नौजवानों की उम्मीदें हेमंत सोरेन से

झारखंड के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने युवा हेमंत सोेरेन से अगर किसी को बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं, तो वे नौजवान और छात्र हैं, जो भाजपा राज में रोजगार और तालीम के बाबत हिम्मत हार चुके थे. इन्हीं नौजवानों के वोटों की बदौलत  झारखंड मुक्ति मोरचा यानी  झामुमो और कांग्रेस गठबंधन को विधानसभा चुनाव में बहुमत मिला है.

15 जनवरी, 2020 को रांची में हेमंत सोरेन से उन के घर मिलने वालों का तांता लगा हुआ था, जिन में खासी तादाद नौजवानों की थी. इन में एक ग्रुप ‘आल इंडिया डैमोक्रैटिक स्टूडैंट और्गेनाइजेशन’ का भी था.

इस ग्रुप की अगुआई कर रहे नौजवान शुभम राज  झा ने बताया कि 11वीं के इम्तिहान में मार्जिनल के नाम पर कई छात्रछात्राओं को फेल कर दिया गया है, जो सरासर ज्यादती वाली बात है.

शुभम राज  झा के साथ आए दिनेश, सौरभ, जूलियस फुचिक, घनश्याम, उषा और पार्वती ने बताया कि उन्हें मुख्यमंत्री से काफी उम्मीदें हैं कि वे उन की ऐसी कई परेशानियों को दूर करेंगे.

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हेमंत सोरेन को तोहफे में देने के लिए ये छात्र कुछ किताबें साथ लाए थे, क्योंकि मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ही उन्होंने कहा था कि उन्हें बुके नहीं, बल्कि बुक तोहफे में दी जाएं.

हेमंत सोरेन ने इन छात्रों की परेशानी संजीदगी से सुनी और तुरंत ही शिक्षा विभाग के अफसरों को फोन कर कार्यवाही करने के लिए कहा तो इन छात्रों के चेहरे खिल उठे कि अब एक साल बरबाद होने से बच जाएगा.

बातचीत में इन छात्रछात्राओं ने बताया कि उन्हें मुख्यमंत्री का किताबें व पत्रपत्रिकाएं पढ़ने और लाइब्रेरी खोलने का आइडिया काफी पसंद आया है और अब वे भी खाली समय में किताबें और पत्रपत्रिकाएं पढ़ेंगे.

नौजवानों पर खास तवज्जुह

मुख्यमंत्री बनते ही हेमंत सोरेन ने तालीम पर खास ध्यान देने की बात कही थी. यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि  झारखंड तालीम के मामले में काफी पिछड़ा है. कई स्कूल तो ऐसे हैं, जहां या तो टीचर नहीं जाते या फिर छात्र ही जाने से कतराते हैं, क्योंकि स्कूलों में पढ़ाई कम मस्ती ज्यादा होती है.

हालात तो ये हैं कि झारखंड के 80 फीसदी स्कूलों की हालत हर लिहाज से बदतर है. चुनाव के पहले एक सर्वे में यह बात उजागर हुई थी कि कई स्कूलों के कमरे तो इतने जर्जर हो चुके हैं कि छात्रों को पेड़ों के नीचे बैठ कर पढ़ाई करनी पड़ रही है. ज्यादातर स्कूलों में शौचालय नहीं हैं और पीने के पानी तक का इंतजाम नहीं है.

इस बदहाली के बाबत जब हेमंत सोरेन से पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि इस बदइंतजामी को वे एक साल में ठीक कर देंगे. पिछली भाजपा सरकार के कार्यकाल में स्कूलों और पढ़ाई की बुरी गत तो हुई है, जिसे जल्द ही दूर कर लिया जाएगा.

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इस के अलावा हेमंत सोरेन ने बताया कि नौजवानों को रोजगार मुहैया कराना हमारी प्राथमिकता है. इस बाबत भी कोई सम झौता नहीं किया जाएगा, क्योंकि एक वक्त में (जब  झारखंड बिहार में था) तब यहां के छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं में टौप किया करते थे.

हेमंत सोरेन की लाइब्रेरी बनाने की मंशा यही है कि नौजवानों में किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने की आदत फिर से बढ़े और वे तालीम में अव्वल रहें. वे कहते हैं कि इस में सभी को अपने लैवल पर सहयोग करना चाहिए. इस से राह आसान हो जाएगी.

इस में कोई शक नहीं कि न पढ़ना पिछड़ेपन की एक बड़ी वजह है, जिस पर हेमंत सोरेन का ध्यान शिद्दत से गया है.

अब देखना दिलचस्प होगा कि अपने इस मकसद में वे कितने कामयाब हो पाते हैं, लेकिन यह भी सच है कि बुके की जगह बुक का उन का आइडिया न केवल  झारखंड, बल्कि देशभर में पसंद किया जा रहा है.

जाति की वकालत करता नागरिकता संशोधन कानून

लेखक- कुशलेंद्र श्रीवास्तव

जाहिर है कि यह कानून सब को मंजूर नहीं है. इसे ले कर विपक्ष में तो असंतोष है ही, साथ ही देश के कुछ राज्यों में भी असंतोष फैला हुआ है. जनता के इस विरोध ने यह साबित कर दिया है कि हर समय लच्छेदार भाषणों से जनता को नहीं बरगलाया जा सकता.

नोटबंदी और जीएसटी कानून के बाद आर्थिक मंदी की मार  झेल रही केंद्र सरकार जनता को असली मुद्दों से भटका कर हिंदुत्व के अपने एजेंडे पर चल कर पीछे के दरवाजे से वर्ण व्यवस्था को वापस लाना चाहती है.

राम मंदिर जैसे मसलों पर धार्मिक भावनाएं भड़का कर देश के हिंदूमुसलिम समाज के बीच अलगाव पैदा करने की कोशिश की जा रही है, क्योंकि भाजपाई पुजारियों की असली कमाई इन्हीं मंदिरों से ही होती है.

संसद से पास नागरिकता संशोधन कानून अफगानिस्तान, बंगलादेश और पाकिस्तान से भारत में आए गैरमुसलिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की बात करता है. इन तीनों देशों को इसलिए रखा गया है, क्योंकि ये तीनों देश धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं. पाकिस्तान और बंगलादेश तो साल 1947 तक भारत का हिस्सा थे और अफगानिस्तान तकरीबन भारत का सांस्कृतिक हिस्सा था. तीनों ही अब इसलामिक देश हैं.

यह कानून साल 1955 में पास नागरिकता कानून को संशोधित कर उन हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई और पारसियों को भारत की नागरिकता के योग्य बना देगा, जो अफगानिस्तान, बंगलादेश और पाकिस्तान से भारत आए हैं.

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यह अधिकार 31 दिसंबर, 2014 तक उन सभी लोगों पर लागू होगा, जो इस मीआद तक भारत में आ चुके हैं.

नागरिकता संशोधन कानून में लिखा है कि भारत की नागरिकता उन्हें ही दी जाएगी, जो 5 सालों से भारत में रह रहे हैं और अपने देशों में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हैं.

इस कानून के पास होने के पहले तक भारत की नागरिकता केवल उन्हीं लोगों को मिलती थी, जिन का जन्म भारत में हुआ हो या उन के पुरखे भारत के नागरिक हों या वे कम से कम 12 साल से भारत में रह रहे हों.

इस कानून की धारा 7 में एक उपधारा डी भी शामिल की गई है, जिस के मुताबिक अगर भारत का कोई ओवरसीज कार्ड है और उस ने नागरिकता कानून या किसी दूसरे कानून का उल्लंघन किया है, तो उस की ऐसी नागरिकता खारिज कर दी जाएगी.

इस सरकार ने यह मान लिया है कि मुसलिम बहुल देशों में अल्पसंख्यकों यानी हिंदुओं पर जोरजुल्म हो रहे हैं. वे अपनी जान बचा कर भारत की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं. इन देशों के बहुत से शरणार्थी भारत में रह भी रहे हैं.

नागरिकता संशोधन कानून ने अनेक सवालों को जन्म दे दिया है. इस का मतलब है कि बदले में हमें अपने अल्पसंख्यकों, मुसलिमों से भेदभाव करने का हक है और हम उन पर जोरजुल्म करें तो गलत न होगा. लिहाजा, यह भेदभाव फैलाने वाला कानून है.

हिंदुत्व की छाप

भाजपा हिंदुत्व की पहचान के रूप में जानी जाती है. नरेंद्र मोदी की अगुआई में जब भाजपा ने साल 2014 में केंद्र में अपनी सरकार बनाई तो उस के सामने वोटरों को लुभाने के लिए दिए गए आश्वासनों का भारी पिटारा था, जिसे वे अपने पहले कार्यकाल में ही पूरा कर लेना चाहते थे, पर उस कार्यकाल में उन के पास लोकसभा में खुद का बहुमत नहीं था और न ही राज्यसभा में. ऐसे में वे चाहते हुए भी अपने एजेंडे पर काम नहीं कर पाए थे.

तब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने देश के विभिन्न राज्यों में अपनी सरकार बनाने का लक्ष्य रखा और तकरीबन 72 फीसदी इस टारगेट को हासिल भी कर लिया और खुद के ही सांसदों की संख्या को तय बहुमत के पार पहुंचा दिया. इस जीत ने उन का मनोबल भी बढ़ाया और अपने एजेंडे को पूरा करने का मौका भी पा लिया.

कश्मीर से धारा 370 हटाना भाजपा का पहला कदम था. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण भी उन के लक्ष्य में शामिल था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पूरा कर दिया. एनआरसी पर तो वे पहले ही काम शुरू कर चुके थे और अब सारे देश को इस में शामिल करने का ऐलान भी वे कर चुके हैं. नागरिकता संशोधन विधेयक को पास करना भी उन के सपनों के पूरा हो जाने जैसा है.

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भाजपा आम वोटरों के बीच बनी अपनी हिंदुत्ववादी और राष्ट्रवादी इमेज को गहरा करना चाहती है, ताकि उस का वोट बैंक और भी मजबूत बना रहे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी चाहता है कि भारत एक ‘हिंदू राष्ट्र’ बने.

नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 को दोनों सदनों में पास कराने के बाद भाजपा ने इस दिशा में अपने मजबूत कदम आगे बढ़ा दिए हैं, ऐसा माना जा सकता है.

कश्मीर से धारा 370 हटाई जा चुकी है और राम मंदिर के लिए सुप्रीम कोर्ट के बेसिरपैर के फैसले से रास्ता साफ कर दिया गया है.

इस नागरिकता संशोधन कानून में गैरमुसलिम शरणार्थियों को नागरिकता दे कर वे हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के लोगों को नागरिकता दे कर अपना वोट बैंक मजबूत करेंगे ही, साथ ही यहां के मुसलिमों पर हिंदू विरोधी होने की मोहर भी लगा देना चाहेंगे.

पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान में रहने वाले हिंदू अगर वहां सताए जाते हैं, तो वे भारत नहीं आएंगे तो और कहां जाएंगे. वैसे, इस में यह सवाल भी सामने आता है कि इन तीनों देशों में रहने वाले हिंदू क्या असल में सताए जाते रहे हैं? तो क्या सत्तारूढ़ दल केवल अपने वोट बैंक के लिए इस देश को ऐसे हालात में ले जा रहा है जहां से उबरना उस के लिए मुश्किल ही साबित होगा?

पाकिस्तान में रहने वाले बंटवारे के समय भारत से गए मुसलिम पाकिस्तान में ‘मुजाहिर’ कहे जाते हैं और उन के साथ दूसरे दर्जे का बरताव ही किया जाता है. इस के अलावा शिया मुसलिमों को भी कट्टरपंथी सुन्नी समुदाय अपने गुस्से का शिकार बनाता है. क्या उन के भविष्य के बारे में सोचा जाना उचित नहीं होेता? वहां सिर्फ हिंदुओं के साथ ही नहीं, बल्कि मुसलिमों से भी भेदभाव हो सकता है, जैसा हमारे यहां पिछड़ों, दलितों, बौद्धों के साथ होता है.

सच तो यह भी है कि सरकार ने मुसलिम महिलाओं के लिए तीन तलाक का कानून पास करा कर मुसलिमों में अपनी अच्छी इमेज बनाने की पहल की थी. उस इमेज को इस कानून से नुकसान पहुंच सकता है.

वैसे, भाजपा को इस की ज्यादा चिंता है भी नहीं, क्योंकि महज 2-3 फीसदी नाराज मुसलिमों के चलते वह अपने एजेंडे को बदल नहीं सकती थी.

अब भाजपा के निशाने पर एनआरसी बिल रहेगा, जिसे पूरे भारत में लागू करना चाहते हैं. हालांकि नागरिकता संशोधन कानून का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उसे देखते हुए लग रहा है कि पूरे भारत से एनआरसी को लागू करना आसान नहीं होगा, क्योंकि अभी तो भाजपा को नागरिकता संशोधन कानून से पैदा हुए विरोध से ही निबटने में समय लगेगा.

विपक्ष इसे इतनी आसानी से शांत नहीं होने देगा. कालेजों में पढ़ने वाली नौजवान पीढ़ी, जिस तरह से अपने विरोध की आवाज को बाहर निकाल रही है उस से केंद्र को चिंतित होना चाहिए, क्योंकि नौजवानों के गुस्से को दबा पाना आसान नहीं होता.

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बहरहाल, इस कानून के जरीए केंद्र सरकार पाकिस्तान समेत दूसरे मुसलिम बहुल देशों को यह संदेश देने में कामयाब रही है कि भारत के दरवाजे उन के देशों में अत्याचार सहन कर रहे हिंदू अल्पसंख्यकों के लिए हमेशा खुले हैं और वह सीना ठोंक कर उन की मदद कर सकती है.

नागरिकता संशोधन कानून को ले कर भाजपाइयों के अपने तर्क हैं. गाडरवारा की विधायक रह चुकी और भाजपाई साधना स्थापक का कहना है कि भारत के दरवाजे किसी के लिए बंद नहीं हैं, पर हमारा मानना है कि आज हमारी प्राथमिकता उन हिंदुओं को नागरिकता देने की है, जो हिंदू होने के चलते इन देशों में सताए जा रहे हैं.

राज्यसभा सांसद कैलाश सोनी ने अपने जागरूकता अभियान में कहा कि कांग्रेस अपने फायदे के चलते हिंसा को बढ़ावा दे रही है, जबकि इस कानून से किसी भी जाति, धर्म के लोगों को कोई परेशानी नहीं होने वाली.

जिला नरसिंहपुर के भाजपा अध्यक्ष अभिलाष मिश्रा का भी यही कहना है कि पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान में वहां के हिंदू अल्पसंख्यकों को परेशान किया जाता है. वे भारत की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखते हैं. यह कानून उन्हें नागरिकता दे कर उन के भविष्य को संवारने का काम करेगा.

भाजपा इस बात पर ज्यादा जोर देती दिखाई दे रही है कि इस कानून से किसी को कोई नुकसान नहीं होने वाला, पर वह इस बात पर रोशनी नहीं डाल पा रही है कि इन तीनों देशों में अल्पसंख्यक न होने के बावजूद अगर मुसलिम सताया जाता है तो वह भारत की नागरिकता क्यों नहीं ले सकता?

भाजपा का जागरण अभियान तो चालू है, पर इस के बावजूद भारत को इस कानून के साइड इफैक्ट के लिए तैयार रहने की जरूरत है. इन सभी नेताओं के बयानों में हिंदूमुसलिम की बात है. हिंदू यानी कर्मकांडी हिंदू और मुसलिम यानी टोपी लगाने वाला नमाजी मुसलिम.

आखिर खिलाफत क्यों

नागरिकता संशोधन कानून का विरोध बड़े लैवल पर हो रहा है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 को बारबार रेखांकित किया जा रहा है. इस अनुच्छेद में समानता की बात कही गई है. विरोध करने वालों का मानना है कि जब समानता का अधिकार हमारा ही संविधान हमें देता है, तब गैरमुसलिम शरणार्थियों को नागरिकता देने की बात क्यों की जा रही है?

विदेशों में भी इसी आधार पर विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं. अमेरिका के ‘वैश्विक धार्मिक आयोग’ ने भी इस कानून का विरोध किया है. अमेरिकी आयोग ने भी अपना विरोध दर्ज कराया है.

इस सब के बीच भारत इस नए कानून का पालन कराने के लिए तैयारी कर चुका है. उस ने सारे विरोधों के प्रति अपनी असहमति देते हुए नए कानून को देश के लिए जरूरी करार दिया है.

भाजपा इस कानून के संबंध में लाख दलीलें दे, पर जमीनी सचाई यही है कि वह देश की जनता को धार्मिक मसलों में उल झा कर उन की जातीय भावनाओं को जाहिर करने का मौका दे रही है. हिंदू और मुसलिमों के बीच विवाद खड़ा कर के वर्ण व्यवस्था की वकालत कर के वह अपनी हिंदुत्व वाली इमेज को बनाए रखना चाहती है.

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आज देश में केंद्र सरकार जिस हिंदुत्व के एजेंडे पर काम कर रही है, उस में ‘मनुस्मृति’ अपनेआप ही आ जाती है. वर्ण व्यवस्था खुद ब खुद आ जाती है और जाति के आधार पर सजा का मापदंड जो ‘मनुस्मृति’ में लिखा है, ऐसी व्यवस्था को बढ़ाने वाली सरकार जो बाबा साहब अंबेडकर के संविधान की आड़ में मनुस्मृति को लागू करना चाहती है, तो उस सरकार से उम्मीद नहीं की जा सकती कि देश में महिलाओं और दलितों को समान अधिकार और सुरक्षा मिलेगी.

शहीद सिपाही रतन लाल क्यों रखते थे अभिनंदन जैसी मूंछें

दिल्ली के गोकुलपुरी (Gokulpuri) में तैनात दिल्ली पुलिस (Delhi Police) के कौंस्टेबल रतन लाल (Ratan Lal) न सिर्फ जिंदादिली में जीते थे, उन में गजब का साहस था.

24 फरवरी को वे अपने अन्य पुलिस कर्मियों के साथ ड्यूटी पर थे. दिल्ली के गोकुलपुरी क्षेत्र में तब सीएए के विरोध में प्रदर्शन चल रहा था. तभी उपद्रवियों ने तोङफोङ और पत्थरबाजी शुरू कर दी.

डटे रहे पर हटे नहीं

रतन लाल मुस्तैदी से डटे रहे. उन्होंने शांति से काम लिया और गुस्साई भीङ को समझाने की असफल कोशिश की. तभी एक उपद्रवी ने पीछे से उन के ऊपर पत्थर से हमला कर दिया. इस पत्थरबाजी में रतन लाल शहीद हो गए.

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हमला इतना सुनियोजित था कि उन्हें संभलने का मौका तक नहीं मिला.

इस घटना में अनेक पुलिसकर्मी घायल हुए हैं और एसीपी को गंभीर अवस्था में अस्पताल में भरती कराया गया है.

एक जाबांज सिपाही

नौर्थ ईस्ट, दिल्ली के ऐडिशनल डीसीपी बिजेंद्र यादव ने कहा,”रतन एक जाबांज सिपाही थे. वे साहसी थे और कठिन परिस्थितियों में भी मुसकराते रहते थे.”

राजस्थान के सीकर में जन्मे रतन लाल अपने 3 भाईबहनों में सब से बङे थे. उन्होंने साल 1998 में दिल्ली पुलिस में बतौर कौंस्टेबल जौइन किया था.

अपने बच्चों के काफी करीब थे

अपने परिवार के साथ वे दिल्ली के बुराङी स्थित अमृत विहार कालोनी में रहते थे. रतन लाल की 2 बेटियां और 1 बेटा है. उन्होंने अपने बच्चों से वादा किया था कि इस होली में वे सब के साथ राजस्थान अपने गांव जाएंगे पर बच्चों को क्या मालूम कि उन के पिता अब इस वादे को पूरा करने के लिए कभी नहीं आएंगे.

घर में गृहिणी बीवी का रोरो कर बुरा हाल है.

अभिनंदन जैसी ही रखते थे मूंछें

रतन लाल के भाई दिनेश लाल बताते हैं,”भैया देशभक्त थे और जब से अभिनंदन वर्धमान ने पाकिस्तान का जेट विमान मार गिराया था तब से भैया अभिनंदन के जबरदस्त फैन बन गए थे. उन्होंने अपनी मूंछें भी अभिनंदन की तरह ही रख ली थीं.”

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रतन लाल के मूछों की तारीफ कोई करता तो वे फूले नहीं समाते और मूंछों पर ताव देना नहीं भूलते.

दिल्ली पुलिस के ही उन के एक करीबी दोस्त ने बताया,”रतन को अभिनंदन पर नाज था, जिस ने पाकिस्तान के लड़ाकू विमान को मार गिराने के बाद पाकिस्तान से भी सकुशल लौट आए थे. रतन अकसर कहता था कि एक जाबांज सिपाही को देश के लिए समर्पित रहना चाहिए.”

वे कहते हैं,”रतन अपने परिवार के काफी नजदीक था और अकसर गांव भी आताजाता रहता था. बच्चों के लिए वह हमेशा कुछ न कुछ ले कर जरूर जाता था.”

परिवार के एक सदस्य ने बताया,”रतन भैया शहीद हुए तो इस बात की जानकारी मां को नहीं दी जल्दी. वे पूछती रहीं पर हम बताते भी तो कैसे?”

दम तोड़ते सरकारी स्कूल

मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी बढ़ाने के लिए पिछले 15-20 सालों में नएनए प्रयोग तो खूब किए गए, पर इन स्कूलों में टीचरों की कमी दूर करने के साथ ही इन में पढ़ने वाले बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की दिशा में कोई ठोस उपाय सरकारी तंत्र द्वारा नहीं किए गए.

नतीजतन, स्कूलों में पढ़ाईलिखाई का लैवल बढ़ने के बजाय दिनोंदिन गिरा है और छात्रों के मांबाप भी प्राइवेट स्कूलों की ओर खिंचे हैं.

प्राइवेट स्कूलों में आज भी काबिल टीचर मुहैया नहीं हैं. इस की वजह उन को मिलने वाली तनख्वाह है. सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचरों को जहां आज 50,000 रुपए से 70,000 रुपए तक मासिक तनख्वाह मिलती है, वहीं इस की तुलना में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा रहे टीचर बमुश्किल 10,000 रुपए से 15,000 रुपए मासिक कमा रहे हैं.

पढ़ेलिखे नौजवान भी टीचिंग जौब में आना चाहते हैं. वे शिक्षक पात्रता परीक्षा पास कर सरकारी स्कूलों में सिलैक्ट हो जाते हैं और जो परीक्षा पास नहीं कर पाते, तो वे प्राइवेट स्कूलों में नौकरी करने लगते हैं.

नरसिंहपुर जिले के आदित्य पब्लिक स्कूल में इंगलिश पढ़ाने वाले सचिन नेमा बताते हैं कि वे साल 2011 की शिक्षक पात्रता परीक्षा 2 अंक से पिछड़ने के चलते प्राइवेट स्कूल में 15,000 रुपए मासिक तनख्वाह पर 5 पीरियड पढ़ाते हैं. इस के अलावा स्कूल मैनेजमैंट द्वारा उन्हें छात्रों के मांबाप से मेलजोल करने का ऐक्स्ट्रा काम भी दिया जाता है.

प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने का तरीका रटाने वाला हो गया है. छोटेछोटे बच्चों को भारी होमवर्क दिया जाता है, जिसे बच्चों के मांबाप ही ज्यादा करते हैं.

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साहित्यकार और शिक्षाविद डाक्टर सुशील शर्मा कहते हैं कि प्राइवेट स्कूलों में भी अब पढ़ाईलिखाई के बेहतर रास्ते नहीं हैं. उन्होंने निजी तौर पर शहर के कई प्राइवेट स्कूलों में जा कर यह देखा है कि वहां बच्चों को हर बात रटाई जा रही है. इन स्कूलों में ट्रेनिंग पाए टीचरों की कमी इस की खास वजह है.

काम का बोझ

शिक्षा संहिता के नियमों के मुताबिक और शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के तहत राष्ट्रीय महत्त्व के काम चुनाव और जनगणना को छोड़ कर टीचरों की सेवाएं गैरशिक्षकीय कामों में नहीं ली जा सकतीं, पर अधिनियम को धता बताते हुए टीचरों से बेगारी कराई जा रही है. वोटर लिस्ट अपडेट करने से ले कर बच्चों के जाति प्रमाणपत्र बनवाने तक का काम टीचरों को करना पड़ता है.

पिछले साल मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में सरकार द्वारा कराए जा रहे सामूहिक विवाह आयोजन में बाकायदा कलक्टर के निर्देश पर जिला शिक्षा अधिकारी ने 28 टीचरों की ड्यूटी पूरी, दाल, सब्जी परोसने में लगा दी.

इसी तरह विभिन्न जिलों में गांवों व शहरों को बाह्य शौच मुक्त (ओडीएफ) करने के लिए वार्डवार्ड जा कर खुले में शौच करने वाले लोगों को रोकने में टीचरों की ड्यूटी लगाई गई.

मध्य प्रदेश के ही 83,969 प्राइमरी स्कूल पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी में भारी कमी, टीचरों के खाली पदों पर भरती न होने और बुनियादी जरूरतों की कमी में दम तोड़ते नजर आ रहे हैं.

प्रदेश के सरकारी स्कूल केवल सरकारी योजनाओं का ढिंढोरा पीटते नजर आ रहे हैं. एयरकंडीशंड कमरों में बैठे अफसर व मंत्री सरकारी स्कूलों में नए प्रयोग कर पढ़ाईलिखाई को गड्ढे की ओर ले जा रहे हैं.

टीचर भी हैं कुसूरवार

पढ़ाईलिखाई की क्वालिटी में भारी गिरावट के लिए सरकारी नीतियों के साथ टीचर भी कम कुसूरवार नहीं हैं. छात्र पढ़ाईलिखाई करने के लिए स्कूल जाते हैं, लेकिन वहां टीचर ही नदारद रहते हैं.

मध्य प्रदेश में साल 2018 के हाईस्कूल इम्तिहान में 30 फीसदी से कम रिजल्ट देने वाले स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचरों का सरकार द्वारा इम्तिहान लिया गया. इस इम्तिहान में ज्यादातर टीचर फेल हो गए.

बाद में इन टीचरों को इम्तिहान का एक और मौका दिया गया, जिस में किताब खोल कर इम्तिहान का प्रश्नपत्र हल करने को कहा गया. इस के बावजूद प्रदेश के 16 फीसदी टीचर इस में फेल हो गए.

दक्षिण कोरिया पर दांव

पिछले कुछ सालों में दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने सरकारी स्कूलों की तसवीर बदलने का काम किया है, पर मध्य प्रदेश सरकार के अफसरों को दक्षिण कोरिया की शिक्षा पद्धति रास आ रही है. वहां की शिक्षा पद्धति को देखने प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग के अफसर, बाबू और प्रिंसिपलों के दल 3 बार दक्षिण कोरिया की यात्रा का मजा लूट चुके हैं.

कभी टीचर रहे भाजपा के पूर्व विधायक मुरलीधर पाटीदार ने इस यात्रा पर सवाल खड़े किए हैं. उन का कहना है कि प्रदेश के स्कूलों में टीचरों की कमी दूर करने और स्कूलों में बुनियादी समस्याओं को हल करने में बजट का रोना रोने वाले अफसर करोड़ों रुपए दक्षिण कोरिया की यात्रा पर खर्च कर चुके हैं, जबकि दक्षिण कोरिया की जिस शिक्षा पद्धति को लागू करने की बात कही जा रही है, वह तो हमारे प्रदेश में बहुत पहले से ही चल रही है.

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जब से देश में शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत 5वीं और 8वीं जमात की बोर्ड परीक्षाओं को खत्म कर हर बच्चे को अगली जमात में पास करने का नियम बना है, छात्रों की दिलचस्पी पढ़ने में और टीचरों की दिलचस्पी पढ़ाने में नहीं रह गई है. आज किसी भी टीचर, मुलाजिम, अफसर के बच्चे इन सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ रहे हैं, जिस से सरकारी स्कूलों पर किसी का कंट्रोल भी नहीं रह गया है.

प्राइवेट स्कूलों की मनमानी

प्राइवेट स्कूल तालीम को प्रोडक्ट की तरह बेच रहे हैं. नया शिक्षा सत्र शुरू होते ही प्राइवेट स्कूल वाले मांबाप की जेब हलकी करने में लग जाते हैं. इस के लिए उन्होंने अनेक तरीके खोज लिए हैं. पहले मनमाने तरीके से स्कूल की फीस बढ़ा दी जाती है और हर स्कूल अपनी अलगअलग किताबें चलाते हैं.

कोर्स की किताबों और यूनिफौर्म पर दुकानदारों से बाकायदा कमीशन तय कर लेते हैं, जिस के चलते दुकानदरों द्वारा मनमाने दामों पर इन्हें बेच कर मांबाप की जेब ढीली की जाती है.

यहां तक कि स्कूल का नाम और मोनोग्राम छपी कौपियों की भी मांबाप से मनमानी कीमत वसूल की जाती है. अगर वे बिना मोनोग्राम की कौपी खरीद कर बच्चों को दे भी देते हैं, तो स्कूल में इन कौपियों को नकार दिया जाता है और बच्चों को परेशान किया जाता है.

अनेक प्राइवेट स्कूल वाले अपने यहां बाकायदा काउंटर लगा कर बस्ता समेत पूरा कोर्स बेचने का धंधा भी करते हैं, जिस में कौपी, किताब समेत स्टेशनरी का पूरा सामान खुलेआम बेचा जाता है. इन प्राइवेट स्कूलों द्वारा दाखिले के समय पर भी डोनेशन के नाम पर मांबाप से मोटी रकम वसूल की जाती है.

प्राइवेट स्कूलों पर शिक्षा विभाग के अफसरों का कोई कंट्रोल नहीं रहता है, क्योंकि नामीगिरामी प्राइवेट स्कूलों का संचालन विधायक, सांसदों के अलावा बड़ेबड़े उद्योगपतियों द्वारा किया जा रहा है.

बस्ते का बढ़ता बोझ

स्कूली बच्चों की पीठ पर बस्ते के बो झ को कम करने के लिए भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अक्तूबर, 2018 में नई गाइडलाइन जारी की गई है, जिस के मुताबिक क्लास के आधार पर बच्चों के बस्ते का वजन तय किया गया है.

मसलन, पहली और दूसरी जमात के लिए बस्ते का वजन डेढ़ किलो, तो तीसरी से 5वीं जमात के बच्चों के बस्ते का वजन 2 से 3 किलो है. 6वीं और 7वीं जमात के लिए 4 किलो और 8वीं, 9वीं जमात के लिए साढ़े 4 किलो और 10वीं जमात के लिए 5 किलो वजन तय किया गया है.

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दरअसल, बच्चों की पीठ पर लदे बस्ते का बो झ सरकार द्वारा तय सिलेबस के बोझ से सीधा संबंध रखता है. हमारे सिलेबस की यही खामी है कि यह बच्चों की उम्र व दिमागी सोच के मुताबिक तय नहीं है. कम उम्र के बच्चोंको कई विषयों के ज्यादा सिलेबस को पढ़ना पड़ता है.

उत्कृष्ट विद्यालय नरसिंहपुर के टीचर डाक्टर अशोक उदेनियां मानते हैं कि स्कूली सिलेबस बनाने वाली समिति में यूनिवर्सिटी के कुलपति, कालेज के प्रिंसिपल और प्रोफैसर होते हैं, जो स्कूली बच्चों का सिलेबस तैयार करते हैं. इन्हें स्कूली बच्चों के मनोविज्ञान और गांवदेहात के इलाकों के हालात का कोई खास तजरबा नहीं होता है.

अजब और गजब बिहार पुलिस

बिहार राज्य के मुख्यमंत्री रहे जगन्नाथ मिश्र की मौत के बाद उन की लाश को सरकारी सम्मान के साथ अंतिम संस्कार के लिए गंगा किनारे लाया गया. मुख्यमंत्री समेत कई मंत्री और अफसर वहां मौजूद थे. 21 राइफलों से हवाई फायरिंग कर उन्हें सलामी देने के लिए पुलिस वाले कतार लगा कर खड़े थे.

कई सरकारी ताम झाम के बाद हवाई फायरिंग करने का इशारा किया गया. इशारा मिलते ही पुलिस के जवानों ने एकसाथ अपनीअपनी राइफल का ट्रिगर दबा दिया. पर यह क्या, राइफलों की गरज के बजाय सन्नाटा पसर गया. पुलिस के जवानों की राइफलों से गोली ही नहीं चल सकी. राइफलों के फुस होने के साथ ही बिहार पुलिस के सुरक्षा के दावों की हवा भी निकल गई.

मौके पर मौजूद सरकार और उस के  झंडाबरदारों को मानो सांप सूंघ गया. पुलिस के आला अफसर एकदूसरे का मुंह ताकते हुए बगलें  झांकने लगे.

आननफानन पुलिस मकहमा हरकत में आ गया और जांच का ऐलान कर दिया गया. पुलिस ने मामले की जांच की तो पता चला कि सभी राइफल में बेकार कारतूस भरे थे. ऐसे हथियारों से अगर पुलिस का अपराधियों से मुकाबला हो जाए, तो पुलिस वालों की जान जाने का पूरा डर है.

जांच में यह भी पता चला कि कारतूसों की जांच पिछले कई सालों से नहीं हुई है. कारतूस एक तय समय के बाद बेकार हो जाते हैं.

एसएसपी ने पुलिस हैडर्क्वाटर को लिखी चिट्ठी में कहा है कि पुलिस लाइन का शस्त्रागार जर्जर हालत में है. बारिश होने पर उस में पानी भी भर जाता है.

पटना जिले में ही तैनात 7,000 जवानों, 1,000 एसआई और 150 इंस्पैक्टरों को पिछले 10 सालों में एक बार भी फायरिंग रेंज में प्रैक्टिस नहीं कराई गई है, जबकि नियम के मुताबिक हर साल फायरिंग प्रैक्टिस की जानी है.

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साल 2010 से साल 2019 के बीच 5,000 सिपाहियों की बहाली हुई, पर टे्रनिंग के बाद कभी भी उन्हें फायरिंग प्रैक्टिस के लिए नहीं भेजा गया.

बिहार में प्रति एक लाख की आबादी की सुरक्षा के लिए महज 70 पुलिस वाले तैनात हैं. राज्य में कुल 70 लाख पुलिस वाले हैं, वहीं दूसरी ओर राज्य में कुल 3,600 वीआईपी हैं और उन की हिफाजत के लिए 13,000 पुलिस के जवान लगाए गए हैं.

नैशनल लैवल पर प्रति एक लाख की आबादी पर 147 पुलिस के जवानों की तैनाती होनी चाहिए. बिहार में हर मंत्री की हिफाजत के लिए 2-8 का ऐस्कौर्ट दस्ता लगाया गया है. इन में से 1 से 4 पुलिस वाले हर समय मंत्री के साथ रहते हैं और उतने ही उन के बंगले की हिफाजत में तैनात रहते हैं.

इस के अलावा 3 बौडीगार्ड और स्पैशल ब्रांच के 3 सिपाही भी मंत्री के इर्दगिर्द लगे रहते हैं. हर विधायक और विधान पार्षद को 3-3 बौडीगार्ड दिए गए हैं.

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बिहार के 11 बड़े नेताओं को केंद्रीय जैड और वाई श्रेणी की सुरक्षा दी है. इस में 5 नेताओं को वाई प्लस की सुरक्षा दी गई है. केवल मुख्यमंत्री को जैड प्लस श्रेणी की सुरक्षा दी गई है. जैड प्लस श्रेणी में 36 सुरक्षाकर्मी होते हैं, जिस में 10 एनएसजी के जवान होते हैं, वहीं जैड श्रेणी में 22 सुरक्षाकर्मी और 5 एनएसजी के जवान होते हैं. वाई श्रेणी में 11 सुरक्षाकर्मी रहते हैं, जिस में 1-2 कमांडो होते हैं. ऐक्स कैटीगरी में 2 से 5 पुलिस वाले लगाए जाते हैं.

वहीं आम आदमी की हिफाजत को ले कर सरकार का रवैया भी पूरी तरह लापरवाही का है. हालत यह है कि बिहार पुलिस में सिपाही के 22,655 पद, सबइंस्पैक्टर के 4,546 पद और ड्राइवर (सिपाही) के 2,039 पद खाली हैं. इस से कानून व्यवस्था को कायम रखने में काफी परेशानी हो रही है.

अगस्त, 2019 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पटना हाईकोर्ट ने सरकार की इस लापरवाही पर खरीखरी सुनाई. कोर्ट ने कहा कि इस से साफ लगता है कि सरकार को आम नागरिकों की हिफाजत का जरा भी खयाल नहीं है.

राज्य सरकार के वकील ने कहा कि इन खाली पदों को भरने में 4 साल लग जाएंगे. इस से नाराज हाईकोर्ट ने मुख्य सचिव और गृह सचिव से पूछा है कि इन खाली पदों को कम से कम कितने  समय में भरा जा सकता है.

गौरतलब है कि अप्रैल, 2017 में बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि साल 2020 तक सभी पद भर लिए जाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की मौनिटरिंग का जिम्मा पटना हाईकोर्ट को सौंपा था. अब वह हाईकोर्ट में कह रही है कि इसे भरने में साल 2023 तक का समय लग जाएगा.

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गरीबों से घूस

देशभर में पुलिस वालों के घूस लेने के हजारों अजबगजब किस्से मशहूर हैं, लेकिन इस मामले में भी बिहार पुलिस की अदा ही निराली है. बिहार पुलिस को घूस में कुछ भी चलेगा. पैसे नहीं हैं, तो जूता ही खरीद कर भिजवा दो. सब्जी ही दे दो. चिकन या बकरे का मांस ही पहुंचा दो. मोमोज भी चलेंगे यानी भागते भूत की लंगोटी ही सही.

पिछले दिनों पटना के दीघा थाना के दारोगा पंकज कुमार ने केस डायरी हलका करने के बदले पीडि़त से 7,000 रुपए की मांग की. जब पीडि़त ने अपनी गरीबी का हवाला देते हुए पैसा देने में आनाकानी की, तो दारोगा का मन पसीज गया और उन्होंने एक ब्रांडेड जूते की डिमांड कर डाली. पीडि़त ने 2,500 रुपए का जूता ला कर दारोगाजी को भेंट किया, तब जा कर उस का काम बना. उस के बाद इस पूरे मामले का वीडियो वायरल हो गया और दारोगाजी सस्पैंड हो गए यानी मियां की जूती मियां के सिर वाली कहावत सच साबित हो गई.

मार्च, 2019 में पटना कोतवाली पुलिस ने रात को पैट्रोलिंग के दौरान एक पिकअप वैन को रोका. वैन में बकरे पाए गए. साथ ही, बकरे का कारोबारी शराब के नशे में चूर था. पुलिस वालों की बांछें खिल गईं.

शराबबंदी वाले राज्य में शराबी के पकड़े जाने पर पुलिस वालों को मानो लौटरी लग जाती है. पिकअप वैन समेत कारोबारी को पकड़ कर थाने लाया गया.

कारोबारी को तो जेल भेज दिया गया, पर पिकअप वैन वाले ने जब पुलिस वालों से छोड़ देने की गुहार लगाई तो पुलिस वालों ने आजादी के बदले मटन पार्टी का इंतजाम करने को कहा.

पटना के मौर्यलोक कमर्शियल कौंप्लैक्स में एक दारोगा ने सड़क के किनारे गाड़ी लगा कर मोमोज बेचने वालों को गाड़ी हटाने की धौंस दिखा कर मुफ्त के मोमोज पर हाथ साफ कर डाला.

दारोगा के चटोरेपन की रामकहानी एसएसपी तक पहुंच गई. एसएसपी ने दारोगा को इस कदर फटकार लगाई कि मोमोज का स्वाद ही किरकिरा हो गया.

राज्य में साइबर अपराध तेजी से बढ़ते जा रहे हैं और ठग आम आदमी को करोड़ों रुपए का चूना लगा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर बिहार पुलिस के लिए साइबर ठगी के मामले काला अक्षर भैंस बराबर हैं. साइबर फ्रौड के मामले सामने आने पर पुलिस भी प्राइवेट जानकारों की मदद लेने को मजबूर है.

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अब सरकार इस मामले में संजीदा होती नजर आ रही है. बिहार के थानों में तैनात इंस्पैक्टर और दारोगा को साइबर ऐक्सपर्ट बनाने की कवायद शुरू की गई है. पटना पुलिस कार्यालय में इस के लिए वर्कशौप का आयोजन किया जाएगा.

सिटी एसपी (मध्य) विनय तिवारी ने बताया कि आजकल आम लोगों को साइबर क्राइम की वजह से सब से ज्यादा परेशानी और नुकसान हो रहा है. शिकायतों के जल्द निबटारे के लिए जरूरी है कि इंस्पैक्टर और दारोगा साइबर ऐक्सपर्ट हों. थानों के चुने गए एसआई और एएसआई को साइबर मामलों में ऐक्सपर्ट बनाया जाएगा. उन्हें बताया जाएगा कि क्राइम के सीन और सुबूत को कैसे सुरक्षित रखा जाएगा.

इस के अलावा सोशल साइट, सीडीआर, एनालिसिस, एटीएम और बैंकों के बारे में जानकारी दी जाएगी.

आईएएस अफसरों का भी टोटा

बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था आईएएस अफसरों की कमी से जू झ रही है. बिहार में आईएएस अफसरों की तादाद तय कोटे से 25 फीसदी कम है. राज्य में आईएएस अफसरों के कुल 342 पद हैं, लेकिन फिलहाल 248 अफसर ही तैनात हैं. 94 पद खाली हैं. इस का असर बिहार से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए तय कोटे पर भी पड़ रहा है. राज्य से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए 74 आईएएस का कोटा तय है, जबकि अभी 34 अफसर ही केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं.

आईएएस अफसरों की कमी की वजह से कई अफसरों के कंधे पर एक से ज्यादा महकमे का बो झ है. राज्य में मुख्य सचिव लैवल के 10, प्रधान सचिव लैवल के 18 और सचिव, विशेष सचिव, अपर सचिव और संयुक्त सचिव लैवल के 159 पद हैं.

केंद्र सरकार हर 5 साल में आईएएस अफसरों का कोटा बढ़ाती है. पिछली बार साल 2014 में रिविजन हुआ था. राज्य सरकार ने 14 पद को बढ़ाने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. राज्य में आईएएस के कुल 342 पद में से 104 पद राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसरों को प्रमोशन दे कर भरा जाता है. फिलहाल साल 2016 बैच के 15, साल 2017 बैच के 17 और साल 2018 बैच के 15 पदों को प्रमोशन के जरीए भरा जाना है.

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क्या कैरेक्टर लेस पत्नी गुजारा भत्ते की हकदार होनी चाहिए

भोपाल के फैमिली कोर्ट में तलाक का एक ऐसा दिलचस्प मामला पिछले तीन महीने से चल रहा है जिसमें बीबी की बदचलनी साफतौर पर उजागर हो चुकी है और काउन्सलिन्ग में वह अपने बौयफ्रेंड से नाजायज सम्बन्धों की बात भी मान चुकी है लेकिन इसके बाद भी पति से गुजारा भत्ता मांग रही है . पति विष्णु ( बदला नाम ) ने काउन्सलर सरिता राजानी से गुहार लगाई है कि वह ऐसी बदचलन औरत के साथ नहीं रहना चाहता जो उसके भरोसे का खून करती रही है.

विष्णु की शादी साल 2014 में तुलसी ( बदला नाम ) से हुई थी.  तब वह खूबसूरत बीबी पाकर बहुत खुश था लेकिन जल्द ही उसके रंग ढंग सामने आने लगे तो वह सकते में आकर अपनी किस्मत को झींकने लगा. तुलसी अक्सर मोबाइल फोन पर अपने बौय फ्रेंड से घंटो रोमांटिक बातें किया करती थी जो विष्णु और उसके घर बालों सी छिपी नहीं रह सकीं . एक दिन हद तो उस वक्त हो गई जब सास ने बहू की बातें सुन लीं कि वह बौय फ्रेंड से हाय जानू , हाय जानू कहते बात कर रही थी .

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माँ ने बेटे से शिकायत की तो वह बिफर गया क्योंकि यह किसी भी शौहर के लिए नागवार गुजरने बाली बात थी. इस पर मियां बीबी में कहा सुनी हुई और गुस्साया विष्णु तुलसी को उसके मायके छोड़ आया. इस दौरान उन्हें एक बेटी भी हो चुकी थी जो अब डेढ़ साल की है. विष्णु ने सास ससुर को उनकी बेटी की करतूतों के बारे में बताया और यह भी कहा कि तुलसी अगर अपने बॉय फ्रेंड से मोबाइल पर बतियाना छोड़ दे वह उसे साथ रख लेगा.

6 महीने बीत जाने पर भी ससुराल बालों का फोन या कोई खबर नहीं आई तो वह समझ गया कि तुलसी अपनी हरकतों से बाज नहीं आएगी लिहाजा उसने संजीदगी से तलाक के बारे में सोचना शुरू कर दिया.

लगा जोर का झटका

तलाक का फैसला कोई हंसी खेल नहीं होता विष्णु अभी इस बारे में सोचा विचारी कर ही रहा था कि एक दिन उसके मोबाइल पर अंजान नंबर से कुछ फोटो और वीडियो आए. विष्णु ने जब ये वीडियो डाउनलोड कर के देखे तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई क्योंकि इनमें तुलसी एक नौजबान के साथ लगभग ब्लू फिल्मों की सी हालत में दिख रही थी. कुछ फोटो भी इसी तरह के थे जिनहे देख किसी भी शौहर का माथा चटकना लाजिमी बात थी.

भन्नाए विष्णु ने जब इस नंबर पर फोन कर पूछा कि यह सब क्या है तो दूसरी तरफ से बेशर्मी भरा जबाब यह मिला कि तेरी बीबी से मेरे संबंध पहले भी थे और आज भी हैं. उसने तुझ से शादी तो दिखावे के लिए की थी.

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बेबसी और बेइज्जती की आग में जलता विष्णु ससुराल पहुंचा और ससुराल बालों से तुलसी के बारे में पूछा तो जबाब यह मिला कि वह अपने पांवो पर खड़े होना चाहती है इसलिए ब्यूटी पार्लर का काम सीखने गई है. इस पर उसने वे वीडियो और फोटो ससुराल बालों को दिखाये तो वे भी हक्का बक्का रह गए .

चोरी और सीनाजोरी

बात या हकीकत अब उजागर हो गई थी यानि तुलसी की पोल खुल चुकी थी लेकिन सच कबूलने के बजाय उसने विष्णु के सर ही अपनी बदचलनी का ठीकरा यह कहते फोड़ कर अपना बचाव करने की नाकाम कोशिश की कि असल में विष्णु ही उससे तलाक लेना चाहता है इसलिए उसने ही इस लड़के को उसके पीछे लगा दिया था. बात में दम नहीं था इसलिए किसी ने उससे हमदर्दी नहीं राखी जिसकी शायद तुलसी जैसी बीबियों को जरूरत भी नहीं रहती .

विष्णु ने अब तलाक का मुकदमा दायर कर दिया इधर तुलसी के बॉय फ्रेंड ने सारे फोटो और वीडियो वायरल कर दिये जिन्हें देखने बालों ने चटखारे लेकर देखा उनके लिए तो यह मुफ्त का मनोरंजन था लेकिन इससे किसी की गृहस्थी उजड़ रही है या एक शौहर का खून जल रहा है इससे कोई वास्ता क्यों रखता.

सुनवाई के पहले अदालत ने दोनों की काउन्सलिन्ग का हुक्म दिया तो विष्णु ने जो कहा वह ऊपर बताया जा चुका है लेकिन कौउन्स्लर्स भी उस वक्त हैरान रह गए जब तुलसी ने अपने बौय फ्रेंड से नाजायज सम्बन्धों की बात तो मंजूर कर ली लेकिन विष्णु से गुजारा भत्ता चाहने की जिद पर वह अड़ी रही.

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अब मामला अदालत में है जिसमें विष्णु की जीत तय दिख रही है क्योंकि तुलसी की बदचलनी के सबूत उसके पास हैं लेकिन दिलचस्पी की बात यह रहेगी कि क्या अदालत एक बदचलन बीबी को गुजारा भत्ता देने पति को कहेगी .

बेटी को दी गई खुशी बनी मुहिम

यों तो घर की पहचान घर के मुखिया के नाम और काम से होती है, लेकिन बैतूल जिले के एक पनवाड़ी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह पूरी दुनिया के लिए एक दिन मिसाल बनेगा. उस की एक मुहिम ने बेटी को बतौर घर की मुखिया नई पहचान दी है. उस की अपनी बेटी आयुषी के नाम की प्लेट बेटियों की कोख में हत्या के लिए बदनाम राज्य हरियाणा में नया बदलाव लाएगी.

हरियाणा के पानीपत में ऐतिहासिक लड़ाई हुई थी. उसी पानीपत में ऐसे घरों की तलाश की गई, जिन के घरों में बेटियां हैं. उन घरों के मातापिता को ‘लाडो फाउंडेशन’ से जोड़ने के लिए अपने कार्यक्रम ‘डिजिटल इंडिया विद लाडो’ की जानकारी दे कर ऐसे लोगों की लिस्ट उन के सामने रख दी, जिन्होंने अपने या दादा के नाम की पहचान वाले घर को अपनी बेटी के नाम पर एक पहचान दी.

पानीपत के बाद कन्या भू्रण हत्या व बेटियों पर होने वाले जोरजुल्म के मामलों में बदनाम राजस्थान और पंजाब के शहरों की पहचान कर वहां पर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का संदेश पहुंचाने के लिए बेटियों के नाम के डिजिटल साइन बोर्ड लगवा कर इस मुहिम को शुरू करने वाले अनिल यादव पहलवान की ‘लाडो फाउंडेशन’ के तहत 5 नवंबर, 2015 को ‘डिजिटल इंडिया विद लाडो’ नामक मुहिम की शुरुआत की गई.

बढ़ता गया कारवां

अकसर कहा जाता है कि पान वाला चूना लगाने में ऐक्सपर्ट होता है. उस का लगाया चूना मुंह का स्वाद बना देता है और थोड़ी सी चूक हुई तो मुंह को जला भी देता है.

आदिवासी बहुल बैतूल जिला हैडक्वार्टर के बाशिंदे और 12वीं जमात तक पढ़ने के बाद बीते 20 सालों से वहीं पान की दुकान चलाने वाले अनिल यादव पहलवान ने बेटे और बेटी में फर्क समझने वालों और भू्रण हत्या करने वालों को अपनी इस मुहिम के जरीए पटकनी दे कर एक आदर्श मिसाल कायम की है. उन्होंने अपनी इस मुहिम में उन राज्यों को फोकस किया, जहां पर कन्या जन्म दर कम है. जहां बेटी का होना पाप माना जाता है, जहां पर अकसर कोख में ही कन्या भू्रण हत्या कर दी जाती है.

‘डिजिटल इंडिया विद लाडो’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह प्रदेश गुजरात का भरूच, राजस्थान का बारा जिला हैडक्वार्टर, पंजाब का अमृतसर जिला हैडक्वार्टर, दक्षिण भारत के केरल, उत्तर प्रदेश, रांची, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ का जिला दुर्ग, महाराष्ट्र का यवतमाल जिला, दिल्ली, बिहार का औरंगाबाद व ओडिशा तक शामिल रहा.

हरियाणा व राजस्थान के बाद अपने गृह प्रदेश में भोपाल, इंदौर, उज्जैन, रतलाम, जबलपुर, खंडवा, देवास, हरदा, होशंगाबाद, सीहोर, छिंदवाड़ा, खरगौन, ग्वालियर, सतना, सीधी, मंदसौर में भी लाडो फाउंडेशन के तहत तकरीबन 1,500 परिवारों के दरवाजे पर आप को ‘डिजिटल इंडिया विद लाडो’ की नेम प्लेट में उस घर की मुखिया के रूप में बेटी का नाम पढ़ने को मिल जाएगा.

ऐसी एक नेम प्लेट की लागत तकरीबन 70 रुपए आती है. 2,000 लोगों तक पहुंची इस मुहिम को उत्तर से दक्षिण तक तारीफ भी मिली.

बेटियों को मिला सम्मान

इस मुहिम की शुरुआत अनिल यादव पहलवान की बेटी आयुषी के जन्मदिन से हुई. बेटी ने जब पिता से सवाल किया कि क्या उस के घर के दरवाजे पर पिता की जगह उस का नाम लिखा पढ़ने को मिल सकता है?

अनिल यादव पहलवान ने अपनी बेटी की तरह पूरे देश की बेटियों को एक अनुपम भेंट दी और उस का नाम दिया, ‘डिजिटल इंडिया विद लाडो’.

इस मुहिम का असर हुआ कि बेटियों ने अपने पिता से जायदाद में नहीं, बल्कि सम्मान में अपना हक मांगा, जिसे स्वीकार करने वाले महज 4 साल में 2,000 लोग हो गए.

‘डिजिटल इंडिया विद लाडो’ से जुड़े केरल की आरापुरा तहसील चेंगनूर के गांव चेरीयनाड कोल्लागढ़ा के रजा थौमस और एलिजाबेथ ईसाई जोड़े ने अपनी दोनों बेटियों अक्जा व डेल्सी के नाम की नेम प्लेट अपने दरवाजे पर लगा दी है. अब रजा थौमस का घर उस की मुखिया अक्जा व डेल्सी थौमस के तौर पर पहचाना जाता है.

सोशल मीडिया के माध्यम से जुड़े थौमस परिवार के एक दोस्त बैतूल के बाशिंदे मैथ्यू पौल ने वह नेम प्लेट केरल पहुंचाई तो थौमस ने नेम प्लेट लगाते हुए केरल से तसवीर भेजी.

सराहना मिली, सम्मान नहीं

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री समेत दूसरे राज्यों के वर्तमान मुख्यमंत्रियों ने इस मुहिम की तारीफ की. अनिल यादव पहलवान द्वारा खुद के खर्चे पर बना कर दी जाने वाली नेम प्लेट राज्य सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ मुहिम में मददगार साबित हो रही है, लेकिन प्रदेश की सरकार ने सम्मानपत्र देना तो दूर, एक पत्र तक नहीं लिखा.

इस समय बैतूल जिले के अनिल यादव पहलवान साल 2015 से ले कर आज तक इन नेम प्लेटों पर तकरीबन डेढ़ लाख रुपए खर्च कर चुके हैं, जबकि उन की पान की दुकान है. वे अपनी जेब से हर साल 20,500 रुपए इस काम  के लिए रखते हैं, ताकि कई चेहरों पर मुसकराहट लाई जा सके. यही वजह है कि गांवों से ले कर शहरों तक घरमकानबंगले को भी बेटी के नाम से पहचान मिलने लगी है और अनिल यादव पहलवान के साथ कारवां यों ही बढ़ता चला जा रहा है.

मिलेगा ताप्ती सम्मान

नदीनारी के मानसम्मान के लिए प्रदेश में मुहिम बनी मां सूर्यपुत्री ताप्ती जागृति समिति ताप्ती जन्मोत्सव पर साल 2020 का ताप्ती सम्मान अनिल यादव पहलवान को देगी.

इस समिति के राष्ट्रीय प्रवक्ता किशोर साहू व मीडिया प्रभारी रविंद्र मानकर ने इस बारे में ऐलान करते हुए उन की इस मुहिम की खुल कर तारीफ की है. यह समिति ऐसे लोगों को ताप्ती जन्मोत्सव व  दूसरे मौकों पर ताप्ती सम्मान से सम्मानित करती है, जो बेटी, नदी, नारी के रक्षक बन कर सामने आते हैं.

बेरोजगारी का आलम

देश में बेरोजगारी का हाल यह है कि महाराष्ट्र में 8,000 कौंस्टेबलों की भरती के लिए 12,00,000 अर्जियां आई हैं. सरकार तो चाहती थी कि उन का एग्जाम भी औनलाइन हो जिस में इन अधपढ़े नौजवानों को किसी साइबर कैफे में जा कर सैकड़ों घंटे और सैकड़ों रुपए बरबाद करने ही थे और सरकार के पास मनमाने ढंग से फैसले करने का हक रहता. हो सकता है अब कागजपैन पर ही कौंस्टेबलों का एग्जाम हो.

कौंस्टेबलों का वेतन कोई ज्यादा नहीं होता. काम के घंटे बहुत ज्यादा होते हैं. वर्षों तक अफसरों की चाकरी करनी पड़ती है. रहने की सुविधा बहुत ही घटिया होती है, पर फिर भी नौकरी लग जाने पर रोब भी रहता है और ऊपरी कमाई भी होती है, इसीलिए 12 लाख दांव लगा रहे हैं.

इस तरह की भरतियों में सरकारी आदमियों की खूब मौज होती है. अर्जी देने वालों को लूटने का सिलसिला चालू हो जाता है. तरहतरह के सर्टिफिकेट औनलाइन एप्लीकेशन के साथ लगवाए जाते हैं जिन्हें जमा करने में खर्च होता है. जो रिजर्व कोटों से होते हैं उन्हें एससी, ओबीसी का सर्टिफिकेट बनवा कर लाने के लिए चक्कर काटने पड़ते हैं.

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अर्जी ढंग से गई या नहीं, यह पता करना भी मुश्किल होता है. उस के बाद एकदम चुप्पी छा जाती है. महीनों पता ही नहीं चलता कि इन भरतियों का क्या हुआ. जिस ने अर्जी दी, वह आराम से बैठ कर सपने देखने लगता है जबकि उसे यह मालूम ही नहीं होता कि औनलाइन गड़बडि़यों का धंधा अलग चालू हो गया है.

अगर गलती से इंटरव्यू और फिजिकल का बुलावा आ जाए तो खुशी तो होती है पर लाखों की रिश्वत की मांग आने लगती है. देश में कानून बनाए रखने के लिए जो बेईमानी भरती

में हाती है वह अपनेआप में एक अचंभा है. इस बेईमानी पर वे मंत्री चुप रहते हैं जो दिन में 10 बार में सच बोलने की कसम खाते हैं. उन्हीं कौंस्टेबलों के बल पर देश में हिंदूहिंदू, मुसलिममुसलिम किया जाता है. सरकार अगर उछलती है तो उन कौंस्टेबलों के बल पर जिन के वीडियो जामिया और उत्तर प्रदेश में गाडि़यों, स्कूटरों को तोड़ते हुए खूब वायरल हुए हैं. यही कौंस्टेबल सड़क चलतों से मारपीट कर सकते हैं, ये सरकार के असल हाथ हैं पर इन की भरती बेहद घिनौनी है.

महाराष्ट्र में औनलाइन एग्जाम को न करने की जो अपील की जा रही है वह सही है, क्योंकि चाहे औनलाइन में स्काइप से फोटो चालू रहे, बेईमानी की गुंजाइश कई गुना है. कौंस्टेबलों की भरती साफसुथरी हो, यह देश की जनता की आजादी के लिए जरूरी है. उन्हें निचले पद पर तैनात अदना आदमी न सम झें, असल में वही सरकार की आंख व हाथ हैं. अगर दलितों, पिछड़ों, मुसलिमों को अपनी जगह बनानी है तो जम कर इस भरती में हिस्सा लेना चाहिए और पुलिस फोर्स को भर देना चाहिए, ताकि उन पर जुल्म न हों.

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किसान हुए बेहाल

आम आदमी की जरूरत की चीजों जैसे प्याज, आलू, दूध के दाम बढ़ने पर सरकार लगातार मौसम को दोष दे रही है. कभी कहते हैं कि सूखा पड़ गया है तो कभी कहते हैं कि बेमौसम की बारिश हो गई. पर जिस भी किसान को जिस आलू से 5 रुपए किलो न मिलते हों और प्याज से 2 रुपए किलो न मिलते हों वह आलू बाजार में 30 रुपए से 50 रुपए और प्याज 75 से 125 रुपए तक हो जाए, एक बड़ी बेवकूफी और साजिश का नतीजा होने के अलावा कुछ और नहीं.

बेवकूफी यह है कि पिछले 2 सालों में भारतीय जनता पार्टी ने किसानों के युवा बच्चों को बड़ी गिनती में भगवा दुपट्टे पहना कर सड़कों पर दंगे करवाने के लिए उतार दिया है. किसानी दोस्तों के साथ नहीं की जाती. यह उबाऊ होती है. मेहनत का काम होती है. जिन लड़कों के पास पहले बाप के साथ खेत पर काम करने के अलावा कुछ और नहीं होता था, उन्हें चौराहे पर खड़ा कर के हिंदू राष्ट्र बनाने के भाषण देने पर लगा दिया है. वे ट्रकों में बैठ कर सैकड़ों मीलों दूर मंदिरों में घंटे बजाने भी जाने लगे और भगवा आंदोलन में भी.

बाप बेचारा बेटे को पाले भी, जेबखर्च का पैसा भी दे और खेत पर काम भी करे. पहले जब 12-13 साल के लड़के किसान का हाथ बंटाने आ जाते थे, आज खेतों में सफेद बालों वाले कमर तोड़ते आदमीऔरत नजर आते हैं.

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साजिश यह है कि जरा सी फसल कम होने पर दाम 4-5 गुना तक बढ़ सकते हैं. किसान से हमेशा की तरह पुराने दामों पर माल खरीद कर गांवों, कसबों और शहरों के गोदामों में भरा जाने लगा है. व्यापारीआढ़ती जानते हैं कि किसान निकम्मा होने लगा है और न वह कम फसल होने पर फसल जमा कर के रख सकता है, न उस के पास फसल बढ़ाने का तरीका है. वह यह भी जानता है कि उस का थोड़ा पढ़ालिखा बेटा तो हिंदू धर्म को बचाने में लगा है, खेत की फसल से उसे क्या लेनादेना?

व्यापारीआढ़ती का बेटा पढ़ कर बाप को कंप्यूटर चलाना सिखाता है, किसान का बेटा बाप को मुसलमान और दलित से नफरत का पाठ पढ़ाने लगा है या गांव में अपनी जाति का मंदिर बनाने के लिए उकसाने लगा है.

देश की उपजाऊ जमीन पर अब पूजापाठी नारों की फसल लहलहा रही है. भला आलूप्याज की क्या औकात कि वे मुकाबला कर सकें.

मजहब गरीबों का सब से बड़ा दुश्मन

बिहार में बहुत ज्यादा गरीबों की हालत कमोबेश वही है, जो आजादी के पहले थी. आज भी निहायत गरीब रोटी, कपड़ा, मकान, तालीम और डाक्टरी सेवाओं जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर है. समाज में पंडेपुजारियों, मौलाना और नेताओं के गठजोड़ ने आम लोगों को धार्मिक कर्मकांड, भूतप्रेत, यज्ञहवन के भरमजाल में उल झा कर रख दिया है.

पंडेपुजारियों द्वारा दलित और कमजोर तबके के बीच इस तरह का माहौल बना दिया है कि ये लोग अपना कामकाज छोड़ कर धार्मिक त्योहारों, पूजापाठ, पंडाल बनवाने के लिए चंदा करने, नाचगाने, यज्ञहवन कराने में अपने समय को गंवा रहे हैं. कसबों और गांवों में भी महात्माओं के प्रवचन, रामायण कथा पाठ, पुत्रेष्टि यज्ञ समेत कई तरह के धार्मिक आयोजन आएदिन कराए जाते हैं. इन कार्यक्रमों का फायदा साधुसंन्यासी, पंडेपुजारी वगैरह उठाते हैं.

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गांवों में यज्ञ का आयोजन किया जाता है. उस यज्ञ की शुरुआत जलभरी रस्म के साथ होती है. नदी से हजारों की तादाद में लड़कियां और औरतें सिर पर मिट्टी के बरतन में नदी का जल ले कर कोसों दूरी तय कर आयोजन की जगह तक पहुंचती हैं. इस काम में ज्यादातर लड़कियां और औरतें दलित और पिछड़ी जाति की होती हैं और साथ में घोड़े और हाथी पर सवार लोग अगड़ी जाति के होते हैं.

जहां पर यह यज्ञ होता है, वहां अगलबगल के गांव के दलित और पिछड़ी जाति के लोग अपना सारा कामधंधा छोड़ कर इन कार्यक्रमों में बिजी रहते हैं यानी अगड़े समुदाय के लोग मंच संचालन, पूजापाठ और यज्ञहवन कराने में और दलित व पिछड़े तबके के लोग यज्ञशाला बनाने, पानी का इंतजाम करने यानी शारीरिक मेहनत वाला काम करते हैं.

दलित और पिछड़े तबके के बच्चे अपनी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर इन्हीं कार्यक्रम में बिजी रहते हैं. गांव में भी अगड़े समुदाय के बच्चे पढ़ाई में लगे रहते हैं. इन कार्यक्रमों में करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं.

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हर गांवकसबे में शिव चर्चा की बाढ़ सी आ गई है. औरतें, मर्द अपने घर का काम छोड़ कर शिव चर्चा में हिस्सा लेते हैं. इन लोगों द्वारा अपने घरों में शिव चर्चा कराने की परंपरा का प्रचलन जोरों पर है. इन्हें नहीं मालूम कि बेटे की नौकरी उस की मेहनत से मिली है, न कि ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप करने से. अगर जाप करने से ही सारा काम होने लगे, तो कामधंधा, पढ़ाईलिखाई छोड़ कर लोग जाप ही करते रहें.

धर्म का महिमामंडन

इन धार्मिक आयोजनों के उद्घाटन समारोहों में नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, उपेंद्र कुशवाहा, सुशील कुमार मोदी समेत दूसरे नेता, जो अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित समाज से आते हैं, शिरकत करते हैं, इस का महिमामंडन करते हैं. वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जड़ों में खादपानी देने का काम अपनी कुरसी बचाए रखने के लिए गाहेबगाहे करते रहते हैं.

पंडेपुरोहितों द्वारा लोगों के दिमाग में भर दिया गया है कि उन की गरीबी की वजह पिछले जन्म में किए गए पाप हैं. अगर इस जन्म में अच्छा काम करोगे यानी पंडेपुजारियों और धर्म पर खर्च करोगे, तो अगले जन्म में स्वर्ग मिलेगा.

बच्चों की जन्मपत्री, कुंडली, उन के बड़े होने पर मुंडन, उस से बड़े होने पर शादीब्याह, नए घर में प्रवेश करने पर, किसी की मौत होने पर इन ब्राह्मणों को आज भी इज्जत के साथ बुलाया जाता है और दानदक्षिणा भी दी जाती है. ये लोग मजदूर तबके की कमाई का एक बड़ा हिस्सा बिना मेहनत किए किसी परजीवी की तरह सदियों से लोगों को जाहिल बना कर लूटते रहे हैं.

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गुलाम बनाने की साजिश ‘शोषित समाज दल’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके रघुनीराम शास्त्री ने बताया कि हमारे लिए मुक्ति का मार्ग धर्मशास्त्र और मंदिरमसजिद नहीं हैं, बल्कि ऊंची पढ़ाईलिखाई, रोजगार अच्छा बरताव और नैतिकता है. तीर्थयात्रा, व्रत, पूजापाठ और कर्मकांड में कीमती समय बरबाद करने की जरूरत नहीं है. धर्मग्रंथों का अखंड पाठ करने, यज्ञ में आहुति देने, मंदिरों में माथा टेकने से हमारी गरीबी कभी दूर नहीं होगी.

भाग्य और ईश्वर के भरोसे नहीं रहें. आप अपना उद्धार खुद करें. जो धर्म हमें इनसान नहीं सम झता, वह धर्म नहीं अधर्म है. जहां ऊंचनीच की व्यवस्था है, वह धर्म नहीं, बल्कि गुलाम बनाने की साजिश है.

स्वर्ग का मजा

पेशे से इंजीनियर सुनील कुमार भारती ने बताया कि सभी धर्म गरीबों को महिमामंडित करते हैं, पर वे गरीबी खत्म करने की बात नहीं करते हैं. कोई फतवा या धर्मादेश इस को खत्म करने के लिए क्यों नहीं जारी किया जाता?

इस धार्मिकता की वजह से साधुओं, फकीरों, मौलवियों, पंडेपुजारियों, पादरियों की फौज मेहनतकश लोगों की कमाई पर पलती है. परलोक का तो पता नहीं, पर इन धार्मिक जगहों के लाखों निकम्मे और कामचोर इस लोक में ही स्वर्ग का मजा ले रहे हैं.

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जानें कैसे भांगड़ा ने पर्व कौर को बनाया लंदन की ढोल क्वीन

किसी समय भांगड़ा केवल पंजाबियों का लोकनृत्य हुआ करता था. लेकिन इस लोकनृत्य का फिल्मों में बहुतायत से प्रयोग होने से इस का प्रचारप्रसार इतना हुआ कि हर समुदाय के लोग अपने खास कार्यक्रमों में ढोल बजवा कर भांगड़ा नृत्य कर अपनी खुशियों का इजहार करते हैं. अब यह नृत्य पंजाबियों से निकल कर पूरे देश में ही नहीं, विदेशों में भी पहुंच चुका है.

दरअसल, इस नृत्य पर जब ढोल बजाया जाता है तो उस की ताल और थाप इतनी प्रभावी होती है कि न नाचने वाले के भी पैर थिरकने लगते हैं.

ढोल और नगाड़ा बजाने में अभी भी पुरुषों का ही प्रभुत्व है. इस क्षेत्र में महिलाएं रुचि नहीं दिखातीं. लेकिन लंदन की रहने वाली पर्व कौर ने इस क्षेत्र में कदम रख कर अपना अलग मुकाम बना लिया है. आज वह लंदन की पहली ढोल प्लेयर बन गई हैं. इतना ही नहीं, उन्होंने अपना एक ग्रुप भी बना लिया है.

पर्व कौर लंदन में रहने वाले बलबीर सिंह की बेटी हैं. बलबीर सिंह लंदन में भांगड़ा संगीत के पायनियर हैं.

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वह भांगड़ा लोकसंगीत के अच्छे जानकार हैं. उन्होंने अपने बड़े भाई दलबीर सिंह के साथ सन 1967 में लंदन में पंजाबी लोकगीतों और नृत्यसंगीत के संयोजन को पेश किया था. उस कार्यक्रम में उन की प्रस्तुति को बहुत सराहा गया था.

इस के बाद बलबीर सिंह ने भांगड़ा नृत्यसंगीत और पंजाबी लोकगीतों की अनेक स्थानों पर प्रस्तुतियां दीं. लोग उन की प्रस्तुति के मुरीद बनते गए. बाद में उन्होंने कई देशों में भी अपने कार्यक्रम पेश किए. वह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि सन 2001 में गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स ने ब्रिटेन में भांगड़ा संगीत के पायनियर्स के रूप में उन का नाम दर्ज किया.

उन की बेटी पर्व कौर जब स्कूल में पढ़ रही थी, तभी से उन्होंने उसे भी भांगड़ा नृत्य और संगीत सिखाना शुरू कर दिया था. जहां भी उन के कार्यक्रम होते, वह उसे साथ ले जाते थे, ताकि वह भांगड़ा की बारीकियों को जान सके.

इस का नतीजा यह हुआ कि पर्व ने 14 साल की उम्र में स्टेज पर अपनी प्रस्तुतियां देनी शुरू कर दीं. पर्व को भी कार्यक्रम पेश करने में रुचि आने लगी. उस ने कीबोर्ड, ढोल, ड्रम, ढोलकी सभी अच्छी तरह से बजाने सीख लिए और इन वाद्ययंत्रों की बहुत अच्छी वादक बन गईं. पर्व के अंदर एक खास बात यह थी कि वह जितनी लगन से यह सब सीख रही थी, उतनी ही लगन से वह अपनी पढ़ाई भी जारी रखे हुए थी.

भांगड़ा संगीत और नृत्य में निपुण हो जाने के बाद पर्व कौर इसी क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाना चाहती थीं. वह जानती थी कि भांगड़ा में ढोल, नगाड़ा आदि पुरुष ही बजाते हैं. किसी महिला को यह करते न तो उन्होंने देखा और न ही सुना था. पर्व ने तय कर लिया कि वह इस परंपरा को तोड़ेंगी. इस के बाद उन्होंने सन 1999 में ‘इंटरनल ताल’ नाम से अपना एक ग्रुप बना लिया. इस ग्रुप में उन्होंने प्रशिक्षित भांगड़ा ढोल प्लेयर्स, ड्रमर्स, नर्तक और एशियाई डीजे को शामिल किया.

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इस बीच पर्व कौर की शादी हो चुकी थी. फिर बच्चे भी हुए. पर्व परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती रहीं. वह परिवार की जिम्मेदारियों में फंस जरूर गई थीं लेकिन अपने सपने पूरे करने के लिए उन के सीने में जो आग थी, वह अभी भी भभक रही थी. इस के साथसाथ उन की कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई भी जारी रही. वह इस विषय की लेक्चरर तक बन गईं. इस के बावजूद उन्होंने ढोल बजाना बंद नहीं किया. तमाम परंपराओं को तोड़ते हुए पर्व ने अपना एक बैंड बनाया. अपने बैंड में उन्होंने केवल महिलाओं को ही शामिल किया.

शुरुआत में उन्हें महिलाओं को अपने साथ जोड़ने में बड़ी दिक्कतें आईं क्योंकि भांगड़ा ग्रुप में शामिल होने की बात सुनते ही ज्यादातर लड़कियां और महिलाएं नाकभौंह सिकोड़ लेती थीं. पर पर्व ने हिम्मत नहीं हारी, जो लड़कियां और औरतें उन के बैंड में शामिल होतीं, वह उन्हें अच्छी ट्रेनिंग देतीं. उन्होंने सभी के लिए एक जैसी ड्रैस भी बनवाई.

पर्व ने प्रशिक्षित सदस्यों के साथ जब कार्यक्रमों में अपनी परफौरमेंस देनी शुरू की तो दर्शकों ने उन्हें बहुत सराहा. इस तरह पर्व के भांगड़ा संगीत ग्रुप की पहचान बनती चली गई. पर्व ने बाद में अपने ग्रुप में लड़कों को भी लेना शुरू कर दिया. जब सफलता की तरफ कदम बढ़ने शुरू हो जाते हैं तो काफिला खुदबखुद बड़ा होने लगता है. पर्व के ग्रुप में भी महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ने लगी. आज उन के ग्रुप में 50 से अधिक स्टूडेंट महिला और पुरुष शामिल हैं.

पर्व कौर को सब से ज्यादा खुशी तब हुई, जब उन्हें बौलीवुड फिल्म ‘यमला पगला दीवाना-2’ में धर्मेंद्र, सनी देओल और बौबी देओल के साथ परफौर्म करने का मौका मिला.

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पर्व के ‘इंटरनल ताल’ ग्रुप ने लंदन में ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों में भी अनेक कार्यक्रम किए हैं. सन 2010 में पर्व को हाउस औफ कामंस से लंदन में भांगड़ा संगीत में योगदान का सम्मान मिला. लंदन की ढोल क्वीन पर्व ने अपनी मेहनत से साबित कर दिया है कि यदि कोई भी व्यक्ति किसी भी काम को करने की ठान ले तो उसे सफलता जरूर मिलती है पर इस के लिए उस व्यक्ति के सीने में आग होना बहुत जरूरी है.

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