आमिर खान के कुश्ती गुरु ने जीता विश्व चैंपियनशिप का मेडल

तिबलसी, जौर्जिया.

भारतीय पहलवान कृपाशंकर बिश्नोई ने शानदार प्रदर्शन करते हुए यहां खेली जा रही वर्ल्ड वेटरन कुश्ती चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता लिया है. कृपाशंकर ने 70 किलो वर्ग बी डिवीजन फ्रीस्टाइल कुश्ती में यह पदक जीता. ‘अर्जुन अवार्डी’ कृपाशंकर बिश्नोई ने कांस्य पदक के लिए हुए मुकाबले में इजरायल के पहलवान सिनियावस्की को 14-3 से पराजित कर कांस्य पदक पर कब्जा जमाया है.

पूरी कुश्ती के दौरान कृपाशंकर विपक्षी इजराइली पहलवान पर हावी रहे. उन्होंने तकनीकी श्रेष्ठता के आधार पर पर मुकाबले को समाप्त किया. यह फ्रीस्टाइल वर्ग में भारत के लिए पहला पदक है. बता दें कि कृपाशंकर इंदौर के रहने वाले हैं.

तिबलसी शहर में 13 अक्टूबर तक चलने वाली वर्ल्ड वेटरन कुश्ती चैंपियनशिप के चौथे दिन  स्टेडियम में तब खुशी का माहौल  हो गया जब कृपाशंकर पोडियम पर खड़े हुए और उन्हें मेडल पहनाया गया. तब वहां मौजूद अनेक भारतीयों ने ‘इंडिया-इंडिया’ के नारे के साथ उन का उत्साहवर्धन किया. बता दें कि जौर्जिया के तिबलसी शहर में हर वर्ष अनेकों भारतीय स्टूडेंट जाते हैं. उन्होंने विश्व चैंपियनशिप के दौरान सभी भारतीय पहलवानों की हौसला अफजाई की.

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विश्व चैंपियनशिप के मुकाबलों में कृपाशंकर ने तुर्की, हंगरी, ईरान, इजराइल के पहलवानों को हरा कर कांस्य पदक जीतने तक का सफर तय किया है.

कांस्य पदक के मुकाबले से पहले प्रीक्वार्टर फाइनल मैं कृपाशंकर यूक्रेन के पहलवान से पराजित हो गए थे. यूक्रेन के पहलवान के फाइनल में पहुंचने के फलस्वरूप कृपाशंकर को रेपेचेज राउंड में शामिल किया गया जहां उन्होंने ईरान के अली रजा मोहम्मद व कांस्य पदक के मुकाबले में इसराइल के पहलवान सिनियावस्की को 14 – 3 से शिकस्त दी.

रणधीर सिंह ने जीता कांस्य

कृपाशंकर के अलावा भारत के एक और ‘अर्जुन अवौर्डी’ पहलवान रणधीर सिंह ने 100 किलोग्राम ग्रीको रोमन स्टाइल के सी डिवीजन में कांस्य पदक जीता. रणधीर सिंह ने नौर्डिक सिस्टम के तहत कांस्य पदक जीता.

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बता दें कि यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग के नियमों के तहत नौर्डिक सिस्टम में शामिल सभी खिलाड़ियों को एकदूसरे से मुकाबला करना होता है. ऐसी वेट कैटेगरी में एक स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक दिया जाता है.

भारतीय पहलवान रणधीर सिंह ने नौर्डिक सिस्टम के तहत खेलते हुए अपने पहले मुकाबले में कजाकिस्तान के इसासेजतोव को 4-0 के अंतर के बाद बाई फौल के आधार पर हराया. लेकिन दूसरे मुकाबले में रणधीर ईरान के अली रजा से हार गए. तीसरे मुकाबले में उन्हें मेजबान जौर्जिया के डेविड कुप्रासविली से हार का सामना करना पड़ा.

इस प्रदर्शन के आधार पर उन्हें कांस्य पदक मिला. यह उन का वर्ल्ड वेटरन कुश्ती में 8वां पदक है. उन्होंने इस से पहले 2006 में लातविया में हुई चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था. 2018, 2017 और 2016 में हुई वर्ल्ड वेटरन प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीता था.

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हर घर जल, नल योजना

भले ही आप के घर सरकारी नल जल योजना का पानी नहीं आया हो, भले आप हर महिने नगर निगम को सरकारी पानी का सारा टैक्स भरते होंगे और तब भी एक भी सरकारी नल का आप के आंगन में न हो. लेकिन तब भी आप इस योजना का पूरा का पूरा लुफ्त उठा रहें होंगे, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है.

इस योजना का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि मानसून में आयी देरी ने भी हमें बरसात वाले अहसास से दूर नहीं होने दिया. अब इस योजना की सार्थकता ही है कि जमीन के सीने से खिंचा हुआ पानी फिर जमीन पर ही बहता मिलता है. अब इसके लिए मजबूत पाइप लाइन जिम्मेदार है या हमारे यहां की पब्लिक उस पर बात करना एक अलग ही वाद विवाद को जन्म देना होगा.

जी हां कहीं फटी हुई पाइप से कल कल बहता पानी, तो कहीं बिना टोंटी के पाइप से छुटता फव्वारा और नहीं तो बिना मतलब बाल्टी के पैमाने से बाहर बहता पानी. ये सब हमारे यहां के नल जल योजना की निशानी है. बिहार सरकार के इस अद्भुत योजना की सार्थकता ही है जो भले लोगों को पीने को शुद्ध जल मयस्सर न हो पर सड़कों पर जमा पानी बरसात की कमी को महसूस नहीं होने देता है.

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बारिश की बुंद तन को है तो भीगोती है साथ ही साथ मन को आह्लादित कर देती है. पर जब यही बारिश का पानी पोखर, नालों और सड़कों को एक कर देता है तो सब गोबर हो जाता है. यही हाल हम लोगों का है मानसून की कमी से भले मन न भीगता हो पर गोबर जरूर हो जाता है. क्योंकि हर घर नल योजना से भले घरों तक जल नहीं पहुंचे पर सड़कों पर जलजमाव जैसी स्थिति अवश्य हो जाती है.

सड़कों पर जमा पानी जहां पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए कोढ़ का खाज साबित होता है. वहीं युवाओं के शरीर में उछलते कुदते एडर्निल हार्मोन की वजह से वो पूरी शिद्दत से सड़क पर जमा पानी उछाल कर बाइक चलाते हैं. कार वालों को अलग ही समस्या से दो चार होना पड़ता है सड़क पर जमा पानी के बीच वे नाले और कभी कभी योजना के लिए कोड़े गए गढ्ढे में अन्तर नहीं कर पाते हैं और अंतहीन परेशानी से रुबरु होते हैं.

इन सब बातों को पढ़ कर आप लोग किसी नकारात्मकता को अपने सिर पर हावी नहीं होने दिजिगा. बल्कि इस योजना से होने वाले फायदों पर भी गौर फरमाइयेगा. दरसल बिहार एक ऐसा राज्य जहां आज भी वसुधैव कुटुबं का मान रखा जाता है और घर आनेवाले आगंतुकों का पैर पखार कर स्वागत किया जाता है. ऐसे में नल का जल योजना की सार्थकता की वजह से आगंतुक के चरण अपने आप ही सड़कों पर बहते पानी की धारा से धुल जाते हैं. ऐसे में न तो आगंतुक अपने मान सम्मान में कोताही की शिकायत कर सकता है. साथ ही साथ मेजबान का भी एक काम भी हल्का हो जाता है.

बिहार में आज भी पर्दा प्रथा है, सिर पर घुंघट और चेहरे पर नजाकत यहां की संस्कृति है. लेकिन भला हो इस योजना का पाश्चात्य संस्कृति की बयार यहाँ भी बहने लगी है. लड़कियों और महिलाओं ने अपने कपड़ों के चुनाव में थोड़ा परिवर्तन कर दिया है सलवार और साड़ी की जगह कहीं न कहीं स्कर्ट और कैपरी ने ली है.

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फायदें तो अनगिनत हैं पर अगर सब गिनाने लगूँ तो यह योजना गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड चली जाए. अत: मैं अपनी लेखनी को फिलहाल विराम देती हूँ.

जमीन से बेदखल होते गरीब और आदिवासी

देश के कुदरती संसाधनों यानी जल, जंगल, जमीन पर सभी नागरिकों का समान हक है. कहने को यह बात बड़ी अच्छी लगती है, मगर असलियत में हो क्या रहा है, इस समझने के लिए हाल ही में राजस्थान में घटे 2 मामले काफी हैं:

मामला 1

झुंझुनूं के गुढ़ा उदयपुरवाटी गांव में 25 सदस्यों की वन विभाग की टीम बाबूलाल सैनी के घर में पहुंचती है और घर को हटाने की तैयारी करती है.

बाबूलाल का यहां टीनशैड का पुश्तैनी मकान है, जो उसे अपने बापदादा से विरासत में मिला है.

जोरआजमाइश के बीच बाबूलाल खुद को तेल डाल कर आग के हवाले कर देता है. गंभीर हालत में वह झुंझुनूं के एक अस्पताल से होते हुए जयपुर अस्पताल में भरती हो जाता है.

बाबूलाल का भाई मोतीलाल कहता है कि उन को पहले कोई कानूनी नोटिस नहीं दिया गया.

मामला 2

नागौर के राउसर की बंजारा बस्ती को हटाने के लिए जेसीबी समेत भारी पुलिस व प्रशासनिक अमला मौके पर पहुंचता है. जेसीबी चला कर कच्चेपक्के मकानों को तोड़ दिया जाता है.

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इस दौरान बस्ती के तमाम लोगों व प्रशासनिक अमले के बीच झड़प शुरू हो जाती है. नतीजतन, जेसीबी चालक के सिर पर चोट लगने से उस की मौके पर ही मौत हो जाती है.

इस देश में विकास के नाम पर 14 राज्यों में करोड़ों आदिवासियों को उन जमीनों से खदेड़ कर फेंका गया है, जिन पर वे सैकड़ों साल से रह रहे थे.

हाल ही में उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में 10 आदिवासियों को भी गुंडों ने इसीलिए मार दिया था.

राजस्थान में पिछले दिनों शेखावटी इलाके में एक किसान ने खुद पर तेल छिड़क कर इसलिए आग लगा ली थी, क्योंकि 3 पीढ़ी जिस जमीन पर रहती आई थीं, उस को अवैध कब्जा बता कर प्रशासन तोड़ने पहुंच गया था.

नागौर में 25 अगस्त, 2019 को जिस बस्ती वालों को उजाड़ा गया, उन के उस पते पर वोटर आईडी कार्ड, आधारकार्ड बने हुए थे. बिजली विभाग के दिए कनैक्शन थे. ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत सरकार ने शौचालय बनवाए थे.

मतलब, उस पते पर हर वह दस्तावेज बना हुआ था, जो भारत के नागरिक के पास होता है, फिर यह गैरकानूनी कब्जा कैसे हो गया? अगर यह गैरकानूनी कब्जा था तो गांव के सरपंच, पटवारी, तहसीलदार, एसडीएम, डीएम, बिजली विभाग के एईएन, बीडीओ वगैरह इस के जिम्मेदार व कुसूरवार हैं.

बात सिर्फ यह नहीं है कि यह अवैध कब्जा था, बल्कि असल बात भूमाफिया व अधिकारियों की मिलीभगत की है. नागौर शहर की आधी से ज्यादा सरकारी जमीन पर भूमाफिया का कब्जा है और उस को हटाने का कोर्ट का आदेश भी है, मगर अधिकारी उन का हरमुमकिन बचाव कर रहे हैं, क्योंकि बात हिस्सेदारी की है.

आजादी से पहले इस देश में हर नागरिक को सरकारी जमीन पर रहने का हक था. आजादी के बाद हुई पहली पैमाइश में जहांजहां भी लोग स्थायी रूप से रह रहे थे, उसे आबादी भूमि दर्ज कर के तत्कालीन स्थायी आवास करने वाली जनसंख्या को आवास का अधिकार तो दे दिया, पर इन दिनों घुमक्कड़ रह कर जिंदगी बिताने वाली बंजारा, गाडि़या लोहार, बागरिया, कंजर, नाथ, जोगी, सपेरा जैसी अनेक जातियों को आवास के लिए किसी न किसी सरकारी जमीन पर ही बसना पड़ा.

लोकतंत्र में लोक जब जातिधर्म में बिखर जाता है, तो गुंडेमवाली जोरजुल्म करने लग जाते हैं. विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की जमीनों की जांच की जाए तो 99 फीसदी के फार्महाउस, बंगले गैरकानूनी कब्जे की जमीन पर मिलेंगे.

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राजस्थान का ही हाल देखा जाए तो आधी आबादी वन भूमि, गोचर, पहाड़ी, पड़त, बंजर वगैरह इलाकों में रहती है और हजारों सालों से रह रही है. आजादी के बाद भूसुधार अधिनियम लागू करना था, मगर तत्कालीन राजारजवाड़ों से निकले नेताओं की हठ के चलते ठीक से लागू नहीं हो पाया.

निजी कंपनियों को ये ही जमीनें कौडि़यों के भाव में दी जा रही हैं. जगहजगह भूमाफिया ने सरकारी जमीनों पर कब्जा कर रखा है, जिस में नेताओं का संरक्षण व हिस्सेदारी शामिल है.

आजादी के बाद राजस्थान के तत्कालीन किसान नेताओं ने टेनेंसी ऐक्ट के जरीए किसानों को खेती वाली जमीन का मालिक जरूर बना दिया, मगर उन के घरों के संबंध में ठोस कानून नहीं बन पाए.

वजह यह है कि मुख्यधारा से कटी भारत के वनों पर आश्रित एक बड़ी आबादी को देश की सर्वोच्च अदालत में अपना आशियाना बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ रही है.

हाल ही में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई के बाद सर्वोच्च अदालत ने वनों पर आश्रित आदिवासी समुदायों को अतिक्रमणकारी घोषित करते हुए वनभूमि से बेदखल करने का फरमान सुनाया था.

संसद में 18 दिसंबर, 2006 को अनुसूचित जाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 सर्वसम्मति से पास किया गया था. एक साल बाद 31 दिसंबर, 2007 को इसे लागू करने की अधिसूचना जारी की गई थी.

इस से पहले भारत में वनों के संबंध में साल 1876 से साल 1927 के बीच पास किए गए भारतीय वन कानूनों के प्रावधानों को ही लागू किया जाता था. एक लंबे वक्त तक साल 1927 का वन कानून ही भारत का वन कानून रहा.

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हालांकि ऐसे किसी भी कानून का पर्यावरण और वन सरंक्षण से कोई सरोकार नहीं था, लेकिन फिर भी पर्यावरण और वन संरक्षण के नाम पर जहांतहां इस का बेजा इस्तेमाल किया जाता रहा. भारत सरकार की टाइगर टास्क फोर्स ने भी यह माना है कि वन संरक्षण के नाम पर गैरकानूनी और असंवैधानिक रूप से जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है.

क्या मंजिल तक पहुंच पाएगी ‘स्वाभिमान से संविधान यात्रा’

दलितों के सिर पर इन दिनों आरक्षण के छिन जाने का एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है. कुछ का अंदाजा है कि भाजपा पहले राम मंदिर बनाने को प्राथमिकता देगी, जबकि कुछ को डर है कि वह पहले आरक्षण खत्म करेगी और उस के तुरंत बाद ही राम मंदिर का काम होगा जिस से संभावित दलित विद्रोह और हिंसा का रुख राम की तरफ मोड़ कर उसे ठंडा किया जा सके.

पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण को ले कर अपनी मंशा यह कहते हुए जाहिर की थी कि आरक्षण विरोधी और समर्थकों को शांति के माहौल में बैठ कर इस मसले पर बातचीत करनी चाहिए, मतलब, ऐसी बहस जिस पर हल्ला मचेगा और यही भगवा खेमा चाहता है.

यह बातचीत हालांकि एकतरफा ही सही, सोशल मीडिया पर लगातार तूल पकड़ रही है जिस में सवर्ण भारी पड़ रहे हैं और इस की अपनी कई वजहें भी हैं.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार दलित बड़े पैमाने पर भाजपा की तरफ झुके थे तो इस की एक बड़ी वजह बतौर प्रधानमंत्री पेश किए गए खुद नरेंद्र मोदी का उस तेली साहू जाति का होना था जिस की गिनती और हैसियत आज भी दलितों सरीखी ही है.

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तब लोगों खासतौर से दलितों को लगा था कि भाजपा केवल सवर्णों की नहीं, बल्कि उन की भी पार्टी है जो उस ने तकरीबन एक दलित चेहरा पेश किया.

इस के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ने दलित प्रेम का अपना दिखावा जारी रखा और तरहतरह के ड्रामे किए, जिन में उस के बड़े नेताओं का दलितों के घर जा कर उन के साथ खाना खाना और दलित संतों के साथ कुंभ स्नान प्रमुख थे.

इस का फायदा उसे मिला भी और दलित उसे वोट करते रहे. साल 2019 के चुनाव में आरक्षण मुद्दा बनता लेकिन बालाकोट एयर स्ट्राइक की सुनामी उसे बहा ले गई और राष्ट्रवाद के नाम पर सभी लोगों ने नरेंद्र मोदी को दोबारा चुना.

3 तलाक और कश्मीर में मनमानी थोपने के बाद जैसे ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण का मुद्दा उठाया तो दलित समुदाय बेचैन हो गया, क्योंकि अब राजनीति में उस का कोई माईबाप नहीं है और बसपा प्रमुख मायावती भी भाजपा के सुर में सुर मिला रही हैं.

पिछले 5 साल में भाजपा तकनीकी तौर पर दलितों को दो फाड़ कर चुकी है और ज्यादातर नामी दलित नेता उस की गोद में खेल रहे हैं, जिन्होंने उस की असलियत भांपते हुए इस साजिश का हिस्सा बने रहने से इनकार कर दिया, उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकने में भी भाजपा ने देर नहीं की. इन में सावित्री फुले और उदित राज के नाम प्रमुख हैं.

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कांग्रेस का दांव

इधर कांग्रेसी खेमे को यह अच्छी तरह समझ आ रहा है कि उस की खिसकती जमीन की अहम वजह परंपरागत वोटों का उस से दूर हो जाना है जिन में मुसलमानों से भी पहले दलितों का नंबर आता है.

अब कांग्रेस भूल सुधारते हुए फिर दलितों को अपने पाले में लाने के लिए ‘स्वाभिमान से संविधान’ नाम की यात्रा निकालने जा रही है. इस बाबत उस का फोकस हालफिलहाल 3 राज्यों हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव हैं.

कुछ दिन पहले ही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के नेताओं से मुलाकात कर इस यात्रा को हरी झंडी दे दी है जिस के तहत फिर से दलितों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए युद्ध स्तर पर कोशिशें की जाएंगी.

कांग्रेस के अनुसूचित जाति विभाग के मुखिया नितिन राऊत की मानें, तो ‘स्वाभिमान से संविधान यात्रा’ के तहत हरेक विधानसभा में एक कोऔर्डिनेटर नियुक्त किया जाएगा जो अपनी विधानसभा में इस यात्रा को आयोजित करेगा.

दलितों को लुभाने का यह दांव कितना कामयाब हो पाएगा, यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे, लेकिन कांग्रेस की एक बड़ी मुश्किल यह है कि उस के पास भी बड़े और जमीनी दलित नेताओं का टोटा है.

इधर सोशल मीडिया पर भगवा खेमा लगातार यह कह रहा है कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव समेत दलितों को सताने के मामले अब कम ही होते हैं. फसाद या बैर की असल जड़ तो आरक्षण है जिस के चलते दलित अपनी काबिलीयत नहीं दिखा पा रहे हैं. सवर्ण तो चाहते हैं कि दलित युवा अपनी काबिलीयत के दम पर आगे आ कर हिंदुत्व की मुख्यधारा से जुड़ें, उन का इस मैदान में स्वागत है.

यह कतई हैरानी की बात नहीं है कि मुट्ठीभर दलित युवा इसे एक चुनौती के रूप में ले रहे हैं और ये वे दलित हैं, जिन्हें अपने ही समुदाय के लोगों की बदहाली की असलियत और इतिहास समेत भविष्य का भी पता नहीं.

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ये लोग भरे पेट हैं, शहरी हैं और यह मान बैठे हैं कि पूरा दलित समुदाय ही उन्हीं की तरह है जिसे आरक्षण की बैसाखी फेंक देनी चाहिए.

यही दलित युवा भाजपा की ताकत हैं जो आरक्षण खत्म होने पर तटस्थ रह कर अपने ही समाज की बरबादी में योगदान देंगे, क्योंकि सवर्ण उन्हें गले लगा कर बराबरी का दर्जा देते हैं. उन के लिए यह साजिश भरी बराबरी ही ऊपर वाले का प्रसाद है.

बारीकी से गौर किया जाए तो भाजपा दलितों को बहलाफुसला कर आरक्षण छोड़ने पर राजी करने की भी कोशिश कर रही है और वही धौंस भी दे रही है जो 3 तलाक और धारा 370 के मुद्दों पर मुसलमानों को दी थी कि यह कोई बदला या ज्यादती नहीं, बल्कि तुम्हारे भले की ही बात है.

अगर सीधे से नहीं मानोगे तो यह काम दूसरे तरीकों से भी किया जा सकता है, लेकिन भाईचारा और भलाई इसी में है कि सहमत हो जाओ.

अब ऐसे में अगर कांग्रेस की यात्रा हवाहवाई बातों और सीबीएससी की बढ़ी हुई फीस जैसे कमजोर मुद्दों में सिमट कर रह गई तो लगता नहीं कि वह मंजिल तक पहुंच पाएगी.

सर्विलांस: पुलिस का मारक हथियार

मोबाइल क्रांति ने पुलिस को ऐसा हथियार दे दिया है, जिसे वह कभी खोना नहीं चाहेगी. छोटेबड़े अपराधों की गुत्थी सुलझाने में सर्विलांस का रोल बेहद अहम हो गया है. निगरानी करने और अपराधी तक पहुंचने में इस से बड़ा जरीया कोई दूसरा नहीं है.

वैसे, सर्विलांस को लोगों की निजता में सेंध मान कर विरोध का डंका भी पिटता रहा है कि कानून व सिक्योरिटी के नाम पर पुलिस कब और किस की निगरानी शुरू कर दे, इस बात को कोई नहीं जानता. लेकिन पुलिस न केवल डकैती, हत्या, लूट, अपहरण व दूसरे अपराधों को इस से सुलझाती है, बल्कि अपराधी इलैक्ट्रोनिक सुबूतों के चलते सजा से भी नहीं बच पाते हैं.

क्या है सर्विलांस

आम भाषा में मोबाइल फोन को सैल्युलर फोन व वायरलैस फोन भी कहा जाता है. यह एक इलैक्ट्रोनिक यंत्र है. अपराधियों तक इस की पहुंच आसान हो जाती है. उन की लोकेशन को ट्रेस करने में सब से अहम रोल सर्विलांस का होता है. किसी अपराधी की इलैक्ट्रोनिक तकनीक के जरीए निगरानी करना ही सर्विलांस कहा जाता है.

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80-90 के दशक तक पुलिस अपनी जांच के लिए मुखबिरों पर निर्भर रहती थी, लेकिन साल 1998 में आपसी संचार के लिए मोबाइल कंपनियों के आने के साथ ही अपराधियों ने वारदातों में मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. पुलिस ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाए और सर्विलांस का दौर शुरू हो गया.

इस से निगरानी और अपराध की जांच का तरीका बदल गया. कई बड़ी वारदातों को सर्विलांस के जरीए आसानी से सुलझाया गया, तो यह पुलिस के लिए मारक हथियार साबित हुआ. इस के बाद पुलिस वालों को सर्विलांस के लिए ट्रेनिंग दी जाने लगी.

सर्विलांस ऐसे करता काम

किसी भी अपराध के होने पर सब से पहले पुलिस पीडि़त व संदिग्ध लोगों के मोबाइल नंबरों की मोबाइल सेवा देने वाली कंपनियों से काल की डिटेल निकलवाती है. इस से कई तरह की जानकारियां मिल जाती हैं यानी कब, कहां व किस से बात की गई. इस के जरीए काल या एसएमएस के समय का पता लगा लिया जाता है.

सभी मोबाइल कंपनियां ऐसा डाटा महफूज रखती हैं. इन कंपनी के मेन स्विचिंग सैंटर (एमसीए) में यह सब डाटा जमा रहता है. सिक्योरिटी संबंधी नियमों का सख्ती से पालन किया जाता है. इतना ही नहीं, वारदात के वक्त कौन कहा था, इस का भी पता चल जाता है.

अगर इस से भी बात नहीं बनती है, तो पुलिस वारदात वाले इलाके के उन सभी मोबाइल नंबरों का पता लगा लेती है जो उस वक्त मोबाइल टावर के संपर्क में थे. यह जरूरी नहीं कि काल की जाए, बिना काल के भी मोबाइल की सक्रियता का पता लगाया जा सकता है.

दरअसल, नैटवर्क सबस्टेशन के मुख्य भाग पब्लिक स्विचिंग टैलीफोन नैटवर्क (पीसीटीएन) की तरंगें मोबाइल फोन पर लगातार पड़ती रहती हैं जिन के जरीए नैटवर्क की तारतम्यता बनी रहती है. वौइस चैनल लिंक का काम टावर ही करता है. ट्रांसीवर के जरीए काल का लेनादेना होता है. डाटा से पता चल जाता है कि किस वक्त कितने मोबाइल टावर के संपर्क में थे. वारदात से पहले या बाद के सक्रिय मोबाइल फोन पर खास नजर होती है.

इस के बाद संदिग्ध नंबरों की निशानदेही कर ली जाती है. यह पता किया जाता है कि नंबर को किस आदमी के एड्रैस प्रूफ पर कंपनी ने अलौट किया है. हालांकि पुलिस के लिए यह काम कई बार भूसे के ढेर से सूई निकालने के समान होता है. हजारों नंबरों में से संदिग्ध नंबरों को ढूंढ़ना आसान काम नहीं होता है. ऐक्सपर्ट इस में दिनरात एक करते हैं. नामपता निकलवा कर संबंधित लोगों से पूछताछ की जाती है.

पुलिस से बचने के लिए बहुत से अपराधी गलत नामपते पर मोबाइल सिमकार्ड खरीदते हैं. नियमों की सख्ती के बाद अब सिमकार्ड खरीदना इतना आसान नहीं रहा. सरकार ने इस के लिए सख्त गाइडलाइंस बना दी हैं.

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सर्विलांस के दूसरे चरण में पुलिस के सर्विलांस ऐक्सपर्ट की टीम संदिग्ध नंबर को ट्रेस कर उसे सर्विलांस पर लगा देती है. सर्विलांस पर लगने के बाद वह कहां आताजाता है, इस का पता पुलिस को चलता रहता है. संभावित ठिकानों और उस की गतिविधियों समेत 6 तरह के खास बिंदुओं से पुलिस अनजान नहीं होती. पुलिस उन के मोबाइल पर हर आनेजाने वाली काल सुनती है. उस की लोकेशन को आसानी से ट्रेस कर अपराधियों तक पहुंच जाती है.

इलैक्ट्रोनिक सुबूतों को झुठलाना किसी के लिए आसान भी नहीं होता. अपराधी शातिराना अंदाज दिखा कर कई बार सब्सक्राइबर आइडैंटिफाई मौड्यूल (सिमकार्ड) बदल लेते हैं, पर हर मोबाइल का अपना इंटरनैशनल मोबाइल इक्यूपमैंट आइडैंटिटी (आईएमईआई) नंबर होता है. सिमकार्ड के बदलते ही उस की इंफोर्मेशन सेवा देने वाली कंपनी तक पहुंच जाती है.

इतना ही नहीं, यह भी पता लगा लिया जाता है कि किस मोबाइल पर कब और कितने नंबरों का इस्तेमाल किया गया. सारा डाटा मिलने पर अपराधियों तक पुलिस की पहुंच हो जाती है.

मोबाइल कंपनियां इस काम में पुलिस को भरपूर सहयोग करती हैं. भारत सरकार द्वारा इस संबंध में सभी मोबाइल कंपनियों को नियमावली दी गई?है. पुलिस को चकमा देने के लिए अपराधी इस में भी हथकंडे अपनाते हैं. वे सिमकार्ड के साथ मोबाइल भी बदलते रहते हैं.

सर्विलांस अपराध और अपराधी दोनों पर ही लगाम लगाता है. मोबाइल फोन चोरी होने की दशा में आईएमईआई नंबर के जरीए ही पुलिस मोबाइल को खोजती है. यह एक ऐसी पहचान है, जिसे किसी भी दशा में मिटाया नहीं जा सकता.

बच नहीं पाते अपराधी

देश के बड़े मामलों की बात करें, तो संसद पर आतंकी हमला, शिवानी भटनागर हत्याकांड व फिरौती के लिए किए गए अपहरण के बड़े मामलों में पुलिस सर्विलांस के जरीए ही खुलासे व गिरफ्तारियां करने में कामयाब रही.

शिवानी भटनागर हत्याकांड में काल डिटेल के आधार पर पुलिस आरोपियों तक पहुंची. संसद हमले में जांच एजेंसी ने पाया कि आतंकवादियों का प्लान पहले से बनाया हुआ था.

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सर्विलांस की उपयोगिता को नकारने वाला कोई नहीं है. पुलिस के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है. ट्रेनिंग के दौरान पुलिस वालों को अब ट्रेनिंग सैंटरों में ऐसी तमाम तकनीकों का पाठ भी पढ़ाया जाता है.

मोबाइल के जरीए होने वाले अपराध में अपराधियों के खिलाफ अदालत में सुबूत पेश करना आसान होता है. उन्हें झुठलाना आसान नहीं होता है.

संसद हमले में फैसला देते हुए कोर्ट ने आतंकवादियों से संबंधित मोबाइल फोन के आईएमईआई नंबर व काल डिटेल को अहम सुबूत माना था. सुबूतों के तौर पर मोबाइल व सिमकार्ड की फोरैंसिक ऐक्सपर्ट से जांच भी कराती है, ताकि सुबूत मजबूत हो सकें.

सीमित है अधिकार

ग्लोबल वैब इंडैक्स के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 88.6 करोड़ से ज्यादा लोगों के पास मोबाइल हैं. 70 फीसदी से ज्यादा आबादी मोबाइल उपभोक्ता हैं.

ये आंकड़े साल 2014 के हैं. यह तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. वर्तमान दौर में 10 में से 3 लोगों के पास मोबाइल फोन हैं.

लेकिन किसी के व्यापारिक हितों, निजी जिंदगी में ताकझांक व राजनीतिक दुश्मनी के चलते मोबाइल नंबरों को सर्विलांस पर लेना तकनीक के साथसाथ अधिकारों का गलत इस्तेमाल है. पकड़े जाने पर ऐसे पुलिस वालों को सजा देने का नियम है. इस के लिए बने ऐक्ट व संविधान के अनुच्छेद पुलिस को इस की इजाजत नहीं देते.

पुलिस को देश के किसी भी नागरिक का मोबाइल टेप करने का अधिकार नहीं होता. इंटरनल सिक्योरिटी ऐक्ट, पोस्ट ऐंड टैलीग्राफ ऐक्ट और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के जरीए आपराधिक गतिविधियों में लिप्त लोगों के नंबर पुलिस सर्विलांस पर ले सकती है. इस के लिए भी आला अफसरों व शासन की इजाजत लिया जाना अनिवार्य होता है. मोबाइल फोन सेवादाता कंपनी को लिखित प्रस्ताव देना होता है और उचित कारण भी बताया जाता है.

मोबाइल कंपनियां इस के बाद जरूरी डाटा मुहैया कराने के साथ ही उपभोक्ता के मोबाइल के सिगनल पुलिस के मोबाइल पर डायवर्ट कर देती हैं. एक बार नंबर के सर्विलांस पर लगने के बाद न सिर्फ रोजाना की उस की लोकेशन मिल जाती है, बल्कि उस के मोबाइल पर आनेजाने वाली काल को सुनने के साथ टेप भी किया जा सकता है.

निगरानी रखना भी जरूरी

आतंक और अपराध से दोदो हाथ करते देश में सरकार का सैंट्रल मौंनिटरिंग सिस्टम, खुफिया एजेंसियां, सुरक्षा एजेंसियां व पुलिस की विभिन्न यूनिट ला ऐंड और्डर व सुरक्षा के चलते शक होने पर निगरानी करती रहती हैं. उन्हें चंद औपचारिकताओं के बाद यह अधिकार है.

सुरक्षा और गोपनीयता के मद्देनजर इस तकनीक को विस्तृत रूप से और आंकड़ों को उजागर नहीं किया जा सकता. एजेंसियों के ऐसा करते रहने से कई बार बड़ी वारदातों के साथ देश भी खतरों से बचता है.

एक इलैक्ट्रोनिक जासूस हमारे इर्दगिर्द होता है. कई बार पुलिस वाले अपने पद का गलत इस्तेमाल कर किसी के नंबर की काल डिटेल्स निकलवाने के साथ ही फोन टैप कर लेते हैं. इस तरह के चंद मामले सामने आने के बाद अब यह इतना आसान नहीं है. अब उचित कारण बता कर इस की इजाजत बड़े अफसरों से लेनी होती है. गंभीर मामलों में सरकार इस की इजाजत देती है. प्राइवेसी के मद्देनजर सख्त गाइडलाइंस हैं.

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हाईटैक होगी देश की पुलिस

भारतीय पुलिस को ज्यादा से ज्यादा हाईटैक बनाने की कोशिशें लगातार जारी हैं. देश में क्राइम कंट्रोल टैकिंग नैटवर्क सिस्टम (सीसीटीएनएस) लागू करने की योजना है. इस सिस्टम के सक्रिय होते ही अपराधियों को पकड़ना पुलिस के लिए और भी ज्यादा आसान हो जाएगा.

इस योजना के जरीए देश के सभी थाने इंटरनैट के जरीए आपस में जुड़ जाएंगे. किसी अपराधी का पूरा प्रोफाइल औनलाइन मिलने के साथ ही उस की गतिविधियों पर तीखी नजर रखने ब्योरा आपस में लिया व दिया जा सकेगा.

कुछ राज्यों में यह योजना शुरू भी हो चुकी है. उत्तराखंड के सभी थाने सीसीटीएनएस से लैस हैं. उत्तर प्रदेश में भी इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाने लगा है.

अफसरों की राय

ला ऐंड और्डर व राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर सरकारी तंत्र को सक्रिय रहना ही पड़ता है. तकनीक के विकास में हम दावे से कह सकते हैं कि पुलिस हाईटैक हो चुकी है. सर्विलांस पुलिस के लिए निश्चित ही अब एक बड़ा हथियार है.

-जीएन गोस्वामी, पूर्व आईजी उत्तराखंड पुलिस.

संचार क्रांति के दौर में अपराधियों से लड़ने के लिए तकनीकी रूप से और अधिक मजबूत करने के लिए पुलिस वालों को लगातार ट्रेनिंग दी जा रही है.

पुलिस का काम हर हाल में जनता की सुरक्षा करना है. किसी तरह से नियमों का उल्लंघन न हो, इस बात का भी खास खयाल रखा जाता है.

-रमित शर्मा, आईजी उत्तर प्रदेश पुलिस.

हम गृह मंत्रालय की गाइडलाइंस के मुताबिक ही काम करते हैं. समयसमय पर इस बाबत विभाग को निर्देश भी मिलते रहते हैं. गंभीर मामलों में उचित जांचपड़ताल कर के पुलिस को सहयोग किया जाता है. सर्विलांस की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होती.

-आशीष घोष, अफसर, बीएसएनएल.

किसी शख्स को लगता है कि पुलिस व मोबाइल कंपनी द्वारा उस के निजी अधिकारों का हनन हो रहा है, तो वह कानूनी लड़ाई लड़ सकता है. सर्विलांस की पुष्टि होने पर वह शख्स कोर्ट के अलावा मानवाधिकार आयोग भी जा सकता है.

-राजेश कुमार दुबे, वकील इलाहाबाद हाईकोर्ट.

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मुंबई के फेफड़ों पर फर्राटा मारेगी मेट्रो रेल, कितनी जल्दी भुला दिया न ग्रेटा की बातों को…

आपको याद है ग्रेटा थनबर्ग. कुछ दिनों पहले पूरी दुनिया में उसकी चर्चा हो रही थी. कलमकारों ने भी लंबे-चौड़े आर्टिकल लिखे और उसने जो किया उसको सराहा. लेकिन जिस वजह से वो 16 साल की लड़की न्यूयौर्क के यूएन औफिस में रोई थी आज भारत में उसी की अवहेलना की जा रही है. खैर, हम लोगों की एक खास आदत है और हमारी इस बुरी आदत से हुक्कमरां भली-भांति वाकिफ भी हैं. हम लोग किसी भी घटना को बहुत जल्दी भूलते हैं. जिस वक्त कोई घटना घटती है उस वक्त हमारा खून उबलता है. लेकिन कुछ वक्त हम भूल जाते हैं. आज अगर भारत में ग्रेटा थनबर्ग होती तो शायद वो फूट-फूटकर रोती.

इस आरे कौलोनी के भीतर 27 छोटे-छोटे गांव हैं और इन गांवों में सदियों से तकरीबन 8,000 आदिवासी रहते आए हैं. कई युवा आदिवासी व्यस्त मुंबई शहर में न रहकर इन शांतिपूर्ण गांवों में ही रहना पसंद करते हैं. लेकिन सरकार ने इनकी एक नहीं सुनी. युवाओं को पेड़ से लिपटे हुए तो देखा होगा. वो फूट-फूटकर रो रहे थे. प्रशासन से फरियाद कर रहे थे कि हमारी सांसों को मत छीनों. लेकिन उसका कोई फर्क नहीं पड़ा. मुंबई के आरे गांव में विकास की गंगा बहाई जा रही है. विकास के नाम पर हजारों पेड़ों को काट दिया गया.

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अब यहां बताते हैं कि गोरे गांव का इतिहास…

अरब सागर के किनारे. फिल्में बनती हैं, और रोजाना लोगों की भीड़ जमा होती है फिल्मी सितारों को देखने के लिए, शूटिंग देखने के लिए, और शहर की आपाधापी से थोड़ा दूर, समंदर से थोड़ा दूर एक मोहल्ला है, गोरेगांव. गोरेगांव फिल्म सिटी भी यहीं, और यहीं पर है “आरे मिल्क कौलोनी”. आरे मिल्क कौलोनी को देश के आज़ाद होने के थोड़े दिनों बाद ही बसाया गया था. सोचा गया था कि इस मिल्क कौलोनी के बनने से डेयरी के काम को बढ़ावा मिलेगा. 4 मार्च 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू खुद आए और पौधारोपण करके आरे कौलोनी की नींव रखी थी. आजादी के बाद जिस हरी-भरी कौलोनी की नींव रखी गई, देखते ही देखते उजाड़ दी गई.

आरे जंगल में करीब 2600 से ज्यादा पेड़ों को काटकर मेट्रो शेड के लिए इस्तेमाल किए जाने की योजना है. गोरेगांव और फिल्मसिटी के पास स्थित इस इलाके के पेड़ों को काटे जाने के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई थी जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया और इस इलाके को जंगल मानने से इनकार कर दिया.

मुंबई के जिस इलाके में पेड़ काटने के खिलाफ विरोध हो रहा है उसे ‘आरे मिल्क कौलोनी’ के नाम से भी जाना जाता है और इस इलाके को देश की आजादी के कुछ समय बाद ही बसाया गया था. 4 मार्च 1951 को पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पौधारोपण करने के साथ आरे कौलोनी की नींव रखी थी. पेड़ों से ढका यह इलाका 3166 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है. धीरे- धीरे आरे में पेड़ों की संख्या बढ़ी और बाद में यह इलाका संजय गांधी नेशनल पार्क से जुड़ गया. इसे बाद में आरे जंगल, छोटे कश्मीर, मुंबई का फेफड़ा जैसे नामों से भी पहचान मिली.

मुंबई को औक्सीजन देने वाले आरे पर खतरा तब मंडराना शुरु हुआ जबकि मायानगरी में मेट्रो ने दस्तक दी. साल 2014 में वर्सोवा से घाटकोपर तक मेट्रो की शुरुआत हुई. इसी के साथ मेट्रो का जाल बढ़ाने की बात होने लगी और मेट्रो को कार पार्किंग के लिए जगह की जरूरत महसूस हुई. इसके लिए आरे में करीब 2000 से ज्यादा पेड़ काटकर मेट्रो के लिए हजारों करोड़ की परियोजना शुरु करने की बात हुई.

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हर तरफ इसका पेड़ों को काटे जाने का विरोध होने लगा. पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में काम करने वालीं कई संस्थाओं और लोगों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई लेकिन वन विभाग की ओर से कहा गया कि आरे का इलाका कोई जंगल नहीं है. जब इसकी स्थापना हुई थी तो इसे व्यावसायिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने की ही योजना बनाई गई थी. बीएमसी ने साल 2019 में मुंबई मेट्रो रेल कॉरपोरेशन को 2600 पेड़ काटने की इजाजत दे दी.

फिलहाल ये तो है आरे की सच्चाई और अब तक उसमें क्या हुआ. इस मामले में राजनीति भी शुरू हो गई है. आदित्य ठाकरे ने भी मौका का फायदा उठाना चाहा. ठाकरे भी पहली बार चुनावी मैदान में उतरे हैं. बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश की लेकिन वो इसमें सफल नहीं हो पाए. अब एक प्रश्न और भी उठता है. आखिरकार मोदी सरकार इसको क्यों कटवाने चाहती है. हम ये नहीं कहते कि विकास नहीं होना चाहिए. मेट्रो की सुविधा होनी चाहिए लेकिन इसका कोई और उपाय और भी निकाला जा सकता है. कई प्रदर्शनकारियों ने बताया था कि इसको बचाया जा सकता था लेकिन नहीं बचाया गया.

यहां रहने वाले आदिवासी युवा श्याम प्रकाश भोइर कहते हैं, “जैसे एक बेटा अपनी मां के बगैर नहीं रह सकता, वैसे ही हम इस जंगल के बिना नहीं रह सकते. “एक पेड़ सिर्फ़ पेड़ नहीं होता. उसमें छिपकली, बिच्छू, कीड़े, झींगुर और चिड़िया भी रहती हैं. हर पेड़ की अपनी इकौलजी है. यह सिर्फ़ पेड़ की नहीं बल्कि हमारे अस्तित्व की बात है.” आरे के ही एक गांव में रहने वाली मनीषा ने बताया, “हमसे पिछली पीढ़ी पढ़ी-लिखी नहीं थी. वह कृषि पर निर्भर थी और आदिवासी लोग जंगलों से ही सब्ज़ियां इकट्ठा करते थे. हम भी उसी पर निर्भर थे. हम बाज़ार से कुछ भी नहीं ख़रीदते थे.”

मुंबई मेट्रो रेल प्राधिकरण ने कहा है कि किसी भी आदिवासी या वन्यजीव की जगह को कार डिपो के लिए नहीं लिया जाएगा लेकिन आदिवासियों का मानना है कि मेट्रो परियोजना के यहां आने के बाद वन्यजीवन पर इसका असर पड़ेगा. रेल प्राधिकरण के अनुसार, “यह एक महत्वपूर्ण परियोजना है. इलाके में यात्रा करने के दौरान हर दिन 10 लोग मर जाते हैं. मेट्रो शुरू होने के बाद मुंबई के स्थानीय लोगों का तनाव कम हो जाएगा.”

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समस्याओं के चाक पर घूमते कुम्हार

माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोय.

कबीरदास की यह बानी खरा सच साबित हो रही है. मिट्टी से बरतन बनाने की कला हजारों साल पुरानी है, लेकिन बदलते दौर में अब मिट्टी के बरतनों का चलन काफी घट गया है. मौजूदा हालात में ज्यादातर कुम्हार मिट्टी, पानी, पैसे और जातीय भेदभाव जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं.

शहर ले जा कर मिट्टी के बरतन बेचने में टूटफूट ज्यादा होती है. वैसे भी कागज और प्लास्टिक के बरतनों ने मिट्टी के बरतनों के खरीदार कम कर दिए हैं, इसलिए मिट्टी के बरतन बनाने के काम से गुजरबसर करना टेढ़ी खीर है.

वैसे भी अब मिट्टी के बरतनों की ज्यादा बिक्री नहीं होती, वाजिब कीमत भी नहीं मिलती, इसलिए बहुत से कुम्हार अपना पुश्तैनी कामधंधा छोड़ने को मजबूर हैं.

किल्लत ही किल्लत

उत्तर प्रदेश में हसनपुर, मेरठ के राधे कुम्हार ने बताया, ‘‘बरतन बनाने के लिए साफसुथरी और बढि़या किस्म की मिट्टी की जरूरत होती है, जो पहले गांव के आसपास ही मिल जाती थी, लेकिन अब तालाब गुम हो गए हैं. उन पर नाजायज कब्जे हैं. ग्राम सभाओं की पंचायती जमीनें भी ज्यादातर बिक चुकी हैं.

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‘‘हर तरफ बहुत तेजी से बड़ीबड़ी इमारतें बन रही हैं. बाकी कसर खनन माफिया ने पूरी कर दी है. किसी के खेत की उपजाऊ जमीन से मिट्टी नहीं ले सकते. पहले चारागाह व बंजर जमीनें होती थीं, जो अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती हैं. दूर से मिट्टी लाने में लागत बहुत आती है.

‘‘मिट्टी के अलावा अब पानी भी आसानी से और भरपूर नहीं मिलता है.  पहले गांव में कुएं और पोखर होते थे. वे सब अब सूख गए हैं या पाट दिए गए हैं. सरकारी हैंडपंप भी टूटे व खराब पड़े हैं. कहीं कोई सुनने वाला नहीं है, इसलिए मिट्टीपानी की किल्लत हमारे काम पर भारी पड़ रही है.’’

माली तंगहाली

कुम्हार टोले के धर्मवीर ने बताया, ‘‘दिक्कतों का कोई अंत नहीं है. पहले हमारी बस्ती में मिट्टी लाने और बरतन ले जाने के लिए गधे व खच्चर होते थे, पर अब एक भी नहीं हैं. किराए के टैंपो, ट्रौली या छोटे ट्रक से ढुलाई बहुत महंगी पड़ती है. इतने रुपए कहां से लाएं?

‘‘खादी ग्रामोद्योग से छूट और बैंक से कर्ज लेना आसान नहीं है. घूस और सिफारिश के बिना अब काम नहीं होते. महाजन से कर्ज लेना मजबूरी है. वह लिखता ज्यादा और देता कम है. कोई चीज गिरवी रखो तो 5 रुपए सैकड़ा और बिना गिरवी रखे 10 रुपए सैकड़ा तक का तगड़ा सूद लेता है. ऐसे में किस्त देना तो दूर सूद भी अदा नहीं होता.

‘‘ऐसे हालात में मिट्टी के बरतन बना कर गुजारा करना बहुत मुश्किल हो गया है. यह बड़ा नाजुक काम है. पहले सावधानी और सफाई से बनाना, फिर उसे धूप में सुखाना, उस के बाद आंच पर पकाना, फिर उसे रंगना और सजाना, तब जा कर एक बरतन तैयार होता है.

‘‘उसे अलगअलग रखने, उठाने, लादने और ले जाने, उतारने से बेचने तक में बहुत ज्यादा ध्यान रखना पड़ता है कि जरा सी भी ठसक न लगे. आजकल बढ़ती भीड़भाड़ और भागदौड़ में यह सब कर पाना हर किसी के लिए आसान काम नहीं रह गया है, इसलिए नई पीढ़ी इस काम को छोड़ रही है.’’

होता है भेदभाव

दरअसल, कुम्हार खुद को प्रजापति यानी दुनिया बनाने वाले ब्रह्मा का वंशज मानते हैं, लेकिन सदियों से चली आ रही जाति प्रथा के जहर ने इस तबके को भी नहीं छोड़ा है. पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे बहुत से पिछड़े गंवई इलाकों में कुम्हारों को आज भी अपने बराबर में नहीं बैठने दिया जाता है.

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कुम्हारों के बनाए गए घड़ों, सुराही और मटकों का पानी पीने वाले अगड़े हर मामले में उन्हें अपने से कमतर मान कर उन के साथ ऊंचनीच का भेदभाव बरतते हैं. सामाजिक भेदभाव होने की वजह से ही कुम्हारों के बच्चे इस धंधे से अपना मुंह मोड़ रहे हैं. वे शहर जा कर मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट भरने को ज्यादा तरजीह देने लगे हैं.

बदलाव है जरूरी

कुम्हारों की बदहाली को दूर करने के लिए सब से पहले यह जरूरी है कि उन्हें जमीनों के पट्टे, पंपसैट दिए जाएं, ताकि उन्हें उन का कच्चा माल यानी मिट्टीपानी मयस्सर हो सके.

मिट्टी के लोंदे से बरतन बनाने वाले पुराने चाक भारी होने से कम देर तक घूमते हैं. उन्हें डंडी से घुमाने में मेहनत ज्यादा लगती है, इसलिए थकान जल्दी होती है. वैसे, अब बिजली की मोटर से तेज घूमने वाले हलके व सुधरे हुए चाक बनने लगे हैं, जो सस्ते दाम पर मुहैया होने चाहिए.

राज्यों के ग्रामोद्योग बोर्ड व हस्तकला के महकमे मुहिम चला कर कुम्हारों को सौर ऊर्जा, बैटरी या बिजली से चलने वाले नए चाक व सुधरे हुए औजारों की किट और ट्रेनिंग की सहूलियत मुहैया कराएं, ताकि कुम्हार खुद को नए दौर में ढाल सकें.

ये हैं उपाय

कुम्हारों में पढ़ाईलिखाई, हुनरमंदी, नई तकनीक की जानकारी होने और जागरूकता बढ़ाना बेहद जरूरी है, ताकि वे बदलते वक्त के साथ कदम मिला कर तरक्की की दौड़ में शामिल हो सकें. साथ ही, उन के माल की बिक्री यानी बाजार की समस्या भी हल की जाए. ऐसा करना मुश्किल या नामुमकिन नहीं है. गुजरात के दूध उत्पादकों का कामयाब मौडल हमारे सामने है.

‘अमूल’ की तर्ज पर कुम्हारों के लिए सहकारी समितियां या स्वयंसहायता समूह बना कर उन्हें रियायती ब्याज दर पर कर्ज, छूट व माली इमदाद दी जाए, ताकि उन की बुनियादी समस्याएं हल हो सकें. साथ ही, उन का माल वाजिब कीमत पर सीधे गांव से खरीद कर बड़े शहरों में खुले शोरूमों तक वैसे ही लाया जाए, जैसे मदर डेरी की सफल स्कीम के तहत किसानों व बागबानों से उन की सब्जियां मंगाई जाती हैं.

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छत्तीसगढ़ के कोंडागांव जिले में एक गांव है कुम्हारपारा. वहां आज भी मिट्टी के बरतन व टैराकोटा की मूर्तियां बनाने का काम बखूबी होता है. तैयार माल त्योहारों, मेलों, आदिवासी इलाकों व हर हफ्ते के हाट बाजारों में बिक जाता है. ऐसे कई खास इलाके कई राज्यों में हैं.

आज भी ज्यादातर कुम्हार यह नहीं जानते हैं कि घड़े, मटके, सुराही, दीए, कुल्हड़ व गमलों वगैरह के अलावा मिट्टी की बोतल, तवे, कुकर, ज्वैलरी व फ्रिज वगैरह बहुत सी नई चीजें बन और बिक रही हैं, इसलिए ज्यादा कमाने के लिए नई तकनीक, नए तरीके व नए डिजाइन अपनाना बेहद जरूरी भी है और फायदेमंद भी. करदाताओं के पैसों से चल रहे ग्रामोद्योग बोर्ड अगर कुम्हारों को अपने खर्च पर बड़ेबड़े शहरों में लगी नुमाइशों में ले जाएं, तो उन की सोच और काम करने के पुराने तरीके सुधर सकते हैं.

न के बराबर कोशिशें

कुछेक सरकारी संगठनों ने खुद को ईकोफ्रैंडली यानी माहौल को माकूल दिखाने के लिए चंद ऐलान किए हैं. उत्तरपूर्व रेलवे की एक स्कीम के तहत गोरखपुर, लखनऊ, रायबरेली, आगरा, वाराणसी समेत कई बड़े रेलवे स्टेशनों पर मिट्टी के बरतनों में खाना परोसा जाएगा. इस बाबत कुम्हारों से मिट्टी के बरतन थोक में खरीदे जाएंगे. कामयाब रहने पर यह स्कीम देश के 400 बड़े रेलवे स्टेशनों पर लागू की जाएगी, ताकि कुम्हारों का माल बिके.

इसी तरह भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने देश के छोटे 29 हवाईअड्डों को जीरो प्लास्टिक करने के लिए स्ट्रा, प्लास्टिक की कटलरी, प्लास्टिक की प्लेट वगैरह के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई है. इस से भी मिट्टी के कुल्हड़ व प्लेटों का इस्तेमाल बढ़ेगा. प्लास्टिक हटाने व पर्यावरण बचाने के नाम पर ऐसे फरमान जारी करना कोई नई बात नहीं है.

केंद्रीय रेल मंत्री रहे लालू प्रसाद यादव ने कुम्हारों को राहत व रोजगार दिलाने के लिए रेलवे स्टेशनों पर कुल्हड़ में चाय देने का ऐलान किया था, पर प्लास्टिक व पेपर कप की भीड़ में मिट्टी के कुल्हड़ गुम हो गए.

दरअसल, सरकारी महकमों में घुसे दलालों की फौज के सामने असंगठित, कमपढ़े व गरीब कुम्हार नहीं टिक पाते हैं, इसलिए कुम्हारों का संगठित होना जरूरी है.

सरकारें भी गाल ज्यादा बजाती हैं. मसलन, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा वगैरह में माटी कला बोर्ड हैं, लेकिन इन का मकसद कुम्हारों को बढ़ावा व राहत देना कम, बल्कि छुटभैए नेताओं को बैठकों के नाम पर तफरीह व भत्ते की सहूलियतें दे कर नवाजना ज्यादा लगता है. किसी राज्य में कुम्हारों की भलाई की कोई नजीर नहीं बनी. हां, पिछले दिनों हरियाणा माटी कला बोर्ड से इस्तीफा दे चुके चेयरमैन करोड़ों रुपए की जमीन हड़पने में जरूर फंसे थे.

मिट्टी के बरतन बनाना बहुत पुराना व ऐसा ग्रामोद्योग है, जिस के रोजगार में आज भी लाखों लोग लगे हुए हैं, इस के बावजूद सरकारी अनदेखी, लापरवाही व भ्रष्टाचार के चलते यह पिछड़ व घिसट रहा है.

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पुरानी दस्तकारी को बढ़ावा देने के नाम पर चंद कारीगरों को नवाजना अलग बात है, इस से कुम्हारों के पूरे तबके का कोई भला नहीं होने वाला है, बल्कि हाथों से नायाब नमूने बना कर मिट्टी पर इबारत लिखने की सदियों पुरानी कला को बचाने के लिए कुम्हारों को मिट्टी, पानी, पूंजी, बाजार, कर्ज, छूट, माली इमदाद वगैरह की सहूलियतें देना जरूरी है.

डीजे अर्थात साउंड सिस्टम से होती मौतें

सच्ची घटना-

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में डीजे साउंड सिस्टम के भयावह आवाज के कारण, दो बुजुर्ग की असमय मौत हो गई. घटना एक धार्मिक आयोजन के दरमियान रात्रि को घटित हुई, जिसकी प्रतिक्रिया भी बड़े स्तर पर हुई. राजधानी रायपुर के महापौर प्रमोद दुबे ने  स्वीकार किया कि बुजुर्गों की मौत डीजे साउंड सिस्टम के कारण हुई है.

हमारे देश में पग पग पर कानून है और पग पग  पर उसका उल्लंघन भी हो रहा है.पुलिस, न्यायालय और राजनीति का भंवर कुछ ऐसा है कि जहां पहुंच गए, सब कुछ समय के चक्र में समा जाता है. इसी का एक सबसे बड़ा  उदाहरण है, आज का डीजे, जो कि गांव, गली से लेकर राजधानी तक अपना जौहर दिखा रहा है. उसकी गूंज, अनुगूंज  के साये में  आ रहे हैं, मौत के गाल में समा रहे हैं. मगर हममे  इतनी भी समझ और नैतिकता नहीं है कि इसे स्वविवेक  बंद कर दिया जाए.

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इसके लिए न्यायालय द्वारा सख्त कानून भी पारित कर दिया गया है. मगर इसके बावजूद डीजे पर ना हम स्वयं प्रतिबंध लगा पा रहे हैं और ना ही पुलिस अथवा कानून का डंडा इसे रोक पा रहा है. आइए!इस रिपोर्ट में डीजे सिस्टम को लेकर समाज में उठे प्रश्नों, विसंगतियों पर चर्चा की जाए.

धार्मिक आयोजन एक बड़ी आड़

डीजे की  आवाज  गांव की गलियों से राजधानी तक सुनाई पड़ती है,  मौका शादी-ब्याह का हो, या फिर धार्मिक कार्यक्रमों का. कोई बंदिश मानने वाला नहीं.

उच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी डीजे इस्तेमाल करने वालों और कानून का पालन कराने वालों के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही, फलत: विगत दिनों डीजे की भयावहता के फलस्वरूप दो   बुजुर्गों की मौत हो गई.कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि गाड़ियों में साउण्ड बाक्स लगाकर डीजे बजाना मोटर व्हीकल नियमों का उल्लंघन  है इसलिए प्रत्येक जिले के पुलिस अधीक्षक, जिलाधीश सुनिश्चित करें कि किसी  भी वाहन मे साउण्ड बाक्स न हो. मगर कोई वाहन मालिक इस कानून को नहीं मानता और साउंड बाक्स रखकर इस्तेमाल किया जा रहा  है, उस पर कठोर कार्रवाई की जाए. उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद जिला प्रशासन वाहन मालिक को नोटिस देकर ऐसे वाहनों को रिकार्ड  नही रख रहा. दिखाई दे  रहा है कि धार्मिक आयोजनों के आड़ में डीजे का भरपूर इस्तेमाल लोग कर रहे हैं धार्मिक भावनाओं को ठेस ना लगे यह मानकर प्रशासन कार्रवाई नहीं कर रहा.

उच्च न्यायालय का, आदेश मगर पालन नहीं हो रहा!

न्यायालय ने इसके लिए संबंधित नियम भी अपने आदेश में घोषित किए हैं जैसे दूसरी बार गलती करते पाए जाने पर वाहन का परमिट निरस्त किया जाए और बिना हाईकोर्ट के आदेश के उस वाहन को नया परमिट जारी नहीं किया जाए. छत्तीसगढ़ में सबसे पहले डीजे के मसले पर कोर्ट पहुंचे याचिकाकर्ता नितिन  ने छत्तीसगढ़ सरकार के खिलाफ 3 वर्ष पूर्व दिसंबर 2016 को हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी.

मामले में सभी पक्षों को सुनने के बाद उच्च न्यायालय ने विशेष रूप से उल्लेख किया था कि ध्वनि प्रदूषण से संबंधित कानून का छत्तीसगढ़ में कोई मतलब नहीं रह गया है, और कोई भी कानून का पालन करने के लिये तत्पर नहीं है, यहां तक कि कानून का पालन करवाने वाली एजेंसियां तथा अधिकारी ध्वनि प्रदूषण को लेकर  आंख कान बंद कर बैठे हैं!!दोषियों के विरूद्ध कार्रवाई नहीं होने से ध्वनि प्रदूषण करने को बढ़ावा मिल रहा है. कोर्ट ने बेहद सख्त भावना के साथ सरकार को प्रशासन को ताकीद किया था मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात रहा.

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कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि गाड़ियों में साउण्ड बाक्स लगाकर डीजे बजाना मोटर व्हीकल नियमों का उल्लंघन होता है इसलिए कलेक्टर और एसपी सुनिश्चित करें कि कोई भी वाहन पर साउण्ड बाक्स न बजने पाए. लेकिन आदेश को कोई वाहन मालिक नहीं मानता और साउंड बाक्स रखकर बजाता रहता है, ऐसी स्थिति में प्रशासन वाहन मालिक को नोटिस देकर ऐसे वाहनों को रिकार्ड रखें ताकि उन्हें दंडित किया जा सके कानून का पालन हो सके. उच्च न्यायालय के आदेशानुसार दूसरी बार गलती करते पाए जाने पर वाहन का परमिट निरस्त किया जाए और बिना हाईकोर्ट के आदेश के उस वाहन को नया परमिट जारी नहीं किया जाए.

जानलेवा भी है डीजे सिस्टम!

जैसा कि अब यह बात सार्वजनिक हो चुकी है कि शादी, विवाह एवं धार्मिक आयोजनों में बजने वाला साउंड सिस्टम डीजे हाई सिस्टम  विदेशों में पूर्ण रूप से प्रतिबंधित हो चुका है. मगर हमारे देश में आज भी गली चौराहे पर चाहे गणेश पूजा हो अथवा दुर्गा पूजा उत्सव अथवा शादी ब्याह हर जगह डीजे बजाना एक फैशन बन चुका है चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों ने भी डीजे को ले करके अपनी राय व्यक्त की है जिसके अंतर्गत डीजे बुजुर्ग व्यक्तियों के लिए प्लान घातक है वही मनोवैज्ञानिकों के अनुसार डीजे मस्तिष्क एवं हृदय के लिए बेहद नुकसान जनक माना गया है. कारण है कि जब जनहित में नितिन संघवी ने उच्च न्यायालय की दरवाजा खटखटाया तो वहां न्यायालय ने इसे गंभीरता से लेते हुए आदेश जारी किए

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कानून का उल्लंघन पाये जाने पर संबंधित अधिकारी पर न्यायालय के आदेश की अवमानना कार्यवाही होगी.वहीं स्कूल, कालेज, अस्पताल, कोर्ट, ऑफिस से 100 मीटर एरियल डिस्टेन्स पर लाउड स्पीकर बजने पर जब्त करें, द्वितीय बार पकड़ाने पर हाईकोर्ट के आदेश के बिना जब्ती वापस नहीं किया जाएगा. भी सामाजिक आयोजन अथवा

धार्मिक,  में तेजी से ध्वनि यंत्र बजाने वालों पर भी उच्च न्यायालय अवमानना की कार्रवाई पर करते हुए वाहन जब्त किया जाएगा.  न्यायालय ने कहा कि जब भी उपरोक्त कार्यक्रमों में निर्धारित मापदन्डों से अधिक ध्वनि विस्तार होने पर कार्यवाही की जावे , लोगों की भावना की कद्र करने हुये विनम्रता पूर्वक   न्यायालय के आदेश का पालन करने को कहा  जाए , अगर आयोजक विरोध करता है तो उसके विरूद्ध कोर्ट में कार्यवाही की जावे तथा इसके अतिरिक्त संबंधित अधिकारी आयोजक के विरूद्ध माननीय उच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करने पर अवमानना का प्रकरण उच्च न्यायलय के दायर में करें.

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उच्च न्यायालय ने इसके अलावा प्रेशर हार्न  यानी मल्टी टोन्ड हार्न प्रतिबंधित करने के साथ दोबारा गलती करने पर वाहन जब्त करने के साथ उसकी अनुमति के बाद ही वापस करने का निर्देश दिया है . न्यायालय ने अपने आदेश में लिखा था कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट या फिर व्यावसायिक वाहनों को फिटनेस सर्टिफिकेट प्रदान करते समय संबंधित अधिकारी सुनिश्चित करे कि उसमें तेजी से बजने वाले हार्न कदापि  न हों.

इसके अलावा अन्य अवसरों पर अगर प्रेशन हार्न अथवा मल्टी टोन्ड हार्न पाया जाता है तो संबंधित अधिकारी तत्काल ही उसे वाहन से निकालकर नष्ट करने के साथ रजिस्टर में दर्ज करेगा. लोक प्राधिकारी इस संबंध में वाहन नंबर के साथ मालिक तथा चालक का डाटा बेस इस रूप् में रखेगा कि दोबारा अपराध करने पर वाहन जब्त किया जाएगा. उच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही ऐसे वाहनों को छोड़ा जाएगा. मगर इस सबके बावजूद छत्तीसगढ़ में यह रिपोर्ट लिखे जाने वक्त तक सब कुछ राम भरोसे चल रहा है.

बाल विवाह आखिर क्यों?

आसपास की ढाणियों के बच्चे इकट्ठा हो कर सुबह स्कूल जाते थे और छुट्टी होने के बाद वापस अपनी अपनी ढाणी में आ जाते थे.

उस दिन रीना के घर मेहमान आए हुए थे. इस वजह से सुबह उस ने अपनी मां के काम में हाथ बंटाया, जिस से उसे कुछ देर हो गई. नतीजतन, आसपास की ढाणी के बच्चे स्कूल चले गए.

काम निबटा कर रीना भी तैयार हो कर स्कूल की तरफ दौड़ पड़ी. वह अभी स्कूल से तकरीबन एक किलोमीटर दूर थी कि पास की ढाणी का एक नौजवान विक्रम आता दिखा.

रीना स्कूल के लिए लेट हो गई थी. लिहाजा, वह भागती हुई जा रही थी. तभी विक्रम ने उसे पुकारा, ‘‘रीना, आज अकेले ही स्कूल जा रही हो. दूसरे बच्चे कहां हैं?’’

‘‘मैं लेट हो गई हूं. सब बच्चे पहले ही स्कूल चले गए हैं,’’ रीना ने हांफते हुए कहा.

यह सुन कर विक्रम के सिर पर शैतान सवार हो गया. उस ने इधरउधर निगाह डाली. दूर तक कोई नहीं दिख रहा था. चारों तरफ रेतीले टीले थे. बीच में आक, खेजड़ी, केर के पेड़ों के झुरमुट थे.

विक्रम ने रीना को आवाज दे कर रुकने का इशारा किया, ‘‘रीना, जरा रुकना. तुम अपने पापा को यह चिट्ठी दे देना,’’ वह अपनी जेब में हाथ डालते हुए उस के नजदीक आ गया.

रीना बोली, ‘‘जल्दी चिट्ठी दो. मैं स्कूल के लिए लेट हो रही हूं.’’

पास आ कर विक्रम ने उसे दबोच लिया. रीना डर के मारे थरथर कांप रही थी, फिर भी वह हिम्मत जुटा कर बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हो… छोड़ो मुझे.’’

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रीना ने छूटने की बहुत कोशिश की, मगर नाकाम रही.

रीना खूब रोईगिड़गिड़ाई, मगर उस दरिंदे ने रेप करने के बाद ही उसे छोड़ा.

विक्रम ने रीना को धमकी दी कि अगर किसी को बताया, तो वह उसे और उस के मांबाप को मार डालेगा.

13 साल की उम्र में रीना की इज्जत लूट ली गई. उस का दर्द के मारे बुरा हाल था. वह स्कूल जाने के बजाय घर लौट आई.

मां ने जब बेटी को वापस आते देखा तो पूछा, ‘‘क्या हुआ? तू स्कूल नहीं गई क्या? वापस कैसे आई?’’

रीना दर्द से कराहते हुए बोली, ‘‘मां, वह विक्रम है न ऊपर की ढाणी वाला. उस ने मेरे साथ खोटा काम किया है और धमकी दी है कि किसी को बताना नहीं. अगर बताया तो वह मुझे और मम्मीपापा को मार डालेगा.’’

यह सुन कर मां के पैरों तले से जमीन खिसक गई.

उस समय रीना के पापा मेहमानों को गाड़ी में बिठाने बसस्टैंड गए हुए थे. जब वे लौटे और पत्नी से रीना के साथ हुए रेप के बारे में सुना तो वे सन्न रह गए. बाद में उन्होंने हिम्मत की और रीना के साथ थाने पहुंचे और रिपोर्ट दर्ज करा दी.

पुलिस ने रीना की मैडिकल जांच कराई और दरिंदे विक्रम को धर दबोचा. विक्रम को उम्रकैद की सजा हुई.

रीना का कोई कुसूर नहीं था, मगर रेप होने के बाद वह बुझीबुझी सी घर में पड़ी रहती. उस ने स्कूल ही जाना छोड़ दिया. एक साल बाद रीना की शादी कर दी गई.

आज गांव, कसबे, शहर में मासूम बच्चियों से ले कर बूढ़ी औरतों तक से रेप की वारदातें बढ़ी हैं. इस से लोगों में दहशत बढ़ी है. जिन के घर बेटियां हैं, वे मांबाप हर समय अपनी बेटी के बारे में ही सोचते रहते हैं.

सोशल मीडिया ने अपने पैर हर घर तक पसार लिए हैं. हर रोज रेप की कोई न कोई वारदात की खबर आ ही जाती है, जिन्हें देखसुन कर गांवदेहात में लोग अपनी और अपनी बेटियों की इज्जत की खातिर उन का बाल विवाह करा कर छुटकारा पा लेना चाहते हैं.

ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब देश में रेप न होता हो. कुछ मामलों को छोड़ कर रेप की वारदातों को अंजाम देने वाले जानपहचान के, आसपड़ोस के या फिर रिश्तेदार ही होते हैं. ऐसे मे लाजिमी है कि हर शख्स को शक की निगाह से देखा जाने लगा है.

जैसलमेर, राजस्थान के गफूर भट्ठा इलाके में पिछले दिनों 2 नाबालिग बहनों की शादी चोरीछिपे की गई. बाल विवाह कराने वाले इन बेटियों के पिता अमराराम ने बताया, ‘‘हर रोज रेप हो रहे हैं. ऐसी खबरों से मेरी नींद हराम थी. मैं दिनभर यही सोचता रहता था कि कोई मेरी मासूम बेटियों के साथ रेप न कर दे.

‘‘बस, इसी वजह से मैं ने अपनी दोनों बेटियों का बाल विवाह कर दिया. अब मैं ने चैन की सांस ली है.

‘‘सरकार भले ही मुझे फांसी पर चढ़ा दे, पर मुझे अपनी और बेटियों की इज्जत का खयाल था, इसीलिए मैं ने 16 साल की कम्मो और साढ़े 14 साल की धापू का बाल विवाह करा दिया.’’

अमराराम की बीवी का कुछ यह कहना था, ‘‘बेटियां जब तक कुंआरी थीं, हर समय डर लगा रहता था कि उन के साथ कोई गलत काम न कर दे. हर रोज रेप हो रहे हैं. इस से बेटियों के मांबाप चिंतित रहते हैं. वे जल्द से जल्द बेटियों की शादी करा देना चाहते हैं, फिर चाहे बाल विवाह ही क्यों न कराना पड़े.’’

मोहनगढ़ के बीरबलराम इन दोनों की बात का समर्थन करते हुए कहता है, ‘‘मेरी 4 बेटियां हैं. मैं ने उन चारों की शादी 15 साल की होने से पहले ही करा दी. भले ही बाल विवाह हुआ, मगर मुझे अब चैन मिला है, वरना हर वक्त यही डर लगा रहता था कि कोई दरिंदा उन के साथ गलत काम न कर दे.’’

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बीरबलराम ने आगे बताया कि पहली बेटी के जन्म पर एक पंडितजी ने उस से कहा था, ‘बीरबलराम, बेटी को मासिक धर्म शुरू हो, उस से पहले ही ससुराल भेज देना. जिस घर में बेटी को मासिक धर्म आता है, वह घर पाप से भर जाता है.’

बीरबलराम की इस बात का समर्थन करते हुए चंदन सिंह भाटी कहता है, ‘‘15-16 साल की उम्र की कई किशोर लड़कियां अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गईं. ‘‘यह साबित करता है कि लड़कियां 16 साल की उम्र में ही जवान हो जाती हैं. उन का इस उम्र में रास्ता भटकना तय रहता है. मातापिता बेटी पर से निगाह हटाते हैं, तो बेटी के कदम बहक ही जाते हैं.’’

बेटी का बाल विवाह कराने वाले पोखरण के बाशिंदे रामलाल का कहना था कि बाल विवाह में खर्च बहुत ही कम आता है. वे इस की वजह बताते हैं कि नातेरिश्तेदारों के अलावा गांव के लोग थानाकचहरी के डर से शादी में शरीक नहीं होते कि कहीं बाल विवाह कराने वालों में उन का नाम भी नहीं आ जाए. बस, इस वजह से न दारू की महफिल सजती है और न ही मुरगे उड़ाए जाते हैं.

समाज में अपनी इज्जत बचाए रखने के लिए शादी करने वाले मातापिता साहूकार से कर्ज ले कर लोगों को शादी में दारू, अफीम व खाना खिलाते हैं, भले ही वह आदमी उम्रभर ब्याज पर लिए गए साहूकार के रुपए न भर पाए और हर रोज साहूकार से बेइज्जत होता रहे. इस खर्च से बचने के लिए ही लोग बाल विवाह करा रहे हैं.

कई समाज में तो पंडों ने यह अंधविश्वास भर रखा है कि बड़ेबुजुर्ग की मौत होने पर तेरहवीं के दिन भोज पर नन्हेमुन्नों की शादी करने से मरने वाले की आत्मा को शांति मिलती है, साथ ही बच्चों के मातापिता को पुण्य मिलता है.

ऐसा करने से पंडों को दोहरा मुनाफा मिलता है. मृत्युभोज पर उन्हें खूब सारा रुपया, घी, शक्कर, सोने के गहने व दूसरी चीजें दी जाती है, साथ ही मासूम बच्चों की शादियां कराने वाले मातापिता पंडित को खूब दानदक्षिणा देते हैं, क्योंकि उन के दिमाग में पंडों ने भर रखा है कि पंडित को दिया गया दान मृत आत्मा को मिलता है.

पंडों ने पहले अपढ़ लोगों को धर्म व पाप का डर दिखा कर खूब लूटा और अब उन्होंने पढ़ेलिखों को भी झांसे में ले लिया है.

आज के जमाने में भी लोग रूढि़वादी प्रथाओं को अपना कर ठग पंडों की जेबें भर रहे हैं. किसी बच्ची के साथ रेप होता है तो ठग पंडे अनपढ़ लोगों से कहते हैं कि यह बच्ची और उस के मातापिता के पापों का फल है.

लोग पंडों से यह क्यों नहीं पूछते हैं कि 13 साल की बच्ची ने ऐसा कौन सा पाप किया है, जिस की सजा उसे रेप के रूप में मिली है?

पंडे गांव, कसबों, शहरों में गरीब अनपढ़ लोगों के बीच यह भरम फैला देते हैं कि बेटियों को जवान होने से पहले यानी 14-15 साल की उम्र में ब्याह देना चाहिए. छोटी उम्र में बेटी की शादी कराने से मांबाप को पुण्य मिलता है. पुण्य कमाने व बेटियों को रेप से बचाने के लिए लोग बाल विवाह करा रहे हैं. उन्हें किसी सजा का डर नहीं है.

बाल विवाह पर मामूली खर्च आता है, यह भी बाल विवाह को बढ़ावा मिलने की एक अहम वजह है.

राजस्थान में बालिग लड़केलड़की की शादी तकरीबन 4 लाख से 5 लाख रुपए में निबटती है, जबकि बाल विवाह पर 15,000 से 20,000 रुपए का खर्च आता है. लोग पैसे बचाने के चक्कर में बेटियों को बालिका वधू बनाने में देर नहीं लगाते हैं.

जीवराज चौधरी की 3 बेटियां थीं. पहली बेटी जब बालिग हुई तब उस की शादी कराई. शादी में खर्च आया महज 5 लाख रुपए.

गरीब जीवराज ने कर्ज ले कर बेटी की शादी कराई. शादी में मिठाइयां बनवाईं, दारू और मांस का इंतजाम किया. नशेड़ी लोगों को अफीम व डोडा पोस्त परोसा गया. कुछ समय तक तो लोगों ने तारीफ की, पर आज उसे कोई नहीं पूछ रहा है.

जीवराज के पिता की मौत पर उस ने 13वीं की कड़ाही पर दोनों छोटी बेटियों का बाल विवाह करा दिया. मृत्युभोज के खर्च में ही 2 शादियां निबट गईं.

जीवराज चौधरी कहता है, ‘‘हमारे यहां पीढि़यों से मृत्युभोज पर बाल विवाह होते रहे हैं. पंडित कहते हैं कि मृत्युभोज के मौके पर छोटी बेटियों, पोतियों, नातिनों के ब्याह से पुण्य मिलता है. इस वजह से मैं ने भी अपनी बेटियों की शादी करा दी. बड़ी बेटी का ब्याह बालिग होने पर किया था. आज तक मेरे सिर पर वह कर्ज है. न जाने कब उतरेगा.’’

जीवराज के पास थोड़ी सी खेती की जमीन है, 20 बकरियां हैं और 2 गाएं भी हैं. इसी से उस के परिवार का पेट पलता है. बारिश होती?है तो खेत में बाजरा, मतीरा, मूंग, तिल की फसल हो जाती है. अच्छी बारिश होने पर सालभर का अनाज और गायबकरियों के लिए चारा हो जाता है.

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गायबकरी का दूध बेच कर घर का सामान खरीदा जाता है व बकरा बिकने पर पैसे मिलते हैं. वह भी गरीब के घर में ही खप जाता है. ऐसे में लाखों रुपया, जो अपनी झूठी शान के लिए शादियों में खर्च कर दिया जाता है, वह कैसे चुकता होगा? हर महीने की पहली तारीख को कर्ज देने वाले आ धमकते हैं.

सरकार को कुछ ऐसा करना होगा कि लोग बाल विवाह न करें. मगर लोग तो यह कह रहे हैं कि जब हैवान एक साल की मासूम बच्ची से रेप कर सकते हैं, तो 15 साल की बच्ची को कहां छोड़ेंगे.

राजस्थान में पिछले 6 महीने से बलात्कार की आंधी आई है, यह चिंता की बात है. न जाने कब राज्य सरकार की नींद खुलेगी.

सरकारों को रेप के बढ़ते ग्राफ पर ध्यान दे कर आरोपियों को सख्त सजा दिलानी चाहिए. फास्ट ट्रैक कोर्ट में ऐसे केस की जल्द से जल्द सुनवाई करा कर बलात्कारियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाना होगा.

लोग बेटियों को ले कर चिंतित न हों, सरकार को ऐसा माहौल तैयार करना होगा, वरना लोग बेटियों को या तो औरत की कोख में मार देंगे या फिर पैदा होते ही मार डालेंगे.

नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे की पिछले साल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान का भीलवाड़ा बाल विवाह में अव्वल है. इस सर्वे में 20 साल  से

40 साल की औरतों से उन की शादी के समय की उम्र पूछी गई. किसी औरत ने 8 साल बताई, तो किसी औरत ने 10 साल.

सर्वे में 57.2 फीसदी औरतों ने स्वीकार किया कि उन का बाल विवाह हुआ है. भविष्य में यह आंकड़ा और भी बढ़ने वाला है.

सरकार ने बाल विवाह निषेध कानून बना कर सजा या जुर्माने का प्रावधान कर रखा है. कभीकभार बाल विवाह कराने वाले पुलिस की गिरफ्त में आ भी जाते हैं, मगर इस से इस बुराई पर पूरी तरह पाबंदी लगाने में सरकार नाकाम रही है.

वैसे, जिन के बाल विवाह हुए हैं, वे बालिग होने पर आपसी सहमति से इसे कोर्ट से निरस्त भी करा सकते हैं.

जोधपुर शहर में सारथी ट्रस्ट की मैनेजिंग डायरैक्टर और मनोचिकित्सक कृति भारती पिछले कई सालों से बाल विवाह निरस्त कराने और बाल विवाह रुकवाने का काम कर रही हैं.

उन्होंने बताया, ‘‘मैं राजस्थान में अब तक 39 बाल विवाह निरस्त करा चुकी हूं. बाल विवाह के 10-12 मामले निरस्त कराने बाकी हैं. आज तक 1,200 बाल विवाह होने से रुकवाए हैं.’’

कृति भारती ने आगे बताया कि मध्य प्रदेश में सिर्फ 2 बाल विवाह निरस्त हुए हैं, वे भी मध्य प्रदेश सरकार ने कराए हैं, किसी संस्था ने नहीं कराए हैं.

कृति भारती ने कोर्ट के माध्यम से पहला बाल विवाह जोधपुर, राजस्थान में ही निरस्त कराया था. राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश के 2 बाल विवाह के अलावा किसी भी राज्य में एक भी बाल विवाह निरस्त नहीं हुआ है.

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कृति भारती को तमाम तरह की परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. कई बार उन की जान तक लेने की कोशिश की गई है, मगर वे अपने संकल्प पर डटी हैं.

अगर कोई कृति भारती से बाल विवाह निरस्त कराने या बाल विवाह रुकवाने में मदद मांगता है, तो वे आधी रात को भी हमेशा मदद करने को तैयार रहती हैं. लेकिन जब तक पंडों का अंधविश्वास लोगों के मन में अंदर तक बैठा रहेगा, तब तक सरकार भले ही बाल विवाह बंद कराने का दावा करे, ये नहीं रुकने वाले हैं.

बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए आगे आए पप्पू यादव, तस्वीरें हो रहीं हैं वायरल

जन अधिकार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की इन दिनों पटना बाढ़ पीड़ितों में फंसे लोगों की सहायता करते हुए की तस्वीरें व वीडियो खूब वायरल हो रहीं है. वह अपने पार्टी के सदस्यों के साथ बाढ़ के पानी में राहत सामग्री वितरित करते हुए नजर आ रहे हैं. उनके साथ जहां एक तरफ पार्टी के सदस्य दिन-रात बाढ़ पीड़ितों को सहायता पहुंचाने में लगे हुए हैं. वही आम लोग भी पप्पू यादव के जरिए आर्थिक सहायता पहुंचा कर बाढ़ पीड़ितों की मदद कर रहे हैं.

पप्पू यादव के इस काम की लोग जम कर सराहना कर रहें हैं. पप्पू यादव के फेसबुक आईडी व उनके वास्तविक नाम राजेश रंजन के नाम से बने फेसबुक पेज व ट्विटर पेज पर उनके तस्वीरों पर खूब, लाइक कमेन्ट व शेयर हो रहें है. इन दिनों पटना व आसपास के शहर भीषण रूप से बाढ़ के पानी में गिरे हुए हैं. जिससे लोग अपने घरों में कैसे हो कर रह गए हैं. लोगों में खाने-पीने की सामग्री का बेहद अकाल है. और बिहार सरकार बाढ़ पीड़ितों को मदद पहुचाने में लाचार नजर आ रही है. ऐसे में पप्पू यादव बाढ़ पीड़ितों के लिए मसीहा बनकर सामने आए हैं.

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बाढ़ पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए पप्पू यादव दिन रात अपने साथियों के साथ कमर से ऊपर पानी में घुसकर लोगों के घरों तक राहत सामग्री पहुंचा रहे हैं. वहीं जहां पर पानी में घुसकर राहत सामग्री पहुंचाना संभव नहीं है वहां वह ट्रैक्टर व जेसीबी के जरिए भी राहत सामग्री का वितरण करते हुए नजर आ रहे हैं. बाढ़ के पानी में घिरे अमीर व गरीब लोगों में पप्पू यादव द्वारा वितरित किये जा रहे दूध, पानी व खाद्य सामग्री रस्सियों व जेसीबी के जरिये पहुचाएं जा रहें है.

पप्पू यादव के जरिए सहायता के लिए आगे आ रहे हैं लोग-

पप्पू यादव द्वारा बाढ़ पीड़ितों को पहुचाये जा रहे राहत कार्य से प्रभावित होकर लोग उनके जरिये बाढ़ पीड़ितों को मदद पहुचाने में आर्थिक सहयोग के लिए भी आगे आ रहें हैं. इसमें आम आदमी से लेकर नौकरीपेशा व विदेशों में रह रहे लोग भी शामिल हैं.  पप्पू यादव ने अपने राजेश रंजन वाले पेज पर लिखा है कि- “नगर अध्यक्ष मधेपुरा के बीडीओ के गोपीकृष्ण उन्हें 100000 रूपये  की मदद बाढ़ पीड़ितों में मदद पहुचाने के लिए दी है. हम आपकी भावनाओं का सम्मान करते हैं. आपने पटना के लोगों के दर्द को समझा और उनकी परेशानी से निकलने निकालने में हमारी मुहिम को अपना योगदान दिया. गोपी जी आपको पटना के लोगों की दुआएं खूब मिलेंगी धन्यवाद”.

वही उन्होंने लिखा है कि नवादा जिले के शिक्षक राजकुमार प्रसाद जी को सलूट जिन्होंने पटना में मुसीबत की मार झेल रहे लोगों की मदद के लिए आज अपना 1 महीने का वेतन दे दिया. रियल हीरो राजकुमार जी हैं ऐसे लोग हमारे बीच रहेंगे तब तक इंसानियत जिंदा रहेगी.

पप्पू यादव अपने राजेश रंजन नाम की पेज से लिखते हैं कि पटना के परेशान लोगों की पीड़ा को विदेशों में में रह रहे लोग भी महसूस कर रहे हैं. यही वजह है कि शिकागो में रह रहे श्री शंभू प्रसाद जी और उनकी पत्नी और आर प्रसाद जी ने 525 यूएस डौलर यानी 36751 रूपये की आर्थिक मदद भेजी है. इसके अलावा शिकागो से श्री समर्थ अबरोल जी ने भी 257 यूएस डॉलर यानी 18000 रूपये की मदद की है. हम आपको पटना से लोगों की तरफ धन्यवाद देते हैं और आपका आभार प्रकट करते हैं.

9 वर्ष की बच्ची ने अपने गुल्लक से दिए 11 हजार रूपये –

पप्पू यादव के रात कार्यों के बारे में अपने परिवार वालों के सोशल मीडिया के जरिये जानकारी होने पर उनके राहत कार्यों से प्रभावित होकर बिहार के समस्तीपुर जिले की रहने वाली नौ वर्ष की बच्ची सौम्या सिद्धि ने भी अपनी पौकेट मनी से गुल्लक में बचा कर रखे गए 11000 रुपयों को पटना आकर पप्पू यादव को सौंपा. सौम्या सिद्धि ने बताया कि वह पप्पू यादव के कार्यों से प्रभावित होकर अपने गुल्लक में बचाए गए 11000 रुपयों को गुल्लक तोड़कर पप्पू यादव को समस्ती पुर से पटना तक देनें आई है. इस बात की जानकारी पप्पू यादव ने अपने टि्वटर पेज पर शेयर भी किया है उन्होंने लिखा है –

“माता-पिता के द्वारा जब बच्चों में सेवाभाव और मानवता का संस्कार भरा जाए, तो लगता है कि अभी भी बहुत कुछ बचा है. वहीं, 24 घंटे में पानी निकालने वाले रणछोड़ मोदी को सौम्या से सबक लेना चाहिए, जो सालों से गुल्लक में जोड़े अपने पैसे लेकर टीवी और सोशल मीडिया में पटना के लोगों की परेशानी देख कर मदद के लिए निकल पड़ी.”

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बाढ़ पीड़ितों को राहत पहुंचाने में नाकाम होने पर उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी द्वारा अपने पड़ोसियों को बाढ़ में छोड़कर भाग जाने के बाद जब इसकी जानकारी पप्पू यादव को हुई तो वह सुशील मोदी के कौलोनी के लोगों को भी राहत पहुंचाने के लिए पहुंच गए. उन्होंने अपने फेसबुक आईडी पर लिखा है की “अभी हम सुशील कुमार मोदी के राजेंद्र नगर स्थित घर पर आए हैं जहां जो भी लोग फंसे हैं उनको पानी और खाना दिया जा रहा है . इस इलाके में पानी अभी भी इतना लगा हुआ है कि लोग बेहाल है . लेकिन सुशील मोदी जी अपने पड़ोसियों को छोड़कर भाग खड़े हुए हैं”.

उन्होंने लिखा है “बिहार के उपमुख्यमंत्री के राजेंद्र नगर स्थित घर घर वाले इलाके में स्थिति बेहद ख़राब है. हम वहां पहुंच कर फंसे लोगों की मदद कर रहे हैं. जो घर के छत पर खड़े होकर मदद की गुहार लगा रहे हैं. वह लिखते हैं सुशील कुमार मोदी की गली में तो लोग रोने लगते हैं . ऐसे में मेरे आंखों से आंसू निकल आए . स्थिति  इतनी खराब है स्थिति है कि बताया नहीं जा सकता है.”

भूखे बच्चों की मां के आंसू बताते हैं कि बिहार में बहार

राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव के सोशल मीडिया पेज पर शेयर किये जा रहें फोटो व वीडियो पर लोग बिहार सरकार पर जहां जम कर भड़ास निकाल रहें हैं . वहींं पप्पू यादव की जम कर तारीफ भी कर रहें हैं. उनके एक ट्वीट पर जावेद आलम नाम के यूजर ने लिखा है- “बिहार के इस कठिन समय मे आपसे जितने लोगो की मदद हो रही है आप कर रहे है,बहुत ही सहरानीय कार्य ह . आपने बिना स्वर्थ के सभी लोगो की मदद कर रहे है. इस मदद को जनता जरूर याद रखेगी. क्योंकि जो सरकार में रहकर कार्य नही कर पा रहे है,आप बिना किसी पद के रहते हुए भी इतने लोगों की मदद की.” वहीं  राकेश कुमार नाम का यूजर लिखता है – “देखे सुशील मोदी और नीतीश कुमार एक बच्ची भी आप से समझदार है वो गुल्लक फोड़ लाई और आप मजबूरी में फंसे लोगो का हम मारते हैं. ये कलयुग है हर आदमी का हिसाब यही पर होता है.
बाढ़ पीड़ितों के मदद में आगे आये पप्पू यादव इन दिनों बिहार के लिए हीरो बन कर उभरें है. उनके द्वारा किये जा रहे राहत कार्यों की सराहना सभी को करनी चाहिए.

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