Social Issue: पति ने की दूसरी शादी, तो पहली पत्नी ने मचाया तांडव

Social Issue: बिहार पुलिस के एक जवान ने दूसरी शादी की, तो उस की पहली पत्नी ने जबरदस्त हंगामा किया… दरअसल, यह मामला बिहार के एक जिले से सामने आया है, जहां पुलिस जवान ने बिना अपनी पहली पत्नी को बताए और बिना तलाक दिए दूसरी शादी कर ली.

पहली पत्नी को जब इस बारे में पता चला, तो उस ने गुस्से में आ कर जम कर हंगामा किया और पुलिस जवान पर कई आरोप लगाए… महिला ने पुलिस जवान के खिलाफ शिकायत भी दर्ज कराई.. इस के बाद मामला इलाके में चर्चा की बात बन गया और लोग इसे ले कर सोशल मीडिया पर भी कमैंट करने लगे.

जानिए पूरा मामला

भागलपुर में एक सिपाही ने पहली बीवी को छोड़ कर दूसरी औरत से शादी रचा ली, जिस को ले कर पहली बीवी ने जम कर तांडव किया.

इन दिनों देखा जा रहा है कि 2 शादी करना ट्रैंड सा हो गया है. और तो और अब इस में पुलिस के जवान भी शामिल हो गए हैं. यह मामला भी खूब तूल पकड़ रहा है. यह मामला शिवनारायणपुर के बिहार पुलिस जवान मोहम्मद वहाब अंसारी का है. वह बिना तलाक दिए ही दूसरी शादी कर के नई बीवी घर ले आया, तो हंगामा मच गया, क्योंकि जब इस की खबर पहली पत्नी अजमीरा खातून को मिली और उस ने जम कर तांडव किया.

पहली बीवी अपने परिवार वालों के साथ मोहम्मद वहाब अंसारी के घर पर पहुंची और हंगामा शुरू हो गया. इस मामले में जब आरोपी सिपाही से पूछा गया कि आप ने अपनी पहली बीवी को तलाक दिया है या नहीं, तो उस ने कहा कि नहीं मैं ने तलाक नहीं दिया है.

तब आप क्या कानून को नहीं मानते हैं, तो उस ने कहा कि यह हमारी गलती है, हम गलती स्वीकार करते हैं.

बताते चलें कि कुछ दिन पहले ही मोहम्मद वहाब अंसारी पर ऐसा आरोप है कि कुछ दिन पहले ही अजमीरा खातून को घर से बेघर कर दिया है. उन को बिहार पुलिस के जवान मोहम्मद वहाब से एक बच्चा भी है. पहली बीवी ने पति पर मारपीट का भी आरोप लगाया है. कहा कि वे दहेज की भी मांग करते हैं, जबकि जवान मोहम्मद वहाब ने पहली बीवी से लव मैरिज की थी.. और दूसरी बीवी से भी लव मैरिज की है… तो ऐसे बिहार पुलिस जवान को कब तक सजा मिलेगी, यह देखने वाली बात है.

लेकिन इस घटना ने यह सवाल उठाया कि समाज में ऐसे मामलों के प्रति सोच और संवेदनशीलता क्या होनी चाहिए, खासकर जब बात पारिवारिक और कानूनी अधिकारों की होती है? यह घटना एक गंभीर और दिलचस्प मामला है, जो समाज में बढ़ते हुए तलाक और दूसरी शादी के मामलों को ले कर कई सवाल खड़े करता है. कानूनी रूप से देखा जाए तो एक पति को बिना अपनी पहली पत्नी को तलाक दिए दूसरी शादी करना भारतीय दंड संहिता और मुसलिम पर्सनल ला के तहत गलत है.

इस तरह की घटनाओं से समाज में दोहरी शादी को ले कर और भी विचार-विमर्श बढ़ेगा… खासकर पुलिस जैसे संवेदनशील विभाग में काम करने वाले लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे कानून और नैतिकता का पालन करें, ताकि समाज में एक पौजिटिव संदेश जाए.

आज भी कायम है छुआछूत

हाल ही में 3 अक्तूबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जाति पर आधारित भेदभाव रोकने के लिए दायर जनहित याचिका पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जेल नियमावली जाति के आधार पर कामों का बंटवारा कर के सीधे भेदभाव करती है. सफाई का काम सिर्फ निचली जाति के कैदियों को देना और खाना बनाने का काम ऊंची जाति वालों को देना आर्टिकल 15 का उल्लंघन है.

सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जेल मैन्युअल के उन प्रावधानों को बदलने का निर्देश दिया है, जो जेलों में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यह तो साफतौर पर जाहिर करता है कि आजादी के 77 साल बाद भी छुआछूत समाज में ही नहीं, बल्कि सरकारी सिस्टम पर भी बुरी तरह हावी है.

जेलों के अंदर जातिगत भेदभाव आम बात है. जेल में कैदियों की जाति के आधार पर उन्हें काम सौंपा जाता है, जहां दलितों को अकसर साफसफाई जैसे काम करने के लिए मजबूर किया जाता है.

समाज में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है. आएदिन देश के अलगअलग इलाकों में दलितों से छुआछूत रखने और उन पर जोरजुल्म करने की घटनाएं होती रहती हैं.

आज भी गांवकसबों के सामाजिक ढांचे में ऊंची जाति के दबंगों के रसूख और गुंडागर्दी के चलते दलित और पिछड़े तबके के लोग जिल्लतभरी जिंदगी जी रहे हैं.

गांवों में होने वाली शादी में दलितों व पिछडे़ तबके को खुले मैदान में बैठ कर खाना खिलाया जाता है और खाने के बाद अपनी पत्तलें उन्हें खुद उठा कर फेंकनी पड़ती हैं.

टीचर मानकलाल अहिरवार बताते हैं कि गांवों में मजदूरी का काम दलित और कम पढ़ेलिखे पिछड़ों को करना पड़ता है. दबंग परिवार के लोग अपने घर के दीगर कामों के अलावा अनाज बोने से ले कर फसल काटने तक के सारे काम करवाते हैं और बाकी मौकों पर छुआछूत रखते हैं. छुआछूत बनाए रखने में पंडेपुजारी धर्म का डर दिखाते हैं.

25 साल की होनहार लड़की काव्या यों तो गांव में पलीबढ़ी, पर अपनी पढ़ाई के बलबूते वह बैंक में क्लर्क सिलैक्ट हो गई और उस की पोस्टिंग इंदौर में हो गई.

इंदौर में नौकरी करते वह अपने साथ बैंक में काम करने वाले हमउम्र लड़के की तरफ आकर्षित हुई. वह लड़का भी उसे चाहता था.

काव्या ने घर में बिना बताए उस लड़के से शादी कर ली. वह जानती थी कि उस के मातापिता शादी करने की इजाजत हरगिज नहीं देंगे, क्योंकि वह लड़का दलित जाति का था.

देरसवेर इस बात की जानकारी गांव में रहने वाले मातापिता को लग ही गई. इस बात को ले कर वे काफी आगबबूला हो गए और इंदौर पहुंच कर तुरंत ही काव्या को गांव ले आए.

घर में काव्या को दलित लड़के से शादी करने की बात को ले कर इतना टौर्चर किया गया कि उस ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली.

साल 2024 के मार्च महीने में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले से आई इस खबर ने साबित कर दिया है कि समाज में छुआछूत आज भी बदस्तूर जारी है. किस तरह पढ़ेलिखे गांव के मातापिता ने अपने ?ाठे मानसम्मान के लिए अपनी बेटी की खुशियां ही छीन लीं.

गांवकसबों और छोटे शहरों में आज भी लड़की को यह हक नहीं है कि वह अपनी मरजी और पसंद के लड़के से शादी कर सके. दूसरी जाति और धर्म में शादी करने पर परिवार और समाज के बहिष्कार का सामना करना पड़ता है और कई बार तो जान से हाथ भी धोना पड़ता है.

गांवकसबों में छुआछूत का आलम यह है कि दलितों के महल्ले, बसावट अलग हैं. इन के पानी पीने के नल और मंदिर तक अलग हैं. भूल से भी इन्हें ऊंची जाति के लोगों के नल को छूने और उन के मंदिर में घुसने की इजाजत नहीं है.

अपने चुनावी फायदे के लिए केंद्र और राज्य सरकारें दलितों को साधने के लिए भले ही करोड़ों रुपए खर्च कर संत रविदास का मंदिर बनवा रहे हों, लेकिन देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी दलितों को छुआछूत का सामना करना पड़ रहा है.

मध्य प्रदेश सरकार गांवकसबों में छुआछूत मिटाने के लिए भले ही ‘स्नेह यात्राएं’ निकाले, गांधी जयंती पर ‘समरसता’ भोज कराए, मगर गरीब और दलितों के लिए सामाजिक समरसता का सपना अभी भी अधूरा है, क्योंकि तमाम कोशिशों के बाद भी आज लोग अपनी छोटी सोच से बाहर नहीं आ पाए हैं.

छुआछूत का एक मामला मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में दलित औरतों के साथ सरकारी नल पर पानी भरने को ले कर पिछले साल सामने आया था.

17 अगस्त, 2023 को छतरपुर जिले के गांव पहरा के गौरिहार थाना क्षेत्र के पहरा चौकी की रहने वाली 2 औरतें गांव में पानी की कमी के चलते एक सरकारी नल पर पानी भरने गई हुई थीं.

यह नल गांव के यादव परिवार के घर के सामने लगा हुआ था. जैसे ही इन उन औरतों ने पानी भरने के लिए बरतन हैंडपंप के नीचे रखा और नल चलाना शुरू किया, तभी वहां मंगल यादव, दंगल यादव और देशराज यादव आ गए और उन के बरतन फेंकते हुए कहा, ‘तुम दलित जाति की हो, तुम ने हमारे इलाके के इस नल को कैसे छुआ? तुम्हारे छूने से नल अशुद्ध हो गया.’

सरकारी नल पर पानी भरने गई दलित औरतों संदीपा और अभिलाषा ने जब उन से मिन्नतें करते हुए कहा, ‘हमारे घर में पानी नहीं है. पानी के बिना खाना भी नहीं बना है, बच्चे भूख से बेचैन हैं.’

इस बात पर हमदर्दी दिखाने के बजाय इन दबंगों ने मारपीट शुरू कर दी. अपने साथ हुई मारपीट की शिकायत करने पुलिस थाना पहुंची इन दोनों औरतों को पुलिस ने भी दुत्कार दिया.

छुआछूत से जुड़ी यह कोई अकेली घटना नहीं है. मध्य प्रदेश के अलगअलग इलाकों में इस तरह की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं. कभी स्कूलों में दलित बच्चों के जूठे बरतन धोने से मना किया जाता है, तो कभी उन्हें धर्मस्थलों पर घुसने नहीं दिया जाता.

छुआछूत से जूझते हैं लोग

60 साल की उम्र पार कर चले लोगों की पीढ़ी ने छुआछूत का जो रूप समाज में देखा था, उसे उन्होंने उस समय के हालात के लिहाज से सहज तरीके से अपना लिया था, मगर मौजूदा दौर की नौजवान पीढ़ी को यह नागवार गुजरता है.

72 वसंत देख चुके डोभी गांव के सालक राम अहिरवार बताते हैं कि आजादी मिलने के बाद देश से अंगरेज भले ही चले गए थे, मगर गांव में रहने वाले ऊंची जाति के जमींदारों का जुल्म कम नहीं हुआ था. दलित तबके का कोई भी इन जमींदारों की हवेली के सामने से गुजरता था, तो अपने पैर के जूतों को सिर पर रख कर निकलता था.

दलितों के बेटों को शादी में घोड़ी पर चढ़ने की मनाही थी. गांव के ऊंची जाति के लोग उन्हें शादीब्याह में बुलाते तो थे, मगर भोजन उन्हें जमीन पर बैठ कर करना होता था और अपनी पत्तल खुद ही फेंकनी पड़ती थी. पीने के लिए घर से पानी भर कर ले जाना पड़ता था.

उस दौर की पीढ़ी को यह बुरा भी नहीं लगता था. वक्त बदलने के साथ जब आज की नौजवान पीढ़ी पढ़लिख कर  पुराने रिवाजों को नहीं मानती, तो टकराव के हालात बनते हैं और दलितों को जोरजुल्म का सामना करना पड़ता है.

मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में हर साल दलितों के घुड़चढ़ी करने और बरात में डीजे बजाने पर ?ागड़ा होता है.

पढ़ीलिखी नई पीढ़ी इन दकियानूसी रिवाजों को नहीं मानती. गांवकसबों में आज शादियों में बफे सिस्टम तो लागू हो गया है, मगर दलित समुदाय के लिए अलग काउंटर बनाए जाते हैं, उन्हें ऊंची जाति के लोगों के साथ दावत करने की आजादी आज भी नहीं है.

ऐसा नहीं है कि दलितों से छुआछूत बिना पढ़ेलिखे लोगों या गांवकसबों तक सीमित है, बल्कि पढ़ेलिखे लोग भी इसे बदस्तूर अपना रहे हैं.

2 साल पहले मध्य प्रदेश के एक मंत्री, जो दलित समुदाय से आते थे, भी ऊंची जाति के लोगों से छुआछूत के शिकार हुए थे.

दरअसल, वे मंत्री ठाकुरों के परिवार में मातमपुरसी के लिए गए थे. वहां और भी ऊंची जाति के नेता मौजूद थे. जब खानेपीने की बारी आई, तो ऊंची जाति के दूसरे लोगों को स्टील की थाली में खाना परोसा गया और दलित समुदाय से आने वाले मंत्री को डिस्पोजल थाली परोसी गई थी.

समाज में छुआछूत के लिए धर्म और मनुवादी व्यवस्था भी जिम्मेदार है. मनुवादियों ने अपने फायदे के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की. ब्राह्मणों ने अपने को श्रेष्ठ साबित कर समाज को 4 वर्णों में बांटा और शूद्रों को उन के मौलिक अधिकारों से दूर रखा. उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं दिया गया. इस के पीछे की वजह भी यही थी कि ये लोग पढ़लिख कर काबिल न बन सकें. यही वजह रही कि दलितों ने धर्म परिवर्तन का रास्ता अपनाया.

स्कूलकालेज भी नहीं अछूते

राष्ट्र निर्माण की शिक्षा देने वाले सरकारी संस्थान भी छुआछूत को खत्म नहीं कर पा रहे हैं. ‘ऐजूकेशन मौल’ कहे जाने वाले इंगलिश मीडियम प्राइवेट स्कूलों में सरकारी अफसरों और ऊंची जाति के पैसे वाले लोगों के बच्चे पढ़ रहे हैं और सरकारी स्कूलों में गरीब, मजदूर, दलितपिछड़े तबके के बच्चे पढ़ रहे हैं.

सरकारी स्कूलों में दिए जाने वाले मिड डे मील में भी दलित और ऊंची जाति के छात्रछात्राओं के बीच गुटबाजी देखने को मिलती है.

स्कूल में ऊंची जाति के बच्चे दलित और पिछड़ी जाति के बच्चों के साथ भोजन करना पसंद नहीं करते. उन्हें यह सीख अपने घर से तो मिलती ही है, टीचर भी इस खाई को नहीं पाट रहे.

अगर कोई दलित जाति की महिला भोजन बना कर परोसती है, तब भी ऊंची जाति के बच्चे वह भोजन नहीं करते. अगर कोई ऊंची जाति की रसोइया खाना बनाती है, तो वह दलित बच्चों के जूठे बरतन नहीं धोती.

साल 2022 में मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले से 50 किलोमीटर दूर चरगवां थाना क्षेत्र से सटे गांव सूखा में दलित बच्चों से सरकारी स्कूल में खाने के बरतन धुलवाए जाने का मामला सामने आया था.

इसी साल गुजरात के मोरबी जिले के एक गांव में प्राइमरी स्कूल में मिड डे मील का खाना पिछड़े समुदाय के छात्रों ने इसलिए नहीं खाया, क्योंकि यह दलित औरत द्वारा बनाया गया था

मिड डे मील बनाने वाली दलित महिला गरमी की छुट्टियों के बाद जब स्कूल पहुंची, तो प्रिंसिपल ने 100 बच्चों के लिए खाना बनाने के लिए कहा, लेकिन एससी जाति के केवल 7 बच्चे ही भोजन के लिए पहुंचे. दूसरे दिन प्रिंसिपल ने 50 बच्चों के लिए खाना बनाने को कहा, जिसे सिर्फ दलित बच्चों ने ही खाया.

साल 2023 में कर्नाटक के तुमकुरु जिले से बेहद ही हैरान कर देने वाला मामला सामने आया था. सिरा तालुका के नरगोंडानहल्ली सरकारी स्कूल में कुछ बच्चों ने मिड डे मील के भोजन का बहिष्कार कर दिया था, जिस की वजह भी एक दलित महिला द्वारा भोजन पकाया जाना थी.

छुआछूत की समस्या स्कूलों में नासमझ बच्चों के बीच ही नहीं, बल्कि भविष्य गढ़ने वाले टीचरों के बीच भी है. लंच टाइम में ऊंची जाति के टीचर भी दलित जाति के टीचरों के साथ लंच बौक्स शेयर करना पसंद नहीं करते. स्कूल के अलावा दूसरे दफ्तरों में भी उन के साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है.

दलित जाति के चपरासी से दफ्तरों में झाड़ू लगाने और शौचालय साफ करने का काम करवाया जाता है, मगर उन के हाथ से खानेपीने की चीज और पानी नहीं मंगाया जाता.

जातियों में बंट गए देवीदेवता

जिस तरह समाज जातियों में बंटा हुआ है, उसी तरह उन्होंने देवीदेवता को भी बांट लिया है. पंडितों ने परशुराम को, कायस्थों ने चित्रगुप्त को, तो यादवों ने कृष्ण को ले लिया. कुशवाहा ने कुश से संबंध जोड़ लिया, कुर्मियों ने लव को पकड़ लिया, तो कहारों ने जरासंध को अपना पूर्वज बता दिया. लोहारों ने विश्वकर्मा के साथ संबंध जोड़ लिया.

दलितों की एक जाति ने वाल्मीकि से अपना नाता जोड़ा, तो एक तबका रैदास को भगवान मानने लगा. कुम्हारों ने अपना संबंध ब्रह्मा से बता दिया. तमाम जातियों को कोई न कोई देवता या कुलदेवता या ऋषि पूर्वज के तौर पर मिल गए.

ऊंची जाति के लोगों से हुई बेइज्जती से छुटकारा पाने का ये इन जातियों का अपना तरीका था. शूद्र और अतिशूद्र होने की बेइज्जती से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने देवीदेवताओं का ढाल बना लिया. यह जाति व्यवस्था से विद्रोह भी था और ऊंची जातियों की तरह बनने की लालसा भी थी.

अमीर ऊंची जाति वालों की होड़ में दलितों ने भी अपनेअपने देवीदेवताओं के मंदिर बना लिए, मगर पुजारी की कुरसी उन की जेब ढीली करने वाले पंडितों के हाथ में ही रही.

‘गुलामगिरी’ किताब से सबक लें सरकार हिंदूमुसलिम का भेद करा कर कट्टरवादी हिंदुत्व की हिमायती तो बनती है, पर हिंदुओं के बीच ही जातिवाद की दीवार तोड़ने और दलितपिछड़े तबके के लोगों पर दबंग हिंदुओं के द्वारा किए जाने वाले जोरजुल्म पर चुप्पी साधे रहती है.

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के पेशे से वकील मनीष अहिरवार कहते हैं कि एक इनसान का दूसरे इनसान के साथ गुलामों सरीखा बरताव करना सभ्यता के सब से शर्मनाक अध्यायों में से एक है. लेकिन अफसोस है कि यह शर्मनाक अध्याय दुनियाभर की तकरीबन सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है. भारत में जाति प्रथा के चलते पैदा हुआ भेदभाव आज तक बना हुआ है.

वे आगे कहते हैं कि एक बार ज्योतिबा फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ पढ़ लें, तो उन की आंखों के चश्मे पर पड़ी धूल साफ हो जाएगी. साल 1873 में लिखी गई इस किताब का मकसद दलितपिछड़ों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण तबके की उच्चता के ?ाठे दंभ से परिचित कराना था.

इस किताब के जरीए ज्योतिबा फुले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकल कर इज्जत से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस माने में यह किताब काफी खास है कि यहां इनसानों में भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कठघरे में खड़ा किया गया है.

दलितपिछड़ों की हमदर्द बनने का ढोंग करने वाली सरकारें पीडि़त लोगों को केवल मुआवजे का झनझना हाथों में थमा देती हैं. सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से दलितों का उत्पीड़न कर बाद में केवल मुआवजा दे कर उन के जख्म नहीं भर सकते. ऐसे में किस तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि आजादी के

77 साल बाद भी अंबेडकर के संविधान की दुहाई देने वाला भारत छुआछूत से मुक्त हो पाएगा?

जिस तरह किसान आंदोलन ने सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर के सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था, उसी तरह दलितपिछड़ों को भी अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट होना होगा.

प्यार में खुद को न मिटाएं

असम के होम ऐंड पौलिटिकल सैक्रेटरी शिलादित्य चेतिया ने 18 जून, 2024 को गुवाहाटी के एक प्राइवेट हौस्पिटल के आईसीयू में पत्नी की लाश के सामने ही अपनी सर्विस रिवौल्वर से खुद को गोली मार ली. पत्नी की मौत के कुछ मिनटों बाद ही उन्होंने अपनी जान दे दी.

उसी अस्पताल में कुछ देर पहले उन की पत्नी की मौत कैंसर से हो गई थी. 44 साल के शिलादित्य चेतिया राष्ट्रपति के वीरता पदक से सम्मानित आईपीएस अधिकारी थे.

दरअसल, शिलादित्य चेतिया की पत्नी ब्रेन ट्यूमर से पीडि़त थीं और पिछले कुछ महीनों से अस्पताल में भरती थीं. शिलादित्य चेतिया पिछले 4 महीनों से छुट्टी ले कर अपनी पत्नी का इलाज करा रहे थे.

शिलादित्य की पत्नी अगमोनी बोरबरुआ की उम्र 40 साल थी. नेमकेयर अस्पताल में शाम के 4 बज कर 25 मिनट पर उन की मौत हो गई.

10 मिनट बाद ही आईपीएस अधिकारी शिलादित्य चेतिया ने भी दुनिया छोड़ दी.

पत्नी की मौत के बाद पहले वे आईसीयू केबिन में गए और मैडिकल स्टाफ से कहा कि वे अपनी पत्नी की लाश के पास प्रार्थना करना चाहते हैं, इसलिए उन्हें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दिया जाए. इस के बाद उन्होंने अपनी सर्विस रिवौल्वर से अपनी ही जान दे दी.

इसी तरह 18 जून, 2024 को ही उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में एक शादीशुदा जोड़े ने भी साथ जीनेमरने का वादा निभाया. पत्नी की मौत के कुछ घंटे बाद ही बुजुर्ग पति ने भी दम तोड़ दिया.

दरअसल, 70 साल की पार्वती प्रजापति और 75 साल के मगन प्रजापति की शादी 50 साल पहले हुई थी. पिछले कुछ समय से पार्वती काफी बीमार चल रही थीं.

17 जून, 2024 की रात को उन की मौत हो गई.

18 जून की सुबह जब पति मगन प्रजापति चाय ले कर उन के पास पहुंचे, तो देखा कि वे बिस्तर पर मरी हुई पड़ी थीं. उन की मौत से पति मगन सदमे में आ गए.

रिवाज के मुताबिक, जब पति मगन आखिरी बार उन की मांग में सिंदूर भरने लगे तो अचानक से उन की भी हालत खराब हो गई और कुछ ही देर में उन्होंने भी दम तोड़ दिया. इस के बाद पतिपत्नी का एकसाथ अंतिम संस्कार किया गया.

इसी तरह 9 अप्रैल, 2024 को उत्तर प्रदेश के एटा से एक सच्चे प्यार का मामला सामने आया था. बीमार पति की इलाज के दौरान मौत हो गई.

यह सूचना जैसे ही पत्नी को मिली कि उस का पति इस दुनिया में नहीं रहा, तो वह रोने लगी. फिर अचानक ही उस की भी मौत हो गई. पत्नी की मौत के साथ ही 2 बच्चे अनाथ हो गए.

यह मामला कोतवाली अलीगंज का है. 50 साल के ओम नारायण उर्फ राजू की कुछ दिन पहले तबीयत खराब हो गई थी, जिन का इलाज चल रहा था. वे सही हो गए थे. पर फिर ओम नारायण की अचानक फिर से तबीयत बिगड़ गई थी. वे फर्रुखाबाद के एक प्राइवेट अस्पताल में इलाज के लिए ले जाए गए, जहां उन की मौत हो गई.

जब इस बात की सूचना उन की पत्नी मोहिनी को हुई, तो वह रोने लगीं. जैसे ही पति की लाश घर पर आई, तो वे और तेज रोने लगीं.

तभी अचानक मोहिनी की भी तबीयत खराब हो गई. जब तक परिवार वाले उन्हें संभाल पाते, तब तक उन की भी मौत हो गई. दोनों का अंतिम संस्कार एक ही चिता पर हुआ.

इन घटनाओं के बारे में जान कर दिल को यह अहसास जरूर होता है कि आज भी प्यार जिंदा है. किसी को इस हद तक चाहना कि उस के बगैर जीने की चाह ही खत्म हो जाए और इनसान खुद ही अपना वजूद खत्म कर दे, बहुत मुश्किल है. पर ऐसी कहानियां हम अकसर फिल्मों में जरूर देखते हैं.

प्यार क्या है

प्यार क्या है? किसी को पाना या खुद को खो देना? यह एक बंधन या फिर आजादी? यह जिंदगी है या फिर जहर?

दरअसल, प्यार का मतलब है कि कोई और आप से कहीं ज्यादा खास हो चुका है. जैसे ही आप किसी से कहते हैं कि मैं तुम से प्यार करता हूं, आप अपनी आजादी खो देते हैं. आप की मरजी में अब उस की मरजी भी शामिल हो जाती है. आप के पास जो भी है, वह उस का भी हो जाता है. आप की खुशी उस की खुशी में शामिल हो जाती है. उस के गम आप अपने दिल में महसूस करने लगते हैं. जिंदगी में आप जो भी करना चाहते हैं, वह उस के साथ मिल कर करने की ख्वाहिश रखने लगते हैं. उस के बिना आप को अपना वजूद ही अधूरा लगने लगता है यानी प्यार बड़ी खूबसूरती से खुद को मिटा देने वाली हालत है.

अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्यार को जान ही नहीं पाएंगे. आप के अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए. आप के अंदर का वह हिस्सा जो अभी तक आप का था, वह मिट कर उस का हो जाता है. कोई और इनसान उस हिस्से की जगह ले लेता है.

दरअसल, जब हमें किसी से प्यार होता है, तो हमारे दिमाग में एक रासायनिक मिश्रण निकलता है, जो हमारी हरकतों और भावनाओं को प्रभावित करता है. डोपामाइन जैसे हार्मोन की वजह से उत्तेजना और खुशी महसूस होती है, जबकि औक्सीटोसिन जैसे हार्मोन से हमें अपने प्यार में विश्वास और भावनाएं आती हैं.

ये हार्मोन हमें अंदर से खुश रखते हैं, जिस वजह से हम अपने पार्टनर के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहते हैं. हमारे दिमाग को सम?ा आ जाता है कि इस रिश्ते में हमें खुशी मिलती है और उस वजह से हम एक तरह से इस फीलिंग के आदी यानी एडिक्ट से हो जाते हैं. प्यार एक तरह का नशा ही है, जिस के बिना हमें अपना वजूद अधूरा लगने लगता है.

इस तरह का सच्चा प्यार आजकल ज्यादातर रिश्तों में नजर नहीं आता है. जराजरा सी बात पर पार्टनर पर हाथ उठा देना, ?ागड़े करना, दूर हो जाना, बात नहीं करना और यहां तक की तलाक ले लेना बहुत आम हो गया है.

वैसे भी आज के समय में नाजायज रिश्ते बनाने मुश्किल नहीं. मोबाइल और इंटरनैट के जरीए दूसरों के संपर्क में आने के बहुत से रास्ते खुले हुए हैं, तभी तो लोग शादी में रहते हुए भी किसी और के साथ रिश्ते बना लेते हैं, पार्टनर से ?ाठ बोलते हैं, उसे बेवकूफ बनाते हैं और कई दफा तो बात इतनी बढ़ जाती है कि वे एकदूसरे के ही खून के प्यासे बन जाते हैं. बहुत आसानी से पार्टनर को मौत की नींद सुला देते हैं, ताकि आजाद हो जाएं. पर यह आजादी प्यार नहीं है. प्यार तो वह बंधन है, जो किसी भी हालत में आप को पार्टनर से जोड़े रखता है.

बेटी की माहवारी, पिता दिखाए समझदारी

एक सुबह प्रिया अपने स्कूल की एक पिकनिक ट्रिप के लिए तैयार हो रही थी. 9वीं जमात के दोनों सैक्शन को सूरजकुंड घुमाने का प्रोग्राम था. प्रिया अपने बैग में खानेपीने का सामान रख रही थी. तभी उस ने एक पैकेट उठाया और रसोईघर में जा कर उसे कैंची से काटने लगी. राकेश भी लाड़लाड़ में प्रिया के पीछे जा कर देखने लगा और पूछा, ‘‘क्या काट रही हो?’’ प्रिया ने प्लास्टिक का एक पैकेट दिखाते हुए कहा, ‘‘यह है. और क्या काटूंगी…’’ राकेश ने देखा कि प्रिया उस पैकेट से 2 सैनेटरी पैड निकाल कर अपने बैग में रख रही थी. राकेश ने बड़े प्यार से उस के सिर पर हाथ रखा और ‘ध्यान से रहना’ बोल कर रसोईघर से बाहर चला आया.

एक पिता का अपनी बेटी के लिए ऐसा लगाव यह दिखाता है कि बदलते जमाने में बेटी की माहवारी को ले कर पिता में यह जागरूकता होनी ही चाहिए. न तो प्रिया की तरह कोई बेटी सैनेटरी पैड को ले कर झिझक महसूस करे और न ही राकेश की तरह कोई पिता अपनी बेटी के ‘उन दिनों’ के बारे में जान कर शर्मिंदा हो. यह उदाहरण इस बात को भी सिरे से नकारता है कि सिर्फ मांबेटी में ही गुपचुप तरीके से माहवारी पर बात की जाए, क्योंकि आज भी समाज में यही सोच गहरे तक पैठी है कि औरत ही औरत की इस समस्या को अच्छी तरह से समझ सकती है और मर्दों को परदा रखना चाहिए, जबकि विज्ञान के नजरिए से सोचें तो माहवारी के बारे में जितनी जानकारी औरतों या लड़कियों को होनी चाहिए, उतनी ही मर्दों और लड़कों को भी होनी चाहिए, गरीब और निचली जाति में तो खासकर. माहवारी में सैनेटरी पैड कितना अहम होता है, स्कौटलैंड से इस बात को समझते हैं. माहवारी से जुड़ी गरीबी को मिटाने के लिए यह देश पीरियड प्रोडक्ट्स को बिलकुल मुफ्त बनाने वाला पहला देश बन गया है.

इस सिलसिले में स्कौटलैंड सरकार ने बताया कि वह ‘पीरियड प्रोडक्ट ऐक्ट’ लागू होते ही दुनिया की पहली ऐसी सरकार बन गई है, जो माहवारी संबंधी बने सामान तक मुफ्त पहुंच के हक की कानूनी तौर पर हिफाजत करती है. इस नए कानून के तहत स्कूलों, कालेजों, यूनिवर्सिटी और स्थानीय सरकारी संस्थाओं के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे अपने शौचालयों में सैनेटरी पैड समेत माहवारी संबंधी प्रोडक्ट मुहैया कराएं. पर, भारत जैसे देश में सरकारी योजनाओं का ढिंढोरा पीटने के बावजूद हालात उतने अच्छे नहीं हैं. यूनिसेफ के मुताबिक, दक्षिण एशिया की एकतिहाई से ज्यादा लड़कियां अपनी माहवारी के दौरान खासतौर पर स्कूलों में शौचालयों और पैड्स की कमी के चलते स्कूल से छुट्टी कर लेती हैं. माहवारी के चलते होने वाली बीमारियों के बारे में बहुत सी औरतें अनजान ही रहती हैं. अकेले भारत की बात करें, तो यहां 71 फीसदी लड़कियां अपना पहला पीरियड होने से पहले तक माहवारी से अनजान होती हैं. सरकारी एजेंसियों के मुताबिक, भारत में 60 फीसदी किशोरियां माहवारी के चलते स्कूल नहीं जा पाती हैं. तकरीबन 80 फीसदी औरतें अभी भी घर पर बने पैड (कपड़ा) का इस्तेमाल करती हैं.

हालात तब और बुरे हो जाते हैं, जब बेटियां अपने पिता या भाई से अपनी इस कुदरत की देन से होने वाली समस्याओं के बारे में खुल कर नहीं बता पाती हैं, जबकि ज्यादातर बेटियां अपने पिता को ही अपना हीरो मानती हैं. नाजनखरे दिखा कर उन से अपने सारे काम करा लेती हैं, पर जब माहवारी की बात आती है, तो चुप्पी साध लेती हैं. पिता भी तो अपनी लाड़ली पर जान छिड़कते हैं, फिर ऐसी कौन सी खाई है, जो इस मसले पर उन दोनों के बीच आ जाती है?

दरअसल, हमारे समाज में धार्मिक जंजाल के चलते मर्दों का इतना ज्यादा दबदबा है कि वे ऐसी समस्याओं पर बात करना बड़ा ओछा काम समझते हैं. उन के मन में यही खयाल रहता है कि ‘क्या अब ये दिन आ गए, जो मैं अपनी बेटी के ‘उन दिनों’ का भी हिसाबकिताब रखूं? दुकानदार से किस मुंह से सैनेटरी पैड मांगूंगा? पासपड़ोस में पता चल गया तो मेरी नाक कट जाएगी…’

यहीं भारत जैसे देश मार खा जाते हैं. इश्तिहारों में कितना ही ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का राग अलाप लो, पर जब तक इस देश के मर्द समाज की औरतों के प्रति दकियानूसी सोच में बदलाव नहीं आता है, तब तक कोई ठोस नतीजा नहीं सामने आएगा, फिर वह लड़कियों की माहवारी की समस्या हो या उन की पढ़ाईलिखाई.

इस बदलाव की शुरुआत पिता को अपनी बेटी की माहवारी से ही करनी चाहिए. उन्हें अपनी बच्ची के बदलते शरीर के बारे में पूछताछ के लिए झिझकना नहीं चाहिए. बेटी के जवानी की दहलीज पर जाते ही उस में आ रहे शारीरिक बदलावों के बारे में बात करें. माहवारी शुरू होने से पहले ही बेटी द्वारा अच्छी साफसफाई बनाए रखने की अहमियत के बारे में बताएं. जिस तरह दूसरे कामों में बेटी का हौसला बढ़ाते हैं, वैसे ही माहवारी पर भी उन्हें हिम्मत दें कि यह तो हर बेटी को कुदरत से मिला एक नायाब तोहफा है, जिस से उसे मां बनने का सुख मिलता है और परिवार आगे बढ़ता है. यह छोटी सी पहल समाज में एक बड़ा बदलाव ला सकती है.

कामवालियों पर मालिक की ललचाई नजरें

आज के समय में ज्यादातर शहरी पतिपत्नी कामकाजी होते हैं. ऐसे में घरों में काम करने वाली बाई का रोल अहम हो जाता है. अगर एक दिन भी वह नहीं आती है, तो पूरा घर अस्तव्यस्त हो जाता है. एक ताजा सर्वे के मुताबिक, मुंबई शहर में कामकाजी लोगों के घर उन की कामवाली बाई के भरोसे ही चलते हैं और अगर एक दिन भी वह छुट्टी ले लेती है, तो घर में मानो तूफान आ जाता है. सवाल यह है कि जो इनसान हमारे घर के लिए इतना अहम है, क्या हमारे समाज में उसे वह इज्जत मिल पाती है, जिस का वह हकदार है?

आमतौर पर घरों में काम करने वाली बाइयों के प्रति समाज का नजरिया अच्छा नहीं रहता, क्योंकि अगर घर में से कुछ इधरउधर हो गया, तो इस का सब से पहला शक बाई पर ही जाता है. इस के अलावा घर के मर्दों की भी कामुक निगाहें उन्हें ताड़ती रहती हैं और अगर बाई कम उम्र की है, तो उस की मुसीबतें और ज्यादा बढ़ जाती हैं.

सीमा 34 साल की है. 4 साल पहले उस का पति एक हादसे में मारा गया था. उस की एक 14 साल की बेटी और 10 साल का बेटा है.

एक घर का जिक्र करते हुए सीमा बताती है, ‘‘जिस घर में मैं काम करती थी, उन की बेटी मुझ से एक साल बड़ी थी. एक दिन आंटी बाहर गई थीं. घर में सिर्फ अंकलजी, उन की बीमार मां और बेटी थी. मैं रसोइघर में जा कर बरतन धोने लगी. अंकलजी ने अपनी बेटी को किसी काम से बाहर भेज दिया.

‘‘मैं बरतन धो रही थी और वे अंकल कब मेरे पीछे आ कर खड़े हो गए, मुझे पता ही नहीं चला. जैसे ही मैं बरतन धो कर मुड़ी, तो उन का मुंह मेरे सिर से टकरा गया. मैं घबरा गई और चिल्लाते हुए घर से बाहर आ गई.

‘‘इस के बाद 2 दिन तक मैं उन के यहां काम करने नहीं गई. तीसरे दिन वे अंकल खुद मेरे घर आए और हाथ जोड़ कर बोले, ‘मुझे माफ कर दो. मुझ से गलती हो गई. मेरे घर में किसी को मत बताना और काम भी मत छोड़ना. आज के बाद मैं कभी तुम्हारे सामने नहीं आऊंगा.’

‘‘आप बताइए, उन की बेटी मुझ से बड़ी है और वे मेरे ऊपर गंदी नजर डाल रहे थे. क्या हमारी कोई इज्जत नहीं है?’’ कहते हुए वह रो पड़ी.

नीता 28 साल की है. पति ने उसे छोड़ दिया है. वह बताती है, ‘‘मैं जिस घर में काम करती थी, वहां मालकिन ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती थीं. जब मैं काम करती थी, तो मालिक मेरे पीछेपीछे ही घूमता रहता था. मुझे गंदी निगाहों से घूरता रहता था.

‘‘फिर एक दिन हिम्मत कर के मैं ने उस से कहा, ‘बाबूजी, यह पीछेपीछे घूमने का क्या मतलब है, जो कहना है खुल कर कहो? मैडमजी को भी बुला लो. मैं गांव की रहने वाली हूं. मेरी इज्जत जाएगी तो ठीक है, पर आप की भी बचनी नहीं है.’

‘‘मेरे इतना कहते ही वह सकपका गया और उस दिन से उस ने मेरे सामने आना ही बंद कर दिया.’’

इसी तरह 35 साल की कांता बताती है, ‘‘मैं जिस घर में काम करती थी, उन साहब के घर में पत्नी, 2 बेटे और बहुएं थीं. उन के यहां सीढि़यों पर प्याज के छिलके पड़े रहते थे. हर रोज मैं जब भी झाड़ू लगाती, मालिक रोज सीढि़यों पर बैठ कर प्याज छीलना शुरू कर देता और फिर सीढि़यों से ही मुझे आवाज लगाता, ‘कांता, यहां कचरा रह गया है.’

‘‘जब मैं झाड़ती तो मेरे ऊपर के हिस्से को ऐसे देखता, मानो मुझे खा जाएगा. एक महीने तक देखने के बाद मैं ने उस घर का काम ही छोड़ दिया.’’

30 साल की शबनम बताती है, ‘‘पिछले साल मैं जिस घर में काम करती थी, वहां दोनों पतिपत्नी काम पर जाते थे. उन का एक छोटा बेटा था. मैं पूरे दिन उन के घर पर रह कर बेटे को संभालती थी.

‘‘एक दिन मैडम दफ्तर गई थीं और साहब घर पर थे. मैं काम कर रही थी, तभी साहब आए और बोले, ‘शबनम, 2 कप चाय बना लो.’

‘‘मैं जब चाय बना कर उन के पास ले गई, तो वे सोफे पर बैठने का इशारा कर के बोले, ‘आ जाओ, 2 मिनट बैठ कर चाय पी लो, फिर काम कर लेना.’

‘‘मैं उन के गंदे इरादे को भांप गई और न जाने कहां से मुझ में इतनी ताकत आ गई कि मैं ने उन के गाल पर एक चांटा जड़ दिया और अपने घर आ गई. उस दिन के बाद से मैं उन के घर काम पर नहीं गई.’’

इन उदाहरणों से कामवाली बाइयों के प्रति समाज का नजरिया दिखता है. ऐसे घरों में इन्हें एक औरत के रूप में तो इज्जत मिलती ही नहीं है, साथ ही जिस घर को संवारने में ये अपना पूरा समय देती हैं, वहीं मर्द इन्हें गंदी नजरों से देखते हैं.

क्या करें ऐसे समय में

 ऐसे हालात में आमतौर पर ज्यादातर कामवाली बाई चुप रह जाती हैं या काम छोड़ देती हैं. इस के पीछे उन की सोच यही होती है कि चाहे घर का मर्द कितना ही गलत क्यों न हो, कुसूरवार कामवाली बाई को ही ठहराया जाता है. वे अगर  मुंह खोलेंगी तो और भी लोग उन से काम कराना बंद कर देंगे, इस से उन की रोजीरोटी के लाले पड़ जाएंगे.

कई मामलों में तो कामवाली बाई को पैसे दे कर उस का मुंह भी बंद कर दिया जाता है. पर ऐसा करना मर्दों की गंदी सोच को बढ़ावा देना है, इसलिए अगर ऐसा होता है, तो चुप रहने के बजाय अपनी आवाज उठानी चाहिए.

आजकल तकनीक का जमाना है. अगर मुमकिन हो सके, तो ऐसी छिछोरी बातों को रेकौर्ड करें या वीडियो क्लिप बना लें, ताकि बात खुलने पर सुबूत के तौर पर उसे पेश किया जा सके.

क्या करें पत्नियां

 ऐसे मनचलों की पत्नियां भले ही अपने पति की हरकत को जगजाहिर न करें, पर वे खुद इस से अच्छी तरह परिचित होती हैं.

अच्छी बात यह रहेगी कि बाई के साथ अकेलेपन का माहौल न बनने दें. वे खुद बाई से काम कराएं. अगर पति मनचला है, तो ज्यादा उम्र की बाई को घर पर रखें.

कई बार कामवालियां भी मनचली होती हैं. उन्हें घर की मालकिन के बजाय घर के मालिक से ज्यादा वास्ता रहता है. ऐसे में उन्हें उन की सीमाएं पार न करने की हिदायत दें.

डिजिटलीकरण के दौर में गायब हुए नुक्कड़ नाटक

साल 1989 का पहला दिन था. तब एकदूसरे को हैप्पी न्यू ईयर के व्हाट्सऐप फौरवर्ड भेजने का रिवाज नहीं था. न ही इंस्टाग्राम पर रंगबिरंगी लाइटें लगाने व तंग कपड़े पहन कर रील बनाई जाती थीं. ट्विटर पर हैशटैग जैसी फैंसी चीज नहीं थी. इन बड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों के न होने के चलते युवाओं के पास खुद को एक्सप्रैस करने के लिए नुक्कड़ नाटक थे. यानी, स्ट्रीट प्ले सोशल इंटरैक्शन के माध्यम माने जाते थे. नाटक करने वालों के पास कला थी और देखने वालों के पास तालियां. यही उस समय का यूथ कोलैब हुआ करता था.

यही तालियों की गड़गड़ाहट साल के पहले दिन गाजियाबाद के अंबेडकर पार्क के नजदीक सड़क पर बज रही थी उस के लिए जो आने वाले सालों में इम्तिहान के पन्नों में अमर होने वाला था, जिस के जन्मदिवस, 12 अप्रैल, को ‘नुक्कड़ नाटक दिवस’ घोषित किया जाने वाला था. बात यहां मार्क्सवाद की तरफ ?ाकाव रखने वाले सफदर हाशमी की है जो महज 34 साल जी पाए और इतनी कम उम्र में वे 24 अलगअलग नाटकों का 4,000 बार मंचन कर चुके थे.

शहर में म्युनिसिपल चुनाव चल रहे थे. ‘जन नाट्य मंच’ (जनम) सीपीआईएम कैंडिडेट रामानंद ?ा के समर्थन में स्ट्रीट प्ले कर रहा था. प्ले का नाम ‘हल्ला बोल’ था. सुबह के

11 बज रहे थे. तकरीबन 13 मिनट का नाटक अपने 10वें मिनट पर था. तभी वहां भारी दलबल के साथ मुकेश शर्मा की एंट्री हो जाती है. वह मुकेश शर्मा जो कांग्रेस के समर्थन से इंडिपैंडैंट चुनाव लड़ रहे थे. मुकेश शर्मा ने प्ले रोक कर रास्ता देने को कहा. सफदर ने कहा, ‘या तो प्ले खत्म होने का इंतजार करें या किसी और रास्ते पर निकल जाएं.’

बात मुकेश शर्मा के अहं पर लग गई. उस के गुंडों की गुंडई जाग गई. उन लोगों ने नाटक मंडली पर रौड और दूसरे हथियारों से हमला कर दिया. राम बहादुर नाम के एक नेपाली मूल के मजदूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. सफदर को गंभीर चोटें आईं. अस्पताल ले तो जाया गया पर दूसरे दिन सुबह, तकरीबन

10 बजे, भारत के जन-कला आंदोलन के अगुआ सफदर हाशमी ने अंतिम सांस ली. इतनी छोटी सी ही उम्र में सफदर हाशमी ने लोगों के दिलों में कैसी जगह बना ली थी, इस का सुबूत मिला उन के अंतिम संस्कार के दौरान. अगले दिन उन के अंतिम संस्कार में दिल्ली की सड़कों पर हजारों लोग मौजूद थे. कहते हैं, सड़कों पर नुक्कड़ नाटक करने वाले किसी शख्स के लिए ऐसी भीड़ ऐतिहासिक थी.

सफदर की मौत के महज 48 घंटे बाद 4 जनवरी को उसी जगह पर उन की पत्नी मौलीश्री और ‘जनम’ के अन्य सदस्यों ने जा कर ‘हल्ला बोल’ नाटक का मंचन किया. यहां तक बताया जाता है कि उसी साल सफदर की याद में लगभग 25 हजार नुक्कड़ नाटक देशभर में किए गए.

इप्टा का योगदान

नुक्कड़ नाटकों की युवाओं के बीच एक अलग ही जगह रही है. एक समय सड़कों पर दिखाए जाने वाले इन नाटकों की ऐसी आंधी थी कि माना जाता था यदि कोई उभरता कलाकार सड़क पर लोगों के बीच नाटक नहीं दिखा सकता, उन्हें मंत्रमुग्ध नहीं कर सकता, वह असल माने में जन कलाकार है ही नहीं.

नुक्कड़ नाटक हमेशा से जन संवाद के माध्यम रहे हैं. ये हर समय लोगों के बीच रहे. मुंबई में इप्टा की संचालक शैली मैथ्यू ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘‘गुलाम भारत में नुक्कड़ नाटकों का मंचन इतना आसान नहीं होता था. कई बार अभिनेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता था, भीड़ को तितरबितर करने के लिए लाठियां बरसाई जाती थीं. लेकिन नाटक वाले भी तैयारी से निकलते थे. उन का यही मकसद होता- लोगों में अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ विरोध को जगाना, उन्हें तमाम सामाजिक-धार्मिक कडि़यों से आजाद कर राजनीतिक लड़ाई के लिए एकजुट करना.’’

दरअसल, भारत में अभिनय को थिएटर, थिएटर से सड़कों, सड़कों से आम जनता के बीच ले जाने में इप्टा यानी ‘इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन’ की बड़ी भूमिका रही है. इप्टा 1943 में ब्रिटिश राज के विरोध में बना एक रंगमंच संगठन था. इस का नामकरण भारत के बड़े वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया. आजाद भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित हो कर इप्टा ने भारतीय सिनेमा में अपना गहरा इंपैक्ट छोड़ा. कई नामी कलाकार इस संगठन से निकले. बलराज और भीष्म साहनी, पृथ्वीराज कपूर, उत्पल दत्त, सलिल चौधरी, फैज अहमद फैज, शैलेंद्र, साहिर लुधियानवी जैसे बड़े नाम शामिल रहे. उर्दू के मशहूर शायर कैफी आजमी के कथन में ‘इप्टा वह प्लेटफौर्म है जहां पूरा हिंदुस्तान आप को एकसाथ मिल सकता है. दूसरा ऐसा कोई तीर्थ भी नहीं, जहां सब एकसाथ मिल सकें.’

देखा जाए तो इप्टा के नाटकों के थीम में विरोध का स्वर ज्यादा मुखर होता था, बल्कि ज्यादातर नाटक तो विशुद्ध राजनीतिक थीम पर ही लिखे गए. उस के बावजूद यह धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों पर चोट करता था. इतनी चोट कि कई बार धर्म प्रायोजित राजनीतिक पार्टियां व धार्मिक संगठनों के बीच यह संगठन अखरने लगता था.

सफदर हाशमी खुद भी इप्टा से जुड़े थे. उन्होंने रंगमंच के सारे पैतरे इप्टा से सीखे पर जब उन्हें लगा कि कला को अब और नीचे सड़कों तक पहुंचाने की जरूरत है और इस के लिए उन के पास ज्यादा फंड नहीं तो ‘जनम’ की नींव डाल कर नक्कड़ नाटक को अपना हथियार बना दिया.

नुक्कड़ नाटक आज कहां

स्ट्रीट प्ले किस तरह युवाओं के बीच एक समय पौपुलर माध्यम हुआ करता था. इस में यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट्स की बड़ी भूमिका होती थी. खुद सफदर हाश्मी और उन के साथ के मैंबर्स विश्वविद्यालयों से जुड़े हुए थे. सफदर सेंट स्टीफन कालेज से पढ़े भी थे और बाद में अलगअलग कालेज में पढ़ाने भी लगे.

अधिकतर लोग इसे सिर्फ थिएटर या फिल्मी परदों पर ऐक्ंिटग करने वाले कलाकारों से जुड़ा हुआ सम?ाते हैं पर असल में नुक्कड़ नाटक ही एकमात्र माध्यम था जो समाज के सब से निचले युवाओं, जिन का ऐक्ंिटग से कोई लेनादेना न भी हो, से जुड़ा हुआ था. युवा इस के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुंचाया करते थे. यहां तक कि सरकार की आलोचना करने, अपनी समस्याएं बताने में भी यह एक बड़ा माध्यम था. पर सवाल यह कि आज नुक्कड़ नाटक हमारे इर्दगिर्द से गायब होते क्यों दिखाई दे रहे हैं? क्यों युवा इन के बारे में बात नहीं करते? इस का जवाब देश में तेजी से बदलते पौलिटिकल और सोशल चेंज में छिपा है, जिसे सम?ाना बहुत जरूरी है.

गरीब छात्र गायब, बढ़ता सरकारी दखल

हायर एजुकेशन में सरकारी नीतियों के चलते कमजोर तबकों के छात्रों का यूनिवर्सिटीज तक पहुंचना बेहद मुश्किल हो गया है. यहां तक कि दलित और पिछड़े तबकों के क्रीमी छात्र ही यूनिवर्सिटी तक पहुंच पा रहे हैं, जिन का अपने समुदायों से खास सरोकार रहा नहीं. 4 साल की डिग्री, बढ़ती कालेज फीस और लिमिटेड सीट्स ने छात्रों के लिए मुश्किल बना दिया है.

लगभग सभी विश्वविद्यालयों में थिएटर ग्रुप जरूर होते हैं. खालसा, हिंदू, सेंट स्टीफन, रामजस, किरोड़ीमल, गार्गी, दयाल सिंह सभी कालेजों में ऐसे ग्रुप्स हैं. इन ग्रुप्स से जुड़ने वाले अधिकतर छात्र पैसे वाले घरानों से हैं, जिन का आम लोगों से कोई लेनादेना नहीं. न उन से जुड़े मुद्दे ये सम?ा पाते हैं. ऐसे कई सरकारी कालेज हैं जो अपने एलीट कल्चर के लिए जाने जाते हैं. सेंट स्टीफन में छात्र इंग्लिश में ही बात करते हैं. यहां कोई गरीब छात्र गलती से पहुंच जाए तो वह इन के बीच रह कर अवसाद से ही भर जाए. प्राइवेट यूनिवर्सिटी का हाल और भी बुरा है. गलगोटिया यूनिवर्सिटी चर्चा में है. वहां छात्रों के बीच सम?ादारी का अकाल होना चिंताजनक स्थिति दिखाता है.

एनएसडी और एफटीआईआई जैसे संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र भी अब बड़ेबड़े घरानों से आने लगे हैं. यहां सरकार का दखल भी बढ़ गया है. एसी से लैस प्यालेलाल भवन व कमानी औडिटोरियम इन के अड्डे हैं. कभीकभार टास्क के नाते नुक्कड़ों पर निकल पड़ते हैं पर मंडी हाउस के 2 किलोमीटर के दायरे से बाहर नहीं जा पाते.

ऐसा नहीं है कि ये थिएटर ग्रुप्स बिलकुल ही अपने वजूद से अनजान हैं. मगर पिछले कुछ सालों में यूनिवर्सिटी स्पेस में सरकार का दखल हद से ज्यादा बढ़ा है. कैंपस में सेफ्टी के नाम पर पुलिस का हर समय मौजूद रहना, लगातार हर घटनाक्रम को रिकौर्ड करना व छात्रों की हर सोशल व पौलिटिकल एक्टिविटी के लिए परमिशन लेना व नजर रखना अनिवार्य हो गया है. इस से नाटकों का मंचन करने वालों को दिक्कतें आ रही हैं. पर इस के बावजूद यह तो सोचा ही जा सकता है इमरजैंसी के समय में जब सब चीजों पर सरकार ने पहरे बैठा दिए थे तब भी ‘जनम’ जैसे नुक्कड़ नाटक सड़कों पर विरोध जताने वालों के रूप में मौजूद थे तो आज क्यों नहीं?

सोशल मीडिया का पड़ता प्रभाव

इसे सम?ाने के लिए आज युवाओं के लाइफस्टाइल को सम?ाना जरूरी है. युवाओं के हाथ में  आज 5जी की स्पीड से चलने वाला इंटरनैट है. सुबह उठने के साथ वह अपने फोन को स्क्रोल कर रहा है. आतेजाते, खाना खाते वह मोबाइल से ही जुड़ा हुआ है. मैट्रो, बसों में युवा अपना सिर गड़ाए फोन में घुसे रहते हैं. एंटरटेनमैंट के नाम पर 16 सैकंड की रील्स से संतुष्ट हो रहे हैं. अधकचरी जानकारियां सोशल मीडिया में फीड की गईं मीम्स से ले रहे हैं, जो बहुत बार प्रायोजित प्रोपगंडा होती हैं.

युवा न तो सही जानकारी जुटा पा रहा है, न लंबीचौड़ी चीजें पढ़लिख पा रहा है. उस के पास किसी स्टोरी को डैवलप करने का टैलेंट तक नहीं है. आज अच्छे नाटक दिखाने वाले बहुत कम ग्रुप्स बचे हैं. और ये ग्रुप्स भी अपनी मेहनत सड़कों पर करने के बजाय एसी औडिटोरियम में कर रहे हैं. वहीं सड़क पर नाटक दिखाने को एनजीओ वाले रह गए हैं, जिन के नुक्कड़ नाटकों में न तो तीखापन है, न कोई विरोध.

सोशल मीडिया युवाओं के बीच का एंटरटेनमैंट और जागरूकता का साधन छीन रहा है. हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि इन की जरूरत खत्म हो गई है, जबजब सवाल पूछने का चलन समाज में बढ़ेगा, नुक्कड़ नाटक सड़कों पर फिर से जगह बनाते दिखेंगे.

अपने ही “मासूम” की बलि….

अगर आज ऐसा होता है तो इसका मतलब यह है कि आज भी हम सैकड़ो साल पीछे की जिंदगी जी रहे हैं. जहां अपने अंधविश्वास में आकर बलि चढ़ा दी जाती थी, अपने बच्चों को या किसी मासूम को. बलि चढ़ाना तो अंधविश्वास की पराकाष्ठा ही है.

छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले में शख्स ने अपने चार वर्षीय बेटे की बेरहमी से गला रेंतकर हत्या कर दी. घटना की वजह अंधविश्वास बताया गया है. शख्स की मानसिक स्थिति कुछ दिनों से ठीक नहीं थी. एक रात उसने परिवारजनों से कहा – “सुनो सुनो! मै किसी की बलि दे दूंगा.”

उसकी बात पर किसी ने तवज्जो नहीं दिया लगा कि यह मानसिक सन्निपात में कुछ का कुछ बोल रहा है.
एक रात उसने चाकू से एक मुर्गे को काटा फिर अपने मासूम बेटे का गला काट दिया. यह उद्वेलित करने वाला मामला शंकरगढ़ थानाक्षेत्र का है. हमारे संवाददाता को पुलिस ने बताया -शंकरगढ़ थानाक्षेत्र अंतर्गत ग्राम महुआडीह निवासी कमलेश नगेशिया (26 वर्ष) दो दिनों से पागलों की तरह हरकत कर रहा था. उसने परिवारजनों के बीच कहा – उसके कानों में अजीब सी आवाज सुनाई दे रही है, उसे किसी की बलि चढ़ाने के लिए कोई बोल रहा है.

एक दिन वह कमलेश चाकू लेकर घूम रहा था एवं उसने परिवारजनों से कहा कि आज वह किसी की बलि लेगा. उसकी मानसिक स्थिति को देखते हुए परिवारजनों ने उसे नजरअंदाज कर दिया था . मगर रात को खाना खाने के बाद कमलेश नगेशिया की पत्नी अपने दोनों बच्चों को लेकर कमरे में सोने चली गई. कमलेश के भाईयों के परिवार बगल के घर में रहते हैं, वे भी रात को सोने चले गए.

देर रात कमलेश ने घर के आंगन में एक मुर्गे का गला काट दिया. फिर कमरे में जाकर वह अपने बड़े बेटे अविनाश (4) को उठाकर आंगन में ले आया. उसने बेरहमी से अपने बेटे अविनाश का चाकू से गला काट दिया. अविनाश की मौके पर ही मौत हो गई. सुबह करीब चार बजे जब कमलेश की पत्नी की नींद खुली तो अविनाश बगल में नहीं मिला. उसने कमलेश से बेटे अविनाश के बारे में पूछा तो उसने पत्नी को बताया कि उसने अविनाश की बलि चढ़ा दी है.

घटना की जानकारी मिलने पर घर में कोहराम मच गया. सूचना पर शंकरगढ़ थाना प्रभारी जितेंद्र सोनी के नेतृत्व में पुलिस टीम मौके पर पहुंची. पुलिस ने आरोपी को हिरासत में ले लिया . बच्चे के शव को पंचनामा पश्चात् पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया . थाना प्रभारी जितेंद्र सोनी ने बताया – परिजनों से पूछताछ कर उनका बयान दर्ज किया गया है. आरोपी दो दिनों से ही अजीब हरकत कर रहा था. पहले वह ठीक था. एक शाम परिवारजनों के सामने उसने किसी की बलि चढ़ाने की बात कही थी, लेकिन परिवारजनों ने उसे गंभीरता से नहीं लिया. मामले में पुलिस ने धारा 302, 201 का अपराध दर्ज किया है. मामले की जांच की जा रही है.

इस घटनाक्रम में परिजनों ने समझदारी से काम लिया होता और इसकी शिकायत पहले ही पुलिस में की होती या फिर उस व्यक्ति को मानसिक चिकित्सालय भेज दिया गया होता तो मासूम बच्चे की जिंदगी बच सकती थी. मासूम की बाली के इस मामले में सबसे अधिक दोषी मां का वह चेहरा भी है जो दोनों बच्चों को लेकर कमरे में सो रही होती है और पति एक बच्चे को उठाकर ले जाता है.

एक पुलिस अधिकारी के मुताबिक गांव देहात में इस तरह की घटनाएं घटित हो जाती है, इसका दोषी जहां परिवार होता है वही आसपास के रहवासी भी दोषी हैं मगर पुलिस सिर्फ एक हत्यारे पर कार्रवाई करके मामले को बंद कर देती है.

कुल मिलाकर के ऐसे घटनाक्रम सिर्फ एक खबर के रूप में समाज के सामने आते है और फिर समाज सुधारक भूल जाते है कुल मिला करके आगे पाठ पीछे सपाट की स्थिति .यह एक बड़ी ही सोचनीय स्थिति है. इस दिशा में अब सरकार के पीछे-पीछे दौड़ने या यह सोचने से की सरकार कुछ करेगी यह अपेक्षा छोड़ कर हमें स्वयं आगे आना होगा ताकि फिर आगे कोई ऐसी घटना घटित ना हो.

अंधविश्वास: झूठे आदर्श पाखंड को जन्म देते हैं

आदर्श पाखंड़ को जन्म देते हैं आप को यह पढ़ कर शायद हैरानी हो कि भारत में जितने भी जानेमाने धर्मगुरु हुए हैं, उन में से ज्यादातर किसी न किसी ठीक न हो सकने वाली बीमारी से पीडि़त रहे हैं या अभी भी हैं. जो दूसरों को यह उपदेश देते थे कि ओम का उच्चारण करते रहने से, ओम की जय करने से, प्राणायाम करने से रोग पास भी नहीं फटकते, पर वे खुद किसी न किसी बीमारियों से जरूर पीडि़त थे. इस की एक खास वजह है.

यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब भी कोई इनसान अपनी किसी कुदरती इच्छा को दबाने की कोशिश करता रहता है, तो उस की वह इच्छा उस आदमी के अचेतन मन में चली जाती है. फिर वह किसी न किसी मनोकायिक (साइकोसोमैटिको) बीमारी को जरूर जन्म देने लगती है. जनवरी, 2022 में मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में एक अस्पताल में तब हड़कंप मच गया, जब जिले के सौस गांव से एक विक्षिप्त बाबा को एंबुलैंस में लाया गया था. वह गांव में कभी कीचड़ में लोट जाता, तो कभी पेड़ों पर चढ़ जाता या ड्रामा करता. अस्पताल में भी वह बाबा नर्सिंग स्टाफ के सामने नंगा हो जाता, तो कभी वार्डबौयों पर हमला करने लगता. उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया.

पर सवाल है कि ऐसे हालात आए ही क्यों? इसलिए कि बाबाओं को कहा जाता है कि इच्छाओं को दबाओ और वे खुद बीमार हो जाते हैं. राजा हो या रंक, साधु हो या संत, कोई भी कुदरत के इस नियम से बच नहीं पाता. बढ़ती इच्छाओं को दबाने के खिलाफ सजा देने का कुदरत का यह एक ढंग है. आप देखोगे कि जो भी इनसान ?ाठे आदर्शों की चादर ओढ़ कर पाखंड वाली जिंदगी जी रहा होगा, वह किसी न किसी बड़ी बीमारी से भी जरूरत पीडि़त होगा. वह बीमारी ही उस की मौत की वजह भी बन जाती है. भारत में यह भी एक विडंबना ही है कि लोग किसी के चरित्र का मूल्यांकन केवल इस बात से लगाते हैं कि अमुक इनसान ने अपनी कामवासनाओं को कितना कंट्रोल में रखा हुआ है.

जो इनसान कामवासनाओं के बारे में खुले स्वभाव का होता है, उसे हम चरित्रहीन मानने लगते हैं और जो ब्रह्मचारी होने का ढोंग करता हो, उस की पूजा करने लगते हैं और उसे दानदक्षिणा भी देने लगते हैं. एक गलत सोच के चलते हिंदू धर्म में हजारों सालों में सब से ज्यादा अहमियत ब्रह्मचर्य को दी गई है. साधुसंन्यासी इसलिए भी समाज में इज्जत पा रहे हैं, क्योंकि वे ब्रह्मचर्य पालन का दावा करते हैं. जिस तरह एक पीएचडी डिगरी लेने वाला अपने नाम के साथ डाक्टर लिखने लगता है, उसी तरह कई साधुसंन्यासी समाज में ज्यादा से ज्यादा इज्जत पाने के लिए अपने नाम के साथ ‘बाल ब्रह्मचारी’ की डिगरी भी जोड़ देते हैं.

मजे की बात यह है कि पूरे संसार में भारतीय ही सब से ज्यादा कामुक हैं. वे एक साल में ही पूरे आस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर बच्चे पैदा कर देते हैं. भारतीयों के बिस्तर उन के खेतों से ज्यादा उपजाऊ माने जाते हैं. मनोवैज्ञानिक इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि जब भी कोई इनसान हठपूर्वक ब्रह्मचर्य साधने की कोशिश करने लगता है, तो कामुकता भी उस का पीछा करती रहती है, जो अपना रूप बदल कर सामने आती रहती है. ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला दिनरात अपने कामकेंद्र के इर्दगिर्द ही जिंदगी बिताने लगता है. वह किसी जंगल में या गुफा में तपस्या कर रहा होगा, तो उस के सपनों में अप्सराएं आ कर उस की साधना भंग करने लगेंगी.

कुछ अज्ञानी लोगों ने सोचेसमझे बिना ही वीर्य के संबंध में कई तरह की गलत बातें फैला रखी हैं. कुछ शास्त्रों में यह भी पढ़ने को मिलता है कि इनसान अगर 32 किलो भोजन खाता है, तो उस से शरीर में 800 ग्राम रक्त बनता है. उस 800 ग्राम रक्त में से केवल 20 ग्राम वीर्य ही बनता है. पर मैडिकल जांचपड़ताल से यह पता चला है कि पुरुष के शरीर में वीर्य बनना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जिस तरह से पाचक ग्रंथियां भोजन को पचाने के लिए पाचक रस छोड़ती रहती हैं, उसी तरह से यौन ग्रंथियां वीर्य बनाती रहती हैं. जब वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती है, तो वीर्य सपनों के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है. यह कुदरत द्वारा बनाई गई एक आनंददायक व्यवस्था है.

पर धर्मशास्त्र व कुछ धर्मगुरु ऐसा प्रचार करते हैं कि लोग हमेशा डरे रहें. शरीर के अंदर वीर्य बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती ही रहती है, इसलिए जरूरत से ज्यादा वीर्य को शरीर के अंदर रोक पाना मुमकिन नहीं है. पर बहुत से लोग खासतौर पर धर्मगुरु इस सच को छिपाने के लिए कई तरह के ढोंग करने लगते हैं. अपने नाम के साथ ‘बाल ब्रह्मचारी’ लिखना भी ऐसा ही एक ढोंग मात्र है. जो लोग हठपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे होते हैं, वे भी इस उम्मीद में जी रहे होते हैं कि स्वर्ग में जा कर तो उन की देखभाल अप्सराएं करेंगी, जो उन की हर आज्ञा का पालन करेंगी. जब इनसान अपनी किसी इच्छा को हठपूर्वक दबा लेता है, तो वह इच्छा उस के मन में जा कर दब जाती है, फिर इनसान को उस दबी हुई इच्छा को पूरा करने के लिए किसी न किसी पाखंड का सहारा लेना पड़ता है. जो लोग गृहस्थी त्याग देते हैं, वे आश्रम या कुटिया बना कर रहने लगते हैं.

जिन औरतों के पति नामर्द होने के कारण बच्चा पैदा नहीं कर सकते, उन्हें अपने आश्रम में अकेले में बुला लेते हैं. अपनी दबी हुई काम इच्छाओं को पूरा करने के लिए ही तंत्र साधना के नाम पर औरतों की पूजा करने लगते हैं और तंत्र के नाम पर यौन क्रियाओं में लग जाते हैं. धर्मगुरुओं के आश्रमों में ऐसी बातें हमेशा होती ही रहती हैं, क्योंकि यह सब धर्म के नाम पर होता है, इसलिए लोग इन्हें चुपचाप सहन कर लेते हैं. भारत में कई धर्मगुरु यह ढोंग भी करते रहते हैं कि वे तो पैसों को हाथ तक नहीं लगाते. पर जब ये विदेशों में जाते हैं, तो वहां करोड़ों रुपयों में खेलने लगते हैं. महंगी से महंगी कारें खरीद लेते हैं. पांचसितारा आश्रमों को बना लेते हैं. हिंदू समाज ने समाधि लगाने को भी बहुत इज्जत दे रखी है, इसलिए कई साधुसंत यह ढोंग करने लगते हैं कि वे समाधि की उच्च अवस्था को भी हासिल हो चुके हैं.

कई तो अपने नाम के साथ भी ‘समाधिनाथ’ तक लिखने लगते हैं. लोेगों को प्रभावित करने के लिए वे अपनी समाधि का खूब प्रचार करते हैं और करवाते हैं. आम लोगों को प्रभावित करने के लिए वे कुछ दिनों के लिए खुद को मिट्टी में दबा लेते हैं, फिर जिंदा बाहर निकल आते हैं. अंधविश्वासी लोग इस काम को एक चमत्कार मान कर उन्हें खूब दानदक्षिणा देते हैं. इस मौके और हमदर्दी का फायदा उठा कर मंदिर बनाने के नाम पर लाखों रुपए जमा कर लिए जाते हैं. किंतु भोलेभाले लोग यह सम?ा ही नहीं पाते कि ऐसे काम केवल जादू दिखाने जैसी ट्रिक की मदद से ही किए जाते हैं. चमत्कार या भगवान को पाने से इस का कोई संबंध नहीं होता. ऐसे लोग प्राणायाम व सांसों को काबू में करने की कला सीख कर ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं. साइबेरिया के बर्फीले प्रदेश के भालू 6 महीने तक खुद को बर्फ में ही दबा कर सोए रहते हैं. बरसात के बाद मेढक जमीन के नीचे ही दबे पड़े रहते हैं. ठंड से बचने के लिए सांप भी खुद को मिट्टी के नीचे दबाए रखते हैं. इस से उन की कोई समाधि नहीं लग जाती.

कुछ दिन जमीन के नीचे दबे रहने का समाधि से कोई संबंध नहीं होता. एक धर्मगुरु का बायां हाथ काम नहीं करता था. इस विकलांगता को भी उन्होंने समाधि के नाम पर खूब भुनाया. वे बारबार कहते रहते थे कि जब वे समाधि में बैठे थे, तो उन के इस हाथ को दीमक लग गई थी. बहुत से धर्मगुरु अपने झूठे दावों का पाखंड कर के नाम कमाने में लगे रहे हैं. उन झूठे दावों को साबित करने के लिए उन्होंने कई तरह के इंतजाम कर रखे होते हैं. आप को अपने चारों ओर कई साधुसंन्यासी ऐसे मिल जाएंगे, जिन का बरताव पागलों जैसा होता है. कुछ तो छोटीछोटी बातों पर भी गुस्सा हो जाते हैं. भोलेभाले लोग यह सम?ाने लगते हैं कि इन पर भगवान का उन्माद छाया हुआ है, इसीलिए वे ऐसा बरताव कर रहे हैं. पर वे यह नहीं जानते हैं कि भगवान की कोई खुमारी नहीं होती. ऐसे लोग केवल मनोवैज्ञानिक वजहों से ही बीमार होते हैं.

ससुर-बहू के नाजायज संबंध, दुखद होता है अंत

आखिरकार कुंदन कुमार ने खुदकुशी कर ली. शायद इस बुजदिली के अलावा उसे कोई और रास्ता सूझ नहीं रहा था. जब अपने ही बेवफाई और बेईमानी करते हैं, तो एक समय के बाद नफरत खुद की बेबसी पर भी होने लगती है. फिर कुछ दिनों बाद जिंदगी बेमानी लगने लगती है. यही सब कई दिनों से कुंदन कुमार के साथ हो रहा था, जिस ने बीवी की बेवफाई और चाचा की मनमानी की सजा खुद को देते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया. पटना बाजार इलाके के गांव कुरथौल के रहने वाले इस नौजवान की बीवी किसी जवान आशिक या पुराने यार के साथ नहीं,

बल्कि अपने ही चाचा ससुर जसवंत सिंह के साथ भाग गई थी. पीछे रह गए थे मां के लिए बिलखते 2 मासूम बच्चे और बीवी की इस हरकत पर कलपता कुंदन कुमार, जिस की दुनिया में अंधेरा छा गया था. 22 मई, 2022 को जहर खाने के पहले कुंदन कुमार इंसाफ पाने के लिए पुलिस थाने गया था, लेकिन वहां से भी उसे दुत्कार कर भगा दिया गया था. कुंदन कुमार की बीवी और चाचा में कब और कैसे जिस्मानी संबंध बन गए थे, इस की उसे भनक भी नहीं लगी. घर का बुजुर्ग होने के नाते गांव में ही रहने वाले जसवंत सिंह का घर में आनाजाना आम था.

कुंदन कुमार का माथा उस समय ठनका था, जब गांव के ही कुछ लोगों से उस ने इस बाबत सुना. पहले तो कुंदन कुमार को यकीन ही नहीं हुआ कि पिता समान चाचा अपनी बेटी समान बहू के साथ शारीरिक संबंध बना सकता है और पत्नी की रजामंदी भी इस में है, पर जब यह सच निकला तो वह तिलमिला उठा. बेकार गया समझाना कुंदन कुमार ने बारीबारी से चाचा और पत्नी को समझाया कि यह ठीक नहीं है, रिश्तों की मानमर्यादा के खिलाफ है, लेकिन इश्क में गले तक डूबे इस बेमेल जोड़े के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी. हद तो तब हो गई, जब टोकने पर जसवंत सिंह ने उसे जान से मारने की धमकी दे डाली. बात चूंकि पहले से फैल चुकी थी,

इसलिए कुंदन कुमार ने पुलिस की मदद लेनी चाही, पर वहां से भी निराशा ही हाथ लगी, तो दूसरे जो हकीकत में अपने थे, के गुनाह और गलती की सजा उस ने खुद को दे डाली. कुंदन कुमार की मौत के बाद गांव वालों ने पुलिस के निकम्मेपन और लापरवाही के खिलाफ सड़क पर प्रदर्शन किया, तो पुलिस ने उस की पत्नी और चाचा के खिलाफ खुदकुशी के लिए उकसाने का मामला दर्ज कर लिया. अफसोस और हैरत की बात तो यह भी थी कि जो लोग ‘हायहाय’ कर रहे थे, उन में से कुछ थाने से लौटते समय उस पर ताने भी कस रहे थे. बात बहुत जल्द आईगई हो गई, लेकिन कई सवाल अपने पीछे छोड़ गई है कि आखिर क्यों ससुरबहू में जिस्मानी संबंध बन जाते हैं और इस हद तक हो जाते हैं कि वे आपस में नए लड़केलड़कियों जैसा इश्क करने लगते हैं?

क्यों प्यार में डूबे ससुरबहू को दीनदुनिया, की परवाह नहीं रहती है? कहने को तो कहा जा सकता है कि ‘दिल तो है दिल, दिल का एतबार, क्या कीजे… आ गया जो किसी पे प्यार, क्या कीजे…’ लेकिन ऐसा प्यार क्या वाकई प्यार होता है और उसे जायज करार देना चाहिए, जो अपने ही बेटे की गृहस्थी पर डाका डाले? यही प्यार किसी की हत्या और खुदकुशी की वजह बन जाए और इस से किसी को कुछ हासिल न हो, तो इसे प्यार क्या खा कर कहा जाए. इसे सिर्फ सैक्स की हवस कह कर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक बार समझाने या धमकाने पर हमबिस्तरी करने का सिलसिला रुकना मुमकिन है, लेकिन यह बात प्यार पर लागू नहीं होती,

जिस के चलते आशिक और माशूक वाकई अंधे हो जाते हैं और समझाइश के दायरे से काफी दूर हो चुके होते हैं. कत्ल ही कर दिया कुंदन कुमार की तरह की ही कहानी राजस्थान के अलवर के बहरोड़ इलाके के रहने वाले विक्रम सिंह की है, जिस की हत्या उस के पिता बलवंत सिंह और पत्नी पूजा ने मिल कर की थी. 5 मार्च, 2022 की रात के तकरीबन 3 बजे सैक्स के लिए तड़प रहा बलवंत सिंह अपने बेटेबहू के कमरे में गया और आहिस्ता से 29 साला पूजा को बुलाया, जो तुरंत चाबी भरी गुडि़या की तरह अपने 62 साल के ससुर के पीछेपीछे चल दी और ससुर के कमरे में पहुंचते ही उन दोनों ने रासलीला शुरू कर दी. लेकिन इस बार बेसब्र हो रहे ससुरबहू यह नहीं देख पाए कि विक्रम सिंह भी जाग गया है और दबे पैर उन के पीछे आ रहा है. पिता के कमरे का जो सीन विक्रम सिंह ने देखा, वह उस के लिए किसी सदमे से कम नहीं था. पूजा और बलवंत सिंह सबकुछ भूलभाल कर एकदूसरे से इस तरह से लिपटे थे कि अब कभी एकदूसरे से अलग ही नहीं होंगे. विक्रम सिंह का खून खौला,

लेकिन अपनेआप को काबू करते हुए वह किसी तरह अपने कमरे में आ गया. अभी विक्रम सिंह सोच ही रहा था कि यह क्या हो रहा है और वह क्या करे, तभी बलवंत सिंह और पूजा आ गए. उन दोनों ने उसे जकड़ा और दुपट्टे से उस का गला घोंट दिया. इस के बाद अलवर के नामी कारोबारी बलवंत सिंह सुबह रोजाना की तरह सैर पर निकल गए, जिस से लोग उन्हें देख लें और पूजा भी घर के कामकाज में ऐसे लग गई मानो कुछ देर पहले उस ने पति को नहीं, बल्कि कान पर भिनभिनाते मच्छर को मारा हो. योजना के मुताबिक, उन दोनों ने फोन से जानपहचान वालों और नातेरिश्तेदारों को विक्रम सिंह की मौत की खबर देते हुए रोनेधोने का कामयाब ड्रामा किया.

इन की साजिश भी कामयाब हो जाती, लेकिन शव यात्रा में शामिल आए लोगों का माथा यह देख कर ठनका कि किसी को भी विक्रम सिंह का चेहरा नहीं दिखाया जा रहा है. यह बात चोर की दाढ़ी में तिनका सरीखी थी, क्योंकि मरने वाले के अंतिम दर्शन आम रिवाज है. शक होने पर पूजा के ही भाई ने पुलिस वालों को फोन कर दिया. छानबीन और पूछताछ में उन दोनों ने अपना गुनाह कबूल कर लिया. उजागर यह भी हुआ कि बलवंत सिंह की पत्नी की मौत 2 साल पहले हुई थी, तभी से इन दोनों में नाजायज संबंध बन गए थे. रईसों के इस घर में 64 लाख रुपए भी तिजोरी में रखे थे, जो बलवंत सिंह को एक जमीन बेचने के बाद मिले थे. मुमकिन है कि यह भारीभरकम नकदी भी इस वारदात की वजह रही हो. बलवंत सिंह जैसे विधुर बूढ़ों की सैक्स की भूख कैसे मिटे,

यह एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन बहू को अपने जाल में फंसा कर इसे शांत किया जाए, तो अंत दुखद होना कुदरती बात है, क्योंकि कोई बेटा यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि उस के पिता और पत्नी आपस में सैक्स संबंध बनाते हुए उसे धोखा दें. प्यार या हवस कुंदन कुमार की मौत के बाद जितनी हैरानी कुरथौल गांव के लोगों को हुई थी, उतनी ही हैरानी अलवर शहर के लोगों को विक्रम सिंह की हत्या पर हुई थी. ऐसी खबरें, जिन में पूरा घर बरबाद हो जाता है, सोचने को मजबूर करती हैं कि आखिर यह प्यार था या हवस थी? देखा जाए, तो ऐसे संबंधों में दोनों ही चीजें बराबरी से रहती हैं. 1-2 बार ये संबंध भले ही लिहाज और दबाव में बनते हों, लेकिन फिर धीरेधीरे ससुरबहू दोनों को ही हमबिस्तरी की लत या आदत कुछ भी कह लें, पड़ जाती है और इस में उन्हें इतना मजा आने लगता है कि वे किसी अंजाम की परवाह नहीं करते हैं. यहां से पैदा होता है एक जुर्म,

फिर भले ही वह कुंदन कुमार की खुदकुशी हो या विक्रम सिंह की हत्या हो. ससुरबहू के नाजायज संबंध कभी हैरानी की बात नहीं रहे, कम से कम इस लिहाज से तो कतई नहीं कि ये एक मर्द और एक औरत के बीच कायम होते हैं, लेकिन चूंकि ये सभी के लिए नुकसानदेह साबित होते हैं, इसलिए ससुरबहू को इन के अंजाम पर गौर करते हुए इन्हें पनपने ही नहीं देना चाहिए और अगर पनप चुके हों तो तुरंत इन पर लगाम लगा देनी चाहिए. एकांत के मौके इफरात से मिलते हैं और कोई आसानी से शक नहीं करता, पर इस का बेजा फायदा उठाना अकसर बड़ी परेशानी का सबब बन जाता है. सच यह भी है कि पति के निकम्मे, आवारा, नशेड़ी, बेरोजगार, दब्बू या नामर्द होने पर ऐसे संबंधों के पनपने में सहूलियत रहती है. पत्नी को सैक्स की भूख मिटाने के लिए कहीं और नहीं ताकना पड़ता,

वह आसानी से ससुर से ही आशनाई कर बैठती है, लेकिन गलत आखिर गलत ही होता है, इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. वह दौर और था, जब बचपन में बेटे की शादी हो जाती थी और ससुर की उम्र 35-40 साल होती थी. घर का मुखिया होने के नाते वह बहू से जोरजबरदस्ती करता भी था, तो किसी की हिम्मत उसे रोकनेटोकने की नहीं होती थी. लेकिन अब बहुतकुछ बदल जाने के बाद भी इन नाजायज ताल्लुकात का सिलसिला थम नहीं रहा है, तो जरूरत जागरूकता और समझ की है कि राज आज नहीं तो कल खुलना ही है और एक अपराध होना तय है, तो क्यों न अभी से संभला जाए. द्य ड्डनहीं बनना ससुर के बच्चे की मां ससुर अगर जोरजबरदस्ती करे, तो बहू ज्यादा विरोध नहीं कर पाती. ऐसा ही कुछ ग्वालियर के नजदीक मालनपुर की सुमित्रा (बदला हुआ नाम) के साथ हुआ. उत्तर प्रदेश के जालौन की सुमित्रा की शादी जून, 2021 में हुई थी. शुरू के कुछ दिन तो हंसीखुशी से बीते, लेकिन जल्द ही ससुर की नीयत उस की जवानी और खूबसूरती पर डोलने लगी.

13 फरवरी, 2022 को ससुर ने जबरदस्ती उस से शारीरिक संबंध बनाए, जिस से वह पेट से हो आई. यह बात उस ने घर वालों को बताई, तो बवंडर मच गया. अपनी गैरत बचाने और ससुर की हैवानियत उजागर करने के लिए सुमित्रा ने ग्वालियर हाईकोर्ट में याचिका दायर करते हुए आपबीती बताई व बच्चा गिराने की इजाजत मांगी. 22 मई, 2022 को कोर्ट ने उस से हलफनामा मांगा है कि वाकई उस के पेट में पल रहे बच्चे का पिता उस का ससुर है और अगर बच्चा ससुर का नहीं हुआ, तो उस पर ससुर की इज्जत पर कीचड़ उछालने और बच्चे की हत्या करने का मुकदमा चलाया जाएगा. हाईकोर्ट ने यह सख्ती इसलिए भी बरती है कि कुछ मामलों में बहुत सी औरतें नजदीकी रिश्ते के किसी मर्द पर ऐसे ही आरोप लगा कर बाद में मुकर गईं.

अब देखना दिलचस्प होगा कि सुमित्रा क्या करती है. वैसे, सटीक तरीका डीएनए टैस्ट का है, जिस से यह पता चल जाता है कि बच्चा किस का है. यह इसलिए भी जरूरी है कि कोई औरत झूठा हलफनामा भी दे सकती है. सुमित्रा जैसी बहुओं को चाहिए कि वे ससुर की जोरजबरदस्ती का समय रहते विरोध करें और तुरंत थाने में रिपोर्ट दर्ज कराएं. ससुरबहू ने की शादी हर मामले में यह जरूरी नहीं है कि बहू के साथ संबंध ससुर द्वारा उसे डराधमका कर, लालच दे कर या बहलाफुसला कर ही बनाए जाते हैं, बल्कि कई बार बहू खुद ससुर के प्यार में अंधी हो जाती है. ऐसा ही एक अजीबोगरीब मामला पिछले साल जून महीने में राजस्थान के अलवर में देखने में आया था, जब 52 साल के ससुर प्रभाती लाल ने अपनी 29 साल की बहू लाली देवी से शादी कर ली थी.

काम उन्होंने गुपचुप नहीं किया था, बल्कि पहले दिल्ली जा कर आर्य समाज मंदिर में सात फेरे लिए और फिर शादी रजिस्टर्ड कराने के लिए तीस हजारी कोर्ट भी गए थे. प्यार होने के बाद वे दोनों दिल्ली के द्वारका इलाके के सैक्टर-3 में जा कर किराए के मकान में बाकायदा मियांबीवी की तरह रहने लगे थे. उन्होंने समझदारी दिखाते हुए तमाम कानूनी एहतियात बरते थे. लाली देवी ने अलवर में ही अपने पति पर मारपीट का आरोप लगाते हुए उस से तलाक ले लिया था और बहू के प्यार में पड़े प्रभाती लाल ने भी अपनी बीवी को तलाक दे दिया था यानी शादी पर एतराज जताने की कोई वजह नहीं छोड़ी थी. दिलचस्प बात लाली देवी का 2 बच्चों की मां होना है. अब इस रिश्ते पर कोई उंगली नहीं उठा सकता है. यह और बात है कि दादा प्रभाती लाल ही अपनी बहू लाली देवी के बच्चों का पिता बन गया है और वह अपने ही पति की मां बन गई है. बहू को जायज और कानूनी तौर पर पत्नी बनाने का देश का यह पहला उजागर मामला है.

बलि का अपराध और जेल, हैवानियत का गंदा खेल

हमारे देश में सैकड़ों सालों से अंधविश्वास चला आ रहा है. दिमाग में कहीं न कहीं यह झूठ घर करा दिया गया है कि अगर अगर गड़ा हुआ धन हासिल करना है, तो किसी मासूम की बलि देनी होगी, जबकि हकीकत यह है कि यह एक ऐसा झूठा है, जो न जाने कितने किताबों में लिखा गया है और अब सोशल मीडिया में भी फैलता चला जा रहा है. ऐसे में कमअक्ल लोग किसी की जान ले कर रातोंरात अमीर बनना चाहते हैं. मगर पुलिस की पकड़ में आ कर जेल की चक्की पीसते हैं और ऐसा अपराध कर बैठते हैं, जिस की सजा तो मिलनी ही है.

सचाई यह है कि आज विज्ञान का युग है. अंधविश्वास की छाई धुंध को विज्ञान के सहारे साफ किया जा सकता है, मगर फिर अंधविश्वास के चलते एक मासूम बच्चे की जान ले ली गई.

देश के सब से बड़े धार्मिक प्रदेश कहलाने वाले उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में एक तथाकथित तांत्रिक ने 2 नौजवानों के साथ मिल कर एक 8 साल के मासूम बच्चे की गला रेत कर हत्या कर दी गई थी और तंत्रमंत्र का कर्मकांड किया गया था. उस बच्चे की लाश को गड्डा खोद कर छिपा दिया गया था.

ऐसे लोगों को यह लगता है कि अंधविश्वास के चलते किसी की जान ले कर के वे बच जाएंगे और कोई उन्हें पकड़ नहीं सकता, मगर ऐसे लोग पकड़ ही लिए जाते हैं. इस मामले में भी ऐसा ही हुआ.

अंधविश्वास के मारे इन बेवकूफों को लगता है कि ऐसा करने से जंगल में कहीं गड़ा ‘खजाना’ मिल जाएगा, मगर आज भी ऐसे अनपढ़ लोग हैं, जिन्हें लगता है कि जादूटोना, तंत्रमंत्र या कर्मकांड के सहारे गड़ा धन मिल सकता है.

समाज विज्ञानी डाक्टर संजय गुप्ता के मुताबिक, आज तकनीक दूरदराज के इलाकों तक पहुंच चुकी है और इस के जरीए ज्यादातर लोगों तक कई भ्रामक जानकारियां पहुंच पाती हैं. मगर जिस विज्ञान और तकनीक के सहारे अज्ञानता पर पड़े परदे को हटाने में मदद मिल सकती है, उसी के सहारे कुछ लोग अंधविश्वास और लालच में बलि प्रथा जैसे भयावाह कांड कर जाते हैं जो कमअक्ल और पढ़ाईलिखाई की कमी का नतीजा है.

डाक्टर जीआर पंजवानी के मुताबिक, कोई भी इनसान इंटरनैट पर अपनी दिलचस्पी से जो सामग्री देखतापढ़ता है, उसे उसी से संबंधित चीजें दिखाई देने लगती हैं फिर पढ़ाईलिखाई की कमी और अंधश्रद्धा के चलते, जिस का मूल है लालच के चलते अंधविश्वास के जाल में लोग उलझ जाते हैं और अपराध कर बैठते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता सनद दास दीवान के मुताबिक, अपराध होने पर कानूनी कार्यवाही होगी, मगर इस से पहले हमारा समाज और कानून सोया रहता है, जबकि आदिवासी अंचल में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, लिहाजा इस के लिए सरकार को सजक हो कर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए.

हाईकोर्ट के एडवोकेट बीके शुक्ला ने बताया कि एक मामला उन की निगाह में ऐसा आया था, जिस में एक मासूम की बलि दी गई थी. कोर्ट ने अपराधियों को सजा दी थी.

दरअसल, इस की मूल वजह पैसा हासिल करना होता है. सच तो यह है कि लालच में आ कर पढ़ाईलिखाई की कमी के चलते यह अपराथ हो जाता है. लोगों को यह समझना चाहिए कि किसी भी अपराध की सजा से वे किसी भी हालत में बच नहीं सकते और सब से बड़ी बात यह है कि ऐसे अपराध करने वालों को समाज को भी बताना चाहिए कि उन के हाथों से ऐसा कांड हो गया और उन्हें कुछ भी नहीं मिला, उन के हाथ खाली के खाली रह गए.

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