यह आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस की वजह से है या कंपनियों के मुनाफों की लिमिट के आने या सब से बड़ी बात, दुनियाभर में अमीरों व गरीबों के बीच बढ़ती खाई बढ़ने पर शोर की वजह से, इस साल भारत में स्टार्टअप्स करोड़ प्लस नौकरियां देने में हिचकिचाने लगे हैं. पहले हर साल 100-200 युवाओं को कैंपस रिक्रूटमैंट में ही बहुत मोटी सैलरी दे दी जाती थी और यही मेधावी युवा आगे चल कर एमएनसी कंपनियों के सीईओ बन जाते थे.

अब कंपनियों के मोटे मुनाफे कम होने लगे हैं. जो स्टार्टअप चमचमा रहे थे, अब अपने ही बो  झ से चरमरा रहे हैं. हर कोई वैल्यूएशन बढ़ाचढ़ा कर, बेच कर कुछ सौ करोड़ रुपए जेब में डाल कर चलने की फिराक में है और इस दौरान भारी नुकसान को कम करने के लिए तेजी से छंटनी की जा रही है. स्टार्टअप ही नहीं, इन्फोसिस जैसी कंपनियों को भी अपनी एंपलौई स्ट्रैंग्थ कम करनी पड़ रही है.

यह कोई बड़े राज की बात नहीं है कि ऐसा क्यों हो रहा है. असल में पिछले 5-7 सालों में स्टार्टअप्स ने जो हल्ला मचा कर जीवन को सुगम बनाने के ऐप्स बनाए थे और छोटछोटे धंधों को टैक्नोलौजी के सहारे एक छत के नीचे लाने की कोशिश की थी, उस के साइड इफैक्ट्स दिखने लगे हैं.

लोग अब सिर्फ कंप्यूटर से बात करने के लिए कतराने की सोच पर पहुंच रहे हैं. एक के बाद दूसरा बटन दबाते रहिए. यह जेल की तरह लगने लगा था जिस में कंप्यूटर- चाहे मोबाइल हो, लैपटौप हो या डैस्कटौप, एक जेल सा बन गया था जिस में दुनिया से कट कर रहना पड़ रहा था. आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस इस रूखेपन को कम कर रहा है और ग्राहक की आवाज की टोन को पहचान कर उसी लहजे में जटिल समस्याओं को सुल  झाने के प्रोग्राम बनाए जा रहे हैं ताकि ग्राहक बिदकें न. पर यह न भूलें कि असल जिंदगी तो ब्रिक, मोर्टार और हाड़मांस से चलती है. ऐप ने दफ्तरों से भिड़ने के कंपल्शन को कम किया है लेकिन इस के बदले उस ने ह्यूमन टच छीन लिया है.

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