रेलवे के निजीकरण से किसान मजदूर के बेटे निराश

22 साल के रंजन का चयन रेलवे में टैक्नीशियन पद के लिए जनवरी में हुआ था. आईटीआई करने के बाद 3 साल की कड़ी मेहनत करने के बाद आए इस रिजल्ट से वह काफी खुश था.

रंजन के पिता साधारण किसान हैं. उन्होंने रोजमर्रा की जरूरी चीजों में कटौती कर के रंजन को पढ़ने के लिए खर्च दिया. रंजन का रिजल्ट आने के बाद परिवार में खुशी का माहौल था. आखिर हो भी क्यों नहीं, परिवार वालों में उम्मीद की किरण जगी थी कि अब घर में खुशियाली आएगी. दोनों बेटियों की शादी अब अच्छे घर में हो जाएगी.

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रंजन की तरह अभिषेक, राहुल और संजय का भी चयन रेलवे में ड्राइवर पद के लिए हुआ. सभी एक ही कमरे में रह कर पटना में तैयारी करते थे. वे सभी किसान मजदूर के बेटे हैं.

बिहार के साधारण किसान मजदूर के बेटों को अगर सब से ज्यादा सरकारी नौकरी मिलती थी तो वह था रेलवे महकमा, जिस में फोर्थ ग्रेड से ले कर रेलवे ड्राइवर, टैक्नीशियन, टीटी और स्टेशन मास्टर पद की नौकरी लगती थी.

रेलवे ने बिहार के किसान मजदूर तबके के मेधावी लड़कों को देशभर में सब से ज्यादा नौकरी दी, जिस से लोगों के हालात में काफी सुधार हुआ.

पर रेलवे के निजीकरण की चर्चा सुनते ही किसान मजदूरों के 3-4 साल से तैयारी कर रहे नौजवानों के होश उड़ गए हैं. वे निराश हो गए हैं. जिन का चयन हो गया है यानी रिजल्ट आ गया है, वे भी उलझन में पड़ गए हैं कि उन्हें जौइन कराया जाएगा या नहीं.

रंजन, जिस का टैक्नीशियन का रिजल्ट आया है, बताता है कि अब कहना मुश्किल है कि हम लोगों का क्या होगा? वह अब किसी प्राइवेट डाक्टर के रह कर कंपाउंडर का काम सीखना चाहता है.

रवींद्र, आलोक, आदिल जैसे दर्जनों छात्रों ने बताया कि वे लोग आईटीआई करने के बाद 3 साल से रेलवे की तैयारी कर रहे थे. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि रेलवे में नौकरी जरूर लग जाएगी. वे लोग आपस मे क्विज करते थे. उस क्विज करने वालों में से 32 लोगों की नौकरी लग गई. रेलवे के नीजिकरण की चर्चा जब से सुनी है, उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्या करेंगे. आखिर में वे लोग भी लुधियाना, सूरत जैसे शहरों की प्राइवेट फैक्टरियों में वही काम करने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो काम अनपढ़ लोग करते हैं. उन के मांबाप तो यही सोंचेंगे कि उन की मेहनत की कमाई अपनी पढ़ाई पर ऐसे ही उड़ा दी. उन को देश के इन हालात के बारे में जानकारी थोड़े है.

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हमारा हक के राष्ट्रीय प्रचारक प्रकाश कुमार ने बताया कि अब दिमाग से हटा दीजिए और भूल जाइए कि अब देश के किसान मजदूरों के बेटों को रेलवे में सरकारी नौकरी मिलेगी. भारतीय रेल जो देश का सब से बड़ा सार्वजनिक उद्यम और सब से बड़ा नियोक्ता था, आज मोदी सरकार उसे खंडखंड कर दिया है और उस का निजीकरण करने का पूरा मैप बन चुका है.

रेलवे की 2 बड़ी परीक्षाएं 2020 में होने वाली थीं. आरआरबीएनटीपीसी एग्जाम, जिस में 35,208 भरतियों के लिए 1.25 करोड़ से ज्यादा औनलाइन आवेदन आए थे. आरआरसी ग्रुप डी एग्जाम में एक लाख से ज्यादा सीटें बताई गई थीं. यह इस एक्जाम के बाद होना था.

रेलवे मंत्रालय ने 109 रूटों पर 151 प्राइवेट ट्रेन चलाने के लिए योजना बनाई है. पूरे देश के रेलवे नैटवर्क को 12 क्लस्टर में बांटा गया है. इन्हीं 12 क्लस्टर में 151 प्राइवेट ट्रेनें चलेंगी. इन ट्रेनों में रेलवे सिर्फ ड्राइवर और गार्ड देगा यानी अब नए पदों की जरूरत ही खत्म कर दी गई है.

लोगों की आंखों में धूल झोंक कर निजीकरण करने पर सरकार तुल गई है. जिस तरह से एयरपोर्ट को एकएक कर अडाणी के हवाले किया जा रहा है, प्राइवेट सैक्टर को अपनी ही ट्रेन रेक तैयार करने की इजाजत दी जाएगी. निजी औपरेटरों को मार्केट के मुताबिक किराया तय करने की इजाजत दी जाएगी. वे इन गाड़ियों को अपनी सुविधा के हिसाब से विभिन्न श्रेणियों की बोगियां लगाने के साथसाथ रूट पर उन के ठहराव वाले स्टेशन का भी चयन कर सकेंगे.

फिलहाल तो मेक इन इंडिया की बात की जा रही है, लेकिन बाद में प्राईवेट आपरेटर जहां से भी चाहेंगे अपनी ट्रेन हासिल कर सकेंगे. रेलवे से ट्रेन खरीदना उन के लिए जरूरी नहीं होगा. यह इन के करार में साफतौर पर लिखा हुआ है. दूसरी सब से बड़ी बात है कि संचालन में निजी ट्रेन को वरीयता मिलने से सामान्य ट्रेनों की लेटलतीफी बेहद बढ़ जाएगी जिस से जनता परेशान होगी और इस का कुसूरवार रेलवे को बना कर और रूट को भी प्राइवेट कर दिया जाएगा.

सभी लोग जानते हैं कि निजी उद्यमियों का मकसद केवल फायदा कमाना होता है और जिन्हें जिस क्षेत्र से फायदा नहीं होता वे वहां काम बंद कर देते हैं. पूरी दुनिया में रेलवे निजीकरण से राष्ट्रीयकरण की ओर लौट रहा है, लेकिन भारत में अडाणी जैसे पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार जुटी हुई है. रेलवे में रोजगार देने की बात तो दूर जिन को रोजगार मिला हुआ है, उन का भी छीना जाएगा. टिकट की कीमत आईआरसीटीसी तय करता है. ट्रेन की सफाई का काम, पैंटीकार का काम, टिकट बिक्री इंटरनैट का काम प्राइवेट तौर पर ही होता है.

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गरीबों को 32,000 करोड़ की सब्सिडी खत्म. सरकार कोई भी ट्रेन आने वाले समय में नहीं चलाएगी. केवल प्राइवेट कंपनी ही ट्रेन चलाएगी. रेल यात्री भाड़ा में जबरदस्त बढ़ोतरी होगी. रेल कर्मी और सीनियर सिटीजन की छूट खत्म, जैसे तेजस में बच्चों को भी छूट नहीं है.

देशभर में रेलवे में 70 रेल मंडल है. इन में रेल कर्मचारियों के लिए बनी कालोनी की जमीन को फिर से नए निर्माण के नाम पर बिक्री के आदेश हो गए हैं. इस से रेल कर्मचारियों में अब आक्रोश गहराता जा रहा है. इस का रेलवे मजदूर संघ विरोध कर रहा है, लेकिन सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है. यह साफ हो गया है कि सरकार किसी भी हालत में बड़े बदलाव की तैयारी में है.

कोरोना की वजह बेरोजगार युवा और रेलवे यूनियन के लोग भीड़भाड़ जैसे आंदोलन नहीं कर सकते. कोरोना काल में ही रेलवे का निजीकरण करना सरकार के लिए आसान होगा.

आत्महत्या : तुम मायके मत जइयो!

पति और पत्नी का संबंध कहा जाता है कि सात जन्मों का गठबंधन होता है. ऐसे में जब  आसपास यह देखते हैं कि कोई महिला अथवा पुरुष इसलिए आत्महत्या कर लेता है कि उसके साथी ने उसे समझने से इंकार कर दिया. और प्रताड़ना का दौर कुछ ऐसा बढ़ा की पुरुष हो या फिर स्त्री उसके सामने आत्महत्या के द्वारा अपनी इहलीला समाप्त करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता.

यह त्रासदी इतनी भीषण है कि आए दिन ऐसी घटनाएं सुर्ख़ियों में रहती है. आज हम इस लेख में यह विवेचना का प्रयास करेंगे कि शादीशुदा पुरुष, ऐसी कौन सी परिस्थितियां होती हैं, जब गले में फंदा लगाकर आत्महत्या कर लेते हैं. हाल ही में छत्तीसगढ़ में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हुई जिसमें पुरुषों ने अपनी पत्नी अथवा सांस पर आरोप लगाकर आत्महत्या कर ली.

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ऐसे ही एक परिवार से जब यह संवाददाता मिला और चर्चा की तो अनेक ऐसे तथ्य खुलकर सामने आ गए जिन्हें समझना और जानना आज एक जागरूक पाठक के लिए बहुत जरूरी है.

प्रथम घटना-

छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर में हाईकोर्ट के एक वकील ने आत्महत्या कर ली. सुसाइड नोट में लिखा कि वह पत्नी के व्यवहार से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर रहा है. वह अपनी धर्मपत्नी से प्रताड़ित हो रहा है.

दूसरी घटना-

छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिला में एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली और सुसाइड नोट में लिखा कि उसे पत्नी की प्रताड़ना के कारण आत्महत्या करनी पड़ रही है.

तीसरी घटना-

जिला कोरबा के एक व्यापारी ने आत्महत्या कर ली जांच पड़ताल में यह तथ्य सामने आया कि उसका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था. पत्नी के व्यवहार के कारण उसने अपनी जान दे दी.

मैं मायके चली जाऊंगी…!

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के कबीर नगर थाना क्षेत्र में पत्नी और सास से प्रताड़ित होकर एक शख्स द्वारा द्वारा आत्महत्या का मामला सुर्खियों में है. पुलिस द्वारा मिली जानकारी के अनुसार मौके से पुलिस को  दो पन्नों का सुसाइड नोट मृतक के जेब से मिला है. कबीर नगर थाने मैं पदस्थ पुलिस अधिकारी के अनुसार मृतक ने अपनी मौत का जिम्मेदार अपनी पत्नी और सास को बताया है.

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सुसाइड नोट में मृतक ने लिखा है – उसकी पत्नी बार-बार घर में झगड़ा कर के अपने मायके चली जाती थी और  दो साल की बेटी से भी  मिलने नहीं दिया जाता था. जिसके कारण तनाव में आकर उसने आत्महत्या कर ली. मृतक का नाम मनीष चावड़ा है.  इस मामले में अब तक पुलिस अन्य एंगल से भी तहकीकात कर रही है. मगर जो तथ्य सामने आए हैं उनके अनुसार जब पत्नी अक्सर अपने मायके से संबंध रखे हुए थी. दरअसल, जब पत्नी बार-बार पति को छोड़कर चले जाती है तो डिप्रेशन में आकर पुरुष आत्महत्या कर लेते हैं. ऐसी अनेक घटनाएं घटित हो चुकी है. ऐसे में यही कहा जा सकता है कि वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए पति और पत्नी दोनों  एक दूसरे की भावना का सम्मान करते हुए यह जानने और समझने की दरकार है कि पूरी जिंदगी दुख सुख में साथ  निभाना है. अगर यह बात गांठ बांध ली जाए तो आत्महत्या और तलाक अर्थात संबंध विच्छेद के मामलों में कमी आ सकती है.

मां और भाइयों की नासमझी

आत्महत्या और संबंध विच्छेद के मामलों में आमतौर पर देखा गया है कि विवाह के पश्चात भी अपनी बेटी और बहन के साथ मायके वालों  के गठबंधन कुछ ऐसे होते हैं कि पति बेचारा विवश और असहाय  हो जाता है. सामाजिक कार्यकर्ता इंजीनियर रमाकांत श्रीवास कहते हैं- यहां यह बात समझने की है कि बेटी के ब्याह के पश्चात मायके पक्ष को यह समझना चाहिए कि अब बेटी की विदाई हो चुकी है और जब तलक उसके साथ अत्याचार, अथवा प्रताड़ना की घटना सामने नहीं आती, छोटी-छोटी बातों पर उसे प्रोत्साहित करने का मतलब यह होगा कि बेटी के वैवाहिक जीवन में जहर घोलना.

उम्र के इस पड़ाव में परिस्थितियां कुछ ऐसी मोड़ लेती है कि पति बेचारा मानसिक रूप से परेशान होकर आत्महत्या कर लेता है. और इस तरह एक  सुखद परिवार टूट कर बिखर जाता है. कई बार देखा गया है कि बाद में पति की मौत के बाद पत्नी को यह समझ आता है कि उसने कितनी बड़ी भूल कर दी. अतः समझदारी का ताकाजा यही है कि जब हाथ थामा है तो पति का साथ दें और छोटी-छोटी बातों पर कभी भी परिवार को तोड़ने की कोशिश दोनों ही पक्ष में से कोई भी न करें.

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गहरी पैठ

हमारे देश में फालतू बातों पर समय और दम बरबाद करने की पुरानी आदत है. यहां तो बेबात की, तो सिर भी फोड़ लेंगे पर काम की बात के लिए 4 जने जमा नहीं होंगे. बकबक करनी हो, होहल्ला मचाना हो, तो सैकड़ों की तमाशाई भीड़ जमा भी हो जाएगी और अपनाअपना गुट भी बना लेगी. जब देश के सामने चीन की आफत खड़ी है, जब बेकारी हर रोज बढ़ रही है, जब उद्योगधंधे बंद हो रहे हैं, जब कोरोना की बीमारी दुनियाभर के रिकौर्ड बना रही है, हम क्या बोल रहे हैं, सुन रहे हैं? रिया चक्रवर्ती और सुशांत सिंह के किस्से, जिस में ऐक्टै्रस कंगना राणावत बेबात में कूद कर हीरोइन बन गई है.

यह आज की बात नहीं है. रामायण काल में राजा दशरथ को राज करने की जगह फालतू में शिकार पर जाने की लगी थी, जब उन्होंने एक अंधे मांबाप के बेटे को तीर से मार डाला. राजा का काम राज करने का था. उस के बाद जंगल में राम ने शूर्पणखा की नाक सिर्फ इसलिए काट ली कि वह प्यार करने का आग्रह बारबार कर रही थी. दोनों का नतीजा बुरा हुआ. श्रवण कुमार के मांबाप के श्राप की वजह से राम को वनवास लेना पड़ा और उस के गम में राजा दशरथ की मौत हो गई.

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महाभारत काल में इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी का दुर्योधन और उस के भाइयों को महल में अंधे के बेटे कहना इतना गंभीर बना कि महाभारत का युद्ध हो गया और कुरु वंश ही खत्म हो गया. गीता का उपदेश चाहे जैसा हो, उस में यह नहीं कहा गया कि फालतू की भीड़ और फालतू की बकबक से समाज और देश नहीं बनते.

आज चीन, कोरोना, उद्योगों, भूख, गरीबी से न लड़ कर हमारी चैनलों की भीड़ एकसुर में कंगना और रिया का अलाप कर रही है. ऐसा लगता है मानो रामायण और महाभारत के पात्र ये एंकर हर रोज सुबह पढ़ते हैं और दिनभर उसे ही दोहराते हैं.

हमारे यहां गांवों में ऐसा हर रोज होता है. हर रोज गांव में लड़ाईझगड़े इसी तरह छोटीछोटी बातों पर होते हैं. घरों में सासबहू और जेठानीदेवरानी से ले कर पड़ोसियों और जातियों के विवाद इसी तरह बेबात में तू ने यह क्यों कहा, वह क्यों कहा पर होते हैं. रिया चक्रवर्ती और सुशांत सिंह जो भी कर रहे थे, उस का आम जनता से लेनादेना नहीं है पर चैनल ही नहीं, बल्कि राज्य सरकारें और यहां तक कि केंद्र सरकार भी इस छोटे से मामले में कूद पड़ी हैं, ताकि बड़े मामलों को भुलाया जा सके.

यहां तक कि बिहार में मुद्दा बनाया जा रहा है कि सुशांत सिंह की हत्या का मामला चुनावों में पहला होगा, राज्य में लूटपाट, गरीबी, बदहाली नहीं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अब बंगाली ब्राह्मण रिया चक्रवर्ती का मामला उठा रही हैं.

किसानों ने इन दिनों देशभर में बड़े आंदोलन किए पर चैनलों ने दिखाए ही नहीं. छात्रों ने बेकारी का मुद्दा उठाया और रात को मशाल जुलूस निकाले पर उन की बात करने की फुरसत नहीं रही. रामायण और महाभारत काल की तरह युद्ध राजाओं के आपसी मतलब के हुए और आम जनता बेकार में पिसी थी. दोनों ही लड़ाइयों के बाद आम जनता को कुछ नहीं मिला. राम को सीता मिली और युधिष्ठिर को राज, पर तब जब सब मर गए. क्या हम इसे दोहराने में लगे हुए हैं?

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अब देश को सीमाओं की चिंता ही नहीं है. देश की सरकार को अब देश में होने वाले भयंकर बड़े झगड़ों, खूनखराबों की फिक्र नहीं है. देश को चिंता है गाय की. गाय है तो जहां है, जान का क्या आतीजाती रहती है. गरीब, किसान, मजदूर, व्यापारी जिएंमरें कोई फर्क नहीं पड़ता, पर गौमाता नहीं मरनी चाहिए, खासतौर पर मुसलमान के हाथों. ब्राह्मण उसे भूखा रख कर मार दें तो कोई बात नहीं क्योंकि उन्हें तो कोई पाप लगता ही नहीं.

एक कानून है राष्ट्रीय सुरक्षा कानून. इस में बिना जमानत, बिना दलील, बिना वकील किसी को भी महीनों तक जेल में रखा जा सकता है और हर चौकी का मुंशी इसे लागू कर सकता है. थोड़ी सी कागजी घोडि़यां बनानी होती हैं, वे पकड़ कर बंद करे जाने के बाद बनाई जाती रहती हैं.

उत्तर प्रदेश में अप्रैल, 20 से अगस्त, 20 तक 139 लोगों पर यह कानून लागू किया जिन में से 44 को गौहत्या के अपराध का नाम लगा कर पकड़ा गया था. मजे की बात है 4,000 तो गौहत्या कानून में वैसे ही बंद हैं. कुछ को गैंगस्टर ऐक्ट में बंद कर रखा है तो कुछ को गुंडा ऐक्ट में भी. ये सब बंद लोग धन्ना सेठ नहीं हैं. ये आम आदमी हैं. हो सकता है, ज्यादातर मुसलमान यह दलित हों पर गौमांस या दूसरा कोई और मांस खरीदनेबेचने वाले कहीं पकड़े नहीं जाते. अगर कभीकभार चंगुल में आ जाएं तो वे वकील कर के निकल जाते हैं. गरीब ही सड़ते रहते हैं.

यह न समझें कि इस पकड़धकड़ से गायों की मौतों को बंद कर दिया गया है. वे तो पहले की तरह ही मरेंगी. दान में ब्राह्मण तो केवल दूध देने वाली गाय लेगा. जब दूध देना बंद कर देगी तो पहले वही ही बेच देता था. अब खेतों में छोड़ देता है, जहां वे खड़ी फसलों को खाती रहती हैं. उत्तर प्रदेश की ही नहीं दिल्ली तक की सड़कों पर गायों को आराम से मरते देखा जा सकता है.

इस कानून का फायदा भगवा गैंग वाले जम कर उठा रहे हैं. वे किसी भी घर में गौमांस होने का आरोप लगा सकते हैं. पुलिस छापा मारती है, घर वालों को गिरफ्तार करती है और मांस को लैब में भेज देती है. आमतौर पर 3-4 महीने में रिपोर्ट आती है कि मांस तो भैंस का था पर तब तक पुलिस वाले और भगवा गैंग वाले कमाई कर चुके होते हैं.

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इस धांधली के खिलाफ कोई बोल भी नहीं रहा क्योंकि पार्टी सुनेगी नहीं, मीडिया बढ़ाचढ़ा कर दिखाता है और जज खुद तिलकधारी, जनेऊधारी हैं. वे क्यों पुण्य के काम में दखल दें, चाहे गलत क्यों न हो. गाय के नाम पर जो आपाधापी हो रही है वह बहुत कमाई कर रही है. यह मौका भी एक ही पार्टी के पास है जिसे अपने वर्करों को पैसे नहीं देने पड़ते क्योंकि वर्कर इस तरह हफ्तावसूली कर रहे हैं. गौपूजा का मतलब ही यही है कि गौपालकों की पूजा हो, गौ जिएमरे कौन चिंता करता है?

गहरी पैठ

दलितों के नेता होने का दावा करने वाले रामविलास पासवान वर्षों से उस पार्टी के साथ चिपके हैं जिस पर उन्होंने ही एक बार सदियों से हो रहे जुल्मों को सही और पिछले जन्मों का फल बताया था. सत्ता के मोह में रामविलास पासवान अपना पासा तो सही फेंकते रहे हैं और अपनी जगह बचाए रखते रहे हैं, पर वे इस चक्कर में दलितों के हितों को नुकसान पहुंचाते रहे हैं.

उदित राज, रामविलास पासवान, मायावती जैसे बीसियों दलित नेता भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में हैं और इन दोनों पार्टियों में दलितों और उन के वोटों का इस्तेमाल करने वाले ऊंचे नेताओं की देश में कमी नहीं है और हर पार्टी में ये मौजूद हैं. इन की मौजूदगी का आम दलितों को कोई फायदा होता है, यह दिखता नहीं है. हाल में अपने गांवों तक बड़े शहरों से पैदल चल कर आने वाले मजदूरों में काफी बड़ी तादाद में दलित ही थे और इन के नेताओं के मंत्रिमंडल में होने के बावजूद न केंद्र सरकार ने और न राज्य सरकारों ने इन मजदूरों से हमदर्दी दिखाई.

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रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अब बिहार के चुनावों से पहले पर फड़फड़ा रही है, पर यह साफ है कि वह नेताओं के हितों को ध्यान में रखेगी, वोटरों के नहीं. दलितों की मुश्किलें अपार हैं, पर चाहे उन की गिनती कुछ भी हो, उन के पास अपना दुख कहने का कोई रास्ता नहीं है.

रामविलास पासवान, प्रकाश अंबेडकर, मायावती जैसे दसियों नेता देशभर में हैं, पर उन्हें अपनी पड़ी रहती है. जो थोड़े उद्दंड होते हैं जैसे चंद्रशेखर उन्हें सरकार जल्दी ही जेल में पहुंचा देती है और ऊंची जातियों के जज उन्हें जमानत नहीं देते. उन के सत्ता में बैठे नेता चुप रहते हैं.

बिहार में चिराग पासवान जो भी जोड़तोड़ करेंगे वह सीटों के लिए होगी. नीतीश कुमार और भाजपा समझते हैं कि यदि उन्हें सीटें ज्यादा दी भी गईं तो फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि हर जीतने वाले विधायक को आसानी से एक गाड़ी, एक मकान और थोड़ा सा पैसा दे कर खरीदा जा सकता है.

लोक जनशक्ति पार्टी ने धमकी दी है कि वह बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) के खिलाफ 143 उम्मीदवार खड़े करेगी, पर सब जानते हैं कि अंत में वह 10-15 पर राजी हो जाएगी. रामविलास पासवान कभी लालू प्रसाद यादव के साथ काम कर चुके हैं, पर लालू यादव जैसे पिछड़े नेताओं को दलितों को मुंह पर खुश करने की कला नहीं आती जो भाषा पहले संस्कृत या अब अंगरेजी पढ़ेलिखे नेताओं को आती है जो कांग्रेस में हमेशा रहे और अब भाजपा में पहुंच गए हैं.

दलितों की बिहार में हालत बहुत बुरी है. सामान्य पढ़ाई करने के बावजूद उन में चेतना नहीं आई है. उन्हें पढ़ाने वाले भी दुत्कारते रहे हैं और उन से काम लेने वाले भी. उन्हें दलितों के लिए बने अलग मंदिरों में ठेल कर बराबरी का झूठा अहसास दिला दिया गया है, पर उन की हैसियत गुलामों और जानवरों सी ही है. अफसोस यही है कि अब जब 3 पीढि़यां पढ़ कर निकल चुकी हैं तब भी वे रास्ता दिखाने वालों की राह तकें, यह गलत है. इस का मतलब तो यही है कि उन्हें फिर एक चुनाव में उन्हें ही वोट देना पड़ेगा जो उन पर अत्याचार करते हैं.

पाकिस्तान का नाम लेले कर चुनाव जीतने वाली सरकार के लिए चीन गले की आफत बनता जा रहा है. लद्दाख से ले कर अरुणाचल तक चीन सीमा पर तनाव पैदा कर रहा है और भारत सरकार को जनता में अपने बचाव के लिए कोई मोहरा नहीं मिल रहा है. सरकार ने 200 से ज्यादा चीनी एप जरूर बैन कर दिए हैं, पर ये चीनी एप खिलंदड़ी के एप थे और इन को बंद करना देश की अपनी सेहत के लिए अच्छा है और चीन को इन से कोई फर्क नहीं पड़ता.

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पाकिस्तान के मामले में आसानी रहती है कि किसी भी दूसरे धर्म वाले को गुनाहगार मान कर गाली दे दो, पर चीनी तो देश में हैं ही नहीं. जिन उत्तरपूर्व के लोगों के राज्यों पर चीन अपना हक जमाने की कोशिश कर रहा है, वे पूरी तरह भारत के साथ हैं. वे कभी भी चीन की मुख्य भूमि के पास भी नहीं फटके थे. ज्यादा से ज्यादा उन का लेनदेन तिब्बत से होता था और तिब्बती खुद भारत के साथ हैं और एक तिब्बती मूल के सैनिक की चीनी मुठभेड़ में मौत इस बात की गवाह है.

सरकार द्वारा मुसीबत को मौके में बदलने में चीनी मामले में चाहे मुश्किल हो रही हो, भारत को यह फिक्र तो करनी ही होगी कि हमारी एक इंच भूमि भी कोई दुश्मन न ले जाए. यह तो हर नागरिक का फर्ज है कि वह जीजान से जमीन की रक्षा करे और इस में न धर्म बीच में आए, न जाति और न पार्टी के झंडे का रंग.
दिक्कत यह है कि देश आज कई मोरचों पर जूझ रहा है. हमारी हालत आज पतली है. नोटबंदी और जीएसटी के हवनों में हम ने अरबों टन घीलकड़ी जला डाला है कि इन हवनों के बाद सब ठीक हो जाएगा.

ठीक तो कुछ नहीं हुआ, सारे कारखाने, व्यापार, धंधे, नौकरियां भी खांस रहे हैं. राज्य सरकारों के खजाने बुरी तरह धुएं से हांफ रहे हैं. ऊपर से कोरोना की महामारी आ गई. हवन कुंड की आग को कोरोना की तेज हवाओं ने बुरी तरह चारों ओर फैला दिया है. चीन से ज्यादा चिंता आज हरेक को अपने अगले खाने के इंतजाम की हो गई है.

दुश्मन पर जीत के लिए देश का हौसला और भरोसा बहुत जरूरी है. यह अब देश से गायब हो गया है. कल क्या होगा यह आज किसी को नहीं मालूम. जब कोरोना के पैर बुरी तरह गलीगली में फैल रहे हों तो सीमा पर चीन की चिंता सेना पर छोड़नी पड़ रही है. जनता के पास इतनी हिम्मत नहीं बनती है कि वह दोनों मोरचों पर सोच सके. जनता ने तो चीन की सीमा का मामला सेना पर छोड़ दिया है. हमारी सरकार भी रस्मीतौर पर चीन के साथ भिड़ने की बात कर रही है, क्योंकि ज्यादातर नेता तो कोविड के डर से घरों में दुबके हैं. आमतौर पर ऐसे मौके पर सितारे, समाज सुधारक, हर पार्टी के नेता, हर जाति व राज्य के नेता सैनिकों की हिम्मत बढ़ाने के लिए फ्रंट पर जाते हैं, पर अब सब छिपे हुए हैं.

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यह सेना की हिम्मत है कि वह बहादुरी से चीन को जता रही है कि भारत को अब 1962 का भारत न समझे. बहुत बर्फ पिघल चुकी है इन 50-60 सालों में. भारत चाहे गरीब आज भी हो, पर अपनी जमीन को बचाना जानता है.

मुसीबत का सबब बने आवारा पशु

पिछले साल के फरवरी महीने में  मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गांव खापरखेड़ा के जगदीश धाकड़ अपने खेत में लगी गेहूं की फसल में यूरिया डाल रहे थे कि तभी एक आवारा सांड़ खेत में घुस आया, जिसे खदेड़ने के लिए जगदीश दौड़ पड़े.

सांड़ ने भी अपने नथुने फुलाए और सींगो के बल पर जगदीश को जमीन पर पटक दिया. पास के खेत में काम कर रहे कुछ किसानों ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर की सलाह पर जब ऐक्सरे कराया गया, तो जगदीश के दोनों पैर की हड्डियों में फ्रैक्चर निकला.

जगदीश 3 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे. इस दौरान उन की गेहूं की फसल देखरेख की कमी में बुरी तरह बरबाद हो गई. बताया जाता है कि जिस आवारा सांड़ ने उन्हें घायल किया था, उसे गांव  के ही एक दबंग द्वारा किसी माता की पूजापाठ कर के खुला छोड़ा गया था.

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लौकडाउन के पहले दतिया के रेलवे स्टेशन पर आवारा पशुओं का जमावड़ा लगा रहता था. ये आवारा गायबैल मुसाफिरों के खानेपीने की चीजों पर झपट पड़ते थे. क‌ई बार इन आवारा जानवरों के अचानक रेलवे प्लेटफार्म पर दौड़ लगाने से बच्चों, औरतों और बुजुर्गों को चोट भी लग जाती थी.

होशंगाबाद जिले के गांव पचुआ में साल 2018 में चरनोई जमीन पर गांव के कुछ रसूख वाले किसानों ने कब्जा कर लिया, जिस के चलते गांव के आवारा पशु किसानों के खेतों में घुस कर  फसलों को नुकसान पहुंचाने लगे. इस बात को ले कर 2 पक्षों में विवाद हो गया, जिस से एक आदमी की मौत हो गई. दूसरे पक्ष के 2 लोग हत्या के आरोप में हवालात में बंद हैं.

पिछले कुछ सालों में देश के अलगअलग इलाकों में हुई ये घटनाएं बताती हैं कि हमारे देश में पशुओं की आवारगी लोगों के लिए मुसीबत का सबब बन गई है. किसानों की हाड़तोड़ मेहनत से उगाई गई फसल जब आवारा पशु चर लेते हैं तो वे मनमसोस कर रह जाते हैं. गांवकसबों में दबंगों के पाले पशु आवारा घूमते हैं और एससी और बीसी तबके की जमीन पर उगी फसल चट कर जाते हैं. दबंगों के खौफ से इन आवारा पशुओं को कोई रोकने की हिम्मत नहीं कर पाता.

क्या हैं कायदेकानून 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(ए) के मुताबिक हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना भारत के हर नागरिक का मूल कर्तव्य है. ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ और ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ में इस बात का जिक्र है कि कोई भी पशु सिर्फ बूचड़खाने में ही काटा जाएगा और बीमार तथा गर्भधारण कर चुके पशु को मारा नहीं जाएगा.

भारतीय दंड संहिता की धारा 428 और 429 के मुताबिक किसी पशु को मारना या अपंग करना, भले ही वह आवारा क्यों न हो, दंडनीय अपराध है. ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ के मुताबिक किसी पशु को आवारा छोड़ने पर 3 महीने की सजा हो सकती है. पशुओं को लड़ने के लिए भड़काना, ऐसी लड़ाई का आयोजन करना या उस में हिस्सा लेना संज्ञेय अपराध है.

‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ की धारा 22(2) के मुताबिक भालू, बंदर, बाघ, तेंदुए, शेर और बैल को मनोरंजक कामों के लिए ट्रेनिंग देने और मनोरंजन के लिए इन जानवरों का इस्तेमाल करना गैरकानूनी माना गया है.

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पीपुल्स फार एनीमल से जुड़े पत्रकार भागीरथ तिवारी बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जीने के मौलिक अधिकार के दायरे का विस्तार करते हुए इस में पशुओं को भी शामिल कर लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार बैलों को भी एक स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण में रहने का अधिकार है, उन्हें पीटा नहीं जा सकता. न ही उन्हें शराब पिलाई जा सकती है और न ही तंग बाड़ों में खड़ा किया जा सकता है.

हमारे देश की न्याय व्यवस्था भी दोहरे मापदंड वाली है. एक तरफ सुप्रीम कोर्ट कहती है कि आवारा पशुओं को भी खयाल रखो और अपनी फसलों को भी सहीसलामत रखो. व्यवहार में  यह कैसे संभव है? जमीनी हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के इलाकों में नीलगाय, सूअर और गाय, बकरी, भैंस जैसे आवारा पशुओं से फसल बचाने के लिए किसान खेतों में रतजगा कर रहे हैं.

आवारा पशुओं को किसान मार भी नहीं सकते, क्योंकि यह गैरकानूनी है. गांवों में खेती करने वाले छोटेछोटे किसानों के पास जो जमीन है, उस पर किसी बड़े फार्महाउस जैसे तार की फैंसिंग नहीं रहती. गरीब, बीसी और एससी पशुपालक अपने पालतू पशुओं को खुद चराने ले जाते हैं, पर ऊंची जाति के दबंगों के पशु बेखौफ आवारा घूमते हैं. देश का कानून भी उपदेशकों जैसे केवल उपदेश भर देता है.

एक दौर था जब पशुपालन किसानों के लिए आमदनी का जरीया हुआ करता था. लोग गायभैंस, बकरी पाल कर इन के दूध, घी, मक्खन को बेच कर घरपरिवार की जरूरतों की पूर्ति करते थे. बैल खेतीकिसानी के कामों में हल, बखर चलाते थे. बैलगाड़ी में किसान अपनी उपज मंडियों तक ले जाते थे. न‌ई तकनीक आने से अब खेती में कृषि उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ गया है. इस के चलते पशुपालन में अब किसानों की दिलचस्पी कम हो गई है. अब लोग पालतू पशुओं को दूध देने तक घर में रखते हैं, बाद में उन्हें आवारा छोड़ देते हैं. आजकल गांवकसबों में आवारा पशुओं के चलते फसलों की सुरक्षा एक बड़ी समस्या बन कर उभर रही है.

मौजूदा दौर में खेती में मशीनीकरण से गौवंश के बैल बेकार होने की बात तो समझ में आती है, लेकिन दूध देने वाली गाय के आवारा होने की बात समझ से परे है. गांवशहर से ले कर दिल्ली तक गौवंश की रक्षा की हिमायती सरकार होने के बावजूद भी आज तक पशुओं की आवारगी पर कोई ठोस नीतिनियम नहीं बन पाए हैं.

समस्या की जड़ है पाखंड

धर्म के ठेकेदारों ने गाय को ले कर जो अंधविश्वास और पाखंड फैलाया है, उसे मानने का खमियाजा भी तो समाज ही भुगत रहा है. कपोलकल्पित कथाओं के जरीए पंडेपुजारी लोगों को बताते हैं कि गाय के अंदर 33 करोड़ देवी देवता रहते हैं. जो पंडित को गाय दान में देते हैं, वे कितने ही पाप कर लें, सीधे स्वर्ग पहुंच जाते हैं.

बड़े-बड़े पंडालों में होने वाली कथाओं में बताया जाता है कि दान की गई गाय की पूंछ पकड़ कर स्वर्ग के रास्ते में पड़ने वाली एक वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है. इसी पाखंड की वजह से मध्य प्रदेश की एक महिला मुख्यमंत्री तो सड़क पर अपने काफिले को रोक कर गाय को रोटी खिलाती थीं. आखिर लोगों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि गाय को हरे चारे और भूसे की जरूरत रोटी से कहीं ज्यादा है.

समाजसेवी बृजेंद्र सिंह कुशवाहा कहते हैं कि गौहत्या की चिंता करने वालों को यह चिंता भी करना होगी कि गाय को माता मानने वाले लोग गाय को सड़कों पर मरने के लिए क्यों छोड़ देते हैं? वैसे तो गाय एक बहुपयोगी पशु है, उस के दूध को बहुत गुणकारी माना गया है और आज भी गांवदेहात में कई परिवारों की आजीविका का स्रोत गाय का दूध और उस से बने उत्पाद दही, मक्खन और घी हैं. गाय के गोबर से बने उपले गांवदेहात के लाखों घरों के चूल्हों का ईंधन बने हुए हैं, पर वर्तमान में गाय की बदहाली और अनदेखी भी किसी से छिपी नहीं है.

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गाय के नाम पर सरकारी अनुदान बटोरने वाले तथाकथित गौसेवक गाय का निवाला खा रहे हैं. आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज पशुधन से किसान भी विमुख हो रहे हैं. यही वजह है कि गाय जब तक दूध देती है, पशुपालक उस की सेवा करते हैं और जैसे ही गाय दूध देना बंद करती है तो पशुपालक उसे  सड़कों पर खुला छोड़ देते हैं. ऐसे ही लोगो की वजह से गाएं सड़कों पर आवारा घूमती कचरे के ढेर पर प्लास्टिक की पन्नी खाती नजर आती हैं.

मध्य प्रदेश के भोपालजबलपुर नैशनल हाईवे 12 पर आवारा घूमती गायों का समूह सड़क पर घूमता हमेशा नजर आता है. इन में से कुछ गाएं आएदिन ट्रक या दूसरी बड़ी गाड़ियों की चपेट में आ कर मौत का शिकार हो जाती हैं, तो कुछ जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो जाती हैं.

सड़कों पर घायल गायों की सुध लेने कोई नहीं आता. औसतन हर 10 किलोमीटर के दायरे में सड़क किनारे मरी पड़ी गाय की बदबू आनेजाने वालों का ध्यान खींचती है, पर किसी जिम्मेदार अफसर या नेता का ध्यान इस ओर नहीं जाता है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि गायों की खरीदफरोख्त करने वाले लोग इन गायों को साप्ताहिक लगने वाले एक बाजार से दूसरे बाजार में ट्रकों से ले जाते हैं. कई बार मवेशी बाजार में सही कीमत न मिलने के चलते ट्रांसपोर्ट का खर्चा बचाने या तथाकथित गौरक्षकों के डर से वे उन्हें दूसरे बाजार के लिए नहीं ले जा पाते. कुछ व्यापारी तो गाय के शरीर पर कलर से कोई मार्क बना कर उसे सड़क पर छोड़ देते हैं. अगले हफ्ते वही व्यापारी आ कर उनगायों की तलाश करते हैं और ज्यादातर गाएं उन्हें मिल भी जाती हैं, जिन्हे वे फिर से बाजार में खरीदफरोख्त के लिए ले जाते हैं. आवारा घूमती गायों की यह बदहाली गाय के नाम पर हायतोबा मचाने वाले गौरक्षकों को धत्ता बताती नजर आती है .

मरने-मारने पर उतारू 

गौसेवा का ढोंग करने वाले भगवाधारी घर में भले ही अपने मांबाप का खयाल न रखते हों, पर गौतस्करी करने वाले लोगों को पकड़ कर उन की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं.

28 अप्रैल, 2020 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के उदयपुरा में एक गाय का कटा सिर मिलने की खबर ने माहौल में जहर घोल दिया था. इस मामले में एक समुदाय विशेष की आलोचना से सोशल मीडिया प्लेटफार्म गरमाया हुआ था.

दरअसल, जिस इलाके में गाय का सिर मिला था, वह एक समुदाय विशेष का महल्ला था. इस वज़ह से यही कयास लगाया जाने लगा कि गाय का कत्ल कर के गौमांस निकाल कर सिर फेंका गया है. जब ऐसी घटनाओं से एक समुदाय गुस्से से भर दूसरे समुदाय पर लानतें भेजने लग जाए तो विश्वास का संकट खड़ा हो जाता है. गौहत्या और गौतस्करों पर सियासत करने वाले लोग मौका पाते ही हर घटना को सांप्रदायिक रंग देने से पीछे नहीं हटते हैं.

इस तरह की घटनाओं का दुखद पहलू यह भी है कि गौहत्या का विरोध कर के गुस्से में आ कर मरनेमारने पर उतारू लोग भीड़ तंत्र का हिस्सा तो बन जाते हैं, पर गायों की आवारगी पर बात नहीं करना चाहते.

हो रही हिंसा और चंदा वसूली  

मध्य प्रदेश में तो बाकायदा गौसेवा आयोग बना कर उस के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा भी दिया जाता है, पर प्रदेश में गायों की बदहाली गौसेवा आयोग के वजूद पर ही सवालिया निशान लगाती ही लगाती है.

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मध्य प्रदेश के कई शहरों में छोटीबड़ी दुकानों पर गाय की आकृति वाली प्लास्टिक की चंदा जमा करने वाली गुल्लक रखी रहती हैं, जिन में दुकान पर आने वाले ग्राहक चंदे के नाम पर कुछ रकम डालते हैं. ऐसे ही एक दुकानदार से सवाल करने पर बताया गया कि गौशाला चलाने वाली संस्थाओं के नुमाइंदे इन गुल्लकों को दुकान पर छोड़ जाते हैं और एक निश्चित समय पर उस की रकम को निकाल कर ले जाते हैं.

गौशाला चलाने वाले ज्यादातर लोग किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े होते हैं, जो स्वयंसेवी संस्था बना कर शासकीय अनुदान का जुगाड़ करने में माहिर होते हैं. सड़कों पर आवारा घूमती गायों और इन गुल्लकों को देख कर यह सवाल बरबस ही उठता है कि आखिर गौसेवा के नाम पर उगाहे जा रहे इस चंदे का इस्तेमाल कौन सी गायों की सेवा पर किया जाता हैं?

हालांकि कुछ ऐसी गौशालाएं आज भी हैं जो बिना चंदे या शासकीय अनुदान के प्रचार से कोसों दूर निर्बल और रोगी गायों की सेवा का काम कर रही हैं. पर बहुत से संगठन गौसेवा के नाम पर देश में हिंसा फैला रहे हेैं. गौरक्षकों की टोली आएदिन सड़कों पर गायों का परिवहन करने वाले ट्रकों को रोक कर ड्राइवर और क्लीनर से मारपीट कर उन से चौथ वसूली करने में भी पीछे नहीं रहती हैं.

सवाल यह भी उठता है कि सड़कों पर आवारा घूमती गायों को देख कर इन गौरक्षकों का खून क्यों नहीं खोलता? गौहत्या और गौमांस के मुद्दे पर कानों सुनी बातों पर मौब लिंचिंग पर उतारू इन भक्तों की भीड़ को सोचना होगा कि गाय को मां का दर्जा दे कर इस तरह सड़कों पर आवारा छोड़ना भी कोई धर्म नहीं है. गाय को आवारगी से मुक्त करा कर  उस के पालक बनने की पहल भी उन्हें करनी होगी.

चरनोई जमीन पर कब्जा 

पशु चिकित्सा क्षेत्र अधिकारी हरिहर बुनकर मानते हैं कि पशुओं की आवारगी की एक अहम वजह चरनोई जमीन का न होना भी है. चरनोई जमीन पर गांवकसबों के रसूख वाले लोगों ने कब्जा कर रखा है. सरकारी जमीन पर एससी और बीसी तबके द्वारा अपने परिवार का पेट पालने के लिए खेती करने पर पुलिस द्वारा पिटाई करती है, लेकिन दबंगों की दबंगई के आगे पुलिस और बड़े अफसरों को सांप सूंघ जाता है.

चरनोई जमीन न होने से पशु आवारा घूमते हैं और फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से क‌ई बार लड़ाई-झगड़े के हालात भी बन जाते हैं.

आवारा पशुओं की समस्या का समाधान केवल जुमलों से होने वाला नहीं है. इस के लिए सरकार को चरनोई जमीन को दबंगों के चंगुल से मुक्त कराना होगा. बीमार, लाचार, आवारा पशुओं को गौशालाओं में पहुंचा कर गांवकसबों में चरनोई जमीन का रकबा तय कर के और व्यावहारिक कानून बना कर आवारा पशुओं की समस्या से नजात मिल सकती है.

वन्य प्राणी “दंतैल हाथियों” की हत्या जारी

छत्तीसगढ़ में आए दिन वन्य प्राणी हाथियों को मारा जा रहा है. कभी जहर दे कर, अभी करंट से और कभी भूख प्यास से हाथी मारे जा रहे हैं. आज 28 सितंबर को सुबह सुबह छत्तीसगढ़ के गरियाबंद के “धवलपुर वन परीक्षेत्र” से एक हाथी के करंट से मारे जाने की दुखद खबर आई है.

दरअसल, छत्तीसगढ़ सरकार को दुर्लभ वन्य प्राणियों के संरक्षण की गंभीर पहल करनी चाहिए मगर जमीनी हालात यह है कि  बेवजह हाथी मारे जा रहे हैं,और हत्यारे साफ बच निकलते हैं. विपक्ष भाजपा नेता इस मसले पर निरंतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व वन मंत्री मोहम्मद अकबर को घेर रहे हैैं. सामाजिक कार्यकर्ता हाई कोर्ट तक अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं. मगर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही . अब स्थिति यह है कि आए दिन अखबारों में यह समाचार सुर्खियों में रहता है कि एक और हाथी मरा बिजली के कर्रेंट से……धरमजयगढ़ बना हाथियों का “मौतगढ़”….. बिजली करंट से प्रदेश में हुई मौतों में से आधी सिर्फ धरमजयगढ़ में!

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जबकि हकीकत यह है कि सरकार के कुंभकरणी  नींद के कारण वन विभाग और बिजली कंपनी में मिलीभगत से लगातार हाथी जैसे विशालकाय वन्य प्राणी  की मौत हो रही है. और सरकार का वन अमला सिर्फ कागजी खाना पुर्ती में लगा रहता है.

नर हाथी कैसे मारा गया?

छत्तीसगढ़ के जिला रायगढ़ के धरमजयगढ़ के  मेंढ़रमार गांव में बोर के लिए खींचे गए नंगे तार की चपेट में आने से हुई नर हाथी की मौत पर दुख व्यक्त करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता नितिन सिंघवी ने वन विभाग और बिजली कंपनी के अधिकारियों पर आरोप लगाया  है कि इन दोनों विभागों की मिलीभगत के कारण विलुप्ति के कगार पर खड़े मूक प्राणी “हाथियों” की मौतें हो रही है.

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छत्तीसगढ़ निर्माण के पश्चात बिजली करंट से प्रदेश में 46 हाथियों की मौतें हुई है, इनमें से 24 मौतें सिर्फ  जिला रायगढ़ के धर्मजयगढ़ वन मंडल में हुई है अर्थात बिजली से मरने वाले हाथियों में 52% अकेले धरमजयगढ़ में मरे हैं. छत्तीसगढ़ में अभी तक कुल 163 हाथियों की मौतें हुई है जिसमें से 46 हाथी बिजली करंट से मरे हैं.

हाईकोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ा रहे हैं विभाग

एक जनहित याचिका के बाद छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने आदेश जारी कर कहा था कि -“आंकड़े बताते हैं कि धरमजयगढ़ में बिजली करंट से सबसे ज्यादा मौतें हो रही हैं इसलिए वन विभाग के अधिकारी, राज्य शासन के अधिकारी और बिजली कंपनी के अधिकारी फोकस करेंगे कि धर्मजयगढ़ में अब एक भी हाथी की मौत बिजली करंट से नहीं हो।”

जबकि तथ्य बताते हैं कि एक भी अधिकारी हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने में तत्पर नहीं रहा है. नितिन संघवी बातचीत में बताते हैं- धरमजयगढ़ में हाथियों की मौत बिजली करंट से लगातार हो रही है, यह उच्च न्यायलय के आदेशों की अवमानना है.

मामले का वन विभाग वाले करते हैं रफा-दफा

एक प्रकरण का खुलासा यह है- धर्मजयगढ़ की छाल रेंज में 6 जून 2016 को एक मादा हथनी की मौत हो गई. इसके बाद वहां के वन परिक्षेत्र अधिकारी ने कनिष्ठ यंत्री विद्युत वितरण कंपनी एडु (चंद्रशेखरपुर) और सहायक यंत्री विधुत वितरण कंपनी खरसिया को नोटिस दिया की विधुत तारों के सुधार कार्य के लिए उसके पूर्व उनके द्वारा पांच पत्र लिखे जा चुके हैं. और 6 जून 2016 को 11000 वोल्टेज हाई टेंशन लाइन की चपेट में आने से मादा हथनी की मौका स्थल पर मृत्यु हो गई है .

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घटनास्थल पर विधुत लाइन के तीन तारों में से एक तार टूट कर जमीन पर गिरा और मृत हथिनी के शरीर से लगा था जिसमें प्रभावित विद्युतीकरण के कारण मादा हथनी की मौत हुई तथा उस क्षेत्र में जमीनों पर घास भी जले मिले.

विधुत लाइन खंबे में लगे 2 तारों की ऊंचाई घटनास्थल पर जमीन सतह से 3 मीटर की थी. यह जाहिर है कि जिस तार की चपेट से मादा हथनी की मृत्यु हुई वह तार भी कम ऊंचाई पर था इसलिए बिजली कंपनी के अधिकारियों पर वन प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 भारतीय दंड संहिता तथा विभिन्न अधिनियम के तहत क्यों ना कार्यवाही की जाए?

मामले को रफा-दफा करने के लिए, कुछ दिनों बाद उप-वनमंडलअधिकारी ने वन मंडलअधिकारी धर्मजयगढ़ को पत्र लिखा की बिजली कंपनी वालों ने ग्रामीणों और सरपंच के साथ घटनास्थल का मुआयना किया.हथिनी के सूंड में फंसी पत्तियों को देखकर ग्रामीणों ने कहा कि संभवत: हथिनी ने समीपस्थ वृक्ष की पत्तियों को तोड़ने के लिए अपनी सूंड ऊपर उठाई होगी. जिससे सूंड का  संपर्क 11kv लाइनों के तार से हो गया होगा.अन्यथा सामान्य तौर पर लाइनों की ऊंचाई पर्याप्त थी. ग्रामवासियों और सरपंच ने बताया कि हथिनी द्वारा विद्युत खंभे से छेड़छाड़ की गई है.  उप वनमंडलअधिकारी ने वन मंडलाधिकारी को लिखा कि यह  एक दुर्घटना प्रतीत होती है. इस प्रकार बिना जाँच किये बिजली कंपनी, ग्रामवासियों और सरपंच के बयानों  के आधार पर  मामला रफा-दफा कर दिया गया जब कि खुद वन विभाग ने उस इलाके में बिजली तारों को ऊँचा करने के लिए कई पत्र लिख रखे थे. सामाजिक कार्यकर्ता सिंघवी ने बताया कि इस प्रकरण की मुख्यालय में शिकायत करने के बाद भी मुख्यालय के अधिकारियों द्वारा कोई जांच भी नहीं की गई है.

दस्तावेज पर कुंडली मारे बैठे

6 जून 2016 को जो मादा हथनी मरी थी, उसके संबंध में जारी नोटिस के और जवाब कोई सार्वजनिक  नहीं करना चाहता. तब के तत्कालीन डीएफओ ने यह कहकर सूचना नहीं दी कि आपको जानकारी दे देंगे तो आप अपराधियों को पकड़ने और अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन डाल सकते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता सिंघवी ने वन विभाग के अधिकारियों की इस शर्मनाक सोच को दुर्भाग्य पूर्ण बताते हुए कहा कि अगर उस वक्त वो जवाब की प्रति दी देते तो बिजली कंपनी के अधिकारियों को बचा नहीं पाते.इससे स्पष्ट होता है कि वन विभाग के अधिकारी बिजली कंपनियों के अधिकारियों को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.

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हाथियों के मृत्यु  प्रकरण में क्या कार्यवाही हुई?

सिंघवी ने बताया कि वन विभाग के मुख्यालय ने डीएफओ धरमजयगढ़ से पूछा गया कि उनके क्षेत्र में विधुत करंट से मरे  हाथियों के प्रकरण में क्या-क्या कार्रवाई की गई हैं? तो जवाब में डीएफओ ने बताया कि 18 जून 2020 तक 23 हाथियों की मौत हुई है जिसमें से  11 मौतों के मामले में वह परिक्षेत्र अधिकारी से जानकारी ले करके बताएंगे. सिंघवी ने कहा कि वन विभाग के अधिकारी हाथियों की मौत को लेकर के चिंतित ही नहीं है और उन्हें पता ही नहीं कि हाथियों की मौत बिजली करंट से होने के बाद में दोषियों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की गई. नितिन

सिंघवी ने भूपेश बघेल सरकार से मांग की है कि हाथी विचरण इलाके के वनग्रामो में बोर और खेतों में जा रहे तारों को वन विभाग चिन्हित करे और सभी तारों को कवर्ड कंडक्टर के बदलने के लिए बिजली कंपनी को दे. बिजली कंपनी अपने वित्तीय संसाधनों से कवर्ड कंडक्टर लगाए और वन क्षेत्रों में बिजली तारों की ऊंचाई बढ़ाएं. छत्तीसगढ़ के संदर्भ में कहा जा सकता है कि हाईकोर्ट , विपक्ष भाजपा और विधानसभा में मामले उठने के बाद भी भूपेश बघेल सरकार आंखों में पट्टी बांधकर सो रही है.

पुलिस का संरक्षण, हुक्का बार परवान चढ़ा!

छत्तीसगढ़ में प्रतिबंध के बावजूद हुक्का “बार बार” सरकार और प्रशासन के द्वारा रोके नहीं रुक रहा है. प्रदेश की बड़ी बड़ी होटलों में सफेदपोश हाथों के संरक्षण तले यह खेल बिना रुके अविराम चल रहा है. और औपचारिकता वश पुलिस प्रशासन कार्रवाई करता है फिर कुंभकरण नींद में सो जाता है. जबकि यह सबको पता है कि भूपेश बघेल सरकार ने प्राथमिक रूप से इसे गंभीरता से लेकर पूर्णरूपेण प्रतिबंध लगा दिया है. और कानून सख्त रूप से बनाकर प्रशासन को यह जिम्मेदारी दे दी है कि प्रदेश में हुक्का बार कतई नहीं चलना चाहिए. मगर कागजों में, और हकीकत में, जैसा  अंतर होता है यहां भी वही हालो हवाल है.

कोरोना वायरस के समय में जब छत्तीसगढ़ के अधिकांश शहर लाक डाउन हैं हुक्का बार चल रहे हैं . राजधानी रायपुर में 22 सितंबर की रात को पुलिस ने बारंबार शिकायत के बाद एक बड़ी होटल में कार्रवाई की और यह प्रदर्शित किया कि पुलिस हुक्का बार पर कार्रवाई कर रही है. पुलिस के अनुसार

संपूर्ण लॉकडाउन के दूसरे दिन देर रात हुक्का बार में दबिश देकर 28 युवाओं को धड़ल्ले से बेखौफ होकर कर धुआं उड़ाते पकड़ा है-

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बता दें कि मामला सिविल लाइन, रायपुर थाना क्षेत्र का है. जहां ब्लू स्काई कैफे में छुप-छुप युवाओं के पहुँचने की सूचना पुलिस चेकिंग पोईँट में मिली थी, जिसके आधार पर पुलिस नगर पुलिस अधीक्षक नसर सिद्दीकी के नेतृत्व में पुलिस ने रेड की कार्रवाई की जहाँ से 28 युवाओं को हुक्का पीते हुए पकड़ा गया .पुलिस ने पकड़े गए युवाओं के विरुद्ध भा. द. वि. की धारा 269 ,270 के साथ कोटपा एक्ट के तहत कार्रवाई की.

सभी बड़े  शहरों की यही कहानी

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर सहित बिलासपुर, रायगढ़,  दुर्ग आदि शहरों  में धड़ल्ले से जगह-जगह संचालित हो रहे हुक्का बार पर पहले ही कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार लगाम कसने की औपचारिकता पूरी कर चुकी है. कैफे, रेस्टोरेंट, होटल के नाम पर चल रहे हुक्का बार में युवक-युवतियों, महिलाओं के साथ बच्चों को प्रवेश दिए जाने का मामला विधानसभा  में उठने के बाद सरकार की ओर से गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू ने रोक लगाने के लिए कानून बनाने के साथ छापामार कार्रवाई करने की घोषणा कर मामले को शांत करा दिया था. मगर हुआ क्या ? आने वाले दिनों में अवैध हुक्का बारों पर सख्त कार्रवाई करने के संकेत पुलिस अफसरों ने दिये थे बीते एक साल में  अनेक हुक्का बार पर छापामार कार्रवाई की गई है. मतलब यह कि कानून बन जाने के बाद भी कानून का भय है हुक्का बार संचालकों को होटल वालों को नहीं है?

शहर और आउटर इलाके में संचालित हुक्का बार की पड़ताल करें तो  पायेंगे  होटल, रेस्टोरेंट, क्लब, मॉल में  हुक्का बार  चल रहे हैं. इसके लिए कानून का कोई  अवरोध, भय नहीं  है. धूम्रपान और नशे वाली जगहों पर नाबालिगों को प्रवेश नहीं दिए जाने के आबकारी विभाग के  निर्देश हैं. बावजूद इसके अलग-अलग फ्लेवर के तंबाकू हुक्के में डालकर परोसा जा रहा है.  और पुलिस बहुत दबाव के बाद ही नाम मात्र की कार्रवाई कर रही है.

कानून है, कानून का राज नहीं है

नशाखोरी पर लगाम लगाने के लिए छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार  ने बड़ा निर्णय लिया . राज्य सरकार ने प्रदेश भर में संचालित हुक्का बार को बंद करने का निर्णय लिया . मुख्यमंत्री निवास में आनन-फानन में कैबिनेट की बैठक कर प्रदेश के सभी हुक्का बार को कड़ाई से बंद कराने का निर्णय लिया गया . बैठक के बाद वरिष्ठ मंत्री मोहम्‍मद अकबर ने मीडिया से चर्चा में इसकी पुष्टि की. मंत्री अकबर ने कहा कि सरकार अब कड़ाई से सभी हुक्का बारों को बंद कराएगी. हुक्का बार की चपेट में युवा वर्ग आ रहा है, जिसके बाद सरकार ने इसको बंद करने का निर्णय लिया है.  मगर सरकार के बड़ी-बड़ी बातों के बाद भी कानून बनाए जाने के बाद भी, अगरचे छत्तीसगढ़ में “हुक्का बार” चल रहा है तो आखिर दोषी कौन है? और  लाख टके का सवाल यह है कि छत्तीसगढ़ को पंजाब के रास्ते पर ले जाकर, यहां के युवाओं को नशे का आदी कौन बनाना चाहता है.

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युवाओं को बर्बाद कौन करना चाहता है?

छत्तीसगढ़ अंचल के सामाजिक कार्यकर्ता इंजीनियर रमाकांत कहते हैं- कोरोना समय में जिस तरीके से राजधानी रायपुर में होटल में 28 युवा हुक्का बार में पुलिस द्वारा धर दबोचे गए हैं उससे यह सिद्ध हो जाता है कि हुक्का बार बड़े मजे से चलाए जा रहे हैं और कानून का भय किसी को नहीं है.

दो सौ से लेकर बारह सौ का हुक्का, बार में  सहजता से  मिलता है .अलग-अलग फ्लेवर के हुक्के की कीमत अलग-अलग है.  कॉलेज के छात्र, बड़े घरों के युवक-युवती, नाबालिग आदि इनके शौकीन हैं. इन्हें आदी बनाया जा रहा है और जैसा कि मालूम है बाद में इन युवाओं का अपराधिक व अन्य गतिविधियों में उपयोग किया जाता है.

यहां उल्लेखनीय है कि सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम 2003 (सीओटीपीए) के अंतर्गत 23 मई 2017 को केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी कर हुक्के के उपयोग पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा रखा है. गुजरात समेत कई राज्यों में इस तरह का काम करने वालों को तीन साल की जेल हो रही है. पंजाब में धारा 144 के तहत कार्रवाई भी की जा रही है. छत्तीसगढ़ में कानून होने के बाद भी हुक्का बार युवाओं का जीवन बर्बाद कर रहा है. पहले तो सिर्फ कानून की आंखों में पट्टी बंधी रहती थी मगर अब लगता है कि पुलिस और जनप्रतिनिधियों की आंखों में भी पट्टी बंध गई है.

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दक्षिण अफ्रीका के खेल वैज्ञानिक श्यामल वल्लभजी कर रहे हैं प्रीति जिंटा की तारीफ, पढ़ें खबर

दक्षिण अफ्रीका के खेल वैज्ञानिक, सेलिब्रिटी कोच और ‘ब्रीथ बिलीव बैलेंस’ पुस्तक के लेखक श्यामल वल्लभजी (Shayamal Vallabhjee) इंडियन प्रीति जिंटा (Preity Zinta) की तारीफ करते हुए नहीं थक रहे हैं. मजेदार बात यह है कि वह प्रीति जिंटा (Preity Zinta) की तारीफ उस वक्त कर रहे हैं जबकि आईपीएल के क्रिकेट मैचों की शुरुआत हो चुकी है. वह यह भी मानते है कि इनके पास प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन की योजना है तथा उनका सर्वश्रेष्ठ आना अभी बाकी है.

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जी हां! दक्षिण अफ्रीका के खेल वैज्ञानिक वल्लभजी (Shayamal Vallabhjee) ने कहते हैं “मुझे  प्रीति  जिंटा की कार्यशैली बहुत अच्छी लगी. मैंने उनकी टीम और उनकी ताकत जानने में उनके शोध की गहराई की प्रशंसा की है. मेरे लिए किंग्स इलेवन के साथ काम करना एक शानदार अनुभव था.

सहवाग, हॉज, गेल, अश्विन, वेंकटेश प्रसाद और अन्य से सीखना अविश्वसनीय था. उन्होंने मुझे खेल मनोविज्ञान में नए विचारों और दृष्टिकोण का परीक्षण करने का अवसर दिया.  मुझे लगता है कि एक मंच के रूप में आईपीएल में प्रदर्शन के मामले में वृद्धि की उल्लेखनीय क्षमता है. क्योंकि हमने अभी तक कुछ विज्ञानों की सतह को खरोंचने की शुरुआत नहीं की है. जो शिखर प्रदर्शन की ओर ले जाते हैं – नींद विश्लेषण, द्रव निगरानी, बायोमैकेनिक्स, उपकरण संशोधन, मनोविज्ञान जैसे विज्ञान, मांसपेशी शरीर क्रिया विज्ञान और अधिक.”

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झाड़ – फूंक और ‘पागल’ बनाने वाला बाबा!

आज भी 21 वी शताब्दी के इस समय में झाड़-फूंक तंत्र मंत्र पर लोग आस्था रखते हैं और अनपढ़ बाबाओं के चक्कर में आकर अपनी अस्मत, पैसे दोनों लुटा बैठते हैं. छत्तीसगढ़ आदिवासी ग्रामीण बाहुल्य प्रदेश है और यहां जागरूकता के अभाव में यही खेल चल रहा है. सरकार और समाज को जागरूक करने वाले चुनिंदा लोग प्रयासरत है. मगर यह सब ऊंट के मुंह में जीरे के समान है. छत्तीसगढ़ में घटित कुछ मामले ऐसे रहे हैं-

पहला मामला-

जिला कवर्धा कबीरधाम में एक महिला एक तंत्र मंत्र के साधक के चक्कर में पड़कर अपनी इज्जत गंवा बैठने के बाद होश में आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी परिजनों ने घर से निकाल दिया महिला ने आत्महत्या कर ली.

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दूसरा मामला-

सरगुजा के अंबिकापुर में एक एक शिक्षित महिला तंत्र-मंत्र के चक्कर में पड़कर लाखों रुपए लुटा बैठी बाद में पुलिस ने तांत्रिक को गिरफ्तार किया.

तीसरा मामला-कोरबा जिला के कदौरा थाना अंतर्गत ग्राम रामपुर में एक तांत्रिक आया और महिलाओं को तंत्र मंत्र के नाम ठगने लगा गांव के जागरूक लोगों ने तांत्रिक को पकड़कर उस की पोल खोल दी और पुलिस के हवाले किया.

एक नाबालिक की दास्तां

छत्तीसगढ़ के न्यायधानी बिलासपुर में‌ “झाड़फूंक” के नाम पर नाबालिग से दुष्कर्म करने वाले आरोपी बाबा को पुलिस ने आखिरकार दबोच लिया है. जैसे ही उसके खिलाफ दुष्कर्म का मामला दर्ज हुआ उसे पता चला कि मेरे खिलाफ अपराध दर्ज हो गया है आरोपी बाबा अपने ठिकाने से फरार हो गया, और लगातार बिलासपुर जिले के अलावा पड़ोसी चांपा जांजगीर जिले के गांव में जाकर अपना ठिकाना बना ले रहा था. जगह लगातार बदल रहा था. पुलिस भी तत्परता पूर्वक पुलिस  टीम  बना जांच में जुटी थी. लोकेशन ट्रेस करने पर आरोपी का पता चला. इसके बाद कोटमी सोनार, जिला चांपा जांजगीर में  घेराबंदी कर कथित बाबा को गिरफ्तार किया गया.

बताते हैं कि यह बाबा झाड़-फूंक के नाम पर कथित रूप से नाबालिक लड़कियों पर निगाह रखता था और उनका अध्यक्षता करने में यकीन रखता था जाने कितने लोगों की अस्मत के साथ खेलने वाला या बाबा आज जेल के सीखचों कों के पीछे है.

पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया कि यह घटनाक्रम जुलाई 2019 का है जब  तबीयत खराब रहने पर नाबालिग अपने परिजनों के साथ बलौदा, जांजगीर-चांपा स्थित सैय्यद मीरा अली दातार मजार में झाड़ फूंक कराने पहुंची थी, यहां पर आरोपी ने नाबालिग को “झाड़ फूंक” कर जल्दी ठीक हो जाने की बात कहकर विश्वास में लिया और ग्राम लुतरा, जिला बिलासपुर में डरा धमका कर करीब एक महीने तक इलाज के नाम पर उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता रहा उसका दैहिक शोषण करता रहा. जब नाबालिक लड़की विरोध करती तो किसी परिजन को बताने पर झाड़ फूंक कर “पागल” करने की धमकी दिया करता था तथा परिवार को बदनाम करने एवं जान से मारने की धमकी भी देता रहा, जिससे पीड़िता डर कर दुष्कर्म की बात किसी को नही बताने में अपना भला समझ रही थी.

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तन पिपासु बाबा!

कुछ समय बाद  जब वह अपने घर ले जायी गई तब  “आरोपी” उसके घर में आकर झाड़ फूंक करने के बहाने मौका पाकर शारीरिक शोषण करता रहा.

अंततः हिम्मत कर पीडिता ने बाबा का संपूर्ण चरित्र और घटना के बारे में अपने परिजनों को बताया, जिसके बाद परिजनों ने उसकी खूब पिटाई की तो वह भाग खड़ा हुआ परिजनों ने थाना में आरोपी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. जिस पर आरोपी के विरूद्ध छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिला के थाना सीपत में अपराध कमांक 396/2020  धारा 376,506 भादवि व 4, 6 पोक्सो एक्ट के तहत अपराध पंजीबद्ध किया गया. ऐसे बाबाओं की दस्तान  को जानने समझने वाले और मामले के गंभीरता को महसूस करते हुए थाना प्रभारी जे.पी. गुप्ता ने बाबा को जेल के सीखचों में भेजने के लिए एक टीम गठित कर आरोपी का खोजबीन प्रारंभ कराई. मगर आरोपी अपने ठिकाने से फरार हो गया. आरोपी का मोबाईल नंबर प्राप्त कर साईबर सेल के माध्यम से लोकेशन पता किया गया जो आरोपी जगह बदल-बदल कर अलग-अलग गांव में छिप रहा था तथा भागने के फिराक में था, जिसे कोटमी सोनार जिला चांपा जांजगीर के पास के गांव से घेराबंदी कर पकड़ा गया. आरोपी शाकीर अंसारी बाबा उर्फ हब्बू मौलवी से पूछताछ करने पर उसने बालिका के साथ अपराध घटित करना स्वीकार किया. आरोपी को गिरफ्तार कर न्यायायिक रिमाण्ड पर  जेल भेजा गया है.

मूर्तियों की स्थापना, पैसों की बरबादी

आज से तकरीबन 600 साल पहले कबीरदास ने अपने एक दोहे में कहा था :

पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार,

याते तो चाकी भली पीस खाए संसार.

जब विज्ञान का आविष्कार नहीं हुआ था, तब कबीर ने मूर्तिपूजा करने वाले अंधभक्तों को चेताया था कि पत्थरों की मूर्ति पूजने से कभी भगवान नहीं मिलता. ऐसी मूर्तियों से तो पत्थर से बनी चक्की ज्यादा उपयोगी है, जिस में पीसा गया आटा लोगों के पेट भरने के काम आता है.

अफसोस मगर आज की सभ्य, शिक्षित और वैज्ञानिक सोचसमझ वाली पीढ़ी भी कबीर की इन बातों को मानने तैयार नहीं है.

दरअसल, जब हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान की दुहाई देने वाले सरकार के जिम्मेदार मंत्री देश में जगहजगह ऊंचीऊंची मूर्तियां बनवाने और मंदिरमसजिद के निर्माण को ही देश का विकास मानते हों, वहां जनता का ऐसा  अनुसरण करना गलत भी नहीं है. जब देश के वैज्ञानिक चंद्रयान की कामयाबी के लिए मंदिरों में हवनपूजन करते हों, जहां राफेल विमान पर नीबू लटका कर नारियल फोड़े जाते हों, वहां जनता का अंधविश्वासी होना लाजिमी है.

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भारत जैसे विकासशील देश में अंधविश्वास की जड़ों में मठा डालने का काम पंडेपुजारियों द्वारा बखूबी किया जा रहा है,क्योंकि उन की रोजीरोटी बिना मेहनत के इसी तरह के पाखंडी कामों के दम पर चल रही है.

हमारे देश में गरीबी के हालात ये हैं कि आबादी का बड़ा तबका दो वक्त की रोटी मुश्किल से जुटा पाता है, लेकिन पंडेपुजारियों द्वारा धर्म का डर दिखा कर  धार्मिक आडंबरों के लिए लोगों को पैसे खर्च करने मजबूर किया जाता है.  दुर्गा पूजा और गणेश उत्सव पर देश के गलीमहल्ले में मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. 9-10 दिन चलने वाले इन उत्सवों पर कई लाख रुपए तक लुटाए जाते हैं. 10,000 रुपए से ले कर 50,000 रुपए की लागत इन मूर्तियों के निर्माण में आती है. 10 दिन बाद उन्हीं मूर्तियों को नदीतालाबों में बहा दिया जाता है.

एक तरफ देश में कोरोना से लड़ने के लिए औक्सीजन और‌ वैंटिलेटर की कमी का रोना रोया जाता है, वहीं दूसरी तरफ छोटे गांवकसबों और शहरों में करोड़ों रुपए इन मूर्तियों पर पानी की तरह बहा दिए जाते हैं. महंगी मूर्तियां बनवा कर उन्हें नष्ट कर देना पैसे की क्रिमिनल बरबादी है.

इस पैसों की बरबादी में उन पंडों की भूमिका रहती है जो खुद कोई  कामधाम करते नहीं हैं, केवल जनता को पूजापाठ में उलझा कर खूब दानदक्षिणा बटोर कर मुफ्त की रोटियां तोड़ते हैं.

चंदे से मौजमस्ती

गणेशोत्सव और दुर्गोत्सव पर बड़ीबड़ी मूर्तियों की स्थापना के लिए पंडेपुजारियों के इशारों पर चंदे का कारोबार चलता है. आम आदमी पर इन पंडों के एजेंट चंदे के लिए भी दबाव डालते हैं. क‌ई कसबों और छोटे शहरों में तो रोड पर बैरियर लगा कर रोड से निकलने वाले गाड़ी मालिकों से जबरन चंदा वसूली की जाती है. चंदा न देने पर उन से बदसुलूकी करने के साथ गाड़ियों में तोड़फोड़ कर नुकसान पहुंचाया जाता है.

पंडालों में मूर्ति स्थापित होने के बाद पूजा करने आने के लिए भी दबाब डाला जाता है. जो आनाकानी करता है उस का हुक्कापानी बंद कर सामाजिक बहिष्कार किया जाता है. गरीब, एससीबीसी तबके के लोग इन दबंगों से लड़ नहीं सकते तो मजबूरी में इन से तालमेल बना कर अपना पेट काट कर मूर्ति बनाने के लिए चंदा देते हैं और नदियों में बहाने के समय ढोलनगाड़ों का खर्च भी.

गरीबों की खूनपसीने की गाढ़ी कमाई से दबंगों के लड़के और बेरोजगार घूम रहे लड़के शराब के नशे में ढोलनगाड़ों और डीजे की धुन पर नाच कर मौजमस्ती करते हैं. बाद में चंदे के हिसाबकिताब को ले कर लड़ाईझगड़े की नौबत आ जाती है.

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साल 2019 में नरसिंहपुर जिले के गांव पिठवानी में चंदे की रकम के खर्च करने को ले कर एक नौजवान की हत्या समिति के दूसरे लड़कों ने कर दी थी. चंदा देने में सब से ज्यादा दिक्कत गरीब एससी तबके को होती है, क्योंकि मूर्तियां स्थापित करने के लिए दलितों से चंदा तो वसूला जाता है, पर उन्हें छुआछूत की वजह से पंडालों में घुसने के बजाय दूर से ही दर्शन करने का उपदेश दिया जाता है.

इस तरह के धार्मिक आयोजनों में होने वाले पाखंड का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर तो नवरात्रि में कन्या पूजन का ढोंग किया जाता है, दूसरी ओर देवी दर्शन के लिए सड़कों पर निकली लड़कियों के साथ खुलेआम छेड़छाड़ की जाती है.

प्रदूषण की वजह

मूर्ति स्थापना की ये दकियानूसी परंपराएं समाज को आर्थिक रूप से खोखला तो कर ही रही हैं, पर्यावरण के लिए भी ख़तरा बन रही हैं. दुर्गा उत्सव, गणेशोत्सव, मोहर्रम जैसे त्योहार पर बनाई जाने वाली मूर्तियां और ताजिया नदियों, तालाबों को प्रदूषित करने का काम कर रहे हैं.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मूर्ति विसर्जन के लिए गाइडलाइंस जारी तो की हैं, पर उन का पालन हर कहीं नहीं हो रहा है. वैसे, देश में अब कहीं भी प्लास्टिक, प्लास्टर औफ पैरिस, थर्मोकोल जैसी चीजों से बनी हुई मूर्तियों के नदी, जलाशयों में विसर्जन की इजाजत नहीं है.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने बहुत साफतौर पर देश में पर्यावरण के अनुकूल तरीके से मूर्ति विसर्जन के लिए अपनी गाइडलाइंस में कई संशोधन किए हैं और देवीदेवताओं की मूर्तियां प्लास्टिक थर्मोकोल, प्लास्टर औफ पैरिस से बनाने पर रोक लगा दी है.

सीपीसीबी ने मूर्ति विसर्जन के संबंध में अपने पुराने 2010 के दिशानिर्देशों को विभिन्न लोगों की राय जानने के आधार पर संशोधित किया है. सीपीसीबी ने अपनी नए गाइडलाइंस में खासतौर पर प्राकृतिक रूप से मौजूद मिट्टी से मूर्ति बनाने और उन पर सिंथैटिक पेंट और रसायनों के बजाय प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल पर जोर देने की बात कही है.

लेकिन प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडलाइंस का पालन अंधभक्तों द्वारा कहीं नहीं किया जा रहा. देश में हर साल गणेश चतुर्थी और दशहरा जैसे उत्सवों के दौरान मूर्ति विसर्जन से जलाशय और नदियां प्रदूषित हो जाती हैं. ये मूर्तियां आमतौर पर पारंपरिक मिट्टी के बजाय रसायनिक चीजों की बनाई जाती हैं.

मूर्ति विसर्जन से जलाशयों के प्रदूषण पर अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के एक अध्ययन के बारे में ‘द वायर’ में सुभाष गाताडे का एक आलेख छपा था.

अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के मुताबिक मोटे आकलन के हिसाब से अकेले महाराष्ट्र के तकरीबन 2 करोड़ परिवारों में से एक करोड़ परिवार गणेश की मूर्ति स्थापित करते हैं. घरों में स्थापित ये छोटी मूर्तियां आमतौर पर डेढ़ फुट ऊंची, डेढ़ किलो वजन की होती हैं.

इस का मतलब हर साल औसतन डेढ़ करोड़ किलो ‘प्लास्टर औफ पैरिस सैकड़ों टन रंगों के साथ जलाशयों में पहुंचता है और औसतन 50 लाख किलो फूलमाला आदि को भी पानी में बहाया जाता है. इस तरह नदियां, तालाब, नहरें, झरने, कुएं आदि विभिन्न किस्म के जलाशय प्रदूषित होते रहते हैं.

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समिति के लोग अपनी प्रचार मुहिम में लोगों को याद दिलाते हैं कि आज की तारीख में ज्यादातर मूर्तियां प्लास्टर औफ पैरिस से (जो पानी में घुलता नहीं हैं) बनी होती हैं, जिन्हें पारा जैसे खतरनाक रासायनिक चीजों से बने रंगों से रंगा जाता है. अगर ऐसा पानी कोई इनसान इस्तेमाल करें तो उसे कैंसर हो सकता है या उस का दिमागी विकास भी रुक सकता है.

नदियों का दूषित पानी केवल इनसान ही नहीं ,जलीय जीवों, मछलियों और दूसरे प्राणियों के लिए मौत की सौगात बन कर आता है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी उत्सवों के दिनों में नदियों के दम घुटने की बात  की है. नदियों के पानी पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि हर साल नवरात्रि के बाद यमुना, गंगा, नर्मदा, हुगली जैसी बड़ी नदियों में प्रदूषण बढ़ जाता है. बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक सामान्य काल में पानी में पारे की मात्रा तकरीबन न के बराबर होती है, लेकिन उत्सवों के काल में वह अचानक बढ़ जाती है.

और भी हैं वजहें

नदियों को प्रदूषित करने में धार्मिक कर्मकांड की भूमिका ज्यादा है. मर चुके लोगों की अस्थियों से ले कर, मंदिरों में रोजाना चढ़ाई जाने वाले सामग्री भी नदियों में विसर्जित की जाती है. धार्मिक पर्वत्योहारों पर इन नदियों के घाट पर स्नान और पूजापाठ के  बहाने नारियल, अगरबत्ती, प्रसाद और पौलीथिन का कचरा खुलेआम घाटों पर देखा जा सकता है. मर चुके लोगों के कर्मकांड के लिए नदियों के तटों पर होने वाले मुंडन से निकले बाल और भंडारे में इस्तेमाल होने वाली डिस्पोजल सामग्री भी प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है. आजकल नदियों के पानी में अपनी गाड़ियां धोने का काम भी होने लगा है.

पानी के संकट की आहट सुनाई देने लगी है. जल स्रोतों के लगातार दोहन से छोटीछोटी नदियां सूखने लगी हैं. रेत के उत्खनन ने भी नदियों की सेहत को नुकसान पहुंचाया है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम नदियों को प्रदूषण से बचाएं ताकि आने वाले समय में पानी के संकट का सामना करने से बच सकें.

कोरोना वायरस का संक्रमण जिस ढंग से बढ़ रहा है और सरकार ने अनलौक के बहाने अपने हाथ खींच लिए हैं, ऐसे समय में हमें भी वर्तमान हालात से सबक लेने की जरूरत है. जो रुपएपैसे हम मूर्तियां बनवाने और पानी में बहाने में खर्च कर रहे हैं, वही पैसा अपने बच्चों की पढ़ाई और अपने परिवार को कोविड 19 के संक्रमण से बचाने में खर्च कर समझदारी का परिचय दे सकते हैं.

पंडेपुजारियों के बहकावे में न आ कर ठंडे दिमाग से सोचें कि जब लौकडाउन हुआ था तो मंदिरों के दरवाजे बंद थे और कोई भी आप की मदद के लिए आगे नहीं आया था. धर्म के इन्हीं ठेकेदारों के दबाव में सरकार ने भले ही मूर्तियां स्थापित करने की छूट दे दी है, पर आप के परिवार की सुरक्षा और पैसों की बरबादी के लिए इस भेड़चाल से बचने की जरूरत है.

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