लेखिका- एकता एस दुबे

‘थक गई हूं मैं घर के काम से.  बस, वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर की सारी टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं. अब मु?ो भी चेंज चाहिए कुछ,’ शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं.

एक बार अपनी बोरियतभरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान बनाया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं जिस में वे घर वालों पर नहीं, बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें. इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था.

यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी उठ गई थीं.

उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय पर वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो चाहत की विजय हुई.

औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

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