कहता है कि लड़की की तनख्वाह को ही दहेज समझ लो. भला, ऐसे कैसे समझ लें? हम ही क्या, और भी कोई समझने को तैयार नहीं है, तभी तो अभी तक माया कुंआरी बैठी है.’’
‘‘और विद्याधर भी, आप को बहू की सख्त जरूरत है मांजी, तो एकमुश्त रकम का लालच छोड़ कर क्यों नहीं दोनों का ब्याह कर देतीं?’’ मनोरमाजी ने तल्ख हुए स्वर को भरसक संयत रखते हुए कहा, ‘‘माया की तनख्वाह तो हर महीने घर ही में आएगी.’’
‘‘हमें एकमुश्त रकम का लालच अपने लिए नहीं, बिरादरी में अपना मानसम्मान बनाए रखने के लिए है,’’ विद्याधर के पिता पहली बार बोले, ‘‘हमारा श्रीपंथ संप्रदाय एक कुटुंब की तरह है. इस संप्रदाय के कुछ नियम हैं जिन का पालन हम सब को करना पड़ता है. जब हमारे समाज में लड़की के दहेज की राशि निर्धारित हो चुकी है तो शंकरलाल कैसे उसे कम कर सकता है और मैं कैसे कम ले सकता हूं?’’
‘‘यह तो सही कह रहे हैं आप,’’ मनोज बोला, ‘‘लेकिन संप्रदाय तो भाईचारे यानी जातिबिरादरी के लोगों की सहायतार्थ बनाए जाते हैं लेकिन मांजी की गठिया की बीमारी को देखते हुए भी कोई उन्हें बहू नहीं दिलवा रहा?’’
‘‘कैसे दिलवा सकते हैं मनोज बाबू, कोई किसी से जोरजबरदस्ती तो कर नहीं सकता कि अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे से करो?’’
‘‘और जो आप के बेटे से करना चाहते हैं जैसे शंकरलालजी तो उन की बेटी से आप करना नहीं चाहते,’’ मनोज ने चुटकी ली.
‘‘क्योंकि मुझे समाज यानी अपने संप्रदाय में रहना है सो मैं उस के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकता. आज मजबूरी से मैं शंकरलाल की कन्या को बहू बना लाता हूं तो कल को तो न जाने कितने और शंकरलाल-शंभूदयाल अड़ जाएंगे मुफ्त में लड़की ब्याहने को और दहेज का चलन ही खत्म हो जाएगा.’’
‘‘और एक कुप्रथा को खत्म करने का सेहरा आप के सिर बंध जाएगा,’’ मनोरमाजी चहकीं.
‘‘तुम भी न मनोरमा, यहां बात विद्याधर की शादी की हो रही है और सेहरा तुम चाचाजी के सिर पर बांध रही हो,’’ मनोज ने कहा, ‘‘वैसे चाचाजी, देखा जाए तो सौदा बुरा नहीं है. माया को बहू बना कर आप को किस्तों में निर्धारित रकम से कहीं ज्यादा पैसा मिल जाएगा और मांजी को आराम भी और आप को समाजसुधारक बनने का अवसर.’’
‘‘हमें नेता या समाजसुधारक बनने का कोई शौक नहीं है. हमारा श्रीपंथ संप्रदाय जैसा भी है, हमारा है और हमें इस के सदस्य होने का गर्व है,’’ मांजी बोलीं, ‘‘आप अगर हमारी सहायता करना ही चाह रहे हो तो विद्याधर को तरक्की दिलवा दो, तुरंत निर्धारित दहेज के साथ शादी हो जाएगी और इस भरोसे से कि इस की शादी में तो पैसा मिलेगा ही, इस के पिताजी ने इस की बहन की शादी के लिए जो कर्जा लिया हुआ है वह भी उतर जाएगा.’’
विद्याधर और उस के पिता हतप्रभ रह गए. मनोरमा और मनोज भी चौंक पड़े.
‘‘कमाल है पिताजी, वह कर्जा आप ने अभी तक उतारा नहीं? मैं ने चिटफंड से ले कर रकम दी थी आप को,’’ विद्याधर ने पूछा.
‘‘वह तेरी मेहनत की कमाई है. उस से बेटी का दहेज क्यों चुकाऊं? उसे मैं ने बैंक में डाल दिया है, तेरे दहेज में जो रकम मिलेगी उस से वह कर्जा उतारूंगा.’’
विद्याधर ने सिर पीट लिया.
‘‘आप ने यह नहीं सोचा, बेकार में सूद कितना देना पड़ रहा है? कल ही उस पैसे को बैंक से निकलवा कर कर्जा चुकता करूंगा,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.
‘‘विद्याधर को तरक्की मिल सकती है,’’ मनोज ने मौका देख कर कहा, ‘‘अगर यह आएदिन सुबह का नाश्ता बनाने के चक्कर में देर से औफिस न आया करे और फिर शाम को जल्दी घर न भागा करे. आप लोग एक अच्छी सी नौकरानी क्यों नहीं रखते?’’
‘‘कई रखीं लेकिन सभी एक सी हैं, चार रोज ठीक काम करती हैं फिर देर से आना या नागा करने लगती हैं,’’ मांजी असहाय भाव से बोलीं.
‘‘बात घूमफिर कर फिर बहू लाने पर आ गई न?’’ मनोरमाजी ने भी मौका लपका, ‘‘और उस के लिए आप दहेज का लालच नहीं छोड़ोगे.’’
‘‘हमें दहेज का लालच नहीं है, बस समाज में अपनी इज्जत की फिक्र है,’’ मांजी ने कहा, ‘‘दहेज न लिया तो लोग हंसेंगे नहीं हम पर?’’
‘‘लोगों से कह दीजिएगा, नकद ले कर बैंक में डाल दिया, बात खत्म.’’
‘‘बात कैसे खत्म,’’ मां झल्ला कर बोलीं, ‘‘श्री का मतलब जानती हो, लक्ष्मी होता है यानी श्रीपंथ, लक्ष्मी का पंथ, इसलिए हमारे में शादी की पहली रस्म, ससुराल से आई लक्ष्मी की पूजा से ही होती है, उसे हम खत्म नहीं कर सकते.’’
‘‘अगर आप को रकम का लालच नहीं है तो महज रस्म के लिए हम उस रकम का इंतजाम कर देंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रस्म पूरी करने के बाद यानी बिरादरी को दिखाने के बाद आप रकम हमें वापस कर दीजिएगा.’’
‘‘आप का बहुतबहुत धन्यवाद, भाभी, लेकिन मैं और माया झूठ की बुनियाद पर की गई शादी कदापि नहीं करेंगे,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.
‘‘तो फिर क्या करोगे?’’
‘‘ऐसे ही घुटघुट कर जीते रहेंगे.’’
विद्याधर के पिता ने उसे चौंक कर देखा, ‘‘तू घुटघुट कर जी रहा है?’’
‘‘घुटघुट कर ही नहीं तड़पतड़प कर भी,’’ मनोज बोला, ‘‘जवान आदमी है, जब से माया से प्यार हुआ है, तड़पने लगा है. मगर आप को क्या फर्क पड़ता है. आप को तो अपने बच्चे की खुशी से ज्यादा संप्रदाय की मर्यादा की फिक्र है. चलो मनोरमा, चलते हैं.’’
‘‘रुकिए मनोज बाबू, मुझे शंकरलालजी के घर ले चलिए, शादी की तारीख तय कर के ही आऊंगा, जिसे जो कहना है कहता रहे.’’
‘‘मुझे भी अपने बेटे की खुशी प्यारी है, मैं भी किसी के कहने की परवा नहीं करूंगी.’’
मनोरमा, मनोज और विद्याधर खुशी से गले मिलने लगे. हिकमत कामयाब हो गई थी.