महाराष्ट्र में हुआ कैबिनेट का विस्तार, अजित पवार ने चौथी बार उपमुख्यमंत्री बन बनाया रिकौर्ड

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के वरिष्ठ नेता अजित पवार ने सोमवार को महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. महा विकास अघाड़ी के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और अन्य गणमान्य लोगों की उपस्थिति में राज्यपाल बी.एस. कोश्यारी ने अजित पवार को शपथ दिलाई. राकांपा प्रमुख शरद पवार के भतीजे अजित (60) ने रिकॉर्ड चौथी बार उपमुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है. उन्होंने सबसे पहले नवंबर 2010 में, उसके बाद अक्टूबर 2012 में, उसके बाद मुश्किल से 80 घंटों के लिए नवंबर 2019 में और अब सोमवार को शपथ ली है.

एक बार से ज्यादा बार उपमुख्यमंत्री बनने का कारनामा उन्हीं की पार्टी के नेता छगन भुजबल भी कर चुके हैं. वह पहले अक्टूबर 1999 में तथा उसके बाद दिसंबर 2008 में उपमुख्यमंत्री बने थे. इनके अलावा नासिकराव तिरपुडे, सुंदरराव सोलंके, रामराव आदिक, गोपीनाथ मुंडे, आर.आर. पाटील (सभी का निधन हो चुका) और विजयसिंह मोहिते-पाटील एक-एक बार उप मुख्यमंत्री बन चुके हैं.

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महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सोमवार को अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया. उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे सहित 35 विधायकों ने मंत्री पद की शपथ ली, जिसमें कैबिनेट के 25 और राज्यमंत्री के 10 पद शामिल हैं. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के वरिष्ठ नेता अजीत पवार ने रिकॉर्ड बनाते हुए चौथी बार उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

नरीमन पॉइंट स्थित महाराष्ट्र विधानमंडल परिसर के बाहर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने सभी नए मंत्रियों को पद और गोपनियता की शपथ दिलाई. मंत्रिमंडल के विस्तार का स्वागत करते हुए शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने इसे ठाकरे का अच्छी तरह से संतुलित निर्णय करार दिया. उन्होंने कहा कि इस विस्तार से राज्य के सभी वर्गो, समुदाय और धर्म का उचित प्रतिनिधित्व हुआ है.

महा विकास अगाड़ी के अन्य नेताओं सहित आदित्य ठाकरे को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है. राज्य के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस के अशोक चव्हाण, परिषद में विपक्ष के नेता रहे राकांपा के धनंजय मुंडे, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष दिलीप वाल्से-पाटिल और राकांपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता नवाब मलिक इस विस्तार का हिस्सा बने हैं.

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मंत्रिमंडल में तीन महिलाएं भी शामिल हैं. राकांपा की अदिति तटकरे (राज्य मंत्री) और कांग्रेस कीं वर्षा गायकवाड़ और यशोमती ठाकुर को भी मंत्रिमंडल में स्थान मिला है. वहीं, शिवसेना की तरफ से सरकार में कोई महिला प्रतिनिधित्व नहीं है. साल 2014 के बाद पहली बार मंत्रालय में चार मुस्लिम चेहरे आए हैं. शिवसेना के अब्दुल सत्तार नबी (राज्य मंत्री), राकांपा के नवाब मलिक व हसन मुशरीफ और कांग्रेस के असलम शेख, इन सभी को कैबिनेट स्तर का पद दिया गया है.

तीनों पार्टियों के अन्य बड़े नामों में अनिल परब, विजय वादीतिवार, जितेंद्र अवध, अनिल देशमुख, अमित (विलासराव) देशमुख, राजेश टोपे, और सतेज पाटिल (राज्यमंत्री), विश्वजीत कदम और बच्चू कडू शामिल हैं.

नेता बांटे रेवड़ी, अपन अपन को देय !

यहां सत्ता की खनक की गुंज, गली गली में गूंज रही है. जिसका सबसे बड़ा असर नगरीय निकाय चुनाव में देखने को मिल रहा है .सन 1999 में अविभाजित मध्यप्रदेश के दरम्यान पहला नगरीय निकाय चुनाव हुआ था और अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी मुख्यमंत्री थे दिग्विजय सिंह.

उस समय चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से हुआ था. मतदाताओं ने महापौर, अध्यक्ष, सरपंच और पार्षदों के चुनाव प्रत्यक्ष पृणाली से मतदान करके किया था. तदुपरांत 2004,2009, 2014 तक चुनाव भाजपा के शासन काल में भी इसी प्रत्यक्ष प्राणाली से हुए .इस चुनाव का लाभ यह था की जहां महापौर, अध्यक्ष सीधे मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी का एहसास कराते हैं वहीं राजनीतिक खरीदी बिक्री की संभावना भी खत्म हो जाती है. सत्ता की प्रेशर की राजनीति पर अंकुश लगता है मगर छत्तीसगढ़ में नई परिपाटी शुरू की है उन्होंने एक्ट मैं बदलाव किए और अबकि चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से हुए जिसमें पार्षद ही अपने महापौर चुनेंगे अध्यक्ष चुनेंगे. ऐसे में खरीदी बिक्री और राजनीतिक बवंडर दिखाई पड़ने लगे हैं.

कांग्रेस का सूपड़ा साफ !

मुख्यमंत्री बन कर भूपेश बघेल ने सबसे बड़ा काम यही किया की अपनी साख बचाने के लिए नगरीय निकाय चुनाव को आखिरकार अप्रत्यक्ष प्राणाली से कराने का ऐलान कर दिया .इस पर उनकी कश्मकश देखी गई पहले कहा प्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव होंगे लोग महापौर पद की तैयारी में जुट गए .मगर विपक्षी नेताओं का आरोप है जब भूपेश बघेल को यह सीक्रेट जानकारी मिली कि प्रत्यक्ष चुनाव हुए तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो जाएगा तो उन्होंने अपनी साख हाईकमान से बचाने की खातिर चुनाव की पद्धति बदलवा दी.

विरोध स्वरूप मामला उच्च न्यायालय पहुंचा .सुनवाई शुरू हुई मगर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी और चुनाव हो गए अब हालात यह है की लगभग सभी नगर निगम, नगर पालिका, और नगर पंचायतों में घमासान मचा हुआ है.

कहीं भाजपा आगे है तो कहीं कांग्रेस कहीं बराबर की टक्कर. अब पार्षदों की खरीदी बिक्री का खेल शुरू हो गया है .कांग्रेस के मंत्री, दावा कर रहे हैं की सभी नगर निगमों, नगर पालिकाओं में हम कांग्रेस के महापौर बैठायेगे. दरअसल यह सीधे-सीधे सत्ता की धमक और खनक का ही परिणाम होगा की कांग्रेसी पत्ते महापौर बनेंगे.

संवैधानिक संस्थाओं से छेड़छाड़

भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बड़ी ही शान से बने थे छत्तीसगढ़ में 67 सीटों पर ऐतिहासिक बहुमत मिला जिसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी .भाजपा, जोगी कांग्रेस के हाथों के तोते उड़ गए. ऐसे में भूपेश बघेल चाहते तो प्रदेश के साथ देश की राजनीति में एक नजीर बन कर उभर सकते थे .राजनीति में सत्ता ही सब कुछ नहीं होती आपकी छवि आम जनमानस में कैसे बन रही है यह महत्वपूर्ण होता है .आज भी लोग अर्जुन सिंह, अजीत जोगी के कार्यकाल को याद करते हैं क्योंकि उन्होंने आम जनता के हित में संवेदनशील कदम उठाए थे .मगर छत्तीसगढ़ में एक वर्ष में बदलापुर की राजनीति और जीत के जश्न मनाए जाते रहे हैं. आम जनता जिनमें किसान, मजदूर, श्रमिक शामिल है मानौ ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं . किसानों को चक्का जाम करना पड़ रहा है मगर भूपेश बघेल कानों में रूई डालकर भव्य आयोजनों में शिरकत कर रहे हैं.

यह है जमीनी हकीकत

रायपुर नगर निगम जहां कांग्रेस के प्रमोद दुबे महापौर थे इस चुनाव में 70 में 34 पार्षद चुनकर आए हैं दो पार्षदों को कांग्रेस अपने पक्ष में करने एड़ी चोटी का जोर लगा रही है .राजधानी रायपुर के बाद न्यायधानी बिलासपुर में 70 पार्षदों में 35 कांग्रेस के पास आ चुके हैं बहुमत के लिए एक पार्षद को तोड़ा जा चुका है . उर्जा नगरी कोरबा में भाजपा को बढ़त मिली है उसके 32 पार्षद विजई हुए हैं मगर 26 सीटों वाली कांग्रेस सारी नैतिकता ताक पर रखकर पार्षदों को खरीदने प्रभावित करने में लगी हुई है .रायगढ़ में 48 पार्षदों में कांग्रेस के पास 24 पार्षद हैं. इस तरह कांग्रेस हर नगरीय क्षेत्र में अपनी सत्ता बनाने सारे हथकंडे अपना रही है जिसकी नाराजगी राजनीतिक क्षेत्र के साथ आम आवाम में भी देखी जा रही है.

झारखंड में क्यों नहीं जीत पाई भाजपा ये 26 आदिवासी सीटें? कहीं ये इन बिलों की वजह तो नहीं

साल 2019 भाजपा के लिए ज्यादा अच्छा नहीं रहा. दो बड़े प्रदेशों से सत्ता का छिनना बीजेपी को रास नहीं आ रहा. लेकिन इन हारों के पीछे भाजपा की कुछ कमियां जरुर थीं. महाराष्ट्र में जनता ने बहुमत दिया लेकिन 30 साल का रिश्ता मुख्यमंत्री पद के लिए तोड़ दिया गया. शायद ये जो गठबंधन टूटा था उसमें कहीं न कहीं शिवसेना को समझ आ गया था कि महाराष्ट्र की राजनीति से उनका पत्ता साफ होता जा रहा है. खैर, सबसे ज्यादा चिंतनीय बात तो ये है कि झारखंड का सीएम भी अपनी सीट नहीं बचा सके. उनको सरयू राय ने हरा दिया. सरयू राय भी बीजेपी के बागी नेता थे और रघुबर दास की नीतियों से खफा थे.

अगर मुख्यमंत्री रहते हुए रघुवर दास कुछ विवादित विधेयक विधानमंडल से पास न कराते तो विधानसभा चुनाव में भाजपा की स्थिति अच्छी हो सकती थी. ये दो विधेयक छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी) में संशोधन से जुड़े थे. इन दोनों विधेयकों का जिन 28 विधानसभा क्षेत्रों की आदिवासी जनता पर असर पड़ना था, वहां की 26 सीटों पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है. भाजपा सिर्फ खूंटी और तोरपा ही जीत पाई। राज्य में भाजपा से आदिवासियों की नाराजगी के पीछे यही दोनों विधेयक जिम्मेदार माने जा रहे हैं.

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दरअसल, रघुवर सरकार ने विपक्ष के वॉकआउट के बीच छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम(एसपीटी) में संशोधन के लिए बिल पास कराए थे. भूमि अधिग्रहण कानूनों में भी रघुवर सरकार ने संशोधन की कोशिशें की थी. ये कानून कभी आदिवासियों की जमीनों से जुड़े अधिकारों की रक्षा के लिए बने थे.

सरकार की ओर से इन कानूनों में संशोधन से आदिवासियों को अपने अधिकारों का हनन होता दिखा. विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाते हुए काफी विरोध किया. बाद में गृह मंत्रालय की आपत्तियों के बाद राष्ट्रपति ने भी हस्ताक्षर करने से इन्कार करते हुए विधेयक को लौटा दिया था. इस घटना के बाद आदिवासियों को लगने लगा कि राज्य की रघुवर सरकार उनके अधिकारों के विपरीत काम कर रही है.

सूत्रों का कहना है कि आदिवासियों की नाराजगी के कारण उत्तरी और दक्षिणी छोटा नागपुर और संथाल प्रमंडल में उनके लिए आरक्षित कुल 28 सीटों के चुनाव में भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा. इन 28 में से भाजपा को 26 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा.

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‘अबकी बार 65 पार’ का हुआ सूपड़ा साफ, झारखंड में सोरेन सरकार

इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का ‘अबकी बार 65 पार’ का नारा पसंद नहीं आया और मतदाताओं ने इस नारे को नकार दिया. झारखंड के मतदाताओं ने ‘अबकी बार सोरेन सरकार’ नारे को अपना लिया है. अभी तक के रुझानों से साफ है कि कांग्रेस, राजद और झामुमो गठबंधन के मुख्यमंत्री प्रत्याशी हेमंत सोरेन के नेतृत्व में राज्य की अगली सरकार बनेगी.

भाजपा 30 से कम सीटों पर सिमटती दिख रही है. जबकि झामुमो गठबंधन 41 सीटों के बहुमत के आंकड़े को पार कर रही है. गौरतलब है कि भाजपा इस चुनाव में अकेले मैदान में उतरी थी. ऐसे में उसके साथ कोई सहयोगी भी नहीं है, जो किसी तरह उसकी नैया पार लगा सके. भाजपा के लिए सबसे शर्मनाक स्थिति यह है कि मुख्यमंत्री रघुवर दास स्वयं जमशेदपुर पूर्व सीट से चुनाव हार गए और उनके प्रतिद्वंद्वी निर्दलीय सरयू राय ने जीत दर्ज की.

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दूसरी ओर, झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन ने हेमंत सोरेन को चुनाव पूर्व ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया था, जिसका लाभ भी गठबंधन को हुआ है. भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यहां जोरदार चुनाव प्रचार किया था. जबकि गठबंधन की ओर से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भी हेमंत सोरेन के साथ साझा रैलियों को संबोधित किया था.

भाजपा की इस स्थिति के संबंध में जब मुख्यमंत्री रघुवर दास से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि जनादेश का सम्मान है. उन्होंने ’65 पार’ के नकारने के संबध में पूछे जाने पर कहा कि लक्ष्य कभी भी बड़ा रखना चाहिए, और उसी के अनुरूप लक्ष्य बड़ा रखा गया था. झामुमो के प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य ने तंज कसते हुए कहा कि भाजपा ने यह नारा झामुमो गठबंधन के लिए दिया था.

पिछले चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन तब सरकार बनाने के करीब थी और उसके साथ सहयोगी भी थे. 2014 में भाजपा ने 37 सीटों पर जीत दर्ज की थी। चुनाव के बाद झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) के छह विधायक भी उसके साथ आ गए थे.

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क्या क्षेत्रीय दल के वापसी का समय आ गया है !

2014 के चुनाव के बाद कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए , तो 2018 तक क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं को कुछ कमाल नहीं देखा पाए , लेकिन बीते कुछ महीनों के चुनावी नतीजों में इनको शक्ति एक बार फिर उभरने लगी है .

2017 के दिसम्बर में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का शासन कई राज्यों के सत्ता में भी था . भारत के एक वृहद भूभाग पर था , वहीं 2019 के अंत आते आते वह सिमट कर आधे पर आ गया.

इसमें भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी कांग्रेस ने अपने क्षेत्रीय चेहरों के मदद से कई राज्यों में सत्ता में वापसी का रास्ता तय किया, तो दूसरे तरफ कई अन्य राज्यों के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कई राजनीतिक पार्टी से समझौता कर सत्ता तक पहुंचने का रास्ता साफ किया.

सत्ता में वापसी करें वाले इन क्षत्रपों में हरियाणा के जेजेपी के दुष्यत चौटाला , आंध्र प्रदेश के वी एस आर के जगन मोहन रेड्डी , महाराष्ट्र के शिवसेना के ठाकरे एवम् एन सी पी के पावर फैमली , झारखंड में जे.एम.एम के हेमंत सोरेन हैं.

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हरियाणा में तो भाजपा ने चुनाव परिणामों के बाद जे.जे.पी से गठबंधन के सत्ता को अपने पास ही बरकरार रखने में कामयाबी पाई , जबकि महाराष्ट्र में अपने ही पूर्व सहयोगी दल शिवसेना से टकराव कर सत्ता से बाहर हो गई.

झारखंड में पार्टी का किसी से गठबंधन नहीं हुआ . पार्टी आत्मविश्वास से चुनाव में उत्तरी, लेकिन परिणाम सीटों के नहीं बदल पाया. वोट प्रतिशत में तो बढ़ोतरी हुई लेकिन सीटों के संख्या ने उम्मीद से अधिक गिरावट देखने को मिला.

परिणास्वरूप भाजपा के हाथ से एक और राज्य सत्ता से निकल गया . इन सब के पीछे कहीं ना कहीं क्षेत्रीय दलों के आपसी समझदारी और किसी भी शर्त पर सत्ता में रहेंगी की जिद्द है.

अगर समय रहते अगर केंद्रीय सत्तारूढ़ राजनीतिक दल भाजपा इन बातों पर गौर नहीं करती है, तो एक बार फिर क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां सत्ता में होगी.

झारखंड का चुनावी नतीजे बिहार को भी प्रभावित करेंगे . जहां तक संभव है , आरजेडी जो इस झारखंड के जे.एम.एम के चुनावी गठबंधन में सहयोगी है, वहीं सरकार में भी भूमिका होगी . लंबे समय के बाद सरकार में आने के बाद आरजेडी के लिए यह जीत संजीवनी का काम करेंगी . वहीं इसकी भी पूरी संभावना है कि रिम्स में लालू के अच्छे दिन आ गए हैं . वह वहां अपना दरबार लगा पाएंगे. अगले साल बिहार में चुनाव है , इसका असर साफ तौर पर बिहार में देखने को मिलेगा.

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साथ ही इन इस पराजय के बाद भाजपा से बिहार चुनाव में अपने लिए अधिक सीटों को मांग कर अगर नीतीश कुमार अपने पार्टी के लिए करते है तो उसमें कोई नई बात नहीं होगी. आगामी छह महीनों में भाजपा को इन बातों पर ध्यान देना ही होगा नहीं तो बिहार विधानसभा चुनाव में भी परिणाम अनुकूल नहीं होगा.

शिव सेना का बड़ा कदम

हिंदुत्व को देश पर एक बार फिर से थोप कर पंडेपुजारियों को राजपाट देने की जो छिपी नीति अपनाई गई थी उस में शिव सेना एक बहुत बड़ी पैदल सेना थी जिस के कट जाने का भाजपा को बहुत नुकसान होगा और हो सकता है कि महाराष्ट्र को बहुत फायदा हो.

कोई भी देश या समाज तब बनता है जब कामगार हाथों को फैसले करने का भी मौका मिले. पश्चिमी यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान, कोरिया की सफलता का राज यही रहा है कि वहां गैराज से काम शुरू करने वाले एकड़ों में फैले कारखानों के मालिक बने थे. महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई देश के पैसे वालों की राजधानी है पर जो बदहाली वहां के कामगारों की है कि वे आज भी चालों, धारावी जैसी झोपड़पट्टियों में, पटरियों पर रहने को मजबूर हैं.

महाराष्ट्र और मुंबई का सारा पैसा कैसे कुछ हाथों में सिमट जाता है, यह चालाकी समझना आसान नहीं, पर इतना कहा जा सकता है कि शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन इस के लिए वर्षों से जिम्मेदार है, चाहे सरकार भाजपा की हो या कांग्रेस की. यह बात पार्टी के बिल्ले की नहीं पार्टियों की सोच की है.

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शिव सेना से उम्मीद की जाती है कि वह अब ऐसे फैसले लेगी जो आम कामगारों की मेहनत को झपटने वाले नहीं होंगे. जमीन से निकल कर आए, छोटी सी चाल में जिन्होंने जिंदगी काटी, सीधेसादे लोगों के बीच जो रहे, वे समझ सकते हैं कि उन पर कैसे ऊंचे लोग शासन करते हैं और कैसे चाहेअनचाहे वे उन्हीं के प्यादे बने रहने को मजबूर हो जाते हैं.

पिछड़ों की सरकारें उत्तर प्रदेश व बिहार में भी बनी थीं, पर उस का फायदा नहीं मिला, क्योंकि तब पिछड़ों की कम पढ़ीलिखी पीढ़ी को सत्ता मिली थी. अब उद्धव ठाकरे, उन के बेटे आदित्य ठाकरे, शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले जैसों को उन बाहरी सहायकों की जरूरत नहीं जो जनमानस की तकलीफों को पिछले जन्मों के कर्मों का फल कह कर अनदेखा कर देते हैं. वे रगरग पहचानते होंगे, कम से कम उम्मीद तो यही है.

मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल आदि में भगवाई लहर मंदी हो गई है और महाराष्ट्र का झटका अब फिर मेहनती, गरीबों को पहला मुद्दा बनाएगा. ऐसा नहीं हुआ तो समझ लें कि देश को कभी भूख और बदहाली से आजादी नहीं मिलेगी.

शौचालय का सच

भारत सरकार ने बड़े जोरशोर से शौचालयों को ले कर मुहिम शुरू की थी, पर 5 साल हुए भी नहीं कि शौचालयों की जगह मंदिरों ने ले ली है. अब सरकार को मंदिरों की पड़ी है. कहीं राम मंदिर बन रहा है, कहीं सबरीमाला की इज्जत बचाई जा रही है. कहीं चारधाम को दोबारा बनाया जा रहा है, कहीं करतारपुर कौरिडोर का उद्घाटन हो रहा है.

भाजपा सरकार के आने से पहले 19 नवंबर को 2013 से संयुक्त राष्ट्र संघ ‘वर्ल्ड टौयलेट डे’ मनाने लगा है, जब नरेंद्र मोदी का अतापता भी न था. दुनियाभर में खुले में पाखाना फिरा जाता है, पर भारत इस में उसी तरह सब से आगे है जैसे मंदिरों, मठों में सब से आगे है. भारत की 60-70 करोड़ से ज्यादा आबादी खुले में पाखाना फिरने जाती है और कहने को लाखों शौचालय बन गए हैं, पर पानी की कमी की वजह से अब तो वे जानवरों को बांधने या भूसा भरने के काम में आ रहे हैं.

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शहरों के आसपास कहींकहीं चमकदार शौचालय बन गए हैं, पर अभी पिछले सप्ताह से दिल्ली के ही अमीर बाजारों कनाट प्लेस और अजमल खां रोड पर दीवारों पर पेशाब के ताजे निशान दिख रहे थे. ये दोनों इलाके भाजपा समर्थकों से भरे हैं. हर दुकानदार ने अपनी दुकान में एक छोटा मंदिर बना रखा है, हर सुबह बाकायदा एक पंडा पूजा करने आता है. हर थोड़े दिन के बाद लंगर भी लगता है. पर वर्ल्ड टौयलेट और्गेनाइजेशन बनी थी सिंगापुर में जहां के एक व्यापारी ने ही 2001 में इसे शुरू किया था. सिंगापुर दुनिया का सब से ज्यादा साफ शहर माना जाता है. वहां हर जने की आय दिल्ली के व्यापारियों की आय से भी 30 गुना ज्यादा है. वहां मंदिर न के बराबर हैं. हिंदू तमिलों के मंदिर जरूर दिखते हैं और उन के सामने बिखरी चप्पलें भी और जमीन पर तेल की चिक्कट भी.

सड़क पर पड़ा पाखाना कितना खतरनाक है, इस का अंदाजा इस बात से लगाइए कि 1 ग्राम पाखाने में 10 लाख कीटाणु होते हैं और जहां पाखाना खुले में फिरा जाता है, वहां बच्चे ज्यादा मरते हैं.

भारत सरकार ने खुले में शौच पर जीत पा लेने का ढोल पीट दिया है पर लंदन से निकलने वाली पत्रिका ‘इकौनोमिस्ट’ ने इस दावे को खोखला बताया है. अभी 2 माह पहले ही तो मध्य प्रदेश में 2 बच्चों की पिटाई घर के सामने पाखाना फिरने पर हुई है, वह भी भरी बस्ती में जहां पिछड़ी और दलित जातियों के लोग रहते हैं. मारने वाले का कहना था कि दलितों की हिम्मत कैसे हुई कि उन से ऊंचे पिछड़ों के घरों के सामने फिरने जाए. पिछड़ों की हालत भी ज्यादा बेहतर नहीं हुई है, क्योंकि लाखों बने शौचालयों में पानी ही नहीं है.

यह ढोल जो 2 अक्तूबर को पीटा गया था, यह तो 5,99,000 गांवों के खुद की घोषणा पर टिका था. अब जब शौचालय के मिले पैसे सरपंच ने डकार लिए हों तो वह कैसे कहेगा कि खुले में पाखाना हो रहा है.

जब तक गांवों में घरघर पानी नहीं पहुंचेगा, जब तक सीवर नहीं बनेंगे, खुले में पाखाना होगा ही. दिल्ली की ही 745 बस्तियों में अभी भी सीवर कनैक्शन नहीं है तो 5,99,000 गांवों में से कितनों में सीवर होगा?

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क्या नागरिकता संशोधन कानून को लागू करने से बच सकती हैं गैर भाजपाई सरकारें ?

असम में विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया है. यहां कई इलाकों में कर्फ्यू लगाना पड़ा है. कर्फ्यू के बाद भी प्रदर्शकारी सड़कों पर आए. असम से उठे विरोध प्रदर्शन की आग बंगाल तक पहुंच गई. बंगाल में शनिवार को पांच रेलगाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया. कई जगहों पर आगजनी की गई. दिल्ली में भी जामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने प्रदर्शन किया. प्रदर्शनकारियों और पुलिस को बीच हिंसक झड़पें भी हुईं.

केंद्र सरकार ने इस कानून को रुप तो दे दिया लेकिन एक प्रश्न सबके दिमाग में आ रहा है. वो ये हैं कि क्या गैर भाजपाई सरकारें इस बिल को अपने प्रदेश में लागू करेंगी या नहीं. क्योंकि पं बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, मध्य प्रदेश में सीएम कमलनाथ, पंजाब की कैप्टन की सरकार सभी ने इसको लागू करने से मना कर दिया है लेकिन गृह मंत्रालय के अधिकारी ने इसका राज बताया है. उनका दावा है कि राज्य सरकारों को इसे लागू करना पड़ेगा.

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गृह मंत्रालय के एक उच्च अधिकारी बताया कि क्योंकि इसे संविधान की 7वीं अनुसूचि के तहत सूचिबद्ध किया गया है, इसलिए राज्य सरकारों के पास इसे अस्वीकार करने का अधिकार नहीं है.गृह मंत्रालय के अधिकारी ने यह बयान उस समय दिया, जब पश्चिम बंगाल, पंजाब, केरल, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ने इस कानून को असंवैधानिक बताया और अपने राज्यों में इसे लागू नहीं करने की बात कही. गृह मंत्रालय के अधिकारी ने बताया, ‘केंद्रीय कानूनों की सूची में आने वाले किसी भी कानून को लागू करने से राज्य सरकार इनकार नहीं कर सकती हैं.’ उन्होंने बताया कि यूनियन सूची के 7वें शेड्यूल के तहत 97 चीजें आती हैं, जैसे रक्षा, बाहरी मामले, रेलवे, नागरिकता आदि.

संशोधित विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद कानून बन चुका है लेकिन, इस पर देशव्यापी स्तर पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कई मुख्यमंत्रियों ने इसे असंवैधानिक बताया है. पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह इस संबंध में अपने रुख को स्पष्ट करने वाले पहले व्यक्तियों में से हैं. उन्होंने गुरुवार को कहा कि उनकी सरकार राज्य में कानून को लागू नहीं होने देगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे मुखर आलोचकों में से एक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनर्जी ने यह स्पष्ट किया है कि वह अधिनियम को अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगी. उन्होंने इससे पहले कहा था कि एनआरसी को पश्चिम बंगाल में अनुमति नहीं दी जाएगी.

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चुनावी रणनीतिकार व जद (यू) उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने शुक्रवार को लगातार तीसरे दिन ट्वीट कर नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की. उन्होंने अपनी पार्टी के रुख के खिलाफ जाते हुए ट्वीट किया, “बहुमत से संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक पास हो गया. न्यायपालिका के अलावा अब 16 गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों पर भारत की आत्मा को बचाने की जिम्मेदारी है, क्योंकि ये ऐसे राज्य हैं, जहां इसे लागू करना है.”

उन्होंने आगे लिखा, “तीन मुख्यमंत्रियों (पंजाब, केरल और पश्चिम बंगाल) ने सीएबी और एनआरसी को नकार दिया है और अब दूसरे राज्यों को अपना रुख स्पष्ट करने का समय आ गया है.”

लोकवाणी: भूपेश चले रमन के पथ पर!

छत्तीसगढ़ में 15 वर्षों की डॉक्टर रमन सिंह, भाजपा सरकार के पश्चात कांग्रेस की भूपेश सरकार सत्तासीन हुई है. मगर कुछ फिजूल बेकार के मसले ऐसे हैं जिन पर भूपेश बघेल चाह कर भी  नकार नहीं पा रहे. अगर वह लीक तोड़कर नया काम करते हैं तो पता चलता कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ को नई दिशा दे सकते हैं, उनमें नई ऊर्जा है, कुछ नया करने का ताब है.

इसमें सबसे महत्वपूर्ण है डॉ रमन सिंह का रेडियो और आकाशवाणी से प्रतिमाह छत्तीसगढ़ की आवाम को संदेश देना और बातचीत करना. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी डॉ रमन सिंह की तर्ज पर “लोकवाणी” कार्यक्रम के माध्यम से आवाम से बात करते हैं जो सीधे-सीधे डॉ रमन सिंह की नकल के अलावा कुछ भी नहीं है.

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क्या यह अच्छा नहीं होता कि भूपेश बघेल और तरीका आम जनता से बातचीत करने के लिए  ईजाद करते. क्योंकि लोकवाणी का यह कार्यक्रम पूरी तरह फ्लाप और बेतुका  है. इसकी सच्चाई को जानना हो तो जिस दिन लोकवाणी का कार्यक्रम प्रसारित होता है उसे ग्राउंड पर जाकर, आप अपनी आंखों से देख लें . यह पूरी तरह से एक सरकारी आयोजन बन चुका है शासकीय पैसे पर, जिले के चुनिंदा जगहों पर व्यवस्था करके लोग सुनते हैं. आम आदमी का इससे कोई सरोकार दिखाई नहीं देता.

भूपेश बघेल की ‘लोकवाणी’!

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की मासिक रेडियो वार्ता लोकवाणी की पांचवी कड़ी का प्रसारण  आगामी 8 दिसम्बर, रविवार को होगा. व्यवस्था यह बनाई गई है कि लोकवाणी का प्रसारण छत्तीसगढ़ स्थित आकाशवाणी के सभी केन्द्रों, एफ.एम.चैनलों और राज्य के क्षेत्रीय न्यूज चैनलों से सुबह 10.30 से 10.55 बजे तक हो.

जिस तरह डॉ रमन सिंह के  समय में  सरकारी अमला  जनसंपर्क,  संवाद  प्रचार प्रसार करता था,  वैसा ही  नकल पुन:भदेस रुप, ढंग से  अभी किया जा रहा है.  कहा जा रहा है “-उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने समाज के हर वर्ग की भावनाओं, सवालों, और सुझावों से अवगत होने तथा अपने विचार साझा करने के लिए लोकवाणी रेडियोवार्ता शुरू की है.”

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लोकवाणी में इस बार का विषय ‘आदिवासी विकास: हमारी आस‘ रखा गया है. अच्छा होता लोकवाणी के नाम पर जो पैसा समय बर्बादी हो रही है और हाथ कुछ नहीं आ रहा, उससे अच्छा होता भूपेश बघेल अचानक कहीं पहुंच जाते और आम जन से चुपचाप बात कर निकल जाते!ऐसे मे उन्हें पता चल जाता कि जमीनी हकीकत क्या है. किसान, गरीब, मजदूर और मध्यमवर्ग का आदमी उनसे क्या कहना चाहता है उसे समझ कर  और बेहतरीन तरीके से छत्तीसगढ़ को आगे ले जा सकते हैं.

श्रेष्ठतम सलाहकार कहां है?

भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री शपथ लेने के पश्चात जो पहला काम किया था उनमें उनके संघर्ष के समय के सहयोगी  पत्रकार  विनोद वर्मा, रुचिर गर्ग  जैसे बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों को “मुख्यमंत्री का सलाहकार” नियुक्त करना था. इस सब के बाद ऐसा महसूस हुआ था कि डॉक्टर रमन सरकार की अपेक्षा भूपेश सरकार जमीन से ज्यादा जुड़ी होगी.

आम आदमी के जीवन संघर्ष, त्रासदी को भूपेश बघेल की सरकार संवेदनशीलता के साथ समझेगी और दूर करेंगी. जिस की सबसे पहली पहल किसानों के कर्ज माफी और 25 सौ रुपए क्विंटल धान खरीदी को लेकर की भी गई. मगर इसके पश्चात और इसके परिदृश्य में देखा जाए तो छत्तीसगढ़ के हालात अच्छे नहीं हैं, इस संवाददाता ने छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला के कृषि मंडी के कुछ किसानों से बात की, किसानों ने बताया कि” हालात ऐसे हैं कि जबरा मारता है और रोने भी नहीं देता” जैसे हालात छत्तीसगढ़ में किसानों के साथ  बन चुके हैं.

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जो धान पहले पंद्रह सौ 1600 रुपये कुंटल  में गांव में बिक जाता था अब पुलिसिया प्रशासनिक एक्शन के कारण कोई खरीदने को तैयार नहीं है . यह हालात देखकर लगता है कहां है मुख्यमंत्री महोदय के सलाहकार, कहां है अभी एक डेढ़ वर्ष पूर्व  के संघर्षकारी भूपेश बघेल, टी एस सिंह देव और उनकी टीम.

राम मंदिर पर फैसला मंडल पर भारी पड़ा  कमंडल

अयोध्या में राम मंदिर बनने से देश में अंधआस्था का कारोबार बढ़ेगा. इस से देश और समाज का लंबे समय तक भला नहीं होगा, क्योंकि जिन देशों में धार्मिक कट्टरपन हावी रहा है, वहां गरीबी और पिछड़ापन बढ़ा है. भारत की जीडीपी बढ़ोतरी 8 सालों में सब से नीचे के पायदान पर है. बेरोजगारी सब से ज्यादा बढ़ी है.

80 के दशक में अयोध्या में राम मंदिर की राजनीति गरम होनी तेज हो गई थी. उस समय केंद्र में सरकार चला रही कांग्रेस धर्म की राजनीति के दबाव में आ गई थी. तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पहले अयोध्या में राम मंदिर में पूजा के लिए ताला खुलवा दिया था, इस के साथ ही राम मंदिर शिलान्यास के लिए भी कोशिश तेज कर दी थी.

धर्म की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी को अपने लिए यह सही नहीं लग रहा था. ऐसे में भाजपा ने कांग्रेस से अलग हुए राजीव गांधी के करीबी विश्वनाथ प्रताप सिंह को समर्थन दिया और उन्होंने केंद्र में अपनी सरकार बनाई.

प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस बात का अंदाजा हो चुका था कि भाजपा धर्म की राजनीति कर रही है. ऐसे में वह बहुत दिन सरकार की सहयोगी नहीं रह पाएगी. भाजपा की धर्म की राजनीति को मात देने के लिए उन्होंने पिछड़ों और वंचितों को इंसाफ दिलाने के लिए मंडल कमीशन लागू कर दिया.

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मंडल कमीशन के लागू होने से अगड़ों बनाम पिछड़ों की गुटबाजी सामने आ गई. ऐसे में पिछड़े धर्म का साथ छोड़ कर मंडल कमीशन के फैसले के साथ खड़े हो गए. पिछड़ा वर्ग अब मुख्यधारा में आ गया. 40-50 फीसदी पिछड़े वर्ग को भाजपा भी छोड़ने को तैयार नहीं थी. ऐसे में पार्टी ने पिछड़े वर्ग के नेताओं को आगे किया.

30 अक्तूबर, 1990 को जब राम मंदिर बनाने के लिए कारसेवा आंदोलन की नींव पड़ी तो धर्म की राजनीति ने उत्तर प्रदेश में अपना गढ़ बना लिया. हिंदुत्व का उभार तेजी से शुरू हुआ.

धर्म की इस राजनीति को रोकने का काम पिछड़ी जातियों के नेता मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसों के कंधों पर आ गया. कारसेवा को सख्ती के साथ रोकने के चलते मुलायम सिंह यादव को मुसलिमों का मजबूत साथ मिला.

इस के बाद ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ की राजनीति के बीच दलितों में भी जागरूकता आई. दलितों की अगुआ बहुजन समाज पार्टी द्वारा की गई दलित और पिछड़ा वर्ग की राजनीति ने सवर्ण राजनीति को प्रदेश से बाहर कर दिया.

साल 1990 से साल 2017 के बीच यानी 27 साल में केवल 2 मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह और राम प्रकाश गुप्ता ही सवर्ण जाति के मुख्यमंत्री बने. इन का कार्यकाल केवल 3 साल का रहा. बाकी के 24 साल उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ी जाति के मुख्यमंत्री राज करते रहे.

‘मंडल’ से उभरे पिछड़े

मंडल कमीशन लागू होने का सब से बड़ा असर हिंदी बोली वाले प्रदेशों दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ. यहां की राजनीति में पिछड़ों का बोलबाला दिखने लगा.

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सवर्ण जातियों की अगुआई करने वाली भाजपा को अपने जातीय समीकरण ‘ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया’ को छोड़ कर दलित, पिछड़ों और अति पिछड़ों को आगे करना पड़ा, तो भाजपा को मध्य प्रदेश में उमा भारती, उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को आगे कर के मंदिर की राजनीति को अहमियत देनी पड़ी.

मंदिर के बहाने इन पिछड़े नेताओं ने धर्म की राजनीति के सहारे भाजपा में खुद को मजबूत किया. आगे चल कर भाजपा में लंबे समय तक पिछड़ों की बादशाहत कायम रही.

साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा में पिछड़े नेताओं को दोबारा किनारे किया गया. अयोध्या के नायक कहे जाने वाले कल्याण सिंह को भाजपा छोड़ कर बाहर तक जाना पड़ा.

लेकिन, भाजपा से अलग देश की राजनीति में पिछड़ों को दरकिनार करना मुमकिन नहीं रह गया था.

उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पिछड़ी जातियों का उभार कुछ इस कदर हुआ कि सवर्ण जातियां पीछे चली गईं. राम के प्रदेश अयोध्या में तो दलित और पिछड़ा गठजोड़ पूरी तरह से हावी हो गया. इस में मुसलिमों के मिल जाने से प्रदेश में ऊंची जातियों की राजनीति खत्म सी हो गई थी.

नतीजतन, भाजपा ने दलितों और पिछड़ों को पार्टी से जोड़ना शुरू किया. यहां दलितों और पिछड़ों की अगुआई करने वाली बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी अपने लोगों को जोड़ने से चूक गई और भाजपा ने मौके का फायदा उठा कर दलितपिछड़ों को धर्म से जोड़ कर मुसलिम वोट बैंक को हाशिए पर डाल दिया.

धर्म के घेरे में दलितपिछड़े

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने जनाधार को मजबूत करने के लिए साल 2014 से दलितपिछड़ों को पार्टी से जोड़ना शुरू किया. धीरेधीरे दलित और पिछड़े धर्म की ओर झुकने लगे. ऐसे में दलित और पिछड़ी जातियां ‘मंडल’ के मुद्दों को दरकिनार कर ‘कमंडल’ की धर्म की राजनीति पर भरोसा जताना शुरू करने लगीं. यहीं से प्रदेश की राजनीतिक दिशा कमजोर होने लगी.

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धर्म को केंद्र में रख कर राजनीति करने वाली भाजपा को उत्तर प्रदेश में जबरदस्त समर्थन हासिल होने लगा. लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वोट का धार्मिक धु्रवीकरण शुरू किया. प्रदेश में हिंदुत्व का उभार साल 1992 के समय चक्र में वापस घूम गया. ऐसे में लोकसभा चुनाव के बाद साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला.

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व के उभार को देखते हुए भाजपा ने विकास के मुद्दे को वापस छोड़ कर धर्म के मुद्दे को हवा देना शुरू किया.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा को यह उम्मीद नहीं थी कि हिंदुत्व का मुद्दा कारगर साबित होगा, इसलिए चुनाव के पहले योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया गया था.

चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को जब मुख्यमंत्री बनाया, तो भी हिंदुत्व के मुद्दे पर इतना भरोसा नहीं था. यही वजह थी कि उपमुख्यमंत्री के रूप में भाजपा ने ब्राह्मण जाति से डाक्टर दिनेश शर्मा और अति पिछड़ी जाति से केशव प्रसाद मौर्य को चुना.

पर, बाद में उत्तर प्रदेश में जिस तरह से योगी आदित्यनाथ को लोगों ने पसंद किया और 2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में भाजपा की वापसी हुई, उस के बाद हिंदुत्व को हिट फार्मूला मान लिया गया.

हिंदुत्व की गोलबंदी

हिंदुत्व की कामयाब गोलबंदी करने के बाद भाजपा राम मंदिर की राह पर आगे बढ़ गई. अब भाजपा को यह सम झ आ चुका था कि दलित और पिछड़े जाति नहीं धर्म के मुद्दे पर चल रहे हैं. ऐसे में भाजपा को उत्तर प्रदेश में पकड़ बनाए रखने के लिए राम मंदिर पर बड़ा फैसला लेना जरूरी हो गया था.

भाजपा पर यह आरोप लग रहा था कि वह राम मंदिर की राजनीति कर के खुद तो सत्ता की कुरसी हासिल कर चुकी है और अयोध्या में रामलला तंबू में रह रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद भाजपा की अब रणनीति यह है कि साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले राम मंदिर बनना शुरू हो जाए और साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर बन कर तैयार हो जाए. इस बीच अयोध्या को भव्य धर्मनगरी बनाने के लिए काम चलता रहे.

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मोदी और योगी

नरेंद्र मोदी भी अयोध्या मसले से चर्चा में आए थे. साल 2002 में अयोध्या से शिलादान कार्यक्रम से वापस आते कारसेवकों पर ट्रेन के डब्बे पर हमला हुआ था. इस को गोधरा कांड के नाम से जाना जाता है. गोधरा कांड के बाद ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के नए सियासी नायक के रूप में उभरे.

दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में धार्मिक आस्था को जनजन तक पहुंचाने के लिए हिंदू त्योहारों को बड़े रूप में मनाने का काम किया. कुंभ ही नहीं, बल्कि कांवड़ यात्रा तक को अहमियत दी गई. अयोध्या में भव्य दीपोत्सव और राम की मूर्ति लगाने का संकल्प भी इस का हिस्सा बना.

साल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद जब नरेंद्र मोदी दोबारा केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हुए तो राम मंदिर आंदोलन को पूरा करने की कोशिश तेज कर दी.

अब अयोध्या के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद केंद्र सरकार के लिए मंदिर बनाना कामयाब हो गया है.

साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव भी राम मंदिर के मुद्दे पर लड़े जाएंगे.

हाशिए पर धर्मनिरपेक्षता

धर्म की राजनीति ने देश में कट्टरपन को बढ़ावा दिया है. धार्मिक कट्टरता के असर में धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्र विरोधी मान लिया गया है.

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धार्मिक निरपेक्षता की बात करने वाले राजनीतिक दल मुखर विरोध करने की हैसियत में नहीं रह गए हैं. 80 के दशक में जो हालत भाजपा की थी, उस में अब बाकी दल शामिल हो गए हैं. कट्टरपन ने देश के माहौल को बिगाड़ा है. धर्म की राजनीति इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है. धर्म की राजनीति देश के भविष्य के लिए खतरनाक है.

पूरी दुनिया के देशों को देखें तो विकास वहीं हुआ है, जहां कट्टरपन कम रहा है. भारत के 2 पड़ोसी देश पाकिस्तान और बंगलादेश की तुलना करें तो कम कट्टर बंगलादेश ने ज्यादा तरक्की की है.

हालांकि सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट कट्टरपन तानाशाही में बदल गया था, जिस के बाद वहां बंटवारे के हालात बन गए. जो सोवियत संघ एक समय में अमेरिका के साथ खड़ा हो कर दुनिया की नंबर वन की रेस में शामिल था, पर अपने कट्टरपन के चलते अमेरिका से विकास की दौड़ में कई साल पीछे चला गया.

मिडिल ईस्ट के देशों में इराक, ईरान, सीरिया, लेबनान जैसे देश धार्मिक कट्टरपन में सुलग रहे हैं. माली तौर पर मजबूत होने के बाद भी वे पिछड़े हुए हैं. इस की वजह यही है कि वहां धार्मिक कट्टरपन आगे नहीं बढ़ने दे रहा है.

भारत अपने धार्मिक कट्टरपन में जिस राह पर चल रहा है, वहां से वापस आना आसान नहीं है.

धार्मिक कट्टरपन के बहाने विकास, रोजगार के मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया गया है.

इतना ही नहीं, देश की माली हालत और बेरोजगारी सब से खराब हालत में है. चुनाव जीतने के लिए जहां तरक्की और रोजगार की बात होनी चाहिए, वहां धर्म के आधार पर वोट लेने के लिए धार्मिक मुद्दों का सहारा लिया जाता है. करतारपुर कौरिडोर और राम मंदिर को ही विकास का रोल मौडल माना जा रहा है.

साल 1992 के बाद उत्तर प्रदेश में रोजगार की हालत पर अगर सरकार एक श्वेतपत्र जारी कर दे तो हालात पता चल जाएंगे. उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहरों में शामिल कानपुर, आगरा, फिरोजाबाद, अलीगढ़, मुरादाबाद, वाराणसी और सहारनपुर में चमड़ा, कांच, ताला, पीतल, बनारसी साड़ी और लकड़ी का कारोबार बुरे दौर में है.

ये उद्योगधंधे कभी प्रदेश की पहचान हुआ करते थे. सरकार अब इन को आगे बढ़ाने के बजाय धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दे रही है.

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आज यह बात आम लोगों को सम झाई जा रही है कि राम मंदिर बनने से प्रदेश में पर्यटन बढ़ जाएगा, बेरोजगारी खत्म हो जाएगी. यह बात वैसे ही है, जैसे नोटबंदी के बाद यह कहा जा रहा था कि इस से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा.

पौलिटिकल राउंडअप: भाजपा की बढ़ी मुसीबत

लोक जनशक्ति पार्टी के ताजातरीन राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद चिराग पासवान ने सुर बदलते हुए ऐलान किया कि लोजपा आगामी झारखंड विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ेगी और पार्टी 50 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम की लिस्ट जारी कर देगी.

इस ऐलान से पहले लोजपा ने झारखंड में राजग के सहयोगी के तौर पर 6 सीटें मांगी थीं, लेकिन 10 नवंबर को भाजपा ने अपने 52 उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी थी.

झारखंड में राजग के एक और सहयोगी दल आल झारखंड स्टूडैंट यूनियन ने बिना भाजपा से चर्चा किए 12 सीटों पर अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया था.

वैसे, भाजपा को जिद पर न अड़े रहने की कला अच्छी तरह आती है. यदि दक्षिणा कम मिले तो वह कम से भी काम चला लेती है.

हवा में उड़ते विजय रूपाणी

अहमदाबाद. जहां एक तरफ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल महिलाओं को सरकारी बसों में मुफ्त सफर करवा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ गुजरात की भाजपा सरकार ने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और दूसरे वीवीआईपी लोगों की यात्रा के लिए तकरीबन 191 करोड़ रुपए का हवाईजहाज खरीदा है.

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इस हवाईजहाज में एकसाथ 12 लोग सफर कर सकते हैं और इस की फ्लाइंग रेंज तकरीबन 7 हजार किलोमीटर है. इसे कनाडा के क्यूबेक इलाके की बोम्बार्डियर कंपनी ने बनाया है.

191 करोड़ रुपए कोई मामूली रकम नहीं है. अगर इसे जनता की भलाई के लिए खर्च किया जाता तो ज्यादा बेहतर रहता. जब पुजारियों के लिए अरबोंखरबों रुपए के मंदिर बन सकते हैं तो पुजारियों के रखवाले मुख्यमंत्री के लिए यह बड़ी रकम नहीं है, चाहे मेहनतमजदूरी करने वालों की जेब से जाए.

‘आप’ ने किया हमला

नई दिल्ली. विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आते ही आम आदमी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी को घेरना शुरू कर दिया है. उस ने आरोप लगाया है कि भाजपा दिल्ली की कच्ची कालोनियों में रहने वाले लोगों को धोखा दे रही है. उस का कच्ची कालोनी में रहने वाले लोगों को रजिस्ट्री देने का कोई इरादा नहीं है, जबकि मनोज तिवारी मानते हैं कि ‘आप’ गुमराह कर रही है.

इस मसले पर आप नेताओं संजय सिंह और गोपाल राय ने कहा कि केंद्र सरकार का यह ऐलान पुरानी सरकारों के वादों की तरह ही छलावा साबित होता नजर आ रहा है, जबकि पिछले 4 साल में दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने कच्ची कालोनियों को पक्का करने के लिए केंद्र सरकार पर खूब दबाव बनाया है और केंद्र को प्रस्ताव भी भेजा था, लेकिन कच्ची कालोनियों में रजिस्ट्री करने का भाजपा का कोई इरादा ही नहीं है.

रजिस्ट्री कार्यालय गरीब पिछड़ों को मुफ्त में पक्के मकान की पक्की रजिस्ट्री कभी देगा, यह भूल जाएं. हर मामले में बीसियों अड़चनें लगा कर दोष आधे पढ़ेलिखे बैकवर्डों और दलितों पर मढ़ दिया जाएगा कि कागज पूरे नहीं.

दिया सुप्रीम फैसला

बैंगलुरु. मामला कर्नाटक का है, पर फैसला दिल्ली में हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल सैक्युलर के 17 अयोग्य विधायकों को राहत देते हुए उन्हें 5 दिसंबर को होने वाला उपचुनाव लड़ने की इजाजत दे दी है.

बता दें कि विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने विधानसभा में एचडी कुमारस्वामी सरकार के विश्वास प्रस्ताव से पहले ही 17 बागी विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया था. इस के बाद विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने में नाकाम रहने पर कुमारस्वामी की सरकार ने इस्तीफा दे दिया था. नतीजतन, भाजपा के बीएस येदियुरप्पा की अगुआई में राज्य में नई सरकार बनी थी.

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इस नए फैसले से भाजपा की चुनौतियां बढ़ गई हैं. येदियुरप्पा सरकार को सत्ता में बने रहने के लिए 17 में से 15 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में हर हाल में 6 सीटें जीतना जरूरी हो गया है, चाहे 15 बागी विधायक उस के पाले में आ गए हैं.

अक्तूबर में हुए उपचुनावों में आमतौर पर दलबदलुओं की हार हुई है. गुजरात तक में अल्पेश ठाकुर हार गया, जो कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में चला गया था.

ओवैसी के खिलाफ शिकायत

भोपाल. हैदराबाद के तेजतर्रार मुसलिम नेता और सांसद असदुद्दीन ओवैसी बाबरी मसजिद और राम मंदिर मसले पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाखुश दिखे. 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के मंदिर के पक्ष में लिए गए फैसले के बाद उन्होंने कहा था कि यह मेरी निजी राय है कि हमें मसजिद के लिए  5 एकड़ की जमीन के औफर को खारिज कर देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम जरूर है, लेकिन इनफिलेबल यानी अचूक नहीं है. मेरा सवाल है कि अगर 6 दिसंबर, 1992 को मसजिद न ढहाई जाती तो क्या सुप्रीम कोर्ट का यही फैसला होता?

असदुद्दीन ओवैसी के ऐसे बयान के खिलाफ वकील पवन कुमार यादव ने जहांगीराबाद पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई और आरोप लगाया कि ओवैसी ने अयोध्या मसले पर उकसाने वाला बयान दिया और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की.

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इस शिकायत से ओवैसी का कुछ बिगड़े या न बिगडे़, पर ये वकीलजी जरूर सुर्खियों में आ गए.

जयराम रमेश की चिंता

गुवाहाटी. कांग्रेस के ‘थिंक टैंक’ और दिग्गज नेता जयराम रमेश बड़ी चिंता में हैं और भाजपा सरकार की कारगुजारियों से इतने नाराज हो गए हैं कि उन्होंने 13 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर आरोप लगाया कि वे ‘प्रवर्तन निदेशालय’, ‘सीबीआई’ और ‘आयकर विभाग’ के ‘त्रिशूल’ का इस्तेमाल अपने विरोधियों पर कर रहे हैं.

जयराम रमेश का मानना है, ‘मोदी और अमित शाह को अपने विरोधियों के खिलाफ नया शस्त्र ‘त्रिशूल’ मिल गया है. उस ‘त्रिशूल की 3 नोकें ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग हैं. वे अपने विरोधियों पर चोट करने के लिए इन्हीं 3 नोकों का इस्तेमाल करते रहते हैं.’

भाजपा ने जयराम रमेश को नेहरू मैमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी से निकाल दिया था. तब उन्होंने केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा था कि यह लाइब्रेरी अब नागपुर मैमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी बन गई है.

मच गया बवाल

कोलकाता. ‘बुलबुल’ नाम के चक्रवाती तूफान की मार खाए पश्चिम बंगाल में सियासी तूफान भी जोर मार रहा है. वहां ममता बनर्जी और अमित शाह के बीच छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है. इसी सियासी बवाल में 13 नवंबर को कोलकाता में पुलिस और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच दोबारा तनातनी हो गई. भीड़ को तितरबितर करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और भाजपा नेता रिमझिम मित्रा को हिरासत में ले लिया.

इतना ही नहीं, जब केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद बाबुल सुप्रियो चक्रवात ‘बुलबुल’ से प्रभावित इलाकों का दौरा करने निकले तो तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने उन्हें काले झंडे दिखाए.

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