अगर पिछली बार मोदी की लहर थी तो इस बार क्या माना जाए? साल 2014 से अब साल 2019 तक पिछले 5 साल में बहुमत में आए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अगुआ नरेंद्र मोदी को मई की 23 तारीख बहुत रास आई. लोकसभा चुनाव की कुल 542 सीटों में से राजग ने 350 से ज्यादा सीटें जीत कर पूरे विपक्ष को चारों खाने चित कर दिया. अकेली भारतीय जनता पार्टी ने 300 से भी ज्यादा सीटों पर कब्जा जमाया जबकि अपने वजूद से जूझ रही कांग्रेस और उस की सहयोगी पार्र्टियां 86 सीटें ही अपने नाम कर पाईं.

हालांकि कांग्रेस ने 52 सीटें जीत कर उम्मीद से कुछ बेहतर किया, पर वह मोदी और शाह के बनाए इस चुनावी चक्रव्यूह में उलझ कर रह गई. राहुल गांधी इस चक्रव्यूह के भीतर तो चले गए थे, पर भेद नहीं पाए.

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के अलावा बचे अन्य दलों और आजाद उम्मीदवारों के हिस्से में 104 सीटें रहीं. कुलमिला कर पूरा विपक्ष मिल कर भी नरेंद्र मोदी के राष्ट्रवाद के आगे घुटने टेक गया.

ढीला महागठबंधन

सब से बड़ी लड़ाई तो 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में दिखाई दे रही थी. वहां खंडहर हो चुकी समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने दलितों की मसीहा बहुजन समाज पार्टी की मायावती के साथ मजबूत तालमेल किया था ताकि भारतीय जनता पार्टी साल 2014 वाला खेल न खेल जाए. उस समय अकेली भाजपा ही 73 सीटें जीत गई थी, जिस से उस का केंद्र में सरकार बनाना और भी आसान हो गया था.

लेकिन समाजवादी पार्टी के यादव वोटों और बसपा के दलित वोटों का ट्रांसफर पूरी तरह से नहीं हो पाया. भाजपा की सीटें जरूर कम हुईं, लेकिन मायावती और अखिलेश यादव का गठबंधन उसे उतनी ज्यादा चोट नहीं पहुंचा पाया, जो उम्मीद की जा रही थी. समाजवादी पार्टी को 5 सीटें मिलीं तो बसपा को 10 सीटें. हां, मायावती जरूर फायदे में रहीं, क्योंकि पिछली बार तो वे खाता तक नहीं खोल पाई थीं.

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