70 की उम्र में भरी सूनी गोद

विज्ञान और तकनीक के जमाने में बांझ औरत की कोख से बच्चे का पैदा होना कोई अजूबा नहीं रहा. लेकिन 70 साल की औरत द्वारा बच्चे को जन्म देना विज्ञान जगत के लिए भी किसी अचंभे से कम नहीं होगा.

जीवुबेन ने पड़ोस में रहने वाली मीराबेन को कराहते हुए आवाज लगाई. उन की आवाज सुनते ही

मीराबेन भागती हुई उन के पास आ कर बोली, ‘‘हां दादी, कोई बात है… कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘अरे हां, बहुत दर्द हो रहा बेटा, दर्द वाली दवाई दे दो, वहां ताखे पर रखी होगी,’’ बिछावन पर लेटी जीवुबेन  बोली.

‘‘लेकिन दादी, आप को दर्द की ज्यादा दवा लेने से डाक्टर ने मना किया है. थोड़ा बरदाश्त कर लिया करो… देखो तो तुम्हारा बेटा भी मेरी बात सुन रहा है… कैसा मुसकरा रहा है…’’ मीरा समझाती हुई बोली.

‘‘अभी तक मैं तुम्हारी ही तो बात मानती आई हूं और आगे भी मान… ना… ओह! आह!!’’ जीवुबेन बोलतेबोलते कराह उठी.

‘‘ये दर्द उस दर्द के सामने कुछ भी नहीं है दादी, जो तुम 40 से अधिक सालों से बरदाश्त किए हुए थीं,’’ मीरा बोली.

‘‘तुम तो मेरी भी अम्मादादी बन रही हो. वैसे कह सही रही हो… बेऔलाद होने का दर्द कहीं अधिक बड़ा और तकलीफ देने वाला था. मगर क्या करूं, बरदाश्त नहीं हो रहा है…’’ कहती हुई जीवु करवट बदलने की कोशिश करने लगीं.

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मीरा ने उन्हें सहारा दे कर उन का मुंह बगल में लेटे बच्चे की ओर कर दिया.

‘‘लो, अब बेटे को देखती रहो. सारा दर्द छूमंतर हो जाएगा.’’ कहती हुई मीरा भी सिरहाने बैठ बगल में लेटे नवजात शिशु को पुचकारने लगी.

2 दिन पहले ही जीवुबेन का सीजेरियन औपरेशन हुआ था. घर में 45 साल बाद किलकारी गूंजी थी. उन का औपरेशन परिवार के सभी सदस्यों से ले कर डाक्टर तक के लिए खास था, कारण उन की उम्र 70 साल की थी.

इस औपरेशन की सफलता से सभी खुश थे. जच्चाबच्चा दोनों सुरक्षित और स्वस्थ थे. केवल औपरेशन के जख्म हरे होने के कारण जीवुबेन को थोड़ी तकलीफ थी. सब के लिए किसी अचंभे से कम नहीं था उन का औपेरशन.

डाक्टर ने बताया था कि अधिक उम्र में औपरेशन होने से उन का जख्म भरने में समय लग सकता है. डाक्टर ने दूसरी एंटीबायोटिक दवाओं के साथसाथ दर्द की दवा भी दी थी, लेकिन दर्द की दवा ज्यादा खाने से मना करते हुए हिदायत भी दी थी. कहा था कि असनीय या तेज दर्द हो तभी वह दवा खाएं, वरना उस का असर सीधे किडनी पर पड़ेगा.

थोड़ी देर बैठने के बाद मीरा वहां से जाने को उठी, तभी जीवु के पति मालधारी आ गए. मीरा सिर पर दुपट्टा संभालती हुई बोली, ‘‘नमस्ते दादाजी.’’

‘‘कैसी है रे तू?’’ मालधारी मीरा से बोले.

‘‘अच्छी हूं, दादाजी. आप अब तो खुश हैं न?’’ मीरा बोली.

‘‘तू खुश रहने की बात बोल रही है, मैं तो इतना खुश हूं कि तुझे बता नहीं सकता… और बेटा तूने जो औलाद की मुराद पूरी करवाई है वह कभी नहीं भूलने वाला उपकार है.’’ बोलतेबोलते मालधारी भावुक हो गए.

‘‘उपकार किस बात का दादाजी, सब ऊपर वाले की मरजी से हुआ है.’’ मीरा बोली.

‘‘कुछ भी कह लो, लेकिन मेरे घर आई औलाद की खुशी बेटा तेरी ही बदौलत मिली है. जो मैं 75 साल की उम्र में बाप बन गया हूं… और देखो जीवु मुझ से कुछ ही साल तो छोटी है…‘‘ मालधारी ने कहा.

‘‘बस दादाजी, बस. मेरी तारीफ और मत करो…’’ मीरा बोली.

‘‘अरे, मैं तेरी तारीफ नहीं कर रहा हूं बल्कि मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि तू ठहरी निपट अनपढ़ औरत, फिर भी इतनी गहरी बात की जानकारी तुझे मिली कैसे? मैं तो वही सोचसोच कर अचरज में हूं.’’ मालधारी काफी दिनों तक मन में दबी जिज्ञासा को और नहीं रोक पाए.

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‘‘अच्छा तो यह बात है. चलो, मैं आज बता ही देती हूं दादादी… मैं जब 2 साल पहले सूरत में काम करने गई थी, तब मुझे एक नर्सिंगहोम में काम मिला था. वहां केवल बच्चा जन्म देने वाली औरतों को ही रखा जाता था. मुझे उन की देखभाल करने की नौकरी मिली थी. वहां और भी कई नर्सें और दाई काम करती थीं. भरती औरतों को समय पर दवाइयां खिलानी होती थी, खानेपीने की देखभाल करनी थी और उन्हें घुमानेफिराने के लिए ले जाना होता था…’’

‘‘तुम भी तो वहां गए थे.’’ बीच में जीवु बोली.

‘‘लगता है, अब दर्द कम हो गया है,’’ मीरा मुसकराती हुई बोली.

‘‘हां, तुम्हारी कहानी सुन कर दर्द चला गया,’’ जीवु गहरी सांस लेती हुई बोली.

‘‘…लेकिन तुम्हें टेस्टट्यूब के बारे में किस ने बताया?’’ मालधारी ने पूछा.

‘‘अरे तुम क्या समझोगे, मैं बताती हूं न सब कि कितने तरह की जांच हुई मेरी. वैसे तुम को भी तो डाक्टर ने बताया ही होगा. तुम्हारी भी तो डाक्टर ने जांच की थी,’’ जीवु बोली.

‘‘मेरी जांच का तो कुछ पता ही नहीं चला. डाक्टर ने सिर्फ बोला कि देखता हूं… अभी कुछ कह नहीं सकता.’’ मालधारी बोले.

‘‘मैं जब मीरा के पास 2 साल पहले गई थी, तब मीरा मुझे एक दिन जहां काम करती थी अपने साथ ले गई थी. वहीं भरती औरतों से मालूम हुआ कि उस के पेट में पलने वाला बच्चा उन का है, जो खुद मांबाप नहीं बन सकते थे. उसे पालने के बदले में पैसे मिले हैं.’’ जीवु बोली.

‘‘उस से क्या हुआ?’’ मालधारी ने पूछा.

‘‘हुआ यह कि जब एक दफा उन को देखने डाक्टर आए तब उन से मीरा ने पूछ लिया कि डाक्टर साहब मेरी दादी ‘मां’ नहीं बन सकती? डाक्टर साहब मुझे देख कर मुसकराए.’’ जीवु बोली.

‘‘..और दादाजी?’’ डाक्टर साहब के मुसकराने का अर्थ मैं समझ गई थी. अगले रोज ही उन के चैंबर में दादी को ले कर चली गई थी. दादी से उन्होंने बहुत देर तक बात की. अब रहने भी दो न दादाजी, वह सब पुरानी बातें हो गईं.’’ मीरा बोली.

‘‘अरे नहीं मीरा, कैसे रहने दूं उन बातों को, जिस से मेरी इस उम्र में औलाद की मुराद पूरी हुई. इस उम्र में कोई बाप बनता है भला! …और इस उम्र में कोई आज तक किसी औरत ने बच्चे को जन्म दिया है क्या? मैं तो अब उस बारे में सब को बताना चाहता हूं… क्या कहते हैं उसे आईवीएफ. उस इलाज के बारे में उन्हें समझाना चाहता हूं, जो बच्चा जन्म के लिए औरत को ही दोषी ठहराते हैं.’’

दरअसल, गुजरात के कच्छ इलाके में रापर तालुका स्थित एक छोटे से गांव मोरा की रहने वाली जीवुबेन रबारी ने सितंबर, 2021 में शादी के 45 साल बाद आईवीएफ तकनीक की बदौलत एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया था.

उस के पति मालधारी को पिता बनने का सौभाग्य तब मिला, जब वह 75 साल के हो गए. इस कारण दोनों मीडिया में चर्चा का विषय बन गए.

बच्चे के जन्म के बाद परिवार और रिश्तेदारों में खुशी की लहर दौड़ गई. बच्चा सीजेरियन से हुआ था. उन को यह उपलब्धि आईवीएफ तकनीक के विशेषज्ञ डा. नरेश भानुशाली की देखरेख से मिली, जो सभी के लिए अचंभे से भरी हुई थी. जिस ने भी सुना, सभी जीवुबेन और मालधारी से मिलने को बेचैन हो गए.

जीवुबेन ने जब इस बारे में डा. नरेश भानुशाली से संपर्क किया था, तब उन्होंने अधिक उम्र में मां बनने की मुश्किलों को ले कर सचेत किया था. डा. भानुशाली ने एक तरह से दंपति को शुरू में तो साफतौर पर पर कहा था कि उम्र अधिक होने के कारण बच्चे को जन्म देना मुश्किल होगा, लेकिन वृद्ध दंपति ने डाक्टर पर विश्वास जताते हुए अपनी मजबूत इच्छाशक्ति का हवाला दिया था. यही वजह रही कि प्रजनन का असंभव और कठिन काम संभव बन गया. यह घटना चिकित्सा जगत के लिए भी किसी चमत्कार से कम नहीं थी. ऐसा कर जीवुबेन और मालधारी ने दुनिया भर में एक मिसाल पेश कर दी. इसे ले कर ही मीडिया ने जीवुबेन द्वारा दुनिया में सब से अधिक उम्र में मां बनने कादावा किया.

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जीवुबेन विवाह के कई सालों तक गर्भवती नहीं हो पाई थीं. उन के द्वारा की गई तमाम कोशिशें बेकार गई थीं. कई डाक्टरी इलाज भी चले थे और पतिपत्नी देवीदेवताओं के पूजापाठ से ले कर धार्मिक स्थलों की कठिन से कठिन यात्राएं तक कर चुके थे. फिर भी असफलता ही हाथ लगी थी.

नतीजा यह था कि उन्हें संतान नहीं होने का दंश सताता रहता था. उन्हें जरा सी भी उम्मीद की किरण दिखती थी, वे उस ओर दौड़ पड़ते थे. उस के उपायों और प्रयासों को आजमाने में कोई भी लापरवाही नहीं बरतते थे. एक बार उन्होंने बच्चा गोद लेने की भी सोची थी, जो उन्हें सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर अच्छा नहीं लगा.

इसी तरह से समय गुजरता गया. एक दिन उन की एक रिश्तेदार मीराबेन के माध्यम से आईवीएफ तकनीक के जरिए से नई उम्मीद जागी थी. इस बारे में उन्हें पहली बार जानकारी मिली थी.

जीवुबेन और मालधारी ने टेस्टट्यूब बच्चा और किराए की कोख के बारे में सुन तो रखा था, लेकिन उस बारे में बहुत अधिक नहीं जानते थे. मीरा की बदौलत वे डा. नरेश भानुशाली के संपर्क में आए. वह आईवीएफ तकनीक से गर्भधारण करवाने और बच्चा प्रसव के स्त्रीरोग विशेषज्ञ थे.

जीवु ने जब डा. भानुशाली को अपनी इच्छा जताई, तब वह भी सोच में पड़ गए. पहली बार में ही उन्होंने कहा कि उन की उम्र काफी अधिक हो गई है. ऐसा कहते हुए उन्होंने एक तरह से सीधेसीधे मना ही कर दिया था. समझाया था कि ज्यादा से ज्यादा 50-55 साल की माहिलाएं मेनोपाज के कारण आईवीएफ अर्थात इन विट्रो फर्टिलाइजेशन तकनीक की मदद से गर्भधारण कर सकती हैं, लेकिन उन की उम्र 70 साल के करीब हो चुकी है. इस उम्र में इस की संभावना नहीं के बराबर रहती है.

डाक्टर द्वारा इनकार करने के बावजूद दंपति ने एक बार जांच करने का जोर दिया. दंपति के कहने पर डाक्टर ने चुनौतीपूर्ण काम के लिए तैयारी शुरू की. मालधारी जांच में स्वस्थ पाए गए. उन के स्पर्म की भी जांच हुई.

महत्त्वपूर्ण जांच जीवुबेन की होनी थी, कारण बच्चा उन्हें जन्म देना था, या फिर उन्हें किसी किराए की कोख का इंतजाम करना था. दंपति चाहते थे कि बच्चे का जन्म भी जीवुबेन की कोख से ही हो, ताकि उन के पीछे बच्चे को किसी तरह की सामाजिक या पारिवारिक उपेक्षा का दंश नहीं झेलना पड़े.

डाक्टर ने जीवुबेन की डाक्टरी जांच शुरू की. उन्होंने पाया कि शरीर के भीतरी अंग सही तरह से काम कर रहे हैं. उन में कोई कमी नहीं है सिर्फ उम्र के अनुसार उन की कोख काफी सिकुड़ चुकी है.

पहले उसे दुरुस्त करने के लिए दवाई खिलाई गईं. उसी के साथ मासिक चक्र को नियमित करने के लिए भी दवाइयां दी गईं. कुछ समय में ही उन का सिकुड़ा हुआ गर्भाशय चौड़ा हो गया. उस के बाद उन के अंडों को निषेचित कर प्रजनन की जगह बना दी गई, फिर उस में उन के पति के अलग से निकाल कर रखे गए स्पर्म को डाला गया.

इस तरह से पूरी हुई गर्भधारण की प्रक्रिया के नतीजे अच्छे आने पर डाक्टर आश्वस्त हो गए.

गर्भावस्था के 8 महीने बाद डाक्टरों से जीवुबेन का सी-सेक्शन किया, जिस से उन को पहली संतान की प्राप्ति हुई.

इस सफलता पर डा. भानुशाली ने हर्ष जताते हुए बताया कि इस में जितना योगदान उन का है, उतना ही जीवुबेन का भी है, उन की हिम्मत और नीयत काम कर गई और एकदो नहीं, पूरे 45 साल के इंतजार के बाद 70 साल की उम्र में उन की सूनी गोद भर गई.

बांझ औरत भी बन सकती है आईवीएफ तकनीक से मां

संतानहीनों के लिए वरदान साबित हुआ आईवीएफ तकनीक का चिकित्सा जगत में पूरा वैज्ञानिक नाम इन विट्रो फर्टिलाइजेशन कहा जाता है. इस तकनीक की मदद से पुरुष के शुक्राणु यानी स्पर्म और महिला के अंडाणु को लैब में मिला कर उसे ऐसी महिला के गर्भाशय में डाला जाता है, जो मां बनना चाहती है.

इस प्रक्रिया को अपनाने के लिए गहन चिकित्सीय सलाह की जरूरत होती है तथा इस का फायदा 5 तरह की शिकायत वालों मिल सकता है. जैसे— किसी महिला की फैलोपियन ट्यूब में ब्लौकेज हो जाना. पुरुष बांझपन यानी स्पर्म की संख्या में कमी का आना. किसी जेनेटिक बीमारी से ग्रसित होना. इनफर्टिलिटी का सही कारण का पता नहीं चलना या फिर महिला को हारमोंस विकार की समस्या से पीसीओएस की समस्या की शिकायत रहना.

इस तकनीक की सफलता भी 5 चरणों में पूरी होती है. जैसे पहले चरण में औरत के कोख को दुरुस्त किया जाता है. यह काम दवाइयों के अलावा माइनर औपरेशन से कर लिया जाता है.

दूसरे चरण में अंडे की पर्याप्त मात्रा को गर्भाशय में डाला जाता है. उस के बाद तीसरे चरण की प्रक्रिया में अंडे के साथ स्पर्म को लैब में अलग से मिला कर फर्टिलाइज करवाया जाता है. उस के बाद बच्चे की चाह रखने वाली महिला के गर्भ में डाल दिया जाता है.

कई बार इसे किसी दूसरी महिला के गर्भ में डाल कर गर्भधारण की प्रक्रिया पूरी कर ली जाती है. कुछ समय बाद अंतिम चरण के अनुसार महिला के गर्भावस्था की जांच की होती है.

तुलसी गौड़ा: इनसाइक्लोपीडिया औफ फारेस्ट

किसी को भी सम्मान, ईनाम और अवार्ड मिलता है तो कुछ लोगों को यही लगता है कि गलत व्यक्ति को अवार्ड दिया गया है. खास कर जब सरकार की ओर से मान, सम्मान या अवार्ड दिया जाता है, तब हमेशा इस तरह की बातें होती हैं. देश में सर्वोच्च अवार्ड दिए जाने का इतिहास हमेशा विवादास्पद रहा है.

ऐसे में 9 नवंबर, 2021 को राष्ट्रपति के हाथों पद्म, पद्मश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण अवार्ड दिए गए. उन में से कुछ ऐसे व्यक्ति भी अवार्ड लेने वाले थे, जिन्हें देख कर चौंके बिना नहीं रहा गया.

9 नवंबर को राष्ट्रपति भवन में आयोजित अवार्ड वितरण समारोह में जब तुलसी गौड़ा का नाम अवार्ड लेने के लिए पुकारा गया तो जो महिला अवार्ड लेने के लिए आई, उसे देख कर सभी की नजरें उसी पर टिकी रह गईं. उन की सादगी ने सब का मन मोह लिया.

अवार्ड लेने आने वाली वृद्ध महिला नंगे पैर आई थीं. उन के शरीर पर मात्र एक धोती (साड़ी) जैसा कपड़ा लिपटा था. गले में आदिवासी जीवनशैली की कुछ मालाएं थीं. 72 साल से अधिक उम्र वाली उस महिला को जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश के चौथे सब से बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्री अवार्ड दे कर सम्मानित किया तो राष्ट्रपति भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

कर्नाटक के हलक्की जनजाति से आने वाली तुलसी गौड़ा ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा. क्योंकि वह बहुत ही गरीब परिवार में पैदा हुई थीं. फिर भी पर्यावरण में उन के योगदान और पेड़पौधों सहित जड़ीबूटियों की तमाम प्रजातियों के बारे में उन के अथाह ज्ञान के कारण आज उन की पहचान ‘इनसाइक्लोपीडिया औफ फारेस्ट’ के रूप में होती है.

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वह आज भी तमाम नर्सरियों की देखभाल करती हैं. इस से पहले भी उन्हें और कई अवार्डों से सम्मानित किया जा चुका है. इस से पहले उन्हें ‘इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र अवार्ड’, ‘राज्योत्सव अवार्ड’, ‘कविता मेमोरियल’ जैसे अवार्ड मिल चुके हैं. तुलसी गौड़ा को पद्मश्री अवार्ड मिलने पर बहुत लोगों ने दिल खोल कर उन की प्रशंसा की है.

कर्नाटक के फारेस्ट डिपार्टमेंट में 10 साल की उम्र से ही मां के साथ जंगल में काम करने के लिए जाने वाली तुलसी ने अब तक जंगल में 30 हजार से भी अधिक पेड़ लगाए होंगे. वन विभाग में दैनिक मजदूरी पर काम शुरू करने वाली तुलसी को इसी विभाग में परमानेंट नौकरी मिल गई थी.

अपना फर्ज अदा करते हुए उन्होंने अपनी समझ से इतनी जानकारी प्राप्त कर ली है कि जंगल में उगने वाले लगभग 3 सौ पौधे इंसान के लिए दवा के काम आते हैं.

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देखा जाए तो वह 10 साल की उम्र से पर्यावरण संरक्षण का काम कर रही हैं. एक तरह से उन्होंने अपना पूरा जीवन ही प्रकृति की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया है.

तुलसी जिस जनजाति से आती हैं, वह हलक्की जनजाति औषधीय वनस्पति के ज्ञान के लिए जानी जाती है. तुलसी ने जंगल में रह कर अपने इस परंपरागत ज्ञान को बढ़ा कर असंख्य लोगों की आदिव्याधि का वनस्पति के उपयोग से निवारण किया है.

कौन सा वृक्ष किस समय बीज देता है, उस बीज को कब (रोपा) बोया जाए तो वह उगेगा, इस बात की एकदम सही जानकारी तुलसी गौड़ा को है.

जंगल में मदर ट्री को खोजना बहुत ही मुश्किल काम है. क्योंकि इस मदर ट्री का बीज सब से ज्यादा असरदार होता है. तुलसी जंगल के लाखों वृक्षों में से मदर ट्री को खोज सकती हैं. उन की इस तरह की असंख्य जानकारियों की ही वजह से कर्नाटक के जंगल समृद्ध हुए हैं.

तुलसी के इन्हीं कामों की वजह से कर्नाटक राज्य सरकार ने भी उन्हें समयसमय पर सम्मानित किया है.

सफलता के लिए तपना तो पड़ेगा

Writer- रोहित

कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे इस से मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते और भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से ही जल्दी टूट जाते हैं.

कहते हैं आग में जल कर ही सोना कुंदन बनता है. यानी पहले खुद को तपाना पड़ता है, उस के बाद सफलता चूमने को मिलती है. लेकिन अजीब यह है कि इंसान अपनी सफलता व असफलता के पैमाने को अपने तथाकथित ‘भाग्य’ और ‘शौर्टकट’ से जोड़ कर देखने लगता है. वह मानने लगता है कि यदि ‘भाग्य’ में होगा तो ही कुछ मिलेगा, भाग्य प्रबल होगा तो घर बैठे ही मिल जाएगा या जीवन में कुछ तो जुगाड़ कर लिया जाएगा.

ऐसे में व्यक्ति मेहनत करने के लिए उतना नहीं सोचता जितना इन चीजों के प्रबल होने के बारे में सोचता है. थोड़ा सा कष्ट मिलते ही वह अपने पांव पीछे खींचने लगता है. वह संघर्ष के आगे खुद को असहाय महसूस करता है और हार मानने लगता है. ऐसे में वह खुद पर विश्वास करने की जगह दूसरों पर अधिक निर्भर होता जाता है. लेकिन जैसे ही यह निर्भरता टूटती है, उसे एहसास होता है. पर तब तक काफी देर हो चुकी होती है, उस के पास अपना सिर पीटने के अलावा रास्ता नहीं बचता. सच, सही समय पर कड़े परिश्रम का कोई सानी नहीं है.

इस का उदाहरण धावक हिमा दास से लिया जा सकता है, जिन्होंने सम झाया कि असल जीवन में भी सफलता के लिए लगातार दौड़ना ही पड़ता है. किसान परिवार में पैसों की अहमियत काफी होती है. किसान परिवार में जन्मी हिमा दास सम झौतों से रूबरू होती सफलता की आसमान छूती इमारत के शिखर पर चढ़ीं. किसान पिता ने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई से 1,200 रुपए के एडिडास कंपनी के जूते खरीदे, जिन्हें बड़े जतन से अपनी पुत्री हिमा दास को सौंपे, जैसे एक पिता अपने पुत्र को विरासत सौंपता है. अब उसी एडिडास कंपनी ने हिमा को चिट्ठी लिख अपना एंबैसडर बनाने का फैसला किया है.

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गरीब व कमजोर परिवार से आने वाली हिमा दास ने अपनी मेहनत पर भरोसा किया. कड़े अनुशासन और कठिन परिश्रम को जीवन जीने का ढंग बनाया. उस ने शौर्टकट को दलील नहीं बनाया, क्योंकि वह जानती थी कि रेस चाहे कोई भी हो, उस में शौर्टकट नहीं होता. जिस चीज को लोग अपना भाग्य सम झते हैं, उस ने रियलिस्टिक हो कर उसे अपना अवसर बताया. वह बहुत बार गिरी, थकी, बैठी लेकिन दौड़ना नहीं छोड़ा, फिर चाहे वह ट्रैक पर हो या अपने जीवन के संघर्ष में हो.

ऐसे ही दीपा करमाकर हैं, जिन के बारे में तो यहां तक कह दिया गया था कि जिमनास्टिक खेल के लिए उन के पैर अनुकूल नहीं हैं. यहां तो लोगों ने सीधा उन के हिस्से में लिखे कथित भाग्य को ही चुनौती दे दी. उन्होंने अपने कड़े परिश्रम और अटूट अनुशासन से सफलता की इबारत लिख दी. वे न सिर्फ जिमनैस्टिक की खिलाड़ी बनीं बल्कि ओलिंपिक खेलों में पहली खिलाड़ी के तौर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया. कारण सीधा है कि उन्होंने अपने भाग्य से ज्यादा मेहनत पर जोर दिया. ऐसे और कई लोगों की फेहरिस्त है, फिर चाहे वे किसी भी पेशे से जुड़े व्यक्ति रहे हों, जिन्होंने ऐसे कारनामे किए हैं.

भाग्य पर भरोसा

आमतौर पर भाग्य को कोसना सब से आसान तरीका होता है. इस से व्यक्ति अपनी गलतियों पर आसानी से परदा डाल लेता है. इस का असर इतना ज्यादा होता है कि बहुत बार ऐसे व्यक्ति अपने ‘भाग्य की होनी’ पर इतना विश्वास करने लग जाते हैं कि कुछ करने की जहमत नहीं उठाते. उन का यही मानना रहता है कि जो होना होगा वह तो होगा ही. वहीं जब बिन किए कुछ होताजाता नहीं, तब फिर से वे अपनी असफलता के लिए अपने भाग्य को कोसने में जुट जाते हैं. वे इसे अपना बुरा समय बताते तो हैं, लेकिन इस बुरे समय को मेहनत और लगन से ठीक करने के बजाय राशिफल, जादूटोना, पूजापाठ, अंधविश्वास से सुल झाने की कोशिश करते हैं. अपनी इस सनक से वे न सिर्फ भ्रमजाल में फंसते हैं बल्कि ‘गरीबी में आटा गीला’ वाली कहावत की तर्ज पर पैसा भी खूब लुटा देते हैं.

भाग्य के भरोसे खुद को छोड़ने से वे आलस और नीरसता से भर जाते हैं. उन के हाथों में कलावे, गले में मालाएं, उंगलियों में अंगूठियां बढ़ने लगती हैं. ऐसे में किसी तरह की महत्वाकांक्षा उन में नहीं रहती. बिना महत्वाकांक्षा और तय गोल के वे अपने रास्ते में भटकते फिरते हैं, जिस कारण वे अपने जीवन में अनुशासन भी तय नहीं कर पाते.

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ऐसी ही फंतासी में जयपाल सिंह असवाल (59) का परिवार भी फंसा है. जयपाल सिंह दिल्ली के नेहरूनगर इलाके में रहते हैं. उन के 3 बेटे हैं जिन में से 2 बेटों आशीष और विकास की शादी हो चुकी है. 58 वर्ष की उम्र में निजी कंपनी से जयपाल रिटायर हो गए थे. उस दौरान उन के दोनों बेटे कार्यरत थे. आशीष सऊदी अरब में होटल मैनेजमैंट के काम में था, तो विकास रीड एंड टेलर कंपनी में सेल्समैन था.

3 साल पहले आशीष अपना कौट्रैक्ट खत्म कर सऊदी अरब से वापस दिल्ली आया. दिल्ली आने के बाद उस का कहीं काम करने का मन नहीं किया. उस के पास कुछ सेविंग्स थी तो वही खर्च करता रहा. वहीं विकास का भी यही हाल रहा. पहले उस की जौब कनाट प्लेस में लगी थी, लेकिन जैसे ही उसे कंपनी ने अपनी दूसरी ब्रांच नोएडा जाने को कहा तो उस ने दूर काम करने से मना कर दिया और कामधाम छोड़ कर घर पर बैठ गया. अब आलस का आलम यह है कि नजदीक उसे मनमुताबिक काम मिल नहीं रहा और दूर वह जाना नहीं चाहता. ऐसे में घर के जवान हट्टेकट्टे सदस्य पिछले 2-3 सालों से निठल्ले बैठे हैं. उन के घरखर्च का एकमात्र माध्यम फिलहाल किराएदार से मिलने वाला किराया है.

हालफिलहाल जयपाल सिंह से इस सिलसिले में बात हुई. जयपाल ने बताया कि उन के परिवार पर किसी का बुरा साया पड़ा है. उन के बेटों पर किसी ने जादूटोना किया हुआ है. इसी के चलते उन्होंने अपने गांव में इष्ट देवताओं को खुश करने के लिए बड़ी पूजा रखवाई है. अब जयपाल को कौन सम झाए कि समस्या ‘बुरे साए’ की नहीं, बल्कि बेटों के आलसपन की है. फिलहाल, जयपाल इस बात से चिंतित हैं कि पूजा में लगने वाले खर्च को वे कैसे पूरा करेंगे, क्योंकि पूजा में लगने वाला खर्च लेदे कर 50 से 60 हजार रुपए तक हो ही जाएगा.

शौर्टकट भ्रमभरा रास्ता

इंसान अपने जीवन में मेहनत से बचने के लिए न सिर्फ भाग्य पर निर्भर रहता है बल्कि वह सोचता है कि कोई ऐसा शौर्टकट हो जिस से कम समय में ज्यादा पैसे कमाए जा सकें. ऐसे व्यक्ति जितनी जल्दी उठते हैं उस से कई गुना रफ्तार से नीचे गिर पड़ते हैं. सफलता मेहनत से मिलती है, इस के लिए कोई शौर्टकट नहीं होता है. शौर्टकट के बल पर हासिल की गई सफलता कुछ समय के लिए ही टिकती है. सच यह है कि एक समय के बाद व्यक्ति को अर्श से फर्श तक आने में समय नहीं लगता.

ऐसे ही कई वाकए लौकडाउन के समय देखने को मिले, जहां पैसा कमाने के लिए आपदा को अवसर बनाने में लोगों ने कोई कमी नहीं छोड़ी. जिस दौरान पहला लौकडाउन लगा, लोगों में खूब भ्रम और डर फैल गया था. लोगों को गलत सूचना मिली कि फूड सप्लाई में भारी शौर्टेज होगी, जिस कारण शहरों में राशन की कमी होने लगेगी. यह भ्रम इलाकों के रिटेल विक्रेताओं और थोक व्यापारियों द्वारा फैलाया गया था. जनता के बीच खाद्य सामग्री स्टोर करने की होड़ सी मचने लग गई. किराए पर रहने वाले लोग इस अव्यवस्था को ले कर खासा सकते में रहे और उन में से कई इस कारण अपने राज्यों को पैदल ही लौट पड़े. लेकिन जो शहरी थे, वे डबल मार  झेलते रहे. दुकानदारों ने मौके का फायदा उठाते हुए राशनपानी के दाम बढ़ा दिए.

लेकिन कहते हैं न, शौर्टकट से कुछ पल के लिए खिलाड़ी बना जा सकता है, लेकिन अंत में मुंह की खानी ही पड़ती है. ऐसा ही एक उदाहरण बलजीत नगर के आनंद जनरल स्टोर के अभिषेक कुमार का है. अभिषेक के पिताजी (आनंद) ने 30 साल पहले परचून की दुकान इलाके में खोली थी, जो काफी चलती थी. पिताजी ने बड़ी ईमानदारी और मेहनत से इसे शुरू किया था. इलाके में दुकान का खासा नाम भी था. इलाके के लोग घर की जरूरतों की खरीदारी इसी दुकान से करते थे. यानी कुल मिला कर एक विश्वास आनंद ने ग्राहकों में कायम कर के रखा था.

लौकडाउन लगते ही इलाके में राशन की कमी का भ्रम फैला. अभिषेक ने मौका पाते ही सामान के भाव बढ़ाने शुरू कर दिए. जो सामान 5 रुपए का था उसे 10 में देना शुरू कर दिया. जो 100 का था उसे 150 में. लोग मजबूर थे, उन्हें अपनी जरूरत पूरी करने के लिए सामान लेना ही था. एक दिन टीवी पर सामान के ‘शौर्टेज वाले भ्रम’ की  झूठी खबरों को सरकार ने क्लीयर किया. लेकिन अभिषेक और आसपास की दुकान वाले फिर भी बढ़े दाम में सामान बेचते रहे. ऐसे में किसी सज्जन ने दुकान की कंप्लैंट कर दी. पुलिस ने यह बात पुख्ता की और अभिषेक की दुकान सील कर दी. थाने के चक्कर काटने तो पड़े ही, साथ ही भारी बदनामी भी  झेलनी पड़ी. लगभग 3-4 महीने तक उस की दुकान बंद रही. लेदे कर उस ने दुकान खुलवाने की आज्ञा प्राप्त की. लेकिन खुलने के बाद लोगों ने उस की दुकान का बायकाट कर दिया. अब उस दुकान पर कुछ ही ग्राहक जा कर सामान खरीदते हैं. पहले जैसी रौनक न रही.

जाहिर है मेहनत का रास्ता मुश्किलों भरा, लंबा और कुछ हद तक तनहा होता है. मगर सफलता का एहसास इस रास्ते की सारी तकलीफें भुलाने के लिए काफी होता है. अपनी मंजिल का रास्ता चुनते समय यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मंजिल तक पहुंचने के लिए हम जिस शौर्टकट रास्ते का चुनाव कर रहे हैं, उस की हमें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है.

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मेहनत के साथ अनुशासन ही सफलता देगा

अनुशासन शब्द 2 शब्दों के योग से बना है- अनु और शासन. अनु उपसर्ग है जिस का अर्थ है विशेष. इस प्रकार से अनुशासन का अर्थ हुआ- विशेष शासन. अनुशासन का शाब्दिक अर्थ है- आदेश का पालन या नियमसिद्धांत का पालन करना ही अनुशासन है. दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि नियमबद्ध जीवन व्यतीत करना अनुशासन कहलाता है.

भारत में आज के युवाओं में एक अजीब तरह की संस्कृति पनपती जा रही है. वे अनुशासन से खुद को बंधाबंधा सा महसूस करते हैं. वे इसे अपनी आजादी के बीच बाधा मानते हैं. उन का मानना रहता है कि वे अपने जीवन के खुद मालिक हैं, जिसे जैसे चाहे वे जिएं. ऐसे में कब उठना है, कब कौन सा काम करना है, किस काम को प्राथमिकता देनी है आदि सिर्फ मूड और इच्छा पर निर्भर करता है. यदि कोई दूसरा व्यक्ति खुद को अनुशासित करता दिखता है, खुद का टाइम मैनेजमैंट करता है, तो वे उसे बड़ी हैरानी और हिकारतभरी नजरों से देखते हैं, उस का सामूहिक उपहास उड़ाया जाता है.

अनुशासन का पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि आप नियमों और तौरतरीकों के गुलाम हो गए और आप की आजादी छिन गई है. यह सोच गलत है. सोचिए, यदि ट्रेन को पटरी से उतार दें तो वह आजाद तो हो जाएगी लेकिन ऐसे में क्या वह चल पाएगी? इस का आराम से अनुमान लगाया जा सकता है. अनुशासन आजादी में खलल नहीं है, बल्कि नियमकानून के अनुसार किसी काम को करने की सीख है.

एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति कुछ पाने की ललक में खुद को पूरी तरह  झोंक देता है. उस का खुद को  झोंकना सिर्फ काफी नहीं. उस की सफलता के लिए खुद को व्यवस्थित करना बहुत जरूरी है और अनुशासन ही उस की रीढ़ है. सड़क हो या सदन, व्यवसाय हो या खेती, खेल का मैदान हो या युद्धभूमि, अनुशासन के बिना जीत संभव ही नहीं है.

जाहिर सी बात है, मेहनत के साथ अनुशासन या सू झबू झ का होना बहुत जरूरी है वरना पता चला कि चढ़ना था दिल्ली की ट्रेन में और बैठ गए कोलकाता की ट्रेन में. अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति अपनी प्राथमिकताएं अच्छे से सम झता है. वह यह भलीभांति जानता है कि अपने गोल तक पहुंचने के लिए उसे किस काम को वरीयता देनी है. वह अपनी दिनचर्या निर्धारित करता है. कामों का बंटवारा करता है. वरना बिना अनुशासन के वह कम जरूरी काम में ही फंस कर रह जाएगा और ऐसे में अपने दिनोंदिन खपा देगा. अनुशासनहीन व्यक्ति चाहे मेहनती ही क्यों न हो, वह अपने गोल से भटकता रहता है. वह अपनी एनर्जी को केंद्रित नहीं कर पाता. उस के पास योजना की कमी रहती है. अगर योजना नहीं, तो उस का विकासपथ विनाश को आमंत्रण भी दे सकता है.

खुद को तपाना तो पड़ेगा ही

आज तमाम सफल व्यक्तियों से उन की सफलता का राज पूछा जा सकता है, चाहे वे नौकरशाह, डाक्टर, वकील इत्यादि क्यों न हों. वे सभी एक बात पर सहमत होंगे कि मेहनत और अनुशासन के ही कारण वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं. देश में इस का सब से बड़ा उदाहरण महात्मा गांधी को लिया जा सकता है. कहते हैं, वे अपने दोनों हाथों से लिखा करते थे. दायां हाथ थक जाए तो बाएं हाथ से लिखने लग जाते थे. किसी काम को अंत तक करने की ललक उन में खूब थी. उस पर वे पूरी शिद्दत से लग जाते थे. लेकिन उन की सफलता में सिर्फ मेहनत ही नहीं, बल्कि उन के अनुशासन की भी बड़ी भूमिका है. बड़ा नेता होने के बावजूद उन्होंने खुद के लिए अनुशासन सैट किए हुए थे. जो नियम कार्यकारिणी के लिए बने थे वे उन्हें खुद पर भी अप्लाई करते थे. इसी चक्कर में उन्हें एक रोज देरी के चलते खाना खाने की लाइन में लंबा इंतजार करना पड़ गया.

यह सच है कि कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे अपना मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते. भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से वे जल्दी टूट जाते हैं. वे साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, जिस में उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा तो खोनी ही पड़ती है, साथ में अपने असफल जीवन से समयसमय पर आर्थिक चोट भी खानी पड़ती है.

लेकिन यह भलीभांति सम झने की जरूरत है कि जीवन कोई सौफ्टी नहीं, जिसे जीभ लगाया और चाट लिया. इस में कांटे भी समयसमय पर मिलते रहेंगे. जीवन संघर्षों से भरा हुआ है, इस में अंधेरापन भी आएगा ही. काले ब्लैकबोर्ड पर काली चौक मार कर अपनी बात लिखी तो जा सकती है, लेकिन पढ़ी नहीं जा सकती, इसलिए खुद में परिस्थिति के अनुसार कंट्रास पैदा कर सफेद चौक बनना ही पड़ता है. उसी प्रकार खुद को तपाने के लिए जीवन में कंट्रास से गुजरना ही पड़ेगा. जो जीवन के कंट्रास से मुंह मोड़ लेगा वह अपनी बात लिख तो रहा है लेकिन उसे कोई पढ़ नहीं सकता.

समस्या: बौयफ्रैंड के साथ कहां करें सैक्स

बिहार के जिला बेगूसराय के इलाके साहेबपुर कमाल की चंदा बीबी का इश्क साल 2016 से ही राजीव कुमार से चल रहा था, जो पेशे से आटोरिकशा ड्राइवर था. दोनों पहली दफा बलिया के डिज्नीलैंड मेले में मिले थे और पहली नजर में ही एकदूसरे को दिल दे बैठे थे.

प्यार करने वाले धर्मकर्म, अमीरीगरीबी और जातपांत नहीं देखते, यह इन दोनों ने भी साबित कर दिखाया था, क्योंकि चंदा मुसलमान थी और राजीव हिंदू था. यह हकीकत सम?ाते हुए भी दोनों दिल के मारे अपने प्यार को शादी की मंजिल तक पहुंचाने के लिए कोई भी खतरा उठाने तैयार थे.

यहां तक कि दोनों अपने घर वालों से कह भी चुके थे कि अब कोई दीवार उन का रास्ता नहीं रोक सकती. तय है कि ये दोनों हर लिहाज से एकदूसरे के हो चुके थे, इसलिए घर और समाज से हार मानने को तैयार नहीं थे. इधर प्यार के दुश्मन भी मौका तलाश रहे थे कि कब इन्हें रंगे हाथ पकड़ें और इन की राह में जुदाई के कांटे बोए जाएं.

आखिर वह मौका 25 अगस्त, 2021 को मिल ही गया, जब राजीव बेसब्री से उस का इंतजार कर रही चंदा से मिलने  रात को उस के घर जा पहुंचा. लेकिन इस बार चंदा के घर वाले चौकन्ने थे, जिन्होंने दोनों को प्यार करते देख लिया. बस, फिर क्या था. चंदा के घर वाले भूखे भेडियों की तरह राजीव पर टूट पड़े और उसे मारमार कर अधमरा कर दिया.

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चंदा अपने आशिक की पिटाई बरदाश्त नहीं कर पाई और उस ने जहर खा लिया. दोनों का इलाज चला, लेकिन बदनामी मुफ्त उन के हिस्से में आई. मामला चूंकि हिंदू लड़के और मुसलमान लड़की का था, इसलिए बात को दबा दिया गया.

ऐसा ही एक मामला बिहार के ही कटिहार से 14 नवंबर, 2021 को देखने में आया था. भवानीपुर का रहने वाला एक आशिक अपनी माशूका पार्वती (बदला हुआ नाम) से मिलने उस के गांव मोहना चांदपुर आदिवासी टोला जा पहुंचा.

समय वही सूरज ढलने के बाद का था. दोनों ने अभी अपनेअपने कपड़े खिसका कर सैक्स करना शुरू किया ही था कि एकाएक ही घात लगाए बैठे गांव वाले दोनों पर मधुमक्खियों की तरह टूट पड़े. उन दोनों की खासी धुनाई की गई और फिर उन्हें रातभर मवेशियों की तरह खूंटे से बांध कर रखा गया.

बाहर भी गारंटी नहीं

इन प्रेमियों की बड़ी परेशानी यह होती है कि सैक्स कहां करें. वैसे, सब से मुनासिब और महफूज जगह तो घर ही है, लेकिन वहां भी देखे और पकड़े जाने का खतरा कम नहीं. इस के अलावा सभी के घरों की बनावट ऐसी नहीं होती कि आशिक आसानी से सब से नजरें बचा कर दाखिल हो सके और इतमीनान से दोनों सैक्स कर सकें.

लेकिन खतरे बाहर भी कम नहीं हैं. भोपाल के नजदीक सीहोर की रहने वाली एक 24 साला लड़की करिश्मा (बदला हुआ नाम) की मानें, तो उसे भोपाल के बस कंडक्टर नरेश (बदला हुआ नाम) से इश्क हो गया और दोनों सैक्स करने के लिए राजी हो गए.

रजामंदी के बाद दिक्कत पेश आई जगह की, जिस के बाबत दोनों ने बस से ?ांक?ांक कर सिविल इंजीनियरों की तरह लोकेशन देखी, लेकिन हर जगह इमारतें खड़ी नजर आईं. कुछ जगहे ठीकठाक लगी, पर पकड़े जाने का डर वहां भी था.

आखिर में थकहार कर दोनों ने तय किया कि कोई सस्ता सा लौज या होटल में चला जाए, वहां कोई खतरा नहीं रहेगा.

नरेश की जानपहचान भोपाल के नजदीक के कुछ होटल वालों से थी लेकिन उन की मदद लेने में राज खुल जाने का डर था, इसलिए दोनों ने उज्जैन का रुख किया और रेलवे स्टेशन के पास एक लौज में कमरा ले लिया.

होटल के रजिस्टर में खानापूरी करने के बाद वे दोनों कमरे में पहुंचे, तो दरवाजा बंद कर एकदूसरे में गुंथ गए, क्योंकि मुद्दत से प्यारमुहब्बत और सैक्स की बातें दिन में बस में और रात में ह्वाट्सएप पर करतेकरते दोनों रातदिन सैक्स के ही सपने देखा करते थे.

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उज्जैन के लौज में यह सपना पूरा हुआ और दोनों ने जीभर कर खुद की और एकदूसरे की प्यास बु?ाई. अभी दोनों कपड़े ठीक कर के भोपाल वापस जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि फिल्मी स्टाइल में दरवाजा खटखटाया गया.

‘होगा कोई वेटर…’ यह सोचते हुए नरेश ने दरवाजा खोला तो सामने एक लेडी सबइंस्पैक्टर 2 सिपाहियों समेत खड़ी थी.

नरेश के तो होश फाख्ता हो गए, जब पुलिस वालों ने उन दोनों पर देह धंधे का इलजाम लगा डाला. जैसेतैसे मामला रफादफा हुआ, लेकिन इस में उन दोनों की जेब खाली हो गई.

गिड़गिड़ाने पर पुलिस वाली ने वापसी का किराया भर छोड़ा. इस तरह दोनों को सैक्स तकरीबन 4,000 रुपए का पड़ा.

जाएं तो जाएं कहां

तो फिर सैक्स की अपनी जरूरत पूरी करने के लिए प्रेमी जोड़े कहां जाएं? यह बहुत पेचीदा सवाल है. गांवदेहात में भी अब न पहले सी ?ाडि़यां, पेड़ और ?ारमुट हैं और न ही टीलेटोले बचे हैं. सड़कें बन जाने से वहां भी आशिक और माशूक आधा घंटे की तनहाई के लिए तरस जाते हैं.

शहर में पार्कों में भीड़ है, जहां बैठ कर प्रेमी बातें और थोड़ी छेड़छाड़ तो एकदूसरे से कर सकते हैं, लेकिन सैक्स नहीं कर सकते. पैसे वाले तो अपनी यह जरूरत दौड़ती कार में पूरी कर लेते हैं या एकांत में कहीं रोक कर कार के काले शीशे चढ़ा लेते हैं. दिक्कत कम पैसे वाले जोड़ों को ज्यादा होती है, जो बेचारे शांत और सूनी जगह के लिए तरस जाते हैं.

धर्मकर्म है एक सहारा

लेकिन प्रेमी जोड़े भी ‘तू डालडाल मैं पातपात’ वाली कहावत को अमल में लाते हुए यह ख्वाहिश पूरी कर ही लेते हैं, जिस में कभीकभी प्यार और सैक्स का दुश्मन धर्मकर्म ही उन का सहारा बनता है.

विदिशा की एक लड़की की मानें, तो उस ने पहली बार सैक्स धर्म की आड़ में ही किया था. दुर्गा ?ांकियों के दौरान उसे शाम को घर से जाने की इजाजत मिली, तो उस ने अपने बौयफ्रैंड को शहर से 3 किलोमीटर दूर बेतवा नदी के किनारे बने एक मंदिर में बुला लिया. पहले दोनों ने दर्शन किए और फिर मंदिर के नीचे जा कर ?ाडि़यों में सैक्स किया.

गुजरात का गरबा बहुत मशहूर है, जिस में नवरात्रि के दौरान लाखों नौजवान लड़केलड़की सैक्स करते हैं. इस पर हर साल खूब होहल्ला भी कट्टरवादी मचाते हैं, लेकिन इन्हें रोक नहीं पाते.

धार्मिक जलसों में इफरात से भीड़भाड़ होती है. ये प्रेमी दूर अकेले में जा कर सैक्स करते हैं और बाद में धूल ?ाड़ते फिर नाचनेगाने लगते हैं यानी धर्म के सहारे सैक्स करना महफूज है, जो सदियों से प्रेमी करते आ रहे हैं. ?ांकियों के दिनों में गुजरात में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में इफरात से कंडोम बिकते हैं.

साल 1973  में आई फिल्म ‘हीरा’ का आशा पारेख और सुनील दत्त पर फिल्माया गया एक गाना तब के नौजवानों में खूब मशहूर हुआ था. उस गाने के बोल थे, ‘मैं तु?ा से मिलने आई मंदिर जाने के बहाने…’

सहेलियों की लें मदद

बौयफ्रैंड से सैक्स करने में सहेलियों की मदद लेना ज्यादा कारगर साबित होता है. कैसे? इस का खुलासा करते हुए भोपाल की 20 साला गौरी बताती है कि उस ने अपनी सहेली खुशबू की मदद ली थी और अभी भी लेती रहती है.

खुशबू के घर जब कोई नहीं होता था, तब वह और उस का बौयफ्रैंड उस के घर पहुंच जाते थे और अंदर के कमरे में सैक्स का लुत्फ उठाते थे.

होता यह था कि जब तीनों को इतमीनान हो जाता था कि किसी ने नहीं देखा है तो खुशबू घर पर ताला लगा कर चली जाती थी और एहतियात के तौर पर ये भी अंदर से कुंडी लगा लेते थे.

फारिग हो जाने के बाद गौरी खुशबू को फोन कर देती थी. उस के आने के बाद दोनों एकएक कर निकल जाते थे. इस में खतरा कम है.

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गौरी बताती है कि क्योंकि कोई शक नहीं करता और कभी पकड़े भी गए तो आशिक को रिश्ते का भाई बता कर बचने का भी उस ने सोच रखा है. इस तरीके में जरूरी यह है कि सहेली भरोसेमंद हो और जरूरत पड़ने पर आप भी उस की इसी तरह मदद करें.

हालांकि होटल और लौज भी सहूलियत वाली जगह हैं, लेकिन इस में भी बहुत एहतियात बरतना जरूरी है. मसलन, दोनों के नाम से अलगअलग कमरे अलगअलग वक्त में लिए जाएं और फिर एक कमरे में सैक्स किया जाए. कमरे का सलीके से मुआयना भी कर लेना चाहिए कि उस में कहीं कैमरा न लगा हो.

पुलिस के खतरे से बचने के लिए नामपता सही लिखाना चाहिए और डरना नहीं चाहिए, क्योंकि पुलिस को भी यह हक नहीं कि वह ?ाठे मामले में फंसा सके. घर हो या होटल दोनों ही जगह रात के बजाय दिन में सैक्स प्लान करना कम खतरे वाला काम होता है, नहीं तो कभीकभी हालत चंदा और पार्वती जैसी भी हो सकती है.

वैवाहिक उम्र 21: राष्ट्र को कमजोर बनाने वाला “कानून”

नरेंद्र दामोदरदास मोदी कि केंद्र सरकार कि जल्दी बाजी को एक बार देश ने पुनः देखा है. मोदी सरकार देश को आगे बढ़ाने मजबूत करने की बातें बार बार करती है मगर इस कानून से समाज में जो अनैतिकता और लैंगिक अपराध बढ़ेंगे उसका देश के दूरगामी भविष्य प्रभाव पड़ेगा और देश बहुत कमजोर हो जाएगा.

दरअसल, देश में लड़कियों के लिए विवाह की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष किया गया है. इस प्रस्ताव को केबिनेट ने आनन-फानन में मंजूरी भी दे दी. कानून संसद में भी देखते ही देखते पास हो गया. जो यह दिखाता है कि नरेंद्र मोदी सरकार की कामकाज की शैली कैसी है. अब इसके लिए सरकार मौजूदा कानूनों बाल विवाह निषेध कानून, स्पेशल मीरिज एक्ट और हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन करेंगी. देश में  पहले के कानून के अनुसार अभी पुरुषों की शादी की उम्र और महिलाओं की 18 साल है. नए प्रस्ताव के तहत महिलाओं की शादी की उम्र 21 वर्ष हो जायेगी.

हमारे संवाददाता ने इस संबंध में अनेक लोगों से बातचीत की और जानना चाहा कि आखिर यह कानून कितना सही और गलत है . अनेक लोगों के मुताबिक यह अत्यंत संवेदनशील मसला है, कानून से ज्यादा छेड़छाड़ उचित नहीं, इस नये कानून से लैंगिक अपराधों में इजाफा होगा. दरअसल, जिस तरह केंद्र सरकार जल्दीबाजी में एक बार पुनः शादी की उम्र को लेकर के विपक्ष और बौद्धिक वर्ग को विश्वास में लिए बगैर कानून बना दिया उससे सकारात्मक संदेश नहीं गया. बल्कि यह तथ्य उजागर हो गया है कि नरेंद्र मोदी सरकार को सबको साथ लेकर चलने में विश्वास नहीं है अन्यथा इस अत्यंत महत्वपूर्ण समाज के संवेदनशील विषय पर कानून का कोड़ा बरसाने की जगह  समझदारी से काम लिया जा सकता था. माना जा रहा है कि लड़कियों के 21 वर्ष विवाह कानून के बाद बहुतेरी ऐसी स्थितियां पैदा होंगी जो समाज के लिए चिंता का सबब बन जाएंगी.

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देश के लिए बेहद नुकसान प्रद

जैसा कि हमेशा होता है हर पहलू के दो पक्ष होते हैं इस कानून को समाज के हित में बताने वाले भी लोग हैं. कानून का समर्थन करने वाले लोगों का कहना क 21 वर्ष की उम्र तक लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा पूरी हो पाती है.  और लड़कियां पूरी तरह परिपक्व हो जाती है जबकि इस के संबंध मे रीना मिश्रा ने  कहा कि विवाह की उम्र इक्कीस वर्ष तो ठीक है किंतु 18 वर्ष भी अनुचित नहीं है. इसके लिए कानून में संशोधन करने की आवश्यकता नहीं है जो 18 वर्ष में विवाह करना चाहता है उसे 18 वर्ष में विवाह करने दिया जाना चाहिए क्योंकि 18 वर्ष में भी महिला परिपक्व हो जाती है.

सामाजिक कार्यकर्ता सुनील जैन के मुताबिक लड़कियों की शादी की उम्र 21 वर्ष करने हेतु कानूनों में संशोधन करने से पहले सरकार को जनमत संग्रह करना चाहिए था, अभिभावकों की मर्जी जाननी चाहिए थी ना कि तानाशाही रवैया अपनाकर लोगों में कोई भी कानून थोप देना चाहिए. नरेंद्र दामोदरदास मोदी सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी सरकार देश की जनता के लिए होती है उसके भले के लिए होती है डंडा बताने के लिए नहीं समाज के कायदों को नष्ट करने के लिए नहीं होती सिर्फ आबादी रोकने के लिए रातों-रात या कानून लाया गया है जो पूरी तरह अनुचित है.

वरिष्ठ अधिवक्ता बीके शुक्ला के मुताबिक भारतीय समाज में 18 वर्ष की उम्र में लड़कियां परिपक्व हो जाती है. ऐसी स्थिति में उनकी शादी की उम्र तीन वर्ष और नहीं बढ़ाना चाहिए था इससे अपराध में वृद्धि होगी.

डॉक्टर  जी आर पंजवानी के मुताबिक 18 वर्ष की उम्र को बढ़ाना अनुचित है. पहले तो इससे पहले भी विवाह हो जाते थे. इसके बाद बहुत सोच समझ कर के मानक तौर पर विवाह को 18 वर्ष किया गया था.  इतनी उम्र तक युवतियां पूरी तरह परिपक्व हो जाती है फिर विवाह की उम्र बढ़ाने का क्या औचित्य है.

अधिवक्ता डॉ उत्पल अग्रवाल के मुताबिक  लड़कियों की उम्र 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष करने की आवश्यकता ही नहीं थी हमारे देश के वातावरण के अनुरूप 18 वर्ष की उम्र तक लड़की समझदार और विवाह योग्य हो जाती है.  इसके अलावा जिन संशोधनों का उल्लेख किया जा रहा है, वह भी उचित नहीं है.

व्यवसायी संजय जैन कहते हैं विवाह के लिए 18 वर्ष की उम्र को और नहीं बढ़ाना चाहिए था, आखिर उम्र में वृद्धि की आवश्यकता क्यों महसूस की जा रही है? इससे तो यौन शोषण के मामलों में इजाफा होगा उसका दोष कौन अपने सर पर लेगा. केंद्र सरकार ने जल्दी बाजी की है वह आज समाज में चिंता का सबब बन गई है.

वहीं अठारह साल की हेमा के मुताबिक लड़कियों के विवाह की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष करने से लड़कियों को नौकरी करने तथा अपनी स्थिति मजबूत करने का काफी समय मिलेगा. वैसे भी आजकल देशभर में परिस्थितियां बदली है और आमतौर पर देश में लड़कियां 21 वर्ष के आसपास ही विवाह कर रही है.

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इस महत्वपूर्ण मसले पर डॉ प्रमोद देवांगन कहते हैं

केन्द्र सरकार को जन हित के कार्यों की ओर ध्यान देना चाहिए, व्यर्थ के व्यर्थ के संशोधनों के फेर में नहीं उलझना चाहिए था. व्यस्कता के लिए 18 वर्ष काफी है और इस उम्र तक लड़कियां पूरी तरह परिपक्व  हो जाती है. केन्द्र सरकार को मजदूरों, भूमिहीन किसानों और मध्यम वर्गीय परिवारों को आर्थिक दशा सुधारने के संदर्भ में ध्यान देना चाहिए न कि ऐसे सामाजिक मसलों पर जिसका फैसला परिवार के मुखिया करते है.

शिक्षाविद घनश्याम तिवाड़ी के मुताबिक 18 वर्ष की उम्र में पूर्ण परिपक्वता नहीं आती जिसकी वजह से कई घरों में नव निवाहितों के बीच तकरार होती है और मामला न्यायालय तक पहुंच जाता है. विवाह की उम्र 21 वर्ष होने से लड़कियों को  समय मिलेगा और वह अपने पैरों पर खड़ी हो जायेंगी. इसलिए संशोधन जरूरी है था.

केबल संचालक मनोज पाहुजा के मुताबिक केन्द्र सरकार ने जल्दी बाजी में  फैसल किया है मगर मेरा मानना है कि इतने वक्त तक लड़की आत्मनिर्भर बन जायेगी और विवाह के बाद कम उम्र की लड़कियों को शारीरिक एवं मानसिक परेशानियां झेलनी पड़ती है, ऐसी स्थिति का सामना उन्हें नहीं करना पड़ेगा केंद्र सरकार का यह फैसला उचित ही है.

विवाह की उम्र में तब्दीली करने से जहां लाभ कम है वही समाज को हानि ज्यादा.

यह भी विचारणीय है कि विवाह के लिएलड़के और लड़की की उम्र 21 साल हो गई है दोनों एक समान. यह भी भारतीय समाज में परिवार के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न होने वाला है और पूरी तरह गलत है.

समाज में जो लैंगिक अपराध बढ़ेंगे आपका समाज ही जब साफ स्वच्छ नहीं होगा तो देश में कई तरह की बाधाएं उपस्थित होंगी और राष्ट्र कमजोर होगा ऐसा इस कानून के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है.

चुगली की आदत बच्चों में न पनपने दें

Writer- किरण सिंह

यहां की बात वहां करना, किसी के पीठपीछे उस की बुराई करना, किसी को भलाबुरा कहना आदि चुगली करना है. बच्चों में अकसर चुगली की आदत एक बार पड़ जाती है तो फिर यह उम्रभर रहती है.

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, चुगली करना अपने दिल की भड़ास निकालने का एक माध्यम है  या यों कहें कि हीनभावना से ग्रस्त व्यक्ति चुगली कर के खुद को तुष्ट करने का प्रयास करता है. इसीलिए वह खुद में कमियां ढूंढ़ने के बजाय दूसरों की मीनमेख निकालने में अपनी ऊर्जा खपाता रहता है.

चुगलखोर व्यक्तियों की दोस्ती टिकाऊ नहीं होती

वैसे हम चुगलखोरों को लाख बुराभला कह लें लेकिन सच यह है कि निंदा रस में आनंद बहुत आता है. शायद यही वजह है कि अपेक्षाकृत चुगलखोरों के संबंध अधिक बनते हैं या यों कहें कि चुगलखोरों की दोस्ती जल्दी हो जाती है. लेकिन यह भी सही है कि उन की दोस्ती टिकाऊ नहीं होती क्योंकि वास्तविकता का पता लगने पर लोग चुगलखोरों से किनारा करने लगते हैं.

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बच्चों में चुगलखोरी

अकसर देखा गया है कि बच्चे जब  गलती करते हुए अभिभावकों द्वारा पकड़े जाते हैं और पैरेंट्स पूछते हैं कि कहां से सीखा, तो वे अपने को तत्काल बचाने के लिए अपने दोस्तों या फिर भाईबहनों का नाम ले लेते हैं जिस से पैरेंट्स का ध्यान उन पर से हट कर दूसरों पर चला जाता है. यहीं से चुगलखोरी की आदत लगने लगती है.

एक बार सोनू की मम्मी ने सोनू को पैसे चोरी करते हुए पकड़ लिया और फिर डांटडपट कर पूछने लगीं कि यह सब कहां से सीखा. सोनू ने तब अपना बचाव करने के लिए पड़ोस के दोस्त का नाम ले लिया. यह बात सोनू की मम्मी ने उस के दोस्त की मम्मी से कह दी. परिणामस्वरूप, सोनू के दोस्त ने सोनू को चुगलखोर कह कर उस से दोस्ती तोड़ ली और सोनू दुखी रहने लगा.

यहां पर सोनू की मम्मी को सोनू को यह सब किस ने सिखाया है, यह न पूछ कर चोरी के साइड इफैक्ट्स बता कर आगे से ऐसा न करने की सीख देनी चाहिए थी. साथ ही, यह भी बताना चाहिए था कि चुगली करना और चोरी करना दोनों ही गलत हैं.

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ऐसे बढ़ती है चुगली करने की प्रवृत्ति

कभीकभी  पैरेंट्स अनजाने में ही अपने बच्चों को आहत कर उन में चुगली करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं. दीपक के पापा हमेशा ही अपने बेटे दीपक की तुलना अपने दोस्त के बेटे कुणाल से करते हुए कुणाल की प्रशंसा कर दिया करते थे जिस से दीपक का कोमल सा बालमन आहत हो जाता था और वह कुणाल की तरह बनने की कोशिश करता था. जब उस की तरह बनने में नाकामयाब हो गया तो वह अपने पापा से कुणाल की  झूठीसच्ची चुगली करने लगा.

सो, मातापिता को बच्चों में छोटी उम्र से ही चुगली की आदत पनपने नहीं देनी है और उन्हें यह बताना है कि चुगली करना गलत है. बचपन से ही बच्चों में चुगली की आदत नहीं पनपेगी, तो बड़े हो कर भी वे खुद पर ध्यान देंगे बजाय किसी के प्रति कुंठित मन से चुगली करने के.

पिता बनने की भी हैं जिम्मेदारियां

Writer-  किरण आहूजा

मां ही नहीं पिता बनने की भी होती हैं कई जिम्मेदारियां. अगर आप पिता बनने वाले हैं, तो इन चुनौतियों के लिए अभी से तैयार रहें.

शिशु की देखभाल और उस की परवरिश की जिम्मेदारी मां की ही मानी जाती है और यह सच भी है कि मां मां होती है और शिशु के प्रति उस की जिम्मेदारी अहम होती है मगर पिता बनने की भी कई जिम्मेदारियां होती हैं जिन के बारे में अकसर लोगों को पता नहीं होता या इन की तरफ ध्यान नहीं देना चाहते हैं.

जब भी आप परिवार आगे बढ़ाने के बारे में सोचते हैं और बच्चे की प्लानिंग करते हैं, तो याद रखें कि पिता के नाते आप की भी कई जिम्मेदारियां हैं.

हालांकि आज पिता को ले कर कई धारणाएं गलत हो रही हैं. इस के विपरीत आज पिता भी मां की तरह बच्चे का खयाल रखने में पीछे नहीं हैं. आज के पिता मां की तरह ही बच्चे के प्रति हर काम में बराबरी के भागीदार हैं. लेकिन इस सब के लिए उन्हें अपनी कई आदतों को बदलना पड़ता है और नई आदतों को अपनी जिंदगी में शामिल करना होता है. इस के लिए जरूरी हैं कुछ बातें :

खुद को बदलना : अपने बच्चे को अच्छी परवरिश देने के लिए खुद को बदलें. यानी कि जिस तरह आप का बच्चा सोचता है, आप को उस के सामने उसी तरह बात करनी होगी. बच्चों को अच्छे संस्कार या उन से किसी तरह की उम्मीद आप तब ही कर सकते हैं जब बच्चा आप की बातों में रुचि ले रहा हो.

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पितृत्व के बारे में जानें : पितृत्व के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की कोशिश करें. जो पितृत्व सुख से गुजर चुके हैं उन से जानकारी लें. अपने बच्चे को शुरू से प्यार करें. उस की देखरेख वाले काम खुद करें, जैसे मां बच्चे को स्तनपान कराए तो फीड के बाद उसे आप संभाल सकते हैं. बच्चा बोतल का दूध पी रहा है तो उसे दूध पिलाने का काम आप कर सकते हैं. उसे नहलाना, डायपर बदलना पिता के लिए थोड़ा मुश्किल होता है लेकिन करते रहने से आदत हो जाती है, साथ ही बच्चा पिता को पहचानने लगता है.

बच्चे के साथ अधिक समय बिताएं: नौकरी के कारण पिता के पास बच्चे के साथ समय गुजारने का ज्यादा वक्त नहीं होता. लेकिन फिर भी बिजी टाइम में कुछ समय तो बच्चे के लिए निकालना ही पड़ेगा. ऐसा करने से आप अपने बच्चे की जरूरतों को सम झेंगे. आप उसे जो सिखाएंगे, वह आजीवन याद रखेगा.

बच्चे के साथ बौंडिंग बनाने के लिए उस के साथ संबंध गहन बनाना जरूरी है. बच्चे से बात करें, पुचकारें. भले ही बच्चा आप की भाषा न सम झे पर आवाज सम झने लगेगा. आप के करीब आने लगेगा. कभी भी कहीं से आएं, उसे आवाज दें, उस के पास रुकें और प्यार करें. उसे खूब बोलबोल कर पुचकारें और हंसेंबोलें. इस तरह धीरेधीरे पिता और बच्चे में स्किन टू स्किन कौंटैक्ट बन जाएगा.

अच्छी परवरिश के लिए आर्थिक योजनाएं : आजकल की महंगाई और प्रतिस्पर्धा में अच्छी शिक्षा, अच्छा जीवनस्तर और अच्छे स्वास्थ्य के लिए पैसे की जरूरत होती है. ऐसे में पिता बनने से पहले बच्चे के भविष्य की आर्थिक योजनाएं जरूर बना लें.

शिशु के साथ खेलें: बच्चे के साथ रोजाना आधा घंटा खेलें. यदि चाहते हैं कि बच्चा आप की गोद में आ कर न रोए और आनंद ले तो उसे अपनी आदत डलवानी होगी, उस के जैसी हरकतें करनी होंगी और तरहतरह से मुंह बना कर उसे खुश करना होगा. मांबाप के साथ बच्चे का रिश्ता वैसा ही बनता है जैसे वे बनाते हैं. बड़े होने के बाद भी वे उसी मांबाप के करीब होते हैं, जिन्होंने उन्हें बचपन से समझा हो या प्यार किया हो.

रोल मौडल बनें : किसी बच्चे के लिए उस का रोल मौडल पिता होता है. इसलिए बच्चे की अच्छी परवरिश के साथ ही अपने अंदर की बुरी आदतों को छोड़ कर आप को अच्छी आदतें डालनी चाहिए ताकि आप का बच्चा आप से कुछ अच्छा सीख सके.

एक शोध में पाया गया है कि पिता बनने के बाद पुरुषों के लिए अपनी बुरी आदतें छोड़ना ज्यादा आसान होता है. अध्ययन बताते हैं कि पिता बनने के बाद धूम्रपान, शराब और अन्य बुरी लतें छूटने की संभावना पहले के मुकाबले बढ़ जाती हैं. दरअसल, बुरी आदतों का अपराधबोध तब गहरा हो जाता है जब व्यक्ति पर किसी और की जिम्मेदारी आ जाती है. ऐसे में शिशु के जन्म के साथ ही बहुत से लोग गलत आदतें छोड़ देते हैं.

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आप के द्वारा की गई गलतियों को बच्चे न दोहराएं, इस बात का खास ध्यान रखें. आप जो भी करते हैं, बच्चे उसे सीखते हैं और उस का अनुसरण भी करते हैं.

केयरिंग डैड बनें

बच्चे के पैदा होते ही पिता तुरंत कोई रिश्ता नहीं बना पाते. बच्चे के साथ मां जैसा अटैचमैंट पैदा करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है. मां तो बच्चे के काम आराम से अच्छी तरह कर पाती है, पर एक पिता के लिए ये काम थोड़े मुश्किल होते हैं. ऐसे में जरूरी है कि वे अपने शिशु को पहले दिन से ही ज्यादा से ज्यादा समय दें.

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जैसे:

उस की देखरेख वाले काम खुद करें.

शिशु की हरकतों को सम झें.

अपने बच्चे से स्किन टू स्किन कौंटैक्ट बनाएं.

शिशु से बात करें, पुचकारें, हंसें, बोलें.

शिशु के साथ खेलें.

शिशु को पहले दिन से ही ज्यादा से ज्यादा समय दें.

इन सब बातों को अपना कर आप अपने शिशु से मां की तरह करीब आ सकते हैं.

‘‘काला घोड़ा आर्ट कार्ट’’ से छोटे कारीगरों को उनका जीवन बसर करने में मिलेगी मदद

यूं तो मुंबई में हर वर्ष आयोजित होने वाले ‘काला घोड़ा आर्ट्स फेस्टिवल’  का आयोजन फरवरी 2022 में आएगा. यह काला घोड़ा अपनी थीम उड़ान के साथ पंख फैलाकर उड़ने के लिए तैयार है. क्योंकि यह फेस्टिवल कला के उत्सव को सेलिब्रेट करने का एक नोबल कॉज हैं.

मगर कोरोना महामारी के चलते जिन कलात्मक व्यापारियों व कारीगरों पर आर्थिक तंगी की मार पड़ी हुई थी, उनकी मदद के लिए दस दिसंबर 2021 से ऑनलाइन ‘काला घोड़ा आर्ट कार्ट’  की शुरूआत हुई है, जिसमें मुँह की बोली लगाकर कारीगरों को आर्थिक लाभ पहुंचाना मकसद है. यह आयोजन 30 नवंबर 2022 तक चलेगा.

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‘‘काला घोड़ा आर्ट कार्ट ऑनलाइन’’ ऐसे छोटे-मोटे मार्केट चालकों के लिए जीवनदान प्रदान करता हैं, जो अपने अनूठे और अद्भुत हस्तकला की कारीगरी को लोगों के सामने लाना चाहते हैं. ऐसे में ऑनलाइन के जरिए उनकी यह मेहनत लाखों लोगों के सामने आसानी से आ सकती हैं और इस महामारी से हुए नुकसान की भरपाई भी हो सकती हैं.

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‘‘काला घोड़ा एसोसिएशन’’ की माननीय अध्यक्ष ब्रिंदा मिलर कहती हैं-‘‘आर्ट कार्ट के माध्यम से हमारा प्रयास शिल्पकारों की अनूठी कलाओ और कृतियों को सामने लाना है.काला घोड़ा आर्ट कार्ट साल भर चलेगा,जो फरवरी के केवल नौ दिनों तक ही सीमित नहीं रहेगा.

इस कार्ट की मदद से छोटे कारीगरों को उनका जीवन बसर करने में मदद मिलेगी.’’ ‘काला घोड़ा आर्ट कार्ट’ के क्यूरेटर मयंक वलेशाह जी कहते हैं-‘‘काला घोड़ा आर्ट कार्ट में जिन शिल्पकारों की अद्भुत कला को लोग भुला चुके हैं, उनके द्वारा बनाए गए परिधान से लेकर, गहने, स्कार्फ, शर्ट और घर के जरूरी सामान सब कुछ एक ही जगह उपलब्ध है.

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यहां पर 500 आवेदकों में से देश के प्रतिभाशाली और भारतीय कला से सुसज्जित धनी ऐसे 50 कारिगिरीयों को चुना गया,जो अपनी बनाई हुई अद्भुत कारीगिरी को दिखा रहे हैं.इस कार्ट साइट पर बहुत सारे स्टाल्स प्रदर्शक विशेष हैं, जो भारत के कई राज्यों से है.

हमारा ज्यादातर झुकाव क्राफ्टमैंनशिप की तरफ हैं और हम पर्यावरण सम्बंन्धित ,आधुनिक युग में इस्तेमाल की जा रही वस्तुओँ की तरफ ज्यादा फोकस्ड है जो हमारी भारतीय पारंपरिक कला शैली को प्रस्तुत करता है.

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इस बार जो-जो इस कार्ट पर आएंगे खासकर तौर पर उन्हें हरियाणा के हिसार से हाथ की कढ़ाई किए हुए जूते, सूखे पत्तों से साड़ियों पर बनाई हुई प्रिंट,  अहमदाबाद के बनाए हुए बैग्स जो प्लास्टिक वेस्ट से बनी होंगी, छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले से विंड चाइम्स और लैंप जो सुखी लौकी और पेपर से बने होंगे,  ऐसे कुछ अद्वितीय वस्तुएं मिलेंगी.

काला घोड़ा एसोसिएशन’’ की माननीय अध्यक्ष ब्रिंदा मिलर ने आगे कहा-‘‘इस साल हमे ऐसा ग्लोबल प्लेटफार्म देखने के लिए मिलेगा, जहां पर एक ही मंच पर एकलौते या सामूहिक तौर पर आए हुए कलाकृतियों में एक बात सबसे ज्यादा सामान्य होगी और वह है उनके द्वारा हमारी पारंपरिक बुनाई पर दिया गया महत्व, आधुनिक जीवन शैली में भी पुराने संस्कृति और कला से जुड़ी सामानों का किस तरह उपयोग हो और कैसे भारत की संस्कृति इनके माध्यम से उजागर हो और लोगों तक पहुचे,  ये काला घोड़ा आर्ट कार्ट की खासियत होगी.

वातावरण को शुद्ध और हरित बनाये रखने के साथ ही पशु मित्रवत संघों को भी प्रदर्शित करने का आग्रह यहाँ किया गया है.काला घोड़ा आर्ट कार्ट में हम लगातार उन लोगों की मदद करने में भी सक्षम हैं, जो इस दुनिया को बेहतर बनाने में हम सभी की मदद करते हैं.‘‘

रिश्ते अनमोल होते हैं

Writer- ज्योति गुप्ता

क्या कभी आप ने सोचा है कि जो लोग हर मुश्किल घड़ी में हमारा साथ देते हैं, हम उन्हें कितना समय दे पाते हैं. क्या अपने जीवन में हम उन की अहमियत को सम झते हैं? अगर हां, तो कितना? हमें शायद यह लगता है कि ये तो हमारे अपने हैं, कहां जाएंगे, लेकिन धीरेधीरे वे कब और कैसे हम से दूर होते जाते हैं, हमें पता भी नहीं चलता. हमें ऐसा लगता है कि हम इन के लिए ही तो दिनरात मेहनत करते हैं, काम करते हैं. शायद इसी बहाने के साथ हम एक ऐसी दुनिया की तरफ भागने लगते हैं जिस की कोई सीमा नहीं.

हम क्यों भाग रहे हैं, किस के लिए भाग रहे हैं, यह गौर से सोचते भी नहीं. रोज सुबह के बाद दिन, महीने और फिर साल… बस, यों ही गुजरते रहते हैं. जबकि, असल में जिंदगी का मतलब भीड़ में भागना नहीं है. हां, यह सच है कि हमारे लिए काम और सफलता दोनों जरूरी हैं.

इस के लिए हैल्दी कंपीटिशन की भावना हमारे अंदर होनी चाहिए. लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि हम हमेशा काम को प्राथमिकता दें और परिवार को भूल जाएं. भई, जीवन में सबकुछ जरूरी है, इसलिए काम और परिवार के बीच संतुलन बनाना बहुत महत्त्वपूर्ण है. आखिर काम के नाम पर हमेशा आप के अपनों को ही कंप्रोमाइज क्यों करना पड़े.

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लौकडाउन ने दिया सबक

लौकडाउन ने सब को परिवार की अहमियत तो सिखा ही दी, साथ ही, हम सभी को यह सबक भी दिया कि जिंदगी में भले एक दोस्त हो लेकिन वह सच्चा हो. सिर्फ दिखावे के लिए सोशल मीडिया पर भीड़ बढ़ाने वाले रिश्तों से कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि रियल लाइफ में कितने लोग आप का साथ देते हैं, इस से फर्क पड़ता है.

रिलेशनशिप बौडिंग क्यों जरूरी है

मेदांता हौस्पिटल, गुड़गांव की डाक्टर नेहा गुप्ता का कहना है कि अगर अपने लोगों से बौडिंग स्ट्रौंग होती है तो हम मैंटली फिट रहते हैं और हमारी इम्युनिटी भी स्ट्रौंग होती है. आज के समय में रिश्ते लाइक और कमैंट में उल झ कर रह गए हैं. ऐसे में हमारे अहम रिश्ते दम तोड़ते जा रहे हैं और हम वर्चुअल दुनिया में ही खुशियां मना रहे हैं, जबकि यह  झूठी और बनावटी दुनिया है.

बाद में पछताने से बेहतर है कि कुछ छोटीछोटी बातों का ध्यान रख कर अपने अनमोल रिश्तों को जीवनभर के लिए अपना बना लें. फिर चाहे वे आप के परिवार के सदस्य हों, दोस्त हों या औफिस के सहकर्मी. याद रखिए, रिश्ते तोड़ना आसान है लेकिन इस के बाद के परिणामों को भुगतना मुश्किल होता है.

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रिश्तों को मजबूत बनाने के टिप्स :

माफी मांगने या माफ करने में न हिचकिचाएं.

एकदूसरे पर विश्वास करना सीखें.

खुल कर बात करें, चाहे वे मातापिता हों या बच्चे.

नोक झोंक प्यार का हिस्सा है, इसे दिल पर न लें.

रिश्ते तोड़ने का खयाल मन से निकाल दें.

सहकर्मी के साथ मजबूत रिश्ते बनाने के टिप्स :

खुद पहल करते हुए बातचीत शुरू करें और काम के अलावा भी एकदूसरे को जानने की कोशिश करें.

आगर औफिस में कोई आप से रिश्ता न रखना चाहे तो नकारात्मक राय न बनाएं और सिर्फ औफिस संबंधी कामों में ही उस की मदद करें.

सहकर्मियों में कौमन इंट्रैस्ट तलाशें, इस से दोस्ती करने में काफी आसानी होती है.

कलीग्स से रिलेशन स्ट्रौंग करने के लिए अपने बड़े या छोटे पद को भूल कर सब से एकसमान फ्रैंडली व्यवहार करें.

जब भी किसी सहकर्मी को आप की जरूरत पड़े तो बिना हिचकिचाए उस की मदद करें.

पर्सलन और प्रोफैशनल लाइफ को बैलेंस करना है जरूरी

परिवार के सदस्यों, दोस्तों की अकसर यही शिकायत रहती है कि हम उन्हें समय नहीं देते. जबकि हमें जब भी उन की जरूरत होती है वे हमारे साथ होते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम घर और काम को बैलेंस कर के नहीं चलते हैं.

समय को बरबाद न करें

काम के समय को पर्सनल चीजों में न गंवाएं वरना औफिस का काम आप के लिए बो झ बन जाएगा और तय समय में पूरा भी नहीं हो पाएगा. अगर औफिस के समय ही काम खत्म हो जाएगा, तभी आप बिना किसी टैंशन के अपनी दूसरी जिम्मेदारियों को निभा पाएंगे.

जरूरत से ज्यादा बोझ पड़ेगा भारी

अगर आप को अपनी क्षमता पता है और संकोच के कारण काम के लिए मना नहीं कर पा रहे हैं तो इस आदत को बदल दीजिए. आप अपने सीनियर्स से विनम्रता के साथ कह सकते हैं कि पहले आप जो काम कर रहे हैं उसे खत्म करने के बाद नए काम को पूरा कर पाएंगे.

महत्त्व के हिसाब से प्राथमिकता तय करें

अगर आप अपनी वर्कलाइफ को बैलेंस करना चाहते हैं तो सब से पहले अपनी प्राथमिकता तय करें. आप को रोज बहुत से काम करने होते हैं लेकिन आप को यह पता होता है कि कौन सा काम ज्यादा जरूरी है और किस काम को थोड़े समय के लिए टाला जा सकता है. इस से आप का दिमाग शांत रहेगा और काम भी हो जाएगा.

अविवाहित लड़कियों पर प्रश्नचिह्न क्यों

Writer-  तनुजा सिन्हा

लड़की 18 वर्ष की हुई नहीं कि घरपरिवार में लड़की की शादी करवा देना सिर से बोझ उतरने जैसा बन जाता है. कुछ लड़कियां कई वजहों से देर तक शादी नहीं करतीं तो उन पर चहुंओर से छींटाकशी शुरू हो जाती है. सवाल यह है कि अविवाहित लड़कियों पर समाज इतना प्रश्नचिह्न क्यों लगाता है?

युग बदला. परंतु हमारी विचारधारा न बदली. ऐसा कहना गलत न होगा. आज जरा भी नहीं बदला तो वह है हमारे समाज की संकुचित सोच. लगता है जैसे हमारे मध्यवर्गीय समाज ने न बदलने की कसम खा रखी हो, खासकर, लड़कियों के विवाह के मामले में.

हम 20वीं से 21वीं सदी में आ गए परंतु लड़कियों के विवाह के मामले में हमारा नजरिया आज भी पुरानी सोच पर ही स्थिर है. लड़कियों की शादी उचित समय पर हो जाए, 2 से 3 बच्चे हो जाएं, घरवाले छाती चौड़ी कर लें समाज में, खासकर ऐसे परिवारों के सामने जिन की बेटियां उन की नजरों में ‘बदकिस्मती’ से कुंआरी हैं.

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इस विषय में समाज की सब से अहम सोच या नजरिया, अपनेअपने शब्दों में जो भी कह लें, यह है कि लड़कियां बिना विवाह के पूर्ण नहीं. उन की खुशी, उन की पूर्णता शादी में ही है. पति होगा, बच्चे होंगे तो सारे संसार की खुशियां बच्ची को मिल जाएंगी.

ज्यादातर ये बातें सच प्रमाणित भी होती हैं और लड़कियां घरपरिवार बसा कर खुश भी हो जाती हैं, खासकर ऐसी लड़कियां जिन की प्राथमिकता घरपरिवार बसाना होता है. दूसरी तरफ ऐसी लड़कियां भी हैं जिन की प्राथमिकता पहले उन का कैरियर, उस के बाद अपनी पसंद या मातापिता की पसंद से घर बसाना होता है. शहरी क्षेत्रों में ऐसे विचार वाली लड़कियां ज्यादा या दूसरे शब्दों में कहें तो बहुतायत में होती हैं.

अगर मानसिक स्थिति पर गौर कर के इस विषय को देखा जाए तो हरेक शख्स का अपना खुद का नजरिया होता है. वहां पर शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों का प्रभाव बहुत कम हो जाता है. परिवेश की भूमिका भी अहम रोल निभाती है.

लड़कियों के विवाह के मामले में एक खास पहलू यह भी है कि ग्रामीण या छोटे शहरों के माहौल से आई लड़कियां जब पढ़लिख जाती हैं तो उन के सोचने का नजरिया बहुतकुछ बदल जाता है. ऐसी लड़कियां ही ज्यादातर घरेलू जुल्म की शिकार बनती हैं तब जब वे अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहती हैं या खुद के पैरों पर खड़ा होना चाहती हैं.

उस वक्त विवाह के लिए वे मानसिक रूप से तैयार नहीं रहतीं और शादी से इनकार करती हैं. उन पर उन के इनकार को इकरार में बदल देने का दबाव बनाया जाता है. कभी समाज का, कभी बीमार मातापिता का, कभी छोटे भाईबहनों का हवाला दिया जाता है और इमोशनल रूप से ऐसी लड़कियों को तोड़ दिया जाता है. नतीजा, वे विवाह के लिए हामी भर देती हैं.

अपनी औकात के अनुसार लड़का ढूंढ़ कर लड़की के हाथ पीले कर दिए जाते हैं और विदा कर के सिर का बो झ, समाज का बो झ हलका कर लिया जाता है. विवाह होते ही अधिकांशतया सारे बहाने गुम हो जाते हैं. शुरू में लड़की कुछ दुखी रहती है परंतु पति और ससुराल को निरपराध मान कर उन की खुशियों की खातिर समर्पित हो जाती है और पूरी जिंदगी समर्पित ही रहती है.

वह अपने सपनों को अपनी बंद मुट्ठी में भरी रेत की तरह देखती और हथेली खोल कर उसे हवा में उड़ने की आजादी दे देती है. पति और बच्चों का उच्च मुकाम और उन का मुसकराता चेहरा देखना अब उस का नया सपना होता है. उन की खुशियों में खुद की खुशियां ढूंढ़ना जीवन जीने का मकसद बन जाता है.

लड़कियों की जिंदगी के लिए अहम फैसले लेने का हक और निर्णय सुना देने का अधिकार समाज का छिपा और डरावना रूप आज भी कायम है. फर्क यह है कि पहले के लोगों की खुलेआम ऐसी सोच दिखती थी. अब आधुनिक होने का मुखौटा लगा है जिस से कि वैसी सोच सामने वाले को न दिखे, न वे दकियानूस की उपाधि से नवाजे जाएं.

दूसरा और अहम पहलू सामाजिक निंदा है. किसी लड़की ने शादी नहीं की, इस के पीछे जरूर कोई न कोई कहानी होगी. ऐसा समाज में उस के बीच के लोग सोचते हैं. शक की सूई लड़की पर घूमती रहती है. उस समाजरूपी सूई की बैटरी कभी खत्म नहीं होती और मौका मिलते चुभोने से भी लोग पीछे नहीं हटते.

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इस सूई की चुभन उसे कितनी पीड़ा देगी, यह सोचे बिना, वह अंदर से हिल जाएगी, ऊपर से मुसकराते हुए, जवाब हाजिर करना, खुद को मजबूत दिखाना उस की जरूरत बन जाती है. वरना यह समाज सवालों की सूई से घायल करता रहेगा. अब सवाल उठता है हमारी आप की सोच ऐसी क्यों हैं? अन्य मामलों में आधुनिकता का ढोल पीटने वाले हम लड़कियों के विवाह के मामले में क्यों कुंठित सोच के शिकार हैं.

जरूरी नहीं कि हर लड़की शादी में, घरपरिवार में रुचि रखती हो. हो सकता कुछ की उन की कुछ निजी मजबूरियां हों, कुछ को लाइलाज बीमारी हो, कुछ अपने घर की जिम्मेदारी को समर्पित हो गई हों. कोई भी कारण हो सकता है अविवाहित होने का. केवल प्यारमोहब्बत में असफलता ही कारण नहीं होता कुंआरेपन का. वे अपनी निजी वजह दुनिया वालों से या सहकर्मी से सा झा करती नहीं फिरेंगी.

खुद को सभ्य कहने वाले थोड़ा और सभ्य बन जाइए. अविवाहित लड़कियों के मुंह पर पऊ  फुसफुसाना उन की पीठपीछे उन की खिल्ली उड़ाना और शकभरे सवालों की बौछार से उन्हें लज्जित महसूस करवाना या अनापशनाप शादी के रिश्ते बताना आदि आदतें छोडि़ए. महिला ने जन्म लिया है तो क्या वह अपने जीवन का निर्णय लेने में सक्षम नहीं है?

कुछ प्रतिशत बुद्धिजीवी कहेंगे, क्यों नहीं हैं. परंतु उन बुद्धिजीवियों में 90 प्रतिशत मौका मिलते ही फुसफुसाने से भी परहेज नहीं करेंगे. लड़की के अविवाहित होने की वजह कुछ भी हो, इस विषय पर भी अपनी आधुनिक सोच को बढ़ाएं, न कि संकुचित करें.

हमारी एक परिचिता हैं, उन की उम्र करीब 65 वर्ष के आसपास है. मध्य आयु में पिता के गुजर जाने के बाद छोटेछोटे भाईबहनों को टीचर की नौकरी कर के पढ़ायालिखाया और शादी विवाह की. सारे भाईबहनों की शादी होतेहोते उन की उम्र 40-42 हो गई.

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सारे भाईबहन व्यवस्थित होने के बाद उन पर शादी का दबाव बनाने लगे. जब उन्होंने इनकार किया तो उन्हें यह बोल कर मानसिक आघात दिया गया कि आप को बुढ़ापे में कौन रखेगा? शिक्षिका दीदी उन के सवालों से सन्नाटे में आ गईं.

आज वे अकेली रहती हैं और अपने समाज के लोगों के लिए जीती हैं. वही लोग उन का परिवार हैं. भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जानता है? हो सकता है शिक्षिका दीदी को अंत समय में किसी की जरूरत ही न पड़े, पड़े भी तो अनेक ऐसे सामाजिक संस्थान हैं जो मजबूरों की मदद करते हैं. उन के चाहने वाले कम से कम वहां तक तो उन्हें छोड़ ही देंगे. विदेश प्रवास और मैट्रो सिटी में जा कर बसने वाले बच्चों के मातापिता भी बच्चों के होते हुए जीवन का अंतिम सफर अकेले ही तय कर रहे हैं. ऐसे लोगों से एक सवाल यह है कि उन के लिए आप का क्या सु झाव है?

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