एक शाम थाने के नाम

मजाक-

एक लंबी सांस लेने के बाद प्रभु दयाल अपने घर की ओर जा रहा था कि उस ने देखा कि लालबत्ती के पास कुछ लोग जमा हो रहे हैं.

माजरा क्या है, यह जानने के लिए जब वह उन लोगों के पास पहुंचा तो पता चला कि जेब काटने के दौरान मिले माल के बंटवारे को ले कर 2 जेबकतरे आपस में झगड़ रहे थे.

तभी गश्त पर निकले 2 पुलिस वाले मोटरसाइकिल पर वहां आ धमके. होशियार लोग तो वहां से खिसक गए, लेकिन प्रभु दयाल पुलिस वालों के हत्थे चढ़ गया.

एक पुलिस वाला प्रभु दयाल की कलाई जोर से पकड़ कर बोला, ‘‘चल, थाने चल. चौकचौराहे पर झगड़ाफसाद करता है, दंगा करता है…’’

घबराया हुआ प्रभु दयाल घिघियाते हुए बोला, ‘‘अरे भाई साहब, मैं शरीफ आदमी हूं. मैं ने कुछ नहीं किया है. मुझे क्यों पकड़ रहे हैं? दंगा करने वाले बदमाश तो भाग गए.’’

दूसरा पुलिस वाला थोड़ा अकड़ कर बोला, ‘‘थाने चल, वहीं तुझे सब बताएंगे.’’

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चौकचौराहे पर पुलिस के डंडे खाने के बजाय प्रभु दयाल ने थाने चलने में ही भलाई समझी.

थाने में प्रभु दयाल को जिस सबइंस्पैक्टर के सामने पेश किया गया, वह पहले से ही थाने लाए गए कुछ लोगों से निबटने में लगा था.

सबइंस्पैक्टर एक नौजवान को डांट रहा था, ‘‘देखो, तुम ने सरकारी जमीन को घेर कर रेहड़ी लगा रखी है. तुम्हारी अच्छी आमदनी होती है, तो फिर बीट कांस्टेबल से झगड़ा क्यों करते हो?

‘‘आपसी तालमेल से सब ठीकठाक चलता रहेगा. बीट कांस्टेबल जो कहता है मान लो, अकेले सब हजम करना तो ठीक नहीं है.’’

वह नौजवान घिघियाता हुआ बोला, ‘‘साहबजी, कोई नौकरी न मिलने पर ही यह काम शुरू किया था.

‘‘देखने से ही ऐसा लगता है कि हमें खूब कमाई हो रही है, पर हकीकत में ऐसा नहीं है. पुलिस वाले हर महीने पैसे बढ़ा कर लेना चाहते हैं. बताइए, उन को हम कैसे खुश रखें? आप मालिक हैं, हमें इंसाफ दीजिए.’’

सबइंस्पैक्टर पानी के साथ दवा की गोली गटकते हुए बोला, ‘‘हम फुजूल में किसी को तंग नहीं करना चाहते. तुम थोड़े कहे को ही ज्यादा समझो. बीट अफसर को खुश रखो. अब भाग लो यहां से. आगे से कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए. पानी में रह कर मगर से बैर न पालो.’’

अब अगला नंबर एक एसटीडी बूथ चलाने वाले का था. सबइंस्पैक्टर उस आदमी से बोला, ‘‘लालाजी, तय रेट से ज्यादा पैसा वसूल रहे हो. बहुत बड़ा जुर्म है यह. जेल में चक्की पीसनी पड़ेगी. तुम्हारे खिलाफ जो शिकायतें आई हैं, उन का निबटारा कर लो, नहीं तो तुम्हारे साथ बुरा हो सकता है. समझ गए न?’’

अब अगला नंबर प्रभु दयाल का था. सबइंस्पैक्टर प्रभु दयाल को घूरते हुए बोला, ‘‘आंखों पर चश्मा, जेब में पैन. तुम तो काफी पढ़ेलिखे लगते हो, फिर भी चौकचौराहे पर दंगा क्यों कर रहे थे? सबकुछ खुद ही बता दो. मेरा गुस्सा बहुत बुरा है. तुम मुझे गुस्सा मत दिलाना, नहीं तो बड़ी मार खाओगे.’’

प्रभु दयाल बोला, ‘‘गुस्सा आप की सेहत के लिए अच्छा नहीं है साहब. हाई ब्लड प्रैशर के मरीज को तो गुस्से से हमेशा दूर ही रहना चाहिए.’’

सबइंस्पैक्टर हैरान हो कर बोला, ‘‘तुम्हें कैसे पता है कि मैं हाई ब्लड प्रैशर का मरीज हूं? यह तो कमाल है.’’

प्रभु दयाल बोला, ‘‘साहबजी, यह तो छोटी सी बात है. मुझे तो यह भी मालूम है कि कुछ देर पहले आप कोर्ट में पेश होने वाले बदमाशों की फाइल की लिखापढ़ी में लगे थे. मैं ठीक कह रहा हूं न?’’

सबइंस्पैक्टर को लगा जैसे उस के सामने एक ऐसा आदमी खड़ा है, जो दीवारों के आरपार देख सकता है.

लोहा गरम देख प्रभु दयाल ने एक और चोट की, ‘‘साहबजी, मुझे तो यह भी पता?है कि आज आप ने चावल और रोटी के साथ कौन सी सब्जी खाई है. आज आप ने लंच में कद्दू की सब्जी खाई है. ठीक कहा न?’’

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सबइंस्पैक्टर को ऐसा लग रहा था, जैसे उस की कुरसी के नीचे से जमीन खिसक रही है. ऐसे सच्चे भविष्य बताने वाले से तो उस का जिंदगी में कभी सामना ही नहीं हुआ था.

सबइंस्पैक्टर प्रभु दयाल के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘आप तो सबकुछ जानते हैं. मैं और मेरे बीवीबच्चों के बारे में भी कुछ बताइए. मैं खुशकिस्मत हूं कि आप जैसे बड़े लोगों के दर्शन हो गए.

‘‘यहां पास ही में मेरा फ्लैट है. क्या आप मेरे घर चल कर कुछ चायनाश्ता करेंगे? इसी बहाने ही सही, आप के साथ मिलनेबैठने का मौका मिल जाएगा.’’

प्रभु दयाल बोला, ‘‘फिर किसी दिन सही. आज बस इतना ही.’’

सबइंस्पैक्टर जैसे ही प्रभु दयाल के पैर छूने को आगे बढ़ा, प्रभु दयाल दूर हटते हुए बोला, ‘‘अजी साहब, ऐसा गजब मत कीजिए. अभी तो मैं अपने घर लौटना चाहूंगा, फिर किसी दिन फुरसत से आऊंगा.’’

सबइंस्पैक्टर गरजा, ‘‘मुबारक सिंह, भाई साहब को थाने की जीप में घर छोड़ कर आओ.

‘‘और हां, रास्ते में भोलू हलवाई की दुकान से साहब के बच्चों के लिए 5 किलो देशी घी के गुलाब जामुन दिलवा देना.’’

उधर महल्ले वाले प्रभु दयाल को थाने की जीप से उतरते व पुलिस द्वारा अदब से सलाम मारते देख हैरान थे. कुछ नौजवान भी वहां खड़े थे. उन में से एक ने कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘हमें तो पहले से ही शक था कि अपने में मस्त रहने वाला हमारा यह पड़ोसी प्रभु दयाल बड़ी ऊंची चीज है. थाने की जीप में आया है.’’

इधर, सारी बातें जानने के बाद प्रभु दयाल की बीवी हैरान हो कर पूछ रही थी, ‘‘शेर के मुंह में जाने के बाद भी आप सहीसलामत वापस कैसे आ गए? और साथ में देशी घी के गुलाब जामुन भी ले आए. कैसे हुआ यह चमत्कार? आप को तो ज्योतिष के बारे में कुछ भी नहीं आता, फिर वहां आप भविष्य बताने वाले कैसे बन गए?’’

प्रभु दयाल थोड़ा मुसकरा कर बोला, ‘‘अगर ज्योतिष के द्वारा कुछ बताया जा सकता, तो वाजपेयीजी समय से पहले चुनाव करा कर गद्दी नहीं खोते. ओसामा बिन लादेन कहां छिपा है, यह कब का पता लग गया होता. ज्योतिष के नाम पर जो बातें मैं ने सबइंस्पैक्टर को बताई थीं, वे तो कोई भी बता सकता था…’’

प्रभु दयाल ने राज खोला, ‘‘मैं ने देखा था कि पानी मंगा कर सबइंस्पैक्टर ने एनवास-10 की गोली गटकी थी. इस का मतलब यही था कि वह हाई ब्लड प्रैशर का मरीज है.

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‘‘लिखते हुए शायद रिफिल लीक कर गई थी, जिस से उस की उंगली में स्याही लगी थी. इस से साफ जाहिर था कि उस ने थोड़ी देर पहले लिखाई का काम किया है.

‘‘उस की मूंछों में कद्दू की सब्जी का एक छोटा टुकड़ा फंसा हुआ था यानी दोपहर को उस ने कद्दू की सब्जी खाई थी.

‘‘मैं बेकुसूर था और बेमतलब ही फंसाया जा रहा था, सो बचने के लिए ही सबइंस्पैक्टर के सामने मैं ने कुछ बातें हवा में उछाल दी थीं. मेरे बुरे समय पर हाजिरजवाब होने की नीति काम कर गई थी.

‘‘मैं ने उन से एक बार भी नहीं कहा कि मैं कोई पहुंचा हुआ पीरपंडित या भविष्य बताने वाला हूं. अब वह अपनी समझ से खुद ही यह मानने लगा था कि मैं कोई बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं, तो उस हालत में मैं क्या कर सकता था? अंधविश्वासी लोग अकसर अपने जाल में खुद ही फंस जाते हैं.’’

प्रभु दयाल की बीवी बोली, ‘‘आप ने तो कहीं भी कोई गलतबयानी नहीं की. दूसरों की मेहनत की कमाई और हक पर हिस्सापत्ती चाहने वाले ऐसे लोगों को तो सेर का कोई सवा सेर मिलते ही रहना चाहिए.’’

फिर पत्नी अपने बड़े बेटे को बुला कर बोली, ‘‘बेटा, गुलाब जामुन की यह हांड़ी गरीबों में दे आ. कहीं इस धौंसपट्टी की कमाई को खाने से हमारे बच्चों पर भी बुरा असर न पड़ जाए.’’

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कातिल

लेखक- भीमराव रामटेके ‘अनीश’

‘‘कुछ नहीं सर, वह कल वाला फिटनैस सर्टिफिकेट देने का हिसाब देना था. ये जीनियस स्कूल की 10 बसों के 5 लाख रुपए हैं. 50,000 के हिसाब से, 60,000 के लिए वे नहीं माने. कह रहे थे कि साहब का बच्चा पढ़ता है हमारे स्कूल में, तो इतनी छूट तो मिलनी ही चाहिए, तो मैं ने भी ले लिए,’’ कहते हुए मुकेश ने एक बड़ा सा लिफाफा अपने बैग से निकाल कर सुनील के हाथ में दे दिया.

‘‘यार, फिर तुम एजेंट किस काम के हो… जब पहले ही बात हो गई थी तो पूरे ही लेने थे न… चलो, ठीक है.

‘‘अच्छा, आज मैं 3 बजे निकल जाऊंगा. मेरे बेटे का बर्थडे है… तो कल मुलाकात होगी,’’ सुनील लिफाफा सूटकेस में रखते हुए बोला और अपने काम में लग गया.

3 बजे सुनील अपनी कार से घर के लिए चल दिया. जैसे ही उस ने हाईवे पर मोड़ काटा, तो थोड़ी ही दूरी पर उसे जीनियस स्कूल की बस नजर आई.

‘अरे… 18 नंबर… यह तो चंकी की बस है…’ सुनील सोच ही रहा था कि बस को रुकवा कर उसे अपने साथ ले जाए कि अचानक बस लहराती हुई दूसरी तरफ उछली और सामने से आने वाले ट्रक से उस की जोरदार टक्कर हो गई. बच्चों की चीखों से आसमान जैसे गूंज उठा.

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सुनील का कलेजा कांप उठा. वह गाड़ी को ब्रेक लगा कर रुका और जल्दी से बस के अंदर घुसा.

अंदर का सीन देख कर सुनील के होश उड़ गए. बुरी तरह से जख्मी बच्चों की चीखें उस के कलेजे पर हथौड़े की तरह लग रही थीं. जैसे उस से कह रही हों कि तुम्हीं ने हमें मारा है. उस की नजरें तलाशती हुई जैसे ही चंकी पर पड़ीं, उस के तो मानो हाथपैर ठंडे पड़ गए.

चंकी के सिर और हाथों से खून बह रहा था. उस की सारी यूनीफौर्म खून से लथपथ हो चुकी थी और वह सिर पकड़ कर तड़पता हुआ जोरजोर से ‘मम्मीमम्मी’ चिल्ला रहा था.

सुनील ने तुरंत अपनी शर्ट उतार कर उस के सिर पर बांधी और उसे गोद में ले कर कार की तरफ दौड़ लगा दी. उसे कार में बिठा कर पास के ही अस्पताल की ओर तेजी कार से बढ़ा दी.

अस्पताल पहुंचते ही चंकी को स्ट्रैचर पर लिटा कर इमर्जैंसी में ले जाया गया.

सुनील ने कांपते होंठों से डाक्टर को हादसे की जानकारी दी… तुरंत ही इलाज शुरू हो गया.

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सुनील जरूरी कार्यवाही पूरी कर के बैठा ही था कि 2 एंबुलैंस आ कर रुकीं और उन में से ड्राइवर, कंडक्टर और कुछ बच्चों को निकाल कर स्टै्रचर पर लिटा कर अस्पताल के मुलाजिम उन्हें अंदर ले आए.अस्पताल में अफरातफरी का माहौल हो गया. नर्स ने बताया कि 8 बच्चों सहित ड्राइवर की मौत हो गई है. यह सुन कर सुनील पसीने से तरबतर

हो गया.‘तेरी रुपयों की हवस ने ही इन्हें मारा है… अगर तू उन खराब बसों को फिटनैस सर्टिफिकेट नहीं देता तो यह हादसा नहीं होता… तू ने ही अपने बेटे को जख्मी कर मौत के हवाले कर दिया है. तू ही कातिल है इन सब मासूम बच्चों का…’सुनील की पैसे की हवस जैसे पिघल कर उस की आंखों से बह रही थी.

मुख्यमंत्री रोहरानंद चले विदेश!

कहानी-हास्य

दोस्तों! तकदीर सबकी यूं ही नहीं खुलती,अब देखो आप और मैं, हम में कितना अंतर है .आप आम आदमी हैं, मैं भाग्य से मुख्यमंत्री हूं.आपने व्होट दिया, आप अगर वोट न देते,तो मैं मुख्यमंत्री भला कैसे बनता ? मगर, आप प्रदेश की तरक्की में अपनी भूमिका निभाईये मैं रोहरानंद मुख्यमंत्री, आपके व्होट की बदौलत दुनिया जहान के सुख भोग रहा हूं… मैं अमेरिका जा रहा हूं .हे! मतदाताओं…!! मैं आपको बताकर, अधिकारपूर्वक विदेश जा रहा हूं. आपने अपना कर्तव्य, ईमानदारी से निभाया है. आपने अपने बहुमूल्य मत का उपयोग किया, विधायक चुने, फिर विधायकों ( माफ करिए आलाकमान, पार्टी ) ने मुझे अपना वफादार सेवक माना और मैं मुख्यमंत्री बन गया. प्रदेश का मुखिया बनने के पश्चात, हालांकि आपकी और हमारे बीच की दूरियां बढ़ गई हैं. यह स्वभाविक है. यही लोकतंत्र है, जैसे ही मैं मुख्यमंत्री बना मेरी अंतरात्मा ने करवट बदली… मैं विशिष्ट बन गया .अब मैं आपसे दूर दूर रहता हूं. आप मुझसे सीधे नहीं मिल सकते.

दोस्तों…! यह सच है, कि मैंने कभी स्वपन में भी कल्पना नहीं की थी, कि मैं कभी मुख्यमंत्री बन जाऊंगा. मैं साफगोई से स्वीकार करता हूं कि मेरी तो लॉटरी ही निकल आईं है.मेरे इस सत्य स्वीकारोक्ति का प्लीज बतंगड़ मत बनाना. मैं स्पष्ट शब्दों में साहस के साथ कहना चाहूंगा कि मैं मुख्यमंत्री बनते ही, आप लोगों से बहुत बहुत दूर हो गया हूं. रूपक स्वरूप इस तरह समझे जैसे मनुष्य से चांद दूर है,जैसे आम आदमी से अमेरिका दूर है. मगर मैं ईमानदार इंसान हूं. राजनीतिज्ञ की बात में नहीं करता . राजनीतिज्ञ के रूप से मेरे चेहरे पर अनेकानेक मुखोटे लगे हुए हैं.

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हे मतदाताओं..!में यह कहने में कोई गुरेज नहीं करता कि आप भी जब मुख्यमंत्री बन जाएं तब मेरी ही तरह खूब सुख भोगना. जैसे मेरी फितरत देख रहे हो न… वैसी करना. कुर्सी की सौगंध मैं एक बार भी कुछ नहीं बोलूंगा. मैं बुरा भी नहीं मानूंगा.आप मेरी ही तरह जनता जनार्दन से दूर दूर रहना और पद की गरिमा को मेंटेन करना, तब मैं आम आदमी रहूगां, मगर मैं बुरा नहीं मानूंगा. आज जैसे आपके साथ मैं व्यवहार कर रहा हूं आप करना सच में बुरा नहीं मानूंगा .मैं मिलने आऊंगा, आप के चरण स्पर्श करूंगा तब मेरी और देखना भी मत. बस…

दोस्तों! मुख्यमंत्री बनने के बाद यह रोहरानंद परिपक्व हुआ है .बहुतेरी बातों को मैंने समझा है , जिसको आपसे शेयर करने में मुझे कोई संकोच नहीं है .मैं जान गया हूं यह परम सत्य है कि जैसे यह जीवन भाग्य से मिलता है, वैसे ही लोकतंत्र में भाग्य से मैं मुख्यमंत्री बन गया हूं. और जब भाग्य ने साथ दिया है तो क्यों न मैं जीवन का हर सुख भोग लूं. फिर पता नहीं मौका मिले या न मिले. मैं यह सत्य जान गया हूं कि मेरे कई सीनियर टापते रह गए . मेरे कई जूनियर इंतजार कर रहे हैं कि छींका कब टूटे.

हे मतदाताओं … इस जीवन दर्शन के पश्चात मै अमेरिका जा रहा हूं. मैं मुख्यमंत्री रहते रहते चीन, ब्रिटेन, रूस, जापान, जर्मनी अर्थात दुनिया के संपूर्ण 189 देशों को घूम लेना चाहता हूं . यही नहीं स्वीटजरलैंड मैं अवश्य जाऊंगा, बारंबार जाऊंगा क्योंकि इस देश से मैं कुछ ज्यादा ही प्रेम करता हूं. क्योंकि यहां एक से एक बैंक है. यहां मैं खाता भी खुलवाना चाहूंगा.क्योंकि हम उच्च श्रेणी के मुख्यमंत्रियों के मध्य अक्सर यह शिगुफा चलता है कि जिस मुख्यमंत्री का स्विजरलैंड में बैंक अकाउंट नहीं है, भला वह भी कोई मुख्यमंत्री है .तो मैं इसे ठीक करूगा. क्योंकि इज्जत का सवाल तो आपका है न. लोग क्या कहेंगे, कैसे लोग हैं इनके मुख्यमंत्री का एक अदद खाता भी स्विजरलैंड में नहीं है.

दोस्तों… मैं मुख्यमंत्री बनकर खुद तो दुनिया घूम ही रहा हूं,मुझे यह बताते काफी हर्ष हो रहा है कि मैं परिवार, धर्म पत्नी और बच्चों को भी घुमा रहा हूं. अगर मेरे मन में चोर होता तो यह सच्चाई में कदापि नहीं बताता. छुपकर सपरिवार चला जाता,आप ( तुम ) क्या कर लेते ? मगर मैं एक साफ दिल मुख्यमंत्री हूं अतः जो भी करता हूं आप सभी को स्पष्ट बता कर करता हूं. क्योकि मैं जानता हूं बताऊंगा तो भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, क्योंकि संवैधानिक रूप से मैं मुख्यमंत्री हूं ।और मुझे आपके हित में कोई भी निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार है. वह इस तरह, कि मैं जिस परंपरा का पालन कर रहा हूं वह पूर्ववर्ती है,और आप के भले के लिए है, कल आप भी सपरिवार जा सकेंगे.

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हे मतदाताओं! में अमेरिका जा रहा हूं… मैं अपना जन्मदिन अबकी वही मनाऊंगा. देखो, यहां मनाता तो क्या आनंद आता ? जिंदगी भर तो यही धूल धक्कड़ खाता रहा हूं .समय मिला है, उसका भरपूर लाभ उठाना ही बुद्धिमत्ता है .यहां रखा क्या है ? अमेरिका में जीवन है, सुख है ऐश्वर्य है. मैं तो कहता हूं जिसने अमेरिका में जन्म दिवस नहीं मनाया वह जन्मा ही नहीं है.

दोस्तों ! बतौर मुख्यमंत्री, मैं अमेरिका जा रहा हूं….मैं जा रहा हूं …अर्थात प्रदेश का हर नागरिक जा रहा है.आखिरकार में प्रत्येक नागरिक का प्रतिनिधित्व ही हूं. मै आनंद उठाऊंगा,मैं समझूंगा मेरे प्रदेश के प्रत्येक नागरिक ने सदुपयोग किया. मैं मुख्यमंत्री के रूप में बेशकीमती सुख, सुविधाओं का उपयोग करूंगा समझूंगा मेरे मतदाता भी मेरे साथ आनंद उठा रहे हैं.देखिए मेरा हृदय कितना विशाल है. हे मतदाताओं… में बड़ा ही सहृदय मुख्यमंत्री हूं. आशा है आप भी सहृदयता का परिचय देंगे. जब दूरदर्शन, टीवी और समाचार पत्रों में मेरे अमेरिका दौरे की खबर पढेंगे, तो उसे सकारात्मक दृष्टि से लेंगे.

शेष फिर ( तुम्हारा ) रोहरानंद.

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ठोको ताली: शिल्पा ने कैसे सिखाया अनूप और सीमा को सबक?

लेखिका- मधु जैन 

“शिल्पा आज अनूप का फोन आया था.”

“ओफ्फो!! फिर से…”

“अरे! परेशान होने की बात नहीं मैंने कह दिया हम दो दिन के लिए बाहर जा रहे हैं.”

“हम इस तरह कब तक मुंह चुराएंगे, कुछ ऐसा करना पड़ेगा कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.”
अनूप शिल्पा के छोटे भाई का दोस्त है. इसीलिए शिल्पा से पहले से परिचित भी है. नई शादी और उसके ही शहर में रहने के कारण शिल्पा जब भी कुछ नया बनाती उन दोनों को बुला लेती. वह नहीं जानती थी कि वह आ बैल मुझे मार वाला काम कर रही है.

वैसे भी शिल्पा को खाना बनाना और खिलाना दोनों में ही मजा आता था. पर अब तो अनूप और उसकी पत्नी सीमा कभी भी किसी समय आ धमकते और खाने की फरमाइश कर देते.

शिल्पा ने तो उन्हें अंगुली पकड़वाई थी पर वह तो पौंचा ही पकड़ बैठे. उस दिन शिल्पा खाने से फुरसत ही हुई थी कि ये दोनों आ गये.

“शिल्पा दी आज तो आपके हाथ की कढ़ी चावल खाने का बहुत मन हो रहा है.”
“दी, कढ़ी बनाती भी तो इतनी अच्छी है.” मस्का लगाते हुए सीमा बोली.
“दी, वो पकौड़े वाली कढ़ी बनाना और थोड़े पकौड़े ज्यादा बना लेना सूखे खाने के लिए.”

शिल्पा के तो तन बदन में आग सी लग गयी थी फिर भी बनावटी मुस्कान ओढ़कर खाना बनाया. शिल्पा ने अब इन्हें सबक सिखाने का मनसूबा बना लिया था.

शर्मा जी के बेटे की बर्थडे पार्टी से लौटने के बाद शिल्पा काफी थकावट महसूस कर रही थी और बर्तन वाली न आने से बर्तन भी पड़े थे. थोड़ी देर आराम करने की सोच कर लेट गई. तभी उसे अनूप की आवाज सुनाई दी “जीजा जी आज हमारा मन आलू के पराठें खाने का हो रहा था और दीदी के हाथ के पराठों का तो जवाब ही नहीं. बाजार में भी इतने अच्छे नहीं मिलते.”

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शिल्पा ने एक चुन्नी सिर पर बांधी और बाहर आकर बोली “मेरे सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है अच्छा हुआ सीमा तुम आ गयीं पहले तो सबके लिए चाय बना लाओ.”

पति को चुप रहने का इशारा करती हुई “और हां कुकर धोकर आलू उबलने रख देना, बाई नहीं आई न. आज मैं तुम्हें आलू के पराठें बनाना सिखाऊंगी. आखिर तुम्हें भी तो अनूप की पसंद सीखना होगी.”

प्यार से “तुम तो अपनी हो, तो तुमसे कहने में क्या संकोच मेरी तो तबीयत ठीक नहीं है तो तुम्हें ही चारों के लिए पराठें बनाना होगें.”

चाय से ज्यादा तो सीमा का मन उबल रहा था.”क्या मैं नौकरानी हूं? जो बर्तन भी साफ करूं और सबके लिए पराठें भी बनाऊं.” अनूप से भी बात नहीं कर पा रही थी.

उसने अनूप को व्हाट्सएप पर सारी परेशानी बताई. और साथ ही उपाय भी.

चाय पीने के बाद कप रखने के बहाने अंदर जाकर सीमा ने अनूप को फोन लगाया .

फोन उठाते ही अनूप बोला. जी सर अभी घर पहुंच रहा हूं

“किसका फोन था?” शिल्पा ने पूछा.

“वो दीदी बौस का फोन है घर पर आ रहे हैं तो हमें निकलना पड़ेगा.”

“कोई बात नहीं फिर कभी, जब भी आओगे हम सीमा के हाथ के पराठें खा लेगें.”

अब तो अनूप और सीमा ऐसे नौ दो ग्यारह हुए कि शिल्पा के घर का रास्ता ही भूल गये.

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बदला नजरिया

कोठी तक पहुंचने में उसे करीब 15 मिनट लगे. अंदर घुसते ही उस की सास सुमित्रा ने उसे आवाज दे कर अपने कमरे में बुला लिया.

‘‘शिवानी, तुम कहां चली गई थीं?’’ सुमित्रा नाराज और परेशान नजर आईं.

‘‘मम्मीजी, केमिस्ट से बैंडएड लाने गई थी,’’ शिवानी डरीसहमी बोली, ‘‘सेब काटते हुए चाकू से उंगली कट गई थी.’’

‘‘देखो, सेब काट कर देने का काम कमला का है. हमारी सेवा करने की वह पगार लेती है. उस का काम खुद करने की आदत तुम्हें छोड़नी चाहिए.’’

‘‘जी,’’ सास की कही बातों के समर्थन में शिवानी के मुंह से इतना ही निकला.

‘‘बैंडएड लाने इतनी दूर तुम पैदल क्यों गईं? क्या ड्राइवर रामसिंह ने कार से चलने की बात तुम से नहीं कही थी?’’

‘‘कही थी, पर दवा की दुकान है ही कितनी दूर, मैं ने सोचा कार से जाने की अपेक्षा पैदल जा कर जल्दी लौट आऊंगी,’’ शिवानी ने सफाई दी.

‘‘इस घर की बहू हो तुम, शिवानी.  किसी काम से बाहर निकलो तो कार से जाओ. वैसे खुद काम करने की आदत अब छोड़ दो.

‘‘जी,’’ शिवानी और कुछ न बोल सकी.

‘‘मैं समझती हूं कि तुम्हें मेरी इन बातों में खास वजन नजर नहीं आता क्योंकि तुम्हारे मायके में कोई इस तरह से व्यवहार नहीं करता. लेकिन अब तुम मेरे कहे अनुसार चलना सीखो. हर काम हमारे ऊंचे स्तर के अनुसार करने की आदत डालो, और सुनो, नेहा के साथ डा. गुप्ता के क्लीनिक पर जा कर अपनी उंगली दिखा लेना.’’

‘‘मम्मीजी, जख्म ज्यादा गहरा… ठीक है, मैं चली जाऊंगी,’’ अपनी सास की पैनी नजरों से घबरा कर शिवानी ने उन की हां में हां मिलाना ही ठीक समझा.

‘‘जाओ, नाश्ता कर लो और सारा काम कमला से ही कराना.’’

अपनी सास के कमरे से बाहर आ कर शिवानी कमला को सिर्फ चाय लाने का आदेश दे कर अपने शयनकक्ष में चली आई.

समीर की अनुपस्थिति उसे बड़ी शिद्दत से महसूस हो रही थी. वह  सामने होता तो रोझगड़ कर अपने मन की बेचैनी जरूर कम कर लेती.

इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में वह अतीत की यादों में खो गई.

समीर के साथ उस का प्रेम विवाह करीब 3 महीने पहले हुआ था. एक साधारण से घर में पलीबढ़ी शिवानी एक बेहद अमीर परिवार की बहू बन कर आ गई.

समीर और शिवानी एम.बी.ए. की पढ़ाई के दौरान मिले थे. दोनों की दोस्ती कब प्रेम में बदल गई उन्हें पता भी न चला पर कालिज के वे दिन बेहद रोमांटिक और मौजमस्ती से भरे थे. शिवानी को समीर की अमीरी का एहसास था पर अमीर घर की बहू बन कर उसे इस तरह घुटन व अपमान का सामना करना पड़ेगा, इस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

शिवानी चाह कर भी ऐसे मौकों पर अपने मन की प्रतिक्रियाओं को नियंत्रण में न रख पाती. वह अजीब सी कुंठा का शिकार होती और बेवजह खुद की नजरों में अपने को गिरा समझती. ऐसा था नहीं पर उसे लगता कि सासससुर व ननद, तीनों ही मन ही मन उस का मजाक उड़ाते हैं. सच तो यह है कि उसे बहू के रूप में अपना कर भी उन्होंने नहीं अपनाया है.

हर 2-4 दिन बाद कोई न कोई ऐसी घटना जरूर हो जाती है जो शिवानी के मन का सुखचैन खंडित कर देती.

वह दहेज में जो साडि़यां लाई थी उन की खरीदारी उस ने बडे़ चाव से की थी. उस के मातापिता ने उन पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च किया था. पर यहां आ कर सिर्फ 2 साडि़यां पहनने की इजाजत उसे अपनी सास से मिली. बाकी सब को उन्होंने रिजेक्ट कर दिया.

‘बहू, साडि़यों में कोई बुराई नहीं है, पर इन की कम कीमत का अंदाजा मेरी परिचित हर औरत आसानी से लगा लेगी. तब मैं उन की मखौल उड़ाती नजरों व तानों का सामना नहीं कर सकूंगी. प्लीज, तुम इन्हें मत पहनना… या कभी मायके जाओ तो वहां जी भर कर पहन लेना.’

अपनी सास की सलाह सुन कर शिवानी मन ही मन बहुत दुखी हुई थी.

बाद में शिवानी ने गुस्से से भर कर समीर से पूछा था, ‘दूसरों की नजरों में ऊंचा बने रहने को क्या हमें अपनी खुशी व शौक दांव पर लगाने चाहिए?’

‘डार्लिंग, क्यों बेकार की टेंशन ले रही हो,’ समीर ने बड़े सहज भाव से उसे समझाया, ‘मां तुम्हें एक से एक बढि़या साडि़यां दिला रही हैं न? उन की खुशी की खातिर तुम ऐसी छोटीमोटी बातों को दिल से लगाना छोड़ दो.’

शादी के बाद समीर के प्रेम में जरा भी अंतर नहीं आया था. इसी बात का उसे सब से बड़ा सहारा था, वरना वह अपनी ससुराल वालों की अमीरी की दिखावट के कारण अपना बहुत ज्यादा खून फूंकती.

उस के ससुर रामनाथजी ने भी उस की इच्छाओं व भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया.

शिवानी समीर के बराबर की योग्यता रखती थी. दोनों ने एम.बी.ए. साथसाथ किया था. पढ़लिख कर आत्मनिर्भर बनने की इच्छा सदा ही उस के मन में रही थी.

समीर ने अपने खानदानी व्यवसाय में हाथ बंटाना शुरू किया. शिवानी भी वैसा ही करना चाहती थी और समीर को इस पर कोई एतराज न था. पर उस के ससुर रामनाथजी ने उस की बिजनेस में सहयोग देने की इच्छा जान कर अपना एकतरफा निर्णय पल भर में सुना दिया.

‘अपनी भाभी या बड़ी बहन की तरह से काम पर जाने की उसे न तो जरूरत है और न ही ऐसा करने की इजाजत मैं उसे दूंगा. अब वह मेरे घर की बहू है और उसे सिर्फ ठाटबाट व रुतबे के साथ जीने की कला सीखने पर अपना ध्यान लगाना चाहिए.’

एक बार फिर समीर उसे प्यार से समझाबुझा कर निराशा व उदासी के कोहरे से बाहर निकाल लाया था. अपने पति की गैरमौजूदगी में ससुराल की आलीशान कोठी में शिवानी लगभग हर समय घुटन व बेचैनी अनुभव करती. यद्यपि कभी किसी ने उस के साथ बदसलूकी या उस का अनादर नहीं किया था, फिर भी शिवानी को हमेशा लगता कि वह शादी कर के सोने के पिंजरे में कैद हो गई है.

कमला ने चाय की टे्र ले कर कमरे में प्रवेश किया तो शिवानी अतीत की यादों से उबर आई. उस के आदेश पर कमला चाय की टे्र मेज पर रख कर बाहर चली गई.

खराब मूड के चलते शिवानी ने कमरे में रखे स्टील के गिलास में चाय बनाई क्योंकि ठंडे मौसम में स्टील के गिलास में चाय पीने का उस का शौक वर्षों पुराना था.

पहली दफा उस की सास ने उसे स्टील के गिलास में चाय पीते देख कर फौरन टोका था, ‘‘बहू, वैसे तो चाय गिलास में भी पी जा सकती है… अपने मायके में तुम ऐसा करती ही रही हो, पर यहां की बात और है. अच्छा रहेगा कि कमला चाय की टे्र सजा कर लाए और तुम हमेशा कपप्लेट में ही चाय पीने की आदत बना लो.’’

आज बैंडएड वाली घटना के कारण शिवानी के मन में विद्रोह के भाव थे. तभी उस ने चाय गिलास में तैयार की और ऐसा करते हुए उसे अजीब सी शांति महसूस हो रही थी.

समीर फैक्टरी के काम से 3 दिन के लिए मुंबई गया था. उस की गैरमौजूदगी में शिवानी की व्यस्तता बहुत कम हो गई. चाय पीने के बाद उस ने कुछ देर आराम किया. फिर उठने के बाद वह अपने भैया के घर जन्मदिन पार्टी में शामिल होने गाजियाबाद जाने की तैयारी में लग गई.

सुमित्रा को जब पता चला कि बहू गाजियाबाद जाने की तैयारी कर रही है तो यह सोच कर वह भी पति रामनाथ सहित बहू के साथ हो लीं कि रास्ते में अपनी बहन सीमा से मिल लेंगी. मम्मी, पापा और भाभी को जाता देख कर नेहा भी उन के साथ हो ली.

सुमित्रा की बड़ी बहन सीमा की कोठी ऐसे इलाके में थी जहां का विकास अभी अच्छी तरह से नहीं हुआ था. रास्ता काफी खराब था. सड़क पर प्रकाश की उचित व्यवस्था भी नहीं थी. ड्राइवर रामसिंह को कार चलाने में काफी कठिनाई हो रही थी.

सुमित्रा जब अपनी बहन के घर पहुंचीं तो पता चला कि उन का लगभग पूरा परिवार एक विवाह समारोह में भाग लेने मेरठ गया हुआ था. घर में सीमा की छोटी बेटी अंकिता और नौकर मोहन मौजूद थे.

अंकिता ने जिद कर के उन्हें चाय पीने को रोक लिया. उन्हें वहां पहुंचे अभी 10 मिनट भी नहीं बीते थे कि अचानक हवा बहुत तेजी से चलने लगी और बिजली चली गई.

‘‘मैं मोमबत्तियां लाती हूं,’’ कहते हुए अंकिता रसोई की तरफ चली गई.

‘‘लगता है बहुत जोर से बारिश आएगी,’’ रामनाथजी की आवाज चिंता से भर उठी.

मौसम का जायजा लेने के इरादे से रामनाथजी उठ कर बाहर बरामदे की दिशा में चले. कमरे में घुप अंधेरा था, सो वह टटोलतेटटोलते आगे बढे़.

तभी एक चुहिया उन के पैर के ऊपर से गुजरी. वह घबरा कर उछल पड़े. उन का पैर मेज के पाए से उलझा और अंधेरे कमरे में कई तरह की आवाजें एक साथ उभरीं. मेज पर रखा शीशे का गुलदान छनाक की आवाज के साथ फर्श पर गिर कर टूट गया. रामनाथजी का सिर सोफे के हत्थे से टकराया. चोट लगने की आवाज के  साथ उन की पीड़ा भरी हाय पूरे घर में गूंज गई.

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‘‘क्या हुआ जी?’’ सुमित्रा की चीख में  नेहा और शिवानी की चिंतित आवाजें दब गईं.

रामनाथजी किसी सवाल का जवाब देने की स्थिति में ही नहीं रहे थे. उन की खामोशी ने सुमित्रा को बुरी तरह से घबरा दिया. वह किसी पागल की तरह चिल्ला कर अंकिता से जल्दी मोमबत्ती लाने को शोर मचाने लगीं.

अंकिता जलती मोमबत्ती ले भागती सी बैठक में आई. उस के प्रकाश में फर्श पर गिरे रामनाथजी को देख सुमित्रा और नेहा जोरजोर से रोने लगीं.

अपने ससुर के औंधे मुंह पड़े शरीर को शिवानी ने ताकत लगा कर सीधा किया. उन के सिर से बहते खून पर सब की नजर एकसाथ पड़ी.

‘‘पापा…पापा,’’ नेहा के हाथपांव की शक्ति जाती रही और वह सोफे पर निढाल सी पसर गई.

शिवानी के आदेश पर अंकिता ने मोमबत्ती सुमित्रा को पकड़ा दी.

मोहन भी घटनास्थल पर आ गया. शिवानी ने मोहन और अंकिता की सहायता से मूर्छित रामनाथजी को किसी तरह उठा कर सोफे पर लिटाया.

‘‘पापा को डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा,’’ शिवानी घाव की गहराई को देखते हुए बोली, ‘‘अंकिता, तुम बाहर खडे़ रामसिंह ड्राइवर को बुला लाओ.’’

सुमित्रा अपने पति को होश में लाने की कोशिश रोतेरोते कर रही थी और नेहा भयभीत हो अश्रुपूरित आंखों से अधलेटी सी पूरे दृश्य को देखे जा रही थी. अंकिता बाहर से आ कर बोली, ‘‘भाभी, आप का ड्राइवर रामसिंह गाड़ी के पास नहीं है. मैं ने तो आवाज भी लगाई, लेकिन उस का मुझे कोई जवाब नहीं मिला.’’

‘‘मैं देखती हूं. मम्मी, आप हथेली से घाव को दबा कर रखिए.’’

सुमित्रा की हथेली घाव पर रखवा कर शिवानी मेन गेट की तरफ बढ़ गई. अंकिता भी उस के पीछेपीछे हो ली.

‘‘पापा को डाक्टर के  पास ले जाना जरूरी है, अंकिता. यहां पड़ोस में कोई डाक्टर है?’’

‘‘नहीं भाभी,’’ अंकिता ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘नजदीकी अस्पताल कहां है?’’

‘‘बाहर निकल कर मुख्य सड़क पर.’’

‘‘टैक्सी या थ्री व्हीलर कहां मिलेगा?’’

‘‘मेन रोड पर.’’

‘‘चल मेरे साथ.’’

‘‘कहां, भाभी?’’

‘‘टैक्सी या थ्री व्हीलर लाने. उसी में पापा को अस्पताल ले चलेंगे.’’

अंधेरे में डूबी गली में दोनों तेज चाल से मुख्य सड़क की तरफ चल पड़ीं. तभी बादल जोर से गरजे और तेज बारिश पड़ने लगी.

सड़क के गड्ढों से बचतीबचाती दोनों करीब 10 मिनट में मुख्य सड़क पर पहुंचीं. बारिश ने दोनों को बुरी तरह से भिगो दिया था.

एक तरफ उन्हें थ्री व्हीलर खड़े नजर  आए तो वे उस ओर चल दीं.

शिवानी ने थ्री व्हीलर के अंदर बैठते हुए ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया, अंदर कालोनी में चलो. एक मरीज को अस्पताल तक ले जाना है.’’

‘‘कौन से अस्पताल?’’ ड्राइवर ने रूखे स्वर में पूछा.

‘‘किसी भी पास के सरकारी अस्पताल में ले चलना है. अब जरा जल्दी चलो.’’

‘‘अंदर सड़क बड़ी खराब है, मैडम.’’

‘‘स्कूटर निकल जाएगा.’’

‘‘किसी और को ले जाओ, मैडम. मौसम बेहद खराब है.’’

‘‘बहनजी, आप मेरे स्कूटर में बैठें,’’ एक सरदार ड्राइवर ने उन की बातचीत में हस्तक्षेप करते हुए कहा.

‘‘धन्यवाद, भैया,’’ शिवानी ने अंकिता के साथ स्कूटर में बैठते हुए कहा.

सरदारजी सावधानी से स्कूटर चलाने के साथसाथ उन दोनों का हौसला भी अपनी बातों से बढ़ाते रहे. घर पहुंचने के बाद वह उन दोनों के पीछेपीछे बैठक में भी चले आए.

‘‘मम्मी, मैं थ्री व्हीलर ले आई हूं. पापा को अस्पताल ले चलते हैं,’’ शिवानी की आवाज में जरा भी कंपन नहीं था.

रामनाथजी होश में आ चुके थे पर अपने अंदर बैठने या बोलने की शक्ति महसूस नहीं कर रहे थे. चिंतित नजरों से सब की तरफ देखने के बाद उन की  आंखें भर आईं.

‘‘इन से चला नहीं जाएगा. पंजे में मोच आई है और दर्द बहुत तेज है,’’ घाव को दबा कर बैठी सुमित्रा ने रोंआसे स्वर में उसे जानकारी दी.

‘‘ड्राइवर भैया, आप पापाजी को बाहर तक ले चलने में हमारी मदद करेंगे,’’ शिवानी ने मदद मांगने वाली नजरों से सरदारजी की तरफ देखा.

‘‘जरूर बहनजी, फिक्र की कोई बात नहीं,’’ हट्टेकट्टे सरदारजी आगे बढ़े और उन्होंने अकेले ही रामनाथजी को अपनी गोद में उठा लिया.

थ्री व्हीलर में पहले सुमित्रा और  फिर शिवानी बैठीं. उन्होंने रामनाथजी को अपनी गोद में लिटा सा लिया.

सरदारजी ने अंकिता और नेहा को पास के सरकारी अस्पताल का रास्ता समझाया और रामसिंह के लौटने पर कार अस्पताल लाने की हिदायत दे कर स्कूटर अस्पताल की तरफ मोड़ दिया. बिजली की कौंध व बादलों की गड़गड़ाहट के साथ तेज बारिश थमी नहीं थी.

मुख्य सड़क के किनारे बने छोटे से सरकारी अस्पताल में व्याप्त बदइंतजामी का सामना उन्हें पहुंचते ही करना पड़ा. वहां के कर्मचारियों ने खस्ताहाल स्ट्रेचर सरदारजी को मरीज लाने के लिए थमा दिया.

अंदर आपातकालीन कमरे में डाक्टर का काम 2 कंपाउंडर कर रहे थे. डाक्टर साहब अपने बंद कमरे में आराम फरमा रहे थे.

डाक्टर को बुलाने की शिवानी की  प्रार्थना का कंपाउंडरों पर कोई असर नहीं पड़ा तो वह एकदम से चिल्ला पड़ी.

‘‘डाक्टर यहां सोने आते हैं या मरीजों को देखने? मैं उठाती हूं उन्हें,’’ और इसी के साथ शिवानी डाक्टर के कमरे की तरफ चल पड़ी.

एक कंपाउंडर ने शिवानी का रास्ता रोकने की कोशिश की तो सरदारजी उस का हाथ पकड़ कर बोले, ‘‘बादशाहो, इन बहनजी से उलझे तो जेल की हवा खानी पड़ेगी. यह पुलिस कमिश्नर की रिश्तेदार हैं. इनसान की पर्सनैलिटी देख कर उन की हैसियत का अंदाजा लगाना सीखो और अपनी नौकरी को खतरे में डालने से बचाओ.’’

एक ने भाग कर शिवानी के पहुंचने से पहले ही डाक्टर के कमरे का दरवाजा खटखटाया. डाक्टर ने नाराजगी भरे अंदाज में दरवाजा खोला. कंपाउंडर ने उन्हें अंदर ले जा कर जो समझाया, उस के प्रभाव में आ कर डाक्टर की नींद हवा हो गई और वह रामनाथजी को देखने चुस्ती से कमरे से बाहर निकल आया.

डाक्टर को जख्म सिलने में आधे घंटे से ज्यादा का समय लगा. रामनाथजी  के पैर में एक कंपाउंडर ने कै्रप बैंडेज बड़ी कुशलता से बांध दिया. दूसरे ने दर्द कम करने का इंजेक्शन लगा दिया.

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‘‘मुझे लगता नहीं कि हड्डी टूटी है पर कल इन के पैर का एक्स-रे करा लेना. दवाइयां मैं ने परचे पर लिख दी हैं, इन्हें 5 दिन तक खिला देना. अगर हड्डी टूटी निकली तो प्लास्टर चढे़गा. माथे के घाव की पट्टी 2 दिन बाद बदलवा लीजिएगा,’’ डाक्टर ने बड़े अदब के साथ सारी बात समझाई.

तभी रामसिंह, अंकिता और नेहा वहां आ पहुंचे. नेहा अपने पिता की छाती से लग कर रोने लगी.

रामसिंह ने सुमित्रा को सफाई दी, ‘‘साहब ने कहा था कि घंटे भर बाद चलेंगे. मैं सिगरेट लाने को दुकान ढूंढ़ने निकला तो जोर से बारिश आ गई. मुझ से गलती हुई. मुझे कार से दूर नहीं जाना चाहिए था.’’

स्टे्रचर पर लिटा कर दोनों कंपाउंडर रामनाथजी को कार तक लाए. शिवानी ने उन्हें इनाम के तौर पर 50 रुपए सुमित्रा से दिलवाए.

सरदारजी तो किराए के पैसे ले ही नहीं रहे थे. ‘‘अपनी इस छोटी बहन की तरफ से उस के भतीजेभतीजियों को मिठाई खिलवाना, भैया,’’ शिवानी के ऐसा कहने पर ही भावुक स्वभाव वाले सरदारजी ने बड़ी मुश्किल से 100 रुपए का नोट पकड़ा.

विदा लेने के समय तक सरदारजी ने शिवानी के हौसले व समझदारी की प्रशंसा करना जारी रखा.

इसी तरह का काम लौटते समय अंकिता भी करती रही. वह इस बात से बहुत प्रभावित थी कि अंधेरे और बारिश की चिंता न कर शिवानी भाभी निडर भाव से थ्री व्हीलर लाने निकल पड़ी थीं.

अंकिता को उस के घर छोड़ वह सब वापस लौट पड़े. सभी के कपड़े खराब हो चुके थे. रामनाथजी को आराम करने की जरूरत भी थी.

उस रात सोने जाने से पहले सुमित्रा और नेहा शिवानी से मिलने उस के कमरे में आईं, ‘‘बहू, आज तुम्हारी हिम्मत और समझबूझ ने बड़ा साथ दिया. हमारे तो उन की खराब हालत देख कर हाथपैर ही फूल गए थे. तुम न होतीं तो न जाने क्या होता?’’ शिवानी को छाती से लगा कर सुमित्रा ने एक तरह से उसे धन्यवाद दिया.

‘‘भाभी, मुझे भी अपनी जैसी साहसी बना दो. अपने ढीलेपन पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही है,’’ नेहा ने कहा.

‘‘बहू, तुम्हारे सीधेसादे व्यक्तित्व की खूबियां हमें आज देखने को मिलीं. मुसीबत के समय हम मांबेटी की सतही चमकदमक फीकी पड़ गई. हम बेकार तुम में कमियां निकालते थे. जीवन की चुनौतियों व संघर्षों का सामना करने का आत्मविश्वास तुम्हीं में ज्यादा है. तुम्हारा इस घर की बहू बनना हम सब के लिए सौभाग्य की बात है,’’ भावुक नजर आ रही सुमित्रा ने एक तरह से अपने अतीत के रूखे व्यवहार के लिए शिवानी से माफी मांगी.

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बोया पेड़ बबूल का

दर्पण के सामने बैठी मैं असमय ही सफेद होते अपने केशों को बड़ी सफाई से बिखरे बालों की तहों में छिपाने की कोशिश कर रही थी. इस काया ने अभी 40 साल भी पूरे नहीं किए पर दूसरों को लगता कि मैं 50 पार कर चुकी हूं. बड़ी कोशिश करती कि 40 की लगूं और इस प्रयास में चेहरे को छिपाना तो आसान था मगर मन में छिपे घावों को कैसे छिपाती.

दरवाजे की घंटी बजने के साथ ही मैं ने घड़ी की ओर देखा तो 11 बजने में अभी 10 मिनट बाकी थे. मैं ने सोचा कि शायद मेरी कुलीग संध्या आज समय से पहले आ गई हों. फिर भी मैं ने सिर पर चुन्नी ढांपी और दरवाजा खोला तो सामने पोस्टमैन था. मुझे चूंकि कालिज जाने के लिए देर हो रही थी इसलिए झटपट अपनी डाक देखी. एक लिफाफा देख कर मेरा मन कसैला हो गया. मुझे जिस बात का डर था वही हुआ. मैं कटे वृक्ष की तरह सोफे पर ढह गई. संदीप को भेजा मेरा बैरंग पत्र वापस आ चुका था. पत्र के पीछे लिखा था, ‘इस नाम का व्यक्ति यहां नहीं रहता.’

कालिज जाने के बजाय मैं चुपचाप आंखें मूंद कर सोफे पर पड़ी रही. फिर जाने मन में कैसा कुछ हुआ कि मैं फफक कर रो पड़ी, लेकिन आज मुझे सांत्वना देने वाले हाथ मेरे साथ नहीं थे.

अतीत मेरी आंखों में चलचित्र की भांति घूमने लगा जिस में समूचे जीवन के खुशनुमा लमहे कहीं खो गए थे. मैं कभी भी किसी दायरे में कैद नहीं होना चाहती थी किंतु यादों के सैलाब को रोक पाना अब मेरे बस में नहीं था.

एक संभ्रांत और सुसंस्कृत परिवार में मेरा जन्म हुआ था. स्कूलकालिज की चुहलबाजी करतेकरते मैं बड़ी हो गई. बाहर मैं जितनी चुलबुली और चंचल थी घर में आतेआते उतनी ही गंभीर हो जाती. परिवार पर मां का प्रभाव था और वह परिस्थितियां कैसी भी हों सदा गंभीर ही बनी रहतीं. मुझे याद नहीं कि हम 3 भाईबहनों ने कभी मां के पास बैठ कर खाना खाया हो. पिताजी से सुबहशाम अभिवादन के अलावा कभी कोई बात नहीं होती. घर में सारे अधिकार मां के हाथों में थे. इसलिए मां के हमारे कमरे में आते ही खामोशी सी छा जाती. हमारे घर में यह रिवाज भी नहीं था कि किसी के रूठने पर उसे मनाया जाए. नीरस जिंदगी जीने की अभ्यस्त हो चुकी मैं सोचती जब अपना घर होगा तो यह सब नहीं करूंगी.

एम.ए., बी.एड. की शिक्षा के बाद मेरी नियुक्ति एक स्थानीय कालिज में हो गई. मुझे लगा जैसे मैं अपनी मंजिल के करीब पहुंच रही हूं. समय गुजरता गया और इसी के साथ मेरे जीने का अंदाज भी. कालिज के बहाने खुद को बनासंवार कर रखना और इठला कर चलना मेरे जीवन का एक सुखद मोड़ था. यही नहीं अपने हंसमुख स्वभाव के लिए मैं सारे कालिज में चर्चित थी.

इस बात का पता मुझे तब चला जब मेरे ही एक साथी प्राध्यापक ने मुझे बताया. उस का सुंदर और सलौना रूप मेरी आंखों में बस गया. वह जब भी मेरे करीब से गुजरता मैं मुसकरा पड़ती और वह भी मुसकरा देता. धीरेधीरे मुझे लगने लगा कि मेरे पास भी दूसरों को आकर्षित करने का पर्याप्त सौंदर्य है.

एक दिन कौमन रूम में हम दोनों अकेले बैठे थे. बातोंबातों में उस ने बताया कि वह पीएच.डी. कर रहा है. मैं तो पहले से ही उस पर मोहित थी और यह जानने के बाद तो मैं उस के व्यक्तित्व से और भी प्रभावित हो गई. मेरे मन में उस के प्रति और भी प्यार उमड़ आया. आंखों ही आंखों में हम ने सबकुछ कह डाला. मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई जिस की आवाज शायद उधर भी पहुंच चुकी थी. मेरे मन में कई बार आया कि ऐसे व्यक्ति का उम्र भर का साथ मिल जाए तो मेरी दुनिया ही संवर जाए. उस की पत्नी बन कर मैं उसे पलकों पर बिठा कर रखूंगी. मेरी आंखों में एक सपना आकार लेने लगा.

उस दिन मैं ने संकोच छोड़ कर मां को इस बात का हमराज बनाया. उम्मीद थी कि मां मान जाएंगी किंतु मां ने मुझे बेहद कोसा और मेरे चरित्र को ले कर मुझे जलील भी किया. कहने लगीं, इस घर में यह संभव नहीं है कि लड़की अपना वर खुद ढूंढ़े. इस तरह मेरा प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े, क्योंकि मुझ में मां की आज्ञा का विरोध करने का साहस नहीं था.

मेरी इस बात से मां इतनी नाराज हुईं कि आननफानन में मेरे लिए एक वर ढूंढ़ निकाला. मुझे सोचने का समय भी नहीं दिया और मैं विरोध करती भी तो किस से. मेरी शादी संदीप से हो गई. मेरी नौकरी भी छूट गई.

शादी के बाद सपनों की दुनिया से लौटी तो पाया जिंदगी वैसी नहीं है जैसा मैं ने चाहा था. संदीप पास ही के एक महानगर में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अधिकारी था. कंपनी ने सभी सुख- सुविधाओं से युक्त घर उसे दिया था.

संदीप के आफिस जाने के बाद मैं घर पर बोर होने लगी तो एक दिन आफिस से आने के बाद मैं ने संदीप से कहा, ‘मैं घर पर बोर हो जाती हूं. मैं भी चाहती हूं कि कोई नौकरी कर लूं.’

वह हौले से मुसकरा कर बोला, ‘मुझे तुम्हारे नौकरी करने पर कोई एतराज नहीं है किंतु जब कभी मम्मीपापा रहने के लिए आएंगे, उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगेगा. अब यह तुम्हारा घर है. इसे बनासंवार कर रखने में ही स्त्री की शोभा होती है.’

‘तो फिर मैं क्या करूं?’ मैं ने बेमन से पूछा.

उस ने जब कोई उत्तर नहीं दिया तो थोड़ी देर बाद मैं ने फिर कहा, ‘अच्छा, यदि किसी किंडर गार्टन में जाऊं तो 2 बजे तक घर वापस आ जाऊंगी.’

‘देखो, बेहतर यही है कि तुम इस घर की गरिमा बनाए रखो. तुम फिर भी जाना चाहती हो तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. तुम कोई किटी पार्टी क्यों नहीं ज्वाइन कर लेतीं.’

‘मुझे किटी पार्टियों में जाना अच्छा नहीं लगता. मां कहती थीं कि कालोनी वालों से जितना दूर रहो वही अच्छा. बेकार समय बरबाद करने से क्या फायदा.’

‘यह जरूरी नहीं कि मैं तुम्हारी मां के सभी विचारों से सहमत हो जाऊं.’

उस दिन मैं ने यह जान लिया कि संदीप मेरी खुशी के लिए भी झुकने को तैयार नहीं है. यह मेरे स्वाभिमान को चुनौती थी. मैं भी अड़ गई. अपने हावभाव से मैं ने जता दिया कि नाराज होना मुझे भी आता है. अब अंतरंग पलों में वह जब भी मेरे पास आना चाहता तो मैं छिटक कर दूर हो जाती और मुंह फेर कर सो जाती. जीत मेरी हुई. संदीप ने नौकरी की इजाजत दे दी.

अगली बार मैं जब मां से मिलने गई तो उन्हें वह सब बताती रही जो नहीं बताना चाहिए था. मां की दबंग आवाज ने मेरे जख्मों पर मरहम का काम किया. वह मरहम था या नमक मैं इस बात को कभी न जान पाई.

मां ने मुझे समझाया कि पति को अभी से मुट्ठी में नहीं रखोगी तो उम्र भर पछताओगी. दबाया और सताया तो कमजोरों को जाता है और तुम न तो कमजोर हो और न ही अबला. मैं ने इस मूलमंत्र को शिरोेधार्य कर लिया.

मैं संदीप से बोल कर 3 दिन के लिए मायके आई थी और अब 7 दिन हो चले थे. वह जब भी आने के लिए कहता तो फोन मां ले लेतीं और साफ शब्दों में कहतीं कि वह बेटी को अकेले नहीं भेजेंगी, जब भी समय हो आ कर ले जाना. मां का इस तरह से संदीप से बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा तो मैं ने कहा, ‘मां, हो सकता है वह अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रमों में व्यस्त हों. मैं ऐसा करती हूं कि…’

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‘तुम नहीं जाओगी,’ मां ने बीच में ही बात काट कर सख्ती से कहा, ‘हम ने बेटी ब्याही है कोई जुर्म नहीं किया. शादी कर के उस ने हम पर कोई एहसान नहीं किया है. जैसा हम चाहेंगे वैसा होगा, बस.’

मां ने कभी समझौता करना नहीं सीखा था. विरासत में मुझे यही मिला. मैं खामोश हो गई. जब वह मेरी कोई बात ही नहीं मानता तो मैं क्यों झुकूं. आना तो उसे ही पड़ेगा.

2 दिन बाद ही संदीप आ गया तो मुझे लगा मां ठीक ही कह रही थीं. मां की छाती फूल कर 2 इंच और चौड़ी हो गई.

दीवाली से 4 दिन पहले संदीप के मम्मीपापा आ गए. सीधे तो उन्होंने कुछ कहा नहीं पर उन के हावभाव से ऐसा लगा कि मेरा नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं आया.

संदीप ने एक दिन कहा भी कि मैं घर पर ही रहूं और मम्मीपापा की देखभाल करूं लेकिन इसे मैं ने यह कह कर टाल दिया था, ‘मैं भी यही चाहती हूं कि मम्मीपापा की सेवा करूं पर इन दिनों लंबी छुट्टी लेना ठीक नहीं है. मेरी स्थायी नियुक्ति होने वाली है और इस छुट्टी का सीधा असर उस पर पड़ेगा.’

‘देखो, मैं तो चाहता ही नहीं था कि तुम नौकरी करो पर तुम्हारी जिद के कारण मैं कुछ नहीं बोला. अब यह बात उन को पता चली है तो उन्हें अच्छा नहीं लगा.’

‘मैं ने विवाह तुम्हारे मम्मीपापा के सुख के लिए नहीं किया. वे दोनों तो कुछ दिनों के मेहमान हैं. चले जाएंगे तो मैं फिर अकेली रह जाऊंगी. मेरा इतने पढ़ने का क्या लाभ?’

बात वहीं खत्म नहीं हुई थी. कोई बात कहीं पर भी खत्म नहीं होती जब तक कि उस के कारणों को जड़ से न निकाला जाए.

मम्मी ने एक दिन मेरे अच्छे मूड को देख कर कहा, ‘बेटी, मुझे यह घर सूनासूना सा लगता है. अगली दीवाली तक इस घर में रौनक हो जानी चाहिए. तुम समझ गईं न मेरी बात को. इस घर में अब मेरे पोतेपोती भी होने चाहिए.’

मैं नहीं चाहती थी कि वे किसी भ्रम में रहें, इसलिए सीधेसीधे कह दिया, ‘मैं अभी किसी बंधन में नहीं पड़ना चाहती, क्योंकि अभी तो यह हमारे हंसनेखेलने के दिन हैं. किसी भी खुशखबरी के लिए आप को 4-5 वर्ष तो इंतजार करना ही पड़ेगा.’

संदीप ने उन्हें सांत्वना दी. वैसे हमारे संबंधों की कड़वाहट उन के कानों तक पहुंच चुकी थी.

समय यों ही खिसकता रहा. हमारे संबंध बद से बदतर होते गए. मुझे संदीप की हर बात बरछी सी सीने में चुभती.

एक दिन मैं ने सुबह ही संदीप से कहा कि स्थायी नियुक्ति की खुशी में मुझे अपने सहयोगियों को पार्टी देनी है. संभव है, शाम को आने में थोड़ी देर हो जाए. पर वह पार्टी टल गई. मैं घर आ गई. घर पहुंची तो संदीप किसी महिला के साथ हंसहंस कर बातें कर रहा था. मेरे पहुंचते ही दोनों चुप हो गए.

‘अरे, तुम कब आईं, आज पार्टी नहीं हुई क्या?’

मेरा चेहरा तमतमा गया. मैं ने अपना बैग सोफे पर पटका और फ्रेश होने चली गई. मन के भीतर बहुत कुछ उमड़ रहा था. अत: गुस्से में मैं अपना नियंत्रण खो बैठी. इस से पहले कि वह कुछ कहता, मैं ने खड़ेखड़े पूछा, ‘कौन है यह लड़की और आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

संदीप मुझे घूरते हुए बोला, ‘तुम बैठोगी तभी तो बताऊंगा.’

‘अब बताने के लिए रह ही क्या गया है?’ संदीप के घूरने से घायल मैं दहाड़ी, ‘बहाना तो तैयार कर ही लिया होगा?’

‘संगीता, थोड़ा तो सोचसमझ कर बात करो. आरोप लगाने से पहले हकीकत भी जान लिया करो.’

‘मुझे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं है. मैं सब समझ चुकी हूं,’ कह कर मैं तेज कदमों से भीतर आ गई.

थोड़ी ही देर बाद संदीप मेरे पास आया और कहने लगा, ‘तुम ने तो हद ही कर दी. जानती हो कौन है यह?’

‘मुझे कुछ भी जानने की जरूरत नहीं है. मेरे आते ही तुम्हारा हंसीमजाक एकदम बंद हो जाना, यह जानते हुए कि मैं शाम को देर से आऊंगी, अपनी चहेती के साथ यहां आना ही मेरे जानने के लिए बहुत है. मुझे क्या पता कि मेरे कालिज जाने के बाद कितनों को यहां ले कर आए हो,’ मैं एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठी.

‘संगीता,’ वह एकदम दहाड़ पड़ा, ‘बहुत हो चुका अब. आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई कि मेरे चरित्र पर लांछन लगा सके. तुम ने शुरू से ही मुझे शक के दायरे में देखा और प्रभुत्व जमाने की कोशिश की है.’

‘यह सब बेकार की बातें हैं. सच तो यह है कि तुम ने शासन जमाने की कोशिश की है और जब मैं भारी पड़ने लगी तो तुम अपनी मनमानी करने लगे हो. मेरी मां ठीक ही कहती थीं…’

‘भाड़ में जाएं तुम्हारी मां. उन्हीं के कारण तो यह घर बरबाद हो रहा है.’

‘तुम ने मेरी मां को बुराभला कहा, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. मैं यह घर और तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं.’

‘जरूर जाओ, जरूर जाओ, ताकि मुझे भी शांति मिल सके. आज तुम्हारी हरकतों ने तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा है.’

संदीप के चेहरे पर क्रोध और वितृष्णा के भाव उभर आए थे. वह ऐसे हांफ रहा था जैसे मीलों सफर तय कर के आया हो.

मैं अपना सारा सामान समेट कर मायके चली आई और मां को झूठीसच्ची कहानी सुना कर उन की सहानुभूति बटोर ली.

मां को जब इन सब बातों का पता चला तो उन्होंने संदीप को जम कर फटकारा और उधर मैं अपनी सफलता पर आत्मविभोर हो रही थी. भैया ने तो यहां तक कह डाला कि यदि उस ने दोबारा कभी फोन करने की कोशिश की तो वह दहेज उत्पीड़न के मामले में उलझा कर सीधे जेल भिजवा देंगे. इस तरह मैं ने संदीप के लिए जमीन का ऐसा कोई कोना नहीं छोड़ा जहां वह सांस ले सके.

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एक दिन रसोई में काम करते हुए भाभी ने कहा, ‘संगीता, तुम्हारा झगड़ा अहं का है. मेरी मानो तो कुछ सामंजस्य बिठा कर वहीं चली जाओ. सच्चे अर्थों में वही तुम्हारा घर है. संदीप जैसा घरवर तुम्हें फिर नहीं मिलेगा.’

‘तुम कौन होती हो मुझे शिक्षा देने वाली. मैं तुम पर तो बोझ नहीं हूं. यह मेरी मां का घर है. जब तक चाहूंगी यहीं रहूंगी.’

उस दिन के बाद भाभी ने कभी कुछ नहीं कहा.

वक्त गुजरता गया और उसी के साथ मेरा गुस्सा भी ठंडा पड़ने लगा. मेरी मां का वरदहस्त मुझ पर था. मैं ने इसी शहर में अपना तबादला करा लिया.

एक दिन पिताजी ने दुखी हो कर कहा था, ‘संगीता, जिन संबंधों को बना नहीं सकते उन्हें ढोने से क्या फायदा. इस से बेहतर है कि कानूनी तौर पर अलग हो जाओ.’

इस बात का मां और भैया ने जम कर विरोध किया.

मां का कहना था कि यदि मेरी बेटी सुखी नहीं रह सकती तो मैं उसे भी सुखी नहीं रहने दूंगी. तलाक देने का मतलब है वह जहां चाहे रहे और ऐसा मैं होने नहीं दूंगी.

मुझे भी लगा यही ठीक निर्णय है. पिताजी इसी गम में दुनिया से ही चले गए और साल बीततेबीतते मां भी नहीं रहीं. मैं ने कभी सोचा भी न था कि मैं भी कभी अकेली हो जाऊंगी.

मैं ने अब तक अपनेआप को इस घर में व्यवस्थित कर लिया था. सुबह भाभी के साथ नाश्ता बनाने के बाद कालिज चली जाती. शाम को मेरे आने के बाद वह बच्चों में व्यस्त हो जातीं. मैं मन मार कर अपने कमरे में चली जाती. भैया के आने के बाद ही हम लोग पूरे दिन की दिनचर्या डायनिंग टेबल पर करते. मेरा उन से मिलना बस, यहीं तक सिमट चुका था.

जयपुर के निकट एक गांव में पति द्वारा पत्नी पर किए गए अत्याचारों की घटना की उस दिन बारबार टीवी पर चर्चा हो रही थी. खाना खाते हुए भैया बोले, ‘ऐसे व्यक्तियों को तो पेड़ पर लटका कर गोली मार देनी चाहिए.’

‘तुम अपना खाना खाओ,’ भाभी बोलीं, ‘यह काम सरकार का है, उसे ही करने दो.’

‘सरकार कुछ नहीं करती. औरतों को ही जागरूक होना चाहिए. अपनी संगीता को ही देख लो, संदीप को ऐसा सबक सिखाया है कि उम्र भर याद रखेगा. तलाक लेना चाहता था ताकि अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से बिता सके. हम उसे भी सुख से नहीं रहने देंगे,’ भैया ने तेज स्वर में मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘क्यों संगीता.’

‘तुम यह क्यों भूलते हो कि उसे तलाक न देने से खुद संगीता भी कभी अपना घर नहीं बसा सकती. मैं ने तो पहले ही इसे कहा था कि इस खाई को और न बढ़ाओ. तब मेरी सुनी ही किस ने थी. वह तो फिर भी पुरुष है, कोई न कोई रास्ता तो निकाल ही लेगा. वह अकेला रह सकता है पर संगीता नहीं.’

‘मैं क्यों नहीं घर बसा सकती,’ मैं ने प्रश्नवाचक निगाहें भाभी पर टिका दीं.

‘क्योंकि कानूनी तौर पर बिना उस से अलग हुए तुम्हारा संबंध अवैध है.’

भाभी की बातों में कितना कठोर सत्य छिपा हुआ था यह मैं ने उस दिन जाना. मुझे तो जैसे काठ मार गया हो.

उस रात नींद आंखों से दूर ही रही. मैं यथार्थ की दुनिया में आ गिरी. कहने के लिए यहां अपना कुछ भी नहीं था. मैं अब अपने ही बनाए हुए मकड़जाल में पूरी तरह फंस चुकी थी.

इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक रास्ता खोजा और वहां से दूर रहने लायक एक ठिकाना ढूंढ़ा. किसी का कुछ नहीं बिगड़ा और मैं रास्ते में अकेली खड़ी रह गई.

मेरी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू हो चुकी थी. जाने वह कैसी मनहूस घड़ी थी जब मां की बातों में आ कर मैं ने अपना बसाबसाया घर उजाड़ लिया था. फिर से जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई. मैं ने संदीप को ढूंढ़ने का निर्णय लिया. जितना उसे ढूंढ़ती उतना ही गम के काले सायों में घिरती चली गई.

उस के आफिस के एक पुराने कुलीग से मुझे पता चला कि उस दिन जो युवती संदीप से मिलने घर आई थी वह उस के विभाग की नई हेड थी. संदीप चाहता था कि उसे अपना घर दिखा सके ताकि कंपनी द्वारा दी गई सुविधाओं को वह भी देख सके. किंतु उस दिन की घटना के बाद मैं ने फोन से जो कीचड़ उछाला था वह संदीप की तरक्की के मार्ग को बंद कर गया. वह अपनी बदनामी का सामना नहीं कर पाया और चुपचाप त्यागपत्र दे दिया. यह उस का मुझ से विवाह करने का इनाम था.

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फिर तो मैं ने उसे ढूंढ़ने के सारे यत्न किए, पर सब बेकार साबित हुए. मैं चाहती थी एक बार मुझे संदीप मिल जाए तो मैं उस के चरणों में माथा रगड़ूं, अपनी गलती के लिए क्षमा मांगूं, लेकिन मेरी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. न जाने किस सुख के प्रलोभन के लिए मैं उस से अलग हुई. न खुद ही जी पाई और न उस के जीने के लिए कोई कोना छोड़ा.

अब जब जीवन की शाम ढलने लगी है मैं भीतर तक पूरी तरह टूट चुकी हूं. उस के एक परिचित से पता चला था कि वह तमिलनाडु के सेलम शहर में है और आज इस पत्र के आते ही मेरा रहासहा उत्साह भी ठंडा हो गया.

कोई किसी की पीड़ा को नहीं बांट सकता. अपने हिस्से की पीड़ा मुझे खुद ही भोगनी पड़ेगी. मन के किसी कोने में छिपी हीन भावना से मैं कभी छुटकारा नहीं पा सकती.

पहली बार महसूस किया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मेरे जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण निधि थी. काश, संदीप कहीं से आ जाए तो मैं उस से क्षमादान मांगूं. वही मुझे अनिश्चितताओं के इस अंधेरे से बचा सकता है.

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औरत पैर की जूती

मैं अपने चैंबर में बैठ कर मेज पर रखी फाइलों को निबटा रहा था. उसी समय नरेश एक रौबदार मूंछ वाले व्यक्ति के साथ कमरे में घुसा. लंबा कद और घुंघराले बालों वाले उस व्यक्ति की उम्र कोई 40 साल के आसपास की लग रही थी. चेहरे से परेशान उस व्यक्ति का परिचय नरेश ने कराया, ‘‘यह कैलाशजी हैं, गुजराती होटल के मैनेजर. इन के मकानमालिक ने इन का सारा सामान घर से निकाल कर सड़क के किनारे रखवा दिया है. बेचारे, बहुत मुसीबत में हैं. सर, इन की मदद कर दें.’’

‘‘इन्होंने मकान का भाड़ा नहीं दिया होगा?’’

‘‘तो फिर उस की बहन या लड़की को छेड़ा होगा?’’

‘‘सर, इस उम्र में किसी की बहन या लड़की को क्यों छेड़ेंगे.’’ कैलाश बोला, ‘‘मैं पिछले 10 सालों से उस का किराएदार हूं, अब मकानमालिक को लगता है कि कहीं मैं उस का मकान न हड़प लूं. इसलिए पिछले एक साल से डरा रहा है कि मकान खाली करो, वरना सामान निकाल कर बाहर फेंक दूंगा.’’

‘‘अब उस ने सामान बाहर फेंक कर अपनी धमकी पूरी कर दी,’’ मैं बोला.

‘‘जी, आप ने बिलकुल ठीक सोचा. अपुन मर्द आदमी है. चाहे तो मकान मालिक का सिर फोड़ सकता है, पर नरेश ने समझाया कि ऐसा बिलकुल नहीं करना. अब नरेश ही आप के पास मुझे ले कर आया है,’’ कैलाश ने उत्तर दिया.

नरेश मेरे पास पिछले 5 महीनों से वकालत का काम सीख रहा था. नरेश और कैलाश आपस में अच्छे मित्र थे. मैं ने नरेश को आदेश दिया कि वह कैलाश को साथ ले कर थाने जाए और पहले वहां कैलाश की रिपोर्ट दर्ज करा कर उस रिपोर्ट की कापी मेरे पास ले कर लौटे.

उन दोनों के जाने के बाद मैं ने कैलाश के इलाके के थाने में गणपतराव थानेदार को फोन कर के आग्रह किया कि वह कैलाश की रिपोर्ट लिखवा लें और कैलाश का मकानमालिक के साथ कोई उचित समझौता करवा दें.

गणपतराव मेरा कोर्ट का साथी है. अत: गणपतराव और मुझ में अकसर बातचीत होती रहती थी.

मेरी छोटी सी सहायता के चलते कैलाश का अपने मकानमालिक से सम्मानजनक समझौता हो गया. कैलाश को एक साल की मोहलत मिल गई. कैलाश को उम्मीद थी कि इस एक साल के भीतर ही वह अपने प्लाट पर खुद का मकान बनवा लेगा.

फीस के रूप में कैलाश ने मुझे 5 हजार रुपए की एक गड्डी पेश की. मैं ने इसे लेने से इनकार कर दिया क्योंकि मेरा जमीर इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था. पर इस व्यवहार से कैलाश इतना प्रभावित हुआ कि वह मेरा मित्र बन गया. वह खुद भी बहुत मिलनसार था और उस के दोस्तों की शहर में कमी न थी.

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उस ने मेरे छोटेमोटे कई काम किए थे. अच्छा भुगतान करने वाले कुछ मुवक्किल भी मुझे दिलाए थे. अत: उस के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव मेरे मन में पैदा होना स्वाभाविक था.

कैलाश की यह एक बात मुझे बहुत चुभती थी कि वह हर बात छिड़ने पर कहता था, ‘अपुन मर्द आदमी है. किसी का उधार नहीं रखता.’ शायद इस तरह का संवाद बोलना उस का तकिया कलाम बन चुका था.

उस का यह तकियाकलाम सुनते- सुनते मैं अब तंग आ चुका था. अत: एक दिन जब कैलाश ने यही संवाद दोहराया तो मैं मुसकराते हुए बोला, ‘‘क्या तुम भाभीजी के सामने भी इसी तरह का संवाद बोल कर अपनी मर्दानगी दिखाते रहते हो? वह बरदाश्त कर लेती हैं क्या तुम्हारी हेकड़ी?’’

बस, फिर क्या था. कैलाश चालू हो गया, बोला, ‘‘अरे, तुम्हारी भाभी क्या कर लेगी? अपुन मर्द आदमी है. घर पर पूरा पैसा देता है, किसी भी तरह की कमी नहीं छोड़ता,’’ और जोर से होहो कर हंसते हुए बोला, ‘‘औरत को ताज चाहिए न तख्त……झापड़ चाहिए सख्त. पैर की जूती होती है, औरत.’’

मुझे कैलाश की बात पर बहुत हंसी आ रही थी और गुस्सा भी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम औरत के बारे में इतने पिछड़े विचार आज के आधुनिक जमाने में रखते हो. आजकल तो औरतें आदमी को उंगली पर नचा रही हैं. तुम इतना सबकुछ पत्नी को सुनाने के बाद घर में शांति से खाना खा लेते हो?’’

‘‘वकील साहब, मेरी होटल की नौकरी है. रात को 1 बजे घर पहुंचता हूं तो वह मुझे ताजी रोटी बना कर खिलाती है. मैं बीवी को सिर पर नहीं चढ़ाता. पैर की जूती है वह,’’ कैलाश बहुत ही अभिमान के साथ बोला.

मेरी आंखें आश्चर्य से फटी जा रही थीं. मुझे लगता था कि मेरी पढ़ाई और मेरा अनुभव बेकार है. मेरी वकालत पर कैलाश के अभिमान से आंच आने लगी थी. मेरी खुद की हिम्मत ऐसी नहीं थी कि मैं अपनी पत्नी या किसी दूसरी औरत के बारे में इतना खुला वक्तव्य दे सकूं.

यदि वह अपनी पत्नी से ऐसी बातें करे तो क्या इस के घर में झगड़ा नहीं होता होगा. क्या इस की पत्नी ऐसी बातें बरदाश्त कर लेती होगी? आखिर मैं अपना संयम रोक नहीं सका. उस से पूछ ही बैठा, ‘‘तब तो तुम्हारे घर में रोज ही खूब झगड़ा होता होगा?’’

‘‘झगड़ा…?’’ कैलाश अपनी आंखें चौड़ी कर के बोला, ‘‘बिलकुल नहीं होता. तुम्हारी भाभी की हिम्मत नहीं होती मेरे से झगड़ा करने की. अपुन मर्द आदमी है. औरतों का क्या, पैरों की जूतियां होती हैं. तुम्हारी भाभी को भी मैं ऐसे ही रखता हूं, जैसे पैर की जूती.’’

मेरे मन में उस समय कई तरह के प्रश्न उठ रहे थे. यदि कैलाश के दावे में दंभ अधिक नहीं है तो जरूर उस की पत्नी कोई असाधारण औरत होगी. यदि ऐसा नहीं है तो कैलाश के दावे का परीक्षण करना होगा. यह सोचते हुए मैं ने किसी समय कैलाश के घर जाने का फैसला लिया.

यह सुअवसर भी जल्दी ही मिल गया. कैलाश के 10 वर्षीय बेटे अजय का जन्मदिन था और इस मौके पर कैलाश अपने मित्रों को शाम का खाना घर पर ही खिलाना चाहता था. अत: उस ने अपने खासखास मित्रों को दावत पर बुलाया. मैं भी अपने जूनियर नरेश के साथ दावत में पहुंच गया.

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कैलाश के घर का एकएक सामान करीने से लगा हुआ था. ड्राईंग रूम, बेड रूम, किचन और यहां तक कि टायलेट भी बहुत साफसुथरे थे. पता चला कि यह सब उस की पत्नी माला का कमाल था. मैं और नरेश तो कैलाश के छोटे भाई गोपाल के साथ उस का घर देख रहे थे.

इस के बाद हम घर के पीछे बने मैदान में गए. वहां एक शानदार शामियाना लगा हुआ था. वहीं कैलाश और उस की पत्नी माला आने वाले मेहमानों का स्वागत करते मिले.

मैं ने माला को देखा. वह 34-35 साल की उम्र में भी बहुत सुंदर लग रही थी. मैरून रंग की साड़ी और मैच करता ब्लाउज, गले में लाल रंग के मोतियों की माला, गोल चेहरा और शालीन व्यक्तित्व.

कैलाश ने परिचय कराया, ‘‘यह मेरी धर्मपत्नी माला देवी हैं.’’

मैं ने तुरंत दोनों हाथ जोड़ कर माला को नमस्कार किया.

कैलाश ने माला से कहा, ‘‘ये वकील साहब राजेंद्र कुमारजी हैं.’’

‘‘अच्छा…अच्छा…समझ गई,’’ माला ने तुरंत कहा और मुझे हाथ के इशारे से आगे मेजकुरसी दिखाते हुए बोली, ‘‘आइए, भाई साहब, आप तो हमारे खास मेहमान हैं.’’

माला के साथ आगे बढ़ते हुए मैं ने पूछा, ‘‘लगता है कि आप मुझे जानती हैं?’’

‘‘देखा तो आज ही है, पर नाम से परिचित हूं क्योंकि इन की जबान पर हमेशा आप का ही नाम रहता है.’’

माला ने मुझे एक सोफे पर बैठने का इशारा किया और 1-2 मिनट के लिए इजाजत ले कर चली गई. जब वह वापस लौटी तो उसके हाथ की टे्र में संतरे का जूस 2 गिलासों में मौजूद था. उस के आग्रह पर मैं ने और नरेश ने जूस का एकएक गिलास थाम लिया. फिर वह बहुत ही कोमल लहजे में हम से इजाजत ले कर कैलाश के पास चली गई.

मैं और नरेश आपस में बातचीत करते रहे. पता चला कि माला ने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया है. घर में कैलाश के 2 बच्चे, (एक लड़का व एक लड़की) कैलाश की विधवा बहन तथा एक कुंवारा छोटा भाई मिल कर रहते हैं.

शामियाना थोड़ी ही देर में खचाखच भर गया तो कैलाश मेरे पास आया और केक की टेबल पर चलने का आग्रह किया. कैलाश का बेटा, पत्नी माला और निकट संबंधी भी केक की टेबल पर पहुंचे. ‘तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों कई हजार’ गाने की ध्वनि के साथ कैलाश के बेटे ने केक काटा. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ मेहमानों ने उसे बधाई दी. उपहार दिए. फोटोग्राफर फोटो लेने लगे. इस के साथ ही भोजन का कार्यक्रम शुरू हो गया.

कैलाश ने पहली प्लेट मुझे पकड़ाई. मैं प्लेट में खाना डालने लगा. तभी कैलाश को निकट संबंधियों की सेवा में जाना पड़ा. कुछ देर बाद कैलाश की पत्नी माला मेरे पास आई. मैं ने उस से आग्रह किया कि वह भी साथ में खाना ले ले. वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘सारे मेहमानों के बाद इन के साथ ही खाना लूंगी. आप के साथ सलाद ले लेती हूं,’’ और इतना कह कर उस ने एक गाजर का टुकड़ा उठा लिया.

मैं ने भी उसी मुसकराहट के साथ उत्तर दिया, ‘‘हांहां, आप अपने पति के साथ ही खाना, मेरे साथ सलाद लेने के लिए आप का बहुतबहुत धन्यवाद. लगता है कि उम्र के इस मोड़ पर भी आप अपने पति को बहुत चाहती हैं?’’

‘‘बढ़ती उम्र के साथ तो पतिपत्नी के बीच प्यार भी बढ़ना चाहिए न?’’ माला बोली.

‘‘आप दिल से कह रही हैं या असलियत कुछ और है?’’

‘‘भाई साहब, आप के मन में कोई शंका हो तो साफसाफ बताइए न, पहेलियां क्यों बूझ रहे हैं? हमारा जीवन तो खुली किताब है.’’

मैं थोड़ा संकोच के साथ बोला, ‘‘कैलाशजी मेरे परम मित्र हैं पर जब वह स्त्री जाति के बारे में कहते हैं कि वह तो पैर की जूती होती है, तब मुझे बहुत बुरा लगता है. वह कहते हैं कि मैं अपनी पत्नी को भी पैर की जूती समझता हूं. आप बताइए, अपने बारे में इतना जान कर आप कैसा महसूस कर रही हैं?’’

‘‘आप का प्रश्न कोई अनोखा नहीं है. इस तरह के प्रश्न अकसर लोग मुझ से पूछते रहते हैं. शुरू में यह सुन कर मुझे भी बहुत तकलीफ हुई थी पर अब तो आदत सी पड़ गई है. मैं ने इन को समझाया भी कि ऐसी गंदी बातें मत किया करो लेकिन यह सुधरते नहीं. अब तो मैं ने इन्हें इन के हाल पर छोड़ दिया है. वक्त ही इन्हें सुधारेगा. यदि मैं लोगों के उकसाने पर चलती तो शायद इन से मेरा तलाक हो जाता पर मैं ने बहुत ही गंभीरता से सारी परिस्थितियों पर विचार किया है.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘हां, इन से झगड़ा कर के अपने घर की सुखशांति भंग करने के बजाय मैं बात की तह में गई कि यह ऐसे संवाद आखिर क्यों बोलते हैं?’’

‘‘कुछ मिला?’’

‘‘हां, इन के बूढ़े पिता, जिन का अब स्वर्गवास हो चुका है, अपने जातिगत एवं पुरातनपंथी संस्कारों से पीडि़त थे. अपनी जवानी क्या, बुढ़ापे तक वह शराब का सेवन करते रहे. वह अपनी बीवी यानी मेरी सास की पिटाई भी किया करते थे.

‘‘अपनी मां को मार खाते देख कर इन्हें गुस्सा बहुत आता था. पर इन्होंने कभी मुझे मारा नहीं. ये शराब भी नहीं पीते. फिर भी अपने पिता की तरह खुद को बड़ा मर्द समझते हैं. बड़ीबड़ी मूंछें पिता की तरह ही रखी हुई हैं. कहते हैं कि मूंछें  रखना हमारी खानदानी परंपरा है. अपने पिता की तरह बारबार दोहराते हैं, ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी.’

‘‘डींग हांकते हुए कहते हैं कि औरत तो मर्द के पैर की जूती होती है. अगर मैं इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लूं तो हम दोनों एक पल भी साथ नहीं रह सकते. इन में यही एक कमी है. इसलिए मैं ने इन को अधिक से अधिक प्यार दे कर हिंसक नहीं बनने दिया. पर इन के तकियाकलाम और नारी जाति के बारे में ऐसे संवादों पर रोक नहीं लगा पाई.’’

मेरी प्लेट का खाना खत्म हो चुका था. जूठी प्लेट एक बड़ी प्लास्टिक की टोकरी में डालते हुए मैं बोला, ‘‘भाभीजी, यदि आप जैसी समझदार महिलाओं की संख्या समाज में बढ़ जाए तो व्यर्थ के घरेलू झगड़े कम हो जाएं. कैलाश को तो वक्त ही ठीक करेगा.’’

‘‘अच्छा, मै चलता हूं,’’ कहते हुए मैं ने उन से इजाजत ली.

इस के बाद कैलाश से कई मुलाकातें हुईं, वह अपनी पत्नी को ले कर मेरे घर भी आया. मेरी पत्नी को भी माला का स्वभाव अच्छा लगा.

जून माह के बाद मुझे कैलाश कई दिनों तक नहीं मिला. अपना मकान बनवाने के कारण नरेश भी 2 महीने की छुट्टी पर था. छुट्टी के बाद नरेश काम पर आया तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘कैलाश की कोई खैरखबर है? पिछले 3 महीनों से वह दिखाई नहीं दिया.’’

‘‘सर, वह तो महाराजा यशवंतराव अस्पताल में भरती है.’’

‘‘आश्चर्य की बात है. मुझे  किसी ने खबर नहीं दी. तुम्हारा भी कोई फोन इस संबंध में नहीं आया?’’

‘‘सर, मुझे खुद परसों पता लगा है.’’

मैं शाम को अस्पताल में पहुंच कर कैलाश के बारे में पूछतेपूछते उस के वार्ड तक जा पहुंचा. वार्ड में अभी मैं कैलाश का बेड ढूंढ़ ही रहा था कि मुझे माला ने देख लिया और बोली, ‘‘आइए, भाई साहब.’’

माला मुझे आवाज न देती तो शायद मैं उसे पहचान भी नहीं पाता. वह सूख कर कांटा हो गई थी. उस के गोरे गाल किशमिश की तरह पिचक गए थे.

मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अरे, तुम इतनी बीमार कैसे हो गईं? मैं ने तो सुना था कि कैलाशजी बीमार हैं.’’

‘‘आप ने ठीक सुना था, भाई साहब, मैं नहीं आप के भाई बीमार हैं. देखिए, वह पड़े हैं पलंग पर, लेकिन अब पहले से बहुत ठीक हैं.’’

मुझे देख कर कैलाश पलंग पर ही उठ बैठा. मैं स्टूल खींच कर उस के पास बैठ गया.

‘‘क्या हो गया था, कैलाश? तुम ने या माला ने तो कोई सूचना भी नहीं भेजी. क्या तुम लोगों के लिए मैं इतना गैर हो गया,’’ कैलाश को कमजोर हालत में देख कर मैं ने शिकायत की.

कैलाश की पीठ के पीछे बड़ा सा तकिया लगाते हुए माला बोली, ‘‘भाई साहब, अभी तक तो हम लोग ही इन्हें संभाल रहे थे. यदि कोई कठिनाई आती तो आप के पास ही आते.

‘‘इन्हें पीलिया हो गया था. इन का न तो कोई खाने का समय है और न ही सोने का. लिवर पर तो असर पड़ना ही था. पीलिया का इलाज चल रहा था कि इन्हें टायफाइड हो गया. अब इन्हें आवश्यक रूप से बिस्तर पर आराम करना पड़ रहा है,’’ यह कहते हुए माला को हंसी आ गई.

मुझे लग रहा था कि मेरे पहुंचने से इन दोनों को बहुत राहत मिली थी. अत: माला के उदास चेहरे पर भी बहुत दिनों बाद हंसी की रेखा फूटी होगी.

कैलाश भी मुसकाराया और बोला, ‘‘वकील साहब, यह मेरी सेवा करतेकरते खुद बीमार हो गई है. इस ने मुझे मरने से बचा लिया है. बहन और रिश्तेदार तो आतेजाते रहते थे पर माला मुझे छोड़ कर एक पल के लिए भी घर नहीं गई.’’

‘‘अरे, आप कम बोलो ना? डाक्टर ने ज्यादा बोलने के लिए मना किया है,’’ माला ने कैलाश को रोका.

कैलाश रुका नहीं, बोलता रहा, ‘‘मैं बुखार में चीखताचिल्लाता था. माला पर अपना गुस्सा उतारता था. पर यह औरत ठंडे पानी की पट्टियां मेरे सिर और बदन पर रखते हुए हर समय मुझे बच्चा मान कर दिलासा देती रहती थी. मैं इस का यह कर्ज इस जीवन में उतार नहीं पाऊंगा,’’ इतना बतातेबताते कैलाश की आंखों में आंसू आ गए थे.

वह एक पल को रुक कर बोला, ‘‘यह कब जागती थी और कब सोती थी, मुझे नहीं पता. लेकिन जब भी रात में मेरी आंख खुलती  थी तो यह मेरी सेवा करते मिलती. मेरे कारण देखो इस का शरीर कितना कमजोर हो गया है.’’

‘‘यह ठीक हो गए. अब घर जाने पर मैं भी अपनेआप ठीक हो जाऊंगी,’’ माला बोली.

मैं अपने साथ कुछ फल लाया था. उस में से एक संतरा निकाल कर छीला और फांके कैलाश को दी. माला को भी दिया. इस के बाद हम लोेग गपशप करने लगे. जब माहौल पूरी तरह से प्रसन्नता का हो गया तो मैं ने कैलाश से चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘कैलाश, तुम तो कहते थे, औरत पैर की जूती होती है. माला भी इसी दरजे में आती है. अब तुम माला को महान कह रहे हो. तुम्हारी यह राय सचमुच बदल गई है या सिर्फ अस्पताल तक सीमित है.’’

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‘‘आप, वकील साहब सुधरेंगे नहीं, यहां अस्पताल में भी अपनी वकालत दिखा कर रहेंगे.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैं चौंका.

‘‘मतलब यह है कि आप मेरे गुनाहों को सब के सामने कबूलने के लिए कहेंगे?’’

‘‘मेरी ओर से कोई जोरजबरदस्ती नहीं है. मुजरिम भी तुम खुद हो और यह अदालत भी तुम्हारी है, जो मर्जी में आए फैसला लिख लो.’’

‘‘अगर ऐसी बात है तो वकील साहब मेरा फैसला भी सुन लो. मैं अपने दंभ और झूठे घमंड के कारण औरत को पैर की जूती कहता था. अब जमाना बदल गया है. कई मामलों में औरत आदमी से आगे निकल गई है. उसे सलाम करना होगा. उस का स्थान पैरों पर नहीं दिल और माथे पर है.

सबसे बड़ा रुपय्या

घर के कामों के बोझ से लदीफदी सरिता को कमर सीधी करने की फुरसत भी बड़ी कठिनाई से मिला करती थी. आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी.

सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई. शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली. हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था.

बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था.

शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था. किराए की आमदनी, पेंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था.

घर में सुख- सुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टेलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके  रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं, जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने  दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढि़या भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर  पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्हीें की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया. वह धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.

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श्ेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए.

अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे. बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न,’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपया की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है. आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती व सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’ सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं. यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिर, बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर ंिंचंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था.

देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए.’’

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेंहदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पेंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

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‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योेंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किराया- नामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पेंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटा बहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीडि़त हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालोें पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट आफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को,  यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी.

उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शेड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती.

शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्म- विश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

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अंतिम भाग

पूर्व कथा

शोभना अब भी बच्चों की पुरानी चीजों, उन से जुड़ी हर बात से मोह नहीं छोड़ पाई थी. उन से जुड़ी बातों को याद करकर के मन को बहला लेती जबकि नरेंद्र अकसर उस के ऐसा करने पर उसे रोका करते. बेटों के पास जा कर रहने से भी अब शोभना कतराने लगी थी.

वह बीती बात भूली नहीं थी जब मोहित के बेटे मयूर के जन्मदिन पर उन के पास जाने की उस ने पूरी तैयारी कर ली थी लेकिन रिजर्वेशन करवाने से पहले मोहित से बात की तो उस ने कहा कि हम मयूर का जन्मदिन मना ही नहीं रहे. नरेंद्र ने शोभना को समझाया कि वह उन्हें घर आने के लिए मना नहीं कर रहा लेकिन शोभना का तर्क था कि आने के लिए भी तो नहीं कहा. अब आगे…

गतांक से आगे…

शोभना की बात सुन नरेंद्र ने बात बदल देने में ही खैरियत समझी, ‘क्यों न हम कुछ दिनों के लिए मयंक के पास चलें…’ मेरे प्रस्ताव से सहमत थी वह, पर हां या ना कुछ नहीं कहा.

मयंक से बात भी हुई, ‘नहीं, डैडी, इतनी गरमी में आप लोग प्रोग्राम न ही बनाएं तो बेहतर होगा…’

‘वह भला क्यों, बेटा? आखिर तुम सब भी तो रह रहे हो वहां,’ थोड़ा विचलित हो उठा था मैं…अपने लिए नहीं, शोभना के लिए…क्या सोचेगी अब वह…?

‘हम लोगों की बात छोडि़ए, डैड, हम सब को तो आदत पड़ गई है, पर आप लोग परेशान हो जाएंगे…एक तो पावर कट की प्राब्लम, उस पर से इन्वर्टर भी बीच में बोल जाता है.

सोच रहा हूं एक जेनरेटर ले ही लूं. पर उस का भी शोर सहना आप दोनों के वश का नहीं,’ स्पीकर आन था…कुछ भी कहना नहीं पड़ा मुझे, सब कुछ खुद ही सुन लिया था शोभना ने…थोड़ी देर के लिए खामोशी पसर गई हमारे बीच.

मैं देर तक…गौर से देखता रहा उस की तरफ. उस के मन के कुरुक्षेत्र में चल रहे भावनाओं के महाभारत को महसूस करता रहा…मुझ से सिरदर्द का बहाना कर रात जल्द ही सो गई शोभना…

मगर अभी मुझे अकेला छोड़ कर कहां चली गई वह? अतीत के दलदल से मैं ने अपनेआप को जबरन निकाला… थोड़ी देर के लिए भी शोभना अगर खामोश हो जाए तो घर काटने को दौड़ता है…कहां गई होगी वह. मुझ से उलझने के बजाय, घर के किसी कोने में बैठ कर चुपचाप पुरानी अलबम पलट रही होगी…यही उस का सब से प्रिय टाइमपास है. उस की नाराजगी दूर करने के लिए मैं ने खुद ही 2 कप कौफी बनाई और उस के करीब जा पहुंचा…कुछ संजीदा दिखी वह.

‘‘देखो न नरेंद्र…लगता है जैसे यह सब कल की ही बात हो…’’ एकएक तसवीर को उंगलियों से टटोल रही थी…किसी में अंकिता मेरी गोद में थी तो किसी में उस की गोद में, ‘‘देखो तो मोहित, कैसा अपने बेटे मधुर सा दिख रहा है…और ये देखो, मयंक को…कैसा लग रहा है, जैसे एकदम धु्रव…कर क्या रहा है, जैसे अब रोया तब रोया…याद तो करो क्या हुआ था?’’ लाख कोशिशों के बावजूद कुछ नहीं याद आया था मुझे… शोभना हंसने लगी…याद है नरेंद्र, कैसे थे वे दिन…बच्चों से घिरे हम, तनहाई तलाशते रहते…कभीकभी तो तुम झुंझला उठते, ‘यह घर है या चिडि़याघर,’ दिन भर बच्चों की चैं-पैं. रात में बिस्तर पर सोओ तो इधर बांह के नीचे मोहित की पेंसिल चुभती, तो उधर पैर के नीचे अंकिता की डौल आ दबती…और अब…

‘‘नरेंद्र, तुम्हें भी कभी याद आते हैं वह दिन…वक्त कितने चुपके से निकल जाता है न और हमें खबर ही नहीं होती…’’

‘‘हूं…’’ मैं अपने खयालों में खोया सा चौंक पड़ा…शोभना के सामने मैं भी सरलता से कहां स्वीकारता हूं कि कभीकभी मैं भी भावुक हो जाता हूं, उसी की तरह…

अचानक फोन की घंटी घनघना उठी. ‘‘किस का फोन होगा?’’ आदतन मैं पूछ बैठा.

‘‘अंकिता का…’’ रिसीवर उठातेउठाते चहक उठी शोभना.

‘‘हां, अंकिता बोल रही हूं मम्मा…सारी मम्मा…इस बार गरमी की छुट्टियों में मैं नहीं आ सकूंगी…प्लीज, मम्मा, बुरा मत मान जाना…क्या करूं…गांव से तुषार के मांबाबूजी आ रहे हैं…अब हमारे ही पास रहेंगे वह…तुम्हीं बताओ, ऐसे में मैं कैसे आ जाऊं तुम्हारे पास, तुषार को भी बुरा लगेगा…’’ अब कैसे कहती बेचारी शोभना कि अपने फर्ज भूल कर यहां आ जाओ…वैसे भी वह उन दोनों पतिपत्नी में होने वाले टेंशन का कारण खुद को ही मानती है.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं… अंकिता थी…कह रही थी, इस बार गरमियों में नहीं आ सकेगी…’’ बस, इस बार की ही बात तो है नहीं है यह…होली हो, दीवाली हो या कोई भी अवसर…यही होता है…कोई न कोई बहाना सब के पास होता है, किसी न किसी मजबूरी की आड़ में सब खड़े हो जाते हैं…

‘‘ओ हो, तो क्या हो गया…’’ उस के चेहरे की उदासी को निहारते हुए कहा था मैं ने, ‘‘चलो, इसी वक्त फोन से और सब का भी प्रोग्राम पता कर लेते हैं,’’ फिर शुरू हो गया, वही एक सिलसिला…सब से पहले मोहित से पूछा, ‘‘हां बेटा, क्या प्रोग्राम है, तुम सब का? कब आ रहे हो?’’

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‘‘नहीं, डैडी, ममता इस बार अपने मायके जाने की जिद कर रही है…फिर बच्चे भी हर बार एक ही जगह जाजा कर बोर हो चुके हैं…’’

‘‘ठीक है, ठीक है बेटा, कोई बात नहीं…’’ कह कर फोन रख दिया मैं ने.

थोड़ी देर बाद मैं मयंक का नंबर डायल करने लगा, ‘‘हैलो, बेटा…’’ पता नहीं क्यों, चाह कर भी आवाज में कोई जोश न ला सका मैं, ‘‘कैसे हो?’’

‘‘ठीक हूं डैड, आप लोग कैसे हो?’’

‘‘बहुत अच्छे, बेटा…क्या प्रोग्राम है तुम सब का?’’

‘‘डैड, अभी तक तो हम ने कुछ भी सोचा ही नहीं है…’’ उस की जबान की लड़खड़ाहट क्षण भर में ही इस बात का एहसास करा गई कि हमारी छोटी बहू उस के करीब ही खड़ी होगी, ‘‘आप लोगों को तो पता ही है न, कविता ने अभीअभी जाब चेंज किया है डैड, हमें नहीं लगता कि हम आ पाएंगे…सारी डैड…’’

अब मीता से क्या पूछना, उन डाक्टर पतिपत्नी के पास कहां वक्त होगा हमारे लिए…फिर भी…नंबर डायल करने के लिए उंगलियां बढ़ाई थीं कि शोभना ने आगे बढ़ कर रिसीवर मेरे हाथ से ले लिया और फोन डिस्कनेक्ट कर दिया. बोली, ‘‘रहने दो, कोई जरूरत नहीं है सब के सामने गिड़गिड़ाने की…अगर उसे आना होगा तो खुद ही खबर करेगी.’’

जी में आया कहूं कि शोभना, ये तुम कह रही हो?…लेकिन नहीं…कुछ नहीं कह सका मैं…दोचार दिनों तक हमारे बीच संवाद के सारे सूत्र ही जैसे खो से गए…चारों तरफ…वातावरण में…खामोशी सी पसरी रहती…शोभना सारे दिन आराम करती, फिर भी हर वक्त थकीथकी सी नजर आती…मैं सारेसारे दिन व्यस्तता का उपक्रम कर के भी खालीपन सा महसूस करता…

चाय पीतेपीते शोभना अचानक ही चौंक पड़ी, ‘‘नरेंद्र, तुम ने कुछ कहा क्या?’’

‘‘नहीं तो…’’ मेरी नजरें फिर से पेपर पर गड़ गईं…पर मन, पेपर से हट कर कुछ और ही सोचता रहा…शोभना को बारबार ऐसा क्यों लगता है कि जैसे मैं ने कुछ कहा हो…कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी तरह उस के मन को भी अकेलापन डस रहा हो…

‘‘देखो न नरेंद्र, वक्त तो आज भी अपनी ही रफ्तार से भागा चला जा रहा है, तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि जैसे हम ही ठहर गए हों…’’ उस ने दूर झुंड बना कर खेल रहे बच्चोंको देखते हुए कहा, ‘‘नरेंद्र, कभीकभी तो मुझे ऐसा लगता है मानो हम कारवां से अलग हो चुके हैं…’’

‘‘कैसी बातें करती हो शोभना. जानती तो हो, मुझे इस तरह की बातें पसंद नहीं…तुम्हें पता है न कि मैं उन लोगों में से नहीं हूं और न ही तुम्हें उन लोगों में शामिल होने दूंगा जो कारवां गुजर जाने के बाद गुबार देखने के लिए खड़े रह जाते हैं…चलो, उठो, आज कहीं बाहर घूम आते हैं.’’ उस के माथे पर पड़े बल मुझ से छिपे न रहे… किसी अबूझ पहेली में उलझी वह मेरी तरफ देखने लगी, ‘‘कहां?’’

‘‘कहीं भी…नदी के किनारे या किसी पार्क में…मंदिर या फिर आश्रम…’’

मैं उठ खड़ा हुआ था. शोभना खामोश मेरे साथसाथ चल पड़ी… कई बार सहारा देने के बहाने मैं ने उस का हाथ भी थामा…

बहुत दिनों बाद इस तरह खुली हवा में सांस लेना मुझे अच्छा लग रहा था…शायद शोभना को भी अच्छा लग रहा था खुले आसमां के नीचे हरी घास पर बैठना.

मेरा मन मानो मुझे ही झकझोर कर पूछने लगा, ‘हम रोज क्यों नहीं निकलते घर से…’ क्या जवाब देता मैं अपने मन को. बस, शोभना को निहारता रह गया.

कैसी बुझीबुझी सी…कितनी उदास लग रही है वह आज…कितना मुरझा गया है उस का चेहरा…

‘‘शोभना, जरा याद कर के बताना तो, आज क्या है?’’

‘‘ओहो…पहेलियां क्यों बुझा रहे हो नरेंद्र, जो कुछ भी कहना है साफसाफ कहो न.’’

‘‘सच, कुछ याद भी है तुम्हें…’’

‘‘कहीं तुम आयुशी के जन्मदिन की बात तो नहीं कर रहे, नरेंद्र?’’

‘‘जी हां…इंतजार कर रही होगी वह अपनी दादी का…याद नहीं, जब तक हम केक और नए कपड़े ले कर नहीं पहुंचें वह मुंह लटकाए बैठी रहती है…’’

‘‘तो आप इसीलिए आज आश्रम चलने की बात कर रहे थे…’’

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‘‘जी हां…तुम भी न शोभना, कितनी अजीब हो…जो तुम्हारी ममता का मोल नहीं समझते उन पर प्रेम लुटाती हो और जो तुम्हारी ममता को तरसते हैं उन्हें…’’ देखती रह गई थी शोभना मुझे. सोच रही होगी, ऐसा क्यों कह रहा हूं मैं…उसे क्या पता मैं कौन सी घटना याद दिलाना चाह रहा हूं उसे…एक बार जब बच्चे आए थे और शोभना मचल रही थी उन में से किसी को गोद में लेने के लिए…कभी किसी की तरफ लपकती तो कभी किसी की…बच्चे थे कि मां के आंचल के पीछे छिपे जा रहे थे और उन के मातापिता उन्हें समझाने में लगे थे, ‘हैलो करो बेटा, ग्रैंड पा को…एक छोटी सी किस्सी दे दो न ग्रैंड मम्मा को…’ अंत क्या हुआ था, शोभना खिसियाई सी मेरे पीछे यह कहते हुए आ खड़ी हुई थी कि ‘बच्चे हैं, दोचार दिन में हिलमिल जाएंगे.’ बहुत भोली है, इतना भी नहीं समझती कि कौन रहने देगा इन्हें दोचार दिन हमारे साथ…

‘‘एक बात बता दूं, मुझे खूब याद  है आयुशी का जन्मदिन. ये देखो, मैं ने तो उस के लिए गिफ्ट भी ले कर रखा है,’’ उस ने अपने बैग से एक पैकेट निकाल कर मुझे दिखाते हुए कहा.

शोभना, हम उन के जीवन के खालीपन को भरने की कोशिश करते हैं तो वे भी तो हमारे मन के सूनेपन को भरते हैं…याद है, ऐसे ही पिछली बार हम बहुत दिनों बाद आश्रम गए थे तो नन्ही अर्चिता तुम से कितनी नाराज हो गई थी, तुम्हारे पास ही नहीं आ रही थी…मेरी गोद में आ दुबकी थी और मोहिता…कितने नखरे करने के बाद आई थी तुम्हारे पास. 4 साल का अक्षत बिलकुल अपने मयूर जैसा लगता है न…उसी बार की तो बात है, जब हम चलने को हुए तो पता चला कि 7 साल का अर्पित बुखार से तप रहा है…वहीं ठहर गए थे हम, तुम सारी रात उसे गोद में लिए बैठी रहीं…उस के माथे पर ठंडी पट्टियां रखती रहीं…लगता है इतने वर्षों से साथ रहतेरहते मुझ पर भी शोभना का असर हो गया है. शोभना को वर्तमान में जीना सिखातेसिखाते मुझे भी जाने कब उस की ही तरह अतीत की गलियों में भटकना अच्छा लगने लगा…

‘‘…अच्छा छोड़ो यह सब…अब हम सब से पहले मार्केट चलते हैं…बच्चों के लिए कुछ फल, मिठाइयां और खिलौने लेंगे, फिर आश्रम चलेंगे…ठीक है न?’’ मैं ने अपनी हथेली शोभना की ओर बढ़ा दी.

सहारा ले कर वह उठ खड़ी हुई. आज बहुत दिनों बाद मैं ने देखा कि उस की आंखें चमक उठीं…उस का चेहरा खिल उठा, लाख गमों के बावजूद उस के होंठों पर मुसकराहट खेलने लगी, मैं भी मुसकराए बगैर कहां रह सका था.

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करामात

प्यारे मियां 13 वर्ष के थे. वह मेरे साथ ही नवीं कक्षा में पढ़ते थे. पढ़ते तो क्या थे, बस, हर समय खेलकूद में ही उन का मन लगा रहता. जब अध्यापक पढ़ाते तो वह खिड़की से बाहर मैदान में झांकते रहते, जहां लड़के फुटबाल, कबड्डी या गुल्लीडंडा खेलते होते.

अपनी इन हरकतों पर वह रोज ही पिटते थे, स्कूल में और घर पर भी. उन के पिता बड़े कठोर आदमी थे. खेलकूद के नाम से उन्हें नफरत थी. उन के सामने खेल का नाम लेना भी पाप था. वह चाहते थे कि प्यारे मियां बस दिनरात पढ़ते ही रहें. अगर वह कभी खेलने चले जाते तो बहुत मार पड़ती थी. यही कारण था कि प्यारे मियां स्कूल में जी भर कर खेलना चाहते थे. अंत में वही हुआ जो होना था. वह परीक्षा में उत्तीर्ण न हो पाए. पिता ने जी भर कर उन्हें मारा.

प्यारे मियां हर खेल में सब से आगे थे. स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था. उन का शरीर भी बलिष्ठ था. एक दिन उन की मां उन्हें पीर साहब के पास ले गईं. पीर साहब नगर से बाहर एक खानकाह में रहते थे. नगर के लोग उन के चमत्कारों की कहानियां सुनसुन कर उन के पास जाया करते थे. कोई किसी रोग का इलाज कराने जाता, कोई संतान के लिए और कोई मुकदमा जीतने के लिए. पीर साहब किसी को तावीज देते, किसी को फूंक मार कर पानी पिलाते. पीर साहब का खलीफा हर आने वाले से 11 रुपए ले लेता था.

प्यारे मियां की मां को भी पीरों पर बड़ा विश्वास था. उन का कहना था कि पीरों में इतनी शक्ति होती है कि वह सबकुछ कर सकते हैं. जिसे जो चाहे दे दें और जिसे चाहें बरबाद कर दें.

मां ने पीर साहब से हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘इस का पढ़ाई में मन नहीं लगता. आप कुछ कीजिए.’’

पीर साहब ने आंखें बंद कीं. कुछ बुदबुदाए, फिर बोले, ‘‘मुर्गे के खून से एक तावीज लिखा जाएगा. काले रंग का एक मुर्गा लाओ. 40 दिन लड़के को हम अपना फूंका हुआ पानी पिलाएंगे.’’

अगले दिन प्यारे मियां के गले में तावीज पड़ गया.

प्यारे मियां रोज पीर साहब का दम किया हुआ पानी पी रहे थे.

मां खुश थीं कि अब वह खेलकूद में अधिक ध्यान नहीं देते थे. कक्षा में चुपचाप बैठे रहते. घर जाते तो कमरे में जा कर पड़ जाते. वह कुछ थकेथके से लगते थे. उन्हें हलकाहलका बुखार रहने लगा था और खांसी भी.

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मैं ने उन की मां को समझाया, ‘‘पीर साहब और तावीज के चक्कर में न पड़ें. प्यारे मियां का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है. उन्हें डाक्टर को दिखाएं.’’

मां ने तुरंत कहा, ‘‘बेटा, हमारा पीर साहब पर विश्वास है. तुम ने देखी नहीं उन की करामात. प्यारे से खेलकूद सब छुड़वा दिया. वही प्यारे को ठीक भी कर देंगे.’’

मैं ने फिर कहा, ‘‘प्यारे मियां का खेलकूद में इतना ध्यान देना कोई गंभीर बात नहीं थी. अगर उन्हें खेलकूद से इतनी सख्ती से न रोका जाता तो वह भी केवल इतना ही खेलते जितना और सब लड़के. अधिक प्रतिबंध लगाने का प्रभाव उलटा ही हुआ. जितना उन्हें खेल से रोका गया वह उतना ही खेल के दिवाने होते गए. दोष आप का है. और फिर पीर साहब का चक्कर. आप देखतीं नहीं कि प्यारे मियां बीमार हैं? इसी कारण वह खेलकूद भी नहीं रहे हैं.’’

परंतु मां ने मेरी बात अनसुनी कर दी.

एक दिन प्यारे मियां को खांसी के साथ खून आया. उन्हें डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने तपेदिक का रोग बताया. उसी डाक्टर से पीर साहब भी अपना इलाज करा रहे थे. 40 दिन तक फूंका हुआ पानी पिला कर पीर साहब ने अपनी तपेदिक की बीमारी के कीड़े प्यारे मियां के शरीर में पहुंचा दिए थे. यह भी उन की करामात थी.

प्यारे मियां के मांबाप सिर पीट रहे थे. वे अपनेआप को और अपने अंध- विश्वास को बारबार कोस रहे थे.

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