मृगतृष्णा : मुझे अपनी शादी से क्यों होने लगी कोफ्त

‘‘हो सके तो कुछ दिनों के लिए मेरे साथ वक्त बिताने के लिए तुम भी बीजिंग आ जाना. आओगी तो अच्छा लगेगा मुझे, तुम्हारी मेहरबानी होगी मुझ पर,’’ शरद ने दुबई एयरपोर्ट पर मुझ से विदाई लेते हुए कहा. उन का काम के सिलसिले में देशविदेश जानाआना लगा रहता था. वे जहां भी जाते थे, उम्मीद करते कि कुछ ही दिनों के लिए ही सही, मैं भी उन्हें जौइन करूं.

‘सूरत देखी है अपनी शीशे में, मैं घर में तो तुम्हारे साथ 5 मिनट बैठना पसंद नहीं करती, फिर बीजिंग में क्या खाक करने आऊंगी. मैं तो तुम्हारे साथ उम्र काट रही हूं उम्रकैद की तरह,’ मैं ने दिल ही दिल में सुलगते हुए सोचा और शरद की बात को तवज्जुह दिए बिना कार से उन का लगेज निकालने में उन की मदद करने लगी. फिर बिना उन की तरफ देखे ही गुडबाय कर, टाइम से अपने औफिस पहुंचने के लिए कार स्टार्ट कर दी.

शेख जायद रोड ट्रैफिक से पटी हुई थी. ‘लगता है फिर औफिस के लिए देर हो जाएगी और नगमा की स्कैन करती हुई आंखें फिर से बरदाश्त करनी होंगी. क्या दोटके की जिंदगी है मेरी,’ मैं मन ही मन भन्नाई. तभी एक हौर्न की आवाज ने मेरी सोच में बाधा डाली. सामने ग्रीन लाइट हो चुकी थी. मैं ने यंत्रवत ब्रैक से पैर हटा कर कलच पर दबाव डाला. मेरी कार आगे बढ़ने लगी और मेरी सोच भी.

इंडिया में मेरे भैया सोचते हैं कि मेरी झोली चांदसितारों से भरी हुई है. उन्हें क्या पता कि हालात मुझे न्यूट्रौन में बदल चुके हैं, न कोई खुशी न गम. जी रही हूं एक उदासीन सी जिंदगी क्योंकि हाथ में उम्र की लंबी सी लकीर ले कर पैदा हुई हूं. ढो रही हूं नीम पर चढ़े हुए करेले सी कड़वी बेनूर, अनचाही शादी को.

‘‘कुछ खोईखोई सी हैं आप आज,’’ औफिस पहुंचते ही नगमा ने आदतानुसार कटाक्ष किया.

‘‘तुम्हें तो पता है कि मैं शौकिया तौर पर शायरी लिखती हूं, इसलिए सोचते रहना मेरा काम है. सोचूंगी नहीं तो लिखूंगी कैसे,’’ मैं ने स्थिति संभालते हुए सफाई पेश की.

‘‘आज तो तुम्हारा चेहरा कोई औटोबायोग्राफिकल शेर सुनाता सा लग रहा है. ऐसा लग रहा है कि किसी ने तुम्हारे दिल की तनहाइयों में पत्थर फेंक कर वहां उथलपुथल मचा दी हो.’’

‘‘आप भी कौन सी कम हैं, दूसरों की जिंदगी में हस्तक्षेप करकर के उन की जिंदगी की खामियों के नगमें दुनिया में गागा कर अपना नाम सार्थक करती रहती हैं,’’ मैं ने नहले पर दहला मारा क्योंकि मैं जानती थी कि सीधी भाषा नगमा को समझ में नहीं आती है.

‘‘तुम जानो, तुम्हारा काम जाने. मेरे पास भी फालतू वक्त नहीं है तुम्हारे जैसों पर जाया करने के लिए,’’ नगमा खिसियाई बिल्ली सी मुझे अकेला छोड़ कर चली गई. दिन काम की व्यस्तताओं में गुजर गया. शाम का इंतजार करने की जरूरत नहीं हुई. सीधे घर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, घर जा कर कौन से गीत गाऊंगी. वही रोज का बेनूर रूटीन- खाना बनाओ, डिशवाशर लोड करो, डिनर कर के किचन साफ करो और फिर नहाधो कर बैडरूम में एक बोरियतभरी रात काटो.

मन ज्यादा दुखी होता तो यूट्यूब पर सफल प्रेमकहानियां देख कर खुश होने की नाकाम कोशिश कर लेती. इन प्रेमकहानियों में अपने होने की कल्पना करती. और काल्पनिक ही सही, पर कुछ पल प्यार से जीने की कोशिश करती. फिर याद आया कि शरद तो हैं ही नहीं, इसलिए आज रास्ते में ही कुछ खा कर चलती हूं. अकेले अपने लिए क्या पूरी कुकिंग करने की तकलीफ उठानी.

वर्ल्ड ट्रेड सैंटर स्थित जेपेनगो कैफे में मैंगू स्मूदी के घूंट भरते हुए अनमने मन से सामने पड़े हुए अखबार के पन्ने आखिरी पेज की तरफ से पलटने लगी. जब से नौकरी ढूंढ़नी शुरू की थी, अखबार को आखिरी पेज की तरफ से पलटने की आदत पड़ गई थी. नौकरी तो करीब सालभर पहले मिल गई थी मगर आदत आज भी वैसी की वैसी बनी हुई है.

डिनर करने के बाद भी सीधे घर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी. औफिस के बाद आसपास की फ्लोरिस्ट शौप में यों ही चक्कर लगाना मुझे अच्छा लगता था. आज मैं फिर से वहां फूलों को निहारने के लिए पहुंच गई.

फूलों को देखतेदेखते अचानक मुझे महसूस हुआ कि आंखों की कोरों से मैं ने किसी जानेपहचाने चेहरे को आसपास देखा है. कोई ऐसा चेहरा जो पहले कभी मेरे बहुत करीब रहा है. मैं तुरंत ही फ्लोरिस्ट शौप से बाहर निकल आई. मैं ने चारों ओर नजर घुमा कर देखा. मगर दूरदूर तक कोई भी परिचित चेहरा नजर न आया. शायद मुझे कोई गलतफहमी हुई है. यह सोचती हुई मैं कार पार्किंग की ओर बढ़ने लगी, तो देखा कि टैक्सीस्टैंड पर जोसफीन खड़ी थी.

जोसफीन यहां और वह भी ब्राइन के बिना, यह कैसे संभव है. हैरान सी मैं लपक कर उस की तरफ भागी. मुझे देख कर जोसफीन उत्साह से भर कर मेरे गले लग गई. परिचित मुसकराहट से सराबोर उस का चेहरा कई वर्षों के बाद देखने को मिल रहा था.

‘‘इन से मिलो, ये हैं मेरे नए पार्टनर जैकब,’’ जोसफीन ने अपने साथ खड़े आदमी की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘‘पार्टनर, क्या मतलब? तुम्हारी और ब्राइन की कंपनी में कोई पार्टनर भी हुआ करता था, ये तो तुम ने पहले कभी बताया ही नहीं,’’ मैं ने कुतूहल से पूछा.

‘‘नहींनहीं, मेरा वह मतलब नहीं है. मेरे कहने का मतलब है जैकब मेरे डी- फैक्टो पार्टनर हैं और हम लिविंग टूगेदर रिलेशन में हैं.’’

मैं ने एक गहरी नजर जैकब महाशय पर डाली. मेरे होंठ कुछ बोलने को हिले. मगर शब्द बाहर न आ सके.

आखिर जोसफीन ने ही बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘काफी समय से तुम से बातचीत नहीं हो पाई है. तुम तो बिना कुछ बताए ही सिडनी से गायब हो ली थीं. लाइफ काफी बदल चुकी है तब से. अभी हम यहां एक हफ्ते और रुकेंगे. अगर मौका मिला तो तुम्हारे साथ कौफी पीने आऊंगी. मुझे अपना फोन नंबर दे दो.’’

मैं ने ज्यादा कुछ सोचे बिना हैंडबैग से अपना कार्ड निकाल कर उस की ओर बढ़ा दिया. तभी एक टैक्सी आ गई. जोसफीन ने एक बार फिर से मुझे अपने गले लगाया और जैकब के साथ टैक्सी में बैठ कर चली गई. मैं हैरानपरेशान सी टैक्सी को अपनी आंखों से ओझल होने तक देखती रही.

ब्राइन सिडनी का जानामाना व्यक्ति था. उस की खनिज तेल और खनन कंपनी थी जो कि आस्ट्रेलिया, टर्की, अफ्रीका और अमेरिका तक फैली हुई थी. उस की रईसी उस के सिडनी के पौइंट पाइपर उपनगर स्थित निवास में ही सिमटी हुई नहीं थी, बल्कि पूरे सैलाब के साथ हर तरफ छलकीछलकी पड़ती थी. धन की अधिकता के साथसाथ उस की हर बात बड़ी थी. वह अपने धन को अपने बैंक खाते तक ही सीमित नहीं रखता था, मानवीय कामों पर भी जम कर लुटाता था. उस के नाम और काम की चर्चा शहर के कोनेकोने में इज्जत के साथ होती थी.

ब्राइन के किसी से मिलने के पहले ही उस की प्रसिद्धि उस तक पहुंच जाती. विश्वविद्यालय को रिसर्च और जरूरतमंद छात्रों की उच्चशिक्षा के लिए अनुदान देना उस के पसंदीदा लोकोपकारी काम थे.

इन तमाम मानवतावादी कामों के साथसाथ उसे अपने लिए जीना भी बखूबी आता था. वह गोताखोरी, नौकायन, पैराग्लाइडिंग का बेहद शौकीन था.

जोसफीन और ब्राइन की मुलाकातों का सिलसिला नीले आकाश के आंचल में हुआ था. जोसफीन क्वान्टाज एयरलाइंस में एयरहोस्टेस थी. और ब्राइन अपने देशविदेश में फैले हुए व्यापार के सिलसिले में ज्यादातर हवाईयात्रा करने वाला यात्री.

अपनी मुसकराहट की जादूगरी से यात्रियों की लंबीलंबी यात्राओं को सुखद बनाने वाली नीलगगन की परी सी थी जोसफीन. उस की फ्लाइट में उस की सेवा में उड़ने वाले यात्री उसे कभी न भुला पाते और अपनी हर यात्रा में उसी की सेवा में उड़ने की चाहत रखते. एक तरफ आकर्षक रूपसागर था तो दूसरी तरफ भव्य जिंदगी जीने वाला प्रभावशाली व्यापारी. दोनों ही एकदूसरे के आकर्षण से ज्यादा समय तक न बच पाए और कुछ महीनों की मुलाकातों के बाद वे एकदूसरे के हो गए.

जब मैं पहली बार जोसफीन और ब्राइन से मिली थी तब तक उन की शादी को 10 साल पूरे हो चुके थे जबकि मेरी और शरद की शादी को केवल 3 साल ही हुए थे. उन के 10 साल की शादी में भी प्यार का महासागर उमड़ पड़ता था. उन के बीच की कैमिस्ट्री को देख कर मेरे जैसों को ईर्ष्या से अछूता रहना नामुमकिन था क्योंकि मेरी 3 साल की शादी में प्यार का अकाल सदाबहार था.

शरद और मेरी हर बात, हर शौक में नौर्थ और साउथ पोल का फर्क था. जोसफीन और ब्राइन के हर शौक, हर तरीके एकजैसे थे. वे दोनों खूब शौक से साथसाथ गोताखोरी पर जाया करते थे. 3-4 साल पहले गोताखोरी के दौरान रीढ़ की हड्डी में चोट लगने से ब्राइन के शरीर का निचला हिस्सा बेकार हो गया. जिस से वह ज्यादा लंबा चलने की शक्ति गवां बैठा. मगर प्यार तो प्यार होता है. सो, यह हादसा भी उन दोनों के प्यार के महासागर से एक बूंद भी कम न कर पाया. कम करता भी कैसे, आखिर उन्होंने नीले आकाश को साक्षी मान कर उम्रभर साथ निभाने के वादे जो किए थे.

वे दोनों एकदूसरे के बने थे अपनी खुशी से, उन्हें एकदूसरे पर थोपा नहीं गया था. उन के प्यार में समर्पण था, ढोए जाने वाला सामाजिक बंधन नहीं. उन की शादी उन के प्यार की परिणति थी, महज निभाए जाने वाली रस्म नहीं. मेरी और शरद की शादी तो वह जैकपौट थी जिस में लौटरी शरद की लगी थी. मेरी स्थिति तो जुए में अपना सबकुछ हारे हुए जुआरी जैसी थी.

जब भी मैं जोसफीन और ब्राइन को साथसाथ देखती तो मेरे दिल का दर्द पूरी शिद्दत पर पहुंच जाता. मैं सोचती, काश, मेरी भी शादीशुदा जिंदगी उन की शादीशुदा जिंदगी की तरह एक परीकथा होती. मैं उन के सामने बैठ कर स्वयं को बहुत आधाअधूरा महसूस करती. जब यह बरदाश्त से बाहर हो गया तो हीनभावना से बचने के लिए मैं ने उन से किनारा करना शुरू कर दिया. उन के सामने सुखी विवाहित जीवन का झूठा आवरण ओढ़ेओढ़े मैं अब थकने लगी थी.

इस झूठे नाटक में मेरे चेहरे के भावों ने मेरा साथ देना बंद कर दिया था. मेरे दिल के दर्द की लहरें मेरे सब्र के बांध को तोड़ कर पूरे बहाव के साथ उमड़ने लगी थीं. इस सैलाब को दिल में जज्ब करना नामुमकिन होता जा रहा था. इसलिए जब शरद को दुबई में एक बेहतर जौब मिला तो मेरे दिल को एक अजब सा सुकून मिला. मेरी खुशी शरद को बेहतर जौब मिलने की वजह से कम और सिडनी को हमेशा के लिए छोड़ कर जाने की वजह से ज्यादा थी.

‘चलो, न तो यह ‘मेड फौर इच अदर’ जोड़े से सामना होगा, न ही मेरे दिल के जख्मों में टीस उठेगी.’ यह सोच कर चैन की सांस ली थी उस वक्त मैं ने, और जोसफीन को बिना बताए ही सिडनी से दुबई चली आई थी.

दुबई आ कर मैं अगले जन्म में मनचाहे हमसफर की कामना करती हुई अपनी जिंदगी की रेलगाड़ी को आगे खींचने लगी. मन लगाने के लिए मैं ने एक कंपनी में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी कर ली थी. सोचा, न मेरे पास खाली वक्त होगा न जिंदगी की कमियों को ले कर मन को भटकने का मौका मिलेगा. अपनी व्यस्तताओं में मैं जोसफीन-ब्राइन और उन की परीकथा को भूल सी चुकी थी.

मगर आज शाम वर्ल्ड ट्रेड सैंटर में जोसफीन फिर से सामने आ गई थी. इस बार वह मुझे अपनी सहेली न लग कर, कोई पहेली सी लगी थी. जोसफीन से अचानक रूबरू होने के बाद घर वापस आने पर भी मन जोसफीन, ब्राइन, जैकब त्रिकोण में उलझा रहा. क्या ब्राइन मर चुका है? अगर नहीं तो फिर जोसफीन नए डीफैक्टो पार्टनर के साथ क्यों है? ये एकदूसरे के प्यार में सिर से पांव तक डूबे रहने वाला जोड़ा ऐसे कैसे अलग हो सकता है? कितनी कशिश थी दोनों में, क्या हुआ उस कशिश का? सोचतेसोचते मेरा सिर चकराने लगा. इस ट्रायंगल के तीनों कोणों का आकलन करतेकरते आखिर मैं निढाल हो कर सो गई.

सुबह उठी तो सिर कुछ भारी सा लग रहा था. कुछ देर यों ही बिस्तर में लेटी रही, समझ में नहीं आ रहा था कि औफिस जाऊं या नहीं. अंत में हमेशा की तरह मेरे आलस की जीत हुई. मैं ने औफिस न जाने का निश्चय कर लिया और मुंह पर चादर ढक कर थोड़ी देर ऊंघने के लिए लेट गई.

आधे घंटे में जब टैक्सट मैसेज की आवाज से आंख खुली तो मैं ने अनमने भाव से मोबाइल उठाने के लिए हाथ बढ़ाया. बेमन से मैं ने अपनी अधखुली आंखें मोबाइल पर गड़ाईं तो देखा कि जोसफीन का मैसेज आया था. वह लंच के समय मुझ से कहीं पर मिलना चाहती थी.

मैसेज देखते ही मेरी आंखें पूरी तरह से खुल गईं और मैं ने बिना एक पल गंवाए, आए हुए मैसेज के नंबर को दबा दिया. मैं जोसफीन के बारे में सबकुछ जानने को बेताब थी. मैं ने उसे बताया कि आज मैं पूरे दिन घर में ही हूं, इसलिए वह किसी भी समय मुझ से मिलने आ सकती है. पूरे उत्साह के साथ मैं नहाधो कर घर को ठीक करने में लग गई और जोसफीन निश्चित समय पर आ पहुंची.

‘‘तुम्हारे वो, मेरा मतलब है जैकब महाशय कहां रह गए?’’ मैं ने इधरउधर नजर घुमाते हुए पूछा.

‘‘जैकब को तो एक कौन्फ्रैंस में जाना था. वैसे भी हम उस के होते हुए तो खुल कर बातचीत भी नहीं कर पाते. मैं अकेले ही तुम से मिलने आना चाहती थी,’’ जोसफीन ने अपनी चिरपरिचित मुसकराहट के साथ जवाब दिया.

मैं भी कौन सा जैकब से मिलने को इच्छुक थी. मेरे मन में तो ब्राइन की खैरियत को ले कर उथलपुथल मची हुई थी कि अगर वह जोसफीन के साथ नहीं तो फिर कहां और कैसा है? एक लंबा अरसा बीत चुका था हमें मिले हुए. बहुतकुछ कहने और सुनने को था, मगर मैं अपनी तरफ से बात को कुरेदना नहीं चाहती थी. मैं ने इंतजार करना ही ठीक समझा. काफी देर इधरउधर की बातें करने के बाद आखिर ब्राउन का जिक्र आ ही गया.

‘‘मेरे और ब्राइन के तलाक को 4 साल हो चुके हैं,’’ जोसफीन ने बिना किसी संवेदना के परदाफाश किया.

‘‘4 साल मतलब, जैसे ही मैं ने सिडनी छोड़ा उस के कुछ ही समय बाद तुम दोनों अलग हो गए. मगर ऐसा कैसे हो गया? तुम्हें तो हमेशा ही इस बात का गुमान था कि ब्राइन अमेरिका में अपने सारे रिश्तेनाते छोड़ कर मीलों दूर आस्ट्रेलिया में तुम्हारे और सिर्फ तुम्हारे लिए आ कर बस गया था,’’ मैं ने एक सांस में कई सवाल दाग दिए.

‘‘तो क्या हुआ, मैं ने भी तो उस की विकलांगता को वर्षों तक झेला और अपनी जिंदगी का गोल्डन टाइम उस पर बरबाद कर दिया,’’ जोसफीन ने कहा.

‘‘बरबाद कर दिया, क्या मतलब, वह हादसा तो शादी के बाद में हुआ था और उस के बाद भी तो तुम ने उस के साथ कई साल खुशहाली के साथ बिताए… और फिर तुम ही तो कहती थीं कि हादसे तो हादसे होते हैं, उन पर किसी का वश कहां. ये कहीं भी और किसी के भी साथ हो सकते हैं और फिर यह सही बात है कि हादसे तो हादसे होते हैं,’’ मैं ने एकएक शब्द पर जोर दे कर कहा.

‘‘हां, तो, जब मैं ने ये सब कहा था तब कम से कम ब्राइन के पास एक लाइफस्टाइल, एक स्टेटस तो था,’’ वह लापरवाही के साथ बोली.

‘‘एक स्टेटस था? क्या मतलब है तुम्हारा इस ‘था’ से?’’ मेरे स्वर में अब घबराहट घुल चुकी थी.

जोसफीन ने सबकुछ शुरू से आखिर तक कुछ ऐसे बताया :

‘‘अब से करीब 8 साल पहले ब्राइन ने अपनी कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए धातुओं के अन्वेषण, खानों की खोज आदि के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से भारी कर्ज ले लिया था. ऐसा करने के कुछ समय के बाद दुनियाभर में खनिज तेल और लौह अयस्क की कीमतें गिरने लगीं और वित्तीय संस्थाओं ने कर्ज की वापसी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया. दूसरी तरफ पहले से चल रहे अन्वेषण को आगे जारी रखने के लिए भी फंड की जरूरत पड़ने लगी. जिस के लिए भी वित्तीय संस्थाओं ने हाथ खड़े कर दिए. ब्राइन की कंपनी ने नई इक्विटी निकाल कर शेयर बाजार से फंड बनाने की कोशिश भी की लेकिन वह प्रयास भी असफल रहा.

‘‘अब वित्तीय संस्थान पुराने मूलधन और ब्याज की वापसी के लिए जोर डालने लगे थे. दूसरी तरफ पहले से चल रहीं अन्वेषण और खनन परियोजनाएं धन के अभाव में बंद होने लगीं.

‘‘ब्राइन ने अन्य कंपनियों और अपने व्यवसायी मित्रों से भी मदद लेने की कोशिश की, मगर हर जगह नाकामी ही हासिल हुई. हार कर उस ने अपने एकमात्र मुनाफे में चल रहे कंस्ट्रक्शन व्यवसाय को बेचने का फैसला किया परंतु इस में भी ट्रेड यूनियन और फौरेन इनवैस्टमैंट एप्रूवल बोर्ड ने चाइनीज खरीदार को बेचने के लिए स्वीकृति देने पर अड़ंगा लगा दिया.

‘‘आखिरकार सब तरफ से मायूस हो कर बोर्ड औफ डायरैक्टर ने कंपनी को लिक्विडेशन में ले जाने का फैसला कर लिया. इस के साथ ही ब्राइन और मेरी जिंदगी के सुनहरे दिनों का भी लिक्विडेशन हो गया,’’ जोसफीन ने एक गहरी सांस छोड़ते हुए कहा.

‘‘ब्राइन के दिवालिया होने और तुम्हारे उस से तलाक लेने का क्या संबंध है?’’ मैं ने चिड़चिड़ा कर पूछा.

‘‘सीधा संबंध था, मैं ने सालों उस की विकलांगता को झेला. अब उस के पास बचा भी क्या था मुझे बांधे रखने के लिए. मैं कोई बेवकूफ थोड़े ही हूं जो कि किसी दिवालिया पर अपनी जिंदगी बरबाद कर दूं,’’ जोसफीन बोली.

‘‘और यह जैकब? यह क्या मार्केट में तुम्हारे लिए तैयार बैठा था जो ब्राइन के व्यापार के फेल होते ही तुम इस के साथ रहने लगीं?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘हां, ऐसा ही कुछ समझो. कुछ साल से हम दोस्त थे. ब्राइन के शहर से बाहर होने के दौरान हम ने कई बार कैजुअल समय बिताया था. ब्राइन जैसे व्हीलचेयरमैन के पास था ही क्या मुझे देने के लिए. जब मुझे जैकब जैसा रियल मैन मिल सकता है तो फिर मुझे किसी व्हीलचेयरमैन के साथ समय गुजारने की क्या जरूरत थी. आखिर कुदरत ने हमें जिंदगी जीने के लिए ही दी है, किसी की मजबूरियों पर बरबाद करने के लिए थोड़े ही दी है,’’ इतना कह कर जोसफीन जोर का कहकहा लगा कर हंस दी.

जिंदगी में पहली बार मुझे उस की हंसी को देख कर घृणा महसूस हुई. मैं हतप्रभ सी उसे देखती रह गई. मैं ने अपने काले, घुंघराले बालों को मुट्ठी में भर कर हलके से खींच कर देखा कि मैं होश में तो हूं. हां, होश था मुझ को क्योंकि बालों के खिंचने पर मैं ने दर्द महसूस किया. फिर भी जब पक्का भरोसा न हुआ तो इस बार मैं ने बाएं हाथ की हथेली में दाएं हाथ के अंगूठे का नाखून गड़ा कर देखा, दर्द का आभास मुझे अब भी हुआ.

यह साबित हो चुका था कि मैं पूरी तरह होश में थी. इस का सीधासीधा मतलब था कि जो मुझे सुनाई दे रहा था वह सच था, मेरे मन का वहम नहीं. मगर यह तो रंगबिरंगी दुनिया है. यहां कुछ भी संभव है. यहां रोज किसी न किसी के साथ अनहोनी होती है, अप्रत्याशित घटता है.

स्टील, लोहे और तेल की बढ़ती कीमतों को देखते हुए ब्राइन बहुत ही महत्त्वाकांक्षी हो उठा था. उस के मन में एक लालसा जाग उठी थी जल्दी से जल्दी फौरचून फाइव हंड्रैड की लिस्ट में अपनी कंपनी का नाम देखने की. इस लालसा से वशीभूत हो कर और स्टील, लोहे व खनिज तेल की कीमतों को बढ़ते देख कर उस ने कई देशों में नई खानों और तेल की खोज के अधिकार प्राप्त कर लिए थे. मगर औयल, गैस और खनिज की गिरती कीमतों ने उस के व्यापार को पूरी तरह से डुबो कर रख दिया.

वह शरीफ आदमी यह नहीं जानता था कि फौरचून फाइव हंड्रैड की लिस्ट की जगह, समय उसे हर तरह से बरबाद करने के लिए उस के कदम के इंतजार में था. जिस जोसफीन को उस ने खुद से ज्यादा प्यार किया था, उस ने बुरे वक्त में उस का संबल बनने की जगह उसे हर तरह से तोड़ कर रख दिया.

आसमानी परी की मुसकान के पीछे कितना शातिर दिमाग काम कर रहा था, मैं कभी समझ ही नहीं पाई. मैं ने जाना कि गिरगिट ही नहीं, इंसान भी रंग बदलते हैं. मैं ने जाना कि शादी परिवार द्वारा तय की गई हो या स्वयं की इच्छा से की गई हो, उसे सफलअसफल लोग स्वयं बनाते हैं. मैं मैदान के एक किनारे पर खड़ी हो कर सोचती रही कि दूसरे किनारे की तरफ सिर्फ हरियाली ही हरियाली है.

मृगतृष्णा में फंसी मैं कभी देख ही न सकी कि असली हरियाली मेरे पैरों तले थी, जरूरत थी तो सिर्फ सही दृष्टिकोण की. हां, जिंदगी जीने के लिए ही होती है पर किसी दूसरे के जज्बातों को रौंद कर अपने ख्वाब सजाने के लिए भी नहीं. प्यार और त्याग एकदूसरे के पर्याय हैं. त्याग किए बिना प्यार हासिल नहीं किया जा सकता. प्यार, प्यार है, भौतिक जरूरतों का गुणाभाग नहीं. भौतिकता के लाभहानि के गणित से अर्जित किया गया प्यार, त्याग का नहीं बल्कि वासना का पर्याय होता है.

मुझे जिंदगी का घिनौना चेहरा देखने को मिला. मुझे समझ में आया कि कभीकभी आंखों को जो दिखता है और कानों को सुनाई देता है, वह भी गलत हो सकता है. पता लगा कि हर शख्स आवरण ही ओढ़े हुए जी रहा है अपनेअपने झूठ का. खैर, मुझे यह आवरण और नहीं ओढ़ना है. जिंदगी को जिंदगी के जैसे ही जीना है, मृगतृष्णा की तरह नहीं. जिंदगी को जिंदगी बनाना मेरे अपने हाथ में था. मृगतृष्णा तो सिर्फ छल है, धोखा है अपनेआप से.

जोसफीन के विदा होते ही मैं ने शरद को फोन किया बताने के लिए कि मैं बीजिंग आ रही हूं उन के पास मृगतृष्णा को छोड़ कर, अपनी और उन की जिंदगी को मुकम्मल बनाने के लिए.

एक नई दिशा : क्या अपना मुकास हासिल कर पाई वसुंधरा – भाग 3

‘मैं न तो अपने भाग्य को कोसना चाहती हूं न उस पर रोना चाहती हूं. मैं उस का निर्माण करना चाहती हूं,’ वसुंधरा ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा, ‘फिर मां, मैं आज वैसे भी नहीं रुक सकती. आज मेरा प्रवेशपत्र मिलने वाला है.’

‘2 बजे तक आ जाना. लड़के वाले 3 बजे तक आ जाएंगे.’

मां की बात को अनसुना कर वसुंधरा घर से निकल गई.

अपने देवर के बारे में सोच गायत्री भी विचलित हो गईं और अपनी बेटी का एक संपन्न परिवार में रिश्ता कराने का उन का नशा धीरेधीरे उतरने लगा.

‘कहीं हम कुछ गलत तो नहीं कर रहे हैं अपनी वसु के साथ,’ गायत्री देवी ने शंका जाहिर करते हुए पति से कहा.

‘मैं उसका पिता हूं, कोई दुश्मन नहीं. मुझे पता है, क्या सही और क्या गलत है. तुम बेकार की बातें छोड़ो और उन के स्वागत की तैयारी करो,’ दीनानाथ ने आदेश देते हुए कहा.

वसुंधरा ने कालिज से अपना प्रवेशपत्र लिया और उसे बैग में डाल कर सोचने लगी, कहां जाए. घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. सहसा उस के कदम मैडम के घर की ओर मुड़ गए.

‘अरे, तुम,’ वसुंधरा को देख मैडम चौंकते हुए बोलीं, ‘आओआओ, इस समय घर पर मेरे सिवा कोई नहीं है,’ वसुंधरा को संकोच करते देख मैडम ने कहा.

लक्ष्मी को पानी लाने का आदेश दे वह सोफे पर बैठते हुए बोलीं, ‘कहो, कैसी चल रही है, पढ़ाई?’

‘मैडम, आज लड़के वाले आ रहे हैं,’ वसुंधरा ने बिना मैडम की बात सुने खोएखोए से स्वर में कहा.

मैडम ने ध्यान से वसुंधरा को देखा. बिखरे बाल, सूखे होंठ, सुंदर सा चेहरा मुरझाया हुआ था. उसे देख कर उन्हें एकाएक बहुत दया आई. जहां आजकल मातापिता अपने बच्चों के कैरियर को ले कर इतने सजग हैं वहां इतनी प्रतिभावान लड़की किस प्रकार की उलझनों में फंसी हुई है.

‘तुम ने कुछ खाया भी है?’ सहसा मैडम ने पूछा और तुरंत लक्ष्मी को खाना लगाने को कहा.

खाना खाने के बाद वसुंधरा थोड़ा सामान्य हुई.

‘तुम्हारी कोई  समस्या हो तो पूछ सकती हो,’ मैडम ने उस का ध्यान बंटाने के लिए कहा.

‘जी, मैडम, है.’

वसुंधरा के ऐसा कहते ही मैडम उस के प्रश्नों के हल बताने लगीं और फिर उन्हें समय का पता ही न चला. अचानक घड़ी पर नजर पड़ी तो पौने 6 बज रहे थे. हड़बड़ाते हुए वसुंधरा ने अपना बैग उठाया और बोली, ‘मैडम, चलती हूं.’

‘घबराना मत, सब ठीक हो जाएगा,’ मैडम ने आश्वासन देते हुए कहा.

दीनानाथ चिंता से चहलकदमी कर रहे थे. वसुंधरा को देख गुस्से में पांव पटकते हुए अंदर चले गए. आज वसुंधरा को न कोई डर था और न ही कोई अफसोस था अपने मातापिता की आज्ञा की अवहेलना करने का.

कहते हैं दृढ़ निश्चय हो, बुलंद इरादे हों और सच्ची लगन हो तो मंजिल के रास्ते खुद ब खुद खुलते चलते जाते हैं. ऐसा ही वसुंधरा के साथ हुआ. मैडम की सहेली के पति एक कोचिंग इंस्टीट्यूट चला रहे थे. वहां पर मैडम ने वसुंधरा को बैंक की प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए निशुल्क प्रवेश दिलवाया. मैडम ने उन से कहा कि भले ही उन्हें वसुंधरा से फीस न मिले लेकिन वह उन के कोचिंग सेंटर का नाम जरूर रोशन करेगी. यह बात वसुंधरा के उत्कृष्ट एकेडमिक रिकार्ड से स्पष्ट थी.

समय अपनी रफ्तार से बीत रहा था. बी.एससी. में वसुंधरा ने कालिज में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए और आगे की पढ़ाई के लिए गणित में एम.एससी. में एडमिशन ले लिया. कोचिंग लगातार जारी रही. मैडम पगपग पर उस के साथ थीं. वसुंधरा को इतनी मेहनत करते देख दीनानाथ, जिन की नाराजगी पूरी तरह से गई नहीं थी, पिघलने लगे. 2 साल की कड़ी मेहनत के बाद जब वसुंधरा स्टेट बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में बैठी तो पहले लिखित परीक्षा फिर साक्षात्कार आदि प्रत्येक चरण को निर्बाध रूप से पार करती चली गई.

वसुंधरा श्रद्धा से मैडम के सामने नतमस्तक हो गई. बैग से नियुक्तिपत्र निकाल कर मैडम के हाथों में दे दिया. नियुक्तिपत्र देख कर मैडम मारे खुशी के धम से सोफे पर बैठ गईं.

‘‘तू ने मेरे शब्दों को सार्थक किया,’’ बोलतेबोलते वह भावविह्वल हो गईं. उन्हें लगा मानो उन्होंने स्वयं कोई मंजिल पा ली है.

‘‘मैडम, यह सब आप की ही वजह से संभव हो पाया है. अगर आप मेरा मार्गदर्शन नहीं करतीं तो मैं इस मुकाम पर न पहुंच पाती,’’ कहतेकहते उस की सुंदर आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अरे, यह तो तेरी प्रतिभा व मेहनत का नतीजा है. मैं ने तो बस, एक दिशा दी,’’ मैडम ने खुशी से ओतप्रोत हो उसे थपथपाते हुए कहा.

वसुंधरा फिर उत्साहित होते हुए मैडम को बताने लगी कि उस की पहले मुंबई में टे्रेनिंग चलेगी उस के बाद 2 साल का प्रोबेशन पीरियड फिर स्थायी रूप से आफिसर के रूप में बैंक की किसी शाखा में नियुक्ति होगी. मैडम प्यार से उस के खुशी से दमकते चेहरे को देखती रह गईं.

उस शाम मैडम को तब बेहद खुशी हुई जब दीनानाथ मिठाई का डब्बा ले कर अपनी खुशी बांटने उन के पास आए. उन्होंने और उन के पति ने आदर के साथ उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाया.

दीनानाथ गर्व से बोले, ‘‘मेरी बेटी बैंक में आफिसर बन गई,’’ फिर भावुक हो कर कहने लगे, ‘‘यह सब आप की वजह से हुआ है. मैं तो बेटी होने का अर्थ सिर्फ विवाह व दहेज ही समझता था. आप ने मेरा दृष्टिकोण ही बदल डाला. मैं व मेरा परिवार हमेशा आप का आभारी रहेगा.’’

ममता विनम्र स्वर में दीनानाथ से बोलीं, ‘‘मैं ने तो मात्र मार्गदर्शन किया है. यह तो आप की बेटी की प्रतिभा और मेहनत का नतीजा है.’’

‘‘जिस प्रतिभा को मैं दायित्वों के बोझ तले एक पिता हो कर न पहचान पाया, न उस का मोल समझ पाया, उसी प्रतिभा का सही मूल्यांकन आप ने किया,’’ बोलतेबोलते दीनानाथ का गला रुंध गया.

‘‘यह जरूरी नहीं कि सिर्फ पढ़ाई में होशियार बच्चा ही जीवन में सफल हो सकता है. प्रत्येक बच्चे में कोई न कोई प्रतिभा अवश्य होती है. हमें उसी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उसे उसी ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.’’

दीनानाथ उत्साहित होते हुए बोले, ‘‘मेरी दूसरी बेटी आर्मी में जाना चाहती है. मैं अपनी सभी बेटियों को पढ़ाऊंगा, आत्मनिर्भर बनाऊंगा, तब जा कर उन के विवाह के बारे में सोचूंगा. मैं तो भाग्यशाली हूं जो मुझे ऐसी प्रतिभावान बेटियां मिली है.

अपनी ही दुश्मन : जिस्म और पैसे की भूखी कविता – भाग 3

नवलकिशोर कविता के घर पहुंचे तो मोनू स्कूल से आ कर जूते बस्ता और बोतल इधरउधर फेंक कर टीवी पर कार्टून नेटवर्क देख रहा था. मां के साथ एक अजनबी को आया देख कर वह चौंका. कविता ने जल्दबाजी में सामान समेटा और उसे खिलापिला कर खेलने के लिए बाहर भेज दिया. अब कमरे में कविता और नवलकिशोर ही रह गए थे.

कविता उठ कर गई और फ्रिज से कोल्डड्रिंक की बोतलें और स्नैक्स ले आई. नवलकिशोर यह सब देख कर हैरान रह गए. बहरहाल दोनों साथसाथ खानेपीने लगे. जल्दी ही यह स्थिति आ गई कि दोनों ने ड्राइंगरूम की पूरी दूरी नाप ली. एक बार शुरुआत हुई तो सिलसिला चल निकला. स्कूल में भी कविता की पदवी बढ़ गई.

यह सब करीब एक साल तक चला. किसी तरह इस बात की भनक नवलकिशोर की पत्नी सुनीता को लग गई. वह तेज औरत थी. शोरशराबा मचाने के बजाए उस ने चोरीछिपे पति पर नजर रखनी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि एक दिन वह सीधे कविता के घर जा पहुंची और दोनों को रंगेहाथों पकड़ लिया.

उस दिन जो कहासुनी हुई, उस में कविता की पड़ोसन ने कविता का साथ दिया. उस का कहना था कि कविता शरीफ औरत है. नवलकिशोर उस के अकेलेपन का फायदा उठाने के लिए वहां आता था.

इस का नतीजा यह निकला कि उस दिन के बाद नवलकिशोर का कविता के घर आनाजाना बंद हो गया. कविता और उस की पड़ोसन एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. जल्द ही दोनों ने मिल कर नया अड्डा ढूंढ लिया. सीतापुर रोड पर एक फार्महाउस था. दोनों अपने खास लोगों के साथ बारीबारी से वहां जाने लगीं. एक जाती तो दूसरी दोनों के बच्चों को संभालती.

कालोनी में कोई भी दोनों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. समय गुजरता गया. गुजरते समय के साथ मोनू यानी मुकुल 20 साल का हो गया. कविता भी अब 40 पार कर चुकी थी. मुकुल का मन पढ़ाई में कम और कालेज की नेतागिरी में ज्यादा लगता था. धीरेधीरे उस का उठनाबैठना बड़े नेताओं के चमचों के साथ होने लगा. उन लोगों ने उसे उकसाया, ‘‘तुम कालेज का चुनाव जीत कर दिखा दो, हम तुम्हें पार्टी में कोई न कोई जिम्मेदारी दिला देंगे. फिर बैठेबैठे चांदी काटना.’’

मुकुल अपनी मां की करतूतों से वाकिफ था. लेकिन मां की वजह से उसे पैसों की तंगी नहीं रहती थी. इसलिए वह चुप रहता था. दूसरी ओर कविता को अपनी ढलती उम्र की चिंता रहती थी. अब उस के पुराने आशिकों ने आना कम कर दिया था. एक अखिलेंद्र ही ऐसा था, जो अभी तक उस की जरूरतों को पूरा कर रहा था. लेकिन वह भी अब कम ही आता था. फोन पर जरूर बराबर बातें करता रहता था. अलबत्ता इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कब तक साथ निभाएगा.

इस बीच कविता की सहेली सुनीता अपनी दोनों बेटियों को ले कर मुंबई शिफ्ट हो गई थी. वह अपनी बेटियों को मौडलिंग के क्षेत्र में उतारना चाहती थी. उस ने अपना मकान 75 लाख में बेच दिया था.

जो परिवार कविता का पड़ौसी बन कर सुनीता के मकान में आया, उस में मुकुल का ही हमउम्र लड़का सौम्य और उस से एक साल छोटी बेटी सांभवी थी. परिवार के मुखिया सूरज बेहद व्यवहारकुशल थे. उन की पत्नी सरला भी बहुत सौम्य स्वभाव की थीं. पतिपत्नी में तालमेल भी खूब बैठता था. सूरज सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर तैनात थे.

पतिपत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी. उन के घर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों का आनाजाना लगा रहता था. सरला सब की आवभगत करती थी. अब उस घर में खूब रौनक रहने लगी थी. घर में खूब ठहाके गूंजते थे.

कविता कभीकभी मन ही मन अपनी तुलना सरला से करती तो उसे अपने हाथ खाली और जिंदगी सुनसान नजर आती. उसे लगता कि वह जिंदगी भर अंधी दौड़ में दौड़ती रही, लेकिन मिला क्या? सुरेश के साथ रहती तो बेटे को भी पिता का साया मिल जाता और उस की जिंदगी भी आराम से कट जाती.

वह सोचती कितना अभागा है मुकुल, जो पिता के संसार में होते हुए भी उस से दूर है. यह तक नहीं जानता कि उस के पिता कौन हैं और कहां हैं? वह तो सब से यही कहती आई थी कि मुकुल के पिता हमें छोड़ कर विदेश चले गऐ हैं और वहीं बस गए हैं. वह अखिलेंद्र को ही मुकुल का पिता साबित करने की कोशिश करती, क्योंकि वह ज्यादातर विदेश में ही रहता था और साल में एकदो बार आया करता था.

कालोनी में किसी को भी कविता का सच मालूम नहीं था. कोई जानना भी नहीं चाहता था. देखतेदेखते 2 साल और बीत गए. पड़ोसन की बिटिया की शादी थी. तमाम मेहमान आए हुए थे. सरला विशेष आग्रह कर के कविता को सभी रस्मों में शामिल होने का निमंत्रण दे गई. कविता इस बात को ले कर बेचैन थी. वह खुद को सब के बीच जाने लायक नहीं समझ रही थी. इसलिए चुपचाप लेटी रही.

अखिलेंद्र विदेश से आ रहा था. एयरपोर्ट से उसे सीधे उसी के घर आना था. मुकुल उसे लेने एयरपोर्ट गया हुआ था.

पड़ोस में मंगल गीत गाए जा रहे थे, बड़े ही हृदयस्पर्शी. सुन कर कविता की आंखें भर आईं. उस की शादी भी भला कोई शादी थी. सच तो यह था कि शादी के नाम पर उसे उस की गलतियों की सजा सुनाई गई थी. जिस सुरेश को कभी वह मोतीचूर का लड्डू समझ रही थी, उस के हिसाब से वह गुड़ की ढेली भर नहीं निकला था.

‘‘मां कहां हो तुम, देखो हम आ गए.’’ मुकुल की आवाज सुन कर वह चौंकी. मुकुल अखिलेंद्र को एयरपोर्ट से ले आया था. कैसा अभागा लड़का था यह, लोगों के सामने अखिलेंद्र को न पापा कह सकता था, न अंकल. हां, उस के समझाने पर घर में वह जरूर उन्हें पापा कह कर पुकार लेता था.

कविता अनायास आंखों में उतर आए आंसू पोंछ कर अखिलेंद्र के सामने आ बैठी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब वह अखिलेंद्र को देख कर खुश नहीं हुई थी. अखिलेंद्र और कविता की उम्र में काफी बड़ा अंतर था. फिर भी सालों से साथ निभता रहा था.

‘‘क्या बात है, बीमार हो क्या कविता?’’ अखिलेंद्र ने पूछा तो कविता धीरे से बोली, ‘‘नहीं, बीमार तो नहीं हूं, टूट जरूर गई हूं भीतर से. ये झूठी दोहरी जिंदगी अब जी नहीं पा रही हूं. सोचती हूं, हम दोनों के संबंध भी कब तक चल पाएंगे.’’

‘‘हूं, तो ये बात है.’’ अखिलेंद्र ने गहरी सांस ली.

कविता अपनी धुन में कहे जा रही थी, ‘‘मैं भी औरतों के बीच बैठ कर मंगल गीत गाना चाहती हूं. अपने पति के बारे में दूसरी औरतों को बताना चाहती हूं. चाहती हूं कि कोई मेरे बेटे का मार्गदर्शन करे, उसे सही राह दिखाए. पर हम दोनों की किस्मत ही खोटी है.’’

‘‘और…?’’

‘‘एक दिन उस का भी घर बनेगा. कोई तो आएगी उस की जिंदगी में. फिर मैं रह जाऊंगी अकेली. क्या किस्मत है मेरी, लेकिन इस सब में दोष तो मेरा ही है.’’

तब तक मुकुल चाय बना लाया था. ट्रे से चाय के कप रख कर वह जाने लगा तो अखिलेंद्र ने उसे टोका, ‘‘यहीं बैठो बेटा, तुम्हारी मां और तुम से कुछ बातें करनी हैं. पहले मेरी बात सुनो, फिर जवाब देना.’’

कविता और मुकुल चाय पीते हुए अखिलेंद्र के चेहरे को गौर से देखने लगे. अखिलेंद्र ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरी पत्नी पिछले 15 सालों से कैंसर से जूझ रही थी. मैं उसे भी संभालता था, बिजनैस को भी और दोनों बच्चों को भी. भागमभाग की इस नीरस जिंदगी में कविता का साथ मिला. सुकून की तलाश में मैं यहां आने लगा. मेरी वजह से मुकुल के सिर से पिता का साया छिन गया और कविता का पति. मैं जब भी आता, मुझे तुम दोनों की आंखों में दरजनों सवाल तैरते नजर आते, जो लंदन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते. इसीलिए मैं बीचबीच में फोन कर के तुम लोगों के हालचाल लेता रहता था.’’

अखिलेंद्र चाय खत्म कर के प्याला एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘6 महीने पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया. उस के बाद मैं ने धीरेधीरे सारा बिजनैस दोनों बेटों को सौंप दिया. दोनों की शादियां पहले ही हो गई थीं और दोनों अलगअलग रहते थे. धीरेधीरे उन का मेरे घर आनाजाना भी बंद हो गया. फिर एक दिन मैं ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया, जिसे उन्होंने खुशीखुशी मान भी लिया.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ कविता और मुकुल ने एक साथ पूछा.

‘‘यही कि मैं तुम से शादी कर के अब यहीं रहूंगा.’’ अखिलेंद्र ने कविता की ओर देख कर एक झटके में कह दिया.

मुकुल का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि मां के दोस्त के रूप में जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी, अब वह सिर पर आ बैठेगी. पक्की बात है कि अगर अखिलेंद्र घर में रहेगा तो मां को और मर्दों से नहीं मिलने देगा और उन लोगों से जो पैसा मिलता था, वह भी मिलना बंद हो जाएगा.

मुकुल को नेतागिरी में आड़ेटेढे़ हाथ आजमाने आ गए थे. वह रसोई से लंबे फल का चाकू उठा लाया और पीछे से अखिलेंद्र की गरदन पर जोरों से वार कर दिया. जरा सी देर में खून का फव्वारा फूट निकला और वह वहीं ढेर हो गया. कविता आंखें फाड़े देखती रह गई. जब उसे होश आया तो देखा, मुकुल लाश को उठा कर बाहर ले जा रहा था.

मुकुल ने पता नहीं ऐसा क्या किया कि वह तो बच गया, लेकिन कविता फंस गई. पुलिस ने मुकुल से पूछताछ की और घर की तलाशी भी ली, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. मुकुल के प्रयासों से 4-5 महीने बाद कविता को जमानत मिल गई. कविता और मुकुल फिर से एक छत के नीचे रहने लगे, लेकिन दोनों ही एकदूसरे को दोषी मानते रहे?

शहीद – देशभक्ति का जनून – भाग 3

उस की आवाज से मेरे कदम ठिठक कर रुक गए. उस बदमाश के लिए इतना मौका काफी था. मैं ने उस लड़की की ओर लौटते हुए तेज स्वर में पूछा, ‘आप ने उसे जाने क्यों दिया?’

‘लगता है तुम इंगलैंड में नए आए हो,’ वह लड़की कुछ मुसकरा कर बोली.

‘हां.’

‘ये अंगरेज आज भी अपनी सामंती विचारधारा से मुक्त नहीं हो पाए हैं. प्रतिभा की दौड़ में आज ये हम से पिछड़ने लगे हैं तो अराजकता पर उतर आए हैं. प्रवासी लोगों के इलाकों में दंगा करना और उन से लूटपाट करना अब यहां आम बात होती जा रही है. यहां की पुलिस पर सांप्रदायिकता का आरोप तो नहीं लगाया जा सकता, फिर भी उन की स्वाभाविक सहानुभूति अपने लोगों के साथ ही रहती है. सभी के दिमाग में यह सोच भर गई है कि बाहर से आ कर हम लोग इन की समृद्धि को लूट  रहे हैं.’

मैं ने उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘तुम भी इंडियन हो?’

‘पाकिस्तानी हूं,’ लड़की ने छोटा सा उत्तर दिया, ‘शाहीन नाम है मेरा. कैंब्रिज विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन कर रही हूं.’

‘मैं दीपक कुमार सिंह. 2 दिन पहले मैं ने भी वहीं पर एम.बी.ए. में प्रवेश लिया है,’ अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए मैं ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो यह कहते हुए शाहीन ने मेरा हाथ गर्मजोशी से पकड़ लिया कि फिर तो हमारी खूब निभेगी.

उस अनजान देश में शाहीन जैसा दोस्त पा कर मैं बहुत खुश था. उस के पापा का पाकिस्तान में इंपोर्टएक्सपोर्ट का व्यवसाय था. मां नहीं थीं. पापा अपने व्यापार में काफी व्यस्त रहते थे इसलिए वह यहां पर अपनी मौसी के पास रह कर पढ़ने आई थी.

शाहीन के मौसामौसी से मैं जल्दी ही घुलमिल गया और अकसर सप्ताहांत उन के साथ ही बिताने लगा. शाहीन की तरह वे लोग भी काफी खुले विचारों वाले थे और मुझे काफी पसंद करते थे. सब से अच्छी बात तो यह थी कि यहां पर ज्यादातर हिंदुस्तानी व पाकिस्तानी आपस में बैरभाव भुला कर मिलजुल कर रहते थे. ईद हो या होलीदीवाली, सारे त्योहार साथसाथ मनाए जाते थे.

शाहीन बहुत अच्छी लड़की थी. मेरी और उस की दोस्ती जल्दी ही प्यार में बदल गई. साल बीततेबीतते हम ने शादी करने का फैसला कर लिया. हमें विश्वास था कि शाहीन के मौसीमौसा इस रिश्ते से बहुत खुश होंगे और वे शाहीन के पापा को इस शादी के लिए मना लेंगे, किंतु यह हमारा भ्रम निकला.

‘तुम्हारी यह सोचने की हिम्मत कैसे हुई कि कोई गैरतमंद पाकिस्तानी तुम हिंदुस्तानी काफिरों से अपनी रिश्तेदारी जोड़ सकता है,’ शाहीन के मौसा मेरे शादी के प्रस्ताव को सुन कर भड़क उठे थे.

‘अंकल, यह आप कैसी बातें कर रहे हैं. इंगलैंड में तो सारे हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी आपस का बैर भूल कर साथसाथ रहते हैं,’ मैं आश्चर्य से भर उठा.

‘अगर साथसाथ नहीं रहेंगे तो मारे जाएंगे इसलिए हिंदुस्तानी काफिरों की मजबूरी है,’ मौसाजी ने कटु सत्य पर से परदा उठाया.

शाहीन ने जब अपने मौसामौसी को समझाने की कोशिश की तो उन्होंने यह कह कर उसे चुप करा दिया कि अभी अच्छाबुरा समझने की तुम्हारी उम्र नहीं है.

उस दिन के बाद से मेरे और शाहीन के मिलने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया.

मुझे विश्वास था कि मेरे घर वाले मेरा साथ जरूर देंगे किंतु मैं यहां भी गलत था.

डैडी ने फोन पर साफ कह दिया, ‘हम फौजी हैं. हम लोग जातिपांति में विश्वास नहीं रखते. हमारा धर्म, हमारा मजहब सबकुछ हमारा देश है इसलिए अपने जीतेजी मैं दुश्मन की बेटी को अपने घर में घुसने की इजाजत नहीं दे सकता.’

चुपचाप अदालत में जा कर शादी करने के अलावा हमारे पास अब दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा था और हम ने वही किया. शाहीन के मौसामौसी को जब पता चला तो उन्होंने बहुत हंगामा किया किंतु कुछ कर न सके. हम दोनों बालिग थे और अपनी मरजी की शादी करने के लिए आजाद थे.

अपनी दुनिया में हम दोनों बहुत खुश थे. शाहीन ने तय किया था कि छुट्टियों में पाकिस्तान चल कर हम लोग उस के पापा को मना लेंगे. मैं ने पासपोर्ट के लिए आवेदनपत्र भर कर भेज दिया था.

एक दिन शाहीन ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो मैं खुशी से झूम उठा. मेरे चौड़े सीने पर सिर रखते हुए उस ने कहा, ‘दीपक, जानते हो अगर मेरा बेटा हुआ तो मैं उस का नाम शाहदीप रखूंगी.’

‘ऐसा नाम तो किसी का नहीं होता,’ मैं ने टोका.

‘लेकिन मेरे बेटे का होगा. शाहीन और दीपक का सम्मिलित रूप शाहदीप. इस नाम का दुनिया में केवल हमारा ही बेटा होगा. जो भी यह नाम सुनेगा जान जाएगा कि वह हमारा बेटा है,’ शाहीन मुसकराई.

कितनी निश्छल मुसकराहट थी शाहीन की लेकिन वह ज्यादा दिनों तक मेरे साथ नहीं रह पाई. एक बार मैं 2 दिन के लिए बाहर गया हुआ था. मेरी गैरमौजूदगी में उस के पापा आए और जबरदस्ती उसे पाकिस्तान ले गए. वह मेरे लिए एक छोटा सा पत्र छोड़ गई थी जिस में लिखा था, ‘हमारी शादी की खबर सुन कर पापा को हार्टअटैक हो गया था. वह बहुत कमजोर हो गए हैं. उन्होंने धमकी दी है कि अगर मैं तुम्हारे साथ रही तो वह जहर खा लेंगे. मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं. मैं उन की मौत की गुनहगार बन कर अपनी दुनिया नहीं बसाना चाहती इसलिए उन के साथ जा रही हूं. लेकिन मैं तुम्हारी हूं और सदा तुम्हारी ही रहूंगी. अगर हो सके तो मुझे माफ कर देना.’

इस घटना ने मेरे वजूद को हिला कर रख दिया था. मैं पागलों की तरह पाकिस्तान का वीजा पाने के लिए दौड़ लगाने लगा किंतु यह इतना आसान न था. बंटवारे ने दोनों देशों के बीच इतनी ऊंची दीवार खड़ी कर दी थी जिसे लांघ पाने में मुझे कई महीने लग गए. लाहौर पहुंचने पर पता चला कि शाहीन के पापा अपनी सारी जायदाद बेच कर कहीं दूसरी जगह चले गए हैं. मैं ने काफी कोशिश की लेकिन शाहीन का पता नहीं लगा पाया.

मेरा मन उचट गया था. अत: इंगलैंड न जा कर भारत लौट आया. एम.बी.ए. तो मैं केवल डैडी का मन रखने के लिए कर रहा था वरना बचपन से मेरा सपना भी अपने पूर्वजों की तरह फौज में भरती होने का था. मैं ने वही किया. धीरेधीरे 25 वर्ष बीत गए.

अपने अतीत में खोया मुझे समय का एहसास ही न रहा. ठंड लगी तो घड़ी पर नजर पड़ी. देखा रात के 2 बज गए थे. चारों ओर खामोशी छाई हुई थी. पूरी दुनिया शांति से सो रही थी किंतु मेरे अंदर हाहाकार मचा हुआ था. मेरा बेटा मेरी ही कैद में था और मैं अभी तक उस की कोई मदद नहीं कर पाया था.

बेचैनी जब हद से ज्यादा बढ़ने लगी तो मैं बाहर निकल आया. अनायास ही मेरे कदम बैरक नंबर 4 की ओर बढ़ गए. मन का एक कोना वहां जाने से रोक रहा था किंतु दूसरा कोना उधर खींचे लिए जा रहा था. मुझे इस बात का एहसास भी न था कि इतनी रात में मुझे अकेला एक पाकिस्तानी की बैरक की ओर जाते देख कोई क्या सोचेगा. इस समय अपने ऊपर मेरा कोई नियंत्रण नहीं बचा था. मैं खुद नहीं जानता था कि मैं क्या करने जा रहा हूं.

शाहदीप की बैरक के बाहर बैठा पहरेदार आराम से सो रहा था. मैं दबे पांव उस के करीब पहुंचा तो देखा वह बेहोश पड़ा था. बैरक के भीतर झांका, शाहदीप वहां नहीं था.

‘‘कैदी भाग गया, कैदी भाग गया,’’ मैं पूरी शक्ति से चिल्लाया. रात के सन्नाटे में मेरी आवाज दूर तक गूंज गई.

मैं ने पहरेदार की जेब से चाबी निकाल कर फुरती से बैरक का दरवाजा खोला. भीतर घुसते ही मैं चौंक पड़ा. बैरक के रोशनदान की सलाखें कटी थीं और शाहदीप उस से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था किंतु रोशनदान छोटा होने के कारण उसे परेशानी हो रही थी.

‘‘शाहदीप, रुक जाओ,’’ मैं पूरी ताकत से चीख पड़ा और अपना रिवाल्वर उस पर तान कर सर्द स्वर में बोला, ‘‘शाहदीप, अगर तुम नहीं रुके तो मैं गोली मार दूंगा.’’

मेरे स्वर की सख्ती को शायद शाहदीप ने भांप लिया था. अपने धड़ को पीछे खिसका सिर निकाल कर उस ने कहर भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा. अगले ही पल उस का दायां हाथ सामने आया. उस में छोटा सा रिवाल्वर दबा हुआ था. उसे मेरी ओर तानते हुए वह गुर्राया, ‘‘ब्रिगेडियर दीपक कुमार सिंह, वापस लौट जाइए वरना मैं अपने रास्ते में आने वाली हर दीवार को गिरा दूंगा, चाहे वह कितनी ही मजबूत क्यों न हो.’’

इस बीच कैप्टन बोस और कई सैनिक दौड़ कर वहां आ गए थे. इस से पहले कि वे बैरक के भीतर घुस पाते शाहदीप दहाड़ उठा, ‘‘तुम्हारा ब्रिगेडियर मेरे निशाने पर है. अगर किसी ने भी भीतर घुसने की कोशिश की तो मैं इसे गोली मार दूंगा.’’

आगे बढ़ते कदम जहां थे वहीं रुक गए. बड़ी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई थी. हम दोनों एकदूसरे पर निशाना साधे हुए थे.

‘‘लेफ्टिनेंट शाहदीप, तुम यहां से भाग नहीं सकते,’’ मैं गुर्राया.

‘‘और तुम मुझे पकड़ नहीं सकते, ब्रिगेडियर,’’ शाहदीप ने अपना रिवाल्वर मेरी ओर लहराया, ‘‘मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि वापस लौट जाओ वरना मैं गोली मार दूंगा.’’

मेरे वापस लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. शाहदीप जिस स्थिति में लटका हुआ था उस में ज्यादा देर नहीं रहा जा सकता था. जाने क्या सोच कर उस ने एक बार फिर अपने शरीर को रोशनदान की तरफ बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘धांय…धांय…’’ मेरे रिवाल्वर से 2 गोलियां निकलीं. शाहदीप की पीठ इस समय मेरी ओर थी. दोनों ही गोलियां उस की पीठ में समा गईं. वह किसी चिडि़या की तरह नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा.

मुझे और बरदाश्त नहीं हुआ. अपना रिवाल्वर फेंक मैं उस की ओर दौड़ पड़ा और उस का सिर अपने हाथों में ले बुरी तरह फफक पड़ा, ‘‘शाहदीप, मेरे बेटे, मुझे माफ कर दो.’’

कैप्टन बोस दूसरे सैनिकों के साथ इस बीच भीतर आ गए थे. मुझे इस तरह रोता देख वे चौंक पड़े, ‘‘सर, यह आप क्या कह रहे हैं.’’

‘‘कैप्टन, तुम तो जानते ही हो कि मेरी शादी एक पाकिस्तानी लड़की से हुई थी. यह मेरा बेटा है. मैं इस के निशाने पर था अगर चाहता तो यह पहले गोली चला सकता था लेकिन इस ने ऐसा नहीं किया,’’ इतना कह कर मैं ने शाहदीप के सिर को झिंझोड़ते हुए पूछा, ‘‘बता, तू ने मुझे गोली क्यों नहीं मारी? बता, तू ने ऐसा क्यों किया?’’

शाहदीप ने कांपते स्वर में कहा, ‘‘डैडी, जन्मदाता के लिए त्याग करने का अधिकार सिर्फ हिंदुस्तान के लोगों का ही नहीं हम पाकिस्तानियों का भी इस पर बराबर का हक है.’’

शाहदीप ने एक बार फिर मुझे बहुत छोटा साबित कर दिया था. मैं उसे अपने सीने से लगा कर बुरी तरह रो पड़ा.

‘‘डैडी, जीतेजी तो मैं आप की गोद में न खेल सका किंतु अंतिम समय मेरी यह इच्छा पूरी हो गई. अब मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है.’’

इसी के साथ शाहदीप ने एक जोर की हिचकी ली और उस की गरदन एक ओर ढुलक गई. मेरे हाथ में थमा उस का हाथ फिसल गया और इसी के साथ उस की उंगली में दबी अंगूठी मेरे हाथों में आ गई. उस अंगूठी पर दृष्टि पड़ते ही मैं एक बार फिर चौंक पड़ा. उस में भी एक नन्हा सा कैमरा फिट था. इस का मतलब उस ने एकसाथ 2 कैमरों से वीडियोग्राफी की थी. एक कैमरा हमें दे कर उस ने अपने एक फर्ज की पूर्ति की थी और अब दूसरा कैमरा ले कर अपने दूसरे फर्ज की पूर्ति करने जा रहा था.

शाहदीप के निर्जीव शरीर से लिपट कर मैं विलाप कर उठा. अपने आंसुओं से उसे भिगो कर मैं अपना प्रायश्चित करना चाहता था तभी कैप्टन बोस ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘सर, आंसू बहा कर शहीद की आत्मा का अपमान मत कीजिए.’’

मैं ने आंसू भरी नजरों से कैप्टन बोस की ओर देखा फिर भर्राए स्वर में पूछा, ‘‘कैप्टन, क्या तुम मेरे बेटे को शहीद मानते हो?’’

‘‘हां, सर, ऐसी शहादत न तो पहले कभी किसी ने दी थी और न ही आगे कोई देगा. एक वीर के बेटे ने अपने बाप से भी बढ़ कर वीरता दिखाई है. इस का जितना भी सम्मान किया जाए कम है,’’ इतना कह कर कैप्टन बोस ने शाहदीप के पार्थिव शरीर को सैल्यूट मारा फिर पीछे मुड़ कर अपने सैनिकों को इशारा किया.

सब एक कतार में खड़े हो कर आसमान में गोली बरसाने लगे. पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट को 101 गोलियों की सलामी देने के बाद ही हिंदुस्तानी रायफलें शांत हुईं. दुनिया में आज तक किसी भी शहीद को इतना बड़ा सम्मान प्राप्त नहीं हुआ होगा.

मेरे कांपते हाथ खुद ही ऊपर उठे और उस वीर को सलामी देने लगे.

इसी को कहते हैं जीना : कैसा था नेहा का तरीका -भाग 3

‘‘ललिता का तो स्वभाव ही है. कोई एक कदम इस की तरफ बढ़ाए तो यह 10 कदम आगे बढ़ कर उस का साथ देती है. हम नएनए इस शहर में आए थे. यह लड़की एक शाम फोन करने आई थी. उस का फोन काम नहीं कर रहा था… गलती तो ललिता की ही थी… किसी की भी तरफ बहुत जल्दी झुक जाती है.’’

स्तब्ध था मैं. अगर मुझ से भी नहीं मिलती तो किस से मिलती है आजकल?

4 दिन और बीत गए. मैं आफिस के बाद हर शाम अस्पताल चला जाता. मुझे देखते ही ललिताजी का चेहरा खिल जाता. एक बार तो ठिठोली भी की उन्होंने.

‘‘बेचारा बच्चा फंस गया हम बूढ़ों के चक्कर में.’’

‘‘आप मेरी मां जैसी हैं. घर पर होता और मां बीमार होतीं तो क्या उन के पास नहीं जाता मैं?’’

‘‘नेहा से कब मिलते हो तुम? हर शाम तो यहां चले आते हो?’’

‘‘वह मिलती ही नहीं.’’

‘‘कोई काम नहीं होगा न. काम पड़ेगा तो दौड़ी चली आएगी,’’ ललिताजी ने ही उत्तर दिया.

शर्माजी कुछ समय के लिए घर गए तब ललिताजी ने इशारे से पास बुलाया और कहने लगीं, ‘‘मुझे माफ कर देना बेटा, मेरी वजह से ही तुम नेहा के करीब आए. वह अच्छी लड़की है लेकिन बेहद स्वार्थी है. मोहममता जरा भी नहीं है उस में. हम इनसान हैं बेटा, सामाजिक जीव हैं हम… अकेले नहीं जी सकते. एकदूसरे की मदद करनी पड़ती है हमें. शायद यही वजह है, नेहा अकेली है. किसी की पीड़ा से उसे कोई मतलब नहीं है.’’

‘‘वह आप से मिलने एक बार भी नहीं आई?’’

‘‘उसे पता ही नहीं होगा. पता होता तो शायद आती…और पता वह कभी लेती ही नहीं. जरूरत ही नहीं समझती वह. तुम मिलना चाहो तो जाओ उस के घर, इच्छा होगी तो बात करेगी वरना नहीं करेगी… दोस्ती तक ही रखना तुम अपना रिश्ता, उस से आगे मत जाना. इस तरह के लोग रिश्तों में बंधने लायक नहीं होते, क्योंकि रिश्ते तो बहुत कुछ मांगते हैं न. प्यार भी, स्नेह भी, अपनापन भी और ये सब उस के पास हैं ही नहीं.’’

शर्माजी आए तो ललिताजी चुप हो गईं. शायद उन के सामने वह अपने स्नेह, अपने ममत्व को ठगा जाना स्वीकार नहीं करना चाहती थीं या अपनी पीड़ा दर्शाना नहीं चाहती थीं.

3-4 दिन और बीत गए. ललिताजी घर आ चुकी थीं. नेहा एक बार भी उन से मिलने नहीं आई. लगभग 3 दिन बाद वह लंच में मुझ से मिलने मेरे आफिस चली आई. बड़े प्यार से मिली.

‘‘कहां रहीं तुम इतने दिन? मेरी याद नहीं आई तुम्हें?’’ जरा सा गिला किया था मैं ने.

‘‘जरा व्यस्त थी मैं. घर की सफाई करवा रही थी.’’

‘‘10 दिन से तुम्हारे घर की सफाई ही चल रही है. ऐसी कौन सी सफाई है भई.’’

मन में सोच रहा था कि देखते हैं आज कौन सा काम पड़ गया है इसे, जो जबान में मिठास घुल रही है.

‘‘क्या लोगी खाने में, क्या मंगवाऊं?’’

खाने का आर्डर दिया मैं ने. इस से पहले भी जब हम मिलते थे खाना मैं ही मंगवाता था. अपनी पसंद का खाना मंगवा लिया नेहा ने. खाने के दौरान कभी मेरी कमीज की तारीफ करती तो कभी मेरी.

‘‘शर्माजी और ललिताजी कैसी हैं? शर्माजी छुट्टी पर हैं न, कहीं बाहर गए हैं क्या?’’

‘‘पता नहीं, मैं ने बहुत दिन से उन्हें देखा नहीं.’’

‘‘अरे भई, तुम इस देश की प्रधानमंत्री हो क्या जो इतना काम रहता है तुम्हें. 2 घर छोड़ कर तो रहते हैं वह…और तुम्हारा इतना खयाल भी रखते हैं. 10 दिन से वह तुम से मिले नहीं.’’

‘‘मेरे पास इतना समय नहीं होता. 2 बजे तो स्कूल से आती हूं. 4 बजे बच्चे ट्यूशन पढ़ने आ जाते हैं. 7 बजे तक उस में व्यस्त रहती हूं. इस बीच काम वाली बाई भी आ जाती है…’’

‘‘किसी का हालचाल पूछने के लिए आखिर कितना समय चाहिए नेहा. एक फोन काल या 4-5 मिनट में जा कर भी इनसान वापस आ जाता है. उन के और तुम्हारे घर में आखिर दूरी ही कितनी है.’’

‘‘मुझे बेकार इधरउधर जाना अच्छा नहीं लगता और फिर ललिताजी तो हर पल खाली रहती हैं. उन के साथ बैठ कर गपशप लगाने का समय नहीं होता मेरे पास.’’

नेहा बड़ी तल्खी में जवाब दे रही थी. खाना समाप्त हुआ और वह अपने मुद्दे पर आ गई. अपने पर्स से राशन कार्ड और पैन कार्ड निकाल उस ने मेरे सामने रख दिए.

‘‘यह देखो, इन दोनों में मेरी जन्मतिथि सही नहीं लिखी है. 7 की जगह पर 1 लिखी गई है. जरा इसे ठीक करवा दो.’’

हंस पड़ा मैं. इतनी हंसी आई मुझे कि स्वयं पर काबू पाना ही मुश्किल सा हो गया. किसी तरह संभला मैं.

‘‘तुम ने क्या सोचा था कि तुम्हारा काम हो गया और अब कभी किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी. मत भूलो नेहा कि जब तक इनसान जिंदा है उसे किसी न किसी की जरूरत पड़ती है. जिंदा ही क्यों उसे तो मरने के बाद भी 4 आदमी चाहिए, जो उठा कर श्मशान तक ले जाएं. राशन कार्ड और पैन कार्ड जब तक नहीं बना था तुम्हारा मुझ से मिलना चलता रहा. 10 दिन से तुम मिलीं नहीं, क्योंकि तुम्हें मेरी जरूरत नहीं थी. आज तुम्हें पता चला इन में तुम्हारी जन्मतिथि सही नहीं तो मेरी याद आ गई …फार्म तुम ने भरा था न, जन्मतिथि तुम ने भरी थी…उस में मैं क्या कर सकता हूं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो तुम?’’ अवाक्  तो रहना ही था नेहा को.

‘‘अंधे को अंधा कैसे कहूं…उसे बुरा लग सकता है न.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब साफ है…’’

उसी शाम ललिताजी से मिलने गया. उन्हें हलका बुखार था. शर्माजी भी थकेथके से लग रहे थे. वह बाजार जाने वाले थे, दवाइयां और फल लाने. जिद कर के मैं ही चला गया बाजार. वापस आया और आतेआते खाना भी लेता आया. ललिताजी के लिए तो रोज उबला खाना बनता था जिसे शर्माजी बनाते भी थे और खाते भी थे. उस दिन मेरे साथ उन्होंने तीखा खाना खाया तो लगा बरसों के भूखे हों.

‘‘मैं कहती थी न अपने लिए अलग बनाया करें. उबला खाना खाया तो जाता नहीं, उस पर भूखे रह कर कमजोर भी हो गए हैं.’’

ललिताजी ने पहली बार भेद खोला. दूसरे दिन से मैं रोज ही अपना और शर्माजी का खाना पैक करा कर ले जाने लगा. नेहा की हिम्मत अब भी नहीं हुई कि वह एक बार हम से आ कर मिल जाती. हिम्मत कर के मैं ने सारी आपबीती उन्हें सुना दी. दोनों मेरी कथा सुनने के बाद चुप थे. कुछ देर बाद शर्माजी कहने लगे, ‘‘सोचा था, प्यारी सी बच्ची का साथ रहेगा तो अच्छा लगेगा. उसे हमारा सहारा रहेगा हमें उस का.’’

‘‘सहारा दिया है न हमें प्रकृति ने. बच्ची का सहारा तो सिर्फ हम ही थे… बदले में सहारा देने वाला मिला है हमें… यह बच्चा मिला है न.’’

ललिताजी की आंखें नम थीं, मेरी बांह थपथपा रही थीं वह. मेरा मन भी परिवार के साथ रहने को होता था पर घर दूर था. मुझे भी तो परिवार मिल गया था परदेस में. कौन किस का सहारा था, मैं समझ नहीं पा रहा था. दोनों मुझे मेरे मातापिता जैसे ही लग रहे थे. वे मुझे सहारा मान रहे थे और मैं उन्हें अपना सहारा मान रहा था, क्योंकि शाम होते ही मन होता भाग कर दोनों के पास चला जाऊं.

क्या कहूं मैं? अपनाअपना तरीका है जीने का. कुदरत ने लाखों, करोड़ों जीव बनाए हैं, जो आपस में कभी मिलते हैं और कभी नहीं भी मिलते. नेहा का जीने का अपना तरीका है जिस में वह भी किसी तरह जी ही लेगी. बस, इतना मान सकते हैं हम तीनों कि हम जैसे लोग नेहा जैसों के लिए नहीं बने, सो कैसा अफसोस? सोच सकते हैं कि हमारा चुनाव ही गलत था. कल फिर समय आएगा…कल फिर से कुछ नया तलाश करेंगे, यही तो जीवन है, इसी को तो कहते हैं जीना.

Yeh Rishta Kya Kehlata Hai: रोहित का होगा एक्सीडेंट, पोद्दार परिवार पर टूटेगा दुखों का पहाड़

Yeh Rishta Kya Kehlata Hai: स्टार प्लस का चर्चित टीवी सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में आए दिन धमाकेदार ट्विस्ट देखने को मिल रहा है। जिससे दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता है। शो के लेटेस्ट एपिसोड में आपने देखा कि अक्षरा और अभिमन्यु का ट्रैक खत्म हो गया है और अभिरा-अरमान की कहानी पर फोकस किया जा रहा है।

तो दूसरी तरफ रोहित को रूही और अरमान के प्यार के बारे में पता चल गया है से में वह पोद्दार परिवार को छोड़कर चला जाता है, लेकिन अभिरा उसे घर लाने की कोशिश करती है। शो के अपकमिंग एपिसोड में दर्शकों का फुल मनोरंजन होने वाला है। आइए जानते हैं शो के लेटेस्ट एपिसोड के बारे में।

क्या अरमान को माफ करेगी अभिरा

शो के नए एपिसोड में आप देखेंगे कि अरमान वह अभिरा को काफी कुछ सुना देता है, लेकिन बाद में वह अभिरा से माफी भी मांगता है। अभिरा अपना दर्द अरमान के सामने बयां करती है। वह कहती है कि कैसे परिवार का हर सदस्य साथ उठता बैठता है, लेकिन वह कमरे में अकेले पड़ी रहती है। इसलिए वह घर छोड़कर जा रही है। अरमान की मां भी उसे रुकने के लिए कहती है और अभिरा से हाथ जोड़कर माफी मांगती है।

आप शो में ये भी देखेंगे कि रूही अभिरा को समझाती है कि उसे सोच समझकर अपना फैसला लेना चाहिए, लेकिन अभिरा रूही के साथ एक गेम खेलकर फैसला लेने का सोचती है। इस खेल से अभिरा कोई फैसला नहीं ले पाती है।

रोहित का होगा एक्सीडेंट

शो के लेटेस्ट एपिसोड में एक नया ट्विस्ट देखने को मिलेगा कि आप शो में देखेंगे कि रोहित का स्वागत करने के लिए अरमान बाइक को सजाता है। तो दूसरी तरफ पौद्दार परिवार में दो पुलिस ऑफिसर आते हैं, जो रोहित के एक्सीडेंट के बारे में बताते हैं। यह बात सबसे पहले अभिरा को पता चलती है और वह सबको बताती है, दूसरी तरफ रूही को भी रोहित के कार एक्सीडेंट के बारे में पता चलता है और वह सदमे में चली जाती है।

अब कोई नाता नहीं : अतुल-सुमित कौन बना अपना – भाग 3

कांता प्रसाद और राम प्रसाद की नम आंखों में भी हंसी चमक उठी. कांता प्रसाद ने अतुल को इशारे से अपने करीब बुलाया और अपने पास बैठाते हुए कहा, “समझे. मैं जल्दी ही वकील से यह दुकान तुम्हारे नाम करवाने के लिए बात कर लूंगा.’’

अतुल बीच में बोल पड़ा, ‘‘नहीं ताऊजी, मेरी अपनी दुकान अच्छी चल रही है. प्लीज, आप ऐसा न करें.’’

‘‘अरे अतुल, मुझे पता है, तेरी दुकान कितनी अच्छी चलती है, एक कोने में तेरी छोटी सी दुकान है और अस्पताल से बहुत दूर भी. बस, तू मेरी बात मान ले. अपने ताऊजी से बहस न कर,’’ कांता प्रसाद ने मुसकराते हुए अतुल को डांट दिया.

‘‘भाईसाहब, आप ऐसा न करें, दुकान भले ही चलाने के लिए हमें किराए पर दे दें पर इसे अतुल के नाम पर न करें, सुमित…’’

राम प्रसाद भविष्य का विचार करते हुए सुझाव देने लगे तो कांता प्रसाद किंचित आवेश में बीच में बोल पड़े, ‘‘अरे रामू, यह मेरी प्रौपर्टी है, मैं चाहे जिसे दे दूं. सुमित से अब हम कोई नाता नहीं रखना नहीं चाहते हैं. अब वह हमारा नहीं रहा. सुमित ने तो अपनी अलग दुनिया बसा ली है. उसे हम दोनों की कोई जरूरत नहीं है. अब तो अतुल ही हमारा बेटा है.’’

कांता प्रसाद की आंखें फिर छलक गईं. राम प्रसाद ने इस समय बात को और आगे बढ़ाना उचित न समझा.

कुछ ही देर में निशा और दिशा किचन से नाश्ता ले कर बाहर आ गईं. रमा ने निशा और दिशा को अपने पास बैठाया. दोनों रमा के दाएंबाएं बैठ गईं. रमा ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘ये जुड़वां बहनें जब छोटी थीं तब दोनों छिपकली की तरह मुझ से चिपकी रहती थीं. रात को सरला बेचारी सो नहीं पाती थी. तब मैं एक को अपने पास सुलाती थी. इन का पालनपोषण करना सरला के लिए तार पर कसरत करने के समान था.

‘‘देखो, अब ये कितनी बड़ी हो गई हैं.’’ यह कहते हुए रमा निशा और दिशा का माथा चूमने लगी, फिर कांता प्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए बोली, ‘‘आप ने बहुत बातें कर लीं जी, अब मेरी बात भी सुन लो. मैं ने निशा और दिशा का कन्यादान करने का निर्णय लिया है. इन दोनों के विवाह का संपूर्ण खर्च मैं करूंगी. अतुल इन्हें जितना पढ़ना है, पढ़ने देना और अगर तुम प्राइवेटली आगे पढ़ना चाहो तो पढ़ सकते हो. अब तुम्हें और तुम्हारे मम्मीपापा को निशादिशा की चिंता करने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘रमा, तुम ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मैं भी यही कहने वाला था. हम तो बेटी के लिए तरस रहे थे. ये अपनी ही तो बेटियां हैं.’’

कांता प्रसाद ने उत्साहित होते हुए कहा तो उन का चेहरा खुशी से चमक उठा मगर उन की बातें सुन कर राम प्रसाद और मूकदर्शक बन कर बैठी सरला की आंखों से आंसुओं की धारा धीरेधीरे बहने लग गई.

माहौल फिर गंभीर बन रहा था, इस बार निशा ने माहौल को हलकाफुलका करते हुए कहा, ‘‘आप सब तो बस बातें करने में ही मशगूल हो गए हैं. चाय की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है. देखो, यह ठंडी हो गई है. मैं फिर से गरम कर के लाती हूं.’’ यह कहते हुए निशा उठी तो उस के साथसाथ दिशा भी खड़ी हो गई. दिशा ने सभी के सामने रखी नाश्ते की खाली प्लेटें उठाईं तो निशा ने ठंडी चाय से भरे कप उठाए. फिर दोनों किचन की ओर मुड़ गईं जिन्हें कांता प्रसाद और रमा अपनी नजरों से ओझल हो जाने तक डबडबाई आंखों से देखते रहे.

फलक से टूटा इक तारा: सान्या का यह एहसास- भाग 3

सान्या सोचने लगी, ‘कल तक जो देव मेरी हर बात का दीवाना हुआ करता था उसे आज अचानक से क्या हो गया है?’ यदि सान्या उस से बात करना भी चाहती तो वह मुंह फेर कर चल देता. अब सान्या मन ही मन बहुत परेशान रहने लगी थी. बारबार सोचती, कुछ तो है जो देव मुझ से छिपा रहा है. अब वह देव पर नजर रखने लगी थी और उसे मालूम हुआ कि देव का उस से पहले भी एक लड़की से प्रेमप्रसंग था और अब वह फिर से उस से मिलने लगा है.

सान्या सोचने लगी, ‘तो क्या देव, मुझे शादी के झूठे सपने दिखा रहा है.’ यदि अब वह देव से शादी के बारे में बात करती तो देव उसे किसी न किसी बहाने से टाल ही देता. और आज तो हद ही हो गई, जब सान्या ने देव से कहा, ‘‘हमारी शादी का दिन तय करो.’’ देव उस की यह बात सुन  मानो तिलमिला गया हो. वह कहने लगा, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने है, आज हम शादी कर लें और कल बच्चे? इतना बड़ा पेट ले कर घूमोगी तो कौन से धारावाहिक वाले तुम्हें काम देंगे. तुम्हारे साथसाथ मेरा भी कैरियर चौपट जब सब को पता लगेगा कि मैं ने तुम से शादी कर ली है.’’

सान्या कानों से सब सुन रही थी लेकिन जो देव कह रहा था उस पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था. उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया था. वह तो सोच भी नहीं सकती थी कि देव उस के साथ ऐसा व्यवहार करेगा. वह तो शादी के सपने संजोने लगी थी. उसे नहीं मालूम था कि देव उस के सपने इतनी आसानी से कुचल देगा. तो क्या देव सिर्फ उस का इस्तेमाल कर रहा था या उस के साथ टाइमपास कर रहा था. उस का प्यार क्या एक छलावा था. वह सोचने लगी कि ऐसी क्या कमी आ गई अचानक से मुझ में कि देव मुझ से कटने लगा है.

कई धारावाहिकों में अपनी मनमोहक छवि और मुसकान के लिए सब का चहेता देव, क्या यही है उस की असलियत? जिस देव की न जाने कितनी लड़कियां दीवानी हैं क्या उस देव की असलियत इतनी घिनौनी है? वह मन ही मन अपने फैसले को कोस रही थी और अंदर ही अंदर टूटती जा रही थी, लेकिन उस ने सोच लिया था कि देव उस से इस तरह पीछा नहीं छुड़ा सकता. अगले दिन जब देव शूटिंग खत्म कर के घर जा रहा था, सान्या भी उस के साथ कार में आ कर बैठ गई और उस ने पूछा, ‘‘देव, क्या तुम किसी और से प्यार करते हो? मुझे सचसच बताओ क्या तुम मुझ से शादी नहीं करोगे?’’

आज देव के मुंह से कड़वा सच निकल ही गया, ‘‘क्यों तुम हाथ धो कर मेरे पीछे पड़ गई हो, सान्या? मेरा पीछा छोड़ो,’’ यह कह देव अपनी कार साइड में लगा कर वहां से पैदल चल दिया. लेकिन सान्या क्या करती? वह भी दौड़ कर उस के पीछे गई और कहने लगी, ‘‘मैं ने तुम से प्यार किया है, देव, क्या तुम ने मुझे सिर्फ टाइमपास समझा? नहीं देव, नहीं, तुम मुझे इस तरह नहीं छोड़ सकते. बहुत सपने संजोए हैं मैं ने तुम्हारे साथ. क्या तुम मुझे ठुकरा दोगे?’’

देव को सान्या की बातें बरदाश्त से बाहर लग रही थीं और उसी गुस्से में उस ने सान्या के गाल पर तमाचा जड़ते हुए कहा, ‘‘तुम मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ती?’’ सान्या वहां से उलटे कदम घर चली आई.

अब तो सान्या की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया था. न तो उस का शूटिंग में मन लगता था और न ही कहीं और. इतनी जानीमानी मौडल, इतने सारे नामी धारावाहिकों की हीरोइन की ऐसी दुर्दशा. यह हालत. वह तो इस सदमे से उबर ही नहीं पा रही थी. पिछले 4 दिनों से न तो वह शूटिंग पर गई और न ही किसी से फोन पर बात की. कई फोन आए पर उस ने किसी का भी जवाब नहीं दिया.

आज उस ने देव को फोन किया और कहा, ‘‘देव, क्या तुम मुझे मेरे अंतिम समय में भी नहीं मिलोगे? मैं इस दुनिया को छोड़ कर जा रही हूं, देव,’’ इतना कह फोन पर सान्या की अवाज रुंध गई. देव को तो कुछ समझ ही न आया कि वह क्या करे? वह झट से कार ले कर सान्या के घर पहुंचा. लिफ्ट न ले कर सीधे सीढि़यों से ही सान्या के फ्लैट पर पहुंचा.

दरवाजा अंदर से लौक नहीं था. वह सीधे अंदर गया, सान्या पंखे से झूल रही थी. उस ने झट से पड़ोसियों को बुलाया और सब मिल कर सान्या को अस्पताल ले कर गए. लेकिन वहां सान्या को मृत घोषित कर दिया गया.

सान्या इस दुनिया से चली गई, उस दुनिया में जिस में उस ने सुनहरे ख्वाब देखे थे, वह दुनिया जिस में वह देव के साथ गृहस्थी बसाना चाहती थी, वह दुनिया जिस की चमकदमक में वह भूल गई कि फरेब भी एक शब्द होता है और देव से जीजान से मुहब्बत कर बैठी या फिर वह इस दुनिया के कड़वे एहसास से अनभिज्ञ थी. उसे लगता था कि ये बड़ीबड़ी हस्तियां, बडे़ स्टेज शो, पार्टियों में चमकीले कपड़े पहने लोग और बड़ी ही पौलिश्ड फर्राटेदार अंगरेजी बोलने वाले लोग सच में बहुत अच्छे होते हैं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि उस दुनिया और हम जैसे साधारण लोगों की दुनिया में कोई खास फर्क नहीं. हमारी दुनिया की जमीन पर खड़े हो जब हम आसमान में चमकते सितारे देखते हैं तो वे कितने सुंदर, टिमटिमाते हुए नजर आते हैं. किंतु उन्हीं सितारों को आसमान में जा कर तारों के धरातल पर खड़े हो कर जब हम देखें तो उन सितारों की चमक शून्य हो जाती है और वहां से हमारी धरती उतनी ही चमकती हुई दिखाई देती है जितनी कि धरती से आसमान के तारे. फिर क्यों हम उस ऊपरी चमक से प्रभावित होते हैं?

ये चमकदार कपड़े, सूटबूट सब ऊपरी दिखावा ही तो है दूसरों को रिझाने के लिए. तभी तो सान्या इन सब के मोहपाश में पड़ गई और देव से सच्चा प्यार कर बैठी. वह यह नहीं समझ पाई कि इंसान तो इंसान है, मुंबई के फिल्मी सितारों की दुनिया हो या छोटे से कसबे के साधारण लोगों की दुनिया, इंसानी फितरत तो एक सी ही होती है चाहे वह कितनी भी ऊंचाइयां क्यों न हासिल कर ले. लेकिन कहते हैं न, दूर के ढोल सुहावने. खैर, अब किया भी क्या जा सकता था.

लेकिन हां, हर पल मुसकराने वाली सान्या जातेजाते सब को दुखी कर गई और छोड़ गई कुछ अनबूझे सवाल. झूठे प्यार के लिए अपनी जान देने वाली सान्या अपनी जिंदगी को कोई दूसरा खूबसूरत मोड़ भी तो दे सकती थी. इतनी गुणी थी वह, अपने जीवन में बहुतकुछ कर सकती थी. सिर्फ जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को जीवित रख लेती और देव को भूल जीवन में कुछ नया कर लेती. काश, वह समझ पाती इस दुनिया को. कितनी नायाब होती है उन सितारों की चमक जो चाहे दूर से ही, पर चमकते दिखाई तो देते हैं. सभी को तो नहीं हासिल होती वह चमक. तो फिर क्यों किसी बेवफा के पीछे उसे धूमिल कर देना. काश, समझ पाती सान्या. खैर, अब तो ऐसा महसूस हो रहा था जैसे फलक से एक चमकता तारा अचानक टूट गया हो.

अधूरे प्यार की टीस: क्यों हुई पतिपत्नी में तकरार – भाग 3

जिम्मेदारियों व उत्तरदायित्वों के समक्ष अपने दिल की खुशियों व मन की इच्छाओं की सदा बलि चढ़ाने वाले राकेशजी, अंजु के लिए अपने दिल का प्रेम दर्शाने वाला ‘लव’ शब्द इस पल भी अधूरा छोड़ कर इस दुनिया से सदा के लिए विदा हो गए थे.

राकेशजी अपनी पत्नी सीमा को भरपूर प्यार व सम्मान देते थे और उस की जरूरतों का भी काफी खयाल रखते थे पर सीमा के मन में एक ऐसी शंका ने जन्म ले लिया जिस की वजह से उन की गृहस्थी बिखर गई.

राहट में डा. खन्ना को नए जोश, ताजगी और खुशी के भाव नजर आए तो उन्होंने हंसते हुए पूछा, ‘‘लगता है, अमेरिका से आप का बेटा और वाइफ आ गए हैं, मिस्टर राकेश?’’

‘‘वाइफ तो नहीं आ पाई पर बेटा रवि जरूर पहुंच गया है. अभी थोड़ी देर में यहां आता ही होगा,’’ राकेशजी की आवाज में प्रसन्नता के भाव झलक रहे थे.

‘‘आप की वाइफ को भी आना चाहिए था. बीमारी में जैसी देखभाल लाइफपार्टनर करता है वैसी कोई दूसरा नहीं कर सकता.’’

‘‘यू आर राइट, डाक्टर, पर सीमा ने हमारे पोते की देखभाल करने के लिए अमेरिका में रुकना ज्यादा जरूरी समझा होगा.’’

‘‘कितना बड़ा हो गया है आप का पोता?’’

‘‘अभी 10 महीने का है.’’

‘‘आप की वाइफ कब से अमेरिका में हैं?’’

‘‘बहू की डिलीवरी के 2 महीने पहले वह चली गई थी.’’

‘‘यानी कि वे साल भर से आप के साथ नहीं हैं. हार्ट पेशेंट अगर अपने जीवनसाथी से यों दूर और अकेला रहेगा तो उस की तबीयत कैसे सुधरेगी? मैं आप के बेटे से इस बारे में बात करूंगा. आप की पत्नी को इस वक्त आप के पास होना चाहिए,’’ अपनी राय संजीदा लहजे में जाहिर करने के बाद डा. खन्ना ने राकेशजी का चैकअप करना शुरू कर दिया.

डाक्टर के जाने से पहले ही नीरज राकेशजी के लिए खाना ले कर आ गया.

‘‘तुम हमेशा सही समय से यहां पहुंच जाते हो, यंग मैन. आज क्या बना कर भेजा है अंजुजी ने?’’ डा. खन्ना ने प्यार से रवि की कमर थपथपा कर पूछा.

‘‘घीया की सब्जी, चपाती और सलाद भेजा है मम्मी ने,’’ नीरज ने आदरपूर्ण लहजे में जवाब दिया.

‘‘गुड, इन्हें तलाभुना खाना नहीं देना है.’’

‘‘जी, डाक्टर साहब.’’

‘‘आज तुम्हारे अंकल काफी खुश दिख रहे हैं पर इन्हें ज्यादा बोलने मत देना.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर साहब.’’

‘‘मैं चलता हूं, मिस्टर राकेश. आप की तबीयत में अच्छा सुधार हो रहा है.’’

‘‘थैंक यू, डा. खन्ना. गुड डे.’’

डाक्टर के जाने के बाद हाथ में पकड़ा टिफिनबौक्स साइड टेबल पर रखने के बाद नीरज ने राकेशजी के पैर छू कर उन का आशीर्वाद पाया. फिर वह उन की तबीयत के बारे में सवाल पूछने लगा. नीरज के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि वह राकेशजी को बहुत मानसम्मान देता था.

करीब 10 मिनट बाद राकेशजी का बेटा रवि भी वहां आ पहुंचा. नीरज को अपने पापा के पास बैठा देख कर उस की आंखों में खिं चाव के भाव पैदा हो गए.

‘‘हाय, डैड,’’ नीरज की उपेक्षा करते हुए रवि ने अपने पिता के पैर छुए और फिर उन के पास बैठ गया.

‘‘कैसे हालचाल हैं, रवि?’’ राकेशजी ने बेटे के सिर पर प्यार से हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया.

‘‘फाइन, डैड. आप की तबीयत के बारे में डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘बाईपास सर्जरी की सलाह दे रहे हैं.’’

‘‘उन की सलाह तो आप को माननी होगी, डैड. अपोलो अस्पताल में बाईपास करवा लेते हैं.’’

‘‘पर, मुझे आपरेशन के नाम से डर लगता है.’’

‘‘इस में डरने वाली क्या बात है, पापा? जो काम होना जरूरी है, उस का सामना करने में डर कैसा?’’

‘‘तुम कितने दिन रुकने का कार्यक्रम बना कर आए हो?’’ राकेशजी ने विषय परिवर्तन करते हुए पूछा.

‘‘वन वीक, डैड. इतनी छुट्टियां भी बड़ी मुश्किल से मिली हैं.’’

‘‘अगर मैं ने आपरेशन कराया तब तुम तो उस वक्त यहां नहीं रह पाओगे.’’

‘‘डैड, अंजु आंटी और नीरज के होते हुए आप को अपनी देखभाल के बारे में चिंता करने की क्या जरूरत है? मम्मी और मेरी कमी को ये दोनों पूरा कर देंगे, डैड,’’ रवि के स्वर में मौजूद कटाक्ष के भाव राकेशजी ने साफ पकड़ लिए थे.

‘‘पिछले 5 दिन से इन दोनों ने ही मेरी सेवा में रातदिन एक किया हुआ है, रवि. इन का यह एहसान मैं कभी नहीं उतार सकूंगा,’’ बेटे की आवाज के तीखेपन को नजरअंदाज कर राकेशजी एकदम से भावुक हो उठे.

‘‘आप के एहसान भी तो ये दोनों कभी नहीं उतार पाएंगे, डैड. आप ने कब इन की सहायता के लिए पैसा खर्च करने से हाथ खींचा है. क्या मैं गलत कह रहा हूं, नीरज?’’

‘‘नहीं, रवि भैया. आज मैं इंजीनियर बना हूं तो इन के आशीर्वाद और इन से मिली आर्थिक सहायता से. मां के पास कहां पैसे थे मुझे पढ़ाने के लिए? सचमुच अंकल के एहसानों का कर्ज हम मांबेटे कभी नहीं उतार पाएंगे,’’ नीरज ने यह जवाब राकेशजी की आंखों में श्रद्धा से झांकते हुए दिया और यह तथ्य रवि की नजरों से छिपा नहीं रहा था.

‘‘पापा, अब तो आप शांत मन से आपरेशन के लिए ‘हां’ कह दीजिए. मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं,’’ व्यंग्य भरी मुसकान अपने होंठों पर सजाए रवि कमरे से बाहर चला गया था.

‘‘अब तुम भी जाओ, नीरज, नहीं तो तुम्हें आफिस पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

राकेशजी की इजाजत पा कर नीरज भी जाने को उठ खड़ा हुआ था.

‘‘आप मन में किसी तरह की टेंशन न लाना, अंकल. मैं ने रवि भैया की बातों का कभी बुरा नहीं माना है,’’ राकेशजी का हाथ भावुक अंदाज में दबा कर नीरज भी बाहर चला गया.

नीरज के चले जाने के बाद राकेशजी ने थके से अंदाज में आंखें मूंद लीं. कुछ ही देर बाद अतीत की यादें उन के स्मृति पटल पर उभरने लगी थीं, लेकिन आज इतना फर्क जरूर था कि ये यादें उन को परेशान, उदास या दुखी नहीं कर रही थीं.

अपनी पत्नी सीमा के साथ राकेशजी की कभी ढंग से नहीं निभी थी. पहले महीने से ही उन दोनों के बीच झगड़े होने लगे थे. झगड़ने का नया कारण तलाशने में सीमा को कोई परेशानी नहीं होती थी.

शादी के 2 महीने बाद ही वह ससुराल से अलग होना चाहती थी. पहले साल उन के बीच झगड़े का मुख्य कारण यही रहा. रातदिन के क्लेश से तंग आ कर राकेश ने किराए का मकान ले लिया था.

अलग होने के बाद भी सीमा ने लड़ाईझगड़े बंद नहीं किए थे. फिर उस ने मकान व दुकान के हिस्से कराने की रट लगा ली थी. राकेश अपने दोनों छोटे भाइयों के सामने सीमा की यह मांग रखने का साहस कभी अपने अंदर पैदा नहीं कर सके. इस कारण पतिपत्नी के बीच आएदिन खूब क्लेश होता था.

3 बार तो सीमा ने पुलिस भी बुला ली थी. जब उस का दिल करता वह लड़झगड़ कर मायके चली जाती थी. गुस्से से पागल हो कर वह मारपीट भी करने लगती थी. उन के बीच होने वाले लड़ाईझगड़े का मजा पूरी कालोनी लेती थी. राकेश को शर्म के मारे सिर झुका कर कालोनी में चलना पड़ता था.

फिर एक ऐसी घटना घटी जिस ने सीमा को रातदिन कलह करने का मजबूत बहाना उपलब्ध करा दिया.

उन की शादी के करीब 5 साल बाद राकेश का सब से पक्का दोस्त संजय सड़क दुर्घटना का शिकार बन इस दुनिया से असमय चला गया था. अपनी पत्नी अंजु, 3 साल के बेटे नीरज की देखभाल की जिम्मेदारी दम तोड़ने से पहले संजय ने राकेश के कंधों पर डाल दी थी.

राकेशजी ने अपने दोस्त के साथ किए वादे को उम्र भर निभाने का संकल्प मन ही मन कर लिया था. लेकिन सीमा को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था कि वे अपने दोस्त की विधवा व उस के बेटे की देखभाल के लिए समय या पैसा खर्च करें. जब राकेश ने इस मामले में उस की नहीं सुनी तो सीमा ने अंजु व अपने पति के रिश्ते को बदनाम करना शुरू कर दिया था.

इस कारण राकेश के दिल में अपनी पत्नी के लिए बहुत ज्यादा नफरत बैठ गई थी. उन्होंने इस गलती के लिए सीमा को कभी माफ नहीं किया.

सीमा अपने बेटे व बेटी की नजरों में भी उन के पिता की छवि खराब करवाने में सफल रही थी. राकेश ने इन के लिए सबकुछ किया पर अपने परिवारजनों की नजरों में उन्हें कभी अपने लिए मानसम्मान व प्यार नहीं दिखा था.

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