कहीं किसी रोज- भाग 2: आखिर जोया से विमल क्या छिपा रहा था?

‘‘औफिस का काम काफी रहता है, बस यों ही टाइम बीत जाता है.”

जोया ने पूछा, ‘‘और आप की फैमिली में कौनकौन हैं?”

विमल ने बता कर उस से भी पूछा. जोया ने जब बताया कि वह अविवाहित है. विमल हैरानी से उस का मुंह देखता रह गया.

यह देख जोया हंस पड़ी, ‘‘आप बहुत हैरान होते हैं, बातबात पर.‘‘ विमल को अब तक जोया के जौली नेचर का अंदाजा हो गया था. जोया ने फिर कहा, “मैं अपनी लाइफ अपने तरीके से ऐंजौय कर रही हूं, पता नहीं, लोग मेरी लाइफ पर हैरान ही होते रहते हैं, जैसे मैं जीती हूं, मुझे उस पर गर्व है.”

‘‘आप को एक फैमिली की जरूरत महसूस नहीं होती?”

‘‘पेरेंट्स हैं, भाई हैं, बाकी पति, बच्चे जैसी चीजों की कमी कभी नहीं महसूस हुई. मैं तो यहां लौकडाउन में फंसा होना भी ऐंजौय कर रही हूं, आप के पास पैसा हो तो आप को लाइफ ऐसे ही ऐंजौय करनी चाहिए, डेनिस रोडमैन ने तो कह ही दिया, ‘‘इनसान के जीवन में ५० पर्सेंट सैक्स होता है और ५० पर्सेंट पैसा.”

विमल का चेहरा शर्म से लाल हो गया. पहली बार कोई महिला उस के सामने बैठी सैक्स शब्द ऐसे खुलेआम बोल रही थी, जोया ने फिर कहा, ‘‘आप को अजीब लगा न कि कोई महिला कैसे सैक्स शब्द खुलेआम बोल रही है, इस विषय पर तो आप लोगों का कौपीराइट है,‘‘ कह कर जोया बहुत प्यारी हंसी हंसी.

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विमल इस हंसी में कहीं खो सा गया, बोला, ‘‘आप सब से बहुत अलग हैं.”

‘‘जी, मैं जानती हूं.”

‘‘आजकल आप क्या पढ़ रही हैं?”

‘‘कार्ल मार्क्स.”

‘‘और क्याक्या शौक हैं आप के?”

‘‘खुश रहने का शौक है मुझे, बाकी सब चीजें इस के साथ अपनेआप जुड़ती चली गईं. आज डिनर साथ करें क्या?”

‘‘आज तो मेरा फास्ट है. मंगलवार है न. मैं जरा धार्मिक किस्म का इनसान हूं.”

जोया मुसकराई, तो विमल ने पूछ लिया, ‘‘आप किस धर्म को मानती हैं?”

‘‘मैं तो धर्म के खिलाफ हूं, क्योंकि इस में मेरे तर्कों का कोई जवाब नहीं. लोगों ने मुझे हमेशा दिमाग से काम लेने की सलाह दी. मैं ने मानी, बस, मैं फिर नास्तिक हो गई, है न ये मजेदार बात. जब लोग मुझ से मेरा धर्म पूछते हैं, मैं कह देती हूं, नॉन डेलूशनल.

‘‘मैं तो यह मानता हूं कि ऊपर वाला हर वस्तु में है और सब से ऊपर भी, भगवान को अपने आसपास ही महसूस करता हूं, इसी अनुभूति से जीवन सफल हो सकता है, भगवान ही हमारी हर मुश्किल का अंत कर सकते हैं.”

‘‘और मैं कार्ल मार्क्स की इस बात को मानती हूं कि लोगों की खुशी के लिए पहली जरूरत धर्म का अंत है और धर्म लोगों का अफीम है.”

‘‘आप विदेशी लेखकों की बुक्स शायद ज्यादा पढ़ चुकी हैं.”

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है, मुझे बीआर अंबेडकर की यह बात बहुत पसंद है, जो उन्होंने कहा है कि मैं ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए.”

‘‘पर, जोयाजी.”

‘‘आप मुझे सिर्फ जोया ही कह सकते हैं, यह जी मुझे अकसर बहुत फिजूल की चीज लगती है.”

विमल थोड़ा हिचकिचाया, पर उसे अपने मुंह से निकलता सिर्फ जोया बहुत प्यारा लगा, वह इस नाम पर ही अब मरमिटा था, इस नाम ने ही उस के अंदर एक हलचल मचा दी थी, उसे लग रहा था कि सामने बैठी, उस से उम्र में बड़ी महिला सारी उम्र बस उस के सामने ऐसे ही बैठी रहे और वह उस की बातें सुनता रहे, उसे देखता रहे, ब्यूटी विद ब्रेन.

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‘‘तो आज आप फास्ट में डिनर में क्या खाएंगे?”

‘‘फ्रूट्स और मिल्क,”
जोया मुसकराई, ‘‘मैं ने तो अपनी लाइफ में कभी कोई फास्ट नहीं रखा.”

‘‘मैं सचमुच हैरान हूं, आप किसी भी धर्म को नहीं मानती? अच्छा, ठीक है, चलो, मुझे यह तो बता दो कि आप के पेरेंट्स का सरनेम क्या है?”

जोया बहुत जोर से हंसी, ‘‘आप उन्ही लोगों में से हैं न, जो सामने वाले के धर्म, जाति पूछ कर आगे बात करते हैं, तरस आता है मुझे ऐसे लोगों पर, जिन की दुनिया बस इतनी ही छोटी है जिस में सरनेम ही रह सकता है. खैर, मैं हूं जोया सिद्दीकी.”

विमल का चेहरा उतर गया, मुंह से निकल ही गया, ‘‘ओह्ह्ह.”

जोया ने छेड़ा, ‘‘आया मजा? क्या हुआ? झटका लगा न? अब बात नहीं कर पाएंगे?”

‘‘नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं है.”

दोनों फिर यों ही कुछ देर बात करते रहे, विमल जोया की नौलेज से प्रभाावित था, कमाल की थी जोया, विमल अपने रूम में आ कर भी सिर्फ जोया के बारे में ही सोचता रहा, पूरी रात उस के बारे में करवटें बदल बदल कर गुजारीं, जोया को भी विमल की सादगी बहुत अच्छी लगी थी, वह भी उस के बारे में सोच कर मुसकराती रही, अगली सुबह विमल ने उसे देखते ही बेचैनी से कहा, ‘‘आज तो मैं सो ही नहीं पाया.”

जोया ने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘जानती हूं.”

‘‘अरे, आप को कैसे पता?”

‘‘अकसर लोग मुझ से मिल कर जल्दी सो नहीं पाते.”

विमल थोड़ा फ्लर्ट के मूड में आ गया, ‘‘बहुत जानती हैं आप ऐसे लोगों को?”

‘‘हां, जनाब, बहुत देखे हैं.”

दोनों ने अपनेआप को एकदूसरे के कुछ और करीब महसूस किया, दोनों स्विमिंग पूल के किनारे चहलकदमी करते हुए बातें कर रहे थे, जोया ने कहा, ‘‘आज आप ने नहाधो कर सूर्य को जल नहीं चढ़ाया.”

‘‘हां, आज मन ही नहीं हुआ, मैं ठीक से सोता नहीं तो मेरा सारा काम उलटापुलटा हो जाता है.”

‘‘आप के भगवान मुझ से गुस्सा तो नहीं हो जाएंगे कि मेरी वजह से आप सो नहीं पाए. वैसे, अच्छा ही हुआ एक गिलास पानी वेस्ट होने से बच गया. आप ने कभी सोचा नहीं कि आप के भगवान को सचमुच उस पानी की जरूरत है? मुझे इस के पीछे का लौजिक समझा दीजिए, प्लीज.”

विमल ने हाथ जोड़े, ‘‘मैं समझ चुका हूं कि मैं आप से जीत नहीं सकता, जोया. मैं आप से हार चुका हूं,” उस के इस भोले से व्यवहार पर जोया मुसकरा दी. जोया ने कहा, ‘‘फिर तो बात ही खत्म, हारे हुए इनसान को क्या कहना? आज नाश्ता साथ करें?”

‘‘बिलकुल, फ्रेश हो कर मिलते हैं, इन का रैस्टोेरैंट तो बंद ही है आजकल, औफिस की मीटिंग में एक घंटा है, मेरे रूम में आओगी?”

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‘‘हां, मिलते हैं.”

घुटने तक की एक ड्रेस, शोल्डर कट बाल शैंपू किए, हलका सा मेकअप, उस के पास से आती बढ़िया परफ्यूम की खुशबू, तैयार विमल ने जब अपने रूम का दरवाजा खोला, तो जोया को देखता ही रह गया. वह बहुत सुंदर थी, उस के रूप के जादू से बचना विमल को बहुत मुश्किल सा लग रहा था. वह पूरी तरह उस के होशोहवास पर छा चुकी थी, विमल ने उस की पसंद पूछ कर नाश्ता आर्डर किया, वेटर स्टेचू सा चेहरा लिए चला गया, तो जोया हंसी, ‘‘आज तो इन लोगों को भी टाइमपास करने का हमारा टौपिक मिल गया, ये बेचारे भी लौकडाउन में ऐसी बातों के लिए तरस गए होंगे.”

विमल को बहुत जोर से हंसी आई, ‘‘क्याक्या सोच लेती हो आप भी?”

‘‘तुम भी कहोगे मुझे तो अच्छा लगेगा, आप बहुत दूर कर देता है सामने वाले को.”

‘‘पर, आप मुझ से बड़ी हैं शायद.”

‘‘शायद नहीं, बड़ी ही हूं, पर मुझे तुम से तुम ही सुनना अच्छा लगेगा, विमल, जब करीब आ ही रहे हैं तो फौर्मलिटीज क्यों?”

तलाक के बाद- भाग 2: जब सुमिता को हुआ अपनी गलतियों का एहसास

Writer- Vinita Rahurikar

लेकिन समीर की इन छोटीछोटी अपेक्षाओं पर भी सुमिता बुरी तरह से भड़क जाती थी. उसे इन्हें पूरा करना गुलामी जैसा लगता था. नारी शक्ति, नारी स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता इन शब्दों ने तब उस का दिमाग खराब कर रखा था. स्वाभिमान, आत्मसम्मान, स्वावलंबी बन इन शब्दों के अर्थ भी तो कितने गलत रूप से ग्रहण किए थे उस के दिलोदिमाग ने.

मल्टीनैशनल कंपनी में अपनी बुद्धि के और कार्यकुशलता के बल पर सफलता हासिल की थी सुमिता ने. फिर एक के बाद एक सीढि़यां चढ़ती सुमिता पैसे और पद की चकाचौंध में इतनी अंधी हो गई कि आत्मसम्मान और अहंकार में फर्क करना ही भूल गई. आत्मसम्मान के नाम पर उस का अहंकार दिन पर दिन इतना बढ़ता गया कि वह बातबात में समीर की अवहेलना करने लगी. उस की छोटीछोटी इच्छाओं को अनदेखा कर के उस की भावनाओं को आहत करने लगी. उस की अपेक्षाओं की उपेक्षा करना सुमिता की आदत में शामिल हो गया.

समीर चुपचाप उस की सारी ज्यादतियां बरदाश्त करता रहा, लेकिन वह जितना ज्यादा बरदाश्त करता जा रहा था, उतना ही ज्यादा सुमिता का अहंकार और क्रोध बढ़ता जा रहा था. सुमिता को भड़काने में उस की सहेलियों का सब से बड़ा हाथ रहा. वे सुमिता की बातों या यों कहिए उस की तकलीफों को बड़े गौर से सुनतीं और समीर को भलाबुरा कह कर सुमिता से सहानुभूति दर्शातीं. इन्हीं सहेलियों ने उसे समीर से तलाक लेने के लिए उकसाया. तब यही सहेलियां सुमिता को अपनी सब से बड़ी हितचिंतक लगी थीं. ये सब दौड़दौड़ कर सुमिता के दुखड़े सुनने चली आती थीं और उस के कान भरती थीं, ‘तू क्यों उस के काम करे, तू क्या उस की नौकरानी या खरीदी हुई गुलाम है? तू साफ मना कर दिया कर.’

एक दिन जब समीर ने बाजार से ताजा टिंडे ला कर अपने हाथ के मसाले वाले भरवां टिंडे बनाने का अनुरोध किया, तो सुमिता बुरी तरह बिफर गई कि वह अभी औफिस से थकीमांदी आई है और समीर उस से चूल्हे-चौके का काम करने को कह रहा है. उस दिन सुमिता ने न सिर्फ समीर को बहुत कुछ उलटासीधा कहा, बल्कि साफसाफ यह भी कह दिया कि वह अब और अधिक उस की गुलामी नहीं करेगी. आखिर वह भी इंसान है, कोई खरीदी हुई बांदी नहीं है कि जबतब सिर झुका कर उस का हुकुम बजाती रहे. उसे इस गुलामी से छुटकारा चाहिए.

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समीर सन्न सा खड़ा रह गया. एक छोटी सी बात इतना बड़ा मुद्दा बनेगी, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. इस के बाद वह बारबार माफी मांगता रहा, पर सुमिता न मानी तो आखिर में सुमिता की खुशी के लिए उस ने अपने आंसू पी कर तलाक के कागजों पर दस्तखत कर के उसे मुक्त कर दिया.

पर सुमिता क्या सचमुच मुक्त हो पाई?

समीर के साथ जिस बंधन में बंध कर वह रह रही थी, उस बंधन में ही वह सब से अधिक आजाद, स्वच्छंद और अपनी मरजी की मालिक थी. समीर के बंधन में जो सुरक्षा थी, उस सुरक्षा ने उसे समाज में सिर ऊंचा कर के चलने की एक गौरवमयी आजादी दे रखी थी. तब उस के चारों ओर समीर के नाम का एक अद्भुत सुरक्षा कवच था, जो लोगों की लोलुप और कुत्सित दृष्टि को उस के पास तक फटकने नहीं देता था. तब उस ने उस सुरक्षाकवच को पैरों की बेड़ी समझा था, उस की अवहेलना की थी लेकिन आज…

आज सुमिता को एहसास हो रहा है उसी बेड़ी ने उस के पैरों को स्वतंत्रता से चलना बल्कि दौड़ना सिखाया था. समीर से अलग होने की खबर फैलते ही लोगों की उस के प्रति दृष्टि ही बदल गई थी. औरतें उस से ऐसे बिदकने लगी थीं, जैसे वह कोई जंगली जानवर हो और पुरुष उस के आसपास मंडराने के बहाने ढूंढ़ते रहते. 2-4 लोगों ने तो वक्तबेवक्त उस के घर पर भी आने की कोशिश भी की. वह तो समय रहते ही सुमिता को उन का इरादा समझ में आ गया नहीं तो…

अब तो बाजार या कहीं भी आतेजाते सुमिता को एक अजीब सा डर असुरक्षा तथा संकोच हर समय घेरे रहता है. जबकि समीर के साथ रहते हुए उसे कभी, कहीं पर भी आनेजाने में किसी भी तरह का डर नहीं लगा था. वह पुरुषों से भी कितना खुल कर हंसीमजाक कर लेती थी, घंटों गप्पें मारती थीं. पर न तो कभी सुमिता को कोई झिझक हुई और न ही साथी पुरुषों को ही. पर अब किसी भी परिचित पुरुष से बातें करते हुए वह अंदर से घबराहट महसूस करती है. हंसीमजाक तो दूर, परिचित औरतें खुद भी अपने पतियों को सुमिता से दूर रखने का भरसक प्रयत्न करने लगी हैं.

भारती के पति विशाल से सुमिता पहले कितनी बातें, कितनी हंसीठिठोली करती थी. चारों जने अकसर साथ ही में फिल्म देखने, घूमनेफिरने और रेस्तरां में साथसाथ लंच या डिनर करने जाते थे. लेकिन सुमिता के तलाक के बाद एक दिन आरती ने अकेले में स्पष्ट शब्दों में कह दिया, ‘‘अच्छा होगा तुम मेरे पति विशाल से दूर ही रहो. अपना तो घर तोड़ ही चुकी हो अब मेरा घर तोड़ने की कोशिश मत करो.’’

सुमिता स्तब्ध रह गई. इस के पहले तो आरती ने कभी इस तरह से बात नहीं की थी. आज क्या एक अकेली औरत द्वारा अपने पति को फंसा लिए जाने का डर उस पर हावी हो गया? आरती ने तो पूरी तरह से उस से संबंध खत्म कर लिए. आनंदी, रश्मि, शिल्पी का रवैया भी दिन पर दिन रूखा होता जा रहा है. वे भी अब उस से कन्नी काटने लगी हैं. उन्होंने पहले की तरह अब अपनी शादी या बच्चों की सालगिरह पर सुमिता को बुलावा देना बंद कर दिया. कहां तो यही चारों जबतब सुमिता को घेरे रहती थीं.

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सुमिता को पता ही नहीं चला कि कब से उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. 4 साल हो गए उसे तलाक लिए. शुरू के साल भर तो उसे लगा था कि जैसे वह कैद से आजाद हो गई. अब वह अपनी मर्जी से रहेगी. पर फिर डेढ़दो साल होतेहोते वह अकेली पड़ने लगी. न कोई हंसनेबोलने वाला, न साथ देने वाला. सारी सहेलियां अपने पति बच्चों में व्यस्त होती गईं और सुमिता अकेली पड़ती गई. आज उसे अपनी स्वतंत्रता स्वावलंबन, अपनी नौकरी, पैसा सब कुछ बेमानी सा लगता है. अकेले तनहा जिंदगी बिताना कितना भयावह और दुखद होता है.

लोगों के भरेपूरे परिवार वाला घर देख कर सुमिता का अकेलेपन का एहसास और भी अधिक बढ़ जाता और वह अवसादग्रस्त सी हो जाती. अपनी पढ़ाई का उपयोग उस ने कितनी गलत दिशा में किया. स्वभाव में नम्रता के बजाय उस ने अहंकार को बढ़ावा दिया और उसी गलती की कीमत वह अब चुका रही है.

सोचतेसोचते सुमिता सुबकने लगी. खानाखाने का भी मन नहीं हुआ उस का. दोपहर 2 बजे उस ने सोचा घर बैठने से अच्छा है अकेले ही फिल्म देख आए. फिर वह फिल्म देखने पहुंच ही गई.

खुशी के आंसू- भाग 2: आनंद और छाया ने क्यों दी अपने प्यार की बलि?

लेखिका- डा. विभा रंजन  

उस ने जब ज्योति को बताया, वह खुशी से झूम उठी. उस का चेहरा लज्जा से लाल हो गया. उस ने कहा कि शायद इसी कारण आनंद जी अब उसे पढ़ाने नहीं आ रहे हैं. छाया क्या कहती, वह चुप रही. अगले महीने से स्कूल में परीक्षा है. और  स्कूल के अंदर की परीक्षा का कार्यभार छाया के पास था. वह परीक्षा प्रभारी थी. इन दिनों छुट्टी लेना मुश्किल हो जाता है. उस ने सोचा, परीक्षा के बाद से वह विवाह की तैयारी में जुट जाएगी.

छाया की एक सहेली तबस्सुम, जो पहले इसी स्कूल में मनोविज्ञान की शिक्षिका थी, विवाह के बाद हैदराबाद चली गई थी. उस ने अचानक से खबर  किया कि वह दिल्ली आई है और उस से मिलने के लिए आना चाहती है. छाया ने उसे दिन के खाने पर बुला लिया.

“ज्योति मेरी छोटी बहन है.”

“जानता हूं, आगे?”

“मैं उसे बहुत प्यार करती हूं.”

“ठीक है, फिर?”

“पापा ने मरते समय मुझ से वादा लिया था, मैं ज्योति का अच्छे से ध्यान रखूं,उस की हर इच्छा का खयाल रखूं. और उस की इच्छा तुम हो, आनंद.”

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“पागल तो नहीं हो गई हो तुम, क्या बोल रही हो, जरा सोचो.”

“सही सोच रही हूं आनंद. तुम से अच्छा लड़का ज्योति के लिए कहां मिलेगा मुझे?”

“शटअप छाया, पागल मत बनो. ज्योति से मैं 8 साल बड़ा हूं.”

“मेरी मां, मेरे पापा से 9 साल छोटी थीं.”

“ओह माई गौड, क्या हो गया तुम्हें, आई लव यू ओनली.”

“बट, ज्योति लव्स यू.”

“उसे हमारे बारे में नहीं पता है, सब सच बता दो उसे. तुम्हारे पापा का आशीर्वाद भी मिल चुका है हमें. हम तो शादी करने वाले थे. जब वह यह सब सच जानेगी तब वह सब समझ जाएगी.”

“वह दिनभर, बस, तुम्हारी बातें किया करती है. तुम ने पढ़ाते समय उसे जो उदाहरण दिए हैं, उन्हें उस ने जीवन के सूत्र बना लिए हैं. वह बच्ची है आनंद, सच जान कर उस का दिल टूट जाएगा. वह बिखर जाएगी. वह तुम्हें बहुत चाहने लगी है आनंद.”

“इस का मतलब?”

“मतलब यह है, ज्योति तुम को चाहती है और मैं ज्योति को तुम्हें सौपना चाहती हूं.”

नहीं, छाया नहीं, मैं जीतेजी मर जाऊंगा. तुम इतनी कठोर कैसे हो सकती हो, क्या तुम्हारा प्यार झूठा था, नकली था? तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो?”  आनंद बिफर गया.

“तुम ने अभीअभी मेरी हर समस्या का हल निकालने की बात कही थी, और अब मुकरने लगे,” छाया ने बिलकुल शांत स्वर में कहा.

“मतलब, तुम मेरे बिना रह लोगी?” आनंद ने व्यंग्य करते हुए कहा.

“यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है,” छाया ने फिर अपनी बात रखनी चाही.

“तुम मुझे प्यार नहीं करती न,” आनंद बात से हटना चाह रहा था.

“यही समझ लो, ज्योति तो करती है न.”

“मैं पागल हो जाऊंगा छाया, मुझ पर रहम करो.”

“तुम ज्योति को अपना लो. बस, मेरी इतनी बात मान लो आनंद. अगर कभी भी मुझे प्यार किया होगा, उसी का वास्ता देती हूं मैं तुम्हें.”

“मैं मां से क्या कहूंगा,” आनंद ने आखिरी दांव फेंका.

“कुछ भी कह देना, बदल गई छाया, बिगड़ गई छाया, जो चाहे सो कह देना.”

“तुम बहुत स्वर्थी हो गई हो छाया. तुम मुझ से प्यार नहीं करतीं. तुम्हें बस अपनी बहन से प्यार है. तुम ने मुझे जीतेजी मार दिया. आज का दिन मैं कभी भी भूल नहीं पाऊंगा.”

“चलो, मुझे छोड़ दो.”

“मैं क्या छोडूंगा तुम्हें, तुम ने मुझे छोड़ दिया.”

आनंद ने बाइक स्टार्ट की. छाया चुपचाप पीछे बैठ गई. आनंद उसे घर से कुछ दूरी पर छोड़ छाया को बिना देखे तेजी से निकल गया. छाया रातभर सो न सकी. वह सारी रात बेचैन रही. उस का स्कूल जाने का मन नहीं था, पर आज जाना जरूरी था, इसलिए उसे जाना पडा. वह सीधे क्लासरूम में चली गई. क्लास लेने के बाद वह लाइब्रेरी में जा कर बैठ गई.

आज उस में आनंद की सामना करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. उस ने पर्स से एक किताब निकाली और पढ़ने की बेकार कोशिश करने लगी. पढ़ने में बिलकुल मन नहीं लग रहा था. पर समय काटना था क्योंकि अभी आनंद स्टाफरूम में होगा. घंटी लगने के बाद वह उठी और क्लास लेने चली गई. उस दिन छाया दिनभर आनंद के सामने आने से बचती रही.

अब छाया ने सोच लिया, बस, पापा के साल होने में मात्र 3 महीने हैं. उसे अब ज्योति की विवाह की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए. उसे आनंद पर विश्वास था, वह उसे धोखा नहीं देगा. अब उसे ज्योति को आनंद से विवाह की बात बता देनी चाहिए.

उस दिन छाया को जल्दी घर आना था, पर देर हो रही थी. तबस्सुम अपनी 3 महीने की खुबसूरत बेटी नूर को ले कर  छाया के घर आ गई थी. ज्योति नूर को बहुत प्यार कर रही थी.

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“दीदी, जी करता है, मैं आप की बेटी को  रख लूं,”   ज्योति ने नूर को पुचकारते हुए कहा.

“रख लो,”  तबस्सुम ने हंस कर कहा.

तबस्सुम ज्योति से पहली बार मिल रही थी. “अगर अंकलजी नहीं गुजरते तब, अभी तक तेरी छाया दीदी को भी मुन्ना या मुन्नी हो गई होती. आनंद और छाया, मम्मी और पापा बन गए होते. अंकलजी अपने सामने शादी नहीं देख पाए पर, उन का आशीर्वाद तो  इन दोनों को मिल ही चुका  है.”

“क्या कहा आप ने तबस्सुम दी?” ज्योति ने हैरत से पूछा.

सिंदूरी मूर्ति- भाग 1: जब राघव-रम्या के प्यार के बीच आया जाति का बंधन

अभी लोकल ट्रेन आने में 15 मिनट बाकी थे. रम्या बारबार प्लेटफौर्म की दूसरी तरफ देख रही थी. ‘राघव अभी तक नहीं आया. अगर यह लोकल ट्रेन छूट गई तो फिर अगली के लिए आधे घंटे का इंतजार करना पड़ेगा’, रम्या सोच रही थी.

तभी रम्या को राघव आता दिखाई दिया. उस ने मुसकरा कर हाथ हिलाया. राघव ने भी उसे एक मुसकान उछाल दी. रम्या ने अपने इर्दगिर्द नजर दौड़ाई. अभी सुबह के 7 बजे थे. लिहाजा स्टेशन पर अधिक भीड़ नहीं थी. एक कोने में कंधे से स्कूल बैग लटकाए 3-4 किशोर, एक अधेड़ उम्र का जोड़ा व कुछ दूरी पर खड़े लफंगे टाइप के 4-5 युवकों के अलावा स्टेशन एकदम खाली था.

रम्या प्लेफौर्म की बैंच से उठ कर प्लेटफौर्म के किनारे आ कर खड़ी हुई तो उस का मोबाइल बज उठा. उस ने अपने मोबाइल को औन किया ही था कि अचानक किसी ने पीछे से उस की पीठ में छुरा भोंक दिया. एक तेज धक्के से वह पेट के बल गिर पड़ी, जिस से उस का सिर भी फट गया और वह बेहोश हो गई.

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राघव जब तक उस तक पहुंच पाता, हमलावर नौ दो ग्यारह हो चुका था. चारों तरफ चीखपुकार गूंज उठी. रेलवे पुलिस ने तत्काल उसे सरकारी अस्पताल पहुंचाने का इंतजाम किया. रम्या के मोबाइल फोन से उस के पापा को कौल की. संयोग से वे स्टेशन के बाहर ही खड़े हो अपने एक पुराने परिचित से बातचीत में मग्न हो गए थे. वे उस रोज रम्या के साथ ही घर से स्टेशन तक आए थे. उन्हें चेंग्ल्पप्त स्टेशन पर कुछ काम था. इसीलिए वे बाहर निकल गए जबकि रम्या परानुरू की लोकल ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर ही रुक गई. रम्या रोज 2 ट्रेनें बदल कर महिंद्रा सिटी अपने औफिस पहुंचती थी.

अचानक फोन पर यह खबर सुन कर रम्या के पिता की हालत बिगड़ने लगी. यह देख कर उन के परिचित उन्हें धैर्य बंधाते हुए साथ में अस्पताल चल पड़े.

रम्या को तुरंत आईसीयू में भरती कर लिया गया. घर से भी उस की मां, बड़ी बहन, जीजा सभी अस्पताल पहुंच गए. डाक्टर ने 24 घंटे का अल्टीमेटम देते हुए कह दिया कि यदि इतने घंटे सकुशल निकल गए तो बचने की उम्मीद है.

मां और बहन का रोरो कर बुरा हाल था. उन का दामाद, डाक्टर और मैडिकल स्टोर के बीच चक्करघिन्नी सा घूम रहा था.

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राघव सिर पकड़े एक कोने की बैंच पर  बैठ गया. वह दूर से रम्या के मम्मीपापा और बड़ी बहन को देख रहा था. क्या बोले और कैसे, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. रम्या ने बताया था कि उस के परिवार के लोग गांव में रहते हैं. अत: वे तमिल के अलावा और कोई भाषा नहीं जानते थे जबकि वह शुरू से ही पढ़ाई में होशियार थी. इसीलिए गांव से निकल कर होस्टल में पढ़ने आ गई थी और फिर इंजीनियरिंग कर नौकरी कर रही थी वरना उस की दीदी का तो 12वीं कक्षा के बाद ही पास के गांव में एक संपन्न किसान परिवार में विवाह कर दिया गया था. सुबह से दोपहर हो गई वह अपनी जगह से हिला ही नहीं, अंदर जाने की किसी को अनुमति नहीं थी. उस ने रम्या की खबर उस के औफिस में दी तो कुछ सहकर्मियों ने शाम को हौस्पिटल आने का आश्वासन दिया. अब वह बैठा उन लोगों का इंतजार कर रहा था. वे आए तभी वह भी रम्या के मातापिता से अपनी भावनाएं व्यक्त कर सका.

पिछले 2 सालों से राघव और रम्या औफिस की एक ही बिल्डिंग में काम कर रहे थे. रम्या एक तमिल ब्राह्मण परिवार से थी, जो काफी संपन्न किसान परिवार था, जबकि राघव उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग के गरीब परिवार से था. उस का और रम्या का कोई तालमेल ही नहीं, मगर न जाने वह कौन सी अदृश्य डोर से उस की ओर खिंचा चला गया.

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उस की पहली मुलाकात भी रम्या से इसी चेंग्ल्पप्त स्टेशन पर हुई थी, जहां से उसे परानुरू के लिए लोकल ट्रेन पकड़नी थी. उस दिन अपनी कंपनी का ही आईडी कार्ड लटकाए रम्या को देख कर वह हिम्मत कर उस के नजदीक पहुंच गया. जब रम्या को ज्ञात हुआ कि वह पहली बार लोकल ट्रेन पकड़ने आया है तो उस ने उस से कहा भी था कि जब उसे पीजी में ही रहना है तो परानुरू की महिंद्रा सिटी में शिफ्ट हो जाए. रोजरोज की परानुरू से चेंग्ल्पप्त की लोकल नहीं पकड़नी पड़ेगी.

मजाक: मिलावटी खाओ, एंटीबॉडी बढ़ाओ

लेखक- अशोक गौतम

इधर अखबार में जब से आईसीएमआर की स्टडी की यह रिपोर्ट हिलोरें मार रही है कि कोवैक्सीन और कोविशिल्ड को अगर एकसाथ मिला दिया जाए, तो इस का असर ज्यादा हो जाता है, तब से अपने शहर के नामीगिरामी मिलावट करने वालों की मूंछों की बिना तेल लगाए ही चमक देखने लायक है. भले की कानून के साथ मिलबैठ कर वे मिलावट का धंधा करते रहे हों, पर जनता की नजरों से छिपे रहते थे.

कल वही मिलावटी लाल सरजी मूंछों पर ताव देते सीना चौड़ा कर मेरे सामने पहाड़ से तन कर खड़े हो गए और मेरा रास्ता रोक दिया. उन्होंने सारे बदन पर गजब का इत्र लगाया हुआ था. उन का पूरा बदन उस समय किस्मकिस्म के असलीनकली मिलावटी इत्रों से महक रहा था.

मिलावटी लाल सरजी बोले, “देखो बबुआ, मिक्सिंग का कमाल. तुम लोग नाहक ही हमें तीसरे दर्जे का व्यापारी समझते हो तो समझते रहो, पर आज तो आईसीएमआर की स्टडी में ने भी मिक्सिंग पर अपनी मुहर लगा दी.

“बबुआ, जो सच है, वह सच है. जो सच था, वह सच था. जो सच है, वह सच ही रहेगा. उसे न तुम बदल सकते, न मैं, न कानून. कानून का डर दिखा कर झूठ को सच तो बनाया जा सकता है, पर सच को झूठ नहीं बनाया जा सकता. और सच यही है कि मिलावट के बिना जिंदगी जिंदगी नहीं, मिलावट के बिना इम्यूनिटी इम्यूनिटी नहीं.

Raksha Bandhan Special: सत्य असत्य- भाग 1: क्या निशा ने कर्ण को माफ किया?

 

“हम मानें या न मानें, पर सच तो यही है कि है कि हम लोगों को बिना कौकटेल के कुछ भी पच नहीं सकता. शुद्ध खाने से हम सदियों से बीमार पड़ते रहे हैं. आज भी हम अपनी वही गलती दोहराने की वजह से बीमार पड़ रहे हैं और भविष्य में भी हम ने जो शुद्ध खाने की अपनी गलती नहीं सुधारी तो बीमार पड़ते रहेंगे. हमारी सारी इम्यूनिटी खत्म हो जाएगी, इसीलिए हमें न चाहते हुए भी जनहित में अपनी जान दिखाने को जोखिम में डाल आंखें मूंद जनता की जान बचाने के लिए, जनता की इम्यूनिटी का ग्राफ ऊपर की ओर बढ़ाए रखने के लिए शुद्ध देशी गाय के घी में चरबी मिलानी पड़ती है, असली दूध में नकली दूध मिलाना पड़ता है, चावल में जनता के हित के लिए कंकड़ मिलाने पड़ते हैं, इंगलिश शराब में देशी दारू मिलानी पड़ती है. दक्षिणपंथियों में वामपंथी मिलाने पड़ते हैं.

“किसलिए? इसलिए कि देश की इम्यूनिटी बढ़े, सरकार की इम्यूनिटी बढ़े. हम यह सब इसलिए नहीं करते कि ऐसा करने से हमारा मुनाफा बढ़ता है, बल्कि यह तो हम देश की रोग गतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए करते हैं. और हमारी कोशिशों के नतीजे तुम्हारे सामने हैं.

“कोई हमें चाहे कितना ही देशद्रोही क्यों न कहे, पर हमारे लिए जनता की इम्यूनिटी पहले है, अपना मुनाफा बाद में. पर तुम घटिया सोच वाले हमेशा सोचते उलटा ही हो.

“देशभक्तों को आज देश की चिंता भले ही न हो, पर हमें अपने मुनाफे से ज्यादा जनता की इम्यूनिटी की चिंता है. और ऊपर से एक तुम हो कि रोज सुबह उठ कर सब से पहले मिलावटी दूध की चाय की स्वाद लगा चुसकियां लेते हुए हम मिक्सिंग करने वालों को ही कोसते हो.

“भाई साहब, जो हम दूध में पानी न मिलाते, मसालों में लीद न मिलाते, हलदी में पीला रंग न मिलाते, सच में झूठ न मिलाते, धर्म में लूट न मिलाते, आटे में फाइबर के नाम पर लकड़ी का बुरादा न मिलाते, राग मल्हार में राग गंवार न मिलाते तो बुरा मत मानना भाई साहब, देश में एक भी केवल थाली बजाता, दिन में दीए जलाता कोरोना से कतई भी लड़ नहीं पाता. यह तो हमारी उस मिक्सिंग का ही चमत्कार है, जिस की वजह से इस समय भी देश की इम्यूनिटी सातवें आसमान पर है.

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“वैसे गलती से लाख ढूंढ़ने के बाद भी एक तो हमें आज शुद्ध मिलता ही नहीं, पर गलती से जो हम धोखे से शुद्ध खा ही जाते तो इस समय स्वर्ग की हवा खाते होते, क्योंकि शुद्ध खाने वालों में एंटीबौडीज उतने नहीं होते जितने मिक्सिंग किया खानेपीने वालों में होते हैं. यह बात हम बरसों से कह रहे थे, यह बात हम बरसों से जानते थे, पर कोई हमारी बात मानने को तैयार ही न था, घर का एमडी नीम हकीम जो ठहरा. अब आईसीएमआर कह रहा है तो मानना ही पड़ेगा.

“भाई साहब, गए वे दिन जब लापरवाही बढ़ती थी तो दुर्घटना के चांस बढ़ते थे. अब तो लापरवाही में ही सुरक्षा है.”

इधर-उधर- भाग 2: अंबर को छोड़ आकाश से शादी के लिए क्यों तैयार हो गई तनु?

Writer- Rajesh Kumar Ranga

‘‘नारियल पानी पीना है?’’ तनु ने जोर से कहा.

‘‘पूछ रही हैं या कह रही हैं?’’

‘‘कह रही हूं… तुम्हें पीना हो तो पी सकते हो…’’

अंबर ने फौरन मोटरसाइकिल घुमा दी. विपरीत दिशा से आती गाडि़यों के बीच मोटरसाइकिल को कुशलता से निकालते हुए दोनों नारियल पानी वाले के पास पहुंय गए.

अंबर ने एक ही सांस में नारियल पानी खत्म कर दिया और नारियल को एक ओर उछाल कर जेब से पर्स निकाल कर पैसे दे कर बोला, ‘‘मैं ने अपने नारियल के पैसे दे दिए, आप अपने नारियल के पैसे दे दीजिए.’’

तनु अवाक हो कर अंबर को ताकने लगी.

‘‘बुरा मत मानिएगा तनुजी, आप का और मेरा अभी कोई रिश्ता नहीं है, मैं क्यों आप पर खर्च करूं?’’

तनु हार मानने वालों में से नहीं थी. बोली, ‘‘और जो आप के मातापिता हमारे घर पर काजू, किशमिश और चायकाफी उड़ा रहे हैं उस का क्या?

‘‘बात तो सही है, हम दिल्ली वाले हैं. मुफ्त का माल पर हाथ साफ करना हमें खूब आता है…’’

अंबर ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिंता न करें मैं दोनों के पैसे दे चुका हूं, नारियल वाला छुट्टा करवाने गया है.’’

यह सुन कर तनु भी हंसे बगैर नहीं रह पाई.

अंबर के जूते मिट्टी से सन गए थे. उस ने पौलिश वाले बच्चे से जूते पौलिश करवाए, तब तक नारियल वाला भी आ चुका था.

‘‘आप ने देशविदेश में कहां की सैर की है,’’ तनु ने पूछा.

अंबर के पास जवाबहाजिर था, ‘‘यह पूछिए कहां नहीं गया, नौकरी ही ऐसी है पूरा एशिया और यूरोप का कुछ हिस्सा मेरे पास है… आनाजाना लगा ही रहता है…’’

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‘‘क्या फर्क लगता है आप को अपने देश और परदेश में?’’

‘‘इस का क्या जवाब दूं, सभी जानते हैं, हम हिंदुस्तानी कानून तोड़ने में विश्वास करते हैं, नियम न मानना हमारे लिए फख्र की बात है… वहां के तो जानवर भी कायदेकानून की हद से बाहर नहीं जाते.’’

‘‘फिर क्या होगा अपने देश का?’’

‘‘फिलहाल तो यह सोचिए हमारा क्या होगा, आसमान पर बादल छा रहे हैं और मेरे 10 गिनने तक बरसात हमें अपने आगोश में ले लेगी.’’

‘घर तो जाना जरूरी है. मेरी दूसरी शिफ्ट भी है,’ तनु मन ही मन बुदबुदाई और फिर ऊंची आवाज में बोली, ‘‘चलते हैं और अगर भीग भी गए तो मुझे फर्क नहीं पड़ता, मुझे बरसात में भीगना पसंद है.’’

‘‘मुझे भी,’’ अंबर ने मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए कहा, ‘‘मगर यों भीगने से पहले थोड़ा इंतजार करना अच्छा नहीं रहेगा? चलिए रेस्तरां में 1-1 कप कौफी हो जाए, यह मेरा रोज का सिलसिला है…’’

तनु ने मुसकरा कर हामी भर दी. अगले चंद ही मिनटों में दोनों रेस्तरां में थे. अंबर ने ऊंची आवाज में वेटर को आवाज दी और जल्दी से 2 कप कौफी लाने का और्डर दिया. कौफी खत्म कर के अंबर ने एक बड़ा नोट बतौर टिप वेटर को दिया और दोनों बाहर आ गए. बारिश रुकने के बजाय और तेज हो चुकी थी.

पूरे रास्ते तेज बरसात में भीगते हुए तनु को बहुत आनंद आ रहा था. घर पहुंचतेपहुंचते दोनों पूरी तरह भीग चुके थे. अंबर के मातापिता मानो उन का इंतजार ही कर रहे थे, उन के आते ही औपचारिक बातचीत कर के सभी वहां से चल पड़े.

‘‘कैसा लगा लड़का?’’ भाभी ने उतावलेपन से पूछा तो तनु ने भी स्पष्ट कर दिया, ‘‘भाभी दूसरे लड़के को मना ही कर दो, कह दो मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मुझे अंबर पसंद है…’’

‘‘तनु, अब अगर वे आ ही रहे हैं तो आने दो. कुछ समय गुजार कर उन्हें रुखसत कर देना… कम से कम हमारी बात रह जाएगी.’’

‘‘लेकिन भाभी जब मुझे अंबर पसंद है, तो इस स्वयंवर की क्या जरूरत है?’’

ठीक 4 बजे एक लंबीचौड़ी गाड़ी आ कर रुकी. गाड़ी में से एक संभ्रांत उम्रदराज जोड़ा और एक नवयुवक उतरा. पूरे परिवार ने बड़े ही सम्मान से उन का स्वागत किया.

तनु ने एक नजर लड़के पर डाली और उस के मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘आप सूटबूट में तो ऐसे आए हैं मानो किसी इंटरव्यू में आए हो.’’

जयनाथजी ने इशारे से तनु को हद में रहने को कहा.

जवाब में युवक ने एक ठहाका लगाया और फिर बिना ?िझके कहा, ‘‘आप सही कह रही हैं. एक तरह से मैं एक इंटरव्यू से दूसरे इंटरव्यू में आया हूं… दरअसल, हम यहां के कामा होटल को खरीदने का मन बना रहे हैं. अभी उन के निदेशकों से मीटिंग थी, जो किसी इंटरव्यू से कम नहीं थी और यह भी किसी इंटरव्यू से कम नहीं है…’’

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तनु इधरउधर की औपचारिक बातें करने के बाद मुद्दे पर आ गई. बोली, ‘‘अगर आप लोग इजाजत दें तो मैं और आकाश थोड़ा समय घर से बाहर…’’

‘‘हां जरूर,’’ लगभग सब ने एकसाथ ही कहा.

आकाश ने ड्राइवर से चाबी ली और तनु के लिए गाड़ी का दरवाजा खोल कर बैठने का आग्रह किया. तनु की फरमाइश पर गाड़ी ने एक बार फिर गेटवे औफ इंडिया का रुख किया.

‘‘यहां से एक शौर्टकट है. आप चाहें तो मुड़ सकते हैं 15-20 मिनट बच जाएंगे.’’

‘‘तनुजी आप भूल रही हैं कि इधर नो ऐंट्री है,’’ आकाश ने कहा. फिर मानो उसे कुछ याद आया, ‘‘अगर आप बुरा न मानें तो मैं रास्ते में सिर्फ 10 मिनट के लिए होटल कामा में रुक जाऊं… वहां के निर्देशकों का मैसेज आया है. वे मुझ से मिलना चाहते हैं.’’

तनु ने अनमने मन से हां कर दी. आकाश ने तनु को कौफी शौप में बैठ कर वेटर को आवाज दे कर कौफी और चिप्स का और्डर दिया और स्वयं पुन: माफी मांग कर बोर्डरूम की तरफ चला गया.

10 मिनट के बाद जब आकाश आया तो उस के चेहरे पर खुशी और विजय के भाव थे, ‘‘मेरा पहला इंटरव्यू कामयाब हुआ. यहां की डील फाइनल हो गई है… तनुजी आप हमारे लिए शुभ साबित हुईं…’’

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प्रतिबद्धता- भाग 2: क्या था पीयूष की अनजाने में हुई गलती का राज?

Writer- VInita Rahurikar

मन में कहीं गहराई तक दृढ़ विश्वास था अपने प्यार पर कि वह उस की गलती को माफ कर देगी. अपने निर्मल और निश्छल प्रेम से उस के मन पर लगे दाग को धो डालेगी. उबार लेगी उसे इस ग्लानि से, जिस में वह बरसों से जल रहा है. क्षमा कर देगी उस अपराध को जो उस से अनजाने में हो गया था.

पीयूष का न तो उस घटना के पहले और न ही बाद में कभी किसी भी लड़की से कोई रिश्ता रहा है और उस लड़की के साथ भी रिश्ता कहां था. रिश्ते तो मन के होते हैं. वहां तो बस नशे की खुमारी में शरीर शामिल हो गए थे. मन से तो वह पूरी तौर पर बस पलक का ही था, है और रहेगा. लेकिन पलक के व्यवहार ने उसे अंदर तक हिला दिया. क्या वह पलक को अब तक पूरी तरह जान नहीं पाया था? क्या उस के मन की थाह पाना अभी बाकी था?

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लेकिन तीर अब कमान से निकल चुका था, जिस ने उस की प्यार भरी जिंदगी को

एक ही पल में बरबाद कर के रख दिया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि पलक के आहत मन को कैसे सांत्वना दे. उसे लगा था कि अपने प्यार से कोई भी बात छिपाना गलत है. लेकिन उस के इस सच से पलक को इतनी अधिक पीड़ा पहुंचेगी, इस का अंदाजा उसे नहीं था. वह तो उस से बात तक नहीं कर रही. बेगानों जैसा बरताव हो गया है उस का.

इधर 8 दिनों में ही पीयूष वर्षों का बीमार लगने लगा है. उस का न काम में मन लगता है और न ही घर में.

दूसरे दिन अरुणाजी के पास पीयूष की मां का फोन आया, ‘‘अरुणाजी, आप ने पलक से कोई बात की क्या? मुझे तो कोई समझ में नहीं आ रहा है कि बच्चों को अचानक क्या हो गया. पलक बिना कुछ कहे अचानक चली गई. उस का फोन भी औफ है. यहां पीयूष भी गुमसुम सा कमरे में पड़ा रहता है. पूछने पर कुछ बताता ही नहीं है. पलक कैसी है, ठीक तो है न?’’ पीयूष की मां के स्वर में चिंता झलक रही थी.

‘‘पलक जब से आई है, तब से उदास और दुखी लग रही है. मैं ने 1-2 बार पूछना चाहा तो टाल गई, पर कुछ बात तो जरूर है. मैं आज उस से बात करूंगी. आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा,’’ अरुणाजी ने पीयूष की मां को आश्वासन दिया.

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‘अब पलक से साफसाफ पूछना ही होगा. यहां पलक उदास है तो वहां पीयूष भी दुखी है. आखिर दोनों के बीच ऐसा क्या हो गया? यदि समय रहते बात को संभाला नहीं गया तो ऐसा न हो जाए कि बात और बिगड़ जाए. अब देर करना ठीक नहीं,’ अरुणाजी न तय किया.

दोपहर को पलक के पिता किसी काम से बाहर गए थे. पलक खाना खा कर अपने कमरे में लेटी थी. अरुणाजी को यही सही मौका लगा उस से बात करने का. अत: वे पलक के पास गईं.

‘‘पलक, क्या बात है बेटा, जब से आई हो परेशान लग रही हो? मुझे बताओ बेटा तुम्हारे और पीयूष के बीच सब ठीक तो है?’’ अरुणाजी ने प्यार से पलक का माथा सहलाते हुए पूछा.

रात का खाना खा कर पलक अपने कमरे में सोने चली गई. वह पलंग पर लेटी थी, लेकिन नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

8 दिन पहले जिंदगी क्या थी और अब कैसी हो गई. कितनी खुश थी वह पीयूष का प्यार पा कर. पूरी तरह उस के प्यार के रंग में रंग गई थी. सिर से पैर तक पीयूष के प्रेमरस में सराबोर थी. लेकिन पीयूष के जीवन के एक राज के खुलते ही उस की तो जैसे दुनिया ही बदल गई. कल तक जो पीयूष अपने दिल का एक टुकड़ा लगता था, अचानक ही इतना बेगाना, इतना अजनबी लगने लगा कि विश्वास ही नहीं होता था कि कभी दोनों की एक जान हुआ करती थी.

पश्चाताप- भाग 3: क्या सास की मौत के बाद जेठानी के व्यवहार को सहन कर पाई कुसुम?

“मम्मी, आप प्लीज ज्यादा ड्रामा न करो. हमें पता है कि चाची की इस हालत का जिम्मेदार कौन है? सबकुछ अपनी आंखों से देखा है मैं ने,” छोटे बेटे ने उस का हाथ झटकते हुए कहा तो बड़ा बेटा भी चिढ़े स्वर में बोलने लगा,” कितनी अच्छी हैं हमारी चाची. कितना प्यार करती थीं हमें. पर आप… मम्मी, आप ने उन के साथ कितना बुरा किया. वी हेट यू,” कहते हुए दोनों बच्चे मधु के पास से उठ कर बाहर भाग गए.

मधु भीगी पलकों से उन्हें जाता देखती रही. उस के हाथ कांप रहे थे. दिल पर 100 मन का भारी पत्थर सा पड़ गया था. उस ने सोचा भी नहीं था कि बच्चे उसे इस तरह दुत्कारेंगे. बिना आगेपीछे सोचे लालच में आ कर उस ने कुसुम के साथ ऐसा बुरा व्यवहार किया. कितनी जलीकटी सुनाई. वे सब बातें बच्चों के दिमाग में इस तरह छप गईं थीं कि अब बच्चे उस के वजूद को ही धिक्कार रहे हैं.

मधु ने आंखें बंद कर लीं. आंखों से आंसू गिरने लगे. पुरानी बातें एकएक कर उस के जेहन में उभरने लगीं. अपने बच्चों की नजरों में इतनी नीचे गिर कर कैसे जिएगी वह… सच में कुसुम ने तो कभी भी उस से ऊंचे स्वर में बात भी नहीं की थी. उस ने हमेशा कुसुम को बात सुनाया. उस के मधुर व्यवहार का उपहास उड़ाया.  उस पर इतना गंदा इल्जाम लगाया.

तभी बगल वाली बुजुर्ग महिला की सांसें उखड़ने लगीं. डाक्टरों की टीम आई और उस महिला को आईसीयू में ले जाया गया. उस का बेटा भी पीछेपीछे तेजी से निकल गया.  इस सारे घटनाक्रम के फलस्वरूप मधु के दिमाग पर एक अजीब सा सदमा लगा था.

वह बैठीबैठी चीखने लगी. उसे लगा जैसे कुसुम शरीर छोड़ कर बाहर आ गई है और उस की तरफ हिकारत भरी नजरों से देखती हुई दूर जा रही है. मधु को एहसास हुआ जैसे वह पूरी तरह अकेली हो गई है. सब उस पर हंस रहे हैं. वह जोरजोर से रोने लगी. रोतीरोती बेहोश हो गई. जब आंखें खुलीं तो खुद को बैड पर पाया. पास में डाक्टर खड़े थे. दूर पति भी खड़े थे. उस ने तुरंत अपनी आंखें बंद कर लीं. वह अंदर से इतना टूटा हुआ महसूस कर रही थी कि उसे पति से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

तभी उस ने सुना कि डाक्टर उस के देवर से कह रहे थे कि कुसुम की सर्जरी करनी पड़ेगी. सर्जरी, दवा और हौस्पिटल के दूसरे खर्च मिला कर करीब ₹15-20 लाख तो लग ही जाएंगे पर कुसुम को ठीक करने के लिए यह सर्जरी करानी बहुत जरूरी है.

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डाक्टर की बात सुन कर देवर काफी परेशान दिख रहा था. मधु जानती थी कि उस के देवर के पास अभी ₹2- 3 लाख से अधिक नहीं हैं. हाल ही में उस ने अपनी सास की हार्ट सर्जरी में करीब ₹10 लाख लगाए थे और वह खाली हो चुका था.

मधु हिसाब लगाने लगी कि उस के पति के पास भी ₹4-5 लाख से ज्यादा नहीं निकल सकेंगे. वैसे भी दोनों भाईयों ने अपनी आधी से ज्यादा जमापूंजी बिजनैस में जो लगा रखी थी.

तभी मधु को अपने जेवर का खयाल आया. कुल मिला कर ₹7-8 लाख के जेवर तो थे ही उस के पास. बाकी के रुपए कहां से आएंगे, वह इस सोच में डूब गई. तब उसे अपनी बड़ी बहन का खयाल आया. उस से थोड़े जेवर ले सकती है. कुछ रुपए अपने भैया से उधार भी मिल सकते हैं.

डाक्टर के जाने के बाद दोनों भाई आपस में बातें करने लगे. छोटे ने उदास स्वर में कहा,”भैया, डाक्टर तो इलाज के लिए इतना लंबाचौड़ा खर्च बता रहे हैं. कहां से लाऊंगा मैं इतने रुपए?”

“हां अमन, इतने रूपए तो मेरे पास भी नहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करें.”

तभी बैड पर लेटी मधु उठ बैठी और बोली,” देवरजी आप चिंता न करो. रुपयों का इंतजाम मैं करूंगी. आप बस डाक्टर को सर्जरी के लिए हां बोल दो और 2 दिनों की मुहलत ले लो.”

“मगर भाभी आप 2 दिनों के अंदर रूपए कहां से ले आएंगी?”

“देवरजी मेरे गहने किस दिन काम आएंगे? फिर भी रूपए कम पड़े तो दीदी या मां के जेवर भी मिला लूंगी. मेरे भैया से कुछ कैश रूपए भी मिल जाएंगे.”

मधु की बात सुन कर देवर मना करने लगा. मधु के पति ने भी टोका,”मधु उन से रूपए लेना ठीक होगा क्या? और फिर तुम्हारे जेवर… तुम तो कभी उन्हें हाथ तक नहीं लगाने देती थीं. अपने जेवर तो तुम्हें जान से प्यारे थे.”

“प्यारे तो हैं पर कुसुम की जान से प्यारे नहीं,” मधु ने कहा तो दोनों भाई उसे आश्चर्य से देखने लगे.

मधु ने 2 दिन के अंदर ही ₹20 लाख इकट्ठे कर लिए. कुसुम की सर्जरी हो गई. सर्जरी सफल रही.
15 दिन अस्पताल में रहने के बाद कुसुम घर आ गई. अब भी उसे काफी कमजोरी थी. इस दौरान करीब 1 महीने तक मधु ने पूरे दिल से कुसुम की सेवा की. अपने बच्चों के साथ कुसुम की बेटी को भी संभाला. इस भागदौड़ में मधु का वजन काफी कम हो गया.

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एक दिन कुसुम से मिलने उस की बहन आई तो उस ने मधु को आश्चर्य से देखते हुए कहा,”अरे मधु दीदी तुम्हारा वजन तो आधा रह गया.”

इस पर हंसती हुई मधु बोली,”हम दोनों जेठानीदेवरानी का वजन मिला लो तो उतना ही वजन मिल जाएगा, जितना पहले मेरा हुआ करता था.”

यह सुन कर कुसुम की आंखें खुशी से भीग उठीं और वह उठ कर मधु को गले से लगा ली. दोनों लड़के भी प्यार से अपनी मां की तरफ देखने लगे.

हक ही नहीं कुछ फर्ज भी- भाग 3: क्यों सुकांत की बेटियां उन्हें छोड़कर चली गई

Writer- Dr. Neerja Srivastava

सप्ताह उपरांत उन्नति ने रवि की मदद से एक प्राइवेट डैंटल हौस्पिटल में काम करना शुरू कर दिया. रवि से उस ने साफ कह दिया, ‘‘जानती हूं कि और कुछ तो मम्मीपापा लेंगे नहीं पर कम से कम अपना ऐजुकेशन लोन जो मैं ने लिया था उसे अवश्य चुकाना चाहूंगी… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’’

रवि ने प्यार से उस के कंधे पर हाथ रख मन ही मन सोचा कि काश उस की बहनें भी ऐसा सोच पातीं.

कुछ सालों बाद काव्या के ससुराल वालों ने उसे अपना लिया. उधर प्रतीक को बड़ी प्रमोशन मिली. उस ने यूएसए के क्लाइंट से अपनी कंपनी को बड़ा फायदा पहुंचाया था. वह एक झटके में ऊंचे ओहदे पर पहुंच गया.

काव्या को ऐशोआराम की सारी सुविधाएं मिलने लगीं तो उसे रहरह कर मम्मीपापा और घर की परिस्थितियों से जूझते भाई की तकलीफ ध्यान आने लगी कि उस ने कैसेकैसे उन का साथ दिया. हम बहनें तो निकम्मी निकलीं. उस का मन पश्चात्ताप से भर उठा. फिर उस ने उन्नति से मन की पीड़ा शेयर की तो उन्नति ने उस से.

इधर सुकांत के गांव की बरसों से मुकदमे में फंसी पैतृक संपत्ति का फैसला उन के पक्ष में हो गया. करीब 50 लाख उन की झोली में आ गए.

‘‘शुक्र है निधि जो फैसला हमारे पक्ष में हो गया. देर आए दुरुस्त आए. मैं ने सुरम्य को औफिस में ही फोन कर बता दिया. आता ही होगा. उन्नति और काव्या को भी खुशखबरी दे दो. उन्हें संडे को आने को कहना.’’

सुकांत के स्वरों में खुशी और उत्साह छलक रहा था. वे जल्द ही अपनी खुशी तीनों बच्चों में बांट लेना चाहते थे और रकम भी.

‘‘संडे को तो दोनों वैसे भी आने वाली हैं. रक्षाबंधन जो है. तभी सरप्राइज देंगे. अभी नहीं बताते,’’ निधि बोलीं.

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पीछे का दरवाजा खुला था. उन्नति और काव्या दबे पांव हिसाब लगाते हुए कि पापा इस समय बाथरूम में होंगे और मां किचन में. मेड जा चुकी होगी. 9 बज रहे हैं तो सुरम्य सो ही रहा होगा. एकदूसरे को देख मुसकराते हुए वे सुकांत और निधि के बैडरूम में पहुंच गईं. सुकांत की दराज खोल उन्होंने चुपके से कुछ रखा. फिर सीधे सुरम्य के रूम में जा कर तकियों के वार से उसे जगा दिया.

‘‘आज भी देर तक सोएगा? संडे तो है पर रक्षाबंधन भी है. उठ जल्दी नहा कर आ. राखी नहीं बंधवानी?’’

‘‘अरे उठ भी तुझे राखी बांधने के बाद ही मां कुछ खाने को देंगी… बहुत जोर की भूख लग रही है,’’ कहते हुए काव्या ने एक तकिया उसे और जमा दिया.

‘‘क्या है,’’ सुरम्य आंखें मलते हुए उठ बैठा.

दोनों बहनें उसे बाथरूम की ओर धकेल हंसती हुई किचन की ओर बढ़ गईं.

‘‘मां सरप्राइज,’’ कह दोनों निधि से लिपट गईं.

‘‘अरे, कब घुसी तुम दोनों? मुझे तो पता ही नहीं चला,’’ कह निधि मुसकरा उठी.

राखियां बंधवाने के बाद जब सुरम्य ने दोनों को 6-6 लाख के चैक दिए तो दोनों बहनें उस का चेहरा देखने लगीं.

‘‘मजाक कर रहा है?’’

‘‘मजाक नहीं सच में बेटा… हम वह मुकदमा जीत गए… उसी के 4 हिस्से कर दिए. एक मेरा व निधि का बाकी तुम तीनों के.’’

‘‘अरे नहीं पापा ये हम नहीं ले सकतीं,’’ काव्या और उन्नति एकसाथ बोलीं. उन्होंने उन पैसों को लेने से साफ इनकार कर दिया, ‘‘नहीं मम्मीपापा, इन पर केवल सुरम्य का ही हक है. उसी ने आप दोनों के साथ सारी जिम्मेदारियां उठाई हैं. पहले घर के छोटेछोटे कामों में फिर बड़े कामों में… लोन, बिल्स, औपरेशन, इलाज, रिश्तेदारी, गाड़ी और अब यह मकान. आप दोनों और घर से अलग अपने लिए कुछ नहीं जोड़ा उस ने.

‘‘सच है मम्मीपापा हर बात में बराबरी करने वाली हम बेटियां पढ़लिख कर भी बेटियां ही रह गईं बेटा न बन सकीं. हम ने शान और मस्ती के अलावा कुछ सोचा ही नहीं… कभी समझना ही नहीं चाहा. दायित्व तो दूर की बात… मेरे और काव्या के लिए बहुत कुछ कर लिया आप ने… अब तो इस का ही हक बनता है हमारा नहीं.’’

‘‘हां पापा, अब तो बस झट से इस के लिए अच्छी सी लड़की पसंद कीजिए और इस की धूमधाम से शादी कर दीजिए, बहुत आनाकानी कर चुका है. हां, नेग हम बड़ाबड़ा लेंगी.’’

उन्नति और काव्या एक के बाद एक बोले जा रही थीं. फिर वे सुरम्य को छेड़ने लगीं, ‘‘वैसे एक बहुत सुंदर लड़की मेरे पड़ोस में है. बस थोड़ी तोतली है. उस से करेगा शादी?’’ उन्नति ने ठिठोली की तो काव्या भी पीछे नहीं रही, ‘‘अरे, मेरी ननद की देवरानी की छोटी बहन दूध जैसी गोरीचिट्टी है. बस थोड़ी भैंगी है. पर उस के बड़े फायदे रहेंगे एक नजर किचन में तो दूसरी से वह तुझे निहारेगी.’’

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काव्या और उन्नति दोनों अगले ही दिन चली गईं. घर सूना हो गया.

‘‘निधि… ये मेरी दराज में लिफाफे कैसे रखे हैं?’’ कह उन्होंने एक खोला तो पत्र में लिखावट उन्नति की थी. लिफाफे में हजारहजार के नोट रखे थे. वे अचरज से पढ़ने लगे-

‘‘मम्मीपापा यह मेरी पहली कमाई का छोटा सा अंश है,  आप दोनों के चरणों में. आप इसे मना मत करिएगा. आप दोनों ने मुझे इस काबिल बनाया. मैं कमा कर कम से कम अपना लोन तो खुद उतार सकती थी पर मैं तो अपने में ही मस्त थी. मैं इतनी स्वार्थी कैसे बन गई.

‘‘न कभी आप लोगों के लिए सोचा न सुरम्य के लिए. छोटा था पर हर बात में उस से बराबरी करते हुए उस से घर के कामों में भी फायदा उठाया और अपने बाहर के काम भी उसी से करवाए कि वह लड़का है. सब कुछ उसी पर डाल कर हम बहनें मजे लेती रहीं. सौरी मम्मीपापा. मैं फिर जल्द आऊंगी. आप की डैंटिस्ट बेटी उन्नति.’’

दूसरा लिफाफा काव्या का था, लिखा था-

‘‘मां और पापा, आप ने हमेशा हम तीनों को बराबर का प्यार दिया, हक दिया. बराबर मानते हैं न तो सुरम्य की ही तरह मुझे भी अपना लोन चुकाने दीजिए. आप दोनों मना नहीं करेंगे, सामने से देती तो आप बिलकुल न लेते पर सोचिए तो पापा अगर बेटेबेटी में कोई फर्क नहीं मानते तो आप को इसे लेना ही पड़ेगा. प्रतीक की भी यही इच्छा है.

‘‘पता नहीं बेटियों का बेटों की तरह मांबाप पर तो हक है पर मांबाप को बेटों की तरह बेटियों पर हक अभी भी समाज में क्यों मान्य नहीं हो पा रहा? प्रतीक ऐसा ही सोचता है. आप ने अपनी परेशानियों को एक ओर कर के हमारे सपने, हमारी जरूरतें पूरी की हैं. हमारा आप पर हक है ठीक है पर हमारा फर्ज भी तो है कुछ… जिसे मैं पहले कभी नहीं समझ पाई. आप दोनों की लाडली बेटी काव्या.’’

पत्र के पीछे लोन अमाउंट का चैक संलग्न था.

बेटियों की चिट्ठियां पढ़ रहे सुकांत और उन के पास खड़ी निधि की आंखें सजल हो उठी थी और सीना गर्व से भर उठा.

‘‘हमें इन्हें वापस करना होगा निधि, कितने समझदार बन गए हैं बच्चे. इन्होंने हमारे लिए इतना सोचा यही बहुत है… अब हमें वैसे भी पैसे की कोई जरूरत नहीं रही.’’

निधि ने आंचल से आंखों के कोरों को पोंछ मुसकराते हुए अपनी सहमति में सिर हिला दिया.

कोई सही रास्ता- भाग 3: स्वार्थी रज्जी क्या अपनी गृहस्थी संभाल पाई?

आत्महत्या का केस था जिस वजह से पोस्टमार्टम जरूरी था. रज्जी ने विलाप करते हुए जो कहानी सब को सुनाई उस से तो सुकेश के मातापिता और ननद हक्केबक्के रह गए. रज्जी ने बताया कि उस की ननद चरित्रहीन है जिस की शरम में उस का पति जहर खा कर मर गया. बेटा तो गया ही गया बच्ची का मानसम्मान भी रज्जी ने धूल में मिला दिया. जीतेजी मर गया वह परिवार. मेरी मां ने भी दिल खोल कर रज्जी की ननद को कोसा.

शोक के साथसाथ बदहवास था सुकेश का परिवार. सत्य क्या होगा मैं समझ सकता हूं. बुरा हो मेरी मां का, मेरी बहन का जिन्हें झूठ बोलने से जरा भी डर नहीं लगता. मरने वाले की मिट्टी का इस से बड़ा अपमान, इस से बड़ा मजाक क्या होगा जिस की आत्महत्या का रंग उस की निर्दोष बहन के चेहरे पर कालिख बन कर पुत गया.

ऐसा क्या किया सुकेश ने? आत्महत्या क्यों की? मारना ही था तो रज्जी को मार डालता. सुकेश का दाहसंस्कार हुआ और उसी चिता में मेरा, मेरी मां और बहन के साथ जन्मजात रिश्ता भी जल कर राख हो गया. अच्छा नहीं किया रज्जी ने. अपना घर तो जलाया, अपनी ननद का भविष्य भी पाताल में धकेल दिया. श्मशान भूमि में खड़ा मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कहां जाऊं? मेरा घर कहां है? क्या वह मेरा घर है जहां मेरी विधवा मां, विधवा बहन रहती है जिन के साथ हर किसी की सहानुभूति है या कहीं और जहां मैं अकेला रह कर चैन से जीना चाहता हूं?

सच्ची श्रद्धांजलि- भाग 1: विधवा निर्मला ने क्यों की थी दूसरी शादी?

सच्चा भय था मेरे पिता की आंख में जब उन की मृत्यु हुई थी. सच है, मैं इन दोनों के साथ नहीं जी सकता. नहीं रह पाऊंगा अब मैं इन दोनों के साथ. किसी के हंसतेखेलते परिवार से उन का जवान बेटा छीन कर उस के परिवार का तमाशा बना दिया, कौन सजा देगा इन दोनों को? किसी भी परिवार के अंदर की कहानी भला कानून कैसे जान सकता है जो इन्हें कोई सजा मिले. सजा तो मिलनी चाहिए इन्हें, किसी का सहारा छीना है न इन्होंने, अब इन का भी सहारा छिन जाए तो पता चले आग का लगना, घर का जलना किसे कहते हैं.

सुकेश की पीड़ा मेरी पीड़ा बन कर मेरा भीतरबाहर सब जला रही है. मैं उस से आंखें कैसे मिलाऊं? क्या होगा उस की बहन का, क्या होगा उस के मांबाप का?

औफिस के काम के बहाने मैं कितने ही दिन अपने घर नहीं गया. अपने अभिन्न मित्र के घर पर रहने लगा जो मेरी सारी की सारी समस्या समझता था. कुछ दिन बीत गए. मेरे घर हो कर आया था वह.

‘‘सुकेश के मातापिता का गुजारा तो उन की पैंशन से हो जाएगा लेकिन तुम्हारी मां का क्या होगा? अब तो रज्जी भी वापस आ गई है. सुकेश के घर वालों ने उसे वापस नहीं लिया. शहरभर में उन की बेटी की बदनामी हो रही है और तुम सचाई से मुंह छिपाए मेरे घर पर रह रहे हो?’’

‘‘सचाई क्या है, यह सारा शहर जानता है. सचाई तो वही है जो रज्जी ने सब को दिखाई है. मेरी मां जो कह रही हैं, दुनिया तो उसी को सच कह रही है. मैं किस सचाई से मुंह छिपाए बैठा हूं, क्या तुम नहीं जानते हो? सुकेश की बहन बदनाम हो गई मेरे परिवार की वजह से. मैं तो इस सचाई से नजरें नहीं मिला रहा. वह सीधीसादी सी मासूम लड़की सिर्फ इस दोष की सजा भोग रही है कि रज्जी उस की भाभी है. क्या कुसूर है उस का? सिर्फ यही कि वह सुकेश की बहन है.’’

‘‘एक बार दोनों परिवारों से मिलो तो, सोम. दोनों की सुनो तो सही.’’

‘‘अपने परिवार की तो कब से सुन रहा हूं. बचपन से मैं ने भी वही भोगा है जो सुकेश और उस का परिवार भोग रहा है. अपनी मां और अपनी बहन की नसनस जानता हूं मैं. सुकेश ने इतना बड़ा कदम क्यों उठा लिया, वह उस के परिवार से ज्यादा कौन जानता है? मेरी तो वे सूरत भी देखना नहीं चाहेंगे. तुम सुकेश के मित्र बन कर वहां जाओ, पता तो चले क्या हुआ. मेरा एक और काम कर दो, मेरे भाई.’’

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मान गया वह. औफिस के बाद वह सुकेश के घर से होता आया. मेरी तरह वह भी बेहद बेचैन था. बोला, ‘‘रज्जी को तो राजनीति में होना चाहिए था, कहां आप लोगों ने उस की शादी कर दी.’’

सांस रोक कर मैं ने उस की बात सुनी. वह आगे बोला, ‘‘कुछ दिन से सब ठीक चल रहा था. बड़े प्यार से रज्जी ने सब के मन में जगह बना ली थी. सीधासादा परिवार उस की सारी आदतें भुला कर उस पर पूर्ण विश्वास करने लगा था. सुकेश की बहन का सारा गहना उस ने अपने लौकर में रखवा लिया था. सुकेश की मां ने भी अपनी सारी जमापूंजी बहू को यानी रज्जी को दे दी ताकि वह ठीक से संभाल सके.

‘‘कुछ दिन पहले उन्हें किसी शादी में जाना था. ननद, भाभी लौकर से गहने निकालने गईं. वापसी पर ननद किसी काम से अपने कालेज चली गई. कुछ विद्यार्थी एक्स्ट्रा क्लास के लिए आने वाले थे. लगभग 3 घंटे बाद जब वह घर आई तो हैरान रह गई, क्योंकि रज्जी ने घर वालों को बताया कि गहने उस के पास हैं ही नहीं. घर में बवाल उठा. सारा का सारा इलजाम उस की ननद पर कि वही सारे के सारे गहने समेट कर किसी के साथ भाग जाने वाली है. तनाव इतना बढ़ गया कि सुकेश ने कुछ खा लिया.’’

‘‘कालेज में प्राध्यापिका है वह. पढ़ीलिखी सुलझी हुई लड़की. उसे भला भागने की क्या जरूरत थी. भागना तो रज्जी को था सब समेट कर. कुछ ऐसा होगा, इस का अंदेशा था मुझे लेकिन सुकेश आत्महत्या कर लेगा, यह नहीं सोचा था. सुकेश रज्जी की वजह से डिप्रैशन में रहने लगा था कुछ समय से. सच पूछो तो इंसान डिप्रैशन में जाता ही तब है जब उस के अपने उस के साथ धोखा करते हैं या उसे समझने की कोशिश नहीं करते. बाहर वालों की गालियां भी खा कर इंसान इतना विचलित नहीं होता जितना अपनों की बोलियां उसे परेशान करती हैं. परिवार में एक स्वस्थ माहौल की जगह लागलपेट और हेराफेरी चले तो इंसान डिप्रैशन में ही तो जाएगा. ऐसा इंसान आखिर करेगा भी तो क्या?’’

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‘‘अब क्या करेगा तू, सोम?’’

समझ नहीं पा रहा हूं, क्या करूं? पर इतना सच है कि मैं रज्जी और मां के साथ नहीं रह पाऊंगा. मेरा जीवन एक दोराहे पर आ कर रुक गया है. दोराहा भी नहीं कह सकता. एक चौराहा समझो. मां और रज्जी के साथ रहना भी नहीं चाहता, सुकेश का परिवार मेरी सूरत से भी नफरत करेगा, आत्महत्या को कायरता समझता हूं और चौथा रास्ता है घर से दूर का तबादला ले कर इन दोनों को ही पीठ दिखा दूं. क्या करूं? पीठ ही दिखाना ठीक रहेगा. लड़ नहीं सकता.

कुछ रिश्ते इस तरह के होते हैं जिन से लड़ा नहीं जा सकता, जिन से न हारा जाता है न ही जीतने में खुशी या संताप होता है. इन से दूर चला जाऊं तो क्या पता इन्हें सुकेश के मांबाप की पीड़ा का जरा सा एहसास हो. क्या करूं, मैं समझ नहीं पा रहा, कोई भी रास्ता साफसाफ नजर नहीं आता. क्या आप बताएंगे मुझे कोई उचित रास्ता?

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