गर्भवती महिलाओं के लिए आवश्यक संतुलित आहार!

गर्भवती महिलाओं को बैंलेंस डाइट लेना चाहिए. कुछ महिलाओं का दृष्टिकोण होता है कि गर्भवती महिला के साथ एक नया जीवन जुड़ा हुआ होता है. इसलिए दोगुना आहार लेने की जरूरत होती है, लेकिन घर की खान-पान शैली उपयुक्त नहीं होती है. इस लिए लाखों महिलाएं गर्भावस्था के समय एनीमिया (रक्त की कमी) के कारण कई प्रकार के बीमारी से पीड़ित हो जाती है. इन सबसे बचने के लिए जरूरी है , संतुलित आहार लेना .

संतुलित आहार लेने से गर्भवती महिला एवं गर्भस्थ शिशु स्वस्थ रहते हैं. जो महिलाएं स्वस्थ रहती है, उनमें औरों की अपेक्षा प्रसव पीढ़ा को शारीरिक-मानसिक स्तर पर सहने की क्षमता अधिक होती है.

संतुलित आहार में प्रोटीन, काबरेहाइड्रेट, खनिज, मिनरल, विटामिन और वसा की उचित मात्रा मौजूद हो.

गर्भवती महिलाओं को निम्न आहार लेना चाहिए. इस समय कई बार आपको खाने का मन नहीं करता है, लेकिन मन को माना कर स्वाद बदल बदल कर संतुलित  आहार का सेवन करते रहना चाहिए . दस विंदुओ में समझते है  , संतुलित आहार के स्वाद अनुसार सेवन से क्या लाभ है . किन किन बातों का रखें ख्याल , आईए जानते है …

  1. रक्त की कमी न हो इसलिए महिला रोग विशेषज्ञ की सलाह से कैल्शियम एवं आयरन की गोली लेना शुरू से ही प्रारंभ कर देना चाहिए. साथ ही स्वाद अनुसार या जो आपको पसंद हो उस सब्जी का सेवन आपको करना है .
  2. आपके खाने के थाली में गोभी, पत्ता गोभी, सभी लंबी हरी पत्तेदार सब्जियां, तौरई, परवल, लौकी या पालक में से कोई एक प्रतिदिन शामिल होना चाहिए . इसका चुनाव आप अपने पसंद और स्वाद अनुसार कर सकती है .

3. जिन महिलाओं को गर्भपात की शिकायत पूर्व में रही हो , उन्हें अगर बैंगन, पपीता, प्याज, मिर्ची, अदरक, लहसुन, काली मिर्च और सरसों अगर पसंद हो भी तो नहीं खाना चाहिए. अगर आपको इन सब्जियों का स्वाद बहुत पसंद है तो आप बहुत कम मात्रा में प्रयोग करें.

4. फलों में काले अंगूर, केला, पका आम, खजूर, काजू आदि अत्यधिक लाभकारी होता है. जो आपको सुविधा अनुसार मिल जाए और जिनका स्वाद आपको पसंद है उसका आप सेवन कर सकती है .

5. चावल, पुलाव और खिचड़ी के साथ – साथ रोटी , चपाती, परांठा आदि गेहूं से बने आहार को अपने भोजन में स्वाद अनुसार  सम्मलित करें.

6. मक्खन, दूध, शहद में कोई एक तो आपको पसंद ही होगा , इसका सेवन आप कर सकते है . साथ ही गुड़ से या सफेद चीनी से बने मिठाई को भी आप अपने स्वाद अनुसार अपने आहार में शामिल कर सकती है . दूध से कैल्शियम की पूर्ति होती है. दूध का सेवन नियमित करें.

7. भारतीय गर्भवती महिलाएं गर्भवस्था के समय उपवास रख लेती हैं. उन्हें उपवास नहीं रखना चाहिए. इससे गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है.

8. जिन महिलाओं को कॉस्टीपिशन (उदरकोष्ठ) रहता है वह भोजन में हरे मटर को शामिल करें.

9. कोल्ड ड्रिंक, एल्कोहल, तंबाकू, सिगरेट, पान-मसाला, फास्ट एवं जंक फूड न लें. चाय, कॉफी और आइस्क्रीम कभी-कभी खाएं. तली, भुनी चीजें न खाएं.

10. मटन, चिकन, अंडा और मछली को भोजन में शामिल करें, लेकिन अधिक मात्रा में नहीं.

इन सभी को अपने भोजन में शामिल करने से मां और बच्चे दोनों का स्वास्थ्य ठीक रहता है.

Underarms की साफ-सफाई है बेहद जरूरी, इन 5 तरीकों से रखें हाइजीन का ख्याल

Underarms Hygiene Tips: आदमी हों या औरत सभी के लिए जरुरी है कि वो अपना हाइजीन मेंटेन करें. इसके लिए जरुरी है कि आप अलग तरह की टिप्स अपनाएं. हम सभी नहाना, बालों को साफ करना, पैर और हाथों के नाखूनों को साफ तो करते ही हैं, लेकिन कई ऐसे बौडी पार्ट्स हैं जिन्हें साफ-सफाई करना बेहद जरूरी है. जैसे कि अंडरआर्म्स. इस लोग अक्सर साफ करना भूल जाते हैं. वहीं पसीने की वजह से अंडरआर्म्स से बदबू आने लगती है, लेकिन कभी-कभी ये समस्या इतनी बढ़ जाती है कि इससे दूसरे लोगों को भी परेशानी होना शुरू हो जाती है, इसलिए शरीर के बाकी अंगों की साफ-सफाई के साथ हमें अंडरआर्म्स की सफाई पर ध्यान देना चाहिए. तो आज हम आपको कुछ ऐसी ही टिप्स बताएंगे. जिससे आप अंडरआर्म्स से आने वाली बदबू को रोक सकते हैं और उसकी हाइजीन को मेंटेन कर सकते हैं.

परफ्यूम या डियोड्रेंट का करें यूज

पसीने से आने वाली बदबू की परेशानी किसी को भी हो सकती है. गर्मियों में अंडरआर्म्स में पसीना काफी आता है. जिसकी वजह से बदबू आने लगती है. ऐसे में हमेशा अपने पास परफ्यूम या डियोड्रेंट रखें और समय-समय पर अपने अंडरआर्म्स पर स्प्रे करते रहें.

आर्मपिट के बालों को ट्रिम कराएं

अंडरआर्म्स से आने वाली बदबू का एक बड़ा कारण बाल भी होते हैं. ऐसे में पुरुष ये ध्यान जरूर रखें कि आप समय-समय पर आर्मपिट में आने वाले बालों को ट्रिम करना ना भूलें.

रेजर ब्लेड को बदलते रहें

महिलाएं तो अक्सर वैक्स कर खुद को क्लीन रखतीं हैं, लेकिन अधिकतर पुरुष रेजर का इस्तेमाल कर ही अपने अनचाहे बालों को हटाते हैं. रेजर का इस्तेमाल करते हुए एक ब्लेड का ज्यादा समय तक प्रयोग ना करें. उसे समय-समय पर बदलते रहें.

जेल या शेविंग क्रीम का करें यूज

जब आर्मपिट के बालों को हटाना हो, तो सबसे पहले उस जगह पर कोई जेल या शेविंग क्रीम लगाएं. यदि आप डायरेक्ट ही अंडरआर्म्स पर रेजर लगाते हैं तो इससे बाल खीचेंगे. जिससे स्कीन पर जलन होगी और साथ ही छोटी-छोटी फुंसियां भी आ जाएंगी.

घरेलू नुस्खों से दूर होगी बदबू

अंडरआर्म्स से आने वाली बदबू को दूर करने के लिए घरेलू नुस्खों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. अगर आप आर्मपिट में खीरे या फिर आलू का भी रस लगाते हैं तो बदबू नहीं आएगी. साथ ही एप्पल साइडर विनेगर लगाने से स्किन साफ भी रहेगी और बदबू भी नहीं आएगी. इन टिप्स को फॉलो करने से अंडरआर्म में हमेशा हाइजीन बरकरार रहेगी.

पुरुषों को क्यों भाता है गैर महिलाओं का छूना?

Society News in Hindi: इस में कोई दोराय नहीं कि विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षण स्त्रीपुरुष दोनों को ही होता है. लेकिन हाल ही में एक अध्ययन के बाद यह बात सामने आई है कि स्त्रीपुरुष में शारीरिक स्पर्श को ले कर कितनी समानताएं हैं. इस शोध का दिलचस्प तथ्य यह है कि स्त्री हो या पुरुष उसे दूसरों का स्पर्श कितना सुखकर लगता है. यानी स्त्रीपुरुष को यदि कोई गैर व्यक्ति छूता है तो वह शरीर के किनकिन जगहों को छूने की अनुमति देते हैं और शरीर के किन जगहों को छूने से असहज होते हैं.

अनजान महिलाओं का छूना

अध्ययनकर्ताओं ने इस के निष्कर्षों को जानने व समझने के लिए 2 बौडी माप बनाए, जिन में अलगअलग नतीजे बताए गए.

अध्ययन में यह बात सामने आई कि एक महिला अपने पुरुष पार्टनर को पूरे शरीर को छूने की अनुमति देती है.

मगर इस में हैरान करने वाली बात यह सामने आई है कि पुरुषों को अपनी महिला पार्टनर का छूना असहज करता है, मगर कोई गैर अथवा अनजान महिला का छूना खूब भाता है.

छू लो एक बार

इस अध्ययन का सब से दिलचस्प तथ्य यह भी रहा है कि पुरुष जहां अपने जानकारों, दोस्तों, परिवार के लोगों द्वारा छूने से असहज हो जाते हैं, वहीं महिलाएं इस की अनुमति दे देती हैं. हां, महिलाएं अनजान लोगों चाहे वह स्त्री हो या पुरुष की निकटता में असहज महसूस करती हैं.

पुरुषों को अनजान महिलाओं का स्पर्श इतना भाता है कि वे उन्हें खुद छूने का आमंत्रण देते हैं.

ससुराल में पूरे हुए रूपा के सपने

लेखक- डा. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

रूपा यादव की तीसरी जमात में पढ़ते हुए ही 8 साल की अबोध उम्र में शादी हो गई थी. रूपा ने ब्याहता बन कर भी घर का कामकाज करने के साथसाथ अपनी पढ़ाई जारी रखी.

शादी के बाद गौना नहीं होने तक रूपा मायके में पढ़ी और फिर ससुराल वालों ने उसे पढ़ाया. ससुराल में पति और उन के बड़े भाई यानी रूपा के जेठ ने सामाजिक रूढि़यों को दरकिनार करते हुए रूपा की पढ़ाई जारी रखी. पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए दोनों भाइयों ने खेती करने के साथसाथ टैंपो भी चलाया.

रूपा ने ससुराल का साथ मिलने पर डाक्टर बनने का सपना संजोया और 2 साल कोटा में रह कर एक इंस्टीट्यूट से कोचिंग कर के दिनरात पढ़ाई की.

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जयपुर के चैमू क्षेत्र के गांव करेरी की रूपा यादव, जिस ने नीट 2017 में 603 अंक हासिल किए थे, को प्रदेश के सरकारी सरदार पटेल मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया.

ऐसी है कहानी

रूपा यादव गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ती थी. जब वह तीसरी क्लास में थी, तब उस की शादी कर दी गई. गुडि़यों से खेलने की उम्र में ही वह शादी के बंधन में बंध गई थी. दोनों बहनों की 2 सगे भाइयों से शादी हुई थी. उस के पति शंकरलाल की भी उम्र तब 12 साल की थी. रूपा का गौना 10वीं जमात में हुआ था.

गांव में 8वीं जमात तक का सरकारी स्कूल था, तो वह उस में ही पढ़ी. इस के बाद पास के गांव के एक प्राइवेट स्कूल में दाखिला लिया और वहीं से 10वीं जमात तक की पढ़ाई की.

10वीं जमात का इम्तिहान दिया. जब रिजल्ट आया तब रूपा ससुराल में थी. पता चला कि 84 फीसदी अंक आए हैं. ससुराल में आसपास की औरतों ने घर वालों से कहा कि बहू पढ़ने वाली है, तो इसे आगे पढ़ाओ.

शंकरलाल ने इस बात को स्वीकार कर रूपा का दाखिला गांव से तकरीबन 6 किलोमीटर दूर प्राइवेट स्कूल में करा दिया.

रूपा के 10वीं जमात में अच्छे अंक आए. पढ़ाई के दौरान ही उस के सगे चाचा भीमाराव यादव की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. उन्हें पूरी तरह से उपचार भी नहीं मिल सका था.

इस के बाद ही रूपा ने बायलौजी विषय ले कर डाक्टर बनने का निश्चिय किया. 11वीं जमात की पढ़ाई के दौरान रूपा बहुत कम स्कूल जा पाती थी. वह घर के कामकाज में भी पूरा हाथ बंटाती थी. गांव से 3 किलोमीटर स्टेशन तक जाना होता था. वहां से बस से

3 किलोमीटर दूर वह स्कूल जाती थी. उस के 11वीं जमात में भी 81 फीसदी अंक आए. उस ने 12वीं जमात का इम्तिहान दिया और 84 फीसदी अंक हासिल किए.

बाद में रूपा यादव ने बीएससी में दाखिला ले लिया. बीएससी के पहले साल के साथ एआईपीएमटी का इम्तिहान भी दिया. इस में उस के 415 नंबर आए और 23,000वीं रैंक आई.

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लिया बड़ा फैसला

रूपा के पति व जेठ ने फैसला किया कि जमीन बेचनी पड़ी तो बेच देंगे, लेकिन रूपा को पढ़ाएंगे. रूपा कोटा में पढ़ने गई तो वहां का माहौल आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला था. टीचर बहुत मदद करते थे. कोटा में रह कर एक साल मेहनत कर के रूपा अपने लक्ष्य के बहुत करीब पहुंच गई.

रूपा ने पिछले साल नीट में 506 अंक हासिल किए, लेकिन लक्ष्य से थोड़ी सी दूर रह गई. फिर से कोचिंग करने में परिवार की गरीबी आड़े आ रही थी. परिवार उलझन में था कि कोचिंग कराएं या नहीं. ऐसे में एक कैरियर इंस्टीट्यूट ने रूपा का हाथ थामा और उसे पढ़ाई के लिए प्रेरित किया.

उस संस्थान द्वारा रूपा की 75 फीसदी फीस माफ कर दी गई. सालभर तक उस ने दिनरात मेहनत की और 603 अंक हासिल किए. नीट रैंक 2283 रही. अगर वह कोटा नहीं आती, तो शायद आज बीएससी कर के घर में ही काम कर रही होती.

रूपा ने लोगों के ताने भी सहे, लेकिन हिम्मत नहीं हारी. तभी तो वह आज यहां तक भी पहुंच पाई है. इस में उस की ससुराल का बहुत बड़ा योगदान रहा है. पहले साल सिलैक्शन नहीं हुआ या तो खुसुरफुसुर होने लगी कि क्यों पढ़ा रहे हो? क्या करोगे पढ़ा कर? घर की बहू है तो काम कराओ.

इस तरह की बातें होने लगी थीं. यही नहीं, कोटा में पढ़ाई के दौरान ससुराल वालों ने खर्चों की भरपाई के लिए उधार पैसे ले कर भैंस खरीदी थी, ताकि दूध दे कर ज्यादा कमाई की जा सके, लेकिन वह भैंस भी 15 दिन में मर गई. इस से तकरीबन सवा लाख रुपए का घाटा हुआ, लेकिन ससुराल वालों ने उसे कुछ नहीं बताया, बल्कि पति व जेठ और मजबूत हो गए. इस से रूपा बहुत प्रोत्साहित हुई और उस ने पढ़ने में बहुत मेहनत की.

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कोटा में रहने व दूसरे खर्च उठाने के लिए पति और जेठ टैंपो चलाने का काम करने लगे, जबकि रूपा रोजाना 8 से 9 घंटे पढ़ाई करती थी. रूपा जब कभी घर जाती है, तो घर का सारा काम भी बड़ी लगन से करती है. सुबहशाम का खाना बनाने के साथसाथ झाड़ूपोंछा लगाना उस की दिनचर्या में शामिल है. इस के साथ ही खेत में खरपतवार हटाने के काम में भी रूपा हाथ बंटाती है.

रूपा ने असाधारण हालात के बावजूद कामयाबी हासिल की है. रूपा की मदद का सिलसिला जारी रखने के लिए एक संस्थान ने उसे एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान 4 साल तक मासिक छात्रावृत्ति देने का फैसला किया है.

पूजा ढांडा : कुश्ती की नई दबंग

1 जनवरी, 1994 को हरियाणा के हिसार जिले के एक गांव बुढ़ाना में जनमी पूजा ढांडा के पांव उन के एथलीट पिता अजमेर सिंह ने पालने में ही पहचान कर इस कहावत को गलत साबित कर दिया था कि सिर्फ पूत के पांव ही पालने में पहचाने जा सकते हैं.

बाद में इस बात को पूजा ढांडा ने भी सच साबित किया. उन्होंने पहले मिट्टी के अखाड़े में और बाद में मैट पर भी अपनी पहलवानी का ऐसा जलवा दिखाया कि दुनिया वाहवाह करने लगी. वे साल 2019 में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में हुए कुश्ती के ग्रांप्री इंटरनैशनल टूर्नामैंट में 57 किलोग्राम भारवर्ग में सिल्वर मैडल विजेता थीं. उन्होंने साल 2018 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में सिल्वर मैडल जीता था. इतना ही नहीं, उन्होंने साल 2018 में ही बुडापेस्ट में हुई वर्ल्ड चैंपियनशिप में ब्रौंज मैडल हासिल किया था.

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अपनी इस कामयाबी का राज खोलते हुए पूजा ढांडा बताती हैं, ‘‘मुझे लड़कों के साथ कुश्ती की प्रैक्टिस करना अच्छा लगता है, क्योंकि उन में ज्यादा ताकत, दमखम और रफ्तार होती है, जिस से मुझे अपना खेल सुधारने में मदद मिलती है.’’

परिवार ने बढ़ाया हौसला

पूजा ढांडा बताती हैं, ‘‘मुझे शुरू से ही खेलों से लगाव रहा है. बचपन में मैं अपने पिता के साथ सुबह दौड़ने जाती थी. जब मैं कुश्ती खेलने लगी तो गांव में बहुत से लोगों ने मुझे ताने मारे थे. पिता को भी लगता था कि अगर मुझे ज्यादा गंभीर चोट लग गई, तो मेरी शादी करने में दिक्कतें आ सकती हैं.

‘‘सब से बड़ी समस्या तो यह है कि आज भी लड़कियों के लिए गांवदेहात में हालात ज्यादा सुधरे नहीं हैं. उन्हें अपनी जिंदगी के फैसले लेने की आजादी नहीं मिली है. उन्हें अगर परिवार का सहयोग मिल भी जाता है, तो समाज कई तरह के रोड़े अटका देता है, पर इन सब बातों से उठ कर ही कोई लड़की देशदुनिया में नाम कमा सकती है.

‘‘मुझे इस मुकाम तक लाने में मेरी मां कमलेश का बहुत बड़ा योगदान है. उन्होंने मुझे कभी अपने सपने पूरे करने से नहीं रोका. उन्होंने मेरी डाइट का खयाल रखा और दूसरी सभी चीजों का भी ध्यान रखा. खेलने के लिए जब कभी मुझे गांव या शहर से बाहर जाना होता था, तो उन्होंने कभी मना नहीं किया.’’

कोच बहुत जरूरी

पूजा ढांडा का मानना है कि किसी खिलाड़ी को बनाने में कोच का बड़ा योगदान होता है. अगर बड़े लैवल पर किसी महिला पहलवान को कोई पुरुष कोच मिल जाता है, तो इस में घबराने की बात नहीं होती है. बस, कोच के साथ तालमेल जरूर बिठाना पड़ता है.

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पूजा ढांडा बताती हैं, ‘‘सब से पहली चीज है अपने कोच पर भरोसा करना. बड़े लैवल पर महिला पहलवानों को कोचिंग देने वाले पुरुष कोच बड़े अनुभवी होते हैं. उन का फोकस हमारे खेल को सुधारने पर रहता है.’’

यही वजह है कि आज जब भी पूजा ढांडा कुश्ती के मैट पर उतरती हैं, तो फौलाद में बदल जाती हैं और सामने वाली पहलवान को धूल चटा देती हैं. वे नई पीढ़ी को खासकर लड़कियों को संदेश देते हुए कहती हैं, ‘‘कभी भी हिम्मत न हारें. लड़कियों को फिट और हिम्मती बनाने में खेलों का बड़ा अहम योगदान है. इस से आत्मविश्वास बढ़ता है और नाम भी बनता है.’’

वंदना हेमंत पिंपलखरे : कराटे से काटे जिंदगी के दर्द

लेखक- डा. अर्जिनबी यूसुफ शेख

घर में जो सब से छोटा होता है, उसे भाईबहनों के साथसाथ मातापिता का भी सब से ज्यादा लाड़दुलार मिलना लाजिमी है.

31 जुलाई, 1965 को जनमी वंदना अपने भाईबहनों में सब से छोटी थीं. जब तक वे कुछ समझने लगीं, तब तक उन के 2 बड़े भाइयों और 3 बहनों की शादी हो चुकी थी. लिहाजा, भाईबहनों का साथ उन्हें कम ही मिला.

शादी होते ही दोनों बड़े भाई अलग रहने लगे थे. वंदना अपने मातापिता के साथ अकेली रहती थीं. पिता को शराब के नशे में बेहाल देख कर उन का मन दुखता था, पर 10 साल की बच्ची कर भी क्या सकती थी?

पिता रिटायर्ड थे, उन्हें पैंशन नहीं मिलती थी. वंदना ने 6ठी जमात में पढ़ते हुए किसी दुकान में 50 रुपए प्रतिमाह पर नौकरी करनी शुरू की. साथ ही, मां के साथ मिल कर पापड़, अचार, आलू के चिप्स वगैरह बनाने लगीं. वे उस सामान को प्लास्टिक की पन्नी में पैक कर घरघर बेच आती थीं.

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इस तरह वंदना इन घरेलू उत्पादों के और्डर लेने लगीं और अपने घर की गरीबी का रोना न रोते हुए मातापिता के साथ अपनी रोजीरोटी चलाने लगीं.

पिता शराबी, मां भोलीभाली और भाईबहन अपनी दुनिया में मस्त. जिस वंदना के बचपन को प्यार व अपनेपन की जरूरत थी, वह बचपन मातापिता को संभाल रहा था.

अकसर ज्यादा शराब पी लेने के चलते पिता बहुत बुरी हालत में घर पहुंचते थे. उन की कमीज के बटन टूटे रहते थे और लड़खड़ाते हुए उन का घर में आना वंदना को खून के आंसू रुला देता था.

मां तो एक ओर सिमट जाती थीं. वंदना ही पिता को बिस्तर पर बिठातीं, उन के कपड़े ठीक करतीं या बदल देतीं, कीचड़ में सने पैरों को साफ करतीं और बेमन से उन की सेवाटहल करतीं.

वंदना को कुछ अलग करना अच्छा लगता था. वे मार्शल आर्ट सीखने लगीं. 12वीं जमात के बाद उन्होंने असिस्टैंट सबइंस्पैक्टर के लिए हैदराबाद जा कर इम्तिहान देने के लिए फार्म भरा. इसी बीच मां को लकवा होने से अस्पताल में भरती कराना पड़ा. डाक्टर ने 72 घंटे का समय क्रिटिकल बताया था. उस हालत में भी मां के पास अस्पताल में रहने या उन्हें देखने कोई भाईबहन नहीं आया. इस की वजह थी वंदना. उन्हें वंदना का मार्शल आर्ट सीखना पसंद नहीं था, जबकि वंदना इसे न छोड़ने की जिद पर अड़ी थीं.

अस्पताल में मां के साथ रहने से वंदना का घर बंद रहा. हैदराबाद से आया इम्तिहान का लैटर वहीं दरवाजे के भीतर पड़ा रहा. जब वंदना ने उसे देखा तब तक काफी देर हो चुकी थी. वह मोड़ जो वंदना की जिंदगी को नया रास्ता दे सकता था, उन के हाथ से छूट गया. इस दुख के साथ मां की मौत के दुख को भी उन्हें एक ही समय झेलना पड़ा.

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मां की मौत के बाद वंदना बिलकुल अकेली हो गईं. वे सुबह सारे काम निबटा कर, खाना वगैरह बना कर बाहर निकल जातीं, लेकिन जब कभी घर पहुंचने में लेट हो जातीं तो उन्हें खाने के लिए रोटी का एक टुकड़ा नहीं मिलता था. कोई यह सोचने वाला नहीं था कि उन्हें भी रोटी की जरूरत होगी. वे अकेली संघर्ष भरी राह पर चल रही थीं, भाईबहनों की खिलाफत झेलते हुए. भाईबहन तो पिता को भी भड़का देते थे कि वंदना समाज में उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं रख रही है. उन की बातों में आ कर पिता भी वंदना को बेइज्जत करते थे. इतना होते हुए भी वंदना शराब के नशे में चूर अपने पिता को संभालती थीं, उन का खयाल रखती थीं.

न किसी से हौसलाअफजाई, न किसी से मार्गदर्शन, इस के उलट लड़की ने जो नहीं करना चाहिए, जो खेल नहीं सीखना चाहिए, उसे करने से अपनों की बेरुखी वंदना को चुभती जरूर रही, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.

वंदना ने 5 साल अखाड़े में मार्शल आर्ट में ब्लैक बैल्ट टू डौन कर बीपीऐड किया. साथ ही, घरेलू उत्पाद के और्डर जगहजगह पहुंचा कर वे अपनी गुजरबसर करती रहीं. कुछ मर्दों की नजर में जवान वंदना चुभ जाती थीं. घर में कोई मर्द न हो तो एक लड़की को किस हालात से गुजरना पड़ता है, इसे वंदना ने खूब झेला.

बाद में वंदना ने एक महिला महाविद्यालय में नौकरी हासिल की. दोपहर लंच के समय वे टाइपिंग सीखने चली जातीं. साथ ही, लाइब्रेरी का कोर्स भी किया.

समाज से मिले कड़वे अनुभवों को दरकिनार कर वंदना का टारगेट हमेशा अपने काम पर रहा. वे अपने काम और कामयाबी से समाज को एक करारा जवाब देना चाहती थीं कि जिन कामों को समाज ने महिलाओं के लिए गलत बताया है, वह समाज की एक छोटी सोच है.

इतने दुख झेलने के बाद साल 1995 में हेमंत पिंपलखरे से शादी करने के बाद वंदना हेमंत पिंपलखरे को मजबूती मिली.

शादी के बाद जब वंदना अपने पति के साथ पिता का आशीर्वाद लेने घर पहुंचीं, तो पिता ने उन्हें नफरत से बाहर धकेल दिया, पर ससुराल वालों ने उन्हें दिल से अपनाया. सास से मां समान और दोनों ननदों से बहनों सा प्यार वंदना को मिला.

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मार्शल आर्ट न छोड़ने की जिद के चलते खुद के परिवार से नफरत झेल रही वंदना को अपने कार्य क्षेत्रों में भी अनेक तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा. वे पलभर के लिए निराश जरूर हुईं, पर अपने लक्ष्य को नजरों से ओझल नहीं होने दिया.

यही वजह है कि आज वंदना हेमंत पिंपलखरे मिक्स बौक्सिंग, थाई बौक्सिंग, म्यूजिकल चेयर, बैल्ट रैसलिंग, नौनचौक वैपन खेलों की अधिकारी व चीफ जूरी के रूप में काम कर रही हैं. साथ ही, वे महाराष्ट्र के ‘पुण्यश्लोक’, ‘अहल्यादेवी होलकर पुरस्कार’, ‘स्त्रीरत्न पुरस्कार,’ ‘ब्रुसलीज ऐक्सिलैंस’ पुरस्कार के साथसाथ बौक्सिंग, थाई बौक्सिंग में फैडरेशन व स्कूल गेम औफ इंडिया की बैस्ट जूरी, रैफरी व जज पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी हैं.

लड़कों से कम नहीं हैं लड़कियां

‘‘जब मेरे पापा गुजरे, तब उन का अंतिम संस्कार मैं ने ही किया था. उन की अर्थी को कंधा मैं ने ही दिया था. उस वक्त मैं ने खुद को बहुत मजबूत पाया था… पापा के जाने के बाद जिंदगी पहले जैसी कभी नहीं रही, मगर उस के बाद घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी थी. मैं ने खुद को दोतरफा मजबूत पाया. एक तो हमारे समाज में लड़कियों को इस तरह

के कर्मकांडों से दूर रखा जाता है, मगर मैं ने और मेरी बहनों ने मिल कर ये सारे काम किए थे. तब मैं सिर्फ 19 साल की थी.

‘‘पापा की अर्थी को कंधा देने वाली बात मैं लोगों के सामने पहली बार कर रही हूं, क्योंकि वे बहुत ही निजी और भावुक पल थे.  मगर हां, उस के बाद मेरे अंदर एक अलग तरह की ताकत आ गई थी.’’

यह बात एक इंटरव्यू में फिल्म हीरोइन भूमि पेडनेकर ने कही थी, पर फिल्मी कतई नहीं थी. उन के इस भावुक संदेश से यह समझा जा सकता है कि हमारे देश में लड़कियों को खुद को बेहतर और हिम्मती साबित करने के लिए किस तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं. और अगर किसी गांवदेहात की लड़की की समाज में अपने दम पर की गई जद्दोजेहद को खंगालेंगे तो पता चल जाएगा कि उन्हें अपने मन की करने के लिए किस हद तक समाज से लड़ना पड़ता है.

इतना होने के बावजूद आज हमारे देश की लड़कियां उलट हालात में भी हर क्षेत्र में नाम कमा रही हैं. गांव की बहुत सी लड़कियों ने तो खेल, पुलिस, सेना, बड़ी सरकारी नौकरी और यहां तक कि नेतागीरी में मर्दों को भी पछाड़ दिया है.

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उत्तराखंड की सुमन सिंह रावत कुछ ऐसा ही काम कर रही हैं, जिसे करने के लिए बड़ा हौसला चाहिए. अब वे लखनऊ में रहती हैं. सड़क हादसों में घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाती हैं, उन का इलाज कराती हैं और लावारिस लाशों का दाह संस्कार भी कराती हैं. यह काम वे पिछले 27 साल से खुद अपने दम पर कर रही हैं, कोई सरकारी मदद नहीं लेती हैं.

इसी तरह इलाहाबाद की ओम कुमारी सिंह अपनी चैतन्य वैलफेयर फाउंडेशन के जरीए गरीब बच्चों को पढ़ा रही हैं, जबकि ‘उद्गम’ संस्था चलाने वाली रुपाली श्रीवास्तव तेजाब से जलाई गई लड़कियों को सहारा देने का काम करती हैं.

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में लालगंज इलाके की आदिवासी औरतों ने 2 किलोमीटर लंबी नहर खोद कर गांवघर और खेतों तक पानी पहुंचा दिया है. इस से जंगलों में बेकार बह रहे पानी को काम में लाने से न केवल पीने के पानी की समस्या से नजात मिली है, बल्कि इलाके में जमीनी पानी का लैवल भी बढ़ गया है.

बैतूल जिले के गोपीनाथपुर गांव की 16 औरतों ने महज 2 साल में 3 तालाब खोद डाले, जिन में अब सालभर लबालब पानी भरा रहता है.

इन औरतों ने वसुंधरा महिला मंडल नाम से एक समूह बना कर रजिस्ट्रेशन करवाया और तालाब खुदाई में लग गईं. नतीजतन, आज ये सब इन तालाब के पानी से खेती कर रही हैं और साल में सब्जी से एक लाख से 2 लाख रुपए, फलों से भी तकरीबन 2 लाख रुपए और इतना ही मछलीपालन से कमा रही हैं.

बिहार में गोपालगंज हैडक्वार्टर से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर कुचायकोट ब्लौक के बरनैया गोखुल गांव की रहने वाली जैबुन्निसा को सब ‘ट्रैक्टर लेडी’ बुलाते हैं.

जैबुन्निसा बताती हैं कि साल 1998 में वे अपने एक रिश्तेदार के घर हरियाणा गई थीं और वहां उन्होंने टीवी पर एक कार्यक्रम देखा था जो केरल के किसी गांव के बारे में था. वहां की औरतें स्वयंसहायता समूह के बारे में बता रही थीं.

गांव आ कर जैबुन्निसा ने अपने गांव की औरतों से बात की और उन्हें उस कार्यक्रम के बारे में बताया. इस के बाद जैबुन्निसा ने अपना स्वयंसहायता समूह बनाया.

फिर जैबुन्निसा ने खुद से ट्रैक्टर चलाना सीखा और खेतों में काम करने लगीं. आज वे कड़ी मेहनत के बल पर सैकड़ों परिवारों में खुशहाली लाने में जुटी हुई हैं. गांव की 250 से ज्यादा औरतें आत्मनिर्भर हो कर अपने परिवार का पालनपोषण बेहतर ढंग से कर रही हैं.

ऐसी ही एक जुझारू लड़की रीटा शर्मा से मैं दिल्ली में मिला था. वैसे तो वे उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले की रहने वाली हैं, पर अब लखनऊ में रह कर समाजसेवा के ऐसे काम कर रही हैं, जिस में जान दांव पर लगा देने का भी जोखिम है.

रीटा शर्मा ने जब से अपनी पढ़ाई पूरी की थी, तब वहां बहुत ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं. तब लोग ऊंची पढ़ाई के लिए लखनऊ या दिल्ली का रुख करते थे. लड़कियों को तो जैसे जिले के बाहर अपनी मरजी की पढ़ाई करने की इजाजत ही नहीं थी.

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महाराजगांव की रीटा शर्मा ने अपनी 12वीं जमात तक की पढ़ाई बहराइच के आर्य कन्या इंटर कालेज से की थी. वे बीए तक हिंदी मीडियम से पढ़ी थीं.

रीटा शर्मा की गैरसरकारी संस्था ‘शक्तिस्वरूपा सेवा संस्थान’ में हर जरूरतमंद की मदद की जाती है. समाज को बेहतर बनाना, बेरोजगारों को रोजगार की ट्रेनिंग देना, जागरूकता मुहिम चलाना, अपनी हिफाजत की ट्रेनिंग देने के साथसाथ लोगों की कानूनी तौर पर मदद भी की जाती है.

एमबीए कर चुकी रीटा शर्मा अपहरण के कई मामलों में लड़कियों को बचा कर घर वापस लाई हैं. सब से अच्छी बात तो यह है कि वे इस काम को मुफ्त में करती हैं.

रीटा शर्मा ने बाराबंकी के जुलाई, 2017 के एक अपहरण कांड के बारे में बताया, ‘‘यह मामला एक 16-17 साल की लड़की का है. मैं अपने काम से अलीगंज, लखनऊ थाना गई थी. वहां मुझे कुरसी पर बैठने को कहा गया, जबकि वहीं पर जमीन पर एक गांव की औरत बैठी थी, जिस से वहां मौजूद पुलिस वाले मजाकिया या कहें तकरीबन बेहूदा भाषा में बात कर रहे थे.

‘‘आदतन मैं उस औरत से उस की परेशानी पूछ बैठी. उस औरत ने बताया कि उस की बेटी बाराबंकी से गांव की कुछ औरतों के साथ अलीगंज का बड़ा मंगल का मेला देखने आई थी, जहां से वह गायब हो गई है. उस का तकरीबन एक महीने से कोई अतापता नहीं है. एफआईआर हो गई थी, मगर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

‘‘अभी कल ही एक नंबर से उसी लड़की का फोन आया है. लोगों की सलाह पर वह औरत नंबर ले कर थाने आई थी और अपनी बेटी को ढूंढ़ने की गुजारिश कर रही थी. इस केस का जांच अधिकारी ही उस से हंसीमजाक कर रहा था.

‘‘मैं ने मौके पर उस जांच अधिकारी से सवालजवाब किए और फिर उस औरत को क्षेत्राधिकारी डाक्टर मीनाक्षी से मिला कर बातचीत कराई, जहां उन्होंने नंबर को सर्विलांस पर लगाने और पता लगते ही जांच अधिकारी को जाने के लिए बोला.

‘‘थाने से बाहर आ कर मैं उस औरत के कागजात की फोटोकौपी और मोबाइल नंबर ले कर और अपना विजिटिंग कार्ड दे कर घर आ गई, मगर फिर भी मन में उस अनजान लड़की के लिए चिंता रह गई थी, जो न जाने किन हाथों में और कैसी हालत में थी.

‘‘रात को उस औरत को फोन कर  अगले दिन ही एसएसपी के औफिस में आने को कहा और पूरा केस पढ़ कर जब वहां मौजूद एसपी ग्रामीण डाक्टर सतीश कुमार को पूरी जानकारी दी, तो उन्होंने तुरंत थाने में फोन कर के स्टेटस लिया और आधे घंटे के भीतर ही पुलिस उस औरत के साथ मौजूदा लोकेशन के लिए निकल पड़ी.

‘‘कुछ समय बाद उस लड़की को सुरक्षित एक कारखाने के अंदर से एक लड़के के साथ बरामद किया गया, जिस ने लड़की को कैद कर रखा था. वह फोन नंबर पास रहने वाले एक आदमी का था, जिस ने शक होने पर मौका पा कर पूछताछ कर घर पर बात कराई थी.

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‘‘एक ईमानदार आईपीएस की बदौलत वह लड़की सुरक्षित मिली. केस चल रहा है.’’

एक और केस के बारे में रीटा शर्मा ने बताया कि महाराष्ट्र का रहने वाला मोहम्मद शाहिद पैसे कमाने के लिए 1 मार्च, 2018 को किसी एजेंट के जरीए कतर गया था, मगर कुछ दिन बाद उस ने अपनी पत्नी को फोन पर बताया कि वे लोग उस से बताए गए काम के बजाय मजदूरी करा रहे हैं और खानेपीने को भी नहीं दे रहे हैं. कुछ दिनों बाद उन्होंने फोन भी ले लिया था.

शाहिद की पत्नी और घर वालों ने हर किसी से मदद मांगी. प्रधानमंत्री के दफ्तर में चिट्ठी भी भेजी, मगर कोई जवाब नहीं आया. इस तरह मई का महीना आ गया.

मोहम्मद शाहिद की बहन को किसी ने मेरे बारे में बताया और मोबाइल नंबर दिया. बातचीत और पूरी जानकारी लेने के अलावा सोशल मीडिया के कुछ साथियों से और ज्यादा जानकारी लेने के बाद दोहा एंबैसी को ट्वीट और ईमेल किया. साथ ही, फोन पर बातचीत के बाद उन्होंने दी गई जानकारी के आधार पर जब जांच कराई तो पता चला कि केवल मोहम्मद शाहिद ही नहीं, बल्कि 2 और भारतीय इसी तरह धोखे से लाए गए थे.

लगातार संपर्क में रहने के बाद 13 जून, 2018 को एंबैसी ने सुरक्षित सभी भारतीयों को वापस भारत भेज दिया. सभी परिवार, जो महीनों से परेशान थे और उन से मदद के नाम पर भारीभरकम रकम मांगी जा रही थी, उन का सब काम ऐसे ही बिना रिश्वत दिए हो गया.

रीटा शर्मा बचपन से ही आईपीएस बनने का सपना देखती थीं. जब भी टैलीविजन पर आईपीएस किरण बेदी आती थीं, तो वे उन्हें बहुत ध्यान से देखती थीं, मगर बीए पास करने के बाद पिताजी आगे पढ़ने के लिए उन्हें इलाके से बाहर भेजने को तैयार न हुए. शायद समाज में हो रहे अपराध देख कर उन में बेटी को ले कर असुरक्षा की भावना थी.

बाद में पिताजी से जिद कर रीटा शर्मा ने एक प्राइवेट नौकरी शुरू की. फिर पिताजी की मौत के बाद एक आंटी की मदद से वे बिना पारिवारिक इजाजत के लखनऊ आ गईं और फिर शुरू हुआ जिंदगी की जद्दोजेहद भरा दूसरा दौर.

रीटा शर्मा ने नौकरी के साथ एमबीए किया. इस बीच कुछ निजी परेशानियों के चलते वे डिप्रैशन में आ गईं और उन के बाहर के काम करने पर रोक लग गई. काउंसलिंग और इलाज के दौरान अपना शौक पूरा करने के लिए उन्होंने एक गैरसरकारी संस्था खोल कर बेसहारा लोगों की मदद करने की सोची, वह भी उस वक्त जब उन्हें खुद मदद की जरूरत थी.

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25 दिसंबर, 2015 को इस संस्था का पहला प्रोग्राम जरूरतमंदों को कपड़े बांटने के साथ शुरू हुआ था. उन की इस मुहिम को आगे बढ़ाने में सोशल मीडिया को वे अहम कड़ी मानती हैं.

भविष्य की बात करें, तो रीटा शर्मा अब राजनीति के क्षेत्र में आ कर बड़े लैवल पर समाजसेवा करना चाहती हैं. उन का यह सपना कब और कैसे पूरा होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा, पर इतना तो पक्का है कि ऐसी जुझारू लड़कियां अपने बुलंद हौसलों से देश और समाज में पौजिटिव बदलाव लाने का माद्दा रखती हैं और एक छिपी नायिका की तरह उलझे हुए मामले अपनी सूझबूझ और हिम्मत से सुलझा कर कुछ लोगों की जिंदगियां खुशियों से भर देती हैं.

महिलाएं दबाव में न छोड़ें नौकरी

नीना बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थी. मातापिता ने उस के सपनों को पंख दिए. उस का सिलैक्शन मैडिकल में हो गया. वहीं उस की मुलाकात समीर से हुई. मैडिकल फाइनल में नीना टौप कर गई. पढ़ाई पूरी करने के बाद घर वालों की रजामंदी से दोनों ने शादी रचाई. नीना की हसरत थी कि वह क्लीनिक खोले. उस में 2-3 साल लग गए. इसी बीच, उस की गोद में रोहन आ गया.

सासससुर का कोई दबाव नहीं था लेकिन इस बात का जिक्र वे हमेशा करते कि बच्चों के सही पालनपोषण के लिए मां का घर पर रहना जरूरी है. 2 वर्ष बाद निधि का जन्म हो गया. नीना कशमकश में थी. बच्चों के लिए समय कम पड़ रहा था. उस ने समीर से बात की. दोनों ने मिल कर निर्णय लिया कि फिलहाल नीना कैरियर से ज्यादा बच्चों पर ध्यान दे. यह ज्यादा सही रहेगा. सासससुर ने न सिर्फ बहू के फैसले का स्वागत किया बल्कि वे सब के सामने बहू के त्याग की प्रशंसा करते.

ऐसा ही कुछ बैंककर्मी विजयलक्ष्मी के साथ हुआ. उस ने और राकेश ने एकसाथ बैंक जौइन किया. दोनों की अरेंज मैरिज थी. बच्चों के जन्म के बाद विजयलक्ष्मी ने फैसला किया कि वह प्रमोशन नहीं लेगी. बच्चों की पढ़ाईलिखाई के लिए किसी एक को स्थायी रहना होगा. भले ही उस ने जौब नहीं छोड़ी लेकिन इस निर्णय के कारण वह कभी आगे नहीं बढ़ सकी. उस के जूनियर बौस होते गए. उस के पति राकेश आज जीएम हैं और वह आज तक उसी टेबल पर कलम घिस रही है.

ये 2 उदाहरण बानगी मात्र हैं. हमारे आसपास ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जाएंगे, जहां लड़कियों ने शादी के बाद घरपरिवार की जिम्मेदारी के लिए अपनी जौब को तिलांजलि दे दी. ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि वे स्वयं अपनी नौकरी छोड़ती हैं, लेकिन गहराई से विचार करें तो पता चलता है उन पर प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष रूप से मानसिक दबाव डाला जाता है कि वे जौब को बाय कह दें. एक ऐसा वातावरण बनाया जाता है कि वे जौब छोड़ने को मजबूर हो जाती हैं.

जिस जौब को हासिल करने में महिलाएं दिनरात संघर्ष करती हैं, मेहनत करती हैं, उसे एक झटके में छोड़ना भला वे क्यों चाहेंगी? जौब उन का बचपन का सपना होता है, उन की महत्त्वाकांक्षा होती है, कितनी विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए वह इसे हासिल करती हैं. ऐसे में किसी की दिली चाहत होगी कि वह लगीलगाई नौकरी छोड़े या फिर बिना प्रमोशन जिंदगी गुजार दे.

शादी के बाद नौकरी छोड़ने के लिए 3 कारण ज्यादा जिम्मेदार होते हैं, बच्चों की परवरिश, पति के अच्छे कैरियर के लिए उस के जौब की कुर्बानी और ससुराल वालों की नापसंदगी. ये कारण इस कदर लड़कियों पर हावी हो जाते हैं कि उन्हें अपनी नौकरी छोड़ने का निर्णय लेना पड़ता है. यह निर्णय भविष्य में उन पर भारी भी पड़ सकता है. कई बार कुछ ऐसी परिस्थितियां बन जाती हैं कि कैरियर को ठोकर मारने वाली महिलाएं बेबस और लाचार हो जाती हैं. उस समय उन्हें लगता है, काश, जौब न छोड़ी होती.

खुद को कमजोर न पड़ने दें

जौब छोड़ने का निर्णय लेने से पहले खुद से सवाल करें कि क्या जौब छोड़ना जरूरी है? इस बात को गांठ बांध लीजिए कि जौब मिलना आसान नहीं होता. बहुत सारी प्रतियोगिताओं से गुजरते हुए यह प्राप्त होता है और छोड़ने के बाद हासिल नहीं होता. आप पलपल आगे बढ़ती दुनिया से काफी पीछे छूट जाती हैं. आप जौब नहीं छोड़ने की बात पर दृढ़ रहिए. खुद को कमजोर मत पड़ने दीजिए. क्या कोई पुरुष अपने कैरियर का परित्याग सिर्फ इसलिए करता है कि उस की पत्नी आगे बढ़े.

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विजयलक्ष्मी ने सिर्फ बच्चों के लिए प्रमोशन नहीं छोड़ा था. यह बात भी थी कि पति का कैरियर निर्विघ्न आगे बढ़े. उस के लिए विजयलक्ष्मी का त्याग जरूरी हो गया. अब जब पति जीएम हो गए हैं, बच्चे विदेश में बस गए हैं, कहती हैं, पति पर गर्व होता है लेकिन कभीकभी अकेले में लगता है आज मैं भी जीएम होती अगर… विजयलक्ष्मी के अधूरे वाक्य में वह दर्द बिना है जो वे चाह कर भी कभी व्यक्त नहीं कर पातीं. वक्त फिसल गया. पीठ पीछे औफिस में यह चर्चा भी होती.

महिलाओं में इतनी काबिलीयत कहां, देखो इस के पति को, दोनों ने साथसाथ नौकरी शुरू की और आज वह जीएम हैं. विजयलक्ष्मी की काबिलीयत पर धूल जम गई है. त्यागसमर्पण सब हाशिए पर आ गया है. अब उंगली सीधेसीधे उस की योग्यता पर उठती है. फिर उसे हासिल क्या हुआ? समाज महिलाओं को हमेशा कमतर आंकता है, यह तनाव भी महिलाओं को झेलना पड़ता है.

दबाव में निर्णय न लें

हम अपने को चाहे जितना मौडर्न मान लें लेकिन कड़वी सचाई यही है कि आज भी कामकाजी महिलाओं को खुले दिल से स्वीकार नहीं किया जाता. लड़की और लड़के की नौकरी को एकसमान नहीं समझा जाता. ससुराल वाले बहू की कमाई पर नजर रखते हैं. कई परिवारों में बहू के सारे पैसे भी ले लिए जाते हैं और दूसरी ओर यह भी सुनाया जाता है कि बेटा अच्छाखासा कमा रहा है, तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है?

कई घर वाले बच्चों की जिम्मेदारी लेने से भी इनकार कर देते हैं, ‘इस उम्र में हम से बच्चे नहीं संभलते. बच्चों की जिम्मेदारी से बचने के लिए नौकरी करती है.’ समाज में यह कहने वाले भी मिल जाएंगे, ‘घर और बच्चों को छोड़ कर नौकरी करने की क्या जरूरत है भला? पति इतने अच्छे ओहदे पर है. घरमकान, बैंकबैलेंस है. सिर्फ अपने शौक के लिए घरपरिवार की तिलांजलि दे रही है.’

एक लड़की जब नौकरी कर रही होती है, उसे ढेर सारे दबाव के बीच काम करना होता है. ऐसे ही किसी कमजोर पल में वह नौकरी छोड़ने का मन बनाती है. लेकिन जौब छोड़ने का निर्णय कभी किसी तरह के दबाव में न लें. आप खुद से विचारें कि क्या जो महिलाएं काम कर रही हैं, वो घरपरिवार के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं? क्या वे अपने घर को अच्छे से मेंटेन नहीं कर पा रही हैं? यदि आप इस पर कुछ विचार करेंगी तो पाएंगी कि कई मामलों में कामकाजी महिलाएं बच्चों की परवरिश और पारिवारिक जिम्मेदारी घरेलू महिलाओं से बेहतर निभा रही होती हैं.

आप के आसपास और पहचान वालों में ऐसी कई कामकाजी महिलाएं मिल जाएंगी. आप उन्हें अपना रोल मौडल चुनें और बेफिक्र हो कर जौब करती रहें.

भविष्य की सोचें

एक झटके में नौकरी छोड़ने का फैसला भविष्य में भारी पड़ सकता है. इस मामले में कुछ बातों को नजरअंदाज करना चाहिए, जैसे घर के लोगों के ताने या बेरुखी, रोकटोक. कुछ बातों को मैनेज करना सीखें, बच्चों के लिए अतिरिक्त ट्यूटर रखें, घर के बड़ेबुजुर्गों को उन के हिसाब से खुश रखने की कोशिश करें ताकि बच्चों की देखभाल होती रहे.

जौब छोड़ने में जल्दीबाजी न करें. यह भी सोचें कि आप के जौब छोड़ने पर घर की आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ेगा. बच्चे जब छोटे होते हैं, उन की फीस और अन्य खर्चे कम होते हैं. जैसेजैसे वे बड़े होते जाते हैं, खर्च बढ़ता जाता है. सिर्फ एक सदस्य की आमदनी से घर की स्थिति डांवांडोल हो सकती है.

मीता एक प्रकाशन विभाग में काम करती थी. उस को कामकाजी होने के ताने ससुराल वाले देते थे. उस के बच्चों की कोई केयर नहीं करता. कई बार वे स्कूल से आ कर भूखे सो जाते. उस के दोनों बच्चे जब 8-10 साल के थे, उस ने जौब छोड़ दी. अब वे कालेज जाने लगे हैं. मीता अपने होनहार बेटों का दाखिला इंजीनियरिंग और मैडिकल में इसलिए नहीं करा सकी, क्योंकि उस के पास बच्चों की महंगी पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे. एक दिन उस के बेटों ने किसी बात पर उलाहना दे दी, ‘‘तुम्हें जौब छोड़ने की क्या जरूरत थी मां, तुम्हें हमारे भविष्य के बारे में भी सोचना चाहिए था.’’

अन्य विकल्पों पर विचार करें

जौब छोड़ना आप की समस्या का समाधान नहीं है. तत्काल आप को किसी परेशानी से छुटकारा मिलता नजर आएगा लेकिन बाद में कईकई समस्याएं सिर उठाने लगेंगी. जैसे हर परिस्थिति का सामना आप डट कर करती हैं, वैसे ही इस का सामना भी मजबूत हो कर करें. पूरी तरह नौकरी छोड़ने से बेहतर है आप उन औप्शंस पर ध्यान दें जिन्हें आप वर्तमान नौकरी छोड़ने के बाद कर सकती हैं.

पूजा शर्मा पटना में बुटीक चलाती हैं. उन की बुटीक की शहर में एक पहचान है. लेकिन 10 साल पहले वे शिक्षिका थीं. पति और ससुराल वाले चाहते थे कि वे घर पर रहें. उन की 3 बेटियां हैं. अभी तीनों बेंगलुरु में पढ़ रही हैं. जब वे छोटी थीं, उन्हीं के स्कूल में वे शिक्षिका थीं.

बेटियों के हिसाब से शेड्यूल तय था. जब वे बड़ी हो गईं, घर में ही पूजा ने अपना बुटीक खोल लिया. शादी के पहले उन की इस में रुचि थी. वे कहती हैं, ‘‘अगर दबाव में आ कर नौकरी छोड़ देती तो शायद ही मैं बुटीक खोल पाती. हो सकता है मैं अपना आत्मविश्वास खो देती. समय बदल गया. अब घर के लोग भी खुश हैं. मुझे भी खुद पर गर्व होता है कि मैं ने कई लोगों को रोजगार दिया है.’’

आत्मनिर्भरता पर गर्व करें

अपने आत्मनिर्भर होने पर पूजा शर्मा की तरह गर्व करें. अपना नजरिया बदलें. यह जरूरी नहीं कि आप बिजनैस वुमन बन कर ही किसी को रोजगार दे सकती हैं, यदि आप एक अदद नौकरी करती हैं, फिर भी कई लोगों को टुकड़ोंटुकड़ों में आत्मनिर्भर बना सकती हैं. घरेलू महिलाएं आमतौर पर बाई रखती हैं लेकिन ज्यादातर कामकाजी महिलाएं बाई के अतिरिक्त बच्चों की देखभाल और खाना बनाने वाली मेड भी रखती हैं. खुद को और घर को मेंटेन करने के लिए धोबी रखना या कपड़ा आयरन करवाना उन की मजबूरी होती है. कामकाजी होने के कारण वे स्वयं सारे खर्च वहन करती हैं. इस पर किसी की ज्यादा बंदिश नहीं होती. आप तभी ऐसा कर सकती हैं जब तक आप जौब में हैं, आत्मनिर्भर हैं. आप कभी इस तरह सोच कर देखिए, दिल को तसल्ली मिलेगी.

सम्मान से समझौता क्यों

जौब कोई भी हो, लोगों की नजर में आप के लिए सम्मान होता है. यदि आप शिक्षिका हैं तो हजारों विद्यार्थी और उन के गार्जियन आप को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं. पत्रकार हैं तो समाज के हर तबके में आप का रुतबा होता है. बड़ेबड़े पदाधिकारी भी आप का सम्मान करते हैं. लेखिका हैं तो लोग आप की बातों को वजन देते हैं. इसी तरह वकील, कलाकार, डाक्टर, बैंककर्मी आदि जितने भी पेशे हैं, सब आप को सम्मान दिलाते हैं.

सागरिका को पत्रकारिता से जुड़े 6 महीने ही हुए हैं. वह गर्व से कहती हैं, ‘मुझे कोई मैडम बुलाता है तो बहुत खुशी होती है. लगता है मेरा कोई अपना वजूद है.’ गांठ बांध लीजिए, यह सम्मान आप को आप का काम दिलाता है. नौकरी छोड़ने का मतलब है, आप को अपने सम्मान से समझौता करना होगा. लोग आप की काबिलीयत का सम्मान करते हैं. नौकरी छोड़ने के साथ आप का रुतबा और सम्मान जाता रहेगा.

कामना सिन्हा एक मल्टीनैशनल कंपनी में मार्केटिंग हेड थी. उस ने अंतरजातीय विवाह किया. शुरू के 3-4 साल ठीक रहे. पतिपत्नी की पोस्टिंग अलगअलग जगह पर होती है, वे एडजस्ट कर लेते. बेटी होने के बाद कामिनी ने नौकरी छोड़ने का फैसला लिया. अब बेटी 8 साल की है. पति के साथ कैरियर शुरू करने वाली कामिनी अब हाउसवाइफ है और पति कैरियर में बहुत ऊंची छलांग लगा चुका है. कामिनी मानती है, ‘वैसे तो मुझे कोई मलाल नहीं लेकिन कभीकभी लगता है मेरा सम्मान कहीं खो गया है.’

याद करें अपना संघर्ष

यदि आप जौब छोड़ने का मन बना रही हैं तो उस संघर्ष को याद कीजिए जिस के कारण आप की रातों की नींद उड़ी थी, दिन का चैन खोया था. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होती है. सारा फोकस पढ़ाई पर होता है. आंखें मींचमींच कर पढ़ना पड़ता है. जब लोग रातों को चैन की नींद सो रहे होते हैं या पार्टी एंजौय कर रहे होते हैं तब अपने विषय के सवालों से घिरी आप जवाब ढूंढ़ रही होती हैं. जौब सिर्फ पढ़ाई से नहीं मिलती है और भी परेशानी साथसाथ चलती है. संघर्ष कई स्तरों पर हो सकता है.

मध्यवर्गीय परिवारों में आज भी रूढि़वादिता है. कुछ लोग बेटियों को अच्छी शिक्षा दिलवाते हैं लेकिन उसे जौब नहीं करने देते. ऐसे में जौब की परमीशन लेने में लड़कियों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, वह उन्हें ही पता होता है.

स्वाति एमबीए फाइनल ईयर में थी, तभी उस का कैंपस सेलैक्शन हो गया. यह खुशखबरी ले कर वह घर पहुंची लेकिन कोई ज्यादा खुश नहीं हुआ. पापा ने नौकरी के लिए सीधेसीधे मना कर दिया. उन का मानना था कि अच्छी पढ़ाई अच्छे घर में शादी की गारंटी है. स्वाति अड़ गई.

कालेज के टीचरों ने आ कर उस के पापा को कई स्तरों पर समझाया तब उन्होंने हां की. लेकिन शादी के 2 साल बाद ही स्वाति ने जौब छोड़ दी. वही परंपरावादी कारण, ससुराल वालों के ताने, हमारे पास इतना बैंकबैलेंस है, फिर बहू को काम करने की क्या जरूरत है? जौब छोड़ने के पहले स्वाति ने स्वयं यह नहीं सोचा कि कितनी बाधाएं पार कर उस ने उसे पाया था.

लड़कियों को जौब में जाने से पहले कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है. कभीकभी ऐसा होता है कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती. एकएक पैसे का किसी तरह जुगाड़ कर पढ़ाई पूरी होती है. कभी भाइयों की तुलना में खुद को साबित करना पड़ता है. और भी कितनी तरह के संघर्ष करने पड़ते हैं.

उन का संघर्ष सिर्फ पारिवारिक स्तर पर नहीं होता, जौब शुरू करने के बाद औफिस में भी उन्हें खुद को बेहतर प्रेजैंट करने के लिए कड़ी मेहनत और संघर्ष करना पड़ता है. आश्चर्य है कि नौकरी छोड़ते वक्त इन बातों पर वे गौर नहीं करतीं. यदि वे अपना संघर्ष याद करेंगी तो निश्चितरूप से जौब नहीं छोड़ेंगी.

सब को समझाएं

पहले खुद समझें कि नौकरी छोड़ना न तो आप के हित में है न परिवार के. उस के बाद उन्हें समझाएं जो आप पर जौब छोड़ने के लिए दबाव डाल रहे हैं. आप उन्हें समझाएं कि घर की जिम्मेदारी से भागने के लिए आप जौब नहीं कर रहीं बल्कि आप अपनी जिम्मेदारी और अच्छे से निभा सकें, इसलिए जौब कर रही हैं. घर की आर्थिक मजबूती और बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए नौकरी करना बहुत जरूरी है. इस महंगाई के जमाने में एक आदमी की आमदनी से आगे कई तरह की परेशानियां सिर उठाएंगी.

आज हमारा लाइफस्टाइल बदल चुका है. रहनसहन का स्तर ऊंचा उठ चुका है. आज की पीढ़ी यानी हमारे बच्चे गुजारा करने या समझौता करने के मूड में कतई नहीं हैं, इसलिए जौब करना बेहद जरूरी है. यह भविष्य को सुरक्षित करता है. नौकरी छोड़ने से परिवार में कई मुश्किलें आएंगी. अपनी बात समझाने के लिए उन महिलाओं का जिक्र अवश्य करें जिन के जौब छोड़ने से परिवार में आर्थिक संकट उत्पन्न हुए और कई तरह की परेशानियां आईं.

नौकरी छोड़ना विकल्प नहीं

मधु कौल सैंटर में काम करती थी. ससुराल वालों की नजर में यह अच्छा जौब नहीं था. वे मधु पर नौकरी छोड़ने का दबाव डालने लगे. किसी तरह ढाईतीन साल उस ने नौकरी की. आखिरकार बेटे के जन्म के बाद उसे जौब छोड़नी पड़ी. बाद में उस की 2 बेटियां हुईं. प्राइवेट नौकरी करने वाला पति एक हादसे का शिकार हो गया.

मधु पूरी तरह टूट गई. उसे काम छोड़े 8 साल हो गए थे. कौल सैंटरों में फ्रैशरों की डिमांड थी. अन्य नौकरी के लिए उस के पास कोई ऐक्सपीरियंस नहीं था. उस के साथ कौल सैंटर में काम शुरू करने वाली लड़कियां आज कैरियर के अच्छे मुकाम पर थीं और वह एक मामूली जौब के लिए एडि़यां घिस रही है.

मधु ने अपनी जौब नहीं छोड़ी होती तो आज उसे ये दिन नहीं देखने पड़ते, बच्चे दानेदाने को मुहताज नहीं होते. दयनीय स्थिति से गुजरती मधु उस घड़ी को कोसती है जब उस ने जौब छोड़ने का निर्णय लिया था. उसे अब लगता है, नौकरी छोड़ना विकल्प नहीं था.

आत्मनिर्भर होना आप का गौरव है, आप का आत्मसम्मान है, आप का सुरक्षित भविष्य है. लगीलगाई नौकरी छोड़ना किसी एंगल से बुद्धिमानी का कार्य नहीं है. ऐसा करने से किसी समस्या का समाधान नहीं होगा.

इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि आप के जौब छोड़ने से परेशानी समाप्त हो जाएगी. समस्याएं नए सिरे से सिर उठाने लगती हैं और उस समय आप के पास अपनी जौब का संबल भी नहीं होता. जिंदगी कठिन होती जाती है. इसलिए खुद भी जौब न छोड़ने का निर्णय लें और दूसरों को जौब में रहने के फायदे और छोड़ने के नुकसान समझाएं.

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