्स को तो वह भूल ही नहीं सकती थी. 10 वर्ष पूर्व वह उसे देखने आया था और इस प्रकार संकोच में बैठा था मानो कोई दुलहन हो. इलाहाबाद विश्वविद्यालय की तेजतर्रार मोहना के सामने उस के बोलने की क्षमता जैसे समाप्त हो गई थी. नाम पूछने पर जब उस ने अपना नाम ‘भगवान दास’ बताया तब वह खूब हंसी थी और आहत व अपमानित भगवानदास चुपचाप बैठा रहा था.

बाद में मोहना ने घर वालों से कह दिया था कि उसे ऐसे दब्बू, भोंदू भगवान के दासों में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह पहले प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती है. किंतु आज 10 वर्ष बाद भगवानदास पूरा सामर्थ्यवान पुरुष लग रहा था. उस की भेदती दृष्टि का वह सामना नहीं कर पा रही थी. बातचीत से पता चला कि वह बैंक मैनेजर हो गया था. उस के द्वारा बताने पर कि वह सिंचाई विभाग में बतौर स्टेनो काम कर रही है, वह व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘आप तो प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहती थीं?’’

‘‘चाहने से ही तो सब संभव नहीं हो जाता,’’ उस ने बेजारी से कहा और जाने के लिए उठ खड़ी हुई. वहां रुकना उसे अब भारी लग रहा था. सरला आंटी से इजाजत ले कर जब वह अपने कमरे में लौटी तो दरवाजे का ताला खोलते हुए उस के हाथ कांप रहे थे. सर्वप्रथम आईने में उस ने स्वयं का अवलोकन किया. 30 वर्ष की उम्र में भी वह सुंदर और कमनीय लग रही थी, इस से उसे कुछ संतोष का अनुभव हुआ. बिस्तर पर लेटते ही उस का दिमाग अतीत में भटकने लगा.

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