ढाबा चलाने के लिए करतार सिंह ने 4 लड़कों का स्टाफ भी रख छोड़ा था, जो ग्राहकों को अच्छी सर्विस देते थे. उन की मजे में जिंदगी कट रही थी.

फौज में सूबेदार करतार सिंह का बड़ा जलवा था. अपनी बहादुरी के लिए मिले बहुत सारे मैडल उस की वरदी की शान बढ़ाया करते थे. बौर्डर से जब भी वह गांव लौटता तो पूरा गांव अपने फौजी भाई से सरहद की कहानी सुनने आ जाता था.

करतार सिंह सरहद की गोलीबारी और दुश्मन फौज की फर्जी मुठभेड़ की कहानी बड़े जोश से सुनाया करता था. अपनी बहादुरी तक पहुंचतेपहुंचते कहानी में जोश कुछ ज्यादा ही हो जाता था. गांव का हर नौजवान बड़ी हसरत से सोचता कि काश, वह भी फौज में होता तो करतार सिंह की तरह वरदी पहन कर गांव आया करता.

गांव के बुजुर्ग तो करतार सिंह पर फख्र किया करते हैं कि उस ने उन के गांव का नाम देशभर में रोशन किया है.

इस बार करतार सिंह जब घर आया तो अपने पैरों के बजाय बैसाखी के सहारे आया. असली मुठभेड़ में उस की एक टांग में गोली लगी थी जिसे काटना पड़ा.

6 महीने सेना के अस्पताल में गुजारने के बाद करतार सिंह को छुट्टी दे दी गई और साथ में जबरदस्ती रिटायरमैंट के कागजात भी भारीभरकम रकम के चैक के साथ थमा कर उसे वापस घर भेज दिया गया.

फौजी की कीमत उसी वक्त तक है, जब तक कि उस के हाथपैर सहीसलामत रहते हैं. जिस तरह टांग के टूटने के बाद घोड़ा रेस में दौड़ने के लायक नहीं रह जाता तो उसे गोली मार दी जाती है, ठीक उसी तरह फौज लाचार हो जाने वाले को रिटायर कर देती है.

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