रिंग टोन्स के गाने, बनाएं कितने अफसाने

लेखक- ममता मेहता

कब से कह रहा हूं कि इस टंडीरे को हटा कर मोबाइल फोन ले लो, पर नहीं, चिपके रहेंगे अपने उन्हीं पुराने बेमतलब, बकवास सिद्धांतों से. मेरे सभी दोस्तों के पापा अपने पास एक से बढ़ कर एक मोबाइल रखते हैं और जाने क्याक्या बताते रहते हैं वे मुझे मोबाइल के बारे में. एक मैं ही हूं जिसे ढंग से मोबाइल आपरेट करना भी नहीं आता.’’

अंदर से अपने लाड़ले का पक्ष लेती हुई श्रीमतीजी की आवाज आई, ‘‘अब घर में कोई चीज हो तब तो बच्चे कुछ सीखेंगे. घर में चीज ही न होगी तो कहां से आएगा उसे आपरेट करना. वह तो शुक्र मना कि मैं थी तो ये 2-4 चीजें घर में दिख रही हैं, वरना ये तो हिमालय पर रहने लायक हैं… न किसी चीज का शौक न तमन्ना…मैं ही जानती हूं किस तरह मैं ने यह गृहस्थी जमाई है. चार चीजें जुटाई हैं.’’

श्रीमतीजी की आवाज घिसे टेप की तरह एक ही सुर में बजनी शुरू हो उस से पहले ही मैं ने सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘घर में घुसते ही गरमगरम चाय के बजाय गरमागरम बकवास सुनने को मिलेगी यह जानता तो घर से बाहर ही रहता.’’

श्रीमतीजी दांत भींच कर बोलीं, ‘‘आते ही शुरू हो गया नाटक. जब घर में कोई चीज लेने की बात होती है तो ये घर से बाहर जाने की सोचना शुरू कर देते हैं.’’

मैं कुछ जवाब देता इस से पहले ही अपना पप्पू बोल पड़ा, ‘‘पापा, ये लैंड लाइन फोन आजकल किसी काम के नहीं रहे हैं. आजकल तो सभी कंपनियां बेहद सस्ते दामों पर मोबाइल उपलब्ध करवा रही हैं. आप अब एक मोबाइल फोन ले ही लो.’’

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इस तरह मैं श्रीमतीजी और पप्पू के बनाए चक्रव्यूह में ऐसा फंसा कि मुझे मोबाइल फोन लेना ही पड़ा. अब जितनी देर मैं घर में रहता हूं, पप्पू मोबाइल से चिपका रहता है. पता नहीं कहांकहां की न्यूज निकालता, मुझे सुनाता. एसएमएस और गाने तो उस के चलते ही रहते.

यह सबकुछ कुछ दिनों तक तो मुझे भी बड़ा अच्छा लगा था, कहीं भी रहो, कभी भी, कैसे भी, किसी से भी कांटेक्ट  कर लो. पर कुछ ही दिनों में उलझन सी होने लगी. कहीं भी, कभी भी, किसी का भी फोन आ जाता. थोड़ी देर की भी शांति नहीं. सच तो यह है कि मोबाइल पर बजने वाली रिंग टोन मुझे परेशानी में डालने लगी थी.

एक दिन मेरे दफ्तर में एक जरूरी मीटिंग थी कि कंपनी की सेल को कैसे बढ़ाया जाए. सुझाव यह था कि कर्मचारियों के काम के घंटे बढ़ा दिए जाएं और उन्हें कुछ बोनस दे दिया जाए. अभी इस पर बातचीत चल ही रही थी कि मेरा मोबाइल बजा, ‘…बांहों में चले आओ हम से सनम क्या परदा…’

मीटिंग में बैठे लोग मूंछों में हंसी दबा रहे थे और मैं खिसिया रहा था. फोन घर से था. मैं ने फोन सुनने के बजाय स्विच आफ कर दिया. मुझे लगा कि मेरे ऐसा करने से वे समझ जाएंगे कि मैं किसी काम में व्यस्त हूं. पर नहीं, जैसे ही मैं ने सहज होने का असफल प्रयास करते हुए चर्चा शुरू करने की कोशिश की, रिंग टोन फिर से सुनाई पड़ी, ‘…बांहों में चले आओ…’

‘‘सर,’’ मीटिंग में मौजूद एक सज्जन बोले, ‘‘लगता है आज भाभीजी आप को बहुत मिस कर रही हैं. हमें कोई एतराज नहीं अगर इस मीटिंग को हम कल अरेंज कर लें.’’

मैं ने हाथ के इशारे से उन्हें रोकते हुए जल्दी से फोन उठाया और जरा गुस्से से भर कर बोला, ‘‘क्या आफत है, जल्दी बोलो. मैं इस समय एक जरूरी मीटिंग में हूं.’’

‘‘कुछ नहीं. मैं  कह रही थी कि आज शाम को मेरी कुछ सहेलियां आ रही हैं तो आप आते समय बिल्लू चाट भंडार से गरम समोसे लेते आना,’’ श्रीमतीजी गरजते स्वर में बोलीं.

अब मौजूद सदस्यों की व्यंग्यात्मक हंसी के बीच चर्चा आगे बढ़ाने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई सो मीटिंग बरखास्त कर दी. घर आ कर मैं ने पप्पू को आड़े हाथों लिया कि मेरे मोबाइल पर फिल्मी गानों की रिंग टोन लेने की जरूरत नहीं है, सीधीसादी कोई रिंग टोन लगा दे, बस. बेटे ने सौरी बोला और चला गया.

अगले दिन मुझे एक गांव में परिवार नियोजन पर भाषण देने जाना था. अपने भाषण से पहले मैं कुछ गांव वालों के बीच बैठा उन्हें  यह समझा रहा था कि ज्यादा बच्चे हों तो व्यक्ति न उन की देखभाल अच्छी तरह से कर सकता है न उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ा सकता है. बच्चे ज्यादा हों तो घर में एक तरह से शोर ही मचता रहता है और अधिक बच्चों का असर घर की आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है.

अभी मैं और भी बहुत कुछ कहता कि मेरे मोबाइल की रिंग टोन बज उठी, ‘बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंख के तारे….’ और इसी के साथ वहां मौजूद सभी गांव वाले खिलखिला कर हंस पड़े. कल ही पप्पू को रिंग टोन बदलने के लिए डांटा था तो वह मुझे इस तरह समझा रहा था कि बच्चों को डांटो मत. इच्छा तो मेरी हुई कि मोबाइल पटक दूं पर खुद पर काबू पाते हुए मैं ने कहा, ‘‘बच्चे 1 या 2 ही अच्छे होते हैं. ज्यादा नहीं,’’ और फोन सुनने लगा.

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घर पहुंचने पर मैं ने बेटे को फिर लताड़ा तो वह बिना कुछ बोले ही वहां से हट गया. मेरे साथ दिक्कत यह थी कि मुझे अच्छी तरह से मोबाइल आपरेट करना नहीं आता था. मुझे सिर्फ फोन सुनने व बंद करने का ही ज्ञान था. इसलिए भी रिंग टोन के लिए मुझे बेटे पर ही निर्भर रहना पड़ता था. अब उसे डांटा है तो वह बदल ही देगा यह सोचता हुआ मैं वहां से चला  गया था.

हमारी कंपनी ने मुंबई के बाढ़  पीडि़तों को राहत सामग्री पहुंचाने का जिम्मा लिया था. सामग्री बांटने के दौरान मैं भी वहां मौजूद था जहां वर्षा से परेशान लोग भगवान को कोसते हुए चाह रहे थे कि बारिश बंद हो. तभी मेरे मोबाइल की रिंग टोन पर यह धुन बज उठी, ‘बरखा रानी जरा जम के बरसो…’

यह रिंग टोन सुन कर लोगों के चेहरों पर जो भाव उभरे उसे देख कर मैं फौरन ही अपने सहायक को बाकी का बचा काम सौंप कर वहां से हट गया.

अब की बार मैं ने पप्पू को तगड़ी धमकी दी और डांट की जबरदस्त घुट्टी पिलाई कि अब अगर उस ने सादा रिंग टोन नहीं लगाई तो मैं इस मोबाइल को तोड़ कर फेंक दूंगा.

कुछ दिनों तक सब ठीकठाक चलता रहा. मैं निश्ंिचत हो गया कि अब वह रिंग टोन से बेजा छेड़छाड़ नहीं करेगा.

एक सुबह उठा तो पता चला कि हमारे घर से 2 घर आगे रहने वाले श्यामबाबू का 2 घंटे पहले हृदयगति रुक जाने से देहांत हो गया है. आननफानन में मैं वहां पहुंचा. बेहद गमगीन माहौल था. लोग शोक में डूबे मृतक के परिवार के लोगों को सांत्वना दे रहे थे कि तभी मेरे मोबाइल की रिंग टोन बज उठी, ‘चढ़ती जवानी मेरी चाल मसतानी…’

मैं लोगों की उपहास उड़ाती नजरों से बचते हुए फौरन घर पहुंचा और पहले तो बेटे को बुरी तरह से डांट लगाई फिर वहीं खड़ेखड़े उस से रिंग टोन बदलवाई.

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अब पप्पू ने मेरे मोबाइल से छेड़छाड़ तो बंद कर दी है पर घर में उस ने एक नई तान छेड़ दी है कि अब मुझे भी मोबाइल चाहिए. क्योेंकि मेरे सभी दोस्तों के पास मोबाइल है. सिर्फ एक मैं ही ऐसा हूं जिस के पास मोबाइल नहीं है. मेरे पास अपना मोबाइल होगा तो मैं जो गाना चाहूं अपने मोबाइल की रिंग टोन पर फिट कर सकता हूं.

श्रीमतीजी हर बार की तरह इस बार भी बेटे के पक्ष में हैं और मैं सोच रहा हूं कि मैं तो बिना मोबाइल के ही भला हूं. क्यों न विरासत मेें रिंग टोन के साथ यही मोबाइल बेटे को सौंप दूं.

धारावाहिक उपन्यास- मंजिल

लेखक-  माया प्रधान

गतांक से आगे…

मांपापा भी बहुत चिंतित थे, कम से कम फोन ही किया होता. मां ने पुरवा को बच्चे का वास्ता दे कर जबरन खाना खिला दिया था. पापा बारबार कह रहे थे, ‘‘बहुत ही लापरवाह होता जा रहा है.’’ पुरवा के मन में भी उथलपुथल थी. प्रतीक्षा करतेकरते ही उस की आंख लग गईं. रात 11 बजे के बाद सुहास आया तो मां व पापा ने प्रश्नों की बौछार कर दी. पुरवा कमरे में थी पर ऊंची आवाज से उस की नींद टूट गई. मन ही मन में विचित्र सी शंका उसे भयभीत करने लगी. वह कौन से कारण अब जन्म ले रहे हैं जिन की वजह से यहां के शांत वातावरण में अकसर भूचाल सा आने लगा है.

सुहास जब कमरे में आया तो पुरवा के कुछ पूछने से पहले ही बोला, ‘‘अब तुम भी मत शुरू हो जाना. मैं कोई डिस्को करने नहीं गया था, न दोस्तों के साथ जुआ खेलने और शराब पीने गया था.’’

‘‘मुझे मालूम है,’’ पुरवा ने सीधा उस की आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘खाना लगाऊं?’’

सुहास ने पलंग पर बैठते हुए जूते और मोजे इधरउधर उछाल दिए और थके हुए स्वर में बोला, ‘‘तुम ने खाया या नहीं?’’

‘‘मां बिना खाए रहने कहां देती हैं, उन का पोता भूखा नहीं रहना चाहिए,’’ पुरवा ने उस की उदासी दूर करने के विचार से मुसकरा दिया, पर सुहास उलझन में था. बोला, ‘‘कुछ थोड़ा सा यहीं ला दो, बाहर जाने का मतलब है फिर से भाषण सुनना.’’

पुरवा ने चकित दृष्टि से उसे देखा. ऐसी भाषा मां व पापा के लिए कब से सीख ली सुहास ने. धीरे से बोली, ‘‘एक फोन कर देते तो कोई चिंता नहीं होती किसी को.’’

‘‘फोन करने का समय कहां था. अरे इतना समय तो मिला नहीं कि बेला भाभी को फोन कर के भाई साहब का हाल पूछ लूं. बेचारी ने फोन पर बताया था कि भाई साहब को डाक्टर अलसर बता रहे हैं. शायद अस्पताल में भर्ती करना पड़े.’’

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पुरवा ने केवल सुना, पर बोली कुछ नहीं. बेला के यहां भी कुछ न कुछ घटता ही रहता है और हर बार सुहास की अपनी कोई समस्या तो है ही नहीं, पर सुहास का बेला के साथ अस्पतालों के चक्कर में बीतता है.

कैसा विरोधाभास है सुहास के स्वभाव का यह. अपने भविष्य की चिंता है न वर्तमान की पर दूसरों के लिए आधी रात तक भूखाप्यासा दौड़ता रह सकता है. कई बार सोचती है पुरवा, कहीं इस मनोविज्ञान के पीछे प्रशंसा पाने की तड़प तो नहीं है?

खाना खाते समय सुहास ने बताया, ‘‘हमारी दुकान के सामने ही राकेशजी की बहुत बड़ी दुकान है. आज वह शाम 7 बजे ही दुकान से निकले कहीं शादी में जाने को, पर दुकान से बाहर पैर रखते ही बेहोश हो कर गिर पड़े. सब दौड़े, पर वे बेहोश्ी में थे और उन्हें पसीने छूट रहे थे. अब तुम्हीं बताओ, उन्हें ले कर अस्पताल जाना, उन के घर वालों को बुलाना, डाक्टर से जांचपड़ताल कराना, कैसे बीच में आ जाता. उन्हें तो दिल का दौरा पड़ा था.’’

पुरवा ने सुहास के बालों में हाथ फेरा. उस की यही भावना कहीं पुरवा को गर्व से भी भर देती है पर हर बात की अति प्राय: दुखदायी लगने लगती है. पुरवा को भी कभीकभी इसी भावना से जूझना पड़ता है, धीरे से बोली, ‘‘तुम अपनी जगह सही हो सुहास, पर वे मांबाप हैं, जिन्हें बचपन से ही आदत है तुम्हारे लिए परेशान हो जाने की. तुम्हें उन का दिल भी नहीं दुखाना चाहिए था.’’

‘‘शायद तुम ठीक कह रही हो, पर मैं थक भी तो जाता हूं.’’

पुरवा ने सुहास के बालों में उंगलियां उलझाते हुए कहा, ‘‘यही तो बात है सुहास, तुम्हें अब अपने बारे में भी सोचना चाहिए. अपना स्वास्थ्य, अपना काम और आने वाली जिम्मेदारी के बारे में.’’

‘‘सोचूंगा, इस समय तो मैं बस, अपने बारे में यही सोच पा रहा हूं कि कैसे झटपट सो जाऊं.’’

पुरवा ने मुसकरा कर बत्ती बुझा दी और बोली, ‘‘ठीक है, अब सुबह बात करेंगे.’’

सुबह चाय पर सुहास ने मां व पापा से क्षमा मांग ली और पूरी घटना भी विस्तार से सुना दी. मां ने भी तब पुरवा की तरह यही कहा, ‘‘तुम्हें अपने और काम के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए. आखिर बीवी व बच्चे की जिम्मेदारी कोई हंसीखेल तो नहीं है.’’

चाय का दौर चल ही रहा था तभी नौकर ने आ कर बताया कि कोई प्रभात बाबू आए हैं. पुरवा उत्साह से बोली, ‘‘उन्हें ड्राइंगरूम में बैठाओ, अभी हम लोग भी आ रहे हैं,’’ फिर सब की तरफ देख कर बोली, ‘‘वह मेरा शिष्य है. पापा ने उसे सहायता कर के रेडीमेड कपड़ों का व्यापार शुरू करवाया था. आंखें नहीं हैं पर लगन बहुत है उस में.’’

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यह सुन कर मां व पापा के चेहरे पर उत्साह सा छा गया लेकिन सुहास चुपचाप सैंडविच और दलिया खाता रहा. जब पुरवा ने सब से प्रभात का परिचय करवाया, तो मांपापा बहुत ही प्रसन्न हुए. सुहास ने उस के हाथों में अपनी हथेली रख दी तो प्रभात ने तुरंत उस के पैर छू लिए फिर बारीबारी मां व पापा के भी छुए. उस की विनम्रता सभी के दिलों को छू रही थी. सुहास ने कहा, ‘‘पुरवा आप की बहुत प्रशंसा करती रही है. बस, मिलने का अवसर ही नहीं मिला.’’

‘‘मुझे ही मिलने आने में देर हो गई, जीजाजी,’’ प्रभात ने कहा.

सुहास को इस संबोधन की आदत नहीं थी, इसलिए बहुत ही अच्छा लगा. पुरवा का भाई अभी तक भारत नहीं लौटा था और साला होते हुए भी सुहास इस प्रिय संबंध के बारे में नहीं जानता था.

बातोंबातों में ही प्रभात ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप का व्यापार कैसा चल रहा है?’’ सुहास इस प्रश्न पर अचकचा गया, फिर भी मन को संयत कर के कहा, ‘‘ठीक चल रहा है, लेकिन मेरी पसंद का नहीं है,’’ सुहास ने कहने के साथ ही चोर दृष्टि से सब को देख लिया.

‘‘ऐसा होता है, जीजाजी, पर मन को उखड़ने मत दीजिएगा. कोशिश कर के पुराने के साथ ही अपनी पसंद का भी जमाइए,’’ प्रभात ने सादगी से कहा.

‘‘एक काम संभल जाए यही बहुत है, एकसाथ 2 काम करना तो बहुत मुश्किल है,’’ सुहास ने कह तो दिया पर तुरंत ही उसे लगा कि उस ने कुछ गलत कह दिया है. विशेष कर उस व्यक्ति के सामने जो आंखें न होते हुए भी अच्छा- भला व्यापार चला रहा है.

‘‘जीजाजी, कोई भी कार्य बिना परिश्रम के पूरा नहीं होता है,’’  प्रभात ने तुरंत ही कहा. और यह व्यापार की दुनिया तो बहुत ही परिश्रम मांगती है, नहीं तो कुछ दिन में पता चलता है कि हम तो बहुत पिछड़ गए हैं…फिर बाजार से गायब होने में कुछ देर नहीं लगती है.’’

मां व पापा पूरी तन्मयता से प्रभात को सुन रहे थे. उन की आंखों में अनोखी सी चमक थी, पर सुहास के चेहरे पर हताशा के भाव थे. प्रभात के जाने के उपरांत पापा ने अचानक कहा, ‘‘वह मूषक कथा पढ़ी है तुम ने?’’ पापा सुहास को संबोधित कर रहे थे.

‘‘पढ़ी होगी, याद नहीं,’’ सुहास ने उखड़े हुए स्वर में कहा.

‘‘उस कहानी का नायक एक मरे हुए चूहे से व्यापार करने का वादा कर के महाजन से उसे उधार ले जाता है. एक दिन वह सचमुच अपने आत्मबल से बहुत बड़ा व्यापारी बन जाता है.’’

‘‘बन गया होगा, मुझे क्यों सुना रहे हैं,’’ सुहास के चेहरे पर कई भाव तीव्रता से आजा रहे थे. बीचबीच में वह पुरवा को भी क्रोध से देख लेता था.

पापा ने गरदन हिला कर दुख के भाव व्यक्त किए और फिर धीरे से कहा, ‘‘प्रभात को देख कर यह कहानी याद आ गई. आंखों के बिना ही इतना उत्साही युवक,’’ कुछ रुक कर फिर बोले, ‘‘उस ने ठीक ही कहा, सुहास. बाजार में बने रहने के लिए बहुत परिश्रम की जरूरत होती है.’’

सुहास अचानक उठ कर कमरे में चला गया तो मां ने भी दुख से कहा, ‘‘कोई बात इसे समझ में ही नहीं आती है. जाने क्या करने वाला है.’’

पता नहीं थकान थी या दुर्बलता, पुरवा की तबीयत खराब हो गई थी. पापा ने सुहास से कहा था, ‘‘अपनी जिम्मे- दारियां खुद उठाना सीखो. पुरवा को बराबर डाक्टर के पास ले जाना है और उस के खानेपीने और आराम का ध्यान भी तुम्हें ही रखना है.’’

हालांकि पापा के कहने के बाद भी अधिकतर मां को ही पुरवा का पूरा ध्यान रखना पड़ता था. कभीकभी ही सुहास उसे ले कर डाक्टर के पास जा पाता था. पुरवा का रक्तचाप भी अधिक हो जाता था और यह गर्भवती महिला के लिए ठीक नहीं था. एक दिन सुहास के बहुत देर से घर आने पर पुरवा ने कहा, ‘‘सुहास, घर के मरीज का कोई महत्त्व नहीं होता है न. अभी बेला भाभी या और कोई बीमार होता तो तुम उन के लिए भागते हुए नहीं थकते.’’

सुहास ने चौंक कर उसे देखा. बोला, ‘‘यह क्या ऊटपटांग बोल रही हो. तुम से अधिक और किसी की चिंता क्यों होगी मुझे,’’ पुरवा ने कुछ कहा नहीं तो फिर कुछ खीजे से स्वर में बोला, ‘‘और ये बेला भाभी कहां से बीच में आ गईं. अगर मैं भी कहूं कि वह तुम्हारा प्रभात यहां क्या करने आया था. सब की नजरों में मुझे गिराने के लिए ही उसे बुलाया था न?’’

पुरवा कुछ पल चकित सी उसे देखती रही और कुछ व्यथित हो बोली, ‘‘सुहास, उसे मैं ने बुलाया नहीं था, वह तो तुम से मिलने आया था. विवाह पर नहीं आ सका था इसीलिए मिलना चाहता था.’’

‘‘लोग मिलने आते हैं पर शिक्षा देने लगते हैं,’’ सुहास अपने मन की ग्रंथि धीरेधीरे खोल रहा था.

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पुरवा को लगा कि धीरेधीरे उस का एक नए सुहास से परिचय हो रहा है. या शायद उस ने स्वयं ही सुहास को पहले समझने की चेष्टा नहीं की. इस ईर्ष्यालु और गैरजिम्मेदार सुहास से तो उस का नयानया परिचय हो रहा है. पुरवा को चुप रहना ही ठीक लगा. सुहास लगातार अपने मन की भड़ास निकाल रहा था. पुरवा के मन में तूफान उठ रहा था और सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी थी. जाने क्या हुआ कि पुरवा एकदम ही बेसुध हो गई. सुहास ने घबरा कर मां को बुलाया और शीघ्र ही डाक्टर को बुला लिया गया. पुरवा का ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया था, अत: तुरंत ही उसे अस्पताल ले जाना पड़ा.

सुहास मन ही मन एक अपराधभाव से घिर गया. सोचता रहा, कहीं मेरी बकबक से ही पुरवा का यह हाल तो नहीं हो गया है?

कुछ घंटों के बाद पुरवा के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा. सुहास ने एकांत देखते ही पुरवा के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘सौरी, पुरु, मैं सचमुच बहुत ही गैर- जिम्मेदार प्राणी हूं.’’

पुरवा में बोलने का साहस नहीं था. पलकें खोल कर सुहास को कुछ पल निहारा और अपनी हथेली बढ़ा कर धीरे से उस के अधरों पर रख दी. जाने कब सुहास ने अपने परिचितों को अस्पताल में होने की सूचना दे दी, एकएक कर के सभी आने लगे.

शाम को बेला भी आ गई, पर वह अकेली थी. आते ही बोली, ‘‘यह क्या पुरवा, तुम्हें जब डाक्टर ने पूरा आराम बताया है तो जरा भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.’’

पुरवा चुपचाप देखती रही. मन में सोचा, ‘क्यों, अस्पतालों में तुम सब के लिए भागने को सुहास खाली नहीं है इसलिए मुझे अपना ध्यान खुद ही रखना चाहिए.’ अभी उस की सोच पूरी भी नहीं हुई थी कि एक धमाका और हुआ, बेला बोली, ‘‘कुछ दिन से सागर भी बहुत बीमार रहने लगे हैं. उस दिन सुहास उन्हें ले कर अस्पताल जाते हुए यही कह रहे थे कि पुरवा को भी जल्दीजल्दी अस्पताल ले जाना पड़ता है.’’

पुरवा के मन में विचित्र सी हलचल थी, फिर भी हंस कर कहा, ‘‘क्या हुआ है भाई साहब को?’’

‘‘क्या बताऊं,’’ बेला ने गहरी सांस भर कर कहा, ‘‘पक्का तो पता नहीं, टेस्ट चल रहे हैं, पर पथरी का शक है डाक्टर को.’’

‘‘आप को इस तरह उन्हें अकेला छोड़ कर यहां नहीं आना चाहिए था, भाभीजी,’’ जाने कैसे पुरवा कह गई.

‘‘अब यह कैसे हो सकता है पुरवा, आखिर तुम भी तो अपनी हो.’’

बेला ने साधिकार प्यार जताया, पर न जाने क्यों पुरवा को उस प्यार में तनिक भी ऊष्मा की अनुभूति नहीं हुई. कुछ समय से न जाने क्यों उसे ऐसे तमाम रिश्तों में स्वार्थ और दिखावा ही अधिक दिखाई देने लगा है. बिस्तर पर पड़ेपड़े वह ऐसी अनेक बातों में ही उलझी रहती है. कभी सुहास का अत्यधिक गैर- जिम्मेदाराना व्यवहार उस के मन को कचोटने लगता है. तब वह प्रभात को याद करने लगती है. एक व्यक्ति आंखों से देख नहीं सकता, पर अपने उत्तरदायित्वों को ले कर कितना सतर्क रहता है. कुछ कर दिखाने का उस का प्रबल दृष्टिकोण किसी के लिए भी प्रेरणा बन सकता है.

उसे याद आता है कि जब वह पहली बार सुहास से मिली थी तब उसे वह भी एक उत्साही युवक प्रतीत हुआ था, जो नौकरी खोज रहा था और हर किसी के काम आने को आतुर रहता था. तब उसे लगा था कि सुहास बहुत संवेदनशील व्यक्ति है. किसी का दुख वह देख नहीं पाता, पर अब उसे बारबार लगता है कि उस की सोच गलत थी. सुहास जीवन की सचाइयों से कतराना चाहता है, इसीलिए समाज सेवा का भार ढो कर व्यस्तता की आड़ लेता है.

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पुरवा का ध्यान अचानक भंग हो गया. बेला उस से पूछ रही थी, ‘‘क्या देवरजी कंप्यूटर का काम शुरू करने जा रहे हैं?’’

पुरवा ने चौंकते हुए कहा, ‘‘जी, पता नहीं.’’

‘‘अरे, तुम्हें ही पता नहीं, यह कैसे हो सकता है.’’

‘‘जो लोग उन्हें रोज नया काम करने की नेक सलाह देते हैं उन्हें ही पता होगा,’’ पुरवा का स्वर अचानक उखड़ गया.

बेला ने उस के स्वर की तिक्तता महसूस की और बोली, ‘‘क्या बात है पुरवा, कहीं यह शिकायत तुम्हें हम लोगों से तो नहीं है?’’

पुरवा ने बिना कुछ बोले करवट बदल ली. बेला कुछ और बोलती इस से पहले ही मां आ गईं.

सुहास भी उन के साथ था. बेला उस के साथ ही जाने को तत्पर हो उठी, ‘‘अब मैं चलूंगी, सुहास.’’

‘‘चलिए, भाभी, मैं आप को छोड़ देता हूं,’’ सुहास कार की चाबी नचाता चल दिया. पुरवा ने तिरछी आंखों से सब देखा और मन ही मन कुढ़ सी उठी. लगा कि अचानक ही तबीयत फिर बिगड़ रही है.

ऐसे कई अवसरों पर पुरवा स्वयं को संभालने का भरसक प्रयास करती रही है पर अस्वस्थ मन, टूटा हुआ शरीर, पुरवा को अचानक बहुत कमजोरी लगने लगी. जैसे मन डूब रहा हो, डूबता ही जा रहा हो.

इन दिनों हर छोटीबड़ी बात उसे अंदर ही अंदर मथने लगती थी. एक तरफ उत्तेजना से देह धड़कने लगती, साथ ही रक्तचाप भी बढ़ जाता.

मां ने देखा तो तुरंत डाक्टर को बुला लाईं. डाक्टर ने रक्तचाप देखा और तुरंत इंजेक्शन दिया. फिर मां को आवश्यक निर्देश दे कर चला गया. इंजेक्शन के प्रभाव से पुरवा की आंखों में नींद का खुमार छाने लगा था. मां घर फोन करने चली गई थीं. तभी सुहास आ गया. पीछे क्या हुआ यह जाने बिना ही वह क्रोध से बोला, ‘‘पुरवा, तुम्हें क्या होता जा रहा है. बेला भाभी से बात करने की तमीज भी भूल गई हो.’’

पुरवा ने मुंदती हुई आंखों को भरसक खोलने का प्रयास किया.

सुहास के शब्द तीर की तरह उस के दिल में चुभ रहे थे. सुहास कह रहा था, ‘‘मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी पत्नी एक मामूली औरत की तरह इतनी ओछी बातें कर सकती है.’’

सुहास अभी और भी कुछ कहता, तभी मां कमरे में आ गईं और बोलीं, ‘‘क्या शोर मचा रखा है, सुहास. दिखता नहीं उस की तबीयत कितनी खराब हो गई है.’’

पुरवा तब तक नींद की गोद में समा गई थी.

कई दिनों से आकाश पर बादल छाए थे, पर उस दिन अचानक ही बरसात की संभावना बढ़ गई. एक दिन पहले ही पुरवा घर वापस आई थी. उस रात से ही पुरवा चुप सी हो गई थी. न किसी से बात कर रही थी न कोई शिकायत, अंदर ही अंदर जैसे कोई मंथन चल रहा था.

मम्मीपापा देखने आए हुए थे, उन के सामने भी चुपचाप ही पड़ी हुई थी. मां ने कहा, ‘‘जाने क्या हुआ है पुरवा को. किसी से बात ही नहीं करती है.’’

‘‘कोई तकलीफ है क्या, बताती क्यों नहीं है बेटी,’’ पापा ने झुक कर कई बार पूछा. मम्मी उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं तो अचानक पुरवा के अश्रु बह चले.

‘‘यह क्या, पुरु? घबराते नहीं हैं. जल्दी ठीक हो जाओगी.’’

‘‘मुझे घर ले चलो, ममा,’’ अचानक पुरवा ने रोते हुए कहा.

‘‘ले चलेंगे बेटे, तुम ठीक तो हो जाओ. अभी तो बहुत कमजोर हो तुम,’’ मम्मी ने प्यार से कहा.

‘‘नहीं, मुझे आज ही चलना है.’’

मां पास ही खड़ी सब सुन रही थीं. बोलीं, ‘‘अगर कुछ दिन वहां रह कर यह जल्दी स्वस्थ हो सकती है तो आप जरूर ले जाइए.’’

सबकुछ आननफानन में हो गया. पुरवा का सामान पैक हुआ. वह मम्मीपापा के साथ उन के घर चली गई. सुहास को जैसे कुछ सोचनेसमझने का अवसर ही नहीं मिला. उसे उदास देख कर मां ने कहा, ‘‘अब उदास क्यों बैठा है. कुछ दिनों को वहां जाने का भी तो उसे अधिकार है.’’

‘‘मैं कहां कुछ कह रहा हूं.’’

‘‘फिर इतना मुंह लटकाने की क्या बात है?’’ मां कमरा ठीक करने लगी थीं. कोई चुभन उन के मन में भी थी, इसी से काम करते हुए कुछकुछ बोलती जा रही थीं.

‘‘सब के पीछे भागता रहता है, पर पत्नी बीमार पड़ी है तो प्यार से बात भी नहीं कर सकता है. बेला को ले कर बातबात पर उसे डांटता रहता है इन दिनों.’’

‘‘मैं क्या करूं, कभीकभी मेरा दिमाग फिर जाता है,’’ सुहास ने सफाई दी.

‘‘जिंदगी को मजाक समझ रखा है. हर बात में बचपना, हर समय जल्द- बाजी,’’ मां की किसी बात का उत्तर उस के पास नहीं था, पर वह उन की बातों पर सोचने के लिए विवश अवश्य हो रहा था.

पुरवा की कमी उसे बहुत खल रही थी. फोन पर जब भी वह पुरवा से बात करता, वह ‘हां, हूं’ में ही उत्तर देती. सुहास का मन करता कि अभी जाए और पुरवा को जबरन वापस ले आए, पर उस का अस्वस्थ शरीर याद आते ही सुहास हताश हो कर बैठ जाता. काम में मन पहले भी नहीं लगता था, अब उदासी का बहाना ले कर वह घर बैठ गया. जब मां व पापा ने अधिक टोका तो घर से बाहर तो निकलने लगा पर दुकान पर कम, कभी बेला, कभी किसी और मित्र के घर जा कर समय व्यतीत करने लगा.

पुरवा धीरेधीरे स्वस्थ हो रही थी. सुहास ने एक दिन पूछा, ‘‘कब आऊं लेने?’’ तो पुरवा ने चुप्पी साध ली. बहुत बार पूछने पर बोली, ‘‘अभी मैं आराम कर रही हूं.’’

मम्मी पास ही बैठी थीं. बोलीं, ‘‘उसे यहां बुला लो. कुछ दिन वह भी रह जाएगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है,’’ पुरवा का क्रोध अभी तक उतरा नहीं था. मम्मी कुछ पल उसे देखती रहीं फिर धीरे से कहा, ‘‘यह ठीक नहीं है, पुरु. उस ने कोई भूल की भी है तब भी इतना क्रोध दिखाना गलत है.’’

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मम्मी अपनी बात कह कर चली गईं पर पुरवा खिन्न मन से खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई. थोड़ी दूर पर गुलमोहर का पेड़ था और दूर तक बोगनबेलिया की लंबी झाड़…लालसफेद और बैंगनी फूल एकसाथ मुसकरा रहे थे. उसे लगा कि प्रकृति कितनी सरलता से एकदूसरे के साथ सामंजस्य बैठा लेती है. यह गुलमोहर का पेड़ साक्षी है उस के प्यार का. जब भी सुहास पुरवा के साथ इस गुलमोहर के नीचे आता था, भविष्य के अनेक सपने संजोए जाते थे. कहां गए वह सारे सपने. वह कौन सी धुंध उन दोनों के मध्य फैल गई है कि सारे सपने कहीं खो गए हैं. उसे तो अभी कुछ भी नहीं भूला है, पर सुहास सबकुछ भूल गया है.

पुरवा खिड़की से हट कर पुन: बिस्तर पर लेट गई. सोचने लगी, ‘उस से कहां भूल हो गई, उस ने सुहास को गलत समझा या सुहास ही बदल गया है,’ एक गहरी सांस खींच कर उस ने आंखें मूंद लीं.       -क्रमश:

धारावाहिक उपन्यास- मंजिल

लेखक- माया प्रधान

पूर्व कथा

पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.

सुहास की बहन श्वेता को देखने लड़के वाले आते हैं. इंजीनियर लड़के गौरव से श्वेता का विवाह तय हो जाता है. मिठाई  के डब्बे के साथ बहन की सगाई का निमंत्रण ले कर सुहास सहाय साहब के घर जाता है. घर पर बीमार सहाय साहब का हालचाल पूछने उन के मित्र आए होते हैं. सहाय साहब सुहास की तारीफ करते हुए सब को बताते हैं कि वह उस के लिए मोटरपार्ट्स की दुकान खुलवा रहे हैं. सुहास अपनी तारीफ सुन कर खुश होता है.

श्वेता की सगाई पर आए सहाय साहब के परिवार से मकरंद वर्मा परिवार के सभी सदस्य उत्साहपूर्वक मिलते हैं. दोनों परिवार वाले सुहास और पुरवा के रिश्ते से खुश थे.

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समय तेजी से गुजरता रहा. सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.

अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है. उस दिन पुरवा का सजाधजा रूप देख कर सुहास दीवाना हो जाता है. पुरवा से शीघ्र विवाह करने के लिए सुहास दुकान पर मन लगा कर काम करने लगता है. यह सब देख सहाय साहब खुश थे. आखिरकार वह एक दिन वर्मा साहब के घर पुरवा का रिश्ता ले कर पहुंच जाते हैं. सभी की मौजूदगी में खुशी से पुरवासुहास का रिश्ता पक्का हो जाता है और शीघ्र ही धूमधाम से विवाह हो जाता है.

सुहागसेज पर दोनों हजारों सपने संजोते हैं और हनीमून पर ऊटी जाते हैं. वापस आने पर घर में सब उन का स्वागत करते हैं. इधर श्वेता से बात करने पर पुरवा को पता चलता है कि बड़े परिवार के कारण वह ससुराल में नाखुश है. उधर अपनी व्यवहारकुशलता से पुरवा ससुराल में जल्द ही सब से घुलमिल जाती है.

पुरवा महसूस कर रही थी कि सुहास का ध्यान समाजसेवा में अधिक रहता है. वह दूसरों की मदद के लिए दुकान पर भी ध्यान न देता.

एक दिन श्वेता ससुराल से लड़झगड़ कर मायके आती है. पुरवा के समझाने पर वह उलटा पुरवा को ही सुहास द्वारा कुछ न कमाने का ताना देती है. यह बात सच थी इसीलिए पुरवा सब चुपचाप सुन लेती है लेकिन अब उस के दिमाग में श्वेता के शब्द गूंज रहे थे.

पुरवा अब निरंतर सुहास को उस की जिम्मेदारी का अहसास कराने की कोशिश करती. शीघ्र ही वह दिन भी आता है जब पुरवा को पता चलता है कि वह मां बनने वाली है. सुहास पापा बनने के सुखद अहसास से झूम उठता है. अब आगे…

गतांक से आगे…

उस रात पुरवा ने सुहास पर क्रोध करते हुए कहा, ‘‘तुम ने चारों तरफ इतना ढिंढोरा क्यों पीटा?’’

सुहास बहुत प्रसन्न था अत: उसे मनाते हुए बोला, ‘‘तुम्हें क्या बताऊं पुरू, मैं कितना खुश हूं. बैठेबैठे यही कल्पना  करता हूं कि एक नन्हा सा बच्चा जब ‘पापा’ कह कर बुलाएगा तब भला कैसा लगेगा.’’

पुरवा ने मुसकरा कर उसे देखा. बोली, ‘‘यह कल्पना तो मैं भी करती हूं सुहास. यह जो मेरे अंदर पनप रहा है, इस की रचनाकार मैं हूं, यह भावना ही विचित्र रोमांच से भर देती है.’’

‘‘नहीं पुरवा, रचनाकार तो कुदरत है. तुम और मैं तो बस माध्यम हैं पर यह पूरी तरह से हम दोनों का होगा. जैसे मैं अपने मातापिता से अपनी इच्छाएं पूरी करवाता हूं, वैसे ही…’’

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‘‘हां सुहास,’’ पुरवा ने उसे बीच में ही टोक दिया, ‘‘लेकिन सोचो जरा, अब हमारी जिम्मेदारी कितनी बढ़ गई है.’’

सुहास अपने उत्साह में डूबा हुआ ही बोला, ‘‘तो क्या पुरवा, मैं बहुत मेहनत करूंगा, एक दिन फैक्टरी खड़ी करूंगा, फिर उसे भी आगे बढ़ाऊंगा. इस घर में कोई व्यापारी नहीं है, पर मैं बन कर दिखाऊंगा,’’ उसे इतना उल्लसित देख कर पुरवा भी गद्गद हो उठी.

धीरेधीरे पुरवा अपने तनमन में विचित्र सा बदलाव महसूस करने लगी. मन के अंदर ममता का स्रोत फूटने लगा था. कैसा होगा मेरा बच्चा? किस पर जाएगा. जब वह मां कहेगा तो कैसा लगेगा. अनेक बातें उसे गुदगुदाती रहतीं. और शरीर में विचित्र सी व्याकुलता, चलने में, उठने में उलझन सी, खानेपीने में अरुचि. पुरवा सोचती, यह कैसा आनंद है जो कष्ट भी साथ ही साथ लाया है. सुहास दुकान छोड़ कर बीच में ही भाग आता तो पुरवा क्रोध करती, ‘‘यह क्या, इतनी जल्दी आ गए.’’

सुहास उस के पेट पर प्यार से हाथ फेरता, ‘‘हां, मुझे इस की बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘बहानेबाज.’’ पुरवा मुसकरा देती.

‘‘तुम्हें तो दुकान छोड़ कर भागते रहने का बहाना चाहिए.’’

‘‘नहीं सच्च. मुझे लगा कि तुम भी मुझे याद कर रही हो, आखिर तुम्हारा ध्यान रखना भी तो मेरा ही कर्तव्य है न,’’ सुहास ने सफाई दी.

पुरवा ने प्यार से उसे देखा और कहा, ‘‘सुहास, तुम्हारे प्यार पर मुझे सदा बहुत गर्व होता रहा है. पर कभीकभी मुझे लगने लगता है कि तुम प्यार और कर्तव्य निभातेनिभाते अपने उत्तरदायित्व को भूल जाते हो.’’

सुहास ऐसे में उसे गुदगुदा कर बात पलटने की कोशिश करता और कहता, ‘‘मुझे वह भी याद है पुरू. अपने आने वाले बच्चे के लिए मुझे बहुत परिश्रम करना है. एक सफल व्यवसायी बनना है. वह कहते हैं न कि हर सफल व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है,’’ सुहास पुरवा को चिढ़ाते हुए कहता, ‘‘तो तुम हो न मुझे घड़ीघड़ी सही राह दिखाने वाली. मुझे मालूम है कि तुम मुझे कभी भटकने नहीं दोगी,’’ ऐसे में सदा पुरवा गर्व से भर उठती. सोचती, सुहास को पसंद कर के मैं ने कोई गलती नहीं की है.

श्वेता अपनी यात्रा से वापस आ गई थी. अपने सुखद अनुभव सब को सुना कर वह फूली नहीं समाती थी. पुरवा भी सुनती और खुश होती. सोचती, शुक्र है कि श्वेता की नादानी अब राह नहीं खोज पाएगी. पुरवा का स्वास्थ्य प्राय: खराब हो जाता था. मां उस का बहुत ध्यान रखती थीं. सुहास भी दुकान से सीधे घर आ जाता था. कभीकभी वह पुरवा को घुमाने ले जाता. दोनों बहुत सी पुरानी यादों को दोहराते और भविष्य के सपने बुनते. उन स्वप्नों में एक नन्हा शिशु भी किलकारियां भरता.

एक दिन अंधमहाविद्यालय से पुरवा के लिए एक पत्र आया. राष्ट्रपति के सम्मुख एक विशेष आयोजन में विद्यालय के बच्चों को कार्यक्रम प्रस्तुत करना था. पुरवा को कार्यक्रम तैयार करवाने में सहायतार्थ बुलाया गया था. उस ने मां से पूछा तो उन्होंने कहा, ‘‘जाने में तो कोई हर्ज नहीं है पर तुम्हारी तबीयत तो ठीक नहीं रहती है और रिहर्सल करवाने रोज जाना पड़ेगा.’’

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‘‘जानती हूं मम्मी, पर वहां जा कर शायद मैं अपनी अस्वस्थता के बारे में कुछ देर भूली रहूं.’’

मां हंस दी थीं. बोलीं, ‘‘हां, यह तर्क भी ठीक है.’’ इस तरह पुरवा को एक बार पुन: कुछ घंटों के लिए अपना पुराना समय वापस मिल गया था. उसे बस या स्कूटर से जानेआने की आज्ञा नहीं थी, इसलिए कभी कार से कभी टैक्सी से ही उसे जाना पड़ रहा था. उस के चेहरे पर पुरानी चमक वापस आ रही थी. आंखों में उत्साह झलकने लगा था. सुहास भी उन दिनों बहुत देर से घर वापस आता था. पुरवा सोचती कि वह घर पर नहीं मिलती है शाम को शायद इसीलिए वह देर से वापस आता है पर एक दिन वह घर पहुंची तो उसे बड़ी विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ा. वह टैक्सी वाले को पैसे चुका कर जैसे ही पोर्च तक पहुंची तो ड्राइंगरूम से ऊंचीऊंची बहसों का स्वर उसे चौंका गया. जिस घर में कभी भी ऊंचे स्वर में बात नहीं की जाती है, वहां थोड़ा सा ऊंचा स्वर भी चौंकाने के लिए काफी था. वह हतप्रभ आंखों से सब को देखती हुई अंदर पहुंची तो सब चुप हो गए.

‘‘क्या हुआ?’’ उस ने सुहास की तरफ देखते हुए पूछा. सुहास बिना कुछ बोले उठ कर अंदर चला गया. पुरवा ने मां व पापा की ओर दृष्टि घुमाई तो मां ने मुसकराने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘कोई विशेष बात नहीं है. हम लोग सुहास को व्यापार की ऊंचनीच समझा रहे थे.’’ मां ने थकी हुई पुरवा को बैठाते हुए स्नेह से उसे देखा, ‘‘और तुम्हारी रिहर्सल कैसी चल रही है?’’

पुरवा ने भी मुसकराहट बिखेर कर कहा, ‘‘ठीक चल रही है मम्मीजी. बस, कार्यक्रम समाप्त होते ही फुरसत हो जाएगी.’’

‘‘चलो अच्छा है. कुछ मन भी बहला रहता है तुम्हारा. उठ कर फ्रेश हो लो. सब खाने को बैठे हैं.’’

कमरे में पहुंची तो सुहास लेटा हुआ था. पुरवा सिरहाने बैठ गई और बोली, ‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘हां, ठीक है सब. तुम नहाना चाहो तो नहा लो,’’ सुहास ने जैसे बात टालते हुए कहा. पुरवा को लगा, उस से कुछ छिपाया जा रहा है, पता नहीं क्यों? वह गर्भवती है इसलिए, अथवा कोई अन्य कारण है. मन में चिंता सी हो आई पर ऊपर से उस ने कुछ भी प्रदर्शित नहीं होने दिया. सुबह जब सुहास जाने लगा तब पुरवा ने मां को कहते सुना, ‘‘जो भी करना, सोचसमझ कर करना.’’

सारा दिन यह वाक्य उसे दंश देता रहा था. आखिर व्यापार संबंधी वह कौन सी समस्या है जो उसे नहीं बताई जा रही है. जब से सुहास ने अपनी दुकान खोली है, कभी उस ने यह नहीं देखा कि सुहास ने मम्मीपापा को व उसे कुछ ला कर दिया हो. उसे जेठानी की बात याद आ गई. हंसीहंसी में ही उन्होंने कहा था, ‘सुहास को तो मम्मीजीपापाजी के आंचल में दुबक कर रहने की आदत पड़ी हुई है.’

‘क्या मतलब?’ पुरवा ने आश्चर्य से पूछा था.

‘मतलब सीधा सा है. दुलार के मारे उसे जरा से कष्ट में देख नहीं सकते हैं पापाजी और मम्मीजी. जो मांगते हैं, तुरंत हाजिर कर देते हैं,’ इला भाभी ने कहा था.

‘पर ऐसा तो सभी मातापिता करते हैं,’ पुरवा ने तर्क किया था.

‘तुम्हारा कहना ठीक है, पर फिर भी हर मांबाप बच्चे को जीवन की कठिनाइयों से भागने को उचित नहीं समझते हैं बल्कि जो मातापिता बच्चों को हर मुश्किल का सामना करने के लिए प्रेरणा देते हैं, वही ठीक करते हैं.’

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इला की बात पर पुरवा ने आश्चर्य से उसे देखा था. तब विस्तार से इला भाभी ने समझाया था कि सुहास ने पढ़ाई में भी बहुत लापरवाही बरती. दोनों बड़े भाई चाहते थे कि उन की तरह ही सुहास भी प्रतियोगिताओं में बैठ कर एक ठोस राह पकड़े. पर सुहास का पढ़ाई में या शायद परिश्रम में अधिक मन नहीं लगता था. मम्मीजी व पापाजी ने भी इसे उस का बचपना कह कर टाल दिया. मम्मीजी कहतीं, ‘बच्चों के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए, समय आने पर कोई न कोई राह उसे भी मिल ही जाएगी.’

उस समय पुरवा ने इन बातों को गंभीरता से नहीं लिया था, पर अब कुछ समय से उन बातों को प्राय: याद कर लेती है. जैसे उस की हर आवश्यकता मम्मीजी अपने पर्स से पूरी करती रहती हैं. कभीकभी तो सुहास को भी मम्मीजी से ही रुपए लेते पुरवा ने देखा है.

कल शाम से जो हालात हैं घर में, उन्हें देख कर एक बार फिर उसे इला की बातें याद आ रही हैं, तो क्या वह यह सोचे कि सुहास परिश्रम करने से बचता रहता है, पर व्यापार का पहला सिद्धांत ही यह है कि व्यक्ति को परिश्रमी, साहसी व उद्यमी होना चाहिए. सब से अधिक दुख उसे इस बात का था कि उसे कुछ भी बताया नहीं जा रहा था. इतना अधिक अस्वस्थ भी नहीं है वह कि उसे कुछ भी  बताया ही न जा सके.

शाम को वह कार्यक्रम के अंतिम चरण की तैयारी करने गई थी. रविवार को कार्यक्रम प्रस्तुत होना था. सभी बच्चे पूरी लगन के साथ तैयारी में जुटे हुए थे.

बीच के समय में रोज चाय ले कर मदन आया करता था पर उस शाम यकायक कपड़ों में सजाधजा, चुस्तदुरुस्त सा जो युवक चाय ले कर आया, उसे देख कर पुरवा चौंक उठी. उस युवक ने चाय मेज पर रख दी और टटोल कर पुरवा के पैर छूने लगा तो पुरवा संकोच से बोली, ‘‘नहींनहीं, यह क्या?’’

‘‘दीदी, आप ने पहचाना नहीं क्या?’’ युवक वहीं फर्श पर बैठ गया. पुरवा ने सोचते हुए कहा, ‘‘तुम प्रभात हो न.’’

युवक मुसकराया. उस के चेहरे की हर शिकन पर उत्साह की चमक थी. बोला, ‘‘हां दीदी.’’

‘‘कैसे हो प्रभात?’’ पुरवा ने प्रसन्नता से पूछा.

‘‘आप की कृपा से बहुत अच्छा हूं दीदी,’’ उस के स्वर में प्रसन्नता और उत्साह साथसाथ तैर रहे थे. पुरवा को भी उसे देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा था. एक दिन यही प्रभात बहुत ही रोंआसे स्वर में उस से बोला था, ‘दीदी, मैं शीघ्र से शीघ्र अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूं. मेरी मां बहुत बीमार रहती हैं. पिता शराब में अपना वेतन फूंक देते हैं. घर में 2 भाई और एक बहन भी हैं.’

उस दिन के प्रभात में और आज के प्रभात में कितना अंतर था. पुरवा ने पूछा, ‘‘तुम्हारा व्यापार कैसा चल रहा है प्रभात.’’

उस ने दोनों हाथ जोड़ लिए और गद्गद स्वर में बोला, ‘‘आप का ही आशीर्वाद है दीदी. अंकल ने जो राह दिखाई थी, उसी पर चल कर आज मेरी अपनी छोटी सी कंपनी है, जहां बड़े पैमाने पर देशविदेश के लिए रेडीमेड कपड़े तैयार होते हैं.’’

पुरवा ने सुना तो हतप्रभ रह गई. एक व्यक्ति जिसे कुदरत ने आंखों की रोशनी नहीं दी, फिर भी वह जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ा हो जाना चाहता था. पुरवा ने अपने पापा के सामने उस की समस्या रखी और उन्होंने अपनी गारंटी पर प्रभात को बैंक से ऋण दिलवाया और रेडीमेड कपड़ों के बनाने और बेचने में सहायता की. प्रभात में साहस और लगन की कमी नहीं थी. अत: बहुत शीघ्र ये सारे कार्य उस ने कुशलतापूर्वकसंभाल लिए और सहाय साहब को अपनी सहायता से मुक्त कर दिया.

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इस बीच पुरवा के जीवन में बहुत से परिवर्तन हुए. वह एम.ए. की परीक्षा में व्यस्त हो गई, फिर उस के जीवन में सुहास आ गया और वह उस की पत्नी बन गई. प्रभात से मिले उसे बहुत लंबा अरसा हो गया था. कई वर्षों से वह अंध- महाविद्यालय से जुड़ी हुई थी, इसलिए उसे वहां बहुत सम्मान प्राप्त था. प्रभात ने इतने थोड़े समय में इतनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी, यह देख कर पुरवा हतप्रभ थी. मन ही मन में वह प्रभात की तुलना सुहास से कर रही थी. सुहास को भी तो पापा ने पूरी सहायता दी थी. स्वयं उस के मम्मीपापा भी बराबर उस का ध्यान रखते हैं पर अभी तक ऐसा कुछ भी तो दिखाई नहीं दिया कि लगे कि सुहास एक दिन सफल व्यापारी बन पाएगा. ऊपर से कुछ नई समस्या भी शायद उत्पन्न हो गई है जिस से उसे दूर रखा जा रहा है, तो क्या वह समझे कि सुहास एक गैरजिम्मेदार व्यक्ति है? या वह जीवन संघर्ष से दूर भागने का आदी है.

पुरवा के मन में उथलपुथल मची हुई थी. एक मन सुहास के प्यार में डूबा हुआ था, पर सोच को क्या करे, जो सच और झूठ के बीच कसमसा रहा था. प्यार करते समय कहां पता चलता है कि जीवन को क्या दिशा मिलने वाली है. कभीकभी सोचती है कि वह भी सुहास की तरह ही मान कर चले कि जीवन तो आनंद से व्यतीत हो रहा है. जो चाहती है मिल जाता है. घूमनाफिरना भी हो जाता है. बहुत से मित्र, बहुत सारे संबंधी हैं, जिन से निरंतर मिलनाजुलना चलता रहता है. प्यार करने वाला पति व प्यार देने वाले सासससुर भी हैं और क्या चाहिए.

पर उस का आत्मसम्मान सदा उस के आड़े आ जाता है. विवाह के उपरांत पति के उत्तरदायित्व पत्नी के प्रति बढ़ जाते हैं. लेकिन सुहास के पास किसी भी उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए समय नहीं है. उसे डाक्टर के पास अधिकतर मां ले जाती हैं. सुहास को तो अपने परिचितों की सेवाटहल से ही फुरसत नहीं है.

प्रभात की प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही थी. पुरवा की तंद्रा भंग करते हुए उस ने कहा, ‘‘दीदी, आप कैसी हैं?’’

‘‘बहुत अच्छी हूं प्रभात. तुम से मिल कर बहुत खुशी हो रही है.’’

‘‘हमें भी बहुत याद आती थी दीदी, पर व्यापार जमाने में बहुत झंझट थे, आप से मिल ही नहीं पाए.’’

‘‘वह भी तो जरूरी था प्रभात. तुम ने इतना परिश्रम कर के अपने नाम को सार्थक कर दिखाया है,’’ पुरवा ने कहा.

‘‘जो कुछ भी है दीदी, आप की और अंकल की ही कृपा है. मुझे तो बस कर्म करना था. अभी तो बस नींव पड़ी है. छोटी सी फैक्टरी लगा ली है, शायद किसी दिन और भी कुछ कर सकूं,’’ प्रभात ने चाय का नया कप बना कर पुरवा को दिया था.

‘‘अच्छा दीदी, आप के पति कैसे हैं?’’

प्रभात ने पूछा तो पुरवा मुसकरा दी, ‘‘बहुत अच्छे हैं प्रभात. हम ने एकदूसरे को पसंद कर के विवाह किया है,’’ पुरवा की बात सुन कर प्रभात मुसकरा दिया.

‘‘आप की शादी की बात पता चली थी, पर जरा देर से. तब से ही मन था कि आप से और जीजाजी से मिलूं.’’

प्रभात सुहास के बारे में भी पूछता रहा. जब वह जाने लगा तो पुरवा ने कहा, ‘‘एक दिन हमारे घर जरूर आना, मैं सुहास से तुम्हें मिलवाना चाहती हूं.’’

‘‘हां दीदी, अवश्य आऊंगा,’’ प्रभात पैर छू कर चला गया पर पुरवा सोच में डूब गई. ऐसे कर्मठ लोग उसे बहुत अच्छे लगते हैं.

उस शाम के शोरगुल का कारण पुरवा को बहुत शीघ्र पता चल गया था. कारण जान कर वह हत्प्रभ रह गई थी. सुहास अब पुराना सब बेच कर कंप्यूटर का कार्य आरंभ करना चाहता था. उसे किन लोगों ने यह सलाह दी थी, यह बात पता नहीं चली थी.

पुरवा सोच में पड़ गई थी. जाने कैसेकैसे मित्र बनाए हैं इन दिनों सुहास ने. कभीकभी घर पर भी आ धमकते हैं. जितनी देर बैठते हैं वे सब चाय के साथ अपनी नेक सलाहें देते रहते हैं. कभीकभी मां भी उन की सलाहों से परेशान हो जाती हैं.

मां और पापा के चेहरे पर तनाव स्पष्ट दिखाई देता था. शायद उन्होंने भी कभी यह नहीं सोचा था कि उन का लाड़प्यार सुहास को इतना गैरजिम्मेदार बना देगा.

पुरवा के मन में भी लगातार हलचल मची हुई थी.

उस के गर्भ में सुहास का बच्चा था. सुहास को कम से कम अपने इस नए उत्तरदायित्व के प्रति सचेत होना चाहिए था. मां व पापाजी कब तक उस के सारे उत्तरदायित्व निभाते रहेंगे.

सुहास के बारे में सोचतेसोचते पुरवा को प्रभात का ध्यान आ गया. कुदरत ने उसे आंखें नहीं दी हैं, फिर भी वह जीवन के प्रति कितना गंभीर है. अपने मातापिता का दुख दूर करने के लिए उस ने राह बनाई और उस में सफलतापूर्वक आगे बढ़ भी रहा है. उस दिन भी पुरवा यही सोचती रही थी कि विकलांग हो कर भी प्रभात में आत्म- विश्वास कूटकूट कर भरा हुआ है. और तभी उसे यह भी सोचना पड़ा था कि क्या सुहास में आत्मविश्वास की कमी है. पहले तो कभी ऐसा नहीं लगा था फिर अब…अपनी नित नई सोच से घबरा कर कभीकभी वह अपना आत्म- विश्लेषण भी कर बैठती है.

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कई बार अपनेआप से उस ने प्रश्न किया है, ‘पुरवा, साथ रह कर क्या तुम सुहास में बस त्रुटियां खोजने लगी हो? तुम्हारे प्यार के वे सारे दावे कहां खो गए हैं?’

कई बार चौंक कर वह यह भी सोचती है, कहीं ऐसा न हो कि भविष्य की चिंता में वर्तमान भी हाथ से छूट जाए. यही सब सोच कर पुरवा ने निर्णय लिया कि वह सुहास को प्यार से समझाने का प्रयास करेगी. वह उस दिन व्यग्रता से सुहास की प्रतीक्षा करने लगी.

पत्रकार का स्कूटर

लेखक- सुकुमार महाजन

और उन के पैर सामने पड़ी कमजोर मेज पर बिखरी हुई गंदी फाइलों पर रखे थे. कहानी के उतारचढ़ाव के साथसाथ मेज भी आगेपीछे झूलती जाती थी. छत का पंखा आहिस्ताआहिस्ता घूम रहा था, इस पर भी कड़ी घुटन और गरमी महसूस हो रही थी. शायद कहानी में वह प्रसंग आ रहा था जब हीरो अपनी सहायिका को, जो एक सुंदरी थी, बांहों  में बांध कर यह बताता है कि किस तरह उस ने अकेले निहत्थे ही विदेशी जासूसों के दल का पता लगा कर उस का सफाया कर दिया.

तभी बाहर के कमरे में फोन की घंटी बज उठी. किसी ने फोन उठाया. थानेदार साहब का फोन था. उन्हें एक्सटेंशन दिया गया. पंजाबी में एक भद्दी सी गाली देते हुए उन्होंने किताब मेज पर दे मारी और चोंगे में जोर से ‘हां’ कहा.

‘‘मैं एस.पी. बोल रहा हूं,’’ दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘कितनी बार तुम से कहा कि फोन पर धीरे बोला करो, लेकिन तुम पर असर ही नहीं होता.’’

‘‘सर…जनाब,’’ वह तेजी से उठे और एडि़यां बजाते हुए तन कर सलाम किया, ‘‘साहब, हम लोगों को फोन पर इतना परेशान किया जाता है कि…’’

‘‘चुप रहो और मेरी बात सुनो. तुम्हारे यहां से एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया था. आज शाम तक वह मिल जाना चाहिए.’’

‘‘लेकिन, साहब,’’ थानेदार साहब ने कहना चाहा, ‘‘पहले ही 10 स्कूटरों और मोटर साइकिलों के केस पड़े हैं और…’’

‘‘बकवास मत करो. उन 10 की कोई जल्दी नहीं है. यह पत्रकार का स्कूटर है, फौरन मिलना चाहिए. जल्दी करो!’’ एस.पी. ने फोन रख दिया था.

थानेदार साहब ने गुस्से से चोंगे की तरफ देखा, फिर मेज पर पड़ी किताब की तरफ और फिर जोर से चोंगा पटक दिया.

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‘‘मुंशीजी,’’ वह दहाड़े.

बांहों पर 3 पट्टी वाले 6 फुटे मुंशीजी ने फौरन अंदर आ कर सलाम किया.

‘‘क्या किया तुम ने?’’ थानेदार ने पूछा.

‘‘क्या किया, हुजूर?’’

‘‘धत्तेरे की,’’ थानेदार साहब गरजे, ‘‘तुम दूसरे फोन पर सब बात सुन रहे थे. है न?’’

मुंशीजी ने स्वीकार किया.

‘‘फिर क्या किया तुम ने…’’ रुक कर उन्होंने सांस खींची, ‘‘क्या किया उस पत्रकार का स्कूटर शाम तक ढूंढ़ने के लिए?’’

मुंशीजी कोई जवाब दें, इस के पहले ही फोन की घंटी बजी और थानेदार साहब ने चोंगा उठाया.

‘‘जनाब सर,’’ जितना हो सकता था उतनी नम्रता से

वह बोले.

‘‘मैं सेतुरामन हूं, श्रीमान! मैं सरकारी इंजीनियर हूं और पी.वाई.जेड. कारखाने में काम करता हूं. मैं यह जानना चाहता था कि मेरे चोरी गए स्कूटर के संबंध में आप ने क्या काररवाई की है. शायद आप को याद हो, मैं ने 3 महीने पहले रिपोर्ट लिखाई थी.’’

‘‘मिस्टर सेतुरामन,’’ थानेदार ने कुढ़ कर कहा, ‘‘सरकारी नौकर होने का यह मतलब नहीं है कि आप पुलिस वालों पर हुक्म चलाएं. आप का स्कूटर ढूंढ़ने के अलावा हमारे पास और भी काम है. कुछ पता चला तो हम लोग आप को बताएंगे ही. आप बेकार हमारा वक्त क्यों बरबाद करते हैं?’’ अंतिम वाक्य उन्होंने बड़ी जोरदार आवाज में कहा.

‘‘हां, तो…’’ वह फिर मुंशीजी की तरफ मुड़े. तभी फोन की घंटी फिर बजी.

‘‘क्या है?’’ वह चिल्ला कर बोले.

‘‘मैं आई.जी. बोल रहा हूं. गधे, तुम यह कब सीखोगे कि हम प्रजातंत्र में रह रहे हैं और बदतमीजी से बोलना हमें शोभा नहीं देता, खासतौर से फोन पर.’’

थानेदार साहब ने एडि़यां बजाईं और तन कर सलाम किया, ‘‘सर, जनाब…’’ वह कुछ कहना चाहते थे मगर बात बीच में ही काट दी गई.

‘‘सुनो, एक पत्रकार का स्कूटर तुम्हारी तरफ से उठ गया है और…’’

‘‘एस.पी. साहब ने मुझे बताया था, हुजूर और…’’

‘‘गोली मारो उन को, मेरी बात सुनो. तुम्हारे इलाके से एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया है और ब्लिंक अखबार ने तूफान खड़ा कर रखा है. उन्होंने इस बात को ले कर संपादकीय में भी लिखा है, जैसे देश में और कोई समस्या है ही नहीं. जो भी हो, मैं चाहता हूं कि दोपहर को खाने की छुट्टी के पहले ही तुम स्कूटर ढूंढ़ निकालो. मिलते ही सीधे मुझे फोन करो. समझे!’’

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थानेदार साहब ने फोन की तरफ गुस्से से देखा फिर मुंशीजी की तरफ मुड़े.

‘‘तुम मेरी तरफ मरियल कुत्ते की तरह क्या घूर रहे हो?’’ वह जैसे फट पड़े, ‘‘जाओ, और जा कर कुछ करो.’’

‘‘लेकिन क्या किया जाए, हुजूर?’’

थानेदार साहब ने कुछ तेज बातें करने के लिए सांस भरी, लेकिन न जाने क्या सोच कर धीरे से छोड़ दी.

‘‘समझने की कोशिश करो, मुंशीजी, मैं तो मुसीबत में पड़ गया हूं. तुम्हारी और इस थाने की भी मुसीबत है. बस, एस.पी. भर की बात होती तो तरफदारी की बात के बहाने अपनी जान बचाई जा सकती थी. लेकिन आई.जी. के आगे…ना बाबा ना, सोचो, कुछ तो सोचो.’’

और आखिर मुंशीजी ने एक बढि़या तरकीब सोच ही निकाली, ‘‘हम लोग उस पत्रकार से लापरवाही से स्कूटर रखने के लिए जवाब तलब क्यों न करें?’’

थानेदार साहब का बस चलता तो वह मुंशीजी को कच्चा ही चबा जाते. लेकिन वह इतना ही कह कर रह गए, ‘‘तुम बुद्धू हो.’’

अचानक उन के चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गई. उन्होंने पूछा, ‘‘हमारे इलाके में कितने मोटर मिस्त्री हैं? खासतौर से उन के नाम बोलो, जो हमारे इस नंबरी रजिस्टर में दर्ज हैं.’’

मुंशीजी ने मूंछों पर हाथ फेरतेफेरते 2 बार खंखार कर गला साफ किया, जमीन की तरफ देखा और फिर छत की तरफ, थोड़ा सा हिलतेडुलते हुए बोले, ‘‘जी, कांस्टेबल भीमसिंह को पता होगा.’’

‘‘कहां है, वह?’’

‘‘वह अपनी बीवी को लेने स्टेशन गया है. उस के पहला बच्चा लड़का हुआ था. आज वह आ रही है.’’

‘‘मुबारक हो,’’ थानेदार साहब ने तानाकशी के साथ कहा, ‘‘और यहां मुजरिम को थाने में कौन लाएगा? तुम ही लाओगे? जाओ, जो कर सको, करो, नहीं तो आई.जी. साहब से कह दो और भुगतो,’’ फोन की तरफ इशारा करते हुए थानेदार साहब ने अपना अधूरा पढ़ा उपन्यास उठा लिया.

मुंशीजी थोड़ी देर तो खड़े रहे फिर बोले, ‘‘हुजूर…हुजूर, मुझे याद आया, भीमसिंह एक बार एक मिस्त्री के बारे में कह रहा था कि उस का नाम रिकार्ड में है रसिया…रसिया नाम है उस का.’’

निगाह उठा कर थानेदार साहब मुसकराए, ‘‘तो मुंशीजी, इंतजार किस बात का है? उसे पूछताछ के लिए बुलाओ.’’

थोड़ी ही देर में मुंशीजी थानेदार साहब के कमरे में वापस आ गए. उन के पीछे ही पीछे ग्रीस लगे हाथ पाजामे से पोंछता हुआ रसिया आया. अधजली बीडि़यां उस के दोनों कानों पर रखी उस की शोभा बढ़ा रही थीं.

मुंशीजी ने तन कर सलाम किया. जवाब में थानेदार साहब ने जैसे सिर से कोई मक्खी उड़ाई, लेकिन किताब में मशगूल रहे. पीछे जो कुछ हो, लेकिन कम से कम दूसरों के सामने पुलिस वाली औपचारिकता खूब निभाते हैं. मुंशीजी आराम से खड़े हो गए और रसिया भी खड़ा इधरउधर देखता रहा और अपने बालों पर हाथ फेरता रहा.

10 मिनट बाद किताब पढ़ चुकने पर थानेदार साहब ने रसिया की तरफ देखा और बोले, ‘‘पधारिए, रसियाजी, बैठिए, बैठिए. वाह मुंशीजी, आप ने इस बेचारे को बैठाया क्यों नहीं?’’

अपने सारे गंदे दांत निपोरते हुए रसिया कमरे में एक ओर पड़ी बैंच पर बैठ गया और उस का हाथ कान पर लगी बीड़ी पर चला गया. थानेदार साहब ने उसे बीड़ी जला लेने दी. फिर बोले, ‘‘यहां बीड़ी पीना मना है.’’ खिसियाते हुए उस ने बीड़ी बुझा दी और फिर कान पर ही रख ली.

थानेदार साहब ने मेज की दराज में से एक मोटा बेंत निकाल कर मेज पर रखा, फाइलों पर पटक कर उन की धूल साफ की, फिर उठ कर मेज के एक कोने के पास खड़े हो गए और उन्होंने रसिया व रसिया के घर वालों का हालचाल पूछा.

‘‘और धंधा कैसा चल रहा है?’’ घर का हालचाल जानने के बाद उन्होंने पूछा.

‘‘आप की किरपा से ठीक चल रहा है, माईबाप.’’

थानेदार साहब असली बात पर आए. तुम्हें इसलिए तकलीफ दी है कि एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया है. उसे आधे घंटे में ही मिल जाना चाहिए और इतनी जल्दी तो बस, तुम्हीं ढूंढ़ सकते हो.’’

‘‘माईबाप, स्कूटर तो 15 मिनट में थाने आ जाए. लेकिन बात यह है कि हम सब को अच्छा कमीशन मिलना चाहिए. बहुत अच्छी हालत में है वह.’’

‘‘हम सब का कमीशन? क्या मतलब?’’

‘‘माईबाप, जानते होंगे,’’ रसिया व्यंग्य से बोला, ‘‘सरकार, भीमसिंह ने हर चोरी का स्कूटर बिक्री करने के लिए 250 रुपए तय कर रखा है. 150 आप के और 50-50 मुंशीजी और भीमसिंह के. यह कमीशन दे कर ही हमें बेचने का हुक्म है.’’

थानेदार साहब दंग रह गए. उन्होंने मुंशीजी की तरफ देखा, वह शर्माए से खड़े थे. रसिया का कुछ हौसला बढ़ा तो उस ने बीड़ी सुलगाने की फिर कोशिश की.

‘‘बीड़ी नहीं,’’ थानेदार साहब गरजे और डंडा मेज पर पटका, ‘‘कितने स्कूटर इस तरह बेचे गए हैं?’’

‘‘हुजूर, 10, और मैं ने पूरापूरा कमीशन चुका दिया.’’

‘‘हूं, अब जल्दी से पत्रकार का स्कूटर ले आइए.’’

‘‘लेकिन, माईबाप.’’

‘‘अगर 10 मिनट में वह स्कूटर नहीं आया,’’ थानेदार साहब ने हर शब्द पर जोर देते हुए कहा, ‘‘तो तुम्हारी खाल उधेड़ दी जाएगी.’’

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रसिया के पीछे मुंशीजी भी मुड़े, लेकिन थानेदार ने उन्हें वापस बुला लिया. दुनिया में बहुत कुछ होता है जिसे शायद खुदा भी नहीं देख पाता. और इस थाने में भी वही होता है. उन्होंने बड़ी शांति से कहते हुए फोन उठाया, ‘‘हां, तो मुंशीजी, पता है आप को कि मेरा 1,500 रुपए का कर्ज किस पर है?’’

‘‘हां, हुजूर, मुझ पर और भीमसिंह पर.’’

‘‘कितने दिन में चुकेगा?’’

‘‘कुछ ही घंटों में, हुजूर, कांस्टेबल भीमसिंह के आते ही.’’

‘‘ठीक है, तुम जा सकते हो.’’

उन्होंने आई.जी. का नंबर मिलाया. उन के बोलते ही एडि़यां बजाते हुए सलाम किया और कहा, ‘‘हुजूर, मैं ने पत्रकार का स्कूटर ढूंढ़ लिया है.’’

‘‘शाबाश…शाबाश. 3 बजे कंट्रोल रूम में ले आओ. मैं साढ़े 3 बजे पुलिस की मुस्तैदी दिखाने के लिए प्रेस कानफे्रंस बुला रहा हूं.

‘‘तुम्हारी मुस्तैदी के इस मामले को देखते हुए एंटीकरप्शन डिपार्टमेंट में तुम्हारे तबादले की बात पर और अच्छी तरह ध्यान दिया जाएगा.’’

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खुशीखुशी सीटी बजाते हुए थानेदार साहब ने घड़ी देखी. उस वक्त साढे़ 12 बज रहे थे, ‘कंट्रोल रूम जाने के लिए तैयारी का काफी समय है.’ उन्होंने सोचा, ‘तब तक एक उपन्यास और क्यों न पढ़ लिया जाए?’ और वह पढ़ कर ही गए.

बालमवा नादान

लेखक- लाजपत राय ठाकुर

सिर उठा कर देखा तो लीना जा चुकी थी लेकिन बेडरूम से उस के गाने की आवाज आ रही थी, ‘बालमवा नादान…समझाए न समझे मन की बतियां…’

हमारे माथे पर पसीने की बूंदें फूट पड़ी थीं और दिल भी जोरजोर से धड़क रहा था. पिछले कुछ दिनों से लीना इस तरह की खबरों से हमें लगातार दहला रही थी.

यह सिलसिला तब से शुरू हुआ जब से हमें दीवाली के बोनस की रकम मिली थी. यद्यपि हम ने लीना को बोनस मिलने की हवा तक न लगने दी थी पर उस को जाने कहां से दीवाली का बोनस मिलने की भनक लग गई. और उस ने जेवर व कपड़ों की नित नई फरमाइश करनी शुरू कर दी. हम ने भी हाथ तंग होने का रोना रोेते हुए लीना की फरमाइशों को एक कान से सुन दूसरे से उड़ाना शुरू किया तो उसी दिन से लीना ने समाचारपत्रों से ऐसी खबरें ढूंढ़ कर हमारे सामने रखनी शुरू कर दीं.

पहले दिन की खबर थी कि किसी पतिव्रता ने सब्जी में कोई जहरीला कीड़ा उबाल कर पति को खिलाया और उस का ऊपर का टिकट कटा दिया. कारण, पति ने पत्नी की पसंद की अंगूठी की फरमाइश को अंगूठा दिखा दिया था.

उसी दिन शाम को जब हम आफिस से घर पहुंचे तो बडे़ जोरों की भूख लगी थी उस पर रसोई से आती सब्जी की खुशबू ने मेरी भूख और भी बढ़ा दी थी.

लीना ने मुसकराहट के साथ हमारा स्वागत किया तो हमारे मुंह से निकला, ‘‘लीनाजी, आज बडे़ जोरों की भूख लगी है, आप जल्दी खाना लगा दें. मैं अभी हाथमुंह धो कर आता हूं.’’

‘‘अभी लगाती हूं,’’ लीना ने मुसकरा कर कहा, ‘‘वह मेरी अंगूठी?’’

‘‘भई, क्या बताऊं. बोनस न मिलने के कारण आजकल आफिस के सारे साथी कड़के हैं,’’ कह कर हम हाथमुंह धो खाने की मेज पर आ कर बैठ गए.

मेज पर रखी थाली में एक कटोरी मटरपनीर की सब्जी थी, दूसरी में मूंग की धुली हुई दाल थी. एक प्लेट में पापड़ और दूसरी में गाजर का अचार था. सलाद एक बड़ी प्लेट में सजा हुआ था. थाली में एक तरफ देसी घी से चुपड़ी चपाती रखी थी. लीना दूसरी गरम चपाती लाने को रसोई में गई थी.

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हम ने पहला कौर मुंह में रखा और सलाद की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि नजर पनीर की सब्जी की कटोरी पर जा कर अटक गई. देखा कि कोई कांटेदार चीज उभर कर डूब गई. ‘जहरीला कीड़ा,’ हमारे दिमाग में एकदम से उभरा और इसी के साथ मुंह से रोटी का टुकड़ा फिसल कर खाने की मेज पर आ गिरा.

कहीं लीना ने ‘कनखजूरा’ सब्जी में उबाल कर तो हमें नहीं परोस दिया? हम ने एकदम से अपना हलक पकड़ लिया ताकि कनखजूरे का जहर हलक से नीचे न उतर पाए.

‘‘क्या हुआ?’’ लीना चपाती प्लेट में रखते हुए पास में खड़ी हो कर बोली, ‘‘आप भी खाने के लिए कितने बेसब्र हैं, बिना फूंक मारे बच्चों की तरह गरम ग्रास मुंह में रख लिया.’’

‘‘सब्जी में…कनखजूरे का छौंक लगा है,’’ हम ने मटरपनीर की कटोरी की तरफ इशारा किया.

‘‘हाय राम, ‘‘कहां है भला?’’

‘‘ऊंह, बड़ी भोली बनती हो. लो, अपनी आंखों से देखो,’’ हम ने दोबारा कटोरी की ओर इशारा किया.

लीना ने सब्जी की कटोरी में चम्मच डाला और कुछ निकालते हुए बोली, ‘‘वाकई बहुत जहरीला कनखजूरा है,’’ और इसी के साथ उन के होंठों पर मुसकराहट खिल गई.

‘‘दांत मत निकालो…मुझे जल्दी से डाक्टर के पास ले चलो.’’

‘‘आप अपनी आंखें टेस्ट करवाइए,’’ लीना ने सब्जी से भरा चम्मच हमारे सामने कर दिया, ‘‘आप को यह प्याज का ऊपर वाला हिस्सा कनखजूरा नजर आता है?’’

चम्मच में सचमुच प्याज की जड़ों वाला टुकड़ा था.

‘‘लगता है जल्दी में यह भी तड़के में चला गया,’’ लीना ने प्याज का वह हिस्सा प्लेट में रख दिया.

‘‘मैं अभी सब्जी की दूसरी कटोरी लाती हूं.’’

‘‘रहने दो. भूख खत्म हो गई.’’

इस के कुछ दिन बाद नेल पालिश के घेरे में सजी एक और खबर थी कि किसी सुघड़ सुहागन ने बिना ग्रिल वाली खिड़की में खडे़ अपने ‘सुहाग’ को पीछे से ऐसी लात जमाई कि पति ने तीसरी मंजिल से सड़क पर गिरने के बाद पानी तक नहीं मांगा.

बेचारे पति का कुसूर सिर्फ इतना था कि उस ने पत्नी की पसंद की साड़ी ला कर नहीं दी थी.

आधी रात को लीना ने हमारा कंधा हिला कर हमें जगाया और कहा, ‘‘ सामने वाली खिड़की में जा कर देखना. बाहर से धमाकों की आवाज आ रही है.’’

लीना ने सामने वाली खिड़की की ओर उंगली उठाई. उस खिड़की के ऊपरी आधे भाग में सलाखें नहीं थीं.

बिना ग्रिल की खिड़की की तरफ देखते ही हमारा माथा ठनका. सुबह की सजीसजाई खबर आंखों के सामने नाचने लगी और साथ ही लीना की साडि़यों की फरमाइश कानों में गूंज उठी. तो क्या वह खिड़की में से लात जमा कर हमें नीचे सड़क पर पहुंचा कर अपनी साडि़यों की फरमाइश का बदला लेना चाहती है? यह सोच कर ही हम कांप उठे.

‘‘लीना डार्लिंग, मुझे बड़ी जोरों की नींद आ रही है.’’

‘‘आप को क्या सिर के बल खडे़ होना है? उठिए, मेरा हाथ थामिए,’’ लीना ने हाथ फैला दिया.

लीना का हाथ कस कर थामे हम आधी ग्रिल वाली खिड़की के पास खडे़ हो गए. हमें भरोसा था कि हमारा हाथ पकडे़ लीना हमें पीछे से ऐसी लात न जमा पाएगी कि हम सड़क पर पहुंच पानी की फरमाइश भी न कर सकें और अगर लीना ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की तो हम खबरदार हो जाएंगे और खिड़की से एक तरफ हट कर अपना बचाव करेंगे.

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दूर कहीं रंगबिरंगी रोशनियां आकाश की ओर उठ रही थीं और धमाके हो रहे थे.

‘‘ऊंह, ख्वाहमख्वाह नींद खराब कर दी. आतिशबाजी हो रही है. शायद किसी की शवयात्रा है,’’ हम ने लीना का हाथ छोड़ दिया.

‘‘शवयात्रा,’’ लीना चौंक पड़ी.

‘‘मेरा मतलब, किसी की बरात है.’’ सुबह का सफेद साड़ी…शवयात्रा वाला समाचार हमारे दिमाग में चकरा रहा था. हम ने जल्दी से भूल को सुधारा.

बाकी की रात लीना डबल बेड के एक ओर पड़ी खर्राटे भरती रही और हम बरात में फटने वाले पटाखों के धमाकों का लेखाजोखा करते रहे.

कुछ दिनों से लीना अपनी छोटी बहन की शादी में जाने और वहां पर शगुन देने के लिए काफी भारी भरकम रकम का तकाजा करती आ रही थी. हम ने लीना को बोनस का कुछ हिस्सा, उधार उठा कर लाने के नाम पर देने की बात कही थी. मगर इतनी छोटी रकम बहन की शादी में खर्च करना उस की शान के खिलाफ था और इस से उसे हमारे खानदान की नाक कटती महसूस होती थी.

हम ने और ज्यादा उधार न मिलने का रोना रोते हुए लीना को इतनी रकम से ही काम चलाने को कहा था और यह भी बताया था कि हमारे खानदान की नाक बहुत ऊंची है अगर थोड़ीबहुत कट भी गई तो कोई फर्क न पडे़गा. मगर लीना ने ब्याह में जाने का प्रोग्राम कैंसल करने में अपनी शान समझी थी.

आज डिनर पर लीना ने जो समाचार हमें परोसा था वह रोंगटे खडे़ कर देने वाला था. लाल लिपस्टिक से सजाई गई इस खबर में एक पत्नी ने अपने प्रेमी से मिल कर अपने पति के नाम की सुपारी किसी पेशेवर हत्यारे को दी थी और उस ने पति का रामनाम सत्य कर दिया था.

वजह पत्नी की भतीजी की शादी थी और कम अकल पति उसे शादी में जा कर दिल खोल कर शगुन करने में नानुकुर कर रहा था. सो पत्नी ऐसे कगार पर पहुंच गई थी कि मायके में अपमान करवाने के बजाय आत्महत्या कर ले या फिर पति को ऊपर का टिकट थमा दे.

पत्नी ने आत्महत्या के पाप से बचने के लिए अपने प्रेमी से मिल कर पति के लिए स्वर्ग की सीट बुक करा कर पुण्य कमा लिया था.

हम ने इस समाचार को एक आंख से पढ़ कर दूसरी आंख से उड़ा दिया था क्योंकि हम जानते थे कि लीना केवल हमें दहला कर बोनस की पूरी रकम हथियाना चाहती है, हत्या करवाना नहीं.

डबल बेड के गुदगुदे गद्दे पर लीना आंखें बंद किए लेटी थी और साथ ही हम भी पैर पसारे आराम से सो रहे थे.

सोने से पहले हम लीना वाले गद्दे को उठा कर तसल्ली कर चुके थे कि बोनस के नोटों वाला लिफाफा बिलकुल सुरक्षित तो है न. हम ने लक्ष्मी को वहां इसलिए सुरक्षित समझा था क्योंकि हमें यकीन था कि लीना बोनस की रकम की तलाश में पूरे घर में छापामारी करेगी फिर भी उसे यह खयाल न आएगा कि लिफाफा उस के ही बेड पर बिछे गद्दे तले छिपा है.

आधी रात के बाद अचानक हमारी नींद खुल गई. अधखुली आंखों से बल्ब की धुंधली रोशनी में देखा कि लीना ने अपने तकिए में हाथ डाल कर मोबाइल निकाल कर लेटेलेटे कान से लगाया.

‘‘मैं दरवाजे पर खड़ा हूं, दरवाजा खोल दो,’’ लीना के मोबाइल से किसी मर्द की भारी आवाज उभरी…

लीना ने एक बार हमारी ओर देखा तो हम ने झट से आंखें बंद कर लीं और गहरी नींद में होने का नाटक किया. वह बेड से उठ कर दबे पांव दरवाजे की ओर बढ़ी. इस समय लीना ने किस की काल रिसीव की? यह सोच कर हमारे कान खडे़ हो गए.

बाहर वाले दरवाजे की कुंडी खुलने के साथ ही कोई दबे कदम अंदर आया और फिर दरवाजे के हलके से बंद होने की आवाज आई. थोड़ी देर तक लीना और किसी मर्द की फुसफुसाहट आती रही मगर बात हमारे पल्ले न पड़ी.

आने वाला कौन हो सकता है? यह सवाल हमारे जेहन में उभरा. ‘प्रेमी हत्यारा,’ सवाल का जवाब भी साथ ही उभरा था.

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तो क्या बोनस के इन रुपयों की खातिर आज के समाचार की तरह लीना भी अपने किसी हत्यारे प्रेमी से मिल कर हमें यमपुरी पहुंचाने की ठान चुकी थी? इतने सालों का वैवाहिक जीवन गुजारने के बाद वह आज बहन की शादी में जाने की रुकावट बनने वाले कांटे को, यानी हमें अपने जीवन से निकाल फेंकेगी?

‘लानत है ऐसी पत्नी पर…और…और थू है हम पर भी,’ हमारी अंतरात्मा की आवाज आई, ‘जो बोनस के कुछ हजार रुपए की खातिर पत्नी को हत्यारिन बनाने पर तुला है, और अगले ही पल हम ने पूरा बोनस लीना के हवाले करने का फैसला कर लिया.

लीना दरवाजे पर आई और धीरेधीरे डबल बेड की ओर बढ़ी.

‘‘लीनाजी,’’ हम ने कहना शुरू ही किया था कि एक झटके में ही उन्होंने अपना हाथ हमारे मुंह पर रख दिया ताकि हम शोर न मचा पाएं.

‘‘मत मारो मुझे…मेरी हत्या…मत करो,’’ हम ने घुटी हुई आवाज में कहते हुए बेड से उठने की कोशिश की.

‘‘शोर मत मचाओ,’’ लीना सख्त मगर सांप की फुंकार जैसी आवाज में बोली. और उस ने हमारे मुंह को जकड़ कर हमारे उठने की कोशिश को विफल कर दिया.

हमारे बेडरूम के दरवाजे की ओर भागते हुए कदमों की आवाजें आईं.

हम ने लेटेलेटे ही तिरछी नजरों से बेडरूम के दरवाजे की तरफ देखा.

जीरो पावर के बल्ब की नीली रोशनी कमरे में बिखरी थी. हमें बेडरूम के दरवाजे पर कोई लंबातगड़ा आदमी, हाफ पैंट और बनियान पहने खड़ा दिखाई दिया. उस के हाथ में एक फंदा झूल रहा था और यह फंदा एक झटके में हमारा गला घोंट देगा.

‘‘ब…चा…ओ…ब…चा…ओ’’ हत्यारे को सामने पा कर हमारे गले से जोरजोर की चीखें निकल रही थीं.

‘‘क्यों आधी रात में शोर मचा कर महल्ले को जगा रहे हैं,’’ लीना ने अपने दोनों हाथ हमारे मुंह पर रख हमारी आवाज को हलक में घोंटने का यत्न किया.

‘‘मेरी हत्या मत करो…यह लो…यह लो.’’ और हम ने बोनस वाला लिफाफा लीना को पकड़ाते हुए दूसरे हाथ से अपने मुंह को छुड़ाने की आखिरी कोशिश की.

हत्यारा जल्दी से कमरे में आ गया और उस ने फंदे वाले हाथ को ऊपर उठाया. फंदा हमारी आंखों के सामने लहरा गया.

‘हिच’ की आवाज के साथ बेडरूम ट्यूब की रोशनी से भर गया.

हम ने फटी आंखों से सुपारी ले कर हत्या करने वाले उस गुंडे की ओर देखा तो दीवार के पास बिजली के स्विच पर हाथ रखे बलदेव भैया खडे़ थे. उन के दूसरे हाथ में अधखुली टाई लहरा रही थी.

‘‘बलदेव भैया आप?’’ हम बेड पर बैठ गए.

‘‘हां, मैं, लीना ने फोन किया था कि वह किसी कारणवश शादी में न पहुंच पाएगी. हम लोग समझ गए कि लीना शादी में न आने पर मजबूर है. शायद हम ने तुम्हें ठीक से न्योता न दिया था. सो मैं खुद ही उसे लेने चला आया.’’

आधी रात को दरवाजे की घंटी से तुम्हारी नींद खराब न हो इस के लिए मैं ने लीना के मोबाइल पर अपने पहुंचने और दरवाजा खोल देने की बात की.

एक पल को रुक  कर बलदेव भैया ने कहा, ‘‘मनोज, तुम्हें क्या हो गया है? ऐसे क्यों चिल्ला रहे थे कि जैसे कोई तुम्हारी जान ले रहा है. मैं कपडे़ बदलते बदलते भागा चला आया.’’

‘‘शायद सोते में कोई भयानक सपना देखा है…’’ लीना ने बोनस वाले लिफाफे में झांका. उस के चेहरे पर खुशी फूट पड़ी थी.

‘‘हां हां, सोते में डर गया था,’’ हम ने जल्दी से बात बनाई और लीना के हाथ में पकडे़ नोटों वाले लिफाफे को हसरत भरी नजरों से देखा.

अगली सुबह शादी में जाने के लिए अपना सामान पैक करते हुए लीना वही ‘बलमा नादान, समझाए न समझे मन की बतिया’ गा रही थी और हम ड्राइंग रूम में बैठे सोच रहे थे कि हम कितने बडे़ नादान बल्कि मूर्ख, पाजी और जाने क्याक्या हैं.

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बालम नादान…हो नादान…हां नादान, लीना तान बदलबदल गाए जा रही थी और हम अपना सिर पीट कर तबले पर संगत करना चाह रहे थे.

रावण की शक्ल

लेखक-परशीश

रावण जलने में कुल 10 दिन ही बचे हैं. शफ्फू भाई के हाथ तेजी से चल रहे हैं कि कुंभकर्ण और मेघनाद की तरह रावण का पुतला भी बन कर तैयार हो जाए.

शफ्फू भाई ने कल ही कुंभकर्ण का पुतला बनाने का काम खत्म किया है. उस से कुछ दिन पहले मेघनाद का काम खत्म हुआ था, पर शफ्फू यह भी जानते थे कि रावण का पुतला तैयार करना आसान नहीं है क्योंकि पुतले की कदकाठी को उस के नाम के अनुरूप बनाना बड़ी मेहनत और जीवट का काम है. हर साल उसे बनाने में शफ्फू भाई को पसीने छूट जाते हैं.

मेले में आए हर देखने वाले की निगाह रावण के पुतले पर ही तो टिकी रहती है. कैसा बना है इस बार का रावण. उस के चेहरे में, आंखों में कैसा भाव लाया गया है…फिर वही मक्कारी झलकती है उस की आंखों में या ढीठ, जिद्दी नजर आता है.

इस तरह के हजारों भाव लोग रावण के चेहरे में ढूंढ़ते हैं. इसी से उस के मुंह को बनाते समय इन बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है.

रावण एक, भाव अनेक…जैसा समाज वैसा रावण…शफ्फू भाई सोच रहे हैं कि होंठों को किस तरह का कोण दें, भौहों का तिरछापन कितना हो ताकि देखने वाले देखें और संतोष से कहें कि हां, ऐसा ही होना चाहिए था रावण का मुंह.

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तकरीबन 2 दशकों से रामपुर महल्ले के लोग रावण दहन का आयोजन कर रहे हैं. शुरुआत की छोटी भीड़ धीरेधीरे बड़ी भीड़ में बदल चुकी है. अब तो लोगों की भीड़ संभालने के लिए कई पुलिस वाले भी जमा रहते हैं.

रामपुर महल्ले के दशहरे को देखने के लिए लोग दूरदूर से आते हैं और महीनों तक चर्चा का प्रमुख विषय होता है शफ्फू भाई के हाथों से बनाया गया रावण का मुंह. जाने उस के मुंह में वह कौन सी विशेषता भर देते थे कि लोग देख कर हैरान रह जाते.

रावण के अंदर की मक्कारी को दिखाने में शफ्फू  भाई का जवाब नहीं था इसीलिए हर साल रावण बनाने का जिम्मा शफ्फू भाई पर ही होता था. हर साल आयोजक आ कर हिदायत भी दे कर जाते कि रावण का पुतला तो सिर्फ तुम्हारे ही हाथ का बना होना चाहिए. अब तो रावण का पुतला बनाने में वह इतने सिद्धहस्त हो चुके हैं और इतना नाम हो चुका है कि पर्वों का मौसम शुरू हुआ नहीं कि उन का आतिशबाज दिमाग रावण निर्माण में लग जाता.

शफ्फू भाई शहर के बहुत बड़े आतिशबाज हैं. उन की आतिशबाजी देखते ही बनती है. रावण दहन के समय उस के पेट और दसों सिर से चमक के साथ जो धमाके होते हैं और उन के साथ जिस तरह की रंगीन रोशनियां निकलती हैं उन्हें देख कर भीड़ दांतों तले उंगली दबा लेती है.

वैसे तो शफ्फू भाई शादी, विवाह, ईद, दीवाली सब में अपनी आतिशबाजी का कमाल दिखाते हैं पर रावण की देह में पटाखों की जो कला वह ‘फिट’ करते हैं, उस का कोई जवाब नहीं होता. अपनी इस कला के बारे में वह हंस कर बस, इतना ही कहते हैं कि मैं तो कुछ नहीं जानता, बस, इन हाथों से जो कुछ बन पड़ता है कर देता हूं. लोगों को पसंद आता है तो मुझे भी खुशी होती है.

रावण दहन से शफ्फू भाई को खास लगाव सा था क्योंकि उन के पूर्वज कभी हिंदू रहे थे और वे रामलीला में बहुत बढ़चढ़ कर भाग लिया करते थे. शायद यही वजह रही हो कि सबकुछ छूटतेछूटते भी रावण दहन से उन का प्रेम बचा रह गया हो और उसी प्रेम के वशीभूत हो रावण के पुतले के निर्माण में लगे रहते हैं.

वही शफ्फू भाई अब रावण बनाना तो दूर रावण दहन हो इस के भी खिलाफ हो चले हैं, बिलकुल खिन्न…बिलकुल अनमने.

पर क्यों? उन का मन कुरेदकुरेद कर उन से पूछता, फिर समझाता, यह तो बुराई पर अच्छाई की जीत है. इस से आज के बिगड़ते समाज को सही दिशा मिलती है. अब तो ऐसी लीलाओं की समाज को और भी जरूरत है. कारण, समाज ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के दलदल में धंसा पड़ा है. देश के बड़े नेता से ले कर पंडित, मुल्लामौलवी, यहां तक कि छोटेछोटे कर्मचारी भी भ्रष्टाचार के कुंभ में डुबकियां लगा रहे हैं. कुआरी मांएं बेखौफ घूम रही हैं. खुद ही खुद पर फिल्में बनवा रही हैं. जब तक डी.एन.ए. टेस्ट नहीं होता अवैध बच्चे का बाप राम बना खड़ा रहता है.

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समाज जो कुछ झेल रहा है उसे झेलना शफ्फू भाई जैसे लोगों के वश की बात नहीं है. राम के चरित्र को निभाने वाले पात्र अपने निजी जीवन में कई औरतों के साथ बलात्कार कर चुके हैं. वे रेप करने के तरीकों पर भी अनेक प्रयोग करते हैं. कभी ट्रेन में, कभी चलती कार में.

कई बार शफ्फू भाई का मन चीख- चीख कर कहता, नहीं, मैं रावण नहीं बनाना चाहता. मुझे बख्श दो मेरे भाई… मेरे रावण का मजाक मत उड़ाओ. मेरे रावण ने तो सीता को सिर्फ कैद कर रखा था. वह उस से नित्य विवाह प्रस्ताव करता था. प्रणय निवेदन भी करता था, मगर यह सब भी आग्रह के साथ करता था, कोई जोरजबरदस्ती नहीं. आज के राम तो रावण जैसे पात्र पर पलीता लगाने के बजाय खुद अपने पर ही पलीता लगा रहे हैं.

इस बार के रावण दहन के मुख्य अतिथि का नाम सुन कर शफ्फू भाई और भी जमीन में गड़ गए थे.

भोला बाबू अभी 2 माह पहले ही वार्ड का चुनाव जीत कर जनता के नए हमदर्द बने हैं. शफ्फू भाई के मुंह से अनायास ही बोल फूटे, कल का चोर आज का नेता है. अरे, इस के बारे में जो न जानता हो उस के लिए तो यह मजाक हो सकता है पर आश्चर्य तो यह है कि अतीत में जिनजिन को इस ने डंसा है वे भी अब इसे महान समाज सुधारक कहते नहीं थकते हैं.

यहां के लोग तो यह भी भूल चुके हैं कि यही भोला बाबू कुछ दिन पहले ही 2 समुदायों में झगड़ा करा कर खुद हाथ सेंक रहे थे. जाने कितने घरों को लूटा कि देखतेदेखते उस की छोटी सी झोंपड़ी विशाल बंगले में बदल गई.

शफ्फू भाई ने दंगों के दौरान ही भोला के असली चेहरे को देखा था और तभी वह समझ भी गए थे कि गुंडा और नेता दोनों की जात और धर्म एक होता है. उस सांप्रदायिक आग की लपटों में जलते शहर को बचाने के बजाय भोला ने सीता और सलमा दोनों को लूटा था. रात में खून की होली खेली थी. हर सुबह यही आदमी गिरगिट की तरह रंग बदल कर समाज सुधारक बना और सब की मदद करता था.

वह रावण दहन के लिए भी बड़ी मुश्किल से तैयार हुए हैं. वह भी इसीलिए कि रावण के माध्यम से भोला बाबू समाज को बताना चाहते हैं कि देखो, कितना दुष्ट था रावण. इसी के कारण सोने की लंका नष्ट हो गई. इस ने लात मार कर अपने छोटे भाई विभीषण का अनादर किया. सीता माता का अपहरण कर कैद कर लिया. अबलाएं कितनी असुरक्षित थीं उस के राज में. तभी तो राम को अपना बल प्रयोग करना पड़ा. आप सभी राम बन कर समाज में पनप रहे रावणों को जला कर खत्म कर दें…

शफ्फू भाई को लगता है कि भोला बाबू रावण से भी बड़े महारावणों की कतार में खड़े हैं. अगर कोई तौले तो रावण का सारा अपराध उन के कुकर्मों के आगे बहुत कम वजन का होगा.

शफ्फू भाई को गुस्सा आता है पर वह कर भी क्या सकते हैं? किसे मना करें कि रावण दहन मत करो, ऐसे कलयुगी रावण का दहन करो. पर जनता तो भेड़चाल चलती है. जो देखेगी बस, वही करती जाएगी. जिस हाथ से चाबुक की मार खाती है उसी हाथ को प्यार करती है.

शफ्फू भाई अब पूरे मनोयोग के साथ रावण का मुंह बना रहे हैं, यह सबकुछ सोचतेसोचते आधा मुंह बन कर तैयार हो गया था, पर जब पूरा हुआ तो वे चौंक उठे.

उन्हें लगा, अनजाने में यह तो भोला बाबू का चेहरा उतर गया है.

वह तो सिर्फ सोच रहे थे और मन ही मन भोला बाबू को कोस रहे थे. उन की आकृति बनाने का उन का कोई इरादा नहीं था. पर अब बन ही गया है तो क्या किया जाए. हां, यह हो सकता है कि इस बार रावण का मुंह यही रहने दिया जाए. इस तरह उन का अपना अपराध कम हो जाएगा. और भोला बाबू अनजाने में रावण का नहीं खुद का दहन कर देंगे. आगे की ऊंचनीच पर गौर करने के बाद कि कहीं आयोजक किसी मुसीबत में न फंस जाएं, शफ्फू भाई ने झब्बू मूंछ वाले भोला बाबू की इस मुखाकृति में बदलाव के लिए तीरनुमा मूंछ बना दी ताकि देखने वालों की आंखों को धोखा हो जाए. यही नहीं, आंखों को नीला कर दिया और दांतों को थोड़ा बाहर निकाल दिया जबकि पहले वे अंदर थे.

अब शफ्फू भाई ने ध्यान से देखा तो उन्हें ऐसा लगा कि यह चेहरा भोला का तो नहीं लगता पर इस में भी झलक किसी नाम वाले नेता की ही है.

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मक्कार कहीं का. रावण दहन का उद्घाटन करने आ रहे हैं. देश, राज्य, शहर, महल्ले, घरघर में रावणों की फौज खड़ी है. फिर बेचारे इस रावण का दहन कैसा और वह भी ऐसे हाथों से जिस के हाथ खुद खून से रंगे हों.

इस रावण ने तो एक ही सीता पर बुरी निगाह डाली थी. आज का रावण तो इतना गिर गया है कि महल्ले की हर बहूबेटी को रात के अंधेरे में लूट लेना चाहता है.

4 दिन बाद भोला बाबू रावण दहन का उद्घाटन कर रहे थे और रावण को देखते हुए मन ही मन सोच रहे थे कि रावण के रूप वाले इस चेहरे को उन्होंने कहीं देखा है पर कहां यह याद नहीं आ रहा था.

नेताओं को भी तो चेहरा तभी याद आता है जब वह किसी एक का हो. भीड़ का चेहरा किसे याद आता है और शफ्फू भाई ने इस बार ‘कामन’ शक्ल का रावण बनाया था.           द्य

टूटता विश्वास

भाग-1

लेखक- रेनू मंडल

‘‘21वीं सदी में रातदिन हम अपने को आधुनिक और प्रगतिशील होने का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन समाज में यदि एक विधवा स्त्री के विवाह को ले कर शोर मचाया जाए, अड़चनें डाली जाएं तो मुझे ऐसे समाज पर, लोगों की बौद्धिक परिपक्वता पर शक होता है,’’ आवेश भरे स्वर में मैं बोला था.

‘‘बेटे, ऐसी ऊंचीऊंचीं बातें भाषणों में बोलने के लिए होती हैं, आम जीवन में उतारने के लिए नहीं. क्या कहा तुम ने, शक होता है, लोगों की बौद्धिक परिपक्वता पर, यानी मैं और तुम्हारी मां बौद्धिक रूप से परिपक्व नहीं हैं,’’ पिताजी ने अपनी लाललाल आंखों से मुझे घूरा.

‘‘क्या भैया, आप भी बस, दुनिया की सारी लड़कियां क्या मर गई हैं जो आप एक विधवा से विवाह करना चाहते हैं,’’ मेरी छोटी बहन सीमा भी मुझे ताना मारने से नहीं चूकी थी.

दिल चाहा था कि चिल्ला कर कहूं, विधवा क्या हाड़मांस की बनी नहीं होती, उस के सीने में दिल नहीं होता, उस में भावनाएं और संवेदनाएं नहीं होतीं किंतु प्रकट में मैं खामोश बैठा एकटक उन सब का चेहरा देखता रहा जिन के  मन में मेरी भावनाओं की कोई कीमत नहीं थी.

वहां से उठ कर मैं अपने कमरे में आ गया. मां खाने के लिए बुलाने आईं तो मैं ने सिरदर्द का बहाना बना कर उन्हें वापस भेज दिया. उस रात देर तक मुझे नींद नहीं आई और 2 साल पहले की एक घटना चलचित्र बन कर आंखों के आगे घूम रही थी.

जीवन बीमा निगम में प्रमोशन पा कर मैं देहरादून आया था. रोज की तरह उस सुबह भी मैं बालकनी में बैठ कर चाय पीते हुए कुदरती दृश्यों में खोया था कि सहसा मेरी नजर सामने वाले घर की बालकनी पर पड़ी, जहां मेरी कल्पना की रानी साकार रूप लिए खड़ी थी. मैं मंत्रमुग्ध सा देर तक पौधों में पानी देती उस युवती के रूपसौंदर्य में खोया रहा. तभी कालबेल की आवाज ने मुझे चौंका दिया.

दरवाजा खोला, मेरा मित्र सौरभ, जो अब मेरा बहनोई भी है, आया था. उसे देखते ही मैं ने कहा, ‘तू बिलकुल ठीक समय पर आया है. जल्दी इधर आ. तुझे तेरी होने वाली भाभी से मिलवाऊं,’’ और सामने की ओर मैं ने इशारा किया.

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‘सचमुच तेरी पसंद लाजवाब है. कौन है यह लड़की और तुझे कब मिली?’

‘यह कौन है, नाम क्या है, यह मैं नहीं जानता पर कब मिली…तो भाई, अभी 2 मिनट पहले दिखाई दी है पर सौरभ, तू यह रिश्ता पक्का समझ, यार.’

‘तो भाई, लगेहाथों यह भी बता दो कि शादी का मुहूर्त कब का निकला है?’

‘बस, पंडितजी के आने की देर है, वह भी निकल आएगा,’ इतना कहते- कहते मैं और सौरभ खिलखिला कर हंस पड़े थे.

मैं सामने वाले घर में जाने का कोई मुनासिब बहाना तलाश ही रहा था कि मेरी यह समस्या अपनेआप ही हल हो गई थी. एक सुबह गेट खोल कर एक सज्जन अंदर आए और बोले, ‘बेटा, मेरा नाम शिवकांत है. तुम्हारे सामने वाले घर में रहता हूं और आज तुम्हें एक तकलीफ देने आया हूं.’

‘आप बैठिए, प्लीज,’ प्रसन्न मन से उठ कर उन की ओर कुरसी बढ़ाते हुए मैं बोला, ‘जी, कहिए.’

‘मैं ने सुना है कि तुम जीवन बीमा निगम में काम करते हो. शायद तुम्हें पता हो, 2 माह पहले ही मेरे इकलौते बेटे की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. मेरे बेटे मनीष ने अपना 1 लाख रुपए का बीमा करवा रखा था. मैं चाहता हूं कि तुम उस की पत्नी को जल्दी से जल्दी वह रकम दिलवाने में मेरी मदद करो.’

इतना कह कर उन्होंने एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ाया जिस में पालिसी बांड रखा था.

आफिस  जा कर मैं ने मनीष की पालिसी के बारे में पता किया. शाम को शिवकांतजी के घर उन की बहू के हस्ताक्षर करवाने गया तो उन की लड़की को भी करीब से देखने की तमन्ना दिल में कहीं न कहीं छिपी हुई थी.

शिवकांतजी और उन की पत्नी के सामने एक फार्म रख कर मैं बोला, ‘अंकल, इस पर भाभीजी के हस्ताक्षर करवा दीजिए ताकि मैं चेक इश्यू करवा सकूं.’

‘आरती बेटे, जरा यहां आना,’ शिवकांतजी ने आवाज लगाई. अगले ही पल ड्राइंगरूम की तरफ से मुझे कदमों की आहट आती सुनाई दी. परदा हटा और उस खूबसूरत चेहरे को देख कर मेरे मन की वीणा के तार यह सोच कर झंकृत हो उठे कि जरूर यह शिवकांतजी की बेटी होगी लेकिन शिवकांतजी ने जब यह कहते हुए परिचय कराया कि यह मेरी बहू आरती है तो मुझे सहसा उन की बातों पर विश्वास न हुआ.

आरती के हस्ताक्षर करवा कर मैं जल्दी ही वहां से वापस चला आया पर 2 दिनों तक मन बुझाबुझा रहा. आरती की उदास, गमगीन सूरत आंखों में तैरती रही.

तीसरे दिन सौरभ के साथ मैं शाम को मालरोड पर घूम रहा था तो वह पूछ बैठा कि भाई, पंडितजी ने शादी का कब मुहूर्त निकाला है?

उस की तरफ प्रश्न भरी नजरों से देखते हुए मैं ने आरती के बारे में बताया और इस बारे में जो सोचा था वह सब भी बताया तो वह गंभीर हो गया. कुछ देर रुक कर सौरभ बोला, ‘भाई, समाज को देखते हुए तो मैं भी यही कहूंगा कि तुम उस का खयाल छोड़ दो. तुम्हारे परिवार में एक विधवा को कोई भी स्वीकार नहीं करेगा.’

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‘नहीं सौरभ, मैं ने आरती को ले कर जो फैसला किया है वह खूब सोचसमझ कर किया है. विधवा है तो क्या हुआ? मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’

‘मैं हर हाल में तेरे साथ हूं,’ सौरभ ने मेरा हौसला बढ़ाया.

एक सप्ताह बाद बीमा कंपनी का चेक ले कर मैं आरती के घर पहुंचा. चेक थामते ही शिवकांतजी की आंखों में आंसू आ गए. मैं ने उन्हें दिलासा दिया और कुछ देर बाद जाने लगा तो शिवकांतजी बोले, ‘बेटा, कभीकभी आते रहना.’

एक दिन आरती के साथ एक डाक्टर को घर से निकलते देखा तो मैं अपने को रोक न सका और पास जा कर पूछा, ‘क्या बात है, आरती? यह डाक्टर क्यों आया था?’

‘पापा को तेज बुखार है. आप अंदर बैठिए, मैं दवा लेने जा रही हूं.’

‘लाओ, परचा मुझे दो. दवाइयां मैं ला दूंगा,’ मैं अधिकारपूर्वक बोला.

बाद के 3 दिनों तक मैं रोज फल ले कर वहां जाता रहा. मेरे जाने से उन के घर का बोझिल वातावरण हलका हो जाता. कभी मैं उन्हें अपने आफिस के दिलचस्प किस्से सुनाता तो कभी चुटकुले सुना कर उन्हें हंसाता. धीरेधीरे वे लोग इस दुख से उबरने लगे.

एक शाम मैं शिवकांतजी के घर पहुंचा तो पता चला कि वह पत्नी के साथ कहीं गए हैं. मैं ने वहां रुकना मुनासिब नहीं समझा. वापस जाने को ज्यों ही पलटा कि आरती ने यह कहते हुए रोक लिया कि मम्मीपापा आते ही होंगे तबतक आप एक कप कौफी पी लीजिए.

कौफी पीते हुए मैं ने कहा, ‘आरती, क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें अपनी जिंदगी के बारे में गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए?’

‘क्या मतलब?’ बड़ीबड़ी सवालिया नजरें मेरे चेहरे पर टिक गईं.

‘तुम ने एम.फिल कर रखा है. कोई नौकरी क्यों नहीं करतीं. इस तरह घर में पडे़पडे़ तुम जिंदगी को र्बोझिल क्यों बना रही हो?’

‘आप ठीक कह रहे हैं. मेरी भी नौकरी करने की बहुत इच्छा है पर ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि मम्मीपापा ने विवाह के समय ही कह दिया था कि हम लड़की से नौकरी नहीं करवाएंगे.’

‘उस समय की बात दूसरी थी अब स्थिति दूसरी है. मैं बात करूंगा अंकलआंटी से.’

मैं ने प्रयास किया तो आखिर में अंकलआंटी ने आरती को नौकरी करने की इजाजत दे दी. नौकरी लग जाने से आरती की जिंदगी बदल गई और उस का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

6 माह बीत गए थे. मेरे और उस के बीच अब दोस्ती का रिश्ता कायम हो चुका था. अपनी हर छोटीबड़ी समस्या अब वह बेझिझक मुझ से कहने लगी थी.

एक बार बुखार के कारण मैं आरती के घर नहीं जा पाया. तीसरे दिन सुबह शिवकांतजी चले आए और यह जान कर मुझ पर बिगड़ पड़े कि क्यों मैं ने उन्हें बीमारी की खबर नहीं की.

दोपहर में आरती आई. उसे आया देख आश्चर्य के साथ मुझे खुशी भी हुई कि चलो, मेरी कुछ फिक्र उसे भी है.

‘अब कैसी है आप की तबीयत?’ उस ने पूछा.

‘अभी तक तो खराब थी किंतु अब ठीक होने की कुछ उम्मीद हो चली है,’ मैं ने शरारत से उस की आंखों में झांका तो वह कुछ झेंप सी गई थी.

‘तुम आज कालिज नहीं गईं?’ मैं ने पूछा.

‘कालिज तो गई थी पर मन नहीं लगा.’

‘क्यों?’ मैं थोड़ा उस के और करीब आ कर बोला, ‘क्यों मन नहीं लगा. आरती, बोलो न.’

‘रवि, तुम्हारी तबीयत…नहीं, मेरा मतलब है आज लैक्चर नहीं था,’

उस की घबराहट देख मैं मुसकरा दिया. उस की आंखों की तड़प और बेचैनी को देख सहज अंदाजा लगाया जा सकता था कि उस के मन में भी मेरे प्रति कोमल भावनाएं हैं.

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रात में जाग कर आरती के बारे में सोचता रहा और यह सुखद अहसास मन को भिगो जाता कि मेरी तरह वह भी मुझे चाहने लगी थी. ठीक ही तो था, मात्र 26 साल की उम्र थी और इस छोटी सी उम्र में वैधव्य की चादर ओढ़ लेने से ही सभी इच्छाएं मर तो नहीं जातीं. यही तो वह उम्र होती है जिस में हर लड़की आंखों में सतरंगी स्वप्न संजोती है. सिर्फ 6 महीने का ही साथ मिला था उसे पति मनीष का और इन 6 महीनों की सुखद यादें जीवन भर की बैसाखी तो नहीं बन सकतीं. ऐसे में उस का टूटा हृदय मेरे प्रेम की शीतल छांव में आसरा पाना चाहता था तो इस में गलत क्या था?

उस दिन के बाद से मैं आरती से एकांत में बात करने का मौका तलाशने लगा था. और यह मौका मुझे 20 दिन बाद मिला था. उस दिन मैं आफिस से कुछ जल्दी निकल पड़ा था. मौसम खराब था. अत: मैं जल्दी घर पहुंचना चाहता था. तभी मैं ने सड़क के किनारे आरती को बस का इंतजार करते देखा. मैं ने स्कूटर उस के पास ले जा कर रोका तो वह हंस दी.

मैं बोला, ‘अगर एतराज न हो तो मेरे साथ चलो. मैं घर छोड़ दूंगा.’

‘नहीं रवि, हमारा इस तरह जाना ठीक नहीं होगा. महल्ले के लोग क्या सोचेंगे?’

‘तुम ठीक कह रही हो. चलो, फिर नजदीक किसी रेस्तरां में एकएक कप कौफी पीते हैं. मेरे विचार में यह किसी को भी बुरा नहीं लगेगा,’ मैं ने मुसकरा कर कहा और फिर हम एक रेस्तरां में जा पहुंचे.

कौफी का आर्डर दे कर मैं ने एक भरपूर नजर आरती पर डाली और गला साफ कर बोला, ‘आरती, आज मैं तुम से अपने मन की बात कहना चाहता हूं. सच कहूं तो अपनी बात कहने के लिए ही मैं यहां कौफी पीने आया हूं.’

आरती ने बड़ीबड़ी सवालिया नजरों से मुझे देखा.

‘मैं तुम्हारा साथ पाना चाहता हूं, आरती. जिंदगी भर का साथ.’

मेरे इस प्रणय निवेदन पर आरती हैरान हो उठी. चेहरे पर लालिमा आ गई और निगाहें शर्म से झुक गईं. कुछ पल वह यों ही बैठी रही. फिर अचानक उस के चेहरे के भाव बदल गए और आंसू की दो बूंदें गालों पर लुढ़क पड़ीं.

‘क्या बात है, आरती? तुम रो क्यों रही हो?’ बेचैनी से पहलू बदला मैं ने.

‘रवि, तुम जानते हो कि मैं विधवा हूं, फिर भी ऐसी बात…’

‘मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं.’

‘किंतु मुझे फर्क पड़ता है रवि, मेरे दोनों परिवारों को फर्क पड़ता है.’

आश्चर्य से उस के दोनों हाथों को पकड़ कर मैं बोला, ‘तुम पढ़ीलिखी हो कर अनपढ़ों जैसी बात क्यों कर रही हो? तुम्हारा परिवार आधुनिक सोच का है,’ उन्हें भला क्या एतराज हो सकता है? अच्छा बताओ, तुम्हारे भैयाभाभी क्या यह जान कर खुश नहीं होंगे कि उन की छोटी बहन का घर फिर से बसने जा रहा है. तुम्हारे सासससुर, वे भी तुम्हारे दुख से कम दुखी नहीं हैं.’

‘हां रवि, दुख तो उन्हें भी है,’ आरती मेरी ओर देख कर बोली, ‘पर बेटी के आंसू और बहू के आंसुओं में अंतर होता है, रवि. बेटी के आंसुओं से मांबाप का हृदय जितना द्रवित होता है बहू के आंसू उतना असर नहीं छोड़ पाते,’ इतना कहतेकहते आरती का स्वर भीग गया.

कुछ देर की खामोशी के बाद मैं ने फिर कहा, ‘आरती, हादसे किसी के भी साथ हो सकते हैं. जीवन इतना सस्ता नहीं कि उसे एक हादसे की भेंट चढ़ा दिया जाए और फिर आज अंकल व आंटी दोनों तुम्हारे साथ हैं, कल जब वे नहीं रहेंगे तब तुम क्या करोगी?’

मैं ने अपनी बात का असर देखने के लिए उस की आंखों में झांका. मुझे संतुष्टि हुई कि मेरी बातों का उस पर अनुकूल असर पड़ा था.

अगली 3-4 मुलाकातों में मैं ने आरती को अपने संपूर्ण पे्रम का विश्वास दिलाना चाहा. उस में साहस पैदा किया ताकि वह विवाह का जिक्र छिड़ने पर हुई अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रिया को झेल सके.. अपनी तन्हा जिंदगी को संवारने में वह भी अब पूरी इच्छा से मेरे साथ थी.

अगले हफ्ते आफिस की 2 लगातार छुट्टियां थीं. मैं मां और पिताजी के पास दिल्ली चला गया. हर बार की तरह उन्होंने शाम की चाय पीते हुए मेरे विवाह का जिक्र छेड़ा. मैं ने उन्हें आरती के बारे में बताया. मेरी आशा के विपरीत घर में इस बात को ले कर कोहराम मच गया. मुझे मां और पिताजी की बातों का उतना दुख नहीं हुआ जितना दुखी मैं अपनी छोटी बहन सीमा के व्यवहार को ले कर हुआ था. उस ने मेरे दोस्त सौरभ से प्रेमविवाह किया था और इस विवाह में मैं ने दोनों को अपना भरपूर सहयोग दिया था. अब जबकि मुझे उस के साथ की जरूरत थी, वह मेरा विरोध करने पर तुली हुई थी.

सोचतेसोचते मैं कब सो गया, मुझे पता ही नहीं चला.

अगली सुबह मां कमरे में चाय ले कर आईं, उस समय मैं जूते के फीते बांध रहा था. मुझे तैयार देख वह हैरान हो बोलीं, ‘‘रवि बेटे, इतनी सुबहसुबह तैयार हो कर कहां जा रहा है?’’

‘देहरादून,’ मैं ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

मां मेरे करीब चली आईं और बोलीं, ‘‘रवि, मैं जानती हूं, तू नाराज हो कर जा रहा है पर सोच बेटा, हम क्या तेरे दुश्मन हैं? एक विधवा को अपनी बहू बना कर ले आएगा तो समाज में हमारी क्या इज्जत रहेगी?’’

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‘‘मां, प्लीज, अब खत्म कीजिए इस बात को और अपनी इज्जत संभाल कर रखिए,’’ मैं बैग उठा कर दरवाजे की ओर बढ़ा तो कानों में पिघलते सीसे की तरह पिताजी की कड़कती आवाज पड़ी, ‘‘रवि की मां, यह जाता है तो इसे जाने दो. इस की खुशामद करने की जरूरत नहीं है. हां, जातेजाते तुम यह अच्छी तरह से जान लो कि जब तक मैं जिंदा हूं, यह शादी नहीं हो सकती.’’

पिताजी की बेवजह की कठोरता ने मुझ में हिम्मत पैदा कर दी और मन ही मन सोचा कि आप जिद्दी हो तो मैं महाजिद्दी हूं. आखिर मैं आप का ही

तो खून हूं. पर प्रत्यक्ष में कुछ बोला नहीं. चुपचाप बैग उठा कर घर से बाहर आ गया.

बस स्टैंड पर पहुंच कर मुझे याद आया कि सीमा को भी तो अपने साथ ले कर देहरादून जाना था, सौरभ से यही बात हुई थी. मानसिक तनाव में मैं यह बात बिलकुल भूल गया और अब वापस घर जाने का मेरा मन न हुआ. अत: मैं बस में बैठ गया.    -क्रमश

कूड़ा नं. 343

लेखक- असित कुमार

एक नए मेयर ने नगर महापालिका की मखमली और मुलायम कुरसी पर खुद को बैठाने की पूरी तैयारी कर रखी थी. कुरसीमान होते ही नए मेयर ने शहरियों को अपनी नीतियों से अवगत कराया. उन की नीतियां नई तो क्या खाक होतीं बस, तेवर कुछकुछ नए थे. पिछले मेयर निहायत ही आलसी थे. वह कोशिश यही करते थे कि ज्यादातर काम बैठेबैठे ही करें. मसलन, भाषण देना, शहर की खूबसूरत औरतों के साथ फोटो खिंचवाना आदि. इसीलिए उन का नारा था : ‘‘हमें अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा रह कर महापालिका को एक आदर्श निकाय के रूप में स्थापित करना है.’’

अब इस दावे की सचाई यह रही कि उन के कार्यकाल के समाप्त होने तक महापालिका की हालत इतनी पतली हो गई थी कि खुद मेयर साहब को तनख्वाह से महफूज रहना पड़ गया था.

यह अलग बात थी कि मेयर के बेटे ने बाप के कार्यकाल के दौरान नगर की सफाई, प्रकाश व्यवस्था आदि के ठेकों में 9 करोड़ बना लिए थे. खैर, यह सब तो नए मेयर का दोषारोपण था और इस तरह की टांग खिंचाई राजनीति में चलती रहती है. किसी पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाना, जांच कराने के लिए शोर मचाना आदि. फिलहाल तो पुराने मेयर साहब भूमिगत हैं जब बाहर निकलेंगे तो स्वयं ही निबट लेंगे.

हां, तो मसला यह था कि शहर गंदगी से बजबजा रहा था क्योंकि         97 प्रतिशत सफाई कर्मचारी वेतन न मिलने की वजह से हड़ताल पर थे और जो 3 प्रतिशत सफाईकर्मी पुराने मेयर के चहेते थे वे उन के साथ लपेटे में फंसे होने की वजह से छिपे हुए थे. शहर के लोग इधरउधर जमा गंदगी के ढेर से भयभीत थे. एक खतरा आवारा घूमते चौपाए जानवरों से भी था कि पता नहीं कब उन का मूड खराब हो जाए और किसी दोपाए इनसान को लपेटे में ले लें.

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कुरसी पर बैठते ही नए मेयर ने जनता के उद्धार का बीड़ा उठाया और आननफानन में सारी औपचारिकताएं पूरी कर के नगर के दौरे पर निकल पड़े.

मेयर साहब के साथ उन का पूरा स्टाफ कलमकागज ले कर उन के काफिले में शामिल था और उन की हर टिप्पणी को उसी समय नोट कर रहा था. इस तरह नगर प्रमुख का यह काफिला अभी शहर का चौथाई रास्ता ही तय कर पाया था कि उसे रुकना पड़ा क्योंकि गली के हर मोड़ पर पड़े कूड़े के ढेर से उठती दुर्गंध इस कदर दमघोंटू थी कि नाकमुंह पर मास्क पहनने के बाद भी बदबू हलक में उतर रही थी.

उस पर सूअरों के एक झुंड ने मेयर साहब की जम कर अगवानी की और कूड़े के ढेर नंबर 343 से ले कर ढेर नंबर 357 तक आगेआगे सूअर व पीछेपीछे मेयर साहब का अमला दौड़ रहा था.

दौरा स्थगित हो गया. उस बदबूदार और कीचड़ से लथपथ मेयर रूपी मानवाकृति को वापस अपनी पुरानी स्थिति में लाने के लिए एक टैंकर पानी के साथसाथ आधा दर्जन साबुन की टिकियाएं अपने ऊपर खर्च करनी पड़ीं. साथ ही अपने 5 फुट 10 इंच लंबे शरीर पर मेयर ने एक पूरी शीशी परफ्यूम की स्प्रे कर दी. इस के बाद भी उन का दम घुटता रहा और अपनी सही स्थिति पाने में उन्हें 3 दिन लग गए.

स्वास्थ्य लाभ के बाद अपनी कुरसी पर बैठते ही मेयर ने जोरदार शब्दों में शहर को सूअर और कूड़े के ढेर से आजाद करने की घोषणा की और आने वाले सोमवार से सफाई कार्यक्रम शुरू करने का बिगुल बजा दिया.

सभी न्यूज चैनलों, रेडियो स्टेशन और अखबार वालों को इस की खबर दे दी गई. नगर प्रमुख की पार्टी के कार्यकर्ताओं से अपील की गई कि वे भरपूर मात्रा में झाड़ू, डंडे और सफाई की आवश्यक सामग्री ले कर महापालिका के दफ्तर पर सुबह 6 बजे जमा हों.

शहर भर के बड़े ढाबे वालों एवं होटल वालों को मौखिक आदेश दे दिया गया कि वे कार्यकर्ताओं के स्तर के हिसाब से अपने अपने यहां लंच पैकेट तथा कोल्ड ड्रिंक का प्रबंध रखें.

वह दिन भी आ गया. चुस्त जींस, रंगीन टीशर्ट और सफेद टोपी पहन कर मेयर साहब ने अपने आवास के बाहर कदम रखा. बाहर पहले से ही तैनात टीवी और समाचारपत्र संवाददाताओं ने अपने कैमरे चालू किए और विभिन्न मुद्राओं में उन के चित्र उतारे. नंगे सिर, टोपी के साथ, एक हाथ में झाड़ू तथा दूसरे में सूअर पकड़ने का विशेष जाल लिए मेयर साहब के फोटो खींचे गए.

इस तमाशेबाजी के साथ मेयर साहब ने कूड़े के कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान किया और शीघ्र ही वह कूड़े के ढेर नंबर 343 के पास पहुंच गए जहां सूअर के एक झुंड से उन का वास्ता पड़ा था और जिस ने उन के सफेद कपड़ों पर कीचड़ के छींटे मारने की गलती की थी.

जुलूस वहां पहुंचा और अचानक ही नारे लगने बंद हो गए क्योंकि सामने से वैसे ही जुलूस के साथ विपक्षी पार्टी के सदस्य सूअर बचाओ आंदोलन के बैनर लिए पहले से ही मौजूद थे.

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किसी प्रकार का असमंजस या कन्फ्यूजन न हो इस के लिए वे सभी अपने सिरों पर सूअर के मुंह के आकार वाली टोपियां पहने थे. कूड़े के ढेर के चारों ओर एक गोलाकार घेरा बना कर सूअर बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता हाथों में लाठियां और डंडे लिए खड़े थे. उन के पीछे कूड़े के ढेर में दूसरे चौपाए जानवरों के साथ सूअरों का झुंड बड़े इत्मीनान के साथ विहार कर रहा था.

मेयर अपने दलबल के साथ जैसे ही वहां पहुंचे दूसरी ओर से यह नारा लगा :

‘‘मेयर नहीं कसाई है, सूअर हमारा भाई है.’’

जोश में एक महिला ने कूड़े के ढेर पर खड़े हो कर लोगों को यह जताने का प्रयास किया कि सूअर वास्तव में पर्यावरण के संरक्षक…इस के आगे के शब्द अनसुने ही रह गए क्योंकि तब तक वह कूड़े के ढेर में धंस कर अदृश्य हो चुकी थी.

इस के बाद तो सूअर बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता अपनेअपने बैनर और झंडे छोड़ कर कूड़े के ढेर पर पिल पड़े. इस अप्रत्याशित हमले से घबरा कर चौपाए जानवर इतने बौखला गए कि अपनी ही जाति के लोगों से भिड़ गए.

‘अरे, मार डाला रे,’ के जोरदार चीत्कार को सुन कर मीडिया वालों ने अपने कैमरे उधर घुमाए तो पाया कि शहर के जानेमाने रंगकर्मी चुरुल बाबू एक बिदके सांड के सींगों के बीच

टंगे लोगों से जरा बचाने की गुहार कर रहे हैं.

तभी लोगों ने देखा कि सांड ने चुरुल बाबू को किसी राकेट लांचर की तरह उछाल कर कूड़े के ढेर की

ओर फेंका तो वह अपने साथसाथ 2 और लोगों को ले कर कूड़े के ढेर में समा गए.

मीडियाकर्मियों की हंसी उड़ाती निगाहों ने मेयर साहब को मजबूर कर दिया कि वह कूड़ा रणक्षेत्र से पीछे न हटें बल्कि ऐसा कुछ करें कि सब का मुंह बंद हो जाए. वह जानते थे कि मीडिया वाले सुरक्षित स्थानों पर डटे हुए दूर से ही कैमरे का फोकस करेंगे और अनापशनाप बोलना शुरू कर देंगे, क्योंकि यही तो उन की रोजीरोटी का जरिया है.

चुरुल बाबू और सूअर बचाओ आंदोलन की नेत्री अभी भी कूड़े के ढेर में गुम थे और इन दोनों को बचाने के लिए की जा रही कोशिशों को सूअर, कुत्तों और सांडों के गठबंधन ने पूरी तरह विफल कर डाला था.

इस सारे दृश्य का एक सीधा अर्थ था कि अब वहां मौजूद जनसमूह की निगाहें मेयर साहब के रूप में अपने नए तारनहार को देख रही थीं. ऐसे में कोई भी गलत कदम उन की कुरसी को हिला सकता था. मेयर साहब ने असमंजस से अपनी टोपी उतार कर सिर खुजलाया.

उधर जुगाली करते हुए एक बैल को 2 सूअरों ने थूथन मार कर राह से हटाने का प्रयास किया. बैल को ताव आ गया और उस ने सिर झुका कर दोनों सूअरों को दौड़ा लिया.

दोनों सूअर जान बचाने के लिए उधर की तरफ भागे जिधर मेयर साहब पीठ किए खड़े थे. वह अपने एक हाथ में जाल को लटकाए हुए थे तो दूसरे हाथ में टोपी और झाड़ू थामे थे. एक सूअर गोली की रफ्तार से उन के पैरों के बीच से निकल भागा तो दूसरा उन की एक टांग पर थूथन मारता हुआ निकल गया.

घबराहट और अचंभे की मिलीजुली चीत्कार मेयर के मुख से निकली. उन के समर्थकों ने पलट कर देखा तो पाया कि बैल के दोनों सींग मेयर के हाथ में लटके जाल में उलझ गए थे. वह जाल लिए भागता चला गया और साथ में शहर के मेयर भी.

बैल से बचने और जाल को छुड़ाने की कोशिश में कब मेयर बैल की पीठ पर सवार हो गए पता ही नहीं चला और आश्चर्य से आंखें फाडे़ प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा कि बड़ी बहादुरी से बैल को जाल में फांसे मेयर दनादन झाड़ू बरसाने में लगे हैं.

यह देख कर उन के समर्थकों के होंठों पर प्रशंसा के शब्द वाहवाह ‘आ’ गए. मीडियाकर्मी फटाफट कैमरे चालू कर के तसवीरें खींचने लगे और टेलीविजन पर उन की इस वीरता का आंखों देखा हाल प्रसारित होने लगा.

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मेयर समर्थक आकाशभेदी नारे बुलंद करने लगे, ‘‘देखो, फंसा शिकंजे में, बैल मेयर के पंजे में.’’

उधर इस  सब से अनजान मेयर साहब अपनी जान बचाने के लिए संघर्षरत थे. दोनों पैरों को बैल के पेट पर चिमटे की तरह फंसाए, सींगों को साइकिल के हैंडिल की तरह कभी इस हाथ से तो कभी उस हाथ से पकड़ने के चक्कर में उन की टोपी एक सींग में इस तरह फंस गई कि कोल्हू के बैल की तरह उस की एक आंख ही बंद हो गई.

बैल बेतहाशा उछलकूद कर के उस नामाकूल टोपी से छुटकारा पाने की जुगत में लगा था लेकिन सब बेकार इधर चक्कर, उधर घुमाव लेते हुए आखिर में उस की हिम्मत ने साथ छोड़ दिया और वह कूड़े के ढेर पर ढेर हो गया.

दूर खड़े प्रत्यक्ष- दर्शियों ने जोरदार नारे लगा कर मेयर की बहादुरी का स्वागत किया. 2-3 उत्साही पार्टी कार्यकर्ताओं ने आगे बढ़ कर मेयर साहब को बैल पर से उतारा और कंधों पर लाद कर विजयी उद्घोष करते हुए कूड़े के चारों ओर चक्कर काटने लगे.

अपने थके हाथपांवों और भयंकर पीड़ा से दुखते शरीर के बावजूद मेयर साहब हंसहंस कर इस जयजयकार को स्वीकार करने लगे.

दूसरे हाथ से उस  पर ‘छुट्टा पशु पकड़ो’ दल के कर्मचारियों ने विजय नारे लगाते हुए जाल में फंसे बैल को उठा कर ट्रक में डाला और सरपट निकल चले. उन के जाते ही डंपर, ट्रक और कूड़ा उठाने वाली क्रेन और मशीनें आ गईं, युद्धस्तर पर काम होने लगा और ट्रकों में कूड़ा भरभर कर नगर के बाहर सूखे पड़े एक तालाब पर ले जाया जाने लगा. वहां एक नई कालोनी बनाने का इरादा था.

इन सब के बीच किसी युद्ध विजेता की तरह सीना फुलाए मेयर साहब हाथ में लंबी जमादारी झाड़ू, जाल लिए तिरछी टोपी लगाए एक ओर खड़े मुसकरा रहे थे.

17 घंटे चले इस सफाई अभियान के बाद महल्ले की सड़कें ऐसे जगमगा उठीं जैसे कभी कूड़ा वहां रहा ही न हो. इस प्रकार मेयर ने ढेर नंबर 343 पर उस सूअर द्वारा की गई अपनी फजीहत का बदला ले लिया था.            द्य

मंजिल: धारावाहिक उपन्यास

लेखक- माया प्रधान

पूर्व कथा

पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.

सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.

अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है और कुछ ही महीने बाद पुरवासुहास का भी विवाह हो जाता है. पुरवा महसूस कर रही थी कि सुहास का ध्यान समाजसेवा में अधिक रहता है. वह दूसरों की मदद के लिए दुकान पर भी ध्यान न देता.

पुरवा अब निरंतर सुहास को उस की जिम्मेदारी का एहसास कराने की कोशिश करती. शीघ्र ही वह दिन भी आता है जब पुरवा को पता चलता है कि वह मां बनने वाली है. सुहास पापा बनने के सुखद एहसास से झूम उठता है.

थोड़े दिनों बाद पुरवा को पता चलता है कि सुहास पुराना कारोबार खत्म कर कंप्यूटर का कार्य आरंभ करना चाहता है तो वह हैरान हो जाती है और बेचैनी से सुहास के घर लौटने की प्रतीक्षा करने लगती है. लेकिन वह बेला भाभी के पति सागर को अस्पताल ले जाने के कारण रात देर से घर आता है. पुरवा की तबीयत खराब होने पर अस्पताल में भरती कराया जाता है. उस का हालचाल पूछने बेला घर आती है तो पुरवा उस से थोड़ी तीखी बात करती है, तब सुहास पुरवा पर बिगड़ता है. सुहास से नाराज पुरवा अपने मातापिता के साथ मायके चली जाती है. सुहास के व्यवहार को ले कर वह विचारमंथन करती है.

आखिरकार, एक दिन सुहास पुरवा को मनाने ससुराल पहुंच जाता है. पुरवा वापस जाने की शर्त रखती है कि वह घर के गैराज में बुटीक खोलेगी और इस काम में वह उस की मदद करेगा. बुटीक की शुरुआत करने में  सुहास से ज्यादा रजनीबाला पुरवा की मदद करती है. बुटीक निर्माण जोरशोर से शुरू हो जाता है. एक दिन सागर और बेला आते हैं और बताते हैं कि सुहास ने राजनीति ज्वाइन कर ली है, सुन कर सब चौंक जाते हैं.

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सुहास घर आता है तब मां राजनीति ज्वाइन करने की बात को ले कर उस से नाराज होती है. लेकिन सुहास सब को समझाता है, पुरवा भी यह सोच कर संतोष कर लेती है शायद सुहास इसी क्षेत्र में सफल हो जाए.

पुरवा के ‘पुरवाई बुटीक’ का उद्घाटन होता है. सुहास वक्त पर नहीं पहुंचता लेकिन देर से आने की माफी मांगते हुए बुटीक के लिए एक बड़ा आर्डर ले कर आता है तो सभी खुश हो जाते हैं.

राजनीति के कार्यक्षेत्र में सुहास का रोमांच बढ़ता जा रहा था. उधर वह दिन भी आता है जब पुरवा प्रसव के लिए अस्पताल में भरती होती है. उसी वक्त पार्टी के नेता भाईजी को चुनावी सरगर्मियों के चलते दूसरी पार्टी के साथ हुई झड़प में गोली लग जाने के कारण सुहास को उन्हें देखने जाना पड़ता है. वापस जब लौटता है तो एक बच्ची का पिता बनने की खुशखबरी मिलती है.

अब सुहास राजनीति में सक्रिय होने लगा था. पुरवा उस का उत्साह व काम करने की लगन देख खुश थी.

सुहास कार्यालय के चौकीदार नारायण, जिस के बेटे की एक किडनी फेल हो गई थी, का दुख देख कर दुखी होता है. पुरवा, सुहास की परेशानी देख रही थी लेकिन सुहास उसे अपने मन के भीतर चल रही उथलपुथल के बारे में कुछ नहीं बताता. अब आगे…

गतांक से आगे…

सुहास ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘आज मैं आकाश के साथ एड्स के मरीजों की खोजखबर लेने गया…’’

‘‘क्या?’’ पुरवा ने बीच में ही उसे टोक दिया, ‘‘तुम ऐसी जगह भी जाते हो, जरा भी डर नहीं लगता.’’

‘‘मुझे माफ कर दो पुरवा कि मैं ने पहले तुम्हें नहीं बताया. पर तुम जानती हो कि वहां जाने से मुझे कुछ नहीं होगा. यह तो बस, लोगों का वहम है कि उन्हें छूने से ही एड्स हो जाएगा,’’ पुरवा चुप हो गई पर उस के चेहरे पर परेशानी झलक उठी थी. बोली, ‘‘अच्छा, बताओ कि बात क्या है?’’

‘‘पुरवा, वहां एक मरीज की मृत्यु मेरी आंखों के सामने हुई. उस की पत्नी, कैसे बिलखबिलख कर रो रही थी और कह रही थी, ‘क्यों लगाया यह रोग, जनम भर का साथ देने का वादा कर के मुझे अकेला छोड़ गए.’’’

पुरवा लगातार सुहास को देख रही थी और उस के स्वरों के कंपन से उस के भय को महसूस कर रही थी. सुहास बच्चों की तरह बिलख सा रहा था.

‘‘पुरवा, उसी पल मैं ने पहली बार यह महसूस किया कि जीवनसाथी का बिछड़ना कैसा होता है. अकेले ही जाने का दर्द कितना भयानक होता है.’’

यह सब सुन कर पुरवा कुछ सोचने लगी. सुहास निरंतर बोल रहा था, ‘‘जानती हो पुरू, उसी पल सब से पहली बात क्या मेरे मन में उठी, जब तक हम एकदूसरे के साथ होते हैं तो एकदूसरे की परवा नहीं करते हैं. जब बिछड़ जाते हैं तो जीवनसाथी के साथ होने का महत्त्व समझ में आता है.’’

‘‘हां, सुहास, किसी भी दंपती के लिए यह सब से दुखद स्थिति होती है,’’ पुरवा ने कहा.

अचानक सुहास ने उस की हथेली थाम कर कहा, ‘‘पुरवा, वादा करो कि तुम मुझे अकेला छोड़ कर नहीं जाओगी.’’

पुरवा ने उसे एकटक देखा. सामने एक प्रेमी, एक पति सहमे हुए बच्चे की भांति बिलख रहा था. कैसा अंजाना भय था. वह बोली, ‘‘सुहास, यह मिलने- बिछड़ने की बातें कर के तुम अपने उद्देश्य से क्यों भटक रहे हो आज.’’

दोनों की कौफी समाप्त हो गई थी, पर अभी दोनों को और बैठना था अत: सुहास ने कुछ नए स्नैक्स का आर्डर कर दिया. अपनी बात भी धीरेधीरे कहता रहा, ‘‘पुरवा, आज मैं जो इतनी दिशाएं खोज पाया हूं ये सब तुम्हारे ही कारण. जीवन से निरुत्साहित प्राणी को तुम ने नए सपने, नई मंजिल दिखा दी.’’

‘‘ऐसा मत कहो, सुहास. तुम्हारे अंदर कुछ करने का उत्साह तो बराबर था. बस, दिशा निर्धारित करने में समय लग रहा था,’’ पुरवा ने अपनी हथेली से उस की हथेली को सहला दिया. नए स्नैक्स आ चुके थे चीज फिंगर्स और चिकनबर्गर. सुहास ने अपनी प्लेट से पहले पुरवा को खिलाया और फिर स्वयं खाना आरंभ किया.

‘‘मुझे यह नहीं मालूम है कि मैं कितना बड़ा व्यवसायी बन पाऊंगा.  राजनीति में कोई स्थान बना सकूंगा या नहीं पर मेरी सब से बड़ी चाहत किसी के काम आने की आज भी मेरे अंदर पूरे उत्साह से हिलोरे ले रही है.’’

‘‘मैं जानती हूं, सुहास. तुम्हारा यह गुण ही तुम्हें औरों से एकदम अलग एक विशिष्ट व्यक्ति बनाता है. मुझे तुम पर गर्व है.’’

‘‘पुरवा, आज मैं एक बार फिर तुम से वादा करता हूं कि अब मैं तुम्हें कभी निराश नहीं करूंगा. जीवन की किसी भी राह पर तुम्हें शिकायत का अवसर नहीं मिलेगा.’’

पुरवा ने उस के मुख में चीज फिंगर्स रखते हुए कहा, ‘‘एक वादा मैं भी तुम से करती हूं कि प्रत्येक रविवार को बुटीक से और घर से समय निकाल कर मैं भी तुम्हारे साथ ऐसे लोगों की सेवा में साथ चलूंगी जहां आज तक जा नहीं सकी हूं.’’

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‘‘सच,’’ सुहास की आंखों में अनोखी चमक कौंध उठी. यह कैसा प्यारा साथ दिया था उसे पुरवा ने. आज तक जिन बातों से प्राय: वह नाराज भी हो जाती थी, आज उसी राह पर वह भी साथ चलना चाहती है. अगर वह एकांत में होता तो अवश्य ही उसे बांहों में भर लेता. प्रसन्नता से झूम कर वह बोला, ‘‘तुम ने तो बिन पिए ही एक नशा सा दे दिया है. इसीलिए अब मुझे अपनी वह बात जिसे बहुत देर से कहना चाह रहा हूं, कहने में बहुत सोचना नहीं पड़ेगा.’’

‘‘कौन सी बात?’’ पुरवा ने अपना स्नैक्स समाप्त करते हुए आश्चर्य से कहा.

‘‘मैं ने तुम्हें नारायण के बेटे के बारे में बताया था न,’’ सुहास ने कहा.

‘‘हां, पर उस के लिए तो तुम चंदा जमा कर रहे थे,’’ पुरवा ने चिंतित सुहास को ध्यान से देखा. लगा कि कुछ गहरी बात उस के मन में उथलपुथल मचा रही है. क्या बात होगी.

सुहास ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘वह चंदा इतना नहीं हो पाया है पुरवा कि उस के बेटे को नई किडनी लगाई जा सके. इकलौता बेटा है उस गरीब का, उस के बुढ़ापे की आशा है वह.’’

‘‘पर सुहास, ऐसे तो जाने कितने लोग होंगे जिन्हें भरी जवानी वाला पुत्र खोना पड़ा होगा, जिन की नईनवेली बहू विधवा हो गई होगी.’’

‘‘हां पुरवा, हजारों, लाखों होंगे. क्या उन में से किसी एक का दुख हम कम नहीं कर सकते हैं? किसी एक को अकाल मृत्यु से हम बचा नहीं सकते हैं?’’

‘‘क्या करना चाहते हो?’’

पुरवा ने व्याकुलता से उसे देखा.

‘‘नाराज मत होना पुरवा, मैं अपनी किडनी उसे देना चाहता हूं.’’

‘‘क्या?’’ पुरवा चौंक पड़ी और स्तब्ध दृष्टि से उसे देखने लगी. बोली, ‘‘तुम्हें क्या हो गया है, सुहास? किसी की जान बचाने के लिए क्या अपनी जान पर खेल जाओगे?’’

‘‘पुरवा, एक किडनी दान करने से कोई समाप्त नहीं हो जाता है. थोड़ी देर पहले तुम ने हर राह पर मेरा साथ देने का वादा किया है.’’

सुहास की बात पर पुरवा की आंखें नम हो गईं. वह निराशा से बोली, ‘‘मानती हूं सुहास कि मैं भी हर राह पर तुम्हारे साथ चलना चाहती हूं पर इस के अतिरिक्त भी तो किसी तरह से उस की सहायता की जा सकती है.’’

‘‘नहीं पुरवा, देख तो लिया कि चंदा तक इकट्ठा नहीं हो पाया,’’ सुहास उदासी से बोला, ‘‘जब मैं ने उस व्यक्ति की पत्नी को बिलखबिलख कर रोते देखा तब सब से पहले तुम्हारा खयाल आया, फिर रोते हुए नारायण का, और तभी मैं ने यह निर्णय ले लिया कि अब मैं अपनी एक किडनी देवेंद्र को दान कर दूंगा.’’

पुरवा की विस्फारित दृष्टि सुहास के चेहरे पर अटक गई. संपूर्ण शरीर पीड़ा की तीव्र लहर से ऐंठने लगा. बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हो, सुहास?’’

‘‘मैं बहुत सोचसमझ कर यह बात तुम से कह रहा हूं,’’ सुहास ने अपनी ही धुन में उत्तर दिया.

‘‘नहीं सुहास, तुम सोचसमझ कर नहीं कह रहे हो. तुम ने सब के बारे में सोचा पर अपने, मेरे और झंकार के बारे में नहीं सोचा. फिर मां व पापाजी…’’

सुहास ने उस की हथेलियां कस कर पकड़ लीं, ‘‘तुम ने हर कदम पर मेरा साथ देने का वादा किया है पुरवा.’’

‘‘मैं अपना वादा नहीं तोड़ रही हूं सुहास पर किसी की सहायता करने के और भी बहुत से उपाय हैं,’’ पुरवा अपनी पीड़ा से उबरने का प्रयास कर रही थी.

‘‘तुम ने देख तो लिया पुरवा. इतने पैसे इकट्ठे नहीं हो पाए कि उस के लिए किडनी खरीदी जा सके,’’ सुहास अपने निर्णय पर अडिग लग रहा था.

थोड़ी देर पहले जहां फूलों की सुगंध से भरपूर सर्द हवाएं प्यार के झूले पर गुनगुना रही थीं, वहीं दर्द, निराशा की ऊष्मा में डूबी आंधी के आसार उमड़ने लगे थे. पुरवा ने अचानक कहा, ‘‘सुनो सुहास, एक रास्ता है,’’ शायद वह बवंडर को बढ़ने से पहले ही रोकने का प्रयास कर रही थी.

सुहास ने भी किसी उतावले शिशु की तरह उस पर अपनी दृष्टि टिका दी.

पुरवा आगे बोली, ‘‘हम एक चैरिटी शो करेंगे और उस से जो भी आय होगी वह नारायण को दे देना.’’

सुहास के चेहरे पर व्यंग्य की रेखा कौंध उठी, बोला, ‘‘कोई भी कार्यक्रम करने के लिए भी तो पैसा चाहिए और यदि पैसा होता तो मुझे वैसा निर्णय लेना ही नहीं पड़ता,’’ सुहास उठ कर खड़ा हो गया. मेज पर उस ने बिल के रुपए रख दिए तो मजबूरन पुरवा को भी उठना पड़ा.

पुरवा निरंतर कुछ सोच रही थी. वह कार में बैठने से पहले बोली, ‘‘सुहास, चंदे से जो रुपए तुम लोगों ने एकत्र किए थे वे कहां हैं?’’

‘‘वे तो अभी पार्टी आफिस में ही हैं,’’ सुहास ने कार में बैठते हुए कहा.

पुरवा भी अपनी सीट पर बैठ गई और बोली, ‘‘सुनो, सुहास. जब मैं अंधविद्यालय में पढ़ाती थी तब कई बार ऐसे कार्यक्रम करवाए हैं. वहां के प्रिंसिपल साहब का बहुत अच्छेअच्छे कलाकारों से परिचय था. कुछ सहायता हमें वहां से मिल जाएगी, बाकी उन रुपयों से भी सहायता मिल जाएगी.’’

सुहास चुपचाप सुनता रहा. घर पर उतरने के साथ ही पुरवा ने अपनी प्रश्न- वाचक दृष्टि उस पर टिका दी, ‘‘क्या सोच रहे हो, सुहास?’’

बिना कुछ बोले वह अंदर चला गया. मां ने देखते ही कहा, ‘‘आ गए तुम दोनों.’’

‘‘झरना सो गई क्या?’’ सुहास ने तुरंत पूछा. पुरवा ने देखा, सुहास के चेहरे पर वही व्याकुलता थी जो शाम को उस ने देखी थी. जाने क्यों वह मन ही मन मुसकरा उठी. सोचा, बिलकुल बच्चों जैसा स्वभाव है. मां ने कुछ चिंता से कहा, ‘‘कुछ गरम लग रही है.’’

‘‘अरे, मैं फोन करता हूं डाक्टर को.’’

सुहास बोला तो मां ने कहा, ‘‘कर दिया है तुम्हारे पापा ने. अभी आ जाएंगे डाक्टर साहब.’’

पुरवा जा कर झरना के सिरहाने बैठ गई. सुहास ने बेटी के सिर पर प्यार से हाथ फेरा. बोला, ‘‘कैसे हो गया इसे बुखार?’’

‘‘इस तरह परेशान मत हो, सुहास. बच्चों को तो कुछ न कुछ चलता ही रहता है,’’ मां ने समझाया.

उस रात सुहास बहुत ही व्याकुल रहा. जाने कितनी बातें उसे आंदोलित कर रही थीं. परेशान तो पुरवा भी थी पर कुछ कह नहीं पा रही थी. कमरे में गहरी खामोशी थी. उस रात झरना को पालने में नहीं सुलाया था उस ने. दोनों के बीच में वह गहरी नींद सो रही थी. स्याह अंधेरे कमरे में 4 आंखें पलक झपकाना भूल गई थीं. बस, दोनों की व्याकुल सांसें कई एहसास जगा रही थीं.

पुरवा अचानक सुहास के स्पर्श से चौंक गई, सुहास की मद्धिम आवाज स्पर्श में घुलने लगी, ‘‘झरना को हम लोग क्या बनाएंगे?’’

पुरवा अंधेरे में ही मुसकरा दी.

‘‘यह हम उसी पर छोड़ देंगे. अभी से यह सब सोच कर क्यों परेशान हों.’’

शाम की व्यग्रता सुहास के स्पर्श में एक नए रंग में डूबी जा रही थी.

‘‘पुरवा, नाराज हो मुझ से?’’

‘‘नहीं तो,’’ पुरवा समझ गई थी कि उस की बात का उत्तर न दे पाने से भी सुहास व्याकुल है. सुहास कह रहा था, ‘‘मैं तुम्हारी तरह दूरदर्शी नहीं हूं, पुरवा. शायद हर निर्णय मैं बहुत घबराहट में लेता हूं्.’’

‘‘पता नहीं सुहास, पर इतना कह सकती हूं मैं कि भावुकता से भरे हुए फैसले बहुधा ठीक नहीं होते हैं,’’ पुरवा ने प्यार से कहा.

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‘‘शायद तुम ठीक कह रही हो. इस तरह भावुकता में बह कर मैं कितनों की जान बचा पाऊंगा.’’

दोनों उठ कर बैठ गए थे. पुरवा ने साइड टेबल की बत्ती जलाई तो सुहास बोला, ‘‘रहने दो, पुरवा. अंधकार में रोशनी की जो किरण तुम ने दिखाई है उसे महसूस करने दो,’’ उस ने सोई हुई झरना के सिर पर प्यार से हाथ फेरा, ‘‘मैं सचमुच भूल गया था कि तुम दोनों के लिए भी मेरा जीवन कितना महत्त्वपूर्ण है.’’

पुरवा ने दोनों हथेलियों में उस के कपोल भर लिए और बोली, ‘‘मैं जानती हूं सुहास, तुम धीरेधीरे अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे हो और एक दिन बहुत सफल भी होगे.’’

सुहास उस के प्यार भरे स्पर्श से भावविभोर हो उठा, ‘‘तुम्हारा विश्वास ही तो मेरी शक्ति है पुरवा. जबजब मैं दिशाहीन हुआ हूं तुम ने मुझे सही राह दिखाई है.’’

‘‘मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं सुहास. मैं कल सुबह ही अंधमहाविद्यालय जाऊंगी और हम कल से ही चैरिटी शो के लिए अभियान शुरू कर देंगे,’’ उस एक पल में 2 खामोश दिलों ने जाने कितने सतरंगे सपनों को अपने स्पर्श से जी लिया था.

‘‘मुझे कभी भटकने नहीं देना, पुरवा,’’ सुहास की फुसफुसाहट प्यार की खिलती पंखडि़यों में ओस की बूंद सी समा गई थी.

‘कौन कहता है कि सुहास से प्यार कर के मैं ने कुछ गलत किया,’ पुरवा ने मन ही मन दोहराया और एक नई सुबह की प्रतीक्षा में अंधेरे में छिपे सातों रंगों को महसूस करने का प्रयास करने लगी.

-समाप्त द्य

रथयात्रा के यात्री

लेखक- संजय अय्या

हम ने कहा, ‘‘भैया, अब ऐसी भी क्या व्यस्तता जो घड़ी दो घड़ी खड़े हो कर पान भी नहीं खा सकते? कम से कम एक पान तो खाते जाइए.’’

अब पान ठहरा नेताजी की कमजोरी, कमजोरी भी ऐसी जिस के लिए वह अपने सारे जरूरी काम किनारे कर सकते हैं. अत: कुछ सोच कर बोले, ‘‘अब आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो आप की बात को रखते हुए पान तो मैं खा लेता हूं पर इस से ज्यादा समय मैं आप को बिलकुल नहीं दे पाऊंगा.’’

हम ने कहा, ‘‘ठीक है, पहले आप पान तो खाइए फिर बाद में देखते हैं.’’

इतना कह कर हम ने रामचरण को 2 पान लगाने का आर्डर दे कर नेताजी से पूछा, ‘‘क्या बात है, बहुत जल्दी में दिखाई दे रहे हैं?’’

वह बोले, ‘‘मत पूछिए, बहुत व्यस्त हूं. रात में 2 बजे तक जागने पर भी अभी तक काम पूरा नहीं हुआ है, आज उन का नगर आगमन होना है और अभी भी इतने सारे काम बाकी हैं, जाने क्या होगा?’’

हम ने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘तो क्या उन की रथयात्रा हमारे यहां से हो कर भी गुजरेगी?’’

उन्हें जोर का झटका लगा. बोले, ‘‘ भाईजी कैसी बात कर रहे हैं? यह सब स्वागत द्वार, झंडे, बैनर्स, पोस्टर्स अब उसी रथयात्रा का स्वागत करने के लिए ही तो लगाए गए हैं. यहां तो काम करकर के जान निकली जा रही है और आप पूछ रहे हैं कि यहां से भी रथयात्रा गुजरेगी?’’

हम ने सहलाने के अंदाज में कहा, ‘‘नाराज मत होइए, सबकुछ ठीकठाक हो जाएगा, निश्चिंत रहिए. आप ने चाहे राम का भला किया हो या न किया हो लेकिन राम आप का भला अवश्य करेंगे.’’

नेताजी फिर उखड़ गए, ‘‘कैसी बात कह गए आप? हमारे प्रयत्नों (रथयात्रा) से ही विवादित ढांचा ढहा और राममंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ. हम ने ही राम को मुगलकालीन दासता से मुक्ति दिला कर आजाद किया है, तो फिर आप कैसे कह सकते हैं कि हम ने राम का भला नहीं किया?’’

हम ने उन्हें शांत करते हुए बातों का रुख दूसरी ओर मोड़ा, ‘‘इन रथयात्राओं पर तो आप की पार्टी को अच्छा- खासा व्यय करना पड़ रहा होगा?’’

हमारी बात की सहमति में सिर हिलाते हुए नेताजी ने कहा, ‘‘लेकिन हमारी भी मजबूरी है. राष्ट्र की सुरक्षा से जो खिलवाड़ केंद्र सरकार कर रही है और इस सरकार की अदूरदर्शिता भरी नीतियों से राष्ट्र की सुरक्षा को जो गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है उसी के विरोध में जनभावना जगाना, जनजागृति का विकास करना हमारी इस यात्रा का प्रमुख उद्देश्य है. इसलिए हम ने इस यात्रा का नाम ही ‘भारत सुरक्षा यात्रा’ रख दिया है. वैसे आप की जानकारी के लिए बता दूं कि अपने क्षेत्र में इस यात्रा का मैं ही प्रभारी हूं.’’

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हम ने उन्हें बधाई दे कर अपनी तरफ से औपचारिकता की रस्म अदायगी की. हमारी बधाई को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए नेताजी बोले, ‘‘आश्चर्य है जिन यात्राओं के बारे में इतना कुछ लिखा, पढ़ा, सुना जा रहा है उस के बारे में मुझे आप को बताना पड़ रहा है.’’

अपनी अनभिज्ञता पर बिना किसी संकोच या शर्मिंदगी के हम ने कहा, ‘‘अब इतने सारे लोग, इतनी सारी यात्राएं निकाल रहे हैं तो व्यक्ति किसकिस को याद रखे, जब रोज ही कोई न कोई यात्रा निकल रही हो तो यह याद रखना भी तो मुश्किल हो जाता है कि किस ने किस उद्देश्य से यात्रा निकाली?’’

वह बोले, ‘‘फिर भी हमारी यात्राएं सब से अलग, सब से खास होती हैं, यही नहीं हमारी महान संस्कृति का एक अंग होती हैं.’’

‘‘सब से अलग तो आप हैं ही,’’ हमारे यह कहने पर वह बोले, ‘‘कैसे?’’

हम ने कहा, ‘‘समझते रहिए, यह पहेली. वैसे आप क्या सोचते हैं आप के यात्रा निकालने से राष्ट्र की सुरक्षा मजबूत होगी? क्या राष्ट्र सुरक्षा की भावना को बल प्रदान होगा?’’

वह बोले, ‘‘इन यात्राओं के पीछे उद्देश्य तो यही है.’’

‘‘इस के पहले भी तो आप के नेताओं ने कईकई उद्देश्यों से कईकई यात्राएं की हैं,’’ हम ने कहा, ‘‘कभी राम मंदिर निर्माण के लिए तो कभी भारत की एकता के लिए, कभी सांप्रदायिक सद्भावना के लिए तो कभी तिरंगे के सम्मान के लिए, इस बीच कुछ उपयात्राएं भी आप लोगों ने कर डाली हैं. हमेशा नएनए मुद्दों पर आप के नेता यात्रा करते हैं लेकिन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के बाद वे उन्हें भूल जाते हैं, जिन के लिए उन्होंने यात्रा की थी. मजाक में अब तो कुछ लोगों ने आप की पार्टी को ‘भारतीय यात्रा पार्टी’ कहना शुरू कर दिया है. इधर कोई घटना घटी नहीं उधर आप की पार्टी के नेता तैयार हो जाते हैं उस के विरोध में यात्रा निकालने के लिए.’’

कुछ तैश में आ कर नेताजी बोले, ‘‘आप को हमारी इन यात्राओं पर इतनी आपत्ति क्यों है? एक राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते हमारा अधिकार है अलगअलग राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचारों से जनता को अवगत कराना, अपना विरोध जाहिर करना, अपनी नीतियों का प्रचार और उसे सर्वव्यापक, सर्वस्वीकार्य बनाना.’’

हम ने कहा, ‘‘वह सब तो ठीक है लेकिन इन यात्राओं के पीछे आप का छिपा हुआ उद्देश्य भी होता है.’’

‘‘यह तो लोगों की गलतफहमी है,’’ वह आराम से बोले. ‘‘हम तो शुरू से ही ‘साफ दिशा, स्पष्ट नीति’ वाले लोग हैं, राष्ट्रवाद का प्रचार करना और लोगों में राष्ट्रीयता की भावना भरना ही हमारी यात्राओं का एकमात्र उद्देश्य होता है.’’

हम ने कहा, ‘‘यदि आप के उद्देश्य जनहित के हैं तो विरोधी आप की यात्राओं पर इतना बवाल, विरोध क्यों करते हैं?’’

पान की पीक एक ओर को थूकते हुए नेताजी बोले, ‘‘भाईजी, यह सब तो हमारे विरोधियों की टुच्ची राजनीति है, उन की क्षुद्र मानसिकता है. वे हमारे हर अच्छे काम में राजनीति देखते हैं, उन की सोच राजनीति से ऊपर उठ ही नहीं सकती. यह सब कुप्रचार वही लोग करते हैं जो हमारी यात्राओं की सफलता देख नहीं सकते, हमारी लोकप्रियता से जलते हैं वे सब.’’

फिर भी यदि लोगों को परेशानी है तो आप क्यों नहीं इन रथयात्राओं को रोक देते? क्यों व्यर्थ में एक नए विवाद को जन्म देते हैं? आखिर क्या हासिल होता है आप को इन सब से?’’

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हमारे इस सवाल पर गहरी नजर से उन्होंने हमें देखा फिर बोले, ‘‘आप कौन होते हैं, हमें सलाह देने वाले. अपना भलाबुरा हम बेहतर समझते हैं और जहां तक रथयात्राओं की बात है तो हमारी एक सफलता तो आप देख ही चुके हैं कि रथयात्रा की ही बदौलत हम जमीन से सीधे आसमान पर पहुंचे थे.’’ फिर कुछ तेज आवाज में कहने लगे, ‘‘क्या हासिल नहीं हुआ हमें रथयात्राओं से? सत्ता, धन, पावर सबकुछ तो हमें इन्हीं से मिला है तो क्यों छोड़ें हम अपनी रथयात्राएं? हमारी रथयात्राएं तो जारी रहेंगी चाहे कोई कुछ कहे, कोई कैसा भी विरोध करे हमारे रथ का पहिया अपने लक्ष्य पर पहुंच कर ही थमेगा.’’

हम पूछना चाह रहे थे कि आप को तो रथयात्राओं से सबकुछ हासिल हुआ पर जनता को…लेकिन हमारा प्रश्न गले में ही अटक कर रह गया क्योंकि नेताजी रथयात्रा की शेष तैयारियां देखने निकल पड़े थे.

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