सोशल मीडिया पर एंटी ट्रांसजैंडर कंटैंट से मचा बवाल, किस की जिम्मेदारी

मीडिया में एलजीबीटीक्यू कम्युनिटी के राइट्स की वकालत करने वाली ग्रुप ‘ग्लाड’ ने अपनी रिपोर्ट में फेसबुक, इंस्टाग्राम और थ्रेड्स सहित मेटा के टौप सोशल प्लेटफौर्मों पर एंटी ट्रांसकंटैंट के बारे में बताया. यह रिपोर्ट जून 2023 से ले कर मार्च 2024 के बीच की है.

रिपोर्ट में बताया गया कि इन प्लेटफौर्म्स पर ट्रांस विरोधी चीजें डाली जाती हैं और मेटा पौलिसी के बावजूद प्लेटफौर्म इस पर कोई कार्यवाही नहीं करता. इस में एंटी ट्रांस स्लर, प्रोपगंडा, डीह्यूउमनाइजिंग स्टीरियोटाइप, लेबलिंग ट्रांस, सेक्सुअल प्रीडेटर्स जैसा कंटैंट देखने को मिला है. विज्ञापन वाली सरकार गूगल और मेटा में सोशल मीडिया विज्ञापनों में बढ़ोतरी देखी गई है.

गूगल विज्ञापन पारदर्शिता केंद्र के आंकड़ों के अनुसार, 1 जनवरी, 2024 से 19 मार्च, 2024 के बीच पौलिटिकल विज्ञापनों पर कुल 101.28 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. जिस में से अकेले भाजपा ने सोशल मीडिया कैम्पेन के लिए 31 करोड़ रुपए खर्च किए हैं. इस के अलावा मेटा एड लाइब्रेरी के अनुसार भाजपा ने पिछले 90 दिनों में 1198 ऐड के लिए 7 करोड़ के लगभग पैसा खर्च किए हैं. कोचिंग का धंधा जेईई की तैयारी के लिए फेमस कोचिंग इंस्टिट्यूट फिटजी अपने विज्ञापन के चलते विवाद में घिर गया है.

यह विवाद सोशल मीडिया पर खूब गरमाया है. दरअसल फिटजी ने एक विज्ञापन बनाया जिस में उस ने एक स्टूडैंट को पौइंट करते दिखाया कि अगर वह फिटजी से ही अपनी पढ़ाई जारी रखती बजाय किसी और इंस्टिट्यूट जाने के तो ज्यादा स्कोर करती. इस विज्ञापन के बाद सोशल मीडिया ने फिटजी को आड़े हाथों ले लिया. एलन मस्क पर मुकदमा सोशल मीडिया प्लेटफौर्म एक्स, जो पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था, के पूर्व सीईओ पराग अग्रवाल और एक्स के कई एक्स औफिशियल्स ने एलन मस्क के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया है.

मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसा दावा किया गया है कि यह मुकदमा नौकरी से निकाले जाने के बाद हर्जाने के तौर पर दिए जाने वाले वेतन को ले कर है. पराग अग्रवाल के अलावा एलन मस्क के खिलाफ मुकदमा करने वाले 4 टौप एक्स औफिशियल भी हैं. मुकदमा लगभग 12.8 करोड़ के भुगतान को ले कर है. इन्फ्लुएंसर्स की रेज बैटिंग हाल के वर्षों में, इंटरनैट वर्ल्ड से ‘रेज बैटिंग’ शब्द ज्यादा सुनाई देने लगा है. सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के लिए यह जल्दी फेमस होने का मीडियम बन गया है. रेज बैटिंग तब होती है जब कोई सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स जानबू?ा कर यूजर्स का ध्यान पाने के लिए ऐसे पोस्ट डालता है जिस से उसे नैगेटिव रैस्पौंस मिलें. यह काम इन्फ्लुएंसर्स खूब करते हैं वे क्रिंज वीडियो बनाते हैं.

यह टिकटौक, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे प्लेटफौर्म्स में देखा जा रहा है. सोशल मीडिया लती टीनएजर्स 26 सितंबर से 23 अक्तूबर, 2023 तक किए गए प्यू रिसर्च के सर्वे के अनुसार लगभग तीनचौथाई टीनएजर्स तब ज्यादा खुश रहते हैं जब वे अपने फोन के बिना रहते हैं. इस दौरान वे खुद को शांत और खुश महसूस करते हैं. रिसर्च में यह भी पता चला है कि टीनएजर्स यह जानते हुए भी कि वे अपनी स्क्रीन टाइम के साथ कोम्प्रोमाइज करने को तैयार नहीं है.

किशोरों की आत्महत्या : माता पिता दोषी कैसे?

यह सोच से बाहर है कि मांबाप के दबाव के चलते कोई बच्चा खुदकुशी कर ले, मगर समाज में अकसर ऐसी घटनाएं घट जाती हैं, जो एक सीख दी जाती हैं कि मांबाप को बच्चों के प्रति अपना बरताव अच्छा रखना चाहिए. हम कुछ ऐसी घटनाओं के साथ आप को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर हम मांबाप हैं, तो हमें बहुत ही सोचसमझ कर अपना बरताव उन के प्रति रखना होगा.

पहली घटना

बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में एक लड़के ने सिर्फ इसलिए खुदकुशी कर ली, क्योंकि मां उसे अकसर जल्दी उठने और हर काम समय से करने के लिए कहा करती थीं.

दूसरी घटना

छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में एक लड़की में खुदकुशी कर ली. पुलिस की जांचपड़ताल में यह सामने आया कि मांबाप उस की पढ़ाई और ट्यूशन पर ज्यादा जोर दे रहे थे और उसे मोबाइल से भी दूर रखा जा रहा था.

तीसरी घटना

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक गांव में एक किशोर ने इसलिए खुदकुशी कर ली, क्योंकि मांबाप उसे अनुशासन का पाठ पढ़ाया करते थे.

ताजा मामले में मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में 17 साल एक लड़की ने कथिततौर से अपने बाप की शराब पीने की लत और मां के प्रति उस के हिंसक बरताव से परेशान हो कर खुदकुशी कर ली.

खरगोन के बड़वाह थाने के प्रभारी निर्मल श्रीवास ने बताया कि को रावत पलासिया गांव में एक किशोरी ने खुदकुशी कर ली. उन के मुताबिक, लड़की का एक तथाकथित सुसाइड नोट मिला है, जिस में उस ने तफसील से लिखा है कि उस के पिता शराब पीने के आदी हैं और अकसर उस की मां के साथ मारपीट करते हैं.

अफसर ने सुसाइड नोट का हवाला देते हुए बताया कि किशोरी ने पुलिस पर उस के पिता के खिलाफ शिकायत के बावजूद कार्यवाही न करने का भी आरोप भी लगाया. हालांकि, अभिवाहक ने पुलिस के खिलाफ लगाए गए आरोपों से इनकार किया है. उन्होंने कहा कि पुलिस ने लड़की के पिता के खिलाफ शिकायत पर कार्यवाही की और उस से अच्छे बरताव के लिए बौंड भरवाया है.

खरगोन के पुलिस अधीक्षक धर्मराज मीना के मुताबिक, लड़की के पिता के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाएगी. उन्होंने आगे कहा कि पुलिस ने पहले भी शिकायतों पर कार्यवाही की थी और उसे गिरफ्तार भी किया था. उन के मुताबिक, खुदकुशी करने वाली लड़की की छोटी बहन ने भी अपने पिता पर बहुत ज्यादा शराब पीने और उन की मां पर हमला करने का आरोप लगाया था.

इस सिलसिले में पुलिस अफसर विवेक शर्मा कहते हैं कि दरअसल शराब ही इस की खास वजह है.

डाक्टर जीआर पंजवानी कहते हैं कि अशिक्षा के चलते इस तरह की घटनाएं समाज में घट रही हैं और आज जागरूकता फैलाने की जरूरत है.

पंहुचे हुए तांत्रिक और गृह बाधाओं का झांसा

ऐसा प्रतीत होता है मानो हम एक ऐसे ठगों के गिरोह के आसपास सांसे ले रहे हैं घिरे हुए है जो हमें कभी भी किसी भी तरह ठगने के लिए तैयार बैठा है.अब यह तो हमारा भाग्य है या फिर हमारी समझदारी जो हम ठगी से अभी तक बचे हुए हैं.

यह कि अगर हम ठगी से बचना २चाहते हैं तो हमें सतत अपनी आंख, कान‌ को खुला रखना होगा, थोड़ी सी भी लालच और लापरवाही हमें इन ठगों का शिकार बन सकती है . दरअसल, सोशल मीडिया आ जाने के बाद ऐसा प्रतीत होता था कि आम लोगों में जागरूकता पैदा होगी और ठगो की शामत आ जाएगी. मगर ऐसा नहीं हुआ है बल्कि ठगी की घटनाएं और भी ज्यादा होने लगी है.

हाल ही में छत्तीसगढ़ में एक शख्स को बड़े ही अनोखे अंदाज में ठगा गया जिस पर कोई प्रयोग धर्मी निर्माता फिल्म भी बन सकता है. हुआ वह की घर में भूत प्रेत बाधा है कह कर करके एक दो नहीं पूरे 10 लाख रुपए का चूना लगा दिया गया.

विजय समय में स्याही घटना घटा घटी है जिनसे कुछ झूठ घटनाएं नीचे प्रस्तुत है –
प्रथम घटना- नोटों को दोगुना करने का लालच दे कर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक महिला ठगी का शिकार बनाया गया. आखिरकार ठगी करने वाले को पुलिस ने जेल भेज दिया.
दूसरी घटना- राजस्थान के जयपुर में सोना दोगुना करने का झांसा देकर युवती को ठगी का शिकार बनाया गया.

तीसरी घटना- झारखंड के रांची में तुम्हारे घर के नीचे सोना, चांदी, हीरे मोती हैं कहकर ठगी का शिकार बनाया गया.

ऐसी ही हमारे आसपास चेहरे और नाम बदलकर आसपास ठगी की घटनाएं घटित हो रही हैं. जिन्हें अगर हम ध्यान से देखें तो स्वयं बच सकते हैं और दूसरों को भी अगाह कर सकते हैं.

दस लाख की ठगी

छत्तीसगढ़ के अकलतरा में पुलिस द्वारा कथित तौर पर गृह बाधा दूर करने के नाम से 10 लाख रुपए की ठगी करने वाले आरोपी की गिरफ्तारी की गई है. आरोपी ने अपने साथियों के साथ मिलकर ग्रह दशा दूर करने का झांसा दे दस लाख रुपए और मोबाइल की ठगी कर ली .

मामला छत्तीसगढ़ के जिला चांपा जांजगीर के विकासखंड अकलतरा थाना क्षेत्र का है.

अकलतरा थाना क्षेत्र के एक गांव कोटमीसोनार निवासी आनंद प्रकाश मिरी 10 लाख रुपए मोबाइल की ठगी की गई थी. कुछ घरेलू समस्याओं के चलते आनंद प्रसाद मिरी परेशान थे. उन्हें कुरमा निवासी कुमार पाटले ने तंत्र मंत्र से समस्या का समाधान होने का झांसा दिया. उसने कहा – बाहर से पंहुचे हुए पंडित बुलाकर ग्रहों को शांत करवाना होगा जिससे विघ्न बाधा दूर होगी. और आखिर कुमार पाटले ने विनोद कुमार सूर्यवंशी और जगदीश प्रसाद लहरे ऊर्फ कल्लू को तांत्रिक बना कर आनंद मिरी से मिलवाया.

आनंद मिरी को फर्जी तांत्रिकों ने दस लाख रुपए अनुष्ठान में लगने की बात कही गई और अनुष्ठान के दिन दस लाख रुपए लाने का झांसा दिया गया .जब आनंद मिरी किसी तरह दस लाख लेकर पहुंचे तो फर्जी बाबाओं व कुमार पाटले ने उन्हें अनुष्ठान से पहले गंगाजल पीने को दिया. जिसको पीने से आनंद मिरी बेहोश हो गए. जिसके बाद ठग गैंग दस लाख रूपए और मोबाइल लेकर फरार हो गया.

प्रकरण में अकलतरा थाने में धोखाधड़ी व आपराधिक षड्यंत्र का अपराध दर्ज कर विनोद कुमार सूर्यवंशी उर्फ विक्रम और जगदीश लहरे ऊर्फ कल्लू को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. जबकि आरोपी अमित कुमार पाटले साकिन कुरमा फरार हो गया था. पुलिस अधीक्षक विवेक शुक्ला के निर्देश पर अकलतरा थाना प्रभारी दिनेश कुमार यादव ने आरोपी की पतासाजी कर उसे गिरफ्तार कर लिया उन्होंने हमारे संवाददाता को बताया – अब छत्तीसगढ़ शिक्षा से पिछड़ा हुआ अंचल‌ नही है मगर इस सब के बावजूद यहां ठगी की घटनाएं भूत प्रेत और बलि के घटनाक्रम प्रकाश में आते रहती हैं. दरअसल छत्तीसगढ़ में वर्तमान में भी शिक्षा और जागरूकता के प्रचार-प्रसार की महत्ती आवश्यकता है.

मंहगी होती ‘लोकतंत्र’ की राह

चुनावी खर्च जिस तरह बेलगाम होते जा रहे हैं उस पर यह एक टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है –
” बेहतर होगा की चुनाव आयोग इन मामलों की स्वयं जांच करे. पता लगाए कि अवैध बरामदगी के पीछे कौन-सा प्रत्याशी या दल है और फिर उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई हो.इस तरह की सख्ती के बिना चुनावों में धनबल का दखल नहीं रूकेगा.

यह सही है कि चुनाव में धनबल का प्रयोग रोकने के लिए चुनाव आयोग की सतर्कता बढ़ी है, लेकिन यह सिर्फ धर-पकड़ तक सीमित है.ऐसे मामलों में सजा की दर बहुत कम है, क्योंकि चुनाव के बाद स्थानीय प्रशासन और पुलिस मामले को गंभीरता से नहीं लेते। अक्सर असली सरगना छुट भैय्यों को फंसा कर बच जाते हैं.

-बृजेश माथुर
सोशल मीडिया पर दरअसल , लोकतंत्र महा कुंभ कहलाने वाला लोकसभा चुनाव में आज जिस तरह चुनाव में करोड़ों रुपए प्रत्येक लोकसभा संसदीय क्षेत्र में खर्च हो रहे हैं उससे साफ हो जाता है कि आम आदमी या कोई सामान्य योग्य व्यक्ति संसद में पहुंचने के लिए सात जन्म लेगा तो भी नहीं पहुंच पाएगा.
लोकसभा चुनाव 2024 में माना जा रहा है कि खर्च के मामले में पिछले सारे रेकार्ड ध्वस्त हो जाएंगे और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाने वाले भारत राष्ट्र में चुनाव खर्च अपनी पर पराकाष्ठा में होंगे अर्थात भारत दुनिया की सबसे खर्चीली चुनावी व्यवस्था होगी.

चुनाव पर गंभीरता से नजर रखने वाले जानकारों के अनुसार इस बार लोकसभा चुनाव 2024 में अनुमानित खर्च के 1.35 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है.अगर बात की जाए लोकसभा चुनाव 2019 में खर्च की तो 60,000 करोड़ रुपये से दोगुने से भी अधिक है.

दरअसल, चुनाव को विहंगम दृष्टि से देखा जाए तो राजनीतिक दलों और संगठनों, उम्मीदवारों, सरकार और निर्वाचन आयोग सहित चुनावों से संबंधित प्रत्यक्ष या परोक्ष सभी खर्च शामिल हैं. चुनाव संबंधी खर्चों पर बीते चार दशक से नजर रख रहे गैर-लाभकारी संगठन के अध्यक्ष एन भास्कर राव के दावे के अनुसार लोकसभा चुनाव में अनुमानित खर्च के 1.35 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की उम्मीद है. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता की अत्यंत कमी का खुलासा हुआ है.चुनावी बांड के खुलासे से साफ हो गया है कि पार्टियों के पास खुलकर खर्च करने के लिए धन है. राजनीतिक दलों ने उस धन को खर्च करने के रास्ते तैयार कर लिए है.

जैसा कि हम जानते हैं देश में काले धन की बात की जाती है, भ्रष्टाचार की बात की जाती है. यह सब कुछ चुनाव के दरमियान देखा जा सकता है और चौक चौराहे पर इस पर चर्चा होने लगी है कि आखिर प्रमुख राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशी करोड़ों रुपए जो खर्च कर रहे हैं वह आता कहां से है मगर इस दिशा में न तो सरकार ध्यान दे रही है और न ही चुनाव आयोग या फिर उच्चतम न्यायालय या सरकार की कोई जांच एजेंसी.

जहां तक बात है भारतीय जनता पार्टी की इस चुनाव में सत्ता प्राप्त करने के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी वह सब कुछ कर रही है जो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. इसका आज की तारीख में आकलन नहीं लगाया जा सकता. हो सकता है आने वाले समय में इसका खुलासा हो पाए की भाजपा ने लोकसभा 2024 में कितना खर्च किया. माना जा रहा है चुनाव प्रचार में हो रहे खर्च के मामले में यह पार्टी देश के विपक्षी पार्टियों को बहुत पीछे छोड़ देगी.

एनजीओ के माध्यम से इस पर निगाह रखने वाले संगठन के पदाधिकारी के मुताबिक, उन्होंने प्रारंभिक व्यय अनुमान को 1.2 लाख करोड़ रुपए से संशोधित कर 1.35 लाख करोड़ रुपए कर दिया, जिसमें चुनावी बांड के खुलासे के बाद के आंकड़े और सभी चुनाव-संबंधित खचों का – हिसाब शामिल है. ‘एक अन्य संगठन ने हाल में भारत में राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता की अत्यंत कमी की ओर इशारा किया था. उन्होंने दावा किया – 2004-05 से 2022-23 तक, देश के छह प्रमुख राजनीतिक दलों को कुल 19,083 करोड़ रुपए का लगभग 60 फीसद योगदान अज्ञात स्रोतों से मिला, जिसमें चुनावी बाण्ड से प्राप्त धन भी शामिल था.

एक अन्य महत्वपूर्ण संगठन ने- ‘चुनाव पूर्व गतिविधियां पार्टियों और उम्मीदवारों के प्रचार खर्च
का अभिन्न अंग हैं, जिनमें राजनीतिक रैलियां, परिवहन, कार्यकर्ताओं की नियुक्ति और यहां तक कि नेताओं की विवादास्पद खरीद-फरोख्त भी शामिल है.’ उन्होंने कहा – चुनावों के प्रबंधन के लिए निर्वाचन आयोग का बजट कुल व्यय अनुमान का 10-15 फीसद होने की उम्मीद है.

इसी तरह विदेश में बैठे एक चुनाव पर निगाह रखने वाले सम्मानित संगठन के अनुसार-” भारत में 96.6 करोड़ मतदाताओं के साथ प्रति मतदाता खर्च लगभग 1,400 रुपए होने का अनुमान है. उसने कहा कि यह खर्च 2020 के अमेरिकी चुनाव के खर्च से ज्यादा है, जो 14.4 अरब डालर या लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपए था. एक विज्ञापन एजंसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमित वाधवा के मुताबिक -लोकसभा 2024 के इस चुनाव में डिजिटल प्रचार बहुत बहुत ज्यादा हो रहा है. उन्होंने कहा – राजनीतिक दल कारपोरेट ब्रांड की तरह काम कर रहे हैं और पेशेवर एजेंसियों की सेवाएं ले रहे हैं.”

इस तरह लोकसभा चुनाव जो आज हमारे देश में लड़ा जा रहा है उसमें राजनीतिक पार्टियों सत्ता प्राप्त करने के लिए सीमा से अधिक खर्च कर रही हैं यह सभी मान रहे हैं ऐसे में अगर हम नैतिकता की बात करें तो जब कोई पार्टी या प्रत्याशी करोड़ों रुपए खर्च करके चुनाव जीतते है तो स्पष्ट है कि वह आम जनता के लिए उत्तरदाई नहीं हो सकते जिन लोगों ने उन्हें रुपए पैसे की मदद की है या गलत तरीकों से रुपया कमाया गया है तो फिर चुने हुए प्रतिनिधि निश्चित रूप से अपने आकाओं के लिए काम करेंगे या फिर अपना स्वास्थ्य साधन करेंगे.

धर्म की बेड़ियों में फंसी औरत

सभी धर्मों, धार्मिक ग्रन्थों और वेदों में, स्त्री के रूप और व्यवहार की जो चर्चा की गई है वह औरत की व्यथा का बयान ही है. कोई भी धर्म महिलाओं के प्रति संवेदनशील नहीं रहा है, तो क्यों कर हम इन धार्मिक पाखंडों का लबादा ओढ़े रखें. अब हम उन धार्मिक नारियों (सीता, द्रौपदी, सावित्री, मेनका आदि) को अपना रोल मौडल मानने से भी इनकार करते हैं जो आजीवन मूक और बधिर बनी रहीं क्योंकि उन्होंने अशिक्षा के कारण पंडों की नजर से देखा, पर आज की महिलाएं शिक्षित हैं, तो अपना भलाबुरा धर्म और इन पंडों की नजरों से क्यों देखें. अपना भलाबुरा पहचानने की हम में अब समझ भी है और परखने की हिम्मत और हौसला भी है.

‘धर्म की बेड़ियां खोल रही है औरत’ पुस्तक में अस्मिता के इन्हीं उद्देश्यों के अनुसार ही धर्म में स्त्री की छवि को दर्शाते हुए उसे धार्मिक आडंबरों से बाहर लाने की कोशिश शब्दों द्वारा की गई है. हमेशा औरत को धर्म का अनुगमन करने पर क्यों विवश किया जाता है. वह आज इस धर्म का पल्ला छोड़ना चाहती है तो ये पंडे, पुजारी, मौलवी क्यों उसे उसी ओर धकेलते हैं. समाज में स्त्री की इस दुर्दशा का कारण धर्म ही है.

इस पुस्तक में पौराणिक और साहित्यिक कथाओं के स्त्रियोचित व्यवहार और विशेष रूप से स्त्रीप्रधान चरित्रों को उजागर करने की संकल्पना की है, जिस से नारी जीवन में प्रेरणा और एक नई सोच की नियति पैदा होती है.

आधुनिक नारी की परिभाषा देते हुए नीलम आधुनिक नारी के विचारों को इस तरह बयां करती हैं : ‘रामायण व महाभारत की स्तुति सैकड़ों वर्षों से इस समाज में इसलिए हो रही है कि स्त्रियां द्रौपदी, गांधारी बनी आंसू बहाती रहें, इन पुरुषों की सत्ता ऐसे ही निर्बाध बनी रहे.’ फिर लड़कियों के स्वर को ऊंचा करती हैं, ‘हमें अपने ये रोल मौडल स्वीकार्य नहीं हैं.’

धर्मों की बात करते हुए हिंदू धर्म में सब से पहले वर्णन सीता का आता है. इस पर डा. उमा देशपांडे सीता को जहां अमर्यादित पुरुष राम की पत्नी बताती हैं वहीं उर्मिला को मौन व खोखली सामाजिक मान्यता का दर्जा डा. नलिनी पुरोहित अपनी कविता ‘उर्मिला का टूटता मौन’ में देती हैं.

इसी तरह हिंदू धर्म की अन्य नारियों जैसे द्रौपदी, सावित्री, सती, तारामती, कुंती, गांधारी, मेनका आदि के उदाहरणों से भी नारी के चरित्र का तार्किक चित्रण उकेरा गया है. इस बात की स्पष्टता इन शब्दों में झलकती है :

‘‘क्यों रहूं घेरे में बंद खींची गई लक्ष्मण रेखा के मध्य मैं भी हूं मजबूत इतनी कि खींच सकती हूं रेखा किसी को रखने के लिए.’’

नीलम कुलश्रेष्ठ (संपादक) अपनी कथा ‘सति इतिकथा’ में सती को चरितार्थ करती हैं कि क्या सती अपने लंबे सुहाग के लिए ही सबकुछ नहीं कर रही थी, तो उस में इस का ही भला निहित था? लेकिन यह भी गलत नहीं है कि धर्मगुरुओं ने ही पति को श्रेष्ठ मानने के लिए एक स्त्री को आमादा किया है और यही धर्मगुरु एक स्त्री के साए से भी घृणा करते हैं. यह स्पष्ट है नीलम के ही आलेख ‘स्वामीनारायण धर्म की शिक्षापत्री और स्त्री’ के शब्दों में :

‘‘स्वामीनारायण धर्म के धार्मिक गुरुओं की संकीर्ण मानसिकता का परिचय मुझे तब मिला जब एक विवाह समारोह में हम स्त्रियों से यह कहा गया कि हम सब स्टेज की तरफ जाने वाले रास्ते की तरफ से मुंह फेर कर खड़ी हो जाएं क्योंकि वरपक्ष के स्वामीनारायण मत के गुरु वरवधू को आशीर्वाद देने आ रहे हैं.’’

स्त्री से इतनी घृणा करने वाले ये धर्मगुरु किस प्रकार समाज का भला कर सकते हैं क्योंकि स्त्री भी समाज का ही एक हिस्सा है. इस पर ये धर्मगुरु भी इन धार्मिक ग्रंथों को गलत मानते हैं. ‘क्या धर्म का प्रचार जरूरी है’ आलेख में गीताबेन शाह के शब्द भी यही स्वीकारते हैं, ‘रामायण, महाभारत व गीता सब राजनीति ही है. यदि हम राम व कृष्ण को भगवान का अवतार मानते हैं तो उन्होंने भी तो राजकुटुंब में जन्म लिया था, किसी राजकुटुंब का काम राजनीति के बिना चल नहीं सकता तो धर्म व राजनीति अलग कहां हुए?’

स्वामीनारायण धर्म की शिक्षापत्री में तो विधवा स्त्री को संक्रामक रोग का दर्जा दिया जाता है तो इस धर्म का लोग, खासकर औरतें क्यों अनुगमन करें.

हर धर्म में स्त्री की तुलना या तो जानवर से की गई है या फिर किसी रोग से. और यह दर्जा देने वाले ये धार्मिक गुरु इन्हीं महिलाओं के कंधों पर धर्म की बंदूक रख कर चला रहे हैं. इन धर्मग्रंथों में अपनी इतनी बुरी स्थिति पाते हुए भी महिलाएं अभी तक क्यों धर्म के भंवर में फंसी हुई हैं? यह सवाल बारबार जेहन को मथता है. अगर इस भंवर से औरतें निकलना चाहती हैं तो सब से पहले खुद को अबला कहना व समझना छोड़ें और फिर अबला बनाने वाले इन पंडों- मौलवियों को इस समाज से बहिष्कृत करें.

इस पुस्तक में कई जगह पर ऐसे धार्मिक पहलुओं पर प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं, जिन से धर्म में स्त्री की क्षतविक्षत दशा का बोध होता है. पुस्तक में खास बात यह भी है कि इस में सभी कुछ (एक कविता को छोड़ कर) स्त्रियों द्वारा ही लिखा गया है. ऐसे में एक पुरुष (कार्तिक साराभाई) का अपनी कविता के माध्यम से पुरुषों पर ही आक्षेप सचमुच सराहनीय है. साथ ही इस में मल्लिका साराभाई, किरण बेदी, मृदुला गर्ग, उमा देशपांडे जैसी हस्तियों ने अपने शाब्दिक हस्ताक्षर दे कर इसे और भी सशक्त बना दिया है.

भिखारी बनाते धर्म के ठेकेदार, अपना भरते घरबार

अगर आप इन दिनों बिहार और झारखंड में होली (या दीपावली के बाद) आएंगे, तो कुछ औरतें और मर्द हाथ में सूप लिए गलीमहल्ले, दुकान, हाटबाजार, बसस्टैंड, रेलवे स्टेशन, भीड़भाड़ वाली दूसरी जगहों पर घूमते दिख जाएंगे, जो छठ व्रत करने के नाम पर भीख मांग रहे होते हैं. वैसे, स्थानीय लोगों को मालूम रहता है कि ये सब भीख मांगने वाले लोग छठ व्रत बिलकुल भी नहीं करते हैं.

दरअसल, ऐसे लोग छठ व्रत के नाम पर अपनी कमाई करने के लिए भीख मांग रहे होते हैं, क्योंकि साल में 2 बार छठ व्रत होता है, एक तो दीवाली के बाद कार्तिक महीने में और दूसरा होली के बाद चैत महीने में.

हिंदू धर्म के पंडेपुजारियों और ब्राह्मणों द्वारा सदियों से ऐसी बातों को बढ़ावा दिया गया है कि जिन के पास छठ व्रत करने के लिए रुपएपैसे नहीं हैं, तो वे छठ व्रत के दिनों में भीख मांग कर जमा किए गए पैसे से छठ व्रत मना सकते हैं.

पर अब बहुत से लोग इस धार्मिक पाखंड का फायदा उठा रहे हैं और धड़ल्ले से इस व्रत के कुछ दिन पहले से पीले रंग की धोती पहन कर हाथ में सूप ले कर बाजार व गली में घूम कर भीख मांगते देखे जा सकते हैं.

लेकिन सवाल यह उठता है कि धर्म के नाम पर पंडेपुजारियों और पाखंडियों ने भीख मांगने की कुप्रथा क्यों शुरू की है? इस की वजह यह है कि उन की पाखंड की दुकानें बिना रुकावट के चलती रहें.

भीख देने वालों के मन में भी ये बातें भरने की कोशिश की गई हैं कि भीख देने वाले को भी पुण्य मिलता है. बहुत से लोग धर्म के डर के चलते भीख दे देते हैं.

हालांकि, इस से मन में यह सवाल जरूर पैदा होता है कि भीख लेने वाला छठ व्रत करेगा या नहीं करेगा? लेकिन इस से समाज में भीख मांगने की नई कुप्रथा जरूर शुरू होती है, इसलिए कुछ लोगों के लिए यह कमाई का सब से आसान जरीया बनता जा रहा है.

कुछ लोग इस धार्मिक ढकोसले के नाम पर अपना धंधा शुरू कर देते हैं, तभी तो वे बाजारहाट, सड़क के किनारे, रेलवे स्टेशनों पर, यहां तक कि रेल के डब्बों, ट्रैफिक में भी घुस कर सूप ले कर भीख मांगते नजर आ जाते हैं.

छठ व्रत के दिनों में कुछ दानदाता छठ का सामान भी पूरे अंधविश्वासों के साथ बांटते दिखते हैं और जिन के पास छठ करने की हैसियत नहीं होती है, वे उन से सामान ले कर छठ व्रत करते भी हैं. दूसरों की मदद से पूजा करने वालों की तादाद बहुत थोड़ी ही है, जबकि भीख मांगने वालों की तादाद बहुत ज्यादा बढ़ती जा रही है.

सभी धर्मों के लोगों को यह सीख भी फोकट में दे दी जाती है कि पूजापाठ करने के बाद जरूरतमंदों को भीख देने से पुण्य मिलता है.

यह इसलिए किया जाता है कि लगे दानपुण्य करना साथ रहते लोगों की बुरे वक्त में सहायता करना होता है, इसीलिए काफी तादाद में भीख मांगने वाले लोग मंदिर, मसजिद और गुरुद्वारों के आगे हाथपैर से सलामत और हट्टेकट्टे होने के बावजूद भिखारियों की लाइन में बैठे होते हैं. इस से दानपुण्य का बाजार बढ़ता है.

रमजान के दिनों में भी भीख मांगने वालों की तादाद में एकाएक इजाफा हो जाता है. कुछ लोग सड़क पर मक्कमदीना जाने के लिए और चादर चढ़ाने के नाम पर भीख मांगते देखे जा सकते हैं.

जिन के पास खुद मक्कामदीना जाने की हैसियत और समय नहीं होता है, वे भीख मांगने वाले को कुछ सहयोग दे कर पुण्य का फायदा उठाना चाहते हैं.

भीख मांगने वाले धर्म के नाम पर बेवकूफ बनाते हैं. कई लोग साधुमहात्मा का रूप धारण कर भीख मांगते फिरते हैं. ऐसे ढोंगी बाबाओं का तो असल मकसद भीख मांगना ही होता है, लेकिन लोगों को चमत्कार करने या आशीर्वाद देने का स्वांग भी वे भरते हैं. कई बार तो वे सीधेसादे लोगों को लूट भी लेते हैं.

कुछ ढोंगी और शातिर लोग बेजबान जानवरों का इस्तेमाल कर के भी भीख मांगते फिरते हैं, जो कहीं से भी सही नहीं कहा जा सकता है. भीख मांगने के नाम पर विकलांग जानवरों को ‘ईश्वर की कृपा’ बता कर और उन्हें सजासंवार कर गाड़ी में भजन और गाने बजा कर जगहजगह पैसे ऐंठने का धंधा फलफूल रहा है.

इतना ही नहीं, हाथी जैसे बेजबान जानवर को भी गलीगली घुमा कर और बीच सड़क पर आनेजाने वालों को रोक कर लोग भीख मांगते देखे जा सकते हैं.

रोहतास जिले के रहने वाले अजय कुमार का इस धार्मिक बुराई पर कहना है, ‘‘दरअसल, हिंदू धर्म में ब्राह्मणों और पंडेपुजारियों ने एक नया हथकंडा अपनाना शुरू कर दिया है, ताकि उन का धंधा दिनोंदिन फलताफूलता रहे. उन्होंने समाज में एक गलत बात फैला दी है कि जिन की छठ व्रत करने की हैसियत न हो, वे भीख मांग कर भी व्रत कर सकते हैं.

‘‘इस का नतीजा यह हुआ कि भीख मांग कर ज्यादा से ज्यादा लोग छठ व्रत करने लगें और पंडेपुजारियों को पूजापाठ कराने में अच्छी आमदनी होने लगे.’’

सब से ज्यादा बुरा तो तब लगता है, जब लोग राह चलते राहगीरों के आगे सूप और थाली फैला कर भीख लेने के लिए गिड़गिड़ाने लगते हैं. कुछ लोग ट्रैफिक में घुस कर सूप ले कर छठ व्रत के नाम पर भीख मांगने लगते हैं.

कई बार दूसरे देशों से भी लोग यहां की संस्कृति से प्रभावित हो कर घूमनेफिरने आते हैं और इस तरह के लोगों को भीख मांगते देख कर यहां के लोगों के प्रति मन में गलत सोच बना लेते हैं, इसीलिए इस प्रदेश के लोगों को गरीब या पिछड़ा मान लेते हैं, जबकि ऐसा नहीं है.

लिहाजा, जरूरी है कि आम लोगों को भी इस तरह की गलत प्रथा का विरोध करना चाहिए. ऐसे लोगों को भीख देने से बचना चाहिए, ताकि अपने देश प्रदेश की पहचान तरक्की और खुशहाली के लिए बने, न कि भीख मांगने के लिए. दानपुण्य भी भीख ही है, पर दान ठसके और रोब जमा कर वसूला जाता है.

जीवन की राह आसान बनाएं पेरेंट्स के फैसले

इच्छा और जरूरत का अंतर जेब में रखे पैसों से निर्धारित होता है. बच्चों की कौन सी इच्छा पूरी करनी है और उन की क्या जरूरत है, यह मातापिता से बेहतर कोई नहीं समझ सकता. उन के फैसले अनुभव और जरूरत के हिसाब से होते हैं.

अक्षत का मूड बहुत खराब था. वह 12वीं के बाद अपने दोस्त कनिष्क की तरह विदेश में पढ़ने जाना चाहता था. पर अक्षत के मम्मीपापा ने एजुकेशन लोन के लिए साफ मना कर दिया था. अक्षत के पापा के अनुसार, ‘‘विदेश में पढ़ने के लिए 30 लाख रुपए का लोन लेने से अच्छा है कि अक्षत भारत के ही किसी अच्छे कालेज से ग्रेजुएशन कर ले.

लेकिन आज, अक्षत के शब्दों में, ‘‘उस समय मैं मम्मीपापा से बेहद नाराज था पर उन्होंने एकदम सही फैसला लिया था. नहीं तो आज मैं और मेरा पूरा परिवार एजुकेशन लोन के कर्ज में डूबा रहता. कोरोना के कारण वैसे ही भविष्य अंधकार में है.’’

ऊर्जा अपनी जन्मदिन की पार्टी अपनी दूसरी फ्रैंड्स की तरह महंगे फाइवस्टार होटल में देना चाहती थी. लेकिन उस की मम्मी ने कहा कि वे लोग एक जन्मदिन के लिए 50 हजार रुपए का खर्च वहन नहीं कर सकते. ऊर्जा ने गुस्से में जन्मदिन पर किसी को नहीं बुलाया. पर उस की जन्मदिन की रात को 12 बजे जब उस की सारी सहेलियां केक ले कर पहुंचीं, तो ऊर्जा की खुशी का ठिकाना न रहा. ऊर्जा की मम्मी ने उस की सभी दोस्तों के मम्मीपापा से परमिशन ले ली थी. पूरी रात ऊर्जा दोस्तों के साथ धमाचौकड़ी करती रही. रात में मम्मीपापा के गले लगते हुए ऊर्जा बोली, ‘‘मम्मी, यह जन्मदिन अब तक का सब से अच्छा जन्मदिन था. जगह से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है लोगों का साथ.’’

काविश को एप्पल का फोन लेने का कितना मन था. उस के ग्रुप में सब के पास एप्पल का ही मोबाइल था. पर उस के पापा ने उस के लिए अपने बजट के हिसाब से उसे एक अपडेटेड एंड्रोइड मोबाइल दिला दिया था. काविश ने गुस्से में उस मोबाइल को यूज नहीं किया था. तभी लौकडाउन हो गया और अचानक से लैपटौप लेना जरूरी हो गया था. काविश के पापा का बिजनैस भी नहीं चल पा रहा था. काविश को समझ नहीं आया था कि वह लैपटौप कैसे लेगा? लेकिन उस के पापा अगले दिन ही काविश के लिए लैपटौप खरीद कर ले आए थे. उन्होंने काविश को सम झाते हुए कहा, ‘‘बेटा, मोबाइल तुम्हारी इच्छा थी जिसे पूरा करना जरूरी नहीं था, मगर लैपटौप तुम्हारी आवश्यकता थी. अगर मैं अपनी जेब के अनुसार फैसला नहीं लेता और तुम्हें महंगा मोबाइल दिला देता तो अब तुम्हारे लिए लैपटौप नहीं खरीद पाता.’’

बहुत बार ऐसा होता है कि हम अपने मम्मीपापा के फैसलों से सहमत नहीं होते हैं. ऐसा हो भी सकता है कि उन के फैसले आप को आज के समय के हिसाब से अनुकूल न लगें, लेकिन एक बात अवश्य याद रखें कि उन के फैसले उन के अनुभव के हिसाब से होंगे. अगर उन के फैसलों से आप को लाभ नहीं होगा तो नुकसान भी कदापि नहीं होगा.

चलिए अब जानते हैं कुछ कारण कि क्यों हमारे मातापिता हमारे फैसले अपनी जेब को देख कर लेते हैं.

जितनी चादर उतने ही पैर फैलाएं : अगर मम्मीपापा आप की जिद मान कर अपनी चादर से बाहर पैर फैलाएंगे तो बाद में वह आप के लिए ही नुकसानदेह होगा. ऐसा हो सकता है कि आप की जिद पूरी करने के चक्कर में वे अपने जरूरी खर्चों में कटौती कर दें. इसलिए अपने मम्मीपापा के फैसलों को सम झने की कोशिश करें, इस में सब की भलाई ही छिपी हुई होती है.

अनुभव है महत्त्वपूर्ण : मांबाप के हर निर्णय में उन के अनुभव की सीख होती है. उन्होंने आप से अधिक दुनिया देखी है. मम्मीपापा घर की आर्थिक हालत के हिसाब से ही आप की जरूरत और इच्छाओं को पूरा करते हैं. इसलिए उन के फैसलों को दिल से स्वीकार करें.

दूसरों से न करें तुलना : अपने दोस्तों से अपनी तुलना कभी न करें. हर किसी के परिवार का आर्थिक स्तर अलग होता है और सब का रहनसहन भी आर्थिक स्तर के हिसाब से ही तय होता है. अगर आप के दोस्त के पास एप्पल का फोन है तो जरूरी नहीं कि आप भी वही लें. बेवजह की तुलना आप को नकारात्मक ही बनाएगी.

जरूरत और इच्छाओं में फर्क करना सीखें : यह बात अवश्य याद रखें कि जरूरतों और इच्छाओं में फर्क करना सीख लें. आप के मम्मीपापा आप की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही बाध्य हैं. अपनी इच्छाओं को पूरा करना आप की जिम्मेदारी है. अगर अपनी आर्थिक स्थिति के हिसाब से आप फर्क करना नहीं सीखेंगे तो सदा ही दुखी रहेंगे.

खुल कर करें बातचीत : कभीकभी ऐसा भी हो सकता है कि आप के लिए कोई वस्तु आवश्यक हो लेकिन मम्मीपापा की नजरों में वह जरूरी न हो. ऐसे में आप परेशान न हों. मम्मीपापा से खुल कर बातचीत करें. अगर आप की बात में उन्हें वजन लगा तो वे अवश्य आप को वह वस्तु दिलाने से गुरेज नही करेंगे.

झूठी शान बढ़ाती हैं मुश्किलें : अगर आप के मम्मीपापा आप की  झूठी शान के कारण अपनी जेब से अधिक खर्च करेंगे तो भविष्य में आप की ही मुश्किलें बढ़ेंगी.  झूठी आनबानशान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है सादा और सरल जीवन. अपनी जेब के अनुसार किए गए फैसले भविष्य की खुशियों को सदा के लिए सुनिश्चित कर लेते हैं.

आज का कर्ज भविष्य का मर्ज : यह बात गांठ बांध कर रख लें कि कर्ज से बड़ा कोई मर्ज नहीं होता है. आप के कहे अनुसार, अगर आप के मम्मीपापा आप के सपनों को पूरा करने के लिए कर्ज भी ले लेंगे तो उन के साथसाथ आप भी इस मर्ज का शिकार हो जाएंगे. अगर अपने जीवनकाल में वे इस मर्ज से उबर न पाए तो आप भी इस मर्ज का शिकार हो जाएंगे. तनावरहित जीवन जीने के लिए, कर्ज नामक मर्ज से सदैव दूर रहें. जेब के अनुसार किए गए मम्मीपापा के फैसले आप के जीवन की राह को आसान बनाते हैं.

मेहमान बनें, सिरदर्द नहीं : रखें इन बातों का खयाल

अपने किसी जानपहचान वाले या सगेसंबंधी के यहां छुट्टियां मनाने जाना एक सुखद अनुभव है. भागदौड़ भरी जिंदगी में वहां कई ऐसे पल मिल जाते हैं, जब हमें चैन की सांसें मिलती हैं. आबोहवा बदलने से बहुत सी परेशानियां तो अपनेआप ही चली जाती हैं. चाहे कोई भी उम्र हो, सब के लिए कुछ न कुछ जरूर होता है. हम खुद को तरोताजा महसूस करने लगते हैं.

आसान शब्दों में कहें तो हमारा तनमन आने वाले समय के लिए रीचार्ज हो जाता है, इसलिए हमारा भी यह फर्ज है कि जिन लोगों के चलते हम को इतना सब मिला, उन के लिए हम भी थोड़ा सोचें.

चलिए, जिक्र करते हैं उन बातों की, जिन का हमें मेहमान बनते वक्त हमेशा खयाल रखना चाहिए:

* अगर हमारा कार्यक्रम लंबा है यानी 15-20 दिन या महीनेभर का है, तो कोशिश की जानी चाहिए कि उसी शहर में जाएं, जहां एक से ज्यादा रिश्तेदार हों. 2-2, 3-3 दिन तक बारीबारी से सब के यहां रुकते रहने से किसी पर ज्यादा बोझ भी नहीं पड़ेगा और सभी से मुलाकात भी हो जाएगी.

* छुट्टियों में किसी खास के पास जाने की आदत नहीं बनानी चाहिए. इस से उस के मन में आप के लिए नयापन लगातार कम होता जाता है, भले ही वह आप का मायका या पुश्तैनी घर ही क्यों न हो. समय के साथ लोगों की पसंद और प्राथमिकताएं लगातार बदलती हैं.

* बहुत से लोगों की आदत होती है कि किसी के भी घर पहुंच जाते हैं. लोग भले ही ऊपर से कुछ न कहें, लेकिन आज की गलाकाट प्रतियोगिता के जमाने में हर कोई इतना फ्री नहीं होता कि उस को बारबार किसी की खातिरदारी करने में दिलचस्पी हो, वह भी दूर के जानपहचान वालों की. खुद को किसी के सिर पर थोपने की लत अपनी इज्जत के लिए भी खतरा है.

* हम अपने घर में तो बच्चों को खूब रोकटोक करते हैं, लेकिन किसी के घर मेहमान बन कर जाते ही उन पर से ध्यान हटा लेते हैं. ऊपर से उन के सामने ही यह बोल कर कि ‘यह तो बहुत शरारती है’ एक तरह से उन को खुली छूट दे देते हैं.

मेजबान खुद आप को संभालने में जुटा हुआ है, ऐसे में अगर आप के बच्चे उस के घर में धमाचौकड़ी, तोड़फोड़ करते रहेंगे, तो झिझक के मारे वह उन को तो कुछ नहीं कहेगा, लेकिन आप के अगली बार न आने की बात मन में जरूर सोचने लगेगा.

* अकसर देखा गया है कि अपने से कम पैसे वाले मेजबान को मेहमान अपना रोब दिखाने का ‘सौफ्ट टारगेट’ समझ लेते हैं. आप कितने महंगे कपड़े पहनते हैं, कितने का खाते हैं. इस का गैरजरूरी हिसाब देना मेजबान के मन में आप के लिए नेगेटिव भाव पैदा करता है.

* मेजबान के बच्चों की तुलना ज्यादा नंबर लाने वाले अपने बच्चे से मत कीजिए. इस से वे बच्चे आप से कन्नी काटने लगेंगे. बच्चों को असहज देख उन के मांबाप भी असहज हो जाएंगे.

अगर आप मेजबान के बच्चों का सचमुच भला चाहते हैं, तो उन्हें कभीकभार दोस्त की तरह सलाह दे दें. अपने बच्चों के सामने इशारोंइशारों में छोटा कतई न दिखाएं.

* हर किसी का अपना स्वभाव होता है. हो सकता है कि किसी को ज्यादा लोगों से मिलनाजुलना पसंद न हो या वह आप से न मिलना चाहे. घर में जिन से आप की अच्छी अंडरस्टैंडिंग है, उन तक ही सीमित रहिए. इस से आप को भरपूर स्वागत का अनुभव होगा.

* जिस मेजबान की जो हैसियत है, उसे उस की जरूरत के हिसाब से उपहार दें. सभी जगह आधा किलो मिठाई का डब्बा ले कर चलने की आदत सही नहीं है. हर कोई आप से प्यार किसी न किसी उम्मीद के साथ ही करता है, इस सच को स्वीकार करना सीखें.

* मेजबान से बहुत ज्यादा प्यार जताना वह भी केवल शब्दों के जरीए, उन के मन में आप की इमेज पर बुरा असर डालेगा. सच्चा प्यार है तो उस को अपने काम से दिखलाइए, वरना बदलाव सामान्य रखिए. खोखली बातें कुछ दिनों तक ही अच्छी लगती हैं.

इन बातों का ध्यान रखें और देखें कि हर मेजबान खुद ही कहेगा, ‘‘आप का हमारे घर में स्वागत है.’’

करोड़ों की सैलरी के सपने

यह आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस की वजह से है या कंपनियों के मुनाफों की लिमिट के आने या सब से बड़ी बात, दुनियाभर में अमीरों व गरीबों के बीच बढ़ती खाई बढ़ने पर शोर की वजह से, इस साल भारत में स्टार्टअप्स करोड़ प्लस नौकरियां देने में हिचकिचाने लगे हैं. पहले हर साल 100-200 युवाओं को कैंपस रिक्रूटमैंट में ही बहुत मोटी सैलरी दे दी जाती थी और यही मेधावी युवा आगे चल कर एमएनसी कंपनियों के सीईओ बन जाते थे.

अब कंपनियों के मोटे मुनाफे कम होने लगे हैं. जो स्टार्टअप चमचमा रहे थे, अब अपने ही बो  झ से चरमरा रहे हैं. हर कोई वैल्यूएशन बढ़ाचढ़ा कर, बेच कर कुछ सौ करोड़ रुपए जेब में डाल कर चलने की फिराक में है और इस दौरान भारी नुकसान को कम करने के लिए तेजी से छंटनी की जा रही है. स्टार्टअप ही नहीं, इन्फोसिस जैसी कंपनियों को भी अपनी एंपलौई स्ट्रैंग्थ कम करनी पड़ रही है.

यह कोई बड़े राज की बात नहीं है कि ऐसा क्यों हो रहा है. असल में पिछले 5-7 सालों में स्टार्टअप्स ने जो हल्ला मचा कर जीवन को सुगम बनाने के ऐप्स बनाए थे और छोटछोटे धंधों को टैक्नोलौजी के सहारे एक छत के नीचे लाने की कोशिश की थी, उस के साइड इफैक्ट्स दिखने लगे हैं.

लोग अब सिर्फ कंप्यूटर से बात करने के लिए कतराने की सोच पर पहुंच रहे हैं. एक के बाद दूसरा बटन दबाते रहिए. यह जेल की तरह लगने लगा था जिस में कंप्यूटर- चाहे मोबाइल हो, लैपटौप हो या डैस्कटौप, एक जेल सा बन गया था जिस में दुनिया से कट कर रहना पड़ रहा था. आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस इस रूखेपन को कम कर रहा है और ग्राहक की आवाज की टोन को पहचान कर उसी लहजे में जटिल समस्याओं को सुल  झाने के प्रोग्राम बनाए जा रहे हैं ताकि ग्राहक बिदकें न. पर यह न भूलें कि असल जिंदगी तो ब्रिक, मोर्टार और हाड़मांस से चलती है. ऐप ने दफ्तरों से भिड़ने के कंपल्शन को कम किया है लेकिन इस के बदले उस ने ह्यूमन टच छीन लिया है.

एआई की आवाज कितनी ही मधुर क्यों न हो, कितनी ही ह्यूमन लगे, पता चल ही जाता है कि यह मशीनी है. ऐसे में ग्राहक उचट जाता है कि वह अपनी खास समस्या को हल करने के लिए कहे या न कहे.

जो मोटी सैलरीज मिल रही थीं वे उन स्टार्टअप्स से मिल रही थीं जो सिर्फ हवाहवाई बातें करने में आगे आ रहे थे. ब्रिक और मोर्टार सेवाएं तो आदमियों की सहायता से ही मिल रही थीं. उबर और ओला चलाने वाले तो ड्राइवर ही हैं जो कंप्यूटर एलगोरिदम की तोड़ निकालने में लगे थे या जिन की कमर कंप्यूटर एलगोरिदम तोड़ रहा था.

आज छोटा सा स्टार्टअप भी अरबों की वैल्यूएशन का काम कर रहा था इसलिए कि वह ह्यूमन एफर्ट को किसी बेचारे से छीन रहा था. अमेजन, फ्लिपकार्ट, स्विगी, बिग बास्केट ने लाखों छोटे व्यापार बंद करा दिए और अपने कंप्यूटर कंट्रोल्ड वर्कर्स को लूट कर ग्राहकों को सेवाएं देनी शुरू कीं. अब ग्राहक उकताने लगे हैं. दुनियाभर में कंजम्पशन बढ़ने लगा मगर उत्पादन नहीं. अमीरों के सुख की चीजें भरभर कर बनने लगीं क्योंकि स्टार्टअप चलाने वाले उस कैटेगरी में आते हैं जो ऊपरी एक फीसदी हैं. वे आम आदमी की तकलीफें नहीं सम  झते- जो यूक्रेन में लड़ रहा है, सऊदी डैजर्ट में पसीना बहा कर शहर बसा रहा है, घरों तक पानी, बिजली, सीवर पहुंचा रहा है, पक्के मकान बना रहा है. कोई स्टार्टअप या कंस्ट्रक्शन कंपनी बिना ह्यूमन टच के ये सब नहीं कर सकती, न शायद कभी कर पाएगी. कंप्यूटर स्लेव कभी नहीं बनेगा, यह एहसास होने लगा है और शायद स्टार्टअप और टैक्नो इंडस्ट्रीज अब ठंडी पड़ने लगी हैं.

करोड़ों की सैलरी के सपने टूट रहे हैं. उत्तर प्रदेश में 6,000 कौंस्टेबलों की भरती के लिए 50,00,000 उम्मीदवारों का जमा हो जाना साबित करता है कि सैलरी लैवल तो अब भी 20-30 हजार रुपए ही है, वह भी सरकारी नौकरी में, और उसी के लिए मारामारी हो रही है. पेपर लीक भी एक धंधा बना हुआ है, सरकारें परेशान हैं. कुछ को करोड़ों के पैकेज बेरोजगारों के मुंह से निवाले छीन कर दिए जा रहे थे पर अब इन में कुछ कमी होने लगी है.

गुणों को पहचानें, पर्सनैलिटी निखारें

अपनी पर्सनैलिटी पर भरोसा करें. अपने रंगरूप, कद, पढ़ाई, बैकग्राउंड को भूल कर हमेशा यह सोचिए कि आप में कुछ ऐसे गुण हैं जो आप की लाइफ को लिवएबल, हैप्पी, प्रौसपरस बना सकते हैं. अपनी कमियों को छिपाइए नहीं पर उन से घबरा कर कछुए की तरह खोल में न छिपिए. हर युवा कुछ गुण रखता है. हरेक में कुछ करने की, कुछ बनने की तमन्ना होती है. सोशल नौर्म्स कुछ ऐसे हैं जो कुछ यंग को एहसास दिलाते हैं कि उन की कोई कीमत नहीं है. इस गलतफहमी को खुद दूर करें. आप को लूटने वाले इस गलतफहमी का सहारा ले कर ही जेब पर डाका डालते हैं. वे सपने दिखाते हैं, ठोस प्लान या प्रोग्राम नहीं बनाते.

यह सोच कर चलें कि रास्ते पर पड़े पत्थरों को लांघ कर या रास्ता बना कर चलना संभव है. हम में से हरेक ऐसा करता है. हम पानी के गड्ढों से भरी सड़क पर सूखी जगह देख कर चलते हैं पर बाढ़ आ जाने के बाद जूते, पैर या पैंट के गीली हो जाने के बावजूद रास्ता पार करना नहीं छोड़ते क्योंकि इस पानी के दूसरी तरफ कोई है जो बचा कर रखेगा, कुछ राहत मिलेगी, कुछ सुकून मिलेगा.

पढ़ाई हो, हौबी हो, खेल का मैदान हो, रंगमंच हो, पहले ही न घबराइए. उतरिए तो सही. हो सकता है सोने का अंडा हाथ लग जाए, वरना अनुभव तो मिलेगा ही न, जो आगे काम आएगा. लेकिन इस के लिए भीड़ की मानसिकता का शिकार न बनें.

शातिर, बेईमान लोग भीड़ का इस्तेमाल करते हैं. कमजोरों को बहकाने के लिए जब इतने सारे लोग एक तरफ जा रहे हैं तो कुछ अच्छा होगा वहां, इस को जम कर भुनाया जाता है. आप ने जो भी सीखा, जो भी जाना, उस का इस्तेमाल कर के अपना फैसला लें कि आप भीड़ का हिस्सा बन कर अपनी सफलता की चाबी भीड़ के सब से आगे वाले के हाथ में देना चाहते हैं या अपने हाथ में रखना चाहते हैं.

हर व्यक्ति सफल हो सकता है. आप कितने सफल हो सकते हैं, इस का आकलन पहले न करें. पहले तो यही उम्मीद करें कि हर सपना, प्लान सक्सैसफुल ही कंप्लीट होगा. उस पर आप के ऐक्टिव होने की देर है बस, हाथ में कुछ लगेगा ही, कम या ज्यादा. हां, इस के लिए तैयारी करनी पड़ती है. नदी पार करने के लिए नाव बनानी पड़ती है. जब दूसरे पार कर सकते हैं तो आप भी बच सकते हैं, दूसरों से बेहतर भी हो सकते हैं.

तैयारी करने में जरूरी है कि अपने सपनों पर फोकस करें. उन को साकार करने के तरीके ढूंढ़ें. लोगों से पूछें पर फैसला हमेशा अपनी जानकारी के सहारे लें. आप के पास जानकारी जुटाने के हजारों तरीके हैं. आज इंटरनैट तो है ही, साथ ही, विस्तृत जानकारी वाली किताबों की दुकानें व लाब्रेरियां भी हैं. इंटरनैट तो आप को हताश भी कर सकता है पर किताबें, आमतौर पर एक नए निर्माण का मैसेज देती हैं. आगे चलिए तो सही, कुछ मिलेगा. हर वक्त बैठे रह कर मोबाइल से खेलना आप का ऐम (लक्ष्य) न हो, यह खयाल रखें. बल्कि, एक तमन्ना हो कुछ करने की और उसे पूरा करें.

बेबस दलित औरतें, वर्णवादी व्यवस्था की शिकार 

राजनीति और अफसरशाही में दलित औरतों को आगे देख कर यह मत सोचिए कि जातीय भेदभाव केवल गरीब और अनपढ़ लोगों के शब्दकोश में ही है, चमकदमक की दुनिया में भी जातीय भेदभाव कम नहीं है. दलित औरतें हर लैवल पर भेदभाव और शोषण की शिकार हैं. इस के बाद भी वे जिस वर्णवादी व्यवस्था की शिकार हैं उस में ही रहना भी चाहती हैं.

ज्यादातर को लगता है कि वे अपने को छिपाने के लिए वे काम करें जो ऊंची जातियों के लोग करते हैं. इस में पूजापाठ को एक जरीया मनाने वाला सब से बड़ा तबका है. यही वजह है कि बड़ी तेजी से निचले तबके में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जो वर्ण व्यवस्था की तो खिलाफत करते हैं, पर पूजापाठ और हिंदू पहचान के साथ बने रहना चाहते हैं.

शादी के पहले मीना का सपना था कि अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों की तरह वह भी खूब पढ़ेगी और समाज के लिए कुछ करेगी. उस की टीचर भी यही कहती थी कि मीना बहुत होशियार है. पर 8वीं जमात तक पढ़ाई करने के बाद ही उस के घर वालों ने उस की शादी करने का फैसला कर दिया.

दलित लड़कियों को दबंग लड़के कब पकड़ कर जबरदस्ती न कर डालें, इसलिए शादी करना जरूरी होता था. हमारा धर्म ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है जिन में गरीब दलित लड़कियों को ऋषियोंमुनियों ने भी जम कर भोगा है.

मीना के घर वालों के मुताबिक, उस की उम्र शादी लायक हो गई थी. मीना की शादी हो गई. शादी के बाद वह ससुराल आ गई. वहां उस का कुछ समय तो ठीक बीता, पर उस के बाद उस पर दबाव पड़ने लगा कि वह भी घर की दूसरी औरतों की तरह खेतों में काम करने जाए.

मीना खेत में काम नहीं करना चाहती थी. घर में इस बात को ले कर झगड़े शुरू हो गए. मीना ने पति को समझाया तो वह काम करने शहर आ गया. कुछ दिनों बाद मीना भी पति के पास रहने शहर चली आई.

पति के मुकाबले मीना ज्यादा समझदार थी और देखने में खूबसूरत भी थी. शहर में रहने से उस की खूबसूरती और बढ़ गई थी. मीना अपने घर के पास एक अस्पताल में सफाई का काम करने लगी. दिन में मीना 2 से 4 औफिसों में झाड़ूपोंछा लगाने लगी. इस में वह महीने के तकरीबन 5,000 रुपए पाने लगी. उस के पास अपना पैसा आया तो खुद पर यकीन बढ़ गया.

थोड़े समय बाद मीना के चरित्र को ले कर पति के मन में शक बैठने लगा. मीना को इस तरह काम करता देख सास हैरान रह गई. उसे गांव में मीना का खेत में काम करने देना भले ही पसंद था, पर शहर में लोगों के बीच काम करने से मीना के बहक जाने का खतरा था.

मां की शह पा कर मीना के पति ने उस के बाहर जाने का विरोध शुरू किया.

जब मीना नहीं मानी तो पति ने अपना कामधंधा छोड़ दिया और गांव लौटने को तैयार हो गया. पति के पास गांव में कोई काम नहीं था. वह दूसरों के खेतों में काम करता था.

मीना गांव में खेतों में काम करने लगी. ऐसे में उस के साथ वही सब होने लगा जो दूसरी औरतों के साथ होता था.

पर मीना शहर से वापस आ कर  थोड़ी बदल गई थी. ऐसे में उस की पूछ ज्यादा थी. मीना घरबाहर दोनों जगह शोषण की शिकार होने लगी.

मीना की कहानी अकेली नहीं है. ऐसी तमाम दलित लड़कियां हैं जो अपने सपनों को पूरा नहीं कर पातीं और घरबाहर दोनों ही जगहों पर शोषण की शिकार होती हैं.

गरीबी का असर

दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘दलित तबके की 80 फीसदी लड़कियां 5वीं या 8वीं जमात से आगे नहीं पढ़ पाती हैं. उन की शादी हो जाती है. शादी के बाद ससुराल वाले उन की पढ़ाई को जारी नहीं रख पाते हैं.

‘‘ज्यादातर लड़कियों के पति कोई कामधंधा नहीं करते हैं. वे जब दूर शहरों में नौकरी करने चले जाते हैं तो उन की पत्नियों पर तमाम तरह के आरोप लगने लगते हैं. ज्यादातर के पति नशा करते हैं. ऐसे में मारपीट और झगड़े बढ़ते जाते हैं. पढ़ीलिखी लड़की भी ऐसे माहौल में खुद को लाचार पाती है.’’

कई जगहों से लोग गरीबी का फायदा उठा कर दलित लड़कियों को शहर ले जाते हैं. वहां उन्हें गलत धंधों में भी लगा देते हैं. रैड लाइट एरिया में लाई जाने वाली लड़कियों में बढ़ी तादाद ऐसी दलित लड़कियों की ही होती है, जो पैसों की तंगी या गरीबी की वजह से वहां पहुंच जाती हैं.

दलित लड़कियों के शोषण की अलगअलग कहानियां हैं. समाज में जिस तरह से दलितों के खराब हालात हैं उन से भी खराब हालात दलित औरतों के हैं. हर दिन 3 दलित औरतों से औसतन बलात्कार की वारदात होती है.

बदल नहीं रही सोच

ज्यादातर दलित औरतें गांव में रहती हैं. वे खेतों में मजदूरी करती हैं. ऐसे में एक तबका उन के शोषण को अपना हक समझता है. धर्मग्रंथ की कई कहानियों में ऐसी घटनाओं का जिक्र है जिस की वजह से अभी भी ऊंची जातियों की सोच नहीं बदल रही है.

पुराने रिवाजों को देखें तो ज्यादातर मामलों को देख कर लगता है कि केवल हिंदी राज्यों में ही दलितों की हालत खराब है, पर असल में ऐसा नहीं है.

केरल के इतिहास में सौ साल पहले ऐसी व्यवस्था थी कि छोटी जातियों की औरतों को कपड़े पहनते समय छाती न ढकने का आदेश था. ऐसा न करने वाली औरतों को टैक्स देना पड़ता था.

इस का मकसद केवल जातिवाद को बनाए रखना था. दक्षिण भारत में देवदासी प्रथा में जाने वाली लड़कियों में ज्यादातर निचली जाति की ही होती थीं.

आज भी कई जगहों से ऐसी खबरें आती हैं जहां ऊंची जातियों की तरह दलित लड़कियों की शादी में धूमधड़ाका करना गलत समझा जाता है और इस से जातीय टकराव होने लगता है.

परदा प्रथा अभी भी दलित औरतों में सब से ज्यादा है. ऐसी घटनाएं केवल गांव या कम पढ़ेलिखे लोगों के बीच ही नहीं हैं, बल्कि पढ़ेलिखे तबके में भी यह होता है. वहां भी गैरबराबरी का माहौल बना हुआ है.

तमाम सरकारी स्कूलों में मिड डे मील के समय ऐसी घटनाएं सामने आती हैं जहां पर दलित रसोइए के हाथ का बना खाना खाने में कई लोगों को एतराज होने लगा है. वोट लेने के लिए भले ही नेता तमाम दलितों के साथ खाना खाने का दिखावा करते हों.

बदल जाता है बरताव

लखनऊ के एक कौंवैंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़की दिशा बताती है, ‘‘जब तक लोगों को मेरी जाति का पता नहीं चलता तब तक ठीक रहता है, पर जैसे ही जाति का पता चलता है सबकुछ बदल जाता है. साथ पढ़ने और काम करने वाले लोगों का बरताव ही बदल जाता है.

‘‘मुझे 9वीं जमात में पता चला कि मैं दलित हूं. उस समय कालेज में एक फार्म भरना था. उस के बाद स्कूल के दोस्तों को भी पता चल गया. अब वे मुझ से दूर होने लगे हैं.’’

दिशा ने एमबीए तक की पढ़ाई की, इस के बाद वह नौकरी में आई. उस ने कई मल्टीनैशनल कंपनियों में काम किया और वहां उस के नीचे काम करने वालों की बड़ी तादाद थी.

कंपनियों के लोगों को जैसे ही यह पता चलता था कि वह दलित है, उन का बरताव बदल जाता था. दिशा बताती है कि उस ने कहीं किसी भी तरह के रिजर्वेशन का फायदा नहीं लिया. उस जैसी कई लड़कियां हैं जो प्राइवेट सैक्टर में बिना किसी काबिलीयत के काम कर रही हैं. वे अपनी जाति को नहीं बताती हैं. असल में वे भी सोचती हैं कि जाति बताने से लोग अपना बरताव बदल लेते हैं. इस वजह से वे अपनी जाति छिपाने की कोशिश करती हैं.

दीपक नामक लड़के का कहना है, ‘‘मैं नीची जाति का हूं. पढ़ालिखा और अच्छी नौकरी करता हूं. मैं ने ऊंची जाति की लड़की से शादी की है. लड़की के घर वालों ने शादी का विरोध तो नहीं किया, पर वे हमारे साथ संबंध नहीं रखते हैं. उन लोगों ने अपनी लड़की के साथ भी संबंध तोड़ लिए हैं.

‘‘हमारी शादी को 8 साल हो चुके हैं, पर अभी भी वे हमारे घर नहीं आते हैं. मेरी पत्नी जब मायके जाती है तो केवल उस की मम्मी और बहन ही बात करती हैं. उस के पापा कभी उस से बात नहीं करते. मेरी पत्नी भी एक रात से ज्यादा अपनी मां के घर में नहीं रुकती है. एक तरह से उस का अपना घर अब उस के लिए बेगाना ही हो चुका है.’’

खराब सेहत

दलित औरतें अपनी सेहत का खुद ध्यान नहीं रख पाती हैं. स्वास्थ्य सेवाओं को ले कर काम कर रही सोनिया सिंह बताती हैं, ‘‘हम लोगों ने माहवारी के दौरान कपड़े के इस्तेमाल पर बातचीत की तो पाया कि सब से खराब हालत दलित औरतों की ही है. किसी भी गांव में 1-2 से ज्यादा दलित औरतें नहीं मिलतीं जो यह कहती हों कि वे माहवारी में पैड का इस्तेमाल करती हैं.’’

परिवार नियोजन में नसबंदी के टारगेट को पूरा करने के लिए सब से ज्यादा दलित औरतों का ही आपरेशन कराया जाता है. गांव की गरीब औरतों को छोड़ भी दें तो अच्छी पढ़ीलिखी औरतों में भी जाति का पता चलते

ही भेदभाव दिखने लगता है. शहरी जीवन में इस भेदभाव से बचने के लिए दलित औरतें अपनी पहचान बदलने लगी हैं.

रिजर्वेशन और भेदभाव

रिजर्वेशन का फायदा पा कर कुछ दलित परिवारों के पास पैसा और साधन  हैं. इस के बाद भी समाज में भेदभाव में कमी नहीं आई है.

मौका मिलते ही ऊंची जातियों के लोग यह कहने में नहीं चूकते हैं कि आरक्षण के चलते ही ये आगे हैं और रिजर्वेशन के चलते ही समाज की यह हालत है.

पुलिस और दूसरी ऐसी संस्थाओं में काम करने वाली औरतों का कहना है कि हमारे साथ भी जातीय भेदभाव होता है. खराब से खराब गंदगी वाले काम करने के लिए हम से कहने में किसी को कोई हिचक नहीं होती है, पर ऊंची जातियों की औरतों को वही काम कहने में लोगों को हिचक होने लगती है. काम के गलत होने से हमारी जाति का कोई मतलब नहीं होता है, पर काम के गलत होते ही हमारी जाति और रिजर्वेशन को ले कर टिप्पणी होने लगती है.

सोशल मीडिया के बाद यह बात और भी तेजी से उभर कर सामने आ रही है. जहां पर ऐसे तमाम मैसेज इधर से उधर होते हैं जो जातीय भेदभाव को बढ़ाने वाले होते हैं. इन में एक ही संदेश दिया जाता है कि रिजर्वेशन के चलते ही देश के हालात खराब हैं और इस के चलते ही दलित नौकरियों में हैं. तमाम दलित गैरसरकारी नौकरियों में हैं और वहां पर वे अच्छा काम कर रहे हैं. उन की तारीफ कभी नहीं होती.

शादी के पहले मीना का सपना था कि अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों की तरह वह भी खूब पढ़ेगी और समाज के लिए कुछ करेगी. उस की टीचर भी यही कहती थी कि मीना बहुत होशियार है.

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