‘कुंदनवीर’ भारत में जब कोई खिलाड़ी किसी इंटरनैशनल खेल इवैंट में मैडल जीतता है, तभी उस की कुछ पूछ होती है. परिवार वाले और कुछ संगीसाथी एयरपोर्ट पर ढोलनगाड़ों से उस का स्वागत करते हैं, नेता उस में अपनी जाति ढूंढ़ कर अपनी ही वाहवाही करते हैं और जनता सोशल मीडिया पर चंद अच्छीबुरी बातें लिख कर आगे निकल लेती है. फिर अगले कुछ साल के लिए उन्हें भुला दिया जाता है. दुख और हैरत की बात यह है कि इक्कादुक्का को छोड़ कर कोई भी ऐसे खिलाडि़यों की जद्दोजेहद के बारे में सपने में भी नहीं सोच पाता है.
हां, टांगखिंचाई करने में कोई पीछे नहीं रहता. हाल ही में इंगलैंड के बर्मिंघम में कौमनवैल्थ गेम्स हुए थे. 8 अगस्त, 2022 को जब ये गेम्स खत्म हुए, तब तक भारत ने 22 गोल्ड मैडल, 16 सिल्वर मैडल, 23 ब्रौंज मैडल जीत लिए थे और वह आस्ट्रेलिया, इंगलैंड और कनाडा के बाद चौथे नंबर पर रहा था. भारत की झोली में कुल 61 मैडल आए. मैडल का रंग कोई भी रहा हो, पर जिस खिलाड़ी ने उसे अपने गले में पहनने का गौरव हासिल किया, वह उस की सालों की कड़ी मेहनत का मीठा फल था. अगर सिर्फ गोल्ड मैडल जीतने वालों पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन में से ज्यादातर खिलाड़ी ऐसे थे, जिन्होंने अपने हौसले, जज्बे और कड़ी मेहनत से साबित कर दिया कि भले ही गरीबी आप की राह में रोड़ा बन कर खड़ी हो जाए, पर अगर खुद पर भरोसा हो तो कोई भी बाधा पार करना मुश्किल नहीं है.
22 गोल्ड मैडल जीतने वाले इन ‘कुंदनवीर’ खिलाडि़यों के बारे में जान कर आप को यह बात समझ में आ जाएगी : मीराबाई चानू साल 2022 के कौमनवैल्थ गेम्स में 49 किलोग्राम भारवर्ग में गोल्ड मैडल जीतने वाली इस जीवट महिला का जन्म 8 अगस्त, 1994 को भारत के मणिपुर राज्य की राजधानी इंफाल के नांगोपोक इलाके में हुआ था. एक नामचीन दैनिक अखबार (हिंदुस्तान) की खबर के मुताबिक, जब मीराबाई चानू अपने घर में जलाने के लिए लकड़ी लाती थीं, तो अपने भाई से भी ज्यादा वजन उठा लेती थीं. उस समय उन की उम्र महज 12 साल की ही थी. यह देखने के बाद मातापिता ने उन की इस प्रतिभा को पहचाना और उन्हें खेल में आगे बढ़ने को कहा. निजी जिंदगी में सिर पर लकड़ी ढोने और वेटलिफ्टिंग खेल में वजन उठाने में जमीनआसमान का फर्क होता है.
आज मुसकराती हुई मीराबाई चानू जब पोडियम पर गोल्ड मैडल को चूमती हैं, तो शायद ही किसी को उन के उस दर्द का एहसास होता होगा, जो उन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए सहा है. मीराबाई चानू चर्चा में तब आई थीं, जब उन्होंने 2014 ग्लासगो कौमनवैल्थ गेम्स में 48 किलोग्राम भारवर्ग में सिल्वर मैडल जीता था. इस के बाद 2020 टोक्यो ओलिंपिक गेम्स में 49 किलोग्राम भारवर्ग में उन्होंने सिल्वर मैडल जीत कर भारत का मान पूरी दुनिया में बढ़ाया था. जेरेमी लालरिनुंगा महज 19 साल के जेरेमी लालरिनुंगा ने भारत को वेटलिफ्टिंग खेल के 67 किलोग्राम भारवर्ग में गोल्ड मैडल दिलाया, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वे अपने कैरियर की शुरुआत में एक मुक्केबाज बनना चाहते थे.
उन्होंने 4 साल तक मुक्केबाजी भी की, लेकिन छोटी कदकाठी का होने के चलते उन्होंने वेटलिफ्टिंग में आने का फैसला लिया. मिजोरम के रहने वाले जेरेमी लालरिनुंगा के पिता अपने समय के मुक्केबाज रहे हैं, लेकिन बाद में उन्होंने 8 लोगों के परिवार का भरणपोषण करने के लिए पीडब्लूडी महकमे में नौकरी करना स्वीकार किया था. जेरेमी लालरिनुंगा ने बताया, ‘‘मैं ने अपने गांव की एसओएस अकादमी में वेटलिफ्टिंग कैरियर की शुरुआत की थी. वहां कोच मुझ से बांस लाने को कहते थे और धीरेधीरे उठाने को कहते थे. वे बांस 5 मीटर लंबे और 20 मिलीमीटर चौड़े थे. उन पर कोई भार नहीं था, लेकिन वजन की तुलना में एक स्टिक उठाना असल में मुश्किल था, क्योंकि आप को यह जानना होगा कि इसे कैसे संतुलित किया जाए. ‘‘मैं ने दिनरात अभ्यास किया, बांस की बल्लियां उठा कर संतुलन बनाने की कला सीखी. इस के बाद मुझ से वेट लिफ्ट करने को कहा गया.’’ अचिंता शेउली 20 साल की उम्र के इस होनहार लड़के ने 73 किलोग्राम भारवर्ग में रिकौर्ड 313 भार उठा कर इतिहास रचा और गोल्ड मैडल अपने नाम किया. लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें बेहद ही मुश्किल सफर तय करना पड़ा है.
एक बड़े अखबार (इंडियन ऐक्सप्रैस) के मुताबिक, परिवार के हालात खराब होने की वजह से अंचिता शेउली को अच्छी डाइट नहीं मिलती थी और वे कई बार बीमार हो जाते थे. अंचिता शेउली के परिवार के एक सदस्य ने इस अखबार से बात करते हुए बताया, ‘‘हम उस की ज्यादा मदद नहीं कर पाते थे. जब वह नैशनल के लिए गया तो हम ने उसे 500 रुपए दिए थे और वह बेहद खुश था. जब वह पुणे में था, तो अपनी ट्रेनिंग का खर्चा उठाने के लिए किसी लोडिंग कंपनी में काम करता था.’’ लवली चौबे, नयन मोनी सैकिया, पिंकी और रूपा रानी तिर्की भारत के लिए एक अजूबे खेल लौन बाल्स में गोल्ड मैडल हासिल करने वाली इन 4 महिलाओं की जितनी तारीफ की जाए, कम है. 42 साल की लवली चौबे झारखंड के रांची से आती हैं.
एक मिडिल क्लास फैमिली की लवली चौबे के पिता कोल इंडिया में मुलाजिम थे, जो अब रिटायर हो चुके हैं, जबकि उन की माता घरेलू औरत हैं. लवली चौबे अभी झारखंड पुलिस में सिपाही हैं. उन्होंने साल 2008 में पहली बार लौन बाल्स नैशनल्स में हिस्सा लिया था और गोल्ड मेडल जीता था. वे इस टीम की लीडर हैं असम के गोलाघाट में जनमी नयन मोनी सैकिया एक किसान की बेटी हैं. साल 2008 में उन्होंने वेटलिफ्टिंग में अपने प्रोफैशनल कैरियर की शुरुआत की थी, लेकिन पैर में लगी चोट की वजह से उन्हें यह खेल छोड़ना पड़ा. साल 2011 से ही वे असम के जंगल महकमे में नौकरी करती हैं. दिल्ली में जनमी पिंकी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्पोर्ट्स डिगरी हासिल की है. वे दिल्ली के ही एक स्कूल में बतौर फिजिकल ऐजूकेशन टीचर के तौर पर काम करती हैं. दिल्ली पब्लिक स्कूल में जहां वे पढ़ाती हैं, उन्हें वहां पर ही लौन बाल्स के बारे में सब से पहले जानकारी मिली थी.
यहां कौमनवैल्थ गेम्स, 2010 के लिए इस को तैयार किया गया था. इसी के बाद पिंकी की दिलचस्पी इस खेल में आई और आज वे कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल विजेता हैं. झारखंड के रांची से ताल्लुक रखने वाली रूपा रानी तिर्की राज्य सरकार में जिला स्पोर्ट्स अफसर हैं. वे भारत के लिए 3 कौमनवैल्थ गेम्स में हिस्सा ले चुकी हैं. जनवरी महीने में उन की शादी को एक महीना ही हुआ था, जब उन्हें कैंप के लिए बुला लिया गया था. उन के पति रोड कंस्ट्रक्शन के काम में हैं. सुधीर लाठ कौमनवैल्थ गेम्स में पैरा पावरलिफ्टिंग की हैवीवेट कैटेगरी में गोल्ड मैडल जीत कर इतिहास रचने वाले सुधीर लाठ बचपन में ही महज 5 साल की उम्र में पोलियो का शिकार हो गए थे. कुछ साल तो ऐसे ही बीत गए, लेकिन बाद में उन्होंने खुद को फिट रखने के लिए पावरलिफ्टिंग शुरू की. इस खेल ने उन्हें हौसला दिया और धीरेधीरे यह खेल उन के लिए नई जिंदगी बन गया. सुधीर लाठ 4 भाइयों में एक हैं. उन के पिता सीआईएसएफ जवान राजबीर सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं.
भाइयों के साथ परिवार में मां व चाचा हैं. सुधीर लाठ अपना दमखम बनाए रखने के लिए रोजाना 5 लिटर दूध के साथ ही चने व बादाम खाते हैं. बजरंग पूनिया इस भारतीय पहलवान ने कौमनवैल्थ गेम्स के 65 किलोग्राम भारवर्ग में कनाडा के लचलान मैकनीला को हरा कर गोल्ड मैडल जीता. बजरंग पूनिया के पिता और भाई भी पहलवानी करते थे, लेकिन घर की माली हालत ठीक न होने के चलते केवल बजरंग को ही पहलवानी में आगे बढ़ाया गया, पर पिता के पास बेटे को घी खिलाने के पैसे नहीं होते थे. लिहाजा, बस का किराया बचा कर उन के पिता अब साइकिल से चलने लगे थे. जो पैसे बचते, उसे वे अपने बेटे की डाइट पर खर्च करते थे. साक्षी मलिक इस महिला पहलवान पर सब की नजरें टिकी थीं. खुद साक्षी मलिक के लिए भी यह फाइनल मुकाबला खुद को बेहतर साबित करने का एक बेहतरीन मौका था. ऐसा हुआ भी और साक्षी मलिक ने 62 किलोग्राम भारवर्ग के फाइनल में कनाडा की एना गोडिनेज गोंजालेज को बाय फाल के जरीए 4-4 से मात दी. पहले 3 मिनटों में 4 अंकों से पिछड़ रही 29 साल की साक्षी मलिक ने अगले 3 मिनट की शुरुआत में ही टेकडाउन से 2 अंक लिए और फिर बेहतरीन दांव लगाते हुए कनाडाई खिलाड़ी को पिन कर गोल्ड मैडल जीत लिया.
बाद में साक्षी मलिक ने कहा, ‘‘इस कौमनवैल्थ गेम को मैं आखिरी सोच कर लड़ी थी. साथ ही, खुद को मोटिवेट करने के लिए अभ्यास करती थी और कभी भी नैगेटिव नहीं सोचती थी.’’ दीपक पूनिया भारत के इस दमदार पहलवान ने 86 किलोग्राम भारवर्ग में पाकिस्तान के मुहम्मद इनाम को हरा कर गोल्ड मैडल जीता. हरियाणा के झज्जर जिले के गांव छारा में एक सामान्य परिवार से आने वाले दीपक पूनिया अपने गांव में और आसपास स्थानीय कीचड़ कुश्ती को देखते हुए बड़े हुए. उन के पिता और दादा अपने समय के स्थानीय पहलवान थे, इसलिए दीपक को भी महज 4 साल की उम्र से ही अखाड़े में उतार दिया गया था.
दीपक पूनिया के पिता सुभाष एक साधारण किसान हैं. उन्होंने अपने बेटे को खेतीबारी के साथसाथ दूध बेच कर एक अव्वल दर्जे का पहलवान बनाया है. रवि कुमार दहिया भारत के इस स्टार पहलवान ने फ्रीस्टाइल 57 किलोग्राम भारवर्ग के फाइनल में नाइजीरिया के एबिकेवेनिमो विल्सन को 10-0 से हरा कर गोल्ड मैडल अपने नाम किया. टोक्यो ओलिंपिक गेम्स में सिल्वर मैडल जीतने वाले पहलवान रवि कुमार दहिया के पिता राकेश दहिया के पास खुद की 4 बीघा जमीन है. साथ ही, वे 20 एकड़ जमीन पट्टे पर ले कर खेती करते हैं और परिवार का पालनपोषण करते हैं. खेतों में काम करने वाले राकेश दहिया रोजाना गांव नाहरी से तकरीबन 70 किलोमीटर दूर दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में बेटे के लिए दूधमक्खन ले कर जाते थे. वे रोजाना सुबह साढ़े 3 बजे उठ जाते थे और 5 किलोमीटर पैदल चल कर रेलवे स्टेशन पहुंचते थे. दिल्ली के आजादपुर स्टेशन पर उतर कर 2 किलोमीटर का रास्ता पैदल तय कर वे छत्रसाल स्टेडियम में पहुंचते थे.
विनेश फोगाट एक ऐसी महिला पहलवान, जिस ने लगातार 3 कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीत कर नया इतिहास बनाया है. उन्होंने महिलाओं के 53 किलोग्राम भारवर्ग में फाइनल मुकाबले में श्रीलंका की चामोडया केशानी को 4-0 से हराया. 24 अगस्त, 1994 को जनमी विनेश फोगाट ‘द्रोणाचार्य अवार्ड’ विजेता महावीर फोगाट की भतीजी और इंटरनैशनल पहलवान गीता फोगाट व बबीता फोगाट की चचेरी बहन हैं. महावीर फोगाट के भाई राजपाल यानी विनेश फोगाट के पिता की एक हादसे में मौत हो गई थी. इस के बाद महावीर फोगाट ने ही अपनी बेटियों के साथ विनेश और उन की बहन प्रियंका को अपनाया और उन्हें पहलवानी की ट्रेनिंग दी.
चरखी दादरी जिले के गांव बलाली की रहने वाली विनेश फोगाट की मां प्रेमलता को बच्चेदानी का कैंसर था. उसी समय रोडवेज विभाग में चालक प्रेमलता के पति राजपाल फोगाट की मौत हो गई थी. इस सब के बावजूद प्रेमलता ने विनेश को इस मुकाम तक पहुंचाया और आज खुद भी कैंसर से जंग जीत कर उन का हौसला बढ़ा रही हैं. नवीन मलिक कौमनवैल्थ गेम्स में सोनीपत के गांव पुगथला के रहने वाले नवीन मलिक ने 74 किलोग्राम भारवर्ग में गोल्ड मैडल जीत कर इतिहास रचा है. 3 साल की उम्र से पहलवानी सीख रहे नवीन मलिक ने फिलहाल 12वीं जमात के एग्जाम दिए हैं. उन के पिता किसान हैं और खुद भी पहलवानी करते थे, इसलिए उन्होंने अपने दोनों बेटों को पहलवानी की राह पर आगे बढ़ाया. नवीन मलिक के पिता धर्मपाल रोजाना नवीन के लिए घर से दूध ले कर जाते थे.
गांव से गाड़ी से गन्नौर जाते और वहां से ट्रेन से और फिर पैदल 10 किलोमीटर चल कर नवीन के अखाड़े में पहुंचते थे. जब नवीन मलिक अभ्यास करते थे, तो उस समय आधुनिक उपकरण कम ही थे. ऐसे में अपनी कलाई को मजबूत करने के लिए उन्होंने सीमेंट को बालटी में भर दिया था, जिस के सूखने के बाद उस से देशी जुगाड़ तैयार किया था. भाविना हसमुखभाई पटेल इन्होंने पैरा टेबल टैनिस महिला वर्ग 3-5 इवैंट में गोल्ड मैडल जीत कर इतिहास रचा है. गुजरात के मेहसाणा जिले के वडनगर इलाके के एक छोटे से गांव में 6 नवंबर, 1986 को भाविना का जन्म हुआ था. महज एक साल की उम्र में उन्हें पोलियो हो गया था. परिवार की माली हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि उन का इलाज कराया जा सके. गरीबी और पोलियो से जूझने के बावजूद भाविना ने कभी हार नहीं मानी. इस के बाद उन्होंने शौक और मनोरंजन के लिए टेबल टैनिस खेलना शुरू कर दिया.
ह्वीलचेयर पर बैठ कर टेबल टैनिस खेलते हुए उन्होंने इस में कैरियर बनाने की सोची, जिस में वे कामयाब हुईं. नीतू गंघास 21 साल की नीतू गंघास हरियाणा के भिवानी इलाके की रहने वाली हैं. उन्होंने मिनिमम वेट 45-48 किलोग्राम भारवर्ग के फाइनल में वर्ल्ड चैंपियनशिप 2019 की ब्रौंज मैडल विजेता रेस्जटान डेमी जैड को हरा कर गोल्ड मैडल अपने नाम किया. युवा भारतीय मुक्केबाज नीतू गंघास ने इस गोल्ड मैडल को अपने पिता जय भगवान को समर्पित किया, जिन्होंने अपनी बेटी के सपने को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. हरियाणा सचिवालय के कर्मचारी जय भगवान 2 बार की विश्व युवा चैंपियन नीतू को ट्रेनिंग देने के लिए पिछले 3 साल से अवैतनिक अवकाश पर हैं. अमित पंघाल भारतीय मुक्केबाज अमित पंघाल ने 48-51 किलोग्राम भारवर्ग में इंगलैंड के कियारन मैकडोनाल्ड को 5-0 से हरा कर गोल्ड मैडल जीता. अमित पंघाल का जन्म हरियाणा के रोहतक के मायाना गांव में 16 अक्तूबर, 1995 को हुआ था. इन के पिता का नाम विजेंद्र सिंह है,
जो एक किसान हैं. इन के बड़े भाई का नाम अजय है, जो खुद भी बौक्सिंग करने का शौक रखते हैं और इन के भाई ने अमित को बौक्सिंग करने के लिए प्रेरित किया, जिस से इन्हें बचपन से ही मुक्केबाजी का माहौल मिला. एल्डोस पौल पुरुषों के ट्रिपल जंप में एल्डोस पौल ने इतिहास रच दिया और वे कौमनवैल्थ गेम्स के ट्रिपल जंप इवैंट में भारत के लिए गोल्ड मैडल जीतने वाले पहले एथलीट बन गए. उन्होंने 17.03 मीटर लंबी छलांग लगाई और गोल्ड मैडल पक्का कर लिया. 7 नवंबर, 1996 को केरल के एर्नाकुलम में जनमे एल्डोस पौल ने बहुत छोटी उम्र में मां को खो दिया था. इस के बाद उन की दादी मरियम्मा ने ही उन्हें संभाला था. एल्डोस पौल बचपन में एथलीट बनने का सपना बिलकुल नहीं देखते थे. हां,
उन की कदकाठी एथलीट बनने के लिए अच्छी थी और वे फिट भी थे, लेकिन कोटामंगलम के मशहूर एमए कालेज में एडमिशन लेने के बाद एल्डोस पौल ने एथलैटिक्स में हाथ आजमाया, क्योंकि यह कालेज अपने ट्रैक ऐंड फील्ड कल्चर के लिए काफी मशहूर है. निखत जरीन वर्ल्ड चैंपियन भारतीय मुक्केबाज निखत जरीन ने महिला 50 किलोग्राम भारवर्ग मैच में बेलफास्ट की कार्ली मेकनौल को 5-0 से मात देते हुए कौमनवैल्थ गेम्स का गोल्ड मैडल अपने नाम किया. निखत जरीन का जन्म 14 जून, 1996 को तेलंगाना के निजामाबाद में हुआ था. उन के पिता का नाम मोहम्मद जमील अहमद है, जो खाड़ी देशों में एक सेल्सपर्सन थे और निखत के कैरियर के चलते अपनी नौकरी छोड़ कर वापस निजामाबाद आ गए थे. निखत जरीन की मां का नाम परवीन सुलताना है. निखत की 4 बहनें हैं, जिन में से बड़ी बहन अंजुम मीनाजी और उन से छोटी बहन अफनान जरीन दोनों डाक्टर हैं,
जबकि छोटी बहन बैडमिंटन खेलती हैं. अचंत शरत कमल भारत के इस दिग्गज टेबल टैनिस खिलाड़ी ने बर्मिंघम कौमनवैल्थ गेम्स में पुरुष एकल, पुरुष टीम इवैंट और मिक्स्ड डबल्स में गोल्ड मैडल जीता. अचंत शरत कमल का जन्म 12 जुलाई, 1982 को चेन्नई, तमिलनाडु में हुआ. इन के पिता श्रीनिवास राव और चाचा मुरलीधर राव ने अपने शुरुआती दिनों में टेबल टैनिस खेला था और फिर उन्होंने कोचिंग में हाथ आजमाया. अचंत शरत कमल ने 4 साल की उम्र में यह खेल खेलना शुरू किया था और 15 साल की उम्र में उन्हें एक मुश्किल फैसला करना पड़ा. इस दौरान वे या तो अपनी पढ़ाई जारी रख सकते थे या खेल में अपना कैरियर बना सकते थे. अब या तो उन के पास इंजीनियर बनने का मौका था या एक खिलाड़ी. आखिर में उन्होंने टेबल टैनिस को चुना. श्रीजा अकुला अचंत शरत कमल के साथ इस कौमनवैल्थ गेम्स का मिक्स्ड डबल गोल्ड मैडल जीतने वाली श्रीजा अकुला का जन्म 31 जुलाई, 1998 को हैदराबाद में हुआ था. वे न केवल टेबल टैनिस में ही अच्छी हैं, बल्कि स्कूल की भी टौपर रह चुकी हैं. साल 2017 में उन्होंने 12वीं जमात के इम्तिहान में 96 फीसदी अंक हासिल किए थे और रिजल्ट आने के कुछ ही दिन बाद वे वर्ल्ड टूर इंडिया ओपन के अंडर-21 वर्ग के क्वार्टर फाइनल में पहुंच गई थीं.
श्रीजा अकुला ने हैदराबाद के बदरुका कालेज से ग्रेजुएशन किया है. वे पढ़ाई की इतनी शौकीन हैं कि खेल प्रतियोगिताओं के लिए देशदुनिया में भले ही कहीं भी जाएं, किताबें साथ ले जाती हैं. पीवी सिंधु शीर्ष भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु ने ब्रिटेन के बर्मिंघम में चल रहे कौमनवैल्थ गेम्स में कनाडा की मिशेल ली को हरा कर गोल्ड मैडल पर अपनी मुहर लगा दी थी. 5 जुलाई, 1995 को आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में पीवी सिंधु का जन्म हुआ था. उन के मातापिता पी. विजया और पीवी रमन्ना भी वौलीबाल के इंटरनैशनल खिलाड़ी रहे हैं. पीवी सिंधु बचपन के दिनों में रोजाना 56 किलोमीटर तक की दूरी अपने घर से कोचिंग कैंप आने तक के लिए तय करती थीं. वे रोजाना सुबह एकेडमी जाने के लिए 3 बजे उठती थीं, क्योंकि एकेडमी में सैशन साढ़े 4 बजे से शुरू होता था. वे वापस आते ही साढ़े 8 बजे स्कूल जाती थीं और वहां से आते ही फिर से एकेडमी के लिए जाना होता था. लक्ष्य सेन कौमनवैल्थ गेम्स 2022 के पुरुष सिंगल्स बैडमिंटन फाइनल में भारत के लक्ष्य सेन ने मलयेशिया के जे. योंग के खिलाफ शानदार प्रदर्शन करते हुए पहला गेम गंवाने के बावजूद आखिरी 2 सैट जीत कर मैच अपने नाम किया और अपने पहले कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीत कर नया इतिहास रचा. उत्तराखंड के अल्मोड़ा में जनमे लक्ष्य सेन को बैडमिंटन विरासत में मिला है. उन के दादा सीएल सेन को अल्मोड़ा में ‘बैडमिंटन का भीष्म पितामह’ कहा जाता है.
लक्ष्य के पिता डीके सेन नैशनल लैवल पर बैडमिंटन खेल चुके हैं और कोच भी हैं. लक्ष्य सेन के बड़े भाई चिराग सेन भी बैडमिंटन खिलाड़ी हैं. पिता डीके सेन ने अपने दोनों बेटों को बेहतर बैडमिंटन खिलाड़ी बनाने के लिए अल्मोड़ा तक छोड़ दिया था और उन्हें ले कर बैंगलुरु चले गए थे. सात्विक साईंराज रंकीरेड्डी और चिराग शेट्टी बर्मिंघम कौमनवैल्थ गेम्स में बैडमिंटन में पुरुष युगल में सात्विक साईंराज रंकीरेड्डी और चिराग शेट्टी की जोड़ी ने गोल्ड मैडल अपने नाम किया. देश को पहली बार पुरुष डबल्स में गोल्ड मैडल मिला है. इस जोड़ी ने इंगलैंड के बेन लेन और सीन वेंडी की जोड़ी को हराया था. सात्विक साईंराज रंकीरेड्डी ने अपने पिता विश्वनाथम रंकीरेड्डी से प्रेरणा लेते हुए 6 साल की उम्र में बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया था. उन के पिता भी स्टेट लैवल के बैडमिंटन खिलाड़ी रह चुके हैं और उन के भाई रामचरण रंकीरेड्डी भी एक पेशेवर बैडमिंटन खिलाड़ी हैं. सात्विक साईंराज रंकीरेड्डी ने एक इंटरव्यू में बताया था, ‘‘शुरुआत के समय में अकादमी की फीस ज्यादा थी और प्रायोजकों के बिना अपने दम पर टूर्नामैंट खेलना मेरे मातापिता के लिए एक मुश्किल समय था, लेकिन उन्होंने किसी तरह से इस तरह के मुद्दों के बारे में मुझे कभी नहीं बताया. ‘‘जब मैं ने भारत में टूर्नामैंट जीतना शुरू किया, तो वे खुद अंदर ही अंदर चुप रहे और मेरे लिए संघर्ष करते रहे, फिर अकादमी ने मुझ से आधी फीस देने को कहा…’
’ चिराग चंद्रशेखर शेट्टी का जन्म 4 जुलाई, 1997 को मुंबई में हुआ था. चिराग के पिता का नाम चंद्रशेखर शेट्टी और मां का नाम सुजाता शेट्टी है. चिराग की बहन आर्या शेट्टी भी एक बैडमिंटन खिलाड़ी हैं. चिराग शेट्टी ने कम उम्र में ही बैडमिंटन खेलना शुरू किया था और अपने स्कूल में पढ़ाई के दौरान वे वहां के बैडमिंटन चैंपियन भी बने. चिराग शेट्टी के कैरियर की शुरुआत उदय पवार एकेडमी से हुई थी. उस के बाद अपने खेल को बेहतर बनाने के लिए वे गोपीचंद एकेडमी में एडमिशन लेने हैदराबाद चले गए थे.