कबूतरों का घर

चांद की धुंधली रोशनी में सभी एकदूसरे की सांसें महसूस करने की कोशिश कर रहे थे. उन्हें तो यह भरोसा भी नहीं हो रहा था कि वे जीवित बचे हैं. पर ऊपर नीला आकाश देख कर और पैरों के नीचे जमीन का एहसास कर उन्हें लगा था कि वह बाढ़ के प्रकोप से बच गए. बाढ़ में कौन बह कर कहां गया, कौन बचा, किसी को कुछ पता नहीं था.

‘‘जाने और कितना बरसेगा बादल?’’ किसी ने दुख से कहा था.

‘‘यह कहो कि जाने कब पानी उतरेगा और हम वापस घर लौटेंगे,’’ यह दूसरी आवाज सब को सांत्वना दे रही थी.

‘‘घर भी बचा होगा कि नहीं, कौन जाने.’’ तीसरे ने कहा था.

इस समय उस टापू पर जितने भी लोग थे वे सभी अपने बच जाने को किसी चमत्कार से कम नहीं मान रहे थे और सभी आपस में एकदूसरे के साथ नई पहचान बनाने की चेष्टा कर रहे थे. अपना भय और दुख दूर करने के लिए यह उन सभी के लिए जरूरी भी था.

चांद बादलों के साथ लुकाछिपी खेल रहा था जिस से वहां गहन अंधकार छा जाता था.

तानी ने ठंड से बचने के लिए थोड़ी लकडि़यां और पत्तियां शाम को ही जमा कर ली थीं. उस ने सोचा आग जल जाए तो रोशनी हो जाएगी और ठंड भी कम लगेगी. अत: उस ने अपने साथ बैठे हुए एक बुजुर्ग से माचिस के लिए पूछा तो वह जेब टटोलता हुआ बोला, ‘‘है तो, पर गीली हो गई है.’’

तानी ने अफसोस जाहिर करने के लिए लंबी सांस भर ली और कुछ सोचता हुआ इधरउधर देखने लगा. उस वृद्ध ने माचिस निकाल कर उस की ओर विवशता से देखा और बोला, ‘‘कच्चा घर था न हमारा. घुटनों तक पानी भर गया तो भागे और बेटे को कहा, जल्दी चल, पर वह….’’

तानी एक पत्थर उठा कर उस बुजुर्ग के पास आ गया था. वृद्ध ने एक आह भर कर कहना शुरू किया, ‘‘मुझे बेटे ने कहा कि आप चलो, मैं भी आता हूं. सामान उठाने लगा था, जाने कहां होगा, होगा भी कि बह गया होगा.’’

इतनी देर में तानी ने आग जलाने का काम कर दिया था और अब लकडि़यों से धुआं निकलने लगा था.

‘‘लकडि़यां गीली हैं, देर से जलेंगी,’’ तानी ने कहा.

कृष्णा थोड़ी दूर पर बैठा निर्विकार भाव से यह सब देख रहा था. अंधेरे में उसे बस परछाइयां दिख रही थीं और किसी भी आहट को महसूस किया जा सकता था. लेकिन उस के उदास मन में किसी तरह की कोई आहट नहीं थी.

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अपनी आंखों के सामने उस ने मातापिता और बहन को जलमग्न होते देखा था पर जाने कैसे वह अकेला बच कर इस किनारे आ लगा था. पर अपने बचने की उसे कोई खुशी नहीं थी क्योंकि बारबार उसे यह बात सता रही थी कि अब इस भरे संसार में वह अकेला है और अकेला वह कैसे रहेगा.

लकडि़यों के ढेर से उठते धुएं के बीच आग की लपट उठती दिखाई दी. कृष्णा ने उधर देखा, एक युवती वहां बैठी अपने आंचल से उस अलाव को हवा दे रही थी. हर बार जब आग की लपट उठती तो उस युवती का चेहरा उसे दिखाई दे जाता था क्योंकि युवती के नाक की लौंग चमक उठती थी.

कृष्णास्वामी ने एक बार जो उस युवती को देखा तो न चाहते हुए भी उधर देखने से खुद को रोक नहीं पाया था. अनायास ही उस के मन में आया कि शायद किसी अच्छे घर की बेटी है. पता नहीं इस का कौनकौन बचा होगा. उस युवती के अथक प्रयास से अचानक धुएं को भेद कर अब आग की मोटीमोटी लपटें खूब ऊंची उठने लगीं और उन लपटों से निकली रोशनी किसी हद तक अंधेरे को भेदने में सक्षम हो गई थी. भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गई.

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कृष्णा के पास बैठे व्यक्ति ने कहा, ‘‘मौत के पास आने के अनेक बहाने होते हैं. लेकिन उसे रोकने का एक भी बहाना इनसान के पास नहीं होता. जवान बेटेबहू थे हमारे, देखते ही देखते तेज धार में दोनों ही बह गए,’’ कृष्णा उस अधेड़ व्यक्ति की आपबीती सुन कर द्रवित हो उठा था. आंच और तेज हो गई थी.

‘‘थोड़े आलू होते तो इसी अलाव में भुन जाते. बच्चों के पेट में कुछ पड़ जाता,’’ एक कमजोर सी महिला ने कहा, उन्हें भी भूख की ललक उठी थी. इस उम्र में भूखा रहा भी तो नहीं जाता है.

आग जब अच्छी तरह से जलने लगी तो वह युवती उस जगह से उठ कर कुछ दूरी पर जा बैठी थी. कृष्णा भी थोड़ी दूरी बना कर वहीं जा कर बैठ गया. कुछ पलों की खामोशी के बाद वह बोला, ‘‘आप ने बहुत अच्छी तरह अलाव जला दिया है वरना अंधेरे में सब घबरा रहे थे.’’

‘‘जी,’’ युवती ने धीरे से जवाब में कहा.

‘‘मैं कृष्णास्वामी, डाक्टरी पढ़ रहा हूं. मेरा पूरा परिवार बाढ़ में बह गया और मैं जाने क्यों अकेला बच गया,’’ कुछ देर खामोश रहने के बाद कृष्णा ने फिर युवती से पूछा, ‘‘आप के साथ में कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सब समाप्त हो गए,’’ और इतना कहने के साथ वह हुलस कर रो पड़ी.

‘‘धीरज रखिए, सब का दुख यहां एक जैसा ही है,’’ और उस के साथ वह अपने आप को भी सांत्वना दे रहा था.

अलाव की रोशनी अब धीमी पड़ गई थी. अपनों से बिछड़े सैकड़ों लोग अब वहां एक नया परिवार बना रहे थे. एक अनोखा भाईचारा, सौहार्द और त्याग की मिसाल स्थापित कर रहे थे.

अगले दिन दोपहर तक एक हेलीकाप्टर ऊपर मंडराने लगा तो सब खड़े हो कर हाथ हिलाने लगे. बहुत जल्दी खाने के पैकेट उस टीले पर हेलीकाप्टर से गिरना शुरू हो गए. जिस के हाथ जो लग रहा था वह उठा रहा था. उस समय सब एकदूसरे को भूल गए थे पर हेलीकाप्टर के जाते ही सब एकदूसरे को देखने लगे.

अफरातफरी में कुछ लोग पैकेट पाने से चूक गए थे तो कुछ के हाथ में एक की जगह 2 पैकेट थे. जब सब ने अपना खाना खोला तो जिन्हें पैकेट नहीं मिला था उन्हें भी जा कर दिया.

कृष्णा उस युवती के नजदीक जा कर बैठ गया. अपना पैकेट खोलते हुए बोला, ‘‘आप को पैकेट मिला या नहीं?’’

‘‘मिला है,’’ वह धीरे से बोली.

कृष्णा ने आलूपूरी का कौर बनाते हुए कहा, ‘‘मुझे पता है कि आप का मन खाने को नहीं होगा पर यहां कब तक रहना पड़े कौन जाने?’’ और इसी के साथ उस ने पहला निवाला उस युवती की ओर बढ़ा दिया.

युवती की आंखें छलछला आईं. धीरे से बोली, ‘‘उस दिन मेरी बरात आने वाली थी. सब शादी में शरीक होने के लिए आए हुए थे. फिर देखते ही देखते घर पानी से भर गया…’’

युवती की बातें सुन कर कृष्णा का हाथ रुक गया. अपना पैकेट समेटते हुए बोला, ‘‘कुछ पता चला कि वे लोग कैसे हैं?’’

युवती ने कठिनाई से अपने आंसू पोंछे और बोली, ‘‘कोई नहीं बचा है. बचे भी होंगे तो जाने कौन तरफ हों. पता नहीं मैं कैसे पानी के बहाव के साथ बहती हुई इस टीले के पास पहुंच गई.’’

कृष्णा ने गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘मेरे साथ भी तो यही हुआ है. जाने कैसे अब अकेला रहूंगा इतनी बड़ी दुनिया में. एकदम अकेला… ’’ इतना कह कर वह भी रोंआसा हो उठा.

दोनों के दर्द की गली में कुछ देर खामोशी पसरी रही. अचानक युवती ने कहा, ‘‘आप खा लीजिए.’’

युवती ने अपना पैकट भी खोला और पहला निवाला बनाते हुए बोली, ‘‘मेरा नाम जूही सरकार है.’’

कृष्णा आंसू पोंछ कर हंस दिया. दोनों भोजन करने लगे. सैकड़ों की भीड़ अपना धर्म, जाति भूल कर एक दूसरे को पूछते जा रहे थे और साथसाथ खा भी रहे थे.

खातेखाते जूही बोली, ‘‘कृष्णा, जिस तरह मुसीबत में हम एक हो जाते हैं वैसे ही बाकी समय क्यों नहीं एक हो कर रह पाते हैं?’’

कृष्णा ने गहरी सांस ली और बोला, ‘‘यही तो इनसान की विडंबना है.’’

सेना के जवान 2 दिन बाद आ कर जब उन्हें सुरक्षित स्थानों पर ले कर चले तो कृष्णा ने जूही की ओर बहुत ही अपनत्व भरी नजरों से देखा. वह भी कृष्णा से मिलने उस के पास आ गई और फिर जाते हुए बोली, ‘‘शायद हम फिर मिलें.’’

रात होने से पहले सब उस स्थान पर पहुंच गए जहां हजारों लोग छोटेछोटे तंबुओं में पहले से ही पहुंचे हुए थे. उस खुले मैदान में जहांजहां भी नजर जाती थी बस, रोतेबिलखते लोग अपनों से बिछुड़ने के दुख में डूबे दिखाई देते थे. धीरेधीरे भीड़ एक के बाद एक कर उन तंबुओं में गई. पानी ने बहा कर कृष्णा और जूही  को एक टापू पर फेंका था लेकिन सरकारी व्यवस्था ने दोनों को 2 अलगअलग तंबुओं में फेंक दिया.

मीलों दायरे में बसे उस तंबुओं के शहर में किसी को पता नहीं कि कौन कहां से आया है. सब एकदूसरे को अजनबी की तरह देखते लेकिन सभी की तकलीफ को बांटने के लिए सब तैयार रहते.

सरकारी सहायता के नाम पर वहां जो कुछ हो रहा था और मिल रहा था वह उतनी बड़ी भीड़ के लिए पर्याप्त नहीं था. कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी मदद करने के काम में जुटी थीं.

वहां रहने वाले पीडि़तों के जीवन में अभाव केवल खानेकपड़े का ही नहीं बल्कि अपनों के साथ का अभाव भी था. उन्हें देख कर लगता था, सब सांसें ले रहे हैं, बस.

उस शरणार्थी कैंप में महामारी से बचाव के लिए दवाइयों के बांटे जाने का काम शुरू हो गया था. कृष्णा ने आग्रह कर के इस काम में सहायता करने का प्रस्ताव रखा तो सब ने मान लिया क्योंकि वह मेडिकल का छात्र था और दवाइयों के बारे में कुछकुछ जानता था. दवाइयां ले कर वह कैंपकैंप घूमने लगा. दूसरे दिन कृष्णा जिस हिस्से में दवा देने पहुंचा वहां जूही को देख कर प्रसन्नता से खिल उठा. जूही कुछ बच्चों को मैदान में बैठा कर पढ़ा रही थी. गीली जमीन को उस ने ब्लैकबोर्ड बना लिया था. पहले शब्द लिखती थी फिर बच्चों को उस के बारे में समझाती थी. कृष्णा को देखा तो वह भी खुश हो कर खड़ी हो गई.

‘‘इधर कैसे आना हुआ?’’

‘‘अरे इनसान हूं तो दूसरों की सेवा करना भी तो हमारा धर्म है. ऐसे समय में मेहमान बन कर क्यों बैठे रहें,’’ यह कहते हुए कृष्णा ने जूही को अपना बैग दिखाया, ‘‘यह देखो, सेवा करने का अवसर हाथ लगा तो घूम रहा हूं,’’ फिर जूही की ओर देख कर बोला, ‘‘आप ने भी अच्छा काम खोज लिया है.’’

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कृष्णा की बातें सुन कर जूही हंस दी. फिर कहने लगी, ‘‘ये बच्चे स्कूल जाते थे. मुसीबत की मार से बचे हैं. सोचा कि घर वापस जाने तक बहुत कुछ भूल जाएंगे. मेरा भी मन नहीं लगता था तो इन्हें ले कर पढ़नेपढ़ाने बैठ गई. किताबकापी के लिए संस्था वालों से कहा है.’’

दोनों ने एकदूसरे की इस भावना का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आखिर हम कुछ कर पाने में समर्थ हैं तो क्यों हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें?’’

अब धीरेधीरे दोनों रोज मिलने लगे. जैसेजैसे समय बीत रहा था बहुत सारे लोग बीमार हो रहे थे. दोनों मिल कर उन की देखभाल करने लगे और उन का आशीर्वाद लेने लगे.

कृष्णा भावुक हो कर बोला, ‘‘जूही, इन की सेवा कर के लगता है कि हम ने अपने मातापिता पा लिए हैं.’’

एकसाथ रह कर दूसरों की सेवा करते करते दोनों इतने करीब आ गए कि उन्हें लगा कि अब एकदूसरे का साथ उन के लिए बेहद जरूरी है और वह हर पल साथ रहना चाहते हैं. जिन बुजुर्गों की वे सेवा करते थे उन की जुबान पर भी यह आशीर्वाद आने लगा था, ‘‘जुगजुग जिओ बच्चों, तुम दोनों की जोड़ी हमेशा बनी रहे.’’

एक दिन कृष्णा ने साहस कर के जूही से पूछ ही लिया, ‘‘जूही, अगर बिना बराती के मैं अकेला दूल्हा बन कर आऊं तो तुम मुझे अपना लोगी?’’

जूही का दिल धड़क उठा. वह भी तो इस घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी. नजरें झुका कर बोली, ‘‘अकेले क्यों आओगे, यहां कितने अपने हैं जो बराती बन जाएंगे.’’

कृष्णा की आंखें खुशी से चमक उठी. अपने विवाह का कार्यक्रम तय करते हुए उस ने अगले दिन कहा, ‘‘पता नहीं जूही, अपने घरों में हमारा कब जाना हो पाए. तबतक इसी तंबू में हमें घर बसाना पडे़गा.’’

जूही ने प्यार से कृष्णा को देखा और बोली, ‘‘तुम ने कभी कबूतरों को अपने लिए घोसला बनाते देखा है?’’

कृष्णा ने उस के इस सवाल पर अपनी अज्ञानता जाहिर की तो वह हंस कर बताने लगी, ‘‘कृष्णा, कबूतर केवल अंडा देने के लिए घोसला बनाते हैं, वरना तो खुद किसी दरवाजे, खिड़की या झरोखे की पतली सी मुंडेर पर रात को बसेरा लेते हैं. हमारे पास तो एक पूरा तंबू है.’’

कृष्णा ने मुसकरा कर उस के गाल पर पहली बार हल्की सी चिकोटी भरी. उन दोनों के घूमने से पहले ही कुछ आवाजों ने उन्हें घेर लिया था.

‘‘कबूतरों के इन घरों में बरातियों की कमी नहीं है. तुम तो बस दावत की तैयारी कर लो, बराती हाजिर हो जाएंगे.’’

उन दोनों को एक अलग सुख की अनुभूति होने लगी. लगा, मातापिता, भाईबहन, सब की प्रसन्नता के फूल जैसे इन लोगों के लिए आशीर्वाद में झड़ रहे हैं.

रथयात्रा के यात्री

सुबह उठ कर बाहर आया तो देखा नेताजी बड़ी जल्दी में कहीं जा रहे हैं.

उन्हें रोकना चाहा तो कहने लगे, ‘‘अभी तो बड़ा व्यस्त हूं फिर मिलूंगा.’’

हम ने कहा, ‘‘भैया, अब ऐसी भी क्या व्यस्तता जो घड़ी दो घड़ी खड़े हो कर पान भी नहीं खा सकते? कम से कम एक पान तो खाते जाइए.’’

अब पान ठहरा नेताजी की कमजोरी, कमजोरी भी ऐसी जिस के लिए वह अपने सारे जरूरी काम किनारे कर सकते हैं. अत: कुछ सोच कर बोले, ‘‘अब आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो आप की बात को रखते हुए पान तो मैं खा लेता हूं पर इस से ज्यादा समय मैं आप को बिलकुल नहीं दे पाऊंगा.’’

हम ने कहा, ‘‘ठीक है, पहले आप पान तो खाइए फिर बाद में देखते हैं.’’

इतना कह कर हम ने रामचरण को 2 पान लगाने का आर्डर दे कर नेताजी से पूछा, ‘‘क्या बात है, बहुत जल्दी में दिखाई दे रहे हैं?’’

वह बोले, ‘‘मत पूछिए, बहुत व्यस्त हूं. रात में 2 बजे तक जागने पर भी अभी तक काम पूरा नहीं हुआ है, आज उन का नगर आगमन होना है और अभी भी इतने सारे काम बाकी हैं, जाने क्या होगा?’’

हम ने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘तो क्या उन की रथयात्रा हमारे यहां से हो कर भी गुजरेगी?’’

उन्हें जोर का झटका लगा. बोले, ‘‘ भाईजी कैसी बात कर रहे हैं? यह सब स्वागत द्वार, झंडे, बैनर्स, पोस्टर्स अब उसी रथयात्रा का स्वागत करने के लिए ही तो लगाए गए हैं. यहां तो काम करकर के जान निकली जा रही है और आप पूछ रहे हैं कि यहां से भी रथयात्रा गुजरेगी?’’

हम ने सहलाने के अंदाज में कहा, ‘‘नाराज मत होइए, सबकुछ ठीकठाक हो जाएगा, निश्चिंत रहिए. आप ने चाहे राम का भला किया हो या न किया हो लेकिन राम आप का भला अवश्य करेंगे.’’

नेताजी फिर उखड़ गए, ‘‘कैसी बात कह गए आप? हमारे प्रयत्नों (रथयात्रा) से ही विवादित ढांचा ढहा और राममंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ. हम ने ही राम को मुगलकालीन दासता से मुक्ति दिला कर आजाद किया है, तो फिर आप कैसे कह सकते हैं कि हम ने राम का भला नहीं किया?’’

हम ने उन्हें शांत करते हुए बातों का रुख दूसरी ओर मोड़ा, ‘‘इन रथयात्राओं पर तो आप की पार्टी को अच्छा- खासा व्यय करना पड़ रहा होगा?’’

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हमारी बात की सहमति में सिर हिलाते हुए नेताजी ने कहा, ‘‘लेकिन हमारी भी मजबूरी है. राष्ट्र की सुरक्षा से जो खिलवाड़ केंद्र सरकार कर रही है और इस सरकार की अदूरदर्शिता भरी नीतियों से राष्ट्र की सुरक्षा को जो गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है उसी के विरोध में जनभावना जगाना, जनजागृति का विकास करना हमारी इस यात्रा का प्रमुख उद्देश्य है. इसलिए हम ने इस यात्रा का नाम ही ‘भारत सुरक्षा यात्रा’ रख दिया है. वैसे आप की जानकारी के लिए बता दूं कि अपने क्षेत्र में इस यात्रा का मैं ही प्रभारी हूं.’’

हम ने उन्हें बधाई दे कर अपनी तरफ से औपचारिकता की रस्म अदायगी की. हमारी बधाई को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए नेताजी बोले, ‘‘आश्चर्य है जिन यात्राओं के बारे में इतना कुछ लिखा, पढ़ा, सुना जा रहा है उस के बारे में मुझे आप को बताना पड़ रहा है.’’

अपनी अनभिज्ञता पर बिना किसी संकोच या शर्मिंदगी के हम ने कहा, ‘‘अब इतने सारे लोग, इतनी सारी यात्राएं निकाल रहे हैं तो व्यक्ति किसकिस को याद रखे, जब रोज ही कोई न कोई यात्रा निकल रही हो तो यह याद रखना भी तो मुश्किल हो जाता है कि किस ने किस उद्देश्य से यात्रा निकाली?’’

वह बोले, ‘‘फिर भी हमारी यात्राएं सब से अलग, सब से खास होती हैं, यही नहीं हमारी महान संस्कृति का एक अंग होती हैं.’’

‘‘सब से अलग तो आप हैं ही,’’ हमारे यह कहने पर वह बोले, ‘‘कैसे?’’

हम ने कहा, ‘‘समझते रहिए, यह पहेली. वैसे आप क्या सोचते हैं आप के यात्रा निकालने से राष्ट्र की सुरक्षा मजबूत होगी? क्या राष्ट्र सुरक्षा की भावना को बल प्रदान होगा?’’

वह बोले, ‘‘इन यात्राओं के पीछे उद्देश्य तो यही है.’’

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‘‘इस के पहले भी तो आप के नेताओं ने कईकई उद्देश्यों से कईकई यात्राएं की हैं,’’ हम ने कहा, ‘‘कभी राम मंदिर निर्माण के लिए तो कभी भारत की एकता के लिए, कभी सांप्रदायिक सद्भावना के लिए तो कभी तिरंगे के सम्मान के लिए, इस बीच कुछ उपयात्राएं भी आप लोगों ने कर डाली हैं. हमेशा नएनए मुद्दों पर आप के नेता यात्रा करते हैं लेकिन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के बाद वे उन्हें भूल जाते हैं, जिन के लिए उन्होंने यात्रा की थी. मजाक में अब तो कुछ लोगों ने आप की पार्टी को ‘भारतीय यात्रा पार्टी’ कहना शुरू कर दिया है. इधर कोई घटना घटी नहीं उधर आप की पार्टी के नेता तैयार हो जाते हैं उस के विरोध में यात्रा निकालने के लिए.’’

कुछ तैश में आ कर नेताजी बोले, ‘‘आप को हमारी इन यात्राओं पर इतनी आपत्ति क्यों है? एक राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते हमारा अधिकार है अलगअलग राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचारों से जनता को अवगत कराना, अपना विरोध जाहिर करना, अपनी नीतियों का प्रचार और उसे सर्वव्यापक, सर्वस्वीकार्य बनाना.’’

हम ने कहा, ‘‘वह सब तो ठीक है लेकिन इन यात्राओं के पीछे आप का छिपा हुआ उद्देश्य भी होता है.’’

‘‘यह तो लोगों की गलतफहमी है,’’ वह आराम से बोले. ‘‘हम तो शुरू से ही ‘साफ दिशा, स्पष्ट नीति’ वाले लोग हैं, राष्ट्रवाद का प्रचार करना और लोगों में राष्ट्रीयता की भावना भरना ही हमारी यात्राओं का एकमात्र उद्देश्य होता है.’’

हम ने कहा, ‘‘यदि आप के उद्देश्य जनहित के हैं तो विरोधी आप की यात्राओं पर इतना बवाल, विरोध क्यों करते हैं?’’

पान की पीक एक ओर को थूकते हुए नेताजी बोले, ‘‘भाईजी, यह सब तो हमारे विरोधियों की टुच्ची राजनीति है, उन की क्षुद्र मानसिकता है. वे हमारे हर अच्छे काम में राजनीति देखते हैं, उन की सोच राजनीति से ऊपर उठ ही नहीं सकती. यह सब कुप्रचार वही लोग करते हैं जो हमारी यात्राओं की सफलता देख नहीं सकते, हमारी लोकप्रियता से जलते हैं वे सब.’’

फिर भी यदि लोगों को परेशानी है तो आप क्यों नहीं इन रथयात्राओं को रोक देते? क्यों व्यर्थ में एक नए विवाद को जन्म देते हैं? आखिर क्या हासिल होता है आप को इन सब से?’’

हमारे इस सवाल पर गहरी नजर से उन्होंने हमें देखा फिर बोले, ‘‘आप कौन होते हैं, हमें सलाह देने वाले. अपना भलाबुरा हम बेहतर समझते हैं और जहां तक रथयात्राओं की बात है तो हमारी एक सफलता तो आप देख ही चुके हैं कि रथयात्रा की ही बदौलत हम जमीन से सीधे आसमान पर पहुंचे थे.’’ फिर कुछ तेज आवाज में कहने लगे, ‘‘क्या हासिल नहीं हुआ हमें रथयात्राओं से? सत्ता, धन, पावर सबकुछ तो हमें इन्हीं से मिला है तो क्यों छोड़ें हम अपनी रथयात्राएं? हमारी रथयात्राएं तो जारी रहेंगी चाहे कोई कुछ कहे, कोई कैसा भी विरोध करे हमारे रथ का पहिया अपने लक्ष्य पर पहुंच कर ही थमेगा.’’

हम पूछना चाह रहे थे कि आप को तो रथयात्राओं से सबकुछ हासिल हुआ पर जनता को…लेकिन हमारा प्रश्न गले में ही अटक कर रह गया क्योंकि नेताजी रथयात्रा की शेष तैयारियां देखने निकल पड़े थे.

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मिलन

साधना श्रीवास्तव ‘योगेश’

प्रांजल और हिमालय दोनों बचपन से ही दोस्त रहे. नौकरी व विवाह के बाद भी उन की निकटता बनी रही. प्रांजल की पत्नी भावना को हिमालय की पत्नी रचना का साथ भी अच्छा लगता. दोनों मित्रों की पत्नियां जबतब बतियाती रहतीं. प्रांजल की दोनों बेटियां मीता व गीता अपनी पढ़ाई लगभग पूरी कर चुकी थीं और बेटा उज्ज्वल अभी डाक्टरी के तीसरे वर्ष में पढ़ रहा था.

मीता की शादी में हिमालय अपने बेटे सौरभ व बेटी ऋचा के साथ मुंबई यथासमय पहुंच गए थे. दोनों परिवार के बच्चे जब एकदूसरे के साथ रहे तो संबंध और भी पक्के हो गए.

एक दिन अचानक प्रांजल को हिमालय से अत्यंत दुखद समाचार मिला. उस की पत्नी रचना रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर सीढि़यों से फिसल कर गिर जाने के कारण गंभीर रूप से घायल हो गई है. प्रांजल और भावना के मुंबई पहुंचने से पहले ही रचना की मृत्यु हो गई.

बचपन के मित्र के कष्ट को समझते हुए भी प्रांजल और भावना संवेदना के दो शब्द के अलावा कुछ भी समझा नहीं पाए. हिमालय दुखी व नितांत अकेले रह गए थे. उन की बेटी ऋचा ससुराल में थी और सौरभ की भी नौकरी दूसरे शहर में थी. लौटते हुए हिमालय से वे कह कर आए थे, ‘जब भी मन करे हमारे पास आ जाया करना…मन कुछ बदल जाएगा.’

प्रांजल के बेटे उज्ज्वल के विवाह पर हिमालय मित्र के आग्रह पर कुछ पहले आए थे. मीता और गीता के विवाह में वह पत्नी रचना के साथ आए थे…वे दिन आंखों के सामने बारबार आ जाते. प्रांजल और भावना उन के दुख को समझ रहे थे अत: उन्हें हर तरह से व्यस्त रखने का प्रयास करते ताकि मित्र अपनी पीड़ा को कुछ सीमा तक भुला सके.

बाद में हिमालय का मन अपने अकेलेपन से बहुत उचाट होता तो वह प्रांजल के पास ही आ जाते.

मुश्किल से 2 साल गुजरे होंगे कि प्रांजल भी गंभीर रूप से बीमार हो गए और केवल एक माह की बीमारी के बाद भावना अकेली रह गई.

बेटियां और उज्ज्वल भावना को बारीबारी से अपने साथ ले भी गए पर वह 3-4 महीने में घूमफिर कर दोबारा अपने घरौंदे में वापस आ गई…पति के साथ सुखदुख की यादों के बीच.

उसे घर में हर तरफ प्रांजल ही दिखाई पड़ते…कभी ऐसा आभास होता कि प्रांजल किचन में उस के पीछे आ कर खड़े हैं और दूसरे ही क्षण उसे लगता…जैसे प्रांजल उसे समझा रहे हैं कि मैं तुम से दूर नहीं हूं भावना बल्कि तुम्हारे बिलकुल पास हूं…और भावना चौंक पड़ती.

भावना का अपने बच्चों के पास मन नहीं लगा. जब हिमालय ने यह सुना तो हिम्मत कर के कुछ दिन का अवकाश ले कर भावना के पास आए. उन्हें देख कर भावना बिफर पड़ी…प्रांजल की यादें जो ताजा हो गईं…जब रचना नहीं रही…और हिमालय आते तो प्रांजल बारबार भावना से कहते, ‘मैं चाहता हूं जो चीजें नाश्ते व भोजन में हिमालय को पसंद हैं…वही बनें. जब तक वह हमारे साथ है हम उस की ही पसंद का खाना व नाश्ता करेंगे.’

भावना प्रांजल की बात इसलिए नहीं रखती कि हिमालय उस के पति के दोस्त हैं…बल्कि इस का दूसरा कारण भी था कि रचना की मृत्यु से हिमालय के प्रति उसे गहरी सहानुभूति हो गई थी. लेकिन अब? अब सबकुछ परिवर्तित रूप में था…अब भावना किचन में घुसती ही नहीं. हिमालय ही जो कुछ बना सकते थे, बना लेते पर खाते दोनों साथसाथ.

भावना ने काफी समय तक बातें भी न के बराबर कीं. हिमालय कहते तो वह तटस्थ सी सुनती. जवाब नपेतुले शब्दों में देती.

हिमालय स्वयं चोट खाए हुए थे इसलिए भावना की पीड़ा को समझते थे. वह उसे समझाने का प्रयास जरूर करते, ‘‘जीवन मृत्यु में किसी का दखल नहीं चलता. इनसान खुद परिस्थितियों के अनुसार जीवन व्यतीत करने को मजबूर है. घाव कुछ हलका होने पर इनसान स्वयं अपने आसपास छोटीमोटी खुशियां खोजने का प्रयास करे. हमें इस तथ्य को अपना कर ही चलना होगा, भावनाजी.’’

भावना की आंखों से बस, आंसू टपकते रहते…वह बोलती कुछ नहीं. हिमालय जाने लगे तो भावना से यह वादा जरूर लिया कि वह अपने खानेपीने का पूरा ध्यान रखेगी. मन ठीक नहीं है तो क्या तन को स्वस्थ रखना जरूरी है.

समय के मरहम से भावना का घाव भरा तो हिमालय का जबतब आना उसे अच्छा लगने लगा…बातें भी करनी शुरू कर दीं. नाश्ताभोजन भी उन के पसंद का बनाने लगी. हिमालय को भी भावना के यहां आना अच्छा लगता.

मीता, गीता व उज्ज्वल भावना से मिलने आए हुए थे. तभी हिमालय भी आ गए थे. बेटियां चाह रही थीं कि मां उन के साथ या भाई के साथ चलें लेकिन भावना तैयार नहीं हुईं. उन का कहना था कि उन्हें अपने इसी घर में अच्छा लगता है.

बच्चे मां को समझ रहे थे…जहां उन्हें अच्छा लगे वहीं रहें. हां, उन्हें इस बात का अंदाजा जरूर लग गया था कि हिमालय अंकल के यहां रहने से मां के मन को कुछ ठीक लगता है. अंकल बरसों से उन के पारिवारिक मित्र रहे हैं और काफी समय उन लोगों ने साथसाथ गुजारा भी है. मीता और उज्ज्वल सोच रहे थे कि हिमालय अंकल जितना भी मां के साथ रह लेते हैं, कम से कम उतने समय तो वे लोग मां की तरफ से निश्चिंत से रहते हैं.

वैसे बच्चे चाहते कि उन में से कोई एक मां के पास अवश्य रहे लेकिन जब यह संभव नहीं था तो वे हिमालय अंकल पर ही निर्भर होने लगे और साग्रह उन से कहते भी, ‘‘अंकल, हम मां पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डालना चाहते पर आप से आग्रह करते हैं कि उन का हालचाल पूछते रहेंगे. हम लोग भी यथासंभव शीघ्र आने का प्रयास करते रहेंगे.’’

एक दिन हिमालय ने हिम्मत कर के कहा, ‘‘भावना, मैं समझता हूं कि तुम्हारा कष्ट ऐसा है जिस का भागीदार कोई नहीं हो सकता. फिर भी हिम्मत कर के कह रहा हूं…यदि आप अपने जीवन में किसी हैसियत से मुझे शामिल करना चाहो तो मैं आप की शर्तों के साथ आप को स्वीकार करने को सहर्ष तैयार हूं. इस से न केवल एक को बल्कि दोनों को सहारा और बल मिलेगा.’’

थोड़ा विराम दे कर हिमालय ने पुन: कहा, ‘‘आप के हर निर्णय का मैं सम्मान करूंगा. आप इस बात से भी निश्चिंत रहिए कि हमारी दोस्ती के रिश्ते पर कोई आंच नहीं आएगी.’’

भावना ने पलक उठा कर हिमालय की तरफ देखा. वह मन से यही चाहती थी, हिमालय की बात अपनी जगह सही है. अब वह भी खुद को प्रांजल के अभाव में अकेली और बेसहारा अनुभव करती है. वह कोई गलत अथवा अनुचित कदम उठाना नहीं चाहती…उस के समक्ष उस का परिवार है, बच्चे हैं और सब से बड़ा समाज है. हिमालय की बात का कुछ जवाब दिए बिना वह किचन की तरफ बढ़ गई. हिमालय ने भी फिर कुछ कहा नहीं.

हिमालय के बेटे सौरभ व बेटी ऋचा को यह पता था कि जब से मां मरी हैं पिताजी बहुत दुखी, उदास व नितांत अकेले हैं. यह बात दोनों बच्चे अच्छी तरह जानते थे कि पापा को प्रांजल अंकल और भावना आंटी के यहां जाना हमेशा ही अच्छा लगता रहा, और आज जब आंटी नितांत अकेली व दुखी हो गई हैं, तब भी.

सौरभ ने ही ऋचा से कहा, ‘‘क्यों न हम भावना आंटी के मन का अंदाजा लगाने की कोशिश करें. यदि उन के मन में पापा के लिए कोई जगह होगी तो हम उन से जरूर कुछ कहना चाहेंगे. आंटी का साथ पा कर पापा के दिन भी अच्छे से गुजर सकेंगे.’’

सौरभ और ऋचा ने भावना के पास जाने का निश्चय किया. हिमालय, भावना के यहां ही थे. अचानक सौरभ को फोन से पता चला कि भावना आंटी को सीरियस बीमारी है फिर तो दोनों बहनभाई तुरंत ही वहां के लिए निकल पड़े. मीता, गीता तथा उज्ज्वल का परिवार सब पहुंच चुके थे.

दरअसल, कई दिनों से भावना का मन ठीक नहीं था. उलझन और अनिश्चय से भरा अंतर्मन समुद्र मंथन सा मथ रहा था…कभी हिमालय की बात और अपनत्वपूर्ण व्यवहार उसे अपनी तरफ खींचता तो कभी पति के साथ बिताए दिन यादों को झकझोर देते…तो कभी जीवन में आया अकेलापन भी अपना कोई साथी ढूंढ़ता…सब तरफ से घिरे मन को भावना ने अच्छी तरह से टटोला, परखा तो यही लगा कि पति के अभाव में वह कुछ सीमा तक अकेली और दुखी जरूर है पर उसे किसी और बात का अभाव नहीं है.

दूसरी बात, वह हर कदम अपने बच्चों और परिवार को साथ ले कर ही चलना चाहेगी…सोचती हुई भावना ने अपने मन में निश्चय किया कि हिमालय जैसे अब तक प्रांजल के दोस्त रहे बस, वही दोस्ती का रिश्ता अब भी बना रहेगा.

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अपने फैसले से संतुष्ट भावना ने तय किया कि कल सुबह वह हिमालय को उन की उस दिन कही बात के बारे में अपना फैसला जरूर सुना देगी.

लेकिन मन में तनाव के चलते रात को भावना का रक्तचाप काफी बढ़ जाने से उसे जबरदस्त हार्ट अटैक पड़ गया. हिमालय ने फौरन उसे अस्पताल में भरती कराया. डाक्टरों ने 72 घंटे उसे आईसीयू में रखा था. एक सप्ताह अस्पताल में रहने के बाद ही भावना घर आ सकी.

15 दिनों तक मां के साथ रहने के बाद आफिस व बच्चों के स्कूल के चलते मीता, गीता और उज्ज्वल वापस जाने की तैयारी में लग गए थे. हिमालय के दोनों बच्चे सौरभ व ऋचा तो 2 दिन बाद ही चले गए थे. उज्ज्वल ने मां को ले जाना चाहा लेकिन भावना अभी इस स्थिति में नहीं थी कि सफर कर सके. बच्चे जानते थे कि मां की सेवा में हिमालय अंकल का अहम स्थान रहा, वह अभी भी भावना को अकेली छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं थे.

हिमालय का भावना के प्रति आत्मीयभाव व सहृदयता से की गई सेवा ने सिर्फ भावना के ही नहीं बल्कि दोनों के बच्चों के अंतर्मन को गहराइयों से छू लिया था. और अपनी मां व पिता के प्रति एक सुखद फैसला लेने को प्रेरित किया. जाने से पहले मीता और उज्ज्वल ने सौरभ और ऋचा से फोन पर लंबी बातचीत की. इसी के साथ उन्होंने अपने सोचे फैसले के प्रति मन को पक्का भी कर लिया.

एक दिन भावना ने देखा कि अचानक उस के बच्चों के साथ हिमालय के भी दोनों बच्चे आए हैं. उस ने सब से बेहद अनुनय के साथ कहा, ‘‘तुम सब ने तथा हिमालय अंकल ने मेरी बहुत सेवा की. शायद उन के यहां होने से ही मुझे दूसरा जीवन मिला है. यदि उस दिन हिमालय अंकल यहां न होते तो…’’

मीता ने मां के होंठों पर हाथ रख कर आगे बोलने से रोक दिया. अचानक उसे याद आया जब 11 दिसंबर को उस की शादी में हिमालय अंकल सपरिवार आए थे तो पापा ने उन से मुसकरा कर कहा था, ‘जानते हो हिमालय, मैं ने मीता की शादी के लिए यह दिन चुन कर क्यों रखा? यह बड़ा शुभ दिन है…हमारी भावना का जन्मदिन जो है.’

‘तो यह बात तुम ने आज तक मुझ से छिपा कर क्यों रखी? और साथ में यह भी भूल गए कि 11 दिसंबर को मेरा भी जन्मदिन होता है.’ हिमालय अंकल के इतना कहने के बाद प्रांजल ने खुश हो कर उन को बांहों में भर लिया था. फिर तो हिमालय अंकल और मां को बधाई देने वालों का घर में तांता सा लग गया था.

मीता ने कहा, ‘‘मां, जब से मेरी शादी हुई है मैं अपने विवाह की वर्षगांठ पर कभी आप के पास नहीं रही. इस बार मेरी दिली इच्छा है कि इस शुभ दिन का जश्न मैं और यश आप के साथ मनाएं. और मैं ने तो अपनी शादी की इस सालगिरह के लिए होटल भी बुक करा लिया है. कुछ खासखास मेहमानों के साथ हिमालय अंकल, सौरभ भैया तथा ऋचा भी रहेगी. मां, उस दिन आप का भी तो जन्मदिन होता है…हम दोनों यह दिन सुंदरता से एकसाथ मनाया करेंगे.’’

भावना को बेटी की बात सुन कर अच्छा लगा, इसी बहाने घर में कुछ दिन तो रौनक रहेगी. उसे याद था कि इस दिन हिमालय का भी जन्मदिन होता है, लेकिन उस ने मीता से इस का कोई जिक्र नहीं किया.

निश्चित दिन से एक दिन पहले ही ज्यादातर लोग आ गए, इसीलिए अगले दिन सुबह से ही घर में चहलपहल का माहौल बना हुआ था. जहां मीता और यश को सब बधाई दे रहे थे वहीं भावना और हिमालय भी अपनेअपने जन्मदिन की बधाई स्वीकार कर रहे थे.

संध्या समय घर के सभी लोग होटल पहुंच गए. होटल में आकर्षक सजावट की गई थी. एक तरफ शहनाई वादन की व्यवस्था की गई थी. विवाह की वर्षगांठ के मौके पर मीता और यश की जयमाल होने के साथ ही तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी. तभी मुसकराती मीता हिमालय के पास आ कर आग्रह पूर्वक बोली, ‘‘प्लीज अंकल, एक मिनट के लिए उधर मंच पर चलिए.’’

हिमालय भी बिना कुछ सोचेसमझे उस के साथ हो लिए. दूसरी तरफ ऋचा भावना को साथ ले कर मंच पर आई.

मीता और ऋचा ने आमनेसामने खड़े भावना और हिमालय के हाथों में बड़ा सा फूलों का हार पकड़ाते हुए हंस कर कहा, ‘‘जानते हैं अंकल और आंटी, आप इस का क्या करेंगे?’’

‘‘हां, तुम को और यशजी को शादी की वर्षगांठ की खुशी में पहनाना है,’’ हिमालय ने मुसकरा कर कहा.

‘‘नहीं, आज मम्मी का जन्मदिन है. इस उपलक्ष्य में यह हार आप उन को पहनाएंगे,’’ मीता ने हंस कर कहा.

‘‘और आंटी, आज मेरे पापा का भी जन्मदिन है,’’ मीता के कहने के तुरंत बाद ऋचा ने कहा, ‘‘इस खुशी में आप को हार पापा को पहनाना है.’’

अपनेअपने हाथों में हार पकड़े हिमालय और भावना आश्चर्य से भर कर बच्चों की तरफ देखने लगे. अपने लिए बच्चों की इस खूबसूरत कोशिश पर दोनों का दिल भर आया और उन्होंने बच्चों का मन रखने के लिए एकदूसरे को जयमाला पहना कर रस्म अदा कर दी.

मीता और ऋचा ने तालियां बजाते हुए सब के सामने कहा, ‘‘अब आप दोनों दोस्त से आगे एकदूसरे को स्वीकार कर के एक दूसरे के हो कर रहेंगे. हमारा यह प्रयास बस, आप लोगों को अपनी स्थायी पीड़ा और अकेलेपन से कुछ सीमा तक निजात दिलाने के लिए किया गया है.’’

बच्चों के साहस और प्रयास की सब ने मुक्त कंठ से सराहना की. तालियों की गड़गड़ाहट से होटल का हाल गूंज उठा. हिमालय ने अनुग्रहीत नजरों से बच्चों की तरफ देखा…जिन्होंने अत्यंत खूबसूरती से सब को साक्षी बना कर उन के मिलन को स्वीकार किया था.

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कृष्णिमा

स्निग्धा श्रीवास्तव

‘‘आखिर इस में बुराई क्या है बाबूजी?’’ केदार ने विनीत भाव से बात को आगे बढ़ाया.

‘‘पूछते हो बुराई क्या है? अरे, तुम्हारा तो यह फैसला ही बेहूदा है. अस्पतालों के दरवाजे क्या बंद हो गए हैं जो तुम ने अनाथालय का रुख कर लिया? और मैं तो कहता हूं कि यदि इलाज करने से डाक्टर हार जाएं तब भी अनाथालय से बच्चा गोद लेना किसी भी नजरिए से जायज नहीं है. न जाने किसकिस के पापों के नतीजे पलते हैं वहां पर जिन की न जाति का पता न कुल का…’’

‘‘बाबूजी, यह आप कह रहे हैं. आप ने तो हमेशा मुझे दया का पाठ पढ़ाया, परोपकार की सीख दी और फिर बच्चे किसी के पाप में भागीदार भी तो नहीं होते…इस संसार में जन्म लेना किसी जीव के हाथों में है? आप ही तो कहते हैं कि जीवनमरण सब विधि के हाथों होता है, यह इनसान के वश की बात नहीं तो फिर वह मासूम किस दशा में पापी हुए? इस संसार में आना तो उन का दोष नहीं?’’

‘‘अब नीति की बातें तुम मुझे सिखाओगे?’’ सोमेश्वर ने माथे पर बल डाल कर प्रश्न किया, ‘‘माना वे बच्चे निष्पाप हैं पर उन के वंश और कुल के बारे में तुम क्या जानते हो? जवानी में जब बच्चे के खून का रंग सिर चढ़ कर बोलेगा तब क्या करोगे? रक्त में बसे गुणसूत्र क्या अपना असर नहीं दिखाएंगे? बच्चे का अनाथालय में पहुंचना ही उन के मांबाप की अनैतिक करतूतों का सुबूत है. ऐसी संतान से तुम किस भविष्य की कामना कर रहे हो?’’

‘‘बाबूजी, आप का भय व संदेह जायज है पर बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में केवल खून के गुण ही नहीं बल्कि पारिवारिक संस्कार ज्यादा महत्त्वपूर्ण होते हैं,’’ केदार बाबूजी को समझाने का भरसक प्रयास कर रहा था और बगल में खामोश बैठी केतकी निराशा के गर्त में डूबती जा रही थी.

केतकी को संतान होने के बारे में डाक्टरों को उम्मीद थी कि वह आधुनिक तकनीक से बच्चा प्राप्त कर सकती है और केदार काफी सोचविचार के बाद इस नतीजे पर पहुंचा था कि लाखों रुपए क्या केवल इसलिए खर्च किए जाएं कि हम अपने जने बच्चे के मांबाप कहला सकें. यह तो केवल आत्मसंतुष्टि तक सोचने वाली बात होगी. इस से बेहतर है कि किसी अनाथ बच्चे को अपना कर यह पैसा उस के भविष्य पर लगा दें. इस से मांबाप बनने का गौरव भी प्राप्त होगा व रुपए का सार्थक प्रयोग भी होगा.

‘केतकी, बस जरूरत केवल बच्चे को पूरे मन से अपनाने की है. फर्क वास्तव में खून का नहीं बल्कि अपनी नजरों का होता है,’ केदार ने जिस दिन यह कह कर केतकी को अपने मन के भावों से परिचित कराया था वह बेहद खुश हुई थी और खुशी के मारे उस की आंखों से आंसू बह निकले थे पर अगले ही क्षण मां और बाबूजी का खयाल आते ही वह चुप हो गई थी.

केदार का अनाथालय से बच्चा गोद लेने का फैसला उसे बारबार आशंकित कर रहा था क्योंकि मांबाबूजी की सहमति की उसे उम्मीद नहीं थी और उन्हें नाराज कर के वह कोई कार्य करना नहीं चाहती थी. केतकी ने केदार से कहा था, ‘बाबूजी से पहले सलाह कर लो उस के बाद ही हम इस कार्य को करेंगे.’

लेकिन केदार नहीं माना और कहने लगा, ‘अभी तो अनाथालय की कई औपचारिकताएं पूरी करनी होंगी, अभी से बात क्यों छेड़ी जाए. उचित समय आने पर मांबाबूजी को बता देंगे.’

केदार और केतकी ने आखिर अनाथालय जा कर बच्चे के लिए आवेदनपत्र भर दिया था.

लगभग 2 माह के बाद आज केदार ने शाम को आफिस से लौट कर केतकी को यह खुशखबरी दी कि अनाथालय से बच्चे के मिलने की पूर्ण सहमति प्राप्त हो चुकी है. अब कभी भी जा कर हम अपना बच्चा अपने साथ घर ला सकते हैं.

भावविभोर केतकी की आंखें मारे खुशी के बारबार डबडबाती और वह आंचल से उन्हें पोंछ लेती. उसे लगा कि लंबी प्रतीक्षा के बाद उस के ममत्व की धारा में एक नन्ही जान की नौका प्रवाहित हुई है जिसे तूफान के हर थपेडे़ से बचा कर पार लगाएगी. उस नन्ही जान को अपने स्नेह और वात्सल्य की छांव में सहेजेगी….संवारेगी.

केदार की धड़कनें भी तो यही कह रही हैं कि इस सुकोमल कोंपल को फूलनेफलने में वह तनिक भी कमी नहीं आने देगा. आने वाली सुखद घड़ी की कल्पना में खोए केतकी व केदार ने सुनहरे सपनों के अनेक तानेबाने बुन लिए थे.

आज बाबूजी के हाथ से एक तार खिंचते ही सपनों का वह तानाबाना कितना उलझ गया.

केतकी अनिश्चितता के भंवर में उलझी यही सोच रही थी कि मांजी को मुझ से कितना स्नेह है. क्या वह नहीं समझ सकतीं मेरे हृदय की पीड़ा? आज बाबूजी की बातों पर मां का इस तरह से चुप्पी साधे रहना केतकी के दिल को तीर की तरह बेध रहा था.

केदार लगातार बाबूजी से जिरह कर रहा था, ‘‘बाबूजी, क्या आप भूल गए, जब मैं बचपन में निमोनिया होने से बहुत बीमार पड़ा था और मेरी जान पर बन आई थी, डाक्टरों ने तुरंत खून चढ़ाने के लिए कहा था पर मेरा खून न आप के खून से मेल खा रहा था न मां से, ऐसे में मुझे बचाने के लिए आप को ब्लड बैंक से खून लेना पड़ा था. यह सब आप ने ही तो मुझे बताया था. यदि आप तब भी अपनी इस जातिवंश की जिद पर अड़ जाते तो मुझे खो देते न?

‘‘शायद मेरे प्रति आप के पुत्रवत प्रेम ने आप को तब तर्कवितर्क का मौका ही नहीं दिया होगा. तभी तो आप ने हर शर्त पर मुझे बचा लिया.’’

‘‘केदार, जिरह करना और बात है और हकीकत की कठोर धरा पर कदम जमा कर चलना और बात. ज्यादा दूर की बात नहीं, केवल 4 मकान पार की ही बात है जिसे तुम भी जानते हो. त्रिवेदी साहब का क्या हश्र हुआ? बेटा लिया था न गोद. पालापोसा, बड़ा किया और 20 साल बाद बेटे को अपने असली मांबाप पर प्यार उमड़ आया तो चला गया न. बेचारा, त्रिवेदी. वह तो कहीं का नहीं रहा.’’

केदार बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘बाबूजी, हम सब यही तो गलती करते हैं, गोद ही लेना है तो उन्हें क्यों न लिया जाए जिन के सिर पर मांबाप का साया नहीं है कुलवंश, जातबिरादरी के चक्कर में हम इतने संकुचित हो जाते हैं कि अपने सीमित दायरे में ही सबकुछ पा लेना चाहते हैं. संसार में ऐसे बहुत कम त्यागी हैं जो कुछ दे कर भूल जाएं. अकसर लोग कुछ देने पर कुछ प्रतिदान पा लेने की अपेक्षाएं भी मन में पाल लेते हैं फिर चाहे उपहार की बात हो या दान की और फिर बच्चा तो बहुत बड़ी बात होती है. कोई किसी को अपना जाया बच्चा देदे और भूल जाए, ऐसा संभव ही नहीं है.

‘‘माना अनाथालय में पल रहे बच्चों के कुल व जात का हमें पता नहीं पर सब से पहले तो हम इनसान हैं न बाबूजी. यह बात तो आप ही ने हमें बचपन में सिखाई थी कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है. अब आप जैसी सोच के लोग ही अपनी बात भुला बैठेंगे तब इस समाज का क्या होगा?

‘‘आज मैं अमेरिका की आकर्षक नौकरी और वहां की लकदक करती जिंदगी छोड़ कर यहां आप के पास रहना चाहता हूं और आप दोनों की सेवा करना चाहता हूं तो यह क्या केवल मेरे रक्त के गुण हैं? नहीं बाबूजी, यह तो आप की सीख और संस्कार हैं. मैं ने बचपन में आप को व मांजी को जो करते देखा है वही आत्मसात किया है. आप ने दादादादी की अंतिम क्षणों तक सेवा की है. आप के सेवाभाव स्वत: मेरे अंदर रचबस गए, इस में रक्त की कोई भूमिका नहीं है और ऐसे उदाहरणों की क्या कमी है जहां अटूट रक्त संबंधों में पनपी कड़वाहट आखिर में इतनी विषाक्त हो गई कि भाई भाई की जान के दुश्मन बन गए.’’

‘‘देखो, मुझे तुम्हारे तर्कों में कोई दिलचस्पी नहीं है,’’ सोमेश्वर बोले, ‘‘मैं ने एक बार जो कह दिया सो कह दिया, बेवजह बहस से क्या लाभ? और हां, एक बात और कान खोल कर सुन लो, यदि तुम्हें अपनी अमेरिका की नौकरी पर लात मारने का अफसोस है तो आज भी तुम जा सकते हो. मैं ने तुम्हें न तब रोका था न अब रोक रहा हूं, समझे? पर अपने इस त्याग के एहसान को भुनाने की फिराक में हो तो तुम बहुत बड़ी भूल कर रहे हो.’’

इतना कह कर सोमेश्वर अपनी धोती संभालते हुए तेज कदमों से अपने कमरे में चले गए. मांजी भी चुपचाप आदर्श भारतीय पत्नी की तरह मुंह पर ताला लगाए बाबूजी के पीछेपीछे कमरे में चली गईं.

थकेहारे केदार व केतकी अपने कमरे में बिस्तर पर निढाल पड़ गए.

‘‘अब क्या होगा?’’ केतकी ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘होगा क्या, जो तय है वही होगा. सुबह हमें अपने बच्चे को लेने जाना है, और मैं नहीं चाहता कि इस तरह दुखी और उदास मन से हम उसे लेने जाएं,’’ अपने निश्चय पर अटल केदार ने कहा.

‘‘पर मांबाबूजी की इच्छा के खिलाफ हम बच्चे को घर लाएंगे तो क्या उन की उपेक्षा बच्चे को प्रभावित नहीं करेगी? कल को जब वह बड़ा व समझदार होगा तब क्या घर का माहौल सामान्य रह पाएगा?’’

अपने मन में उठ रही इन आशंकाओं को केतकी ने केदार के सामने रखा तो वह बोला, ‘‘सुनो, हमें जो कल करना है फिलहाल तुम केवल उस के बारे में ही सोचो.’’

सुबह केतकी की आंख जल्दी खुल गई और चाय बनाने के बाद ट्रे में रख कर मांबाबूजी को देने के लिए बाहर लौन में गई, मगर दोनों ही वहां रोज की तरह बैठे नहीं मिले. खाली कुरसियां देख केतकी ने सोचा शायद कल रात की बहसबाजी के बाद मां और बाबूजी आज सैर पर न गए हों लेकिन उन का कमरा भी खाली था. हो सकता है आज लंबी सैर पर निकल गए हों तभी देर हो गई. मन में यह सोचते हुए केतकी नहाने चली गई.

घंटे भर में दोनों तैयार हो गए पर अब तक मांबाबूजी का पता नहीं था. केदार और केतकी दोनों चिंतित थे कि आखिर वे बिना बताए गए तो कहां गए?

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सहसा केतकी को मांजी की बात याद आई. पिछले ही महीने महल्ले में एक बच्चे के जन्मदिन के समय अपनी हमउम्र महिलाओं के बीच मांजी ने हंसी में ही सही पर कहा जरूर था कि जिस दिन हमारा इस सांसारिक जीवन से जी उचट जाएगा तो उसी दिन हम दोनों ही किसी छोटे शहर में चले जाएंगे और वहीं बुढ़ापा काट देंगे.

सशंकित केतकी ने केदार को यह बात बताई तो वह बोला, ‘‘नहीं, नहीं, केतकी, बाबूजी को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वे मुझ पर क्रोधित हो सकते हैं पर इतने गैरजिम्मेदार कभी नहीं हो सकते कि बिना बताए कहीं चले जाएं. हो सकता है सैर पर कोई परिचित मिल गया हो तो बैठ गए होंगे कहीं. थोड़ी देर में आ जाएंगे. चलो, हम चलते हैं.’’

दोनों कार में बैठ कर नन्हे मेहमान को लेने चल दिए. रास्ते भर केतकी का मन बच्चा और मांबाबूजी के बीच में उलझा रहा. लेकिन केदार के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था. उमंग और उत्साह से भरपूर केदार के होंठों पर सीटी की गुनगुनाहट ही बता रही थी कि उसे अपने निर्णय पर जरा भी दुविधा नहीं है.

केतकी का उतरा हुआ चेहरा देख कर वह बोला, ‘‘यार, क्या मुंह लटकाए बैठी हो? चलो, मुसकराओ, तुम हंसोगी तभी तो तुम्हें देख कर हमारा नन्हा मेहमान भी हंसना सीखेगा.’’

नन्ही जान को आंचल में छिपाए केतकी व केदार दोनों ही कार से उतरे. घर का मुख्य दरवाजा बंद था पर बाहर ताला न देख वे समझ गए कि मां और बाबूजी घर के अंदर हैं. केदार ने ही दरवाजे की घंटी बजाई तो इसी के साथ केतकी की धड़कनें भी तेज हो गई थीं. नन्ही जान को सीने से चिपटाए वह केदार को ढाल बना कर उस के पीछे हो गई.

दरवाजा खुला तो सामने मांजी और बाबूजी खडे़ थे. पूरा घर रंगबिरंगी पताकों, गुब्बारों तथा फूलों से सजा हुआ था. यह सबकुछ देख कर केदार और केतकी दोनों विस्मित रह गए.

‘‘आओ बहू, अंदर आओ, रुक क्यों गईं?’’ कहते हुए मांजी ने बडे़ प्रेम से नन्हे मेहमान को तिलक लगाया. बाबूजी ने आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में लिया.

‘‘अब तो दादादादी का बुढ़ापा इस नन्हे सांवलेसलौने बालकृष्ण की बाल लीलाओं को देखदेख कर सुकून से कटेगा, क्यों सौदामिनी?’’ कहते हुए बाबूजी ने बच्चे के माथे पर वात्सल्य चिह्न अंकित कर दिया.

बाबूजी के मुख से ‘बालकृष्ण’ शब्द सुनते ही केदार और केतकी ने एक दूसरे को प्रश्न भरी नजरों से देखा और अगले ही पल केतकी ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘लेकिन बाबूजी, यह बेटा नहीं बेटी है.’’

‘‘तो क्या हुआ? कृष्ण न सही कृष्णिमा ही सही. बच्चे तो प्रसाद की तरह हैं फिर प्रसाद चाहे लड्डू के रूप में मिले चाहे पेडे़ के, होगा तो मीठा ही न,’’ और इसी के साथ एक जोरदार ठहाका सोमेश्वर ने लगाया.

केदार अब भी आश्चर्यचकित सा बाबूजी के इस बदलाव के बारे में सोच रहा था कि तभी वह बोले, ‘‘क्यों बेटा, क्या सोच रहे हो? यही न कि कल राह का रोड़ा बने बाबूजी आज अचानक गाड़ी का पेट्रोल कैसे बन गए?’’

‘‘हां बाबूजी, सोच तो मैं यही रहा हूं,’’ केदार ने हंसते हुए कहा.

‘‘बेटा, सच कहूं तो आज मैं ने बहुत बड़ी जीत हासिल की है. मुझे तुझ पर गर्व है. यदि आज तुम अपने निश्चय से हिल जाते तो मैं टूट जाता. मैं तुम्हारे फैसले की दृढ़ता को परखना चाहता था और ठोकपीट कर उस की अटलता को निश्चित करना चाहता था क्योंकि ऐसे फैसले लेने वालों को सामाजिक जीवन में कई अग्नि परीक्षाएं देनी पड़ती हैं.’’

‘‘समाज में तो हर प्रकार के लोग होते हैं न. यदि 4 लोग तुम्हारे कार्य को सराहेंगे तो 8 टांग खींचने वाले भी मिलेंगे. तुम्हारे फैसले की तनिक भी कमजोरी भविष्य में तुम्हें पछतावे के दलदल में पटक सकती थी और तुम्हारे कदमों का डगमगाना केवल तुम्हारे लिए ही नहीं बल्कि आने वाली नन्ही जान के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता था. बस, केवल इसीलिए मैं तुम्हें जांच रहा था.’’

‘‘देखा केतकी, मैं ने कहा था न तुम से कि बाबूजी ऐसे तो नहीं हैं. मेरा विश्वास गलत नहीं था,’’ केदार ने कहा.

‘‘बेटा, तुम लोगों की खुशी में ही तो हमारी खुशी है. वह तो मैं तुम्हारे बाबूजी के कहने पर चुप्पी साधे बैठी रही, इन्हें परीक्षा जो लेनी थी तुम्हारी. मैं समझ सकती हूं कि कल रात तुम लोगों ने किस तरह काटी होगी,’’ इतना कह कर सौदामिनी ने पास बैठी केतकी को अपनी बांहों में भर लिया.

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‘‘वह तो ठीक है मांजी, पर यह तो बताइए कि सुबह आप लोग कहां चले गए थे. मैं तो डर रही थी कि कहीं आप हरिद्वार….’’

‘‘अरे, पगली, हम दोनों तो कृष्णिमा के स्वागत की तैयारी करने गए थे,’’ केतकी की बातों को बीच में काटते हुए सौदामिनी बोली, ‘‘और अब तो हमारे चारों धाम यहीं हैं कृष्णिमा के आसपास.’’

सचमुच कृष्णिमा की किलकारियों में चारों धाम सिमट आए थे, जिस की धुन में पूरा परिवार मगन हो गया था.

हमारे मुन्ना भाई एमबीबीएस

झूठ नहीं हकीकत में हमारे भी एक मुन्ना भाई हैं और वह भी एमबीबीएस हैं, यानी महा बोर, बदतमीज, सडि़यल. यह नाम तो लाड़- प्यार में मांबाप ने दिया होगा, उपाधि उन की हरकतों से चिढ़ कर रिश्तेदारों ने दी है. इसे मुन्ना भाई की मिलनसारी कहें या आवारापन, बंजारापन, वह दूरदराज के रिश्ते की भी हर शादी के दूल्हा और हर जनाजे का मुर्दा कहलाते हैं.

कहने का मतलब यह है कि वह हरेक शादी और गमी में शिरकत करते हैं और उस अवसर की खास हस्ती यानी जिस की बरात या अर्थी निकलनी हो उस से ज्यादा अहमियत लेना चाहते हैं, चाहे बरात निकलने या जनाजा उठने में भले ही देर हो जाए मुन्ना भाई को उन का गिलास (समयानुसार चाय या सुरा से भरा) मिलना ही चाहिए और मिलता भी है उन के महा बड़बोला होने की वजह से.

खुशी के मौके पर मुन्ना भाई को नाराज कर के कौन उलटीसीधी बातें सुनना या माहौल खराब करना चाहेगा, सो बेहतर यही है कि मुन्ना भाई को कहीं और उलझा दिया जाए या दूसरे शब्दों में कहें तो कहीं का चौधरी बना दिया जाए. ऐसे मौके पर खाने की व्यवस्था तो बडे़ पैमाने पर होती ही है और उस की जिम्मेवारी उठाने के लिए अपने मुन्ना भाई से बेहतर और कौन होगा?

लोगों की इस तरह की सोच के चलते ही मुन्ना भाई ने अब तक इतनी शादियों में शिरकत की है कि उन का नाम गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में आना चाहिए. सच मानिए, उन के जितना तजुरबा तो शहर के नामचीन केटरर को भी नहीं हो सकता.

बस, मुन्ना भाई की ड्यूटी लग जाती है हलवाई की भट्ठी और भंडारे के बीच, कचौरियों और लड्डुओं का हिसाब रखने को. उन सब के साथसाथ मुन्ना भाई घर के बिगडै़ल बच्चों और चटोरी औरतों की हरकतों का अवलोकन भी करते रहते हैं कि किस का बच्चा कैसे आंख बचा कर कितने लड्डू मार गया, कौन बराबर ताक लगाए बैठा रहा और कौन सी भाभी किस बहाने से कितनी खस्ता कचौरी ले गईं, कौन सी मौसी  ने फरमाइशें करकर के उन का और पकाने वाले का कलेजा पका दिया, किस चाची ने मटर निकाले कम और फांके ज्यादा, कौन से मामा उन्हें कंपनी देने के बहाने वहां औरतें देखने बैठे हुए थे.

छोटे बच्चे तो मक्खियों की तरह हलवाई की भट्ठी के इर्दगिर्द मंडराएंगे ही और उन्हें ढूंढ़ती उन की मांएं भी वहां आएंगी ही. उन्हें देख कर मामाजी की बुढ़ाती हड्डियों में भी सनसनाहट हो जाती है.

भंडारे की डय्टी खत्म होते ही मुन्ना भाई को अपनी खुराक की चिंता सताने लगती है. वह बड़बोलेपन के अंदाज में बोलते हैं, ‘‘भाई साहब, दिन भर तो भट्ठी पर तपाया है…अब कुछ थकान उतारने के लिए गला तो तर कराओ.’’

अगर आदर्शवादी भाई साहब ने कह दिया कि यह सब उन के यहां नहीं चलता तो हो गई बेचारों की छुट्टी.

‘‘औकात नहीं है खातिर करने की तो बुलाते क्यों हो? बहुत गमी और खुशी के मौके देखे हैं लेकिन ऐसा तो पहली बार देखा कि हलवाई को चुल्लू भर घी दे कर टोकरा भर मिठाई बनाने को कहा जाए और मेहमानों को सिर्फ पानी से प्यास बुझाने को,’’ और इसी के साथ मुन्ना भाई का परनिंदा पुराण खुल जाता है कि कबकब किसकिस ने उन के साथ क्याक्या किया जबकि उन्होंने तो हमेशा सब का भला ही किया है.

मुन्ना भाई के मुंह से उन के उपकार की बातें सुन कर लगता है कि भारत सरकार न सही, अपनी बिरादरी की किसी संस्था को तो उन को ‘परमार्थी जीव’ की उपाधि देनी ही चाहिए. यदि यह भी न हो तो कम से कम सगेसंबंधियों को तो उन्हें सम्मानित करना ही चाहिए. लेकिन सम्मानित करना तो दूर मुन्ना भाई के शब्दों में, ‘अब सब उन से कन्नी काटने लगे हैं जबकि सब के लिए उन्होंने हमेशा बहुत कुछ किया है.’

कन्नी काटने की वजह जानने से पहले ‘बहुत कुछ’ की व्याख्या कर ली जाए.

बहुत कुछ में ज्यादातर तो वही शादी या गमी में कचौरियों व लड्डुओं का हिसाब है या फिर उस की लड़की की शादी उस के लड़के से करवा दी, किसी खुशहाल रिश्तेदार से बदहाल रिश्तेदार की मदद करवा दी, रुतबे वाले रिश्तेदार से कह कर किसी के बेटे, दामाद की बदली या तरक्की करवा दी, किसी के बिगडै़ल बच्चे को सुधारने के बहाने अपने पास रख कर घर के छोटेमोटे काम फोकट में करवा लिए, बस. इस से ज्यादा और कुछ नहीं.

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अब यह सब ऐसी मेहरबानियां तो हैं नहीं कि हर कोई उन्हें सदाबहार गजल की तरह गुनगुनाता रहे या गुरुमंत्र की तरह जपता रहे. इस से अपने मुन्ना भाई के अहं को ठेस पहुंचती है और वह गाहेबगाहे किसी बच्चे को बता देते हैं, ‘तेरी मम्मी की शादी तो तेरी दादी की खुशामद कर के मैं ने ही करवाई थी,’ या ‘तेरी दादी तो तेरी मां को तेरे बाप के पास भेजने को भी तैयार नहीं थीं, मैं बीच में न पड़ता तो तू तो पैदा ही न हुआ होता.’ बात भले ही सही हो लेकिन बच्चे की मां को चुभ जाती है और वह बेचारे मुन्ना भाई का पत्ता काटने लगती है.

मुन्ना भाई मिजाज के भी मुन्ना ही हैं. जराजरा सी बात पर चिढ़ जाते हैं. जैसे किसी गमी के मौके पर अफसोस करने आए किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति से उन का परिचय न करवाया जाए, कमरे में औरतों को सुला कर उन्हें बरामदे में सोने को कहा जाए, खाने में उन की पसंद की दालसब्जी न हो, निमंत्रणपत्र पर पहले पत्नी और फिर उन का नाम लिखा जाए, किसी को यह बताने पर कि वह उन के पड़ोस के शहर से आ रहे हैं, यह सुनने को न मिले कि फिर तो हमारे पास भी आइए.

अपनी जवानी और नौकरी के जमाने में मुन्ना भाई ने खूब जलवे दिखाए. यानी हर शादी और गमी में अपनी मौजूदगी का जीभर कर एहसास करवाया लेकिन चढ़ता सूरज भी ढलता ही है न, अपने मुन्ना भाई भी रिटायर हो गए. सोचा तो था कि अब निश्ंिचत हो कर रिश्तेनाते निबाहेंगे, छुट्टी का झंझट तो रहा नहीं, आराम से भांजेभतीजों के घर रहा करेंगे, लेकिन भांजेभतीजे भी कम उस्ताद नहीं हैं, वे तो एकदूसरे से गाहेबगाहे ही संपर्क रखते हैं.

मुन्ना भाई आने की सोच रहे हैं यह भनक लगते ही एकदूसरे को आगाह कर देते हैं और फिर सब के सब एक ही राग अलापने लगते हैं, ‘आजकल यहां बिजलीपानी की बहुत किल्लत है. आधी बालटी पानी भी नहाने को मिल जाए तो बहुत है, फ्लश कैसे चलता है ये तो भूल ही गए हैं. इस उम्र में बालटी उठा कर डालनी पडे़गी, यह सोच कर ही मां को तो कब्ज हो जाता है.

‘टीवी तो शोपीस बन कर रह गया है, बिजली होने पर भी देखने का मजा नहीं आता क्योंकि धारावाहिक में पहले क्या हुआ था, न देख पाने से लिंक टूट जाता है. सुन तो रहे हैं कि बरसात के बाद हालात सुधरेंगे फिर आप को खबर करेंगे, आप अवश्य आइएगा.’

बहाना और उस के साथ का आश्वासन भारत के हर प्रांत पर सटीक बैठता है, बगैर शिकायत के लिए कोई गुंजाइश छोड़े. बरसात तो हर साल ही आती है और जाती है लेकिन हालात न बदलते हैं न बदलेंगे और न मुन्ना भाई को बुलावा आएगा.

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वह कहते हैं कि शेर कितना भी बूढ़ा हो जाए घास तो खाने से रहा, खाएगा तो गोश्त ही. यानी मुन्ना भाई भी अपना टाइम अखबार पढ़ कर या टीवी देख कर तो पास करने से रहे, गपशप किए बगैर उन का खाना हजम नहीं होता. उन्होंने इस की तरकीब भी ढूंढ़ ली और अपने पोते को स्कूल लाने ले जाने, उस का होमवर्क करवाने का काम भी संभाल लिया.

बहू ने राहत की सांस ली. बच्चे को स्कूल छोड़ना, लाना और फिर होमवर्क करवाना अच्छाखासा जी का जंजाल था, उस से भी उसे छुट््टी मिली और मुन्ना भाई के हरदम सिर पर सवार रहने से भी. मुन्ना भाई अकेले तो हैं नहीं जो बच्चे को स्कूल छोड़ने जाते हों, उन के जैसे कई दादीदादा और बच्चों की मांएं भी आती हैं. छोड़ने के समय तो खैर सभी जल्दी में होते हैं लेकिन लेने तो समय से कुछ पहले ही आना पड़ता है.

सयाने मुन्ना भाई ने इसी समय का सदुपयोग किया, पहले मुसकरा कर परिचय का आदानप्रदान किया और उस के बाद तो मीठीमीठी बातें कर के, सब के दिलों में घर कर के या यह कहें रूमाल से धोती बना लेने वाले जादूगर की तरह मुन्ना भाई धीरेधीरे सब की दुखतकलीफें और घर की अंदरूनी बातें भी जान गए पर केवल मुन्ना भाई, बच्चों को लेने आने वाले सब लोग नहीं. अगर सभी की आपस में दोस्ती हो जाती तो हमारे मुन्ना भाई की अहमियत क्या रह जाती?

शीघ्र ही मुन्ना भाई का पुराना परमार्थ का नेटवर्क चालू हो गया. पहले ससुराल के भतीजेभतीजियों का अपने भांजेभांजियों से रिश्ता करवाते थे, रिश्तेदारों से सुलहसफाई करवाते थे, अब यह सब नए बनाए दोस्तों में करवाने लगे हैं. विवाह योग्य बच्चेबच्चियां किस के घर में नहीं होतीं, मुन्ना भाई ने सदा उन का सदुपयोग किया था, अब भी कर रहे हैं. फिलहाल तो वह बच्चों के होमवर्क संबंधी परेशानियों को दूर करने वाले विशेषज्ञ माने जा रहे हैं मगर शीघ्र ही यहां भी हर मातम में मुखिया और हर खुशी के हीरो तो बनेंगे ही लेकिन अगर लगे हाथों उन्हें महल्ले के ‘माननीय बड़े बुजुर्ग सदस्य’ की उपाधि भी मिल जाए तो वह वाकई में मुन्ना भाई एमबीबीएस हो कर बस, वहीं के हो जाएं और रिश्तेदारों को बिजलीपानी की किल्लत का सहारा न लेना पड़े. लगे रहो मुन्ना भाई.

एक बहानेबाज संस्कृति

बच्चों की छुट्टी हो और अपनी नहीं, तो मुसीबत रहती है. जरा निश्ंिचतता का अनुभव कर के देर से उठी थी, पर यह देख कर मूड बिगड़ गया कि फूलमती ने फिर गोल मारा था. सब काम हड़बड़ी में हुआ. सुबहसुबह रसोईघर से उस के द्वारा बरतनों की उठापटक की मधुर ध्वनि से जरा चैन पड़ता था और उसी ध्वनि के इंतजार में आज देर तक रजाई में पड़ी रही. अब जैसेतैसे तैयार हो कर निकलने को ही थी कि छोटे साहब, जो अब तक बड़े के साथ दूसरे कमरे में हंगामा करने में व्यस्त थे, हाजिर हुए.

‘‘मां, आज तो मेरी परियोजना जरूर तैयार करनी है.’’

‘‘क्यों जी, देखते नहीं, कितनी व्यस्त हूं. ऊपर से फूलमती भी नहीं आई है. कल रविवार है न, कल देखूंगी. अरे, नहींनहीं, कल तो हमारे यहां ही किट्टी पार्टी है. ऐसा करो, परसों शाम को याद दिलाना.’’

‘‘ओफ्फोह, मां, आप ने परसों भी यही कहा था कि दूसरे शनिवार को याद दिलाना. अब सोमवार को अध्यापिका डांटेंगी,’’ अमित का पारा चढ़ता जा रहा था. वैसे वह भी ठीक था अपनी जगह. कब से तो पीछे पड़ा था. मुझे फुरसत नहीं मिल पा रही थी. मोहित को पढ़ाई से ही समय नहीं मिल पाता था. स्कूल वाले भी खूब हैं. जानते भी हैं कि 7-8 साल का बच्चा अकेले पर्वत का माडल नहीं बना सकता. डाल देते हैं मुसीबत मांबाप के सिर पर. स्कूल में ही क्यों नहीं बनवाते यह सब?

‘‘देखो अमित, तुम सोमवार को अध्यापिका से कह देना कि मां की तबीयत खराब थी और पिताजी दौरे पर गए हुए थे. बाजार से सामान कौन लाता? ठीक है? अब जाने दो मुझे.’’

मैं आंख बचाती पर्स संभालने लगी. अमित नाराजगी के अंतिम चरण पर था, ‘‘पिछली बार भी यही बहाना बनाया था कि मां बीमार है. यह भी कोई तरीका है भला.’’

‘‘अच्छा, अच्छा, बस, इस बार और सही…’’ पर्स में से 4 टाफियां निकाल कर उसे थमाती हुई मैं आगे बढ़ी ही थी कि पति महोदय अखबार के पीछे मुंह निकालते हुए बोले, ‘‘अरे, जा रही हो कालिज. भई, वह संजीव अपनी गाड़ी मांग रहा था एक दिन के लिए, भाई की शादी है, क्या कहूं?’’

‘‘मेरी मारुति? उसे दोगे. कतई नहीं. खुद तो महाकंजूस है वह. याद नहीं, पिछली बार मेरी 10 किताबें ले गया था और 10 बार याद दिलाने पर 2 फटी हुई जिल्दें वापस करता कैसा रिरिया रहा था, ‘बहनजी, मेरा साला दिल्ली ले गया था. गाड़ी में कहीं छूट गईं.’ अब भी उस का साला आ गया तो? हरगिज नहीं देनी कार हमें.’’

‘‘तो कह दूं कि…क्या कह दूं? साफ मना करते तो बनेगा नहीं. अफसर का भतीजा है, भई. भुगतना तो हमें पड़ता है न.’’

‘‘अरे, कुछ भी कह दो. कह देना कि सर्विर्सिंग के लिए गई है, ब्रेक ठीक नहीं थे या कुछ भी. ठीक है?’’

फिर एक कदम बढ़ाया कि फोन घनघना उठा. उठाया, ‘‘हैलो, कौन…ओह सरलाजी, कहिए कैसे याद किया? अरे, अपना शनिवार कहां भई. मास्टर लोग ठहरे हम तो. हां, फूलमती को तो मैं भी याद कर रही हूं, सुबह से ही. पहले लोग भगवान का नाम ले कर उठते थे, अब हम उस की बंदी को पुकारते उठते हैं. क्या? नहीं आएगी 3 दिन तक. अरे बाबा, मर जाऊंगी मैं तो. बीमार होगी शायद? क्या, आप को संदेशा भेजा है कि बीमार हूं. और खुद मकान बनाने के काम में लगी है परिवार सहित. अच्छा, धोबी ने बताया है. देखा, ये नीच लोग ऐसे ही बहानों से तो हमें लूटते हैं. ये सब दोहरी कमाई करने के बहाने हैं. इस बार उस के पैसे जरूर काटूंगी. सच बता देती तो क्या पता मैं खुद ही छुट्टी दे देती. गुस्सा भी न आता इतना. अच्छा चलूं, देर हो रही है.’’

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मन ही मन कुढ़ती हुई मैं बाहर निकल आई. सच, ईमानदारी व शराफत का तो नाम ही नहीं रहा जैसे आजकल.

10 नंबर बस स्टाप के पास कुछ भीड़ थी. नई लाडली कार थी और नौसिखिया मैं. सो, जरा धीमेधीमे चलाने लगी. एकदम लतिका पर नजर पड़ी. 1-2 और लड़कियां साथ थीं उस के. ‘ग्रांड साड़ी सेल’ के बैनर वाले एक तंबू में सपाटे से घुसी जा रही थीं सब. खीज उठी मैं. उसे तो कल समझाबुझा कर आज के सेमिनार का काम सौंपा था और यह तो यहां साडि़यां खरीदने में लगी है. देख लूंगी उसे भी.

मैं ने ही उसे दया कर के किसी तरह अपने विभाग में एक लंबी अवकाश रिक्ति पर लगवाया था. यह सोच कर कि गरीब घर की लड़की है. वरना यहां तो किसी रिक्ति की सूचना पर लंबी लाइन लग जाती है. अब मेहनत से अपनी जगह बनाने के बजाय सदा काम से कतराती है. मुंह पर तो कुछ नहीं कहती. कह भी कैसे सकती है? पर प्राय: कुछ भी काम या उत्तरदायित्व की बात से किसी न किसी तरह बच निकलती है.

कालिज पहुंचते ही जल्दी से मैं भूगोल विभाग में पहुंची तो सामने मेज पर लतिका का प्रार्थनापत्र पड़ा मुंह चिढ़ा रहा था, ‘‘…अकस्मात अस्वस्थ हो जाने से महाविद्यालय आने में असमर्थ हूं. कृपया एक दिन का आकस्मिक अवकाश दें.’’

गुस्से में मेरे मुंह से कुछ अपशब्द निकलतेनिकलते रह गए. अस्वस्थ है बहानेबाज. वहां सेल पर साडि़यां खरीदी जा रही हैं. कल ही साफसाफ मना कर देती तो आज यह फजीहत तो न होती मेरी. आज रुकना पड़ता, दौड़धूप होती…बस, भाग ली चुपचाप.

खैर, सेमिनार तो होना ही था. विश्वविद्यालय से 2 भूगोलशास्त्री पधारे थे. उन के आवास व भोजन का प्रबंध भी करना था, जो लतिका को सौंपा था. किसी तरह दूसरे विभाग से नए प्राध्यापकों को पकड़ा, सो उचित व्यवस्था हो गई. प्राचार्य ने भी उदार मुसकराहट का आदानप्रदान किया, पर मन खिन्न हो गया था.

कार निकालने लगी तो माखन सामने आ गया, ‘‘मेमसाहब, गाड़ी चमक रही है न?’’

‘‘हां भई, चमक तो खूब रही है. तुम्हारा काम लगता है, धन्यवाद.’’

‘‘मेमसाहब, घरवाली को बोल रखा है, बाई की गाड़ी रोज चमचमाती होनी चाहिए. बस, मेमसाहब, वो साहब को बोल देना, मैं ने दूसरा आवेदनपत्र रोजगार दफ्तर में भिजवा दिया है. वहां के बाबू को भी खुश कर रखा है. अब जैसे ही कारखाने से मांग जाएगी, वह मेरा नाम भेज देगा. अब आगे साहब को देखना है.’’

माखन ने इसी महाविद्यालय से 4-5 साल पहले बी.ए. किया था. जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो किसी तरह रसायन विभाग में चपरासी व सहायक के पद पर रखवा दिया था उसे. अब पीछे पड़ा था कि कारखाने में कोई जगह मिल जाए. इसे क्या पता कि साहब ही तो सर्वेसर्वा नहीं थे.

‘‘देखो माखन, मैं ने पहले भी कहा था कि वहां बड़ी लंबी लाइन लगी रहती है. सबकुछ कायदे से होता है. फिर अनुभव भी तो चाहिए.’’

‘‘अरे, मेमसाहब, मालूम है. मैं ने सब मामला तय कर रखा है. पिछड़ी जाति का प्रमाणपत्र बनवा लिया है अपने विधानसभा सदस्य से. पिछले चुनाव में हमीं ने तो जिताया था उन्हें. अब तो है न उम्मीद? सच्ची, बहुत घूम लिए, मेमसाहब.’’

मैं सकपका गई. असली ब्राह्मण परिवार का था वह. उस के चाचा अब भी तीजत्योहारों पर कालोनी में कथा बांचते थे.

‘‘भई, तुम पत्र तो आने दो दफ्तर से, फिर साहब से ही बात करना. मुझे इन बातों का ठीक से कुछ मालूम नहीं.’’

कार चलाई, तो दिमाग भी कहीं घूमने लगा. जा किधर रहे हैं सब लोग? कहां होगी सीमा? क्या सचमुच आज झूठ के बिना गुजारा नहीं है? बाबा कहा करते थे कि जब सब रास्ते बंद हो जाएं तो भगवान को पुकारना चाहिए. पर लगता है, आज की वास्तविकता यह है कि जब कोई उपाय न दिखाई दे तो झूठ, बहानों व हेराफेरी का सहारा लेना चाहिए. शायद जनता जान गई है कि पुकारने से भगवान किस्सेकहानियों में ही प्रकट होते थे. आज उन के नाम से काम नहीं निकलता है.

हां, झूठ व बेईमानी से अकसर काम चल जाता है. उदाहरण सामने रहते ही हैं, कहीं ‘झूठे का मुंह काला’ नहीं दिखता और ‘सच्चे का बोलबाला’ भी सुनीसुनाई बात लगती है. फिर बाद की सोचने की फिक्र किसे है? अभी फिलहाल, इसी पल की मुसीबत किसी न किसी तरह टल जाए. कल किस ने देखा है? पकड़े भी गए तो कौन हरिश्चंद्र का जमाना है. कह देंगे, सब करते हैं, हमीं कौन अलग हैं. ‘सब चलता है’ का मुहावरा कितना चल पड़ा है आजकल.

विचारों में डूबी चली जा रही थी कि अचानक घर की याद आई. याद आया कि फूलमती नहीं आई और पतिदेव भी घर पर हैं. यानी खाना ढंग से बनाना पड़ेगा. सोचा, पनीर व अंडे वगैरह लेती चलूं. गाड़ी टी.टी. नगर की ओर मोड़ी. सुपर बाजार के सामने पार्क करने की जगह ढूंढ़ ही रही थी कि चौंक पड़ी. स्कूल यूनीफार्म पहने 5-6 लड़कों में यह अपना मोहित ही तो है न. हां, हां, वही था. उस के हाथ घुमा कर बोलने के अंदाज से पहले ही पहचान लिया था, अब तो और स्पष्ट दिखने लगा था.

अरे, ये सब तो रंगमहल से निकल रहे हैं. 3 बज चुके थे, शो खत्म हुआ होगा. कई दिन से जिद कर रहा था फिल्म देखने की. अभी परसों ही तो अपने पिता से करारी डांट खाई थी कि ये फिल्मों का चस्का छोड़ो, बोर्ड का इम्तिहान है, मेहनत करो. और यह जनाब स्कूल से खिसक, यहां शोभा बढ़ा रहे हैं. हम से कह रहा था कि 11 बजे से अतिरिक्त कक्षाएं हैं, गणित और विज्ञान की. मेरे देखतेदेखते सब लड़के हंसते खिलखिलाते टैंपो में सवार हो कर ओझल हो गए.

पहले से उदास मन और व्यथित हो उठा. बिना कार रोके मैं सीधे घर पहुंची. अमित बाहर अपने टामी के साथ गेंद उछालने में लगा था.

‘‘अमित, तुम्हारे पिताजी कहां हैं, बेटे?’’

‘‘मां, हरीश चाचा आए हैं, उन के साथ सोने के कमरे में टेलीविजन पर मैच देख रहे हैं. क्या आप को पता है कि आस्ट्रेलिया ने 100 रन बना लिए हैं और उन का एक भी विकेट नहीं गिरा. गए हम लोग तो. मैं होता तो मालूम है, क्या करता, एक…’’

‘‘अच्छा, अच्छा, जरा चुप कर अब. मेरा सिर दर्द कर रहा है,’’ मैं खीज कर बोली.

‘‘मां, एक मजेदार बात तो सुनती जाओ. खूब हंसोगी. हरीश चाचा कह रहे थे कि चाची उन्हें घर पर टेलीविजन नहीं देखने दे रही थीं, भंडार की सफाई को कह रही थीं, इसलिए चाचा बहाना बना कर आए हैं कि पिताजी की तबीयत खराब है, देखने जाना है. अब दोनों ब्रिज खेल रहे हैं व टेलीविजन भी देख रहे हैं. चाचा ने चाची को क्या बुद्धू बनाया. मजा आ गया.’’

‘‘सुनो, अमित, अपनी परियोजना का सारा सामान अपने कमरे में रखो चल कर मेज पर. मैं अभी कौफी पी कर जुटती हूं तुम्हारे साथ. और सुनो, ठहरो, पहले जरा पिताजी को बुला लाओ इधर.’’

अमित खुशीखुशी उछलता हुआ अंदर भागा. मैं साड़ी बदल मुंहहाथ धोने लगी.

‘‘क्यों भई, बड़ी देर कर दी आज. बहुत भूख लगी है. सब परांठे वगैरह खत्म कर दिए हैं, कुछ करो जल्दी से,’’ पत्ते हाथ में पकड़े साहब ने फरमान जारी किया.

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‘‘सुनिए तो, संजीवजी से साफसाफ कह दो कि आशा कार नहीं दे सकती. ज्यादा जरूरत है तो किराए पर लेने का प्रबंध कर देते हैं. और हां, अपने इन मित्र महोदय से भी कह दो कि घर पर फोन कर के बता दें कि आप की तबीयत बिलकुल ठीक है व आप दोनों बैठे ताश खेल रहे हैं.

‘‘सुनो जी, हां, आज से यह बहानेबाजी व गोलमाल बंद. कम से कम इस घर में. और मोहित आए तो कह दीजिए कि बाहर जाना हो या फिल्म देखनी हो, तो हमें बता कर जाए, आगे मैं देखूंगी. आप कृपया इतना ही सहयोग दें तो बहुत है.’’

अचकचाए से ये कुछ कहने को हुए, पर मेरी मुखमुद्रा देख चुपचाप अंदर चले गए. मैं सोचने लगी कि खाना बनाऊं या अमित का हिमालय पर्वत. दोनों कार्य कुछ विशेष कठिन तो नहीं हैं.

लाइसेंस

रोहित तुरंत मिस्टर सूद के केबिन में पहुंच गया. सूद साहब कुछ परेशान लग रहे थे. रोहित भांप गया कि कोई गंभीर बात है.

‘‘बैठो,’’ कुरसी की तरफ इशारा करते हुए सूद साहब ने रोहित से कहा.

‘‘मिस्टर रोहित, मेरी पोजीशन बहुत खराब हो रही है,’’ सूद साहब ने धीमी और कांपती आवाज में कहना शुरू किया, ‘‘पहली तारीख को बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स की मीटिंग है. फैक्टरी तैयार हो चुकी है, ट्रायल उत्पादन कल से शुरू होना है, लेकिन फैक्टरी शुरू करने का लाइसेंस अभी तक नहीं मिला है. अभीअभी दत्ता से खबर मिली है कि विस्फोटक विभाग में हमारी फाइल अटक गई है और वहां से कारण बताओ नोटिस जारी होने वाला है.’’

एक पल रुक कर सूद साहब ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘रोहित, यदि लाइसेंस मिलने में देर हो गई तो हम किसी को अपना मुंह नहीं दिखा सकते हैं. बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स द्वारा मीटिंग के फौरन बाद प्रेस कान्फ्रेंस में फैक्टरी में उत्पादन शुरू होने की घोषणा की जानी है और बिना लाइसेंस के उत्पादन शुरू नहीं कर सकते. जबकि उत्पादन हमें हर हालत में शुरू करना है, क्योंकि अगले महीने हमारा प्रतिद्वंद्वी अपना उत्पादन शुरू कर के बाजार पर कब्जा करना चाहता है.

‘‘दत्ता ने खबर दी है कि उन्होंने हमारी कंपनी के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज की है ताकि कंपनी को वर्क लाइसेंस मिलने में देर हो जाए और बाजी वह मार ले. मैं ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं होने दूंगा. यदि हमारा उत्पादन शुरू नहीं हुआ तो कंपनी के शेयर डूब सकते हैं और हम कहीं के नहीं रहेंगे,’’ कह कर सूद साहब चुप हो गए.

‘‘यह सब अचानक कैसे हो गया, सर?’’ रोहित ने पूछा.

‘‘यह सबकुछ मुझे विपिन का कियाधरा लगता है. बहुत ही शातिर निकला. मुझ से एक सप्ताह की छुट्टी ले कर गया था कि लखनऊ शादी में जाना है और आज सुबह ईमेल से इस्तीफा भेज दिया. वह लखनऊ गया ही नहीं बल्कि उस ने दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली है और यहां की तमाम गोपनीय बातें दूसरी कंपनी को बता कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया.’’

‘‘मैं उसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘दूसरी कंपनी ने हमारी कंपनी के खिलाफ शिकायत की है, जिस के आधार पर लाइसेंस रोक लिया गया है. दत्ता को मैं ने नवयुग सिटी में रोक रखा है. तुम फौरन वहां चले जाओ. दत्ता अकेले काम संभाल नहीं पा रहा है. उस के साथ मिल कर तुम्हें किसी भी कीमत पर लाइसेंस लेना है. साम, दाम, दंड, भेद किसी भी नीति से मुझे फैक्टरी शुरू करने का लाइसेंस चाहिए. पैसा पानी की तरह बहता है तो बहा दो पर बिना लाइसेंस के आफिस में मत घुसना. मेरे कहने का मतलब तुम अच्छी तरह से समझ गए होगे…अब तुम जा सकते हो.’’

मिस्टर सूद की बात सुन कर रोहित परेशान हो गया. खासतौर पर आखिरी शब्द तीर की तरह उस के सीने के पार चले गए कि किसी भी कीमत पर लाइसेंस लेना है और बिना लाइसेंस के आफिस में मत घुसना.

सूद के आदेश के अनुसार उसे फौरन नवयुग सिटी के लिए रवाना होना था, इसीलिए वह फटाफट ब्रीफकेस उठा कर घर चला गया.

घर आ कर रोहित ने अपने कपडे़ सूटकेस में डालते हुए पत्नी श्वेता को चाय बनाने को कहा.

‘‘क्या बात है, आफिस से जल्दी आ कर सूटकेस तैयार कर रहे हो?’’ श्वेता ने चाय बनाते हुए पूछा.

‘‘आफिस के काम से आज और अभी नवयुग सिटी जाना है. काम इतना जरूरी है कि वहां 2-3 दिन भी लग सकते हैं,’’

‘‘रोहित, तुम जहां जा रहे हो उस के पास ही न्यू समरहिल है. एक दिन के लिए वहां चले चलो,’’ श्वेता बोली.

‘‘मुश्किल है,’’ रोहित बोला.

‘‘काम खत्म होने पर एक दिन की छुट्टी ले लेना. काम के साथ आराम और मौजमस्ती भी हो जाएगी,’’ कहतेकहते श्वेता चाय के साथ कमरे में आ गई.

‘‘श्वेता, यदि काम हो गया तो एक दिन क्या एक सप्ताह न्यू समरहिल के नाम,’’ रोहित ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा.

चाय पी कर रोहित ने सूटकेस उठाया और नवयुग सिटी के लिए रवाना हो गया.

रोहित पिछले 5 सालों से सूद की कंपनी में जरनल मैनेजर है और अपने 20 साल के कैरियर में उस ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. सफलता की जिन ऊंचाइयों को आज रोहित छू रहा है उस की एक वजह यह भी है कि उस ने कभी असफलता का स्वाद नहीं चखा था.

नवयुग सिटी, जहां विस्फोटक विभाग का मुख्यालय है, रात के 9 बजे रोहित ब्रिस्टल होटल में पहुंचा तो दत्ता ने उस का जोरदार स्वागत इन शब्दों से किया, ‘‘आइए, रोहित साहब, आप को देख कर तो इस मुरदे में भी जान आ गई है.’’

रोहित अपना सूटकेस एक तरफ रख कर बाथरूम में घुस गया.

नहाने के बाद अपने को तरोताजा महसूस करता रोहित कुरसी खींचते हुए दत्ता से बोला, ‘‘यहां नवयुग सिटी में अकेले खूब मौज मना रहे हो.’’

‘‘प्यारे रोहित,’’ दत्ता मायूस हो कर बोला, ‘‘मैं कितना मौज मना रहा हूं यह मेरे दिल से पूछो.’’

‘‘पूछ तो रहा हूं दत्ता साहब कि वह ऐसा कौन सा गम है जिसे आप शराब के हर घूंट के साथ पीए जा रहे हैं.’’

‘‘वही लाइसेंस का गम. क्योंकि लाइसेंस तो मिलना नहीं फिर तो नौकरी के हाथ से निकलने का गम,’’ दत्ता की आवाज में गंभीरता थी.

‘‘मजाक छोड़ कर सीरियस बात करो, दत्ता,’’ रोहित ने गंभीरता से कहा.

‘‘रोहित, आज दोपहर को मिस्टर सूद से मैं ने बात की थी कि लाइसेंस नहीं मिल रहा है. यह सुन कर उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि अगर लाइसेंस नहीं मिला तो आफिस मत आना. मैं ने सारे पापड़ बेल कर देख लिए, रोहित, कल फाइल पर साइन हो जाएंगे. सहायक कंट्रोलर मोहन तो आज ही हमारी कंपनी की फाइल पर साइन कर के आवेदनपत्र को निरस्त कर रहे थे, बहुत मिन्नतों के बाद एक दिन के लिए फाइल को पेंडिंग किया है. तभी तो मिस्टर सूद ने आप को यहां भेजा है,’’ दत्ता कहतेकहते रुक गया.

‘‘सूद साहब ने खुला आफर दिया है कि जितना पैसा खर्च हो, लाइसेंस हर हालत में चाहिए,’’ रोहित ने दत्ता से कहा, ‘‘मेरी पूरी अटैची नोटों से भरी हुई है.’’

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‘‘देखो रोहित, हमारी कंपनी की फाइल असिस्टेंट कंट्रोलर मोहन के पास है और वह रिश्वत नहीं लेता है.’’

‘‘दत्ता, मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि आज के समय में कोई रिश्वत नहीं लेता है,’’ रोहित ने आश्चर्य से कहा.

‘‘सच यही है कि आज के इस भ्रष्ट दौर में मोहन जैसा ईमानदार व्यक्ति भी है.’’

‘‘उस की कोई तो कमजोरी होगी, जिस का हम फायदा उठा सकते हैं,’’ रोहित ने समय की नजाकत को भांपते हुए पूछा.

‘‘शरीफ आदमी की कोई कमजोरी नहीं होती है. शराफत ही उस की कमजोरी समझो या ताकत, मुझे मालूम नहीं, लेकिन एक बात साफ है कि उस का भ्रष्ट न होना हमें भारी मुसीबत में डाल सकता है. मुझे पता है कि तुम ने जिंदगी में कभी असफलता का मुंह नहीं देखा है, लेकिन इस बार सावधान रहना.’’

‘‘दत्ता, मोहन तो असिस्टेंट कंट्रोलर है, हम चीफ कंट्रोलर से मिल सकते हैं.’’

‘‘रोहित, कोई फायदा नहीं होने वाला है. फाइल पर मोहन की लिखी टिप्पणी को चीफ कंट्रोलर भी नजरअंदाज नहीं कर सकता है.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘लगता है मिस्टर सूद ने तुम्हें पूरी बात बताई नहीं है, तभी तुम ज्यादा उत्साहित लग रहे हो,’’ दत्ता ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘रोहित, विस्फोटक नियमों के अनुसार हमें कंपनी में जितना खुला क्षेत्र रखना था उस का आधा भी नहीं रखा है, जिस की लिखित शिकायत हमारी प्रतिद्वंद्वी कंपनी ने की है, जिस के आधार पर अब हमारी फैक्टरी को ‘शो काज’ नोटिस दिया जाएगा और हम बिना लाइसेंस के प्रोडक्शन शुरू नहीं कर सकते. नियमों का पालन करने का मतलब है, फैक्टरी में तोड़फोड़ और पैसे व समय की बरबादी, जिसे सूद साहब बरदाश्त नहीं कर सकते हैं.’’

‘‘क्या हमें नियम मालूम नहीं थे?’’

‘‘मालूम थे, लेकिन एक तो सूद साहब का लालच और दूसरे कुछ लोगों की गलत राय. फैक्टरी पहले नियमों के अनुसार बन रही थी, खुला क्षेत्र भी नियमों के अनुसार ही छोड़ा जा रहा था लेकिन बाद में नक्शे में परिवर्तन कर के खुला क्षेत्र कम कर दिया गया.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘ज्यादा प्रोडक्शन के लिए और अधिक मशीनें लगाई गई हैं.’’

दत्ता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें शायद विपिन की कहानी का पता नहीं है. दरअसल, विपिन ने मिस्टर सूद को सलाह दी थी कि लाइसेंस लेने के बाद ओपन एरिया कवर करना चाहिए, लेकिन कुछ दूसरे लोगों के कहने पर और पैसे के घमंड में सूद साहब ने खुलेआम सभी के सामने विपिन को डांट लगाई और उस की खिल्ली उड़ाई. विपिन अपने इस अपमान को सहन नहीं कर सका और उस ने नौकरी छोड़ दी.

‘‘शायद अपने अपमान का बदला लेने के लिए ही विपिन ने प्रतिद्वंद्वी कंपनी ज्वाइन की है और उस की लिखित शिकायत पर विस्फोटक विभाग भी चुप नहीं बैठा. चूंकि वह जांच में भरपूर मदद कर रहा है, इसलिए हमें लाइसेंस नहीं मिल रहा है.’’

‘‘चलो, सुबह देखते हैं,’’ कह कर रोहित बिस्तर पर लेट गया, लेकिन काफी देर तक उस की आंखों में नींद नहीं आई. आंखें बंद कर सोचता रहा कि कैसे इस मसले को हल किया जाए.

सुबह 10 बजे रोहित और दत्ता विस्फोटक विभाग के मुख्यालय पहुंच गए और मोहन के केबिन के बाहर बैठ कर इंतजार करने लगे. मोहन जैसे ही दफ्तर आया, अपने केबिन के आगे रोहित को बैठा देख कर वह रुक गया.

‘‘रोहित, तुम और यहां…अरे, यह कैसा सुखद आश्चर्य है,’’ मोहन खुशी से हंसते हुए बोला.

‘‘मोहन, आज हम सालों बाद एकदूसरे से मिल रहे हैं तो साबित होता है कि दुनिया गोल है.’’

‘‘रोहित, चलो, केबिन मेें बैठ कर आराम से बात करते हैं.’’

मोहन और रोहित दोनों बचपन के दोस्त थे. स्कूल और कालिज में एकसाथ पढ़ते थे. दोनों के परिवार पुरानी दिल्ली के कूचा घासीराम में रहते थे. हमउम्र और एक ही गली में रहने के कारण दोनों का समय एकसाथ बीतता था. वे सिर्फ रात को सोने के लिए एकदूसरे से अलग होते थे. स्कूल और कालिज में एकसाथ पढ़ाई की. बी.काम. करने के बाद रोहित एमबीए करने अमेरिका चला गया और मोहन ने नौकरी कर ली.

इतने में चपरासी चाय ले आया. चाय की चुस्कियों में मोहन ने रोहित से पूछा, ‘‘आजकल रिहाइश कहां रखी है? लगभग 10 साल पहले मैं दिल्ली गया था. तुम ने मकान बेच दिया था. बहुत कोशिशों के बाद भी मुझे तुम्हारे नए मकान का पता नहीं चला. तब मैं ने देखा था कि आसपास सभी जगह आफिस बन गए थे और जिस बिल्ंिडग में मैं रहता था वहां बैंक खुल गया था.’’

‘‘हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए करने के बाद जब मैं दिल्ली वापस आया तब तुम मकान छोड़ कर जा चुके थे. 2-3 साल बाद मेरे घर वालों ने भी मकान बेच कर ग्रेटर कैलाश में कोठी बनवा ली. तभी से परिवार के साथ वहीं रह रहा हूं.’’

‘‘अच्छा, यह बताओ, इस आफिस में तुम्हारा कैसे आना  हुआ?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘मोहन, मैं सूद एंड कंपनी में जनरल मैनेजर हूं और यहां लाइसेंस के सिलसिले में आया हूं.’’

कुछ पल की खामोशी के बाद मोहन ने कहा, ‘‘बचपन के दोस्त हो और लगभग 20 सालों के बाद मिले भी तो किन हालात में, यह इत्तफाक भी अजीब सा है.’’

रोहित भी कुछ बोल न सका. बचपन के साथी से लाइसेंस की कोई बात न कर सका.

चुप्पी तोड़ते हुए मोहन ने कहा, ‘‘रोहित, तुम्हारे आने का मकसद मैं समझ सकता हूं लेकिन मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता हूं. तुम्हारी कंपनी के खिलाफ शिकायत की मैं ने जांच करवाई है, मेरे कुछ सिद्धांत हैं. मैं रिश्वत नहीं लेता हूं और निरीक्षण के दौरान जो अनियमितताएं पाई गई हैं उन के आधार पर लाइसेंस के लिए मैं अनुमति नहीं दे सकता हूं.’’

‘‘मोहन, इस बारे में अब मैं क्या बोलूं. फिर भी तुम से दिल की बात कह सकता हूं, क्योंकि तुम बचपन के दोस्त हो. जीवन में कभी मैं ने असफलता का सामना नहीं किया. अगर लाइसेंस नहीं मिला तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी और पहली बार असफलता का कारण दोस्ती बनेगी. मुझे अपनी इस असफलता पर तुम से कोई शिकायत भी नहीं होगी, लेकिन मोहन, कुछ रास्ता निकालो. हर समस्या का कोई न कोई समाधान तो होता है न. इस भ्रष्ट समाज में तुम जैसे ईमानदार आदमी को देख कर मुझे खुशी है. और सब से अधिक खुशी इस बात की है कि वह ईमानदार आदमी मेरा बचपन का सखा है.’’

रोहित की बात सुन कर मोहन ने कहा, ‘‘रोहित, मैं जानता हूं कि यहां मुझे छोड़ कर हर कोई भ्रष्ट है, मैं समाज से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं कर सकता. हां, तरीके तो बहुत हैं, मुझे सोचने के लिए वक्त दो. कल सुबह बात करते हैं.’’

‘‘तुम बुरा तो नहीं मानोगे,’’ झिझकते हुए रोहित ने मोहन से पूछा, ‘‘क्या शाम को मैं तुम्हारे घर आ सकता हूं?’’

‘‘तुम्हारा ही घर है, बेझिझक आ सकते हो,’’ कहते हुए मोहन ने एक कागज पर अपने घर का पता लिख कर रोहित को पकड़ा दिया.

रोहित और दत्ता होटल आ गए.

शाम को रोहित और दत्ता मोहन के घर रूप नगर के लिए चले. रास्ते में एक मिठाई की दुकान पर रुक कर रोहित ने मिठाई खरीदी.

‘‘कुछ गिफ्ट ले चलते हैं,’’ दत्ता ने कहा.

‘‘नहीं, दोस्ती को मैं पैसे में नहीं तोलना चाहता हूं. ऐसे दोस्त बहुत तकदीर से मिलते हैं. अगर आज पहली बार असफलता भी मिले तो कोई गम नहीं, क्योंकि मैं अपने दोस्त को खोना नहीं चाहता हूं. सोच लिया है कि अगर लाइसेंस नहीं मिला तो नौकरी छोड़ दूंगा.’’

इतने में मोहन का घर आ गया. 200 मीटर के प्लाट पर सिर्फ 2 कमरों का सेट बना था और सारा प्लाट खाली. घर के बाहर और अंदर दीवार के साथ फलदार पेड़ और पौधे घर की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे.

मोहन ने रोहित और दत्ता का स्वागत किया. घर के अंदर बैठक में मोहन की पत्नी नीलम ने नाश्ते का इंतजाम कर रखा था. रोहित ने नीलम को मिठाई का डब्बा पकड़ाते हुए धीरे से हेलो कहा.

चाय पीने के बाद मोहन ने रोहित को अपना घर दिखाया, ‘‘यह बैठक कम हमारा बेडरूम है, दूसरा बच्चों का बेडरूम, रसोई, बाथरूम और पीछे लान, जहां नीबू के झाड़ के साथ पपीते और अमरूद के पेड़ हैं.

‘‘एक छोटा सा साफसुथरा घर, जहां जरूरत की हर चीज बड़े करीने से मौजूद थी, लेकिन कोई भी विलासिता का सामान नजर नहीं आया.

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‘‘यार, मोहन, तुम ने खाली प्लाट छोड़ रखा है, 1-2 कमरे और बनवा लो.’’

‘‘उस के लिए रकम चाहिए और तुम तो जानते हो कि रिश्वत मैं लेता नहीं और तनख्वाह में यह मुश्किल है, क्योंकि बच्चे बड़े हो रहे हैं, उन की पढ़ाई और कुछ भविष्य के लिए भी बचत करनी है.’’

‘‘बच्चे नजर नहीं आ रहे हैं,’’ रोहित ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘भई, तुम्हारे लाइसेंस के चक्कर में बच्चों का जिक्र तो रह ही गया. एक लड़का और एक लड़की हैं. दोनों कालिज में पढ़ते हैं और छुट्टियां मनाने वे न्यू समरहिल गए हैं. मैं भी पत्नी के साथ कल सुबह 10 दिन के लिए, बच्चों के पास जा रहा हूं. शाम को छुट्टी मंजूर करवाई है.’’

छुट्टी का नाम सुनते ही रोहित हक्काबक्का रह गया.

मोहन इस बात को भांप गया था. चेहरे पर मुसकराहट लाते हुए बोला, ‘‘मेरे दोस्त, तुम इस बात को नहीं समझ सकते पर आफिस में मेरी मौजूदगी में तुम्हें लाइसेंस मिल नहीं सकता है क्योंकि ऐसे काम मेरी गैरमौजूदगी में होते हैं. सारी दुनिया के गलत काम होते हैं, एक और सही, दोस्ती की खातिर, इसीलिए मैं ने चीफ साहब से बात कर ली है. मैं 10 दिन की छुट्टी जा रहा हूं, तुम्हारा काम हो जाएगा.’’

रोहित को अपनी काबिलीयत और पैसे पर घमंड था. वह हमेशा समझता था कि पैसे के बलबूते सबकुछ संभव है, लेकिन आज यहां बाजी पलट गई. पैसे पर बचपन की दोस्ती हावी हो गई. पैसा हार गया और दोस्ती जीत गई. रोहित, मोहन की बात चुपचाप सुनता रहा.

‘‘रोहित, जब भी मेरे द्वारा आब्जेक्शन फाइल को पास करना होता है तो मुझे छुट्टी पर भेज दिया जाता है, ताकि कोई दूसरा अफसर उसे पास कर सके, आज मैं ने खुद छुट्टी मांगी है ताकि तुम्हारा काम हो सके. चलो, छोड़ो इस विषय को, रात काफी हो चुकी है, डिनर करते हैं.’’

खाना खाते हुए दत्ता पहली बार बोला, ‘‘मोहनजी, मैं आप के सिद्धांतों की कद्र करता हूं, क्या मैं आप का दोस्त बन सकता हूं?’’

‘‘बेशक, हर सच्चा आदमी मेरा दोस्त बन सकता है.’’

‘‘मैं आप की कसौटी पर खरा उतरने की भरपूर कोशिश करूंगा.’’

डिनर के बाद रोहित और दत्ता होटल वापस आ गए पर रोहित खामोश ही बना रहा. दत्ता ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘रोहित, तुम्हें अपने दोस्त पर गर्व होना चाहिए, जिस ने दोस्ती पर सिद्धांतों की बलि दे दी. जिस काम को पैसे नहीं कर सके उसे दोस्ती ने कर दिखाया.’’

‘‘लेकिन पैसे तो फिर भी लगेंगे,’’ रोहित ने कहा.

‘‘आज पहली बार असफल हुए हो रोहित, पर मेरी बात मानो, इस दोस्ती को कभी मत छोड़ना,’’ दत्ता बेहद भावुक हो गया था.

अगली सुबह मोहन आफिस में नहीं था. उस के सहयोगी सोहन के पास फाइल भेज दी गई. फाइल में से आपत्तिजनक कागजों को निकाल कर दूसरे कागज लगा दिए गए. आफिस में बैठ कर फैक्टरी का निरीक्षण भी हो गया और संतोषजनक रिपोर्ट लगा कर 3 दिन में लाइसेंस जारी कर दिया गया. कल तक जो काम असंभव लग रहा था पैसों के बोझ में दब कर संभव हो गया. लाइसेंस हाथ में आते ही रोहित खुशी से उछल पड़ा, झट से सूद साहब को फोन किया.

‘‘गुड न्यूज, सर, लाइसेंस मिल गया.’’

‘‘वैल डन रोहित, मैं जानता था कि तुम यह काम कर लोगे, इसीलिए मैं ने तुम्हें यह काम सौंपा था,’’ सूद साहब की आवाज में एक नई ताकत नजर आ रही थी.

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‘‘रोहित, तुम मानो या न मानो, पर तुम ने बाजी जीत कर हारी है और मोहन ने दोस्ती के नाम पर अपने सिद्धांतों की बलि दे कर बाजी जीत ली है,’’ इतना कह कर दत्ता मंदमंद मुसकरा रहा था और रोहित अवाक् हो उस को देखता रह गया.

विदाई

भाग-1

विदाई की रस्म पूरी हो रही थी. नीता का रोरो कर बुरा हाल था. आंसुओं की झड़ी के बीच वह बारबार नजरें उठा कर बेटी को देखती तो उस का कलेजा मुंह को आ जाता.

सारी औपचारिकताएं खत्म हो चुकी थीं. टीना धीरेधीरे गाड़ी की ओर बढ़ रही थी. बड़ी बूआ भीगी पलकों के साथ ढेर सारी नसीहतें दे रही थीं, ‘‘टीना, अब तेरे लिए ससुराल ही तेरा अपना घर है. वहां सब का खयाल रखना. सासससुर की सेवा करना…’’ कहतेकहते उन की रुलाई फूट पड़ी.

नीता बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाई, ‘‘अपना खयाल रखना टीना,’’ आगे मां की जबान साथ न दे पाई और वह बड़ी जीजी के कंधे का सहारा ले कर जोरजोर से रोने लगीं.

टीना और नरेश गाड़ी में बैठ गए. दुलहन के लिबास में लिपटी टीना की हालत पर नरेश भावुक हो उठा. उस ने धीरे से टीना का हाथ पकड़ कर उसे ढांढस बंधाने का प्रयास किया. पति का स्पर्श पा कर टीना को कुछ राहत मिली, वरना उसे लग रहा था कि उस के सारे परिचित पीछे छूट गए हैं.

1 घंटे में टीना अपनी ससुराल की दहलीज पर खड़ी थी. नरेश का परिवार उस के लिए अपरिचित न था. दूर की रिश्तेदारी के कारण अकसर उन की मुलाकातें हो जाया करती थीं. ऐसे ही एक विवाह समारोह में नरेश की मां सुधा ने टीना को देखा था. उस का चुलबुलापन उन्हें बहुत अच्छा लगा. बिना समय गंवाए उन्होंने बात चलाई और 6 महीने के अंदर टीना उन की बहू बन कर उन के घर आ गई.

2 दिन तक विवाह की रम्में पूरी होती रहीं. तीसरे दिन नरेश व टीना हनीमून के लिए शिमला आ गए. दोनों बहुत खुश थे. नरेश के प्यार में खो कर टीना, मम्मी से बिछुड़ने का गम भूल  सी गई.

हनीमून के 2 दिन बहुत ही सुखद बीते. तीसरे दिन टीना को सर्दीबुखार ने घेर लिया. नरेश चिंतित था, ‘‘टीना, तुम आराम करो, लगता है यहां के मौसम में आए बदलाव के चलते तुम्हें सर्दी लग गई है.’’

‘‘मेरा बदन बहुत दुख रहा है नरेश.’’

‘‘तुम चिंता न करो, मैं डाक्टर को ले कर आता हूं.’’

‘‘डाक्टर की जरूरत नहीं है. एंटी कोल्ड दवाई से ही बुखार ठीक हो जाएगा, क्योंकि जब मुझे सर्दीबुखार होता था तो मम्मी मुझे यही दिया करती थीं.’’

‘‘मम्मी की बहुत याद आ रही है,’’ टीना को बांहों में भर कर नरेश बोला तो उस ने सिर हिला दिया.

‘‘तो इस में कीमती आंसू बहाने की क्या जरूरत है. अभी मम्मी से बात कर लो,’’ टीना की ओर मोबाइल बढ़ाते हुए नरेश बोला.

‘‘मुझे मम्मी से ढेर सारी बातें करनी हैं, अभी घर पर बहुत सारे मेहमान होंगे.’’

‘‘पगली, बाकी बातें बाद में कर लेना, अभी तो अपना हालचाल बता दो उन्हें.’’

‘‘प्लीज, उन्हें मेरी तबीयत के बारे में कुछ न बताना, वरना वे मुझे देखने यहीं आ जाएंगी. मैं मम्मी को जानती हूं,’’ टीना चहक कर बोली.

मम्मी के बारे में बात कर वह अपना दुखदर्द भूल गई. नरेश ने महसूस किया कि टीना सब से ज्यादा खुश मम्मी की बातों से होती है. अब टीना का दिल बहलाने के लिए वह बहुत देर तक मम्मी के बारे में बात करता रहा.

हनीमून के दौरान पूरे 7 दिनों में टीना ने एक बार भी अपनी ससुराल के बारे में कुछ नहीं पूछा. वह बस, अपनी मम्मी की और सहेलियों की बातें करती रही. हनीमून से वापस लौटते हुए टीना बोली, ‘‘नरेश, मुझे लखनऊ कितने दिन रुकना होगा.’’

‘‘तुम यह सब क्यों पूछ रही हो? अभी हमारी शादी को 8-10 दिन ही हुए हैं. जिस में हम घर पर 3 दिन ही रहे हैं. कम से कम 2 हफ्ते तो रुक ही जाना.’’

‘‘2 हफ्ते तक घर में बहू बन कर रहना मेरे बस की बात नहीं है.’’

‘‘मेरी मम्मी तुम्हें बहू नहीं बेटी की तरह रखेंगी. तुम खुद देख लेना. बहुत अच्छी मां हैं वह.’’

‘‘तुम्हारी बहन को देख कर मुझे अंदाजा लग गया है कि वह बेटी को किस तरह रखती हैं,’’ मुंह बना कर टीना बोली.

‘‘हम यहां से चल कर 2 दिन लखनऊ रुकेंगे. उस के बाद दिल्ली चलेंगे तुम्हारे मम्मीपापा के पास. वहां से जब तुम चाहोगी तब ही वापस आएंगे,’’ न चाहते हुए भी मजबूरी में टीना ने नरेश की यह बात मान ली.

लखनऊ में नरेश के परिवार वालों ने टीना की खूब खातिरदारी की. नरेश को लगा वह टीना को कुछ दिन और यहां रोक लेगा पर दूसरे दिन ही टीना ने अपने मन की बात कह डाली.

‘‘नरेश, हम कल दिल्ली चल रहे हैं न. मैं ने मम्मी को फोन से बता दिया है,’’ टीना बोली तो नरेश चुप हो गया. उस ने यह बात अभी तक अपने मम्मीपापा से नहीं कही थी. वह तुरंत पानी पीने के बहाने वहां से हट कर किचन में आ गया और धीरे से मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, टीना कल अपने मायके जाना चाहती है. आप की इजाजत हो तो…’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है बहू. इतने दिन हो गए हैं उसे ससुराल आए हुए. इकलौती बेटी है वह अपने मां बाप की. घर की याद आनी तो स्वाभाविक है बेटा,’’ बेटे की दुविधा दूर करते हुए सुधा बोलीं.

कमरे में नरेश पहुंचा तो टीना बोली, ‘‘आप मेरी बात अधूरी छोड़ कर कहां चले गए थे?’’

‘‘पानी पीने चला गया था. तुम पैकिंग में व्यस्त थीं सो मैं खुद ही चला गया किचन तक.’’

‘‘कल का प्रोग्राम पक्का है न?’’

‘‘बिलकुल पक्का,’’ नरेश चहक कर बोला तो टीना ने राहत की सांस ली.

मायके पहुंच कर टीना मम्मी से लिपट कर खूब रोई. नीता, टीना को बड़ी देर तक सहलाती रही.

‘‘कितनी दुबली हो गई हैं मम्मी आप,’’ टीना बोली.

नरेश, मांबेटी को छोड़ कर अपने ससुर के पास आ गया.

‘‘पापा, बेटी के बिना घर खालीखाली लग रहा होगा आप को.’’

‘‘बेटी का असली घर तो उस की ससुराल ही होता है बेटा, यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए. टीना अपनी मां के लाड़प्यार के कारण थोड़ी लापरवाह है. उस की नादानियों को नजरअंदाज कर दिया करना.’’

‘‘आप चिंता न करें पापाजी, धीरेधीरे टीना मेरे परिवार के साथ घुलमिल जाएगी.’’

एक ही दिन में नरेश समझ गया कि इस घर में टीना के पापा की उपस्थिति केवल नाम लेने भर की है. घर में सारे फैसले नीता के कहे अनुसार ही होते हैं.

एक हफ्ता बीत गया. टीना का मन लखनऊ जाने का न था, वह तो नरेश के साथ सीधे मुंबई जाना चाहती थी पर नरेश से कहने का वह साहस न जुटा सकी.

बेटी को विदा करते हुए नीता ने ढेरों हिदायतें दे डालीं. नरेश साथ खड़ा सबकुछ सुन रहा था पर बोला कुछ नहीं. उसे ताज्जुब हो रहा था कि उस की सास ने एक बार भी टीना को अपने सासससुर की सेवा से संबंधित नसीहत न दी. चलते वक्त वह नरेश से बोलीं, ‘‘बेटा, टीना का खयाल रखना, मैं ने जिंदगी की अमानत तुम्हें सौंप दी है.’’

शादी के 3 हफ्तों में ही नरेश को सबकुछ समझ में आने लगा था कि मम्मी के लाड़प्यार के कारण टीना की परवरिश एक आम लड़की की तरह नहीं हुई थी. घूमनाफिरना, मौजमस्ती करना और गप्पबाजी उस के खास शौक थे. घर के किसी काम में उस की रुचि न थी. सामान्य शिष्टाचार में उस का विश्वास न था.

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छुट्टियां खत्म हुईं तो नरेश के साथ टीना भी मुंबई आ गई.

नरेश, टीना से जितना सामंजस्य बिठाता, टीना अपनी हद आगे सरका देती.

टीना की गुडमार्निंग मम्मी को फोन से होती, और फिर तो बातों में टीना यह भी भूल जाती कि उस के पति को दफ्तर जाना है, महीने का टेलीफोन का बिल हजारों में आया तो नरेश बोला, ‘‘टीना, मेरी आमदनी इतनी नहीं है कि मैं 5 हजार रुपए महीना टेलीफोन के बिल पर खर्च कर सकूं. हमें अपनी जरूरतें सीमित करनी होंगी.’’

‘‘नरेश, आप के पास रुपए की कमी है तो मैं मम्मी से मांग लेती हूं. मेरे एक फोन पर वह तुरंत रुपए आप के खाते में ट्रांसफर करवा देंगी.’’

‘‘शादी के बाद बेटी को मां पर नहीं पति पर आश्रित रहना चाहिए.’’

‘‘मैं अपनी मम्मीपापा की इकलौती संतान हूं,’’ टीना बोली, ‘‘उन का सबकुछ मेरा ही तो है. पता नहीं किस जमाने की बात कर रहे हो तुम.’’

‘‘छोटीछोटी चीजों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना ठीक नहीं होता.’’

‘‘मम्मी, दूसरी नहीं मेरी अपनी हैं.’’

‘‘यही बातें तुम्हें मेरे लिए भी सोचनी चाहिए. मेरे मांबाप का मुझ पर कुछ हक है और हमारा उन के प्रति कुछ फर्ज भी है,’’ पहली बार अपने परिवार की पैरवी की नरेश ने.

दूसरे दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने सारी बातें अपनी मम्मी को बताईं तो वह बोलीं, ‘‘ठीक किया तू ने टीना. तुम्हारी ससुराल में जरा सी भी दिलचस्पी नरेश को उन की ओर मोड़ देगी. तुम्हें अपना भला देखना है कि ससुराल का.’’

शादी के बाद पहली होली पर नरेश ने टीना से घर चलने का आग्रह किया तो वह तुनक गई.

‘‘होली का त्योहार मुझे अच्छा नहीं लगता. रंगों से मुझे एलर्जी होती है.’’

‘‘बड़ों की भावनाओं का सम्मान करना जरूरी होता है टीना, मेरी खातिर तुम लखनऊ चलो न, वहां सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’ नरेश दुविधा में था कि क्या करे, क्योंकि टीना ससुराल जाने के लिए तैयार न थी. तभी नरेश के दिमाग में एक आइडिया आया और वह बोला, ‘‘टीना, चलो दिल्ली चलते हैं.’’ दिल्ली का नाम सुनते ही टीना तैयार हो गई.

होली से 2 दिन पहले वे दिल्ली पहुंच गए. नीता बेटीदामाद को देख कर फू ली न समाई. बेटी को होली पर मायके देख कर टीना के पापा पहली बार बोले, ‘‘टीना, इस समय तुम्हें मायके के बजाय अपनी ससुराल में होना चाहिए था. यह तुम्हारी ससुराल की पहली होली है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है? टीना यहां रहे या ससुराल में.’’

‘‘फर्क हमें नहीं हमारे समधीजी को पड़ेगा, जिन का बेटा होली के दिन अपनी ससुराल में पत्नी के साथ…’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हें कुछ पता है रिश्तेनातों के बारे में. मैं न होती तो…’’

‘‘आप दोनों हमें ले कर आपस में क्यों उलझ रहे हैं. टीना यहां रह लेगी और चूंकि मेरा यहां रुकना ठीक नहीं है इसलिए मैं लखनऊ चला जाता हूं.’’

टीना के सामने अब कोई रास्ता न था. मजबूर हो कर उसे भी नरेश के साथ लखनऊ आना पड़ा. होली पर गुलाल के रंग टीना के सुंदर चेहरे पर बहुत फब रहे थे पर खुशी का असली रंग उस के चेहरे से नदारद था.

सुधा से बहू की उदासी और उकताहट छिपी न थी. वह सबकुछ देख कर भी चुप थी. इस अवसर पर उसे कोई नसीहत देना उस के दुख को क्रोध में बदलना था. बस, एक बार सुधा ने कहा, ‘‘टीना, कितना अच्छा लगता है जब तुम और नरेश यहां होते हो.’’

सुधा की बात सुन कर टीना चुप रही. रात को नरेश ने पूछा, ‘‘टीना, तुम्हारा मन कुछ दिन ससुराल में रहने को हो तो मैं अपनी छुट्टी आगे बढ़ा लेता हूं.’’

सुधा के शब्दों की खीज वह नरेश पर उतारते हुए बोली, ‘‘3 दिन में आप का मन नहीं भरा अपने लोगों के साथ रह कर.’’

‘‘अपनापन तो मन में होता है, टीना. मुझे तो तुम से जुड़े सभी लोग अपने लगते हैं.’’

‘‘मुझे तुम्हारी फिलोसफी नहीं सुननी, और यहां रुकना मेरे बस की बात नहीं.’’

टीना का दो टूक जवाब सुन कर भी नरेश हंस दिया और बोला, ‘‘सौरी डार्लिंग, हम कल सुबह ही यहां से चल पड़ेंगे.’’

मुंबई वापस लौट कर टीना ने राहत की सांस ली और ससुराल में घटी सब बातोें की जानकारी अपनी मम्मी को दे दी.

अकसर टीना और नरेश शाम को घर से बाहर ही खाना खाते क्योंकि टीना को खाना पकाना नहीं आता था और वह सीखने का प्रयास भी नहीं करती. कभी वह जिद कर के टीना से कुछ बनाने को कहता तो गैस के चूल्हे जलने के साथ टीना का मोबाइल कान से लग जाता.

हां, मम्मी, बताओ कढ़ी बनाने के लिए सब से पहले क्या करना है? इस तरह मम्मी से पूरी रेसिपी सुन कर जितना फोन का बिल बढ़ता उस से कम पैसे में होटल से लजीज खाना मंगाया जा सकता था. सो नरेश ने फरमाइश करनी ही छोड़ दी.

इधर नरेश ने महसूस किया कि टीना उस से उलझने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ती रहती है. कल की ही बात है, टीना को शोरूम में एक घड़ी बहुत पसंद आई. उस ने नरेश से घड़ी लेने का आग्रह किया, ‘‘नरेश देखो, कितनी सुंदर घड़ी है.’’

‘‘टीना, तुम्हारे पास पहले ही कई घडि़या हैं. उन में से कुछ तो तुम ने आज तक पहनी भी नहीं हैं और घड़ी ले कर क्या करोगी?’’

‘‘वे घडि़यां मुझे पसंद नहीं. मुझे तो यही चाहिए,’’ टीना जिद करते हुए  बोली.

इतनी देर में नरेश काउंटर से हट कर अलग खड़ा हो गया. टीना नरेश की ओर बढ़ी तो वह दुकान से बाहर आ गया. गुस्से से भरी टीना, नरेश के साथ घर तो आ गई पर घर में घुसते ही वह फट पड़ी, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, दुकान में मेरी बेइज्जती करने की.’’

‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा न था. मैं तो बस, दुकान में उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.’’

‘‘आज तक मेरी मम्मी ने कभी मेरी किसी इच्छा से इनकार नहीं किया. मैं जैसे चाहूं रहूं, खाऊंपीऊं, खरीदारी करूं या घूमू फिरूं.’’

‘‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता था. टीना, प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी जेब में उस वक्त उतने रुपए नहीं थे.’’

‘‘के्रडिट कार्ड तो था. पहली बार मैं ने तुम्हारे सामने अपनी इच्छा रखी और तुम ने मेरी बेइज्जती की.’’

‘‘मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

‘‘तुम्हारा मेरे प्रति यही नजरिया रहा तो देख लेना मैं यहीं इसी घर में आत्महत्या कर लूंगी.’’

‘‘आत्महत्या तुम्हें नहीं मुझे करनी चाहिए जिस ने अपनी इतनी प्यारी पत्नी का दिल दुखाया. चलो, मैं अभी तुम्हारे लिए घड़ी ले आता हूं.’’

‘‘अब मुझे घड़ी नहीं चाहिए, जिस चीज के लिए एक बार ना हो जाए उसे मैं कभी हाथ नहीं लगाती,’’ कहते हुए टीना मुंह फुला कर सो गई. उस ने खाना भी नहीं खाया तो नरेश को भी भूखा सोना पड़ा.

अगले दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने मम्मी को कल की पूरी घटना सुना दी. सुन कर नीता को बड़ा गुस्सा आया और वह बोलीं, ‘‘यह तो नरेश ने अच्छा नहीं किया टीना, उस की हिम्मत तो देखो कि अपनी पत्नी की छोटी सी इच्छा पूरी न कर सका.’’

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‘‘मुझे इस बात का बड़ा दुख हुआ मम्मी.’’

‘‘ऐसे मौकों पर तुम कमजोर न पड़ना. आखिर वह इतनी तनख्वाह का करता क्या है? कहीं सारे रुपए घर तो नहीं भेज देता?’’

‘‘मैं ने कभी पूछा नहीं मम्मी.’’

‘‘नरेश की हर हरकत पर नजर रखना. तुम अभी कमजोर पड़ गईं तो फिर कभी पति पर राज नहीं कर सकोगी.’’

मम्मी के कहे अनुसार टीना ने नरेश की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी पर ऐसा कुछ हाथ न लगा जिसे ले कर नरेश पर हावी हुआ जा सके.

-क्रमश:

 डा. के रानी

उजाले की किरण

पूर्व कथा

स्वर्णिमा अपनी देवरानी मालविका को पिकनिक पर जाने के लिए कहती है पर जब मालविका स्वर्णिमा से पिकनिक जाने के बारे में पूछती है तो वह इनकार कर देती है. मालविका के जिद करने पर वह जाने के लिए तैयार हो जाती है. वहां पर दोनों की मुलाकात मृणाल से होती है. स्वर्णिमा को सफेद साड़ी में देख कर मृणाल चौंक पड़ता है. स्वर्णिमा उस का परिचय मालविका से कराती इस से पहले ही उस का अतीत उस के सामने साकार हो उठता.

स्वर्णिमा और मृणाल एक ही कालिज में पढ़ते थे. उन की दोस्ती प्यार में बदल जाती है. कालिज की पढ़ाई पूरी करते ही मृणाल को बैंक में नौकरी मिल जाती है. एक दिन मृणाल अपनी मां के साथ शादी की बात करने स्वर्णिमा के घर पहुंचता है लेकिन स्वर्णिमा के पिताजी इस शादी से साफ इनकार कर देते हैं और उस की शादी सेठ रामनारायण के बेटे आलोक से कर देते हैं.

आलोक को शराब की बुरी आदत थी. इसी लत के कारण एक दुर्घटना में उस की मौत हो जाती है और स्वर्णिमा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है. मालविका स्वर्णिमा का बहुत खयाल रखती है. उस के साथ घूमनेफिरने और खरीदारी करने जाती है. और एक दिन रास्ते में उन दोनों की मुलाकात मृणाल से होती है. अब आगे…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

‘‘कैसे हो, मृणाल?’’ उसे देख स्वर्णिमा ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं. तुम कैसी हो?’’ जवाब देने के बाद उस ने पूछा.

‘‘कैसी हो सकती हूं मैं? ठीक ही हूं,’’  स्वर्णिमा ने उदास लहजे में कहा.

‘‘चलिए न, कहीं बैठ कर बातें की जाएं,’’ मालविका ने कहा तो तीनों एक रेस्तरां में जा कर बैठ गए.

कुछ देर इधरउधर की बातों के बाद मालविका ने पूछा, ‘‘मृणालजी, आप के घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘बस, मैं और मेरी मां. बड़ी बहन की शादी हो गई. वह अपनी ससुराल में है और छोटी बहन नागपुर में मेडिकल कालिज में पढ़ाई कर रही है.’’

‘‘क्या अभी तक तुम ने शादी नहीं की?’’ स्वर्णिमा ने पूछा.

‘‘स्वर्णिमा, मां तो हमेशा शादी के लिए कहती रहती हैं पर मैं ही टाल जाता हूं,’’ मृणाल ने स्वर्णिमा के चेहरे की तरफ देखते हुए कहा तो उस ने पलकें झुका लीं.

माहौल गंभीर हो रहा था. यह भांप कर मालविका बोली, ‘‘दीदी, देर हो रही है…अब घर चलते हैं.’’

एक दिन मालविका को बातों ही बातों में पता चला कि स्वर्णिमा का जन्मदिन 15 तारीख को है. बस, फिर क्या था. उस ने मन ही मन प्लान बना डाला और 15 तारीख को मानमनुहार कर के स्वर्णिमा को तैयार कर एक रेस्टोरेंट में ले आई और फोन कर के मृणाल को भी वहीं बुला लिया.

‘‘मालविका, तुम्हें मृणाल को यहां नहीं बुलाना चाहिए था,’’ स्वर्णिमा बोली.

‘‘दीदी, वह आप के साथ पढ़ते थे. आप के दोस्त भी थे. आप के जन्मदिन पर उन्हें तो आना ही चाहिए,’’ मालविका बोली.

‘‘मालविकाजी, आप ने मुझे अचानक यहां क्यों बुलाया? क्या कोई जरूरी काम था?’’ मृणाल ने आते ही पूछा तो वह तपाक से बोली, ‘‘आप कैसे मित्र हैं? आप को अपनी फै्रंड का बर्थडे भी याद नहीं रहता?’’

‘‘ओह, यह बात तो सचमुच मुझे याद नहीं रही वरना पहले तो हम एकदूसरे के साथ अपनाअपना जन्मदिन मनाते थे,’’ मृणाल ने बीती यादों में खोते हुए कहा.

‘‘मृणाल, एकदूसरे का जन्मदिन क्या सिर्फ आप दोनों ही मनाते थे, कोई और नहीं आता था?’’ कुछ सोचते हुए मालविका ने पूछा.

‘‘वह क्या है कि हमें भीड़भाड़ पसंद नहीं थी इसीलिए हम किसी और को नहीं बुलाते थे,’’ स्वर्णिमा ने अचकचा कर जवाब दिया.

इस के बाद मालविका ने और कुछ नहीं पूछा. वेटर को बुला कर खाने का आर्डर दिया और तीनों खापी कर उठ गए.

‘‘दीदी, आप से एक बात पूछूं,’’ लौटते समय रास्ते में मालविका ने अपनी जेठानी स्वर्णिमा से पूछा, ‘‘मुझे अपनी छोटी बहन या सहेली समझ कर उत्तर दीजिएगा. क्या आप और मृणाल सिर्फ अच्छे दोस्त भर थे या…’’

‘‘मालविका, यह कैसा प्रश्न है?’’ स्वर्णिमा इस सवाल से अचकचा सी गई. लेकिन मालविका ने जब अपनी कसम दी तो स्वर्णिमा बोली, ‘‘मालविका, आज तक यह बात मैं ने किसी से नहीं कही पर तुम से कहती हूं. मृणाल और मैं पहले अच्छे दोस्त थे, फिर बाद में एकदूसरे को चाहने लगे थे. मृणाल व उस की मां मेरे घर मम्मीडैडी से मेरा हाथ मांगने भी आए थे पर डैडी ने रिश्ते के लिए मना कर दिया था.’’

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‘‘वह क्यों, दीदी?’’ मालविका ने प्रश्न किया.

‘‘क्योंकि डैडी उन्हें अपनी बराबरी का नहीं समझते थे. वह मेरा रिश्ता अपने बराबर की हैसियत वाले घर में ही करना चाहते थे.’’

‘‘लगता है, मृणालजी अब तक आप को भूल नहीं पाए हैं,’’ मालविका बोली, ‘‘तभी तो अपनी मां के कहने के बाद भी वह शादी नहीं कर रहे हैं.’’

‘‘जानती हो, आज जब तुम पेमेंट के लिए काउंटर पर गई थीं तो मृणालजी ने मुझ से कहा था, स्वर्णिमा, अगर तुम चाहो तो मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं्.’’

‘‘तो आप ने क्या जवाब दिया, दीदी?’’ मालविका ने पूछा.

‘‘मैं ने उसे समझाया कि यह असंभव है और वह किसी और लड़की से विवाह कर घर बसा ले,’’ स्वर्णिमा ने बताया.

‘‘दीदी, आप ने उन की बात मान क्यों नहीं ली?’’

‘‘मालविका, मैं किसी की विधवा हूं और मैं नहीं चाहती कि यह पाप मुझ से हो,’’ स्वर्णिमा ने कहा.

‘‘दीदी, रोतेबिलखते हुए जीना अपनी इच्छाओंआकांक्षाओं की हत्या कर स्वयं पर जुल्म करना क्या पाप नहीं? दीदी, आप उन्हें समझने की कोशिश कीजिए. यों कब तक अकेले घुटघुट कर दिन काटेंगी? अभी तो आप के सामने इतना लंबा जीवन पड़ा है,’’ मालविका ने कहा.

‘‘मालविका, मेरे जीवन में जितना दुख लिखा है उतना तो मुझे भोगना ही पडे़गा न,’’ स्वर्णिमा ने कहा.

मालविका अब अकसर स्वर्णिमा व मृणाल को किसी न किसी बहाने मिलवाने लगी थी. स्वर्णिमा भी अब पहले की तरह हर समय कमरे में बंद न रहती. मालविका के साथ बातें करती. हंसती व खुश रहती. मालविका भी खुश होती कि उस के प्रयासों से एक विधवा के होंठों पर हंसी आ जाती है.

मालविका ने एक बेटे को जन्म दिया तो घर में खुशियां छा गईं. सब बच्चे के जन्मोत्सव पर बड़ा आयोजन करने की तैयारी करने लगे कि नवजात शिशु की तबीयत खराब हो गई. उसे फौरन अस्पताल ले जाया गया पर डाक्टर तमाम कोशिशों के बाद भी बच्चे को बचा न सके.

यह घटना किसी सदमे से कम न थी. मालविका विक्षिप्त सी हो उठी. बेटे को जन्म दे कर उस ने क्याक्या कल्पनाएं कर डाली थीं पर एक पल में ही सबकुछ खत्म हो गया था. नवजात बेटे की मृत्यु के गम ने उस के होंठों की मुसकान छीन ली थी. उस के दिल पर लगा जख्म भर नहीं पा रहा था.

इस घटना को महीनों गुजर गए. धीरेधीरे परिवार के लोग भी सामान्य हो गए थे. एक दिन सब के जाने के बाद मालविका अपने कमरे से निकल कर बरामदे में रखी कुरसी पर बैठ गई. नजर अनायास ही स्वर्णिमा के कमरे की तरफ चली गई.

मालविका कुछ सोचते हुए उठी और आहिस्ता से जेठानी के कमरे का दरवाजा खोला और धीरे से पुकारा, ‘‘दीदी.’’

आज महीनों बाद कानों में यह संबोधन पड़ा तो स्वर्णिमा ने चौंक कर सिर उठाया. देखा, सामने मालविका खड़ी थी.

‘‘आओ, मालविका,’’ उस ने सस्नेह कहा तो वह अंदर चली आई.

‘‘दीदी, आप सही कहती हैं… जितना दुख तकदीर में लिखा है उतना इनसान को भोगना ही पड़ता है,’’ मालविका ने कहा.

‘‘मालविका, कुछ दिनों बाद दोबारा तुम्हारी गोद में नन्हामुन्ना आ जाएगा तो तुम सब भूल जाओगी. लेकिन मेरी बहन, मेरे सामने तो आशा की कोई किरण भी नहीं है. देखो, तुम ऐसे अच्छी नहीं लगती हो. अत: अब उदासी व दुख का दामन छोड़ दो,’’ स्वर्णिमा ने देवरानी को समझाते हुए कहा.

‘मैं अब आप को और दुखी नहीं रहने दूंगी.’ मन ही मन सोचा मालविका ने फिर बोली, ‘‘दीदी, आज शाम मैं मृणालजी से मिलने जाऊंगी. मुझे उन से कुछ काम है.’’

स्वर्णिमा के बारबार पूछने पर भी मालविका ने यह नहीं बताया कि उसे मृणाल से क्या काम है. कुछ देर इधरउधर की बातें करने के बाद वह अपने कमरे में लौट आई.

दूसरे दिन मालविका सुबह ही स्वर्णिमा के कमरे में आई तो बड़ी खुश थी. चहकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरा काम हो गया.’’

‘‘कौन सा काम?’’ स्वर्णिमा ने पूछा.

‘‘कल मैं मृणालजी से मिलने गई थी,’’ मालविका बोली, ‘‘मैं ने उन से सारी बातें कर ली हैं.’’

‘‘कौन सा काम, कौन सी बात?’’ स्वर्णिमा ने पूछा, ‘‘मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है, मालविका कि तुम क्या कह रही हो.’’

‘‘दीदी, आप की शादी की बात मैं ने मृणालजी से कर ली है और वह तैयार भी हो गए हैं,’’ मालविका ने बताया तो स्वर्णिमा स्तब्ध रह गई.

‘‘नहीं, मालविका, मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती,’’ स्वर्णिमा ने कहा, ‘‘मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी तो मैं अपनी ही नजर में गिर जाऊंगी. फिर घर वाले मेरे बारे में क्या सोचेंगे? प्लीज, तुम ऐसा कुछ मत करना जिस से मेरा मजाक बन जाए.’’

‘‘दीदी, आप अंधेरे में रहतेरहते उस की इतनी अभ्यस्त हो गई हैं कि आप को उजाले की किरण नजर ही नहीं आती. जरा दुखों का आवरण हटा कर देखिए, खुशियां आप की प्रतीक्षा कर रही हैं. उठ कर उन्हें गले क्यों नहीं लगा लेतीं? आप घर वालों की चिंता न करें, उन्हें मैं समझा लूंगी और अपने जीवन में खुशियां लाने से कोई अपनी नजर में नहीं गिरता. आप कोई अनैतिक काम करने नहीं जा रही हैं,’’ मालविका ने जेठानी को समझाया और उस का हाथ पकड़ कर उसे उठाया. फिर लाल साड़ी पहना कर उस का शृंगार करने लगी. तैयार होने के बाद स्वर्णिमा ने जब शीशे में अपने को देखा तो शरमा गई. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी.

देवरानीजेठानी जब दोनों कमरे से बाहर निकलीं तो उन्हें देख सब आश्चर्यचकित रह गए.

लाल साड़ी में सास ने स्वर्णिमा को देखा तो क्रोध से चीख पड़ीं.

‘‘मांजी, आप गुस्सा न हों,’’ मालविका बोली, ‘‘आज स्वर्णिमा दीदी शादी करने जा रही हैं. इन के होने वाले पति का नाम मृणाल है और हां, यदि आप लोग भी दीदी को आशीर्वाद देना चाहें तो हमारे साथ अदालत चल सकते हैं.’’

‘‘छोटी बहू, तुम मेरी दी गई छूट का नाजायज फायदा उठा रही हो. इस खानदान की इज्जत व मानमर्यादा का भी तुम ने खयाल नहीं रखा है,’’ मांजी पहली बार मालविका से इतने कड़े शब्दों में बात कर रही थीं. फिर स्वर्णिमा की ओर मुड़ कर कहने लगीं, ‘‘और इस की तो मति ही मारी गई है जो विधवा हो कर भी विवाह रचाने चली है.’’

‘‘मांजी, यह कोई गलत काम नहीं है. यदि यह किसी भी तरह से गलत होता तो कानून विधवा पुनर्विवाह की अनुमति नहीं देता,’’ मालविका ने कहा.

‘‘अच्छा, तो तुम मुझे कानून पढ़ाओगी,’’ मांजी और भड़क उठीं, ‘‘बहू, अगर तुम दोनों ने कुछ भी उलटासीधा किया तो इस घर के दरवाजे हमेशाहमेशा के लिए तुम्हारे लिए बंद हो जाएंगे.’’

‘‘मां, मालविका जो कुछ कर रही है वह ठीक है,’’ राहुल ने अपनी पत्नी की तरफदारी लेते हुए कहा, ‘‘इन्हें जाने दें. हमें किसी की खुशियां छीनने का कोई अधिकार नहीं. सभी को अपनी मरजी के मुताबिक स्वतंत्रतापूर्वक जीने का पूरा हक है. मानमर्यादा व इज्जत के नाम पर हम किसी के पैरों में बेडि़यां डाल उसे घुटघुट कर जीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं.’’

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मांजी ने आश्चर्य से बेटे की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘राहुल, तुम भी…’’

‘‘हां मां, भाभी को दोबारा घर बसाने का पूरा अधिकार है. उन्हें रोकिए मत, जाने दीजिए. मालविका, चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं,’’ राहुल ने कहा और आगे बढ़ गया.

मांजी ने बिलखते हुए कहा, ‘‘अब मैं लोगों को क्या मुंह दिखाऊंगी.’’

पास में खड़े राहुल के पापा ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुधा, जब तुम खुद बहू को आशीर्वाद दोगी तो कोई उस पर उंगली नहीं उठा सकेगा बल्कि लोग तुम्हें ही अच्छा कहेंगे.’’

राहुल, मालविका, मृणाल का एक दोस्त और उस की पत्नी की मौजूदगी में स्वर्णिमा व मृणाल विवाहसूत्र में बंध गए. सब ने उन्हें बधाई दी व उन के सुखमय जीवन की कामना की.

‘‘दीदी, मैं ने कहा था न कि उजाले की स्वर्णिम किरणें भी हैं. देखिए, आज वे आप का स्वागत करने को आतुर हैं,’’ मालविका बोली. आज उस के चेहरे पर अपूर्व संतुष्टि व खुशी थी. स्वर्णिमा को उस की खुशियां लौटा कर वह अपना गम भूल गई थी.

राहुल को भी अपनी पत्नी पर गर्व हुआ जिस ने किसी के बुझे चेहरे पर फिर से चमक ला दी थी. वे बाहर निकले तो मांजी के साथ घर के सारे सदस्य वहां खड़े थे. स्वर्णिमा के मम्मीडैडी भी आ गए थे.

‘‘बहू, मुझे क्षमा कर दो. क्रोध में मैं ने तुम्हें जाने क्याक्या कह दिया,’’ मांजी ने स्वर्णिमा से कहा तो मालविका अचरज से उन का मुंह देखने लगी.

‘‘मांजी, क्षमा मांग कर आप मुझे शर्मिंदा न करें. आप तो बस, मुझ पर अपना स्नेह बनाए रखें,’’ स्वर्णिमा सास के चरणों में झुकते हुए बोली.

स्वर्णिमा को गले लगाते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, मेरा स्नेह व आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है.’’

‘‘मृणाल, तुम ने मेरी बेटी के उजड़े जीवन में फिर से बहार ला दी है. मैं तुम्हारा यह एहसान कभी न भूल सकूंगा,’’ स्वर्णिमा के डैडी भानुप्रताप ने कहा.

‘‘डैडी, इस में एहसान की कौन सी बात है,’’ मृणाल ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘आप प्लीज, ऐसी बातें न कीजिए, बस, अपना आशीर्वाद दीजिए हमें.’’

‘‘जीते रहो, बेटा, सदा सुखी रहो. ईश्वर सब को तुम्हारे जैसा ही बेटा दे,’’ भानुप्रतापजी बोले.

बेटी का घर दोबारा बसते देख स्वर्णिमा की मम्मी की आंखों में भी संतुष्टि के भाव उभर आए थे.

स्वर्णिमा ने सब से विदा ली व मृणाल के साथ चली गई, एक नए जीवन की ओर जहां उजाले की स्वर्णिम किरणें उन की प्रतीक्षा कर रही थीं वहीं खुशियां उस के आंचल में खेलने को आतुर थीं.

शुचिता श्रीवास्तव

नाश्ता मंत्री का गरीब के घर

मंत्री महोदय की भावना को जान कर सचिव ने तुरंत संवाददाता सम्मेलन बुलाया. अगले ही दिन यह समाचार सुर्खियों में आ गया कि आगामी दौरे में मंत्रीजी किसी गरीब के घर भोजन करेंगे.

मंत्रीजी का सचिव काफी समझदार जीव था. साहब के मन की बात भांप कर, उन के लिए दौरे का मौका तलाशने लगा और बहुत जल्द ही एक मौका मिल गया.

वह खुशनसीब कसबा मेरा था, जहां विद्युत एवं उद्योग मंत्री का पदार्पण तय हुआ. सेठ मुरारीलाल की नई चावल मिल का उद्घाटन जो होना था. फिर कसबे में तलाश हुई एक समझदार गरीब की और वह लाटरी खुली जयराम के हक में. तय था कि मंत्री महोदय भोजन वहीं करेंगे, हर हालत में. तभी एक बात आड़े आ गई.

सेठ मुरारीलाल का प्रबल आग्रह आया कि मंत्री महोदय का भोजन उस की कुटिया पर हो. बात खजूर में अटकने जैसी हो गई थी. दरहकीकत, सेठ मुरारीलाल हर साल पार्टी को खासा तगड़ा चंदा दिया करते थे. भला ऐसे दानवीर को निराश कैसे किया जाता.

उस विषम परिस्थिति को सुलझाया जनाब सचिव महोदय ने. फौरन एक प्रेस नोट अखबारों को भेजा गया, ‘‘चूंकि मंत्री महोदय पहली दफा किसी गरीब के यहां भोजन करेंगे अतएव आमाशय पर बुरा असर पड़ने की आशंका को देखते हुए, फिलहाल मंत्रीजी गरीब के घर सिर्फ नाश्ता करेंगे.’’

प्रेस नोट छपने के बाद कूच की तैयारी होने लगी.

मेरे कसबे का गरीब जयराम, जिस ने बैंक से ऋण ले कर हाल ही में फोटो स्टेट एवं टाइपिंग सेंटर खोला था, मंत्रीजी की मेजबानी के सपने देखते हुए हलाल होने वाले बकरे की तरह फूला न समा रहा था. उसे जो भी मिलता, जहां भी मिलता, सगर्व टोक कर कहता, ‘‘सुना आप ने? मंत्रीजी नाश्ता मेरे यहां करेंगे और भोजन, सेठ मुरारीलाल की कोठी पर.’’

इधर मंत्री का कसबे में आना तय हुआ, उधर प्रशासन में मानो भूचाल आ गया. जयराम के घरदुकान को जाने वाली हर गलीसड़क पर यातायात बढ़ गया. सरकारी जीपें, कारें, स्कूटर उस के घरदुकान के सामने आ कर रुकने लगे. सब को गरीब का स्तर ऊंचा उठाने की फिक्र जो थी और यह भय भी था कि क्या जयराम मंत्रीजी को नाश्ता दे सकेगा?

लिहाजा, प्रदेश की राजधानी से एक पर्यवेक्षक आया और पार्टी के कुछ स्थानीय कार्यकर्ताओं को संग ले कर जयराम के खंडहरनुमा मकान तक पहुंचा. कुछ सरकारी पुछल्ले भी साथ लग लिए थे.

पार्टी पर्यवेक्षक ने जयराम से दरियाफ्त की, ‘‘मंत्री महोदय को नाश्ते में क्या खिलाओगे?’’

‘‘ज…जी…जी…’’ जयराम हकला गया. दरअसल, इस मुद्दे पर उस ने अभी तक सोचा ही न था.

उसे इस कदर घबराया हुआ देख, एक पंजाबी सरकारी अफसर ने उत्साह से पूछा, ‘‘ओय, तू नाश्ते दा मीणू की बणाया ए?’’

‘‘नाश्ते का मीनू,’’ कह कर जयराम सोचविचार में पड़ गया.

जयराम को सोच में पड़ा देख कर एक और सियासती ओहदेदार उचका, ‘‘इतना क्या सोच रहे हो, यार? तुम नाश्ता नहीं किया करते…’’

‘‘साहब,’’ बीच में बात काट कर हाथ जोड़ जयराम गिड़गिड़ाया, ‘‘हमें नाश्ता कहां नसीब, साब. किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ बैठ जाता है, बस,’’ उस का जवाब सुन कर पार्टी कार्यकर्ता और अधिकारी एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

‘‘मगर मैं मंत्रीजी को दूधजलेबी का नाश्ता दे दूंगा,’’ पूरे अभिमान के साथ जयराम ने घोषणा कर दी. हालांकि वह जानता था, ऐसा नाश्ता उस के बूते का न था. उस की घोषणा सुन कर राजधानी पर्यवेक्षक ने आंखें तरेरीं, ‘‘दूधजलेबी,’’ एकएक शब्द पर जोर दे कर वह बोला.

जयराम नहीं समझा कि वह क्या गलत बोल गया लेकिन कुछेक पुछल्लों ने फौरन पर्यवेक्षक का अभिप्राय समझ लिया.

एक स्थानीय कार्यकर्ता बोला, ‘‘जयराम, तुझे शरम आनी चाहिए. अरे, क्यों हमारी नाक कटवाने पर तुला है? नहीं जानता, मंत्री लोग नाश्ता कैसा करते हैं?’’

‘‘अरे, हम जानते हैं,’’ अपना सामान्य ज्ञान व्यक्त करते एक दूसरे कार्यकर्ता ने बखान करना शुरू कर दिया, ‘‘अहा…हा…, खालिस देसी घी में तले नमकीन काजू, मिठाइयां, कचौरी, सेब, नारंगी, क्रैकजैक बिस्कुट…’’

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बीच में ही उसे अर्द्धविराम बाध्य होना पड़ा. मुंह में आई लार को घोंट पुन: गले में गटका, फिर शुरू हुआ ही था कि जयराम रोंआसा हो कर बोला, ‘‘इतनी सारी चीजें मंत्रीजी बस, नाश्ते में ही खा जाएंगे?’’

‘‘धत,’’ पर्यवेक्षक ने माथा थाम लिया हाथों में, ‘‘अरे भाई, इतनी चीजें इसलिए रखनी पड़ती हैं कि मंत्री महोदय को न जाने क्या भा जाए?’’

‘‘एक व्यक्ति के लिए मैं किसी तरह इंतजाम कर लूंगा,’’ दबी जबान में जयराम बोला.

‘‘पागल हो क्या?’’ पर्यवेक्षक बोला, ‘‘मंत्री लोग कभी अकेले नाश्ता लिया करते हैं? अरे, पार्टी के कार्यकर्ता, मंत्री के सचिव, सरकारी अधिकारी, कारजीपों के ड्राइवर, पत्रकार और छायाकार ये सब अपने घरों से नाश्ता बांध कर लाएंगे क्या?’’

‘‘तकरीबन, 50-60 लोग हो ही जाएंगे,’’ एक अधिकारी अनुमान लगा कर बोला. वह पहले सांख्यिकी विभाग में था, ‘‘ऐसे वक्त पर कुछ गैरजरूरी लोग भी तो हाथ मार जाते हैं.’’

‘‘इंतजाम 100 आदमियों का रखना पड़ेगा,’’ एक चमचा खड़क उठा.

‘‘नहीं, साहब,’’ जयराम एकाएक पटरी से उतर गया, ‘‘इतने से तो मेरी बहन की शादी हो जाएगी.’’

सब के चेहरे उतर गए. बकरा हलाल हुए बगैर निकल भागने की कोशिश में था. तुरंत ही पकड़ मजबूत की गई.

अब एक गुंडा किस्म का कार्यकर्ता गुर्राया, ‘‘कोई बहाना नहीं चलेगा बे. पहले पूरे कसबे में कहता डोल रहा था, मंत्रीजी नाश्ता मेरे यहां करेंगे, अब मुकर कर ज्यादा होशियार बनना चाहता है?’’

‘‘नहीं, फजलू दादा, ऐसी बात नहीं है. मेरे घर में बहुत तंगहाली है. पिताजी ने तो बरसों से खाट पकड़ रखी है. मैं ने बीच में पढ़ाई छोड़ कर टाइपिंग सेंटर इसीलिए खोला है. धंधा अभी जमा नहीं. आधी कमाई दुकान का किराया और बैंक की किस्त चुकाने में चली जाती है. किसी तरह 10 जनों का पेट भर रहा हूं.’’

फजलू उसे लाल आंखों से घूरता रहा. नजर नीची कर फंसे गले से जयराम फिर बोला, ‘‘मंत्रीजी को नाश्ता कराने से मुझे क्या फायदा होगा? क्या बैंक ऋण माफ हो जाएगा? उलटे ज्यादा कर्ज में फंस जाऊंगा मैं.’’

‘‘जयराम बेटे, पैसा हाथ का मैल है,’’ रुद्राक्षधारी एक बुजुर्ग नेता ने उस के कंधे को थपथपाया, ‘‘यहां सवाल मान का है, प्रतिष्ठा का है. द्वापर में सुदामा श्रीकृष्ण के घर गए थे और कलयुग में तो स्वयं कृष्ण पधार रहे हैं सुदामा के घर. अरे, तुम्हें जो शोहरत और प्रतिष्ठा मिलेगी वह कम बात है क्या? तुम पढ़ेलिखे हो, सोचो, थोड़ा गहराई से सोचो.’’

जयराम बेबस हो गया. उस प्रभावशाली व्यक्तित्व और वक्तव्य के आगे उस की गति सांपछछूंदर की सी हो गई. उस का युवा अंतर्मन कहीं से पिघल कर आंखों में उतर कर बहने का यत्न करने लगा लेकिन उसे जज्ब कर गया वह.

तभी विद्युत विभाग के सहायक अभियंता ने नम्रतापूर्वक कहा, ‘‘जयराम, कितना अजीब है यह, विद्युत मंत्री घर पधारें और यहां बिजली नहीं. फिटिंग फटाफट करवा लो, मैं तुरंत बिजली देने का आदेश कर देता हूं.’’

और 3 दिन बीत गए. क्या न हुआ उन 3 दिनों में. जयराम के घर का कायापलट हो गया. सबकुछ खुदबखुद वैसे हो रहा था जैसे ‘जयसंतोषी मां’ फिल्म में होता है. जयराम महज मूकदर्शक था.

सर्वप्रथम, मकान की मरम्मत करने कारीगर आए और टूटफूट सुधार गए. फिर आया बिजली फिटिंग वाला मिस्त्री, तत्पश्चात पुताई करने वाले मजदूर आए और इमारत को चमका गए. शाम तक बिजली लग गई. उस के घर के सामने वाले मैदान को साफ कर दिया गया. गड्ढे पाट दिए गए. मैदान में सुनहरी बालू सब जगह बिखेर दी गई. यह नगर पालिका की मेहरबानी थी.

तीसरे दिन सुबह ही टैंट हाउस वाले खुदबखुद चले आए. मैदान में कनातें, चांदनी, मेजकुरसियां लगा दी गईं. कोई मनचला कहीं से माइक और रेकार्डप्लेयर लाया और उस पर बजने लगा, ‘आज मेरे यार की शादी है…’

नाश्ते का पूरा सामान, वैवाहिक भोज की व्यवस्था करने वाला एक दलाल ले आया. इस तरह जयराम को कतई भागदौड़ नहीं करनी पड़ी.

यह सब हो रहा था स्थानीय नेताओं के आदेश पर, जो नहीं चाहते थे कि मंत्रीजी के स्वागत में कोई खामी रहे. यह सही था, खद्दरधारी नेताओं ने जयराम को बागी न होने दिया क्योंकि वे तो बागियों को आत्मसमर्पण करवाने में माहिर थे. फिर जयराम से उन्हें खटका भी पूरा था. अब वे निश्चिंत थे.

बहरहाल, निश्चित समय से कुछ ही घंटों बाद मंत्री महोदय पूरे लवाजमे सहित पधारे. हालांकि वक्त भोजन का हो गया था किंतु इस महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम को संपन्न करना अत्यावश्यक समझा गया.

मंत्रीजी और अन्य लोग कुरसियों पर बैठ गए. जिन्हें जगह न मिली वे खड़े रहे. परोसने वाले, बरसातकीट- पतंगों की तरह  प्रकट हो गए. दनादन सामग्री परोसी जाने लगी. धड़ाधड़ प्लेटें साफ होने लगीं. बहुतों ने बहती गंगा में हाथ धो लिए.

मंत्रीजी की प्लेट पूरी भरी थी. उन के हाथ में अधखाया नमकीन काजू का टुकड़ा था. उन्हें लोगों की बात सुनने और मुसकराने से कुछ फुरसत मिलती तो खा पाते. फोटोग्राफर उस मुद्रा को कैमरे में कैद करने में मशगूल थे. जो लोग मंत्री महोदय के नजदीकी थे उन्होंने मंत्रीजी की प्लेट भी साफ कर दी.

ऊंची नजर किए हुए ही मंत्री महोदय ने प्लेट में हाथ मारा और खाली महसूस कर चौंकते हुए नीचे देखा. बेवजह मुसकराए और तपाक से खड़े हो गए.

उस भीड़ में जयराम नजर न आ रहा था. उस का वजूद मंत्रीजी के सामने अति नगण्य था और थी किसे फुरसत जो जयराम को याद रखे. पूरा माहौल मंत्रीमय था. मंत्रीजी कार में बैठे. कारें, जीपें, स्कूटर वगैरह घरघरा कर चालू हुए और काफिला उड़ चला. जो पैरों पर सवार थे वे पैदल ही दौड़ लिए. सेठ मुरारीलाल की कोठी बगल में ही थी.

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दुलहन सरीखी कोठी से बाहर आ कर सेठजी ने मंत्री महोदय को माल्यार्पण किया. छायाकारों ने वह चित्र खींचने के लिए दनादन फ्लैश चमकाए. भोजन के दौरान सेठ मुरारीलाल ने एक ऐसा लाइसेंस स्वीकृत करा लिया जिसे हासिल करने के लिए उद्योगपतियों में तगड़ी होड़ लगी थी. तत्पश्चात मिल का भव्य उद्घाटन हुआ, जिस में मंत्री महोदय ने मिल उद्योग के लिए एकाध रियायतों की घोषणा की.

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उधर एकदम अकेला जयराम, कारवां गुजर जाने के बाद गुबार को देख रहा था. सीधीउलटी कुरसियां, साबुत- टूटी प्लेटें, गिलास और हाथ धोने के पानी से फिर पैदा हुआ कीचड़.

दूसरे दिन समाचारपत्रों की सुर्खियां इस तरह थीं : ‘मंत्री महोदय का अनूठा कदम, गरीब के घर नाश्ता’ समाचार खासा लंबा था, किंतु जयराम का कहीं उल्लेख नहीं था. सेठ मुरारीलाल की मिल का उद्घाटन करते हुए मंत्री महोदय द्वारा कुछेक रियायतों की घोषणा. यह समाचार सचित्र था, जिस में मंत्रीजी का स्वागत सेठजी कर रहे थे.

उसी रोज जयराम के घरदुकान पर हर घंटे कोई न कोई आता रहा. सभी भुगतान का तकाजा ले कर आए थे. मकान मरम्मत करने वाले कारीगर, बिजली फिटिंग का कार्य करने वाला मिस्त्री, पुताई मजदूर, टैंट हाउस वाला, नाश्ते की सामग्री की व्यवस्था करने वाला दलाल वगैरह.

तभी एक झलकी और दिखी. बिजली विभाग का लाइनमैन खंभे पर चढ़ा और खटाक से जयराम के घर का विद्युत संपर्क काट दिया गया. आखिरकार वह संपर्क अस्थायी ही तो था. उसी के बाजू में सेठ मुरारीलाल की नई चावल मिल धड़धड़ करती चल पड़ी थी.

प्रभाशंकर उपाध्याय ‘प्रभा’     

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