लेखक-सुधा गुप्ता
अंतिम भाग…
पूर्व कथा
पत्नी की मृत्यु के बाद प्रोफेसर साहब तनहा रह गए थे. बेटाबेटी की उन के प्रति इतनी आत्मीयता नहीं थी कि वह उन से पूछते कि वे कैसे दिन काट रहे हैं, क्या खातेपीते हैं. बेटी अन्नू विवाहित थी. जब भी मायके आती तो उन्हें खाना बना कर खिलाने घर की साफसफाई करने के बजाय मेहमानों की तरह व्यवहार करती. ऐसे में उन की विद्यार्थी पल्लवी का उन से खानेपीने के लिए पूछना, उन का ध्यान रखना, उन्हें भीतर तक छू गया. उसे बहू के रूप में पा कर उन का घर फिर से संवर सकता था अत: वह पल्लवी के मातापिता के पास अपने बेटे आदित्य के लिए पल्लवी का हाथ मांगने गए. बेटी अन्नू को उन्होंने एक दिन पहले बुला लिया ताकि वे भी पल्लवी के मातापिता से मिल लें. आदित्य को पता चलता है तो वह अपने पिता से खफा होता है कि उस से पहले पूछा क्यों नहीं. अन्नू भाई को समझाने के बजाय उलटा उस का साथ देती है. प्रोफेसर साहब अन्नू से कहते हैं कि आदित्य कहीं और शादी करना चाहता था तो तब क्यों नहीं कहा जब मैं ने उस से पूछा था. अब आगे…
सांस रुकने लगी मेरी. दिल भी रुकता सा लगने लगा. सुनता रहता हूं न कि लोग सदमे से मर जाते हैं, इसी तरह मर जाते होंगे. मेरा उजड़ा घर जो बरसों से सराय जैसा है, जहां अन्नू केवल अपनी सुविधा के अनुसार आती है, क्या यह नजर नहीं आता कि उस का पिता देखभाल के अभाव में मौत के कगार पर पहुंच चुका है और भाई भी मां के अभाव में न समय पर खाता है न पीता है. क्या वह नहीं चाहती कि कोई आ कर हम दोनों को संभाल ले या वह डरती है कि भाभी के आने से इस घर पर उस का एकाधिकार समाप्त हो जाएगा.
‘‘मुझे क्या पता था कि आप किसी से आदित्य की शादी की बात चला रहे हैं?’’
‘‘बता तो दिया है, और कैसे बताऊं. कह तो रहा हूं कि कल सुबह 12 बजे वे पतिपत्नी हम से मिलने, हमारा घर देखने आ रहे हैं. उस के बाद हम तीनों के साथ वे होटल शरमन में जाएंगे, जहां पल्लवी अपने भाई के साथ आ जाएगी.’’
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‘‘उसे यहां शादी नहीं करनी.’’
‘‘क्यों, यहां क्या बुराई है? पढ़ीलिखी घरेलू लड़की है, घर संभाल लेगी.’’
‘‘घर तो नौकर भी संभाल लेते हैं. घर का क्या है.’’
‘‘आज तक हम नौकरों के सहारे किस तरह जी रहे हैं, क्या तुम्हें नजर नहीं…’’ इतना कहतेकहते मेरा स्वर घुट गया था.
दोनों बहनभाई इस तरह पलटी मार गए कि मैं समझ ही न पाया क्या करूं. दनदनाती अन्नू अपना सामान उठा कर बाजार चली गई और आदित्य मानो हम दोनों के बीच पिसता सा लगा मुझे.
एक अंतिम विश्वास था कि मेरे बच्चे मुझ से बगावत नहीं कर सकते. सुबह मेहमान आएंगे तो कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो अशोभनीय होगा.
रात को खाना सदा की तरह बाजार से ही आया. अन्नू सुबह 10 बजे तक सोई रही. इतवार की वजह से आदित्य भी देर तक सोया रहा. दोनों में से किसी ने घर को व्यवस्थित नहीं किया. बाई आ कर सफाई भर कर गई. वह भला घर का इधरउधर पड़ा सामान क्यों संभालती.
12 बजे जब पल्लवी के मातापिता आए तब अन्नू ने यह कह कर उन्हें बाहर बरामदे में ही बैठा दिया कि यहां धूप है. मेरे कहने पर उन्हें पानी पिलाया और मेरे ही कहने पर कुछ फल काट कर उन के सामने धूल से सनी छोटी सी मेज पर सजा दिए. एक ठंडा सा व्यवहार था दोनों बच्चों का. शरम आ रही थी मुझे कि मेरी एम.ए. पास बेटी इतनी तमीज भी नहीं निभा पाई कि घर आए मेहमान को कहां बिठाते हैं और कैसे आवभगत करते हैं. रिश्ता हो न हो यह तो बाद की बात है लेकिन एक औपचारिक तहजीब तो मेरे बच्चे निभा देते.
‘‘पल्लवी और सोमेश होटल शरमन में हमारा इंतजार कर रहे हैं, चलें?’’ पल्लवी के पिता ने कहा.
काफी नानुकर के बाद दोनों बहनभाई उन के साथ गए और मात्र 5 मिनट वहां बैठ कर साथ ही लौट आए.
‘‘मुझे वापस जाना है, पापा,’’ मैं निकलती हूं. अच्छा आदित्य…’’ इतना कह कर अन्नू अपना बैग उठा कर चली गई और आदित्य अपनी मोटरसाइकिल उठा कर पता नहीं कहां चला गया. एक प्रश्न लिए रह गया मैं. क्या हुआ होगा होटल में? पल्लवी से आदित्य की क्या बात हुई होगी? किस से पूछता मैं कि वहां क्या हुआ, क्या बात हुई.
‘‘कैसी लगी तुम्हें पल्लवी? वे कल पूछेंगे तो क्या जवाब दूंगा,’’ रात को सोते समय मैं ने आदित्य से पूछा.
‘‘आप के कहने पर मैं चला गया था,’’ आदित्य के मुंह से शब्द फूटे, ‘‘लेकिन मैं ने पल्लवी को देखा तक नहीं.’’
‘‘क्यों नहीं देखा? तुम्हें जो पसंद है कम से कम उसी के बारे में मुझे बता देते तो मैं उन के घर रिश्ता ले कर तो न जाता.’’
चुप रहा आदित्य. मुझे झंझावात में छोड़ सो गया. मैं इसी शरम में डूबा जागता
रहा कि पल्लवी के मातापिता क्या सोचते होंगे मेरे बारे में.
सुबह सवेरे पल्लवी के पिता का फोन आ गया. आदित्य ने ही फोन उठाया था. परेशान हो गया मैं, क्या जवाब दूंगा पल्लवी के पिता को?
‘‘प्रोफेसर साहब, मुझे क्षमा कीजिएगा. मैं ने सुबहसुबह ही आप को परेशान किया. वास्तव में मैं अपने बेटे की वजह से घबरा गया हूं इसीलिए फोन करना पड़ा. मेरा बेटा आप के व्यवहार से बहुत नाराज है.
‘‘कल होटल में आप के बच्चों का आना और उठ कर चले जाना एक तमाशा सा ही लगा मुझे भी. समझ में ही नहीं आया कि अगर आप के बच्चे राजी नहीं थे तो आप ने हमारे बच्चों का मजाक क्यों बना दिया? क्षमा कीजिएगा, मुझे आप का रिश्ता मंजूर नहीं है, बस, इसीलिए फोन किया था.’’
आदित्य मेरा चेहरा देखने लगा. कड़वी सी हंसी चली आई मेरे होंठों पर. कंधा थपथपा दिया मैं ने आदित्य का.
‘‘बहुत अभागा है तू आदित्य. सच कहूं तो मैं खुश हूं पल्लवी के लिए. वह प्यारी सी बच्ची इतनी अच्छी है कि यह घर ही उस के लायक नहीं है. अब तुम जो चाहो करो, जैसे चाहो जिओ, आज के बाद मैं कभी कुछ नहीं कहूंगा.’’
उठ कर मैं बाहर बरामदे में चला आया और उसी सोफे पर बैठ गया जहां एक दिन पहले पल्लवी के मातापिता बैठे थे. सौभाग्य मेरे घर आया और बाहर से ही लौट गया. मेरी बेटी ने यह कह कर उन्हें घर दिखाया ही नहीं कि घर व्यवस्थित नहीं है. 10 साल से अपना घर संभालती मेरी बेटी मेरा घर इतना भी सजासंवार नहीं पाई कि मेहमान को दिखा सकते.
यह लड़की अपने भाई का कितना हित करेगी इस का अंदाजा मुझे आज हो रहा है. आज मैं जिंदा हूं, कल न रहा तो कौन आदित्य की चिंता करेगा?
इस घटना के 2 दिन बाद भी मैं कालिज नहीं जा पाया. सोचता हूं, जाऊंगा तो पल्लवी का सामना कैसे कर पाऊंगा. उस बच्ची का मन मेरी वजह से दुखी होगा. आदित्य भी गुमसुम था. न जाने क्यों मुझे पीड़ा नहीं हो रही थी. यह पहला अवसर है जब मैं आदित्य की चुप्पी से परेशान नहीं हूं.
‘‘पापा, आप मुझ से नाराज हैं?’’
‘‘नहीं तो बेटा, मैं नाराज क्यों होने लगा. मेरा क्या है, मैं आज हूं कल नहीं. मुझे क्या हक है जो अपनी पसंद तुम पर थोप दूं. पल्लवी के साथ जीवन तुम्हें काटना था, मुझे तो नहीं. तुम नहीं चाहते तो ठीक है. कल को वह आ जाती और तुम उसे थोपा हुआ मान कर स्वीकार ही न कर पाते तब भी दोष मेरे ही सिर पर आता.
‘‘तुम अपनी पसंद भी बता दो, कम से कम मेरा दायित्व तो पूरा हो. कौन है वह?’’
चुप रहा आदित्य, कुछ बोला ही नहीं. बहन के सामने जिस ने अपने परों पर पानी नहीं पड़ने दिया, अब चुप था.
‘‘मुझे नहीं तो अपनी बहन को बता देते. वह तो तुम्हारी शुभचिंतक है. उसे बता देना, फिर जैसा चाहो कर लेना.’’
‘‘पापा, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? दीदी मेरी बहन है तो मेरा भलाबुरा तो सोचेगी न.’’
‘‘हां, सोचेगी, तभी तो कल घर आए मेहमानों का बड़ा अच्छा सत्कार किया. क्या दोष था उन का जो उन्हें अन्नू ने पानी तक नहीं पूछा. बाहर बिठा दिया जहां हम किसी भी ऐरेगैरे को बिठा कर वापस भेज देते हैं. क्या तुम अपने दोस्तों को भिखारी की तरह बाहर से ही लौटा देते हो? पता नहीं मेरी शिक्षा में क्या खोट रह गया जो घर आए का सम्मान भी करना नहीं आया तुम्हें.’’
‘‘पापा, ऐसा नहीं है. मैं समझ ही नहीं पाया कि क्या करूं.’’
‘‘बस, आदित्य, मेरा जो अपमान तुम दोनों ने किया है उसे मैं मरते दम तक याद रखूंगा.’’
मैं ने हाथ जोड़ कर पल्लवी के परिवार से क्षमा मांग ली.
इस सारी कहानी को बीते 2 साल हो गए. पल्लवी आज भी मेरी नन्ही सी, प्यारी सी मित्र है. उस की शादी एक बहुत अच्छे घर में हो चुकी है. संयोग से अब उस का चयन मेरे ही कालिज में हो गया है, जिस वजह से हमारा साथ आज भी है.
एक कांटा सा जरूर चुभता है जब मुझे वह हादसा याद आता है. हादसा ही तो कहूंगा न मैं क्योंकि उस में मेरा विश्वास जो चकनाचूर हो गया था.
अब मैं रिटायर तो हो गया हूं लेकिन 2-4 साल का एक्सटेंशन मिल गया है. घर पर मन नहीं लगता क्योंकि मेरा घर आज भी वैसा ही सराय सा है. आदित्य की शादी नहीं हुई अभी. शायद उस की पसंद उसे आज तक नहीं मिली. अन्नू आज भी मेरे घर पर अपना उतना ही अधिकार जताती है जितना सदा था लेकिन यह भी सच है कि ममत्व और विश्वास का झीना सा आवरण भी अब हमारे बीच नहीं रहा.
मुझे मेरी बेटी अच्छी नहीं लगती. बड़ी अभागन है मेरी संतान जिसे अच्छाबुरा परखना ही नहीं आया. पारस हाथ आया था जिसे वह अनजाने ही खो बैठे और अब लोहे के टुकड़ों में सिर फोड़ रहे हैं. अच्छी घरेलू लड़की मिल ही नहीं रही जिसे हमारा सराय सा घर पसंद आ जाए. आज पिज्जा और बर्गर का युग है न.
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‘‘सर, आप के बिस्कुट.’’
सदा की तरह पल्लवी ने मुझे अपने हाथ के बने बिस्कुट थमाए. मैं नहीं जानता, न जाने कब का कोई छूटा रिश्ता है मेरा पल्लवी के साथ जो पुन: बना तो टूटा ही नहीं, उस प्रसंग के बाद भी.
‘‘जीती रहो,’’ पल्लवी का माथा सहला दिया मैं ने, जिस पर बड़ा सा सिंदूरी टीका दमकता है अब. हाथ उठा कर प्रकृति से मैं दुआ मांगता हूं कि मेरी बच्ची पल्लवी सदा सुखी रहे, सुहागन रहे, और ऐसी ही कोई बच्ची मेरे आदित्य के जीवन में भी आ जाए. काश, ऐसा कुछ हो जाए. काश, कुछ ऐसा हो
ही जाए. द्य