फुजूल की ट्रंप सेवा

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत की 36 घंटों की यात्रा पर जो तैयारी भारत सरकार ने की थी, वह पागलपन का दौरा ज्यादा थी. डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के चुने हुए राष्ट्रपति जरूर हैं और हो सकता है कि 2020 के चुनावों में एक बार फिर चुन लिए जाएं, पर वे न तो विश्व नेता हैं और न ही अमेरिकी जनता के नेता. वे सिर्फ हेरफेर, रूसी कृपा से, अमेरिकी गोरों की भड़ास पूरी करने वाले सिरफिरे से विशुद्ध व्यवसायी हैं जो राजनीति में घुस गए और जैसे व्यापार चलाते हैं, वैसे ह्वाइट हाउस चला रहे हैं.

उन्हें अमेरिका के सर्वोच्च पद पर बैठे होने के कारण इज्जत पाने का हक है, पर हम अपना दिल और दिमाग बिछा दें, इस की कोई जरूरत नहीं. उन का स्वागत एक आम पदासीन राष्ट्राध्यक्ष की तरह से होना चाहिए था, उन से व्यापार व कूटनीति के समझौते होने चाहिए थे, पर इतना होहल्ला मचाना अपनी कमजोरी दिखाता है.

अमेरिका अब भारत जैसे देश को कुछ दे नहीं सकता. एक समय पब्लिक ला 480 के अंतर्गत अमेरिका ने भारत की भूखी जनता को मुफ्त गेहूं दिया था. आज हमारा अपना भंडार लबालब भरा है. भारत अमेरिका से जो पाता है, वह खरीदता है, मुफ्त नहीं पाता. अमेरिका भारत की विदेश नीति में कोई खास मदद नहीं करता. अमेरिका में लाखों भारतीय मूल के लोग नागरिक हैं या अन्य वर्क वीजाओं के अंतर्गत काम कर रहे हैं, पर यह किसी राष्ट्रपति की कृपा नहीं है, यह अमेरिकियों की जरूरत है.

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अमेरिका अब दूसरा सब से मजबूत लोकतंत्र होने का लंबाचौड़ा रोब भी मार नहीं सकता, क्योंकि भारत और अमेरिका दोनों जगह नागरिकों की स्वतंत्रताएं आज बेहद खतरे में हैं. अमेरिका की जेलें लाखों कैदियों से लबालब भरी हैं और भारत की जेलें यातनाघर हैं, जहां बिना सजा पाए लोग वर्षों गुजार देते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अमेरिका और भारत दोनों में सरकारी या व्यापारिक ग्रहण लग चुका है.

अमेरिका अब किसी भी माने में दुनिया का सिपाही नहीं है और भारत किसी भी माने में एक आदर्श विकासशील देश नहीं है. ऐसे में भारत की अमेरिकी राष्ट्रपति की चाटुकारिता एक बेवकूफी से ज्यादा कुछ नहीं है, इसीलिए डोनाल्ड ट्रंप के बारे में जनता में कहीं भी जोश नहीं है. टीवी मीडिया इसे तमाशे के रूप में दिखाता रहा है और सड़कों पर भीड़ भाड़े पर ही आई थी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की यह क्षणिक यात्रा मात्र एक कौमा है, निरर्थक सा.

बढ़ गई बेकारी

गांवकसबों में बेकारी आज की सरकार के लिए कोई परेशानी की बात नहीं है. पुराणों में बारबार यही दोहराया गया है कि शूद्रों और उन के नीचे जंगलवासियों को कम में रहने की आदत होनी चाहिए और राजा को उन के पास जो भी हो छीन लेना चाहिए. यह हुक्म पुराणों में भरा हुआ है कि राजा जनता से धन एकत्र कर के ब्राह्मणों को दान कर दे.

आज देशभर की सरकारें यही कर रही हैं, चाहे किसी भी पार्टी की क्यों न हों. आरक्षण से जो उम्मीद बनी थी कि सदियों से दबाएकुचले किसान, कारीगर, मजदूर, कलाकार, मदारी, लोहार, बढ़ई, बिना जमीन वाले मजूर अपने बच्चों को पढ़ालिखा कर सरकारी नौकरी पा जाएंगे, अब खत्म होती जा रही है. मनरेगा जैसे प्रोग्राम की भी गरदन मरोड़ दी गई है. स्कूलों में खाना खिलाने में छुआछूत इस कदर फैल गया है कि अब निचले तबकों के बच्चे स्कूल जाने से कतराने लगे हैं.

इन गरीबों को अब मालूम पड़ गया है कि उन का कुछ भला न होगा. अकेले उत्तर प्रदेश में पिछले 2 सालों में 12 लाख से ज्यादा लोग बेरोजगार हो गए हैं और वे अब अपने घर वालों पर बोझ बन गए हैं. गरीब घरों में जब एक बेरोजगार और आ जाए तो आमदनी तो कम हो ही जाती है. जो रहनसहन पहले सब का था, वह एक निठल्ले की वजह से और हलका हो जाता है. हर घर में झगड़े शुरू हो गए हैं.

मंदिर, आश्रम, पूजापाठ का जो चसका हाल के सालों में चढ़ा है उस ने गांवकसबों की तसवीर और खराब कर दी है. खाली बैठे लोग मंदिरों से कमाई की खातिर मंदिरों के इर्दगिर्द दुकानें लगा कर बैठ गए हैं. जहां मिलता तो जरा सा है, पर यह भरोसा हो जाता है कि भगवान की कृपा होगी.

सरकार के खजाने में पैसा कम हो रहा है, क्योंकि एक तरफ टैक्स कम मिल रहे हैं, दूसरी तरफ सरकारी फुजूलखर्ची बढ़ रही है. सारे देश में पुलिस पर बेहद खर्च बढ़ रहा है. नागरिक संशोधन कानून से देश में अफरातफरी मची है, जिस के लिए चप्पेचप्पे पर पुलिस तैनात है और कहीं से तो पैसा आएगा ही. कश्मीर में कई लाख सैनिक, अर्धसैनिक और पुलिस वाले हैं. लाखों को नागरिकों पर नजर रखने के लिए लगा दिया गया है. मंदिरों पर सरकार बेतहाशा खर्च कर रही है.

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प्रधानमंत्री रोजगार योजना एक छोटा नमूना है जिस में पिछले साल 6 लाख मजदूर काम कर रहे थे, इस साल ढाई लाख रह गए. देशभर में कहीं भी न कुएं खुद रहे हैं, न डैम बन रहे हैं, न नहरें बन रही हैं, न जंगल उगाए जा रहे हैं.

देश में 16-27 साल के बीच के एकचौथाई जवान लड़केलड़कियां बेकार हैं और सरकार को मंदिर बनाने की पड़ी है. जीएसटी की वजह से लाखों छोटे दुकानदारों ने काम बंद कर दिया, क्योंकि उन का काम नकद से चलता था और जीएसटी में यह नहीं हो पाता. इन दुकानों पर काम करने वाले आज बेकार हैं. देश में नए मकान बनने कम हो गए हैं और नए मजूरों के लिए काम खत्म हो गया है.

गाडि़यां कम बिक रही हैं तो पैट्रोल कम बिक रहा है, सड़क के किनारे बनी गाड़ी मरम्मत की दुकानें उजड़ रही हैं. सरकारी विभागों में 22 लाख पद खाली हैं, पर सिवा भरती के विज्ञापन देने के कोई काम नहीं हो रहा.

यह देश के कल की बुरी हालत का एक जरा सा हलका सा निशान है, पर यह पुराणों की बात साबित करता है.

कहकशां अंसारी – फुटबाल ने बदल दी जिंदगी

लेखिका- निभा सिन्हा

24 दिसंबर, 1994 को गोरखपुर की बसंत नरकटिया नामक जगह पर कहकशां अंसारी ने जन्म लिया, तो सब से ज्यादा मायूस अब्बा मोहम्मद खलील अंसारी हुए थे.

वजह, लड़कियों का क्या, वे तो भारी खर्च करा कर शादीब्याह कर के दूसरे का घर आबाद करेंगी. बेटा होता तो बड़ा हो कर उन के काम में हाथ बंटाता.

मोहम्मद खलील अंसारी गीता प्रैस गोरखपुर में काम करते थे, पर घरखर्च चलाने के लिए अरबी भाषा की ट्यूशन भी लेते थे.

नन्ही कहकशां बचपन से ही चंचल, हठी और बातूनी थी. एक बार जो ठान लिया, उसे पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी. उस के घर या आसपास की लड़कियां जब सिर पर दुपट्टा रख गुड्डेगुडि़यों का खेल खेलती थीं, मेहंदी लगवाने या नई चूडि़यां पहनने की जिद करती थीं, तब कहकशां इधरउधर ऊधम मचाती फिरती थी या हमउम्र दोस्तों को चिढ़ाया करती थी.

कहकशां को गेंद से खेलना बहुत भाता था. गेंद से खेलतेखेलते कब उसे फुटबाल से लगाव हो गया, पता ही नहीं चला, पर फुटबालर बनना उस के लिए इतना आसान भी नहीं था. स्कूल में उसे सिर्फ गेम्स पीरियड में ही खेलने का मौका मिल पाता था.

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कहकशां के हुनर और लगन को देखते हुए 7वीं जमात में उस का चयन अपने स्कूल ‘इमामबाड़ा मुसलिम गर्ल्स इंटर कालेज, गोरखपुर’ की फुटबाल टीम में हो गया था. यह उस के लिए बड़ी खुशी की बात थी, पर घर के बड़ेबुजुर्गों ने इस की पुरजोर खिलाफत की थी.

कहकशां पहले 2-3 दिनों तक तो चुप ही रही, फिर उस ने हिम्मत और अक्ल से काम लिया. वह सीधे पहुंच गई फुटबाल कोच आरडी पौल के पास. उन्हें अपना दुखड़ा सुनाया और अगले दिन उन्हें अपने घर ले कर पहुंच गई.

कोच आरडी पौल ने अम्मीअब्बू से बात की, कहकशां के हुनर और मजबूत इरादों से परिचित करा कर उन्हें राजी तो कर लिया, पर संयुक्त परिवार के दूसरे कई सदस्यों की खिलाफत फिर भी जारी रही.

अम्मीअब्बू के हां कहने के बाद तो कहकशां की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. उस ने अपनी मेहनत दोगुनी कर दी. बेटी की उपलब्धि ने अब्बू का दिल भी जीत लिया था. बेटी के सपनों को पूरा करने में अब वे भी साथ देने लगे. गरमी के दिनों में सुबह साढ़े 4 बजे और सर्दियों में सुबह साढ़े 5 बजे उसे उठाते, अपने साथ ले जा कर ग्राउंड में छोड़ते और वहीं से मसजिद चले जाते.

सुबह के 8 बजे तक कहकशां प्रैक्टिस करती, घर आ कर अम्मी के काम में थोड़ा हाथ बंटाती और फिर तैयार हो कर स्कूल पहुंच जाती, शाम को फिर अभ्यास. यही दिनचर्या बन गईर् थी उस की.

कहकशां की मेहनत रंग लाई और अगली बार ही उस का चयन सबजूनियर नैशनल फुटबाल टीम में हो गया. अब्बू खुश थे, पर इस बार अम्मी अड़ गईं कि वे उसे बाहर नहीं जाने देंगी. बड़ी मुश्किलों के बाद किसी तरह अम्मी को राजी कर लिया गया.

अपनी तरफ से कहकशां कोशिश करती कि अच्छा खेले, पर कई बार गलतियां हो जाती थीं. कमियों को दूर करने के लिए कोच द्वारा बुरी तरह डांट भी पड़ती थी. साधन सीमित थे और मंजिल दूर, उसे महसूस हुआ कि अच्छे इंटरनैशनल खिलाडि़यों के खेल देख कर वह अपनी कमियों को दूर कर सकती है.

घर में टैलीविजन नहीं था. जिस दिन फुटबाल मैच देखना होता, वह शाम को थोड़ी दूरी पर रहने वाली अपनी बूआ के घर पहुंच जाती. वहां थोड़ा पढ़लिख कर बूआ के कामों में हाथ बंटाती और रात में मैच देखती, फिर वहीं से सुबह प्रैक्टिस करने समय पर गाउंड में पहुंच जाती.

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अब कहकशां के हुनर को रफ्तार मिल गई. उस ने सबजूनियर नैशनल, जूनियर नैशनल सभी खेला. 2008 में अंडर 14 में बिहार वुमंस चैंपियनशिप में उत्तर प्रदेश की तरफ से कहकशां ने प्रतिनिधित्व किया. उस की टीम जीती. उसे बैस्ट कैप्टन और बैस्ट प्लेयर घोषित किया गया. साल 2010 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा गोरखपुर में ‘पूर्वांचल सम्मेलन समारोह’ में सम्मानित करते हुए सर्टिफिकेट दिया गया.

एक तरफ कहकशां को फुटबालर बनने की तमन्ना थी, तो वहीं दूसरी तरफ पढ़ने का हौसला भी रखती थी. स्कूल तक की पढ़ाई तो पूरी हो गई, पर आगे की पढ़ाई जारी रखने में माली चुनौतियां सामने थीं. स्कूल के दिनों में ही बीमारी के चलते अब्बू को नौकरी छोड़नी पड़ी थी.

पर कहते हैं न कि ‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’, डरना तो कहकशां जानती ही नहीं थी, बस उस का भी समाधान निकाल लिया इस हठी लड़की ने. कालेज की पढ़ाई के बाद लाइब्रेरी में जा कर पढ़ती और उस के बाद कई घरों में ट्यूशन पढ़ा कर रात 9 बजे तक घर लौटती, ताकि समय से फीस भरी जा सके.

आज कहकशां अपनी लगन और मेहनत के बल पर गे्रजुएशन के साथसाथ बैचलर औफ फिजिकल ऐजूकेशन का कोर्स पूरा कर चुकी है और संफोर्ट वर्ल्ड स्कूल, ग्रेटर नोएडा में फुटबाल कोच के रूप में काम करती है.

कहकशां के अब्बू अब इस दुनिया में नहीं हैं. उन के बाद अम्मी व 5 छोटे भाईबहनों की पढ़ाईलिखाई की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए स्कूल खत्म होने के बाद शाम को ‘बाइचुंग भूटिया फुटबाल स्कूल, ग्रेटर नोएडा’ में 2 घंटे बच्चों को फुटबाल खेलने की ट्रेनिंग देती है.

अपनी जद्दोजेहद के बारे में पूछने पर कहकशां कहती है, ‘‘अभी लहरों के बीच नौका में पतवार चलानी शुरू की है. मंजिल तो अभी बाकी है, दूर है… पर नामुमकिन नहीं.’’

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कहकशां का फिजिकल ऐजूकेशन में मास्टर डिगरी और पीएचडी कर के अपनी अकादमी शुरू करने का इरादा है, ताकि भारतीय फुटबाल टीम के लिए और भी कहकशां पैदा की जा सकें.

मजबूत बदन की बेखौफ टौम गर्ल नीलम सिंह

लेखक- सुनील

जब मैं नीलम सिंह से फरीदाबाद के एक जिम में मिला था, तो एक अजीब सा वाकिआ हुआ था. चूंकि नीलम सिंह एकदम लड़कों के स्टाइल में रहती हैं और शरीर से भी मजबूत हैं, तो जिम में हमारे लिए फोटो खिंचवाने की खातिर वे सैंडो और शौर्ट्स में थीं. लड़कों वाला हेयर स्टाइल देख कर जिम में ऐक्सरसाइज कर रहे कुछ लड़के उन्हें पहचान नहीं पाए और किसी लड़के ने अपने साथी को गाली दे दी.

नीलम सिंह ने तुरंत उस लड़के को टोक दिया और बोलीं, ‘‘जिम में गाली दोगे तो बौडी नहीं बनेगी…’’ इतना कह कर वे लेडी वाशरूम में चली गईं, जबकि वह लड़का तिलमिला गया कि बिना जानपहचान उसे टोक कैसे दिया?

इसी बीच उस जिम का कोई मुलाजिम वहां आया और उस लड़के ने उस से पूछा कि ये महिला कौन हैं. थोड़ी देर बाद जब नीलम सिंह बाहर आईं, तो उस लड़के ने उन के पैर छू कर माफी मांगी और बोला, ‘‘सौरी, मैं आप को पहचान नहीं पाया.’’

नीलम सिंह उस लड़के को देख कर मुसकराईं और वहां से चली गईं.

बाद में बातचीत में उन्होंने बताया, ‘‘शरीर बनाना इतना आसान नहीं है. एक तरह की तपस्या है और अपना सौ फीसदी देना पड़ता है.’’

आप सोच रहे होंगे कि ये नीलम सिंह हैं कौन? दरअसल, नीलम सिंह महिला पावर लिफ्टिंग में ऐसा नाम हैं, जिन का घर मैडलों से अटा पड़ा है, पर यह सफर उन के लिए आसान नहीं रहा है.

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अपनी जिंदगी की जद्दोजेहद के बारे में नीलम सिंह ने बताया, ‘‘मैं हरियाणा के शहर रोहतक से बिलकुल सटे एक गांव डोभ के बहुत ही साधारण और गरीब परिवार की लड़की हूं. मुझे बचपन से ही कुछ अलग करने का शौक था. लेकिन आज से 10-15 साल पहले वहां लड़कियों को खेलने की छूट नहीं थी, उन्हें अपनी मनमानी करने की आजादी नहीं थी. चूंकि मैं एक गरीब परिवार से थी, तो परिवार में ऐसा कोई नहीं था, जिस ने खेलों को कभी अपनाया हो.

‘‘पर, मैं गांवदेहात की आम लड़की की तरह जिंदगी नहीं बिताना चाहती थी कि 10वीं जमात तक पढ़ा दिया, फिर शादी कर दी और बच्चे पैदा करा दिए.

‘‘सच कहूं तो बचपन में मैं पायलेट बनना चाहती थी, पर जब मैं 5वीं जमात में थी, तब मेरे मातापिता बीमार रहने लगे थे. मेरी बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी, इसलिए घर में मैं अकेली ही थी. भाई भी बाहर रहता था, तो मैं ही घर संभालती थी, खेतों का काम करना पड़ता था. पढ़ाई करने का समय ही नहीं मिलता था.

‘‘ऐसा करतेकरते जब मैं 10वीं जमात में आ गई, तब सोचती थी कि अपने सपनों को कब पूरा करूंगी? मेरा जोश हर रोज मुझे कचोटता था कि मैं कब अपने सपने पूरे करूंगी?

‘‘फिर, मैं खेलों की तरफ झुकती चली गई. रोहतक में मुझे कोई अच्छा कोच नहीं मिला. वहां लड़कियां कुश्ती नहीं खेलती थीं. वहां मैं ने सुना था कि दिल्ली के चंदगीराम अखाड़े में लड़कियों को कुश्ती सिखाई जाती है, तो मैं भी उस अखाड़े में रहने लगी.

‘‘पर एक बार जब मैं ने लखनऊ के एक दंगल में गुरुजी की बड़ी बेटी को कुश्ती में हरा दिया, तो उन्होंने नाराज हो कर मुझे अखाड़े से निकाल दिया.

‘‘इसी बीच दिल्ली में स्पोर्ट्स अथौरिटी औफ इंडिया के लिए महिला पहलवानों की ट्रायल थी, जिस में मेरा सिलैक्शन हो गया. अब सरकार मेरा खर्चा उठाती थी. उस के बाद मैं दिल्ली से खेली, हरियाणा से खेली थी, नैशनल भी खेली. तब मैं 59 किलोग्राम भारवर्ग में कुश्ती खेलती थी. मेरे नैशनल में कुश्ती के 9-10 गोल्ड मैडल हैं, 12-13 सिल्वर मैडल हैं और 7-8 ब्रौंज मैडल हैं.

‘‘मैं ने वैश्य कालेज, रोहतक से ग्रेजुएशन की. इसी बीच अलका तोमर के साथ मेरी कुश्ती की ट्रायल थी, जिस में मेरे घुटने पर चोट लग गई और साल 2009 में मुझे कुश्ती छोड़नी पड़ी. लेकिन मेरा जिम जाने का जुनून बना रहा.

‘‘मैं दिल्ली से फरीदाबाद आ गई. यहां मैं जिम में लोगों को ट्रेनिंग देने लगी. एक साल के लिए मैं ने मुंबई में भी महेंद्र सिंह धौनी के जिम में काम किया था. काम करने के साथसाथ मैं पावर लिफ्टिंग में आ गई और साल 2015 से मैं पावर लिफ्टिंग कर रही हूं.

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‘‘आज मैं फरीदाबाद, गुरुग्राम, नोएडा, दिल्ली में 80 से 90 लोगों की टीम को ट्रेनिंग देती हूं. खेलों में कुछ कर गुजरने वाली गरीब घर की लड़कियों को मैं बहुत सपोर्ट करती हूं. मैं बच्चों को मुफ्त में ट्रेनिंग देती हूं. कुछ की तो किसी प्रतियोगिता में मैं खुद ही फीस भरती हूं.

‘‘पावर लिफ्टिंग में मैं ने 100 से ज्यादा गोल्ड मैडल जीते हुए हैं. साल 2016, साल 2017 और साल 2018 की बहुत सी प्रतियोगिताओं के 65 किलोग्राम भारवर्ग में मैं ने ज्यादातर गोल्ड मैडल ही जीते हैं. मैं ‘आल ओवर स्ट्रौंग वुमन’ भी रह चुकी हूं.

‘‘लेकिन, मेरा यह सफर हमेशा से संघर्ष भरा रहा है. मुझे तो यह भी पता नहीं होता था कि शरीर को मजबूत करने के लिए प्रोटीन की कितनी अहमियत होती है. पैसे भी नहीं होते थे. वैसे भी सप्लीमैंट्स के भरोसे ज्यादा नहीं रहना चाहिए.

‘‘मैं नई महिला खिलाडि़यों से इतना ही कहना चाहूंगी कि वे खुद को तन और मन से मजबूत बनाएं. जिस तरह से देश में अपराध बढ़ रहे हैं, उन्हें खुद अपना बचाव करना सीखना होगा. उन्हें बोल्ड बनना पड़ेगा, ताकि कोई बदतमीजी करे तो उस का वहीं मुंहतोड़ जवाब दे दिया जाए.’’

औरत कैब ड्राइवर

जम्मू के कठुआ इलाके की रहने वाली एक डोगरी लेखिका को दिल्ली के एक साहित्यिक कार्यक्रम में आने का न्योता दिया गया. होटल में रुकने के साथसाथ हवाईजहाज से आनेजाने की टिकट भी भेजी गई. पर उन लेखिका को अकेले दिल्ली आने में डर लग रहा था. सोचा कि दिल्ली तो हवाईजहाज से पहुंच जाएंगी, पर उस से आगे इतने बड़े शहर में अपने होटल कैसे पहुंचेंगी? उन का डर जायज था, क्योंकि दिल्ली में अकेली किसी औरत या लड़की को लूट लेने की खबरें वे रोजाना अखबारों में पढ़ लेती थीं.

लेकिन उन लेखिका ने हिम्मत नहीं हारी और इंटरनैट पर इस का समाधान ढूंढ़ना शुरू किया. थोड़ी सी मेहनत करने के बाद उन्हें पता चला कि दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनैशनल हवाईअड्डे पर एक अनूठी कैब सेवा की शुरुआत की गई है. इस का नाम ‘सखा कैब’ रखा गया है. इस कैब सेवा की खास बात यह है कि इसे केवल महिला ड्राइवर ही चलाएंगी और इस कैब सेवा का फायदा भी केवल महिलाएं या फिर परिवार के साथ सफर करने वाले लोग ही उठा पाएंगे.

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इस कैब सेवा को एक निजी स्वयंसेवी संस्था आजाद फाउंडेशन की मदद से खासतौर पर अकेले सफर कर रही महिलाओं की हिफाजत को ध्यान में रख कर शुरू किया गया है, जिस के तहत महिलाओं को ड्राइविंग के साथसाथ सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग भी दी जाती है. इस के अलावा जीपीएस के जरीए कैब का संपर्क सीधा कंट्रोल रूम से रहता है, जिस से किसी भी हालत में सूचना नजदीकी पुलिस स्टेशन तक पहुंच जाएगी.

इस सेवा का नाम ‘वुमन विद ह्वील्स’ रखा गया है और इस का दिल्ली के किसी भी हिस्से में फायदा उठाया जा सकता है. इस कैब सेवा में मर्दों को बैठने की तभी इजाजत दी जाती है, जब वे किसी महिला या अपने परिवार के साथ हों.

कमजोर बैकग्राउंड की महिलाओं को पेशेवर ड्राइवर बनने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है.

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‘सखा’ के नाम ऐसी और कई उपलब्धियां हैं, जो एकदम नई हैं. जैसे, इस ने डीटीसी को पहली महिला बस ड्राइवर दी थी. साथ ही, यूनिसैफ, अमेरिकी दूतावास, लीला होटल, दिल्ली महिला आयोग, इंदौर नगरनिगम, कोलकाता के पार्क होटल और ओबरौय होटल को भी पहली महिला ड्राइवर देने का क्रेडिट ‘सखा’ को ही जाता है.

दाई से डिलीवरी न कराएं

फिल्म ‘दंगल’ तो आप सब को याद होगी ही. हरियाणा का एक ठेठ देहाती पहलवान जब साधनों की कमी में खुद कुश्ती में कोई बड़ा कारनामा नहीं कर पाता है, तो उसे अपनी आने वाली औलाद से उम्मीद बंध जाती है. औलाद भी लड़का ही चाहिए, क्योंकि तब समाज में लड़कियों को लड़कों की तरह लंगोट बांध कर अखाड़े में उतरने की तो सोचिए भी मत, ढंग से स्कूल में भेज दो तो गनीमत समझी जाती थी.

बेटे के चक्कर में पहलवान महावीर फोगाट बने आमिर खान के एक के बाद एक 4 बेटियां पैदा हो जाती हैं. बाद में इस फिल्म की कहानी क्या मोड़ लेती है, उस पर ज्यादा बात नहीं करेंगे, पर हां एक गंभीर मुद्दे पर जरूर सोचेंगे कि फिल्म में आमिर खान की पत्नी बनी साक्षी तंवर की जचगी कहां और कैसे होती है.

महावीर फोगाट का घर एक ऐसे किसान का घर था, जहां सुखसुविधाओं के नाम पर जरूरत का कुछ पुराना सामान, खाना बनाने के लिए चूल्हा और ईंधन की लकडि़यां ही थीं. घर की जर्जर होती दीवारों के बंद कमरे के बाहर महावीर फोगाट अपनी औलाद की पहली रुलाई सुनने के लिए बेचैन खड़ा होता है.

दरवाजा खुलता है तो एक बुढि़या दाई मायूस सा चेहरा लिए बेटी होने की खबर देती है. ऐसा एक बार नहीं, बल्कि 4 बार होता है, क्योंकि महावीर फोगाट 4 बेटियों का बाप जो बनता है. पर हर बार जचगी दाई से ही होती है.

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वहां पर गनीमत यह होती है कि उस दाई से कोई हादसा नहीं होता है. यह भी कह सकते हैं कि आज से 25-30 साल पहले तक दाई से जचगी कराने पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता था. लेकिन आज जब गांवदेहात के आसपास के कसबे या छोटे शहर में लेडी डाक्टर मिल जाती हैं, तो भी बहुत से लोग जचगी गांव में किसी दाई से ही करा लेते हैं.

यूनिसैफ द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक, दुनियाभर में पेट से होने  और जचगी से जुड़ी समस्याओं के चलते तकरीबन 2,90,000 औरतों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था.

अंदाजा है कि हर साल 28,00,000 गर्भवती औरतों की मौत हो जाती है, जिस के पीछे की सब से बड़ी वजह सही पोषण और उचित देखभाल का न मिल पाना होता है.

इतना ही नहीं, दुनियाभर में एकतिहाई नवजात बच्चों की मौतें अपने जन्म के दिन ही हो जाती हैं, जबकि बाकी तीनचौथाई बच्चे जन्म के एक हफ्ते के भीतर ही मर जाते हैं.

दिक्कत यह है कि आज भी भारत के बहुत से गांवों में बच्चा पैदा होने को गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जबकि यह एक तरह से बच्चे के साथसाथ उस औरत का भी दूसरा जन्म होता है, जो मां बनती है. लिहाजा, जचगी ऐसी किसी बूढ़ी औरत से करा दी जाती है, जो दिल की थोड़ी पक्की जरूर होती है, पर उसे जचगी के समय होने वाले खतरों की उतनी जानकारी नहीं होती है, जितनी किसी माहिर डाक्टर को होती है.

इस सिलसिले में फरीदाबाद के मेवला महाराजपुर गांव की एक आंगनबाड़ी महिला हैल्पर ने बताया कि यहां की कच्ची कालोनियों में रहने वाले ज्यादातर लोग दूसरे राज्य के गरीब परिवारों के होते हैं. सरकारी अस्पताल में बच्चा जनने के लिए आधारकार्ड जैसे पहचानपत्र की जरूरत होती है और बहुत से लोगों के पास वह नहीं होता है. लिहाजा, ऐसी औरतें घर पर ही अपनी सगीसंबंधी औरतों या पड़ोस की औरतों की मदद से जचगी करा लेती हैं.

इसी गांव की रहने वाली रेखा का दूसरा बेटा गांव में ही दाई के हाथों पैदा हुआ था, जबकि पहला बेटा सरकारी अस्पताल में.

रेखा के मुताबिक, घर हो या अस्पताल, सारा काम तो जच्चा को ही करना होता है. अगर वह शरीर और मन से मजबूत है तो उस की मददगार कोई डाक्टर है या दाई, कोई फर्क नहीं पड़ता है.

पर, रेखा का यह बयान भावुकता पर ज्यादा टिका है. इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं. मान लीजिए, कोई औरत पहली बार मां बनने वाली है और वह किसी ऐसे गांव में रहती है, जहां आसपास प्रसूति केंद्र तो है, लेकिन उस की ससुराल वाले गांव की दाई से ही जचगी कराना चाहते हैं.

चूंकि वह औरत पढ़ीलिखी है और जचगी के दौरान अपने और होने वाले बच्चे के लिए कोई जोखिम नहीं लेना चाहती है, तो अपनी ससुराल वालों की सलाह को दरकिनार कर के वह डाक्टर से मिलती है और समयसमय पर अपनी जांच कराती है. वहां डाक्टर द्वारा खून, पेशाब, ब्लड प्रैशर, वजन, पोषण वगैरह की जांच होते रहने से उस औरत को बहुत फायदा होता है, जो एक दाई उसे कभी नहीं बता पाएगी.

याद रखिए, मां बनने वाली जिन औरतों का ब्लड ग्रुप आरएच नैगेटिव होता है, उन के बच्चे की पीलिया या दूसरी किसी दिक्कत से मौत हो जाने का डर रहता है. लेकिन समय से पहले आरएच नैगेटिव ब्लड ग्रुप पता चल जाने पर सावधानी बरती जा सकती है और बच्चे में नया खून ‘ट्रांसफ्यूजन’ से यानी बदल कर उस की जान बचाई जा सकती है. गांवदेहात में क्या, बहुत सी शहर की औरतों को इस बारे में शायद ही जानकारी हो, दाई की तो छोड़ ही दीजिए.

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बहुत सी औरतें अपनी दाई से यह बात छिपा जाती हैं कि उन को पहले गर्भपात भी हो चुका है यानी उन का पेट गिर चुका है. उन की यही लापरवाही खुद उन के लिए और आने वाले बच्चे के लिए खतरनाक हो सकती है, क्योंकि अगर ऐसा हुआ है, तो दाई कुछ नहीं कर पाएगी, जबकि माहिर डाक्टर समय रहते जच्चा को बता देगी कि उसे क्याक्या सावधानियां बरतनी होंगी.

इस सिलसिले में दिल्ली के बीएल कपूर अस्पताल की गाइनोकौलोजिस्ट डाक्टर शिल्पी सचदेव ने बताया, ‘‘आमतौर पर गांवदेहात में लोग घर पर ही किसी दाई से जचगी इसलिए करा लेते हैं, क्योंकि वे प्राइवेट अस्पताल के खर्च से बचना चाहते हैं या फिर सरकारी अस्पताल में लंबी लाइनों में नहीं लगना चाहते हैं, जबकि गांव में जच्चा का कोई टैस्ट नहीं होता है. मां और बच्चे का वजन कितना है या पेट में बच्चे का सिर नीचे है या फिर उलटा है, यह भी दाई को नहीं पता होता है.

‘‘अगर मां का ब्लड ग्रुप नैगेटिव है और पिता का ब्लड ग्रुप पौजिटिव है तो जचगी में बच्चे को दिक्कत हो सकती है. इस के लिए एक इंजैक्शन लगाया जाता है. अगर पहली जचगी में यह इंजैक्शन नहीं लगता है, तो दूसरी जचगी में बच्चे को बहुत नुकसान हो सकता है.

‘‘दाई के साथ सब से बड़ी समस्या यह होती है कि बहुत बार वह साफसफाई का ध्यान नहीं रखती है. वह दस्ताने नहीं पहनती है. इस से मां और बच्चे दोनों को इंफैक्शन होने का खतरा बना रहता है. दाई के पास टांके लगाने का भी कोई पुख्ता इंतजाम नहीं होता है. दूसरे अहम उपकरण भी नहीं होते हैं.

‘‘अगर जचगी के दौरान खून ज्यादा बहने लगता है, तो दाई को सही तकनीक नहीं पता होती है कि कैसे उस पर काबू पाया जाए. इस से मां की जान को खतरा हो सकता है.

‘‘कभीकभार तो जचगी के बाद गर्भनाल अंदर ही रह जाती है. यह भी एक बहुत बड़ी समस्या है. अगर बच्चा एकदम से नहीं रोया या उस को औक्सीजन नहीं मिल पा रही है, उस के फेफड़े नहीं फूल रहे हैं, तो दाई को इस से निबटने का तरीका पता ही नहीं होता है, जबकि अस्पताल में आधुनिक उपकरण होते हैं, जिन की मदद से डाक्टर ऐसी किसी समस्या का हल तुरंत निकाल लेता है.

‘‘ऐसे बहुत से केस सुनने में आते हैं कि जब किसी बच्चे में पूरी औक्सीजन नहीं पहुंचने से वे विकलांग तक हो जाते हैं या दिमागी तौर पर वे अच्छी तरह बढ़ नहीं पाते हैं. अगर किसी औरत को थायराइड की दिक्कत होती है, तो इस का बुरा असर पैदा होने वाले बच्चे पर भी पड़ सकता है.

‘‘किसी मां के पेट में पल रहे बच्चे में अगर कोई बनावट संबंधी खराबी है, तो गांव में उस का पता ही नहीं चल पाता है, जबकि डाक्टर इन सब बातों की पूरी जानकारी रखता है.

‘‘दाई गर्भनाल काटने के लिए अच्छे ब्लेड का इस्तेमाल नहीं करती है. कपड़ा भी कैसा है, इस का ज्यादा ध्यान नहीं रखती है. इस से इंफैक्शन का खतरा बढ़ जाता है.’’

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पहले तो सुविधाएं न होने और जानकारी की कमी में लोग दाई से जचगी करा लेते थे और अगर कोई हादसा हो जाता था तो उसे ऊपर वाले का फैसला मान कर चुप्पी साध लेते थे, पर अब ऐसा करने या सोचने की कोई वजह नहीं है.

याद रखिए, अगर बच्चे सेहतमंद पैदा नहीं होंगे तो वे बड़े हो कर अपनी पूरी ताकत से देश को आगे बढ़ाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे. दाई के पास  नहीं, बल्कि जचगी के लिए डाक्टर के पास जाएं, जच्चाबच्चा को सहीसलामत घर वापस लाएं.

गहरी पैठ

देश में अच्छे दिन आने वाले हैं या देश सताए गए लोगों (केवल हिंदू) की पनाह की जगह बनने वाला है, यह अब सपना ही रह गया है. पाकिस्तान, बंगलादेश या अफगानिस्तान से धर्म के नाम पर सताए जाने वाले भारत तो तब आएंगे न जब यहां उन्हें कुछ भविष्य दिखेगा. अगर 1947 से 2020 तक, 73 सालों से, वे वहां रह रहे हैं और जिंदा हैं तो इस का मतलब है कि अपनी रोजीरोटी तो कमा पा रहे हैं. भारत में तो भारतीयों के लिए रोजीरोटी के लाले पड़ रहे हैं. भाजपा की जबान में आने वाले 4 करोड़ हिंदुओं को हम खिलाएंगे क्या?

इंजीनियरिंग आज देश की हालत सुधारने की पहली जरूरत है. कुछ भी बनाना हो, सड़क, स्कूल, अस्पताल, जेल, डिटैंशन सैंटर, मंदिर, मूर्ति सब से पहले इंजीनियर की जरूरत होती है. अगर इंजीनियरों की जरूरत ही नहीं तो मतलब साफ है कि कुछ बन नहीं रहा. वैसे, कुछ बड़ा बनता दिख भी नहीं रहा सिवा मंदिरों के.

इंजीनियरिंग कालेजों को इजाजत देने वाली संस्था आल इंडिया काउंसिल औफ टैक्निकल ऐजूकेशन ने फैसला किया है कि अब 2 साल तक कोई नया इंजीनियरिंग कालेज नहीं खोला जाएगा. देश में 27 लाख सीटों वाले कालेज पहले से मौजूद हैं और 3-4 सालों से उन में दाखिला लेने वालों में कमी होती जा रही है. 2019 में 13 लाख ने ही इस महंगी पढ़ाई में अपनी पूंजी लगाने की इच्छा दिखाई, क्योंकि शायद उन्हें पता है कि नौकरी तो मिलनी नहीं.

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यह बेहद शर्म की बात है कि जो सरकार बड़ेबड़े सपने दिखा रही हो, 5 ट्रिलियन डौलर (जो भी इस का मतलब हो) के उत्पादन वाला देश बना डालेगी का दावा कर रही हो, जगद्गुरु होने का घमंड कर रही हो, रोज भाषणों पर भाषण लाद रही हो, वहां आगे बढ़ने की पहली जरूरत इंजीनियरों को नौकरी तक नहीं दे पा रही है.

यह कमी प्लानिंग की नहीं गिरते कौंफिडैंस की है. गांवकसबों सब जगह यह बात फैल चुकी है कि इंजीनियरिंग की महंगी पढ़ाई के बाद नौकरियां तो मिलेंगी नहीं. सरकार खुद अब कुछ बनाएगी नहीं. रिजर्वेशन प्राइवेट नौकरियों में है नहीं. तो फिर कोई क्यों खेतमकान बेच कर लड़कों को इंजीनियरिंग पढ़ाने में पैसा लगाए? अगर पिछड़ों और शैड्यूल कास्टों का रिजर्वेशन रखा तो बहुत से लड़के किसी भी तरह का जुगाड़ कर के इंजीनियरिंग करते ताकि सरकारी नौकरी मिल सके.

अब जब पक्का है कि सरकारी नौकरी तो है ही नहीं और यह भी पक्का है कि प्राइवेट नौकरियां तो ऊंची जमातों के लोग खा जाएंगे, तो गांवकसबों में थोड़े पैसे वाले घरों के लड़के भी इंजीनियरिंग में 5-7 साल लगाने का रिस्क लेने को तैयार नहीं. आज की सरकार तो कह रही है अच्छी नौकरी तो गौरक्षक गैंग का मैंबर बनना है और उस के लिए डिगरी की जरूरत नहीं.

आजकल सीसीटीवी कैमरे पुलिस से ज्यादा जरूरी हो गए हैं. जरूरत है कि हर गांवकसबे में भी ये लगाए जाएं, क्योंकि जनता की देखभाल अब पुलिस के बस की नहीं रह गई है. लोगों को डर पुलिस या कानून से नहीं, बल्कि सीसीटीवी कैमरों से है.

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दिल्ली में एक ईरिकशा ड्राइवर, उस की बीवी और 3 बच्चों की सनसनीखेज मौत का राज सीसीटीवी कैमरों से ही खुला. पता चला कि कत्ल करने वाला चचेरा भाई ही था, जिस ने 30 हजार रुपए उधार ले रखे थे. कई बार रुपए वापस मांगने पर वह इतना गुस्सा हो गया कि उस ने एकएक कर के 3 घंटों में पांचों की हत्या कर डाली और फरार हो गया. शुरू में लगा था कि यह खुदकुशी का मामला है, पर धीरेधीरे सीसीटीवी कैमरों से राज खुल गए. अभी हर घर में सीसीटीवी कैमरे चाहे न लगे हों, पर जहां लगे हैं, वहां उन कैमरों की रिकौर्डिंग चैक कर के पूरी कहानी का पता चल जाता है.

इस मामले में 7 दिनों तक किसी को कुछ पता न चला. जब घर से लाशों के सड़ने की बदबू आने लगी तो पता चला कि मामला क्या है.

पैसे की तंगी और चौपट होते धंधों की वजह से खुदकुशी अब सिर्फ किसान ही नहीं कर रहे, शहरों में व्यापारी, ड्राइवर, मजदूर भी कर रहे हैं और ऐसे माहौल में किसी को दिए 30 हजार रुपए बहुत हो जाते हैं. उधार देने वाला जब रुपए वापस मांगता है तो उधार लेने वाले के लिए आफत सी हो जाती है और नतीजतन उधार देने वालों की हत्या तक कर दी जाती है. जब तक लोगों को भरोसा था कि आज नहीं तो कल पैसा आ ही जाएगा, मामला चल रहा था और लोग गरीबी में भी गुजारा कर लेते थे, पर अब कल का भी भरोसा नहीं है, क्योंकि माहौल बहुत खराब हो गया है और बुरे से बुरा हो रहा है.

धर्म का ढिंढोरा पीट कर पिछले 6 सालों में वैसे भी लोगों को बहुत मारपीट के लिए तैयार किया गया है. देशभर में दलितों और मुसलिमों को मारनेपीटने को पुलिस अनदेखा कर देती है. उत्तर प्रदेश में ही नहीं और कई राज्यों, जिन में दिल्ली शामिल है, में पुलिस ने खुद तोड़फोड़ की है, बेहरमी से पिटाई की है, जो सीसीटीवी कैमरों में रिकौर्ड हो गई है. जामिया और जेएनयू में पुलिस की मौजूदगी में गोलियां चलीं, होस्टल में घुस कर पिटाई की गई.

बिहार में कन्हैया कुमार के काफिले पर 7 बार हमले हुए. उत्तर प्रदेश, दिल्ली और बिहार के महान मुखिया थाने से भाषण बघारते रहे. दिल्ली में पुलिस अमित शाह के कंट्रोल में है और दिल्ली के चुनावों में एक बार भी उन्होंने उन लोगों के लिए हमदर्दी का एक बोल न बोला, जिन की पिटाई हुई.

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ऐसे माहौल में 30 हजार रुपए के लिए 5 हत्याएं हो जाएं, तो क्या बड़ी बात है. पुलिस तो जब आएगी, तब आएगी, पहला बचाव और सुबूत तो भई सीसीटीवी कैमरे ही हैं. यह धंधा आज जम कर पनप रहा है. पता नहीं सरकार की कितनी पत्ती है इस में.

नक्सलियों की “हथेली” पर छत्तीसगढ़!

छत्तीसगढ़ में 15 वर्ष की भाजपा सरकार के पलायन के बाद कांग्रेस के आगमन से यह संदेश प्रसारित हुआ था कि बस्तर में नक्सलवाद अब खत्म हो जाएगा. मगर घटनाक्रमों को देखते हुए कहा जा सकता है कि आज भी नक्सलियों, नक्सलवाद के हथेली पर छत्तीसगढ़ रुक-रुक कर सांसे ले रहा है.

भानुप्रतापपुर के दुर्गूकोंदल में एक राजनीतिक दल के पदाधिकारी  रमेश गावड़े की हत्या की जिम्मेदारी नक्सलियों ने आखिरकार ली है. माओवादियों  के  उत्तर बस्तर डिवीजन कमेटी ने एक पर्चा  जारी किया है. रमेश पर जनविरोधी खदान का समर्थन करने का आरोप लगाया गया है. दरअसल, 29 फरवरी को भाजपा  कार्यकर्ता व पूर्व जनपद सदस्य रमेश गावड़े को उनके घर के सामने ही गोली मारकर हत्या कर दी गई. अब नक्सलियों ने हत्या की जिम्मेदारी ली है. नक्सलियों के द्वारा दुर्गुकोंदल ग्राम के साप्ताहिक बाजार क्षेत्र में और मृतक के घर के सामने पर्चे फेंके,पर्चो में लिखा है कि लौह अयस्क कंपनी के मालिकों के समर्थक पूंजी पतियों के साथ होने के कारण पीएलजी ए एवं जनता ने उन्हें यह सजा दी है. उत्तर बस्तर डिवीजन कमेटी की ओर से पर्चों जारी किया गया है. साथ ही जल जंगल जमीन को बचाने एवं खदान के काम से मजदूरों को दूर रहने की बात कही गई है.  ऐसे ही घटनाक्रमों से यह संदेश प्रसारित हो रहा है कि नक्सलवाद अभी भी सर उठा कर छत्तीसगढ़ में बंदूक और गोली के बूते अपनी हांक रहा है.

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नक्सलियों का खूनी खेल

हाल ही में छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में तोंगपाल थाना क्षेत्र के पालेंम में गोपनीय सैनिक कवासी हूंगा की ‘नक्सलियों’ ने गोली मार हत्या कर दी। यह गुप्त सैनिक जैमर गांव का रहने वाला था, जो कुछ समय पहले नक्सलवाद छोड़कर आत्मसमर्पण कर चुका  था.वह पुलिस के लिए  गुप्त सैनिक के रूप में कार्य कर रहा था.  पालेंम का मेला था और वह मेला देखने गया हुआ था. मौके की ताक में बैठे नक्सलियों ने उसकी गोली मारकर हत्या कर दी.  पहले भी इस क्षेत्र में ग्रामीण मुचाकी हड़मा की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी। पांच  दिन मे  यह दूसरी घटना है. घटनास्थल से सीआरपीएफ कैम्प की दूरी 500 मीटर है.इसके  बावजूद नक्सलियों ने हत्या जैसी घटना को अंजाम देकर सुरक्षा बल को एक तरह से “चुनौती” दी है.  जानकार सूत्रों के अनुसार वह नक्सल संगठन में सक्रिया था बाद में आत्मसमर्पण कर पुलिस के लिए गोपनीय सैनिक के रूप में काम करता था.माओवादियों ने पुलिस मुखबिरी के लिए कवासी हूंगा को चिन्हांकित कर रखा था और मौके की तलाश में थे कि उसे अकेला पाकर हत्या कर दें.पुलिस  अधीक्षक  शलभ सिन्हा ने माओवादियों की ओर से गोली मारकर हत्या किए जाने की पुष्टि की है. इस घटना से जहां ग्रामीणों में दहशत है.

मुठभेड़ भी जारी है 

जहां एक तरफ नक्सलवादी  अपने मन के मुताबिक निरंतर  लोगों को मार रहे हैं  दूसरी तरफ  पुलिस की नक्सलियों के साथ नारायणपुर के आमदई घाटी में मुठभेड़  होती रहती  है. हाल में नारायणपुर में मुठभेड़ में एक जवान घायल हो गया .  खबर है कि  निकों  कंपनी रोड ओपनिंग में लगी है. जहां आयरन माइंस निकालने के लिए वाहन, जेसीबी और पोकलेन के जरिए रास्ता तैयार किया जा रहा है. आमदई घाटी लोह अयस्क खदान की सुरक्षा में पुलिस बल तैनात है. इसी बीच नक्सलियों ने माइंस खोदने के विरोध में पुलिस पर ताबड़तोड़ फायरिंग शुरु कर दी. जवाबी कार्रवाई में पुलिस की ओर से भी फायरिंग शुरू कर दी.

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मुठभेड़ में एक जवान घायल हो गया, जिसे इलाज के लिए नजदीकी अस्पताल में भर्ती करवाया गया. पुलिस द्वारा सर्चिंग अभियान चलाया जा रहा है. बस्तर में पुलिस और नक्सलवादी आपस में बंदूक लिए संघर्षरत है.छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार आने के बाद यह उम्मीद थी कि नक्सलवाद शीघ्र  परास्त होगामगर  ऐसा  होता  दिखाई  नहीं  देता.

फैल रहा है सेक्सी कहानियों का करंट

‘‘हैलो दोस्तो, मेरा नाम सोनिया है. मैं राजस्थान के जोधपुर में रहती हूं. मेरी उम्र 24 साल है. मैं बहुत सेक्सी हूं और हमबिस्तरी के लिए नए नए मर्दों की तलाश में रहती हूं, जिस से ज्यादा से ज्यादा मजा ले सकूं.  मेरे उभार बहुत मोटे हैं और…

‘‘आज मैं आप को अपनी पहली हमबिस्तरी की कहानी बताने जा रही हूं. मैं तब 16 साल की थी और बहुत चंचल थी. मेरी एक सहेली थी रितु. वह भी मेरी तरह हमबिस्तरी की शौकीन थी.

‘‘एक दिन उस का फोन आया कि वह घर में अकेली है, रात को उस का बौयफ्रैंड आएगा. अगर तू चाहे तो आ जा, बड़ा मजा आएगा.

‘‘मैं झट से तैयार हो गई और मम्मीपापा से पूछ कर रितु के घर जा पहुंची और बैडरूम में जा कर जो नजारा देखा, तो मदहोश हो उठी.

‘‘रितु बगैर कपड़ों के अपने बौयफ्रैंड की गोद में बैठी थी, जो उस का अंगअंग मसल रहा था और चूम भी रहा था. यह देख कर मुझ से रहा न गया और मैं भी कपडे़ उतार कर उन की ओर लपकी…

‘‘यह कहानी आप सुन रहे हैं ‘कामुकता डौट कौम’ पर…’’

कचरा सेक्सी कहानी

इस तरह की और इस से भी ज्यादा सेक्सी कहानियां इन दिनों यू ट्यूब और गूगल पर धड़ल्ले से सुनी जा रही हैं, जिन में आवाज किसी लड़की की होती है, जो बेहद बिंदास और खुलेपन से इन्हें इस तरह सुना रही होती है कि सुनने वाले के बदन में बिजली का करंट दौड़ जाता है, क्योंकि कहानी सुना रही लड़की इसे अपनी आपबीती बताती है और अंगों के नाम भी ठीक वैसे ही लेती है, जैसे गालियों में इस्तेमाल किए जाते हैं.

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वह लड़की हमबिस्तरी को इस तरह बयां करती है कि सुनने वाले को लगता है कि सबकुछ सच है और उस की आंखों के सामने ही हो रहा है.

‘कामुकता डौट कौम’, ‘बैड टाइम हौट स्टोरी’ और ‘अंतर्वासना डौट कौम’ जैसी दर्जनभर पौर्न साइटों ने अपना बाजार बढ़ाने के लिए ग्राहकों की कमजोर नब्ज पकड़ते हुए उन्हें कहानियों के जरीए एक नई दुनिया में सैर कराने का मानो बीड़ा सा उठा लिया है.

सेक्सी कहानियां सुनने वालों को यह अहसास कराया जाता है कि कहानी सुनाने वाली लड़की सच बोल रही है, इसलिए बीचबीच में तरहतरह की आवाजें भी भर दी जाती हैं.

आहें और सिसकियां भरती लड़की कमरे का हुलिया बताती है और सोफे, परदे का रंग भी बताती है और कहानी के मुताबिक चिल्लाने का दिखावा भी करती है.

एक कहानी की मीआद तकरीबन 12 मिनट की होती है, जिस के खत्म होतेहोते सुनने वाला उस में इस तरह डूब जाता है कि उसे अपनेआप का होश नहीं रहता.

सुनने वालों को लत लगाने के लिए ये साइट वाले रोज एक नई कहानी देते हैं, जिन में लड़की का नाम और उम्र बदल जाते हैं, शहर भी बदल जाते हैं,  कभी वह खुद को निपट कुंआरी बताती है, तो कभी शादीशुदा.

ऐसी कहानियों में कोशिश यह भी की जाती है कि वे आम लोगों के तजरबे से मेल खाती लगे, इसलिए नजदीकी रिश्तेदारों से सेक्स की कहानियां भी इफरात से सुनवाई जाती हैं.

जीजासाली, देवरभाभी, भाभी या बहनोई का भाई, भाई का दोस्त जैसे दूर के रिश्तेदार तो अहम हैं, पर नजदीकी रिश्तेदारों मसलन मांबेटे, बापबेटी, भाईबहन वगैरह से हमबिस्तरी की भी कहानियों का ढेर है.

ऐसी सेक्सी कहानियों को चटकारे ले कर सुनाने वाली सोनिया, रितु या सपना को तो कोई शर्म नहीं आती, उलटे वे इन्हें इस तरह सुनाती हैं कि जिस से लगता है कि उन्हें कतई शर्म, डर या पछतावा नहीं होता, बल्कि उन का मकसद मजे लूटना भर होता है.

इन कहानियों में दौड़ती ट्रेन या कार में हमबिस्तरी होती है, तो रेगिस्तान और समुद्री किनारे की सेक्सी कहानियां भी सुनवाई जाती हैं. इन कचरा कहानियों की मांग तेजी से बढ़ रही है.

ब्लू फिल्मों से उचटा जी

अब ब्लू कहानियां आसानी से स्मार्टफोन पर मिल जाती हैं. भोपाल के एक इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहे 20 साला छात्र सुयश का कहना है कि वह पहले ब्लू फिल्में देखता था, लेकिन उन में एक ही तरह के सीन बारबार दोहराए जाते हैं, इसलिए उन में उसे मजा नहीं आता था. दूसरे, ब्लू फिल्में चूंकि स्क्रीन पर चलती हैं, इसलिए किसी के आ जाने पर पकड़े जाने का डर भी बना रहता था. अब इन कहानियों को वह हैडफोन के जरीए बगैर किसी डर या हिचक के सुनता है और घर वालों को लगता है कि वह गाने सुन रहा है.

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सुयश बताता है कि एक दोस्त के बताने पर उस ने पहली बार जब कहानी सुनी थी, तब शरीर में बिजली सी दौड़ गई थी, क्योंकि किसी लड़की के मुंह से अंगों के खुले शब्द सुनने का उस का यह पहला तजरबा था और हमबिस्तरी का आंखोंदेखा हाल. जिस तरह वह सुना रही थी, उस का भी अलग ही लुत्फ था.

जब कंप्यूटर, टैलीविजन और स्मार्टफोन चलन में नहीं थे, तब लोग मस्तरामछाप नीलीपीली किताबें इफरात से पढ़ते थे, पर उन में दिक्कत यह थी कि साइज में छोटी और घटिया क्वालिटी के पन्नों पर छपी इन किताबों को छिपा कर रखना पड़ता था. इन्हें पढ़ कर फेंक देना या जला देना मजबूरी हो जाती थी.

आज से तकरीबन 25-30 साल पहले ये किताबें तकरीबन 30 रुपए में मिलती थीं, जो महंगी होती थीं, पर इन की मांग इतनी होती थी कि इन की कमी हमेशा बनी रहती थी.

इस तरह की किताबें अभी भी मिलती हैं, पर इन्हें पढ़ने वाले न के बराबर बचे हैं, क्योंकि इलैक्ट्रौनिक आइटमों ने ब्लू फिल्मों को देखना आसान बना दिया है. लोग अब इन से भी ऊबने लगे, तो नया फंडा सेक्सी कहानियों का आ गया है.

कई कहानियों में साहित्यिक शब्दों का भी इस्तेमाल किया जाता है, जिन्हें सुन कर लगता है कि इन्हें लिखने वाला माहिर कहानीकार है.

क्यों सुन रहे हैं लोग

विदिशा से भोपाल आनेजाने वाले बृजेश, जो 50 साल के हो चले हैं और 3 बच्चों के पिता भी हैं, का कहना है कि उन्होंने अभी 2 साल पहले ही स्मार्टफोन खरीदा है और वे उस का इस्तेमाल करना सीख गए हैं.

पहले विदिशा से भोपाल के एक घंटे के रास्ते में उन्हें काफी बोरियत होती थी. वे पहले सेक्सी मैगजीन पढ़ते थे, लेकिन ट्रेन में खुलेआम पढ़ने में दिक्कत होती थी, इसलिए ऊपर की बर्थ पर जा कर कोने में मुंह छिपा कर पढ़ते थे.

बाद में स्मार्टफोन में ब्लू फिल्में देखना शुरू किया, तो भी दिक्कत पेश आई, इसलिए टायलेट में चले जाते थे, पर वहां भी चैन नहीं था. देर हो जाती थी, तो बाहर से ही मुसाफिर दरवाजा खड़खड़ाना शुरू कर देते थे कि जल्दी निकलो. इसी हड़बड़ाहट में एक बार फोन कमोड से पटरियों पर जा गिरा, तो 6 हजार रुपए का चूना लग गया.

अब बृजेश सुकून से ये ब्लू कहानियां सुनते हुए वक्त काटते हैं. वे हैड फोन लगा कर यू ट्यूब चालू करते हैं और कहानी शुरू हो जाती है जो भोपाल जा कर ही खत्म होती है.

बकौल बृजेश, ‘‘यह एक अलग किस्म का तजरबा है, जिसे लफ्जों में बयां नहीं किया जा सकता. घर पर उन्होंने बीवी को भी ये कहानियां सुनवाने की कोशिश की, पर वे इन्हें सुन कर भड़क गईं.’’

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हर्ज भी क्या है

क्या ब्लू कहानियां सुनना हर्ज की बात है या इन से कोई नुकसान है? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ पाना उतना ही मुश्किल काम है, जितना नीलीपीली किताबों के दौर में उन के नुकसान ढूंढ़ना हुआ करता था.

ब्लू फिल्में धड़ल्ले से हर कोई देखता है. आलम यह है कि कई राज्यों के मंत्रीअफसर तक स्मार्टफोन पर इन्हें देखते पकड़े गए हैं.

जाहिर है, ऐसी कहानियों से लोग टाइमपास करते हैं, सेक्स की अपनी भूख शांत करते हैं और नई उम्र के लड़के इन्हीं के जरीए सेक्स की बातें और गुर सीखते हैं. इन्हें किसी भी दौर में रोका नहीं जा सका है, न ही रोक पाने के लिए कोई कानून सरकार लागू कर पा रही है. सुप्रीम कोर्ट तक इस मामले में अपनी बेबसी जाहिर कर चुका है.

क्या ऐसी कहानियां गुमराह करती हैं? इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं, इसलिए सुनने वालों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि इन कहानियों का हकीकत से कोई लेनादेना नहीं होता और न ही इन्हें सुन कर सभी औरतों की इमेज वैसी समझनी चाहिए, जैसी कि इन कहानियों में तफसील से बताई जाती है.

जरूरत से ज्यादा और लगातार ऐसी कहानियां सुनना जरूर नुकसानदेह है, इसलिए सेक्स की अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए ऐसी कहानियां पढ़नी चाहिए, जिन में सेक्स साफसुथरे ढंग से पेश किया जाता है और जिन में कोई सबक भी अच्छेबुरे का मिलता हो.

दरअसल, ये कहानियां जोश पैदा करती हैं, जो हर्ज की बात नहीं. भोपाल के सेक्स रोगों के माहिर एक बुजुर्ग डाक्टर का कहना है कि इन्हें सुन कर उन लोगों में भी जोश आता है, जो सेक्स में ढीलापन या कमजोरी महसूस करते हैं. इस की एक अहम वजह यह भी है कि कहानी लड़की सुनाती है, जिस के मुंह से प्राइवेट पार्ट्स के नाम और हमबिस्तरी का खुला ब्योरा सुनना नए दौर का एक अलग तजरबा है.

इन कहानियों के डायलौग भी वैसे ही होते हैं, जैसे आमतौर पर हमबिस्तरी के वक्त की जाने वाली बातचीत होती है. पर सुनने वालों को इन का आदी नहीं होना चाहिए.

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साफ दिख रहा है कि भविष्य में इन कहानियों की मांग और बाजार जोर पकड़ेगा. मुमकिन है कि कहानी गढ़ने वाले कामयाबी मिलती देख कुछ नए प्रयोग इन में करें, जिस से सुनने वालों की दिलचस्पी इन में न केवल बनी रहे, बल्कि बढ़े भी.

अच्छे पड़ोसी हैं जरूरी

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी ने हमें इतना मसरूफ कर दिया है कि हमारे पास अपने पड़ोसियों के साथ बैठ कर बात करने का क्या, उन से उन का नाम तक पूछने का समय नहीं है.

अब लोगों के घर तो बड़े होते जा रहे हैं, पर अपने पड़ोसियों के लिए उन के दरवाजे तक नहीं खुलते हैं. मर्द अपने पड़ोसियों से कोई खास संबंध नहीं रखते हैं, जबकि औरतें टैलीविजन के सामने पड़े रहने में ज्यादा सुकून महसूस करती हैं. बच्चों को भी बाहर जा कर पड़ोस के बच्चों के साथ न खेलने की हिदायतें दी जाती हैं.

यह नया चलन अच्छा नहीं है, पर अफसोस हमारे समाज पर हावी हो रहा है, जबकि पड़ोसी के साथ रिश्ते केवल 1-2 वजहों से नहीं, बल्कि बहुत सी वजहों से अच्छे साबित होते हैं.

मुसीबत की घड़ी में आप के दूर बैठे रिश्तेदार मदद करने के लिए एकदम से नहीं आ पाते हैं, बल्कि आप के पड़ोसी ही सब से पहले आप की तरफ मदद का हाथ बढ़ाते हैं.

पड़ोसी हर तरह के होते हैं. कुछ अच्छे भी होते हैं तो कुछ बुरे भी, लेकिन एक अच्छा पड़ोसी आप की हर तरह से मदद करता है.

मुश्किल घड़ी में साथ

आजकल अखबारों की सुर्खियों में किसी न किसी वारदात की खबर छपी होती है. इन वारदातों में लोगों के घरों में चोरी होना, घर में घुस कर किया गया जोरजुल्म व घर से बाहर गलीपड़ोस में बच्चों को अगवा कर लेने की खबरें होती हैं.

इन वारदातों के पीछे अहम वजह है अकेलापन. लोगों के अपने पड़ोसियों से खत्म हो रहे रिश्ते उन के घर की तरफ बढ़ रहे जुर्म को बढ़ावा देने का काम करते हैं, जबकि पड़ोसियों से जुड़े रहने पर आप एक मजबूत संगठन की तरह होते हैं जिस पर एकदूसरे की हिफाजत व मदद करने की जिम्मेदारी होती है.

  • अक्तूबर, 2018. हरियाणा में गुरुग्राम के ट्यूलिप औरेंज हाईराइज अपार्टमैंट्स में पड़ोसी की मदद करने का एक ऐसा वाकिआ सामने आया जिस ने अच्छे और हिम्मती पड़ोसी होने की मिसाल दी. 33 साला स्वाति गर्ग ने पड़ोसियों की जिंदगी बचाने के लिए अपनी ही जान दांव पर लगा दी थी.

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हुआ यों था कि एक छोटे से शौर्टसर्किट से लगी आग ने उस इमारत के एक फ्लोर पर बड़ा भीषण रूप ले लिया था. स्वाति गर्ग अपार्टमैंट्स से निकलने के बजाय वहां मौजूद सभी लोगों को होशियार कर बाहर जाने के लिए कहने लगीं.

आग बुझने के बाद फायरफाइटर्स को छत के दरवाजे पर बेहोशी की हालत में स्वाति मिली थी. अस्पताल ले जाते समय उन की रास्ते में ही मौत हो गई थी.

  • अगस्त, 2017. अपने देवर द्वारा चाकू से किए गए कई वारों के बाद छत से फेंकी गई एक औरत को उस के पड़ोसियों ने बचाया.

दिल्ली के वजीरपुर में रहने वाली 25 साला उस औरत के साथ बलात्कार की नाकाम कोशिश के बाद उस के देवर ने उसे छत से नीचे गिराने की कोशिश की थी.

उस औरत के शोर मचाने से पड़ोसी अपनेअपने घरों से बाहर आ गए थे. छत से धक्का दिए जाने के बाद वह औरत एक कूलर के स्टैंड को पकड़ कर कुछ देर लटकी रही थी, फिर होश खोने पर जब वह गिरी तो उस के पड़ोसियों ने उसे पकड़ लिया. अस्पताल जाने पर पता लगा कि जख्म गहरे नहीं थे.

  • अक्तूबर, 2015. उत्तर प्रदेश के बिसड़ा गांव में एक मुसलिम परिवार की हिंदू पड़ोसियों ने मदद कर जान बचाई और सहीसलामत दूसरी जगह पहुंचने में मदद की थी.

दरअसल, उस मुसलिम परिवार पर गांव के कुछ लोगों ने आरोप लगाया था कि उन्होंने एक बछड़े की बलि दी है. इस आरोप के चलते 55 साला मोहम्मद इखलाक का कत्ल कर दिया गया था और उन के बाकी परिवार वालों को जान से मारने की धमकियां दी गई थीं. जब यह बात उन के पड़ोसियों विनीत कुमार, उमेश कुमार और अशोक को पता चली तो उन्होंने उन्हें सहीसलामत दादरी रेलवे स्टेशन तक पहुंचाया था.

ऐसे ढेरों मामले सामने आते हैं जहां पड़ोसियों ने अपने आसपास के लोगों की जान बचाई या उन्हें किसी बड़े खतरे से बाहर निकाला.

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जिंदगी में रस घोलते

पड़ोसी केवल मुश्किल समय में ही नहीं, बल्कि खुशी के माहौल को और मजेदार बनाने में भी सब से बेहतर साबित होते हैं. बगीचे की छोटीमोटी सफाई हो या घर की चीनी खत्म हो जाए तो पड़ोसी का दरवाजा खटखटा दें. पड़ोसियों के साथ ऐसे आपसी संबंध बहुत खट्टेमीठे होते हैं जो जिंदगी में ताजगी भर देते हैं.

  • ‘तारक मेहता का उलटा चश्मा’ जैसे टैलीविजन सीरियल हमें अच्छे पड़ोसियों की अहमियत का अहसास दिलाते हैं. पड़ोसियों के साथ तीजत्योहार मनाना, पिकनिक पर जाना या बैठ कर बातें करना, इन सब में अपना ही एक मजा है.
  • बच्चों के स्कूल के दोस्त अकसर उन के घरों से बहुत दूर रहते हैं. घर में दिनभर बंद कमरे में वीडियो गेम खेलना बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर बुरा असर डालता है. अगर बच्चे पड़ोस के बच्चों का साथ देंगे तो वे अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेल सकेंगे, बातें कर सकेंगे और शारीरिक व मानसिक तौर पर सेहतमंद भी रहेंगे.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, 55 फीसदी बच्चों को उन के मातापिता द्वारा बाहर जा कर खेलने की इजाजत नहीं दी जाती है, जबकि उन के विकास के लिए उन्हें पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने दिया जाना चाहिए.

  • अगर आप घर से दफ्तर जाने में लेट हो रहे हैं या आप को दोपहर में कहीं बाहर जाना हो, आधी रात में कभी अस्पताल जाने की जरूरत हो तो आप के पड़ोसी ही आप की मदद कर सकते हैं, आप को लिफ्ट दे सकते हैं. साथ ही, आप के न होने पर पीछे से आप के घर की निगरानी भी रख सकते हैं.

आल इंडिया इंस्टीट्यूट औफ मैडिकल साइंस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डिप्रैशन से पीडि़त 50 फीसदी बच्चे 14 साल की उम्र से कम के हैं और ऐसे 75 फीसदी नौजवान 15 से 25 साल की उम्र के हैं.

ये आंकड़े इस बात के सुबूत हैं कि किस तरह बच्चों और नौजवानों के मानसिक तनाव उन्हें समाज से दूर व अकेलेपन के करीब खींच रहे हैं.

अगर वे अपने आसपड़ोस के हमउम्र से बात करें, उन के साथ घूमेंफिरें व अपनी परेशानियों के बारे में चर्चा करें, तो शायद उन्हें इस अकेलेपन से जूझना नहीं पड़ेगा.

  • पड़ोसियों में अगर आपसी स्नेह हो तो उन के बच्चे भी आमतौर पर एकदूसरे के अच्छे दोस्त होते हैं. वे आपस में जहां चाहे साथ जा सकते हैं और उन के बुरी संगत में पड़ने की चिंता से मातापिता भी मुक्त रह सकते हैं.

ऐसे कायम रखें रिश्ते

पड़ोसियों से रिश्ते बनाने का सब से पहला नियम है कि उन्हें उन की प्राइवेसी दें. दोस्ती का हाथ जरूर बढ़ाएं, पर दखलअंदाजी न करें. अगर उन्हें किसी तरह की जरूरत है तो कोशिश करें कि आप उन की मदद कर सकें.

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आप हफ्ते में एक बार किटी पार्टी का प्रोग्राम भी बना सकते हैं. इस से आप एकदूसरे के परिवारों से परिचित होंगे व आपसी संबंधों में मिठास भी रहेगी.

अकसर घरेलू औरतें घरों में ही रहती हैं और केवल बच्चों को स्कूल से लाना, ले जाना ही करती हैं. ऐसी औरतें पड़ोस की दूसरी औरतों के साथ पास के बाजार या माल वगैरह में जा कर बाहरी दुनिया से रूबरू हो सकती हैं.

अगर आप की और आप के पड़ोसी की काम करने की जगह आसपास है तो गाड़ी में एकसाथ भी जाया जा सकता है. इस से पैसों की बचत के साथसाथ रिश्ते भी मजबूत होते हैं.

लड़की एक रात के लिए मिल रही है

‘हाय, मेरा नाम रानी है. मैं 19 साल की हूं और इंदौर में अकेली रहती हूं. क्या आप मेरे साथ सैक्स करना चाहेंगे? मेरा मोबाइल नंबर है 975519××××…’

हालांकि यह सब अंगरेजी में लिखा था, लेकिन मध्य प्रदेश के शाजापुर में रहने वाले 26 साला जितेंद्र रघुवंशी (बदला नाम) को पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि वह 12वीं जमात पास था. नजदीक के एक गांव से शाजापुर आ कर बस गए इस नौजवान ने एक साल पहले स्मार्टफोन खरीदा था. मालदार किसान परिवार का होने की वजह से जितेंद्र को पैसों की कमी नहीं थी, इसलिए अपनी खादबीज की दुकान पर बैठाबैठा वह कालगर्ल ढूंढ़ने लगा और ढूंढ़ा तो हैरान रह गया. उसे ऐसा लगा, मानो इस दुनिया में ऐसी लड़कियों के अलावा कुछ है ही नहीं, जो कुछ हजार रुपयों के एवज में अपना जिस्म बेचती हैं और बाकायदा फोटो समेत इश्तिहार भी करती हैं. उन्हें अपना फोन नंबर देने में कोई हिचक नहीं होती और किसी का डर भी नहीं लगता.

आखिरकार हिम्मत कर के जितेंद्र ने दिए गए नंबर पर फोन किया, तो दूसरी तरफ से उम्मीद के मुताबिक एक लड़की की ही आवाज आई.

‘हैलो, कहिए?’ वह लड़की बोली, तो जितेंद्र सकपका गया और हड़बड़ाहट में बोला, ‘‘मैं ने इंटरनैट पर देखा, तो सोचा…’’

‘सोचा क्या, आ ही जाइए. रानी आप की खिदमत में हाजिर है. 2 घंटे के 2 हजार और पूरी रात के 20 हजार रुपए चार्ज है. बताइए, कब और कहां मिलूं? आप जैसे चाहें मेरे साथ सैक्स कर सकते हैं. मैं बहुत ऐक्सपर्ट हूं.’

जितेंद्र अचानक मिली इस दावत से घबरा सा उठा और बोला, ‘‘मैं कल फोन करूंगा…’’

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‘ओके स्वीटहार्ट, जब मरजी हो बता देना. रानी हमेशा तुम्हारी खिदमत में हाजिर मिलेगी. जैसे चाहोगे वैसे सैक्स करेगी और जन्नत का मजा देगी.’ फोन काट कर जितेंद्र गटागट 3 गिलास पानी पी गया और कुछ देर बाद रानी की मीठी बातों के जाल से निकला, तो उसे समझ आया कि कहीं कोई फर्जीवाड़ा या खतरा नहीं है, बस एक बार बात कर के इंदौर जाने की देर है, फिर तो मजे ही मजे हैं. जितेंद्र ने जैसेतैसे 3 दिन काटे, फिर उसी नंबर पर फोन किया, तो उसी लड़की की आवाज आई, ‘बड़ी देर कर दी जानेमन, बोलो…’

‘‘कहां मिलोगी?’’ जितेंद्र ने पूछा.

‘जहां तुम कहो…’ वहां से मधुर आवाज आई.

‘‘कल दोपहर 12 बजे मिलो, सरवटे बसस्टैंड पर.’’

‘ओके, मैं… कौफी हाउस में बैठी मिलूंगी, गुलाबी रंग के सूट में रहूंगी.’ अगले दिन जितेंद्र इंदौर जा पहुंचा और रानी के बताए कौफी हाउस में पहुंचा, तो देख कर हैरान रह गया कि सचमुच कोने वाली सीट पर गुलाबी सूट पहने एक खूबसूरत सी लड़की कोल्ड कौफी की चुसकियां ले रही थी. जितेंद्र उस से मुखातिब हो पाता, उस के पहले ही उस ने उंगलियों से इशारा कर उसे बुलाया. जाहिर है कि वह अपने ग्राहक को पहचान गई थी. जितेंद्र उस के सामने जा कर बैठ गया और बातचीत करने लगा.

रानी 2 घंटे के 2 हजार रुपए ही लेगी. जगह उस की रहेगी, पर कौफी हाउस में खिलानेपिलाने, आटोरिकशा वगैरह के सारे खर्च वह खुद उठाएगा.

‘‘ठीक है,’’ जितेंद्र उस के उभारों पर से नजर हटाते हुए थूक निगल कर बोला.

‘‘तभी इतने नर्वस हो रहे हो. चलो, रास्ते में बीयर या ह्विस्की कुछ ले लेते हैं. दोनों साथ बैठ कर पीएंगे, तो ज्यादा मजा आएगा और तुम्हारी यह ख्वाहिश भी पूरी हो जाएगी,’’ रानी बोली.

ऐसा हुआ भी. बसस्टैंड से आटोरिकशा कर के जितेंद्र रानी के साथ वहां से तकरीबन 16 किलोमीटर दूर एक बड़े अपार्टमैंट्स के उस के फ्लैट पर पहुंचा. वहां कोई नहीं था. अंदर दाखिल होते ही रानी ने दरवाजा बंद किया और बोली, ‘‘चलो, हो जाओ शुरू…’’

‘‘पर बीयर तो ले ही नहीं पाए,’’ जितेंद्र ने कहा.

‘‘सब है यहां, बस पैसे तुम देना…’’ फ्रिज से बीयर की बोतलें और गिलास निकालते हुए रानी ने शोख आवाज में जवाब दिया. 2 घंटे बाद जितेंद्र उसे पैसे दे कर उस फ्लैट से बाहर निकला, तो उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. वाकई रानी ने उसे मजा दिया था. हालांकि शराब के एक हजार रुपए अलग से रखवा लिए थे. जितेंद्र को इस का कोई मलाल नहीं था. 2 घंटे के दौरान किसी ने कोई दखल नहीं दिया था. रानी ने अपना फोन बंद कर लिया था और जितेंद्र का भी बंद करा दिया था, लेकिन जाते समय उस ने जितेंद्र को अपना पर्सनल नंबर दे दिया था कि फिर कभी मूड हो तो इस नंबर पर ही फोन करना. जितेंद्र ने अलगअलग फोन नंबरों के घालमेल से ज्यादा सिर नहीं खपाया और इस के बाद 2 बार और इंदौर गया, तो रानी से उस के पर्सनल नंबर पर बात कर सीधे उस के फ्लैट पर जा पहुंचा और जम कर मौजमस्ती की.

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स्मार्टफोन ने बदला चलन

अब तकरीबन हर हाथ में स्मार्टफोन है, जिस में हर तरह की जानकारियां बहुत सस्ते में मिल जाती हैं. कालगर्ल की जानकारी भी इन में से एक है. स्मार्टफोन आने से पहले देह का कारोबार पुराने तरीके से चलता था. इंदौर की ही मिसाल लें, तो वहां का बंबई बाजार कभी देह धंधे के लिए जाना जाता था. वहां कोठे थे. जितेंद्र की तरह लोग आते थे, लेकिन मनपसंद कालगर्ल ढूंढ़ने में उन्हें परेशानी होती थी. 2-4 कोठों पर धक्के खाने के बाद या तो मनपसंद कालगर्ल ग्राहक को मिल जाती थी या थकहार कर ग्राहक ही किसी को अपनी पसंद बना लेता था. लेकिन बंबई बाजार जैसी बदनाम जगहों का माहौल लोगों को रास नहीं आता था. शराब की बदबू होती थी. खिड़की और दरवाजों से झांकती लड़कियां भद्दे इशारे कर के ग्राहकों को बुलाती थीं. कई दफा तो हाथ पकड़ कर अंदर खींच लेती थीं. उन की ज्यादतियों से बचने के लिए ग्राहक दलाल का सहारा लेते थे. स्मार्टफोन ने देह धंधे के इस चलन में भारी बदलाव कर दिए हैं. अब दलाल भी कालगर्लों की तरह हाईफाई हो गए हैं. बंबई बाजार टुकड़ेटुकड़े हो कर पूरे इंदौर में चारों तरफ फैल गया है. हर चौथे अपार्टमैंट्स में एक रानी है. जब किसी जितेंद्र का फोन आता है, तो वह मेकअप कर के तैयार हो जाती है. जानपहचान वाला न हो, तो जगह तय कर लेने भी पहुंच जाती है. लेकिन दलाल किसी को नजर नहीं आता.

पहली दफा जितेंद्र ने जिस नंबर पर फोन किया था, वह एजेंट का था. इस फोन नंबर पर शिफ्ट में लड़कियां बैठती हैं और ग्राहक से सैक्सी बातें करती हैं. ग्राहक का नंबर ले कर वे अपने पास रखी लिस्ट या फोन बुक में से किसी एक कालगर्ल का नंबर देख कर उसे बताती है. वह फ्री होती है, तो बातचीत का ब्योरा ग्राहक को दे दिया जाता है और तगड़ा कमीशन ले लिया जाता है. यह ऐस्कौर्ट सर्विस देश के हर बड़े शहर में मौजूद है. भोपाल में ऐस्कौर्ट सर्विस से जुड़े एक मुलाजिम ने बताया कि स्मार्टफोन वालों के लिए उन की एजेंसी इंटरनैट पर तमाम जानकारियां डालती है. वे कई नामों से वैबसाइट बनाते और चलाते हैं. उन्हें देख कर ग्राहक बातचीत करते हैं, तो अपने आसपास की किसी कालगर्ल को उस का नंबर दे देते हैं.

उस मुलाजिम के मुताबिक, अभी उन की लिस्ट में तकरीबन 2 हजार लड़कियों के नाम हैं, जिन में होस्टल में रह रही छात्राएं भी शामिल हैं. कुछ घरेलू औरतें भी हैं, लेकिन ज्यादातर पेशेवर कालगर्ल हैं. उस दलाल के मुताबिक, आजकल लड़कियों के पास खुद की जगह रहती है. इस में खतरा कम रहता है, क्योंकि वे रिहायशी इलाकों में रहती हैं. लेकिन पड़ोसी हल्ला मचाने लगें और पुलिस वालों की नजर उन पर पड़ जाए, तो वे अपना ठिकाना बदल लेती हैं. उस दलाल की मानें, तो ज्यादातर लड़कियां ग्राहक से सीधे बात करने लगती हैं, तो नुकसान दलाल का होता है, क्योंकि उन्हें जमाने में दलाल का बड़ा हाथ रहता है. शुरू में दलाल उन्हें प्यार से ऊंचनीच समझाते हैं. अगर वे नहीं मानतीं, तो एकाध दफा गुंडे या पुलिस वालों के हाथों फंसवा देते हैं. उस के बाद वे कभी झंझट नहीं करती हैं. इस से हर बार दलाल को कमीशन मिलता रहता है. हालफिलहाल तो भोपाल जैसे शहरों में भी ऐस्कौर्ट सर्विस वाले 5-6 लाख रुपए हर महीना कमा रहे हैं, जो 8-10 मुलाजिमों के बीच बंट जाता है. सभी को काम और ओहदे के मुताबिक तनख्वाह मिलती है.

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कंप्यूटर पर साइट्स बनाने और लोड करने वाले इंजीनियर को 15-20 हजार रुपए, स्मार्टफोन पर बात करने वाली कालगर्ल को 10-12 हजार और कारोबार को बढ़ाने वाली मुलाजिमों को 20-25 हजार रुपए महीना तनख्वाह मिलती है. सब से बड़ा हिस्सा बौस की जेब में तकरीबन 3 लाख रुपए जाता है.

घाटे में पुलिस वाले

स्मार्टफोन पर देह धंधे के चलन से बड़ा नुकसान पुलिस वालों का हुआ है. अब तो इन के मुखबिर भी नहीं बता पाते हैं कि कौन कहां धंधा कर रहा है. अब तो कालगर्लें भी कहने लगी हैं कि वे बालिग हैं, किसी के साथ हमबिस्तरी करें, यह मरजी की बात है. लिहाजा, पुलिस वाले कसमसा कर रह जाते हैं. जबरदस्ती करें, तो बेवजह हल्ला मचता है. गिरोह बना कर इंटरनैट पर इस कारोबार को बढ़ावा दे रही ऐस्कौर्ट एजेंसियां भी पुलिस की पकड़ और पहुंच से दूर हैं. वे भी अपना पताठिकाना और फोन नंबर बदलती रहती हैं. सीधेसीधे कहा जाए, तो अब हो यह रहा है कि जितेंद्र जैसे ग्राहक स्मार्टफोन पर ऐसी एजेंसी को ढूंढ़ते हैं और बगैर किसी सिरदर्द के अपनी ख्वाहिश और जरूरत पूरी कर लेते हैं. हालांकि इस से उन का खर्च बढ़ा है, लेकिन इज्जत बनी रहती है और हिफाजत की भी गारंटी रहती है. अब कालगर्लों के पास ग्राहक के नामपते और फोन नंबर वाली डायरी नहीं होती. स्मार्टफोन की फोन बुक होती है, जिस में पासवर्ड डाल दो, तो कोई दूसरा इस को नहीं खोल सकता.

ग्राहक भी फायदे में हैं. जितेंद्र जैसे ग्राहकों को ब्लू फिल्में, सीधे कालगर्ल से चैटिंग और अब वीडियो चैटिंग की सहूलियत, जब भी जोश दिलाती है, तो वे भागते हैं किसी रानी की तरफ, जो उन्हें संतुष्ट करने में माहिर होती है.

मर्द भी मिलते हैं

स्मार्टफोन अब औरतें भी खूब इस्तेमाल करती हैं. लिहाजा, ‘पुरुष वेश्याओं’ की भी मांग बढ़ रही है. ऐस्कौर्ट सर्विस के कर्ताधर्ता अपनी इंटरनैट साइट पर बिकाऊ मर्दों की जानकारी और फोन नंबर भी डालने लगे हैं, जिस से सैक्स की जरूरतमंद औरतें फोन कर के अपनी जिस्मानी भूख मिटा सकती हैं.

ऐस्कौर्ट सर्विस के एक दलाल के मुताबिक, मर्दों के दाम औरतों से ज्यादा होते हैं. वजह, उन की मांग ऊंचे तबकों की औरतों में ज्यादा है. उम्रदराज कुंआरियां, विधवाएं और पति द्वारा छोड़ दी गई औरतों के अलावा पति से नाखुश औरतें भी ऐसे मर्दों की सर्विस लेती हैं. उन्हें 5 हजार रुपए आसानी से मिल जाते हैं. अगर औरत को उन के मुताबिक खुश कर दें, तो 5 के 50 हजार रुपए भी झटक लेते हैं.

सोशल साइटों पर यह धंधा खूब फलफूल रहा है. विदिशा, मध्य प्रदेश के नजदीक गंजबासौदा कसबे का एक बेरोजगार नौजवान एस. कुमार बताता है कि उस ने फर्जी नाम से फेसबुक पर अकाउंट खोला और यह मैसेज डालना शुरू कर दिया कि जो भाभियां, आंटियां अपने पतियों से संतुष्ट नहीं होतीं, वे उस से बात कर सकती हैं. यह नौजवान फेसबुक में चुनचुन कर उम्रदराज औरतों को फ्रैंड रिक्वैस्ट मैसेज कर अपना फोन नंबर दे देता है.

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देखते ही देखते उस की कई फ्रैंड बन गईं और इनबौक्स में जा कर सैक्सी बातें करने लगीं. कुछ ने उसे बुलाया भी. इस नौजवान ने हालांकि अभी 50-60 हजार रुपए ही इस धंधे से कमाए हैं, लेकिन वह स्मार्टफोन का शुक्रगुजार रहता है कि इस की वजह से उसे पैसा मिल रहा है और मजा भी.

अपना एक किस्सा सुनाते हुए वह कहता है कि गुना की एक सरकारी स्कूल की टीचर ने उस से दोस्ती की और बताया कि उस का पति ढीला है. अगर तुम गुना आ कर सैक्स करो, तो मैं आनेजाने का खर्च और 2 हजार रुपए दूंगी. वह नौजवान वहां गया और उसे संतुष्ट कर आया.

ब्लू फिल्मों का खजाना

स्मार्टफोन का इस्तेमाल देह धंधे से ज्यादा ब्लू फिल्में और अश्लील साइटें देखने में हो रहा है. ‘अंतरवासना’ इस में सब से ज्यादा देखी और पढ़ी जाने वाली साइट है. इस साइट पर सैक्सी कहानियां होती हैं, जिन की मस्तराम छाप नीलीपीली किताबें 30 रुपए से सौ रुपए तक में बिका करती थीं, पर ‘अंतरवासना’ की एक और खूबी यह है कि रोज 2-3 कहानियां अपलोड होती हैं. यह साइट दावा करती है कि कहानियां पाठकों की खुद की लिखी होती हैं. इसी में हमबिस्तरी वाले वीडियो भी भरे पड़े हैं. आज से तकरीबन 15 साल पहले तक सिनेमाघर वाले पहले शो में दक्षिण भारत की फिल्में दिखाते थे, तो उन में 15-20 मिनट का एक टुकड़ा ब्लू फिल्म का भी जोड़ देते थे, जिस पर खूब हल्ला मचता था. अकसर आबकारी महकमा छापा मार कर दर्शकों की नाक में दम कर देता था और सिनेमा मालिक को ऐसी फिल्में चलाने पर भारीभरकम घूस देनी पड़ती थी.

अब तो ‘सविता भाभी डौट कौम’ जैसी दर्जनों साइटें ये नजारे आसानी से दिखा रही हैं, वह भी सिर्फ 250 रुपए महीने में. गांवदेहातों में इन साइटों की मांग तेजी से बढ़ रही है. यहां के लोग मनपसंद गोरी देशीविदेशी कालगर्ल को देख कर सैक्स की अपनी जिस्मानी भूख मिटा रहे हैं. मिल, तेलुगु, मराठी, गुजराती, कन्नड़ वगैरह भाषाओं में भी ऐसी फिल्मों की डबिंग की जाती है.

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