‘बेटी पढ़ाओ’ नारे को नहीं मानता यह समुदाय

लेखक-शंकर जालान

मूल रूप से गुजरात के अहमदाबाद व राजकोट के बीच जोटिया गांव के इस ‘गुजराती’ समुदाय का मानना है कि लड़की को चौथी जमात तक पढ़ा लिया, उसे जोड़घटाव व गुणाभाग आ गया, बस उस की पढ़ाई पूरी हो गई. मूल रूप से पुराने कपड़ों के बदले स्टील और प्लास्टिक के बरतन व दूसरा सामान दे कर उस से होने वाली मामूली आमदनी पर ये लोग किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ ही कर पाते हैं.

सिंधी बागान बस्ती की रहने वाली

25 साला बंदनी गुजराती ने बताया कि इस बस्ती में ‘गुजराती’ समुदाय के तकरीबन 30 परिवार रहते हैं, लेकिन किसी घर की लड़की ने 5वीं जमात की दहलीज पर पैर नहीं रखा है.

बेटियों यानी लड़कियों को पढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार की ओर से कई तरह की सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं, इस के बावजूद भी आप लोग लड़कियों को चौथी जमात से आगे क्यों नहीं पढ़ाते हैं? इस सवाल के जवाब में इस बस्ती की सब से बुजुर्ग 55 साला विद्या गुजराती नामक औरत ने बताया कि दिनरात मेहनत कर के किसी तरह घरपरिवार का गुजारा होता है. औसतन 6 से 8 हजार रुपए महीने की कमाई में उन के लिए लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना मुमकिन नहीं है.

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23 साला चुन्नी गुजराती ने बताया कि उस के समुदाय में लड़कों का काम घर पर रहना और घर की देखरेख करना है, जबकि लड़कियों का काम गलीगली, दरवाजेदरवाजे जा कर पुराने कपड़ों की एवज में ग्राहकों को उन की जरूरत के मुताबिक स्टील व प्लास्टिक के बरतन व दूसरा सामान देना होता है.

पुराने कपड़ों का क्या करते हैं? इस सवाल के जवाब में 26 साला जैली गुजराती व 20 साला राजा गुजराती ने बताया कि पुराने कपड़ों को बेचते हैं. पुराने कपड़ों का यह बाजार चितरंजन एवेन्यू में गिरीश पार्क से ले कर बिडन स्ट्रीट तक रोजाना देर रात तक लगता है.

शिमला माठ के रहने वाले 30 साला पंकज गुजराती की बात मानें तो इन दिनों ‘गुजराती’ समुदाय की कुछ लड़कियां पढ़ना चाहती हैं, लेकिन कोई सही सलाह देने वाला नहीं है. चुनाव के समय हर पार्टी के नेता यहां आ कर उन के विकास के बाबत भरोसा दे जाते हैं, लेकिन चुनाव के बाद उन की सुध लेने वाला कोई नहीं होता है.

इस बाबत स्थानीय पार्षद और विधायक स्मिता बक्सी का कहना है कि वे अपने लैवल पर पूरी कोशिश करती हैं कि हर बच्चा चाहे वह लड़की हो या लड़का स्कूल जाए लेकिन अगर किसी लड़की के मातापिता ऐसा नहीं चाहते हैं, तो इस में वे क्या कर सकते हैं.

दूसरी ओर, कोलकाता नगरनिगम के शिक्षा विभाग के मेयर परिषद के सदस्य अभिजीत मुखर्जी का कहना है कि विभाग की सारी कोशिशों के बावजूद कुछ मातापिता अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजना चाहते. सर्वशिक्षा अभियान के तहत नगरनिगम द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को अपग्रेड कर 8वीं जमात तक किया गया है. कामकाजी औरतें अपनी बेटियों को अकेले छोड़ने से डरती हैं, इसलिए वे उन्हें अपने साथ ले कर काम पर निकलती हैं.

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ऐसी ही गरीब कामकाजी औरतों को ध्यान में रख कर डे बोर्डिंग स्कूल तैयार किया जा रहा है, जहां पर लड़कियां महफूज भी रह सकें और पढ़ भी सकें. द्य

धर्म दीक्षा यानी गुरूओं की दुकानदारी

रिटायरमैंट के करीब पहुंचे एक सज्जन से मैं ने पूछा, ‘‘दीक्षा का मतलब क्या है?’’ वे बताने लगे, ‘‘दीक्षा का मतलब, दक्ष,’’ वे आगे बोले, ‘‘कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत के युद्ध में दीक्षा दी थी.’’

‘‘क्या दीक्षा दी थी?’’ मेरे दोबारा पूछने पर वे कुछ नहीं बोले. जाहिर है, वे अपने गुरु के अंधसमर्थक थे.

इस बारे में महाभारत से स्पष्ट है कि कृष्ण ने छलकपट से कुरुक्षेत्र का युद्ध जीता था. तो क्या उन्होंने अर्जुन को छलकपट की दीक्षा दी? आमतौर पर दीक्षा का मतलब होता है, गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान का सार, जिस पर शिष्य (छात्र) अपने जीवन में अमल कर सफलता की सीढ़ी चढ़ता है. स्कूल की पढ़ाई को तथाकथित गुरु अपर्याप्त शिक्षा मानते हैं. अनपढ़, गंवार गुरु अपने तप से जीवन में ऐसा कौन सा मंत्र प्राप्त करते हैं जो अपने शिष्यों में बांट कर उन का जीवन सुधारने का कार्य करते हैं, जबकि वे खुद असफल, जीवन के संघर्षों से भागने वाले लोग होते हैं.

गुरु के मर जाने के बाद भी दीक्षा का कार्यक्रम चलता है. यह समझ से परे है, क्योंकि गुरु खुद अपना ज्ञान दे तो समझ में आता है पर यह कार्य मरने के बाद उन के कुछ शिष्यों द्वारा चलता रहे, तो यही कहा जा सकता है कि यह गुरु की दुकानदारी है.

दीक्षा देने का तरीका सभी गुरुओं का एक जैसा नहीं होता. कुछ गुरु खास रंगों के वस्त्रों के साथ नहाधो कर ब्रह्ममुहूर्त में दीक्षा देते हैं, तो कुछ कभी भी, किसी भी अवस्था में. दीक्षा के लिए किस गुरु को चुना जाए, यह बुद्धि से ज्यादा गुरु के प्रचार पर निर्भर करता है जिस गुरु का जितना प्रचार होता है उस से दीक्षित होने के लिए लोग उतने ही उतावले होते हैं. इस के अलावा संपर्क भी एक माध्यम है. क्यों? जड़बुद्धि जनता के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं होता क्योंकि इतना सोचने के लिए उस के पास दिमाग ही नहीं होता. उसे तो बस यह पता हो कि उक्त गुरुजी बहुत पहुंचे हुए महात्मा हैं.

इन गुरुओं से संबंधित अनेक मनगढं़त कहानियां होती हैं जो नए ग्राहक (शिष्य) को फंसाने के लिए सुनाई जाती हैं. एक दीक्षा प्राप्त महिला ने अपने गुरु के बारे में बताया कि एक बार मेरा बेटा मोटरसाइकिल से आ रहा था. उसे अचानक चक्कर आया और वह गिर पड़ा. गिरते ही बेहोश होने की जगह उस ने गुरुमंत्र जपा. तभी गुरु समान सड़क पर पता नहीं कहां से एक रिकशा वाला आ गया, जो मेरे बेटे को उठा कर पास के अस्पताल में ले गया. आमतौर पर उस अस्पताल में औक्सीजन सिलिंडर नहीं होता पर उस रोज था और इस तरह बेटे की जान बच गई. रिकशे वाले की सदाशयता और अस्पताल की सारी मुस्तैदी का के्रडिट गुरुजी ले उड़े.

दूसरी कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है : एक शिष्य साइकिल से जा रहा था. अचानक ट्रक ने पीछे से साइकिल में टक्कर मारी तो साइकिल सवार सड़क पर और साइकिल छिटक कर दूर जा पड़ी. सड़क पर गिरते ही उस का एक हाथ ट्रक के अगले पहिए के नीचे आ गया. तभी उस ने गुरुमंत्र जपा. मंत्र जपने के साथ ही उस में पता नहीं कहां से इतनी शक्ति आ गई कि उस ने सिर झटके से हटा लिया. इस तरह उस का सिर पिछले पहिए से कुचलने से बच गया.

समझने वाली बात है कि उस का ध्यान मंत्रजाप पर था या सिर बचाने पर. साफ पता लग रहा है कि सारी घटना में जानबूझ कर मंत्र का तड़का लगाया गया है.

गुरुमंत्र कानों में इस तरह फुसफुसाए जाते हैं ताकि कोई सुन न ले. ठीक पाकिस्तान के आणविक कार्यक्रम की तरह कहीं आतंकवादियों के हाथ न पड़ जाए, वरना महाविनाश निश्चित है. गुरुमंत्र से दीक्षित हो कर वह आदमी उस फार्मूले (मंत्र) को अपने तक ही सीमित रखता है.

दीक्षा मुफ्त में नहीं मिलती. इस के लिए बाकायदा चढ़ावा निश्चित है. ‘माया महा ठगिति हम जानी’, तिस पर गुरु व उन के खासमखास चेले बिना रुपया हाथ में लिए दीक्षा नहीं देते. यहां तक कि मर चुके गुरु के फोटो तक के पैसे शिष्यों से वसूल लिए जाते हैं. एकाधिकार बना रहे तभी कानों में मंत्र फूंकने का काम वह अपने तक ही सीमित रखता है. हां, मरने के बाद गुरु की दुकानदारी चलती रहे, सो अपने किसी प्रिय शिष्य को वह यह कार्य सौंप कर जाता है.

दीक्षा में कुछ नहीं है. कानों में गुरु अपना उपनाम बताता है, जिसे दीक्षित आदमी से हर वक्त जपने को कहा जाता है. यह एक तरह से व्यक्ति पूजा है ताकि कथित भगवानों से ऊपर लोग उसे जानें. तथाकथित गुरु का यह आत्ममोह से ज्यादा कुछ नहीं.

गुरु कितने आध्यात्मिक व ताकतवर हैं, यह सब को मालूम है. सुधांशु महाराज, जयगुरुदेव, कृपालु महाराज, आसाराम बापू, प्रभातरंजन सरकार (आनंदमार्गी) इन सब के क्रियाकलापों से सारा देश परिचित है. इन्होंने समाज को कौन सी सीख दी? क्या मंत्र दिया? उन का गुरुशिष्य के खेल में कितना कल्याण हुआ? यह बताने की जरूरत नहीं. हां, इतना जरूरी है कि दीक्षा के नाम पर करोड़ों रुपए कमा चुके ये महात्मा खुद आलीशान जीवन जी रहे हैं और दीक्षा लेने वाला शिष्य भूखे पेट इन के नाम का जाप कर इन्हें धन्य कर रहा है.

अपनी गिरफ्तारी पर आसाराम बापू ढिठाई से कहते हैं, ‘‘नरेंद्र मोदी की सत्ता बच न सकेगी.’’ मानो वे कोई अंतर्यामी व सर्वशक्तिमान हैं. उन के गिरफ्तार होते ही प्रलय आ जाएगी. दुनिया तहसनहस हो जाएगी. अपनी दुकानदारी चलाने की नीयत से इन गुरुओं द्वारा, यदि दिवंगत हुए तो शिष्यों द्वारा साल में 1 या 2 बार विभिन्न धार्मिक शहरों में भंडारे का आयोजन होता है. जहां इन के शिष्य जुटते, खातेपीते, सत्संग (चुगलखोरी) करते हैं. कहने को सभी शिष्य आश्रम में गुरुभाई हैं पर जैसे ही भंडारा खत्म होता है फिर से वे जातिपांति, भाषा में बंटे अपने घरों को लौट जाते हैं. सिवा पिकनिक के इन भंडारों से कोई लाभ नहीं होता. भंडारे के लिए धन कहां से आता है? इस के लिए हर शिष्य चंदा देता है. कुछ पैसे वाले व्यापारी तो गुरु महाराज की इच्छा के नाम पर भंडारे का सारा खर्च अपने ऊपर ले लेते हैं. दरअसल, जमाखोरी कर के वे जो पाप की कमाई करते हैं उसे थोड़ा खर्च कर के अपने पाप को धोने की कोशिश करते हैं.

दीक्षित होने के बाद बताया जाता है कि गुरु की तसवीर के सामने बिना होंठ व जबान हिलाए मंत्र (गुरु नाम) का स्मरण करना चाहिए. यह प्रक्रिया दिनरात कभी भी की जा सकती है. सुबह अनिवार्य है. ऐसा कर के शिष्य के ऊपर कभी भी संकट नहीं आ सकता. तो क्या गुरुजी उस आदमी के लिए ‘बुलेटप्रूफ जैकेट’ का काम करते हैं? अगर गुरुजी पर संकट आए तब जैसा आसाराम बापू के साथ हुआ? तब मीडिया को कोसने का मंत्र गला फाड़फाड़ कर बोलने का नियम शायद लागू होता है.

कुल मिला कर दीक्षा वक्त व धन की बरबादी है. जो धर्मभीरु हैं, बेकार हैं व भाग्य के भरोसे रहने वाले हैं वे ही इन गुरुओं के चक्कर में पड़ते हैं. जो गुरु खुद दिग्भ्रमित हो वह क्या लोगों को रास्ता दिखाएगा. दोष कबीर का ही है, न वे कहते, ‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय. बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय.’ न आम लोगों में यह धारणा बनती कि गुरु ही भगवान के पास जाने का रास्ता जानते हैं.    द्य

पावर वीडर खरपतवार हटाए पैदावार बढ़ाए

लेखकभानु प्रकाश राणा

हमारे देश के अनेक इलाकों के किसान गन्ना, कपास, सब्जी या फूलों वगैरह की खेती लगातार करते आ रहे?हैं. इन सभी फसलों को ज्यादातर लाइन में बोया जाता है. दूसरी फसलों की तुलना में इन फसलों को बोने वाली लाइनों के बीच की दूरी भी अधिक होती है. इस वजह से लाइनों के बीच वाली जगहों में अनेक खरपतवार आ जाते?हैं.

ये ऐसे खरपतवार होते?हैं जो बिना बोए ही उपज आते हैं. उर्वरकों को हम अपनी फसल में इसलिए डालते हैं कि हमें अच्छी पैदावार मिल सके. इन उर्वरकों का फायदा ये खरपतवार भी उठाते हैं और तेजी के साथ

बढ़ते?हैं जिस का सीधा असर फसल की पैदावार पर पड़ता है यानी फसल पैदावार में गिरावट आ जाती है.

खरपतवारों की रोकथाम

सहफसली खेतीबारी : कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि खरपतवारों की रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाना एक तरीका है यानी खेत में फसल को बदलबदल कर बोना. इस से खरपतवारों को पनपने का मौका नहीं मिलता.

जैसे, हम अभी गन्ना की फसल ले रहे हैं तो अगली बार उस में गेहूं बोएं, गेहूं कटने के बाद खेत भी कुछ समय खाली रहते हैं. उस समय उस में हरी खाद के लिए ढैंचा वगैरह बोएं. उस के बाद धान लगाएं, फिर गन्ना की बोआई कर सकते हैं. इस तरह बदलबदल कर फसल बोने से खरपतवारों पर रोक लगती है.

करें सहफसली खेती

अगर आप गन्ने की खेती कर रहे?हैं तो उस के साथ सहफसली खेती करें. जब गन्ना?छोटा होता?है उस समय उस की लाइनों के बीच में खाली जगह में आलू, लहसुन, गोभी, भिंडी टमाटर वगैरह की खेती भी करें. इन सब्जियों के अलावा समय के मुताबिक गन्ने के साथ दलहनी फसल उड़द, मूंग, लोबिया वगैरह भी उगा सकते हैं. ऐसा करने से अधिक फायदा होगा. खरपतवारों की रोकथाम तो होगी ही, साथ ही सहफसली खेती में मुनाफा भी होगा.

कहने का सीधा सा मतलब यह है कि दोनों लाइनों के बीच में जो जगह बची है, वहां की मिट्टी की पैदावार कूवत का फायदा खरपतवार उठाते हैं. उसी जगह का इस्तेमाल कर अगर आप ने दूसरी फसल भी ले ली तो खरपतवारों को पनपने का मौका ही नहीं मिला.

खास परिस्थितियों में आप खरपतवारों को खत्म करने के लिए सही खरपतवारनाशक का इस्तेमाल कर सकते हैं. आजकल रासायनिक खरपतवार के अलावा अनेक जैविक खरपतवारनाशक भी आ रहे हैं, उन का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

यंत्रों से करें रोकथाम

इस तरह की फसलों में खरपतवार के सफाए के लिए पावर वीडर एक कारगर यंत्र है. इस खरपतवारनाशक यंत्र से कम समय में अनेक फसलों से खरपतवार निकाले जा सकते हैं. यह यंत्र सभी छोटेबड़े किसानों के लिए अच्छा यंत्र है. साथ ही, पहाड़ी इलाकों के लिए भी उपयोगी है. खरपतवार निकालने के इस तरह के यंत्र खासकर लाइनों में बोई गई फसल के लिए अच्छे रहते हैं.

हौंडा रोटरी टिलर : मौडल एफजे 500 आरडी रोटरी पावर वीडर की कुछ खासीयतें दी गई हैं. इस यंत्र में 5.5 हौर्सपावर का 4 स्ट्रोक एयर कूल्ड इंजन लगा?है और धूल से बचाव के लिए इंजन में एयर क्लिनर भी लगा है.

गियर बौक्स जमीन में ऊंचाई पर दिया गया है. इस वजह से यह मिट्टी में नहीं फंसता और बिना रुकावट के चलता?है. 2 गियर फौर्वर्ड (सामने की ओर) व 1 गियर रिवर्स (वापसी) के लिए दिया गया है जिस से अपनी सुविधानुसार आगे या पीछे किया जा सकता है.

यह यंत्र खरपतवार को जड़ से खोद कर निकालता है. यह यंत्र पैट्रोल से चलाया जाता है और इस की टीलिंग (खुदाई) चौड़ाई को

18 इंच से 24 इंच, 36 इंच तक कटाव बढ़ाया जा सकता?है और टीलिंग यानी खुदाई की गहराई को 3 से 5 इंच तक कम या ज्यादा किया जा सकता है.

इस यंत्र के बारे में अधिक जानकारी के लिए फोन नंबर 0120-2341050-59 पर आप बात कर सकते हैं. यहां से आप को अपने नजदीकी डीलर की जानकारी या फोन नंबर भी मिल सकता है. आप अपनी सुविधानुसार यहां से इस यंत्र के बारे में जानकारी ले सकते हैं.

ग्वार की खेती कहां उगाएं कौन सी किस्म

लेखक- भानु प्रकाश राणा

ग्वार के दानों से निकलने वाले गोंद के कारण इस की खेती ज्यादा फायदेमंद हो सकती है. हरियाणा के अनेक इलाकों में ग्वार की खेती ज्यादातर उस के दानों के लिए की जाती है. ग्वार की खेती उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान जैसे अनेक इलाकों में की जाती है. इस की खेती को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती. यह बारानी इलाकों के लिए खरीफ की खास फसल है इसलिए इस की खेती उन्नत तरीके से करनी चाहिए और अच्छी किस्म के बीजों को ही बोना चाहिए.

ग्वार में गोंद होने की वजह से इस का बारानी फसल का औद्योगिक महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है. भारत से करोड़ों रुपए का गोंद विदेशों में बेचा जाता है. ग्वार की अनेक उन्नत किस्मों में 30 से 35 फीसदी तक गोंद की मात्रा होती है.

ग्वार की अच्छी पैदावार के लिए रेतीली दोमट मिट्टी मुफीद रहती है. हालांकि हलकी जमीन में भी इसे पैदा किया जा सकता?है. परंतु कल्लर (ऊसर) जमीन इस के लिए ठीक नहीं है.

जमीन की तैयारी : सब से पहले 2-3 जुताई कर के खेत की जमीन एकसार करें और खरपतवारों का भी खत्मा कर दें.

बोआई का समय?: जल्दी तैयार होने वाली फसल के लिए जून के दूसरे हफ्ते में बोआई करें. इस के लिए एचजी 365, एचजी 563, एचजी 2-20, एचजी 870 और एचजी 884 किस्मों को बोएं.

देर से तैयार होने वाली फसल एचजी

75, एफएस 277 की मध्य जुलाई में बोआई करें. अगेती किस्मों के लिए बीज की मात्रा

5-6 किलोग्राम प्रति एकड़ और मध्य अवधि के लिए बीज 7-8 किलोग्राम प्रति एकड़ की जरूरत होती है. बीज की किस्म और समय के मुताबिक ही बीज बोएं.

खरपतवारों की रोकथाम : बीज बोने के 20-25 दिन बाद खेत की निराईगुड़ाई करें. अगर बाद में भी जरूरत महसूस हो तो 15-20 दिन बाद दोबारा एक बार फिर खरपतवार निकाल दें.

गुड़ाई करने के लिए हाथ से चलने वाले कृषि यंत्र हैंडह्वील (हो) से कर देनी चाहिए. ‘पूसा’ पहिए वाला हो वीडर कम कीमत वाला साधारण यंत्र है. इस यंत्र से खड़े हो कर निराईगुड़ाई की जाती?है. इस का वजन तकरीबन 8 किलोग्राम है. इस यंत्र को आसानी से फोल्ड किया जा सकता है. यह यंत्र कहीं?भी लाया व ले जाया जा सकता है.

इस यंत्र को खड़े हो कर, आगेपीछे धकेल कर चलाया जाता?है. निराईगुड़ाई के लिए लगे ब्लेड को गहराई के अनुसार ऊपरनीचे किया जा सकता?है. पकड़ने में हैंडल को भी अपने हिसाब से एडजस्ट कर सकते हैं. यह कम खर्चीला यंत्र है. आजकल यह यंत्र गांवदेहातों में आसानी से मिलता?है. अनेक कृषि यंत्र निर्माता इसे बना रहे हैं.

खेत में पानी : आमतौर पर इस दौरान मानसून का समय होता?है और पानी की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन अगर बारिश न हो और खेत सूख रहे हों तो फलियां बनते समय हलकी सिंचाई जरूर करें.

फसल की कटाई?: जब फसल की पत्तियां पीली पड़ कर झड़ने लगें और फलियों का रंग भी भूरा होने लगे तो फसल की कटाई करें और कटी फसल को धूप में सूखने के लिए छोड़ दें. जब कटी फसल सूख जाए तो इस की गहाई करें और दानों को सुखा कर रखें.

अगर फसल में कीट व रोग का हमला दिखाई दे तो कीटनाशक छिड़कें और कुछ दिनों तक पशुओं को खिलाने से परहेज करें.

उन्नत किस्में

हरियाणा के लिए

एफएस 277 : यह किस्म सीधी व लंबी बढ़ने वाली है. साथ ही, देर से पकने वाली किस्म है. यह मिश्रित खेती के लिए अच्छी मानी गई है. इस के बीज की पैदावार 5.5-6.0 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 75 : अनेक शाखाओं वाली यह किस्म रोग के प्रति सहनशील है और देर से पकने वाली है. इस के बीज की पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 365 : यह कम शाखाओं वाली जल्दी पकने वाली किस्म है. यह किस्म तकरीबन 85-100 दिनों में पक जाती?है और औसतन पैदावार 6.5-7.5 क्विंटल प्रति एकड़ है. इस किस्म के बोने के बाद आगामी रबी फसल आसानी से ली जा सकती है.

एचजी 563 : यह किस्म भी पकने में 85-100 दिन लेती?है. इस के पौधों पर फलियां पहली गांठ व दूसरी गांठ से ही शुरू हो जाती हैं. इस का दाना चमकदार और मोटा होता है. इस किस्म की पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 2-20 : ग्वार की यह किस्म पूरे भारत में साल 2010 में अनुमोदित की गई?थी. 90 से 100 दिनों में पकने वाली इस किस्म की फलियां दूसरी गांठ से शुरू हो जाती हैं और इस की फली में दानों की तादाद आमतौर पर दूसरी किस्मों से?ज्यादा होती व दाना मोटा होता है. इस किस्म की औसत पैदावार 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ है.

एचजी 870 : इस किस्म को भी साल 2010 में हरियाणा के लिए अनुमोदित किया गया?था. पकने का समय 85-100 दिन. दाने की पैदावार 7.5-8 क्विंटल प्रति एकड़ है. गोंद की औसत मात्रा 31.34 फीसदी तक होती है.

एचजी 884 : ग्वार की इस किस्म को पूरे भारत के लिए साल 2010 में अनुमोदित किया गया था. यह किस्म 95-110 दिन में पकती है. मोटे दाने, दाने की पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ व गोंद की औसत मात्रा 29.91 फीसदी तक है.

राजस्थान के लिए

आरजीसी 936 : यह किस्म जल्दी पकने वाली है. दाने मध्यम आकार के और हलके गुलाबी रंग के होते?हैं. 80-110 दिन में पकने वाली यह किस्म अंगमारी रोधक है. इस में झुलसा रोग को सहने की कूवत भी होती?है. इस के पौधे शाखाओं वाले झाड़ीनुमा, पत्ते खुरदरे होते?हैं. सफेद फूल इस किस्म की शुद्धता बनाए रखने में सहायक है. सूखा प्रभावित इलाकों में जायद और खरीफ में यह किस्म बोने के लिए सही है. यह किस्म 8 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

आरजीएम 112 (सूर्या) : इस किस्म को जायद और खरीफ दोनों में बोया जा सकता?

है. यह किस्म 85 से 100 दिन में

पक कर तैयार हो जाती?है. इस के पौधे शाखाओं वाले झाड़ीनुमा, पत्ते खुरदरे और एकसाथ पकने वाली यह किस्म

10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती?है. इस किस्म के फूलों का रंग नीला, फली मध्यम लंबी भूरे रंग की और दानों का रंग सलेटी है और इस में बैक्टीरियल ब्लाइट सहन करने की कूवत होती है.

आरजीसी 1002 : शुष्क और कम बारिश वाले इलाकों के लिए यह खास किस्म है. इस के पौधे 60 से 90 सैंटीमीटर ऊंचे व अत्यधिक शाखाओं वाले होते?हैं. इस की पत्तियां खुरदरी होती हैं और पत्ती के किनारों पर स्पष्ट कटाव होते?हैं. फली की लंबाई 4.5 से 5.0 सैंटीमीटर (मध्यम) होती?है. यह शीघ्र पकने वाली किस्म है यानी 80-90 दिन में पक जाती है. पैदावार तकरीबन 10 से 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है.

आरजीसी 1003 : इस किस्म के पौधे अधिक शाखाओं वाले होते?हैं. पत्तियां खुरदरी व किनारी बिना दांतेदार होती हैं. यह फसल 85 से 90 दिनों में पक जाती है. पैदावार 8 से

14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. बीज में गोंद की मात्रा 29 से 32 फीसदी होती?है. यह किस्म देश के शुष्क और अर्द्धशुष्क इलाकों के लिए सही है.

आरजीसी 1017 : इस किस्म के पौधों की पत्तियां खुरदरी और दांतेदार होती हैं. इस की फसल 90 से 100 दिनों में पक जाती है. इस के दाने औसत मोटाई वाले, जिस के 100 दानों का वजन 2.80 से 3.20 ग्राम के मध्य होता है. इस की पैदावार 10 से 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरजीसी 1031 (क्रांति) : इस किस्म के पौधे 75 से 108 सैंटीमीटर ऊंचाई वाले और अत्यधिक शाखाओं वाले होते हैं. पौधों पर पत्तियां गहरी हरी, खुरदरी और कम कटाव वाली होती हैं. दानों का रंग सलेटी और आकार मध्यम मोटाई का होता है. इस किस्म

के पकने की अवधि 110 से 114 दिन है

और पैदावार कूवत 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरजीसी 1038 (करण) : इस किस्म के पकने की अवधि 100 से 105 दिन है. पौधे की पत्तियां खुरदरी और कटाव वाली होती?हैं. इस किस्म की पैदावार कूवत 10 से

21 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है. दानों का रंग सलेटी और आकार मध्यम मोटाई का होता?है. फलियां मध्यम लंबी और इन में दानों का उभार साफ दिखाई देता?है. यह किस्म अनेक रोगों की प्रतिरोधक है.

आरजीसी 1033 : इस किस्म के पौधों की?ऊंचाई तकरीबन 40 से 115 सैंटीमीटर होती?है और पौधों पर पत्तियां गहरी हरी, खुरदरी और कम कटाव वाली होती हैं. फूल हलके गुलाबी रंग के और दानों का रंग सलेटी और आकार मध्यम मोटाई का होता है. इस किस्म की अवधि 95 से 106 दिन है और पैदावार कूवत 15 से

25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरजीसी 1066 : इस किस्म के पत्ते कटावदार होते हैं. यह किस्म जल्दी पकने वाली है यानी 90 से 100 दिन में पकती है. यह किस्म शाखारहित और गुलाबी रंग के फूलोें वाली होती?है. इस किस्म की पैदावार

तकरीबन 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर?है.

आरजीसी 1055 (उदय) : यह किस्म खरीफ व जायद दोनों के लिए सही?है. पत्तों के किनारे खुरदरे और पौधे शाखा वाले होते हैं. इस के पकने की अवधि 95 से 105 दिन है. औसतन पैदावार 11 से 13 क्विंटल है. सिंचित और बारिश वाले इलाकों के लिए यह किस्म सही है.

पंजाब के लिए

एजी 111 : शाखाओं वाली यह जल्दी पकने वाली उन्नत किस्म?है. इस किस्म के पकने की अवधि 90 से 95 दिन है. औसतन पैदावार 12 से 15 क्विंटल है. सिंचित और बारिश पर आधारित इलाकों के लिए यह किस्म सही है.

ग्वार 80 : यह देरी से पकने वाली और शाखाओं वाली किस्म है. इस के पकने की अवधि 115 से 120 दिन है. औसतन पैदावार

18 से 20 क्विंटल है. सिंचित और बारिश आधारित इलाकों के लिए यह किस्म सही है.

दिल्ली के लिए

नवीन : यह किस्म जल्दी पकने वाली है. इस के पौधे शाखाओं वाले होते हैं. इस की पकने की अवधि 90 से 95 दिन है. औसतन पैदावार 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती?है. सिंचित और बारिश आधारित इलाकों के लिए सही है.

सुविधा : यह भी जल्दी पकने वाली किस्म है. इस के पौधे शाखाओं वाले होते?हैं. इस के पकने की अवधि 90 से 95 दिन है. औसतन पैदावार 15 से 18 क्विंटल. सिंचित और बारिश आधारित इलाकों के लिए सही?है.

सोना?: यह देरी से पकने वाली किस्म है. इस के पकने की अवधि 115 से 120 दिन है. औसतन पैदावार 16 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. सिंचित और बारिश आधारित क्षेत्रों के लिए सही?है. यह अनेक शाखाओं वाली किस्म?है.

पीएलजी 85 : यह देरी से पकने वाली उन्नत किस्म है. इस के पकने की अवधि 100 से 110 दिन है. औसतन पैदावार 15 से 18 क्विंटल, सिंचित व बारिश आधारित इलाकों के लिए सही?है.

उत्तर प्रदेश के लिए

बुंदेल 1 : यह देरी से पकने वाली किस्म है. इस के पकने की अवधि 115 से 120 दिन?है. औसतन पैदावार 14 से 16 क्विंटल तक है. सिंचित और बारिश आधारित इलाकों के लिए सही है.

बुंदेल 2 : यह भी देरी से पकने वाली किस्म?है. इस के पकने की अवधि 115 से 120 दिन?है. औसतन पैदावार 14 से 16 क्विंटल तक है. सिंचित और बारिश आधारित इलाकों के लिए सही है.

गुजरात के लिए

जीजी 1 : यह अनेक शाखाओं वाली किस्म है. इस के पकने की अवधि 105 से 110 दिन है. औसतन पैदावार 8 से 11 क्विंटल है. बारिश पर आधारित इलाकों के लिए सही और फैलने वाली जीवाणु झुलसा रोग प्रतिरोधक है.

जीजी 2 : बारिश आधारित इलाकों के लिए यह ग्वार की उन्नत किस्म है. इस के पकने की अवधि 100 से 110 दिन है. औसतन पैदावार 11 से 13 क्विंटल है. यह फैलने वाली जीवाणु झुलसा रोग प्रतिरोधक है.

सब्जी के रूप में ग्वार : गंवई इलाकों में ग्वार की फलियों के साथसाथ फूलों की सब्जी बना कर खाने में इस्तेमाल किया जाता है. अब तो शहरों में भी तमाम लोग ग्वार की फलियों को सब्जी के रूप में पसंद करते हैं.

ग्वार की फली का बाजार भाव भी अच्छा मिलता है. इसलिए किसानों को चाहिए कि वह ग्वार की खेती करते समय जागरूक रहें और अपने इलाके के मुताबिक उन्नत किस्मों के बीजों का इस्तेमाल करें, जिस से बेहतर पैदावार मिल सके.

लता मंगेशकर के गाने ने दी इस महिला को नई पहचान, हुआ मेकओवर

“एक प्यार का नगमा है” 70 के दशक का ये गाना उन दिनों सभी के पसंदिदा गानों में से एक था. इस खूबसूरत गाने को मशहूर सिंगर लता मंगेश्कर ने अपनी आवाज से और सुरमई बनाया था. आज 2019 में इस गाने से एक महिला करोड़ो लोगों का दिल जीत चुकी हैं. इस महिला ने ये गाना इमोशन्स के साथ गाया है जो कि लोगों को लता जी की याद दिला रहा था. हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एक महिला “एक प्यार का नगमा है” गाना गा रही थी और उनकी आवाज में बिल्कुल वहीं सुर ताल थे, जो कि लता मंगेसकर में देखा जाता था. लोग उन्हें लता मंगेश्कर से भी कम्पेयर कर रहे थे.

एक खाने  ने दिलाई पहचान

सोशल मीडिया ने इस महिला को काफी फेमस कर दिया है. कुछ दिन पहले ही जो महिला सड़क किनारे ये गाना गाती दिखीं, आज उसकी काया पलट हो गई है. फोटो में जो खूबसूरत महिला है वो और कोई नहीं बल्कि  जिसे कुछ दिन पहले ये गाना गाते देखा गया वही है. सोशल मीडिया पर वीडियों आते ही इस महिला को बौलीवुड सेलेब्स का भी खूब रिस्पोन्स मिला था. सेलेब्स ने भी गाने के लिए महिला की खूब तारिफ की. बौलीवुड एक्ट्रेस करीना कपूर खान ने तो अपने इंस्टाग्राम पर इस महिला की वीडियो शेयर कर उनकी तारीफ की थी.

 मेकओवर के बाद viral lady

जब लोग दूसरों के हुनर को सरहाते है तो लोगों को कहानी मिलती है, जिससे वो अपनी जिंदगी में भी कुछ सीख पाते है. इस महिला को मिली पहचान इस बात का सबूत की आपका हुनर ही आपकी पहचान बन सकती है. पश्चिम बंगाल के रानाघाट रेलवे स्टेशन पर रिकार्ड किए गए इस वीडियो में रानू मंडल नाम की इस महिला का अब मेक औवर हो चुका है. उन्हें मुंबई के एक रिएलिटी शो में गाने का औफर मिला है. इस रिएलिटी शो में मुंबई जाने के लिए एक इवेंट कंपनी उनका खर्च उठा रही है. अगर सबकुछ ठीक रहा तो रानू मंडल की किस्मत के तारे बुलंदी पर होंगे. इस महिला के वीडियो ने उन्हें रातों-रात इंटरनेट सेंसेशन बना दिया.

उन्नाव कांड: आखिरकार इलाज के लिए दिल्ली पहुंची रेप पीड़िता

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लखनऊ के केजीएमयू ट्रौमा सेंटर में उन्नाव रेप पीड़िता और उसके वकील को बेहरत इलाज के लिए दिल्ली के एम्स ट्रांमा सेंटर शिफ्त किया गया है. रेप पीड़िता को सोमवार देर रात जबकि उसके वकील को मंगलवार को एम्स के ट्रांमा सेंटर में भर्ती कराया गया. एम्स के डाक्टरों की एक टीम दोनों घायलों की पूरी मेडिकल जांच में जुटी है. उनके इलाज पर नजर रखेगी. फिलहाल दोनों घायलों की हालत गंभीर बनी हुई है. डाक्टर की टीम उसपर 24 घंटे अपनी नजर रखेंगे.

28 जुलाई को उन्नाव रेप पीड़िता के वकील को ट्रौमा सेंटर में भर्ती कराया गया था. वेंटिलेटर यूनिट में वकील का इलाज चल रहा था. केजीएमयू प्रवक्ता ने बताया कि मरीज वेंटिलेटर पर था. इसलिए शिफ्ट करने में खास सावधानी बरती गई. उन्होंने बताया कि एयर एम्बुलेंस में सिर्फ एक मरीज को ले जाने का स्थान था. लिहाजा वकील को आज दिल्ली के अस्पताल में शिफ्ट किया जा रहा है.

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सोमवार को रेप पीड़िता की मां की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने रेप पीड़िता को दिल्ली एम्स लाने को कहा था. इसके बाद वकील को भी दिल्ली एम्स लाने का आदेश दिया. रेप पीड़िता सोमवार देर रात 9 बजे एयर एम्बुलेंस से दिल्ली पहुचीं वहां से सिर्फ 18 मिनट में एक एम्बुलेंस उसे एम्स ट्रांमा सेंटर पहुंचाया गया. इसके बाद मंगलवार सुबह रेप पीड़िता के वकील को एयर एम्बुलेंस से दिल्ली एम्स में शिफ्ट किया गया. मंगलवार सुबह करीब 10.30 बजे ट्रॉमा से एम्बुलेंस लेकर लखनऊ एयरपोर्ट की ओर निकली. जहां से एयर एम्बुलेंस के जरिए उन्हें दिल्ली लाया गया.

बता दें कि उन्नाव रेप पीड़िता अपने वकील और दो आंटियों के साथ बीते 28 जुलाई को कार से रायबरेली में कही जा रही थी. उसी वक्त उनकी कार का एक ट्रक से एक्सीडेंट हो गया. इस हादसे में रेप पीड़िता और उसका वकील गंभीर रूप से घायल हो गए जबकि उनकी दोनों आंटियों की मौत हो गई. घायल रेप पीड़िता और उसके वकील को लखनऊ के केजीएमयू अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

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उन्नाव की उलझन

चूंकि अपराधी भारतीय जनता पार्टी का नेता है, उसे हर तरह की मनमानी करने का पैदाइशी हक है और उस के रास्ते में जो आएगा उस की मौत भी होगी तो बड़ी बात नहीं. इस लड़की के पिता को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया गया कि उस ने अपनी बेटी को शिकायत करने से क्यों नहीं रोका. वहां उसे मार डाला गया.

उस लड़की ने खुद को जलाने की कोशिश की तो उस पर तोहमत लगा दी गई. लड़की के चाचा को गिरफ्तार कर लिया गया और अदालत से सजा दिला दी गई. अब जब लड़की, उस की चाची और चाची की बहन जेल में बंद चाचा वकील के साथ लौट कर गाड़ी से आ रहे थे तो एक बड़े ट्रक ने उसे टक्कर मार कर चकनाचूर कर दिया जिस में चाची और चाची की बहन मारी गईं. लड़की बच गई जो न अस्पताल में सुरक्षित है, न घर में रहेगी. मां को हर हाल में समझौता करना पड़ेगा. वह कब तक सरकार से लड़ेगी?

यह कहानी आज की नहीं सदियों की है. देश में बलात्कार की शिकार ही जिम्मेदार है, बलात्कारी नहीं. बलात्कारी का तो हक है खासतौर पर अगर वह शिकार से ऊंची जाति का हो. पहले लड़कियों के पास कुएं या नदी में कूदने या फांसी लगाने के अलावा कोई और रास्ता न था, आज पुलिस में शिकायत का हक है पर तभी अगर दूसरी तरफ का कुछ कमजोर हो, पैसे और रसूख वाला न हो. जिस पर बलात्कार का आरोप है और जो जेल में बंद है, उसे शुक्रिया कहने 4 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज जेल में पहुंचे थे और उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे यहां के यशस्वी और लोकप्रिय विधायक कुलदीप सेंगर जो काफी दिनों से यहां हैं. चुनाव के बाद उन्हें धन्यवाद देना उचित समझा तो मिलने आ गया.’’

यह लड़की भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर के घर नौकरी मांगने के लिए 2017 में गई थी. उस का कहना है कि उस के साथ गलत काम किया गया था. शिकायत करने के बाद उस के घर वालों को धमकियां मिल रही थीं और अब अमलीजामा पहना दिया गया है.

इस मामले में बहुतकुछ नहीं होगा. सबकुछ रफादफा हो जाएगा, क्योंकि गलत तो लड़की ही थी, क्योंकि ऐसे मामले में गलती लड़की की ही होती है. ‘रामायण’ तक में अहल्या और सीता गलत थीं. सजाएं उन्हें ही मिली थीं. ऐसे समय जब पौराणिक युग को वापस लाया जा रहा हो, जब पिछले जन्मों के कर्मों के फल का पाठ पढ़ाने वाली किताबों को ही अकेला ज्ञान माना जा रहा हो, यह तो होना ही था.

यह संदेश है बलात्कार की शिकार हर लड़की को कि बलात्कार के बाद घर जाए, नहाए, क्रोसिन की 4 गोलियां ले कर सो जाए और हादसे को भूल कर अगली बार इसे दोहराने को तैयार रहे. यह तो होगा ही अगर वह जरा भी जवान है. बच्चियों और प्रौढ़ों को भी नहीं छोड़ा जाता और उन के लिए भी संदेश है कि हम 2019 में नहीं 919 में रह रहे हैं, जब इस देश में पूरी तरह धर्म राज था. सुनहरे दिन लौट रहे हैं.

सोशल मीडिया की दहशत

पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों पर बढ़ते मारपीट के मामलों के पीछे ह्वाट्सएप, ट्विटर और फेसबुक बहुत हद तक जिम्मेदार हैं, क्योंकि ये अफवाहों, अश्लीलता, गंदीभद्दी गालियों, जातिसूचक बकवास को दूरदूर तक ले जाते हैं. पहले जो बात गांव की चौपाल के पास के पेड़ के नीचे तक, शहर में महल्ले की चाय की दुकान या कालेज की कैंटीन तक रहती थी अब मीलों, सैकड़ों मीलों, चली जाती है.

यह मानना पड़ेगा कि ऊंची जातियों के पढ़ेलिखों में ऐसे बहुत से सोशल मीडिया लड़ाकू हैं जो तुर्कीबतुर्की जवाब देने में माहिर हैं. वे सैकड़ों में सही साफ बात कहने वाले की खाल उतार देते हैं. उन के पास सच नहीं होता तो वे झूठ पर उतर आते हैं, उन के पास जवाब नहीं होता तो गाली पर उतर आते हैं. वे बारबार पाकिस्तान भेजने की धमकी दे सकते हैं.

इन सोशल मीडिया बहादुरों ने चाहे कभी मजदूरी न की हो, कोई सामान न ढोया हो, किसी सीमा पर पहरेदारी न की हो, कुछ देश के लिए बनाया न हो, पर ये देशभक्त ऐसे बने रहते हैं मानो भारत इन की वजह से एक है और सैनिक, व्यापारी, किसान, मजदूर, बेरोजगार से ये ज्यादा देश के लिए मर रहे हैं.

इन के पास पढ़ेलिखों का मुंह बंद करने की ताकत आ गई है क्योंकि ये शोर मचा कर सही बात को कुचल सकते हैं. इन के पास समय ही समय है इसलिए ये हर तरह की टेढ़ीमेढ़ी बात गढ़ सकते हैं. ये दलितों के अत्याचारों की कहानियां बना सकते हैं. ये मुसलमानों द्वारा की गई हत्याओं की झूठी कहानियों को ऐसे फैला सकते हैं मानो ये वहीं खड़े थे. दलितों की पिटाई पर ये शिकायत करने वाले की खाल खींच सकते हैं.

ये आदतें इन्हें पीढि़यों से मिली हुई हैं. पीढि़यों से उलटीसुलटी कहानियां कहकह कर ही देशभर में झूठ के मंदिर फैले हुए हैं और वहां से इन लोगों को अच्छी आमदनी होती है. वास्तु, भविष्य, टोनेटोटके, कुंडली, हवनपूजन के नाम पर इन की आमदनी पक्की है. चूंकि पढ़ाई में अच्छे होते हैं, किताबें इन के हिसाब से बनती हैं, इन्हीं के साथी परीक्षा लेते हैं, नौकरियां इन को ही मिलती हैं. जो आरक्षण पा कर कुछ ले रहे हैं वे डरेसहमे रहते हैं, चुप रहते हैं, उन के मुंह से बस ‘जी हुजूर’, ‘जय भीम’, ‘जय अंबेडकर’ निकलता है.

वैसे भी पिछड़ों और दलितों के तो मन में गहरे बैठा है कि वे तो पिछले जन्मों के पापों का फल भोग ही रहे हैं, अगर उन्होंने इन लोगों को जवाब दिया तो उन का हाल शंबूक और एकलव्य जैसा होगा, उन्हें मरने के लिए घटोत्कच की तरह आगे कर दिया जाएगा. वे तो आज भी गंदे सीवर में डूब कर उसे साफ करने भर लायक हैं. वे ट्विटर, फेसबुक, ह्वाट्सएप की तो छोडि़ए एक पोस्टर भी नहीं पढ़ने की हिम्मत रखते. वे क्या मुंहतोड़ जवाब देंगे. और जवाब नहीं दोगे तो बोलने वाले की हिम्मत बढ़ेगी ही, वह मुंह भी चलाएगा और हाथपैर भी चलाएगा ही.

हकीकत: सरकारी नौकरी में मोटी कमाई

लेखक-शशि पुरवार

एक समय था जब लोगों का मोटी तनख्वाह के चलते प्राइवेट कंपनियों की तरफ रुझान था, पर आज पैंशन व सरकारी सुविधा के चलते सरकारी नौकरी सब से बड़ी जरूरत बन गई है. लेकिन सरकारी नौकरी में सीमित कमाई के चलते कुछ लोगों ने घूसखोरी को अपनी जिंदगी का अंग बना लिया है या यह कहें कि लालच के दानव ने अपना विकराल रूप धर लिया है.

इस से देश में भ्रष्टाचार बढ़ गया है. बिना कुछ लिएदिए कोई काम नहीं होता है. हर छोटाबड़ा मुलाजिम मुंह खोल कर पैसे मांगने लगा है.

कमोबेश हर सरकारी दफ्तर का यही हाल है. सरकारी नौकरी में हर कोई मोटा कमा सकता है. सरकारी कामों में कानूनी दांवपेंच, धीमी रफ्तार व कानूनी पेचीदगी के चलते घूसखोरी बढ़ी है. कामों के पूरा होने की जल्दबाजी में भ्रष्टाचार का दानव हमें जबरन पालना पड़ता है.

हमारे एक जानकार लोक निर्माण विभाग में अफसर हैं. उन के पास सरकारी आवासों, दफ्तरों के निर्माण कार्य के लिए ठेकेदारों की लाइन लगी रहती है. वे जनाब 2 फीसदी घूस खा कर ही ठेका दिलाते हैं, फिर निर्माण कार्य में लगने वाला सामान हलका हुआ तो उसे भी पास करा देते हैं.

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हाल ही में सरकारी दफ्तरों व आवासों में मरम्मत का कार्य शुरू हुआ. 3 साल से खस्ताहाल रंगरोगन व दरवाजे की दुरुस्ती का काम अटका हुआ था. वे जनाब हर बार कहते कि टैंडर पास नहीं हुआ है, फिर भी उन के आवास में नियमित काम होते रहते हैं. वह सरकारी आवास कम निजी बंगला ज्यादा नजर आता है. उन की पत्नी कहती हैं कि जब तक नौकरी में हैं तब तक ऐश कर लें.

कोई भी सरकारी विभाग हो, वहां काम टैंडर द्वारा ही पास किए जाते हैं. लेकिन जहां कांट्रैक्टर किसी का सगासंबंधी हुआ या कमीशन बंधा हो तो झट से टैंडर पास हो जाते हैं.

हाल ही में सरकारी आवासों का जायजा लिया गया. छत टपक रही थी. थोड़ी मरम्मत की जरूरत थी. छोटी सी छत में 4 किलो सीमेंट व चूना लगवाने में सरकारी बिल की रकम थी 2-3 लाख रुपए. इस पर भी 2-3 लाख की रकम में दूसरे काम शुरू होने के इंतजार में टैंडर ही खत्म हो गया.

लंबे समय बाद फिर टैंडर पास हुआ. मरम्मत के लिए आया हुआ सामान हलकी लागत का था. दीवारों के रंग सूखने से पहले ही पपड़ाने लगे. आवास का टूटा हुआ दरवाजा हलके फाइबर के दरवाजे से बदला गया, जिसे कोई धीरे से भी धक्का मार दे तो वह टूट जाए. ऐसे में यह चोरों के लिए खुला न्योता था और आवासों में रहने वालों के लिए सिक्योरिटी का सवाल अलग.

इस बात की शिकायत दर्ज की गई, तो जवाब मिला कि लकड़ी का दरवाजा पानी से खराब हो जाता है इसीलिए फाइबर का दरवाजा लगाया जो सड़ेगा भी नहीं. आजकल बड़ेबड़े बंगलों में भी यही दरवाजे लगते हैं.

अफसर की पत्नी ने कहा कि सामान की क्वालिटी घटिया है. इस ने स्टैंडर्ड खराब कर दिया है. यह ए क्लास अफसर का आवास है, तो टैंडर पास करने वाले ने जवाब दिया, ‘‘अच्छी क्वालिटी का काम कराना है तो आप खुद पैसे दे कर काम करा लें.’’

जब ज्यादा जोर दिया गया तो जवाब मिला, ‘‘आप को 2-3 साल ही रहना है. आप क्यों नाराज हो रहे हैं? आप अपने घर में जैसा चाहे काम करवाना.’’

ठेकेदार से जब बात हुई तो वह बोला कि पैसा ही नहीं देते हैं. एक साल से उस का पैसा अटका पड़ा है. खराब काम करेंगे तभी अगला टैंडर जल्दी मिलेगा. मसलन, काम किया भी और नहीं भी किया. चोरचोर मौसेरे भाई ही होते हैं.

बात की ज्यादा कब्र खोदने पर पता चला कि जो लोग ज्यादा शोर मचा रहे थे उन का थोड़ा अच्छा काम करा दिया, बाकी लोगों को हमेशा की तरह लाल झंडी दिखा दी. ऐसे लोग 3 साल कैसे भी काट कर चले जाते हैं. सरकारी भ्रष्टतंत्र का शिकार खुद सरकारी मुलाजिम भी होते हैं.

एक बार दफ्तरों के लिए लैपटौप और प्रिंटर खरीदने का टैंडर पास हुआ. लाखों का होने वाला खर्च है, तो जायज है कि अच्छा सामान ही और्डर करना चाहिए. लेकिन आज की टैक्नोलौजी को छोड़ कर, नाम के लिए पुरानी बेकार होती टैक्नोलौजी को ही पास करा दिया गया. पास करने वाले लोग टैक्नोलौजी से अनजान थे, तो जायज है कि अच्छा काम कैसे होगा. अलगअलग टेबल पर ऐसे भी लोग थे जिन्होंने कह दिया कि हमें तो कभी इतनी सुविधा नहीं दी गई है. आजकल के बच्चों को हर सुविधा दे रहे हैं. जलेभुने मन से रिटायरमैंट पर बैठे अफसर बेमन से काम को धक्का लगा रहे थे.

2,000 पीस के और्डर दिए गए और कंपनी से मोलभाव कर के ऐसा सामान तय हुआ कि उस की ज्यादा से ज्यादा 5 साल तक ही लाइफ हो, फिर अगर सरकार बदलेगी तो माल भी बदलेगा यानी पैसे की खुलेआम बरबादी. ज्यादा कहो तो जवाब मिलेगा कि सरकारी माल है. बेचने वाले भी जानते हैं कि सरकारी टैंडर बड़े होते हैं, टिकाऊ सामान दिया तो जेब गरम नहीं होगी. सरकारी दफ्तर है तो क्या फिक्र है.

एक के बाद एक टेबल से गुजरते हुए फाइल अपनी मंजिल तक पहुंची. साथ ही उन लोगों की जेबें भी गरम होती चली गईं जो सीधे जनता से डीलिंग कर रहे थे.

ऐसे में उस अफसर की सोच पर गुस्सा आ रहा था जिस ने लमसम अमाउंट का बिल पास किया. ज्यादा जांच न हो ऐसा आदेश कमेटी को दिया गया. ऊपर की कुरसी पर बैठने वाले साहब कड़क थे. जब सभी बातों के प्रूफ मांगे गए तो झट से फाइल का तबादला करा दिया कि साहब तकलीफ दे रहे हैं.

उन्हें कुछ न बता कर डीलिंग करने वाले मातहत ने अपना कमीशन तय किया और सस्ता माल ले कर तगड़ा बिल पास करा लिया और उस की पांचों उंगलियां घी में थीं.

बारिश का मौसम आते ही हर शहर की सड़कों की खस्ताहाली से सब परिचित हैं. गड्डे एक तरफ जहां लोगों की नाक में दम करते हैं वहीं दूसरी तरफ हादसों की वजह बनते हैं.

कई सड़कें हर साल बरसात में अपनी बदहाली की दास्तान बयां करती हैं. पर आखिर ऐसा काम क्यों नहीं होता जो टिकाऊ हो? ऐसे काम कुछ दिनों में ही अपना बदरंग चेहरा दिखा देते हैं.

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कोर्ट में काम करने वाले वकील, चपरासी, बाबू का सीधा संबंध लोगों से होता है. कहीं कोई फाइल आगे बढ़ानी है या किसी को दबाना है, किस तरह पैसे खाने हैं, ये लोग शिकायत करने वाले से सांठगांठ कर लेते हैं.

एक केस आंखों देखा है. वकील ने एक आरोपी से कहा, ‘‘काम हो जाएगा, लेकिन पैसे लगेंगे.’’

पैसे ले कर वकील अंदर चला गया. आरोपी खुश था कि काम हो जाएगा, पर जज साहब इस बात से अनजान थे, लिहाजा आरोपी को सजा हुई और बाद में वकील मुकर गया.

अगर सरकार में कोई ईमानदार है तो उसे इस का खमियाजा भी भुगतना पड़ता है. एक दिन एक ईमानदार साहब ने अपने चपरासी को सर्दियों में बाहर हाथ सेंकते देख लिया. खूब डांट लगाई

तो स्टाफ का रंग ही बदल गया. बिना

स्टाफ के कोई भी अफसर काम नहीं कर सकता है. ऊपर बैठे आमखास को काम चाहिए, पर नीचे बैठा तबका उन के हाथ भी काटता है.

ईमानदार अफसर चतुर्थ श्रेणी के लोगों की पैतरेबाजी का शिकार हो कर मानसिक पीड़ा भोगते हैं. चतुर्थ श्रेणी व निचला तबका जानता है कि उसे अपने हकों का कैसे इस्तेमाल कैसे करना?है.

एक अफसर ने कड़क रुख अपनाया तो सभी अपनी यूनियन के साथ धरने पर बैठ गए. किसी ने उन का काम नहीं किया. गुंडाराज खुलेआम कायम है.

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आज के समय में इस सब के सही आकलन की जरूरत है. नियमों और योजनाओं का निजी फायदा उठाने वालों के प्रति कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए. इस में बेचारा ईमानदार इनसान मारा जाता है. क्या ऐसे लोगों की तरफ सरकार का या मीडिया का ध्यान जाएगा?

बाड़मेर हादसा: जानलेवा बना धर्म

लेखक- मदन कोथुनियां

राजस्थान के बाड़मेर जिले की बलोतरा तहसील के जसोल गांव में राम कथा सुन रहे 14 भक्तों की मौके पर ही मौत हो गई और दर्जनों लोग घायल हो गए. भगवान राम, खुद की कथा सुन रहे भक्तों को बचा नहीं सके. कथावाचक, आम जनता, जिन को भगवान राम का नजदीकी मानती है, को भी पंडाल छोड़ कर भागना पड़ा.

इस का सीधा सा मतलब यही है

कि कथा वगैरह से कोई फायदा नहीं

है, महज समय की बरबादी है. अगर भगवान राम के पास शक्ति होती तो अपनी ही कथा सुन रहे भक्तों को मौत के मुंह में जाने से रोक सकते थे, लेकिन नहीं रोका.

अब कुछ पाखंडी लोग ये कह कर अपने मन को और भगवान के भरोसे न रहने वाले लोगों को संतुष्ट करते नजर आएंगे कि ‘भगवान राम की कृपा थी इसीलिए इतने ही लोग (भक्त) मरे हैं, नहीं तो क्या पता कितने मरते. उन को तो बिना किसी कष्ट के भगवान ने अपने पास बुला लिया. और जो मरे हैं, उन में ज्यादातर लोग (भक्त) बूढ़े थे वगैरह.

गौरतलब है कि दुनिया में जितनी हत्याएं धर्म के नाम पर हुई हैं, उतनी मौतें युद्ध या दूसरे कुदरती हादसों में नहीं हुई हैं. हर महीने भारत में कहीं भगदड़, कहीं पैदल यात्राओं में दुर्घटनाएं तो कहीं धार्मिक आयोजकों की लापरवाही से दर्जनों मौतें होती हैं.

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धार्मिक दंगों का इतिहास ही इस देश का असली इतिहास रहा है. जितनी मौतें अकाल, बाढ़ वगैरह से नहीं हुईं, उस से ज्यादा मौतें एक दूसरे धर्म के अनुयायियों को खत्म करने के अभ्यास में हो गईं.

कुछ साल पहले राजस्थान के ही जोधपुर के चामुंडा माता मंदिर में सैकड़ों लोग मारे गए थे. माता की आस्था व दंड विधान को छोड़ कर सरकारी जांच आयोग बिठाया गया था, मगर आज तक कोई दोषी साबित नहीं हुआ. न माता ने किसी दोषी को सजा दी, न ही राजस्थान की सरकार ने.

राजस्थान में अभी बोआई का सीजन चल रहा है. मानूसन का मौसम है. किसानों के बीच एक कहावत है कि ‘टेम पर बोयो सालभर खायो’. अगर समय पर बोआई की तो पूरे साल का इंतजाम हो जाएगा, मगर इसी दौरान भागवत, सत्यनारायण, राम कथा वालों के पंडाल जगहजगह लगा दिए गए हैं.

23 जून, 2019 की दोपहर में बाड़मेर के जसोल गांव में राम कथा का आयोजन जोरशोर से चल रहा था. मौसम का मिजाज बदला और तंबू उखड़ गए. एक दर्जन से ज्यादा लोगों की मौतें हो गईं और तकरीबन 80 लोग घायल हो गए. हजारों की तादाद में आयोजकों ने भीड़ जमा कर ली थी.

कथावाचक राम कथा सुना रहे थे. अकसर ऐसे पंडाल लगते हैं तो प्रशासन खामोश बैठ जाता है. प्रशासन की मानसिक दशा ऐसी है कि वह इन को तमाम कानूनकायदों से ऊपर समझ कर किनारे हो जाता है.

जो मुक्ति का मार्ग बता रहा था, ऊपर वाले की इच्छा के विरुद्ध पत्ता भी हिलना नामुमकिन बता रहा था, वह

हवा के तेज झोंके से टैंट हिलते ही खुद हिलने लग गया.

वायु देवता व इंद्र देवता की महानता की कथा सुनातेसुनाते इन के रौद्र रूप

का कहर ऐसा टूटा कि दर्जनों घरों में कोहराम मच गया.

दरअसल, यह मनोरोगियों का देश है. पूंजी व सत्ता के लिए इनसानियत को ताक पर रख रहे दरिंदों का अड्डा है. गधे तैरना सीख गए हैं. भेड़ों को ले कर चल देते हैं और खुद तैर कर नदी के उस पार मौज उड़ाते हैं और भेड़ें बेचारी बेमौत मारी जाती हैं.

धर्म निजी आस्था का विषय तो है ही नहीं. इस तरह जुलूसों, झांकियों, पंडालों में ही धर्म की शक्ति का प्रदर्शन होता है. जहां शक्ति प्रदर्शन हो, वहां धर्म नहीं हो सकता. जहां शक्ति प्रदर्शन हो, वहां धंधा चल सकता है, व्यापार चल सकता है. यही धर्म चलता है.

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यह है पूरा मामला

बाड़मेर जिले के बलोतरा इलाके के जसोल गांव में रविवार, 23 जून, 2019 को दर्दनाक हादसा हुआ. यहां राम कथा के दौरान उठे बवंडर से पहले तो लोहे के पाइपों से बना पंडाल (डोम) 20 फुट ऊपर तक उड़ गया, फिर नीचे गिरा. इस के बाद उस में करंट दौड़ गया. इस से 14 श्रद्धालुओं की मौत हो गई, जबकि 80 से ज्यादा घायल हो गए.

हवा की रफ्तार इतनी तेज थी कि तकरीबन डेढ़ मिनट में ही पूरा पंडाल तहसनहस हो गया और किसी को भी संभलने का मौका नहीं मिला.

कथा के लिए राजकीय सीनियर स्कूल परिसर में माता राणी भटियाणी मंदिर ट्रस्ट की ओर से यह पंडाल लगाया गया था. कथा की शुरुआत दोपहर 2 बजे से हुई थी. तकरीबन सवा 3 बजे हलकी हवा के साथ बूंदाबांदी हुई.

दोपहर के तकरीबन साढ़े 3 बजे पंडाल के प्रवेश द्वार से अचानक बवंडर उठा और डेढ़ मिनट में तबाही मचा दी.

हादसा होते ही टैक्सी, टैंपो, एंबुलैंस समेत अलगअलग वाहनों से घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया.

सूचना मिलते ही प्रशासन, पुलिस के अफसर मौके पर पहुंच गए. आसपास की निजी डिस्पैंसरियों से भी डाक्टरों व स्टाफ को बुला लिया गया. कथा स्थल चीखपुकार में तबदील हो गया.

हादसे की खास वजह

कथा की शुरुआत दोपहर 2 बजे हुई थी. तकरीबन सवा 3 बजे आंधी के साथ बूंदाबांदी शुरू हुई. पंडाल में पानी टपकने लगा तो आयोजकों ने श्रद्धालुओं को आगेपीछे किया. लेकिन कथा जारी रही. दोपहर तकरीबन साढ़े 3 बजे अचानक बवंडर उठा और पंडाल गिर गया.

बिजली काटी गई, पर आटोमैटिक जनरेटर औन हो गए. पंडाल गिरते ही करंट दौड़ा तो बिजली काट दी गई. लेकिन वहां 2 आटोमैटिक जनरेटर लगे थे, वे स्टार्ट हो गए और करंट बना रहा. उधर, बिजली विभाग के एक्सईएन सोनाराम चौधरी ने कहा कि आयोजकों ने कार्यक्रम के लिए कोई बिजली कनैक्शन नहीं लिया था.

प्रख्यात महाराज थे, इस के बावजूद प्रशासन ने पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए? मुरलीधर महाराज मारवाड़ के प्रसिद्ध कथावाचक हैं. इन के कार्यक्रमों में भीड़ उमड़ती है. इस के बावजूद प्रशासन ने इस तरह के आयोजन को ले कर सुरक्षा संबंधी तैयारियों का जायजा क्यों नहीं लिया?

पंडाल में हवा पास होने के लिए जगह ही नहीं छोड़ी. यही वजह रही कि जब तूफानी हवा आई तो पंडाल गिर गया. डोम का फाउंडेशन कमजोर था. इसी वजह से एंगल उखड़ कर शामियाने के साथ हवा में उड़ गए.

‘बाड़ों’ में बसते बाहरी मजदूर

लेखक-अनिल अनूप

जैसे यहां की साइकिल इंडस्ट्री में तो वे उतने ज्यादा नहीं हैं, जितने हौजरी में या लोहे के पुरजे वगैरह बनाने में, पर वे रिकशा चलाने वालों में भारी बहुमत में हैं, तो ठेलारेहड़ी, छोटी दुकान लगाने के मामले में एकदम कम हैं. दिल्ली की तरह यहां की दुकानों में सहायक के तौर पर बाहरी मजदूरों को रखने का चलन अभी ज्यादा नहीं हुआ है.

दिल्ली से पंजाब की तरफ रेल या बस से आगे बढि़ए तो 2 चौंकाने वाली बातें दिखती हैं. दोनों तरफ दूरदूर तक धान के लहलहाते खेत और उन की खुशबू यह भरम पैदा कर सकती है कि कहीं हम धान उगाने, भात खाने वाले प्रदेश में तो नहीं पहुंच गए हैं.

गेहूं और रबी के इलाके का यह सीन चौंकाता है. जगहजगह पंप से पानी सींचते, खाद छींटते, धान रोपतेकाटते लोगों पर भी गौर करिएगा तो वे भी पंजाब और हरियाणा के लंबेतगड़े जैसे लोग नहीं लगेंगे. धान के खेत तो दिल्ली से बाहर निकलते ही शुरू हो जाते हैं पर असली ‘धनहर’ इलाका पानीपत, करनाल, अंबाला से शुरू होता है और हरियाणा के बाद पूरे पंजाब में यह नजारा दिखता है.

लुधियाना के आसपास बाहरी मजदूरों के ‘क्वार्टर’ मुरगी के दड़बों जैसे होते हैं. 7 या 8 फुट लंबे और इतने ही चोड़े कमरों की कतारें इन जैसे मजदूरों के लिए बनवा दी गई हैं. ये ‘क्वार्टर’ भी ऐसे ही 2 कतार वाले होते हैं. बीच में थोड़ी आंगननुमा लंबी खाली जगह होती है. 2 दर्जन कमरों के लिए एक हैंडपंप, एक शौचालय बना होता है. ‘क्वार्टर’ ज्यादा हैं तो उसी हिसाब से इन ‘सुविधाओं’ की तादाद भी ज्यादा होती है. अगर जगह कम पड़ रही हो तो कमरों को 2-3 मंजिल तक ऊपर उठा दिया जाता है.

लुधियाना की बाबा दीप सिंह कालोनी, जिसे लोकल लोग ‘भैया कालोनी’ कहते हैं, में ऐसे 108 कमरों के तिमंजिले ‘बाड़े’ हैं.

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बीएमएस के लोकल मजदूर नेता रामकृष्ण आजाद ने बताया कि कंगनवाल रोड पर 422 कमरों का ‘बाड़ा’ पूरे शहर में सब से बड़ा ‘बाड़ा’ है.

बाबा दीप सिंह कालोनी, कंगनवाल रोड, गिल रोड, इंडस्ट्रियल एरिया, ट्रांसपोर्ट नगर, सिमराला चौक, फोकल पौइंट, हीरा नगर, मोती नगर, भगत सिंह कालोनी, शेरपुर, मुसलिम कालोनी वगैरह में ऐसे ही ‘बाड़े’ बने हैं.

‘बाड़ा’ या ‘बाड़’ शब्द हिंदी में एकदम अलग मतलब बताता है. पंजाबी में मजदूरों वाली इस तरह की रिहाइश को ‘बाड़ा’ या ‘बाड़’ कहते हैं.

यह शब्द आज पहली बार सामने नहीं आया है. जब खुद पंजाब के लोगों ने पिछली सदी के आखिर और इस सदी की शुरुआत में दक्षिणपश्चिम में बनने वाली नहरों से जुड़ी कालोेनियों में रहना शुरू किया था, तो वे खुद भी उन्हें ‘बाड़ा’ ही कहा करते थे. बाहरी मजदूर इन्हें ‘क्वार्टर’ कहते हैं.

और जब वे लोग ‘क्वार्टर’, ‘ड्यूटी’, ‘ओवरटाइम’, ‘लंच’, ‘औफ’ जैसे शब्द कहते हैं तो इन का सिर्फ एक साधारण मतलब नहीं रहता. उस मतलब में तो इन 6-7 लोगों वाले एक कमरे को ‘क्वार्टर’ नहीं कहा जा सकता. इन शब्दों के जरीए ये लोग एक सांस्कृतिक फासले को भरने की कोशिश भी करते हैं. यह फासला शहरगांव, बिहारपंजाब, अमीरगरीब, वाला तो है ही, अपने गांव के बड़े लोगों और अपने बीच के फर्क का भी है.

इन शब्दों को अगर वे उन के सही मतलब में समझते तो उन को पाने की कोशिश भी करते. न्यूनतम मजदूरी, महंगाई भत्ता, प्रोविडैंट फंड, ईएसआई, ग्रैच्यूटी, बोनस, छुट्टियां जैसी बुनियादी बातों की परवाह भी उन्हें नहीं होती. लुधियाना जैसे शहर में, जिसे ‘पंजाब का मैनचैस्टर’ कहा जाता है, संगठित क्षेत्र में सालों से काम करने के बावजूद यह हालत थी.

गांव में मजदूरों से मिलने के बाद लुधियाना का उन का पता और पहुंचने का निर्देश लेने के बावजूद उन्हें ढूंढ़ लेना आसान नहीं था. कभी लोधियों के 2 सामंतों द्वारा सतलुज के पास बसाई गई लोधियान बस्ती आज पंजाब ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तरपश्चिमी भारत में दिल्ली के बाद सब से बड़ा शहर बन गई है और 14 लाख बाहरी मजदूरों के चलते पंजाब में उत्पादन का सब से बड़ा ठिकाना. इस में बड़ेबड़ों को जब अपनी पहचान बनाने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है तो फिर अनपढ़, पिछड़े, कमजोर, बाहरी मजदूरों को कौन पूछता है.

ज्यादातर पते किसी किराना दुकानदार या गली के डाक्टर के मारफत के होते हैं जिन की सेवाएं वे मजदूर लेते हैं. ये दुकानदारडाक्टर भी नाम और चेहरे, दोनों को एकसाथ देखे बगैर मजदूर को नहीं पहचान सकते हैं.

अपनी फैक्टरियों का पता ये लोग देते नहीं. सो, दुकानदारडाक्टर को भी जब तक मजदूर के मूल जिले, उस के गांव, उस के समूह, उस के काम के बारे में न बताया जाए, वे भी कोई मदद करने की हालत में नहीं रहते. जब इतने सारे ब्योरे और बैकग्राउंड बताने पर उस को सही पते का अंदाजा होता है तो वह आप को किसी ‘बाड़े’ में भेज देगा या भिजवा देगा.

उस ‘बाड़े’ में अपने मजदूर का कमरा पता करने के लिए आप को फिर से यह सारी मशक्कत करनी पड़ती है. उस के कमरे में पहुंचते ही कई धारणाएं एकसाथ ढह जाती हैं. ठीकठाक कमाई करता बाहरी मजदूर हर महीने अपने गांव में जितनी औसत रकम (8,000 रुपए से 12,000 रुपए) भेजता है, उस से किसी को भी यह लगेगा कि वह कम से कम इस की दोगुनी रकम कमाता ही होगा. परदेश में रहना, खानापहनना,  आनाजाना, लेनदेन सब लगा ही रहता है और आदमी लाख कम खर्च करे, 8-10 हजार रुपए से कम में क्या रहेगा.

अपनी कमाई और रहने के बारे में ये लोग गांव में कुछ ऐसा ही बताते भी हैं. पर वहां पहुंचते ही लगा कि अपनी कमाई के बारे में डींग हांकने का हक सिर्फ शहरी और पढ़ेलिखे लोगों को ही नहीं है, गांव में कमाई और काम के बारे में शेखी बघारने के पीछे भी कहीं न कहीं गांव के बड़े लोगों से फासले को कम कर के दिखाने की सोच भी काम करती है.

उस कमरे में जब बैठने को कहा जाता है तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कहां और कैसे बैठा जाए. नीचे कुछ भी नहीं बिछा होता. जहांतहां मुड़ी पड़ी बोरियां होती हैं या टाट, पैकिंग के काम आने वाली पल्ली.

पूरे के पूरे ‘बाड़े’ (2 से 3 दर्जन कमरों वाले) में 2-3 से ज्यादा खाट नहीं होंगी. कपड़ों के नाम पर जितने आदमी उतनी जोड़ी लुंगी और एकाध और कपड़ा. उन्हीं में से एक पहनना, एक ओढ़नाबिछाना. रोज नहाते समय पहले वाले कपड़े को पानी में खंगाल लेना.

बैठने के साथ ही जब आप परिचित हो कर कमरे में रहने वालों की संख्या और किराए के बारे में पूछेंगे तो मालूम होगा कि किराया है 3 से साढ़े 3 सौ रुपए. 60 वाट के बल्ब से ऊपर का बल्ब लगे, पंखा लगे तो 200 रुपए महीना ऊपर से. रहने के मामले में लालाजी को बताएंगे कि 3-4 लोग रहेंगे, पर रहेंगे 6-7 लोग जिस से प्रति व्यक्ति किराया कम पड़े.

इतने लोग तो कमरे में सो भी नहीं सकते. इस का सीधा सा जवाब होता है कि बाहर या छत पर सो जाते हैं. हवा भी लगती है. शिफ्ट ड्यूटी होती है तो सर्दियों में भी दिक्कत नहीं रहती.

सुबह ही पेट भर लेना

मुरगे के बांग देने के साथ ही उठ जाना है. रोटी बना लेनी है. जितने आदमी, उतने चूल्हे. नहाधो कर भरपेट खा लेना है. 4-6 रोटी साथ ले लेनी है. ‘लंच’ के समय छोले, सब्जी कुछ ले कर रोटी खा लेते हैं. दूध कोई नहीं लेता. महीने में एकाध बार मांसमछली हो गई तो बहुत है. देर रात को घर लौटने पर भात या खिचड़ी बनती है. जितना खाया गया, खा लिया बाकी नाली या कुत्ते को दे दिया. 12-14 घंटे काम की थकान सब भुला देती है.

अब हर ‘बाड़े’ में 1-2 परिवार भी दिखने लगे हैं. अपने गांवों के मजदूरों वाले गिल रोड के ‘बाड़े’ में भी एक परिवार स्थायी रूप से रहता है, पर वह पूर्वी उत्तर प्रदेश का है और परिवार का मुखिया फल का ठेला लगाता है.

पूरे लुधियाना शहर के सारे बाहरी मजदूर इसी तरह नहीं रहते. कुछ छोटे प्लाट ले कर मकान बना कर भी रहने लगे हैं. कुछ ने झुग्गियां डालनी शुरू कर दी हैं. कुछ मालिकों की फैक्टरियोंदुकानों में भी रह लेते हैं, पर ज्यादातर ‘बाड़ों’ में ही रहते हैं. अनुपात और तादाद के हिसाब से देखें तो जमीन ले कर बसने वालों में पूर्वी उत्तर प्रदेश, मैदानी दक्षिणी बिहार वाले लोग ज्यादा निकलेंगे. झुग्गियों में राजस्थानी मजदूर होंगे जो आमतौर पर परिवार के साथ ही घर से निकलते हैं. ‘बाड़े’ या ‘क्वार्टर’ में ज्यादातर बिहारी रहते हैं.

ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि जिस दिन इन ‘बाड़ों’ में ज्यादा परिवार और उन के साथ बकरीसूअर जैसे जानवर भी आएंगे उसी दिन ये महामारियों का डेरा बन जाएंगे. अभी तो सफाईनाली, फ्लशशौचालय, स्नानघर वगैरह का इंतजाम न होने पर भी सिर्फ अकेले मर्दों के रहने से थोड़ीबहुत राहत रहती है. दिनभर घर खाली हो, ‘बाड़ा’ खाली हो तो हवासूरज ही बहुत सफाई कर देते हैं.

बाबा दीप सिंह कालोनी के जिस 108 कमरों वाले ‘बाड़े’ की चर्चा पहले की गई है उस में तकरीबन 425 लोग थे. चारों ओर से घिरे इस ‘बाड़े’ की छत पर 10 शौचालय और 10 हैंडपंप थे. खुला होने से मजदूर शौच वगैरह के लिए बाहर भी जा सकते थे.

इंडस्ट्रियल एरिया में बने 300 कमरों से ज्यादा का ‘बाड़ा’ जवाहर बिल्डिंग, जो मुश्किल से 500 वर्ग गज के प्लाट पर बना होगा, मजदूरों के सुबह काम पर निकलतेनिकलते कीचड़ से पूरा सन जाता है जिस में मलमूत्र, कचरा तो होता ही है, रात में बचे खाने का भी अपना हिस्सा रहता है. इस में चार पैसे का डीडीटी पाउडर कौन डालेगा, कोई नहीं जानता.

आप चाहे जिस ‘बाड़े’ में जाइए, जिस बस्ती में जाइए, इन कमरों के मालिक नहीं मिलेंगे. ये अकसर बड़े लोग हैं जिन्होंने बाड़ों का चार्ज आमतौर पर किराना वालों, राशन वालों को सौंप दिया है और वे हर महीने उन्हीं से पूरी रकम वसूल लेते हैं.

किराना वालों का लालच यह होता है कि जो ‘बाड़ा’ उन के कंट्रोल में रहता है उस के सभी किराएदारों को उन की दुकान से ही राशन और दूसरा सामान लेना होता है. इस में गड़बड़ का मतलब है अगले ही दिन कमरा छोड़ना.

इस से मुनाफाखोरी की गुंजाइश काफी बढ़ जाती है. जिस 108 कमरे वाले ‘बाड़े’ का जिक्र पहले किया गया है वहां कुल 413 लोग रहते मिले और सिर्फ इन सब की खरीदारी से ही कितना मुनाफा एक जगह से होता होगा, यह समझा जा सकता है.

20 साल पहले यहां वही चावल 9 रुपए किलो था जो वैसे साढ़े 7-8 रुपए में मिल रहा था. आज बाजार में चावल 28-30 रुपए किलो है तो यहां 35 रुपए से कम नहीं है. खुले बाजार में जब मिट्टी का तेल 8 रुपए लिटर था तो यहां 10 रुपए लिटर. आज यह भी 65 रुपए लिटर है जो एक हफ्ते चल जाता है. शायद ही किसी मजदूर का राशनकार्ड बना दिया, तो राशन की दुकान से कंट्रोल रेट पर सामान लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता.

आप को याद होगा कि कोलकाता में ओवरब्रिज के गिरने से 22 लोगों के मरने की खबर आई थी. मरने वालों में ज्यादातर मजदूर थे. उन में से एक उत्तर प्रदेश का बाशिंदा शंकर पासवान भी था. वह होली पर अपने घर इसलिए नहीं गया था, ताकि कुछ दिन और काम कर के बेटी की शादी के लिए कुछ पैसे जमा कर सके.

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यह हमारे देश के मजदूरों की आम कहानी है. कभी खदानों में दब कर उन के मरने की खबर आती है, कभी कारखानों में अपंग हो जाने की, तो कभी फुटपाथ पर रईसों की गाडि़यों से कुचलने की. जब मजदूरों का गुस्सा फूटता है, तो सिर्फ मुआवजे का ऐलान होता है.

कहने को तो मुआवजा मरने वाले के पविर वालों के सहारा के लिए होता है, लेकिन आज यह हकीकत में मजदूरों के बुनियादी सवालों से पीछा छुड़ाने का जरीया बन गया है. किसी हादसे के बाद नेताओं की भाषणबाजी होती है और मुआवजे की रकम सौंपते वक्त फोटो खिंचवा कर वे पुण्य कमाने की मुद्रा में आ जाते हैं.

क्या मजदूर होने का इतना ही मतलब है? क्या मजदूर सिर्फ दूसरों को सेवाएं मुहैया कराने के लिए ही हैं? क्या मजदूरों और उन की मजदूरी के प्रति समाज या राज्य की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है?

मार्क्स और एंजेल्स जैसे सुलझे हुए लोगों ने पूंजीवादी सामाजिक ढांचे का ब्योरा देते हुए कहा था कि मजदूरों को मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी उन के वजूद को बनाए रखती है, मतलब उन्हें जिंदगी जीनेभर की तनख्वाह मिलती है. वे मजदूर बने रहते हैं और एक वर्ग के लिए सुविधाओं का उत्पादन करते रहते हैं.

जब समाजवादी सोच वाले समाज को बनाने की सोची गई, तो इस संबंध को खत्म करने की बात सामने आई और दुनियाभर में मजदूरों ने अपने हित के लिए क्रांतिकारी संघर्ष किए. उन्होंने काम के घंटे को तय कराया, अपने परिवार के लिए पढ़ाईलिखाई, सेहत और घर की मांग की, यूनियन बनाने और हड़ताल करने का हक हासिल किया.

भारत में भी आजादी के बाद समाजवादी ढांचे को स्वीकार किया गया और सार्वजनिक उपक्रमों के जरीए मजदूरों के हितों को सुरक्षित करने की कोशिश की गई, पर यह अधूरी थी.

आजादी के बाद राज्य द्वारा जिस मात्रा में सार्वजनिक क्षेत्रों में रोजगार बनाए गए, उस से कई गुना ज्यादा यहां की आबादी बेरोजगार थी, जो अपनी जीविका के लिए असंगठित क्षेत्रों में जाने को मजबूर हुई.

90 के दशक तक आतेआते देश में मजदूरों का सवाल धीरेधीरे सीन से बाहर होता चला गया. अब चुनावों में भी मजदूरों के हितों की बात राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में नहीं होती है. अब तो संगठित क्षेत्रों में भी मजदूरों की हालत अच्छी नहीं रह गई है.

ठेके पर मजदूर उसी तरह से रखे जाते हैं जैसे दास युग में दासों को जीने भर कर खाना मिलता था. ठेके ने श्रम के प्रति जाहिर की जाने वाली उस नैतिक जिम्मेदारी को खत्म कर दिया है, जिस के तहत मजदूर और उस के परिवार के लिए पढ़ाईलिखाई, सेहत और घर के लिए न्यूनतम व्यवस्था की बात थी.

आज मजदूर बेहद ही खतरनाक हालात में काम करने के लिए मजबूर हैं, पर उन के लिए जीवन की आधारभूत संरचनाओं और सुरक्षा की कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है.

वैश्वीकरण के दौर में सारी चीजें चमक रही हैं, लेकिन मजदूरों के चेहरे से लोच गायब हो रही है. बाजार ने मजदूरी और मजदूरों की अहमियत को अपने इश्तिहारों से ढक लिया है. आज भी मजदूर अपनी बुनियादी जरूरतों और हकों के लिए जद्दोजेहद कर रहे हैं.

आज एक ओर भवन निर्माण, सड़क निर्माण, छोटीबड़ी प्राइवेट फैक्टरियों, मिलों और खदानों में बहुत बड़ी तादाद में लोग ठेके पर मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं, तो वहीं दूसरी ओर महानगरों में दूसरों के घरों, गलियों, नालियों में दिहाड़ी पर काम करने को मजबूर हैं.

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मनरेगा एक अच्छी कोशिश कह सकते है, लेकिन यह तब तक एकांगी है, जब तक इस के लाभ के रूप में मजदूर अपनी वास्तविक हैसियत से बाहर नहीं निकल जाते हैं. यह तभी मुमकिन है, जब उन के लिए न्यूनतम मजदूरी के अलावा पढ़ाईलिखाई, सेहत, घर व सुरक्षा की गारंटी भी हो.                द्य

 

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