यहां सत्ता की खनक की गुंज, गली गली में गूंज रही है. जिसका सबसे बड़ा असर नगरीय निकाय चुनाव में देखने को मिल रहा है .सन 1999 में अविभाजित मध्यप्रदेश के दरम्यान पहला नगरीय निकाय चुनाव हुआ था और अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी मुख्यमंत्री थे दिग्विजय सिंह.
उस समय चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से हुआ था. मतदाताओं ने महापौर, अध्यक्ष, सरपंच और पार्षदों के चुनाव प्रत्यक्ष पृणाली से मतदान करके किया था. तदुपरांत 2004,2009, 2014 तक चुनाव भाजपा के शासन काल में भी इसी प्रत्यक्ष प्राणाली से हुए .इस चुनाव का लाभ यह था की जहां महापौर, अध्यक्ष सीधे मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी का एहसास कराते हैं वहीं राजनीतिक खरीदी बिक्री की संभावना भी खत्म हो जाती है. सत्ता की प्रेशर की राजनीति पर अंकुश लगता है मगर छत्तीसगढ़ में नई परिपाटी शुरू की है उन्होंने एक्ट मैं बदलाव किए और अबकि चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से हुए जिसमें पार्षद ही अपने महापौर चुनेंगे अध्यक्ष चुनेंगे. ऐसे में खरीदी बिक्री और राजनीतिक बवंडर दिखाई पड़ने लगे हैं.
कांग्रेस का सूपड़ा साफ !
मुख्यमंत्री बन कर भूपेश बघेल ने सबसे बड़ा काम यही किया की अपनी साख बचाने के लिए नगरीय निकाय चुनाव को आखिरकार अप्रत्यक्ष प्राणाली से कराने का ऐलान कर दिया .इस पर उनकी कश्मकश देखी गई पहले कहा प्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव होंगे लोग महापौर पद की तैयारी में जुट गए .मगर विपक्षी नेताओं का आरोप है जब भूपेश बघेल को यह सीक्रेट जानकारी मिली कि प्रत्यक्ष चुनाव हुए तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो जाएगा तो उन्होंने अपनी साख हाईकमान से बचाने की खातिर चुनाव की पद्धति बदलवा दी.