‘‘जीवन में मृत्यु निश्चित है’’ -इस उक्ति में संशोधन करते हुए आधुनिक अर्थशास्त्र के प्रवर्तक कहे जाने वाले एडम स्मिथ ने कहा था, ‘‘जीवन में मृत्यु और कर, दो ऐसी चीजें हैं जो अपरिहार्य हैं और इन से बचा नहीं जा सकता.’’ यदि एडम स्मिथ आज के युग में होता तो वह तीसरी अपरिहार्यता या विवशता की ओर भी अवश्य ही संकेत करता और यह तीसरी अपरिहार्य वस्तु होती—आम आदमी द्वारा सरकारी दफ्तरों में जाने की जानलेवा विवशता.
हम तो कहते हैं कि आप के दुश्मन को भी सरकारी दफ्तर में न जाना पड़े. पर इस के बावजूद शायद यह प्रकृति की विवशता है कि आप जिस से मुक्ति चाहते हैं उस से बचा नहीं जा सकता. जन्म से पहले ही प्रसव के लिए भावी माता ने सरकारी अस्पताल में नाम लिखवा रखा हो तो आश्चर्य की बात नहीं. फिर जन्म के पंजीयन से ले कर मृत्यु तक आप को सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने ही काटने हैं.
यह तो सरकार की कृपा ही है कि आप को अपनी मृत्यु का भी खुद ही पंजीयन नहीं करवाना पड़ता. पर मृत्यु का पंजीयन कराना आप के उत्तराधिकारियों के लिए आवश्यक है. इस बात की सूचना आएदिन समाचारपत्रों और टेलीविजन द्वारा दी जाती है. पर इस के बावजूद आप ने अकसर समाचारपत्रों में पढ़ा होगा कि अमुकअमुक की मृत्यु के बाद भी उस के नाम सरकारी आदेश जारी होते रहे. उस का राशन भी लिया जाता रहा और वह सरकारी कागजों में बाकायदा जीवित रहा.
यदि आप भूल से बीच के किसी माह की पेंशन नहीं लेते हैं और यह गलती बाद के कुछ महीनों की पेंशन लेने के बाद सामने आती है तो आप को यह प्रमाणपत्र भी देना होगा कि आप 6 माह पूर्व भी जीवित थे. आप चाहे आज जिंदा हों, पर इस से पूर्व भी आप जीवित थे, इस के पुख्ता प्रमाण के बिना आप के कागज आगे नहीं सरकेंगे.