लेखक- माया प्रधान
गतांक से आगे…
मांपापा भी बहुत चिंतित थे, कम से कम फोन ही किया होता. मां ने पुरवा को बच्चे का वास्ता दे कर जबरन खाना खिला दिया था. पापा बारबार कह रहे थे, ‘‘बहुत ही लापरवाह होता जा रहा है.’’ पुरवा के मन में भी उथलपुथल थी. प्रतीक्षा करतेकरते ही उस की आंख लग गईं. रात 11 बजे के बाद सुहास आया तो मां व पापा ने प्रश्नों की बौछार कर दी. पुरवा कमरे में थी पर ऊंची आवाज से उस की नींद टूट गई. मन ही मन में विचित्र सी शंका उसे भयभीत करने लगी. वह कौन से कारण अब जन्म ले रहे हैं जिन की वजह से यहां के शांत वातावरण में अकसर भूचाल सा आने लगा है.
सुहास जब कमरे में आया तो पुरवा के कुछ पूछने से पहले ही बोला, ‘‘अब तुम भी मत शुरू हो जाना. मैं कोई डिस्को करने नहीं गया था, न दोस्तों के साथ जुआ खेलने और शराब पीने गया था.’’
‘‘मुझे मालूम है,’’ पुरवा ने सीधा उस की आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘खाना लगाऊं?’’
सुहास ने पलंग पर बैठते हुए जूते और मोजे इधरउधर उछाल दिए और थके हुए स्वर में बोला, ‘‘तुम ने खाया या नहीं?’’
‘‘मां बिना खाए रहने कहां देती हैं, उन का पोता भूखा नहीं रहना चाहिए,’’ पुरवा ने उस की उदासी दूर करने के विचार से मुसकरा दिया, पर सुहास उलझन में था. बोला, ‘‘कुछ थोड़ा सा यहीं ला दो, बाहर जाने का मतलब है फिर से भाषण सुनना.’’
पुरवा ने चकित दृष्टि से उसे देखा. ऐसी भाषा मां व पापा के लिए कब से सीख ली सुहास ने. धीरे से बोली, ‘‘एक फोन कर देते तो कोई चिंता नहीं होती किसी को.’’
‘‘फोन करने का समय कहां था. अरे इतना समय तो मिला नहीं कि बेला भाभी को फोन कर के भाई साहब का हाल पूछ लूं. बेचारी ने फोन पर बताया था कि भाई साहब को डाक्टर अलसर बता रहे हैं. शायद अस्पताल में भर्ती करना पड़े.’’
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पुरवा ने केवल सुना, पर बोली कुछ नहीं. बेला के यहां भी कुछ न कुछ घटता ही रहता है और हर बार सुहास की अपनी कोई समस्या तो है ही नहीं, पर सुहास का बेला के साथ अस्पतालों के चक्कर में बीतता है.
कैसा विरोधाभास है सुहास के स्वभाव का यह. अपने भविष्य की चिंता है न वर्तमान की पर दूसरों के लिए आधी रात तक भूखाप्यासा दौड़ता रह सकता है. कई बार सोचती है पुरवा, कहीं इस मनोविज्ञान के पीछे प्रशंसा पाने की तड़प तो नहीं है?
खाना खाते समय सुहास ने बताया, ‘‘हमारी दुकान के सामने ही राकेशजी की बहुत बड़ी दुकान है. आज वह शाम 7 बजे ही दुकान से निकले कहीं शादी में जाने को, पर दुकान से बाहर पैर रखते ही बेहोश हो कर गिर पड़े. सब दौड़े, पर वे बेहोश्ी में थे और उन्हें पसीने छूट रहे थे. अब तुम्हीं बताओ, उन्हें ले कर अस्पताल जाना, उन के घर वालों को बुलाना, डाक्टर से जांचपड़ताल कराना, कैसे बीच में आ जाता. उन्हें तो दिल का दौरा पड़ा था.’’
पुरवा ने सुहास के बालों में हाथ फेरा. उस की यही भावना कहीं पुरवा को गर्व से भी भर देती है पर हर बात की अति प्राय: दुखदायी लगने लगती है. पुरवा को भी कभीकभी इसी भावना से जूझना पड़ता है, धीरे से बोली, ‘‘तुम अपनी जगह सही हो सुहास, पर वे मांबाप हैं, जिन्हें बचपन से ही आदत है तुम्हारे लिए परेशान हो जाने की. तुम्हें उन का दिल भी नहीं दुखाना चाहिए था.’’
‘‘शायद तुम ठीक कह रही हो, पर मैं थक भी तो जाता हूं.’’
पुरवा ने सुहास के बालों में उंगलियां उलझाते हुए कहा, ‘‘यही तो बात है सुहास, तुम्हें अब अपने बारे में भी सोचना चाहिए. अपना स्वास्थ्य, अपना काम और आने वाली जिम्मेदारी के बारे में.’’
‘‘सोचूंगा, इस समय तो मैं बस, अपने बारे में यही सोच पा रहा हूं कि कैसे झटपट सो जाऊं.’’
पुरवा ने मुसकरा कर बत्ती बुझा दी और बोली, ‘‘ठीक है, अब सुबह बात करेंगे.’’
सुबह चाय पर सुहास ने मां व पापा से क्षमा मांग ली और पूरी घटना भी विस्तार से सुना दी. मां ने भी तब पुरवा की तरह यही कहा, ‘‘तुम्हें अपने और काम के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए. आखिर बीवी व बच्चे की जिम्मेदारी कोई हंसीखेल तो नहीं है.’’
चाय का दौर चल ही रहा था तभी नौकर ने आ कर बताया कि कोई प्रभात बाबू आए हैं. पुरवा उत्साह से बोली, ‘‘उन्हें ड्राइंगरूम में बैठाओ, अभी हम लोग भी आ रहे हैं,’’ फिर सब की तरफ देख कर बोली, ‘‘वह मेरा शिष्य है. पापा ने उसे सहायता कर के रेडीमेड कपड़ों का व्यापार शुरू करवाया था. आंखें नहीं हैं पर लगन बहुत है उस में.’’
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यह सुन कर मां व पापा के चेहरे पर उत्साह सा छा गया लेकिन सुहास चुपचाप सैंडविच और दलिया खाता रहा. जब पुरवा ने सब से प्रभात का परिचय करवाया, तो मांपापा बहुत ही प्रसन्न हुए. सुहास ने उस के हाथों में अपनी हथेली रख दी तो प्रभात ने तुरंत उस के पैर छू लिए फिर बारीबारी मां व पापा के भी छुए. उस की विनम्रता सभी के दिलों को छू रही थी. सुहास ने कहा, ‘‘पुरवा आप की बहुत प्रशंसा करती रही है. बस, मिलने का अवसर ही नहीं मिला.’’
‘‘मुझे ही मिलने आने में देर हो गई, जीजाजी,’’ प्रभात ने कहा.
सुहास को इस संबोधन की आदत नहीं थी, इसलिए बहुत ही अच्छा लगा. पुरवा का भाई अभी तक भारत नहीं लौटा था और साला होते हुए भी सुहास इस प्रिय संबंध के बारे में नहीं जानता था.
बातोंबातों में ही प्रभात ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप का व्यापार कैसा चल रहा है?’’ सुहास इस प्रश्न पर अचकचा गया, फिर भी मन को संयत कर के कहा, ‘‘ठीक चल रहा है, लेकिन मेरी पसंद का नहीं है,’’ सुहास ने कहने के साथ ही चोर दृष्टि से सब को देख लिया.
‘‘ऐसा होता है, जीजाजी, पर मन को उखड़ने मत दीजिएगा. कोशिश कर के पुराने के साथ ही अपनी पसंद का भी जमाइए,’’ प्रभात ने सादगी से कहा.
‘‘एक काम संभल जाए यही बहुत है, एकसाथ 2 काम करना तो बहुत मुश्किल है,’’ सुहास ने कह तो दिया पर तुरंत ही उसे लगा कि उस ने कुछ गलत कह दिया है. विशेष कर उस व्यक्ति के सामने जो आंखें न होते हुए भी अच्छा- भला व्यापार चला रहा है.
‘‘जीजाजी, कोई भी कार्य बिना परिश्रम के पूरा नहीं होता है,’’ प्रभात ने तुरंत ही कहा. और यह व्यापार की दुनिया तो बहुत ही परिश्रम मांगती है, नहीं तो कुछ दिन में पता चलता है कि हम तो बहुत पिछड़ गए हैं…फिर बाजार से गायब होने में कुछ देर नहीं लगती है.’’
मां व पापा पूरी तन्मयता से प्रभात को सुन रहे थे. उन की आंखों में अनोखी सी चमक थी, पर सुहास के चेहरे पर हताशा के भाव थे. प्रभात के जाने के उपरांत पापा ने अचानक कहा, ‘‘वह मूषक कथा पढ़ी है तुम ने?’’ पापा सुहास को संबोधित कर रहे थे.
‘‘पढ़ी होगी, याद नहीं,’’ सुहास ने उखड़े हुए स्वर में कहा.
‘‘उस कहानी का नायक एक मरे हुए चूहे से व्यापार करने का वादा कर के महाजन से उसे उधार ले जाता है. एक दिन वह सचमुच अपने आत्मबल से बहुत बड़ा व्यापारी बन जाता है.’’
‘‘बन गया होगा, मुझे क्यों सुना रहे हैं,’’ सुहास के चेहरे पर कई भाव तीव्रता से आजा रहे थे. बीचबीच में वह पुरवा को भी क्रोध से देख लेता था.
पापा ने गरदन हिला कर दुख के भाव व्यक्त किए और फिर धीरे से कहा, ‘‘प्रभात को देख कर यह कहानी याद आ गई. आंखों के बिना ही इतना उत्साही युवक,’’ कुछ रुक कर फिर बोले, ‘‘उस ने ठीक ही कहा, सुहास. बाजार में बने रहने के लिए बहुत परिश्रम की जरूरत होती है.’’
सुहास अचानक उठ कर कमरे में चला गया तो मां ने भी दुख से कहा, ‘‘कोई बात इसे समझ में ही नहीं आती है. जाने क्या करने वाला है.’’
पता नहीं थकान थी या दुर्बलता, पुरवा की तबीयत खराब हो गई थी. पापा ने सुहास से कहा था, ‘‘अपनी जिम्मे- दारियां खुद उठाना सीखो. पुरवा को बराबर डाक्टर के पास ले जाना है और उस के खानेपीने और आराम का ध्यान भी तुम्हें ही रखना है.’’
हालांकि पापा के कहने के बाद भी अधिकतर मां को ही पुरवा का पूरा ध्यान रखना पड़ता था. कभीकभी ही सुहास उसे ले कर डाक्टर के पास जा पाता था. पुरवा का रक्तचाप भी अधिक हो जाता था और यह गर्भवती महिला के लिए ठीक नहीं था. एक दिन सुहास के बहुत देर से घर आने पर पुरवा ने कहा, ‘‘सुहास, घर के मरीज का कोई महत्त्व नहीं होता है न. अभी बेला भाभी या और कोई बीमार होता तो तुम उन के लिए भागते हुए नहीं थकते.’’
सुहास ने चौंक कर उसे देखा. बोला, ‘‘यह क्या ऊटपटांग बोल रही हो. तुम से अधिक और किसी की चिंता क्यों होगी मुझे,’’ पुरवा ने कुछ कहा नहीं तो फिर कुछ खीजे से स्वर में बोला, ‘‘और ये बेला भाभी कहां से बीच में आ गईं. अगर मैं भी कहूं कि वह तुम्हारा प्रभात यहां क्या करने आया था. सब की नजरों में मुझे गिराने के लिए ही उसे बुलाया था न?’’
पुरवा कुछ पल चकित सी उसे देखती रही और कुछ व्यथित हो बोली, ‘‘सुहास, उसे मैं ने बुलाया नहीं था, वह तो तुम से मिलने आया था. विवाह पर नहीं आ सका था इसीलिए मिलना चाहता था.’’
‘‘लोग मिलने आते हैं पर शिक्षा देने लगते हैं,’’ सुहास अपने मन की ग्रंथि धीरेधीरे खोल रहा था.
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पुरवा को लगा कि धीरेधीरे उस का एक नए सुहास से परिचय हो रहा है. या शायद उस ने स्वयं ही सुहास को पहले समझने की चेष्टा नहीं की. इस ईर्ष्यालु और गैरजिम्मेदार सुहास से तो उस का नयानया परिचय हो रहा है. पुरवा को चुप रहना ही ठीक लगा. सुहास लगातार अपने मन की भड़ास निकाल रहा था. पुरवा के मन में तूफान उठ रहा था और सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी थी. जाने क्या हुआ कि पुरवा एकदम ही बेसुध हो गई. सुहास ने घबरा कर मां को बुलाया और शीघ्र ही डाक्टर को बुला लिया गया. पुरवा का ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया था, अत: तुरंत ही उसे अस्पताल ले जाना पड़ा.
सुहास मन ही मन एक अपराधभाव से घिर गया. सोचता रहा, कहीं मेरी बकबक से ही पुरवा का यह हाल तो नहीं हो गया है?
कुछ घंटों के बाद पुरवा के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा. सुहास ने एकांत देखते ही पुरवा के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘सौरी, पुरु, मैं सचमुच बहुत ही गैर- जिम्मेदार प्राणी हूं.’’
पुरवा में बोलने का साहस नहीं था. पलकें खोल कर सुहास को कुछ पल निहारा और अपनी हथेली बढ़ा कर धीरे से उस के अधरों पर रख दी. जाने कब सुहास ने अपने परिचितों को अस्पताल में होने की सूचना दे दी, एकएक कर के सभी आने लगे.
शाम को बेला भी आ गई, पर वह अकेली थी. आते ही बोली, ‘‘यह क्या पुरवा, तुम्हें जब डाक्टर ने पूरा आराम बताया है तो जरा भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.’’
पुरवा चुपचाप देखती रही. मन में सोचा, ‘क्यों, अस्पतालों में तुम सब के लिए भागने को सुहास खाली नहीं है इसलिए मुझे अपना ध्यान खुद ही रखना चाहिए.’ अभी उस की सोच पूरी भी नहीं हुई थी कि एक धमाका और हुआ, बेला बोली, ‘‘कुछ दिन से सागर भी बहुत बीमार रहने लगे हैं. उस दिन सुहास उन्हें ले कर अस्पताल जाते हुए यही कह रहे थे कि पुरवा को भी जल्दीजल्दी अस्पताल ले जाना पड़ता है.’’
पुरवा के मन में विचित्र सी हलचल थी, फिर भी हंस कर कहा, ‘‘क्या हुआ है भाई साहब को?’’
‘‘क्या बताऊं,’’ बेला ने गहरी सांस भर कर कहा, ‘‘पक्का तो पता नहीं, टेस्ट चल रहे हैं, पर पथरी का शक है डाक्टर को.’’
‘‘आप को इस तरह उन्हें अकेला छोड़ कर यहां नहीं आना चाहिए था, भाभीजी,’’ जाने कैसे पुरवा कह गई.
‘‘अब यह कैसे हो सकता है पुरवा, आखिर तुम भी तो अपनी हो.’’
बेला ने साधिकार प्यार जताया, पर न जाने क्यों पुरवा को उस प्यार में तनिक भी ऊष्मा की अनुभूति नहीं हुई. कुछ समय से न जाने क्यों उसे ऐसे तमाम रिश्तों में स्वार्थ और दिखावा ही अधिक दिखाई देने लगा है. बिस्तर पर पड़ेपड़े वह ऐसी अनेक बातों में ही उलझी रहती है. कभी सुहास का अत्यधिक गैर- जिम्मेदाराना व्यवहार उस के मन को कचोटने लगता है. तब वह प्रभात को याद करने लगती है. एक व्यक्ति आंखों से देख नहीं सकता, पर अपने उत्तरदायित्वों को ले कर कितना सतर्क रहता है. कुछ कर दिखाने का उस का प्रबल दृष्टिकोण किसी के लिए भी प्रेरणा बन सकता है.
उसे याद आता है कि जब वह पहली बार सुहास से मिली थी तब उसे वह भी एक उत्साही युवक प्रतीत हुआ था, जो नौकरी खोज रहा था और हर किसी के काम आने को आतुर रहता था. तब उसे लगा था कि सुहास बहुत संवेदनशील व्यक्ति है. किसी का दुख वह देख नहीं पाता, पर अब उसे बारबार लगता है कि उस की सोच गलत थी. सुहास जीवन की सचाइयों से कतराना चाहता है, इसीलिए समाज सेवा का भार ढो कर व्यस्तता की आड़ लेता है.
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पुरवा का ध्यान अचानक भंग हो गया. बेला उस से पूछ रही थी, ‘‘क्या देवरजी कंप्यूटर का काम शुरू करने जा रहे हैं?’’
पुरवा ने चौंकते हुए कहा, ‘‘जी, पता नहीं.’’
‘‘अरे, तुम्हें ही पता नहीं, यह कैसे हो सकता है.’’
‘‘जो लोग उन्हें रोज नया काम करने की नेक सलाह देते हैं उन्हें ही पता होगा,’’ पुरवा का स्वर अचानक उखड़ गया.
बेला ने उस के स्वर की तिक्तता महसूस की और बोली, ‘‘क्या बात है पुरवा, कहीं यह शिकायत तुम्हें हम लोगों से तो नहीं है?’’
पुरवा ने बिना कुछ बोले करवट बदल ली. बेला कुछ और बोलती इस से पहले ही मां आ गईं.
सुहास भी उन के साथ था. बेला उस के साथ ही जाने को तत्पर हो उठी, ‘‘अब मैं चलूंगी, सुहास.’’
‘‘चलिए, भाभी, मैं आप को छोड़ देता हूं,’’ सुहास कार की चाबी नचाता चल दिया. पुरवा ने तिरछी आंखों से सब देखा और मन ही मन कुढ़ सी उठी. लगा कि अचानक ही तबीयत फिर बिगड़ रही है.
ऐसे कई अवसरों पर पुरवा स्वयं को संभालने का भरसक प्रयास करती रही है पर अस्वस्थ मन, टूटा हुआ शरीर, पुरवा को अचानक बहुत कमजोरी लगने लगी. जैसे मन डूब रहा हो, डूबता ही जा रहा हो.
इन दिनों हर छोटीबड़ी बात उसे अंदर ही अंदर मथने लगती थी. एक तरफ उत्तेजना से देह धड़कने लगती, साथ ही रक्तचाप भी बढ़ जाता.
मां ने देखा तो तुरंत डाक्टर को बुला लाईं. डाक्टर ने रक्तचाप देखा और तुरंत इंजेक्शन दिया. फिर मां को आवश्यक निर्देश दे कर चला गया. इंजेक्शन के प्रभाव से पुरवा की आंखों में नींद का खुमार छाने लगा था. मां घर फोन करने चली गई थीं. तभी सुहास आ गया. पीछे क्या हुआ यह जाने बिना ही वह क्रोध से बोला, ‘‘पुरवा, तुम्हें क्या होता जा रहा है. बेला भाभी से बात करने की तमीज भी भूल गई हो.’’
पुरवा ने मुंदती हुई आंखों को भरसक खोलने का प्रयास किया.
सुहास के शब्द तीर की तरह उस के दिल में चुभ रहे थे. सुहास कह रहा था, ‘‘मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी पत्नी एक मामूली औरत की तरह इतनी ओछी बातें कर सकती है.’’
सुहास अभी और भी कुछ कहता, तभी मां कमरे में आ गईं और बोलीं, ‘‘क्या शोर मचा रखा है, सुहास. दिखता नहीं उस की तबीयत कितनी खराब हो गई है.’’
पुरवा तब तक नींद की गोद में समा गई थी.
कई दिनों से आकाश पर बादल छाए थे, पर उस दिन अचानक ही बरसात की संभावना बढ़ गई. एक दिन पहले ही पुरवा घर वापस आई थी. उस रात से ही पुरवा चुप सी हो गई थी. न किसी से बात कर रही थी न कोई शिकायत, अंदर ही अंदर जैसे कोई मंथन चल रहा था.
मम्मीपापा देखने आए हुए थे, उन के सामने भी चुपचाप ही पड़ी हुई थी. मां ने कहा, ‘‘जाने क्या हुआ है पुरवा को. किसी से बात ही नहीं करती है.’’
‘‘कोई तकलीफ है क्या, बताती क्यों नहीं है बेटी,’’ पापा ने झुक कर कई बार पूछा. मम्मी उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं तो अचानक पुरवा के अश्रु बह चले.
‘‘यह क्या, पुरु? घबराते नहीं हैं. जल्दी ठीक हो जाओगी.’’
‘‘मुझे घर ले चलो, ममा,’’ अचानक पुरवा ने रोते हुए कहा.
‘‘ले चलेंगे बेटे, तुम ठीक तो हो जाओ. अभी तो बहुत कमजोर हो तुम,’’ मम्मी ने प्यार से कहा.
‘‘नहीं, मुझे आज ही चलना है.’’
मां पास ही खड़ी सब सुन रही थीं. बोलीं, ‘‘अगर कुछ दिन वहां रह कर यह जल्दी स्वस्थ हो सकती है तो आप जरूर ले जाइए.’’
सबकुछ आननफानन में हो गया. पुरवा का सामान पैक हुआ. वह मम्मीपापा के साथ उन के घर चली गई. सुहास को जैसे कुछ सोचनेसमझने का अवसर ही नहीं मिला. उसे उदास देख कर मां ने कहा, ‘‘अब उदास क्यों बैठा है. कुछ दिनों को वहां जाने का भी तो उसे अधिकार है.’’
‘‘मैं कहां कुछ कह रहा हूं.’’
‘‘फिर इतना मुंह लटकाने की क्या बात है?’’ मां कमरा ठीक करने लगी थीं. कोई चुभन उन के मन में भी थी, इसी से काम करते हुए कुछकुछ बोलती जा रही थीं.
‘‘सब के पीछे भागता रहता है, पर पत्नी बीमार पड़ी है तो प्यार से बात भी नहीं कर सकता है. बेला को ले कर बातबात पर उसे डांटता रहता है इन दिनों.’’
‘‘मैं क्या करूं, कभीकभी मेरा दिमाग फिर जाता है,’’ सुहास ने सफाई दी.
‘‘जिंदगी को मजाक समझ रखा है. हर बात में बचपना, हर समय जल्द- बाजी,’’ मां की किसी बात का उत्तर उस के पास नहीं था, पर वह उन की बातों पर सोचने के लिए विवश अवश्य हो रहा था.
पुरवा की कमी उसे बहुत खल रही थी. फोन पर जब भी वह पुरवा से बात करता, वह ‘हां, हूं’ में ही उत्तर देती. सुहास का मन करता कि अभी जाए और पुरवा को जबरन वापस ले आए, पर उस का अस्वस्थ शरीर याद आते ही सुहास हताश हो कर बैठ जाता. काम में मन पहले भी नहीं लगता था, अब उदासी का बहाना ले कर वह घर बैठ गया. जब मां व पापा ने अधिक टोका तो घर से बाहर तो निकलने लगा पर दुकान पर कम, कभी बेला, कभी किसी और मित्र के घर जा कर समय व्यतीत करने लगा.
पुरवा धीरेधीरे स्वस्थ हो रही थी. सुहास ने एक दिन पूछा, ‘‘कब आऊं लेने?’’ तो पुरवा ने चुप्पी साध ली. बहुत बार पूछने पर बोली, ‘‘अभी मैं आराम कर रही हूं.’’
मम्मी पास ही बैठी थीं. बोलीं, ‘‘उसे यहां बुला लो. कुछ दिन वह भी रह जाएगा.’’
‘‘कोई जरूरत नहीं है,’’ पुरवा का क्रोध अभी तक उतरा नहीं था. मम्मी कुछ पल उसे देखती रहीं फिर धीरे से कहा, ‘‘यह ठीक नहीं है, पुरु. उस ने कोई भूल की भी है तब भी इतना क्रोध दिखाना गलत है.’’
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मम्मी अपनी बात कह कर चली गईं पर पुरवा खिन्न मन से खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई. थोड़ी दूर पर गुलमोहर का पेड़ था और दूर तक बोगनबेलिया की लंबी झाड़…लालसफेद और बैंगनी फूल एकसाथ मुसकरा रहे थे. उसे लगा कि प्रकृति कितनी सरलता से एकदूसरे के साथ सामंजस्य बैठा लेती है. यह गुलमोहर का पेड़ साक्षी है उस के प्यार का. जब भी सुहास पुरवा के साथ इस गुलमोहर के नीचे आता था, भविष्य के अनेक सपने संजोए जाते थे. कहां गए वह सारे सपने. वह कौन सी धुंध उन दोनों के मध्य फैल गई है कि सारे सपने कहीं खो गए हैं. उसे तो अभी कुछ भी नहीं भूला है, पर सुहास सबकुछ भूल गया है.
पुरवा खिड़की से हट कर पुन: बिस्तर पर लेट गई. सोचने लगी, ‘उस से कहां भूल हो गई, उस ने सुहास को गलत समझा या सुहास ही बदल गया है,’ एक गहरी सांस खींच कर उस ने आंखें मूंद लीं. -क्रमश: