बेशरम: गिरधारीलाल शर्मा के बेटों के साथ क्या हु्आ?

पारिवारिक विघटन के इस दौर में जब भी किसी पारिवारिक समस्या का निदान करना होता तो लोग गिरधारीलाल को बुला लाते. न जाने वह किस प्रकार समझाते थे कि लोग उन की बात सुन कर भीतर से इतने प्रभावित हो जाते कि बिगड़ती हुई बात बन जाती.

गिरधारीलाल का सदा से यही कहना रहा था कि जोड़ने में वर्षों लगते हैं और तोड़ने में एक क्षण भी नहीं लगता. संबंध बड़े नाजुक होते हैं. यदि एक बार संबंधों की डोर टूट जाए तो उन्हें जोड़ने में गांठ तो पड़ ही जाती है, उम्र भर की गांठ…..

गिरधारीलाल ने सनातनधर्मी परिवार में जन्म लिया था पर जब उन की विदुषी मां  ने पंडितों के ढकोसले देखे, छुआछूत और धर्म के नाम पर बहुओं पर अत्याचार देखा तो न जाने कैसे वह अपनी एक सहेली के साथ आर्यसमाज पहुंच गईं. वहां पर विद्वानों के व्याख्यान से उन के विकसित मस्तिष्क का और भी विकास हुआ. अब उन्हें जातपांत और ढकोसले से ग्लानि सी महसूस होने लगी और उन्होंने अपनी बहुओं को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की कला सिखाई. इसी कारण उन का परिवार एक वैदिक परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था.

आर्ची को अच्छी तरह से याद है कि जब बूआजी को बेटा हुआ था और  उसे ले कर अपने पिता के घर आई थीं तब पता लगातेलगाते हिजड़े भी घर पर आ गए थे. आंगन में आ कर उन्होंने दादाजी के नाम की गुहार लगानी शुरू की और गानेनाचने लगे थे. दादीमां ने उन्हें उन की मांग से भी अधिक दे कर घर से आदर सहित विदा किया था. उन का कहना था कि इन्हें क्यों दुत्कारा जाता है? ये भी तो हाड़मांस के ही बने हुए हैं. इन्हें भी कुदरत ने ही बनाया है, फिर इन का अपमान क्यों?

दादी की यह बात आर्ची के मस्तिष्क में इस प्रकार घर कर गई थी कि जब भी कहीं हिजड़ों को देखती, उस के मन में उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आती. वह कभी उन्हें धिक्कार की दृष्टि से नहीं देख पाई. ससुराल में शुरू में तो उसे कुछेक तीखी नजरों का सामना करना पड़ा पर धीरेधीरे सबकुछ सरल, सहज होता गया.

मेरठ में पल कर बड़ी होने वाली आर्ची मुंबई पहुंच गई थी. एकदम भिन्न, खुला वातावरण, तेज रफ्तार की जिंदगी. शादी हो कर दिल्ली गई तब भी उसे माहौल इतना अलग नहीं लगा था जितना मुंबई आने पर. साल में घर के 2 चक्कर लग जाते थे. विवाह के 5 वर्ष बीत जाने पर भी मायके जाने का नाम सुन कर उस के पंख लग जाते.

बहुत खुश थी आर्ची. फटाफट पैकिंग किए जा रही थी. मायके जाना उस के पैरों में बिजलियां भर देता था. आखिर इतनी दूर जो आ गई थी. अपने शहर में होती थी तो सारे त्योहारों में कैसी चटकमटक करती घूमती रहती थी. दादा कहते, ‘अरी आर्ची, जिस दिन तू इस घर से जाएगी घर सूना हो जाएगा.’ ‘क्यों, मैं कहां और क्यों जाऊंगी, दादू? मैं तो यहीं रहूंगी, अपने घर में, आप के पास.’

दादी लाड़ से उसे अपने अंक में भर लेतीं, ‘अरी बिटिया, लड़की का

तो जन्म ही होता है पराए घर जाने के लिए. देख, मैं भी अपने घर से आई हूं, तेरी मम्मी भी अपने घर से आई हैं, तेरी बूआ यहां से गई हैं, अब तेरी बारी आएगी.’

13 वर्षीय आर्ची की समझ में

यह नहीं आ पाता कि जब दादी और मां अपने घर से आई हैं तब यह उन का घर कैसे हो गया. और बूआ अपने घर से गई हैं तो उन का वह घर कैसे हो गया. और अब वह अपने घर से जाएगी…

क्या उधेड़बुन है… आर्ची अपना घर, उन का घर सोचतीसोचती फिर से रस्सी कूदने लगती या फिर किसी सहेली की आवाज से बाहर भाग जाती या कोई भाई आवाज लगा देता, ‘आर्ची, देख तो तेरे लिए क्या लाया हूं.’

इस तरह आर्ची फिर व्यस्त हो जाती. एक भरेपूरे परिवार में रहते हुए आर्ची को कितना लाड़प्यार मिला था वह कभी उसे तोल ही नहीं सकती. उस का मन उस प्यार से भीतर तक भीगा हुआ था. वैसे भी प्यार कहीं तोला जा सकता है क्या? अपने 3 सगे भाई, चाचा के 4 बेटे और सब से छोटी आर्ची.

‘‘क्या बात है भई, बड़ी फास्ट पैकिंग हो रही है,’’ किशोर ने कहा.

‘‘कितना काम पड़ा है. आप भी तो जरा हाथ लगाइए,’’ आर्ची ने पति से कहा.

‘‘भई, मायके आप जा रही हैं और मेहनत हम से करवाएंगी,’’ किशोर आर्ची की खिंचाई करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे.

‘‘हद करते हैं आप भी. आप भी तो जा रहे हैं अपने मायके…’’

‘‘भई, हम तो काम से जा रहे हैं, फिर 2 दिन में लौट भी आएंगे. लंबी छुट्टियां तो आप को मिलती हैं, हमें कहां?’’

किशोर को कंपनी की किसी मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना था सो तय कर लिया गया था कि दिल्ली तक आर्ची भी फ्लाइट से चली जाएगी. दिल्ली में किशोर उसे और बच्चों को टे्रन में बैठा देंगे. मेरठ में कोईर् आ कर उसे उतार लेगा. एक सप्ताह अपने मायके मेरठ रह कर आर्ची 2-3 दिन के लिए ससुराल में दिल्ली आ जाएगी जबकि किशोर को 2 दिन बाद ही वापस आना था. बच्चे छोटे थे अत: इतनी लंबी यात्रा बच्चों के साथ अकेले करना जरा कठिन ही था.

किशोर को दिल्ली एअरपोर्ट पर कंपनी की गाड़ी लेने के लिए आ गई, सो उस ने आर्ची और बच्चों को स्टेशन ले जा कर मेरठ जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया और फोन कर दिया कि आर्ची इतने बजे मेरठ पहुंचेगी. फोन पर डांट भी खानी पड़ी उसे. अरे, भाई, पहले से फोन कर देते तो दिल्ली ही न आ जाता कोई लेने. आजकल के बच्चे भी…दामाद को इस से अधिक कहा भी क्या जा सकताथा.

किशोर ने आर्ची को प्रथम दरजे में बैठाया था और इस बात से संतुष्ट हो गए थे कि उस डब्बे में एक संभ्रांत वृद्धा भी बैठी थी. आर्ची को कुछ हिदायतें दे कर किशोर गाड़ी छूटने पर अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

अब आर्ची की अपनी यात्रा प्रारंभहुई थी, जुगनू 2 वर्ष के करीब था और बिटिया एनी अभी केवल 7 माह की थी. डब्बे में बैठी संभ्रांत महिला उसे घूरे जा रही थी.

‘‘कहां जा रही हो बिटिया?’’ वृद्धा ने पूछा.

‘‘जी, मेरठ?’’

‘‘ये तुम्हारे बच्चे हैं?’’

‘‘जी हां,’’ आर्ची को कुछ अजीब सा लगा.

‘‘आप कहां जा रही हैं?’’ उस ने माला फेरती उस महिला से पूछा.

‘‘मेरठ,’’ उस ने छोटा सा उत्तर दिया फिर उसे मानो बेचैनी सी हुई. बोली, ‘‘वे तुम्हारे घर वाले थे?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘रहती कहां हो…मेरठ?’’

‘‘जी नहीं, मुंबई…’’

‘‘तो मेरठ?’’

‘‘मायका है मेरा.’’

‘‘किस जगह?’’

‘‘नंदन में…’’ नंदन मेरठ की एक पौश व बड़ी कालोनी है.

‘‘अरे, वहीं तो हम भी रहते हैं. हम गोल मार्किट के पास रहते हैं, और तुम?’’

‘‘जी, गोल मार्किट से थोड़ा आगे चल कर दाहिनी ओर ‘साकेत’ बंगला है, वहीं.’’

‘‘वह तो गिरधारीलालजी का है,’’ फिर कुछ रुक कर वह वृद्धा बोली, ‘‘तुम उन की पोती तो नहीं हो?’’

‘‘जी हां, मैं उन की पोती ही हूं.’’

‘‘बेटी, तुम तो घर की निकलीं, अरे, मेरे तो उस परिवार से बड़े अच्छे संबंध हैं. कोई लेने आएगा?’’

‘‘जी हां, घर से कोई भी आ जाएगा, भैया, कोई से भी.’’

वृद्धा निश्ंिचत हो माला फेरने लगीं.

‘‘तुम्हारी दादी ने मुझे आर्यसमाज का सदस्य बनवा दिया था. पहले ‘हरे राम’ कहती थी अब ‘हरिओम’ कहने लगी हूं,’’ वह हंसी.

आर्ची मुसकरा कर चुप हो गई.

वृद्धा माला फेरती रही.

गाड़ी की रफ्तार कुछ कम हुई. मुरादनगर आया था. गाड़ी ने पटरी बदली. खटरपटर की आवाज में आर्ची को किसी के दरवाजा पीटने की आवाज आई. उस ने एनी को देखा वह गहरी नींद में सो रही थी. जुगनू भी हाथ में खिलौना लिए नींद के झटके खा रहा था. आर्ची ने उसे भी बर्थ पर लिटा दिया और अपने कूपे से गलियारे में पहुंच कर मुख्यद्वार पर पहुंच गई.

कोई बाहर लटका हुआ था. अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण वह दस्तक दे रहा था. आर्ची ने इधरउधर देखा, उसे कोई दिखाई नहीं दिया. सब अपनेअपने कूपों में बंद थे. आर्ची ने आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया और वह मनुष्य बदहवास सा अंदर आ गया. वृद्धा वहीं से चिल्लाई, ‘‘अरे, क्या कर रही हो? क्यों घुसाए ले रही हो इस मरे बेशरम को, हिजड़ा है.’’

‘‘मांजी, मुझे दूसरे स्टेशन तक ही जाना है, मैं तो गाड़ी धीमी होते ही उतर जाऊंगा, देखो, यहीं दरवाजे के पास बैठ रहा हूं…’’ और वह भीतर से दरवाजा बंद कर वहीं गैलरी में उकड़ूूं बैठ गया.

आर्ची अपने कूपे में आ गई. वृद्धा का मुंह फूल गया था. उस ने आर्ची की ओर से मुंह घुमा कर दूसरी ओर कर लिया और जोरजोर से अपने हाथ की माला घुमाने लगी.

आर्ची को बहुत दुख हुआ. बेचारा गाड़ी से लटक कर गिर जाता तो? कुछ पल बाद ही आर्ची को बाथरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. दोनों बच्चे खूब गहरी नींद सो रहे थे.

‘‘मांजी, प्लीज, जरा इन्हें देखेंगी. मैं अभी 2 मिनट में आई,’’ कह कर आर्ची  बाथरूम की ओर गई. उस का कूपा दरवाजे के पास था, अत: गैलरी से निकलते ही थोड़ा मुड़ कर बाथरूम था. जैसे ही आर्ची ने बाथरूम में प्रवेश किया गाड़ी फिर से खटरपटर कर पटरियां बदलने लगी. उसे लगा बच्चे कहीं गिर न पड़ें. जब तक बाथरूम से वह बाहर भागी तब तक गाड़ी स्थिर हो चुकी थी. सीट पर से गिरती हुई एनी को उस ‘बेशरम’ व्यक्ति ने संभाल लिया था.

वृद्धा क्रोधपूर्ण मुद्रा में खूब तेज रफ्तार से माला पर उंगलियां फेर रही थी. जुगनू बेखबर सो रहा था. उस बेशरम व्यक्ति का झुका हुआ एक हाथ जुगनू को संभालने की मुद्रा में उस के पेट पर रखा हुआ था. यह देख कर आर्ची भीतर से भीग उठी. यदि उस ने बच्चे संभाले न होते तो उन्हें गहरी चोट लग सकती थी.

‘‘थैंक्यू…’’ आर्ची ने कहा और एनी को अपनी गोद में ले लिया.

उस बेशरम की आंखों से चमक जैसे अचानक कहीं खो गई. हिचकिचाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा स्टेशन आ रहा है. बस, 2 मिनट आप की बेटी को गोद में ले लूं?’’

आर्ची ने बिना कुछ कहे एनी को उस की गोद में थमा दिया. वृद्धा के मुंह से ‘हरिओम’ शब्द जोरजोर से बाहर निकलने लगा.

बारबार गोद बदले जाने के कारण एनी कुनमुन करने लगी थी. उस हिजड़े ने एनी को अपने सीने से लगा कर आंखें मूंद लीं तो 2 बूंद आंसू उस की आंखों की कोरों पर चिपक गए. आर्ची ने देखा कैसी तृप्ति फैल गई थी उस के चेहरे पर. एनी को उस की गोदी में देते हुए उस ने कहा, ‘‘यहां गाड़ी धीमी होगी, बस, आप जरा एक मिनट दरवाजा बंद मत करना…’’ और धीमी होती हुईर् गाड़ी से वह नीचे कूद गया. आर्ची ने खुले हुए दरवाजे से देखा, वह भाग कर सामने के टी स्टाल पर गया. वहां से बिस्कुट का एक पैकेट उठाया, भागतेभागते बोला, ‘‘पैसा देता हूं अभी…’’ और पैकेट दरवाजे के पास हाथ लंबा कर आर्ची की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘बहन, इसे अपने बच्चों को जरूर खिलाना.’’

गाड़ी रफ्तार पकड़ रही थी. आर्ची कुछ आगे बढ़ी, उस ने पैकेट पकड़ना चाहा पर गोद में एनी के होने के कारण वह और आगे बढ़ने में झिझक गई और पैकेट हाथ में आतेआते गाड़ी के नीचे जा गिरा. आर्ची का मन धक्क से हो गया. बेबसी से उस ने नजर उठा कर देखा वह ‘बेशरम’ व्यक्ति हाथ हिलाता हुआ अपनी आंखों के आंसू पोंछ रहा था.

खुली हवा: मां के लिए प्रेम का प्यार

‘आंखें बंद करो न मां…’’ इतना कह कर प्रेम ने अपने हाथों से अपनी मां की आंखों को ढक लिया.‘‘अरे, क्या कर रहा है? इस उम्र में भी शरारतें सूझती रहती हैं तुझे मेरे साथ,’’ मां ने नाटकीय गुस्से में उसे फटकारा.‘‘कुछ नहीं कर रहा. बस, गेट तक चलो,’’ प्रेम ने कहा.वे दोनों दरवाजे तक पहुंचे, तो प्रेम ने हलके से मां की आंखों को अपने हाथों के ढक्कन से आजाद कर दिया.

मां ने आंखें खोलीं, तो सामने स्कूटी खड़ी थी, एकदम नई और चमचमाती.‘‘अच्छा, तो यह तमाशा था… कब लाया? बताया भी नहीं? वैसे, इस की जरूरत क्या थी? घर में 2 बाइक हैं तो सही. नौकरी क्या मिली, हो गई जनाब की फुजूलखर्ची शुरू,’’ मां हमेशा की तरह सब एक सांस में बोल गईं.‘

‘अरे, ठहरो मेरी डियर ऐक्सप्रैस. यह मैं अपने लिए नहीं लाया,’’ प्रेम बोला.‘‘तो किस के लिए लाया है?’’ मां ने गहरी भेदी नजर से सवाल किया.‘‘आप के लिए…’’ बोलते हुए प्रेम ने मां का चेहरा अपने हाथों में थाम लिया.‘‘मेरे लिए…? मुझे क्या जरूरत थी?’’ मां ने हैरान हो कर पूछा.‘‘जरूरत क्यों नहीं… पापा काम में बिजी रहते हैं और अब मुझे भी नौकरी मिल गई है. घर में ऐसे कितने काम होते हैं, जिन्हें पूरा होने के लिए तुम्हें हमारा रविवार तक इंतजार करना पड़ता है.

अब तुम हम पर डिपैंड नहीं रहोगी,’’ प्रेम ने कहा.‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या प्रेम? यह शहर नहीं, बल्कि गांव है बेटा. लोग हंसेंगे मुझ पर. कहेंगे बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम… ‘‘और फिर मैं कौन सा नौकरी करती हूं, जो यह स्कूटी लिए घूमूं,’’ मां ने अपनी चिंता जाहिर की.‘‘मां, आप को लोगों से क्या लेनादेना. भागदौड़ कर के जो आप इतना थक जाती हो, लोग आते हैं क्या देखभाल करने? ‘‘मेरी प्यारी मां, यही तो उम्र है इन सुविधाओं का हाथ पकड़ने की. जवानी में तो इनसान दौड़दौड़ कर भी काम कर लेता है, लेकिन अब कर सकती हो क्या?’’‘‘लेकिन बेटा, इस उम्र में…’’ मां ने चिंता जाहिर की.मां की बात पूरी होने से पहले ही प्रेम ने अपनी उंगली मां के होंठों पर रख दी और कहा, ‘‘चुप. कोई उम्रवुम्र नहीं. 50 की ही तो हो और बोल ऐसे रही हो जैसे 100 साल की हो,’’ कह कर प्रेम हंस दिया.‘‘तू समझ नहीं रहा.

गांव में लोग हंसेंगे कि इसे इस उम्र में क्या सूझी.’’‘‘कोई कुछ भी समझे, तुम बस वह समझो जो मैं कह रहा हूं,’’ कह कर प्रेम अपनी मां का हाथ पकड़ कर स्कूटी तक ले गया और बोला, ‘‘बैठो…’’मां हिचकिचाईं, तो प्रेम ने प्यार से उन्हें स्कूटी पर जबरदस्ती बैठा दिया और खुद पीछे बैठ गया.‘‘देखो, ऐसे करते हैं स्टार्ट… ध्यान से सीखना,’’ प्रेम बोला.मां भीतर से खुश भी थीं और बेचैन भी.

बेचैनी समाज की बनी रूढि़यों से थी और खुशी जिस बेटे को जन्म से ले कर आज तक सिखाया, वह आज उस का शिक्षक था.स्कूटी स्टार्ट कर के प्रेम अपनी मां को समझाता जा रहा था और मां बड़े ध्यान से सब समझ रही थीं. लोगों की नजरें खुद पर पड़ती देख कर वे हिचकिचा जातीं, लेकिन बेटे का जोश उन्हें और उमंग से भर देता.उल्लास की लहर पर सवार मां खुद को खुली हवा में आजाद महसूस कर रही थीं.

उन्हें याद आया कि बचपन में वे चिडि़या बन कर उड़ जाना चाहती थीं. आज लगा जैसे वह ख्वाब पूरा हो गया है. वे उड़ ही तो रही थीं एक ताजा हवा में चिडि़या की तरह चहकते हुए.

किस्मत ने बनाया कामवाली और मेहनत ने भारत की पहली महिला कौमेडियन

कौमेडियन घरघर में मशहूर है. कहते है हंसने से ‘हैल्थ ठीक रहती है और खून बढ़ता है’ और ये काम भारत के कौमेडियन्स बखूबी करते हैं. इनमें औरतें भी है. इसमें पहला नाम भारती सिंह का आता है जो नेशनल टीवी पर पौपुलर कौमेडियन है लेकिन क्या आप जानते है भारत की पहली लाफ्टर क्वीन कौन थी.
जिनकी हरकतों से लोगों को हंसी छूट जाती थी लेकिन असल जिंदगी में उन्होंने खूब आंसू बहाए.
आज भारत की पहली महिला कौमेडियन के बारे में बताएंगे. जो केवल कौमेडियन ही नहीं, एक्टर और सिंगर भी रही थी. आज उनकी 101वीं जयंती है. नाम है उमा देवी खत्री.

 

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उमा देवी खत्री को टुनटुन के नाम से भी बुलाया जाता था. इनकी लाइफ एक इमोशनल फिल्म से कम नहीं थी. ये ज्यादा बड़े और अमीर परिवार से भी नहीं थी. टुनटुन यूपी के अमरोहा के पास के गांव की थी. भूमि विवाद में उनके परिवार की हत्या कर दी गई. वे छोटी उम्र में ही अनाथ हो गई और उन्हें ऐसे रिश्तेदारों ने पाला जो उन्हें घर परिवार के सदस्य से ज्यादा एक कामवाली समझते थे.

अफसाना लिख रही हूं…से हो गई अमर

23 साल की उम्र में अपने सपनों को पूरा करने के लिए उमा देवी भागकर मुंबई चली आई. उनका नेचर ही हंसने हसाने वाला हुआ करता था, जिस वजह से वे अपने करियर को एक नई पहचान दे पाई. उन्होंने साल 1945 में अपने गाना गाने के जुनून को एक नई उड़ान दी. उमा ने अपना टैलेंट नौशाद अली तक पहुंचाया और उन्होंने औडिशन देने की अनुमति दे दी. जिसके बाद उनका जीवन ही बदल गया और उनकी अवाज को सबने पहचान दी. Lifestyle

दिलीप कुमार के साथ स्क्रीन शेयर करने की पकड़ी जिद्द

इसके बाद उमा ने नौशाद के साथ एक नया काम करने का जुनून दिखाया कि वे अब फिल्म में काम करेंगी, लेकिन तभी जब वे दिलीप कुमार उनके साथ स्क्रीन शेयर करेंगे. दोनों की फिल्म बनीं भी और साल 1950 में बाबुल पर उन्होंने साथ काम किया.

उमा देवी से बनीं टुनटुन

फिल्मों में काम करने के बाद दिलीप कुमार ने उमा को एक नई पहचान दी. उन्होंने उनका नाम टुनटुन रख दिया. क्योंकि उनका नेचर ही मजाकिया था, इसी नाम के साथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को पहली हास्य नायिका मिली. टुनटुन ने 200 से ज्यादा फिल्मों में हास्य भूमिकाएं निभाईं.

बुढापा में नहीं उठा पाई डौक्टरी खर्च

शशि रंजन के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने दुख जताया और बताया कि उन्होंने अपना पूरी लाइफ उद्योग को दी, लेकिन अंत तक आते आते उद्योग ने उन्हें त्याग दिया. अपने लाइफ के अंत तक वह एक साधारण घर में रहती थीं, खराब रहने की स्थिति और बीमारी से जूझती रहीं, न तो अपना गुजारा कर पाती थीं और न ही सही से डौक्टरी का खर्च उठा पाती थीं.

iphone पर बने गानें क्यों काट रहे हैं बवाल, गानों का अंदाज है मजाकिया

सभी गानों को शौक रखते है गानें लोगों को स्ट्रेस से दूर रखते है. इसलिए लोग गानें सुनना पसंद करते है फिर किसी भी पार्टी में या शादियों में गानें जरुर बजाएं जाते है, इसमें फैमिली गानें ज्यादा बजाएं जाते है और मजाक मस्ती से जुड़े गानें. वही, आईफोन को लेकर काफी सौन्ग ट्रेंड कर रहे है. जिसमें जीजा साली के मजाक से जुड़ा गाना इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी शेयर किया जा रहा है. इस गाने में आईफोन के लिए साली अपने जीजा से कहती हुई नजर आ रही है.

 

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फोन दिला दो जीजा जी दीदी जैसा

ये गाना इन दिनों इंस्टा खोलते ही नजर आ रहा है. इस गानें पर ढेरों वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. ये गाना हरियाणवी गाना है. जिसे अनू दूबे और अमृत दूबे ने गाया है. ये गाना 2024 को काफी ट्रेंडी गाना बन चुका है. क्योंकि इस गाने में साली अपने जीजा से आईफोन मांगती नजर आ रही है और बोल रही है कि दीदी जैसा दिला दो. इस तरह से ये हरियाणा में काफी पौपुलर सौन्ग बन चुका है. अब तक इस गानें में 1 मिलियन व्यूज आ चुके है. Film

इसके अलावा भोजपुरी का ‘लेके एप्पल का फोन’ गाना भी आईफोन को लेकर काफी ट्रेंडी गाना है.

आईफोन आज सबकी पसंद बन चुका है इसलिए इस पर गानें भी खूब बनाएं गए है. भोजपुरी में भी ऐसे गानें है जो आईफोन से जुड़े हुए है. यूट्यूब पर भोजपुरी का गाना है ‘लेके एप्पल का फोन’ ट्रेंडी है. इस गानें को गोलू गोल्ड और पुनाता प्रिया ने गाया है. इस गानें के लिरिक्स रजनीश चौबे ने दिए है. इस गानें पर लाखों व्यूज आ चुके है.

लड़कों के लिए मौनसून में बेस्ट है ये Boots, औनलाइन मिलना है आसान

मौनसून का मौसम है. सबको काम पर तो जाना ही है. लड़के काम पर जाने के लिए तो तैयार है लेकिन ऐसे में मौसम में वे कैसे बूट्स और शूज कैरी करें. जो उन्हे बारिश के पानी से बचा सकें. तो ऐसे ही मार्केट में कई तरह के बूट्स है जिन्हे आप कैरी कर सकते है.

 

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 1. Rain Boots – रेन बूटबारिश के मौसम ज़रूरी जूते हैं.इन्हे वे किसी भी मौसम में बाहर पहनकर जा सकते है. बिना अपने पैरों को ठंडा और गीला किए. रेन बूट्स आपको औनलाइन भी मिल सकते है.

2. Wellington Boots – वेलिंगटन के नए बूट, जिसका नाम ड्यूक औफ वेलिंगटन के नाम पर रखा गया था, ब्रिटिश लोगों के बीच काफी मशहूर हुआ करते थे, लेकिन आज सभी जगह मौजूद है, इन्हे रबर बूट्स के नाम से भी जाना जाता है.lifestyle

3. PVC Boots – पीवीसी विनाइल से बना एक टिकाऊ तरह का प्लास्टिक है. यह रबर की तुलना में हल्का और अधिक किफायती भी है. यह रबर की तुलना में अधिक कठोर और कम टिकाऊ है, लेकिन फिर भी यह एक बेहतरीन रेन बूट है.

4. Waterproof Boots – वाटरप्रूफ बूट एक बेहतर बूट है, जो लंबे समय तक आपको पानी से सेफ्टी देता है. वे आपके पैरों को भारी बारिश, खड़े पानी और नम वातावरण में गर्म, सूखा और आरामदायक रखने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं.

मुझे अपने बीवी बच्चों की हमेशा टेंशन रहती है, क्या करूं?

सवाल

लाइफ बहुत अच्छी चल रही थी. अच्छी नौकरी है, बीवीबच्चे हैं. अचानक कोविड-19 के कारण जिंदगी में कई परिवर्तन आ गए. बहुतकुछ बदल गया है. वर्क फ्रौम होम शुरू हो गया. सारा दिन घर में बैठ कर औफिस का काम.

पहले सुबह औफिस निकल जाना, शाम को घर वापस आना. सारा दिन घर के क्या कामकाज हो रहे हैं, पता ही नहीं चलता था. शाम को वाइफ सजीधजी मिलती थी. लेकिन अब देख रहा हूं कि वह भी अपने ऊपर खास ध्यान नहीं देती है.

बच्चे औनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं. सो, वाइफ उन्हीं में बिजी रहती है अब. ऐक्टिव लाइफ न रहने से मुझे डर लगने लगा है कि कहीं मैं बीमार पड़ गया, मुझे कुछ हो गया तो मेरे बाद मेरे बीवीबच्चों का क्या होगा? तनावग्रस्त रहने लगा हूं. क्या करूं?

जवाब

लाइफ है और लाइफ में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता. लेकिन फिर भी हम भविष्य की चिंता करते हैं और इस में कुछ गलत भी नहीं.

जिंदगी में हर चीज की प्लानिंग जरूरी है क्योंकि जैसा कि हम कह रहे हैं कि जिंदगी में कभी भी कुछ हो सकता है, इसलिए हालत के लिए खुद को तैयार रखना आवश्यक है.

जहां तक आप का तनावग्रस्त रहना है कि यदि आप को कुछ हो गया तो बीवीबच्चों का क्या होगा तो हैरानी होती है कि आप इतना नैगेटिव सोच रहे हैं.

जिस तरह से कोरोना का संक्रमण आया है और दुनिया में सब हताहत हो रहे हैं. कुछ भी निश्चित नहीं है लेकिन इतना तो तय है कि अच्छी लाइफस्टाइल की प्रैक्टिस से आप अपने को लगने वाली बीमारियों को आगे टाल सकते हैं.

अच्छी लाइफस्टाइल आप की सेहत तंदुरुस्त रख सकती है. अच्छा और संतुलित खानपान, ऐक्सरसाइज, अच्छी नींद, ऐक्टिव लाइफ और तनाव व चिंता को दूर रख कर अपनी बीमारियों को अपने से दूर रख सकते हैं या खत्म कर सकते हैं.

आप खुद स्वस्थ रहेंगे. पौजिटिव सोच रखें तो खुद भी खुश रहेंगे और दूसरों को भी खुश रखेंगे. घर का माहौल अच्छा बनेगा. पत्नी को खुश रखेंगे तो वह भी आप को खुश रखेगी. हमें सिर्फ दूसरों से ही उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. कभीकभी खुद भी प्रयास करना पड़ता है. पतिपत्नी के रिश्ते में ऐसा ही होता है. आप लाइफ को ले कर उदासीन हो रहे हैं जो कि बिलकुल गलत है.

स्थितियां बदल रही हैं और अच्छी बात है कि आप के पास अभी सबकुछ है. जिंदगी ने जो भी दिया है, उसे संभालें. खुश रहें. घर का माहौल खुशनुमा बनाएं और लाइफ एंजौय कीजिए.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
सब्जेक्ट में लिखे…  सरस सलिल- व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

सिर्फ खुद से नहीं लाइफ पार्टनर से भी करें प्यार

‘योर बैस्ट ईयर एट’ की लेखिका जिन्नी डिटजलर कहती हैं कि अगर आप चाहते हैं कि आप का प्रत्येक वर्ष विशेष व अच्छा हो, तो अपने आप से प्रेम करने एवं आनंद प्राप्ति हेतु सब से पहले अपने प्रति दयावान बनो. जब तक आप चिंतामुक्त रहने का तरीका नहीं सीखोगे तब तक अपने आप को खुश नहीं रख सकते और दूसरों के साथ उदार व्यवहार नहीं कर सकते. इसलिए स्वयं से प्रेम करो और स्वयं को असंतोष और पछतावे से मुक्त रखो.

अपने आप को स्वीकार करो

जब आप स्वयं से बिना शर्त प्रेम करते हो, तो यह गुण आप की औरों से प्रेम करने की योग्यता में वृद्धि करता है. योग गुरु गुरमुख और खालसा कहती हैं कि स्वयं से प्रेम करना सांस लेने की भांति है. जबकि आमतौर पर होता यह है कि हम स्वयं से और अपने सपनों से अलग हो जाते हैं, इसलिए दुखी रहते हैं.

जिन्नी कुछ व्यावहारिक तरीके स्वयं से जुड़ने के लिए बताती हैं, जो हैं अच्छा खाना, ध्यान, नए चलन के कपड़े पहनना, दान देने की कला और जीवन के उद्देश्य प्राप्त करना इत्यादि.

100 दिन के नियम

मोनिका जांडस, जिन्होंने ‘स्वयं से प्रेम करें’ नाम से प्रचार अभियान चलाया है, कहती हैं कि स्वयं को प्रेम भरा आलिंगन दो. स्वयं से प्रेम करोगे तो आजीवन प्रेम मिलेगा. जब मैं ने प्रचार शुरू किया तो मैं लोगों से चाहती थी कि वे स्वयं को 100 दिन 100 तरीकों से प्रेम करें. मैं चाहती थी लोग स्वयं की देखभाल करें. जीवन के प्रति लगाव रखें और अपनी भावनाओं को व्यक्त करें. आप विभिन्न चीजों को विभिन्न तरीकों से प्रतिदिन व्यवहार में लाने से स्वयं से प्रेम करना शुरू कर सकते हो. साथ ही अपना जीवन उद्देश्य तय कर के अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकते हो.

पूर्वाग्रह को न कहो

पूर्वाग्रह का कभी पुलिंदा न बांधो. जहां भी संभव हो क्षमादाता बनो. माइकल डिओली, जो ‘आप के लिए उत्तम संभावनाएं’ के लेखक भी हैं, कहते हैं कि जीवन में सुगम यात्रा के लिए व्यक्ति को पूर्वाग्रहों के अतिरिक्त भार से समयानुसार मुक्त हो जाना चाहिए. केवल जरूरत पड़ने पर ही व्यक्ति को एक स्थान पर रुकना चाहिए. आप का द्वेष, आप का नकारात्मक आचरण, आप की सनक, द्वंद्व, क्रोध और आप की उदारता की कमी, आप को अच्छे संबंध बनाने से रोकती है.

अनीता मोरजानी, जो नैतिक उत्थान परामर्शदाता एवं लेखिका भी हैं, कहती हैं कि वास्तव में स्वयं के शत्रु हम स्वयं हैं और स्वयं के कठोर आलोचक भी. यदि औरों के प्रति भी हम इसी तरह का रवैया रखते हैं, तो हम हर व्यक्ति का आकलन एक ही दृष्टिकोण से करते हैं. हमें अपने जीवन के प्रत्येक पहलू को स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह अच्छा हो या बुरा.

दूसरों के अधीन न बनो

सामान्य जीवन जीते हुए भी अगर मौका मिले तो पूर्ण आनंद लेने से खुद को मत रोको. मनोवैज्ञानिक रोहित जुनेजा, जो ‘दिल से जियो’ के लेखक भी हैं, कहते हैं कि हम स्वयं के सुख और विवाद के मुख्य स्रोत हैं. हम सभी मानव हैं और गलती करना मानवीय प्रवत्ति है. श्रेष्ठता के लिए दूसरों के अधीन न बनो और स्वयं के बारे में गलत राय भी न बनाओ. जरूरतमंद व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं होता. जीवन के उतारचढ़ाव के कारण स्वयं को जीवन के आनंदमयी क्षणों का आनंद लेने से वंचित न रखो.

स्वयं से प्रेम कैसे मुमकिन

स्वयं से प्रेम करने के लिए दिन में कम से कम 5 मिनट ध्यान करो जो रक्तचाप को कम कर जठराग्नि प्रणाली मजबूत करता है और साथ ही जीवन को प्रभावशाली तरीके से जीने योग्य बनाता है. ध्यान आप की स्मरण शक्ति में भी वृद्धि करता है, दुखों से लड़ना सिखाता है और आप के आवेश को रोकता है. तब आप स्वयं को प्रेम करने लगते हैं क्योंकि ध्यान आप की मानसिकता और स्वास्थ्य में वृद्धि करता है. यह खुशी प्रदान करने वाले हारमोंस का भी संचार करता है.

पारिवारिक समस्याएं

आप के निरंतर याद दिलाने और टोकने पर भी अगर आप का जीवनसाथी, घर के बिल, चाबी और घर के अन्य जरूरी सामान सही जगह पर नहीं रखता है, तो समस्या है कि खत्म ही नहीं होती और आप की परेशानी का कारण भी बन जाती है.

ऐसा कछ होने पर परेशानी में उलझे रहने के बजाय यह सोचो कि आप ने जिस व्यक्ति से विवाह अपना सुखदुख साझा करनेके लिए किया है, उस के साथ आप को असमानता का साझा भी करना है. आप अपनी चिंता को सहज रूप से जीवनसाथी के समक्ष रखो और घर की व्यवस्था एवं निजी जरूरतों के बारे में भी बात करो.

इसी प्रकार कई बार थकावट के कारण कुछ पुरुष संभोग के इच्छुक नहीं होते, जिस के कारण संबंध बनाते समय उन में गर्मजोशी की कमी रहती है. ऐसे में उन की इच्छा के विरुद्ध अगर उन की जीवनसंगिनी उन से यौन संबंध बनाती है तो वे असहज महसूस करते हैं. जिस से जीवनसंगिनी असंतुष्ट रह जाती है.

इस संबंध में यौन विशेषज्ञों का कहना है कि हर 3 में से 1 युगल तब यौन संतुष्टि न होने की समस्या का सामना करता है जब एक साथी इच्छुक होता है और दूसरा इच्छुक नहीं होता. कई बार ऐसी दुशवारियों के कारण आप के दांपत्य जीवन की डोर टूटने की कगार पर आ जाती है. संभोग आप के लिए मात्र औपचारिकता नहीं है, बल्कि एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है. यदि आप का साथी संभोग हेतु इच्छुक नहीं है तो यौन इच्छा जाग्रत करने के कई कई उपाय हैं. आप उसे गुदगुदाएं तथा प्रेम भरी व कामुक वार्त्ता करें. इस से आप के साथी की यौन इच्छा जाग्रत होगी और वह यौन क्रिया हेतु तत्पर हो कर आप से सहयोग करने लगेगा. इस से आप दोनों ही यौन संतुष्टि पा सकोगे.

कामकाजी समस्याएं

औफिस से घर लौटने पर आजकल कई पुरुष लैपटौप या डिनर टेबल पर काम से संबंधित फोनकाल में व्यस्त रहते हैं, जो उन की जीवनसंगिनी की नाराजगी का कारण बनता है क्योंकि पूरे दिन के बाद यह समय आपसी बातचीत का होता है.

जब आप का जीवनसाथी लैपटौप या फोनकाल में व्यस्त हो, तो उसी समय समस्या पर तर्कवितर्क करने के बजाय मुद्दे को सही समय पर उठाएं और उसे प्रेमपूर्वक बताएं कि हम दोनों को साथ समय बिताने की सख्त आवश्यकता है. इस में किसी भी प्रकार का व्यवधान नहीं होना चाहिए. यदि आप को रोज समय नहीं मिलता तो हफ्ते का एक दिन भी सिर्फ मेरे लिए रखो.

जीवन को रसीला बनाए रखने हेतु चुंबन की सार्थकता से इनकार नहीं किया जा सकता. इस संबंध में किए गए सर्वे का निष्कर्ष यह है कि नौकरी, बच्चे, आदत और पारिवारिक उत्तरदायित्व के कारण विवाहित युगल दिन में केवल 4 मिनट साथ होते हैं. वह वक्त वे चुंबन या प्रेमवार्त्ता को देते हैं तो दांपत्य जीवन में खुशहाली बनी रहती है.

एक आम युगल साल में 58 बार संभोग करता है यानी औसतन सप्ताह में एक बार. इसलिए सिर्फ सैक्स नहीं मित्रता, हासपरिहास, उदारता, क्षमापूर्ण स्वभाव व संभोग से बढ़ कर दंपती के बीच आपसी विश्वास सुखद  वैवाहिक जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है. इस के साथ ही जो व्यक्ति अपनी जीवनसंगिनी का सुबह के समय चुंबन लेते हैं, वे चुंबन न लेने वालों की तुलना में 5 वर्ष दीर्घ आयु वाले होते हैं. इसलिए चुंबन व प्रेमवार्त्ता हेतु समय अवश्य निकालें.

कलियुगी मां: जब प्रेमी संग भागी 2 बच्चों की मां

शहनवाज जैसे ही हैडक्वार्टर से घर पहुंचा, तभी उस के मोबाइल फोन की घंटी बज उठी. उस ने मोबाइल फोन उठा कर देखा कि कोतवाली से इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला का फोन था. उस ने काल रिसीव कर लिया, ‘‘हैलो…’’‘शहनवाज, आप अभी कोतवाली आ जाइए. आप ने जिस औरत की अपने प्रेमी के साथ घर से भागने की अर्जी दिलाई थी, वह अपने प्रेमी के साथ कोतवाली पहुंच गई है.

आप भी शिकायत करने वाले को ले कर कोतवाली पहुंचे जाइए,’ उधर से इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला बोले और फोन कट गया.यह सुन कर शहनवाज का मूड औफ हो गया. सुबह से तो वह दौड़ ही रहा था. आज डीएम साहब ने मीटिंग की थी, इसलिए सभी पत्रकारों को हैडक्वार्टर बुलाया गया था और वहां से आ कर उस ने दो घूंट पानी तक नहीं पीया था कि उसे अब फिर कोतवाली जाना था.कुछ सोचते हुए शहनवाज ने मोबाइल फोन से काल कर यासीन को कोतवाली पहुंचने के लिए कहा और दोबारा बाइक निकाली, फिर कोतवाली की ओर चल दिया.शहनवाज 29 साल का नौजवान था.

दिखने में वह भले ही साधारण कदकाठी का था, पर उस की लेखनी और बोल में काफी दम था. उसे पत्रकारिता की गहरी समझ थी और अपने काम के प्रति वह बहुत जागरूक था.जब शहनवाज कोतवाली पहुंचा, तो उस ने देखा कि महिला सिपाही कोमल के साथ एक औरत खड़ी थी और सामने ही बैंच पर एक नौजवान बैठा था. उन को देख कर वह इतना समझ गया कि शायद यही यासीन की बीवी परवीन है और साथ में उस का प्रेमी है.यासीन के केस को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं.

दरअसल, एक हफ्ते पहले ही शहनवाज शहर से सटे कसबे खीरी में गया हुआ था. उस के न्यूज चैनल ने उस इलाके में हो रहे विकास के कामों की एक स्टोरी उस से मांगी थी, जिस की कवरेज के लिए वह अपने साथी नवाज के साथ आया हुआ था. उसे कवरेज करते देख कर कई लोग वहीं जमा हो गए थे.‘‘आप पत्रकार अंकल हैं?’’ तभी भीड़ में से किसी की आवाज सुन कर शहनवाज का ध्यान उस ओर गया. उस ने देखा कि सामने तकरीबन 6-7 साल का एक बच्चा खड़ा था.

‘‘आप ने बताया नहीं कि आप पत्रकार अंकल हैं?’’ शहनवाज कुछ बोलता, इस से पहले ही उस बच्चे ने दोबारा पूछ लिया.‘‘हां, बेटा…’’ शहनवाज ने कहा.

‘‘अंकल, आप मेरी अम्मी को वापस बुला दीजिए.

मुझे उन के बिना अच्छा नहीं लगता. वे हम सब से नाराज हो कर पता नहीं कहां चली गई हैं. पापा ने पुलिस अंकल से उन को ढूंढ़ने के लिए कहा था, लेकिन वे भी मेरी अम्मी को ढूंढ़ कर नहीं लाए,’’ वह बच्चा रोता हुआ उस से बोला.बच्चे की अपनी अम्मी के लिए मुहब्बत और उस की मासूमियत देख कर पता नहीं क्यों शहनवाज का बच्चे पर प्यार उमड़ आया और उस ने उसे अपनी गोद में उठा लिया.

‘‘अच्छा, आप के पापा कहां हैं?’’ शहनवाज ने बड़े प्यार से उस बच्चे से पूछा.‘‘वे उधर हैं,’’ बच्चा एक ओर इशारा करते हुए बोला.शहनवाज ने देखा कि कुछ ही दूरी पर एक झोंपड़ीनुमा घर था, जिस के दरवाजे पर एक मजदूर सा दिखने वाला आदमी खड़ा हुआ था.

उस की गोद में एक बच्चा भी था, जो शायद 4-5 साल का होगा.शहनवाज ने उस बच्चे को गोद से उतार दिया और उसे झोंपड़ी की ओर चलने के लिए इशारा किया. वह बच्चा चलने ही वाला था कि तभी वह आदमी, जिस की गोद में बच्चा था, तेज चल कर उन के पास आने लगा.‘‘माफ करना भाईजान, मेरे बेटे ने आप को तंग किया. मेरा नाम यासीन है और यह मेरा बेटा जुनैद है.

मैं इसे कितना समझा रहा हूं कि तेरी अम्मी जल्दी लौट आएगी, लेकिन इसे समझ नहीं आ रहा है. दिनरात ये दोनों भाई ‘अम्मीअम्मी’ की रट लगाए रहते हैं.

‘‘जब से जुनैद की बूआ ने बोला है कि कोई पत्रकार ही अब हमारी मदद कर सकता है, तभी से ये बच्चे मुझ से बोल रहे हैं कि पत्रकार अंकल के पास चलो, वे हमारी अम्मी को ढूंढ़ने में मदद करेंगे,’’ यासीन शहनवाज के पास आ कर बोला.‘‘ओह, पर आखिर आप की पत्नी इन छोटेछोटे बच्चों को छोड़ कर कहां चली गई हैं?’’ शहनवाज ने यासीन से हैरत से पूछा.

‘‘वह 5 दिन पहले अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गई थी. जानकारी मिली है कि वह यहां से लखनऊ चली गई है और वहां अपने प्रेमी के साथ ही रह रही है,’’ यासीन ने धीरे से बताया.यह सुन कर शहनवाज ने उन दोनों मासूम बच्चों की ओर देखा. मां के बगैर उन दोनों के चेहरे उतरे हुए थे. वह सोच में पड़ गया कि कोई मां इतनी कठोर कैसे हो सकती है?

‘‘क्या आप ने अपनी पत्नी को ढूंढ़ने के लिए कोतवाली में कोई अर्जी दी है?’’ शहनवाज ने यासीन से पूछा.‘‘जी…’’ यासीन बोला.शहनवाज ने कुछ सोच कर यासीन से पूरी जानकारी ली और उस के बाद उस ने कोतवाली फोन मिला दिया.

उस ने इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला को अर्जी के बारे में जानकारी देते हुए जल्द ही यासीन की पत्नी को ढूंढ़ने के लिए कहा और दोबारा अपनी कवरेज करने लगा था. उस ने यासीन का मोबाइल फोन नंबर ले लिया था, ताकि उस से दोबारा बात हो सके.‘‘शहनवाजजी, साहब आप को औफिस में बुला रहे हैं,’’ तभी किसी की आवाज सुन कर शहनवाज चौंक गया. सामने कांस्टेबल राधेश्याम खड़ा था.शहनवाज कोतवाली में चला गया. यासीन भी अपने बच्चों को ले कर कोतवाली पहुंच चुका था.

दोनों बच्चों ने जब अपनी अम्मी को देखा, तो वे भाग कर उस से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगे.‘‘अम्मी, तुम हमें छोड़ कर कहां चली गई थीं… हम अब शैतानी नहीं करेंगे… हम से कोई गलती हो गई है, तो हमें माफ कर दें और आगे से हमें कहीं छोड़ कर मत जाना,’’ जुनैद ने रोते हुए कहा.बच्चों का अपनी मां के प्रति प्यार देख कर कोतवाली का पूरा माहौल बदल गया था.

वहां मौजूद यासीन, इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला समेत सभी की आंखें नम हो गई थीं.अचानक शहनवाज को अपनी अम्मी की याद आ गई, जो उस की नाममात्र परेशानी से परेशान हो उठती थीं. उसे अच्छी तरह से याद है, जब वह छोटा था, तो एक बार उसे दिमागी बुखार हो गया था. तब अम्मी कितना परेशान हो गई थीं और रातदिन रोरो कर बस उस की देखभाल करती थीं. और तो और उस के बीमार होने पर उन्होंने खानापीना छोड़ दिया था.फिर भी शहनवाज अपनी मां के बगैर इतनी दूर अपनी बीवी सना के साथ लखीमपुर में रह रहा था.

वह अब्बू के साथ एक छोटी सी तकरार पर सना के साथ सबकुछ छोड़ कर चला आया था. वह सोच रहा था कि कैसे रह रही होंगी उस की अम्मी उस से दूर?‘‘नहीं, तुम मेरे बच्चे नहीं हो. छोड़ो मुझे, दूर हटो और जाओ अपने बाप के पास. मुझे नहीं रहना तुम लोगों के साथ,’’ इतनी तेज आवाज सुन कर शहनवाज यादों का दामन छोड़ एक बार फिर आज में आ गया.

वह आवाज यासीन की बीवी परवीन की थी, जो अपने दोनों बच्चों को झिड़क कर खुद से अलग कर रही थी, लेकिन बच्चे थे कि अपनी अम्मी से चिपके ही जा रहे थे. शायद वे सोच रहे थे कि एक बार उन की अम्मी उन्हें गोद में उठा कर प्यार कर लें.यह सब देख कर शहनवाज को बहुत ज्यादा गुस्सा आ रहा था. कैसी मां है यह, जो अपने बच्चों से इस तरह से बरताव कर रही है.

‘‘आखिर तुम क्यों नहीं रहना चाहती हो अपने शौहर और बच्चों के साथ? अगर कोई परेशानी है या फिर तुम्हारा शौहर तुम्हें मारतापीटता है, तो मुझे बताओ,’’ इंस्पैक्टर अशोक शुक्ला ने यासीन की बीवी से पूछा.‘‘नहीं, मुझे इन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मुझे नहीं रहना है यासीन और उस के बच्चों के साथ. मैं वसीम से प्यार करती हूं और मुझे उसी के साथ में रहना है,’’ परवीन कुछ दूरी पर खड़े नौजवान की ओर इशारा करते हुए बोली.‘‘लेकिन, तुम्हारे छोटेछोटे बच्चे हैं. क्या रह पाओगी इन के बगैर? ये बच्चे भी तुम से कितना प्यार करते हैं और मैं भी तुम से बहुत प्यार करता हूं, यह तुम जानती हो, लेकिन फिर भी तुम क्यों नहीं समझ रही हो…’’

परवीन की बात सुन कर यासीन ने उसे समझाने की कोशिश की.‘‘कुछ भी हो, मैं तुम्हारे साथ इस तरह की जिंदगी नहीं गुजार सकती,’’ परवीन ने दोटूक जवाब यासीन को दिया, तो यासीन दोबारा कुछ न बोला.सभी ने परवीन को बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन उस ने किसी की बात नहीं मानी. उस ने तो जैसे ठान ही लिया था कि वह अपने प्रेमी वसीम के साथ ही रहेगी.

यह देख कर शहनवाज को बड़ा गुस्सा आ रहा था. उस का मन कर रहा था कि अभी जोरदार तमाचा ऐसी कमबख्त मां के गाल पर मार दे, जो इन मासूम चेहरों को देख कर भी उस की ममता नहीं जाग रही थी.जब परवीन अपने प्रेमी के साथ जाने लगी, तो दोनों बच्चे एक बार फिर फूटफूट कर रोने लगे. उन बच्चों का रोना किसी से देखा नहीं जा रहा था.‘‘पापा, अम्मी को रोक लो. हम कभी अम्मी को परेशान नहीं करेंगे,’’ मासूम जुनैद गुहार लगा रहा था.तभी अचानक महिला सिपाही कोमल ने बिना कुछ सोचेसमझे उन दोनों बच्चों को अपनी छाती से लगा लिया और उन्हें चुप कराने लगी.

कुछ ही देर में बच्चे चुप हो गए, पर वे एकटक अपनी अम्मी को देख रहे थे, जो किसी अनजान के साथ उन्हें छोड़ दूर जा रही थी.तभी कुछ सोच कर शहनवाज उन दोनों बच्चों के पास पहुंच गया और उन्हें प्यार से समझाया, ‘‘वे तुम्हारी अम्मी नहीं हैं. सच तो यह है कि तुम्हारी अम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’इतना सुनना था कि वे दोनों बच्चे अचानक एक बार फिर अपनी अम्मी के पास जा पहुंचे.‘‘हमें माफ कर दें. हम ने आप को बिना वजह परेशान किया.

हमें नहीं मालूम था कि हमारी अम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं,’’ जुनैद ने इतना कहा और फिर दोनों बच्चे वापस आ गए.तभी शहनवाज ने देखा कि जुनैद की बात सुन कर परवीन की आंखें भी गीली होने लगी थीं. पर वह कुछ कहती, तभी उस का प्रेमी वसीम गाड़ी ले कर आ गया और उसे गाड़ी में बैठा कर चल दिया. दोनों बच्चे और यासीन गाड़ी को जाते हुए देखते रहे.

शहनवाज ने यासीन से भी घर जाने के लिए कहा और खुद भी अपनी बाइक उठा कर कोतवाली से बाहर आ गया. यह सब देख कर उस का सिर भारी होने लगा था और वह कय्यूम चाचा की दुकान पर चाय पीने के लिए चला गया, जो कोतवाली से कुछ दूर रेलवे स्टेशन के करीब थी.कय्यूम चाचा की दुकान से कुछ ही दूरी पर भीड़ जमा थी. शहनवाज ने पूछा, ‘‘चाचा, यह भीड़ कैसी?’’

‘‘वहां कोई पागल औरत है, जिस ने कल रात में ही एक बच्ची को जन्म दिया है. उस की गर्भनाल भी अभी नहीं कटी है. मांबच्चे में कहीं जहर न फैल जाए, इस के लिए डाक्टर की टीम गर्भनाल काटने की कोशिश कर रही है,’’ कय्यूम चाचा ने बताया.कुछ सोच कर शहनवाज भी भीड़ को चीरता हुआ वहां जा पहुंचा. उस ने देखा कि सामने एक औरत थी, जिस के फटेपुराने कपड़े पहने, बाल उलझेउलझे और शरीर से भी वह बहुत कमजोर लग रही थी.

वह चंद घंटे पहले जनमी नवजात बच्ची को सीने से चिपकाए हुए थी.एक लेडी डाक्टर बच्ची को उस से लेने की कोशिश कर रही थी, जिस से कि गर्भनाल काटी जा सके, लेकिन वह औरत बच्ची को छोड़ ही नहीं रही थी. शायद उसे लग रहा था कि वे लोग उस की बच्ची उस से छीन लेंगे.अपनी बच्ची के लिए उस पागल मां की ममता देख कर सभी हैरान हो रहे थे. तभी शहनवाज का ध्यान उस कलियुगी मां पर गया, जो अपने 2 मासूम बच्चों को रोता हुआ छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ दूर चली गई थी, बहुत दूर. उस का चेहरा ध्यान में आते ही शहनवाज का मन कसैला हो गया.

अनोखा प्रेमी : क्या हो पाई संध्या की शादी

पटना सुपर बाजार की सीढि़यां उतरते हुए संध्या ने रूपाली को देखा तो चौंक पड़ी. एक मिनट के लिए संध्या गुस्से से लालपीली हो गई. रूपाली ने पास आ कर कहा, ‘‘अरे, संध्याजी, आप कैसी हैं?’’
संध्या खामोश रही तो रूपाली ने आगे कहा, ‘‘मैं जानती हूं, आप मुझ से बहुत नाराज होंगी. इस में आप की कोई गलती नहीं है. आप की जगह कोई भी होता, तो मुझे गलत ही समझता.’’

संध्या फिर भी चुप रही. उसे लग रहा था कि रूपाली सिर्फ बेशरम ही नहीं, बल्कि अव्वल नंबर की चापलूस भी है. रूपाली ने समझाते हुए आगे कहा, ‘‘संध्याजी, मेरे मन में कई बार यह खयाल आया कि आप से मिलूं और सबकुछ आप को सचसच बता दूं. मगर सुधांशुजी ने मुझे कसम दे कर रोक दिया था.’’

सुधांशु का नाम सुनते ही संध्या के तनबदन में आग लग गई. वही सुधांशु, जिस ने संध्या से प्रेम का नाटक कर के उस की भावनाओं से खेला था और बेवफाई कर के चला गया था. संध्या के जीवन के पिछले पन्ने अचानक फड़फड़ा कर खुलने लगे. वह गुस्से से लालपीली हुई जा रही थी. रूपाली, संध्या का हाथ पकड़ कर नीचे रैस्तरां में ले गई, ‘‘आइए, कौफी पीते हैं, और बातें भी करेंगे.’ न चाहते हुए भी संध्या रूपाली के साथ चल दी.

रूपाली ने कौफी का और्डर दिया. संध्या अपने अतीत में खो गई. लगभग 10 साल पहले की बात है. पटना शहर उन दिनों आज जैसा आधुनिक नहीं था. शिव प्रसाद सक्सेना का परिवार एक मध्यवर्गीय परिवार था. वे पटना हाईस्कूल में मास्टर थे. 2 बेटियां, संध्या और मीनू, बस, यही छोटा सा परिवार था. संध्या के बीए पास करते ही मां ने उस की शादी की जिद पकड़ ली. उस की जन्मकुंडली की दर्जनों कापियां करा कर उन पर हलदी छिड़क कर तैयार कर ली गईं. एक तरफ पापा ने अपने मित्रों में अच्छे लड़के की तलाश शुरू कर दी तो दूसरी ओर मां ने टीपन की कापी हर बूआ, मामी और चाचियों में बांट दी.

दिन बीतते रहे पर कहीं भी विवाह तय नहीं हो पा रहा था. मां को परेशान देख कर एक दिन जौनपुर वाली बूआ ने साफसाफ कह दिया, ‘देखो, छोटी भाभी, मैं ने तो संध्या के लिए जौनपुर में सारी कोशिशें कर के देख लीं पर जो भी सुनता है कि रंग थोड़ा दबा है, बस, नाकभौं सिकोड़ लेता है.’

‘अरे दीदी, रंग थोड़ा दबा है तो क्या हुआ, कोई मेरी संध्या में खोट तो निकाल दे,’ मां बोल उठीं.
‘हम जानते नहीं हैं क्या, छोटी भाभी? पर जब ये लोग लड़के वाले बन जाते हैं, तब न जाने कौन सा चश्मा लगा के 13 खोट और 26 कमियां निकालने लगते हैं.’ मां और बूआ का अपनाअपना राग दिनभर चलता रहता था

इस के बाद तो हर साल, लगन आते ही मां मीनू से टीपन उतरवाने और उस पर हलदी छिड़क कर आदानप्रदान करने में लग जातीं और लगन समाप्त होते ही निराश हो कर बैठ जातीं. अगले साल जब फिर से नया टीपन तैयार होता तब उस में संध्या की उम्र एक साल बढ़ा दी जाती.

कहीं भी शादी तय नहीं हो पा रही थी. दिन बीतते गए, संध्या में एक हीनभावना घर करने लगी. हर बार लड़की दिखाने की रस्म के बाद वह मानसिक और शारीरिक दोनों रूप में मलिन हो जाती. उसे गुस्सा भी आता और ग्लानि भी होती. पापा के ललाट की शिकन और मां की चिंता उसे अपने दुख से कहीं ज्यादा बेचैन करती थी.

सिलसिला सालदरसाल चलता रहा. धीरेधीरे संध्या में एक परिवर्तन आने लगा. वह हर अपमान और अस्वीकृति के लिए अभ्यस्त हो चुकी थी. मगर मांबाप को उदास देखती, तो आहत हो उठती थी.
आखिर एक दिन मां को उदास बैठे देख कर संध्या बोली, ‘मां, मैं ने फैसला कर लिया है कि शादी नहीं करूंगी. तुम लोग मीनू की शादी कर दो.’

‘तो क्या जीवनभर कुंआरी ही बैठी रहोगी?’ मां ने डांटा.

‘तो क्या हुआ, मां, कितनी ही लड़कियां कुंआरी बैठी हैं. मैं बिन ब्याही रह गई तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा. देखो, स्मिता दीदी ने भी तो शादी नहीं की है, क्या हो गया उन्हें, मौज से रह रही हैं.’

‘हमारे खानदान की लड़कियां कुंआरी नहीं रहतीं,’ इतना कह कर मां गुस्से में पैर पटकती हुई चली गईं.
5 वर्ष बीत गए. संध्या ने एमए कर लिया और मगध महिला कालेज में लैक्चरर की नौकरी भी मिल गई. अपने कालेज और पढ़ाने में ही वह अपने को व्यस्त रखती थी. संध्या अकसर सोचा करती, यह कैसी विडंबना है कुदरत की कि रूपआकर्षण न होने की वजह से उस के साथसाथ पूरे परिवार को पीडि़त होना पड़ रहा है. वह कुदरत को अपने प्रति हुई नाइंसाफी के लिए बहुत कोसती थी. वह सोचती कि आखिर उस का कुसूर क्या है. शादी के समय लड़की के गुणों को रूप के आवरण में लपेट कर न जाने कहां फेंक दिया जाता है.

एक दिन पापा ने जब मनोहर बाबू से रिश्ते की बात चलाई तो मां सुनते ही आगबबूला हो गईं, ‘आप सठिया तो नहीं गए हैं. मनोहर अपनी संध्या से 14 साल बड़ा है. आप लड़का ढूंढ़ने चले हैं या बूढ़ा बैल.’

पापा ने मनोहर बाबू की नौकरी, अच्छा घराना, और भी कई चीजों का वास्ता दे कर मां को समझाना चाहा, मगर मां टस से मस नहीं हुईं.

एक दिन संध्या जब कालेज से घर लौटी तो उस ने देखा, बरामदे में कोई पुरुष बैठा मम्मीपापा के साथ बड़े अपनेपन से बातें कर रहा था. वह उसे पहचान पाने में विवश थी. तभी पापा ने परिचय कराते हुए कहा, ‘मेरी बड़ी बेटी संध्या. यहीं मगध महिला कालेज में लेक्चरर है, और आप हैं, शोभा के देवर, सुधांशु.’
संध्या ने देखा, बड़े ही सलीके से खड़े हो कर उस ने हाथ जोड़े. उत्तर में संध्या ने नमस्ते किया. फिर वह अंदर चली गई.

सुधांशु अकसर संध्या के घर आनेजाने लगा. बातचीत करने में माहिर सुधांशु बहुत जल्दी ही घर के सभी सदस्यों का प्यारा बन गया. पापा से राजनीति पर बहस होती, तो मां से धार्मिक वार्त्तालाप. मीनू को चिढ़ाता भी तो बहुत आत्मीयता से. मीनू भी हर विषय में सुधांशु की सलाह जरूरी समझती थी. कई बार मम्मीपापा उसे झिड़क भी देते थे, जिसे सुधांशु हंस कर टाल देता.

सुधांशु स्वभाव से एक आजाद खयाल का व्यक्ति था. वह साहित्य, दर्शन, विज्ञान या प्रेम संबंधों पर जब संध्या से चर्चा करता तब उस की बुद्धिमत्ता की बरबस ही सराहना करने को उस का जी चाहता था. उस की आवाज में एक प्रवाह था, जो किसी को भी अपने साथ बहा कर ले जाने में सक्षम था

सुधांशु, संध्या के कुंठित जीवन में हवा के ताजा झोंके की तरह आया. संध्या को धीरेधीरे सुधांशु का साथ अच्छा लगने लगा. अब तक संध्या ने अपने को दबा कर, मन मार कर जीने की कला सीख ली थी. मगर अब सुधांशु का अस्तित्व उस के मनोभावों पर हावी होने लगा था. और संध्या अपनी भावनाओं पर से अंकुश खोने लगी थी. अंजाम सोच कर वह भय से कांप उठती थी, क्योंकि प्रेम की राहें इतनी संकरी होती हैं कि इन से वापस लौट कर आने की गुंजाइश नहीं होती.

नारी को एक प्राकृतिक उपहार प्राप्त है कि वह पुरुष के मन की बात बगैर कहे ही जान लेती है. इसीलिए संध्या को सुधांशु का झुकाव भांपने में देर नहीं लगी. आखिर एक दिन इन अप्रत्यक्ष भावनाओं को शब्द भी मिल गए, सुधांशु ने अपने प्रेम का इजहार कर दिया. प्रतीक्षारत संध्या का रोमरोम पुलकित हो उठा.
संध्या में उल्लेखनीय परिवर्तन आने लगा. अपने हृदय के जिस कोने को वह अब तक टटोलने से डरती थी, उसे अब उड़ेलउड़ेल कर निकालने को इच्छुक हो उठी थी. संध्या हमेशा सुधांशु की ही यादों में खोई रहती. हमेशा खामोश, नीरस रहने वाली संध्या अब गुनगुनाती, मुसकराती देखी जाने लगी.

संध्या ने एक दिन मां को सबकुछ बता दिया. मां को तो सुधांशु पसंद था ही, वह खुश हो गईं. पापा भी उसे पसंद करते थे. आखिर एक दिन पापा ने सुधांशु से उस के पिताजी का पता मांग लिया. वे वहां जा कर शादी की बात करना चाहते थे. सुधांशु ने बताया कि अगले महीने ही उस के पिताजी पटना आ रहे हैं, यहीं बात कर लीजिएगा.

3 महीने बीत गए, सुधांशु के पिताजी नहीं आए. सुधांशु ने भी धीरेधीरे आनाजाना बहुत कम कर दिया. एक सप्ताह तक सुधांशु संध्या से नहीं मिला तो वह सीधे उस के औफिस जा पहुंची. वहां पता चला कि आजकल वह छुट्टी पर है. संध्या सीधे सुधांशु के घर जा पहुंची और दरवाजा खटखटाया. सुधांशु ने ही दरवाजा खोला, ‘अरे, संध्या, तुम. आओ, अंदर आओ.’

‘यह क्या मजाक है, सुधांशु, तुम एक सप्ताह से मिले भी नहीं, और…’ संध्या गुस्से में कुछ और कहती कि उस ने सामने बालकनी में एक लड़की को देखा, तो अचानक चुप हो गई.

सुधांशु ने चौंकते हुए कहा, ‘अरे, मैं परिचय कराना तो भूल ही गया. आप संध्याजी हैं, मेरी फैमिली फ्रैंड, और आप हैं, रूपाली मेरी गर्लफ्रैंड.’
इस से पहले कि संध्या कुछ पूछती, सुधांशु ने थोड़ा झेंपते हुए कहा, ‘बहुत जल्दी ही रूपाली मिसेज रूपाली बनने वाली हैं. अरे, रूपाली, संध्या को चाय नहीं पिलाओगी.’

संध्या को मानो काटो तो खून नहीं. उसे यह सब अजीब लग रहा था. उस का मन करता कि सुधांशु को झकझोर कर पूछे कि आखिर यह सब क्या कह रहे हो.
रूपाली रसोई में गई तो संध्या ने आंखों में गुस्सा जताते हुए कहा, ‘सुधांशु, प्लीज, मजाक की भी कोई सीमा होती है. यह क्या कि जो मुंह में आया बक दिया.’

‘यह मजाक नहीं, सच है संध्या, कि हम दोनों शादी करने वाले हैं,’ सुधांशु ने बेहिचक कहा. संध्या को लगा मानो वह फफक कर रो पड़ेगी. वह झटके से उठी और बाहर चली गई.

वह कैसे घर पहुंची, उसे होश भी नहीं था. घर पहुंच कर देखा तो सामने मां बैठी थीं. वह अपनेआप को रोकतेरोकते भी मां से लिपट गई और फफक कर रो पड़ी. मां ने भी कुछ नहीं पूछा. वह जानती थी कि रोने से मन हलका होता है.
इस घटना से संध्या को बहुत बड़ा आघात लगा. वह इस बेवफाई की वजह जानना चाहती थी. पर उस का अहं उसे पूछने की इजाजत नहीं दे रहा था. संध्या एक समझदार लड़की थी, इसीलिए सप्ताहभर में ही उस ने अपनेआप को संभाल लिया. वह फिर से शांत और खामोश रहने लगी थी. धीरेधीरे सुधांशु के प्रति उस की नफरत बढ़ती गई. उधर सुधांशु ने भी अपना तबादला रांची करवा लिया और संध्या से दूर चला गया.

इस समूची घटना से पूरे परिवार में सब से ज्यादा आहत संध्या के पापा थे. ऐसा लगता था जैसे मौत ने जिंदगी को परास्त कर उन्हें काफी पीछे ढकेल दिया है. मीनू भी इन दिनों संध्या का कुछ ज्यादा ही खयाल करने लगी थी. मां की डांट न जाने कहां गायब हो गई थी. संध्या को लग रहा था कि वह आजकल सहानुभूति की पात्र बन चुकी है. यह एहसास उसे सुधांशु की बेवफाई से कहीं ज्यादा ही आहत करता था.

एक दिन संध्या ने पापा से मनोहर बाबू के साथ रिश्ते की स्वीकृति दे दी.
संध्या की शादी हो गई. मनोहर बाबू के साथ एडजस्ट होने में संध्या को तनिक भी परेशानी महसूस नहीं हुई. संध्या ने पूरे परिवार का दिल जीत लिया.
आज शादी को 4 साल बीत गए हैं, मगर संध्या को पता है कि उस के लिए जीवन मात्र एक नाटक का मंच बन कर रह गया है. संध्या एक पत्नी, एक बहू, एक प्रोफैसर और एक मां बन कर तो जी रही थी, मगर सुधांशु के उस अमानवीय तिरस्कार से इतनी आहत हुई थी कि उसे पुरुष शब्द से ही नफरत हो गई थी. यही वजह थी कि वह मनोहर बाबू के प्रति आज तक भी पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाई है.

बैरे ने कौफी ला कर मेज पर रखी, तब अचानक ही संध्या की तंद्रा टूटी. इस से पहले कि वह रूपाली से कुछ पूछती, एक पुरुष की आवाज पीछे से आई, ‘‘ओह, रूपाली, तुम यहां बैठी हो, और मैं ने सारा सुपर मार्केट छान मारा.’’
‘‘ये मेरे पति हैं, विक्रम,’’ रूपाली ने परिचय कराया, ‘‘और यह मेरी मित्र संध्या.’’

‘‘हेलो,’’ बड़े सलीके से अभिवादन करता हुआ विक्रम बोला, ‘‘अच्छा आप लोग बैठो, मैं सामान की पैकिंग करवा कर आता हूं,’’ और सामने वाली दुकान पर चला गया.

‘‘तुम चौंक गईं न,’’ रूपाली ने मुसकराते हुए संध्या से कहा.
‘‘तो तुम्हें भी सुधांशु ने धोखा दे दिया? इतना गिरा हुआ इंसान निकला वह?’’
‘‘नहीं संध्या, सुधांशुजी बेहद नेक इंसान हैं. उस दिन तुम ने जो कुछ देखा वह सब नाटक था.’’

‘‘यह क्या कह रही हो, तुम?’’ संध्या लगभग चीख उठी थी.
रूपाली संध्या को हकीकत बयां करने लगी.

‘‘सुधांशु मुझे ट्यूशन पढ़ाया करता था. एक दिन सुधांशु को परेशान देख कर मैं ने कारण पूछा. पहले तो सुधांशु बात को टालता रहा, फिर उस ने तुम्हारे साथ घटी पूरी प्रेमकहानी मुझे सुनाई कि मेरी बड़ी बहन शोभा ने पटना आते वक्त उसे तुम्हारे बारे में काफीकुछ बता दिया था कि तुम हीनभावना की शिकार हो.

‘‘मनोविज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते सुधांशु को यह समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि तुम्हारे इस हीनभावना से उबारने का क्या उपाय हो सकता है. पहले तो सुधांशु ने तुम्हारे मन में दबे हुए आत्मविश्वास को धीरेधीरे जगाया, जिस के लिए तुम से प्रेम का नाटक करना जरूरी था.’’

‘‘लेकिन इस नाटक का फायदा?’’ संध्या आगे जानने के लिए जिज्ञासु थी.
‘‘इसीलिए, कि तुम मनोहर बाबू से विवाह कर लो.’’

‘‘लेकिन तुम और सुधांशु भी तो शादी करने वाले थे. उस दिन सुधांशु ने कुछ ऐसा ही कहा था.’’

‘‘वह भी तो सुधांशु के नाटक का एक अंश था,’’ रूपाली ने कौफी का प्याला उठा कर एक घूंट भरते हुए आगे कहा, ‘‘संध्या, मैं भी तुम्हारी तरह उन की एक शिकार हूं, मैं रंजीत से प्रेम करती थी. रंजीत ने किसी और लड़की से शादी कर ली, तो मैं इतना आहत हुई कि अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठी थी. डाक्टरों ने मुझे मानसिक आघात का पहला चरण बताया. उन्हीं दिनों पिताजी को सुधांशुजी मिल गए और मुझे सुधांशुजी ने अपनी चतुराई से उस कुंठा से बाहर निकाला और जिंदगी से प्रेम करना सिखाया. उन दिनों सुधांशु से मैं प्रभावित हो कर उन से प्रेम करने लगी थी. लेकिन उन्होंने तो बड़ी शालीनता से, बड़े प्यार से मुझे समझाया कि वे मुझ से शादी नहीं कर सकते हैं.’’

‘‘हां, लड़कियों के दिलों से खेलने वाले लोग भला शादी क्यों करने लगे?’’ संध्या बोल पड़ी.

‘‘नहीं संध्या, नहीं,’’ बीच में ही बात काट कर रूपाली ने कहा, ‘‘उन्होंने मुझे कसम दिलाई थी, पर अब मैं वह कसम तोड़ रही हूं. आज मैं सबकुछ तुम्हें बता दूंगी. सुधांशुजी को गलत मत समझो. उन्होंने कभी किसी से कोई फायदा नहीं उठाया है.

‘‘असल में सुधांशुजी इसलिए शादी नहीं करना चाहते, क्योंकि उन की जिंदगी, मौत के दरवाजे पर दस्तक दे रही है. सुधांशु को ब्लड कैंसर है.’’
मौन, खामोश संध्या की आंखों से आंसू, बूंद बन कर टपक पड़े. रूमाल से आंख पोंछती हुई संध्या ने भरे गले से पूछा, ‘‘अब वे कहां हैं?’’

‘‘पता नहीं, जाते वक्त मैं ने लाख पूछा, मगर वह मुसकरा कर टाल गए,’’ रूपाली ने एक पल रुक कर फिर कहा, ‘‘सुधांशुजी जहां भी होंगे, किसी न किसी रूपाली या संध्या के जीवन का आत्मविश्वास जगा रहे होंगे.’’

रूपाली तो चली गई, पर संध्या को लग रहा था कि अगर आज रूपाली नहीं मिलती तो जीवनभर सुधांशु के बारे में हीनभावनाएं ले कर जीती रहती. सुधांशु जैसे विरले ही होते हैं जो अपनी नेकनामी की बलि चढ़ा कर भी परोपकार करते रहते हैं.

वहम : जब बुधिया को भूत ने जकड़ा

बुधिया और बलुवा पक्के दोस्त थे. बुधिया भूतप्रेत पर यकीन करता था, जबकि बलुवा उन्हें मन का वहम मानता था. एक बार उन की बछिया जंगल में खो गई, जिसे ढूंढ़ने में रात हो गई. इसी बीच बुधिया को किसी भूत ने पकड़ लिया. आगे क्या हुआ?

बुद्धि चंद्र जोशी… गांव के लोग अकसर उसे बुधिया कह कर बुलाते थे. वह ठेठ रूढि़वादी पहाड़ी पंडित परिवार से था. सवेरे स्कूल जाने से पहले आधा बालटी पानी से स्नान, एक घंटा पूजापाठ, फिर आधी फुट लंबी चुटिया में सहेज कर गांठ लगाना, रोली और चंदन से ललाट को सजाना  उस के रोजमर्रा के काम थे.

बेशक कपड़े मैले पहन ले, पर बुधिया ने नहाना कभी नहीं छोड़ा, फिर चाहे गरमी हो या सर्दी. उसे पढ़ाई में मेहनत से ज्यादा भाग्य और जीवन में लौकिक से परलौकिक संसार पर ज्यादा भरोसा था. वह हमेशा भूतप्रेत, आत्मापरमात्मा और तंत्रमंत्र की ही बातें किया करता था और ऐसी ही कथाकहानियों को पढ़ा भी करता था.

बलुवा यानी बाली राम आर्या बुधिया का जिगरी दोस्त था, लेकिन आचारविचार में एकदम उलट. न पूजापाठ, न रोलीचंदन और न ही वह चुटिया रखता था. हर बात पर सवाल करना उस के स्वभाव में शुमार था. जब तक तर्क से संतुष्ट नहीं हो जाता था, तब तक वह किसी बात को नहीं मानता था.

वे दोनों गांव के पास के स्कूल में 11वीं क्लास में पढ़ते थे. बुधिया ने आर्ट्स, तो बलुवा ने साइंस ली थी. वे दोनों साथसाथ स्कूल जाते थे.

उन दोनों में अकसर भूतप्रेत के बारे में बहस होती रहती थी. बलुवा कहता था कि भूतप्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती, बस सिर्फ मन का वहम है, पर बुधिया मानने को तैयार नहीं था और कहता, ‘‘तू बड़ा नास्तिक बनता है. जब भूतप्रेत का साया तुझ पर पड़ेगा, तब तेरी अक्ल ठिकाने आएगी.’’

इस पर बलुवा कहता, ‘‘भूतप्रेत की कहानियां पढ़पढ़ कर तू हमेशा उन की ही कल्पना करता है, जिस से तेरे अंदर उन का डर बैठ गया है.’’

तब बुधिया शेखी बघारता, ‘‘एक न एक दिन तुझे भी भूत के दर्शन करा दूंगा, तब तू सच मानेगा,’’ फिर वह गांव के कई लोगों के नाम गिनाता जैसे रमूली, सरला, किशन, महेश जिन्हें भूत लग गया था और जो बाद में तांत्रिक के भूत भागने से ठीक हुए थे.

पहाड़ों में दिसंबर में छमाही के इम्तिहान के बाद स्कूल में छुट्टियां पड़ जाती हैं. छुट्टियों में उन दोनों का काम होता था जंगल में गाय चराना.

वे दोनों अपनीअपनी गाय ले कर दूर जंगल में निकल जाते. दिनभर खेलतेकूदते रहते और शाम को गाय ले कर घर वापस आ जाते. जंगल में बाघतेंदुए का आतंक भी बना रहता था, इसलिए घर आते समय जानवरों की गिनती की जाती थी कि पूरे हैं या नहीं.

एक दिन जब बुधिया जानवरों की गिनती कर रहा था तो एक बछिया नहीं दिखी. चूंकि एक बछिया कम थी, घर कैसे जाया जाए. घर पर डांट जो पड़ेगी.

जाड़ों में दिन छोटे होते हैं, तो अंधेरा जल्दी पसरने लगता है. दोनों ने फैसला लिया कि जल्दी से जल्दी बछिया को ढूंढ़ा जाए, नहीं तो रात हो जाएगी. दोनों बछिया को ढूंढ़ने अलगअलग दिशाओं में निकाल गए, ताकि काम जल्दी हो जाए.

एक पहाड़ी के इस तरफ तो दूसरा पहाड़ी के दूसरी तरफ चला गया.

तय हुआ कि जिसे भी बछिया पहले

मिल जाएगी, वह दूसरे को आवाज दे कर बताएगा.

बछिया ढूंढ़तेढूंढ़ते वे दोनों काफी

दूर निकाल गए. रात भी धीरेधीरे

गहराने लगी. अचानक जोरजोर से चीखने की आवाज आने लगी, ‘‘भूत… भूत… बचाओ बचाओ… इस ने मुझे पकड़ लिया.’’

बलुवा रुक कर आवाज पहचानने की कोशिश करने लगा. यह बुधिया के चीखने की आवाज थी. बलुवा ने सोचा कि बुधिया डरपोक है. ऐसे ही रात में कोई जंगली जानवर की आहट को भूत समझ कर चिल्ला रहा होगा.

बलुआ ने जोर से चिल्ला कर कहा, ‘‘बुधिया, डर मत. तू किसी जंगली जानवर को भूत समझ कर डर गया होगा. भूतप्रेत कुछ नहीं होते. सब तेरे मन का वहम है.’’

बुधिया फिर गला फाड़फाड़ कर चिल्लाने लगा, ‘‘नहीं, यह सचमुच का भूत है. इस के बड़ेबड़े दांत, सींग और नाखून हैं. इस के पैर भी उलटे हैं. यह मुझे खा जाएगा. जल्दी आ कर मुझे बचा ले.’’

बलुवा भी अब थोड़ा सहम सा गया और सोचने लगा, ‘बुधिया इतने विश्वास से कह रहा है कि उसे भूत ने पकड़ लिया है, तो जरूर कोई बात होगी.’

रात की बात थी. बलुवा ने घने अंधेरे जंगल में अकेले जाना ठीक नहीं समझा. लिहाजा, वह वापस गांव की ओर आ गया. जंगल से सटे घरों से 4 लोगों को इकट्ठा कर के उस ओर को चला, जहां से बुधिया की आवाज आ रही थी. सब के हाथों में मशालें थीं.

बुधिया का चीखतेचीखते गला भी बैठ चुका था. अब चीखने की आवाज भी रुंधी हुई दबीदबी सी आ रही थी.

उन पांचों में सब से सयाना पंडित धनीराम था, पर सब से ज्यादा वही डरा हुआ था. उस ने बताया कि इस जंगल में लकड़ी के तस्करों ने एक फौरैस्ट गार्ड की हत्या कर दी थी. जरूर उस भूत ने ही बुधिया को पकड़ा होगा.

यह सुन कर बलुवा ने कहा, ‘‘क्या बात कर रहे हो पंडितजी. अगर वह भूत बन गया तो बाघ ने तो यहां सैकड़ों जानवर मारे होंगे. तब सब को भूत

बन जाना चाहिए. क्यों हम सब को डरा रहे हो…’’

‘‘डरा नहीं रहा हूं बलुवा. चल, अब तू अपनी आंखों से देखेगा भूत की पकड़…’’ धनीराम ने डराने के लहजे

से कहा.

अब वे लोग करीबकरीब बुधिया के नजदीक पहुंच चुके थे. बुधिया का गला चिल्लातेचिल्लाते तकरीबन बैठ चुका था. वह रुंधे गले से धीरेधीरे चीख रहा था, ‘‘बचाओ… बचाओ…भूत से मुझे छुड़ाओ… नहीं तो वह मुझे खा जाएगा.’’

बलुवा दिलासा देते हुए बोला, ‘‘डर  मत बुधिया. मैं गांव से लोगों को ले कर आया हूं. तुझे कुछ नहीं होगा.’’

पहाड़ों में मौसम का कुछ भरोसा नहीं होता. कुछ ही मिनटों में वहां बादल घिर आते हैं और बारिश होने लगती है. ऐसा ही आज भी हुआ. जैसे ही वे लोग बुधिया के पास पहुंचे, तेज बारिश होने लगी. सब की मशालें बुझ गईं.

तेज बारिश और चारों ओर घना अंधेरा. किसी को कुछ नजर नहीं आ रहा था. बस, बुधिया की रुकीरुकी चीखने की आवाज सुनाई पड़ रही थी.

बलुवा आवाज की दिशा में धीरेधीरे आगे बढ़ने लगा और बुधिया से बोला, ‘‘ला, अपना हाथ मुझे दे…’’ बलुवा ने  बुधिया का हाथ पकड़ कर जोर से खींचा, पर बुधिया निकल नहीं पा रहा था. अब तो बलुवा को भी शक होने लगा था कि कहीं बुधिया को सचमुच तो भूत ने नहीं पकड़ लिया है.

बलुवा ने कुछ घबराई हुई आवाज में साथ आए राम सिंह से कहा, ‘‘देखो तो भाई, आप की जेब में माचिस पड़ी होगी. उस से थोड़ा चीड़ के नुकीले पत्ते जला कर उजाला करो. देखें, आखिर बुधिया को किस ने पकड़ा है…’’

अब तक बारिश भी थम चुकी थी. राम सिंह ने आसपास से कुछ पत्ते इकट्ठा कर के जलाए. उजाले में जोकुछ देखा उस से सब की हंसी छूट गई.

बुधिया घबराते हुए बोला, ‘‘इधर मेरी जान जा रही है और तुम लोग हंस रहे हो.’’

जवाब में राम सिंह ने हंसते हुए कहा, ‘‘बुधिया, पीछे मुड़ कर तो देख तुझे भी अपनी बेवकूफी पर हंसी आ जाएगी.’’

बुधिया ने पीछे मुड़ कर देखा तो उस के पाजामा के दाहिने पैर की मोहरी एक खूंटे में फंस हुई थी. वह ज्योंज्यों ज्यादा जोर लगाता, घबराहट में और भी फंसता जाता. वह बहुत डर गया था. उस के डर ने कहानियों और टैलीविजन पर देखे भूत की शक्ल ले ली थी.

बड़ेबड़े दांत, लंबेलंबे नाखून, सींग और उलटे पैर. जंगली जानवरों की अजीबोगरीब आवाजें उस के डर को और भी बढ़ा रही थीं. डर के मारे उस की सोचने की ताकत जीरो हो गई थी. वह एक मामूली खूंटे से भी अपनेआप को नहीं छुड़ा पा रहा था.

बलुवा ने फिर बुधिया को समझाते हुए कहा, ‘‘देख, मैं कहता था न कि भूतप्रेत कुछ नहीं होते. हमारे मन का डर ही भूत को जन्म देता है.’’

पर बुधिया कहां मानने वाला था.

वह फिर भी कह रहा था, ‘‘नहीं यार, कुछ तो था. शायद उजाला देख कर भाग गया होगा.’’

बलुवा बुधिया को उस के घर तक छोड़ आया. घर वाले बछिया नहीं, बल्कि बुधिया कि चिंता कर रहे थे कि वह अब तक घर क्यों नहीं पहुंचा.

घर पहुंच कर बुधिया ने सारी बातें बताईं. बछिया तो अपनेआप बहुत पहले ही घर पहुंच चुकी थी.

जड़ों की छुट्टियां अब खत्म हो चुकी थीं. आज तकरीबन 4 महीने के बाद फिर से वे दोनों गपें मारते हुए

स्कूल जा रहे थे. रास्ते में एक सुनसान पहाड़ी नाले के पास ‘छपछप’ की आवाज सुनाई दी.

बुधिया ने डर के मारे बलुवा का हाथ कस के पकड़ लिया और कांपती आवाज में बोला, ‘‘देख, वह ‘छपछप’ की आवाज करते हुए भूत आ रहा है.’’

बलुवा जोर का ठहाका लगा कर हंसते हुए बोला, ‘‘हां, उस दिन वाले जंगल के भूत का अब इधर ट्रांसफर हो गया है. वह तुझ से मिलने आया है.’’

तभी झाड़ी से एक जंगली मुरगी फड़फड़ाते हुए भागी. बलुवा हंसते हुए बोला, ‘‘देख, तेरा भूत वह जा रहा है. जा, जा कर पकड़ ले.’’

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