लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

'जन गण मन अधिनायक जय हे... भारत भाग्य विधाता...' की धुन स्टेडियम में गूंज रही थी और गोल्ड मैडल के विजेता के रूप में भारत के अंकुर का नाम पुकारा जा रहा था. ओलिंपिक खेलों में अंकुर ने मैडल जीत कर सभी का मान बढ़ाया था.

अंकुर के पिता विजय भी टैलीविजन पर यह सीन देख रहे थे. घर पर बधाई देने वालों के आनेजाने का दौर भी जारी था.

विजय की आंखों में बारबार आंसू तैर जाते थे. उन का रुमाल आंसुओं से भीग चुका था, पर आंसू तो थम ही नहीं रहे थे.

विजय अंकुर की मां की तसवीर के सामने खड़े हो गए और उस से बात करने लगे, "राधिका... काश, आज तुम भी साथ होती तो अपने बेटे की इस जीत पर कितना खुश होती..."

इतना कह कर विजय की आंखों से आंखों से उमड़ पड़े. उन से खड़ा नहीं हुआ जा सका, तो वे वहीं सोफे में ही धंस गए. उन की रोती आंखों के सामने राधिका के साथ गुजारे पल घूमने लगे.

अंकुर का मन बचपन से ही खेल की तरफ था. दूसरे लड़कों की तरह वह भी क्रिकेट का दीवाना था, पर राधिका और विजय ने उसे समझाया कि वह बैडमिंटन में अपना कैरियर बनाए और उस के लिए जरूरी था कि अंकुर किसी स्पोर्ट्स कालेज में पढ़े.

अपनी अथक मेहनत से अंकुर को लखनऊ के स्पोर्ट्स कालेज में दाखिला भी मिल गया था. यह एक बड़ी बात थी और ठीक एक महीने के बाद अंकुर को स्पोर्ट्स कालेज जौइन करने जाना था.

अंकुर के जाने से विजय खुश तो थे, पर बेटे के दूर जाने से वे दुखी भी थे. अंकुर उन का एकलौता बेटा था और अभी तो उसे बाहर की दुनिया की कोई भी समझ नहीं थी. जब देखो मां के आंचल से ही बंधा रहता है...

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