भूपेश क्यों नहीं ‘अध्यक्षी’ छोड़ना चाहते !

और शायद भूपेश बघेल यह भली-भांति जानते हैं कि अध्यक्ष की कुर्सी कांग्रेस पार्टी में सत्ता प्राप्ति का रास्ता होती है यह एक तरह से मुख्यमंत्री को भी कंट्रोल कर सकती है.

यही गुढ रहस्य है कि दिसंबर 2018 में छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के समक्ष तुच्छ पद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी को छोड़ना उन्हें नागवर गुजरा और लगभग छ: माह व्यतीत होने के बाद भी स्वयं आगे आकर ‘अध्यक्षी’ छोड़ने को तैयार नहीं हैं.

देखते ही देखते समय व्यतीत होता जा रहा है कांग्रेस पार्टी अर्श से फर्श को यानी नवंबर के विधानसभा चुनाव के दरम्यान ऊंचाई पर पहुंच कर मई 2019 मैं लोकसभा चुनाव के दरम्यान फर्श पर धड़ाम से गिर कर चारों खाने चित हो चुकी है.मगर कोई कांग्रेसमैन पदाधिकारी दिल्ली मैं बैठे आलाकमान यह चिंतन करने की जहमत नहीं उठा रहे कि आखिर इस सबके पीछे रहस्य क्या है.

 ‘अध्यक्षी’ की हलचल शुरू….

प्रदेश में भूपेश बघेल मुख्यमंत्री भी है और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदर यानी अध्यक्ष भी हैं.एक व्यक्ति एक पद सिद्धांत की बातें कांग्रेस में बहुत होती हैं मगर यह हवा हवाई बातें जमीन पर तब ही उतरती है जब बहुत देर हो चुकी होती है.

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अगरचे विधानसभा चुनाव के पश्चात 2018 में मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही भूपेश बघेल स्वयं हो कर अध्यक्ष पद का परित्याग करते तो कांग्रेस की हालत प्रदेश में इतनी पतली नहीं होती,  न ही इतनी शर्मनाक हार का सामना करना पड़ता.ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री और राजनेता के रूप मे भूपेश बघेल का कद भी बढ़ता.लोकसभा में अच्छा प्रतिसाद मिलता तब भी भूपेश बघेल का कद बढ़ जाता की इनके नेत्तव मैं विधानसभा में बेहतरीन परिणाम आए थे और जो नए अध्यक्ष बने हैं वह फ्लॉप हो गए.मगर भूपेश बघेल यह मानकर चल रहे थे कि प्रदेश में कांग्रेस की लहर है उनका जादुई नेत्तव है इसलिए 11 मे 11 सीटें कांग्रेस जीतेगी। मगर हुआ उलट मात्र दो लोकसभा सीटें ही कांग्रेस की झोली में आ पायी.

इधर अब सातवें माह में कांग्रेस की कुंभकरणी निद्रा टूटी है और अब ‘अध्यक्ष’ ढूढां जाने लगा है.

अध्यक्ष ‘डमी’ को क्यों  बनाया जाता है

कांग्रेस की यह फितरत है जब प्रदेश में कोई व्यक्ति सत्तासीन होता है तो संगठन को अपने जेब में रखना चाहता है ताकि सत्ता की रास पर उसका हाथ हो.यही सब प्रथम मुख्यमंत्री रहे अजीत प्रमोद कुमार जोगी के मुख्यमंत्री काल में होता रहा.जोगी जब तलक मुख्यमंत्री थे आलाकमान अध्यक्ष उनके ही रबर स्टांप को तरजीह देती रही.विश्लेषण करें तो आप देखेंगे कि यही कारण था कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की दुर्गति होती चली गई और भाजपा सत्तासीन हो गई.

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अध्यक्ष को डमी रखने का चलन रहा है.इसके लिए कांग्रेस में एक से एक फार्मूले इजाद किए जाते हैं ताकि सबके मुंह बंद हो जाएं.कुछ प्रदेशों में पिछड़ा वर्ग से मुख्यमंत्री हैं तो आदिवासी समुदाय से ‘अध्यक्ष’ ढूंढा जा रहा है ताकि आदिवासी संतुष्ट रहें.इसकी आड़ में डमी शख्स को अध्यक्ष बनाकर प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में बिठा दिया जाएगा और सत्ता का घोड़ा बेधड़क दोड़ता रहे इसका सरअंजाम हो जाएगा ।अगरचे कोई सक्षम तेज तर्रार व्यक्ति प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाएगा तो वह मुख्यमंत्री के कांख दबा कर रखेगा बल्कि हलक में हाथ डालकर रखेगा इसलिए यह नौटंकी खेली जाती है प्रदेश में यही सब चल रहा है पात्र ढूंढे जा रहे हैं.

मैं मैं और मैं ही हावी है!

कांग्रेस पार्टी का यही सच है जिसे दबी जुबान वक्त बे वक्त छोटा या बड़ा नेता स्वीकार करता है यह है मैं और मैं.जो यहां एक दफा एक पद प्राप्त कर लेता है वह सोचता है  मेरे और मेरे परिवार के अलावा कोई दूसरा आदमी यहांआने न पावे.और यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी धीरे-धीरे खत्म होती चली जा रही है.

सत्यनारायण शर्मा अविभाजित मध्यप्रदेश के दरमियान कई पदों पर रहे बातचीत में स्वीकार करते हैं कि पार्टी में सामूहिक नेतृत्व का अभाव है वही आदिवासी नेता बोधराम कंवर के अनुसार कांग्रेस में मैं मैं वाली परंपरा कभी नहीं रही हम आलाकमान के सिपाही हैं.इन्हीं विरोधाभासी सोच के मध्य कांग्रेस की नैय्या डगमगाती हुई आगे बढ़ रही है अब यह प्रदेश की आवाम पाठक तय करें कि जनता के विकास, जनता के उत्थान के लिए बनी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस जनता के हितों को कितना साध रही है और व्यक्तिवाद के घेरे में कितना पीस रही है.

 कांग्रेस आलाकमान भी अंधेरे में !

प्रदेश में अध्यक्ष पद की कवायद अब तेज हो रही है.अगरचे यह अनवरी में निर्णित होता तो लोकसभा में बेहतरीन प्रतिसाद पार्टी को मिलता.मगर कांग्रेस जैसे ही सत्तासीन होती है सभी अपने भाई भतीजो, बेटो को लाइन में लगाने जुट जाती है यही छत्तीसगढ़ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने किया जिसका ज़िक्र राहुल गांधी ने लोकसभा समर में बुरी तरह पराजय के बाद किया.प्रदेश प्रभारी पी.एल. पुनिया ने विधानसभा में जीत क्या दिला दी छत्तीसगढ़ उनका राजप्रसाद बन गया है. कांग्रेस पार्टी को मानो संसार का खजाना मिल गया है आगे सब कुछ  खत्म है !

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शायद यही कारण है कि संगठन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर मौन धारण कर लिया गया. और यही कारण है कांग्रेस रसातल में जा रही है ।कहने को प्रदेश में 67 विधायकों का भारी बहुमत है मगर एकला चलो की नीति के कारण न तो जनता का भला हो रहा है,ना कांग्रेस पार्टी का।हां  विपक्ष अर्थात भाजपा को जीवन मिल रहा है, प्राणवायु मिल रही है और वह अपने पैरों पर अब आगे खड़ी होती चली जा रही है.

मीडिया को मिटाने की चाह

सच लिखा, क्योंकि सत्ता से गलबहियां करना तो मीडिया का काम नहीं है. एक राजनीतिक पत्रकार की भूमिका, जनता की तरफ से सिर्फ जरूरी सवाल करना ही नहीं होता, बल्कि अगर राजनेता सवाल से बचने की कोशिश कर रहा है या तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहा है, तो उसको दृढ़तापूर्वक चुनौती देना भी होता है. मीडिया का काम है शक करना और सवाल पूछना. सरकार के काम का विश्लेषण करना और जनता को सच से रूबरू कराना. इसीलिए इसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है, मगर आज  मीडिया खुद सवालों में घिरा हुआ है. सत्ता ने डराओ, धमकाओ, मारो और राज करो, की नीति के तहत मीडिया की कमर तोड़ दी है. उसकी स्वतंत्रता हर ली है. जो बिका उसे खरीद लिया, जो नहीं बिका उसका दम निकाल दिया. ऐसे में तानाशाही फरमानों से डरे हुए देश में सच की आवाज कौन उठा सकता है? सत्ता से सवाल पूछने की हिम्मत कौन कर सकता है? सरकार के कामों का विश्लेषण करने की हिम्मत किसकी है? सरकार की ओर उंगली उठाने की गुस्ताखी कौन कर सकता है? जिसने की उसे नेस्तनाबूद कर दिया गया. उखाड़ फेंका गया. सलाखों में जकड़ दिया गया. मौत के घाट उतार दिया गया. जी हां, हम उस लोकतांत्रिक देश की बात कर रहे हैं, जहां जनता द्वारा चुनी हुई सरकार से जनता को सवाल पूछने की मनाही है.

आपको जज बी.एच.लोया याद हैं? जज प्रकाश थोंबरे और वकील श्रीकांत खंडेलकर याद हैं? पत्रकार गौरी लंकेश याद हैं? नरेन्द्र दाभोलकर याद हैं? गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी याद हैं? गुजरात दंगे की हकीकत खोलने वाले आईपीएस संजीव भट्ट का क्या हाल हुआ, देखा आपने? इन्होंने सच की राह पर चलने का जोखिम उठाया और सत्ता द्वारा खेत दिये गये. इनके साथ क्या – क्या हुआ वह सच्चाइयां कभी सामने नहीं आईं. सत्ता के डर से सच दफ़ना दिया गया, हमेशा के लिए. सत्ता के स्याह और डरावने सच की अनगिनत कहानियां हैं. मगर इन कहानियों को कौन कहे? जिनको कहना चाहिए वे बिक गये, मारे डर के सत्ता के भोंपू हो गये. जो नहीं बिके, उनका गला घोंट दिया गया. मीडिया यानी लोकतन्त्र का चौथा खम्भा अब पूरी तरह जर्जर हो चुका है. कब ढह जाये कहा नहीं जा सकता.

भारत से लेकर दुनिया का बाप कहलाने वाले देश अमरीका तक में मीडिया पर सत्ता के हंटर बरस रहे हैं. अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने देश के स्थापित अखबारों पर प्रहार कर रहे हैं तो यहां मीडिया की स्वतंत्रता लगभग खत्म हो चुकी है. सत्ताधारियों के डर और दबाव में मीडिया-मालिकों और पत्रकारों के पास बस एक काम बचा है – चाटुकारिता. आज ज्यादातर अखबारों-पत्रिकाओं में जो कुछ छप रहा है या टीवी चैनलों पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह सरकार की ‘गौरव-गाथा’ के सिवा कुछ नहीं है. अरबों-खरबों के विज्ञापनों की खैरात बांट कर सत्ता मीडिया से अपने तलुए चटवा रही है, अपनी वाहवाही करवा रही है और लालची, लोलुप मीडिया-मालिक इसे अपना ‘अहो भाग्य’ कह रहे हैं. भारतीय मीडिया का एक धड़ा, जिसे झोली भर-भर कर बख्शीशों से नवाजा गया है, सरकारी भोंपू बना हुआ है. और सख्त कलमों की नोंकें तुड़वा दी गयी हैं. जो तोड़ने पर राजी नहीं हुए उन्हें उनकी कलम के साथ उठा कर संस्थानों से बाहर फेंक दिया गया है.

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आवाज दबाने का अनोखा अंदाज

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल के दिनों में ‘फेक न्यूज अवार्ड्स’ की घोषणा की. अपने खिलाफ अमेरिकी अखबारों में छपने वाली खबरों को झूठी और भ्रामक बताना शुरू कर दिया. अमेरिकी मीडिया की धज्जियां उड़ाने के लिए बकायदा ‘अवॉर्ड्स’ घोषित कर दिये. अपने गुनाह छिपाने के लिए ट्रंप ने ‘सबसे भ्रष्ट और बेईमान’ कवरेज के लिए अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को विजेता घोषित किया. एबीसी न्यूज, सीएनएन, टाइम और वाशिंगटन पोस्ट को भी इन अनोखे अवार्ड में जगह दी और यह साबित करने की कोशिश की कि यह तमाम मीडिया हाउस सरकार के बारे में सिर्फ गलत ही लिखते-छापते हैं. उन्होंने ‘विजेताओं’ की सूची बकायदा रिपब्लिकन नेशनल कमेटी की वेबसाइट पर भी जारी की. जनता की आवाज दबाने का कितना शर्मनाक तरीका है यह. मीडिया पर इस तरह का हमला आश्चर्यजनक है.

गौरतलब है कि ट्रंप हमेशा से अपने ट्वीट्स और बड़बोलेपन को लेकर चर्चित रहे हैं. वे हमेशा से मीडिया विरोधी हैं. अपने चुनाव अभियान के दौरान भी उन्होंने जम कर ‘फेक न्यूज’ शब्द का इस्तेमाल किया था. राष्ट्रपति बनने के बाद से वे लगातार मीडिया हाउसों और उनके मालिकों-सम्पादकों पर निशाना साधते रहे हैं. आजकल वे अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के सम्पादक  ए.जी. सल्जबर्जर के पीछे पड़े हुए हैं और प्रिंट मीडिया और जर्नलिज्म पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे हैं. वह मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं और उसे एक मरता हुआ उद्योग करार देते हैं. ट्रंप वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स पर आरोप लगाते हैं और कहते हैं कि मेरी सरकार अच्छा काम कर रही है, लेकिन यह दोनों अखबार सरकार के अच्छे कामों को भी नकारात्मक तरीके से पेश करते हैं. वह इन अखबारों द्वारा किये गये खुलासों और आरोपों से खुद को बचाने की कोशिश में मीडिया को ‘लोगों का दुश्मन’ करार देते हैं. वे उन सवालों के जवाब नहीं देना चाहते जो सवाल ये अखबार उठा रहे हैं. दरअसल ट्रंप अपने हमेशा सकारात्मक न्यूज कवरेज चाहते हैं और अपने विरोधियों के लिए आलोचनात्मक खबरें. ‘फेक न्यूज’, ‘लोगों का दुश्मन’ जैसे वाक्यों से मीडिया को लगातार कोसना उनका इस लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता है. जो अखबार उनके इस उद्देश्य में बाधा बनते हैं, वह उनके पीछे पड़ जाते हैं. राजनीति के पिच पर ट्रंप रेफरी को हर हाल में अपने पाले में करना चाहते हैं. वह रेफरी के फैसलों को अपने पक्ष में नहीं करना चाहते, बल्कि उनका उद्देश्य रेफरी की विश्वसनीयता को पूरी तरह खत्म कर देना है. और उनकी यह रणनीति काम भी कर रही है, कम से कम ट्रंप के सबसे वफादार समर्थकों के बीच में तो जरूर.

‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के पीछे ट्रंप इसलिए पड़े हुए हैं क्योंकि इस अखबार ने उनकी नाजायज सम्पत्ति और कर चोरी का खुलासा किया था. अखबार ने लिखा था कि ट्रंप ने अपनी मेहनत से कोई सम्पत्ति अर्जित नहीं की, जैसा प्रचार उन्होंने अपने चुनाव के वक्त किया था. ट्रंप और उनके भाई-बहनों को उनके बिल्डर पिता से अथाह सम्पत्ति हासिल हुई है. यह सम्पत्ति नाजायज तरीके से बनायी गयी थी. अखबार कहता है कि  ट्रंप और उनके भाई-बहनों ने अपने पिता से तोहफे में मिली अरबों डॉलर की सम्पत्ति छिपाने के लिए कई फर्जी कम्पनियां बनायीं. यही नहीं ट्रंप ने लाखों रुपये के कर को छिपाने में भी अपने पिता की मदद की थी. जबकि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ट्रंप ने दावा किया था कि उनके पास जो सम्पत्ति है वह उन्होंने अपने दम पर बनायी है और उनके पिता फ्रेड ट्रंप से उन्हें कोई वित्तीय मदद नहीं मिली है. जो गोपनीय दस्तावेज, टैक्स रिटर्न के पेपर्स और अन्य वित्तीय रिकॉर्ड्स न्यूयार्क टाइम्स के पास हैं, उनके मुताबिक ट्रंप को अपने पिता के रियल एस्टेट के साम्राज्य से आज के हिसाब से कम से कम 41.3 करोड़ डॉलर मिले थे और इतनी बड़ी धनराशि उन्हें इसलिए मिली थी क्योंकि ट्रंप ने कर अदा करने से बचने में पिता की मदद की थी. यही नहीं,  ट्रंप ने अपने माता-पिता की रियल एस्टेट की सम्पत्तियों की कम कीमत आंकने की रणनीति बनाने में भी मदद की थी, जिससे जब ये सम्पत्तियां उन्हें तथा उनके भाई-बहनों को हस्तांतरित की गयीं तो काफी हद तक कर कम हो गया. ट्रंप ने पिता से तोहफे में मिली अरबों डॉलर की सम्पत्ति छिपाने के लिए फर्जी कम्पनियां बनायीं और इस तरह सारा ब्लैक मनी वाइट किया गया.

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एक के बाद एक तीन शादियां करने वाले ट्रंप के महिलाओं के साथ भी नाजायज रिश्ते, अश्लील हरकतें और फब्तियां भी किसी से छिपी नहीं हैं. उनकी अश्लील हरकतों की कई कहानियां समय-समय पर अखबारों में उजागर होती रही हैं. डोनाल्ड ट्रंप का एक ऑडियो भी सामने आ चुका है, जिसमें वो महिलाओं के बारे में अभद्र बातें करते सुने गये हैं. ये ऑडियो एक टीवी शो की शूटिंग के दौरान का है. वहीं गैर-धर्म के प्रति उनकी नफरत भी जगजाहिर है. मुसलमानों के प्रति ट्रंप की नफरत उस वक्त जाहिर हुई थी, जब 7 दिसंबर 2015 को डोनाल्ड ट्रंप ने सबसे विवादित बयान दिया. उन्होंने साउथ कैरोलिना में एक चुनावी रैली में कहा था कि मुसलमानों के लिए अमरीका के दरवाजे पूरी तरह बंद कर दिए जाने चाहिए. साथ ही उन्होंने कहा था कि अमेरिका में रहने वाले मुसलमानों के बारे में भी पूरी जांच पड़ताल होनी चाहिए. उन्होंने अपने इस सख्त प्रस्ताव से सिर्फ लंदन के मेयर सादिक खान को ही छूट दी थी. इस पर काफी हंगामा मचा था. आज भी बहुत से लोगों को लगता है कि ट्रंप की मुस्लिम विरोधी छवि पूरी दुनिया के लिए खतरनाक है.

उग्र राष्ट्रवाद के प्रणेता

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोनों मीडिया विरोधी हैं. दोनों के बीच कई मामलों में काफी समानता है. दोनों के बीच पटती भी खूब है. ट्रंप मोदी को अपना दोस्त बताते नहीं थकते. अमेरिका आने पर उनका शानदार स्वागत-सत्कार करते हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव 2019 की प्रचंड जीत पर बकायदा टेलीफोन करके बधाईयां दीं. तू मेरी खुजा, मैं तेरी खुजाता हूं, वाली दोस्ती है दोनों के बीच. वही अमेरिका, जिसने कभी मोदी को वीजा देने से इन्कार कर दिया था, आज मोदी की राह में पलक-पांवड़े बिछाये हुए है. क्यों? क्योंकि सत्ताशीर्ष पर बैठे दोनों धुरंधरों के मिजाज़ मिलते हैं, व्यवहार मिलते हैं, कर्म मिलते हैं, सोच मिलती है, रवैय्या मिलता है. दोनों अपने आगे पूरी दुनिया को बौना समझते हैं. दोनों अपने मन के मालिक हैं. दोनों सवाल पूछने वालों से नफरत करते हैं. दोनों सच से परहेज करते हैं. दोनों मीडिया को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहते हैं.

ट्रंप मोदी के बड़े फैन हैं. वे कई मौकों पर प्रधानमंत्री मोदी और भारत की तारीफ भी कर चुके हैं. दोनों गे्रट शो-मैन हैं, अच्छे वक्ता हैं, उन्हें पता है भीड़ को कैसे खुश करना है और विरोधियों को कैसे नीचा दिखाना है. मोदी और ट्रंप- दोनों ही ‘नार्सिसिस्ट’ हैं. नार्सिसिस्ट यानी ऐसे शख्स जो खुद से बेहद प्यार करते हैं. जो अपनी वाक्-प्रतिभा के चलते अपनी कमजोरियों को छिपा सकते हैं. अपनी अलग आदतों के चलते आकर्षक लगते हैं और जनता को आकर्षित कर लेते हैं, मगर उनका मोह मानसिक और शारीरिक रूप से हानि पहुंचाता है. ऐसे लोगों को लगता है कि वे बेहद प्रतिभाशाली हैं और जनता की दिक्कतें दूर करने के लिए ऊपर वाले ने उन्हें धरती पर भेजा है.

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कुछ यही हाल ट्रंप और मोदी का है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने भारतीय मूल के वोटरों का दिल जीतने के लिए नरेंद्र मोदी के मशहूर नारे ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ की नकल कर अपना नारा बनाया, ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’. मोदी ने आम चुनाव में जनता को ‘अच्छे दिन’ का सपना दिखाया था. ट्रंप ने इसी तर्ज पर अमेरिका को फिर से महान बनाने की अपील जनता से की. ट्रंप और मोदी दोनों पर ही अल्पसंख्यकों के प्रति दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगता रहा है. मोदी ने कोलकाता में अपने एक भाषण के दौरान बांग्लादेशी प्रवासियों पर पाबंदी लगाये जाने की धमकी दी थी. हालांकि उन्होंने एक बार यह भी कहा था कि बांग्लादेशी हिन्दू प्रवासियों का भारत में स्वागत है. दूसरी तरफ ट्रंप के दिल में मुसलमानों और मेक्सिको के प्रवासियों के प्रति नफरत भरी हुई है. चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने मुसलमानों को अमेरिका में घुसने से रोकने और मेक्सिको के प्रवासियों को अमेरिका में घुसने से रोकने के लिए बड़ी दीवार बनाये जाने की बात कही थी. इस तरह दोनों पर ही ‘उग्र राष्ट्रवाद’ हावी है. और इस उग्र राष्ट्रवाद की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है मीडिया, जिसको खत्म करना दोनों की प्राथमिकता है.

जवाबदेही तय करने की जरूरत

अब अमेरिकी मीडिया जहां हार मानने को तैयार नहीं है और जिसने एकजुट होकर ट्रंप की जवाबदेही तय करने का फैसला किया है, वहीं भारतीय मीडिया का एक धड़ा, जिसे खूब बख्शीश और मुआवजों से लाद दिया गया है, मोदी का भोंपू बनकर उभरा है. ये अब मोदी की सेना की तरह काम कर रहा है. खूब शोर मचा रहा है और जनता से जुड़े हर मुद्दे, हर सवाल को पीछे ढकेल देता है. यह प्रधानमंत्री के लिए प्रधानमंत्री के कहे अनुसार मनमाफिक इन्टरव्यू प्लैन करता है. उनके मनमाफिक सवाल-जवाब तैयार करता है और उसका खूब प्रचार-प्रसार करता है. वह देशहित से जुड़ा, जनता की समस्याओं से जुड़ा प्रधानमंत्री को असहज करने वाला कोई सवाल नहीं पूछता. कितनी हैरत की बात है कि 26 मई 2014 को कुर्सी पर बैठने के बाद पूरे पांच साल तक मोदी ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की. जबकि किसी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करना स्वतंत्र मीडिया पर (जिसे वर्तमान सरकार सिकुलर्स और प्रेसिट्यूट्स कहकर पुकारती है) किया जाने वाला एहसान नहीं है, बल्कि यह सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है. सत्ता से सवाल पूछना स्वतंत्र प्रेस का अधिकार है. मगर प्रधानमंत्री मोदी ने इस अधिकार से मीडिया को वंचित रखा. सोशल मीडिया के जरिए मोदी का सम्मानित बुजुर्ग जैसा इकतरफा संवाद और रेडियो पर प्रसारित होने वाला उनका निजी एकालाप, वास्तव में लोकतंत्र और एक स्वतंत्र प्रेस की भूमिका के प्रति निकृष्ट अवमानना के भाव को प्रकट करता है. इसे सवालों से बचने की रणनीति कहा जाता है. जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी, मुख्यधारा के मीडिया के प्रति जिनकी नफरत के बारे में सबको पता है, व्हाइट हाउस (अमेरिकी राष्ट्रपति निवास) में नियमित प्रेस कांफ्रेंस की परम्परा को अभी समाप्त नहीं किया है.

लोकतांत्रिक दुनिया में मोदी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने आधिकारिक तौर पर सवाल पूछे जाने की प्रथा को अंगूठा दिखा दिया है. उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रेस सलाहकार तक की नियुक्ति नहीं की है, जबकि इसका रिवाज-सा रहा है. भाजपा के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसका पालन किया था. इस पद पर किसी को बैठाये जाने से प्रेस को प्रधानमंत्री  के उनके अनेक वादों के बारे में सवाल पूछने में आसानी होती, मगर जब वादे पूरे ही नहीं करने हैं तो सवाल कैसे पूछने देते?

विदेशी दौरों के वक्त प्रधानमंत्री के हवाई जहाज में पत्रकारों को साथ ले जाने की परंपरा को भी खत्म कर दिया है. जबकि प्रधानमंत्री के सहयात्री होने से संवाददाताओं और संपादकों को प्रधानमंत्री से सवाल पूछने का मौका मिलता था.

गौरतलब है कि मोदी के पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह, जिनका ‘मौनमोहन सिंह’ कहकर मोदी मजाक उड़ाया करते थे, यात्रा के दौरान हवाई जहाज में पत्रकारों के साथ प्रेस कांफ्रेंस किया करते थे. इसमें वे पत्रकारों के तमाम सवालों का जवाब दिया करते थे और ये सवाल पहले से तय या चुने हुए नहीं होते थे. मनमोहन सिंह ने कार्यालय में रहते हुए कम से कम तीन बड़ी प्रेस कांफ्रेंस कीं (2004, 2006, 2010), जिसमें कोई भी शिरकत कर सकता था. जिसमें पत्रकार राष्ट्रीय हित के मसलों पर प्रधानमंत्री से सीधे अहम सवाल पूछ सकते थे.

अमेरिकी राष्ट्रपति भी विदेश दौरों के दौरान अपने साथ मीडिया के दल को लेकर जाते हैं और जरूरी सवाल पूछने के इस मौके को पत्रकारों के लिहाज से काफी सामान्य सी चीज माना जाता है. मगर मोदी को आजाद प्रेस बिल्कुल नहीं सुहाता है. और उनका यह स्वभाव आज का नहीं है. इसका इतिहास 2002 के गुजरात दंगों से ही शुरू होता है. अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके उन्होंने संवाद के परम्परागत माध्यमों को दरगुजर करने की कोशिश की है.

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ऐसे में अब मीडिया घरानों, पत्रकारों और देश के बुद्धिजीवियों को तय करना होगा कि जो बात गुजरात के मुख्यमंत्री रहते चल गयी, और मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पांच साल तक चलती रही, वह क्या आगे भी चलेगी या इस पर कोई कड़ा फैसला लेने की जरूरत है. मीडिया को नहीं भूलना चाहिए कि उसका काम सवाल पूछना है, उसका अस्तित्व ही सवाल पूछने पर टिका हुआ है. लोकतंत्र के चौथे खम्भे को आज पहले खुद से यह सवाल पूछना है कि उसे सत्ता से गलबहियां करनी है या जनता की आवाज बनना है. एकजुट होकर अपनी अपनी स्वतंत्रता को फिर हासिल करना है या टुकड़े-टुकड़े होकर अपना अस्तित्व मिटा देना है. किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में सत्ता पर काबिज सरकार के कामों का मूल्यांकन तभी हो सकता है, जब उस राष्ट्र कर मीडिया स्वतंत्र हो और जिसमें सत्ता से सवाल करने की क्षमता व ताकत हो. अगर मीडिया स्वतंत्र और ताकतवर नहीं है तो आप किन सूचनाओं के आधार पर सरकार का मूल्यांकन कर पाएंगे? मीडिया का अस्तित्व ही सवाल पूछने और सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही तय करने के लिए है. पत्रकारिता में इसके अलावा बाकी जो कुछ होता है वह जनसम्पर्क की कवायत भर है. सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के लिए पूरे पन्ने का विज्ञापन देने के लिए आजाद है. बगैर सूचना और सवाल के न मीडिया का कोई अस्तित्व है और न जनता लोकतंत्र की नागरिक कहलाने लायक है.

Edited By- Neelesh Singh Sisodia

मोदी का योग: भूपेश बघेल का बायकाट

प्रदेश में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल केंद्र सरकार विशेषत: नरेंद्र दामोदरदास मोदी के साथ दो-दो हाथ करने की कवायद में लग गए हैं. जिसका प्रत्यक्षीकरण 21 जून संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को प्रदेश की राजधानी रायपुर से लेकर अंबिकापुर, बिलासपुर, कोरबा में स्पष्ट दिखाई दिया. ‘योग’ के प्रति जैसा रवैया भूपेश बघेल सरकार ने दिखाया उससे स्पष्ट हो जाता है कि भूपेश सरकार नरेंद्र मोदी की किसी भी योजना को बढ़ा चढ़ाकर आवाम के बीच नहीं ले जाएगी और न ही छत्तीसगढ़ में उस योजना को हाथों-हाथ लिया जाएगा.

भूपेश बघेल स्वयं रायपुर में नहीं थे. जबकि के प्रोटोकाल के हिसाब से राजधानी रायपुर के मुख्य कार्यक्रम में पदेन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को शिरकत करनी थी मगर वे दिल्ली चले वित्त मंत्रियों की बैठक में वकालत करने चले गए.  इधर छत्तीसगढ़ के प्रमुखतम नेता चरणदास महंत, टी. एस.सिंहदेव, ताम्रध्वज साहू ने भी ‘योगा’ को कोई तवज्जो नहीं दी और प्रदेश मे अंतरराष्ट्रीय योग सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गया.  इसका सीधा संकेत यह है कि छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार नरेंद्र मोदी के किसी भी प्रोजेक्ट को तरजीह नहीं देने वाली है.

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60 लाख लोगों ने किया योगाभ्यास

कहने को छत्तीसगढ़ में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर 60 लाख लोगों ने एक विश्व रिकार्ड बनाया है.  आपको हंसी आ सकती है आजकल रिकार्ड बनाने का सबको शगल हो चला है मगर इससे गंभीरता कितनी है यह भी दिखाई देनी चाहिए.

पांचवें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर राजधानी रायपुर में मुख्य समारोह हुआ सरदार बलबीर सिंह जुनेजा इनडोर स्टेडियम में 600 स्कूली बच्चे जनप्रतिनिधि गण वरिष्ठ अधिकारियों ने योगाभ्यास किया. और सबसे बड़ी बात यह कि मुख्य अतिथि थे महापौर प्रमोद दुबे व अन्य अतिथि बतौर बृजमोहन अग्रवाल पूर्व मंत्री डा. रमन सरकार.

प्रदेश के इस वृहद कार्यक्रम में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को होना चाहिए था या फिर नंबर दो प्रदेश के गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू को. मगर वह भी नदारद रहे, कोई मंत्री या कांग्रेस का विधायक होना चाहिए था मगर सब नदारद रहे. क्योंकि छत्तीसगढ़ के मुखिया भूपेश बघेल ने अधिकारिक रूप से नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. और मोदी के किसी भी आयोजन को एक तरह से तरजीह नहीं देने की लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है.  यही कारण है कि देश भर में आयोजित होने वाले योग कार्यक्रम छत्तीसगढ़ मैं फिसड्डी हो गया क्योंकि इसके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ा है. जहां तक विश्व रिकार्ड की बात है तो गोल्डन बुकऔफ वर्ल्ड रिकार्ड का क्या अधिकारिक प्रभाव है यह कोई बताने की शै नहीं है समझने की बात है.

मुख्यमंत्री   भूपेश बघेल का यह स्वभाव है !

डा रमन सिंह पूर्व मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ और वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के स्वभाव में भारी अंतर है. जहां रमन सिंह अपने धुर विरोधियों को भी सम्मान, अपनत्व और विशाल हृदय के साथ तरजीह दिया करते थे वही भूपेश बघेल खुल्लम खेल फारूकाबादी स्वभाव के राजनेता हैं हा तो हा और ना तो ना.  जो ठान लेते हैं करके दिखा देते हैं चाहे परिणाम कुछ भी निकले.

यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में अंतर्राष्ट्रीय योग जो संयुक्त राष्ट्र संघ की धरोहर है 177 देशों में योग दिवस बड़े ही उत्साह के साथ मनाया गया छत्तीसगढ़ में आ कर मोदी के इस अश्वमेघ के घोड़े की रास भूपेश बघेल सरकार ने पकड़ ली और योग को मोदी सरकार का सिंबल मान कर प्रदेश में केंद्रीय जन सूचना के बावजूद मात्र औपचारिक बना दिया गया.

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छत्तीसगढ़ के लिए भूपेश बघेल की सरकार के लिए और शायद प्रदेश की आवाम के लिए यह अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता .

भूपेश बघेल ने किया योगा !

सरकार के जनसंपर्क विभाग ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का योगा करते हुए वीडियो जारी किया है. दरअसल  मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ में नहीं थे उन्होंने दिल्ली स्थित छत्तीसगढ़ भवन में अपने कक्ष में   कुछ योग स्वयं किए और प्रदेश की जनता को योग का सुखद संदेश देते हुए कहा कि स्वास्थ्य के लिए योग अनिवार्य है.

भूपेश बघेल गुरुवार को दिल्ली में थे और केंद्रीय बजट पूर्व राज्यों के वित्त मंत्री के साथ केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण की बैठक में अपने सुझाव व मांगे रखी.

यह सच है कि भूपेश बघेल चाहते तो इस बैठक में राज्य का कोई वरिष्ठ मंत्री शिरकत करने भेजा जा सकता था जैसे दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने शिरकत की या फिर राजधानी रायपुर से अपना प्रतिनिधि भेज सकते थे. मगर ताम्रध्वज साहू ग्रहमंत्री भी व्यस्त हो गए और अन्य कबीना मंत्री भी यह बात पचने वाली नहीं है.  संपूर्ण कयावाद का सीधा सा अभिप्राय है भूपेश बघेल ने योगा का बाय काट किया है.

प्रदेशभर में बायकाट

ऊर्जा नगरी कोरबा में विधानसभा अध्यक्ष डा.चरणदास महंत को योग के प्रमुख कार्यक्रम की बागडोर सौंपी गई थी.  इधर अन्य जिले में मैं भी प्रमुख नेताओं को मुख्य अतिथि बतोर पहुंचना था मगर ऐसा नहीं हुआ.

डा चरणदास महंत अगर योगा कार्यक्रम में पहुंचे कार्यक्रम की गरिमा में वृद्धि होती मगर यहां कार्यक्रम को कोरबा महापौर रेणु अग्रवाल को सौंप दिया गया.

बिलासपुर में विधायक शैलेश पांडे ने मुख्य कार्यक्रम में शिरकत की जबकि वहां प्रभारी जिला मंत्री को सरकार भेज सकती थी.  गृहमंत्री को रविशंकर शुक्ल स्टेडियम कार्यक्रम पहुंचना था मगर वे कहां पहुंचे यह खोज का विषय है.

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इस तरह योग की कवायद में छत्तीसगढ़ में केंद्र और राज्य सरकार के संबंधों पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है यह योग एक संकेत बन कर प्रदेश की राजनीति में मंडरा रहा है और कह रहा है यही हालात रहे तो आने वाले दिनों में भूपेश बघेल शीर्षासन करते केंद्र की सरकार को गरियाते देखे जाएंगे और केंद्र की मोदी सरकार हास्यासन करते हुए संदेश को अनदेखा करेगी और यहां की आवाम अपना सर पीटते हुए दिखेगी.

भूपेश सरकार का ढोल…!

भूपेश सरकार के हाव-भाव कुछ ऐसे हैं जैसे नए-नए बंदर के हाथ में उस्तरा आ गया हो…। अब यह किस किस पर चलेगा, यह समय बताएगा.

इस तल्ख टिप्पणी के साथ भाजपा ने छत्तीसगढ़ में एक कमजोर विपक्ष की भूमिका मे है ने कांग्रेस की भूपेश सरकार के छ: माह की बघिया उघेडनी शुरू की है.वहीं भूपेश बघेल ने यह छ: माह स्वर्णिम काल माना है. जिसमें शपथ लेते ही 24 घंटे के भीतर छत्तीसगढ़ के लाखों किसानों का कर्जा तत्काल प्रभाव से माफ कर दिया गया.
धान की कीमत बोनस सहित जो 1800 रूपयै थी को सीधे 2500 रूपयै क्विंटल कर दिया और यह संदेश छत्तीसगढ़ ही नहीं भारत सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया गया कि छोटा सा प्रदेश जब किसानों के हित में एक बड़ा फैसला ले सकता है तो केंद्र सरकार क्यों नहीं.

भूपेश या कहें, कांग्रेस के इस मास्टर स्ट्रोक का उपयोग कांग्रेस के हाईकमान राहुल गांधी ने भी लोकसभा समर में देशभर में खूब किया.

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राहुल गांधी जहां भी जाते, उस प्रदेश की जनता जनार्दन के समक्ष छत्तीसगढ़ का उदाहरण रखते. भाइयों! देखो छत्तीसगढ़ में हमारी कांग्रेस सरकार ने 24 घंटे में कर्जा माफ कर दिया.
नि:संदेह कांग्रेस की भूपेश सरकार का यह एक बड़ा जनोनमुखी और कृषि के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था.किसान को 2500 रूपयै का समर्थन मूल्य दिया जाना अर्थात किसान के चेहरे पर मुस्कान लाने का एक छोटा सा काम कांग्रेस ने किया.
भूपेश बघेल के छ: माह के कार्यकाल का विश्लेषण जनता नहीं कर रही.इधर भाजपा सन्निपात में है. विधानसभा चुनाव में मात्र 15 विधायकों से असंतुष्ट हो कर भाजपा को मानो पाला मार गया है. जैसे हाल केंद्र में है,वहां कांग्रेस को मात्र 54 सांसदों से संतोष करना पड़ा और कमर कस कर विपक्ष की भूमिका का निर्वाहन नहीं कर पा रही वही हालत छत्तीसगढ़ में भाजपा की है.

भूपेश बघेल : कुछ कुछ होता है !

शायद भूपेश बघेल ने राजनीति में प्रवेश करते समय सोचा भी नहीं होगा कि वे कभी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं.
छत्तीसगढ़ में बड़े बड़े कद के दिग्गज थे जिनमें कांग्रेस आलाकमान के सबसे चहेते मोतीलाल वोरा, अजीत प्रमोद कुमार जोगी फिर केंद्रीय राज्य मंत्री पद सुशोभित कर चुके डॉ चरणदास महंत ,टी.एस.सिंह देव , सत्यनारायण शर्मा,रविंद्र चौबे जाने कितने वरिष्ठतम राजनेता मगर भूपेश बघेल की सोच और संघर्ष ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर शोभायमान तो कर दिया है अब उनके समक्ष छत्तीसगढ़ को विकास के पथ पर ले जाने की चुनौती है. डॉक्टर रमन सिंह ने भूपेश बघेल के अल्प कार्यकाल पर सधी हुई वाणी से कहां है- भूपेश बघेल इन छ: माह में बदलापुर की राजनीति मे उलझ कर रह गए हैं,मेरी शुभकामनाएं हैं की वे इससे उबरे और प्रदेश की दीन दुखी पीड़ितों के लिए काम करें.

समय हाथ से निकलता जा रहा

दिसंबर से जून के छ: माह देखते ही देखते भूपेश बघेल के हाथों से निकल गए हैं. जैसे अजुरी से पानी… आप लाख रोके रूकता नही ! भूपेश बघेल सरकार का यह 183 दिनों का समय चुटकी बजाते ही बीत गया ऐसा प्रतीत होता है सरकार ने अभी कुछ किया ही क्या है ?
एक तरफ कांग्रेस और भूपेश बघेल के हाथ से समय निकलता जा रहा है वहीं इस अल्प समय में कांग्रेस की इस सरकार ने नरवा, गरवा, घुरवा और बाड़ी का नारा देकर प्रदेश में ‘गोठान’ का निर्माण प्रारंभ कराया है । प्रदेश भर के चुने हुए पंचायतों में रिक्त पड़ी भूमि पर बेहतरीन गोठान बन रहे हैं रहे हैं जहां गांव की आवारा रूग्ढ गाय को रखा जाएगा ताकि किसान की फसल को नुकसान नहीं पहुंचे.
गोठान मे जैविक खाद बनेगी लौग स्वावलंबी बनेंगे. इसके अलावा युद्ध स्तर पर नरवा अर्थात नालों के बंघान का कार्य प्रदेशभर में जारी है जो आने वाले समय में पानी की कमी को पूरा करेंगे . प्रदेश की युवा महिला आईएएस अफसर किरण कौशल ने बताया- गोठान की सफलता गांव के हित में है जब गांव समृद्ध होगा तो उसका असर च॔हु दिशाओं में होगा. आने वाले समय में यह क्रांतिकारी योजना मानी जाएगी.

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भूपेश का ढोल है बहुत पोल है बहुत …

भूपेश बघेल से प्रदेश को बहुत अपेक्षाएं हैं और थी भी ! डा. रमन सरकार की 15 वर्षीय सरकार को प्रदेश की जनता ने उखाड़ कर फेंक दिया उसका कारण कांग्रेस की भूपेश की उसके नेताओं की सर्वप्रिय छवि नहीं है. बल्कि कांग्रेस का एक विकल्प होना और सांगठनिक ढांचा है. डॉक्टर रमन सरकार ने कुछ चेहरों को सामने रखकर जो हिटलर शाही का और गुरूर का प्रर्दशन प्रारंभ किया जिसे छत्तीसगढ़ की जनता ने बर्दाश्त नहीं किया और उसे उखाड़ कर फेंक दिया. यही गलतियां भूपेश बघेल ने शुरू कर दी है जिससे बड़े उद्योगपतियों, अदानी को संरक्षण और अफसरशाही को खुली छूट देना है । जैसे सक्षम इमानदार जनहितकारी भूपेश सरकार को होना चाहिए दिखना चाहिए उसमें भारी कमी है यह ढोल और यह पोल आप की सरकार आप को अभी से क्षति पहुंचाने लगी है. कांग्रेस के लिए चिंतन का समय है मगर शायद सत्ता की रास पकड़े दौड़ते घुड़सवार के पास समय नहीं है.

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छत्तीसगढ़ : समय तू धीरे धीरे चल

छ: माह बीत गए.अब जो समय है वह तेजी से हाथ से निकलता चला जाएगा. आगामी समय में प्रदेश मे नगरीय व पंचायती चुनाव है .कांग्रेस को अच्छा प्रदर्शन करना है . जहां तक लोकसभा चुनाव मे मात्र 2 सीटों पर विजय का प्रश्न है यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न है कि 4 माह पूर्व भारी-भरकम जीत कैसे लोकसभा तक आते आते सिमट गई . आप यह नहीं कह सकते कि नरेंद्र मोदी की लहर थी. आपकी सत्ता आप की धमक आपकी क्षमता कहां गई…!!
प्रदेश की जनता ने इस तरह लोकसभा चुनाव परिणाम के साथ यह संदेश जारी कर दिया है कि भूपेश बघेल आप प्रदेश को अपनी जायजाद या जनता को गुलाम नहीं समझे आप दिन रात काम करें यहां की जनता आपका एक एक पल देख रही है समीक्षा जारी है अन्यथा जैसे डॉ रमन सिंह को उखाड़ फेका आपको भी आगामी नगरीय चुनाव में ही उखाड फेकेंगे.

क्या मोदी केबिनेट रचेगी ‘नया इतिहास’?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नए मंत्रिमंडल से ऐसा कुछ नहीं लगता कि देश में बदलाव की कोई आंधी आएगी. मंत्रिमंडल में अमित शाह का आना केवल यह इशारा करता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने फैसलों को सख्ती और मजबूती से लागू करेगी और उन में लचीलापन कम होगा. अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, मेनका गांधी, सुरेश प्रभु, उमा भारती जैसे पुराने अनुभवी नाम गायब हैं. जो नए कैबिनेट लैवल के मंत्री हैं वे आमतौर पर पार्टी की लाइन पर चलने वाले हैं.

वैसे तो यह हमेशा होता रहा है कि हर प्रधानमंत्री अपने चहेतों को ही मंत्रिमंडल में रखता है पर फिर भी मजबूत और बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्री दूसरों के कुछ दबाव में आ कर कुछ समझौते करता है. इस मंत्रिमंडल में समझौता नहीं किया गया है. यह नीतीश कुमार की भी न सुनने की ताकत से साफ है. जनता दल (यूनाइटेड) मंत्रिमंडल में 3 मंत्री पद की मांग कर रहा था पर भाजपा एक ही देने को तैयार थी. हार कर नीतीश कुमार की पार्टी को घर बैठना पड़ा.

सरकार में क्या बदलाव की हवा आएगी यह कम से कम मंत्रियों से तो पता नहीं चलता. लगता है पिछली बार की तरह इस बार भी सारे फैसले नरेंद्र मोदी ही लेंगे और उन के अकेले सलाहकार अमित शाह ही रहेंगे.

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देश के सामने समस्याओं का भंडार है. आज बेरोजगारी बढ़ रही है. किसान परेशान हैं. फैक्टरियां बंद हैं. हां, जनता को वोट देते समय ये मुसीबतें नहीं दिखाई दीं तो कोई वजह नहीं कि प्रधानमंत्री इन पर नींद खराब करें. जनता को देशभक्ति, राष्ट्रवाद और पूजापाठों व आरतियों के झुनझुनों से खुश किया जा सकता है तो क्यों न गिरिराज सिंह जैसों को ऊंचा कद दिया जाए.

देश की जनता, जिन में अब गरीब, फटेहाल और ऊंचों के जुल्मों के सताए शामिल हैं, अगर अपनी जरूरतों को पूरा करवाना नहीं चाहती तो सरकार को सहीतौर पर फिक्र नहीं करनी चाहिए. हमें सदियों से मूर्तियों को पूजने की आदत रही है. हमारे पौराणिक ग्रंथ व्रत व पूजा से हर चीज पाने की कहानियों से भरे पड़े हैं. आज भी अगर इसी तरह सबकुछ मिल सकता है तो फिर जो हो रहा है वही सही है.

उम्मीद करिए कि सरकार वोटरों की मन्नतों को महल्ले के मंदिर की ही तरह पूरा करेगी. वोटरों ने ईवीएम मशीनों पर लाल धागा बांध कर अपना काम तो पूरा कर दिया है न. अब जो होगा वह भाग्य में लिखा है.

मायावती और अखिलेश यादव जैसे नेता अगर खुदकुशी करने पर उतारू हों तो कोई कुछ ज्यादा नहीं कर सकता. 2019 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने साथ मिल कर महागठबंधन बनाया पर उन में उतनी समझ न थी कि लोगों को धर्म के नाम पर जिस तरह बहकाया जा रहा है उस का मुकाबला केवल एक हो कर नहीं, उस धर्म की कमजोरियों को उजागर कर के हो सकता है. अब अगर महागठबंधन से नाराज हो कर मायावती अकेले चुनाव लड़ना चाहती हैं तो यह भाजपा के लिए खुशी की बात है कि उस के बिछाए जाल में चिडि़या खुद आ कर फंस रही है.

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आम चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश में 3 उपचुनावों में भाजपा हारी थी, पर उस ने हिम्मत नहीं हारी थी. उस ने बढ़चढ़ कर मुकाबला किया था. उस ने अपनी ट्रोल फौज को काम पर लगाया. देशभक्ति को भक्ति का नाम दे कर उस बेवकूफ जनता का दिल जीत लिया जिस ने बचपन से हर मुसीबत में पूजा को आखिरी उपाय समझा है.

मायावती और अखिलेश यादव हारे इसलिए कि उन्होंने एक तो कांग्रेस का साथ नहीं लिया और दूसरे कांग्रेस के साथ सुर में सुर मिला कर बात नहीं की. वे बेमतलब की हांकते रहे. उन के चुनाव प्रचार में पैनापन था ही नहीं. भारतीय जनता पार्टी किस तरह काम कर रही है यह उन्होंने न समझा, न समझाने की कोशिश की.

भाजपा की सब से बड़ी पूंजी मंदिरों और आस्था के नाम पर कमाने वालों की वह भीड़ है जो भाजपा के राज में अपने अच्छे दिन देखती है. वे लोग लाखों की गिनती में हैं और घरघर जा कर मेहनत कर सकते हैं. खाली बैठेठाले ये लोग छोटेछोटे समूहों में हर जगह हर समय रहते हैं. ये बातों के धनी हैं. इन के पास हर बात का जवाब है.

दूसरी बड़ी फौज भाजपा के पास छोटेबड़े व्यापारियों की है जो मायावती और अखिलेश यादव जैसों के पास नहीं है. ये व्यापारी अपने से जाति में ऊंचों की बात तो सुन सकते हैं, पर नीचों की नहीं क्योंकि उन पर हुक्म चला कर काम लेना होता है. जब तक कांग्रेस इस की सुविधा दे रही थी, ये कांग्रेस के साथ थे, अब भाजपा इस ऊंचनीच की सुविधा के साथ पूजापाठ का भी इंतजाम करती है तो वे उस के साथ हैं. दलितों, गरीबों और किसानों के लिए तो मायावती और अखिलेश यादव भी कुछ करते नजर नहीं आए.

मायावती का हार के लिए समाजवादी पार्टी के वोटरों को दोष देने से पहले खुद को देखना होगा कि उन्होंने वोटरों के लिए क्या किया. भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद जैसे को नकारना कैसे ठीक हो सकता है सिर्फ इसलिए कि वह उन का मुकाबला न करने लगे?

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उत्तर भारत की चारों बड़ी पार्टियों– कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के साथ दिक्कत यही है कि ये अपने वोटरों को सही रास्ता नहीं दिखा रही हैं. उन्हें समझाने का कोई इंतजाम नहीं कर रही हैं. आज के युग में भी केवल बयान दे देने या ट्विटर पर लिखने से कुछ नहीं होने वाला. घरघर जा कर अपनी बात समझाना जरूरी है और फिलहाल यह गुण केवल भारतीय जनता पार्टी के लाखों धर्म के दुकानदारों में है जिन की मौजमस्ती उन वोटरों के सहारे है जो पैसा भी देते हैं, वोट भी.

देश का युवा, गरीब, बेरोजगार, किसान, मजदूर आज सिसक तो नहीं रहा पर खुश नहीं हैं. दोबारा बनी सरकार से भी उस को बहुत खुशी नहीं है पर उस के जख्मों पर कोई और मरहम लगाने वाला भी तो नहीं. मायावती, अखिलेश यादव, राहुल गांधी, तेजस्वी यादव अपने महलों से निकलें तो बात बने. अपने अलगअलग लकड़ी के किलों से चुनावी लड़ाई जीती नहीं जा सकती.

आखिर क्यों छत्तीसगढ़ के इस समुदाय के बीच खिला ‘कमल’!

आदिवासी अंचल में आर एस एस एक्सप्रेस व्हाया भाजपा छत्तीसगढ़ के जिस सबसे बड़े समुदाय पर कभी कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था.मगर आजकल वहां ‘कमल’ खिलने लगा है . अनुसूचित जनजाति का प्रदेश की आबादी पर लगभग 31प्रतिशत हिस्सा है और यह बड़ी आबादी अब शनै: शनै: भाजपा की ओर की खिसकती चली गई है. इसकी जानकारी कांग्रेस पार्टी को लगती तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

इस दुसाध्य काम के लिए जो समर्पण, निष्ठा, त्याग और बलिदान की आवश्यकता होनी चाहिए वह कांग्रेस के चिंतन से, दृष्टि से ओझल हो चुका है . यही कारण है कि अगर छत्तीसगढ़ पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं बस्तर, सरगुजा, बिलासपुर संभाग जो पूर्णत: आदिवासी बेल्ट के रूप में जाना जाता है यहां से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो चुका है .

कांग्रेस का खात्मा और भाजपा की प्रतिष्ठापना कोई दो चार वर्षों का खेल नहीं बल्कि लगभग पांच दशको की अथक मेहनत साधना का, श्रम का परिणाम है . यही कारण है कि 17 वी लोकसभा में कांग्रेस को सिर्फ दो लोकसभा सीटे पर ही संतुष्ट होना पड़ा . जिसमें एक कोरबा लोकसभा है, जो आधी अनुसूचित जनजाति वर्ग की जनसंख्या का आधा सामान्य वर्ग की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है. दूसरा, बस्तर लोकसभा से कांग्रेस के प्रत्याशी दीपको बैजल को विजय मिली. यह आदिवासी वर्ग के रूप में सुरक्षित क्षेत्र है .

आइए, देखें छत्तीसगढ़ में कैसे आर एस एस एक्सप्रेस के माध्यम से कमल फूल खिलता चला गया. और आदिवासी अंचल में आर एस एस की मेहनत के मायने क्या है .

कहानी लगभग 6 दशक पुरानी है…..

अविभाजित मध्यप्रदेश की राजधानी तब नागपुर में हुआ करती थी . बात विदर्भ के जमाने की है तब के उच्च शिक्षित बालासाहेब देशपांडेे एक दफे छत्तीसगढ़ के घुर आदिवासी क्षेत्र जशपुर पहुंचे और यहां उन्होंने आदिवासियों का दमन देखा. उन्होंने बेहद गहराई से अनुभूत किया की छत्तीसगढ़ के जशपुर अंचल के आदिवासी तो तेजी से ईसाई धर्म स्वीकार करते चले जा रहे हैं और यही हालात रहे तो यहां के आदिवासी शिक्षित जरूर हो जाएंगे.क्योंकि जशपुर में मिशनरी बड़ी तेजी से काम कर रही है मगर हिंदुत्व पर संकट के बादल मंडलाने लगेंगे .
विदर्भ प्रांत के यह शख्स कई दिनों तक जशपुर में रहे और अनुसूचित जनजाति के दर्द को निकटता से अनुभूत किया . उन्होंने देखा कि आदिवासी समुदाय का हर कोण से शोषण जारी है. गांव से लेकर शहर तक आदिवासी की लूट का साजिश का कुचक्र अनवरत रूप से जारी है . इसे महसूस करके उन्होंने आदिवासियों के लिए द्रवित भाव से कुछ करने की योजना बनानी प्रारंभ की .

छत्तीसगढ़ के प्रमुख हिंदी दैनिक मितान के संपादक छेदीलाल अग्रवाल बताते हैं बालासाहब देशपांडेे ने कल्याण आश्रम की स्थापना की और आदिवासियों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया . मगर अकेले चना कैसे भाड़ फोडेगा, सो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उन्होंने आदिवासियों के शोषण को रोकने मदद मागी, तब उन्हें पांच स्वयंसेवक मिले. जिन्होंने जशपुर में अपना जीवन समर्पित कर अनुसूचित जनजाति को ईसाईयत के आकर्षण से मुक्त करने का बीड़ा उठाया .

आदिवासी समाज के बीच लंबे समय से काम करने वाले प्रमुख दैनिक नवभारत से जुड़े पत्रकार रमेश पासवान के अनुसार ईसाई मिशनरी जब अनुसूचित जनजाति वर्ग के बीच काम करने पहुंची तो यह लोग भूख,अशिक्षा, और बीमारी के त्रिकोण में फंस कर बिलबिला रहे थे. मिशनरी ने इन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया . बहुत बाद में संघ ने इस ‘घांव’ को महसूस किया और कल्याण आश्रम, वनवासी आश्रम जैसी 100 से भी अधिक अनुषंगी संस्थाओं को बीहड आदिवासी अंचल में काम करने के लिए तैयार किया. जो आज भी अनवरत रूप से क्षेत्र में काम कर रही है.

औपरेशन घर वापसी से हीरो बने जूदेव

अविभाजित मध्यप्रदेश के समय छत्तीसगढ़ के जशपुर राजघराने के राजकुमार दिलीप सिंह जूदेव ने आर एस एस के प्रभाव में आकर मिशनरियों के खिलाफ शंखनाद किया.लगभग सौ वर्षों से जिस धैर्य के साथ शिक्षा, चिकित्सा की ज्योति जागृत करके मिशनरी आदिवासियों के बीच काम करके उन्हें ईसाई धर्म की ओर आकर्षित कर रही थी उस मिथक को तोड़ने का काम जूदेव ने प्रारंभ किया .
अस्सी के दशक में दिलीप सिंह जूदेव आर एस एस के चेहरे के रूप में चमके और मूछों पर ताव देकर अनुसूचित समुदाय में “ऑपरेशन घर वापसी” के जरिए हिंदू धर्म मे वापिस लाने लगे उन्हें इससे देशव्यापी ख्याती मिली .

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के धरमजयगढ़ विकासखंड के ग्राम सुपकालो में 1992 में दिलीप सिंह जूदेव ने ऑपरेशन घर वापसी का कार्यक्रम रखा था. जिसमें यह लेखक स्वयं उपस्थित हुआ था . इस घर वापसी कार्यक्रम में राजकुमार दिलीप सिंह जूदेव ईसाइयों को आदिवासियों को पुन: हिंदू धर्म में ला रहे थे उन्होंने वापिस आ रहे आदिवासियों का पैर धोकर नरियल, गमछा भेंट कर ससम्मान हिंदू बनाने का काम निरंतर जारी रखा . परिणाम स्वरूप जहाँ मिशनरियों पर लगाम लगी, वही आदिवासी समाज के बीच आर एस एस की घुसपैठ होती चली गई इधर कांग्रेस पार्टी हाशिए पर चली गई उसे पता ही नहीं चला .

“हम हिंदू नहीं” कहते हैं हीरा सिंह मरकाम

यहां यह उल्लेखनीय है कि एक तरफ आर एस एस की अवधारणा है कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर गैर मुस्लिम गैर ईसाई हिंदू है वहीं मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के संस्थापक हीरा सिंह मरकाम का स्पष्ट मानना है आदिवासी समुदाय हिंदू नहीं है . इस लेखक से अपने बिलासपुर स्थित आवास पर बातचीत के दरमियान उन्होंने कहा- आदिवासी हिंदू नहीं है, हम बूढा- देव की पूजा करते हैं.हम प्रकृति के उपासक हैं. और अपना पूर्वज रावण को मानते हैं . आपका दृढ़ विश्वास है कि आदिवासी संस्कृति हिंदुत्व से एकदम अलग है. गोंडवाना लैंड की अपनी एक अहम भूमिका है. अपनी गोंडी भाषा है, लिपि है.नागपुर में अपनी प्रेस है, अपनी एक घड़ी है जो समय बताती है और एक बड़ा आदिवासी समुदाय उस घड़ी के हिसाब से सब कुछ तय करता है.

हीरा सिंह मरकाम की विचारधारा बिल्कुल अलग है और अपनी विरोधाभासी बातें कहने में कभी गुरेज नहीं करते . आप गोंडवाना संस्कृति के पुरजोर समर्थक हैं. और मानते हैं जब तलक कांग्रेस और भाजपा दोनों शोषक पार्टियों को हटा कर आदिवासी समाज गोंडवाना राज्य की स्थापना, सत्ता की स्थापना नहीं करेगा उनका शोषण बदस्तूर जारी रहेगा . इस तरह आदिवासी समाज में अलग-अलग मान्यताएं हैं. भाजपा के अनुसूचित मोर्चा के नेता श्याम लाल मरावी का कहना है आदिवासियों को हिंदुत्व के बगैर ठौर नही है . यह राष्ट्र हिंदुत्व से ओतप्रोत रहा है और आगामी समय में भी यहां हिंदूवादी संस्कृति का बोलबाला रहना है. ऐसे में हीरा सिंह मरकाम जैसे सोच के नकारात्मक शख्सियतें इस आंधी तूफान में कहां उड जाएंगी कौन जानता है .

छत्तीसगढ़ में इस तरह एक महासंघर्ष जारी है . आज भी आदिवासी अंचल में ईसाई मिशनरी अपना काम निष्ठा पूर्वक कर रही है . आदिवासियों में शिक्षा, चिकित्सा की ज्योति प्रसारित कर रही है दूसरी तरफ आर एस एस का अपना जीव॔त अभियान जारी है .

आदिवासी समाज में शिक्षा और जागृति का अभियान यहां भी सतत चालू आहे . हां, कांग्रेस पार्टी शुतुर मुर्ग की भांती रेत के में ढुये मे सर छिपा कर सोचे, यह मानने में क्या हर्ज है की देश हमारा है, आजादी हमने दिलाई है सभी जाति समुदाय का वोट हमारे हैं.इसी प्रकल्पना में कांग्रेस शनै शनै ही सही सिकुड़ती जा रही है .

अजीत-माया गठबंधन: अगर “हम साथ साथ” होते!

छत्तीसगढ़ में तीसरे मोर्चे के रूप में उभर कर राज्य की सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी का टूट कर बिखर चुका है . प्रदेश की राजनीति को अपनी उंगलियों पर कठपुतली की भांति नचाने का गुरूर अजीत जोगी की आंखों में, बौडी लैंग्वेज में अब दिखाई नहीं देता…इन दिनों आप प्रदेश की राजनीति मैं हाशिए पर है .

मगर जब अजीत प्रमोद कुमार जोगी ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस आलाकमान के सामने खम ठोंक कर जनता कांग्रेस ( जे ) का गठन किया था तब उनके पंख आकाश की ऊंचाई को छूने बेताब थे . यही कारण है कि अजीत जोगी के विशाल कद को देखकर बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने उनसे हाथ मिलाया और कांग्रेस के खिलाफ दोनों ने मिलकर छत्तीसगढ़ में अपनी अलग जमीन तैयार करने की कोशिश की जो असफल हो गई . अजीत जोगी के सामने 2018 का विधानसभा चुनाव नई आशा की किरणों को लेकर आया था . राजनीतिक प्रेक्षक यह मानने से गुरेज नहीं करते की अजीत जोगी जहां से खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से प्रारंभ होती है . मगर विधानसभा चुनाव के परिणामों ने अजीत जोगी और मायावती दोनों पर मानो “पाला” गिरा दिया. दोनों चुनाव परिणाम से सन्न, भौचक रह गए और अंततः यह गठबंधन आज टूट कर बिखर गया है .

अजीत जोगी : अकेले हम अकेले तुम
विधानसभा चुनाव के परिणाम के पश्चात अजीत जोगी और मायावती की राह जुदा हो गई . यह तो होना ही था क्योंकि अजीत जोगी और मायावती दोनों ही अति महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ हैं . साथ ही जमीन पर पुख्ताई से पांव रखकर आगे बढ़ने वाले राजनेता भी माने जाते हैं. विधानसभा चुनाव में इलेक्शन गेम में अजीत जोगी ने कोई कमी नहीं की थी. यह आज विरोधी भी मानते हैं उन्होंने अपने फ्रंट को तीसरी ताकत बनाया उन्होंने जनता के नब्ज पर हाथ भी रखा था . संपूर्ण कयास यही लगाए जा रहे थे कि अजीत जोगी के बगैर छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हवाओं में पत्ते भी नहीं हिलेंगे.
अगर कांग्रेस को दो चार सीटें कम पड़े तो अजीत जोगी साथ देंगे अगर भाजपा को दो चार सीटे कम मिली तो अजीत जोगी कठिन डगर में साथ देंने हाजिर हो जाएंगे . मगर प्रारब्ध किसको पता है ? छत्तीसगढ़ में अनुमानों को तोड़ते ढहाते हुए छत्तीसगढ़ की आवाम ने कांग्रेस को ऐतिहासिक 68 सीटों पर विजय दिलाई और सारे सारे ख्वाब, सारे मंसूबे चाहे वे अजीत जोगी के हो या मायावती के ध्वस्त हो गए .

अगर “हम साथ साथ होते” !
मायावती ने निसंदेह जल्दी बाजी की और छत्तीसगढ़ की राजनीति में अजीत जोगी और अपनी पार्टी के लिए स्वयं गड्ढा खोदा . विधानसभा चुनाव के अनुभव अगरचे मायावती और अजीत जोगी देश की 17 वीं लोकसभा समर में साथ होते तो कम से कम दो सीटें प्राप्त कर सकते थे . विधानसभा चुनाव में बिलासपुर संभाग की तीन लोकसभा सीटों पर इस गठबंधन को बेहतरीन प्रतिसाद साथ मिला था . और यह माना जा रहा था कि बिलासपुर और कोरबा लोकसभा सीट पर बसपा और जोगी कांग्रेस कब्जा कर सकते हैं . इसके अलावा तीसरी सीट जांजगीर लोकसभा में बहुजन समाज पार्टी के दो विधायक के साथ अच्छी बढ़त मिली जिससे यह माना जा रहा था कि यह गठबंधन बड़ी आसानी से यह लोकसभा सीट पर पताका फहरा सकता है . मगर बहन मायावती ने भाई अजीत जोगी जैसे मजबूत खंबे पर विश्वास नहीं किया और अपने प्रत्याशियों को मैदान-ए-जंग में उतारा . अजीत जोगी मन मसोस कर रह गए .

लोकसभा में दोनों की साख बढ़ती
यहां यह बताना आवश्यक है कि अजीत जोगी और मायावती की पार्टियों को विधानसभा चुनाव में आशा के अनुरूप भले ही परिणाम नहीं मिले मगर यह मोर्चा तीसरे मोर्चे के विरुद्ध समर्पित हो गया अजीत जोगी को 5 सीटें मिली और मायावती को सिर्फ दो विधान सभा क्षेत्रों मैं सफलता मिली . संभवत: इसी परिणाम से मायावती नाराज हो गई . क्योंकि छत्तीसगढ़ में बसपा को 2 से 3 सीटों पर तो विजयश्री मिलती ही रही है . ऐसे में यह आकलन की अजीत जोगी से गठबंधन का कोई लाभ नहीं मिला तो सौ फीसदी सही है मगर इसके कारणों का भी पार्टी को चिंतन करना चाहिए था जो नहीं किया गया और लोकसभा में अपनी-अपनी अलग डगर पकड़ ली गई जो भाजपा और कांग्रेस के लिए मुफीद रही .
लोकसभा समर में बसपा को कभी भी एक सीट भी नहीं मिली है अगरचे यह गठबंधन मैदान में होता तो बसपा आसानी से एक सीट पर विजय होती . यह क्षेत्र है जांजगीर लोकसभा का . मगर बसपा ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली भाजपा के नये चेहरे की राह आसान कर दी . दूसरी तरफ जोगी और उनकी पार्टी का भविष्य भी अंधकारमय हो चला .

नगरीय-निकाय चुनाव में क्या होगा ?
अजीत जोगी ने विधानसभा चुनाव में हाशिए पर जाते ही पार्टी की कमान अपने सुपुत्र अमित ऐश्वर्य जोगी को सौंप दी है . प्रदेश में वे अपना मोर्चा खोलकर आए दिन रूपेश सरकार की नाक में दम किए हुए हैं . अपने हौसले की उड़ान से अमित जोगी ने यह संदेश दिया है कि वे आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती भाजपा और कांग्रेस के लिए बनेंगे . उन्होंने अकेले दम पर नगरीय चुनाव पंचायती चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है . इधर बीएसपी ने भी अपने बूते चुनाव लड़ने की घोषणा की है मगर बीएसपी नगरीय चुनाव में कभी भी अपना एक भी महापौर जीता पाने में सफलीभूत नहीं हुई है .

यह तथ्य समझने लायक है कि अजीत जोगी और मायावती की युती छत्तीसगढ़ में बड़े गुल खिला सकती थी. अजीत जोगी की रणनीति और घोषणा पत्र को कांग्रेस ने कापी करना शुरू किया और अपने बड़े संगठनिक ढांचे के कारण कांग्रेस आगे निकल गई अन्यथा अजीत जोगी के 2500 रुपए क्विंटल धान खरीदी और बिजली बिल हाफ फार्मूला को अगर कांग्रेस नहीं चुराती तो जोगी और बसपा की स्थिति आश्चर्यजनक गुल खिला सकती थी . राजनीति में संभावनाओं के द्वार खुले रहते हैं ऐसे में भविष्य में क्या होगा यह आप अनुमान लगा सकते हैं.

नतीजा: लोकसभा चुनाव 2019 फिर लौटी भाजपा

अगर पिछली बार मोदी की लहर थी तो इस बार क्या माना जाए? साल 2014 से अब साल 2019 तक पिछले 5 साल में बहुमत में आए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अगुआ नरेंद्र मोदी को मई की 23 तारीख बहुत रास आई. लोकसभा चुनाव की कुल 542 सीटों में से राजग ने 350 से ज्यादा सीटें जीत कर पूरे विपक्ष को चारों खाने चित कर दिया. अकेली भारतीय जनता पार्टी ने 300 से भी ज्यादा सीटों पर कब्जा जमाया जबकि अपने वजूद से जूझ रही कांग्रेस और उस की सहयोगी पार्र्टियां 86 सीटें ही अपने नाम कर पाईं.

हालांकि कांग्रेस ने 52 सीटें जीत कर उम्मीद से कुछ बेहतर किया, पर वह मोदी और शाह के बनाए इस चुनावी चक्रव्यूह में उलझ कर रह गई. राहुल गांधी इस चक्रव्यूह के भीतर तो चले गए थे, पर भेद नहीं पाए.

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के अलावा बचे अन्य दलों और आजाद उम्मीदवारों के हिस्से में 104 सीटें रहीं. कुलमिला कर पूरा विपक्ष मिल कर भी नरेंद्र मोदी के राष्ट्रवाद के आगे घुटने टेक गया.

ढीला महागठबंधन

सब से बड़ी लड़ाई तो 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में दिखाई दे रही थी. वहां खंडहर हो चुकी समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने दलितों की मसीहा बहुजन समाज पार्टी की मायावती के साथ मजबूत तालमेल किया था ताकि भारतीय जनता पार्टी साल 2014 वाला खेल न खेल जाए. उस समय अकेली भाजपा ही 73 सीटें जीत गई थी, जिस से उस का केंद्र में सरकार बनाना और भी आसान हो गया था.

लेकिन समाजवादी पार्टी के यादव वोटों और बसपा के दलित वोटों का ट्रांसफर पूरी तरह से नहीं हो पाया. भाजपा की सीटें जरूर कम हुईं, लेकिन मायावती और अखिलेश यादव का गठबंधन उसे उतनी ज्यादा चोट नहीं पहुंचा पाया, जो उम्मीद की जा रही थी. समाजवादी पार्टी को 5 सीटें मिलीं तो बसपा को 10 सीटें. हां, मायावती जरूर फायदे में रहीं, क्योंकि पिछली बार तो वे खाता तक नहीं खोल पाई थीं.

कांग्रेस तो उत्तर प्रदेश में उबर ही नहीं पाई. उसे महज 1 सीट मिली. राहुल गांधी जिस जोश के साथ अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को पहले कांग्रेस में और बाद में चुनाव प्रचार में तुरुप का इक्का बना कर लाए थे, वह रणनीति भी काम न आई. अमेठी में भाजपा की स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को कड़ी टक्कर दी. नतीजे के दिन उन में जीत के लिए चूहेबिल्ली का सा खेल चलता रहा. आखिर में स्मृति ईरानी जीत गईं.

इन चुनावों में राहुल गांधी ने अकेले ही सत्ता पक्ष से लोहा लिया था. उन्होंने राफेल घोटाले के मसले पर मोदी सरकार को खूब घेरा था, पर चूंकि उन्हें बाकी विपक्ष का सही साथ नहीं मिला इसलिए वे जनता को यह समझाने में चूक गए कि देशहित में वे जो कह रहे हैं, वह कितना अहम है.

यहां भी विपक्ष बेहाल

40 सीटों वाले बिहार में इस बार बिना लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल पूरी तरह अनाथ दिखा. उन के परिवार में जबरदस्त गुटबाजी रही. तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव की आपसी रंजिश चुनाव में दिखी. मुसलिम और यादव वोटों की एकता पूरी तरह चरमरा गई. संप्रग खेमे को 1 सीट ही मिल पाई, इस के उलट भाजपाई गठबंधन ने 39 सीटें जीत कर सब को चौंका दिया.

कांग्रेस भी कोई खास करिश्मा नहीं कर पाई, जबकि वाम दल तो जैसे पहले ही हार मान चुके थे.

सब से ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे पश्चिम बंगाल में रहे. वहां 42 सीटों पर तृणमूल और भाजपा में टक्कर रही.

चुनाव से पहले भाजपा ने ममता बनर्जी को कमजोर सत्ताधारी साबित करने के लिए पूरा जोर लगा दिया था, क्योंकि भाजपा को यकीन था कि अगर वह उत्तर प्रदेश में ज्यादा सीट नहीं जीत पाएगी तो उन की भरपाई यहां से कर लेगी या कोशिश करेगी.

ममता बनर्जी को भी अंदेशा हो गया था कि जिस तरह अमित शाह उन्हें हिंदुओं की विरोधी साबित करने पर तुले हुए हैं, उस पर बहुत से लोग आंख मूंद कर यकीन कर लेंगे और बाद में हुआ भी यही. भाजपा ने उन के दुर्ग में सेंध लगा दी.

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महाराष्ट्र और गुजरात में तो जैसे विपक्ष का सूपड़ा ही साफ हो गया. वहां कांग्रेस और दूसरे दल राजग के सामने कहीं नहीं ठहरे. महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार ही ऐसे बड़े नेता थे, जो मोदी को टक्कर दे सकते थे. लेकिन महाराष्ट्र में राकांपाकांग्रेस की जोड़ी को मुंह की खानी पड़ी. जिन शरद पवार को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में एक भागीदार माना जाता था, वे अपने ही किले को बचाने में नाकाम रहे.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल सियासी बाजीगरी में पूरी तरह से चूक गए. लोकसभा चुनाव से पहले वे दावे कर रहे थे कि ‘आप’ सातों सीटें जीतने वाली है, लेकिन जब उन्हें लगा कि अकेले  भाजपा से लोहा नहीं लिया जा सकता है तो उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की बात कही थी, लेकिन वह नहीं हो सका.

बीएस येदियुरप्पा के कर्नाटक में भाजपा ने बंपर जीत हासिल की, जबकि आंध प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू ने तो विधानसभा चुनाव भी गंवा दिए.

जातिवाद की मची जंग

जिस बात का डर था वही हुआ. साल 2014 का लोकसभा चुनाव जीत कर बतौर प्रधानमंत्री पहली बार संसद पहुंचे नरेंद्र मोदी जब अक्तूबर महीने के खुशनुमा मौसम में दिल्ली की वाल्मीकि बस्ती में पहुंचे थे और वहां झाड़ू लगा कर ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की शुरुआत की थी, तब लगा था कि हो न हो, अब देश में अच्छे दिन आ जाएंगे.

तब एक और उम्मीद बंधी थी कि शायद अब देश में जातिवाद के नाम पर जलालत का जहर पी रही दलित जातियों पर हो रहे जोरजुल्म कम हो जाएंगे और अगला लोकसभा चुनाव जातिधर्म की सियासी बाजीगरी से नजात पा लेगा.

पर अफसोस, ऐसा हो न पाया, क्योंकि इस बार का चुनाव, चाहे किसी भी राजनीतिक दल की बात कर लें, सरेआम जाति के नाम पर लड़ा गया. सोशल मीडिया पर उन के आईटी सैल ने जाति को खूब भुनाया.

देश के बड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार के नेता तो जाति और अपने समाज के नाम पर वोट मांगते दिखे ही, दिल्ली और हरियाणा में चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी भी जाति के जंजाल में उलझती दिखी, तभी तो दिल्ली में आतिशी मार्लेना और हरियाणा में नवीन जयहिंद को भी बताना पड़ा कि वे जाति से राजपूत और ब्राह्मण हैं.

राहुल गांधी और जनेऊ

जब भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार अपने पिछले 5 साल की नाकामियों पर विपक्ष खासकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के पूछे गए तल्ख सवालों जैसे नोटबंदी और जीएसटी की नाकामी, बढ़ती बेरोजगारी, किसानों की खुदकुशी, धर्म के नाम पर लोगों में विभाजन, दलितों और आदिवासियों की समस्याओं पर ठोस जवाब नहीं दे पाई तो उस ने राहुल गांधी की जाति का ही जहरीला जुमला उछाल दिया. राहुल गांधी इस चाल में फंस भी गए थे, तभी तो वे मंदिरमंदिर घूमते दिखे. उन्हें अपना गोत्र तक बताना पड़ा.

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती का महागठबंधन पूरी तरह से जाति के वोटों पर टिका था. दोनों दलों में दलित और यादव समाज के बल पर अपनी लोकसभा सीटों को बढ़ाने की पूरी ललक दिखी.

दलितों में जाटव और अन्य पिछड़ा वर्ग में यादव के अलावा जाट और गुर्जर समाज पर भी सब की नजर रही थी. यह एक तरह का इम्तिहान भी था कि क्या आज भी चुनाव में लोग जाति के नाम पर अपना वोट डालते हैं या नहीं?

इस बार के चुनावी माहौल में इनसानों की तो छोडि़ए, हनुमान की जाति पर भी गरमागरम बहस हुई थी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने साल 2018 के नवंबर महीने में राजस्थान में चुनाव प्रचार के दौरान हनुमान को दलित बताया था.

योगी आदित्यनाथ ने तब कहा था, ‘बजरंग बली हमारी भारतीय परंपरा में एक ऐसे लोक देवता हैं, जो स्वयं वनवासी हैं, गिरवासी हैं, दलित हैं, वंचित हैं, पूरे भारतीय समुदाय उत्तर से ले कर दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक सब को जोड़ने का काम बजरंग बली करते हैं.’

योगी आदित्यनाथ का इतना कहना था कि देश के भगवा खेमे में ही बवाल मच गया. ज्योतिष व द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने

दोटूक कहा कि हनुमान की जाति बता कर मुख्यमंत्री ने पाप किया है. जबकि यह एक सोचीसमझी चाल के तहत बोला गया था ताकि दलित और पिछड़े तबके के लोगों को लुभा कर उन के वोट अपनी तरफ खींच लिए जाएं.

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इसी तरह बिहार में भी हर दल जाति के रंग में रंगा दिखा. साल 2015 के विधानसभा चुनावों में उछला ‘जाति तोड़ो, जनेऊ तोड़ो’ बस एक नारा बन कर रह गया. वहां भी एक ही फार्मूला दिखा कि उसी जाति के उम्मीदवार को टिकट दो, जिस के वोट की गारंटी हो. जाति के नाम पर बने सामाजिक समूह पूरे दमखम के साथ सामने आए.

मध्य प्रदेश में तो भोपाल सीट पर लड़ा गया चुनाव पूरे देश में जातिवाद को उभारने की अति कर गया. साध्वी प्रज्ञा और दिग्विजय सिंह के बीच मानो धर्मयुद्ध और हठयुद्ध सा छिड़ गया था.

वोटिंग का दिन आतेआते दिग्विजय सिंह भी हिंदुत्व के रंग में रंगे दिखाई दिए. इन दोनों उम्मीदवारों में खुद को सब से बड़ा हिंदूवादी होने की होड़ सी लग गई थी. दिग्विजय सिंह द्वारा कराया गया कंप्यूटर बाबा का हवन तो अंधविश्वास की हद था. यह नौटंकी जातिवाद की चाशनी में लिपटी ऐसी खतरनाक मिठाई थी जिस से पूरा समाज और देश मधुमेह से पीडि़त होता दिखाई दिया.

भाजपा का छिपा एजेंडा

भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यही छिपा एजेंडा था कि अगर उसे मुसलिम वोट न भी मिलें तो देश में इस तरह का माहौल बना दिया जाए जिस से अगड़े और बाकी निचले समाज में सोच की खाई इतनी बढ़ जाए कि सारे अगड़े वोट उसे मिलें और निचले तबके के वोट बाकी पार्टियों में बंट जाएं.

हरियाणा में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला. भाजपा सरकार ने गैरजाट जातियों के मन में यह बिठा दिया कि जाट समाज के नेता बस अपने लोगों की चौधराहट जमाए रखने की राजनीति करना चाहते हैं. इन चुनावों में जाट बनाम जाति तमाम को ध्यान में रख कर अपनीअपनी गोटियां फिट की गई थीं.

कम शब्दों में कहा जाए तो जम्मूकश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से पश्चिम बंगाल तक हर राज्य में हर सियासी दल ने जाति और धर्म की राजनीति खूब खेली. इस का सब से बुरा नतीजा यह रहा कि गांवदेहात के साथसाथ अब शहरों में भी लोग अपनी जाति की पहचान को अहमियत देने लगे हैं, जो धीरेधीरे नई पीढ़ी को भी अपनी चपेट में ले रहा है.

किस मुंह से मांगेंगे गरीब

अब आगे क्या होगा? जिस तरह से पूरी दुनिया में अति दक्षिणपंथी और बड़बोले नेता सत्ता पर काबिज हो रहे हैं, वह यकीनन चिंता की बात है. भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना आदर्श मानने वाली भारतीय जनता पार्टी के

लिए देश को सुगमता से चलाने की

सब से बड़ी चुनौती वह भारतीय अर्थव्यवस्था रहेगी जो पूरी तरह से चरमराती दिख रही है.

याद रहे, किसी देश को आगे बढ़ाने में वहां के किसान और मजदूर अपना सब से ज्यादा योगदान देते हैं. भारत में इन दोनों वर्गों में पिछड़े और दलित तबके के लोग ज्यादा हैं. लेकिन अफसोस, इन की हालत बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है. जब साल 2014 में मोदी सरकार आई थी तब लगा था कि ‘सब का साथ सब का विकास’ का नारा इन दबेकुचलों के अच्छे दिन तो ले ही आएगा, लेकिन समय के साथसाथ यह जुमला ही

साबित हुआ.

इन चुनावों से पहले जिस तरह से देश में किसानों और दलितपिछड़ों ने अपने हक में आवाज उठाई थी, उस से लगा था कि इस का गंभीर नतीजा सत्ता पक्ष को भुगतना पड़ेगा. लेकिन अब चूंकि राजग सरकार दोबारा केंद्र में आ गई है तो आने वाले कम से कम 3 साल तक तो किसानों और मजदूरों को चुप्पी साध कर रखनी होगी.

हम यह नहीं कह रहे हैं कि हर किसान या मजदूर ने सत्ता पक्ष को वोट दिया होगा, पर जिस तरह से राजग को बहुमत मिला है, अब यह वर्ग मुंह खोल कर अपने हकों को उठा नहीं पाएगा. जो केंद्र सरकार से मिलेगा, उसे अपनी तकदीर मान कर कबूल कर लेना होगा.

लेकिन इस का जो सब से बड़ा नुकसान होगा, वह यह

कि धीरेधीरे यह कमेरा तबका दिशाहीन हो जाएगा. हालफिलहाल तो वह यह समझने की हालत में ही नहीं रहेगा कि कौन उस का हक मार रहा है. वे कौन सी छिपी ताकतें हैं जो उस के मेहनतकश हाथों को कुंद कर रही हैं. पर जब तक वह समझ पाएगा, तब तक देर हो चुकी होगी.

पिछले 5 साल में विपक्ष ने जनता के सामने जो मुद्दे रखे, उन सब पर नरेंद्र मोदी का नाम भारी पड़ता दिखा. लोगों ने हर समस्या को दरकिनार कर बस इस नाम को अहमियत दी. पर याद रखें कि भावनाओं में बह कर वोट करना और चिडि़या का खेत चुगना दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, क्योंकि बाद में पछताने से कोई फायदा नहीं होता है. द्य

…तो इसलिए पूरा जोर नहीं लगा पाया विपक्ष

इस चुनाव में कांग्रेस का जो भी हाल रहा, पर एक बात तो साबित हो गई कि इस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी का खुद पर और अपने नेताओं पर बहुत ज्यादा भरोसा है. यही वजह रही कि कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के साथ लालच वाला गठबंधन नहीं किया, जबकि अगर ये दोनों दल दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में मिल जाते तो नतीजे कुछ और बेहतर हो सकते थे.

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सब से ज्यादा हैरानी वाला गठबंधन तो उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव के बीच हुआ था. वहां भी उम्मीद की जा रही थी कि चूंकि उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने एकसाथ चुनाव लड़ा था तो अखिलेश यादव कुछ भी कर के कांग्रेस को भी अपने महागठबंधन में आने का न्योता देते. इस से उत्तर प्रदेश में समीकरण ही बदल जाते.

भाजपा की लगातार होती तानाशाही इमेज और धर्मजाति के नाम पर लोगों को बांटने की राजनीति पर यह तिहरी चोट बड़ा असर दिखाती और वोटरों में यह संदेश जाता कि भारत में चुनाव प्रधानमंत्री चुनने के लिए नहीं लड़े जाते हैं, बल्कि अपने इलाके का विकास करने वाले जनप्रतिनिधि को संसद में भेजने का रिवाज है.

सभी विपक्षी दल जानते थे कि नरेंद्र मोदी यह चुनाव अपनी उपलब्धियों पर नहीं लड़ रहे हैं और जहांजहां वे फेल हो रहे हैं या हो चुके हैं जैसे नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी, किसानों की अनदेखी, औरतों, दलितों और आदिवासियों की सुरक्षा पर उन को जिस तरह से घेरना चाहिए था वह हो नहीं पाया.

इन चुनावों में क्षेत्रीय दल अपने में ही सिमटे दिखाई दिए. जब सब जानते थे कि लोकसभा चुनाव में नैशनल लैवल के मुद्दों पर वोटिंग होती है तो उन्हें मिल कर हर उस मुद्दे पर पुरजोर बहस करनी चाहिए थी जो पूरे देश के हित से जुड़े थे. लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अपना राज्य बचाती दिखाई दीं तो बिहार में लालू प्रसाद यादव का परिवार अपने वजूद की लड़ाई में ही उलझा रहा. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को अपनी जमीन खिसकती दिखाई दी तो हरियाणा में तमाम जाट नेता ही बंट चुके थे.

महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस को कोई मजबूत साथी नहीं मिला. दक्षिण भारत के नेताओं का भी कमोबेश यही हाल रहा. विपक्ष की यही कमजोरी नरेंद्र मोदी की सब से बड़ी ताकत बनी और नतीजा आप सब के सामने है.

क्या है राधे मां का भोपाल कनेक्शन

राधे मां के चेहरे पर विकट का तेज है अधिकांश लोगों का यह मानना गलत नहीं है कि यह तेज , वह तेज नहीं है जो तप बल , योग , भक्ति बगैरह के चलते आता है बल्कि इस तेज के लिए वह लाखों रुपये मेकअप पर खर्चती हैं . उनके गोरे गुलाबी चेहरे की लालिमा और होठों पर पुती सुर्ख लिपिस्टिक इस बात की चुगली भी खाती है . उम्र को मात करती इस सन्यासिन को कोई अगर रूबरू देखे तो वह सहज ही इस बात पर यकीन नहीं करेगा कि वह ज़िंदगी के साढ़े पाँच वसंत देख चुकी हैं और उनकी फिटनेस देखते इस बात पर तो कतई कोई यकीन नहीं करेगा कि वह महज 22 साल की उम्र में छह बच्चों की मां बन चुकी थीं.

राधे मां का विवादों से कितना गहरा नाता है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन पर दर्जनों मुकदमे देश भर की अदालतों में चल रहे हैं इनमें से एक भोपाल का भी है जो एक अधिवक्ता रामकुमार पाण्डेय ने दायर कर रखा है . इन वकील साहब ने अदालत में दायर मुकदमे में उन पर आरोप लगाए हैं कि वह समाज में अश्लीलता फैला रही हैं , धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं और खुद को देवी का अवतार बताती हैं और मां शब्द को बदनाम कर रही हैं.

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इन बातों या इस तरह के आरोपों से राधे मां और उनकी अरबों की दुकान अप्रभावित ही रहती है . एकाएक ही राधे मां भोपाल आईं तो लोग चौंके थे क्योंकि इस शहर में उनके भक्तों की तादाद न के बराबर है और कभी उन्होने भोपाल में अपनी चौकी नहीं लगाई .  गौरतलब है कि राधे मां की एक चौकी यानि दरबार लगाने की फीस लाखों रु होती है जिसे देश भर में फैले उनके भक्त बिना किसी हिचक या मोल भाव के देते हैं . इन चौकियों में राधे मां आइटम गानों पर नाचती हैं और नाचते नाचते किसी भी भक्त की गोद में चढ़ जाती हैं जो आमतौर पर पुरुष ही होता है . जिसकी गोद में वे चढ़ जाती हैं उसे बड़ा किस्मत बाला माना जाता है और अगर गोद में अठखेलियाँ खाते वे भक्त को चूम भी लें तो माना जाता है कि उस  भक्त की हर मनोकामना पूरी होगी . ( यह कोई नहीं सोचता कि जिसकी गोद में सवार होकर यह अनिद्ध सुंदरी उसे चूम ले उसके दिलोदिमाग में कोई ख़्वाहिश बाकी भी रह पाएगी ) .

चौंकाया शिवराज परिवार को –

   लोगों को लगा था कि राधे मां मुकदमे के सिलसिले में भोपाल आई होंगी लेकिन उनके इने गिने भक्त भी उस वक्त हैरान रह गए जब वे सीधे पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के निवास पर जा पहुँचीं . देशभर के तमाम धर्म गुरुओं से शिवराज सिंह के आत्मीय संबंध जगजाहिर हैं पर इस लिस्ट में राधे मां का नाम अभी तक शुमार नहीं था . दरअसल में पिछले दिनों ही उनके पिता का निधन हुआ है लिहाजा उन्हें व उनके परिवार को सान्त्व्ना देने देश भर सी राजनैतिक और धार्मिक हस्तियाँ आ रहीं हैं .

लेकिन राधे मां के यूं अचानक आ धमकने का अंदाजा शिवराज सिंह को भी नहीं रहा होगा लेकिन जब आ ही गईं थीं तो उन्हें रोका भी नहीं जा सकता था , इसलिए राधे मां को संभालने का जिम्मा उनकी पत्नी साधना सिंह ने उठाया और मिनटों में ही राधे मां को चलता कर दिया . शोक व्यक्त कर और हिम्मत बंधाकर राधे मां रुखसत हुईं तो मीडिया कर्मियों ने उन्हें घेर लिया .  बातचीत में राधे मां ने इस अफवाह को खारिज किया कि वे राजनीति में आ रहीं हैं.

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तो फिर क्यों यह विवादित सन्यासिन भोपाल आई थी इसका जबाब ढूँढे से लोगों को नहीं मिल रहा है और शायद मिलेगा भी नहीं हाँ इतना जरूर पता चला कि वे असल में एक निजी कार्यक्रम में हिस्सा लेने भोपाल से 80 किलोमीटर दूर होशंगाबाद भी गईं थीं . शिवराज सिंह के घर तो वे शायद मीडिया की सुर्खी बनने चली गईं थीं .

सुखाविंदर बनी राधे मां

अपनी ऊटपटाँग हरकतों की वजह से ब्रांडेड सन्यासिन बनी राधे मां की ज़िंदगी किसी फिल्मी कहानी से कमतर नहीं है . पंजाब के गुरुदासपुर के गाँव दोरंगला में साल 1965 में जब एक मामूली सिक्ख परिवार में राधे मां जन्मी थीं तब कोई आकाशवाणी बगैरह नहीं हुई थी कि यह कन्या देवी का अवतार है और कालांतर में इसका भगवान से सीधा कनेकशन होगा . 17 साल की उम्र में ही सुखाविंदर की शादी सरदार मोहन सिंह से हो गई थी . मोहन के परिवार की भी माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी लिहाजा ज्यादा पैसा कमाने की गरज से वह दोहा ( क़तर की राजधानी ) चला गया . ससुराल में रहते सुखाविंदर कपड़े सिलने का काम करती थी .

पहले मां की मौत और फिर पति के विदेश चले जाने से सुखाविंदर डिप्रेशन में आ गई और धर्म कर्म में उसकी दिलचस्पी बढ़ने लगी . इसी दौरान वह एक धर्मगुरु रामाधीन परमहंस के संपर्क में आई जिनहोने उसे 6 महीने तक दीक्षा दी और उसे राधे मां नाम दिया . जल्द ही राधे मां लोगों की व्यक्तिगत , पारिवारिक और कारोबारी समस्याएँ सुलझाने लगीं . अपने देश में कोई और चले न चले लेकिन धर्म का धंधा जरूर चल निकलता है शर्त बस इतनी सी है कि आपको लोगों को बेबकूफ बनाने के तरीके आने चाहिए .

देखते ही देखते राधे मां मशहूर हो गईं और उनकी चौकियाँ पंजाब के अलावा हिमाचल प्रदेश में भी लगने लगीं . पैसा बरसना शुरू हुआ तो राधे मां के रंग ढंग भी बदलने लगे . वह हमेशा लाल सुर्ख कपड़ों में रहती थी और छोटा त्रिशूल हाथ में रखने लगी आज भी वह इसी तरह रहती हैं . साल 2005 के लगभग उनकी मुलाक़ात मुंबई के एक नामी मिठाई व्यापारी एमएम गुप्ता से हुई जो उन्हें इस माया नगरी में ले आए . मुंबई आना राधे मां की ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ वहाँ वह गुप्ता के आलीशान मकान के ऊपरी हिस्से में रहते अपनी दुकान चलाने लगी . एमएम गुप्ता ने राधे मां के कथित चमत्कारों का खूब प्रचार प्रसार किया . मुंबई के अलावा देश भर में उनके भक्तों की फौज खड़ी हो गई और हर कहीं राधे मां के आश्रम खुलने लगे और चौकियाँ लगने लगीं .

भक्तों का दिल लगाए रखने वह भी उनके साथ नाचने गाने लगीं और उनकी गोद में बैठकर और चूमकर व लिपटकर भी आशीर्वाद देने लगीं . अब राधे मां के पास किसी चीज की कमी नहीं थी पैसा भी खूब बरस रहा था जिसमें गुप्ता का भी हिस्सा होता था . राधे मां का एक महंगा शौक काले रंग की जगुआर कार की सवारी भी था . मौज मस्ती के मामले में वह ओशो यानि रजनीश को भी मात कर रहीं थीं लेकिन उनके पास धर्म और आध्यात्म का कोई विशेष ज्ञान तो क्या बुनियादी जानकारियाँ भी नहीं थी . इन कमियों को वह लटके झटकों और सेक्सी अदाओं से ढकते धर्म की नई परिभाषा भी गढ़ रहीं थीं . कभी किसी ने राधे मां को प्रवचन करते नहीं देखा क्योंकि वे बोलना नहीं जानती थीं .

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सर से लेकर पाँव तक सोने के गहनों से लदी रहने बाली इस देवी को लेकर बड़ा फसाद उस वक्त खड़ा  हुआ जब डोली बिंद्रा नाम की एक महिला ने उन पर अश्लीलता फैलाने और यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए और न केवल लगाए बल्कि उनके सबूत भी पेश करना शुरू कर दिये . इधर उसके मुंबइया गॉड फादर एमएम गुप्ता ने भी उन पर अपना बंगला हड़पने का आरोप लगाया तो घबराई राधे मां पहली बार मीडिया के सामने आकार अपनी सफाई में बोलीं .

फिर बहुत सी और बातें हुईं जिनसे यह भर साबित हुआ कि जब लोग अपनी मर्जी से दैवीय चमत्कारों  के नाम पर मूर्ख बनने और पैसा लुटाने तैयार बैठे रहते हैं तो इसमें राधे मां का क्या कसूर जो दूसरे साधु  संतों की तरह लोगों के लुटने की इच्छा ही पूरी कर रही थी इसलिए वह कुम्भ के मेले में भी अपना शो रूम लगाने लगीं थीं जहां थोक में ग्राहक आते हैं .

भोपाल में लगेगी चौकी –

  भोपाल के संक्षिप्त प्रवास में राधे मां जो सनसनी फैला गईं हैं उससे लगता यही है कि वे इस शहर में भी आउटलेट खोल सकती हैं . भोपाल में साधु संत और सन्यासिने तो बहुत आते हैं लेकिन राधे मां की बात कुछ और है और राधे मां में भी बात कुछ और है.

उम्मीद है जल्द ही भोपाल के धर्म प्रेमियों की गोद में राधे मां बल खाती नजर आएंगी.

Edited By- Neelesh Singh Sisodia

 

पौलिटिकल राउंडअप

आतिशी का गंभीर आरोप

नई दिल्ली. लोकसभा चुनाव के आखिरी दौर में 9 मई को पूर्वी दिल्ली से आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार आतिशी मार्लेना ने एक प्रैस कौंफ्रैंस में भावुक होते हुए भाजपा के उम्मीदवार गौतम गंभीर पर अपने खिलाफ ‘अश्लील और अपमानजक परचे’ बंटवाने का आरोप लगाया. इंगलिश भाषा में लिखे इस परचे में अव्वल दर्जे की घटिया भाषा का इस्तेमाल किया गया था. इस के जवाब में गौतम गंभीर ने आतिशी मार्लेना और अरविंद केजरीवाल को खुद पर लगे आरोपों को साबित करने की चुनौती दी और आपराधिक मानहानि का मामला भी दर्ज कराया.

जब मायावती गरजीं

लखनऊ. लोकसभा चुनाव के लिए छठे चरण की वोटिंग से पहले उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी और बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने 9 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोला. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री राजनीतिक फायदे के लिए जबरदस्ती पिछड़ी जाति के बने हैं. अगर मोदी जन्म से पिछड़ी जाति के होते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बनाता.

मोदी ने तो कभी जातिवाद का दंश नहीं झेला है और ऐसी झूठी बातें करते हैं…

शरद पवार का दावा

मुंबई. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सर्वेसर्वा शरद पवार ने 9 मई को सातारा में मीडिया से बात करते हुए कहा कि उन्होंने खुद इस बात का अनुभव लिया है कि वोटिंग मशीन का कोई भी बटन दबाओ, वोट भाजपा को ही जा रहा था, इसीलिए वे ईवीएम के चुनाव नतीजों के बारे में चिंतित थे.

शरद पवार ने बताया, ‘मेरे सामने किसी ने हैदराबाद और गुजरात की वोटिंग मशीनें रखीं और मुझ से बटन दबाने को कहा गया. मैं ने अपनी पार्टी के चुनाव चिह्न ‘घड़ी’ के सामने वाला बटन दबाया, लेकिन वोट भाजपा के चुनाव चिह्न ‘कमल’ पर गया. यह मैं ने अपनी आंखों से देखा है.’

सरकार का चमचा

मुंबई. 10 मई को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संजय निरुपम ने जम्मूकश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक को सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चमचा बताया जो बिलकुल सही है.

सत्यपाल मलिक ने 9 मई को श्रीनगर में मोदी की तर्ज पर कहा था कि प्रधानमंत्री रह चुके राजीव गांधी शुरू में भ्रष्ट नहीं थे, लेकिन कुछ लोगों के असर में आ कर वे बोफोर्स घोटाले के मामले में शामिल हो गए थे.

संजय निरुपम ने इस कथन पर अपनी राय देते हुए कहा, ‘हमारे देश के जितने राज्यपाल होते हैं, वे सरकार के चमचे होते हैं. सत्यपाल मलिक भी चमचा ही है. राजीव गांधी को बोफोर्स केस में अदालतों ने क्लीन चिट दी थी.’

नीतीश का बड़ा बयान

बक्सर. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 10 मई को एक चुनावी सभा में विपक्षी दलों पर आरक्षण को ले कर लोगों को गुमराह करने का आरोप लगाया और कहा कि आज वोट के लिए विपक्षी दल इसे ले कर तरहतरह की बातें कर रहे हैं.

नीतीश कुमार ने कहा, ‘हमारे रहते दलित, महादलित, अल्पसंख्यक, अति पिछड़ों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को खत्म करने की किसी भी राजनीतिक दल की औकात नहीं है.’

सब ने की तारीफ

श्रीनगर. मंगलवार, 14 मई को 4 मछुआरे समेत 13 पाकिस्तानी नागरिकों को अटारीवाघा बौर्डर से पाकिस्तान भेजा गया था जबकि अप्रैल महीने में पाकिस्तान ने ‘सद्भावना’ के तहत 55 भारतीय मछुआरों और 5 नागरिकों को रिहा किया था. इस का दोनों देशों के उदार लोगों ने स्वागत किया. दूसरे देश के नागरिकों को बंद रखना कम से कम होना चाहिए.

विद्यासागर की मूर्ति ढहाई

कोलकाता. पश्चिम बंगाल में मंगलवार, 14 मई को लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का रोड शो था जिस में ईश्वरचंद्र विद्यासागर कालेज में हुई तोड़फोड़ में समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति ढहा दी गई थी. इस के बाद सत्ताधारी तृणमूल और भाजपा ने एकदूसरे पर यह कांड करने का इलजाम लगाया.

इस शर्मनाक घटना ने 50 साल पहले की उस घटना को ताजा कर दिया जब नक्सली मुहिम में शामिल नौजवानों ने विद्यासागर कालेज के आसपास विद्यासागर, राजा राममोहन राय, प्रभुल राय और आशुतोष मुखर्जी की मूर्तियां तोड़ दी थीं.

केस ही केस

तिरुअनंतपुरम. 15 मई. भारतीय जनता पार्टी के केरल के पत्तनमतिट्टा संसदीय क्षेत्र के उम्मीदवार के. सुरेंद्रन पर 240 आपराधिक मामले दर्ज होने से वे सब से ज्यादा आपराधिक मामले वाले उम्मीदवार बन गए हैं.

के. सुरेंद्रन कासरगोड में रहते हैं और वे भाजपा के प्रदेश महासचिवों में से एक हैं. उन पर 240 मामलों में से 129 मामले काफी गंभीर हैं, जबकि ऐसे ही मामलों में दूसरे नंबर पर केरल के इडुक्की क्षेत्र

के कांग्रेस उम्मीदवार डीन कुरियाकोस हैं. उन के खिलाफ 204 आपराधिक मामले पैंडिंग हैं, जिन में से 37 मामले गंभीर हैं.

गोडसे पर सियासी गरमी

चेन्नई. इन चुनावों के दिनों में जब कमल हासन ने तमिलनाडु के करूर जिले में कहा था, ‘आजाद भारत का पहला आतंकवादी एक हिंदू था और उस का नाम नाथूराम गोडसे था…’ तो इस बयान के बाद उन की रैलियों में पत्थर और अंडे फेंके जाने की घटनाएं सामने आईं. कमल हासन ने यह भी कहा कि कोई धर्म यह दावा नहीं कर सकता कि वह किसी और धर्म से बेहतर है और वे अपने बयान पर गिरफ्तार होने से डरते नहीं हैं. दूसरी तरफ जब प्रज्ञा भारती ने नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहा तो एक भी हिंदूवादी ने अदालत का बहाना ले कर मुकदमा चला कर परेशान करने की कोशिश नहीं की.

अमिताभ को बना दो

मिर्जापुर. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार के आखिरी दिन

17 मई को कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अभिनेता बताया. उन्होंने उन पर तंज कसते हुए कहा कि इस से अच्छा तो अमिताभ को ही पीएम बना देते.

प्रियंका गांधी वाड्रा ने आगे कहा, ‘अगर मोदी फिर पीएम बने तो 5 साल और पिक्चर ही देखनी पड़ेगी, इसलिए तय कर लीजिए कि किसे वोट करना है, जमीन पर काम करने वाले नेता को या हवा में उड़ने वाले को… मोदी हर चुनाव में नई कहानी बनाते हैं… इस बार किसानों के लिए नई कहानी बनाई और कहा कि किसान सम्मान योजना लाए हैं.’

रघुवर का तंज

दुमका. झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने

12 मई को झारखंड मुक्ति मोरचा पर हमला बोलते हुए कहा कि यह मोरचा अब बूढ़ा मोरचा हो गया है, जो न चल सकता है, न बोल सकता है, इसे जबरन चलाया जाता है. रघुवर दास ने हेमंत सोरेन पर तंज कसते हुए कहा कि उन्होंने आदिवासियों की जमीन अपने नाम कर ली और आज आदिवासियों के नेता बने हुए हैं.

Edited by – Neelesh Singh Sisodia

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