धर्म के नाम पर इस देश में सब चलता है

भागवत कथा और सत्संग के कार्यक्रम अकसर यहां वहां होते रहते हैं. इस तरह के कार्यक्रमों में लोगों की भारी तादाद को देख कर कई टैलीविजन चैनल सिर्फ इसी काम के लिए खुल चुके हैं. उन पर सुबह से ले कर शाम तक सिर्फ भक्ति से भरे कार्यक्रम ही दिखाए जाते हैं. मेरे मिलने वाले एक दोस्त के घर में उन की माताजी को इस तरह के कार्यक्रम देखने का बड़ा शौक है. जब मेरा उन के घर जाना हुआ, तो उस वक्त भी उन के यहां टीवी पर भागवत कथा का प्रसारण चल रहा था.

बड़ेबड़े गुच्छेदार बालों वाले एक बाबा भागवत कथा सुना रहे थे. उन का पूरा माथा हलदी और चंदन से बुरी तरह पुता हुआ था. साथ ही, गले में रुद्राक्ष की डिजाइनर माला भी. एक माला उन के हाथ में भी लिपटी हुई थी, जिसे वे अपने पैर छूने वाले भक्त के सिर पर छुआ देते थे.

मेरे दोस्त का पूरा परिवार एक जगह बैठ कर यह कार्यक्रम देख रहा था. देख क्या रहा था, बल्कि उन्हें दिखाया जा रहा था. उस की माताजी सब को जबरदस्ती बिठा कर कार्यक्रम दिखा रही थीं.

दरअसल, उन्हें एक दिन टैलीविजन पर ही किसी बाबा ने बता दिया था कि लोग अगर सत्संग और भागवत कथा अपनी आने वाली पीढ़ी को नहीं दिखाएंगे, तो हिंदू धर्म बरबाद हो जाएगा. साथ ही, यह धर्म दूसरे धर्मों का गुलाम हो जाएगा.

उसी दिन से दोस्त की माताजी ने पूरे परिवार को भागवत कथा दिखानी शुरू कर दी. सब देख रहे थे, तो मुझे भी वही देखना पड़ा. भागवत कथा कहने वाले बाबाजी का नाम बड़ा लंबा था. वे अपने प्रवचन में कह रहे थे, ‘‘देखिए, आज के लोगों का सोचना है कि ‘हम दो हमारे दो, बाकी हों तो कुएं में फेंक दो’. यानी आज के मांबाप एक या 2 बच्चों से ज्यादा करने के बारे में सोचते ही नहीं हैं. बच्चों को जन्म देने वाली मां भी ऐसा नहीं सोचती…’’

बाबाजी इतने पर ही नहीं रुके. वे आगे बोले, ‘‘सच्चा मां धर्म सिर्फ 1-2 बच्चों से नहीं, बल्कि कम से कम 10 बच्चों को जन्म देने से निभता है. है कोई ऐसी औरत, जिस के 10 बच्चे हों? अगर है, तो हाथ उठाए, हम उसे सम्मानित करेंगे.’’

बाबाजी बोल रहे थे और उन के सामने बैठी हजारों की भीड़ उन्हें सुन रही थी. टैलीविजन पर देख रहे लाखों लोग अलग से थे.

तभी भीड़ में से एक औरत ने अपना हाथ उठा दिया. बाबाजी ने खुशी के साथ प्रवचन दिया, ‘‘देख लो, हजारों की भीड़ में बस एक औरत है, जिस ने अपना मां होने का सच्चा धर्म निभाया है.‘‘आइए माई, आप मंच पर आइए. मैं खुद आप को शाल ओढ़ा कर सम्मानित करूंगा.’’बाबाजी ने खुद उठ कर उस औरत को शाल ओढ़ा कर सम्मानित किया. भीड़ में बैठी औरतें अपनी तकदीर को कोस उठीं. सोच रही होंगी कि काश, आज उन के 10 बच्चे होते, तो बाबाजी ने उन्हें भी सम्मानित किया होता. वे देशभर में टैलीविजन पर दिखाई दे रही होतीं.

मेरे लिए यह एकदम से हैरानी की बात थी. जहां एक ओर आबादी पर लगाम लगाए जाने के लिए कोशिशें की जा रही हों, वहीं यह सब होना वाकई में हैरत में डालने वाला था. रोजाना टैलीविजन पर चलने वाले लाखोंकरोड़ों रुपए के इश्तिहार और जगहजगह पर बने परिवार नियोजन केंद्र तो ठीक बाबाजी के कहने का उलटा करते नजर आते हैं.

सरकार नसबंदी कराने पर हर आदमी को कुछ पैसे भी प्रोत्साहन के रूप देती है, जिस से आबादी काबू में रह सके. अगर हर एक औरत 10 बच्चों को जन्म देने लगे, तो आबादी का आंकड़ा क्या होगा?

बहरहाल, उस औरत को सम्मानित करने के बाद बाबाजी ने फिर से प्रवचन देना शुरू कर दिया. वे कह रहे थे, ‘‘आजकल एक और बात बड़े जोरों पर चलन में है कि घर में लोगों से पूछ कर खाना बनाया जाता है. उन से पूछा जाता है कि तुम आज कितनी रोटी खाओगे? यह प्रथा एकदम गलत है.

‘‘किसी भी घर में ऐसा नहीं होना चाहिए. हर घर में रोज खाने में कम से कम 8-10 रोटियां फालतू बनानी चाहिए, जिस से अगर कोई साधु या मेहमान आ जाए, तो उसे भोजन दिया जा सके.

इस तरह फालतू खाना बनाने से कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि बरकत होती है यानी कभी घर में किसी चीज की कमी नहीं रहती.’’

भीड़ में बैठे सभी लोग इस बात से सहमत थे, क्योंकि यह बात उन के पूज्य बाबाजी ने कही थी. लेकिन वहीं दूसरी ओर यह भी कहा जा रहा था कि खाना कम से कम बिगाड़ें, क्योंकि आंकड़ों के हिसाब से अकेले भारत में ही 20 करोड़ से ज्यादा लोग रोजाना भूखे पेट सो जाते हैं. कुपोषण के चलते भारत में तकरीबन 42 फीसदी बच्चे उम्र के हिसाब से सही वजन के नहीं हैं.

भुखमरी मापने वाले ग्लोबल हंगर इंडैक्स यानी जीएचआई ने साल 2011-13 की अपनी रिपोर्ट में भारत को 63वें नंबर पर रखा है, जबकि श्रीलंका 43वें, पाकिस्तान 57वें, बंगलादेश 58वें नंबर पर है. चीन छठे नंबर पर है.

भारत को इस इंडैक्स ने ‘अलार्मिंग कैटीगरी’ में रखा है. लिस्ट में भयानक गरीबी झेलने वाले इथियोपिया, सूडान, कांगो, नाइजर, चाड व दूसरे अफ्रीकी देश शामिल हैं.

दुनिया में भूख से पीडि़त लोगों की कुल तादाद 84 करोड़, 20 लाख है. इन में से 21 करोड़ यानी तकरीबन एकचौथाई लोग अकेले भारत में हैं. भारत की हालत पहले से भले ही बेहतर हुई है, लेकिन विकसित देशों की बात जाने भी दें, तो पाकिस्तान और बंगलादेश से ज्यादा भुखमरी हमारे देश में है.

कहने को तो हम चांद से भी आगे निकल कर मंगल तक की यात्रा तय करने के सपने देख रहे हैं, पर सचाई यह है कि आज भी पूरी दुनिया में 75 फीसदी लोगों के पास दो वक्त की रोटी और तन ढकने के लिए एक अदद कपड़ा नहीं है.

फिर बाबाजी क्यों ऐसी बातें कर रहे थे? वे अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में देश को किस दिशा में ले जाना चाहते थे? कम से कम धर्म के नाम पर तो ऐसा नहीं होना चाहिए.

लेकिन बाबाजी को इन सब बातों से क्या मतलब. वे न तो ज्यादा पढ़ेलिखे थे और न ही गरीबी से पीडि़त या भूखे. वे तो चाहते थे कि देश में गरीबी बनी रहे, जिस से उन के मानने वालों की ज्यादा से ज्यादा तादाद रहे, क्योंकि गरीब आदमी दुखों से उबरने के लिए ऐसे बाबाओं के पास ही भागता है और फिर वे ही अंधविश्वासों और धर्म का हवाला दे कर उसे और ज्यादा गरीबी, भुखमरी की ओर धकेल देते हैं.

तीर्थ दर्शन और पाखंड

पंडेपुजारी पुराणों के हवाले से कहते फिरते हैं कि तीर्थों के दर्शनों के बड़े फायदे है और उन के दर्शन से ही पाप धुल जाते हैं और आदमी औरत का मन साफ हो जाता है.

ऋषिकेश, मथुरा, वाराणसी, नासिक, उज्जैन, गुरुवयार जैसे तीर्थों में रहने वाले जानते हैं कि उन के शहरों में किस तरह लूटपाट होती है. जो भक्त दिमाग और आंख बंद कर के आते हैं वे अक्सर लूट का शिकार होते हैं.

इसी तरह के एक तीर्थ प्रयागराज जिस का पहले नाम इलाहाबाद था, एक पति ने अपनी पत्नी को हथौड़े से मार दिया और फिर शव को वहीं छोड़ कर खुद पुलिस थाने में जा कर अपने को हवाले कर दिया. मामला कोई छोटी बात थी, न दहेज की, न सासससुर की, न दूसरी प्रेमिका या दूसरे प्रेमी की. पत्नी की उम्र सिर्फ 24 साल थी और शादी 14 साल की उम्र में ही हो गई थी और 3 बच्चे भी थे.

छुटपन में शादी, एक नहीं 3 बच्चे, पैसे की कमी, गुस्सा क्या नहीं था इन दोनों में बिना यह सोचे की 3 छोटे बच्चों का क्या होगा, आदमी ने औरत पर हथौड़ा चला दिया. इलाहाबाद यानी प्रयागराज का वह उपदेशों से भरा माहौल किस काम का रहा है कि न तो 14 साल की उम्र में शादी रोक न पाया, न छोटी सी लडक़ी को 3-3 की मां बनने से रोक पाया.

इतने पंड़ो, कथावाचकों की भीड़ का क्या फायदा हुआ कि आगापीछा सोचे बिना छोटी सी बात पर हथौड़े चल गए. गंगा का पानी क्यों नहीं इन के मन को साफ कर पाया जिस का गुणगान रातदिन कथाओं में भी सुना जाता है और अब टीवी, मोबाइलों पर मौजूद है.

‘‘तीर्थराज्य प्रयाग ऐसे राज्य हैं जिन के दर्शन से चारों पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मिलते हैं. बहुत पैसा मिलता है, घरपरिवार सुखी रहता है, बदन मजबूत व निरोगी रहता है.’’ इस तरह की बात प्रयागराज यानी इलाहाबाद के बारे में आज भी मोबाइल पर एकदम मिल जाती है. महाभारत, रामायण, रामचरितमानस और पुराणों का हवाला देकर बारबार कहा जाता है कि इलाहाबाद यानी प्रयागराज से बढ़ कर तीर्थ नहीं है. प्रयागराज की मिट्टी को छूने से ही पाप खत्म हो जाते है.

यह तो अचंभे की बात है न कि इसी इलाहाबाद में एक मर्द ने अपनी औरत को हथौड़े से मार डाला. प्रयागराज तीर्थ ने उस का दिमाग क्यों नहीं ठीक किया. और फिर वह थाने गया. आखिर प्रयागराज में थाने का क्या काम? इलाहाबाद तो मुसलमान नाम है, वहां तो सब खूनखराबा होते हो तो बड़ी बात नहीं पर नाम बदलने ही यह तीर्थ आखिर सारे गुनाहों से दूर क्यों नहीं हो गया कि पुलिस मौजूद रहती हैं.

असल में धर्म, पूजापाठ, रीतिरिवाज, दान किसी को सुधारते नहीं हैं. छोटीछोटी बातों पर झगड़े कराने में तो हर धर्म सब से अब्वल रहता है. हर धर्म एक तरफ भक्त से वसूलने में लगा रहता है और इसलिए वसूल पाने वालों को बचाता है तो दूसरी ओर भक्तों को बहकाता है. उसे बहकने में हथौड़े चलते हैं.

मासूम बेटियों की गुहार, बाबुल अभी न करना ब्याह

गीता की शादी जबरन एक अधेड़ आदमी के साथ की जा रही थी. गीता के मांबाप भी उस पर शादी का दबाव बना रहे थे. मांबाप ने 50 हजार रुपए में उस का सौदा उत्तर प्रदेश के एक अधेड़ कारोबारी से तय कर दिया था.

नवादा जिले के रजौली थाने के धमनी गांव की यह घटना है. इस बात की भनक लगने पर मुखिया और सरपंच गीता के घर पहुंच गए और उस के बाप को फटकार लगाने लगे.

विवाद बढ़ता देख कारोबारी अपने आदमियों के साथ भाग निकला. शिकायत मिलने के बाद भी पुलिस ने कारोबारी को पकड़ने में चुस्ती नहीं दिखाई. रजौली थाने के एसएचओ अवधेश कुमार ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि इस बारे में लिखित शिकायत मिलने पर ही कार्यवाही होगी.

गीता की मौसी उत्तर प्रदेश में रहती है और उसी ने अधेड़ कारोबारी को शादी के लिए तैयार किया था. 18 अप्रैल, 2017 को शादी कराने के लिए सभी लोग मंदिर की ओर निकलने की तैयारी में थे. इसी बीच मुखिया और सरपंच के हल्ला मचाने से गांव के तमाम लोग वहां जुट गए.

बिहार के नवादा जिले के कौवाकोल गांव की रहने वाली सुगंधा (बदला नाम) की शादी 13 साल की उम्र में कर दी गई थी. तब वह जानती भी नहीं थी कि शादी किस चिडि़या का नाम है.

आज 22 साल की सुगंधा का यह हाल है कि उस के 3 बच्चे हो गए हैं और वह जिस्मानी रूप से इतनी कमजोर है कि ठीक से चलफिर भी नहीं पाती है.

देशभर में बाल विवाह का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है. बाल विवाह होने वाले देशों में भारत 11वें नंबर पर है. इस मामले में भारत बहुत पिछड़े अफ्रीकी देशों इथियोपिया व लीबिया के साथ खड़ा है.

भारत के तमाम राज्यों में बाल विवाह के मामलों में बिहार सब से आगे है. यह हैरानी की बात है कि राज्य की 69 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में ही कर दी जाती है.

बिहार के पश्चिमी चंपारण, कैमूर, रोहतास, मधेपुरा, गया, नवादा और वैशाली जिलों में सब से ज्यादा बाल विवाह हो रहे हैं.

राष्ट्रीय विवाह सैंपल सर्वे के मुताबिक, देशभर में 22 से 24 साल की उम्र वर्ग की 47.4 फीसदी औरतें ऐसी हैं, जिन की शादी 18 साल से कम उम्र में ही कर दी गई. इन में से 56 फीसदी औरतें गांवों की और 29 फीसदी औरतें शहरी इलाकों की हैं.

बिहार में 69 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में कर के मांबाप अपने बोझ को हटा डालते हैं. वहीं राजस्थान में 65.2 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 54.8 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 54 फीसदी, असम में 38.6 फीसदी, तमिलनाडु में 23.3 फीसदी व गोवा में 12.1 फीसदी लड़कियों की शादी बहुत छोटी उम्र में ही कर दी जाती है.

बिहार भले ही हर मामले में पिछड़ा हो, लेकिन बाल विवाह के मामले में देश के सारे राज्यों को पछाड़ दिया है. पश्चिमी चंपारण में 80 फीसदी लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है. नवादा में 73 फीसदी, रोहतास और कैमूर में 70 फीसदी, मधेपुरा में 66 फीसदी व वैशाली में 61.6 फीसदी लड़कियों को 18 साल से कम उम्र में ही ब्याह कर मांबाप अपनी जिम्मेदारी से नजात पा लेना मानते हैं. पटना जिले में 40 फीसदी लड़कियां बाल विवाह की शिकार बनती हैं.

बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा कहती हैं कि औरतों के पढ़नेलिखने और जागरूक होने से ही बाल विवाह पर रोक लग सकती है. इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए कानून से ज्यादा समाज के सहयोग की जरूरत है.

यह सही है कि समाज में बड़ी तादाद में बाल विवाह हो रहे हैं, लेकिन समय से उन की सूचना नहीं मिलने की वजह से कानून कुसूरवारों पर कोई कार्यवाही नहीं कर पाता है.

डाक्टर किरण शरण बताती हैं कि कम उम्र में शादी होने से लड़कियां दिमागी और जिस्मानी रूप से कच्ची होती हैं. उन्हें न तो सैक्स के बारे में कुछ पता होता और न ही परिवार की जिम्मेदारियों की ही जानकारियां होती हैं. कम उम्र में मां बन जाने से जच्चा और बच्चा दोनों की जान के लिए खतरा होता है.

लड़कियों में जागरूकता के बगैर बाल विवाह पर रोक मुमकिन नहीं है. खुद को बाल विवाह की शिकार होने से बचाने वाली कुछ लड़कियां इस की जीतीजागती मिसाल हैं.

नेहरू युवा केंद्र से जुड़ी कटिहार की आरती, नारी शक्ति फाउंडेशन की सदस्य गया की राधिका, नवादा की रूबी और प्रमिला ने बताया कि उन्होंने किस तरह से खुद को बाल विवाह से बचाया.

राधिका ने बताया कि जब उस के पिता ने 15 साल की उम्र में ही उस की शादी तय कर दी, तो उस ने महिला संगठनों को बता दिया. इस से उस की शादी रुक गई.

प्रमिला ने बताया कि वह पढ़ना चाहती थी, पर उस के मांबाप उस की शादी करने पर उतारू थे. उस ने यह बात अपने स्कूल के मास्टर को बताई. मास्टर ने उस के मांबाप को समझाया और कानूनी कार्यवाही करने की चेतावनी दी. उस के बाद ही उस के पिता ने उस की शादी की जिद छोड़ी.

समाजसेवी आलोक कुमार कहते हैं कि बाल विवाह के मामलों में अकसर यही देखा गया है कि अनपढ़ और गरीब लोगों को कुछ रुपयों का लालच दे कर उन की लड़की से शादी कर उन्हें दूसरे राज्यों में ले जाया जाता है. उस के बाद उन का शोषण शुरू हो जाता है.

क्या हैं बाल विवाह रोकने के कानून

बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 की धारा-2 के तहत 21 साल से कम उम्र के लड़के और 18 साल से कम उम्र की लड़की को नाबालिग माना गया है. इस कानून के तहत बाल विवाह को गैरकानूनी करार दिया गया है. बाल विवाह की इजाजत देने, शादी तय करने, शादी करवाने या शादी समारोह में हिस्सा लेने वालों को सजा दिए जाने का नियम है.

कानून की धारा-10 के मुताबिक, बाल विवाह कराने वाले को 2 साल तक साधारण कारावास या एक लाख रुपए के जुर्माने की सजा दी जा सकती है. वहीं धारा-11 कहती है कि बाल विवाह को बढ़ावा देने या उस की इजाजत देने वालों को 2 साल तक का कठोर कारावास और एक लाख रुपए जुर्माने की सजा हो सकती है.

तेजस्वी यादव बिहारियों को देंगे नौकरी

महागठबंधन 2 की सरकार ने कहा है कि वह बिहार में 20 लाख नौकरियां देगी. तेजस्वी यादव का वादा कितना चलता है या चल सकता है, यह पूरे शक में है. बिहार की सरकार के पास 20 लाख और लोगों को नौकरियां देना नामुमकिन है क्योंकि सरकार के खजाने में इतना पैसा है ही नहीं. फक्कड़ सरकार तो वैसे ही भीख का कटोरा ले कर केंद्र सरकार के सामने खड़ी रहती है या बैंकों से उधार लेती रहती है.
असलियत यह है कि जनता को सम?ा दिया गया है कि नौकरी वह है जिस में ऊंचे पंडों, पादरियों की तरह काम करना न पड़े और बातों से ऐशोआराम मिल जाए.

यह सिर्फ सरकारी नौकरी में हो सकता है जहां वेतन पैंशन की तरह मिलता है और दिन पान खाने में, चुगली करने में, घूमनेफिरने या रिश्वतें बटोरने में बीतता है. काम होता है तो रुपए में 10 पैसे. बाकी 90 पैसे बटोरने के लिए जो मेहनत करनी पड़ती है, उसे नौकरी कहना चाहें तो कह लें पर है वह लूट ही.

तेजस्वी यादव अगर 20 लाख नौकरियां देने वाले हैं तो सम?ा लें कि 20 लाख और लुटेरों को बिहार के सिर पर बैठाया जाएगा. बिहारियों के लिए राज्य छोड़ कर जाना इसीलिए चालू रहेगा क्योंकि नौकरियां कुछ को मिल गईं तो दूसरों की जाएंगी.
सरकार कई बार कहती है कि उस ने खेतों से होती सीधी सड़क बना कर जौब क्रिएट की, नौकरियां दीं जिन्होंने सड़क बनाई. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. बस किसानों की जमीन हथियाई गई, सड़क के किनारों की जमीनें दिए मुआवजे से ज्यादा दाम पर बेची गईं, ठेकेदारों की चांदी हुई, टोल जमा करने वालों को मोटा कमीशन मिला और आम जनता को वह रास्ता भी नहीं मिला, जो उन की जमीन पर बना था.

जेसीबी के कारखाने ने हजारों नौकरियां दीं, यह अंगरेज प्राइम मिनिस्टर बोरिस जौनसन ने भारत आ कर जेसीबी फैक्टरी में कहा था पर यह जेसीबी भारत में जुल्म की निशानी बन चुकी है. आज इसे नफरत से देखा जाने लगा है. यह धौंस की निशानी है. जेसीबी नौकरियां नहीं देती, यह नौकरीपेशा लोगों के सिर से छत हटाने के लिए जानी जाने लगी है. देश की आनबानशान तिरंगे में जब किसी अपने का शव आए तो पता नहीं रहता कि तिरंगे को प्यार करें या उस से नफरत.

जौब देने के नाम पर हजारों तरह के टैक्स लगाए जाते हैं. कुछ राज्यों में नौकरियां शराब की बिक्री पर लगे टैक्स पर टिकी हैं. बढ़ते जीएसटी की वजह सरकारी नौकरी में लगे लोगों के सुख हैं. ईकौमर्स ने हजारों को नौकरियां दी हैं जो घरघर सामान पहुंचा रहे हैं पर लाखों छोटे दुकानदारों की दुकानें बंद करा दीं. यह कैसी नौकरी पैदा करने की खेती है? मंदिरों में पूजा के फूल उगाने के लिए गेहूं के खेत इस्तेमाल करना एकदम बेवकूफी और पागलपन है और सरकारें इसी में लगी हैं.

तेजस्वी यादव का वादा कोरा रह जाएगा यह तो पक्का है पर नरेंद्र मोदी के 2 करोड़ की नौकरियों के पक्के वादे से तो कम ही है. नरेंद्र मोदी तो वादों से मुकर जाने के लिए अब जाने जाते ही हैं. 

पति ने किया पत्नी का मर्डर

मियांबीवी के झगड़े आम हैं पर कभी कभार हत्या में भी तबदील हो जाते हैं. दिल्ली में एक मैकेनिक का घर बेचने को ले कर हो रहे झगड़े में मर्द ने औरत पर किसी तेज चीज से हमला कर दिया और शायद यह एहसास होने पर कि कुछ गलत हो गया हैउस ने खुद को भी घायल कर दिया. दोनों की अपने बड़े बच्चों के सामने मौत हो गई.

 

कूएं में कूद जाऊंगीआग लगा लूंगीजहर पी लूंगाघर छोड़ कर भाग जाऊंगा जैसे बोल अक्सर मियांबीवी के झगड़ों में झल्ला कर बोले जाते हैं. मर्द और औरत में कौन सही है कौन गलतइस का फैसला नहीं होता. झगड़ा तो किस की चलेगी पर होता है. पहले हमेशा मर्दों की चलती रही है पर अब औरतें भी बराबर होने लगी हैं.

यह बात दूसरी कि आम आदमी को पट्टी पढ़ाई जाती है कि औरत पैर की जूती हैवहीं रखो. यही सीख जो मांबाप देते हैंपंडेपादरी देते हैंसमाज देता हैरिश्तेदार देते हैंझगड़ों को मारपीट की हद तक ले जाते हैं.

जिस भी बात पर 2 जनों की राय एक न हो वहां कौन सही है कौन गलत का पूरा फैसला कभी नहीं हो सकता. हर मामले के कई पहलू होते हैं और हरेक अपनी समझ से अपना मन बनाता है. अच्छे पतिपत्नी के होते हैं जो एकदूसरे की पूरी तरह सुनते हैं और बिना अकड़ लाए तय करते हैं कि क्या सही हैक्या गलत है. अगर पतिपत्नी में से कोई तीसरे से चिपक भी रहा है तो मरनामारना कोई तरीका नहीं है. आज किसी को मार कर उस की लाश को निपटाना आसान नहीं है. अगर बच्चे हो तो मारने वाला भी जेल में रहता है तो बच्चों की देखभालके लिए कोई बचता नहीं. तीसरे के साथ जुड़ाव होने पर घर से अलग होना सब से सही है.

हमारे समाज में पतिपत्नी झगड़े मारपीट में इसलिए ज्यादा तबदील होते हैं कि यहां शादी को तोडऩा आसान नहीं है. अगर झगड़े के बाद आदमी या औरत कुछ दिन अपना अकेले का घर बना सकते हों तो उन्हें जल्दी ही एहसास हो जाए कि वजह कुछ भी रही होवे एकदूसरे के बिना अधूरे हैं. इस के लिए जरूरी है कि मर्द और औरत का हमेशा बाहर काम करते रहें और अपने पैरों पर खड़े हों.

दूसरी जरूरत हो कि कानून यह मजबूर करे कि कोई मकानमालिक अकेले आदमी या अकेली औरत के मकान किराए पर देने से मना न करेगा. चाहे मकान बड़ा हो या छोटी खोलीआजकल अकेलों को घर मिलना मुश्किल होता जा रहा है.

मुश्किल यह है कि सरकारें तो धर्मङ्क्षहदूमुसलिममूॢतयोंनारों में इतनी लगी हैं कि समाज की सब से बड़ी जरूरतघरसुखी घरपर उन का कोई ध्यान नहीं है.

कौमनवैल्थ गेम्स, 2022 : ऐसे निखरे हैं भारत के ये ‘कुंदनवीर’

‘कुंदनवीर’ भारत में जब कोई खिलाड़ी किसी इंटरनैशनल खेल इवैंट में मैडल जीतता है, तभी उस की कुछ पूछ होती है. परिवार वाले और कुछ संगीसाथी एयरपोर्ट पर ढोलनगाड़ों से उस का स्वागत करते हैं, नेता उस में अपनी जाति ढूंढ़ कर अपनी ही वाहवाही करते हैं और जनता सोशल मीडिया पर चंद अच्छीबुरी बातें लिख कर आगे निकल लेती है. फिर अगले कुछ साल के लिए उन्हें भुला दिया जाता है. दुख और हैरत की बात यह है कि इक्कादुक्का को छोड़ कर कोई भी ऐसे खिलाडि़यों की जद्दोजेहद के बारे में सपने में भी नहीं सोच पाता है.

हां, टांगखिंचाई करने में कोई पीछे नहीं रहता. हाल ही में इंगलैंड के बर्मिंघम में कौमनवैल्थ गेम्स हुए थे. 8 अगस्त, 2022 को जब ये गेम्स खत्म हुए, तब तक भारत ने 22 गोल्ड मैडल, 16 सिल्वर मैडल, 23 ब्रौंज मैडल जीत लिए थे और वह आस्ट्रेलिया, इंगलैंड और कनाडा के बाद चौथे नंबर पर रहा था. भारत की झोली में कुल 61 मैडल आए. मैडल का रंग कोई भी रहा हो, पर जिस खिलाड़ी ने उसे अपने गले में पहनने का गौरव हासिल किया, वह उस की सालों की कड़ी मेहनत का मीठा फल था. अगर सिर्फ गोल्ड मैडल जीतने वालों पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन में से ज्यादातर खिलाड़ी ऐसे थे, जिन्होंने अपने हौसले, जज्बे और कड़ी मेहनत से साबित कर दिया कि भले ही गरीबी आप की राह में रोड़ा बन कर खड़ी हो जाए, पर अगर खुद पर भरोसा हो तो कोई भी बाधा पार करना मुश्किल नहीं है.

22 गोल्ड मैडल जीतने वाले इन ‘कुंदनवीर’ खिलाडि़यों के बारे में जान कर आप को यह बात समझ में आ जाएगी : मीराबाई चानू साल 2022 के कौमनवैल्थ गेम्स में 49 किलोग्राम भारवर्ग में गोल्ड मैडल जीतने वाली इस जीवट महिला का जन्म 8 अगस्त, 1994 को भारत के मणिपुर राज्य की राजधानी इंफाल के नांगोपोक इलाके में हुआ था. एक नामचीन दैनिक अखबार (हिंदुस्तान) की खबर के मुताबिक, जब मीराबाई चानू अपने घर में जलाने के लिए लकड़ी लाती थीं, तो अपने भाई से भी ज्यादा वजन उठा लेती थीं. उस समय उन की उम्र महज 12 साल की ही थी. यह देखने के बाद मातापिता ने उन की इस प्रतिभा को पहचाना और उन्हें खेल में आगे बढ़ने को कहा. निजी जिंदगी में सिर पर लकड़ी ढोने और वेटलिफ्टिंग खेल में वजन उठाने में जमीनआसमान का फर्क होता है.

आज मुसकराती हुई मीराबाई चानू जब पोडियम पर गोल्ड मैडल को चूमती हैं, तो शायद ही किसी को उन के उस दर्द का एहसास होता होगा, जो उन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए सहा है. मीराबाई चानू चर्चा में तब आई थीं, जब उन्होंने 2014 ग्लासगो कौमनवैल्थ गेम्स में 48 किलोग्राम भारवर्ग में सिल्वर मैडल जीता था. इस के बाद 2020 टोक्यो ओलिंपिक गेम्स में 49 किलोग्राम भारवर्ग में उन्होंने सिल्वर मैडल जीत कर भारत का मान पूरी दुनिया में बढ़ाया था. जेरेमी लालरिनुंगा महज 19 साल के जेरेमी लालरिनुंगा ने भारत को वेटलिफ्टिंग खेल के 67 किलोग्राम भारवर्ग में गोल्ड मैडल दिलाया, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वे अपने कैरियर की शुरुआत में एक मुक्केबाज बनना चाहते थे.

उन्होंने 4 साल तक मुक्केबाजी भी की, लेकिन छोटी कदकाठी का होने के चलते उन्होंने वेटलिफ्टिंग में आने का फैसला लिया. मिजोरम के रहने वाले जेरेमी लालरिनुंगा के पिता अपने समय के मुक्केबाज रहे हैं, लेकिन बाद में उन्होंने 8 लोगों के परिवार का भरणपोषण करने के लिए पीडब्लूडी महकमे में नौकरी करना स्वीकार किया था. जेरेमी लालरिनुंगा ने बताया, ‘‘मैं ने अपने गांव की एसओएस अकादमी में वेटलिफ्टिंग कैरियर की शुरुआत की थी. वहां कोच मुझ से बांस लाने को कहते थे और धीरेधीरे उठाने को कहते थे. वे बांस 5 मीटर लंबे और 20 मिलीमीटर चौड़े थे. उन पर कोई भार नहीं था, लेकिन वजन की तुलना में एक स्टिक उठाना असल में मुश्किल था, क्योंकि आप को यह जानना होगा कि इसे कैसे संतुलित किया जाए. ‘‘मैं ने दिनरात अभ्यास किया, बांस की बल्लियां उठा कर संतुलन बनाने की कला सीखी. इस के बाद मुझ से वेट लिफ्ट करने को कहा गया.’’ अचिंता शेउली 20 साल की उम्र के इस होनहार लड़के ने 73 किलोग्राम भारवर्ग में रिकौर्ड 313 भार उठा कर इतिहास रचा और गोल्ड मैडल अपने नाम किया. लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें बेहद ही मुश्किल सफर तय करना पड़ा है.

एक बड़े अखबार (इंडियन ऐक्सप्रैस) के मुताबिक, परिवार के हालात खराब होने की वजह से अंचिता शेउली को अच्छी डाइट नहीं मिलती थी और वे कई बार बीमार हो जाते थे. अंचिता शेउली के परिवार के एक सदस्य ने इस अखबार से बात करते हुए बताया, ‘‘हम उस की ज्यादा मदद नहीं कर पाते थे. जब वह नैशनल के लिए गया तो हम ने उसे 500 रुपए दिए थे और वह बेहद खुश था. जब वह पुणे में था, तो अपनी ट्रेनिंग का खर्चा उठाने के लिए किसी लोडिंग कंपनी में काम करता था.’’ लवली चौबे, नयन मोनी सैकिया, पिंकी और रूपा रानी तिर्की भारत के लिए एक अजूबे खेल लौन बाल्स में गोल्ड मैडल हासिल करने वाली इन 4 महिलाओं की जितनी तारीफ की जाए, कम है. 42 साल की लवली चौबे झारखंड के रांची से आती हैं.

एक मिडिल क्लास फैमिली की लवली चौबे के पिता कोल इंडिया में मुलाजिम थे, जो अब रिटायर हो चुके हैं, जबकि उन की माता घरेलू औरत हैं. लवली चौबे अभी झारखंड पुलिस में सिपाही हैं. उन्होंने साल 2008 में पहली बार लौन बाल्स नैशनल्स में हिस्सा लिया था और गोल्ड मेडल जीता था. वे इस टीम की लीडर हैं असम के गोलाघाट में जनमी नयन मोनी सैकिया एक किसान की बेटी हैं. साल 2008 में उन्होंने वेटलिफ्टिंग में अपने प्रोफैशनल कैरियर की शुरुआत की थी, लेकिन पैर में लगी चोट की वजह से उन्हें यह खेल छोड़ना पड़ा. साल 2011 से ही वे असम के जंगल महकमे में नौकरी करती हैं. दिल्ली में जनमी पिंकी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्पोर्ट्स डिगरी हासिल की है. वे दिल्ली के ही एक स्कूल में बतौर फिजिकल ऐजूकेशन टीचर के तौर पर काम करती हैं. दिल्ली पब्लिक स्कूल में जहां वे पढ़ाती हैं, उन्हें वहां पर ही लौन बाल्स के बारे में सब से पहले जानकारी मिली थी.

यहां कौमनवैल्थ गेम्स, 2010 के लिए इस को तैयार किया गया था. इसी के बाद पिंकी की दिलचस्पी इस खेल में आई और आज वे कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल विजेता हैं. झारखंड के रांची से ताल्लुक रखने वाली रूपा रानी तिर्की राज्य सरकार में जिला स्पोर्ट्स अफसर हैं. वे भारत के लिए 3 कौमनवैल्थ गेम्स में हिस्सा ले चुकी हैं. जनवरी महीने में उन की शादी को एक महीना ही हुआ था, जब उन्हें कैंप के लिए बुला लिया गया था. उन के पति रोड कंस्ट्रक्शन के काम में हैं. सुधीर लाठ कौमनवैल्थ गेम्स में पैरा पावरलिफ्टिंग की हैवीवेट कैटेगरी में गोल्ड मैडल जीत कर इतिहास रचने वाले सुधीर लाठ बचपन में ही महज 5 साल की उम्र में पोलियो का शिकार हो गए थे. कुछ साल तो ऐसे ही बीत गए, लेकिन बाद में उन्होंने खुद को फिट रखने के लिए पावरलिफ्टिंग शुरू की. इस खेल ने उन्हें हौसला दिया और धीरेधीरे यह खेल उन के लिए नई जिंदगी बन गया. सुधीर लाठ 4 भाइयों में एक हैं. उन के पिता सीआईएसएफ जवान राजबीर सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं.

भाइयों के साथ परिवार में मां व चाचा हैं. सुधीर लाठ अपना दमखम बनाए रखने के लिए रोजाना 5 लिटर दूध के साथ ही चने व बादाम खाते हैं. बजरंग पूनिया इस भारतीय पहलवान ने कौमनवैल्थ गेम्स के 65 किलोग्राम भारवर्ग में कनाडा के लचलान मैकनीला को हरा कर गोल्ड मैडल जीता. बजरंग पूनिया के पिता और भाई भी पहलवानी करते थे, लेकिन घर की माली हालत ठीक न होने के चलते केवल बजरंग को ही पहलवानी में आगे बढ़ाया गया, पर पिता के पास बेटे को घी खिलाने के पैसे नहीं होते थे. लिहाजा, बस का किराया बचा कर उन के पिता अब साइकिल से चलने लगे थे. जो पैसे बचते, उसे वे अपने बेटे की डाइट पर खर्च करते थे. साक्षी मलिक इस महिला पहलवान पर सब की नजरें टिकी थीं. खुद साक्षी मलिक के लिए भी यह फाइनल मुकाबला खुद को बेहतर साबित करने का एक बेहतरीन मौका था. ऐसा हुआ भी और साक्षी मलिक ने 62 किलोग्राम भारवर्ग के फाइनल में कनाडा की एना गोडिनेज गोंजालेज को बाय फाल के जरीए 4-4 से मात दी. पहले 3 मिनटों में 4 अंकों से पिछड़ रही 29 साल की साक्षी मलिक ने अगले 3 मिनट की शुरुआत में ही टेकडाउन से 2 अंक लिए और फिर बेहतरीन दांव लगाते हुए कनाडाई खिलाड़ी को पिन कर गोल्ड मैडल जीत लिया.

बाद में साक्षी मलिक ने कहा, ‘‘इस कौमनवैल्थ गेम को मैं आखिरी सोच कर लड़ी थी. साथ ही, खुद को मोटिवेट करने के लिए अभ्यास करती थी और कभी भी नैगेटिव नहीं सोचती थी.’’ दीपक पूनिया भारत के इस दमदार पहलवान ने 86 किलोग्राम भारवर्ग में पाकिस्तान के मुहम्मद इनाम को हरा कर गोल्ड मैडल जीता. हरियाणा के झज्जर जिले के गांव छारा में एक सामान्य परिवार से आने वाले दीपक पूनिया अपने गांव में और आसपास स्थानीय कीचड़ कुश्ती को देखते हुए बड़े हुए. उन के पिता और दादा अपने समय के स्थानीय पहलवान थे, इसलिए दीपक को भी महज 4 साल की उम्र से ही अखाड़े में उतार दिया गया था.

दीपक पूनिया के पिता सुभाष एक साधारण किसान हैं. उन्होंने अपने बेटे को खेतीबारी के साथसाथ दूध बेच कर एक अव्वल दर्जे का पहलवान बनाया है. रवि कुमार दहिया भारत के इस स्टार पहलवान ने फ्रीस्टाइल 57 किलोग्राम भारवर्ग के फाइनल में नाइजीरिया के एबिकेवेनिमो विल्सन को 10-0 से हरा कर गोल्ड मैडल अपने नाम किया. टोक्यो ओलिंपिक गेम्स में सिल्वर मैडल जीतने वाले पहलवान रवि कुमार दहिया के पिता राकेश दहिया के पास खुद की 4 बीघा जमीन है. साथ ही, वे 20 एकड़ जमीन पट्टे पर ले कर खेती करते हैं और परिवार का पालनपोषण करते हैं. खेतों में काम करने वाले राकेश दहिया रोजाना गांव नाहरी से तकरीबन 70 किलोमीटर दूर दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में बेटे के लिए दूधमक्खन ले कर जाते थे. वे रोजाना सुबह साढ़े 3 बजे उठ जाते थे और 5 किलोमीटर पैदल चल कर रेलवे स्टेशन पहुंचते थे. दिल्ली के आजादपुर स्टेशन पर उतर कर 2 किलोमीटर का रास्ता पैदल तय कर वे छत्रसाल स्टेडियम में पहुंचते थे.

विनेश फोगाट एक ऐसी महिला पहलवान, जिस ने लगातार 3 कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीत कर नया इतिहास बनाया है. उन्होंने महिलाओं के 53 किलोग्राम भारवर्ग में फाइनल मुकाबले में श्रीलंका की चामोडया केशानी को 4-0 से हराया. 24 अगस्त, 1994 को जनमी विनेश फोगाट ‘द्रोणाचार्य अवार्ड’ विजेता महावीर फोगाट की भतीजी और इंटरनैशनल पहलवान गीता फोगाट व बबीता फोगाट की चचेरी बहन हैं. महावीर फोगाट के भाई राजपाल यानी विनेश फोगाट के पिता की एक हादसे में मौत हो गई थी. इस के बाद महावीर फोगाट ने ही अपनी बेटियों के साथ विनेश और उन की बहन प्रियंका को अपनाया और उन्हें पहलवानी की ट्रेनिंग दी.

चरखी दादरी जिले के गांव बलाली की रहने वाली विनेश फोगाट की मां प्रेमलता को बच्चेदानी का कैंसर था. उसी समय रोडवेज विभाग में चालक प्रेमलता के पति राजपाल फोगाट की मौत हो गई थी. इस सब के बावजूद प्रेमलता ने विनेश को इस मुकाम तक पहुंचाया और आज खुद भी कैंसर से जंग जीत कर उन का हौसला बढ़ा रही हैं. नवीन मलिक कौमनवैल्थ गेम्स में सोनीपत के गांव पुगथला के रहने वाले नवीन मलिक ने 74 किलोग्राम भारवर्ग में गोल्ड मैडल जीत कर इतिहास रचा है. 3 साल की उम्र से पहलवानी सीख रहे नवीन मलिक ने फिलहाल 12वीं जमात के एग्जाम दिए हैं. उन के पिता किसान हैं और खुद भी पहलवानी करते थे, इसलिए उन्होंने अपने दोनों बेटों को पहलवानी की राह पर आगे बढ़ाया. नवीन मलिक के पिता धर्मपाल रोजाना नवीन के लिए घर से दूध ले कर जाते थे.

गांव से गाड़ी से गन्नौर जाते और वहां से ट्रेन से और फिर पैदल 10 किलोमीटर चल कर नवीन के अखाड़े में पहुंचते थे. जब नवीन मलिक अभ्यास करते थे, तो उस समय आधुनिक उपकरण कम ही थे. ऐसे में अपनी कलाई को मजबूत करने के लिए उन्होंने सीमेंट को बालटी में भर दिया था, जिस के सूखने के बाद उस से देशी जुगाड़ तैयार किया था. भाविना हसमुखभाई पटेल इन्होंने पैरा टेबल टैनिस महिला वर्ग 3-5 इवैंट में गोल्ड मैडल जीत कर इतिहास रचा है. गुजरात के मेहसाणा जिले के वडनगर इलाके के एक छोटे से गांव में 6 नवंबर, 1986 को भाविना का जन्म हुआ था. महज एक साल की उम्र में उन्हें पोलियो हो गया था. परिवार की माली हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि उन का इलाज कराया जा सके. गरीबी और पोलियो से जूझने के बावजूद भाविना ने कभी हार नहीं मानी. इस के बाद उन्होंने शौक और मनोरंजन के लिए टेबल टैनिस खेलना शुरू कर दिया.

ह्वीलचेयर पर बैठ कर टेबल टैनिस खेलते हुए उन्होंने इस में कैरियर बनाने की सोची, जिस में वे कामयाब हुईं. नीतू गंघास 21 साल की नीतू गंघास हरियाणा के भिवानी इलाके की रहने वाली हैं. उन्होंने मिनिमम वेट 45-48 किलोग्राम भारवर्ग के फाइनल में वर्ल्ड चैंपियनशिप 2019 की ब्रौंज मैडल विजेता रेस्जटान डेमी जैड को हरा कर गोल्ड मैडल अपने नाम किया. युवा भारतीय मुक्केबाज नीतू गंघास ने इस गोल्ड मैडल को अपने पिता जय भगवान को समर्पित किया, जिन्होंने अपनी बेटी के सपने को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. हरियाणा सचिवालय के कर्मचारी जय भगवान 2 बार की विश्व युवा चैंपियन नीतू को ट्रेनिंग देने के लिए पिछले 3 साल से अवैतनिक अवकाश पर हैं. अमित पंघाल भारतीय मुक्केबाज अमित पंघाल ने 48-51 किलोग्राम भारवर्ग में इंगलैंड के कियारन मैकडोनाल्ड को 5-0 से हरा कर गोल्ड मैडल जीता. अमित पंघाल का जन्म हरियाणा के रोहतक के मायाना गांव में 16 अक्तूबर, 1995 को हुआ था. इन के पिता का नाम विजेंद्र सिंह है,

जो एक किसान हैं. इन के बड़े भाई का नाम अजय है, जो खुद भी बौक्सिंग करने का शौक रखते हैं और इन के भाई ने अमित को बौक्सिंग करने के लिए प्रेरित किया, जिस से इन्हें बचपन से ही मुक्केबाजी का माहौल मिला. एल्डोस पौल पुरुषों के ट्रिपल जंप में एल्डोस पौल ने इतिहास रच दिया और वे कौमनवैल्थ गेम्स के ट्रिपल जंप इवैंट में भारत के लिए गोल्ड मैडल जीतने वाले पहले एथलीट बन गए. उन्होंने 17.03 मीटर लंबी छलांग लगाई और गोल्ड मैडल पक्का कर लिया. 7 नवंबर, 1996 को केरल के एर्नाकुलम में जनमे एल्डोस पौल ने बहुत छोटी उम्र में मां को खो दिया था. इस के बाद उन की दादी मरियम्मा ने ही उन्हें संभाला था. एल्डोस पौल बचपन में एथलीट बनने का सपना बिलकुल नहीं देखते थे. हां,

उन की कदकाठी एथलीट बनने के लिए अच्छी थी और वे फिट भी थे, लेकिन कोटामंगलम के मशहूर एमए कालेज में एडमिशन लेने के बाद एल्डोस पौल ने एथलैटिक्स में हाथ आजमाया, क्योंकि यह कालेज अपने ट्रैक ऐंड फील्ड कल्चर के लिए काफी मशहूर है. निखत जरीन वर्ल्ड चैंपियन भारतीय मुक्केबाज निखत जरीन ने महिला 50 किलोग्राम भारवर्ग मैच में बेलफास्ट की कार्ली मेकनौल को 5-0 से मात देते हुए कौमनवैल्थ गेम्स का गोल्ड मैडल अपने नाम किया. निखत जरीन का जन्म 14 जून, 1996 को तेलंगाना के निजामाबाद में हुआ था. उन के पिता का नाम मोहम्मद जमील अहमद है, जो खाड़ी देशों में एक सेल्सपर्सन थे और निखत के कैरियर के चलते अपनी नौकरी छोड़ कर वापस निजामाबाद आ गए थे. निखत जरीन की मां का नाम परवीन सुलताना है. निखत की 4 बहनें हैं, जिन में से बड़ी बहन अंजुम मीनाजी और उन से छोटी बहन अफनान जरीन दोनों डाक्टर हैं,

जबकि छोटी बहन बैडमिंटन खेलती हैं. अचंत शरत कमल भारत के इस दिग्गज टेबल टैनिस खिलाड़ी ने बर्मिंघम कौमनवैल्थ गेम्स में पुरुष एकल, पुरुष टीम इवैंट और मिक्स्ड डबल्स में गोल्ड मैडल जीता. अचंत शरत कमल का जन्म 12 जुलाई, 1982 को चेन्नई, तमिलनाडु में हुआ. इन के पिता श्रीनिवास राव और चाचा मुरलीधर राव ने अपने शुरुआती दिनों में टेबल टैनिस खेला था और फिर उन्होंने कोचिंग में हाथ आजमाया. अचंत शरत कमल ने 4 साल की उम्र में यह खेल खेलना शुरू किया था और 15 साल की उम्र में उन्हें एक मुश्किल फैसला करना पड़ा. इस दौरान वे या तो अपनी पढ़ाई जारी रख सकते थे या खेल में अपना कैरियर बना सकते थे. अब या तो उन के पास इंजीनियर बनने का मौका था या एक खिलाड़ी. आखिर में उन्होंने टेबल टैनिस को चुना. श्रीजा अकुला अचंत शरत कमल के साथ इस कौमनवैल्थ गेम्स का मिक्स्ड डबल गोल्ड मैडल जीतने वाली श्रीजा अकुला का जन्म 31 जुलाई, 1998 को हैदराबाद में हुआ था. वे न केवल टेबल टैनिस में ही अच्छी हैं, बल्कि स्कूल की भी टौपर रह चुकी हैं. साल 2017 में उन्होंने 12वीं जमात के इम्तिहान में 96 फीसदी अंक हासिल किए थे और रिजल्ट आने के कुछ ही दिन बाद वे वर्ल्ड टूर इंडिया ओपन के अंडर-21 वर्ग के क्वार्टर फाइनल में पहुंच गई थीं.

श्रीजा अकुला ने हैदराबाद के बदरुका कालेज से ग्रेजुएशन किया है. वे पढ़ाई की इतनी शौकीन हैं कि खेल प्रतियोगिताओं के लिए देशदुनिया में भले ही कहीं भी जाएं, किताबें साथ ले जाती हैं. पीवी सिंधु शीर्ष भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु ने ब्रिटेन के बर्मिंघम में चल रहे कौमनवैल्थ गेम्स में कनाडा की मिशेल ली को हरा कर गोल्ड मैडल पर अपनी मुहर लगा दी थी. 5 जुलाई, 1995 को आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में पीवी सिंधु का जन्म हुआ था. उन के मातापिता पी. विजया और पीवी रमन्ना भी वौलीबाल के इंटरनैशनल खिलाड़ी रहे हैं. पीवी सिंधु बचपन के दिनों में रोजाना 56 किलोमीटर तक की दूरी अपने घर से कोचिंग कैंप आने तक के लिए तय करती थीं. वे रोजाना सुबह एकेडमी जाने के लिए 3 बजे उठती थीं, क्योंकि एकेडमी में सैशन साढ़े 4 बजे से शुरू होता था. वे वापस आते ही साढ़े 8 बजे स्कूल जाती थीं और वहां से आते ही फिर से एकेडमी के लिए जाना होता था. लक्ष्य सेन कौमनवैल्थ गेम्स 2022 के पुरुष सिंगल्स बैडमिंटन फाइनल में भारत के लक्ष्य सेन ने मलयेशिया के जे. योंग के खिलाफ शानदार प्रदर्शन करते हुए पहला गेम गंवाने के बावजूद आखिरी 2 सैट जीत कर मैच अपने नाम किया और अपने पहले कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीत कर नया इतिहास रचा. उत्तराखंड के अल्मोड़ा में जनमे लक्ष्य सेन को बैडमिंटन विरासत में मिला है. उन के दादा सीएल सेन को अल्मोड़ा में ‘बैडमिंटन का भीष्म पितामह’ कहा जाता है.

लक्ष्य के पिता डीके सेन नैशनल लैवल पर बैडमिंटन खेल चुके हैं और कोच भी हैं. लक्ष्य सेन के बड़े भाई चिराग सेन भी बैडमिंटन खिलाड़ी हैं. पिता डीके सेन ने अपने दोनों बेटों को बेहतर बैडमिंटन खिलाड़ी बनाने के लिए अल्मोड़ा तक छोड़ दिया था और उन्हें ले कर बैंगलुरु चले गए थे. सात्विक साईंराज रंकीरेड्डी और चिराग शेट्टी बर्मिंघम कौमनवैल्थ गेम्स में बैडमिंटन में पुरुष युगल में सात्विक साईंराज रंकीरेड्डी और चिराग शेट्टी की जोड़ी ने गोल्ड मैडल अपने नाम किया. देश को पहली बार पुरुष डबल्स में गोल्ड मैडल मिला है. इस जोड़ी ने इंगलैंड के बेन लेन और सीन वेंडी की जोड़ी को हराया था. सात्विक साईंराज रंकीरेड्डी ने अपने पिता विश्वनाथम रंकीरेड्डी से प्रेरणा लेते हुए 6 साल की उम्र में बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया था. उन के पिता भी स्टेट लैवल के बैडमिंटन खिलाड़ी रह चुके हैं और उन के भाई रामचरण रंकीरेड्डी भी एक पेशेवर बैडमिंटन खिलाड़ी हैं. सात्विक साईंराज रंकीरेड्डी ने एक इंटरव्यू में बताया था, ‘‘शुरुआत के समय में अकादमी की फीस ज्यादा थी और प्रायोजकों के बिना अपने दम पर टूर्नामैंट खेलना मेरे मातापिता के लिए एक मुश्किल समय था, लेकिन उन्होंने किसी तरह से इस तरह के मुद्दों के बारे में मुझे कभी नहीं बताया. ‘‘जब मैं ने भारत में टूर्नामैंट जीतना शुरू किया, तो वे खुद अंदर ही अंदर चुप रहे और मेरे लिए संघर्ष करते रहे, फिर अकादमी ने मुझ से आधी फीस देने को कहा…’

’ चिराग चंद्रशेखर शेट्टी का जन्म 4 जुलाई, 1997 को मुंबई में हुआ था. चिराग के पिता का नाम चंद्रशेखर शेट्टी और मां का नाम सुजाता शेट्टी है. चिराग की बहन आर्या शेट्टी भी एक बैडमिंटन खिलाड़ी हैं. चिराग शेट्टी ने कम उम्र में ही बैडमिंटन खेलना शुरू किया था और अपने स्कूल में पढ़ाई के दौरान वे वहां के बैडमिंटन चैंपियन भी बने. चिराग शेट्टी के कैरियर की शुरुआत उदय पवार एकेडमी से हुई थी. उस के बाद अपने खेल को बेहतर बनाने के लिए वे गोपीचंद एकेडमी में एडमिशन लेने हैदराबाद चले गए थे.

बरातों में नागिन डांस का चलन

शहर की सड़कों पर बरातों का निकलना आम बात है. इन की वजह से सड़क संकरी हो जाती है और सड़कों पर जाम लगने लगता है. यदि बरात चौराहे पर हो तो फिर चारों तरफ के रास्तों पर लंबा जाम लग जाता है. राहगीर हौर्न बजाते रह जाते हैं जबकि लोग नाचने में मगन रहते हैं. मेरे शहर की बरातों का तो क्या कहना, बरातियों का जोश देखते ही बनता है. बरात में नागिन डांस मुख्य आकर्षण का केंद्र रहता है. इस डांस के लिए बरातियों में बड़ा जोश दिखाई देता है. कुछ युवा तो इस डांस के लिए जम कर प्रैक्टिस भी करते हैं.

नागिन डांस करने वाला एक बराती रूमाल का एक छोर मुंह में दबा कर और दूसरा छोर हाथ में पकड़ कर सपेरा बन जाता है और बीन बजाने का अभिनय करता है जबकि दूसरा बराती नागिन की तरह डोलता है और बीचबीच में नागिन की तरह फुंफकारता भी है.

कपड़ों की परवा किए बिना दोनों नागिन की धुन पर डांस करतेकरते सड़क पर लेट भी जाते हैं. यह तो एक उदाहरण है जो सड़कों पर निकलने वाली बरातों का आम नजारा पेश करता है. इस तरह के कई और डांस हैं जो बरात के चिरपरिचित हिस्सा हैं.

बरात में दूल्हे के दादादादी, नानानानी, मातापिता, चाचाचाची, भाईबहन, जीजाबहन से ले कर सारे करीबी और दूर के रिश्तेदारों को एकएक कर के डांस करने के लिए जबरदस्ती पकड़ कर लाया जाता है. कुछ तो डांस करने के इच्छुक ही रहते हैं. दूल्हे के मित्रगण बरात में डांस करने के लिए शराब का सेवन भी करते हैं और इस बाबत दूल्हे से पहले ही कमिटमैंट कर उचित राशि प्राप्त कर ली जाती है. अब तो बरात में महिलाएं भी डांस करने में पीछे नहीं हैं. वे भी बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं.

इतने सारे लोग जब एक बरात का हिस्सा बनेंगे तो बरात को गंतव्य तक पहुंचने में समय तो लगेगा ही. जिस का खमियाजा सड़क पर चलने वाले राहगीरों को उठाना पड़ेगा. इन सब बातों से बरातियों को कोई लेनादेना नहीं. उन्हें तो बस अपना उत्साह दिखाना है. कुछ ऐसे भी राहगीर देखने को मिल जाएंगे जिन्हें डांस करने का बड़ा शौक होता है. वे भी इन बरात में अपनी नृत्यकला का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते.

लेकिन बड़े दुख के साथ इन बरातियों को यह बताना पड़ेगा कि अब वे बरात में नागिन डांस नहीं कर पाएंगे क्योंकि इस डांस के कारण ही बरात को विवाहस्थल तक पहुंचने में विलंब होता है और सड़कों पर यातायात भी बाधित हो जाता है.

बरातियों पर जुर्माना

इसलिए मेरे प्रदेश के एक जिले के स्थानीय जिला प्रशासन ने निर्णय लिया है कि यातायात में बाधा बनने वाली इन बरातों के विरुद्ध कार्यवाही करने हेतु अब दूल्हे के घर वालों को बरात निकालने से पहले निकटतम थानों में जा कर इस की जानकारी देनी होगी कि बरात कहां से निकलेगी और कहां जा कर समाप्त होगी. इस दौरान आने वाली सूचनाओं के आधार पर ही यातायात और थाने की पुलिस बरातियों का मार्ग तय कर के देगी. जो बराती इस का पालन नहीं करेंगे उन बरातियों पर जुर्माना लगाया जाएगा.

ऐसे में लगता है कि आगे चल कर बरात को ज्यादा समय तक सड़कों पर विचरण करने पर भी प्रतिबंध लगेगा. जिस बरात में डांस करने का बरातियों को इंतजार रहता है, उस बरात का तो प्रशासन ने कबाड़ा ही कर दिया. अब तो बरात ऐसी लगेगी जैसे कोई मौन जुलूस जा रहा है.

मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में एक बैंड पार्टी काफी मशहूर है. वह विदेशों में भी अपने बैंड का प्रदर्शन कर चुकी है. यही नहीं, कुछ फिल्मों में भी यह बैंड पार्टी नजर आई है. दूल्हा अपनी शादी में इसी बैंड पार्टी की मांग करता है. यदि इस बैंड की बुकिंग नहीं हो पा रही है तो घर वाले शादी की तारीख आगे बढ़ाने का भी मन बना लेते हैं.

बरात कब निकलेगी, यह तो बैंड पार्टी पर निर्भर रहता है क्योंकि शहर में अच्छी बैंड पार्टियां कम होने के कारण ये बैंड 2 शिफ्ट में काम करते हैं. एक शिफ्ट शाम को 7 बजे से और दूसरी रात 9 बजे से. बराती भी यह पता लगा लेते हैं कि बैंड किस टाइम का है, उसी हिसाब से घर से निकलते हैं.

बैंड पार्टी में 2 व्यक्ति तो डमी होते हैं जो कोई वाद्ययंत्र नहीं बजाते मात्र न्योछावर में लुटाए जा रहे रुपयों को हथियाने का काम करते हैं. मुंह में नोट फंसा कर, हाथों में नोट थाम कर डांस करने वालों से नोट कैसे प्राप्त करने हैं, वे बखूबी जानते हैं. इन बरातों में कुछ जेबकतरे भी शामिल हो जाते हैं.

बरात में दूल्हा चाहे घोड़ी पर बैठा हो या बग्घी पर या कार में, उस का पूरा ध्यान अपने बरातियों पर रहता है कि कौन डांस कर रहा है और कौन नहीं कर रहा है.

कुछ रसूखदार अपनी आन, बान और शानोशौकत दिखाने के लिए जम कर हवाई फायर करते हैं. बरात में बिंदास बंदूकें दागी जाती हैं. अपनी खुशी जाहिर करने के लिए खुलेआम बंदूकें और पिस्तौल का इस्तेमाल कर बरात की शोभा बढ़ाई जाती है. चाहे किसी की जान चली जाए, इन्हें कोई परवा नहीं.

अकसर वरमाला के समय हवाई फायर किए जाते हैं, जिस के कारण कभीकभी लोगों की जानें भी चली जाती हैं. इस पर तो पहले से ही प्रतिबंध है, फिर भी पुलिस वाले इन्हें क्यों नहीं रोक पाते  यह सोचने की बात है.

बेवजह फुजूलखर्ची

इतने सारे प्रतिबंधों के साथ अगर बरात निकलती है तो बरातियों को क्या मजा आएगा. शहर में एक बार बहुत बड़ा भूकंप आया था. उस वर्ष शहर की जनता ने सार्वजनिक दुर्गा उत्सव समितियों के पदाधिकारियों से निवेदन किया था कि भूकंप से हुई बरबादी के कारण इस वर्ष दशहरा मितव्ययिता के साथ मनाया जाए, यानी जो भी चंदा इकट्ठा हो, उस में से कुछ हिस्सा शहर के विकास में लगा दिया जाए.

लेकिन समितियों के इन पदाधिकारियों का यह कहना था कि दशहरा साल में एक बार ही आता है, उसे भी हम अच्छे से न मनाएं, संभव नहीं है. हम तो हर साल की तरह ही दशहरा मनाएंगे. यही सिद्धांत बरात पर भी लागू होता है. लड़का एक बार ही दूल्हा बनता है और एक ही बार बरात निकलती है. सो, बरात का जो उत्साह है उस में कमी नहीं की जा सकती.

ऐसे में यदि बरात शीघ्रता से और किस मार्ग से निकलेगी, यह स्थानीय यातायात और थाने की पुलिस तय करेगी तो कहां तक उचित है. बरातियों की खुशियों का दमन किया जा रहा है. बरात तो हम निकाल रहे हैं, बरात का सारा खर्च हम उठा रहे हैं लेकिन बरात निकलेगी तो यातायात और थाने की पुलिस की सलाह पर. जैसा वे कहेंगे वैसा ही करना पड़ेगा.

बरात को विवाहस्थल तक पहुंचने में यदि समय लग रहा है तो ये लोग बरातियों को दौड़ाने पर मजबूर कर सकते हैं. यदि कुछ ज्यादा ही कठोर कानून बना दिए  और पालन न करने पर पता लगा दूल्हे और बरातियों को जेल ही जाना पड़ जाएगा.

शहरवासी हर त्योहार बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं. दशहरा का चलसमारोह तो ऐतिहासिक होता ही है, अब गणेशोत्सव भी धूमधाम से मनाया जाता है. इन दोनों चलसमारोहों में बैंड की धुनों पर समितियों के सदस्य नाचते और नागिन डांस करते हुए नजर आ जाएंगे. चाहे वह चलसमारोह हो या बरात, नृत्यकला का प्रदर्शन विशेष आकर्षण का केंद्र रहता है. ऐसे में यदि चलसमारोह या बरात को गंतव्य तक जल्द पहुंचने पर प्रशासन द्वारा दबाव बनाया जाता है, तो शहर की इन प्रतिभाओं का क्या होगा  नृत्य करने की इस परंपरा को लोग भूल ही जाएंगे.

नागिन डांस ने तोड़ी शादी

देश में हर शादी बिना नागिन डांस के पूरी नहीं होती. लेकिन किसी को नागिन डांस से इतनी एलर्जी भी हो सकती है कि वह बरात ही लौटा दे तो सुन कर ताज्जुब होगा. बात अजीब है, लेकिन सच भी. उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में 29 जून, 2017 को अनुभव मिश्र की बरात प्रियंका त्रिपाठी के घर गई.

जब अनुभव मिश्र की बरात प्रियंका त्रिपाठी के घर पहुंची तो सभी बराती डांस कर रहे थे. जोश में दूल्हा भी बैंडबाजे की धुन पर नागिन डांस करने लगा. डांस में चूर हो कर वह यहांवहां गिर रहा था, इसलिए जब फेरे पड़ने की बारी आई तो दुलहन ने पिता से कहा कि वह शादी नहीं करेगी क्योंकि दूल्हा शराबी है.

लड़की के पिता प्रमोद त्रिपाठी ने इस मामले में लड़की का साथ दिया. पुलिस और पंचायत के हस्तक्षेप के बाद मामला दहेज वापस करने पर शांत हुआ.

नागिन डांस करने के बाद दूल्हे का नशा जब कम हुआ तो उस ने लड़की को काफी मनाया लेकिन तब तक दुलहन अपना मूड बना चुकी थी. बेचारे दूल्हे को बिन दुलहन खाली हाथ लौटना पड़ा. नागिन डांस की कीमत अनुभव को यों चुकानी पड़ेगी, किसी ने सोचा न था.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और विवाद

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का बड़ा नाम है क्योंकि यहीं आमतौर पर पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों, औरतों और कमजोरों की बातें जोरदार ढंग से रखने की इजाजत हैं. इसे कांग्रेस ने बनवाया और यहीं कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार और नाइंसाफी के मामले सब से ज्यादा उजागर हुए. अब कट्टरपंथी पाखंडों में भरोसा रखने वाले पूजापाठी इस पर कब्जा करना चाहते हैं और इसे नक्सलवादी, अलगाववादी, टुकड़ेटुकड़े गैंग, लैफ्टिस्ट, माम्र्सवादी, अंबेडकरवादी वगैरा से नामों से पुकारते हैं.

हालांकि उसी विश्वविद्यालय के निकले कई आज सत्ता में ऊंचे पदों पर हैं पर फिर भी इस विश्वविद्यालय में कुछ ऐसा माहौल है कि यहां खुली बहस हो ही जाती है. भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने खास चुन कर यहां सांतिश्री धुलियदी पंडित के वाइस चांसलर बनाया कि इस विश्वविद्यालय पाखंड विरोधियों का सफाया किया जा सकेगा पर इस वाइस चांसलर को तो आजाद ख्यालों के कीड़े ने काट खाया और उन्होंने अंबेडकर लेक्चर सीरीज में पुरखों की कहानियों से अपनेआप साफ होती बात कह डाली कि ङ्क्षहदुओं का शायद ही कोई देवता ब्राह्मïण है.

न राम ब्राह्मïण थे, न कृष्ण, न शिव, न काली, न लक्ष्मी न गंगा, न गौमाता, न हनुमान न जगन्नाथ न वेंक्टेश्वर. गांवगांव बने मंदिरों में जिस देवतादेवी को पूजा जाता है और जिस पर कोई ब्राह्मïण बैठा चंदा जमा कर रहा है, वह ब्राह्मïण है, परशुराम शायद ब्राह्मïण थे पर उन के मंदिर यदाकदा ही हैं और वे भी वहांजहां दूसरे किसी देवीदेवता का एक विशाल मंदिर है.

जवाहर लाल नेहरू जैसे विश्वविद्यालय की जरूरत असल में हर जिले को है. देश के जहालत, पुराने रीतिरिवाजों, दानपुण्य, धर्म और जाति के नाम पर आए दिन होने वाले झगड़ों जिन में सिर्फ तूतू मैंमैं नहीं, दंगे, फसाद, लूट, रेप, रेड शामिल हैं से लोगों को निकालने के लिए जरूरी है कि नई सोच पनपे.

पढ़लिख कर भी हमारे देश के युवक व युवती सोच में हजारों साल पीछे हैं और इस सोच के साथ दकियानूसी तरह से ङ्क्षजदगी जीना तो है ही, अपना समय बर्बाद करना है.

किसी भी गांव कस्बे में चले जाइए. सब से साफ सुंदर चमचमाते मंदिर, मसजिद, गुरूद्वारे, चर्च मिलेंगे. स्कूलकालेज फटेहाल दिखेंगे. खाने की जगहों पर बदबू होगी. सरकारी औफिसों की दीवारों पर पान के निशान मिलेंगे. अदालतों और थानों दोनों में बिखरा सामान होगा.

ङ्क्षजदगी को खुशहाल बनाना है तो ऐसी सोच की जरूरत है तो लोगों के गहरे गढ़े से निकाले, न कि उन्हें उस में फिर से धकेले, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ऐसे चुंबक हैं जो नई सोच वालों को एक छत के नीचे ले आते हैं. कट्टरपंथी धर्म के नाम पर पौवर व पैसा बनाने वाले इन से चिढ़ते हैं. नई वाइस चांसलर का दिल बदला है या नहीं पर उन्होंने जो कहां वह उम्मीद जगाता है कि देश अभी भी पुरातनपंथियों के हाथों बिका नहीं है.

इलाज बना कारोबार

मरीजों की शारीरिक और मानसिक कमजोरी का फायदा उठा कर जेबें कैसे भरनी हैं, यह सफेद कोट वाले डाक्टर जानते हैं. अपने उपचार की सही जानकारी ले कर मरीज ऐसी धांधली से बच सकते हैं. बुखार से पीडि़त संदेशा इलाज के लिए नजदीकी प्राइवेट दफ्तर के पास गई. कुछ दिनों तक वहां उस का इलाज चला. इसी बीच उस के खून की जांच से ले कर कई दूसरी महंगी जांचें डाक्टर ने करा लीं. हफ्तेभर बाद भी संदेशा की सेहत में कोई सुधार नहीं आया,

बल्कि हालत और भी गंभीर हो गई. तब डाक्टर ने उसे अपने पहचान के माहिर के पास जाने की सलाह दी. वहां भी डाक्टर ने सारी जांचें कराईं, पर हफ्तेभर बाद भी संदेशा की हालत में कोई सुधार नजर नहीं आया. बिगड़ती हालत को देख हुए उस डाक्टर ने संदेशा को अस्पताल में भरती करने की सलाह दी और झट से एक अस्पताल का नाम लिख कर दे दिया. संदेशा की बिगड़ती हालत को देख कर पहले से ही उस के मातापिता की चिंता बढ़ी हुई थी और अस्पताल में भरती कराने की बात सुन कर वे और भी घबरा गए. उन्होंने तुरंत ही बिना सोचविचार किए संदेशा को अस्पताल में भरती करा दिया. जैसेतैसे अस्पताल में डिपौजिट जमा कर संदेशा के पिता राजनाथ बेटी को बैड पर लिटा ही रहे थे कि नर्स ने राजनाथ के हाथ में एक लंबा सा परचा थमा कर सामान लाने को कहा. वे तुरंत जा कर एक बौक्स भर सामान ले आए. इस के बाद कई दिनों तक यही सब चला.

अस्पताल में भी संदेशा की ढेर सारी जांचें की गईं. इलाज शुरू होने के बावजूद उस की हालत में खास सुधार नहीं आया. जब राजनाथ ने डाक्टर से बात करनी चाही, तो उन्हें जवाब मिला कि वे इलाज कर रहे हैं. ठीक होने में समय तो लगता ही है. परेशान राजनाथ ने अपने संबंधियों की सलाह से 6 दिन बाद संदेशा को अस्पताल से डिस्चार्ज करा लिया. अस्पताल का कुल बिल 50,000 रुपए के ऊपर चला गया. इस के अलावा अस्पताल में दवाओं व दूसरे जरूरी सामान में 10,000 रुपए खर्च हो चुके थे. राजनाथ संदेशा को ले कर अपने संबंधी के पहचान के एक डाक्टर के पास ले गए. वहां डाक्टर ने फिर से संदेशा के खून की जांच की और तब पता लगा कि उसे टायफाइड हुआ है.

गलत उपचार के चलते उस की हालत बिगड़ गई थी. आखिर में कुलमिला कर 75,000 रुपए के आसपास खर्च हुआ. उस पर भी चिंताजनक बात यह थी कि पूरे 9 महीने तक संदेशा बिस्तर से उठ न पाई थी. फायदा उठाते पेशेवर बीमारी की हालत में गरीब से गरीब आदमी पैसों के बारे में न सोचते हुए डाक्टर जो कहते हैं, उसे आंख मूंद कर मान लेता है. ऐसे हालात का पेशेवर सफेद कोट वाले डाक्टर पूरा फायदा उठाना जानते हैं. मरीजों की जान उन के लिए खास माने नहीं रखती. दरअसल, यह पेशा अब कारोबार बन गया है. इन की एक बड़ी चेन होती है, जिस में स्थानीय प्राइवेट दफ्तर से ले कर लैबोरेटरी व बड़ेबड़े अस्पताल शामिल होते हैं. दूसरे कारोबार की तरह यहां भी सारा काम कमीशन पर होता है. नवी मुंबई की रश्मि जोशी अपने खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा की जांच कराने गईं.

लैब असिस्टैंट ने रश्मि की एक उंगली पर से स्लाइड पर 2 बूंद खून ले कर पूछा कि आखिरी बार की गई जांच में क्या रिपोर्ट आईर् थी? दूसरे दिन जब रश्मि ने रिपोर्ट देखी, तो वह पिछली रिपोर्ट जैसी थी. रश्मि को कुछ गड़बड़ लगा, इसलिए उस ने जांच के तरीके के बारे में जानना चाहा, तो लैब असिस्टैंट सकपका गया. उस ने बात को घुमाया और रश्मि से ऊंची आवाज में बात करने लगा. रश्मि ने लैब के डाक्टर से बात की, तब पता लगा कि लैब असिस्टैंट ने कोई जांच की ही नहीं थी. पिछली रिपोर्ट की जानकारी से उस ने पैसे बनाने के चक्कर में नई रिपोर्ट तैयार कर दी. ग्लूकोज वाले डाक्टर आजकल जचगी के वक्त ज्यादातर डाक्टर कोईर् न कोई वजह बता कर जरूरत न होने पर भी औरतों से सिजेरियन कराने के लिए कहते हैं. दरअसल, कुछ डाक्टरों के लिए मरीज केवल पैसा बनाने का जरीया होते हैं. यहां तक कि मुंबई समेत कई ऐसे शहर हैं,

जहां हर बीमारी का इलाज ग्लूकोज चढ़ा कर किया जाता है. ऐसी कई डिस्पैंसरी ग्लूकोज वाले डाक्टर के नाम से जानी जाती हैं. वहां ज्यादातर गरीब व मजदूर तबके के मरीज आते हैं. ऐसी डिस्पैंसरी में ग्लूकोज चढ़ाने को बच्चों के खेल से ज्यादा कुछ नहीं सम झा जाता. एक बार मरीज डिस्पैंसरी में आ जाए, तो चाहे बीमारी पकड़ में आए या न आए, ग्लूकोज व 2-3 रंगों के इंजैक्शन उस में मिला कर चढ़ाना और फिर मरीजों से पैसे ऐंठना उन का एकमात्र मकसद होता है. इस से बीमारी से आई कमजोरी को कुछ कम या कुछ समय के लिए हलका किया जाता है. ऐसे में इन बातों से अनजान मरीज अपनी जेब खाली कर खुशीखुशी घर चला जाता है. ऐसा हो भी क्यों न? जब इन पेशेवर लोगों ने डिगरी हासिल करने के लिए लाखों रुपए खर्च किए हैं, तो उन्हें वसूलने के लिए कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा. जागरूकता में कमी भारत की ज्यादातर जनता अपने बुनियादी हकों से अनजान है.

अनपढ़ता की वजह से वह डाक्टरों से सवालजवाब कर पाने में नाकाम है. कुछ लोग अपने थोड़ीबहुत जानकारी के साथ कुछ जाननेसम झने की कोशिश करते हैं, उन्हें एक ही डायलौग सुनने को मिलता है कि डाक्टर आप हैं या हम? सफेट कोट वाले यानी डाक्टर आम जनता को लूट पाने में इसलिए कामयाब हो पा रहे हैं, क्योंकि वे अपनी सेहत संबंधी हकों के प्रति जागरूक नहीं है. द्य बतौर ग्राहक मरीजों के हैं ये हक * मरीज को अपनी बीमारी के बारे मेंजानने का पूरा हक होता है.

* मरीज को अपने उपचार के जोखिम और असर को जानने का भी पूरा हक होता है.

* मरीज की बीमारी को पूरी तरह से राज रखा जाए.

* मरीज को अपने डाक्टर की पढ़ाईलिखाई जानने का पूरा हक होता है.

* मरीज द्वारा किसी भी उपचार के लिए दी गई सलाह पर दूसरी राय ली जा सकती है.

* अस्पताल का मरीज होने के नाते वहां के नियमकानूनों के साथसाथ सुविधाओं की पूरी जानकारी लेने का हक होता है.

* किए जाने वाले औपरेशन ले कर जोखिम तक की जानकारी मरीज को पहले से जानने का हक है. अगर मरीज इस हालत में नहीं है कि वह कुछ सम झ सके, तो उस के संबंधियों को बताया जाना जरूरी है.

* डाक्टरों से सलाह ले कर दूसरे अस्पताल में भरती हुआ जा सकता है.

* जरूरी नहीं है कि डाक्टर ने जहां से जांच कराने के लिए लिखा हो, वहीं से जांच कराई जाए. अपनी सुविधा के मुताबिक दूसरी जगहों पर विचार किया जा सकता है.

* मरीज को अपना केस पेपर हासिल करने का पूरा हक होता है.

* इमर्जैंसी में त्वरित उपचार लिया जा सकता है.

* मरीज को हक है कि मानव प्रयोग, अनुसंधान, किसी भी तरह की योजना वगैरह उस की देखरेख या उपचार पर असर डालती हो, तो वह असहमति जताए.

* मरीज अपने बिल का सारा ब्योरा मांग सकता है.

* उपचार के दौरान अगर मरीज की मौत हो जाती है और अगर परिवार मौत की वजह से सहमत नहीं है, तो मरीज के सगेसंबंधियों को पूरा हक है कि वे पोस्टमार्टम कराएं और उस की सारी रिपोर्ट हासिल करें. कुलमिला कर मरीज व उस के परिवार वाले सावधानियां बरतने के साथसाथ अपने हकों के प्रति जागरूक रह कर कारोबारी हो चुके डाक्टरों के चंगुल से बच सकते हैं.

दोस्ती की आड़ में कहीं सैक्स तो नहीं

अंतरा ने जब अपने पिता के ट्रांसफर के कारण नए शहर के एक नए स्कूल में दाखिला लिया तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा, क्योंकि उस की खूबसूरती के कारण स्कूल के अधिकांश युवक उस से दोस्ती करना चाहते थे. जिस की वजह से कभी कोई उसे गिफ्ट देता तो कोई चौकलेट. किंतु शहरी लाइफस्टाइल और विपरीतलिंगी दोस्ती के गहरे अर्थों से अनजान अंतरा को यह रहस्य बिलकुल भी पता नहीं था कि इस के पीछे हकीकत क्या है. शुरूशुरू में तो अंतरा को यह सब अच्छा लगता था, क्योंकि उस से दोस्ती करने वालों और उसे चाहने वालों की लाइन जो लगी रहती थी, लेकिन अंतरा वह सब नहीं देख पा रही थी जो असल में इस दोस्ती के पीछे छिपा हुआ था. उस के लिए ऐसी दोस्ती का मतलब केवल बाहर होटल या रेस्तरां में लंच तथा डिनर करना, स्कूल कैंटीन और कौफी हाउस में कोल्डडिं्रक ऐंजौय करना और चौकलेट्स शेयर करना तथा दोस्तों की बर्थडे पार्टियों में केक खाना और मस्ती के साथ नाचगाना करने के रूप में सीमित था.

इन सब पार्टियों के कारण अंतरा अकसर स्कूल से अपने घर बड़ी देर से लौटती थी. उस के मम्मीपापा भी ज्यादा टोकाटाकी नहीं करते थे. इसलिए अंतरा खुल कर इन पलों को जी रही थी, लेकिन अंतरा के साथ एक दिन जो घटा उस की उस ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी.

संयोग से एक दिन गौरव का बर्थडे था, जिसे अंतरा अपना सब से अच्छा दोस्त समझती थी, उस दिन अंतरा स्कूल के बाद अन्य दोस्तों के साथ गौरव का बर्थडे सैलिब्रेट करने के लिए शहर से कुछ दूर स्थित गौरव के फार्म हाउस गई. वहां केक, मिठाइयों और चौकलेट्स के साथसाथ शराब और बियर की बोतलें भी खुलीं. अंतरा इस से बच न सकी. नशे में बेखबर अंतरा वह सबकुछ कर रही थी, जिस का उसे जरा भी अंदाजा नहीं था.

नशे की हालत में धीरेधीरे उस के दोस्तों ने अंतरा के साथ छेड़खानी शुरू कर दी. पार्र्टी में अंतरा 10-12 दोस्तों के बीच अकेली लड़की थी. अपने बदन पर अपने दोस्तों की छुअन की सिहरन को अंतरा खूब महसूस कर रही थी, लेकिन जब अंतरा को लगा कि उस के साथ जबरदस्ती की जा रही है तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. ऐसे में अपने दोस्तों से उस ने छोड़ने की मिन्नतें कीं, लेकिन वे सभी अंतरा की खूबसूरती के नशे में अंधे हो चुके थे.

अंतरा को जब लगा कि वे ऐसे नहीं मानेंगे तो वह जोरजोर से चिल्लाने लगी और पास में रखी खाली बोतलें खिड़कियों के शीशे पर मारने लगी. कहीं लोग इकट्ठे न हो जाएं इस भय से अंतरा के दोस्तों ने उसे छोड़ दिया. इस जाल से निकलने के बाद अंतरा को नए अनुभव के साथ नई जिंदगी मिली थी, जो उस के लिए बड़ी सीख थी.

सच पूछिए तो अंतरा जैसी निर्दोष और मासूम युवती के जीवन की व्यथा की यह कहानी एक लेखक की कोरी कल्पना हो सकती है, लेकिन वास्तविक दुनिया में इस तरह की सच्ची और कड़वी कहानियों से प्रिंट मीडिया के पेज और टैलीविजन के चैनल्स भरे रहते हैं. यह भी सच है कि इस तरह की घटना का शिकार होने वाली अंतरा वास्तविक जीवन और मौडर्न दुनिया में अकेली नहीं है. अंतरा जैसी कुछ युवतियां परिवार और समाज के भय से या तो आत्महत्या कर लेती हैं या फिर अपने पर किए गए जुल्मों को चुपचाप सह लेती हैं.

अहम प्रश्न यह उठता है कि जिस दोस्ती को मानव जीवन का अनमोल उपहार माना जाता है, आखिर उसी पवित्र रिश्ते को कलंकित करने की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए कौन जिम्मेदार होता है? साइकोलौजी के जनक कहे जाने वाले सिगमंड फ्रायड का यह मानना था कि मानो जीवन की हरेक ऐक्टिविटी केवल 2 उद्देश्यों से प्रभावित होती है, प्रसिद्धि पाने की लालसा और सैक्स. इस तरह सैक्स को मानव जीवन में एक कुदरती आवश्यकता के रूप में शुमार किया जाता है.

सच पूछिए तो किसी युवक और युवती के बीच दोस्ती संबंधों की मर्यादा और उस की पवित्रता का वहन करना कोईर् आसान काम नहीं होता. दोस्ती का यह रिश्ता जिस नाजुक डोर से बंधा होता है वह तनमन की हलकी सी गरमी से भी दरक उठता है. लिहाजा, यदि आप भी तथाकथित दोस्ती के किसी ऐसे बंधन से बंधे हुए हैं तो आप को इस पवित्र रिश्ते को स्वच्छ रखने के लिए अपने मन पर बड़ी कठोरता से नियंत्रण रखने की आवश्यकता है, क्योंकि युवक और युवतियों की दोस्ती के बंधन की उम्र बहुत छोटी होती है. ऐसा नहीं है कि इस प्रकार की दोस्ती की आड़ में केवल युवक ही सैक्सुअल रिलेशन बनाने की ताक में रहते हैं बल्कि युवतियां भी इस में पीछे नहीं रहतीं.

संस्कार जब एक छोटे से गांव से अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी कर कालेज की पढ़ाई के लिए शहर आया तो उसे शुरू में सबकुछ अजीब सा लगता था. वह बहुत शर्मीले स्वभाव का था और वह युवतियां तो दूर युवकों से भी बड़ी मुश्किल से बात करता था. लेकिन वह बहुत होशियार था और पेरैंट्स उसे एक आईएएस औफिसर के रूप में देखना चाहते थे. वर्षा भी उसी की क्लास में पढ़ती थी और संस्कार के रिजर्व नेचर और होशियार होने के कारण उसे मन ही मन काफी चाहती भी थी, लेकिन वह संस्कार को इस बारे में बता पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी.

संयोग से एक दिन उस के कालेज का एक हिल स्टेशन पर जाने का प्रोग्राम बना और इस दौरान दोनों को बस में एकसाथ बैठने का मौका मिल गया. मौका पा कर वर्षा ने संस्कार के हाथों में हाथ डाल कर अपने मन की बात कह डाली. यह सुन संस्कार के होश उड़ गए और उस ने बिना सोचेसमझे ही उसे मना कर दिया, क्योंकि वह जिस बैकग्राउंड से आया था उस में उस के लिए इन सब चीजों को ऐक्सैप्ट करना संभव नहीं था.

ठीक है, तुम मुझे प्यार नहीं कर सकते तो हम दोनों दोस्त बन कर तो रह ही सकते हैं. क्या तुम मेरी फैं्रडशिप भी ऐक्सैप्ट नहीं करोगे? वर्षा ने प्यार के अंतिम तीर के रूप में जब यह प्रश्न संस्कार के सामने रखा तो संस्कार भावनाओं के सागर में गोते लगाने लगा और इस के लिए उस ने हामी भर दी.

दोस्ती के नाम पर अब वे दोनों साथ घूमतेफिरते, मस्ती करते. वक्त के साथ उन दोनों के बीच दोस्ती और भी गहरी होती गई और धीरेधीरे साथसाथ जीनेमरने की कसमें भी खाई जाने लगीं. वैलेंटाइन डे के दिन जब पूरा कालेज डांस और म्यूजिक में बिजी था तो संस्कार और वर्षा फरवरी की उस कुनकुनी ठंड में शहर के एक खूबसूरत पार्क में साथसाथ जीवन जीने के सपने बुन रहे थे.

सूरज डूब चुका था और शाम के साए में रोशनी धीरेधीरे खत्म हो रही थी. वहां से लौटते हुए वर्षा और संस्कार की करीबी में जीवन की सारी मर्यादाओं की रेखा मिट चुकी थी. दोस्ती के बंधन में प्यार और वासना की भूख ने कब सेंध लगा दी, इस का एहसास भी प्रेमी युगल को नहीं हो पाया.

जब इस प्रकार दोस्ती निभाने का प्रश्न उठता है तो ऐसा करना किसी तलवार की धार पर चलने से कम खतरनाक नहीं होता. पहले तो आप इस प्रकार के रिश्ते को अपने परिवार वालों से छिपा कर न रखें. महंगे गिफ्ट्स के ऐक्सचेंज से दूर रहने की कोशिश करें, क्योंकि जब इस प्रकार के महंगे गिफ्ट्स के ऐक्सचेंज की शुरुआत होती है तो एकदूसरे से अपेक्षाओं का दायरा काफी बढ़ जाता है और इस के साथ सब से बड़ी बात यह होती है कि इस प्रकार की अपेक्षाओं की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं होती.

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी पार्टी और फंक्शन में अपने फ्रैंड्स के साथ अकेले जाने से परहेज करें, क्योंकि मन के आवेग का कोई भरोसा नहीं होता. यदि ऐसी पार्टियों में जाना निहायत जरूरी हो तो अपने परिवार के किसी सदस्य या फिर कौमन फैं्रड्स के साथ जाएं. ऐसा करने से आप सेफ रहेंगी.

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