शोषण की शिकार पिछड़े दलित वर्ग की लड़कियां

अपनी सहेली की शादी के पार्टी से लौटकर 11 बजे रात्रि को ज्योंहि शिवानी अपने घर का कॉलवेल बजाती है. उसके पापा की ऑंखें गुस्से से लाल है. दरवाजा खोलते ही बोलने लगते हैं.अय्यासी करके आ गयी.घर आने का यही समय है. जबकि बेटा हर रोज शराब और सड़कों पर दोस्तों के साथ आवारागर्दी करके घर में बारह बजे रात्रि तक भी आता है. उसे पापा कुछ भी नहीं बोलते.

पिछड़े और दलित वर्ग की महिलाएं सदियों से आज तक उपेक्षित लांक्षित और शोषित हैं. अपने ऊपर हो रहे शोषण की आवाज तो हम उठाते रहें हैं. लेकिन इस समुदाय से जुड़े लोग स्वयं लड़कियों और औरतों पर शोषण कई माध्यमों से करते रहते हैं. अशिक्षित से लेकर इस समुदाय के शिक्षित लोग भी किसी न किसी रूप में शामिल हैं. शिवानी रहती तो एक बड़े शहर की एक बस्ती में पर उसके पिता की रगों में अभी भी गांव के रीति-रिवाज भरे पड़े हैं.

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आज भी लड़के और लड़कियों में अधिकांशतः घरों में फर्क समझा जाता है. लड़का और लड़की के साथ भेदभाव किया जाता है. पहली चाहत आज भी लोगों के अंदर लड़के की है. तीन चार लड़की होने या लड़के की चाहत में छिप छिपाकर लड़की को पेट में ही गिरवा देते हैं. लड़के लड़की में खान पान ,पढ़ाई लिखाई सभी मामले में भेदभाव किया जाता है. लड़का है तो उसे दूध और लड़की है तो उसे छांछ पीने को मिलेगा. लड़की सरकारी विद्यालय में और लड़का प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए जाएगा.

औरंगाबाद जिले के सरकारी मध्य विद्यालय भाव विगहा के प्रधानाध्यपक उदय कुमार ने बताया कि उनके स्कूल में अधिक लड़कियाँ आती हैं. इस गाँव में सिर्फ पिछड़ी और दलित जाति के लोग रहते हैं. लड़के को प्राइवेट विद्यालयों में लोग पढ़ने के लिए भेजते हैं. ज्यादातर लड़कियाँ इंटर के बाद उच्च शिक्षा या टेक्निकल एजुकेशन इसलिए नहीं ले पाती कि पढ़ाने में अधिक खर्च आता है. शहरों में रखकर लड़कियों को लोग नहीं पढ़ाना चाहते हैं.साफ जाहिर होता है कि आज भी लोगों के अंदर यह सोच घर करी हुई  है कि बेटियों को अच्छी शिक्षा देने से क्या फायदा है. लड़कों को कर्ज लेकर भी लोग पढ़ाना चाहते हैं. लड़का है तो आने वाले दिनों में घर का सहारा बनेगा.इस तरह की सोच से लोग बिमार हैं.

दलित और पिछड़ी जाति के पढ़ने वाली छोटी छोटी लड़कियाँ बर्तन धोने,छोटे बच्चों को खिलाने, बकरी चराने के अलावे घरेलू काम करतीं हैं. जबकि लड़के स्कूल से आने के बाद ट्यूशन ,मोबाइल,गेम और क्रिकेट खेलने में मस्त रहते हैं.

दलित और पिछड़ी जातियों में लड़कियों की शादी 15 से लेकर 22 वर्ष तक के उम्र में कर दी जाती है. साधरण घर की लड़कियाँ तो अपने मैके में भी अपने माता पिता के साथ खेती किसानी मजदूरी में हाँथ बंटाती रहतीं हैं.

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ससुराल जानें पर भी ससुराल के हैसियत के अनुसार काम करना पड़ता है. ईंट भट्ठा पर काम कर रही 23 वर्षीय शादी शुदा रजंती ने दिल्ली प्रेस को बताया कि उसका घर गया जिला के आजाद बिगहा गाँव में है. उसके बाबूजी  सभी परिवार को लेकर उत्तरप्रदेश बनारस  के पास ईंट भट्ठा पर काम करने के लिए लेकर चले जाते थे.सिर्फ बरसात के दिनों में तीन महीने वे लोग अपने गाँव में रहते बाकी दिनों बचपन से आज तक ईंट भट्ठे पर ही उसने जिंदगी गुजारी .पहले अपने माँ बाबूजी के साथ में काम करता थी.आज अपने सास ससुर और पति के साथ में काम करती है. शादी के बाद तीन महीने अपने घर पर ससुराल में रही.फिर अपने ससुराल वालों के साथ इंट भट्ठा पर निकल पड़े.

इसी तरह काजल  ने बताया, “मेरी शादी 15 वर्ष की उम्र में हो गयी थी. हमसे छोटा एक भाई और एक बहन थी. माँ बाबूजी दूसरे के खेतों मजदूरी करते थे. घर पर खाना बनाना और भाई बहन को देखना मेरा काम रहता था. जब वे लोग थोड़ा बड़े हुए और स्कूल जाने लगे तो मैं माँ बाबूजी के साथ साथ में धान गेहूँ काटने,सोहने और रोपने के कार्य में जाने लगी. जब शादी हुई तो ससुराल गई. 6 माह घर में रहे उसके बाद पति लुधियाना काम करने के लिए गाँव के दोस्तों के साथ चले गए.

सास ससुर साथ में मजदूरी पर चलने के लिए विवश करने लगे. मैं मजबूर होकर काम पर जाने लगी. कोई उपाय नहीं था. पति भी बोले क्या करोगी जो माँ बाबूजी कह रहे हैं, वह करो. चार बजे भोर में उठती हूँ. सभी लोगों का खाना बनाकर खाकर काम पर निकल जाती हूँ. शाम में काम से आती हूँ. वर्तन धोती हूँ. खाना बनाती हूँ. बिस्तर पर जाते ही नींद लग जाती है. चार बजे उठ जाती हूँ. जब काम नहीं रहता तो दिन भर घर में रहती हूँ. गाँव में औरतों को सालों भर काम भी नहीं मिलता.खासकर फसल काटने और रोपने के समय ही काम मिल पाता है.”

ये उदाहरण सिर्फ गाँवों में ही देखने को नहीं मिलते शहरों में भी इस तरह की समस्याएँ हैं. शहर में गरीब परिवारों की थोड़ी समस्या अलग ढंग की है.

शिवानी एक कम्पनी में टाइपिस्ट की नौकरी करती है. बेटा भी इंजीनियरिंग करके जॉब करता है. उसे कभी ताना नहीं सुनने पड़ता .लेकिन लड़की होने के उसे नाते ताना सुनने पड़ते हैं.

कहीं लड़कियों को बाजार ,पार्टी ,दोस्त के यहाँ जब जाने की जरूरत पड़ती है तो बड़ी लड़कियों के साथ में घर के छोटे लड़कों को सुरक्षा के हिसाब से भेजा जाता है. जबकि ये छोटे लड़के आफत होने पर किसी भी तरह से बहन को में बचा नहीं सकते लेकिन परिवार वालों को बेटे पर अधिक भरोसा होता है, बेटियों पर नहीं. बेटी को घर की इज्जत समझा जाता है.

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बचपन से ही बेटियों को तरह तरह के आचरण और ब्यवहार करने के लिए सिखाया जाता है. ऊँची आवाज में बात नहीं करो हँसों नहीं. कहीं आओ जाओ नहीं तमाम तरह की पाबन्दियाँ लगायी जाती हैं.

प्यार करने वाली कितने लड़कियों को तो माँ बाप और उसके परिवार वालों द्वारा ही हत्या तक कर दी जाती है.

लड़कियों के साथ गैरबराबरी और शोषण बचपन से लेकर वृद्ध होने तक साधारण परिवारों में होते रहता है. बचपन में मां बाप और भाई , युवा अवस्था में सास ससुर और पति वृद्ध होने पर उसके जवान बेटों द्वारा प्रताड़ित होने की कहानी आम है. साधारण हैसियत वाले लोगों के घरों में आवश्यक समानों के लिए भी परिवार लड़ाई झगड़ा आम बात है. शराबी पति शराब पीकर आता है. गाली गलौज मार पीट करता है. फिर भी समाज और परिवार का दबाव पति को परमेश्वर मानने का बना ही रहता है.

ग्रामीण इलाकों में एक तरीका है कि घरों में पहले मर्द खाते हैं. अंत में औरतें खातीं हैं. अगर सब्जी दाल खत्म हो गई तो औरतें अपने लिए नहीं बनातीं. नमक मिर्च या अचार के साथ रोटी चावल खाकर सो जातीं हैं.

इन साधारण लड़कियों के साथ हर जगह, पढ़ाई करते हुए, खेत खलिहान और आफिस तक में काम करते हुए, मजाक करना, शरीर को टच करना और मौका मिलने पर यौन शोषण का शिकार हो जाना आम बात है. कमजोर तबके से आने की वजह से मुँह खोलना जायज इसलिए नहीं समझतीं इन दबंग लोगों के समक्ष उसे इंसाफ नहीं मिल पाएगा और सिर्फ बदनामी का ही सामना करना पड़ेगा.

लड़कियों को तो हर बात में परिवार वालों द्वारा तमीज सिखायी जाती है. लेकिन लड़कों को नहीं.  घर के लड़के किसी लड़की के साथ गलत ढंग से पेश आते हैं. उसी तरह से दूसरे घर के लड़के भी इस घर की बहू बेटियों से गलत ढंग से पेश आ सकते हैं. जिस तरह से लड़कियों को तमीज सिखाते हैं. उसी तरह से लड़कों को भी सही गलत का पाठ  पढ़ाया जाना चाहिए.

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अगर आने वाली पीढ़ी के लिए स्वस्थ और सुंदर समाज बनाना चाहते हैं तो लड़का और लड़की में नहीं सही और गलत में भेद करना सिखायें.

दंतैल हाथियों के साथ क्रूरता जारी आहे

छत्तीसगढ़ में वन्य प्राणी विशेषकर हाथियों की मानों शामत आई हुई है. बीते सप्ताह एक एक करके दो हाथियों  की संदिग्ध मौत हो गई. इधर  संवेदनशीलता का जामा पहन शासन कुंभकर्णी निद्रा में सोया हुआ है. जिस तरह विगत दिनों केरल  में गर्भवती हाथी की विस्फोटक खाद्य पदार्थ खिलाकर क्रूर हत्या कर दी गई थी. सनसनीखेज तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ में भी ऐसा लगातार अलग अलग तरीके से होता रहता है. यहां अक्सर जहर दे कर या फिर करंट से हाथियों को   मौत के मुंह में सुला दिया जाता है. और जैसा कि शासन की फितरत है मामले की जांच के नाम पर संपूर्ण घटनाक्रम को नाटकीय  मोड़ दे दिया जाता है.  आगे चलकर लोग भूल जाते हैं की किस तरह लोगों ने वन्य प्राणी हाथी को मार डाला था. इस संदर्भ में न तो छत्तीसगढ़ में कोई गंभीर पहल होती है न ही  कभी कोई कठोर  कार्रवाई होती है.

इधर छत्तीसगढ़ में बीते दो दिनों में दो मादा हाथी की मौत के बाद जिला बलरामपुर के अतोरी के जंगल में भी एक मादा  हाथी  का शव बरामद हुआ.

वन विभाग की टीम ने  बताया मादा हाथी की मौत ३ से ४ दिन पहले हुई थी.फ़िलहाल विभाग के अधिकारी मौत के कारणों के  संदर्भ में कुछ भी करने को तैयार नहीं है.

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दरअसल, छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिले में बीते दो दिनों में दो हाथी की मौत ने  छत्तीसगढ़ वन विभाग की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं.

दो दिन  हो गये  हाथियों का दल मृत हाथी के शव के पास डटा हुआ  हैं. फलतः  मृत हाथी  का पोस्टमार्टम नहीं हो पाया है और मौत के कारणों का खुलासा भी नहीं  हो सका.

इसी तरह  प्रतापपुर वन परिक्षेत्र के गणेशपुर जंगल में एक मादा हाथी का शव मिला था. हर महीने दो महीने ऐसा घटनाक्रम निरंतर अबाध गति से चल रहा है. महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हाथियों को मौत की खबर सुर्खियों  में आने के बाद हाशिये  में चली जाती है. वन पशुओं के संरक्षण के संदर्भ में जो नियम कायदे हैं उस आधार पर न जांच होती है न ही कोई  कठोर कार्यवाही होती है. यह सब छत्तीसगढ़ में बदस्तूर चला आ रहा है.

गणेश हाथी की नकेल

छत्तीसगढ़ के रायगढ़, कोरबा वन परिक्षेत्र में गणेश नामक एक हाथी ने आतंक मचा रखा है. लगभग 25 लोगों को हलाक खतरनाक  दंतैल गणेश हाथी ने कर दिया  है.  शासन वन अमला असहाय  हो चुका है.इसका एक कारण यह भी है कि छत्तीसगढ़ के जंगलों में नई बस्तियां उभर आई है, जहां भारी संख्या में लोग रहवास कर रहे हैं.परिणाम स्वरूप वन्य प्राणी एवं लोगों का आमना सामना हो रहा है और कभी हाथी या अन्य वन्य प्राणी मारे जाते हैं या फिर कभी आम लोग वन्य  प्राणियों की चपेट में आकर मृत्यु का ग्रास बन रहे है. यह सारा खेल लगभग 15 वर्षों से छत्तीसगढ़ में अबाध गति से चल रहा ह. ऐसे में इंसान के सामने वन्य प्राणी अहसाय हो चुका है और बिजली के करंट से अथवा जहर देकर उन्हें मौत के घाट उतारा जा रहा है.

वन विभाग के एक आला अफसर ने बताया कि वन्य प्राणी हाथियों के संरक्षण के नाम पर  करोड़ों रूपए का आबंटन   छत्तीसगढ़ सरकार  करती है.  हाथियों के नाम पर वन विभाग जहां पानी के लिए तालाब बनवाता है वहीं हाथी मित्र दल का गठन किया गया है. आम लोगों को हाथों से बचने के लिए प्रशिक्षित भी किया जा रहा है. दरअसल,सच्चाई यह है कि यह सब कागजों में अधिक है, हकीकत में बिल्कुल भी नहीं.

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सवालों के जवाब नहीं है?

दंतैल वन्य प्राणी हाथी के कारण वन विभाग के अधिकारी मालामाल हो रहे हैं. करोड़ों रुपए के आबंटन का हिसाब जमीन पर नहीं दिखाई देता. “लेमरु एलीफेंट काॅरिडोर”  की मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने घोषणा की, मगर डेढ़ वर्ष और चला यह कागज़ में है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कुछ कम अनुभवी या  भ्रष्टाचार   में लिप्त  अधिकारियों की नियुक्ति प्रमुख जगहों मे होने के  कारण छत्तीसगढ़ में  हाथियों की मौतों जारी आहे. चिंता की बात  यह है कि वैज्ञानिक कारण इन मौतों का वन विभाग नहीं  बता पाता और  सब कुछ संदेहास्पद स्थिति में है.

सवाल यह भी है कि हाथियों की मौतों का कारण महज़ संक्रमण बता देना, क्या मूक वन्य प्राणी के साथ घोर मजाक नहीं है ?

डैरेन सैमी बोले मुझ से माफी मांगो

क्रिकेट बंद है, पर क्रिकेटर पूरी हलचल में हैं खासकर सोशल मीडिया पर. कोई विदेशी खिलाड़ी अपनी फैमिली के साथ ‘टिक-टौक’ पर हिंदी गानों पर ठुमके लगा कर वाहवाही लूट रहा है, तो कोई देशी खिलाड़ी अपनी प्रेमिका के बेबी बंप से सुर्खियां बटोर रहा है. घर में खाली बैठे हैं, तो एकदूसरे को कोई भी चैलेंज दे कर बहुत से क्रिकेट खिलाड़ी टाइमपास कर रहे हैं.

इस में कोई बुराई नहीं है, पर चूंकि दुनिया में कोरोना के साथसाथ और भी बहुतकुछ ऐसा हो रहा है, जिस ने दुनिया का तापमान बढ़ा दिया है, तो उस का असर अब क्रिकेटरों पर भी देखने को मिल रहा है.

अमेरिका में एक अश्वेत नागरिक जौर्ज फ्लायड की जिस निर्मम तरीके से पुलिस के हाथों मौत हुई थी, उस के बाद तो मानो दुनियाभर के अश्वेत लोगों के दिलों में वह दबी चिनगारी भड़क गई थी, जो काले रंग के चलते उन्हें गोरे लोगों से कमतर होने का एहसास कराती है.

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इस के बाद तो एक धमाका सा हुआ हुआ और पूरी दुनिया इस नस्लभेद की लड़ाई में अश्वेत लोगों के साथ खड़ी नजर आई. नतीजतन, कहीं पुलिस ने उन से सार्वजिक तौर पर  माफी मांगी, तो कहीं लोगों का गुस्सा इस कदर फूटा कि बड़ेबड़े नेता अपने बख्तरबंद बंकरों में जा छिपे.

इसी बीच क्रिकेट जगत से ऐसी खबर आई, जो हैरान कर देने वाली थी. वैस्टइंडीज क्रिकेट टीम के एक खिलाड़ी और कप्तान रह चुके डेरेन सैमी ने एक सनसनीखेज खुलासा किया कि साल 2014 के इंडियन प्रीमियर लीग में जब वे सनराइजर्स हैदराबाद टीम की तरफ से खेलते थे, तब ड्रैसिंग रूम में कुछ लोग उन्हें उस शब्द से पुकारते थे, जो अपमानजनक था.

डेरेन सैमी के इन आरोपों के बीच भारतीय क्रिकेटर ईशांत शर्मा का 14 मई, 2104 का एक पोस्ट वायरल है , जिस में उन्होंने डेरेन सैमी के लिए उन की त्वचा के रंग से जुड़ा एक शब्द लिखा था.

इस सिलसिले में डेरेन सैमी कहा कि उन्हें जिस शब्द से संबोधित किया गया था, तब उन्हें इस का मतलब नहीं पता था, लेकिन जब से पता चला है तो वे बड़े निराश हैं. दरअसल, डेरेन सैमी ने कहा कि तब उन्हें ‘कालू’ कह कर बुलाया जाता था, लेकिन अब उन्हें इस शब्द का मतलब पता चल गया है. यह शब्द नस्लीय भेदभाव का प्रतीक है और अपमानजनक है.

इस मसले पर डेरेन सैमी इस हद तक दुखी और गुस्साए लग रहे हैं कि उन्होंने लिखा, ‘जो भी मुझे उस नाम से बुलाता था, उसे खुद ही यह पता है. मुझ से संपर्क करो, बात करो. मैं उन सभी लोगों को मैसेज भेजूंगा. आप सब को खुद के बारे में पता है. मैं यह स्वीकार करता हूं कि उस समय मुझे इस शब्द का मतलब नहीं पता था.’

डेरेन सैमी यहीं पर नहीं रुके, बल्कि उन्होंने कहा कि वे सब खिलाड़ी उन से माफी मांगे, नहीं तो वे उन सब के नाम उजागर कर देंगे.

यह पहली बार नहीं हुआ है, जब क्रिकेट में खिलाड़ियों के बीच नस्लीय टिप्पणी की गई है. भारत के लिए क्रिकेट खेल चुके तेज गेंदबाज इरफान पठान ने भी हालिया कहा कि अलग धर्म या आस्था के चलते आप को किसी सोसाइटी में घर नहीं मिलता है तो यह भी एक तरह का नस्लवाद है.

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इसी तरह वैस्टइंडीज के ही धाकड़ बल्लेबाज क्रिस गेल ने इस नस्लीय भेदभाव पर अपनी इंस्टाग्राम स्टोरी पर लिखा, ‘किसी और की तरह अश्वेत की जिंदगी के भी माने हैं… सभी नस्लवादी लोग, अश्वेत लोगों को बेवकूफ समझना बंद करो. यहां तक हमारे ही कुछ अश्वेत लोग भी दूसरों को ऐसा करने का मौका देते हैं. खुद को नीचा समझने का यह सिलसिला रोको. मैं ने दुनियाभर में यात्राएं की हैं और नस्लीय टिप्पणियों का अनुभव किया है, क्योंकि मैं अश्वेत हूं. मेरा भरोसा कीजिए, यह लिस्ट लंबी है.’

क्रिस गेल साफ कहते हैं कि नस्लवाद सिर्फ फुटबाल में ही नहीं है, बल्कि क्रिकेट में भी है.

वैस्टइंडीज के ही एक और खिलाड़ी ड्वेन ब्रावो ने आज के हालात और नस्लवाद पर कहा, ‘हम चाहते हैं कि हमारे भाई और बहन यह जानें कि हम ताकतवर और खूबसूरत हैं. आप दुनिया के कुछ महान लोगों पर गौर कीजिए, चाहे वे नेल्सन मंडेला हों, मोहम्मद अली या माइकल जोर्डन. हमारे पास ऐसा नेतृत्व रहा है जिन्होंने हमारे लिए मार्ग प्रशस्त किया.’

ड्वेन ब्रावो की बात में दम है कि उन जैसे लोग ताकतवर ही नहीं बहुत खूबसूरत भी हैं, तभी तो जब क्रिकेट के मैदान पर क्रिस गेल अपने बल्ले से छक्के पर छक्के जमाते हैं, तो हर रंग का उन का फैन दीवाना हो कर खूब तालियां बजाता है, उन का एक आटोग्राफ पाने को तरस जाता है.

गहरी पैठ

अपने घर को अपनों ने गिराया है. इस देश की आज जो हालत कोरोना की वजह से हो रही है उस के लिए हमारी सरकार ही नहीं, वे लोग भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने धर्म और जाति को देश की पहली जरूरत समझा और फैसले उसी पर लेने के लिए उकसाया. आज अगर कोरोना के कारण पूरे देश में बेकारी फैल रही है तो इस की जड़ों में ?वे फैसले हैं जो सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी के लिए ही नहीं, बहुत तरीके से छोटेछोटे फैसले भी लिए जिन में धर्म के हुक्म सब से ऊपर थे.

लोगों ने 2014 में अगर सत्ता पलटी तो यह सोच कर कि जो हिंदू की बात करेगा वही राज करेगा तो ही देश सोने की चिडि़या बनेगा. यह देश सोने की चिडि़या केवल तब था जब देश पर कट्टरपंथी हिंदू राज ही नहीं कर रहे थे. 1947 से पहले देश में अंगरेजों का राज था. उस से पहले मुगलों का था. उस से पहले शकों, हूणों, बौद्धों का राज था. हां, घरों पर राज हिंदू सोचसमझ का था और वही देश को आगे बढ़ने से रोकता रहा. 2014 में सोचा गया था कि हिंदू राज मनमाफिक होगा, पर इस ने न केवल सारे मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर दिया, दलित, पिछड़े, औरतें चाहे सवर्णों की क्यों न हों, कमजोर कर दिए गए.

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कोरोना ने तो न सिर्फ जख्मों पर लात मारी है, उन को इस तरह खोल दिया है कि आज सारा देश लहूलुहान है. करीब 6 करोड़ मजदूर शहरों से गांवों की ओर जाने लगे हैं. जो लोग 24 मार्च, 2020 को चल दिए थे उन की छठी इंद्री पहले जग गई थी. उन्होंने देख लिया था कि जिस हिंदू कहर से बचने के लिए वे गांवों से भागे थे वह शहरों में पहुंच गया है. महाराष्ट्र में जो मराठी मानुष का नाम ले कर शिव सेना बिहारियों को बाहर खदेड़ना चाहती थी, वह मराठी लोगों के ऊंचे होने के जिद की वजह से था.

आजादी से पहले भी, पर आजादी के बाद, ज्यादा ऊंची जातियों ने शहरों में डेरे जमाने शुरू किए और अपनी बस्तियां अलग बनानी शुरू कीं. गांवों से तब तक दलितों को निकलने ही नहीं दिया था. काफी राजाओं ने तो दलितों पर इस तरह के टैक्स लगा रखे थे कि एक भी जना भाग जाए तो बाकी सब पर जुर्माना लग जाता था. अब ये लोग गांवों से आजादी पाने के लिए शहरों में आए तो शहरों में मौजूद ऊंची जातियों के लोगों ने इन्हें न रहने की जगह दी, न पानी, न पखाने का इंतजाम किया. ये लोग नालों के पास रहे, पहाडि़यों में रहे, बंजर जमीन पर रहे.

1947 से 2014 तक राजनीति में इन की धमक थी क्योंकि ये पार्टियों के वोट बैंक थे. फिर धार्मिक सोच वालों ने मीडिया, सोशल मीडिया, अखबारों, पुलिस पर कब्जा कर लिया. इन्हीं दलितों, पिछड़ों और इन की औरतों को धार्मिक रंग में रंग दिया और इन्हें लगने लगा कि भगवान के सहारे इन का भाग्य बदलेगा. मुसलमानों को डरा दिया गया और हिंदू दलितों को बहका दिया गया कि उन की नौकरियां उन्हें मिल जाएंगी.

पर हमेशा की तरह सरकारी फैसले गलत हुए. 1947 के बाद भारी टैक्स लगा कर सरकारी कारखाने लगाए गए जिन में पनाह मिली निकम्मे ऊंची जातियों के अफसरों, क्लर्कों, मजदूरों को. वे अमीर होने लगे. सरकारी कारखाने चलाने के लिए टैक्स लगे जो गांवों में भूखे किसानों और उन के मजदूरों के पेट काट कर भरे गए. मरते क्या न करते वे शहरों को भागे.

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शहरों में उन्हें बस जीनेभर लायक पैसे मिले. वे कभी उस तरह अमीर नहीं हो पाए जैसे चीन से गए मजदूर अमेरिका में हुए. जाति का चंगुल ऐसा था कि वह शहरों तक गलीगली में पहुंच गया. गरीबों की झुग्गी बस्तियों में शराब, जुए, बीमारी की वजह से गरीबों की जो थोड़ी बचत थी, लूट ली गई. महाजन शहरों में भी पहुंच गए.

कोरोना ने तो बस अहसास दिलाया है कि शहर उन के काम का नहीं. अगर गांवों में ठाकुरों, उन के कारिंदों की लाठियां थीं तो शहरों में माफियाओं और पुलिस का कहर पनपने लगा. जब नौकरी भी न हो, घर भी न हो, इज्जत भी न हो, आंधीतूफान से बचाव भी न हो तो शहर में रह कर क्या करेंगे?

कोरोना ने तो यही अहसास दिलाया है कि धर्म का ओढ़ना उन्हें इस बीमारी से नहीं बचाएगा क्योंकि वे अमीर जो रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं, कोरोना से नहीं बच पाए हैं. कोरोना की वजह से धर्म की दुकानें बंद हो गई हैं. चाहे छोटामोटा धर्म का व्यापार घरों में चलता रहे. कोरोना की वजह से ऊंची जातियों की धौंस खत्म हो गई है. शायद इतिहास में पहली बार ऊंची जातियों के लोग निचलों की गुलामी को नकारने को मजबूर हुए हैं कि कहीं वे एक अमीर से दूसरे अमीर तक कोरोना वायरस न ले जाएं. कोरोना इन गरीबों को छू रहा है पर ये उसे ऐसे ही ले जा रहे हैं जैसे कांवडि़ए गंगा जल ले जाते हैं जिसे छूने की मनाही है. कोरोना अमीरों में ही ज्यादा फैल रहा है.

कोरोना ने देश की निचलीपिछड़ी जातियों और ऊंची जातियों की औरतों के काम अब ऊंची जाति वालों को खुद करने को मजबूर किया है. अगर देश में हिंदूहिंदू या हिंदूमुसलिम या आरक्षण खत्म करो, एससीएसटी ऐक्ट खत्म करो की आवाजें जोरजोर से नहीं उठ रही होतीं तो लाखोंकरोड़ों मजदूर अपने गांवों की ओर न भागते. इस शोर ने उन्हें समझा दिया था कि वे शहरों में भी अब बचे हुए नहीं हैं. पुलिस डंडों की मार ये ही लोग खाते रहते हैं. 1,500 किलोमीटर चल रहे इन लोगों को ऊंची जातियों के आदेशों पर किस तरह पुलिस ने रास्ते में पीटा है यह साफ दिखाता है कि देश में अभी ऊंची जातियों का दबदबा कम नहीं हुआ है. गिनती में चाहें ऊंची जातियां कम हों पर उन के पास पैसा है, अक्ल है, लाठियां हैं, बंदूकें हैं, जेलें हैं. जब अंगरेज भारत में थे वे कभी भी 20,000 से ज्यादा गोरी फौज नहीं रख पाए थे, उन्हें जरूरत ही नहीं थी. उन के 1,500 आदमी हिंदुस्तान के 50,000 आदमियों पर भारी पड़ते थे.

देश के दलितों, पिछड़ों, गरीब मजदूरों ने कैसे एकसाथ फैसला कर लिया कि उन की जान तो अब गांवों में बच सकती है, यह अजूबा है. यह असल में एक अच्छी बात है. यह पूरे देश को नया पाठ पढ़ा सकता है. अब शहरों में महंगे मजदूर मिलेंगे तो उन्हें ढंग से ट्रेनिंग दी जाएगी. गांवों में जो शहरी काम करते मजदूर पहुंचे हैं, वे जम कर मेहनत से काम भी करेंगे और अपने को लूटे जाने से भी बचा सकेंगे. गांवों में ऊंची दबंग जातियां तो अब न के बराबर बची हैं. वे काम करेंगी तो इन के साथ.

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कोरोना वायरस दोस्त साबित हो सकता है. शर्त है कि हम धर्म की दुकानों को बंद ही रहने दें. कारखाने खुलें, लूट की पेटियां नहीं.

बंदी के कगार पर मझोले और छोटे कारोबारी

लौकडाउन की वजह से डूबते कारोबारी जगत को अब सरकार से ही राहत की उम्मीद है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके अखिलेश यादव ने कहा कि सरकार को जरूरी एहतियात के साथ कारोबार जगत को पटरी पर लाने के लिए सतर्कता बरतते हुए उपाय करने चाहिए और कारोबारियों की मदद करनी चाहिए.

देश में कारोबार और कारोबारियों की हालत बहुत खराब है. नोटबंदी और जीएसटी की गलत नीतियों से कारोबार जगत उबर भी नहीं पाया था कि कोरोना और लौकडाउन से कारोबार और भी ज्यादा टूट गया और अब यह बंदी के कगार पर पहुंच गया है.

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लखनऊ की युवा कारोबारी रोली सक्सेना ने 3 साल पहले गारमैंट्स का अपना कारोबार शुरू किया था. अपनी छोटी सी दुकान को बड़े शोरूम में बदल दिया था. 40,000 रुपए के किराए पर एक जगह ले कर दुकान शुरू की थी. अचानक नोटबंदी और जीएसटी की वजह से कारोबार में काफी उथलपुथल आ गई.

वे किसी तरह से इन हालात को संभाल रही थीं कि इसी बीच जब कोरोना और लौकडाउन का समय आया, तो कारोबार पूरी तरह बंद हो गया. दुकान के मालिक ने 40,000 रुपए किराए की मांग की. रोली सक्सेना ने किराया देने का तो तय कर लिया, पर यह सोच लिया कि अब वे यह कारोबार नहीं करेंगी.

रोली सक्सेना कहती हैं, ‘‘सरकार कारोबारियों के हालात समझती है. उसे इन की मदद का कोई ऐक्शन प्लान तैयार करना चाहिए, वरना हमारे जैसे न जाने कितने कारोबारी अपना कारोबार बंद कर सड़क पर आ जाएंगे.’’

राहत पैकेज दे सरकार

अखिल भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संदीप बंसल ने कहा है, ‘‘देश और प्रदेश की सरकार को उन कारोबारियों की चिंता करनी चाहिए, जो मध्यम वर्ग के हैं और जरूरी सेवाओं का कारोबार नहीं करते हैं. ये कारोबारी ऐसी किसी भी सरकारी राहत योजना में भी नहीं आते, जिस से उन को सरकार की मदद मिल सके.

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‘‘होली के समय से ही इन सब का कारोबार नहीं चल रहा है. ये अपने खर्चे और मुलाजिमों की तनख्वाह का इंतजाम तभी कर सकते हैं, जब इन की दुकानें खुलेंगी. जब तक इन कारोबारियों की दुकानें नहीं खुल रही हैं, तब तक ये खुद भुखमरी के कगार पर हैं.

‘‘जो बड़े कारोबारी हैं और सक्षम हैं, वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोष में पैसा दे रहे हैं. तमाम कारोबारी जनता को खाना खिलाने और दूसरी मदद का काम भी कर रहे हैं, इस के बाद भी देश में करोड़ों ऐसे कारोबारी हैं, जो रोज कमाने और खाने वाले हैं.

‘‘सरकार के पास ऐसे कारोबार और उस को करने वाले लोगों के लिए कोई योजना नहीं है. ये कारोबारी अपने कारोबार के बंद होने से परेशान हैं.’’

केंद्र सरकार ने लाखों करोड़ का जो राहत पैकेज दिया है, वह सही हाथों में पहुंचने के बाद ही कारोबारी जगत को उठाने में मदद मिलेगी.

शव-वाहन बना एम्बुलेंस

  • शव-वाहन बना जीवन रक्षक एम्बुलेंस..
  • एम्बुलेंस न मिलने पर शव-वाहन में लाये घायलों को..
  • शव वाहन चालक ने बचाई घायल वृद्धों की जान..
  • सड़क पर पड़े कर रहे थे एम्बुलेंस का इंतज़ार..
  • समय रहते पाहुंचे अस्पताल तो बच गई जान..

कहते हैं कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है और फिर अगर आपका जज्बा आपकी सोच पॉजिटिव हो तो मृत्यु को भी टाला जा सकता है. और बन सकता है मौत का वाहन भी जीवनरक्षक.

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जी हां ऐसा ही कुछ हुआ है मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में जहां एम्बुलेंस ने नहीं शव-वाहन ने लोगों की जानें बचाईं हैं. हमेशा लाशों को ढोने वाले शव-वाहन ने घायलों को समय पर अस्पताल पहुंचाकर उन्हें मौत में मुँह से निकालकर उनकी जान बचाईं हैं.

घायल वृद्ध लक्ष्मणदास और रमेश ने बताया..

मामला छतरपुर शहर सिटी कोतवाली थाना क्षेत्र के राजनगर-खजुराहो रोड का है जहां तेज़ रफ़्तार 2 बाईक सवार आपने-सामने भिड़ गये. जिससे उनमें बैठे 2 वृद्ध गंभीर घायल हो गये जो अचेत अवस्था में सड़क पर पड़े थे उनसे काफी खून बह रहा था. जिन्हें अस्पताल ले जाने के लिए उनके साथी यहां-वहां लोगों से मदद मांग आस्पताल ले जाने की गुहार लगा रहे थे. और लोग भी एम्बुलेंस बुलाने की फिराक में थे तभी राजनगर क्षत्र के प्रतापपुरा गांव में मृतक के शव छोड़कर आ रहा शव-वाहन वहां से गुजरा और उसका चालक गोविंद घायलों को देख रूक गया. और खुद ही घायलों की मदद की बात कही, कि आप लोग मेरे शव-वाहन में इन घायलों को अस्पताल ले चलो क्यों कि एम्बुलेंस को फोन करने और यहां तक आने में 20 से 25 मिनिट लगेंगे, जिससे बेहतर है कि हमारे शव-वाहन में ही इन्हें ले चलो हम 10 से 15 मिनिट में जिला अस्पताल पहुंच जाएंगे और इनका इलाज हो जायेगा और जान बच जायेगी. रूक गये तो बहुत देर हो जायेगी जिससे कुछ भी अनहोनी हो सकती है.

मौजूद लोगों ने ऐसा ही किया शव-वाहन चालक गोविंद की बात मान तत्काल घायलों को शव वाहन में रखवा दिया. जहां घायलों को समय रहते जिला अस्पताल ले जाया गया. और डॉक्टरों ने उनका समय पर ईलाज कर दिया जिससे उनकी जान बच गई.

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मामला चाहे जो भी हो पर इतना तो तय है कि गर समय रहते शव-वाहन ने घायलों को अस्पताल नहीं पहुंचाया होता और वहीं रुककर एम्बुलेंस का इंतज़ार किया होता तो इनकी जानें भी जा सकतीं थीं.

हमेशा मृत लोगों के शवों को लाने ले जाने वाला “शववाहन” इस बार घायलों को अस्पताल लाकर उनका “जीवनरक्षक” वाहन “एम्बुलेंस” बन गया.  इसके लिये प्रसंशा का पात्र शव वाहन का ड्राईवर है.

जनता तो अब चंदन ही घिसेगी

वर्तमान सरकार की नीतियों से सब गङबङ हो गया, अब तो ऐसा ही लगता है. पहले नोटबंदी ने आम लोगों से ले कर गृहिणियों तक को परेशान किया और फिर जीएसटी के मकङजाल में व्यापारी ऐसे उलझे कि उन्हें इस कानून को समझने में वैसा ही लगा जैसे किसी क्रिकेट प्रेमियों को डकवर्डलुइस के नियम को समझने में लगता है.

नोटबंदी ने मारा कोरोना ने रूलाया

एक के बाद एक लागू कानूनों से पहले सरकार ने मौकड्रिल करना जरूरी नहीं समझा. परिणाम यह हुआ कि देश में असमंजस की स्थिति बन गई. नोटबंदी के समय तो आलम यह था कि लोग अपने ही कमाए पैसे मनमुताबिक निकाल नहीं सकते थे.

तब आर्थिक विशेषज्ञों ने भी माना था कि आगे चल कर देश को इस से नुकसान होगा. निवेश कम होंगे तो छोटे और मंझोले व्यापार पर इस का तगङा असर पङेगा. और हुआ भी यही. छोटेछोटे उद्योगधंधे बंद हो गए या बंदी के कगार पर पहुंच गए. बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई.

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मगर उधर सरकार कोई ठोस नतीजों पर पहुंचने की बजाय धार्मिक स्थलों, मूर्तियों और स्टैचू बनाने में व्यस्त रही.

परिणाम यह हुआ कि निवेश कम होते गए, किसानों को प्रोत्साहन न मिलने से वे खेती के प्रति भी उदासीन होते गए और रहीसही कसर अब कोरोना ने पूरी कर दी.

कोरोना वायरस के बीच देश में लागू लौकडाउन भी सरकारी उदासीनता की भेंट चढ़ गया और इस से सब से अधिक वही प्रभावित हुए जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाते हैं.

विश्व बैंक की रिपोर्ट और भारतीय अर्थव्यवस्था

सरकारी उदासीनता और लापरवाही का नतीजा भारत की अर्थव्यवस्था पर तेजी से पङा. हाल के दिनों में छोटेबङे उद्योगधंधे या तो बंद हो गए या बंदी के कगार पर जा पहुंचे. लाखों नौकरियां खत्म हो गईं. और अब तो भारतीय अर्थव्यवस्था को ले कर विश्व बैंक ने जो कहा है वह चिंता बढ़ाने वाली बात है.

विश्व बैंक ने हाल ही में यह कहा है कि कोरोना संकट से दक्षिण एशिया के 8 देशों की वृद्धि दर सब से ज्यादा प्रभावित हो सकती है, जिस में भारत भी एक है.

40 सालों में सब से खराब स्थिति

विश्व बैंक का यह कहना कि भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देश 40 सालों में सब से खराब आर्थिक दौर में हैं, तो जाहिर है आगे हालात और भी बदतर दौर में बीतेंगे.

‘दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्था पर ताजा अनुमान : कोविड-19 का प्रभाव’ रिपोर्ट पेश करते हुए विश्व बैंक ने कहा है कि भारत समेत दक्षिण एशियाई देशों में 40 सालों में सब से खराब आर्थिक विकास दर दर्ज की जा सकती है. दक्षिण एशिया के क्षेत्र, जिन में 8 देश शामिल हैं, विश्व बैंक का अनुमान है कि उन की अर्थव्यवस्था 1.8% से लेकर 2.8% की दर से बढ़ेगी जबकि मात्र 6 महीने पहले विश्व बैंक ने 6.3% वृद्धि दर का अनुमान लगाया था.

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भारत के बारे में विश्व बैंक का अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में यहां वृद्धि दर 1.5% से लेकर 2.8% तक रहेगी.

विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया कि 2019 के आखिर में जो हरे निशान के संकेत दिख रहे थे उसे वैश्विक संकट के नकारात्मक प्रभावों ने निगल लिया है.

जाहिर है, इस से आने वाले दिनों में हालात बिगङेंगे ही. उधर सरकार के पास इस से निबटने और आर्थिक प्रगति के अवसर को आगे बढ़ाने में भयंकर दिक्कतों का सामने करना पङ सकता है.

मुश्किल में कारोबारी और मजदूर

कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के उपायों के कारण पूरे दक्षिण एशिया में सप्लाई चैन प्रभावित हुई, तो कामगाज ठप्प पङ गए.

सरकार की खामियों की वजहों से लौकडाउन भी पूरी तरह असफल हो गया. देश में फिलहाल 2 लाख से अधिक कोरोना पीङितों की संख्या है और इस का फैलाव भी अब तेजी से होने लगा है.

उधर भारत में तालाबंदी के कारण सवा सौ करोङ लोग घरों में बंद हैं, करोङों लोग बिना काम के हैं और हालात इतने बदतर होते जा रहे कि कुछ बाजारों के खुलने के बावजूद कारोबार चौपट है. इस से बड़े और छोटे कारोबार बेहद प्रभावित हैं.

शहरों में रोजीरोटी मिलनी मुश्किल हो गई तो लाखों प्रवासी मजदूर शहरों से अपने गांवों को लौट चुके हैं और यह पलायन बदस्तूर जारी है.

विश्व बैंक ने किया आगाह

रिपोर्ट में यह आगाह किया गया है कि यह राष्ट्रीय तालाबंदी आगे बढ़ती है तो पूरा क्षेत्र आर्थिक दबाव महसूस करेगा. अल्पकालिक आर्थिक मुश्किलों को कम करने के लिए विश्व बैंक ने क्षेत्र के देशों से बेरोजगार प्रवासी श्रमिकों का समर्थन करने के लिए वित्तीय सहायता देने और व्यापारियों और व्यक्तियों को ऋण राहत देने को कहा है.

मगर भारत में जहां की राजनीति हर कामों पर भारी पङती है, वहां लोगों व व्यापारियों को आसानी से ॠण मिल जाएगा, इस में संदेह ही है. भारतीय बैंक की हालत पहले ही बङेबङे घोटालों की वजह से पतली है. भ्रस्टाचार ऊपर से नीचे तक है और यह भी सरकार की नीतियों को आगे ले जाने में बाधक है.

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उधर, सरकार के पास कोई माकूल रोडमैप भी नहीं है जिन से बहुत जल्दी देश में आर्थिक असमानता को दूर किया जा सके. सरकार के अधिकतर सांसद व मंत्री एसी कमरों में बैठ कर सरकार चलाना चाहते हैं.

जनता सरकार के कामकाज से संतुष्ट नहीं दिखती. पर जैसाकि हमेशा से होता आया है, वही आगे भी होगा. देश को धर्म और जाति पर बांटा जाएगा फिर वोट काटे जाएंगे.

जनता जनार्दन क्या करे, सरकार के पास कहने के लिए तो है ही- प्रभु के श्रीचरणों में रहो, वही बेङापार करेंगे. यानी अब तो सिर्फ चंदन ही घिसते रहो…

सिनेमाघरों के बाद अब वृत्त चित्र ‘Wild Karnataka’ का डिस्कवरी पर प्रसारण

मूलतः बंगलौर निवासी और पिछले 15 वर्षों से ‘वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर के रूप में कार्यरत  अमोघवर्ष जे एस अब तक अनगिनत पुरस्कार हासिल कर चुके हैं. वह ‘‘नेशनल जियोग्राफी’’ (National Jiography) और ‘‘बीबीसी’’ (BBC) चैनल के लिए भी कार्य कर चुके हैं. उनके कार्यों के बारे में 2015 में पेरिस में आयोजित ‘‘युनाइटेड नेशन के क्लायमेट चेंज कौंफ्रेंस’’ में भी दिखाया गया था.इतना नही जनवरी 2020 में उन्होने क्लायमेट चेंज पर ‘युनाइटेड नेशन’ के मुख्यालय में अपनी बात भी रखी थी, जब ‘युनाइटेड नेशन’ (United Nation) में उनके भारत के कर्नाटक राज्य के जंगलों और इन जंगलों में विचरण कर रहे पशुओं के जीवन पर उनके द्वारा बनाए गए वृत्त चित्र ‘‘वाइल्ड कर्नाटका’’ का प्रदर्शन किया गया था.

कर्नाटक के 20.19 प्रतिशत भूभाग में है जंगल

विश्व प्रसिद्ध जंगलों में से कुछ जंगल और जंगली जानवर अब भी कर्नाटक में हैं. जी हॉ! भारत में जंगलों की कमी नही है. भारत के लगभग हर राज्य के कुछ हिस्से में जंगल विद्यमान हैं. कर्नाटक तो भारत का 6ठा सबसे बड़ा राज्य है, जिसके 38720 किमी का क्षेत्र वन क्षेत्र यानी कि जंगल क्षेत्र है. जो कि राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20.19 प्रतिशत है. यह जंगल क्षेत्र पश्चिमी घाट के सदाबहार हरे भरे जंगलों से लेकर मैसूर जिले के पर्णपाती जंगलों तक, रामनगर और दारोजी के जंगल नदी और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र तक फैले हुए हैं. कर्नाटक के इस जंगल में पूरे भारत में मौजूद हाथियो के 25 प्रतिशत हाथी, बाघो की आबादी के बीस प्रतिशत बाघ मौजूद हैं. कहा जाता है कि पूरे एशिया में सबसे अधिक हाथी व बाघ कर्नाटक के ही जंगलों में हैं. इस फिल्म के जरिए उनका चित्रण कर दुनियाभर को इस राज्य की तरफ आकर्षित करने की कोशिश है.

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ज्ञातब्य है अमोघवर्ष जे एस ने अपने मित्र और वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर के रूप में मशहूर फिल्मकार कल्याण वर्मा के साथ मिलकर ‘आइकॉन फिल्म्स और ‘म्यूडसीपर’ के बैनर तले एक 52 मिनट के वृत्त चित्र डौक्यूमेंट्री ‘‘वाइल्ड कर्नाटक’’ (Wild Karnataka) का निर्माण किया है. मूलतः अंग्रेजी भाषा में बनाए गए इस वृत्तचित्र में मशहूर पर्यावरणविद् सर डेविड एटनबर्ग ने सूत्रधार की भूमिका निभाते हुए अंग्रेजी में अपनी बात कही है. इसी वर्ष जनवरी माह में इस वृत्तचित्र का प्रसारण दक्षिण भारत के तमाम सिनेमाघरों में हुआ था और लगातार पचास दिन तक सिनेमाघर में प्रदर्शित होने का इस वृत्त चित्र ने एक रिकार्ड बनाया. इसके बाद अमोघवर्ष जे एस ने इस वृत्त चित्र को हिंदी, कन्नड़, तमिल और तेलगू भाषा में डब कर प्रसारित करने का निर्णय लिया. अब ‘‘वाइल्ड कर्नाटका’’ (Wild Karnataka) का प्रसारण आज, पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर ‘‘डिस्कवरी’’ चैनल पर भारतीय भाषाओं में होगा.

विषयः

कथा कथन शैली में ‘‘वाइल्ड कर्नाटक’’ में पूरे कर्नाटक राज्य की विभन्न प्रजातियों का चित्रण है.इस वृत्त चित्र के विषयों में शेर-पूंछ वाले मैकाक, हॉर्नबिल, उभयचर और सरीसृप जैसी कम-ज्ञात प्रजातियों के साथ बाघ और हाथी शामिल हैं.इसके सूत्रधार सर डेविड एटनबरो हैं, जिन्होने पहली बार किसी भारतीय फिल्म को अपनी आवाज दी है.

सर डेविड एटनबर्ग के साथ राज कुमार राव,प्रकाश राज और रिषभ शेट्टी की आवाजः

वृत्त चित्र ‘‘वाइल्ड कर्नाटका’’ को इसे अधिकाधिक दर्शकों तक पहुंचाने के लिए हिंदी, तमिल, तेलगू और कन्नड़ भाषाओं में डब कियागया है.इसके लिए तमिल और तेलुगू में प्रकाश राज और हिंदी में राजकुमार राव ने अपनी आवाज में संवाद डब किए हैं. जबकि कन्नड़ में ऋषभ शेट्टी ने अपनी आवाज दी है.

राजकुमार राव (Rajkumar Rao) ने वृत्तचित्र के लिए अपनी आवाज देने के अपने अनुभव पर कहते हैं- ‘‘एक अभिनेता के रूप में आप हमेशा लोगों तक पहुंचाने के लिए दिलचस्प कहानियों की तलाश में रहते हैं. जब भी मैं कुछ नया एक्सप्लोर करना चाहता हूं, डिस्कवरी हमेशा मेरा गो-टू चैनल रहा है. अब इस वृत्त चित्र के माध्यम से चैनल का हिस्सा बनना मेरे लिए गौरव की बात है. इस वृत्त चित्र हमारे देश की प्राकृतिक विरासत को  खूबसूरती से चित्रित किया गया है. इसका हिस्स बनने के पीछे एक मकसद देश के बच्चों तक जंगल और उसके अंदर निवास करने वाले प्राणियों के बारे में जानकारी पहुंचना रहा. यह एक ज्ञानवर्धक वृत्त चित्र है.’’

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अभिनेता प्रकाश राज (Prakash Raj) कहते है- ‘‘मुझे इस वृत्त चित्र की विषयवस्तु ने इससे जुड़ने के लिए प्रेरित किया. यह तो भारत में प्रचलित समृद्ध जैव-विविधता का उत्सव है. जंगलों पर आधारित इस 52 मिनट के भव्यतम वृत्त को चार सौ घंटे फिल्माए गए फुटेज से एडिट कर दर्शकों के लिए बनाया गया है.”

कन्नड़ भाषा में डब करने वाले अभिनेता व निर्माता रिषभ शेट्टी (Rishabh Shetty) कहते हैं-‘‘वृत्त चित्र ‘वाइल्ड कर्नाटका’ का पूरा श्रेय अमोघवर्ष और कल्याण वर्मा और उनकी टीम को जाता है. वह दोनों इस परियोजना पर लगभग चार वर्षों तक काम कर चुके हैं. दिन और रात उन्होंने वन विभाग के अधिकारियों की मदद से कर्नाटक के जंगलों में शूटिंग की. मुझे एक मित्र द्वारा डौक्यूमेंट्री के कुछ नमूना क्लिप दिखाए गए थे, जिन्होंने इस वृत्त चित्र पर भी काम किया है. जिसे देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ और अमोघ और कल्याण के संपर्क में आ गया. मैंने उस टीजर को देखा जिसमें सर डेविड एटनबरो का कथन था.मुझे पता था कि मैं उनकी महान शैली से मेल नहीं खा सकता. इसलिए मैंने इसे अपने तरीके से करने की कोशिश की. लोगों को तुलना के लिए कभी नहीं जाना चाहिए. मेरे पास कन्नड़ में लिखी गई स्क्रिप्ट थी और मैंने उसे सुनाया.

रिषभ शेट्टी (Rishabh Shetty) आगे कहते हैं- ‘‘यह वृत्त चित्र मेरे दिल के करीब है. क्योंकि मैं कर्नाटक से हूं. हमारे लिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपने वन्यजीवों को बचाएं और कर्नाटक की सरकार और वन विभाग विकास और विशाल मानव आबादी के दबाव के बावजूद बहुत प्रयास कर रहे हैं.’’

फिल्म निर्माण में चार वर्ष का समय लगाः

चार वर्ष की समयावधि में बनी इस 52 मिनट के वृत्तचित्र को 1500 दिनों के कठिन मेहनत से तैयार किया गया है.कुल 15000 घंटें की शूटिंग 20 कैमरों ड्रोन्स से करके 2400 मिनट का फुटेज तैयार किया गया था,जिसमें राज्य के राजसी और सुंदर प्राकृतिक इतिहास और विरासत के प्रति जागरूकता, प्रेम और सम्मान फैलाने वाले 50 दृश्य हैं. इसे राज्य की राजधानी बैंगलुरु से केवल सात घंटे की यात्रा के बाद फिल्माया गया.

वन्य जीवों की जिंदगी में खलल न पड़े, इस बात का ख्याल :

वन्यजीवों की रोजमर्रा की जिंदगी में किसी भी तरह का खलल न पड़े, इसके लिए फिल्म को अत्याधुनिक तकनीक और आवाज न करने वाले कैमरों का उपयोग करके फिल्मांकन किया गया. भारत में किसी भी वन्यजीव को कभी भी हवाई दृष्टिकोण से नहीं देखा गया है, पर इस वृत्त चित्र की टीम ने पहली बार ऐसा किया है.

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कल्याण वर्मा (Kalyan Verma) कहते हैं- ‘‘इन उपकरणों का उपयोग करके हम जानवरों के व्यवहार के महान दृश्य और अंतर्दृष्टि को पकड़ने में सफल हुए. क्योंकि यह उपकरण जंगल के प्राकृतिक जीवन में घुसपैठ नहीं करते. यह पहली वन्यजीव प बना पहला वृत्तचित्र है, जिसमें महिलाओं को बराबर प्रतिनिधित्व मिला है. जहां पारंपरिक उदाहरणों का विरोध किया जाता है, जहां महिलाएं एक फिल्म के निर्माण पक्ष में काम करती हैं और मैदान पर एक अलग परिप्रेक्ष्य में लाती हैं.

गर्भवती हथिनी को खिलाया पटाखों वाला अनन्नास, मानवता को किया शर्मसार

ये खबर आपके दिल को झकझोर कर रख देगी,आपको अंदर तक हिला कर रख देंगे, आपको सोचने पर मजबूर कर देगी कि क्या इंसानों के लिए बेजुबान जानवरों की जान की कोई किमत नहीं? सच जान कर आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे. एक हथिनी अपना सिर पानी के अंदर के किए खड़ी हुई है और उसकी मौत हो चुकी है, पास के दो और हांथी उसके अगल-बगल खड़े हैं इस आस में कि शायद उसे कोई बचाने आ जाए.

आखिर उन बेजुबानों के पास खड़े होकर किसी की मदद के लिए आस लगाने के सिवा और कोई रास्ता भी तो नहीं था और आपको ये जानकर हैरानी होगी की कि वो गर्भवती थी. शर्म आएगी आपको मानवता पर ये जानकर कि आखिर उस हथिनी की मौत कैसे हुई. ये खबर केरल की है. दरअसल, केरल में बुधवार के दिन एक गर्भवती हथिनी खाने की तलाश में भटक रही थी. लेकिन किसी से उसे एक अनन्नास खिलाया और वो भयंकर पटाखों से भरा हुआ.

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उसके अंदर जो विस्फोटक भरा था उसको खाने के बाद हथिनी के मुंह में यह अनन्नास फट गया और वो दर्द से कराहने लगी. ये भूखी हथिनी जंगल से भटक कर वहां के रिहायशी इलाकों तक पहुंची थी. उसने इंसानों पर भरोसा किया था. लेकिन मरते-मरते उसका भरोसा टूट गया. उसने अपनी इतनी दर्दनाक मौत का सोचा भी नहीं होगा लेकिन उस वक्त वो अपने बारें में नहीं अपने पेट में पल रहे अपने बच्चे के बारे में सोच रही होगी क्योंकि उसके पेट में 18 से 20 माह का बच्चा था जो अभी इस दुनिया में आया भी नहीं था और अपनी मां के पेट में ही उसने भी दम तोड़ दिया.

हथिनी  दर्द से परेशान थी, कराह रही थी. उसे असहनीय पीड़ा हो रही थी, लेकिन कोई उसकी मदद को सामने नहीं आया. वो हार कर पास के एक नदी में गई अपने मुंह और सूंड़ को पानी में डुबोकर काफी देर तक खड़ी रही. शायद इसलिए की उसे अपनी उस दर्दनीय पीड़ा से थोड़ी राहत मिल रही थी. लेकिन उसका दर्द कम नहीं हुआ. और अंत में उसकी दर्दनाक मौत हो गई. वहीं पानी में खड़े-खड़े उस हथिनी ने दम तोड़ दिया. इसकी सोशल मीडिया पर खूब आलोचना की जा रही है.

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जानकारी के मुताबिक वहां के फॉरेस्ट अधिकारी ने बाताया कि हथिनी ने ऐसा इसलिए भी किया ताकि उसके घाव पर मक्खी ना लगे. घंटो तक राहत और बचाव का प्रयास करने के बाद उस हथिनी को पानी से निकाला गया. फिर उसे एक ट्रक में डालकर जंगल में ले जाया गया जहां उसका अंतिम संस्कार किया गया. भले ही उसे अंतिम विदाई वहीं दी गई जहां वो बड़ी हुई थी लेकिन यहां सवाल मानवता पर उठता है कि कोई कैसे इस हद तक जा सकता है और इस हद तक वहशीपना और दरिंदंगी की जा सकती है.

वहां की सरकार को इसके लिए कुछ करना चाहिए जांच करनी चाहिए और इस मामले पर संज्ञान लेना चाहिए. आज मानवता एक बार फिर से शर्मसार हुई है एक बेजुबान की हत्या का पाप लगेगा मानवता को. आप खुद सोचिए की आखिर उस बेजुबान ने किसी का क्या बिगाड़ा था. सिर्फ भूखी ही तो थी जो खाने की तलाश में भटक रही थी. हथिनी की मौत की ये खबर फैल चुकी है और इंटरनेट पर लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं. तो सवाल उठना तो लाजमी है.

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गहरी पैठ

देश में कोरोना की वजह से जहां 10 से 15 करोड़ लोग बेकार हो जाएंगे वहीं हजारों कारखाने और धंधे बरबादी के कगार पर पहुंच जाएंगे, क्योंकि मजदूर नहीं मिलेंगे. कोरोना से पहले शहरियों ने अपने ही देश के मजदूरों को बुरी तरह दुहा था और इसीलिए पहला ही बड़ा झटका लगते, ये मजदूर अपनी लगीबंधी नौकरी या छोटामोटा धंधा बंद कर के गांवों की ओर भाग लिए.

अगर 24 मार्च को अचानक 4 घंटे का नोटिस दे कर देश को बंद नहीं किया जाता और

10 दिन लोगों को घरों को लौटने की इजाजत दी जाती तो लौकडाउन में वे लोग शहरों में बने रहते, जिन के पास किराए की छत तो थी. इस अचानक लौकडाउन ने मजदूरों को यह भरोसा दिला दिया कि यह सरकार भरोसे के लायक है ही नहीं.

सरकार ने अगर थोड़ी सी अक्ल लगाई होती और इन मजदूरों को भरोसा दिलाया होता कि वे जातिप्रथा के गुलाम नहीं हैं, बराबर के नागरिक हैं तो बात दूसरी होती. ये मजदूर गांवों से भाग कर इसलिए नहीं आए थे कि वहां भूख सता रही थी. भूख से ज्यादा ये जाति के कहर से परेशान थे. इन का मालमत्ता तो छीन ही लिया जाता था और इन से बेगार तो कराई ही जाती थी, इन की लड़कियों और औरतों को भी जब मरजी उठा लिया जाता था. ये लोग शहरों में हिंदू धर्म की जाति की मार से बचने के लिए आए थे.

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शहरों में इन्हें सीधेसीधे चाहे अछूत न समझा गया हो, पर ऊंचे से ले कर नीचे तक सभी इन से रोजाना वही बरताव करते थे जो गांवों में होता था. इन्हें गांवों की तरह शहरों की गंद में रहने को मजबूर किया गया. ये लोग गंदे पानी के नाले के किनारे झुग्गियां बना कर रहे, खुले में खायाबनाया, सैक्स भी सब के सामने किया. हां, शहरों में इन की औरतेंलड़कियां बच जाती रहीं जो अपनेआप में कम नियामत नहीं थी.

पैसा तो शहरों में भी ज्यादा नहीं मिला. वे लोग कपड़ेलत्ते के अलावा गांव में बस अपने बूढ़े मांबाप के लायक कमा सके. फैक्टरियों ने लालच में मजदूरों के रहने की जगह बनानी बंद कर दीं. सरकारों ने मजदूरों की कालोनियों को जगह देना बंद कर दिया. सड़क पर दुकानें लगाने को भी मजबूर किया, रहने को भी. फिर भी जिस आजादी के सपने उन्होंने देखे थे, उन में से कुछ सही होते रहे और इसलिए लोग आते रहे. अब कोरोना और उस से पहले नोटबंदी ने साबित कर दिया कि यह सरकार तो सिर्फ तिलकधारियों का खयाल रखेगी, दबंगों का, पुलिस का.

मजदूरों की कोई जगह इन के पास नहीं है. वे गुलामों की तरह रहें. अब लौटने में भला है चाहे 1,000 किलोमीटर चलना क्यों न पड़े. ये गांवों में खुश रहेंगे इतना पक्का है. शहरों ने इन्हें हकों का इस्तेमाल करना सिखा दिया है, यही काफी है या कहिए कि बस यही कमाई ले कर ये गांव लौट रहे हैं.

यह माना जा सकता है कि सरकार का खजाना खाली है और उस के पास अपने वेतनभत्ते देने का पैसा भी टैक्सों से जमा नहीं हो पा रहा. हालात तो कोरोना से पहले ही खराब होने शुरू हो गए थे, क्योंकि एक साल से गाडि़यों की बिक्री कम हो रही थी, मकान बिक नहीं रहे थे. व्यापारी बैंकों और जमाकर्ताओं का पैसा ले कर भाग रहे थे. देश छातियां तो पीट रहा था और बड़ी 56 इंची बातें कर रहा था, पर सरकार की जेब में पैसा लगातार सिकुड़ रहा था.

अब जब 50 दिन पूरी तरह सब कामधंधे बंद हो जाने से जो झटका लगा है, वह तब तक ठीक न होगा जब तक सरकार कारखानों और मिलों को धंधा चलाने के लिए मोटा पैसा न देगी. यह पैसा सरकार को वेतन काट कर देना होगा. जैसे हर व्यापारी, कारखानेदार, हर मजदूर आधे पैसों में काम करेगा वैसे ही हर सरकारी अफसर, कर्मचारी, सिपाही, जज, ठेकेदार को आधे पैसों में काम करने को तैयार होना होगा.

देश की बचत का एक बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरशाही बेकार में उड़ा देती है. बड़ेबड़े दफ्तर बचे हुए हैं जो करते कम हैं, करने से रोकते ज्यादा हैं. जनता को दुरुस्त करने के नाम पर वे अड़चनें डालते हैं. सारे किएधरे को रोकते रहते हैं. अगर कहीं भी कुछ भी अधूरा बना पड़ा दिखे तो समझ लें कि इस के पीछे सरकार है. कहीं भी कोई रुका हो, बंद हो तो समझ लें कि इस के पीछे सरकार है.

राजाओं ने हमेशा महल बनाए हैं, आम लोगों के घर नहीं. उन्होंने खेतों से लगान वसूला है, खेती नहीं की. कारखानों पर टैक्स लगाए हैं, कारखाने नहीं चलाए. अगर सरकारी नौकरशाही का वेतनभत्ता आधा हो जाए तो देश की जनता को पूरी बरकत होगी. अगर हमेशा के लिए नहीं तो 5-6 महीने की कुरबानी तो देनी ही चाहिए.

जब कोरोना के मरीजों को ठीक करने में डाक्टर अपनी जान पर खेल रहे हैं तो नौकरशाही का फर्ज है कि वह अपना हिस्सा वेतन कटौती से दे और 5-6 महीने केवल आधा वेतन ले. वैसे भी लौकडाउन और घरों में बंद रहने से बहुत से खर्च कट रहे हैं.

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यह तो पक्का है कि सरकार या उस की 30 लाख करोड़ की नौकरशाही अपने खर्च, वेतन, तामझाम कम नहीं करेगी, क्योंकि 1947 में भी आजादी का मकसद यही था कि राज मुट्ठीभर सरकारी लोगों का हो और उस के बाद की हर सरकार का चाहे वह गरीबी हटाओ की बात कर रही थी या हिंदू धर्म की दोबारा जड़ें जमाने की. यहां जनता से देने को कहा जाता है, लेने को नहीं. पुराणों को उठा कर देख लें, एक भी ऐसी कहानी नहीं मिलेगी जिस में किसी राजा ने आम लोगों के लिए कुछ किया हो. 2020 में कुछ अलग नहीं होने वाला.

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