Family Story: तालमेल – उनके बेटे-बहू में क्यों बदलाव आया?

Family Story, लेखक- सतीश सक्सेना

सुनयना का निधन 3 महीने पहले ही तो हुआ था. पत्नी का यूं अचानक चले जाना मेरे लिए बहुत घातक था. इस सदमे ने मेरे वजूद को तोड़ कर रख दिया था. मैं, मैं नहीं रहा था. मेरी स्थिति उस खंडहर मकान जैसी हो गई थी जो नींव से तो जुड़ा था पर मकान कहलाने लायक नहीं था. इन 3 महीनों में ही परिवार पर से मेरा दबदबा लगभग खत्म हो चला था. बहू स्नेहा, जो कभी मेरे पैरों की आहट से डरती और बचती फिरती थी, अब मुझ से जिरह करने लगी थी. बेटा प्रतीक मुझ से चेहरा उठा कर बात करने लगा था. दोनों पूरी तरह से गिरगिट की तरह रंग बदल चुके थे. आखिर क्यों? मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.

वैसे तो घर में सभी तरह के काम करने के लिए नौकर हैं पर अब मैं होलटाइमर हूं. चौबीस घंटे वाला खिदमतगार. झाड़ूपोंछा करने वाली सुबह 9 बजे आती है और अपना काम कर के 10 बजे तक चली जाती है. उस के कुछ देर बाद ही चौकाबरतन करने वाली आती है और पौन घंटे में काम खत्म कर के चली जाती है. कपड़े धोने के लिए अलग नौकरानी है और कार चलाने के लिए एक ड्राइवर भी है, लेकिन दिन में तो  24 घंटे होते हैं और 24 तरह के काम भी. सुनयना की मृत्यु के बाद से वे सभी काम मैं, 65 साल का बूढ़ा, संभालता हूं.

मैं ने बदलते हालात से समझौता कर लिया है. मेरा मानना है कि समझौता शब्द बहुत गुणकारी है. आप की सारी उलझनों को पल भर में सुलझा देता है. आप की जिंदगी में बड़े से बड़ा तूफान आ जाए, मुलायम घास की तरह झुक कर उसे गुजर जाने देना ठीक है. अकड़ू पेड़ तो टूट कर गिर जाते हैं.

पत्नी के निधन के कुछ दिन बाद प्रतीक गुस्से से भरा मेरे पास चला आया था. आते ही एक प्रश्न जड़ा था, ‘रात आप ने खाना क्यों नहीं खाया?’

मैं ने सहज भाव से कहा था, ‘कल हमारी शादी की वर्षगांठ थी, बेटे. तेरी मां की याद आ गई. फिर खाने का मन ही नहीं हुआ. रात तो मैं सो भी नहीं पाया.’

जब उसे एहसास हुआ कि मेरे भूखे सो जाने का कारण किसी प्रकार की नाराजगी नहीं थी तो नाटकीय अफसोस जताते हुए वह बोला, ‘ओह, मुझे याद ही नहीं रहा, बाबा. दरअसल, जिंदगी इतनी मशीनी हो गई है कि न दिन के गुजरने का एहसास होता है और न ही रात के. काम, काम और सिर्फ काम. आराम के पल, इन काम के पलों के बीच कहां खो जाते हैं, पता ही नहीं चलता? ऐसे में कोई क्याक्या याद रखे?’

प्रतीक चला गया था. और मैं सोचने लगा कि आज रिश्ते कितने संकुचित हो चले हैं. इस पीढ़ी के लोग यह तो याद रखते हैं कि पति का बर्थडे कब है? पत्नी का कब? बच्चों का कब? अपनी मैरिज ऐनीवरसरी कब है? पर हमारी पीढ़ी के बारे में कुछ याद नहीं रहता. यह कैसी विडंबना है? एक हमारा समय था. हम मातापिता को बेहिसाब सम्मान देते थे.  जबकि यह पीढ़ी तो मांबाप को नौकरों की तरह समझने में भी नहीं हिचकिचाती, सेवा करना तो दूर की बात है.

इस पीढ़ी की एक और खास आदत है, मातापिता का किया भूलने की. आज प्रतीक यह भी भूल चुका है कि उस की पढ़ाई के लिए हम ने यह घर कभी गिरवी रखा था. अपना भविष्य भुला कर उस का वर्तमान संवारा था. पता नहीं, इस पीढ़ी को अपने काम के सामने रिश्ते भी क्यों छोटे लगने लगते हैं? घर वालों से भी बातें करते समय शब्दों में व्यावसायिकता की बू आती है. पक्के पेशेवर हो चुके हैं. हमारी शादी की वर्षगांठ भूल जाने का बड़ा ही अच्छा बहाना बनाया था उस ने.

सुनयना की मृत्यु से पहले तक घर में, मेरा दबदबा हमेशा बना रहा. न प्रतीक ने कभी मुझ से आंखें मिला कर बात की और न ही स्नेहा ने कभी ऐसा व्यवहार किया, जिस से कि हमें ठेस पहुंचे. जीवन में हम ने मातापिता से यही सीखा था कि घर तो सभी बना लेते हैं. आदर्श घर भी बनाए जा सकते हैं, पर घर को प्यार भरा घर बनाना असंभव नहीं तो दूभर जरूर होता है.

ऐसा घर रिश्तों में प्यार व स्नेह की भावना से बनता है. प्यार केवल जोड़ता है, तोड़ता नहीं. उन की इस नसीहत को मैं ने घर की नींव में डाला था. यही कारण है कि मैं यह प्रयास करता रहता ताकि रिश्तों में कड़वाहट कभी न आए.

एक दिन शरीर की टूटन के कारण मैं देर तक सोता रह गया तो स्नेहा ने मुझे कमरे में आ कर जगाया. तेज आवाज में बोली, ‘बाबा, आप ने तो हद कर दी है. सुबह 10 बजे उठने की आदत बना डाली है. दिनभर हमारे पीछे आप सोते रहते हैं. मुफ्त का खाना खाते हैं. इस आलीशान घर में रहते हैं. आप को न पानी का बिल भरना पड़ता है और न ही लाइट का. सर्दी में हीटर और गरमी में एसी जैसी सुविधाएं तो हम ने जुटा ही रखी हैं तो क्या हम आप से यह उम्मीद भी न करें कि आप सुबह समय से उठ जाएं और घर संभालें? हम औफिस जा रहे हैं. घर में नौकर काम कर रहे हैं. उन्हें अकेला तो नहीं छोड़ा जा सकता. उठिए और घर का दरवाजा बंद कर लीजिए.’

स्नेहा मुझे नींद से झकझोर कर चली गई. मैं स्तब्ध था. सोच रहा था कि स्नेहा ने कितनी आसानी से मेरे एक दिन लेट उठने को, मेरी रोज की आदत में तबदील कर दिया था. शरीर की टूटन की परवा न करते हुए भी उठ कर दरवाजा बंद कर लिया था. कल प्रतीक ने भी ऐसा ही व्यवहार किया था. उस ने औफिस जाते समय मुझ से कहा था, ‘बाबा, आखिर इस तरह कब तक चलेगा? आप घर का जरा सा भी ध्यान नहीं रखते. घर से नौकर सामान चुराचुरा कर ले जाते हैं. रसोई से मसाले चोरी होते हैं. तेल, घी हर 15-20 दिन में खत्म हो जाते हैं. साबुन पता नहीं कहां जाते हैं. मेरा एक तौलिया और एक नीली शर्ट कितने दिनों से ढूंढ़े नहीं मिल रहे. स्नेहा की कई मैक्सियां और साडि़यां दिखाई नहीं देती हैं. घर में चोरियां न हों, आप को इस का खयाल तो रखना चाहिए. जरा इस तरफ भी अपना ध्यान लगाइए.’

मन ही मन मैं उबल कर रह गया. जी में आया कि मुंह पर कस कर एक थप्पड़ जड़ दूं. मुझे सिखाने चला है कि मैं क्या करूं, क्या न करूं? आज के बच्चे जब घर में भी प्रोफैशनल किस्म की बातें करते हैं तो मुझे गुस्सा कुछ ज्यादा ही आता है. चिढ़ होने लगती है. वैसे मैं समझ गया था कि उस ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया है? दिल्ली में विश्वासपात्र नौकर मिलना एक बड़ी समस्या है. बाहरी प्रदेशों से नौकरी की चाह लिए आए लोगों को बिना उन का आचरण और चरित्र जाने 24 घंटे घर में नहीं रखा जा सकता. पता नहीं वे कब कौन सा कांड कर बैठें या घर की बहुमूल्य संपत्ति ले कर चलते बनें. उन की इस जरूरत के लिए भला मुझ से अधिक लायक होलटाइमर नौकर और कौन हो सकता है?

बस, इसी क्षण मेरा मन घर से उचट गया. मुझे लगने लगा कि मेरी सल्तनत अब पूरी तरह से धराशायी हो गई है. परिवार में मेरी स्थिति शून्य हो गई है. घर में रोज बढ़ता तनाव मुझे पसंद नहीं था, इसलिए परेशानी मुझे अधिक थी. बेटाबहू मिल कर मुझ पर प्रहार किए जा रहे थे. परिवार में एकदूसरे को प्रतिदिन सहना यदि दूभर होने लगे तो घर टूटने की संभावनाएं बढ़ ही जाती हैं. घर टूटे, मुझे यह मंजूर नहीं था, क्योंकि मैं समझता था कि घर तोड़ना बहुत आसान है, उसे जोड़े रखना बहुत कठिन.

सोचा, कैसे हाथों से फिसलती रेत को रोकूं? अपनी परेशानियों को घर की चारदीवारी से बाहर जाने से बचाऊं? वह भी ऐसे समय में जब परिवार के किनारे टूटते हुए लग रहे हैं? रिश्तों में दरार साफसाफ दिखाई दे रही है. घर के झगड़े और रिश्तों में मनमुटाव के किस्से यदि बाहर जाने लगें, तब कोई क्या कर पाएगा? जगहंसाई होगी. उसे न प्रतीक रोक पाएगा, न स्नेहा और न मैं. कपड़ा जरा सा फटा हो तो उस में से थोड़ा ही दिखाई देता है, यदि पूरा का पूरा फट जाए तो कोई क्या छिपा पाएगा?

मन हुआ था कि शांति से जीने के लिए इस जलालतभरी जिंदगी से हमेशाहमेशा के लिए दूर हो जाऊं. घर बेच कर, इन्हें बेघर कर दूं और वृद्धाश्रम चला जाऊं. तब न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी. इन रिश्तों के लिए मैं मर जाऊंगा. फिर स्नेहा किसे अपना क्रोध दिखाएगी? प्रतीक किस से यह कहेगा कि जरा इस तरफ भी अपना ध्यान लगाइए?

वृद्धाश्रम के हाल ही कौन से अच्छे होते हैं. वहां अजीब तरह की छीछालेदर होती है. संचालक से ले कर इनमेट तक आप को नोंचने लगते हैं. प्रश्न पर प्रश्न. क्या हुआ? बच्चों ने निकाल दिया? बच्चे मारतेपीटते थे? कोई बीमारी है? दवादारू नहीं करते थे? खाना नहीं देते थे? भैया, अगर कुछ पैसों का जुगाड़ हो सके तो यहां से खिसक लो. किराए का मकान लो और अपनी मरजी की जिंदगी जिओ.  आश्रम नाम के सेवाधाम होते हैं, किसी जेल से कम नहीं हैं वे. मैं तो इन बेतुके प्रश्नों का उत्तर देतेदेते ही मर जाऊंगा.

दूसरे पल ही मेरी इस सोच को मन नकार गया. मेरे निश्चय की दृढ़ता तोड़ने लगा. मन ने मुझे समझाया कि यदि मैं ने ऐसा कदम उठाया तो स्नेहरूपी घर को बनाए रखने के सपने का क्या होगा? मैं अपने पैर पर आप ही कुल्हाड़ी नहीं मार लूंगा? मन ने यह भी समझाया कि एक क्षण तो मैं झगड़ों और मनमुटाव की बातों को घर से बाहर न जाने देने की बात सोचता हूं, फिर दूसरे ही पल वृद्धाश्रम जाने की बात करता हूं. यह विरोधाभास क्यों? क्या मेरे रिश्ते इस तरह हमेशा के लिए नहीं टूट जाएंगे?

हमारी पीढ़ी के लोग कहेंगे कि कैसे मतलबी होते हैं आज के बच्चे? जिन्होंने जरा से खर्च के बोझ की खातिर बूढ़े बाप को घर से निकाल दिया. इस पीढ़ी के बच्चे सोचेंगे कि घर आखिर घर होता है. उस में हमेशा कूड़ा जमा किए रखने की कोई जगह नहीं होती. प्रतीक और स्नेहा ने ठीक ही किया. कम से कम अब बूढ़े से कोई अटक तो नहीं रहेगी, और न रहेगी हर वक्त की चखचख. दोनों अब अपने तरीके से जी तो सकेंगे.

दोपहर को मेरे सोने का समय होता है. तब तक घर के सभी काम खत्म हो जाते हैं. खाना बनाने वाली मेरे लिए खाना बना कर जा चुकी होती है. उस के जाने के बाद मैं तसल्ली से खाना खाता हूं और खा कर सो जाता हूं. शाम को काम का सिलसिला 5 बजे से शुरू होता है. उस से कुछ पहले उठ कर मैं चाय पीता हूं और नौकरों के आने का इंतजार करने लगता हूं.

पर आज मुझे नींद ही नहीं आई. लाख चाहा कि प्रतीक और स्नेहा के किए बरताव को भूल जाऊं. घर जिस तरह चल रहा है, चलने दूं. पर अपनों के दिए घाव कुछ इतने गहरे होते हैं कि कभी सूखते ही नहीं. सोचने लगा कि सुनयना की मृत्यु के बाद से ही, ऐसा क्या हो गया कि बच्चे इतना अकड़ने लगे हैं? अभद्र व्यवहार करने का दुस्साहस करने लगे हैं.

मैं सोचने लगा कि बढ़ती हुई उम्र के साथ मेरी मजबूरियां बढ़ गई हैं. मैं अशक्त हो गया हूं. हाथपैर अब साथ नहीं देते. बीमारियों ने शरीर पर अपना कब्जा कर लिया है. एक जाती है तो दूसरी आती है. कुछ तो पक्का घर बना बैठी हैं. यदि डाक्टरों की बात मानूं तो जिंदगी एकचौथाई ही बची है. दिमाग दगा दे चुका है. क्या सही है और क्या गलत, समझ में ही नहीं आता. मन और मस्तिष्क के बीच उठापटक चलती रहती है. पूंजी के नाम पर अब केवल यह मकान ही है. बाकी जो थी वह सुनयना की बीमारी में खत्म हो गई. जराजरा सी जरूरतों के लिए मुझे इन बच्चों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. शायद ये मजबूरियां ही इन की अकड़ और अभद्र व्यवहार का कारण हों? केवल मेरी ही नहीं, इन की भी तो मजबूरियां हैं. दिल्ली में मकान खरीदना आसान बात नहीं है. मकानों की कीमतें दिनदूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही हैं. इस उम्र में महंगे मकान खरीदने का पैसा इन के पास नहीं है. ये इसीलिए इस घर में टिके हुए हैं, वरना कभी का मुझे अकेला छोड़ कर चले गए होते.

दूसरी मजबूरी यह है कि इन्हें एक होलटाइमर नौकर नहीं मिल रहा है. निश्चित रूप से इन का यह व्यवहार इसी कारण है. मन ने कहा, ‘मैं मजबूर जरूर हूं, पर इतना लाचार भी नहीं कि अपने स्वाभिमान की चिता जला दूं. अब मैं किसी हालत में इन से समझौता नहीं करूंगा. मैं ने निश्चय कर लिया कि मकान बेच दूंगा और किराए के मकान में रह कर जिंदगी गुजार दूंगा.’

शाम को प्रतीक और स्नेहा के घर लौटने से पहले प्रौपर्टी ब्रोकर आ गया. मकान देख कर दूसरे दिन खरीदार लाने का वादा कर के चला गया. जब प्रतीक और स्नेहा घर लौटे तो रोजमर्रा की तरह मैं ने ही दरवाजा खोला. मैं उन से सख्त नाराज था. मैं ने उन की तरफ देखा भी नहीं. दरवाजा खोल कर अपने कमरे में चला गया. वे दोनों भी अपने कमरे में चले गए. सोते वक्त जी बहुत हलकाहलका लगा. तनाव भी कम हो गया था.

बडे़ सवेरे ब्रोकर खरीदार ले कर आ गया. उस समय प्रतीक और स्नेहा दोनों ही घर में थे. इस से पहले कि मैं ब्रोकर से कुछ बात कर पाऊं, प्रतीक ब्रोकर से बोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘ये सज्जन इस मकान को खरीदना चाहते हैं,’’ ब्रोकर ने अपने साथ आए खरीदार की ओर इशारा करते हुए कहा.

अब इस से पहले कि प्रतीक कुछ और पूछ पाए, मैं बोल उठा, ‘‘मैं यह मकान बेच रहा हूं.’’

‘‘आप मकान बेच रहे हैं, क्यों?’’ प्रतीक मेरे इस फैसले पर अचंभित दिखा.

‘‘मेरी मरजी.’’

‘‘यह मकान नहीं बिकेगा. यह मैं कह रहा हूं,’’ प्रतीक ने अब ब्रोकर की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘आप जाइए, प्लीज. बाबा ने यह फैसला जरा जल्दी में ले लिया है. अगर हम पक्का निर्णय ले सके तो मैं खुद आप को फोन कर के बुला लूंगा.’’

ब्रोकर और परचेजर दोनों लौट गए. मेरे क्रोध की सीमा टूटने वाली ही थी कि प्रतीक मुझ से बोला, ‘‘यह आप क्या करने जा रहे थे, बाबा? अपना प्यारा सा घर बेच रहे थे? आखिर क्यों?’’

‘‘ताकि मैं तुम लोगों के अत्याचार से छुटकारा पा सकूं. जीवन के जो आखिरी दिन बचे हैं, उन्हें चैन से जी सकूं. मुझे नौकर बना कर छोड़ दिया है तुम दोनों ने. बच्चे मुझे अपमानित करें, यह मैं कभी बरदाश्त नहीं कर सकता,’’ मैं आवेश में कांपने लगा था.

प्रतीक मुझे बांहों से थामते हुए बोला, ‘‘बाबा, मैं आप के आक्रोश का कारण समझ गया हूं. आप पहले बैठिए.’’

मुझे कुरसी पर बिठाने के बाद वह और स्नेहा फर्श पर मेरे समीप ही बैठ गए. प्रतीक ने मेरा हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोलना शुरू किया, ‘‘आप स्नेहा और मेरे व्यवहार से नाराज हैं, मैं समझ चुका हूं. हम भी पश्चात्ताप में जल रहे हैं, यह हमारा सच है. हम आप से इस व्यवहार के लिए क्षमा मांगना चाहते थे, पर आप के खौफ के कारण हम आप का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. हमारे ही व्यवहार के कारण यह घर बिखर जाएगा. बाबा, हम उन बच्चों में से नहीं हैं जो घर में अपने बुजुर्गों की अहमियत नहीं समझते. दरअसल, दिनभर की भागमभाग और काम की टैंशन हमें इतना चिड़चिड़ा कर देती है कि हम कभीकभी यह भूल जाते हैं कि हम किस से बातें कर रहे हैं और क्या बातें कर रहे हैं.’’

प्रतीक की इन बातों से मेरा क्रोध कुछ शांत हुआ. मैं ने प्रतीक और स्नेहा के चेहरों को पढ़ा. वास्तव में पश्चात्ताप उन के चेहरों पर डोल रहा था. संवेदनाओं के बादल उमड़घुमड़ रहे थे. किसी भी समय आंसुओं की बारिश संभव थी.

प्रतीक ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘‘बाबा, पहले तो आप यह समझ लीजिए कि आप हम पर बोझ नहीं हैं. आप मजबूर भी नहीं हैं और यह भी कि हम भविष्य में आप को अकेला छोड़ कर कहीं जाने वाले नहीं हैं. घर में आप का स्थान नौकरों का भी नहीं है. आप जरा मेरे साथ हमारे कमरे में चलिए. वहां मंदिर को देखिए और खुद तय कर लीजिए कि हमारे दिल में आप का स्थान कहां है? सोचिए, यदि घर में 3 प्राणी हों और उन में से 2 सुबह से रात तक घर से बाहर रहते हों तो पीछे से घर कौन संभालेगा? वही जो घर में रहता हो.’’

प्रतीक ने लंबी सांस ली. भर आई आंखों को अपने रूमाल से पोंछा. स्नेहा ने भी अपनी आंखें पोंछी. प्रतीक फिर बोल उठा, ‘‘होता यह है कि जीवन की मुख्यधारा से अलगथलग पड़ते बुजुर्ग अपनेआप को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं. इंसीक्योरिटी की यह भावना उन में डर और शंकाओं को जन्म देती है. वे हर वक्त यही सोचते रहते हैं कि उन के इस बुरे वक्त में उन का सहारा कौन बनेगा? बच्चे उन की आंखों से दूर हो जाएं तो लगता है कि बच्चों को भी उन की परवा नहीं है. यह इंसिक्योरिटी की भावना फिर उन्हें सही सोचने ही नहीं देती.

‘‘हमारी पीढ़ी भी बाबा, बुजुर्गों के प्रति कुछ कम लापरवाह नहीं है. हम खुली जिंदगी जीना चाहते हैं. कोई रोकटोक और अनुशासन हमें पसंद नहीं. जब हम घर से बाहर होते हैं, खुले आकाश में आजाद पंछियों की तरह उड़ते हैं. जो जी चाहे करते हैं और जब घर में घुसते हैं तो हमारी आजादी के पंख कट जाते हैं. हम घर में फड़फड़ाते रहते हैं. बुजुर्गों का दबदबा, खौफ और घर का अनुशासन घुटन पैदा करने लगता है. तब हमारा भी मन करता है कि इस घुटनभरी जिंदगी से दूर भाग जाएं. ऐसे में दोनों पीढि़यों के बीच सामंजस्य नहीं बन पाता. दोनों पीढि़यां ही मानने लगती हैं कि घर में यदि सासबहू हैं, तो झगड़ा तो होगा ही. बुजुर्ग और युवा साथसाथ रहते हैं, तो टकराव तो होगा ही.’’

मैं प्रतीक को एकटक देखता ही चला गया. सोचने लगा, मेरा छोटा सा बच्चा इतना विद्वान कब हो गया, मुझे पता ही नहीं चल पाया. कितनी नजदीकी से इस ने जिंदगी को पढ़ा है. मुझे मेरे सोच गड़बड़ाते हुए लगने लगे. प्रतीत हुआ कि शायद मैं ही गलत था.

प्रतीक फिर बोल उठा, ‘‘बाबा, आप ने हमें सिखाया था कि घर तो सभी बना लेते हैं. आदर्श घर भी बनाए जा सकते हैं पर घर को प्यार भरा घर बनाना असंभव नहीं तो दूभर तो होता ही है. ऐसा घर रिश्तों में प्यार व स्नेह की भावना से बनता है. जो रिश्ता टूट जाए, समझ लो वहां प्यार था ही नहीं. बड़ा होतेहोते इस सीख का सही अर्थ मैं समझ गया हूं. यदि मैं गलत नहीं हूं तो घर सिर्फ ईंटगारे का बना होता है.

‘‘आदर्श घर वह होता है जहां रिश्ते एकदूसरे का आदर करते हैं. वहां ससुर ससुर होते हैं, सास सास और बहू बहू. उन में आदर तो होता है, प्यार नहीं. और घर वही मधुवन बन पाता है जहां रिश्तों में प्यार होता है. वहां न ससुर होते हैं, न सास और न बहू. तीनों के बीच आदर से अधिक एकदूसरे के लिए प्यार होता है.’’

उस ने मुझे देखा, शायद मेरे चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ने के लिए. फिर बोला, ‘‘बाबा, हम इस घर को केवल आदर्श घर ही बना सके, महकतागमकता उपवन नहीं. यह घर आज तक आप के खौफ में जिया है. हम डरतेडरते जीते रहे हैं. रिश्तों में प्यार था कहां? सिर्फ खौफ था. घर में घुसने की इच्छा नहीं होती थी. लगता था कि हम जेल में घुस रहे हैं. आज भी हमारे संबंधों में वह खुलापन है कहां? हम जो खुली जिंदगी जीना चाहते हैं, वह है कहां?’’

‘‘बस बेटे, बस…’’ मैं ने उठ कर दोनों बच्चों को गले लगा लिया और कहा, ‘‘घर में गलत मैं ही था. जो सीख मैं तुम लोगों को देता रहा, मैं ने खुद उस पर अमल नहीं किया. अभी इसी वक्त मैं ने अपने खौफ का गला घोंट दिया है. अब हम तीनों आपस में मित्र हैं. ससुर, बेटा या बहू नहीं.’’

दोनों बच्चे मुझ से लिपटलिपट कर रोने लगे. मेरी आंखें भी बिना बहे न रह पाईं. अब मैं ने अपना कमरा, जो घर के मुख्यद्वार के पास था, उन्हें दे कर खुद को घर के पिछवाड़े में शिफ्ट कर लिया है ताकि बच्चे अपनी खुली जिंदगी जी सकें. मुख्यद्वार पर लगी अपनी नेमप्लेट हटा कर प्रतीक के नाम की लगवा दी है. अब हम तीनों जब साथ बैठते हैं तो हंसीठट्ठे ही सुनाई देते हैं.

अब घर से बाहर जो भी बुजुर्ग या युवा मुझ से मिलते हैं, मैं सभी से कहता हूं कि यदि घर को घर बनाए रखना है तो बुजुर्ग अपना रौबदाब छोड़ें, बच्चों को खुली जिंदगी दें और बच्चे अपने बुजुर्गों को कूड़ा न समझें, उन का खयाल रखें. विचारों का यह तालमेल घर में प्यार ही प्यार भर देगा. वह प्यार जो सब को आपस में जोड़ता है, एकदूसरे से तोड़ता नहीं.

Family Story: पवित्र प्रेम – क्यों खुद से नफरत करने लगी थी रूपा

Family Story, लेखिका- सुनीता महेश्वरी

‘‘रूपा मैडम, आप कितनी प्यारी हैं. आप का मन कितना सुंदर है. काश, आप की जैसी हिम्मत हम सब में भी होती,’’ रूपा की मेड नीना ने बड़े आदर से कहा और फिर कौफी का कप दे कर अपने घर चली गई.

रूपा मुसकराने लगी. वह पिछले 2 वर्षों से पर्सनैलिटी डैवलपमैंट की क्लासेज ले रही थी. इस क्षेत्र में उसे अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई थी. उस के सैंटर की ख्याति दूरदूर तक फैली हुई थी. 2 वर्षों में ही उस ने अपने व्यवहार, मेहनत, कौशल, आत्मविश्वास एवं आत्मीयता से समाज में सम्मान अर्जित कर लिया था. उस के गुणों

और आत्मिक सौंदर्य के आगे उस की कुरूपता एकदम बौनी हो गई थी. अनेक विषम परिस्थितियों में तप कर उस ने अपने सोने जैसे व्यक्तित्व को संवारा था. प्रेम की अपार शक्ति जो थी उस के साथ.

उस दिन नीना के जाने के बाद रूपा घर में बिलकुल अकेली हो गई थी. उस के पति विशाल और ससुर ऐडवोकेट प्रमोद केस की सुनवाई के लिए गए हुए थे. कौफी का कप हाथ में लिए सोफे पर बैठी रूपा अपने जीवन की गहराइयों में खो गई. उस की जिंदगी का 1-1 पल उस की आंखों में उतरने लगा.

रूपा की यादों में युवावस्था का वह चित्र जीवंत हो उठा, जब एक दिन अचानक एक सुनसान गली में आवारा रोहित उस का रास्ता रोक अश्लील फबतियां कसते हुए बोला, ‘‘मेरी जान, तुम किसी और की नहीं हो सकती, तुम बस मेरी हो.’’

रोहित की बदनीयत देख कर रूपा डर से कांपने लगी. उस दिन वह जैसेतैसे भाग कर अपने घर पहुंची थी. उस की सांसें बहुत तेज चल रही थीं. उस की मां गीता ने उसे सीने से लगा लिया. जब रूपा कुछ शांत हुई तब मां ने पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’

रूपा ने रोहित के विषय में सबकुछ बता दिया. रोहित के व्यवहार से वह इतनी डर गई थी कि अब कालेज भी नहीं जाना चाहती थी. जब कभी वह अकेली बैठती, रोहित की घूरती आंखें और अश्लील हरकतें उसे डराती रहती.

कुछ दिन बाद रूपा ने बड़ी मुश्किल से कालेज जाना शुरू किया, परंतु रोहित उसे रोज कुछ न कुछ कह कर सताता रहता था. एक दिन जब रूपा ने उसे पुलिस की धमकी दी तो उस

ने कहा, ‘‘पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी. मुझ से शादी नहीं करोगी, तो मैं तुम्हें जीने भी नहीं दूंगा.’’

रूपा ने अपनी प्रिंसिपल को भी रोहित के विषय में सब बताया, परंतु कालेज के बाहर का मामला होने के कारण उन्होंने भी कोई खास ध्यान नहीं दिया. रूपा को अपने पापा की बहुत याद आती थी. वह सोचती थी कि काश पापा जीवित होते तो कोई उसे इस तरह तंग नहीं कर पाता.

रूपा और उस की मां का चैन से जीना दूभर होता जा रहा था. रूपा ने बड़ी मुश्किलों का सामना कर एमए (मनोविज्ञान) फाइनल की परीक्षा दी थी.

एक दिन उस की मां गीता ने उसे विवाह के लिए मनाते हुए कहा, ‘‘रूपा, चंडीगढ़ में मेरी सहेली का बेटा विशाल है. वह इंजीनियर है. बहुत ही समझदार है. क्या मैं उस से तुम्हारी शादी की बात चलाऊं?’’

रूपा तुरंत मान गई. वह भी उस गुंडे रोहित से अपना पीछा छुड़ाना चाहती थी. शादी की बात चली और रिश्ता तय हो गया.

विवाह के मधुर पलों की याद आते ही रूपा की आंखों में एक चमक सी आ गई. उस ने कौफी का कप एक ओर रख दिया और सोफे पर ही लेट गई. उस के विचारों की पतंग उड़े जा रही थी.

रूपा और विशाल का विवाह चंडीगढ़ में बड़ी धूमधाम से संपन्न हो गया. विशाल जैसे होशियार, रूपवान, समझदार और प्यार करने वाले युवक का साथ पा कर रूपा बहुत खुश थी. उसे जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं.

रूपा धीरेधीरे अपनी नई प्यारभरी जिंदगी में रचबस गई. वह अपने सासससुर की भी बहुत लाडली थी. उस ने घर की सभी जिम्मेदारियां संभाल ली थीं. सभी उस के रूप और गुणों के प्रशंसक बन गए थे.

रूपा ने रोहित के विषय में विशाल को भी सबकुछ बता दिया था. विशाल ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘‘डरना छोड़ो रूपा. होते हैं कुछ ऐसे सिरफिरे. तुम उसे भूल जाओ. अब मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

विवाह के 3 वर्ष बीत चुके थे. इस बीच कई बार रूपा और विशाल

चंडीगढ़ से लखनऊ गए, पर वह आवारा रोहित कभी उन के सामने नहीं आया. रूपा धीरेधीरे उसे भूल गई. उसे अपनी जिंदगी पर नाज होने लगा था.

एक दिन रूपा लखनऊ में अपने पति विशाल के साथ बाजार से लौट रही थी. तभी अचानक उस मनचले गुंडे रोहित ने रूपा के सुंदर चेहरे पर तेजाब फेंकते हुए कहा, ‘‘ले अब दिखा, अपना यह रूप विशाल को.’’

रूपा का सुंदर चेहरा पलभर में जल कर बदसूरत हो गया. वह रूपा से कुरूपा हो गई. मगर सुंदर चेहरे पर तेजाब डालने वाला रोहित अपनी जीत पर मुसकरा रहा था.

विशाल तो ये सब देख कर स्तब्ध सा रह गया. फिर तुरंत पुलिस को फोन किया और सहायता के लिए चिल्लाने लगा. कुछ ही देर में बहुत लोग एकत्रित हो गए. रोहित के हाथ में ऐसिड की बोतल थी. अत: कोई भी डर के मारे उस के पास नहीं जा रहा था. तभी पुलिस ने आ कर उसे पकड़ लिया.

विशाल रूपा को ऐंबुलैंस में अस्पताल ले गया.

औपचारिकताएं पूरी होने के बाद रूपा का इलाज शुरू हुआ. उस की दोनों आंखों की पुतलियां दिखाई ही नहीं दे रही थीं. उस का चेहरा इतना बिगड़ चुका था कि डाक्टर ने विशाल को भी उसे देखने की इजाजत नहीं दी. रूपा को इंटैंसिव केयर में रखा गया. 2 दिन बाद जब रूपा की मां गीता और विशाल को रूपा से मिलाया गया तब मां की चीख निकल गई. ऐसिड फेंकने का घिनौना अपराध करने वाले रोहित के प्रति उन का मन विद्रोह की आग से भर उठा.

लगभग ढाई महीने बाद रूपा को अस्पताल से छुट्टी मिली, परंतु

इलाज का यह अंत नहीं था. इस बीच न तो उसे दृष्टि मिली थी और न ही रूप. उस के और कई औपरेशन होने बाकी थे.

विशाल रूपा को वापस चंडीगढ़ ले गया. उस की आंखों और चेहरे के कई औपरेशन हुए.

धीरेधीरे आंखों की रोशनी वापस आ गई. जब रूपा ने इस घटना के बाद पहली बार दुनिया देखी तब उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा, अपना चेहरा देखा तो चीख पड़ी. उसे शीशे में अपना ही भूत नजर आया. वह विशाल के सीने से लग कर जोरजोर से रोते हुए बोली, ‘‘विशाल, इस कुरूप चेहरे को ले कर मैं तुम्हारी जिंदगी नहीं बिगाड़ सकती. मैं जीवित नहीं रहना चाहती. मुझ से इतना प्यार मत करो.’’

विशाल की आंखें छलकने को थीं, पर उस ने अपने आंसुओं को किसी तरह पी लिया. उस ने रूपा को प्यार से गले लगाते हुए कहा, ‘‘रूपा, तुम मेरी बहादुर पत्नी हो. तुम ही तो मेरी जान हो. तुम्हारे बिना मेरा कोई वजूद नहीं है. मैं मात्र तुम्हारी सूरत से नहीं, अपितु तुम से प्यार करता हूं. तुम ऐसे हार मान जाओगी तो मेरा क्या होगा?’’

रूपा अपने कुरूप चेहरे पर विशाल के होंठों का स्पर्श पा कर फफकफफक कर रोने लगी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. वह विशाल के नि:स्वार्थ प्यार की गहराइयों में डूब कर अपनी कुरूपता को दोषी मान रही थी. उसे लग रहा था जैसे उस का चेहरा ही नहीं, बल्कि विशाल की खुशियां भी तेजाब से जल कर खाक हो गई हैं.

अपने डरावने चेहरे को देख कर रूपा की निराशा दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी. ऐसी विदू्रपता, विकृति को देख उस के मन को गहरी चोट पहुंची थी. जब वह लोगों को स्वयं को घूरते देखती तो ऐसा लगता मानों सब उस की कुरूपता को देख कर सहम गए हैं. हर नजर उस के मन को छेद देती थी.

रूपा एक दिन परेशान हो कर विशाल से बोली, ‘‘विशाल, मेरी जैसी कुरूप लड़की के साथ तुम क्यों अपना जीवन व्यर्थ करना चाहते हो? तुम क्यों दूसरी शादी नहीं कर लेते हो? अपनी खुशियां मेरी इस कुरूपता पर मत लुटाओ. तुम मुझे तलाक दे दो.’’

विशाल ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘रूपा, मैं ने विवाह का प्यारा बंधन तोड़ने के लिए नहीं जोड़ा. पतिपत्नी का मिलन 2 दिलों का मिलन होता है. क्या मात्र एक

दुर्घटना हमें जुदा कर सकती है? यदि मेरे साथ ऐसी दुर्घटना हो जाती तो क्या तुम मुझे तलाक दे देतीं?’’

रूपा ने विशाल के मुंह पर हाथ रख दिया. उस की आंखों से प्रेम के आंसुओं के झरने बहने लगे. उस का मन विशाल के त्याग और प्रेम को पा कर धन्य हो उठा.

चंडीगढ़ में रूपा का इलाज चलता रहा. तेजाब से जली त्वचा का महंगा

और लंबा इलाज विशाल की माली हालत तथा उस के काम पर भी दुष्प्रभाव डाल रहा था, किंतु उस ने रूपा को कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया. वह एक जिम्मेदार पति की तरह अपने कर्तव्यों को बखूबी निभा रहा था.

विशाल के पिता ऐडवोकेट प्रमोद नामी वकील थे. वे रूपा की न्यायिक प्रक्रिया के कार्यों में दिनरात लगे थे. उन्होंने उस जघन्य अपराधी को सजा दिलवाने की ठान ली थी. इस के अतिरिक्त इलाज आदि के लिए जो सरकार से मदद का प्रावधान था, उसे प्राप्त करने के लिए भी वे प्रयत्नशील थे.

अचानक रूपा की स्मृतियों में अपने रिश्तेदार की बातें कांटे की तरह चुभने लगीं. एक दिन रूपा को देखने रिश्तेदार आए थे. वे रूपा से मिले और चलतेचलते विशाल से बोले, ‘‘भैया, तुम्हारी ही हिम्मत है जो तुम इस की सेवा कर रहे हो. आजकल की लड़कियां तो प्रेम किसी से करती हैं और शादी किसी से. परिणाम तुम जैसे पतियों को भुगतना पड़ता है. पहले ही जन्मपत्री मिला कर शादी की होती तो ऐसी दुर्घटना से बच जाते. मेरी सलाह मानो तो दूसरी शादी कर लो. कब तक ढोओगे इस की बदसूरती को.’’

विशाल के पिता प्रमोद ये सब सुन रहे थे. वे तपाक से बोले, ‘‘भाई साहब, आप ने तो अपने बेटे की शादी खूब जन्मपत्री मिला कर की थी न, फिर क्या हुआ था? याद है न, आप की बहूरानी तो शादी के दूसरे दिन ही आप सब को छोड़ कर मायके चली गई थी. जन्मपत्री मिला कर आप ने कौन से फूल खिला लिए थे? हमारी निर्दोष बहू पर लांछन लगाने से पहले अपने गरीबान में तो झांक कर देख लिया होता.’’

उस दिन रिश्तेदार की बात सुन कर रूपा को ऐसा लगा था जैसे एक बार फिर किसी ने कटुता का ऐसिड उस पर डाल दिया हो. उस का मन छलनी हो गया था. वह मर जाना चाहती थी. अपना मुंह छिपा कर रोने लगी.

विशाल दिल पर पत्थर रख कर उस का हाथ अपने हाथ में ले कर बोला, ‘‘तुम चिंता मत करो रूपा. मैं तुम्हारा पति हूं और मैं तुम्हारे साथ हूं. जब कोई ऐसी बेतुकी बात करता है, तो मन करता है उस का मुंह नोच लूं. पर यह भी इस का समाधान नहीं… समाज में स्त्रियों को जब तक मानसम्मान नहीं मिलेगा तब तक यही स्थिति रहेगी. हमें ऐसे दकियानूसी और पाखंडी लोगों की सोच बदलनी होगी.’’

रूपा विशाल की गोदी में सिर रख कर रोए जा रही थी.

विशाल ने उस के बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि मेरी रूपा फिर से हंसना सीख ले. अपने को बारबार कुरूप कहना छोड़ दे. रूपा, मेरे लिए तुम आज भी उतनी ही सुंदर हो जितनी पहले थी. मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन कितना सुंदर और पवित्र है.’’ और फिर विशाल ने रूपा को जूस पिला कर सुला दिया.

हर दिन एक नया दिन होता था. कुछ घाव सूखते थे तो कुछ वाणी के घाव नए बन जाते थे. विशाल ने रूपा का मन धीरेधीरे प्राणायाम की ओर आकर्षित किया. वह हमेशा उस से कहता कि अपने मन को महसूस करो, जो बहुत सुंदर है. रूपा तुम्हें ऐसे अपराधियों के विरुद्ध लड़ना है. तुम्हें हिम्मत बढ़ानी है. तुम सुंदर हो. शक्तिशाली हो, मनोविज्ञान की ज्ञाता हो. तुम्हारे अंदर असीम शक्तियां छिपी हैं. तुम ऐसे हार नहीं मान सकतीं. मन में आशा और विश्वास भर कर तुम्हें समाज की बुराइयों को दूर करना है.

रूपा पर विशाल की बातों का असर होने लगा था. वह मरमर कर भी जीना सीख रही थी. उस ने मन में विश्वास भर कर पर्सनैलिटी डैवलपमैंट की पुस्तकें पढ़नी शुरू कर दीं. उस के भीतर अपनी नई पहचान बनाने की लौ जाग उठी थी.

दूसरी ओर न्यायिक प्रक्रिया भी चल रही थी. विशाल और उस के पिता तारीख पड़ने पर कोर्ट जाते थे. 1 वर्ष बाद की तारीख में विशाल अपने मातापिता और रूपा को भी कोर्ट में ले कर पहुंचा था. अपराधी रोहित पहले से वहां था. विशाल रूपा को सहारा दे कर बड़े प्यार और सम्मान से जब कोर्ट में दाखिल हुआ तो उस नजारे को देख कर अपराधी रोहित की उम्मीदों पर तो जैसे पानी ही फिर गया. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसी बदसूरत लड़की को भी कोई पति प्यार करेगा.

विशाल ने रूपा की खुशियां छीनने वाले अपराधी रोहित को नफरतभरी नजर से देखते हुए कहा, ‘‘तुम ने जो हमारे संग किया है, उस का दंड तुम्हें बहुत जल्दी मिलेगा. मेरे हिसाब से तुम दुनिया के सब से कुरूप व्यक्ति हो… दुनिया में तुम्हें कोई पसंद नहीं करेगा, जबकि रूपा को इस हालत में भी सब चाहते हैं. वह हमेशा सुंदर थी और सुंदर रहेगी.’’

उस दिन रूपा भी रणचंडी बनी हुई थी. उस की आंखों में उस अपराधी के लिए घृणा के साथसाथ क्रोध की भी ज्वाला धधक रही थी. वह किसी तरह अपना गुस्सा पी रही थी.

रूपा अपने विचारों के सागर में डूबी हुई थी कि अचानक घड़ी के 5 घंटे सुनाई दिए तो सकपका कर उठ खड़ी हुई और फिर अपने काम में लग गई.

कुछ ही देर में विशाल और प्रमोद कोर्ट से घर लौट आए. वे बहुत खुश थे, क्योंकि रूपा की जीत हुई थी. उस अपराधी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

Hindi Story: मातृत्व का अमृत – क्या विभा ने एड्स पीड़ित विनोद को अपनाया?

Hindi Story, लेखक- सुखविंदर कौर

लाल सुर्ख जोडे़ में सजी विभा के चारों तरफ गूंजती शहनाई और विवाह की रौनक थी. सुमित की छवि जैसे विभा की आंखों के सामने घूम रही थी और स्वत: ही उसे याद आती थी, सुमित के साथ उस की पहली मुलाकात.

वह दिन, जब सुमित उसे देखने आया था तो उस से ज्यादा नर्वस शायद सुमित खुद ही था. मुंह नीचा किए वह चुपचाप बैठा था और जैसे ही मां विभा को ले कर ड्राइंगरूम में पहुंचीं, मां के पांव छूने की बजाय गलती से सुमित ने विभा के पांव छू लिए. तब अल्हड़ विभा ने उसे ‘दूधों नहाओ और पूतों फलो’ का आशीर्वाद दिया तो वहां उपस्थित सभी ठहाका मार कर हंस पडे़.

सुमित को विभा की चंचलता बहुत भा गई और वह उस के मनमोहक रूप से आकर्षित हुए बिना भी न रह सका. वहीं विभा को भी सुमित की सादगी पसंद आई थी.

विभा सुमित से अपनी पहली भेंट को जब भी याद करती, बहुत देर तक हंसती थी.

आज फिर विभा लाल सुर्ख जोडे़ में लिपटी बैठी थी. पहले जैसी चहलपहल आज नहीं थी. 11 साल पहले जो उत्सुकता विभा की आंखों में विवाह को ले कर थी वह आज आंसू बन कर बह रही थी और कई सवाल उस के कोमल हृदय पर आघात कर रहे थे पर जवाब तलाशने से भी उसे नहीं मिल रहे थे.

एक समझदार पति के साथसाथ उस का सब से प्यारा दोस्त सुमित याद आ रहा था तो याद आ रही थी उसे अपनी ससुराल, जहां पति का बेइंतहा प्यार मिला और देवर, सासससुर के स्नेहपूर्ण व्यवहार ने उस के जीवन में इंद्रधनुषी रंग भर दिए.

उस का घरेलू जीवन तब और साकार हो गया जब विभा के घर में एक नन्हेमुन्ने की आहट हुई. विभा की ससुराल और मायके में खुशियों का उत्सव छाया हुआ था. लेकिन उस को क्या पता था कि उस की खुशियों पर एक ऐसी बिजली गिरेगी जो सबकुछ जला कर राख कर देगी.

दीवाली के दीपों की ज्योति से अंधेरे जीवन में भी प्रकाश हो जाता है पर इस बार की दीवाली विभा के जीवन में अंधकार भरने आई थी. सुमित दीवाली के अवसर पर बाजार गया. विभा कोे 4 महीने का गर्भ था, इसलिए वह न जा सकी. बाजार में बम विस्फोट हुआ और सुमित लौट कर घर न आ सका. उस की मृत्यु का समाचार और फिर उस का क्षतविक्षत शव देख कर जो सदमा विभा को लगा उसे वह सहन न कर सकी और उस का गर्भपात हो गया.

सुमित की यादें जहां विभा के मुखमंडल पर खास छटा बिखेर देती थीं वहीं उस की मृत्यु की कल्पना से भी विभा सिहर उठती थी.

विभा आज अपने अतीत के सारे पृष्ठ पलट लेना चाहती थी. यादें समय के प्रवाह के साथ धूमिल अवश्य पड़ जाती हैं परंतु खत्म कभी नहीं होतीं, क्योंकि हृदय पर बने उन के निशान सागर की गहराई से भी गहरे होते हैं.

गुजरे हुए कल ने विभा के जीवन पर गहरे निशान छोडे़ थे, ऐसे निशान जो उसे बहुत गहरे आघात दे गए थे.

विधवा विभा अपने सासससुर की सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहती थी, साथ ही एक शिक्षिका होने के नाते अपना सारा जीवन अपने विद्यालय और विद्यार्थियों के हित में समर्पित करना चाहती थी, पर जिस औरत का सुहाग उजड़ जाए उस के अपने भी बेगाने हो जाते हैं. यहां तक कि घर के लोग भी सांप की तरह फुफकारते हैं व दंश भी मारते हैं.

सुमित की मौत के बाद उस के ससुराल वालों का व्यवहार विभा के प्रति अनायास ही बदल गया. सास का छोटीछोटी बातों पर फटकारना, किसी न किसी बात में कमी निकालना, अब आम हो गया था. मगर जब देवर और ससुर की कामुक नजर उसे कचोटने लगी तो उस की सहनशक्ति परास्त हो गई. तब अपना सारा साहस जुटा कर विभा अपने मायके चली आई. घर में मांबाबूजी के अलावा विभा का एक छोटा भाई प्रभात भी था.

घर का सारा काम विभा अकेले ही करती, मांबाबूजी का पूरा खयाल रखती, विद्यालय जाती, शाम को ट्यूशन पढ़ाती और प्रभात की पढ़ाई में सहयोग भी देती. इस तरह उस ने अपनी दिनचर्या को पूरी तरह व्यस्त कर लिया था.

देखते ही देखते 9 साल गुजर गए. प्रभात, विभा के सहयोग की बदौलत आईटी प्रोफेशनल के रूप में अपने पैर जमा चुका था. उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आने लगे. मांबाबूजी ने विभा की सलाह से एक सुंदर व सुशिक्षित लड़की सुनैना को देख कर प्रभात का रिश्ता तय कर दिया. विवाह भी हंसीखुशी संपन्न हो गया. घर में एक नई बहू आ गई.

प्रभात की खुशियों में विभा अपनी खुशियां तलाशना सीख गई थी. तभी मुंहदिखाई के समय सुनैना को अपना हीरों जडि़त हार देते वक्त उस ने कहा था, ‘‘सुनैना, तुम्हें इस से भी ज्यादा सुंदर तोहफा तब दूंगी जब तुम हमें एक प्यारा सा, प्रभात जैसा भतीजा दोगी.’’

घर के सारे छोटेबडे़ फैसले विभा की सलाह से लिए जाते थे और प्रभात भी अपनी दीदी के पूरे प्रभाव में था, इसलिए सुनैना के मन में विभा के प्रति द्वेष घर कर गया. अब वह विभा को नीचा दिखाने का कोई न कोई मौका ढूंढ़ती रहती थी.

हालांकि विभा उसे अपनी छोटी बहन की तरह समझती थी और उस की गलतियों को भी क्षमा कर देती थी.

सुनैना मां बनने वाली थी और कमजोरी के कारण डाक्टर ने उसे पूरी तरह आराम की सलाह दी थी, इसलिए बाकी कार्यों के साथसाथ विभा फिर से घर का सारा काम संभालने लगी. सुनैना की हर जरूरत का भी वह पूरापूरा खयाल रखती.

उस दिन विद्यालय से लौटने के बाद विभा फ्रैश हो कर दोपहर के खाने में जुट गई. प्रभात भी घर पर ही था. सब मेज पर खाना खाने के लिए बैठे ही थे कि सुनैना झल्ला उठी.

खाने की थाली में से एक बाल निकल आने के कारण सुनैना गुस्से से लालपीली होते हुए बोली, ‘दीदी, अगर आप को कोई परेशानी है तो यों ही कह दीजिए. वैसे भी हमारी हैसियत तो है ही कि हम एक नौकरानी रख लें.’

आवेश में विभा से यह कटु वचन बोल कर सुनैना प्रभात की सहानुभूति बटोरने के लिए अभिनय करती हुई धम्म से कुरसी पर बैठ गई.

प्रभात ने सुनैना को संभालते हुए तैश में आ कर कहा, ‘दीदी, जरा ध्यान से खाना बनाया कीजिए. सुनैना को डाक्टर ने जरा सा भी स्ट्रेस लेने से मना किया है. आप की ऐसी हरकत की वजह से अगर हमारे बच्चे को कुछ हो गया तो…’

प्रभात के ऐसे व्यवहार से सुनैना को बल मिला और फिर उस ने विभा पर अपने बच्चे को गिराने का आरोप जड़ते हुए कहा, ‘आप तो, जब से मैं इस घर में आई हूं, कुछ न कुछ मेरे खिलाफ करती ही रहती हैं और आज जब मैं मां बनने वाली हूं तो जादूटोना कर के हमारी होने वाली संतान को मारना चाहती हैं. अरे, शैतान भी एक बार खाए हुए नमक की लाज रख लेता होगा और आप जिस घर में बरसों से रह रही हैं उसी घर की दीवारों की नींव को खोद देना चाहती हैं.’

विभा ने जब खुद पर लगे आरोपों का विरोध करना चाहा तो प्रभात ने उसे तमाचा जड़ दिया था. यह चोट सब से गहरी थी और सब से ज्यादा दुखदायी था मांबाबूजी का मूकदर्शक बने रहना. उस दिन एक विधवा की वेदना को विभा पूरी तरह समझ गई थी. विभा ने आवेश में आ कर अकेले ही कहीं और मकान ले कर रहने का फैसला किया पर दिल्ली जैसे शहर में एक महिला का अकेले रहना कहां तक सुरक्षित है, यह सोच कर मांबाबूजी ने उसे रोक लिया.

सुनैना, विभा को परिवार वालों की नजरों में गिराना ही नहीं बल्कि उसे घर से निकलवाना भी चाहती थी, पर अपनी आशाओं पर पानी फिरता देख अवसर पा कर उस ने मांबाबूजी के मन में विभा के दूसरे विवाह का विचार डाल दिया.

मांबाबूजी विभा के लिए किसी उचित वर की तलाश में थे तो सुनैना ने एक लड़के का नाम भी उन्हें सुझाया. उस की बातों में आ कर घर वालों ने ‘विधवा’ विभा का रिश्ता तय कर दिया.

विभा यह तो जान ही चुकी थी कि एक औरत का अस्तित्व उस के पति की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है. और एक सादे समारोह में विभा की दूसरी शादी संपन्न हो गई.

विभा अपने अतीत में खोई हुई थी कि तभी मां ने उसे झकझोरा और कहा, ‘‘विभा बेटा, तुम्हारी विदाई का समय हो गया है.’’

आज विभा, विनोद की दूसरी पत्नी बन कर उस के घर जा रही थी. उस की आंखों से आंसुओं का सागर उमड़ रहा था. किंतु इन आंसुओं का औचित्य समझ पाना उस के बस की बात नहीं थी. यह आंसू अपने उस घर से विदाई के थे जहां से वह 11 साल पहले ही विदा की जा चुकी थी या एक विधवा की बदकिस्मती के, विभा स्वयं नहीं जानती थी.

विभा अब तक विनोद से नहीं मिली थी. उसे केवल इतना बताया गया था कि विनोद पेशे से एक सर्जन है, उस की पहली पत्नी की मृत्यु कुछ समय पहले हुई थी और विनोद के 2 बच्चे हैं. प्रांजल जो 8 वर्ष का है और परिधि 6 वर्ष की है. घर में विनोद और बच्चों के अलावा मातापिता हैं.

विभा इस शादी से खुश नहीं थी पर विदाई के बाद ससुराल पहुंचते ही जब प्रांजल और परिधि ने उसे ‘नई मम्मी’ कह कर पुकारा तो वह गद्गद हो गई. मातृत्व क्या होता है, उसे यह खुशी नसीब नहीं हुई थी मगर प्रांजल और परिधि के एक छोटे से उच्चारण ने उस के भीतर दबी हुई ममता को जागृत कर दिया. उस के सासससुर का व्यवहार बेहद करुणा- मयी और विनम्र था.

विनोद से अब तक उस की भेंट नहीं हुई थी. विभा कमरे में काफी देर तक उस की प्रतीक्षा करती रही और इंतजार करतेकरते कब उस की आंख लग गई उसे पता नहीं चला. शायद विनोद ने उसे जगाना भी ठीक नहीं समझा.

विभा में नईनवेली दुलहनों जैसे नाजनखरे नहीं थे इसलिए विवाह के अगले दिन से ही घर का सारा काम उस ने अपने हाथों में ले लिया. सुबह जल्दी उठ कर अपना पूजापाठ समाप्त कर के पहले वह अपने सासससुर को चाय बना कर देती, फिर नाश्ता तैयार करती, विनोद को नर्स्ंिग होम और बच्चों को स्कूल भेज कर वह अपने विद्यालय जाती.

दोपहर को विद्यालय से आते ही बच्चे उसे घेर लेते. पहले तो उन्हें खाना खिला कर विभा उन का होमवर्क पूरा करवाती और फिर उन के साथ खूब खेलती. अब प्रांजल और परिधि उसे ‘नई मम्मी’ के बजाय ‘मम्मी’ कह कर पुकारने लगे थे. बच्चों के साथ विभा ने अपने सासससुर का भी दिल जीत लिया था.

विनोद देर रात घर आता तब तक विभा सो चुकी होती थी. विनोद के साथ विभा की जो बातें होतीं वे केवल औपचारिकता भर ही थीं. विवाह को दिन ही नहीं महीनों बीत गए थे पर जीवनसाथी के रूप में दोनों को एकदूसरे के विचार जानने का मौका ही नहीं मिला था.

विनोद का व्यवहार घर वालों के प्रति बहुत असहज था. माना वह घर पर कम रहता था मगर जितनी देर रहता उतनी देर भी न तो बच्चों से और न ही मांबाबूजी से वह खुल कर बातें करता था. विभा ने उन सब के बीच एक अजीब सी दूरी का अनुभव किया और वह शंकित हो गई. वह मांबाबूजी से सीधे कुछ भी कहना नहीं चाहती थी मगर विनोद से कहना भी ठीक नहीं था.

एक दिन विभा घर पर ही थी और बच्चे विनोद के साथ कहीं गए थे. विभा ने अवसर पा कर मांजी से पूछ ही लिया, ‘‘मांजी, मैं जब से इस घर में आई हूं उन्होंने कभी मुझ से बात नहीं की और मुझे उन का व्यवहार भी बहुत अजीब लगता है. मुझे कहना तो नहीं चाहिए, मगर लगता है आप लोगों के बीच कोई समस्या…?’’

विभा की बात काटते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटा, विनोद इस विवाह से…’’

विभा चौंक पड़ी, ‘‘खुश नहीं हैं, क्या?’’

‘‘देखो बेटा, सुनैना और प्रभात को हम ने पहले ही बता दिया था कि विनोद न तो तुम से शादी करना चाहता है और न ही वह तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार कर पाएगा. विनोद खुद को तुम्हारा अपराधी समझता है,’’ मांजी ने उत्तर दिया.

बाबूजी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और बोले, ‘‘बहू, तुम जानती हो कि हमारी बहू ‘पायल’ की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हुई थी. उस में विनोद भी बुरी तरह घायल हो गया था. उस का काफी खून बह चुका था. आपरेशन के समय उसे खून चढ़ाया गया और यही विनोद की बदकिस्मती थी.’’

‘‘मगर बाबूजी, उस आपरेशन से हमारे रिश्ते का क्या संबंध?’’ विभा अभी भी सकते में थी.

‘‘विनोद के आपरेशन से कुछ समय बाद उसे पता चला कि जो खून उसे चढ़ाया गया था वह एचआईवी पौजीटिव था,’’ कहतेकहते बाबूजी का गला रुंध गया.

विभा खुद को ठगा सा महसूस कर रही थी. वह सुनैना को दोष नहीं दे सकती थी मगर जो विश्वासघात भाई हो कर प्रभात ने उस के साथ किया, उस से वह सोचने को विवश हो गई थी कि क्या विधवा पुनर्विवाह का औचित्य यही है कि उस का प्रयोग केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए किया जाता है. आज वह एक सधवा हो कर भी खुद को विधवा ही महसूस कर रही है.

बाबूजी ने विभा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहना शुरू किया, ‘‘विनोद के सीडी फोर सेल्स का स्तर अब धीरेधीरे कम होने लगा है. हम बूढ़े हो चुके हैं. विनोद को कुछ हो गया तो हम बूढ़े तो वैसे ही खत्म हो जाएंगे. हम ने सोचा कि हमारे बाद इन फूल से बच्चों को कौन संभालेगा? क्या होगा इन का? यही सोच कर हम ने विनोद का विवाह जबरन तुम्हारे साथ करवाया ताकि इन बच्चों को संभालने वाला कोई तो हो,’’ इतना कह कर बाबूजी कमरे से बाहर निकल गए.

अपने को संभालते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, तुम्हें लग रहा होगा कि हम लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए तुम्हारा जीवन बरबाद कर दिया. निर्णय अब तुम्हें ही लेना है. हो सके तो हमें क्षमा कर देना.’’

निरुत्तर खड़ी विभा वहां से भाग निकलना चाहती थी और जा कर प्रभात, मां व बाबूजी से पूछना चाहती थी कि क्या विधवा होना उस का कुसूर है? आज वह दोराहे पर खड़ी थी.

तभी प्रांजल और परिधि स्कूल से आते ही उस से लिपट गए और अपनी स्कूल की दिनचर्या बताबता कर उस की गोद में झूलने लगे. बच्चों का स्पर्श पाते ही विभा की मानो सारी उलझनें सुलझ गई थीं.

उस की नियति लिखी जा चुकी थी. वह विनोद के समर्पण, मांबाबूजी के प्रेम और अपने मातृत्व के सामने नतमस्तक हो गई, फिर प्रांजल और परिधि ने विभा के आंसू पोंछे और उस से लिपट गए. आज सबकुछ खो कर भी विभा ने मातृत्व का अमृत पा लिया था. उसे अपना आज और आने वाला कल साफ नजर आने लगा था.

Family Story: मैं हूं न

Family Story: लड़के वाले मेरी ननद को देख कर जा चुके थे. उन के चेहरों से हमेशा की तरह नकारात्मक प्रतिक्रिया ही देखने को मिली थी. कोई कमी नहीं थी उन में. पढ़ी लिखी, कमाऊ, अच्छी कदकाठी की. नैननक्श भी अच्छे ही कहे जाएंगे. रंग ही तो सांवला है. नकारात्मक उत्तर मिलने पर सब यही सोच कर संतोष कर लेते कि जब कुदरत चाहेगी तभी रिश्ता तय होगा. लेकिन दीदी बेचारी बुझ सी जाती थीं. उम्र भी तो कोई चीज होती है.

‘इस मई को दीदी पूरी 30 की हो चुकी हैं. ज्योंज्यों उम्र बढ़ेगी त्योंत्यों रिश्ता मिलना और कठिन हो जाएगा,’ सोचसोच कर मेरे सासससुर को रातरात भर नींद नहीं आती थी. लेकिन जिसतिस से भी तो संबंध नहीं जोड़ा जा सकता न. कम से कम मानसिक स्तर तो मिलना ही चाहिए. एक सांवले रंग के कारण उसे विवाह कर के कुएं में तो नहीं धकेल सकते, सोच कर सासससुर अपने मन को समझाते रहते.

मेरे पति रवि, दीदी से साल भर छोटे थे. लेकिन जब दीदी का रिश्ता किसी तरह भी होने में नहीं आ रहा था, तो मेरे सासससुर को बेटे रवि का विवाह करना पड़ा. था भी तो हमारा प्रेमविवाह. मेरे परिवार वाले भी मेरे विवाह को ले कर अपनेआप को असुरक्षित महसूस कर रहे थे. उन्होंने भी जोर दिया तो उन्हें मानना पड़ा. आखिर कब तक इंतजार करते.

मेरे पति रवि अपनी दीदी को बहुत प्यार करते थे. आखिर क्यों नहीं करते, थीं भी तो बहुत अच्छी, पढ़ीलिखी और इतनी ऊंची पोस्ट पर कि घर में सभी उन का बहुत सम्मान करते थे. रवि ने मुझे विवाह के तुरंत बाद ही समझा दिया था उन्हें कभी यह महसूस न होने दूं कि वे इस घर पर बोझ हैं. उन के सम्मान को कभी ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, इसलिए कोई भी निर्णय लेते समय सब से पहले उन से सलाह ली जाती थी. वे भी हमारा बहुत खयाल रखती थीं. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी थी, इसलिए उन को पा कर मुझे लगा जैसे मुझे बड़ी बहन मिल गई हैं.

एक बार रवि औफिस टूअर पर गए थे. रात काफी हो चुकी थी. सासससुर भी गहरी नींद में सो गए थे. लेकिन दीदी अभी औफिस से नहीं लौटी थीं. चिंता के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी. तभी कार के हौर्न की आवाज सुनाई दी. मैं ने खिड़की से झांक कर देखा, दीदी कार से उतर रही थीं. उन की बगल में कोई पुरुष बैठा था. कुछ अजीब सा लगा कि हमेशा तो औफिस की कैब उन्हें छोड़ने आती थी, आज कैब के स्थान पर कार में उन्हें कौन छोड़ने आया है.

मुझे जागता देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘सोई नहीं अभी तक?’’

‘‘आप का इंतजार कर रही थी. आप के घर लौटने से पहले मुझे नींद कैसे आ सकती है, मेरी अच्छी दीदी?’’ मैं ने उन के गले में बांहें डालते हुए उन के चेहरे पर खोजी नजर डालते हुए कहा, ‘‘आप के लिए खाना लगा दूं?’’

‘‘नहीं, आज औफिस में ही खा लिया था. अब तू जा कर सो.’’

‘‘गुड नाइट दीदी,’’ मैं ने कहा और सोने चली गई. लेकिन आंखों में नींद कहां?

दिमाग में विचार आने लगे कि कोई तो बात है. पिछले कुछ दिनों से दीदी कुछ परेशान और खोईखोई सी रहती हैं. औफिस की समस्या होती तो वे घर में अवश्य बतातीं. कुछ तो ऐसा है, जो अपने भाई, जो भाई कम और मित्र अधिक है से साझा नहीं करती और आज इतनी रात को देर से आना, वह भी किसी पुरुष के साथ, जरूर कुछ दाल में काला है. इसी पुरुष से विवाह करना चाहतीं तो पूरा परिवार जान कर बहुत खुश होता. सब उन के सुख के लिए, उन की पसंद के किसी भी पुरुष को स्वीकार करने में तनिक भी देर नहीं लगाएंगे, इतना तो मैं अपने विवाह के बाद जान गई हूं. लेकिन बात कुछ और ही है जिसे वे बता नहीं रही हैं, लेकिन मैं इस की तह में जा कर ही रहूंगी, मैं ने मन ही मन तय किया और फिर गहरी नींद की गोद में चली गई.

सुबह 6 बजे आंख खुली तो देखा दीदी औफिस के लिए तैयार हो रही थीं. मैं ने कहा, ‘‘क्या बात है दीदी, आज जल्दी…’’

मेरी बात पूरी होने हो पहले से वे बोलीं,  ‘‘हां, आज जरूरी मीटिंग है, इसलिए जल्दी जाना है. नाश्ता भी औफिस में कर लूंगी…देर हो रही है बाय…’’

मेरे कुछ बोलने से पहले ही वे तीर की तरह घर से निकल गईं. बाहर जा कर देखा वही गाड़ी थी. इस से पहले कि ड्राइवर को पहचानूं वह फुर्र से निकल गईं. अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि अवश्य दीदी किसी गलत पुरुष के चंगुल में फंस गई हैं. हो न हो वह विवाहित है. मुझे कुछ जल्दी करना होगा, लेकिन घर में बिना किसी को बताए, वरना वे अपने को बहुत अपमानित महसूस करेंगी.

रात को वही व्यक्ति दीदी को छोड़ने आया. आज उस की शक्ल की थोड़ी सी झलक

देखने को मिली थी, क्योंकि मैं पहले से ही घात लगाए बैठी थी. सासससुर ने जब देर से आने का कारण पूछा तो बिना रुके अपने कमरे की ओर जाते हुए थके स्वर में बोलीं, ‘‘औफिस में मीटिंग थी, थक गई हूं, सोने जा रही हूं.’’

‘‘आजकल क्या हो गया है इस लड़की को, बिना खाए सो जाती है. छोड़ दे ऐसी नौकरी, हमें नहीं चाहिए. न खाने का ठिकाना न सोने का,’’ मां बड़बड़ाने लगीं, तो मैं ने उन्हें शांत कराया कि चिंता न करें. मैं उन का खाना उन के कमरे में पहुंचा दूंगी. वे निश्चिंत हो कर सो जाएं.

मैं खाना ले कर उन के कमरे में गई तो देखा वे फोन पर किसी से बातें कर रही थीं. मुझे देखते ही फोन काट दिया. मेरे अनुरोध करने पर उन्होंने थोड़ा सा खाया. खाना खाते हुए मैं ने पाया कि पहले के विपरीत वे अपनी आंखें चुराते हुए खाने को जैसे निगल रही थीं. कुछ भी पूछना उचित नहीं लगा. उन के बरतन उन के लाख मना करने पर भी उठा कर लौट आई.

2 दिन बाद रवि लौटने वाले थे. मैं अपनी सास से शौपिंग का बहाना कर के घर से सीधी दीदी के औफिस पहुंच गई. मुझे अचानक आया देख कर एक बार तो वे घबरा गईं कि ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि मुझे औफिस आना पड़ा.

मैं ने उन के चेहरे के भाव भांपते हुए कहा, ‘‘अरे दीदी, कोई खास बात नहीं. यहां मैं कुछ काम से आई थी. सोचा आप से मिलती चलूं. आजकल आप घर देर से आती हैं, इसलिए आप से मिलना ही कहां हो पाता है…चलो न दीदी आज औफिस से छुट्टि ले लो. घर चलते हैं.’’

‘‘नहीं बहुत काम है, बौस छुट्टी नहीं देगा…’’

‘‘पूछ कर तो देखो, शायद मिल जाए.’’

‘‘अच्छा कोशिश करती हूं,’’ कह उन्होंने जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश की. फिर बौस के कमरे में चली गईं.

बौस के औफिस से निकलीं तो वह भी उन के साथ था, ‘‘अरे यह तो वही आदमी

है, जो दीदी को छोड़ने आता है,’’ मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला. मैं ने चारों ओर नजर डाली. अच्छा हुआ आसपास कोई नहीं था. दीदी को इजाजत मिल गई थी. उन का बौस उन्हें बाहर तक छोड़ने आया. इस का मुझे कोई औचित्य नहीं लगा. मैं ने उन को कुरेदने के लिए कहा, ‘‘वाह दीदी, बड़ी शान है आप की. आप का बौस आप को बाहर तक छोड़ने आया. औफिस के सभी लोगों को आप से ईर्ष्या होती होगी.’’

दीदी फीकी सी हंसी हंस दीं, कुछ बोलीं नहीं. सास भी दीदी को जल्दी आया देख कर बहुत खुश हुईं.

रात को सभी गहरी नींद सो रहे थे कि अचानक दीदी के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आने लगीं. मैं उन के कमरे की तरफ लपकी. वे कुरसी पर निढाल पड़ी थीं. मैं ने उन के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्या बात है दीदी? ऐसा तो हम ने कुछ खाया नहीं कि आप को नुकसान करे फिर बदहजमी कैसे हो गई आप को?’’

फिर अचानक मेरा माथा ठकना कि कहीं दीदी…मैं ने उन के दोनों कंधे हिलाते हुए कहा, ‘‘दीदी कहीं आप का बौस… सच बताओ दीदी…इसीलिए आप इतनी सुस्त…बताओ न दीदी, मुझ से कुछ मत छिपाइए. मैं किसी को नहीं बताऊंगी. मेरा विश्वास करो.’’

मेरा प्यार भरा स्पर्श पा कर और सांत्वना भरे शब्द सुन कर वे मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगीं और सकारात्मकता में सिर हिलाने लगीं. मैं सकते में आ गई कि कहीं ऐसी स्थिति न हो गई हो कि अबौर्शन भी न करवाया जा सके. मैं ने कहा, ‘‘दीदी, आप बिलकुल न घबराएं, मैं आप की पूरी मदद करूंगी. बस आप सारी बात मुझे सुना दीजिए…जरूर उस ने आप को धोखा दिया है.’’

दीदी ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘ये बौस नए नए ट्रांसफर हो कर मेरे औफिस में आए थे. आते ही उन्होंने मेरे में रुचि लेनी शुरू कर दी और एक दिन बोले कि उन की पत्नी की मृत्यु 2 साल पहले ही हुई है. घर उन को खाने को दौड़ता है, अकेलेपन से घबरा गए हैं, क्या मैं उन के जीवन के खालीपन को भरना चाहूंगी? मैं ने सोचा शादी तो मुझे करनी ही है, इसलिए मैं ने उन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. मैं ने उन से कहा कि वे मेरे मम्मी पापा से मिल लें. उन्होंने कहा कि ठीक हूं, वे जल्दी घर आएंगे. मैं बहुत खुश थी कि चलो मेरी शादी को ले कर घर में सब बहुत परेशान हैं, सब उन से मिल कर बहुत खुश होंगे. एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया कि शादी से पहले मैं उन का घर तो देख लूं, जिस में मुझे भविष्य में रहना है. मैं उन की बातों में आ गई और उन के साथ उन के घर चली गई.

वहां उन के चेहरे से उन का बनावटी मुखौटा उतर गया. उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और धमकी दी कि यदि मैं ने किसी को बताया तो उन के कैमरे में मेरे ऐसे फोटो हैं, जिन्हें देख कर मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी. होश में आने के बाद जब मैं ने पूरे कमरे में नजर दौड़ाई तो मुझे पल भर की भी देर यह समझने में न लगी कि वह शादीशुदा है. उस समय उस की पत्नी कहीं गई होगी. मैं क्या करती, बदनामी के डर से मुंह बंद कर रखा था. मैं लुट गई, अब क्या करूं?’’ कह कर फिर फूटफूट कर रोने लगीं.

तब मैं ने उन को अपने से लिपटाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें दीदी. अब देखती हूं वह कैसे आप को ब्लैकमेल करता है. सब से पहले मेरी फ्रैंड डाक्टर के पास जा कर अबौर्शन की बात करते हैं. उस के बाद आप के बौस से निबटेंगे. आप की तो कोई गलती ही नहीं है.

आप डर रही थीं, इसी का फायदा तो वह उठा रहा था. अब आप निश्चिंत हो कर सो जाइए. मैं हूं न. आज मैं आप के कमरे में ही सोती हूं,’’ और फिर मैं ने मन ही मन सोचा कि अच्छा है, पति बाहर गए हैं और सासससुर का कमरा दूर होने के कारण आवाज से उन की नींद नहीं खुली. थोड़ी ही देर में दोनों को गहरी नींद ने आ घेरा.

अगले दिन दोनों ननदभाभी किसी फ्रैंड के घर जाने का बहाना कर के डाक्टर के पास जाने के लिए निकलीं. डाक्टर चैकअप कर बोलीं, ‘‘यदि 1 हफ्ता और निकल जाता तो अबौर्शन करवाना खतरनाक हो जाता. आप सही समय पर आ गई हैं.’’

मैं ने भावातिरेक में अपनी डाक्टर फ्रैंड को गले से लगा लिया.

वे बोलीं, ‘‘सरिता, तुम्हें पता है ऐसे कई केस रोज मेरे पास आते हैं. भोलीभाली लड़कियों को ये दरिंदे अपने जाल में फंसा लेते हैं और वे बदनामी के डर से सब सहती रहती हैं. लेकिन तुम तो स्कूल के जमाने से ही बड़ी हिम्मत वाली रही हो. याद है वह अमित जिस ने तुम्हें तंग करने की कोशिश की थी. तब तुम ने प्रिंसिपल से शिकायत कर के उसे स्कूल से निकलवा कर ही दम लिया था.’’

‘‘अरे विनीता, तुझे अभी तक याद है. सच, वे भी क्या दिन थे,’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

पारुल के चेहरे पर भी आज बहुत दिनों बाद मुसकराहट दिखाई दी थी. अबौर्शन हो गया.

घर आ कर मैं अपनी सास से बोली, ‘‘दीदी को फ्रैंड के घर में चक्कर आ गया था, इसलिए डाक्टर के पास हो कर आई हैं. उन्होंने बताया

है कि खून की कमी है, खाने का ध्यान रखें और 1 हफ्ते की बैडरैस्ट लें. चिंता की कोई बात नहीं है.’’

सास ने दुखी मन से कहा, ‘‘मैं तो कब से कह रही हूं, खाने का ध्यान रखा करो, लेकिन मेरी कोई सुने तब न.’’

1 हफ्ते में ही दीदी भलीचंगी हो गईं. उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘तुम कितनी अच्छी हो भाभी. मुझे मुसीबत से छुटकारा दिला दिया. तुम ने मां से भी बढ़ कर मेरा ध्यान रखा. मुझे तुम पर बहुत गर्व है…ऐसी भाभी सब को मिले.’’

‘‘अरे दीदी, पिक्चर अभी बाकी है. अभी तो उस दरिंदे से निबटना है.’’

1 हफ्ते बाद हम योजनानुसार बौस की पत्नी से मिलने के लिए गए. उन को उन के पति का सारा कच्चाचिट्ठा बयान किया, तो वे हैरान होते हुए बोलीं, ‘‘इन्होंने यहां भी नाटक शुरू कर दिया…लखनऊ से तो किसी तरह ट्रांसफर करवा कर यहां आए हैं कि शायद शहर बदलने से ये कुछ सुधर जाएं, लेकिन कोई…’’ कहते हुए वे रोआंसी हो गईं.

हम उन की बात सुन कर अवाक रह गए. सोचने लगे कि इस से पहले न जाने

कितनी लड़कियों को उस ने बरबाद किया होगा. उस की पत्नी ने फिर कहना शुरू

किया, ‘‘अब मैं इन्हें माफ नहीं करूंगी. सजा दिलवा कर ही रहूंगी. चलो पुलिस

स्टेशन चलते हैं. इन को इन के किए की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप जैसी पत्नियां हों तो अपराध को बढ़ावा मिले ही नहीं. हमें आप पर गर्व है,’’ और फिर हम दोनों ननदभाभी उस की पत्नी के साथ पुलिस को ले कर बौस के पास उन के औफिस पहुंच गए.

पुलिस को और हम सब को देख कर वह हक्काबक्का रह गया. औफिस के सहकर्मी भी सकते में आ गए. उन में से एक लड़की भी आ कर हमारे साथ खड़ी हो गई. उस ने भी कहा कि उन्होंने उस के साथ भी दुर्व्यवहार किया है. पुलिस ने उन्हें अरैस्ट कर लिया. दीदी भावातिरेक में मेरे गले लग कर सिसकने लगीं. उन के आंसुओं ने सब कुछ कह डाला.

घर आ कर मैं ने सासससुर को कुछ नहीं बताया. पति से भी अबौर्शन वाली बात तो छिपा ली, मगर यह बता दिया कि वह दीदी को बहुत परेशान करता था.

सुनते ही उन्होंने मेरा माथा चूम लिया और बोले, ‘‘वाह, मुझे तुम पर गर्व है. तुम ने मेरी बहन को किसी के चंगुल में फंसने से बचा लिया. बीवी हो तो ऐसी.,’’

उन की बात सुन कर हम ननदभाभी दोनों एकदूसरे को देख मुसकरा दीं.

Romantic Story: एक रिश्ता प्यारा सा – माया और रमन के बीच क्या रिश्ता था?

Romantic Story: “अरे रमन जी सुनिए, जरा पिछले साल की रिपोर्ट मुझे फॉरवर्ड कर देंगे, कुछ काम था” . मैं ने कहा तो रमन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया “क्यों नहीं मिस माया, आप फरमाइश तो करें. हमारी जान भी हाजिर है.

“देखिए जान तो मुझे चाहिए नहीं. जो मांगा है वही दे दीजिए. मेहरबानी होगी.” मैं मुस्कुराई.

इस ऑफिस और इस शहर में आए हुए मुझे अधिक समय नहीं हुआ है. पिछले महीने ही ज्वाइन किया है. धीरेधीरे सब को जानने लगी हूं. ऑफिस में साथ काम करने वालों के साथ मैं ने अच्छा रिश्ता बना लिया है.

वैसे भी 30 साल की अविवाहित, अकेली और खूबसूरत कन्या के साथ दोस्ती रखने के लिए लोग मरते हैं. फिर मैं तो इन सब के साथ काम कर रही हूं. 8 घंटे का साथ है. मुझे किसी भी चीज की जरूरत होती है तो सहकर्मी तुरंत मेरी मदद कर देते हैं. अच्छा ही है वरना अनजान शहर में अकेले रहना आसान नहीं होता.

दिल्ली के इस ब्रांच ऑफिस में मैं अपने एक प्रोजेक्ट वर्क के लिए आई हुई हूं. दोतीन महीने का काम है. फिर अपने शहर जयपुर वाले ब्रांच में चली जाऊंगी. इसलिए ज्यादा सामान ले कर नहीं आई हूं.

मैं ने लक्ष्मी नगर में एक कमरे का घर किराए पर ले रखा है. बगल के कमरे में दो लड़कियां रहती हैं. जबकि मेरे सामने वाले घर में पतिपत्नी रहते हैं. शायद उन की शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ है. पत्नी हमेशा साड़ी में दिखती है. मैं सुबहसुबह जब भी खिड़की खोलती हूं तो सामने वह लड़का अपनी बीवी का हाथ बंटाता हुआ दिखता है. कभीकभी वह छत पर एक्सरसाइज करता भी दिख जाता है.

उस की पत्नी से मेरी कभी बात नहीं हुई मगर वह लड़का एकदो बार मुझे गली में मिल चुका है. काफी शराफत से वह इतना ही पूछता है,” कैसी हैं आप ? कोई तकलीफ तो नही यहां.”

“जी नहीं. सब ठीक है.” कह कर मैं आगे बढ़ जाती.

इधर कुछ दिनों से देश में कोरोना के मामले सामने आने लगे हैं. हर कोई एहतियात बरत रहा है. बगल वाले कमरे की दोनों लड़कियों के कॉलेज बंद हो गए. दोनों अपने शहर लौट गई .

उस दिन सुबहसुबह मेरे घर से भी मम्मी का फोन आ गया,” बेटा देख कोरोना फैलना शुरु हो गया है. तू घर आ जा.”

“पर मम्मी अभी कोई डरने की बात नहीं है. सब काबू में आ जाएगा. यह भी तो सोचो मुझे ऑफिस ज्वाइन किए हुए 1 महीना भी नहीं हुआ है. इतनी जल्दी छुट्टी कैसे लूं? बॉस पर अच्छा इंप्रेशन नहीं पड़ेगा. वैसे भी ऑफिस बंद थोड़े न हुआ है. सब आ रहे हैं.”

“पर बेटा तू अनजान शहर में है. कैसे रहेगी अकेली? कौन रखेगा तेरा ख्याल?”

“अरे मम्मी चिंता की कोई बात नहीं. ऑफिस में साथ काम करने वाले मेरा बहुत ख्याल रखते हैं. सरला मैडम तो मेरे घर के काफी पास ही रहती है. उन की फैमिली भी है. 2 लोग हैं और हैं जिन का घर मेरे घर के पास ही है. इसलिए आप चिंता न करें. सब मेरा ख्याल रखेंगे.”

“और बेटा खानापीना… सब ठीक चल रहा है ?”

“हां मम्मा. खानेपीने की कोई दिक्कत नहीं है . मुझे जब भी कैंटीन में खाने की इच्छा नहीं होती तो सरला मैडम या दिवाकर सर से कह देती हूं. वे अपने घर से मेरे लिए लंच ले आते हैं. ममा डोंट वरी. मैं बिल्कुल ठीक हूं. गली के कोने में ढाबे वाले रामू काका भी तो हैं. मेरे कहने पर तुरंत खाना भेज देते हैं. ममा कोरोना ज्यादा फैला तो मैं घर आ जाऊंगी. आप चिंता न करो .”

उस दिन मैं ने मां को तो समझा दिया था कि सब ठीक है. मगर मुझे अंदाज भी नहीं था कि तीनचार दिनों के अंदर ही देश में अचानक लॉकडाउन हो जाएगा और मैं इस अनजान शहर में एक कमरे में बंद हो कर रह जाऊंगी. न घर में खानेपीने की ज्यादा चीजें हैं और न ही कोई रेस्टोरेंट ही खुला हुआ है .

मैं ने सरला मैडम से मदद मांगी तो उन्होंने टका सा जवाब दे दिया,” देखो माया अभी तो अपने घर में ही खाने की सामग्री कब खत्म हो जाए पता नहीं . अभी न तुम्हारा घर से निकलना उचित है और न हमारे घर में ऐसा कोई है जो तुम्हें खाना दे कर आए. आई एम सॉरी. ”

“इट्स ओके .” बस इतना ही कह सकी थी मैं. इस के बाद मैं ने दिवाकर सर को फोन किया तो उन्होंने उस दिन तो खाना ला कर दे दिया मगर साथ में अपना एक्सक्यूज भी रख दिया कि माया अब रोज मैं खाना ले कर नहीं आ सकूंगा. मेरी बीवी भी तो सवाल करेगी न.

“जी मैं समझ सकती हूं . मुझे उन की उम्मीद भी छोड़नी पड़ी. अब मैं ने रमन जी को फोन किया जो हर समय मेरे लिए जान हाजिर करने की बात करते रहते थे. उन का घर भी लक्ष्मी नगर में ही था. हमेशा की तरह उन का जवाब सकारात्मक आया. शाम में खाना ले कर आने का वादा किया. रात हो गई और वह नहीं आए. मैं ने फोन किया तो उन्होंने फोन उठाया भी नहीं और एक मैसेज डाल दिया, सॉरी माया मैं नहीं आ पाऊंगा.

अब मेरे पास खाने की भारी समस्या पैदा हो गई थी. किराने की दुकान से ब्रेड और दूध ले आई. कुछ बिस्किट्स और मैगी भी खरीद ली. चाय बनाने के लिए इंडक्शन खरीदा हुआ था मैं ने. उसी पर किसी तरह मैगी बना ली. कुछ फल भी खरीद लिए थे. दोतीन दिन ऐसे ही काम चलाया मगर ऐसे पता नहीं कितने दिन चलाना था. 21 दिन का लॉकडाउन था. उस के बाद भी परिस्थिति कैसी होगी कहना मुश्किल था.

उस दिन मैं दूध ले कर आ रही थी तो गेट के बाहर वही लड़का जो सामने के घर में रहता है मिल गया. उस ने मुझ से वही पुराना सवाल किया,” कैसी हैं आप? सब ठीक है न? कोई परेशानी तो नहीं?”

“अब ठीक क्या? बस चल रहा है. मैगी और ब्रेड खा कर गुजारा कर रही हूं .”

“क्यों खाना बनाना नहीं जानती आप?

उस के सवाल पर मैं हंस पड़ी.

“जानती तो हूं मगर यहां कोई सामान नहीं है न मेरे पास. दोतीन महीने के लिए ही दिल्ली आई थी. अब तक ऑफिस कैंटीन और रामू काका के ढाबे में खाना खा कर काम चल जाता था. मगर अब तो सब कुछ बंद है न. अचानक लॉक डाउन से मुझे तो बहुत परेशानी हो रही है.”

“हां सो तो है ही. मेरी वाइफ भी 5-6 दिन पहले अपने घर गई थी. 1 सप्ताह में वापस आने वाली थी. संडे मैं उसे लेने जाता तब तक सब बंद हो गया. उस के घरवालों ने कहा कि अभी जान जोखिम में डाल कर लेने मत आना. सब ठीक हो जाए तो आ जाना. अब मैं भी घर में अकेला ही हूं.”

“तो फिर खाना?”

“उस की कोई चिंता नहीं. मुझे खाना बनाना आता है. ” उस के चेहरे पर मुस्कान खिल गई.

“क्या बात है! यह तो बहुत अच्छा है. आप को परेशानी नहीं होगी.”

“परेशानी आप को भी नहीं होने दूंगा. कल से मैं आप के लिए खाना बना दिया करूंगा. आप बिल्कुल चिंता न करें. कुछ सामान लाना हो तो वह भी मुझे बताइए. आप घर से मत निकला कीजिए. मैं हूं न.”

एक अनजान शख्स के मुंह से इतनी आत्मीयता भरी बातें बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा.” थैंक यू सो मच “मैं इतना ही कह पाई.

अगले दिन सुबहसुबह वह लड़का यानी अमर मेरे लिए नाश्ता ले कर आ गया. टेबल पर टिफिन बॉक्स छोड़ कर वह चला गया था. नाश्ते में स्वादिष्ट पोहा खा कर मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई. मैं दोपहर का इंतजार करने लगी. ठीक 2 बजे वह फिर टिफिन भर लाया. इस बार टिफिन में दाल चावल और सब्जी थे. मैं सोच रही थी कि किस मुंह से उसे शुक्रिया करूं. अनजान हो कर भी वह मेरे लिए इतना कुछ कर रहा है.

मैं ने उसे रोक लिया और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. वह थोड़ा सकुचाता हुआ बैठ गया. मैं बोल पड़ी ,” आई नो एक एक अनजान, अकेली लड़की के घर में ऐसे बैठना आप को अजीब लग रहा होगा. मगर मैं इस अजनबीपन को खत्म करना चाहती हूं. आप अपने बारे में कुछ बताइए न. मैं जानना चाहती हूं उस शख्स के बारे में जो मेरी इतनी हेल्प कर रहा है.”

“ऐसा कुछ नहीं माया जी. हम सब को एकदूसरे की सहायता करनी चाहिए.” बड़े सहज तरीके से उस ने जवाब दिया और फिर अपने बारे में बताने लगा,

“दरअसल मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं. मेरठ में मेरा घर है . स्कूल में हमेशा टॉप करता था. मगर घर के हालात ज्यादा अच्छे नहीं थे. सो इंटर के बाद ही मुझे नौकरी करनी पड़ी. करोल बाग में मेरा ऑफिस है. वाइफ भी मेरठ की ही है. बहुत अच्छी है. बहुत प्यार करती है मुझ से. हम दोनों की शादी पिछले साल ही हुई थी. दिल्ली आए ज्यादा समय नहीं हुआ है.”

“बहुत अच्छे. मैं भी दिल्ली में नई हूं. हमारे इस ऑफिस का एक ब्रांच जयपुर में भी है. वही काम करती थी मैं. यहां एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आई हुई हूं .अगर प्रमोशन मिल गया तो शायद हमेशा के लिए भी रहना पड़ जाए.”

अच्छा जी अब आप खाना खाएं. देखिए मैं ने ठीक बनाया है या नहीं.”

आप तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाते हैं. सुबह ही पता चल गया था. कह कर मैं हंस पड़ी. वह भी थोड़ा शरमाता हुआ मुस्कुराने लगा था. मैं खाती रही और वह बातें करता रहा.

अब तो यह रोज का नियम बन गया था. वह 3 बार मेरे लिए खाना बना कर लाता. मैं भी कभीकभी चाय बना कर पिलाती. किसी भी चीज की जरूरत होती तो वह ला कर देता . मुझे निकलने से रोक देता.

मेरे आग्रह करने पर वह खुद भी मेरे साथ ही खाना खाने लगा. हम दोनों घंटों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करते.

इस बीच मम्मी का जब भी फोन आता और वह चिंता करतीं तो मैं उन्हें समझा देती कि सब अच्छा है. मम्मी जब भी खाने की बात करतीं तो मैं उन्हें कह देती कि सरला मैडम मेरे लिए खाना बना कर भेज देती हैं. कोई परेशानी की बात नहीं है.

इधर अमर की वाइफ भी फोन कर के उस का हालचाल पूछती. चिंता करती तो अमर कह देता कि वह ठीक है. अपने अकेलेपन को टीवी देख कर और एक्सरसाइज कर के काट रहा है.

हम दोनों घरवालों से कही गई बातें एकदूसरे को बताते और खूब हंसते. वाकई इतनी विकट स्थिति में अमर का साथ मुझे मजबूत बना रहा था. यही हाल अमर का भी था. इन 15- 20 दिनों में हम एकदूसरे के काफी करीब आ चुके थे. और फिर एक दिन हमारे बीच वह सब हो गया जो उचित नहीं था.

अमर इस बात को ले कर खुद को गुनहगार मान रहा था. मगर मैं ने उसे समझाया,” तुम्हारा कोई दोष नहीं अमर. भूल हम दोनों से हुई है. पर इसे भूल नहीं परिस्थिति का दोष समझो. यह भूल हम कभी नहीं दोहराएंगे. मगर इस बात को ले कर अपराधबोध भी मत रखो. हम अच्छे दोस्त हैं और हमेशा रहेंगे. एक दोस्त ही दूसरे का सहारा बनता है और तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. मुझे खुशी है कि मुझे तुम्हारे जैसा दोस्त मिला.”

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर से भी तनाव की रेखाएं गायब हो गई और वह मंदमंद मुस्कुराने लगा.

Romantic Story: मौसमी बुखार – पति के प्यार को क्यों अवहेलना समझ बैठी माधवी?

Romantic Story, लेखिका – डा. मीरा दिक्षित

‘‘उठो भई, अलार्म बज गया है,’’ कह कर पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना राकेश ने फिर करवट बदल ली.

चिडि़यों की चहचहाहट और कमरे में आती तेज रोशनी से राकेश चौंक कर जाग पड़ा, ‘‘यह क्या तुम अभी तक सो रही हो? मधु…मधु सुना नहीं था क्या? मैं ने तुम्हें जगाया भी था. देखो, क्या वक्त हो गया है? बाप रे, 8…’’

जल्दी से राकेश बिस्तर से उठा तो माधवी के हाथ से अचानक उस का हाथ छू गया, वह चौंक पड़ा. माधवी का हाथ तप रहा था. माधवी बेखबर सो रही थी. राकेश ने एक चिंता भरी नजर उस पर डाली और सोचने लगा, ‘यदि मौसमी बुखार ही हो तो अच्छा है, 2-3 दिन में लोटपोट कर मधु खड़ी हो जाएगी. अगर कोई और बीमारी हुई तो जाने कितने दिन की परेशानी हो जाए,’ सोचतेसोचते राकेश बच्चों को जगाने पहुंचा.

चाय बना कर माधवी को जगाते हुए राकेश बोला, ‘‘उठो, मधु, चाय पी लो.’’

माधवी ने आंखें खोलीं, ‘‘क्या समय हो गया? अरे, 9. आप ने मुझे जगाया नहीं. आज बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?’’

राकेश मुसकरा कर बोला, ‘‘बच्चे तो स्कूल गए, तुम क्या सोचती हो, मैं कुछ कर ही नहीं सकता. मैं ने उन्हें स्कूल भेज दिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘चिंता न करो. टिफिन दे कर ही भेजा है.’’

माधवी को खुशी भी हुई और अचंभा भी कि राकेश इतने लायक कब से बन गए? वह सोई रह गई और इतने काम हो गए.

राकेश पुन: बोला, ‘‘मधु और बिस्कुट लो, तुम्हें बुखार लगता है. यह रहा थर्मामीटर. बुखार नाप लेना. अब दफ्तर जा रहा हूं.’’

‘‘नाश्ता?’’

‘‘कर लिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘जरूरत नहीं, वहीं दफ्तर में खा लूंगा. यह दवाइयों का डब्बा है, जरूरत के मुताबिक गोली ले लेना,’’ एक सांस में कहता हुआ राकेश कमरे से बाहर हो गया.

पर दूसरे ही पल फिर अंदर आ कर बोला, ‘‘अरे, दूध तो गैस पर ही चढ़ा रह गया,’’ शीघ्र ही राकेश थर्मस में दूध भर कर माधवी के पास रखते हुए बोला, ‘‘थोड़ी देर बाद पी ले.’’

राकेश के जाते ही माधवी सोचने लगी, ‘इतनी चिंता, इतनी सेवा,’ फिर भी खुश होने के बजाय उस का मन भारी होता जा रहा था, ‘इतना भी नहीं हुआ कि माथे पर हाथ रख कर देख लेते. खुद बुखार नाप लेते तो लाट- साहबी पर धब्बा लग जाता? कितने मजे से सब संभाल लिया. वही पागल है जो सोचती रहती है कि उस के बिना सब को तकलीफ होगी. दिन भर जुटी रहती है सब के आराम के लिए. देखो, सब हो गया न? उस के न उठने पर भी सब काम हो गया? वह सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी बन कर नाचती रहती है और सब उसे नचाते रहते हैं. आज तो सब को सबकुछ मिल गया न? लगता है सब जानबूझ कर उसे परेशान करते हैं.’

सोचतेसोचते माधवी का सिर दुखने लगा. चाय के साथ एक गोली सटक कर वह फिर लेट गई. झपकी आई ही थी कि बिन्नो की आवाज से नींद खुल गई, ‘‘बहूजी, आज दरवाजा कैसे खुला पड़ा है? अरे, लेटी हो. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

माधवी की आंखें छलछला आईं, ‘‘बिन्नो, जरा देखना, स्नानघर में कपड़े पड़े होंगे. धो देना. गीले कपड़े मेरी छाती पर बोझ बढ़ाते हैं. सब यह जानते हैं पर कपड़े ऐसे ही फेंक गए होंगे.’’

बिन्नो ने स्नानघर से ही आवाज लगाई, ‘‘बहूजी, स्नानघर एकदम साफ है. यहां तो एक भी कपड़ा नहीं.’’

‘क्या एक भी कपड़ा नहीं?’ विस्मय से माधवी ने सोचा. उस की मनोस्थिति ऐसी हो रही थी कि राकेश और बच्चों के हर कार्य से उसे अपनेआप पर अत्याचार होता ही महसूस हो रहा था.

बिन्नो ने काम खत्म कर के उस का सिर और हाथपैर दबा दिए. माधवी कृतज्ञता से भर गई, ‘घर वालों से तो महरी ही अच्छी है. बेचारी कितनी सेवा करती है, अब की दीवाली पर इसे एक अच्छी सी साड़ी दूंगी.’

कुछ तो हाथपैर दबाए जाने से और कुछ दवा के असर से दर्द कम हो गया था. इसलिए माधवी दोपहर तक सोती ही रही.

अचानक ही आंखें खुलीं तो प्रिय सखी सुधा को देख माधवी आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गई, ‘‘तू आज अचानक कैसे?’’

सुधा ने हंस कर कहा, ‘‘मन ने कहा और मैं आ गई,’’ सुधा सुरीले स्वर में गुनगुनाने लगी, ‘‘दिल को दिल से राह होती है. तू बीमार पड़ी है, अकेली है, कितने सही समय पर मैं आई हूं.’’

माधवी कुछ बोले बिना एकटक सुधा को देखती रही. फिर उस की आंखें छलछला आईं. सुधा ने अचरज से पूछा, ‘‘अरे, क्या हुआ?’’

भीगे हुए करुण स्वर में अपने दिन भर के विचारबिंदु एकएक कर सुधा के सामने परोस दिए माधवी ने. स्वार्थी राकेश और बच्चों के किस्से, उस की सेवाटहल में की गई कोताही, जानबूझ कर उस से फायदा उठाने के लिए की गई लापरवाहियों के किस्से, उदाहरण सब सुनाते हुए अंत में न चाहते हुए भी माधवी के मुंह से वह निकल गया जो उसे सवेरे से परेशान किए था, ‘‘देखो न, मेरे बिना भी तो सब का काम होता है. मेरी इन लोगों को जरूरत ही क्या है? सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी की तरह नाचती हूं. मुझ से तो राकेश ज्यादा कार्यकुशल है, सुबह फटाफट बच्चों को स्कूल भेज दिया.’’

सुधा मुंह दबा कर मुसकान रोक रही थी. उस पर नजर पड़ते ही  माधवी भभक उठी, ‘‘तुम हंस रही हो? हंसो, मैं ने बेवकूफी में जो इतने साल गंवाएं हैं, उन के लिए तुम्हारा हंसना ही ठीक है.’’

सुधा ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘सच मधु, तुम बहुत भोली हो,’’ फिर गंभीर होते हुए समझाने लगी, ‘‘क्या मैं अपनेआप आ गई हूं? राकेश भैया ने ही मुझे फोन किया था कि आप की मित्र बहुत बीमार है, कृपया दोपहर में उन्हें देख आइएगा. जरूरत पड़े तो डाक्टर को दिखा दीजिए.’’

‘‘अब यही बचा है? मेरी बीमारी का ढिंढ़ोरा सारे शहर में पीटना था. खुद नहीं दिखा सकते थे डाक्टर को? डाक्टर की बात छोड़ो, माथा तक छू कर नहीं देखा. क्या पहले कभी मुझे छुआ नहीं?’’

सुधा हंस कर बोली, ‘‘खुद छुआ है भई, इस में क्या शक है? पर मधु इतना गुस्सा केवल इसीलिए कि माथा छू कर बुखार नहीं देखा? तुम्हें डाक्टर को दिखाने के लिए क्या वे बिना छुट्टी लिए घर बैठ जाते? तुम्हीं सोचो जो काम तुम 3 घंटे में करती हो, बेचारे ने इतनी जल्दी कैसे किया होगा?’’

‘‘यही तो बात है, मेरी उन्हें अब जरूरत ही नहीं. इतने कार्यकुशल…’’

‘‘खाक कार्यकुशल,’’ सुधा गुस्से से बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारे आराम के लिए खुद कितनी परेशानी उठाई उन्होंने? इस में तुम्हें उन का प्यार नहीं दिखता? अच्छा हुआ, मैं आ गई. डाक्टर से ज्यादा तुम्हें मेरी जरूरत थी. ऐसा करो, आंखों से गुस्से की पट्टी उतार कर देखो चुपचाप. आंखें खुली, जबान बंद. सब पता लग जाएगा कि सचाई क्या है और उन लोगों को तुम्हारी कितनी जरूरत है? तुम्हारी चिंता कम करने के लिए ही वे सब तुम्हारी देखभाल कर रहे हैं.’’

माधवी को सुधा की बातें कुछ समझ आईं, कुछ नहीं पर उस ने तय किया कि जबान बंद और आंखें खुली रख कर देखने की कोशिश करेगी. शाम को एकएक कर सब घर लौटे. पहले बच्चे, फिर राकेश. उस ने आते ही पूछा, ‘‘क्या हाल है? बिन्नो आई थी? दवा ली?’’

‘‘हां, एक गोली ली थी,’’ माधवी ने धीरे से कहा.

ठीक है, आराम करो. और कोई तो नहीं आया था?’’

‘‘नहीं तो. किसी को आना था क्या?’’

‘‘नहीं भई, यों ही पूछ लिया.’’

‘‘हां, याद आया, सुधा आई थी,’’ माधवी बोली. सुनते ही राकेश के चेहरे पर इतमीनान झलक उठा. वह उत्साह से बोला, ‘‘चलो बच्चो, दू पी लो. फिर हम सब खिचड़ी बनाएंगे.’’

गुडि़या सोचते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमें खिचड़ी बनानी तो आती नहीं है.’’

‘‘अच्छा, तो क्या बनाना आता है?’’

गुडि़या चुप हो गई क्योंकि उसे तो कुछ भी बनाना नहीं आता था. उसे देख कर सब हंसने लगे.

राकेश उत्साहपूर्वक बोला, ‘‘चलो, हम सब मिल कर बनाएंगे. तुम्हारी मां आराम करेंगी.’’

रसोई से आवाजें आ रही थीं. माधवी सुन रही थी, ‘‘पिताजी, चावलदाल बीनने होंगे?’’

‘‘नहीं बेटा, धो कर काम चल जाएगा.’’

‘‘पर पिताजी मां तो शायद बीनती भी हैं.’’

‘‘शायद न? तुम्हें पक्का तो नहीं मालूम?’’

माधवी का मन हुआ कि चिल्ला कर बता दे, ‘चावल, दाल बीने जाएंगे,’ पर फिर सोचा, ‘हटाओ, कौन उस से पूछने आ रहा है जो वह बताने जाए?’

खिचड़ी बन कर आई. राकेश ने पहली प्लेट उसी को पेश की. पहला चम्मच मुंह में डालते ही कंकड़ दांतों के नीचे बज गया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोचार कौर के बाद राकेश ने खिसियाते हुए कहा, ‘‘कंकड़ हैं खिचड़ी में.’’

पप्पू बोला, ‘‘पिताजी, कहा था न कि चावल, दाल बीनने पड़ेंगे.’’

‘‘चुप, पिताजी क्या रोज बनाते हैं? जैसा मालूम था बेचारों को वैसा बना दिया,’’ गुडि़या पप्पू को घूरते हुए बोली.

‘‘बेटा, डबलरोटी खा लो,’’ राकेश ने धीरे से कहा.

‘‘पिताजी, सवेरे से बस डबलरोटी ही तो खा रहे हैं. नाश्ते में, टिफिन में, दूध के साथ, अब फिर?’’ पप्पू गुस्से से बोला. गुडि़या बिगड़ कर बोली, ‘‘तू एकदम बुद्धू है क्या? मां इतनी बीमार हैं, एक दिन डबलरोटी खा कर तू दुबला हो जाएगा? पिताजी ने भी सवेरे से क्या खाया है? कितने परेशान हैं?’’

गुडि़या की इस बात से कमरे में  सन्नाटा छा गया. सब अपनीअपनी प्लेटों के सामने चुप बैठे थे.

पप्पू अपनी प्लेट छोड़ कर उठा और मां की बगल में लेटता हुआ बोला, ‘‘मां, आप कब ठीक होंगी? जल्दी ठीक हो जाइए, कुछ सही नहीं चल रहा है.’’

गुडि़या मां का सिर दबाते हुए बोली, ‘‘अभी चाहें तो और आराम कर लीजिए, हम लोग काम चला लेंगे.’’

राकेश ने माधवी का माथा छू कर कहा, ‘‘अब लगता है, बुखार कम है.’’

माधवी आनंद की लहरों में डूबती उतराती उनींदे स्वर में बोली, ‘‘तुम सब जा कर होटल से खाना खा आओ.’’

‘‘और तुम?’’ राकेश के प्रश्न के जवाब में असीम तृप्ति से उस का हाथ अपने माथे पर दबा कर माधवी ने कहा, ‘‘मैं अब सोऊंगी.’’

Hindi Story: दंश – सोना भाभी क्यों बीमार रहती थी?

Hindi Story: सोना भाभी वैसे तो कविता की भाभी थीं. कविता, जो स्कूल में मेरी सहपाठिनी थी और हमारे घर भी एक ही गली में थे. कविता के साथ मेरा दिनरात का उठनाबैठना ही नहीं उस घर से मेरा पारिवारिक संबंध भी रहा था. शिवेन भैया दोनों परिवारों में हम सब भाईबहनों में बड़े थे. जब सोना भाभी ब्याह कर आईं तो मुझे लगा ही नहीं कि वह मेरी अपनी सगी भाभी नहीं थीं.

सोना भाभी का नाम उषा था. उन का पुकारने का नाम भी सोना नहीं था, न हमारे घर बहू का नाम बदलने की कोई प्रथा ही थी पर चूंकि भाभी का रंग सोने जैसा था अत: हम सभी भाईबहन यों ही उन्हें सोना भाभी बुलाने लगे थे. बस, वह हमारे लिए उषा नहीं सोना भाभी ही बनी रहीं. सुंदर नाकनक्श, बड़ीबड़ी भावपूर्ण आंखें, मधुर गायन और सब से बढ़ कर उन का अपनत्व से भरा व्यवहार था. उन के हाथ का बना भोजन स्वाद से भरा होता था और उसे खिलाने की जो चिंता उन के चेहरे पर झलकती थी उसे देख कर हम उन की ओर बेहद आकृष्ट होते थे.

शिवेन भैया अभी इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे कि उन्हें मातापिता ही नहीं दादादादी के अनुरोध से विवाह बंधन में बंधना पड़ा. पढ़ाई पूरी कर के वह दिल्ली चले गए फिर वहीं रहे. हम लोग भी अपनेअपने विवाह के बाद अलगअलग शहरों में रहने लगे. कभी किसी खास आयोजन पर मिलते तो सोना भाभी का प्यार हमें स्नेह से सराबोर कर देता. उन का स्नेहिक आतिथ्य हमेें भावविभोर कर देता.

आखिरी बार जब सोना भाभी से मिलना हुआ उस समय उन्होंने सलवार सूट पहना हुआ था. वह मेरे सामने आने में झिझकीं. मैं ड्राइंगरूम में बैठने वाली तो थी नहीं, भाग कर दूसरे कमरे में पहुंची तो वह साड़ी पहनने जा रही थीं.

मैं ने छूटते ही कहा, ‘‘यह क्या भाभी, आज तो आप बड़ी सुंदर लग रही हो, खासकर इस सलवार सूट में.’’

‘‘नहीं,’’ उन्होंने जोर देते हुए कहा.

मैं ने उन्हें शह दी, ‘‘भाभी आप की कमसिन छरहरी काया पर यह सलवार सूट तो खूब फब रहा है.’’

‘‘नहीं, माया, मुझे संकोच लगता है. बस, 2 मिनट में.’’

‘‘पर क्यों? आजकल तो हर किसी ने सलवार सूट अपने पहनावे में शामिल कर लिया है. यहां तक कि उन बूढ़ी औरतों ने भी जिन्होंने पहले कभी सलवार सूट पहनने के बारे में सोचा तक नहीं था… सुविधाजनक होता है न भाभी, फिर रखरखाव में भी साड़ी से आसान है.’’

‘‘यह बात नहीं है, माया. मुझे कमर में दर्द रहता है तो सब ने कहा कि सलवार सूट पहना करूं ताकि उस से कमर अच्छी तरह ढंकी रहेगी तो वह हिस्सा गरम रहेगा.’’

‘‘हां, भाभी, सो तो है,’’ मैं ने हामी भरी पर मन में सोचा कि सब की देखादेखी उन्हें भी शौक हुआ होगा तो कमर दर्द का एक बहाना गढ़ लिया है…

सोना भाभी ने इस हंसीमजाक के  बीच अपनी जादुई उंगलियों से खूब स्वादिष्ठ भोजन बनाया. इस बीच कई बार मोबाइल फोन की घंटी बजी और भाभी मोबाइल से बात करती रहीं. कोई खास बात न थी. हां, शिवेन भैया आ गए थे. उन्होंने हंसीहंसी में कहा कि तुम्हारी भाभी को उठने में देर लगती थी, फोन बजता रहता था और कई बार तो बजतेबजते कट भी जाता था, इसी से इन के लिए मोबाइल लेना पड़ा.

साल भर बाद ही सुना कि सोना भाभी नहीं रहीं. उन्हें कैंसर हो गया था. सोना भाभी के साथ जीवन की कई मधुर स्मृतियां जुड़ी हुई थीं इसलिए दुख भी बहुत हुआ. लगभग 5 सालों के बाद कविता से मिली तब भी हम दोनों की बातों में सोना भाभी ही केंद्रित थीं. बातों के बीच अचानक मुझे लगा कि कविता कुछ कहतेकहते चुप हो गई थी. मैं ने कविता से पूछ ही लिया, ‘‘कविता, मुझे ऐसा लगता है कि तुम कुछ कहतेकहते चुप हो जाती हो…क्या बात है?’’

‘‘हां, माया, मैं अपने मन की बात तुम्हें बताना चाहती हूं पर कुछ सोच कर झिझकती भी हूं. बात यह है…

‘‘एक दिन सोना भाभी से बातोंबातों में पता लगा कि उन्हें प्राय: रक्तस्राव होता रहता है. भाभी बताने लगीं कि पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है. 50 से 5 साल ऊपर की हो रही हूं्…

‘‘भाभी पहले से भी सुंदर, कोमल लग रही थीं. बालों में एक भी रजत तार नहीं था. वह भी बिना किसी डाई के. वह इतनी अच्छी लग रही थीं कि मेरे मुंह से निकल गया, ‘भाभी, आप चिरयौवना हैं न इसीलिए. देखिए, आप का रंग पहले के मुकाबले और भी निखरानिखरा लग रहा है और चेहरा पहले से भी कोमल, सुंदर. आप बेकार में चिंता क्यों कर रही हैं.

‘‘यही कथन, यही सोच मेरे मन में आज भी कांटा सा चुभता रहता है. क्यों नहीं उस समय उन पर जोर दिया था कि आप के साथ जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं है. आप डाक्टर से परामर्श लें. क्यों झूठा परिहास कर बैठी थी?’’

मुझे भी उन के कमर दर्द की शिकायत याद आई. मैं ने भी तो उन की बातों को गंभीरता से नहीं लिया था. मन में सोच कर मैं खामोश हो गई.

भाभी और भैया दोनों ही अस्पताल जाने से बहुत डरते थे या यों कहें कि कतराते थे. शायद कुछ कटु अनुभव हों. वहां बातबात में लाइन लगा कर खड़े रहना, नर्सो की डांटडपट, बेरहमी से सूई घुसेड़ना, अटेंडेंट की तीखी उपहास करती सी नजर, डाक्टरों का शुष्क व्यवहार आदि से बचना चाहते थे.

भाभी को सब से बढ़ कर डर था कि कैंसर बता दिया तो उस के कष्टदायक उपचार की पीड़ा को झेलना पड़ेगा. उन्हें मीठी गोली में बहुत विश्वास था. वह होम्योपैथिक दवा ले रही थीं.

‘‘माया, बहुत सी महिलाएं अपने दर्द का बखान करने लगती हैं तो उन की बातों की लड़ी टूटने में ही नहीं आती,’’ कविता बोली, ‘‘उन के बयान के आगे तो अपने को हो रहा भीषण दर्द भी बौना लगने लगता है. सोना भाभी को भी मैं ने ऐसा ही समझ लिया. उन से हंसी में कही बात आज भी मेरे मन को सालती है कि कहीं उन्होंने मेरे मुंह से अपनी काया को स्वस्थ कहे जाने को सच ही तो नहीं मान लिया था और गर्भाशय के अपने कैंसर के निदान में देर कर दी हो.

‘‘माया, लगता यही है कि उन्होंने इसीलिए अपने पर ध्यान नहीं दिया और इसे ही सच मान लिया कि रक्तस्राव होते रहना कोई अनहोनी बात नहीं है. सुनते हैं कि हारमोन वगैरह के इंजेक्शन से यौवन लौटाया जा रहा है पर भाभी के साथ ऐसा क्यों हुआ? मैं यहीं पर अपने को अपराधी मानती हूं, यह मैं किसी से बता न सकी पर तुम से बता रही हूं. भाभी मेरी बातों पर आंख मूंद कर विश्वास करती थीं. 3-4 महीने भी नहीं बीते थे जब रोग पूरे शरीर में फैल गया. सोने सी काया स्याह होने लगी. अस्पताल के चक्कर लगने लगे, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.’’

मुझे भी याद आने लगा जब मैं अंतिम बार उन से मिली थी. मैं ने भी उन्हें कहां गंभीरता से लिया था.

‘‘माया, तुम कहानियां लिखती हो न,’’ कविता बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि सोना भाभी के कष्ट की, हमारे दुख की, मेरे अपने मन की पीड़ा तुम लिख दो ताकि जो भी महिला कहानी पढ़े, वह अपने पर ध्यान दे और ऐसा कुछ हो तो शीघ्र ही निदान करा ले.’’

कविता बिलख रही थी. मेरी आंखें भी बरस रही थीं. उसे सांत्वना देने वाले शब्द मेरे पास नहीं थे. वह मेरी भी तो बहुत अपनी थी. कविता का अनुरोध नहीं टाल सकी हूं सो उस की व्यथाकथा लिख रही हूं.

Romantic Story: परिंदे प्यार के – अब्दुल लड़कियों को देखकर क्यों घबराता था?

Romantic Story: अब्दुल आज पहली बार कालेज जा रहा है, इसलिए थोड़ा सा नर्वस था.

“यार, क्या हुआ? तू तो लड़कियों के जैसे कर रहा है… इतना क्यों घबरा रहा है?” हामिद ने पूछा.

“यार, पता नहीं क्यों मुझे घबराहट क्यों हो रही है, वहां इतनी सारी लड़कियां होंगी न…”

“तो? लड़कियां तुझे खा जाएंगी क्या? चल, अब चलें. देर हो रही है.”

वे दोनों जैसे ही कालेज में एंटर हुए कि सामने से कुरतीसलवार पहने, दुपट्टा ओढ़े एक लड़की आई, जिस के लंबेघने बाल, गोराचिट्टा रंग, बड़ीबड़ी आंखों में काजल, चांद जैसे मुखड़े पर छोटा सा काला तिल था और अचानक से वह अब्दुल से टकरा गई. अब्दुल के हाथ से किताबें गिर गईं.

“ओह, सौरी. दरअसल, मैं जल्दी में थी. शायद बस से उतरते समय मेरा पर्स कहीं गिर गया, वही ढूंढ़ने जा रही हूं,” वह लड़की हड़बड़ाहट में बोली.

हामिद ने धीरे से कहा, “जी मोहतरमा, कहीं यह तो नहीं है… मुझे यह कालेज के गेट पर पड़ा मिला था. मैं ने उठा लिया और सोचा कि अंदर औफिस में जमा करा दूंगा, जिस का भी होगा खुद ले जाएगा.”

“जीजी, यही है…” पर्स लेते हुए वह लड़की बोली, “थैंक्स मिस्टर…”

“हामिद नाम है मेरा और यह मेरा दोस्त है… अब्दुल.”

“हामिदजी, अब्दुलजी… आप दोनों का शुक्रिया,” वह लड़की बोली.

“आप पर्स चैक कर लीजिए,” अब्दुल ने कहा.

“इस की कोई जरूरत नहीं. इस में पैसे तो थे ही नहीं.”

“पैसे नहीं थे… फिर क्या आप एक खाली पर्स के लिए इतनी परेशान हो रही थीं?”

“किसी की निशानी है, इसलिए… बहुत सी यादें जुड़ी हैं इस पर्स के साथ.”

अब्दुल ने कहा, “लगता है कोई बहुत खास शख्स है, जिस की यादें इस पर्स से जुड़ी हैं. मिस, क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?”

अचानक अब्दुल को इतना ज्यादा बोलता देख कर हामिद हैरान रह गया कि जो लड़का आज लड़कियों के नाम से घबरा रहा था, वह बेतकल्लुफ हो कर इस लड़की से बात कर रहा था.

“जी हां, बहुत ही खास. वैसे, सब मुझे खुशी कहते हैं,” इतना कह कर वह लड़की चली गई.

अब्दुल उसे जाते हुए देखता रह गया.

“अमा यार अब्दुल, अब चलो भी… क्लास का समय हो गया है,” हामिद ने कहा.

यह क्या… अब्दुल ने क्लास में जा कर देखा तो खुशी वहीं नजर आई.

“हामिद भाई, मुझे कुछ हो गया है, जो हर जगह मुझे खुशी ही नजर आ रही है,” अब्दुल ने कहा.

“यार, यह तेरा वहम नहीं है, सच है. खुशी भी इसी क्लास में पढ़ती है.”

यह सुन कर तो अब्दुल को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. वह खुशी के साथ बैंच पर बैठ गया.

हामिद अब्दुल के बरताव पर हैरान था. वह हर पल खुशी से या खुशी के बारे में ही बात करता था. खुशी भी अब्दुल की बातों से प्रभावित होती थी.

वे दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे. साथ में बैठना, साथ में खाना, बस हर समय मन कहता कि दोनों साथ रहें, अकसर फोन पर भी काफी देर तक बातें करते रहते.

“अब्दुल, क्या हुआ रे तुझे, तू आजकल बाकी सब से कटा सा रहता है, बस खुशी का ही नाम रटता है… लगता है कि तुझे प्यार हो गया है,” हामिद ने कहा.

“अमा हामिद, कैसी बात करते हो… प्यार और मैं… यह प्यार किस परिंदे का नाम है, मुझे तो यह भी नहीं मालूम,” अब्दुल बोलता.

इधर खुशी की सहेलियां उसे छेड़ती कि तुझे अब्दुल से प्यार हो गया है.

“हां शायद, मुझे भी ऐसा ही लगता है. उसे न देखूं तो मुझे चैन नहीं आता है,” खुशी भी बोलती.

फरवरी का महीना था. 2 दिन बाद वैलेंटाइन डे था. खुशी ने सोचा कि शायद अब्दुल उसे अपना वैलेंटाइन बनाएगा, लेकिन जब अब्दुल ने कुछ नहीं कहा, तो खुशी ही उसे लाल गुलाब दे दिया और बोली, “अब्दुल,
आई लव यू.”

“खुशी, मैं भी तुम्हें बहुत ज्यादा मुहब्बत करता हूं, लेकिन अभी मुझे आगे पढ़ना है और अपने अब्बा का सपना पूरा करना है.

“लेकिन क्या तुम्हारे घर वाले इस शादी के लिए मान जाएंगे? और क्या तुम मेरा इंतजार करोगी? वैसे, मैं ने अपने अम्मीअब्बू को सब बता दिया है. उन्हें कोई एतराज नहीं है.”

“मेरे मम्मीपापा भी नए खयालात के हैं, उन्हें इस रिश्ते से कोई एतराज नहीं होगा,” खुशी ने कहा.

उस दिन खुशी और अब्दुल बहुत खुश थे. मनचाही मुराद जो मिल गई थी. घूमतेफिरते शाम ढल गई. अचानक से बहुत जोरों से बारिश होने लगी. कोई बस भी नहीं रुक रही थी.

वे दोनों भीगतेभागते पैदल चलते जा रहे थे कि जहां कोई सवारी मिलेगी तो चढ़ जाएंगे, लेकिन कहीं कुछ नहीं रुक रहा था. वे बुरी तरह से थके हुए थे, उस पर भूख और बारिश से भीगने के चलते उन्हें ठंड महसूस हो रही थी.

रास्ते में एक गैस्ट हाउस नजर आया. वे थोड़ी देर वहीं रुके. कमरे में अकेले, जवानी का जोश, बारिश ने भी आग लगा दी थी, लिहाजा रोक नहीं पाए वे खुद को. एक तूफान आया और बहा दिया सबकुछ, छीन लिया दोनों का कुंआरापन.

खैर, जो होना था हो चुका था. उन दोनों ने अपनेअपने घर में पहले से बताया हुआ था कि वे शादी करना चाहते हैं. दोनों के घर वाले राजी थे.

अचानक कुछ दिनों बाद एक महामारी आई कोरोना, जिस में हिंदूमुसलिम जमात के बीच दंगाफसाद हुआ, एकदूजे पर तलवार, गोली, पत्थर चले.
सब का प्यार नफरत में बदल गया.

अब्दुल चीख रहा था, “अब्बा, उन्हें मत मारिए, वे खुशी के परिवार वाले हैं. खुशी आप की होने वाली बहू है… कुछ तो सोचिए.”

उधर खुशी चिल्ला रही थी, “पापा, अब्दुल मेरा प्यार है. आप उस के परिवार को कैसे मार सकते हैं…”

लेकिन कोई उन दोनों की नहीं सुन रहा था. सब के नए खयालात पीछे छूट गए थे, बस नजर आ रहा था तो केवल हिंदू या मुसलिम.

वे दोनों सब को मना करते हुए, समझातेसमझाते बीच में आ गए और मारे गए. अब दोनों परिवार अपने बच्चों की लाशें देख कर रो रहे थे, अपनेआप को धिक्कार रहे थे कि हिंदूमुसलिम के झगड़े में प्यार के 2 परिंदे उड़ गए, छोड़ गए यह मतलबी दुनिया.

अब वे दोनों आसमान में आजाद परिंदे बन कर अब उड़ेंगे, जहां न कोई हिंदू होगा, न मुसलिम, बस प्यार ही प्यार होगा.

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