मौत के मुंह में पहुंचे लोग- भाग 2: सूरत में हुआ बड़ा भंडाफोड़

सौजन्य- मनोहर कहानियां

अब गुजरात की कहानी पढि़ए. देश भर में साडि़यों के लिए मशहूर शहर सूरत में ग्लूकोज, नमक और पानी से लाखों की तादाद में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बना कर देश भर में महंगे दामों पर बेचे गए. मई की पहली तारीख को अहमदाबाद पुलिस की क्राइम ब्रांच ने सूरत के ओलपाड़ इलाके में एक फार्महाउस पर छापा मार कर नकली इंजेक्शन बनाने की फैक्ट्री का भंडाफोड़ किया था.

इस फैक्ट्री से 60 हजार नकली इंजेक्शन की शीशियां, 30 हजार स्टिकर और शीशी सील करने वाली मशीन बरामद कर 7 लोगों कौशल वोरा और पुनीत शाह तथा इन के साथियों को गिरफ्तार किया था.

इस गिरोह का नेटवर्क पूरे देश में था. गिरोह के लोग कोरोना काल में जरूरतमंदों को ये नकली इंजेक्शन ढाई हजार रुपए से ले कर 20 हजार रुपए तक में बेचते थे.

इस से पहले गुजरात की मोरबी पुलिस ने मोरबी कृष्णा चैंबर में ओम एंटिक जोन नामक औफिस में छापा मार कर 2 लोगों राहुल कोटेचा और रविराज लुवाणा को गिरफ्तार किया था. इन से 41 नकली इंजेक्शन और 2 लाख रुपए से ज्यादा नकद रकम बरामद हुई. इन्होंने बताया कि ये नकली इंजेक्शन अहमदाबाद के रहने वाले आसिफ से लाए थे. इस के बाद अहमदाबाद के जुहापुरा से मोहम्मद आसिफ और रमीज कादरी को पकड़ा गया.

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इन से 1170 नकली इंजेक्शन और 17 लाख रुपए से ज्यादा नकदी बरामद हुई. इन लोगों ने पुलिस को बताया कि वे सूरत के रहने वाले कौशल वोरा से ये इंजेक्शन लाए थे. इसी सूचना के आधार पर सूरत के ओलपाड़ में फार्महाउस पर छापा मारा गया, जहां नकली इंजेक्शन बनाने की फैक्ट्री चल रही थी.

नकली इंजेक्शन बनाने की फैक्ट्री का मास्टरमाइंड कौशल वोरा था. पुनीत वोरा उस का पार्टनर था. कौशल से पूछताछ के आधार पर पुलिस ने अडाजण के उस के एजेंट जयदेव सिंह झाला को गिरफ्तार किया. झाला के पास से भी नकली इंजेक्शन बरामद हुए. गोल्ड लोन का काम करने वाला झाला करीब साल भर पहले कौशल के संपर्क में आया था. बाद में दोनों में दोस्ती हो गई.

सूरत का डाक्टर ही निकला जालसाज

सूरत पुलिस ने 3 मई, 2021 को भेस्तान के साईंदीप अस्पताल के एडमिन डा. सैयद अर्सलन, विशाल उगले और सुभाष यादव को गिरफ्तार किया. ये लोग 18 से 20 हजार रुपए में एक रेमडेसिविर इंजेक्शन बेच रहे थे जबकि इंजेक्शन की प्रिंटेड कीमत केवल 1250 रुपए थी.

डा. सैयद कोरोना मरीज की जान बचाने के लिए जरूरी होने की बात कह कर रेमडेसिविर इंजेक्शन खरीदने को मजबूर करता था. इंजेक्शन मंगवा कर भी वह चालाकी करता और मरीज को आधी डोज ही लगाता. यानी एक इंजेक्शन 2 मरीजों को लगाता था. किसीकिसी मरीज को तो वह इंजेक्शन लगाने का दिखावा ही करता था.

डा. सैयद अपने अस्पताल से डिस्चार्ज हो चुके मरीजों के नाम पर सिविल अस्पताल से ये इंजेक्शन मंगवाता था और बाद में विशाल तथा सुभाष की मदद से इन की कालाबाजारी करता था.

कोरोना मरीजों की जान बचाने के लिए जरूरी टौसिलिजुमैब इंजेक्शन के नाम पर भी लोगों ने खूब पैसे कमाए. सूरत पुलिस ने मई के दूसरे सप्ताह में इस इंजेक्शन की कालाबाजारी करने के आरोप में अठवागेट के ट्राईस्टार अस्पताल में काम करने वाली नर्स हेतल रसिक कथीरिया, उस के पिता रसिक कथीरिया और डाटा एंट्री औपरेटर बृजेश मेहता को गिरफ्तार किया. ये लोग 40 हजार रुपए का इंजेक्शन करीब पौने 3 लाख रुपए में बेचते थे.

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इसी तरह अहमदाबाद पुलिस ने अप्रैल महीने के आखिर में एक ऐसे गिरोह को पकड़ा, जो रेमडेसिविर के नाम पर सौ रुपए की कीमत का ट्रेटासाइकल इंजेक्शन नकली स्टिकर लगा कर बेचता था. पुलिस ने इस गिरोह के 7 लोगों हितेश, दिशांत विवेक, नितेश जोशी, शक्ति सिंह, सनप्रीत और राज वोरा को गिरफ्तार किया. ये लोग अहमदाबाद के एक फाइवस्टार होटल हयात में बैठ कर ठगी का यह धंधा कर रहे थे.

इन के पास से ट्रेटासाइकल इंजेक्शन के डब्बे और रायपुर की एक कंपनी के नाम से रेमडेसिविर इंजेक्शन के नकली स्टिकर बरामद हुए. इस गिरोह ने अपने परिचितों और दोस्तों के संपर्क से गुजरात के अहमदाबाद, सूरत, राजकोट, वडोदरा, जामनगर और वापी जैसे बड़े शहरों में हजारों की तादाद में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन 4 से 10 हजार रुपए में बेचे थे.

जयपुर का अस्पताल निकला 2 कदम आगे

अब जयपुर की कहानी. राजस्थान की राजधानी जयपुर में पुलिस ने अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी में 6 लोगों को गिरफ्तार किया. इन से पूछताछ के बाद एक निजी अस्पताल के फार्मासिस्ट और एक दवा डिस्ट्रीब्यूटर सहित तीन लोगों को और पकड़ा गया. पता चला कि इन में फार्मासिस्ट शाहरुख कोरोना पौजिटिव होने के बावजूद अस्पताल में काम कर रहा था. जयपुर के 2 निजी अस्पतालों पर भी पुलिस ने काररवाई की.

राजस्थान के सब से बड़े सरकारी कोविड अस्पताल आरयूएचएस जयपुर में हाउसफुल का बोर्ड लगा कर पीछे के रास्ते से मरीजों को बैड बेचे जाने का खुलासा मई की 8 तारीख को हुआ. भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने इस काले सच को उजागर कर 23 हजार रुपए की रिश्वत लेते हुए दलाल नर्सिंग कर्मचारी को गिरफ्तार कर लिया.

नर्सिंग कर्मचारी ने 2 डाक्टरों के जरिए आईसीयू बैड दिलाने के लिए एक महिला मरीज से 2 लाख रुपए मांगे थे. सौदा एक लाख 30 हजार रुपए में तय कर 93 हजार रुपए पहले लिए जा चुके थे. इस बीच, महिला मरीज की मौत हो गई. इस के बाद भी नर्सिंग कर्मचारी यह कह कर पैसे मांग रहा था कि पैसा ऊपर तक जाएगा.

मई के पहले पखवाड़े में ही जयपुर में रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी में, निजी अस्पतालों के 3 नर्सिंग कर्मचारियों को गिरफ्तार किया. प्रशासन ने इस अस्पताल को सील कर दिया.

जयपुर पुलिस ने 11 मार्च को कोरोना मरीजों से धोखाधड़ी करने वाले शातिर लपका लालचंद जैन उर्फ कान्हा को गिरफ्तार किया. वह महंगे होटलों में रुकता ओर मरीजों के परिजनों को बड़े अस्पताल में भरती करवाने, औक्सीजन बैड दिलवाने और अच्छा इलाज करवाने के नाम पर हजारों रुपए ठगता था. वह इतना शातिर था कि मरीजों के परिजनों से ही गाड़ी मंगवा कर उस में घूमता और उन्हीं के पैसों से महंगी शराब मंगा कर पीता था.

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एक मोटे अनुमान के अनुसार, पूरे देश में कोरोना की दूसरी लहर में मरीजों से धोखाधड़ी के मामलों में अप्रैल और मई के महीने में 5 हजार से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए. सांसों के इन सौदागरों में कोई नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बना कर बेच रहा था तो कोई इन की कालाबाजारी कर रहा था. कोई औक्सीजन सिलेंडर सहित जीवन रक्षक मैडिकल उपकरणों की कालाबाजारी कर रहा था. एंबुलेंस वाले मरीज को लाने ले जाने के अलावा शव ले जाने के नाम पर बीस गुना तक ज्यादा पैसा वसूल रहे थे.

दिल्ली पुलिस ने मई के पहले पखवाड़े तक ऐसे जालसाजों के 214 बैंक अकाउंट सीज करा दिए थे.

इस के अलावा करीब 900 मोबाइल नंबरों को ब्लौक करवाया गया था. जालसाजों ने मरीजों के जीवन से खिलवाड़ करने के साथ कम गुणवत्ता वाली पीपीई किट, सैनेटाइजर, मास्क और ग्लव्स भी बना कर बाजार में खपा दिए.

मां-बाप ने 10,000 रुपए में बेचा बच्चा

आज के वक्त में जो मां- बाप ऐसा करते हैं उन्हें कलयुगी मां-बाप कहना ही ठीक होगा. बच्चें तो मां- बाप की जान होते हैं… कौन ऐसे मां-बाप होंगे जो अपने बच्चों को पैसों के लिए बेच दें लेकिन ऐसा हुआ. दरअसल ये घटना एक- दो दिन पहले की ही है और ये घटना ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर की है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, जिस महिला ने बच्चे को खरीदा है उस  महिला को बच्चे को खरीदने और अवैध रूप से गोद लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. पुलिस के मुताबिक अब तक बच्चे के माता-पिता का कुछ पता नहीं चला है. खारवेल नगर थाने के प्रभारी इंस्पेक्टर अरुण कुमार स्वैन ने कहा कि पुलिस ने एक एनजीओ के बताने पर बच्चे को रेस्क्यू किया. उन्होंने आगे बताया कि जिस माता-पिता ने अपने बच्चे को बेचा है, वे कूड़ा बीनते हैं. वहीं बच्चे को खरीदने वाली महिला सुमेदिन बीबी भी कूड़ा बीनने का काम करती हैं और बच्चे के जन्म के बारे में वो पहले से ही जानती थी. वो संतानहीन थी, इसलिए उसने उस दंपती को बच्चे को बेचने को कहा. बच्चे के पिता ने 10,000 रुपए देने को कहा,और फिर उस बच्चे का सौदा किया गया.

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एनजीओ ने बताया कि शुरु में  पूछताछ के बाद उन्हें यह पता चला कि बच्चे के पिता ने अपने ड्रग्स और शराब की लत को पूरा करने के लिए ये सौदा किया और अपने बच्चे को मात्र 10,000 में बेच दिया. सोच कर रूह कांप जाए कि भला कौन अपने बच्चे के साथ ऐसा करता है.

आपको ये जानकर और भी हैरानी होगी कि वो बच्चा मात्र 10 दिन का ही था. भुवनेश्वर में पुलिस ने एक एनजीओ के सहयोग से एक बेचे गए नवजात बच्चे को रेस्क्यू किया है. साथ ही पुलिस ने 10 दिन के बच्चे को खरीदने के लिए 42 साल की एक कूड़ा बीनने वाली महिला को गिरफ्तार किया है. रेस्क्यू के बाद बच्चे को भुवनेश्वर के सुभद्रा महताब सेवा सदन भेजा गया. बच्चे को 14 जून को खरीदा गया था.बच्चे के बेचे जाने की जानकारी पुलिस को देने वाले  एनजीओ बेनुधर सेनापति ऑफ चाइल्डलाइन ने बताया कि माता-पिता अपने बच्चे को बेचना चाहते थे, क्योंकि उनके पास सड़क पर गुजर-बसर करने को पैसे नहीं थे, एनजीओ ने बताया कि शुरुआती पूछताछ के बाद उन्हें यह पता चला कि बच्चे के पिता ने अपने ड्रग्स और शराब की लत को पूरा करने के लिए ये सौदा किया.

हालांकि ओडिशा में बच्चों को बेचे जाने की  ये घटना कोई पहली बार नहीं है. खबरों के मुताबिक 1980 और 90 के दशक में गरीबी के कारण कई लोग बच्चों की देखभाल नहीं कर पाते थें तो वो अपने बच्चे को बेच देते थे. ये घटनाएं तब भी होती थीं और आज भी हो रही हैं. पश्चिम ओडिशा के कालाहांडी और बोलांगीर जिले बच्चों को बेचे जाने की घटनाओं से भरे पड़े हैं. एक घटना तो काफी फेमस हुई थी और उस घटना ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया था.

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सन् 1985 में 2 साल की एक आदिवासी लड़की को मात्र 40 रुपए में बेच दिया गया था और उस वक्त ये घटना राज्य की गरीबी को लेकर केंद्र  में चर्चा का विषय बन गया थी. हालांकि सिर्फ ओडिशा ही नहीं बल्कि ऐसे कई राज्य हैं जहां गरीबी के कारण या पैसे के लालच के कारण बच्चों को बेच दिया जाता है या तो लावारिस छोड़ दिया जाता है. अभी कुछ दिन पहले ही एक खबर आई थी एक कुछ ही दिन की बच्ची को उसकी कुंडली के साथ एक बक्से में बंद कर के नदी में छोड़ दिया था. वो बच्ची एक नाविक परिवार को मिली और अब वो उसे गोद लेने के लिए अदालत से गुहार लगा रहे हैं.

शायद आज एक बार फिर से गरीबी और साथ ही बच्चे को बेचने का विषय केंद्र में उठाना चाहिए और सरकार को इस पर कोई कड़ा रुख अपनाना चाहिए ताकि बच्चों का भविष्य खराब ना हो क्योंकि यहां पर ज्यादातर लड़कीयां ऐसी होती हैं जिन्हें लावारिस छोड़ देने पर उन्हें कोठे या विदेशों में बेच दिया जाता है. ये चिंता का विषय है आखिर क्या है उनका भविष्य ?

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सौजन्य- मनोहर कहानियां

पिछले साल कोरोना त्रासदी से सबक लेते हुए दुनिया के अधिकांश देशों ने इस बीमारी से भविष्य में निपटने के पुख्ता इंतजाम कर लिए थे. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबक लेने के बजाए विभिन्न राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी को जिताने की योजनाएं बनाते रहे. इस से लोगों के मन में एक ही सवाल उठ रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर में बरती गई उन की उदासीनता उन की किसी योजना का हिस्सा तो नहीं है…

इस साल कोरोना की दूसरी लहर ने पूरे देश में कहर ढहाया. मरीजों को न दवाएं मिलीं न ही अस्पताल में बैड. चिकित्सा उपकरण भी नसीब नहीं हुए. इलाज नहीं मिलने से मरीज तड़प कर दम तोड़ते रहे. लाशों की कतारें लग गईं. कोरोना काल का यह संकट आजादी के बाद का सब से भयावह था.

21वीं सदी के इस सब से भयावह संकट काल में इस साल मार्चअप्रैल के महीने में जब देश में कोरोना वायरस अपना फन फैला रहा था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा नीत सरकार 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सत्ता हासिल करने की कोशिशों में जुटी थी. मोदीजी का सब से बड़ा सपना पश्चिम बंगाल में भगवा झंडा फहराने का था. इस के लिए प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री अमित शाह और तमाम दूसरे प्रमुख नेता बंगाल में डेरा डाल कर रैलियां और चुनावी सभाएं कर रहे थे.

कोरोना का वायरस फलफूल रहा था. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस महामारी का भयानक रूप नजर नहीं आ रहा था. इस का नतीजा यह हुआ कि जिम्मेदार नौकरशाही भी लापरवाह हो गई. सरकारी और निजी अस्पतालों में मरीजों की भीड़ बढ़ती जा रही थी. मरीजों की जान बचाने के संसाधन कम पड़ते गए. हालात यह हो गए कि अस्पतालों में मरीजों के लिए बैड ही नहीं मिल रहे थे. आईसीयू बैड, वेंटिलेटर और औक्सीजन तो दूर की बात थी. मरीज अस्पतालों के बाहर और फर्श पर भी दम तोड़ रहे थे.

मोदी सरकार इस भयावह दौर में राजनीति करती रही. प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी चुनावी रैलियां तब रोकीं, जब बंगाल में चौथे चरण के मतदान हो रहे थे. केवल पांचवें चरण के मतदान बाकी थे. इस बीच पूरे देश में हालात बेकाबू हो चुके थे. विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से चिकित्सा संसाधनों की गुहार लगाते रहे, लेकिन केंद्र सरकार को यह सुनने की फुरसत ही नहीं थी.

देश में इस बीच सांसों के सौदागरों की नई फौज खड़ी हो गई. कोरोना मरीजों के लिए जीवनरक्षक समझे जाने वाले रेमडेसिविर इंजेक्शनों और औक्सीजन सिलेंडरों की कालाबाजारी शुरू हो गई. संकट के दौर में धंधेबाजों ने पैसा कमाने के नएनए तरीके खोज निकाले. मरीजों के परिजनों से जालसाजी और धोखाधड़ी होती रही. लोगों ने नकली इंजेक्शन बनाने की फैक्ट्रियां लगा लीं. कोरोना से बचाव के काम आने वाली पीपीई किट, सैनेटाइजर, मास्क और ग्लव्ज भी निम्न गुणवत्ता के आ गए.

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कोरोना मरीजों के लिए औक्सीजन मिलनी मुश्किल हो गई. देशभर में औक्सीजन वितरण का जिम्मा मोदी सरकार ने अपने हाथ में ले लिया. औक्सीजन बांटने में भी राजनीति की गई. भाजपाशासित राज्यों को जरूरत से ज्यादा औक्सीजन आवंटित की जाती रही और कांग्रेस व दूसरे दलों के शासन वाले राज्यों से भेदभाव किया जाता रहा. इस का नतीजा यह हुआ कि औक्सीजन का संकट पैदा होने से मरीजों की जानें जाती रहीं.

वैक्सीन पर चली राजनीति

वैक्सीन को लेकर अभी तक राजनीति चल रही है. 45 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए केंद्र सरकार ने इस साल की शुरुआत में राज्यों को टीका देने की हामी भर ली, लेकिन राज्यों को पर्याप्त टीका ही नहीं मिला. लोगों की जान बचाने के लिए 18 साल से अधिक उम्र के लोगों को भी टीके लगाने का फैसला केंद्र सरकार ने ले लिया, लेकिन केंद्र सरकार ने इन टीकों के खर्च की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी.

हजारों करोड़ रुपए का बोझ बढ़ने से राज्य सरकारों की आर्थिक हालत पतली होने लगी है. खास बात यह रही कि देश की जनता से टैक्स के रूप में वसूले गए पैसों से वैक्सीनेशन हो रहा है और सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो लगी हुई है.

अफसोस की बात यह भी रही कि मोदीजी ने अपनी दोस्ती निभाने और अपना नाम चमकाने और वाहवाही लूटने के लिए भारत के लोगों के हिस्से की वैक्सीन दूसरे देशों को भेज दी. लेकिन जब देश में त्राहित्राहि होने लगी तो सरकार को दूसरे देशों से मदद लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. अब पूरे देश में टीके का टोटा हो रहा है. लोगों को समय पर टीका नहीं लगने से कोरोना का खतरा कम नहीं हो रहा है.

अभी कोरोना की तीसरी लहर की चेतावनी दी जा रही है. अगर तीसरी लहर आई, तो बच्चों पर इस का सब से ज्यादा असर होने की आशंका जताई जा रही है. इस बीच, मई के पहले सप्ताह से उत्तर प्रदेश में गंगा और यमुना सहित दूसरी नदियों के तटों पर सैकड़ों की संख्या में लाशें मिलने लगीं. इन लाशों को देख कर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोरोना से दम तोड़ने वालों की लाशें जमीन में दफन कर दी गई या नदियों में बहा दी गई.

पिछले साल कोरोना से पहली बार भारत सहित पूरी दुनिया के लोगों का परिचय हुआ. कोरोना की इस पहली लहर को उस समय लौकडाउन कर के कुछ हद तक काबू कर लिया गया. हालांकि इस से देश की जनता के आर्थिक हालात बिगड़ गए.

ये हालात ठीक होते, इस से पहले ही कोरोना की दूसरी लहर आ गई. इस बीच, एक साल के दौरान मोदी सरकार ने कोई सबक नहीं लिया. चिकित्सा संसाधन नहीं बढ़ाए गए. इस बार मोदी सरकार लापरवाह बनी रही. इस का नतीजा सब के सामने है.

इस से ज्यादा अफसोस की बात क्या होगी कि केंद्र सरकार का मंत्री सोशल मीडिया पर अपने रिश्तेदार के लिए किसी अस्पताल में बैड दिलाने की गुहार करता रहा. मंत्रियों और सांसदों के कहने पर भी अस्पतालों में मरीजों को बैड नहीं मिले. मोदी सरकार कोरोना पर काबू पाने के लिए अब कुएं खोदने की तैयारी कर रही है, लेकिन अब क्या फायदा, चिडि़या तो खेत चुग चुकी. क्योंकि देश में हजारोंलाखों लोग अपने परिजनों को खो चुके.

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कोरोना संकट के बीच, मई के महीने में ब्लैक फंगस के मामले एकाएक बढ़ गए. इस ने लोगों की चिंता और बढ़ा दी थी. महामारी के दौर में सामने आई केंद्र सरकार की लापरवाही को ले कर पूरी दुनिया में भारत की किरकिरी होने लगी थी. और तो और मोदी के कट्टर समर्थक भी विरोध में उतर आए थे.

लुटेरे हो गए सक्रिय

खतरा अभी टला नहीं था. लुटेरों के रूप में सामने आए सांसों के सौदागरों ने ऐसी लूटखसोट शुरू कर दी, जिन से लोग भी परेशान हो गए. दिल्ली से जयपुर तक और लखनऊ से अहमदाबाद तक, सभी जगह इन सौदागरों ने कोरोना मरीजों से ठगी के नएनए हथकंडे अपनाए थे.

दिल्ली में कोरोना के नाम पर सब से ज्यादा ठगी की वारदातें हुईं. देश का आम आदमी सोचता है कि दिल्ली में बड़ेबड़े और नामी अस्पताल हैं. इन में अच्छा इलाज होता होगा, लेकिन कोरोना काल में हालात बिलकुल उलट रहे. सरकारी अस्पतालों में तो सामान्य मरीजों को छोडि़ए, मंत्रियों और अफसरों को भी कोरोना मरीजों के लिए बैड नहीं मिले, अस्पतालों में सुविधाओं की बातें तो दूर रहीं.

अस्पताल वालों के अलावा ठगों और जालसाजों ने कोरोना से जूझ रहे मरीजों के परिवार वालों से पैसे ठगने के नए से नए तरीके निकाल लिए थे. मरीजों के लिए जरूरी उपकरणों की कालाबाजारी करने वालों ने लोगों को जम कर लूटा.

दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने अप्रैल के आखिरी सप्ताह में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बनाने वाली एक फैक्ट्री पकड़ी. यह फैक्ट्री उत्तराखंड के कोटद्वार में चल रही थी. इसे सील कर दिया गया. इस मामले में एक महिला सहित 7 लोगों को गिरफ्तार किया गया. इन से बड़ी संख्या में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन की भरी और खाली शीशियां, पैकिंग मशीन, पैकिंग मटीरियल, स्कौर्पियो गाड़ी सहित दूसरे वाहन जब्त किए गए.

इस फैक्ट्री का पता भी मुश्किल से चला. कोरोना संक्रमण के बढ़ते प्रकोप के बीच अप्रैल में जब जीवन रक्षक दवा के तौर पर रेमडेसिविर इंजेक्शन की मांग पूरे देश में तेजी से बढ़ी, तो इस की कालाबाजारी की सूचनाएं पुलिस को मिलने लगी थीं.

क्राइम ब्रांच की टीम ने महरौली बदरपुर रोड पर स्थित संगम विहार से 23 अप्रैल को 2 लोगों मोहम्मद शोएब खान और मोहन कुमार झा को पकड़ा. इन के पास कुछ इंजेक्शन मिले. इन से पता चला कि बड़े शहरों में ये इंजेक्शन 40 से 50 हजार रुपए तक में बेचे जा रहे हैं.

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दिल्ली पुलिस ने की गिरफ्तारियां

इन से पूछताछ के आधार पर 25 अप्रैल को यमुना विहार से मनीष गोयल और पुष्कर चंदरकांत को पकड़ा गया. इन से पता चलने पर एक इवेंट मैनेजर साधना शर्मा को गिरफ्तार किया. इन तीनों से भी बड़ी संख्या में ये इंजेक्शन बरामद हुए. फिर 27 अप्रैल को हरिद्वार से वतन कुमार सैनी को पकड़ा. वतन बीफार्मा और एमबीए डिग्रीधारी है. उस के घर से पैकिंग मशीन, खाली शीशियां, पैकिंग मटीरियल आदि सामान मिला. वतन कुमार से पूछताछ के बाद रुड़की से आदित्य गौतम को गिरफ्तार किया गया.

कौमर्स ग्रैजुएट आदित्य गौतम फार्मेसी से जुड़ा काम करता है. उस ने हजारों की संख्या में बायोटिक इंजेक्शन की शीशियां खरीदीं. इन इंजेक्शनों की शीशियों पर कोटद्वार की फैक्ट्री में रेमडेसिविर के लेबल लगवाए.

पुलिस ने उस की निशानदेही पर एक मशीन, लेबल तैयार करने के काम लिया कंप्यूटर और नकली इंजेक्शन की शीशियां बरामद कीं. इन लोगों ने बाकायदा अपना नेटवर्क बना रखा था, जिस के जरिए ये जरूरतमंदों से मोटी रकम ले कर उन्हें नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन देते थे.

इसी तरह दिल्ली पुलिस ने औक्सीजन कंसंट्रेटर की कालाबाजारी का बड़ा मामला पकड़ा. दक्षिणी जिला पुलिस ने मई के पहले सप्ताह में लोधी कालोनी के सेंट्रल मार्केट में एक रेस्तरां बार ‘नेगे एंड जू बार’ में छापा मार कर 32 औक्सीजन कंसंट्रेटर के बौक्स बरामद किए. एक बौक्स में थर्मल स्कैनर और एन-95 मास्क मिले. पुलिस ने वहां से 4 लोगों रेस्तरां के मैनेजर हितेश के अलावा सतीश सेठी, विक्रांत और गौरव खन्ना को पकड़ा.

मगरमच्छों तक पहुंची पुलिस

इन से पूछताछ के आधार पर छतरपुर के मांडी गांव स्थित खुल्लर फार्महाउस में एक गोदाम पर छापा मारा. यहां से 398 औक्सीजन कंसंट्रेटर बरामद हुए. पूरे देश में कोरोना मारामारी के बीच पकड़े गए करीब 4 करोड़ रुपए कीमत के ये औक्सीजन कंसंट्रेटर कालाबाजारी से बेचे जा रहे थे.

पूछताछ में पता चला कि इस रेस्टोरेंट का मालिक नवनीत कालरा है. कालरा दिल्ली का प्रसिद्ध व्यवसाई है. पेज थ्री सोसायटी से जुड़े रहने वाले दलाल के कई फिल्मी सितारों और क्रिकेटरों से अच्छे संबंध हैं. वह होटल खान चाचा, नेगे एंड जू बार, टाउनहाल रेस्ट्रो बार, मिस्टर चाऊ के अलावा दयाल आप्टिकल्स से जुड़ा हुआ है.

वह इन रेस्टोरेंट की आड़ में औक्सीजन कंसंट्रेटर की कालाबाजारी कर रहा था. गिरफ्तार आरोपियों से पूछताछ के आधार पर पुलिस ने कालरा के खान मार्केट के मशहूर रेस्टोरेंट ‘खान चाचा’ से 96 कंसंट्रेटर और बरामद किए. पता चला कि कालरा ने ये कंसंट्रेटर लंदन में रहने वाले अपने दोस्त गगन दुग्गल की कंपनी मैट्रिक्स सेल्युलर के संपर्कों की मदद से यूरोप और चीन से मंगवाए थे. गिरफ्तार गौरव खन्ना गगन की कंपनी का सीईओ और चार्टर्ड अकाउंटेंट है.

कोरोना का कहर शुरू होने और मांग बढ़ने पर कालरा ने बड़ी संख्या में कंसंट्रेटर बेच भी दिए थे. पुलिस ने कालरा की तलाश में उस के ठिकानों पर छापे मारे, लेकिन सेंट्रल मार्केट में छापे की सूचना मिलने के बाद ही वह 2 लग्जरी गाडि़यों से परिवार के कुछ लोगों के साथ फरार हो गया.

पुलिस ने उस की तलाश में दिल्ली और उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में भी छापे मारे. कोई सुराग नहीं मिलने पर पुलिस ने कालरा के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी कर दिया.

पुलिस को आशंका थी कि कालरा विदेश भाग सकता है. इस बीच, कालरा ने गिरफ्तारी से बचने के लिए दिल्ली की एक अदालत में अग्रिम जमानत की अरजी लगा दी. यह अरजी खारिज हो गई. बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी कालरा की गिरफ्तारी पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. बाद में कालरा को 17 मई, 2021 को दिल्ली पुलिस ने गुड़गांव से गिरफ्तार कर लिया.

विदेशी महिला भी हुई गिरफ्तार

दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने ही देश भर में औक्सीजन सिलेंडर के नाम पर लोगों से धोखाधड़ी करने वाले मेवाती गिरोह के इमरान को राजस्थान के भरतपुर जिले से गिरफ्तार किया

यूं तो दिल्ली पुलिस ने कोरोना काल में लोगों से दवाओं और इंजेक्शन के नाम पर धोखाधड़ी करने और कालाबाजारी के मामलों में सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया है. खास बात यह है कि इस में महामारी के इस दौर में अमानवीय बन कर मुनाफाखोरी करने में विदेशी भी पीछे नहीं रहे.

दिल्ली की शाहबाद डेयरी थाना पुलिस ने कैमरून की रहने वाली एक विदेशी महिला अश्विनगवा अशेलय अजेंबुह को गिरफ्तार किया. वह इंजेक्शन देने के पर दरजनों लोगों से लाखों रुपए की ठगी कर चुकी थी. पुलिस ने उस के दरजन भर बैंक खाते भी सीज करा दिए. दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने 16 मई, 2021 को 2 विदेशी जालसाज चीका बैनेट और जोनाथन को गिरफ्तार किया. इन में एक नाइजीरिया और दूसरा घाना का रहने वाला है. इन्होंने देश भर में करीब एक हजार लोगों से कोरोना की दवा और औक्सीजन के नाम पर 2 करोड़ रुपए की ठगी की थी. इन से 22 मोबाइल फोन, 165 सिमकार्ड, 5 लैपटौप और बड़ी मात्रा में डेबिट कार्ड बरामद हुए. इन के करीब 20 बैंक खाते भी मिले हैं.

दिल्ली पुलिस के सामने ऐसा ही एक और मामला भी आया, जिस में ठग ने देश भर में साइबर ठगी की यूनिवर्सिटी के नाम पर विख्यात झारखंड के जामताड़ा से ठगी की ट्रेनिंग ली थी.

कोरोना संकट में औक्सीजन सिलेंडर दिलाने के नाम पर ठगी करने वाले गिरोह के 4 बदमाशों को पुलिस ने गिरफ्तार किया. इन में यूपी के फर्रुखाबाद का रहने वाला रितिक, गुरुग्राम निवासी योगेश सिंह, मोहम्मद आरजू और रवीश शामिल थे. इन से 4 मोबाइल, 16 सिमकार्ड, एक लैपटौप, 2 बाइक, एक स्कूटर और कुछ दस्तावेज बरामद किए गए.

इस गिरोह ने देश भर के लोगों से औनलाइन ठगी की वारदात की. दिल्ली में संत नगर, करोलबाग निवासी एक शख्स ने इन के खिलाफ करोलबाग में मुकदमा दर्ज कराया था. इस में रवीश ने जामताड़ा से साइबर ठगी की ट्रेनिंग ली थी.

क्यों होती है ऐसी बेरहमी

लेखक-  डा. पुलकित शर्मा

हर किसी के मन में यह सोच घर कर चुकी है कि बच्चे अपने घरों में महफूज रहते हैं. चूंकि मांबाप उन के आदर्श होते हैं, इसलिए वे उन पर सब से ज्यादा यकीन करते हैं, पर यह भी कड़वी हकीकत है कि बहुत से मांबाप अपने बच्चों को निजी जायदाद समझ लेते हैं. वे मान लेते हैं कि बच्चा पैदा कर दिया है, तो वे किसी भी रूप में उस का इस्तेमाल कर सकते हैं.

हम कितनी ही खबरें सुनते हैं कि किसी मांबाप ने अपनी बेटी को किसी जानपहचान वाले या अजनबी को पैसों की खातिर बेच दिया. इतना ही नहीं, धर्म से जुड़े वाहियात अंधविश्वास के चलते बच्चों की बलि दे दी जाती है.

भारत के कुछ हिस्सों में तो जोगिनी या आदिवासी जैसी गलत प्रथाओं के नाम पर देवीदेवताओं को बच्चों को सौंप दिया जाता है. घर में बच्चों की पिटाई होना तो देश में जैसे एक आम बात हो गई है.

इस सिलसिले में मनोवैज्ञानिक डाक्टर पुलकित शर्मा ने बताया, ‘‘आजकल ऐसे केस बहुत आते हैं, जब मांबाप अपने बच्चों के बेवजह गुस्सा होने की बात कहते हैं. पर जब बच्चों से बात की जाती है, तो वे अकेले में अपने मांबाप पर भड़ास निकालते हैं.

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‘‘वे बताते हैं कि किस तरह घर पर उन के साथ बहुत ज्यादा गलत बरताव होता है. वे पूरी खुंदक निकालते हैं, गालियां देने तक से भी नहीं चूकते हैं.

‘‘जहां तक किसी मां के बेरहम होने की बात है, तो बहुत बार वह पिता से ज्यादा गुस्सैल हो सकती है. ठाणे वाले केस में हीना शेख को अपने बच्चे या पति से कोई मतलब नहीं है. उसे किसी  भी कीमत पर अपनी जिंदगी सुख से भरी देखनी है.

‘‘पति से पैसों की डिमांड बढ़वाने के लिए उस ने बच्चे को पीटने का वीडियो तक बना डाला. इस से पता चलता है कि उसे अपने सुख से मतलब है.

‘‘इतना ही नहीं, लोगों में सहने की ताकत भी कम होती जा रही है. पहले मांबाप अपने बच्चों को मारते थे, तो उन में दया का भाव भी बहुत ज्यादा होता था. लेकिन अब नई पीढ़ी में यह दया भाव कम होता जा रहा है.

‘‘मां भी इस से अछूती नहीं है. बच्चे ने जरा सा कुछ गलत किया नहीं कि हाथ उठा दिया जाता है. फिर यह धीरेधीरे आदत बन जाती है.

‘‘इस का नतीजा बहुत बार भयंकर होता है. बच्चे ढीठ हो जाते हैं. वे अपने मांबाप से नफरत करने लगते हैं. कभीकभार तो जुर्म के रास्ते पर चल  देते हैं.

‘‘ऐसे हालात से बचने के लिए खुद पर काबू रखना बहुत जरूरी है. बच्चे  की गलती पर उन्हें समझाएं या जरूरत पड़ने पर डांट दें, पर उन पर हाथ उठाने से बचें.’’

दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी की लैक्चरर डाक्टर जया शर्मा ने इस मुद्दे की परतें खोलते हुए बताया, ‘‘इस समस्या के कई सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू हैं.

‘‘भौतिकवाद के बढ़ते पंजे ने लोगों को रुपएपैसे के लालच में इतना जकड़ लिया है कि पैसे के आगे सारे रिश्ते फीके लगने लगते हैं. फिर आप किसी के लिए इतना ज्यादा नफरत का भाव रखने लगते हैं कि मांबच्चे का रिश्ता भी तारतार होते देर नहीं लगती है.

‘‘कई बार घर में अपना दबदबा बनाने के लिए भी बच्चों के साथ मारपिटाई के किस्से होते रहते हैं. अगर औरत पढ़ीलिखी नहीं है तो उस में कमतर होने का भाव जाग जाता है. खूबसूरत न होना भी उस में कुंठा भर देती है.

‘‘अगर बच्चा पढ़ाई को ले कर ज्यादा जागरूक रहता है तो कई बार मां को वह बात भी सहन नहीं होती है. इस का नतीजा बच्चे की पिटाई होता है.

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‘‘जहां तक सौतेलेपन का बरताव है, तो इस समस्या को एक उदाहरण से समझते हैं. एक आईएएस अफसर की पहली पत्नी की बेटी को उन की वर्तमान पत्नी देखना तक पसंद नहीं करती है. वह लड़की अपनी नानी के घर रहती है. उस की नई मां अपने पति से भी उसे मिलने नहीं देती है.

‘‘नफरत का आलम यह है कि जब नई मां के बेटी हुई और उस का नामकरण था तो पति महोदय को यह सख्त हिदायत दे दी गई थी कि उस के नाम में इंगलिश का ‘एन’ अक्षर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उस लड़की का नाम ‘एन’ से शुरू होता था.

‘‘यहां भी यह बात साबित होती है कि वह नई मां उस बच्ची को घर से इसलिए दूर रखना चाहती है, ताकि भविष्य में उस की पढ़ाईलिखाई, शादी के खर्चे वगैरह न उठाने पड़ें.’’

नोवाक जोकोविच: खिताब के साथ दिल भी जीता

आज के महान लौन टैनिस खिलाड़ी नोवाक जोकोविच के बारे में बात करने से पहले साल 1995 के उस ऐतिहासिक मैच की बात करते हैं, जिस ने हर दर्शक को इमोशनल कर दिया था. आस्ट्रेलियन ओपन टूर्नामैंट का वह क्वार्टर फाइनल मैच पीट संप्रास और जिम कोरियर के बीच खेला गया था, जो तब के दिग्गज खिलाड़ी माने जाते थे.

अगर स्वभाव की बात करें तो हम पीट संप्रास को ‘लौन टैनिस का सचिन तेंदुलकर’ कह सकते हैं, जो कोई फंसा हुआ पौइंट जीतने के बाद भी ज्यादा खुश नहीं हुआ करते थे, पर उस मैच में वे किसी बच्चे की तरह फूटफूट कर रोए थे, लेकिन अपनी हार पर नहीं, बल्कि वह मैच तो उन्होंने बड़े ही शानदार तरीके से जीता था और शायद अपनी जिंदगी का सब से बेहतरीन खेल उस में दिखाया था.

अब आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हाई वोल्टेज ड्रामा उस हरे मैदान पर हुआ था. दरअसल, शुरुआत में वह मैच जिम कोरियर की झोली में गिरता दिखाई दिया था, क्योंकि पहले 2 सैट वे 7-6 और 7-6 से जीत चुके थे और तीसरा सैट जीतते ही वे पीट संप्रास को टूर्नामैंट से बाहर कर देते.

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लेकिन पहले 2 सैट हारने के बाद पीट संप्रास ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी और अगले 2 सैट 6-3 और 6-4 से अपने नाम कर लिए. पर जैसे ही 5वां और फाइनल सैट शुरू हुआ, तो अपनी सर्विस के साथसाथ पीट संप्रास लगातार रोते दिखाई दिए. इतना ज्यादा कि वे कभी अपने दाएं कंधे से आंसू पोंछते तो कभी बाएं कंधे से. मैच के बीच में आंसुओं की बहती धार को रोकने के लिए उन्होंने अपना तौलिया भी इस्तेमाल किया. तब तक दर्शक भी गमगीन हो गए थे, पर समझ नहीं पाए थे कि माजरा क्या है.

दरअसल, इस टूर्नामैंट से कुछ समय पहले ही पीट संप्रास के कोच टिम गुलकिसन को ब्रेन ट्यूमर होने की खबर आई थी, जिस से पीट संप्रास बहुत दुखी थे. पर जिम कोरियर से 2 सैट हारने के बाद किसी दर्शक ने चिल्ला कर पीट संप्रास से कहा था, “कम औन पीट, अपने कोच की खातिर यह मैच जीत लो…”

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शायद इसी वजह से पीट संप्रास में जीत की प्रेरणा जागी होगी और वे उस मैच में बेहतर से और ज्यादा बेहतर होते गए. उन्होंने 5वां सैट भी 6-3 से अपने नाम कर वह मैच और दर्शकों का दिल जीत लिया था.

अब आज की बात करते हैं. हाल ही में लौन टैनिस के शानदार सितारे नोवाक जोकोविच ने फ्रैंच ओपन टूर्नामैंट के फाइनल मुकाबले में यूनान के स्टेफानोस सितपितास को हरा कर खिताब जीता. इस जीत के बाद उन्होंने मैच देखने आए एक बच्चे को अपना रैकेट पकड़ा दिया. उस बच्चे को मानो कुबेर का धन मिल गया और मारे खुशी के वह नाचने लगा.

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आप यह सोच कर हैरान हो रहे होंगे कि आखिर नोवाक जोकोविच ने उस छोटे से बच्चे में ऐसा क्या देखा कि अपना फ्रैंच ओपन खिताब जिताने वाला रैकेट ही उसे पकड़ा दिया?

नोवाक जोकोविच ने मैच के बाद अपनी प्रैस कौंफ्रैंस में इस बात का खुलासा किया और बताया, “मैं उस लड़के को नहीं जानता, लेकिन वह पूरे मैच के दौरान मेरे कान में घुसा रहा. खासतौर से तब, जब मैं 2 सैट के बाद भी पिछड़ रहा था. वह लगातार मेरा जोश बढ़ा रहा था, साथ ही वह मुझे रणनीति भी सुझा रहा था. वह कहता था कि ‘अपना सर्व रोको’, ‘एक ईजी फर्स्ट बाल मिलने के बाद दबदबा बनाओ’.

“वह सच में मुझे कोचिंग दे रहा था और मुझे यह बेहद क्यूट और अच्छा लगा. सर्वश्रेष्ठ इनसान को रैकेट देना… और यह वही था. मेरा सपोर्ट करने और मेरे साथ बने रहने के लिए मैच के बाद उसे अपना रैकेट देना मेरे लिए शुक्रिया अदा करना जैसा था.”

इस फाइनल मैच में नोवाक जोकोविच अपने पहले 2 मुकाबले 6-7 (6-8) और 2-6 से हार चुके थे, पर बाकी के 3 मुकाबले उन्होंने 6-3, 6-2 और 6-4 से अपने नाम किए.

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पीट संप्रास और नोवाक जोकोविच जैसे महान खिलाड़ियों को उन 2 अनजान लोगों ने तकरीबन हारा हुआ मैच जीतने की प्रेरणा दी, जो शायद ही इस खेल की बारीकियों को समझते हों, पर उन के जोश से भरे वाक्यों ने मैच का रुख ही बदल दिया.

पीट संप्रास अपने कोच की बीमारी से विचलित थे तो नोवाक जोकोविच भी फाइनल मुकाबला हार रहे थे. पर भीड़ से आए कुछ प्रेरणादायक शब्दों ने उन के भीतर के खिलाड़ी को समझाया कि हारने से पहले ही हार मान लेना किसी भी नजरिए से समझदारी नहीं है.

जीत के बाद नोवाक जोकोविच ने तो अपने ‘नन्हे कोच’ को रैकेट दे कर खुश भी कर दिया और यह खुशी उस बच्चे को उम्रभर याद रहेगी.

खेल: दिग्गज खिलाड़ी भी जूझते हैं तनाव से

कहते हैं कि खेलकूद आप के मानसिक तनाव को दूर करने में मददगार साबित होता है और शरीर से भी सेहतमंद रखता है. पर क्या हर बार ऐसा ही सच होता है? जी नहीं, तभी तो क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने यह कह कर सब को चौंका दिया है कि अपने 24 साल के क्रिकेट कैरियर के एक बड़े हिस्से को उन्होंने तनाव में रहते हुए गुजारा.

सचिन तेंदुलकर ने अपने खेल जीवन को ले कर एक बड़ी बात कही, ‘‘समय के साथ मैं ने महसूस किया कि खेल के लिए शारीरिक रूप से तैयारी करने के साथसाथ आप को खुद को मानसिक रूप से भी तैयार करना होगा. मेरे दिमाग में मैदान में जाने से बहुत पहले मैच शुरू हो जाता था. तनाव का लैवल बहुत ज्यादा रहता था.

‘‘मैं ने 10-12 सालों तक तनाव महसूस किया था. मैच से पहले कई बार ऐसा हुआ था, जब मैं रात में सो नहीं पाता था. बाद में मैंने यह स्वीकार करना शुरू कर दिया कि यह मेरी तैयारी का हिस्सा है.

‘‘मैं ने समय के साथसाथ इसे स्वीकार कर लिया कि मुझे रात में सोने में परेशानी होती थी. मैं अपने दिमाग को सहज रखने के लिए कुछ और करने लगता था. इस कुछ और में बल्लेबाजी की प्रैक्टिस, टैलीविजन देखना और वीडियो गेम खेलने के अलावा सुबह की चाय बनाना भी शामिल था.’’

इतना ही नहीं, सचिन तेंदुलकर ने आगे कहा कि खिलाड़ी को बुरे समय का सामना करना पड़ता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह उसे स्वीकार करे.

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उन्होंने बताया, ‘‘जब आप चोटिल होते हैं, तो डाक्टर या फिजियोथैरेपिस्ट आप का इलाज करते हैं. मानसिक स्वास्थ्य के मामले में भी ऐसा ही है. किसी के लिए भी अच्छेबुरे समय का सामना करना सामान्य बात है. इस के लिए आप को चीजों को स्वीकार करना होगा. यह सिर्फ खिलाडि़यों के लिए नहीं है, बल्कि जो उस के साथ है, उस पर भी लागू होती है.’’

सचिन तेंदुलकर, जिन्हें भारत में ‘क्रिकेट का भगवान’ कहा जाता है, जब वे इतनी गंभीर बात को इतनी आसानी से स्वीकार लेते हैं, तो समझ जाना चाहिए कि ऐसा समय हर किसी की जिंदगी में आता है, जब उस की रातों की नींद उड़ जाती है, फिर चाहे वह खिलाड़ी हो या कोई छात्र या फिर कोई और भी.

इसी सिलसिले में भारत के तेजतर्रार ओलिंपियन मुक्केबाज और ‘अर्जुन अवार्ड’ विजेता अखिल कुमार ने बताया, ‘‘मैं तो नाम के ‘खिलाड़ी’ की बात सुन कर हैरान रह जाता हूं, जो यह दावा करते हैं कि वे रात के साढ़े 7 बजे खाना खा कर 10 बजे से पहले सो भी जाते हैं. सचिन तेंदुलकर ने ईमानदारी से अपनी बात सब के सामने रखी है और हर खिलाड़ी के सामने यह समस्या आती ही होगी.

‘‘मैं खुद अपने गेम से पहले सो नहीं पाता था. यह कोई डर नहीं होता था कि अगले दिन सामने वाला मुक्केबाज मुझे हरा देगा, बल्कि मेरे खयालों में यही सब रहता था कि मुझे कैसे कल को अपना सब से बेहतर खेल दिखाना है. कौन सा खिलाड़ी सामने होगा और उस के आगे किस तरह की रणनीति अपनानी होगी.

‘‘मेरा मानना है कि सपने वे नहीं हैं, जो हम सोते हुए देखते हैं. सपने तो वे हैं, जो हमें सोने ही न दें. अगर कोई इनसान अपने जीवन में लक्ष्य ले कर चल रहा है, तो उस लक्ष्य को पूरा कर के ही वह चैन की नींद लेगा. पुराने समय में युद्ध में भी शाम होते ही उसे रोकने का बिगुल बजा दिया जाता था. पर इस का मतलब यह नहीं था कि राजा और उस के सेनापति चैन की नींद सो जाते थे. वे अगले दिन की योजनाएं बनाते थे.

‘‘हां, इतना जरूर है कि बतौर खिलाड़ी इस मानसिक तनाव को ज्यादा बढ़ने नहीं देना चाहिए. कुछ ऐसा करते रहना चाहिए, जिस से आप में पौजिटिविटी बढ़े, फिर वह कोई भी काम हो सकता है.’’

फिल्म ‘दंगल’ के लिए सुपरस्टार आमिर खान और दूसरे कलाकारों को कुश्ती सिखाने वाले ‘अर्जुन अवार्ड’ विजेता और टीम इंडिया के स्टार पहलवान रहे कृपाशंकर बिश्नोई, जो अब कोच और रैफरी भी हैं, ने बताया, ‘‘अकसर देखा गया है कि महान खिलाड़ी बेहतर खेल प्रदर्शन के दबाव में या नाम के मुताबिक अच्छा प्रदर्शन करने के बढ़ते दबाव के चलते डिप्रैशन में आ जाते हैं. यह तब ज्यादा होता है, जब खिलाड़ी की उम्र के साथसाथ उपलब्धियां भी बढ़ती जाती हैं और लोग उन से बहुत सारी उम्मीदें जोड़ लेते हैं.

‘‘इस बात का खिलाडि़यों को भी एहसास होता है. इस के साथ ही उन में तनाव बढ़ जाता है, जिस के चलते उन की नींद उड़ जाती है, जो उन के खेल प्रदर्शन को भी प्रभावित करता है. लिहाजा, तनाव को कम करने के लिए मनोचिकित्सक की मदद लेना बहुत जरूरी हो जाता है.’’

सचिन तेंदुलकर की बात से इत्तिफाक रखने वाली भारतीय हौकी टीम की सदस्य मोनिका मलिक का मानना है, ‘‘मुझे लगता है कि ज्यादातर खिलाडि़यों के सामने यह समस्या आती है, क्योंकि मैं खुद भी बड़े टूर्नामैंट के क्वार्टर फाइनल, सैमीफाइनल और फाइनल मैच को ले कर बहुत ज्यादा सोचती हूं और इसी चक्कर में मुझे नींद नहीं आती है.’’

‘अर्जुन अवार्ड’ विजेता और ओलिंपिक खेलों में भारत की नुमाइंदगी कर चुके मुक्केबाज मनोज कुमार ने अपने अनुभव से बताया, ‘‘एक अच्छा मुक्केबाज, जो मानसिक तौर पर मजबूत है, टूर्नामैंट से पहले समय पर सोएगा और अगले दिन समय पर जागेगा, क्योंकि मुक्केबाज को एक नींद लेना जरूरी होता है, लेकिन ज्यादा देर तक सोने से मुक्केबाज का शरीर रिंग में स्लो भी हो सकता है.

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‘‘पर, यह भी सच है कि टूर्नामैंट के दौरान या मैच से पहले हर मुक्केबाज के मन में एक जोश रहता है. जब वह मुक्केबाजी के रिंग में जा रहा होता है, तब उस के दिमाग में बहुतकुछ चल रहा होता है. ऐसी ही बातों को सोच कर बहुत से खिलाड़ी खेल से पहले रात को सो नहीं पाते हैं.

‘‘लेकिन, अनुभव होने के साथसाथ हर खिलाड़ी अपने मन पर काबू पाना सीख लेता है. यही वजह है कि एक खिलाड़ी जो काम 18 साल की उम्र में नहीं कर पाता है, वही काम वह 25 साल की उम्र के बाद कर लेता है.

‘‘जहां तक मेरी बात है, तो बचपन में ही मेरे बड़े भाई और कोच राजेश कुमार राजौंद ने चाणक्य, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु जैसे महान लोगों के साथसाथ नैपोलियन, छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे राजाओं की कहानियों से मुझे प्रेरित किया, जिस से मैं मानसिक रूप से मजबूत बना.’’

भारत की मशहूर ‘बिकिनी एथलीट’ मधु झा ने इस मुद्दे पर अपनी राय रखते हुए कहा, ‘‘मौजूदा दौर में खेल एक पेशा बन चुका है. सच कहा जाए, तो ओलिंपिक और पेशेवर एथलीट भी चिंता से घिरे हो सकते हैं. उन पर बेहतर प्रदर्शन का दबाव तो होता ही है, मैदान के बाहर भी अपनी इमेज बनानी होती है.

‘‘खेल की डिमांड हर खिलाड़ी के शारीरिक और मानसिक दोनों स्वास्थ्य पर असर डालती हैं. देश की नुमाइंदगी, प्रदर्शन में निरंतरता, पेशेवर चुनौतियां और कामयाब होने का दबाव, ये चारों बातें खिलाडि़यों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं. कई बार इसे ‘पेशेवर जोखिम’ भी कहा जाता है, जो हर पेशे से जुड़ा होता है.

‘‘मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या से निबटने के लिए खिलाड़ी अपने परिवार, दोस्तों और खासतौर पर कोचों से लगातार चर्चा करें. कई बार मुश्किल समय में पेशेवर मनोवैज्ञानिक की मदद काफी कारगर साबित हो सकती है.

‘‘मानसिक दबाव और तनाव मौजूदा पेशेवर खेलों का हिस्सा बन चुका है. इस दबाव को झेलने और हैंडल करने के लिए हर खिलाड़ी का फार्मूला अलगअलग होता है. खुद एक एथलीट होने के नाते मैं ने नाकामी या चिंता के डर को दूर करने के लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित किया है.

‘‘पहले तो खिलाड़ी के तौर पर यह समझें कि अंतिम डर क्या है. उदाहरण के लिए, क्या आप दूसरों को निराश करने से डरते हैं? दूसरा, अपने डर की तर्कसंगतता को चुनौती दें. साथ ही सीखें कि कंपीटिशन के दबाव को कैसे स्वीकार करें, न कि इस डर से कि आप नाकाम होंगे या निराश महसूस करेंगे.

‘‘इस के अलावा इस वजह को समझें कि आप हर हफ्ते ट्रेनिंग के घंटों में मजा लेते हैं और कंपीटिशन में अपने कौशल पर भरोसा करते हैं. इस से आप तनाव झेलने के लिए तैयार रहेंगे.’’

पहलवान और मोटिवेशनल स्पीकर संग्राम सिंह ने खिलाडि़यों में तनाव पर अपनी बात रखते हुए बताया, ‘‘सचिन तेंदुलकर ने एकदम सही बात कही है. जब खिलाड़ी का कोई खास मुकाबला होता है, तो वह उस से 1-2 महीना पहले अपनी तैयारियों को ले कर तनाव में रहता है. खिलाड़ी जितना बड़ा और मशहूर होता जाता है, उस पर अच्छा करने का दबाव और तनाव भी बढ़ता जाता है.

‘‘कुछ खिलाड़ी तो दबाव में ज्यादा अच्छा नहीं कर पाते हैं, पर कुछ बहुत अच्छा कर जाते हैं. अपने अनुभव से यह बात जरूर कहूंगा कि हर खेल के लिए खिलाड़ी का फिटनैस लैवल अलगअलग होता है.

‘‘मानसिक तनाव दूर करने के लिए अपनी मैंटल ताकत को बढ़ाना चाहिए. इस के लिए खुद में संयम लाना बहुत जरूरी है. इस के लिए अपनी डाइट अच्छी रखें और अनुशासन बरतें.

‘‘इस के अलावा अपने खेल को ऐंजौय करें. सोचें कि यह जो मुझे इतना बड़ा मौका मिला है, उस का भरपूर मजा लेना है. अपने परिवार, समाज और देश के लिए बेहतर करना है. अपनी ऊर्जा को तनाव में नहीं, बल्कि उत्साह में बदल दें.’’

मानसिक तनाव पर इन नामचीन खिलाडि़यों की राय से एक बात तो साबित होती है कि इन के लिए खेल का हर दिन नई चुनौतियों से भरा होता है. उस तनाव से निकल कर ये सब अपना सौ फीसदी खेल में झोंक देते हैं,  तभी देश के लिए तमगे और ट्रौफियां जीतते हैं.

बच्चों के साथ जोर जुल्म, मां भी कम जालिम नहीं!

मुंशी प्रेमचंद ने कई साल पहले ‘ईदगाह’ नाम से एक कहानी लिखी थी, जिस में 4-5 साल का हामिद अपनी दादी अमीना के साथ रहता है और ईद पर वह बाजार से कोई खिलौना या मिठाई खरीदने के बजाय दुकानदार से मोलभाव कर के 3 पैसे में अपनी बूढ़ी दादी के लिए चिमटा खरीदता है, ताकि रोटी बनाते समय उन के हाथ न जलें.

पर, अगर कोई इसी गरम चिमटे से किसी मासूम को दाग दे, तो उसे कैसा महसूस होगा? यह कोई कहानी नहीं है, बल्कि हरियाणा के फरीदाबाद की राजीव कालोनी में इसी मार्च महीने में ऐसा हकीकत में हुआ. शर्म और दुख की बात तो यह रही कि ऐसा घटिया काम करने वाली एक औरत थी, जिस ने अपनी सौतेली बेटी को सताने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

मामला कुछ यों था कि फरीदाबाद के सैक्टर 58 थाना के तहत आने वाली राजीव कालोनी से पुलिस को यह खबर मिली कि एक औरत अपनी सौतेली बेटी को रोजाना मारतीपीटती थी. पुलिस हरकत में आई और बताए गए घर पर दबिश दी. वहां से मिली पीडि़त लड़की का मैडिकल कराया गया. उस के बदन पर चोट और जलने के निशान मिले.

जब इस पूरे मामले की जांचपड़ताल की गई तो पता चला कि उस 16 साल की लड़की की सौतेली मां जबरन उस से घर के सारे काम कराती थी. जब कभी वह थक कर बैठ जाती थी, तब उस की सौतेली मां उसे बुरी तरह पीटती थी. कई बार तो गरम चिमटे से दाग देती थी.

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यह कोई एकलौती घटना नहीं है, जब किसी बच्चे को अपनों द्वारा ही इतना ज्यादा सताया गया हो. सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो तैरते मिल जाएंगे, जिन में कोई औरत या मर्द बंद कमरे में किसी बच्चे की बेदर्दी से पिटाई कर रहे होते हैं. कोई चोरी छिपे ऐसी करतूतों को कैमरे में कैद कर लेता है और इंटरनैट की आभासी दुनिया में शेयर कर देता है. इन मामलों में मांएं भी पीछे नहीं हैं. इसी साल फरवरी महीने में दिल्ली महिला आयोग ने हरिनगर इलाके से 8 साल के एक ऐसे बच्चे को बचाया, जिस के साथ उस की सौतेली मां लंबे समय से मारपीट कर रही थी.

बच्चे ने बताया कि उस की मां उसे रोजाना पीटती थी. कई बार उसे खाना तक नहीं देती थी. उसे घर से बाहर निकाल देती थी. जब मां घर से बाहर जाती थी, तो उसे बांध कर जाती थी. बच्चे के मैडिकल टैस्ट से पता चला कि उस के हाथ, पैर, गरदन, पीठ समेत पूरे शरीर पर जख्मों के निशान थे. सही से खाना नहीं मिलने के चलते वह बच्चा कमजोर भी हो गया था.

अब एक असली मां की भी करतूत देख लो. महाराष्ट्र में मुंबई के पास ठाणे शहर के मुंबा इलाके में एक औरत हीना शेख का 2 साल पहले अपने शौहर फयाज शेख से तलाक हो गया था. 3 साल के बेटे की कस्टडी हीना शेख को मिली थी, पर वह अपने पति से मिलने वाले मुआवजे से खुश नहीं थी, इसलिए उस ने 28 फरवरी, 2021 को पैसों की डिमांड बढ़ाने के लिए अपने बेटे की जम कर पिटाई कर के उस का वीडियो बना दिया और फयाज शेख को भेज दिया.

मामला सामने आने के बाद पुलिस ने जुविनाइल जस्टिस ऐक्ट के सैक्शन 75 के तहत हीना शेख को गिरफ्तार कर लिया. उस वीडियो में वह अपने बेटे को बेरहमी से पीट रही थी. पिटाई के बाद वह उसे बिस्तर पर खड़ा कर के पूछती है, ‘तुझे तेरे बाप के पास जाना है?’

रोता हुआ बच्चा कहता है कि उसे नहीं जाना है, लेकिन मां उस के पैर, जांघों, पीठ, कंधे और मुंह पर लगातार मारती है. वह उसे यह कह कर पीटने लगती है कि उस का बाप उस के लिए केवल 6,000 रुपए देता है और 10,000 रुपए से ज्यादा का खाना यह बच्चा खाता है.

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यहां जिन खबरों का जिक्र किया गया है, वे ऐसे कांड हैं जिन को देखसुन कर किसी का भी दिल दहल जाए. अमूमन कोई मां अपने बच्चे को किसी बात पर पीट दे, यह कोई हैरानी वाली बात नहीं है. बचपन में तकरीबन हर कोई अपनी मां के हाथों पिटा होगा या डांट खाई होगी. इस में मां के मूड के साथसाथ बच्चे की गलती भी बड़ी वजह होती थी. बच्चे ने झूठ बोला, होमवर्क नहीं किया, गाली दी या किसी से मारपीट कर दी, चोरी की या कोई ऐसी बदमाशी कर दी, जो माफी के लायक नहीं थी, तो मां बेमन से पिटाई कर देती थी, फिर वह बेटा हो या बेटी.

लेकिन वहां मां का एक ही मकसद होता है, बच्चे में सुधार लाना. पर जब कोई मां नफरत या किसी लालच में अपने बच्चे को सताती है या बेरहमी से पीटती है, तो मामला फरीदाबाद जैसा संगीन हो जाता है. राजीव कालोनी में रहने वाली मां को अपनी सौतेली बेटी से प्यार नहीं था, यह बात समझ में आती है और वह उस से घर का सारा काम अपनी इसी भड़ास को निकालने के लिए कराती होगी, पर गरम चिमटे से दागना तो अपराध है. हालांकि 16 साल की लड़की से जबरदस्ती घर के काम कराना भी गैरकानूनी है.
दिल्ली के हरिनगर की औरत ने तो अपने 8 साल के सौतेले बेटे को सताने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी. किसी मासूम को भूखा रखना कहां की इनसानियत है.

इसी तरह ठाणे की हीना शेख लालच में इतनी अंधी हो गई थी कि उस ने अपने तलाकशुदा शौहर से मुआवजे की रकम बढ़वाने के लिए अपने बेटे को ही बलि का बकरा बना डाला. उसे बेदर्दी से पीटा ही नहीं, बल्कि उस का वीडियो तक बना डाला.इस तरह के मामले बच्चों को घर से भागने की वजह बनते हैं. कौन बच्चा बिना बात रोजरोज की मार खाएगा?

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एक पुरानी कहावत है कि बच्चे कच्ची मिट्टी के समान होते हैं. उन्हें कुम्हार की तरह जिस आकार में ढालेंगे, वे वैसे ही बनते चले जाएंगे. मां अपने बच्चों की वही कुम्हार होती है. उस के हाथ जितने सधे होंगे, बच्चे उतने ही निखरेंगे. बच्चों के साथ एक हद तक कड़ाई करनी चाहिए, पर इतनी भी नहीं कि वे ऐसी राह पर चल पड़ें, जहां से लौटना मुश्किल हो जाए.

बच्चों को ‘ईदगाह’ कहानी के हामिद जैसा दयालु बनाएं, जिसे अपनी खुशी से ज्यादा बूढ़ी दादी की चिंता थी. अगर कहीं वही दादी भविष्य में उसे उसी चिमटे से दागती तो क्या कोई दूसरा बच्चा इस तरह का तोहफा अपनी मां या दादी के लिए लाने की सोचता? बिलकुल नहीं.

“बस्तर गर्ल” की एवरेस्ट फतह !

नैना सिंह धाकड़ एक ऐसा नाम है जो आज रातों रात, किसी परिचय का मोहताज नहीं रहा. प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राज्यपाल सुश्री अनुसुइया उइके सहित देश प्रदेश के गणमान्य विभूतियां नैना सिंह को बधाई दे रही है. दरअसल नैना सिंह धाकड़ नामक इस युवती ने छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी प्रदेश और बस्तर जैसे दुर्गम नक्सलवाद से गिरे हुए अंचल से जो ऐतिहासिक काम किया है उसे देखकर सभी आवाक, अचंभित हैं कि यह कैसे हो गया.

आइए! आज आपको नैना सिंह धाकड़ के उस संघर्ष से परिचय कराते हैं जिसकी बदौलत आज वह लोगों की जुबां पर है और देश का सम्मान बन गई है.

वस्तुत: छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध इंद्रावती नदी की तरह..जिस प्रकार कोई नदी दुर्गम पथरीली पहाड़ियों से गुजरते हुए अपना रास्ता सुगम बनाकर हम सब के लिए जीवनदायिनी बन जाती है, ठीक उसी प्रकार आज की ये नैना सिंह छत्तीसगढ़ की एक मात्र महिला पर्वतारोही  है जिसके नाम दुनिया की सबसे ऊँची पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट(8848.86 मीटर) और विश्व की चौथी सबसे ऊँची चोटी लोत्से (8516 मीटर ) को फ़तह करने का गौरव दर्ज हो गया है, उनकी यह उपलब्धि स्वर्णिम अक्षर में 1 जून 2021 को  इतिहास के पन्नों में अंकित हो गई. नैना को बस्तर गर्ल के नाम से भी जाना जाता है.

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सतत श्रम का परिणाम

नैना सिंह बताती हैं कि यह उपलब्धि कोई एक दिन की नहीं है. यह उनका बचपन का एक ख्वाब था कि उन्हें दुनिया की ऊंची चोटी को छूना है और देश का तिरंगा लहराना है.

इसके लिए उन्होंने अथक मेहनत की. प्रारंभिक चरण में जाने कितनी कठिनाइयां आई मगर नैना रूकी नहीं, आगे बढ़ती चली गई  आखिरकार अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया.

नैना सिंह की इस उपलब्धि पर मुख्यमंत्री बघेल जी द्वारा बधाई दी साथ ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा नैना ने अपने दृढ़ संकल्प, इच्छाशक्ति तथा अदम्य साहस से यह कर दिखाया है नैना की इस  सफलता से प्रदेश का गौरव बढ़ गया है.

माउंट एवरेस्ट को फतह करने के लिए जिस साहस, संघर्ष और अदम्य इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है हुआ निसंदेह बस्तर की इस बिटिया नैना सिंह में समाया हुआ है यही कारण है कि 60 दिनों में तय की गई ये दूरी नैना के 10 साल के अथक प्रयास का परिणाम है!

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अगर हम आज बात करे नैना सिंह धाकड़ की तो ये खबर और खास इसलिए भी हो जाती है कि ये जहां की  है वो बस्तर अंचल आज पूर्ण रूप से नक्सली प्रभावित क्षेत्र है, नैना जगदलपुर जिला मुख्यालय से करीब 10 किमी दूर स्थित एक्टा गुड़ा गाँव में पैदा हुईं और शिक्षा दीक्षा प्राप्त की. यह सच है कि इस तरह के इलाके अल्पसुविधाओं से युक्त होते है. जीविका के साधन के रूप में यहाँ के निवासी बहुतायत में तेंदूपत्ता ,महुआ को बेचना,चाय बेचना, छोटी मोटी दुकाने, ग्राम उद्योग जैसी सीमित अर्थ धन उपलब्ध कराने वाले संसाधन पर निर्भर होते है‌ जो दुनिया जानती है. इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वहाँ की बालिका अगर सारी विषमताओं को दरकिनार कर अपने जोश और जुनून से अपने लक्ष्य को हासिल करती है,तो निश्चित रूप से ये उसके साथ- साथ देश के लिए बहुत बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि  है.

ढेर सारी खामियां, फिर भी खिलता है कमल

छतीसगढ राज्य के लिए यह पहला अवसर नहीं है जब यहाँ की बेटी ने घर की चार दिवारी से निकलकर पूरे देश मे व देश से बाहर हमारे देश का परचम फहराया है.

इसके पहले भी इसी तरह से नक्सल प्रभावित क्षेत्र बीजापुर से सॉफ्टबॉल खिलाड़ी अरुणा और सुनीता, कोरबा से शूटिंग में एक मात्र महिला श्रुति यादव( गोल्डन गर्ल) ,राजनांदगांव से रेणुका यादव एक मात्र महिला हॉकी ओलंपिक  चैंपियन आदि ऐसी छतीसगढ़ की बहुत सी महिला विभूतियाँ है जिन्होंने समय समय पर पूरे देश मे छत्तीसगढ़ राज्य का प्रतिनिधित्व किया है.

पर्वतारोही नैना सिंह ने अपने इस ऐतिहासिक सफलता के बाद कहा है उनके सामने और भी कई लक्ष्य है जिन्हें वह शीघ्र ही पूरा करने का प्रयास करेंगी.

प्रदेश में अल्पसुविधाओं के बावजूद अगर  राज्य की बेटियाँ स्वयं को सिद्ध करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देती है तो सम्पूर्ण सुविधा मिलने पर इनका विकास स्तर कहाँ तक जा सकता है ये विचारणीय है.

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इसी कड़ी में अगर बात करें यहाँ की सरकार की तो छत्तीसगढ़ सरकार  दूरदराज़ दुर्गम क्षेत्रों में खेल ,संस्कृति,शिक्षा,संरक्षण ,पोषण से संबंधित सुविधाओं को ध्यान में रखकर विशिष्ट पहल करे  इसे पूरा करने हेतू बहु-क्षेत्रीय योजनाओं और सहयोगात्मक कार्यों को अंजाम देना आवश्यक है, जिससे प्रतिभाशाली बच्चों को बैद्धिक ज्ञान के साथ- साथ तकनीकी ज्ञान भी पर्याप्त रूप से मिल सके, और ऐतिहासिक उपलब्धियों की निरंतरता बनी रहे.

एटीएम: नाबालिगों को रूपए का लालच!

आज का समय रुपयों का समय है. छोटे-छोटे बच्चे जैसे ही होश संभालते हैं उन्हें रूपया अपनी और आकर्षित करने लगता है उन्हें महसूस होता है कि उन्हें रुपया चाहिए और जब रूपया पैसा घर में नहीं मिलता तो वह राह चलते रूपयों के खजाने एटीएम की ओर ताकने लगते हैं. उन्हें लगता है कि यह कारू का खजाना है जिसे वह बहुत आसानी से पा सकते हैं, मगर…

छतीसगढ़ के जिला दुर्ग- उतई मेन रेड पर थाने से कुछ दूरी पर एक मकान में हिताची कंपनी का एटीएम लगा हुआ है. रात करीब रात 1.30 बजे 3 नाबालिग एटीएम बूथ के अंदर घुसे. अंदर घुसते ही वहां लगे लाइट और सीसीटीवी कैमरे तोड़ दिए.और रात करीब 3 बजे तक एटीएम में तोड़फोड़ करते रहे.
नाबालिगों ने ने एटीएम में लगी स्क्रीन व की-बोर्ड को भी बाहर निकाल लिया और पटक दिया. इसके बाद भी रुपयों से भरे चैंबर को खोलने में कामयाब नहीं हो सके. सुबह एटीएम में तोड़फोड़ देख पुलिस को सूचना दी गई.

इसके पहले भी नगर में एटीएम में चोरी का प्रयास हो चुका है. भिलाई में ही पहले भी हिताची कंपनी के एटीएम में चोरी का प्रयास किया जा चुका है. छावनी और वैशाली नगर क्षेत्र में भी ऐसी ही वारदात सामने आई थी. जब पुलिस छानबीन करने लगी तो जो चेहरे सामने आए उससे लोगों को आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि इस संपूर्ण वारदात में 18 साल से कम उम्र के नाबालिगों किशोरों की भूमिका उजागर हुई.

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होना चाहते हैं मालामाल!

आदिवासी बाहुल्य जिला जशपुर कोतवाली पुलिस ने बैंक के एटीएम को तोड़ने के प्रयास और दुकानों के ताले तोड़कर चोरी करने के लिए आरोप में 4 लोग गिरफ्तार हुए है. और इस वारदात में 2 नाबालिग भी शामिल हैं. इन आरोपियों ने शहर के कई घरों में चोरी की घटना को अंजाम दिया था. फिलहाल पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है.

शहर में एटीएम तोड़ने के कई प्रयास हुए. कोतवाली के प्रभारी ओम प्रकाश ध्रुव ने हमारे संवाददाता को बताया कि 23 मई की रात को सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के मुंबई स्थित मुख्यालय से उन्हें एटीएम तोड़ने की सूचना दी गई. पुलिस को सूचना मिली की शहर के गम्हरिया रोड स्थित सेंट्रल बैंक के एटीएम बूथ में दो अज्ञात युवक घुसकर मशीन के केस वाल्ट को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. सूचना पर कोतवाली पुलिस की पेट्रोलिंग टीम एटीएम बूथ पहुंच गई, लेकिन उससे पहले एटीएम का सायरन बज जाने से आरोपी मौके से फरार हो गए.

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फिर इन लोगो ने हरि ओम किराना दुकान के शटर को तोड़ने की नाकाम कोशिश की शिकायत पुलिस को मिली. दुकान के सीसीटीवी कैमरे में आरोपी की तस्वीर कैद हो गई थी . इस फुटेज के आधार पर छानबीन शुरू की गई. फुटेज के आधार पर देव कुमार राम और लोकेश्वर राम का नाम सामने आया. संदेह के आधार पर पूछताछ के लिए हिरासत में लिए जाने पर इन आरोपियों ने दो बाल अपचारीयों के साथ मिलकर इन दोनों ही वारदातों के साथ घर में चोरी की बात स्वीकार की. दोनों ने शहर के भागलपुर मोहल्ले में स्थित बंसराज किराना स्टोर, अमेलिया मींस, विशाल सोनी और ओम प्रकाश सिन्हा के घर में चोरी की वारदात को अंजाम देने की बात स्वीकार की.

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जरूरत अच्छे माहौल की

दरअसल किशोर अवस्था में अगर सही मार्गदर्शन नहीं मिले समझाइश न मिले तो रास्ता भटक जाने की बहुत ज्यादा आशंका रहती है.

ऐसे में परिजनों को चाहिए कि 12 वर्ष की उम्र के साथ ही बच्चों में स्वावलंबन और ईमानदारी का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए, अच्छी अच्छी प्रेरक कहानियां बच्चों को पढ़नी चाहिए और उन्हें परिजनों को सुनानी चाहिए इस सबसे बच्चों में मनोविकार उत्पन्न नहीं होते.

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पुलिस अधिकारी इंद्र भूषण सिंह के मुताबिक दरअसल युवा होते बच्चे पैसों के प्रति आकर्षण रखते हैं जो कि स्वाभाविक है. जब घर में रुपए पैसे नहीं मिलते तो उन्हें लगता है कि एटीएम तोड़ कर के भी अपनी जरूरत पूरा कर सकते हैं.मगर वे भूल जाते हैं कि एटीएम के आसपास सीसीटीवी लगे रहते हैं और एटीएम को तोड़ पाना भी इतना आसान नहीं है. इस तरह किशोर अपराधिक दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं और अपनी जिंदगी बर्बाद कर लेते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता, टी महादेव राव के मुताबिक किशोरों को परिजनों का आदर्श मार्गदर्शन बहुत आवश्यक होता है उन्हें कानून का महत्व भी बताना जरूरी है और सबसे बड़ी चीज है कि मेहनत से रुपए कमाने की सीख बच्चों को किशोरावस्था में ही मिल जानी चाहिए.

बीमारी की मार: रेहड़ी पटरी वालों की जिंदगी बेकार

लेखक- हेमंत कुमार

किसी भी शहर को शहर कहलाने का काम वहां की तंग गलियों में लगने वाले बाजार और गले से चीखचीख कर आवाज लगाते हुए फेरी वाले ही करते हैं. ऐसा शोरगुल, ऐसी भीड़भाड़ किसी बड़े शहर में ही देखने को मिलती है. ये ऐसे कारोबारी होते हैं, जो बिलकुल न के बराबर की कीमत पर ग्राहकों को घर के दरवाजे पर सुविधाएं मुहैया कराते हैं.

बीते साल कोरोना के चलते लगे लौकडाउन में सब से ज्यादा नुकसान अगर किसी को पहुंचा है, तो वे हैं यही रोज कमानेखाने वाले रेहड़ीपटरी और फेरी लगाने वाले छोटे गरीब कारोबारी.

नैशनल एसोसिएशन औफ स्ट्रीट वैंडर्स औफ इंडिया  के मुताबिक देखा जाए, तो देश की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में  ऐसे कारोबारियों का योगदान काफी ज्यादा रहता है. दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में इन का योगदान 1,590 करोड़ रुपए सालाना तक पहुंच जाता है.

चूंकि इन लोगों का सारा कारोबार खुले आसमान के नीचे भीड़भाड़ वाली जगहों पर ही होता है, तो जाहिर सी बात है कि महामारी के फैलने का जोखिम सब से ज्यादा इन ही लोगों से था और ऐसे ही आसार इस साल फिर से बनते नजर आ रहे हैं. मतलब, इन की जिंदगी से एक बार फिर खिलवाड़ होने वाला है.

इन फेरी, रेहड़ी और पटरी वालों की निजी जिंदगी पर नजर डालें, तो हम यह जान पाएंगे कि आखिर किस तरह लौकडाउन के चलते इन की निजी जिंदगी में भी लौक लग जाता है.

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दिल्ली में पटरी लगाने वाले रंजीत से बातचीत करने से मालूम पड़ता है कि इन की जिंदगी लौकडाउन से किस तरह बरबाद हुई. पेश हैं, रंजीत के साथ हुई बातचीत के खास अंश :

मूल रूप से आप कहां के रहने वाले हैं और दिल्ली में कब से रह रहे हैं?

मैं मूल रूप से झारखंड राज्य के साहिबगंज जिले का रहने वाला हूं और जाति से कुम्हार हूं. गांव के सारे लड़कों की तरह मैं भी जवानी में दिल्लीमुंबई भटका और आखिर में यहां दिल्ली में ही पटरी लगाने का काम करने लगा.

मैं 20 साल पहले ही दिल्ली आया था और तब से यहीं हूं. पहले जिम्मेदारियां कम थीं और भविष्य का कोई प्लान न था, पर बाद में सांसारिक जाल में फंस कर यहां रहना अब मेरी मजबूरी बन चुकी है.

आप की जीविका का साधन क्या है और बीते साल लौकडाउन से आप को किनकिन समस्याओं का सामना करना पड़ा? इस बार हालात कैसे हैं?

मैं पेशे से एक पटरी वाला हूं और दिल्ली में सदर बाजार, त्रिलोकपुरी और आजादपुर जैसी जगहों पर बाजार लगाता हूं. बाजार में  रेहड़ीपटरी वालों को पहले से ही कई तरह की असुविधाओं का सामना करना पड़ता ही है.

हमें ठेकेदारों को शांतिपूर्ण तरीके से बाजार लगाने के बदले 400-500 रुपए रोजाना देने पड़ते हैं. अगर हम ये पैसे न दें तो अगली बार से हमारी जगह पर किसी दूसरे को बैठा दिया जाता है.

उस इलाके के थानेदार की मिलीभगत होने के चलते हमारी सुनवाई करने वाला कोई नहीं होता, ऊपर से लौकडाउन के लग जाने से हमारी आजीविका पूरी तरह से बरबाद हो गई है. अपनी जगह बनाए रखने के लिए हमें पहले ही कई लोगों को अपनी दिनभर की कमाई का कुछ हिस्सा देना पड़ता है.

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आप किस तरह की चीजें बेचते हैं और दिन में तकरीबन कितने पैसे कमा लेते हैं?

मैं मौसम और मांग के हिसाब से कपड़े बेचता हूं. अगर काम ठीकठाक हुआ, तो मेरी रोजाना की आमदनी  800-1000 रुपए तक पहुंच जाती है, पर मंदी के दौरान लागत भी निकाल पाना मुश्किल हो जाता है, ऊपर से नगरपालिका के अफसर कभी भी आ कर सारा माल ट्रकों में भर कर ले जाते हैं. और तो और विरोध करने पर हिंसक कार्यवाही भी करते हैं.

लौकडाउन लग जाने से हालात बद से बदतर होने के कगार पर पहुंच गए थे. मेरे साथी पटरी वाले जैसेतैसे अपने गांव पहुंच गए. मैं ने भी कोशिश की, पर उस समय ट्रेनों की टिकट मिलना बहुत मुश्किल था और ट्रेन के अलावा किसी और साधन का खर्च उठा पाना मेरे बस में नहीं था.

कोरोना की दूसरी लहर की शुरुआत से काम पर क्या असर पड़ रहा है?

अभी तो हम पहली वाली लहर से ही आगे नहीं निकल सके थे कि यहां इस साल भी कोरोना की दूसरी लहर ने दस्तक दे दी है. बाजारों में खरीदारी करने वाले भी कोई बड़े लोग नहीं होते हैं, बल्कि वे भी हमारी तरह आम परिवारों से ही आते हैं.

अब थोड़ाबहुत काम होना शुरू ही हुआ था कि लोग दोबारा लौकडाउन के डर से अपने घरगांवों को जा रहे हैं. ऐसे में हमारे पास भी घर लौट जाने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता, पर हमारे घर लौट जाने से भी हमारी चिंता खत्म नहीं होती.

हमारे बच्चों की पढ़ाईलिखाई, मकान का किराया, बाकी लोगों से लिए हुए कुछ उधार, इन सब उल?ानों की खातिर हमें कहीं और जा कर भी चैन नहीं है.

इस समय आप को सरकार से क्या उम्मीदें हैं?

सरकार से यही उम्मीद है कि वह इस बार के लौकडाउन से पहले अतिरिक्त ट्रेनें चलवा कर हमें अपने गांव पहुंचाने में मदद करे. प्राइवेट बस व ट्रकों से हजारों रुपए की टिकट खरीद कर जाने के हमारे हालात नहीं हैं.

यहां से गए तो हमारे बच्चों की पढ़ाईलिखाई छूट जाएगी, पर यहां रहे भी तो बच्चों की स्कूल की फीस कहां से  देंगे. जब रोजगार ही नहीं रहेगा, तो हम करेंगे क्या…

क्या पिछले साल आप को सरकार से कोई मदद मिली थी?

पिछले साल सरकार से कुछ  योजनाएं जैसे पीएम स्वनिधि योजना से 10,000 रुपए का कर्ज देने की योजना लागू तो हुई थी, पर सिर्फ उन के लिए, जो सरकारी कागजों पर असल माने में रेहड़ीपटरी वाले हैं, लेकिन हम जैसे कई लोगों के पास कोई सुबूत नहीं कि  हम रेहड़ीपटरी लगाते हैं. इस वजह से  हमें उस योजना का कोई फायदा न  मिल सका.

ऐसे ही कई छोटेमोटे कारोबारी हैं, जो फैक्टरियों, बाजारों, रेलवे स्टेशनों पर कुली और ट्रांसपोर्ट सैक्टर में बो?ा ढोने का काम करने के लिए अपने गांवों से बहुत ही कम उम्र में निकल आते हैं, उन्हें बड़े शहरों में मुसीबत के समय सब से ज्यादा मार झेलनी पड़ती है.

गांव से शहर आ कर काम करने का सीधासादा यही मतलब है कि इन के गांवों में किसी भी तरह के रोजगार का मौका नहीं होता है और न ही ये इतने पढ़ेलिखे होते हैं कि कोई अच्छी नौकरी कर सकें, जिस वजह से गांव में मजदूरी करने से अच्छा इन्हें शहर आ कर मजदूरी करने में फायदा दिखता है.

चूंकि शहर में रोजगार के मौके, दिहाड़ी और मजदूरी की गुंजाइश ज्यादा है, तो शहर आना ही इन के लिए एकमात्र रास्ता रह जाता है. पर ऐसे मजदूरों की मजदूरी ले लेना और मुसीबत के समय भूल जाना हमारे समाज की कड़वी सचाई है.

मजदूरों के बिना कलकारखानों की कल्पना नहीं की जा सकती है. ऐसे में सरकार द्वारा इन का शोषण किया जाना बेहद भेदभाव वाला काम है.

जहां आईपीएल में मैच न खेलने वाले क्रिकेटरों को भी कई करोड़ रुपए दिए जाते हैं, नेताओं के बिजली बिल, पानी बिल, टैलीफोन बिल, बंगले के किराए, निजी सिक्योरिटी, सरकारी नौकरचाकर व दूसरी सुविधाओं पर सरकार सालाना 3 करोड़ से साढ़े  3 करोड़ रुपए का बोझ उठा सकती है, तो क्या ऐसे मजदूरों को इन के गांव भेजने के लिए कुछ दिनों के लिए अतिरिक्त ट्रेनें व बस सेवा मुफ्त में  या कम किराए पर मुहैया नहीं  करवा सकती?

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कितने ही लोगों को लौकडाउन में बच्चों की पढ़ाईलिखाई छुड़ानी पड़ी. क्या ऐसे समय में पैसों की कमी में बच्चों की पढ़ाईलिखाई न छूटे, इस बारे में सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा सकती?

अगर बाजारों की भीड़ में कोरोना फैलता है, तो क्या किसी चुनावी रैली में लोगों की भीड़ कोरोना नहीं फैलाती? क्या सरकारी मदद को आसान शर्तों पर इन्हें मुहैया नहीं कराया जा सकता?

दिल्ली में रेहड़ी, पटरी व फेरी वालों की तादाद 3,00,000 के आसपास है, पर सरकारी कागजों पर सिर्फ 1,25,000 लोग ही कानूनी तौर पर रेहड़ीपटरी लगाते हैं. ऐसे में हमारी तरह बचे 1,75,000 नामालूम रेहड़ीपटरी वाले किस से मदद की आस रखें? चूंकि इन के पास गरीब होने का कोई सरकारी सुबूत नहीं है, सो इन पर ध्यान देने वाला भी कोई नहीं है.

रेहड़ीपटरी, फेरी लगाने वाले, छोटे कारखानों में मजदूरी करने वाले ज्यादातर कारोबारी बिहार, ?ारखंड और बंगलादेश के बहुत ही पिछड़े इलाकों से ताल्लुक रखते हैं और जवान होतेहोते बड़े शहरों में रोजगार की तलाश में आ जाते हैं.

देखा जाए तो बिहार से मजदूरों का रोजगार की तलाश में बड़े शहरों में आने का एक अच्छाखासा इतिहास रहा है, जिस की एक वजह बिहार में गैरकृषि क्षेत्र में रोजगार के मौके न के बराबर होना है.

आईएचडी के एक सर्वे के मुताबिक, बिहार के गोपालगंज और मधुबनी जिलों से मजदूरों का बड़े शहरों में जाना ज्यादा देखने को मिलता है. कुम्हार, ग्वाला और शूद्र जाति से होने के चलते इन के पारंपरिक आजीविका के स्रोत पूरी तरह से बरबाद हो चुके हैं.

रंजीत कुम्हार जाति का है, जिस का काम मिट्टी के बरतन बनाना और बाजार में बेचने का होता था, पर औद्योगीकरण की मार के चलते कुम्हार जाति के बारे में अब सिर्फ किताबों में पढ़ने को मिलता है.

इतना ही नहीं, बाकी लोगों के साथ इसती तरह की आम समस्याएं हैं, जिस वजह से इन्हें शहर की ओर जाना पड़ता है. शुरुआत में इन की मंशा सिर्फ बड़े शहरों में जा कर पैसा कमाने की होती है, लेकिन तमाम जिम्मेदारियां, बीवीबच्चे और घरसंसार के जाल में फंस कर इन्हें अपनी जिंदगी इन्हीं बड़े शहरों में गुजारनी पड़ती है, जिस का एहसास इन्हें लौकडाउन जैसे हालात में देखने को मिलता है.

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