अगर आप इन दिनों बिहार और झारखंड में होली (या दीपावली के बाद) आएंगे, तो कुछ औरतें और मर्द हाथ में सूप लिए गलीमहल्ले, दुकान, हाटबाजार, बसस्टैंड, रेलवे स्टेशन, भीड़भाड़ वाली दूसरी जगहों पर घूमते दिख जाएंगे, जो छठ व्रत करने के नाम पर भीख मांग रहे होते हैं. वैसे, स्थानीय लोगों को मालूम रहता है कि ये सब भीख मांगने वाले लोग छठ व्रत बिलकुल भी नहीं करते हैं.

दरअसल, ऐसे लोग छठ व्रत के नाम पर अपनी कमाई करने के लिए भीख मांग रहे होते हैं, क्योंकि साल में 2 बार छठ व्रत होता है, एक तो दीवाली के बाद कार्तिक महीने में और दूसरा होली के बाद चैत महीने में.

हिंदू धर्म के पंडेपुजारियों और ब्राह्मणों द्वारा सदियों से ऐसी बातों को बढ़ावा दिया गया है कि जिन के पास छठ व्रत करने के लिए रुपएपैसे नहीं हैं, तो वे छठ व्रत के दिनों में भीख मांग कर जमा किए गए पैसे से छठ व्रत मना सकते हैं.

पर अब बहुत से लोग इस धार्मिक पाखंड का फायदा उठा रहे हैं और धड़ल्ले से इस व्रत के कुछ दिन पहले से पीले रंग की धोती पहन कर हाथ में सूप ले कर बाजार व गली में घूम कर भीख मांगते देखे जा सकते हैं.

लेकिन सवाल यह उठता है कि धर्म के नाम पर पंडेपुजारियों और पाखंडियों ने भीख मांगने की कुप्रथा क्यों शुरू की है? इस की वजह यह है कि उन की पाखंड की दुकानें बिना रुकावट के चलती रहें.

भीख देने वालों के मन में भी ये बातें भरने की कोशिश की गई हैं कि भीख देने वाले को भी पुण्य मिलता है. बहुत से लोग धर्म के डर के चलते भीख दे देते हैं.

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