Social Issue, लेखक - बलराम सिंह पाल
भारत में पिछड़े दलित तबके के हकों की बात तभी होती है, जब लोकसभा या विधानसभा के चुनाव होते हैं. उस समय टैलीविजन स्क्रीन के हर चैनल पर मीडिया तुरंत दिखाने लगती है कि इस राजनीतिक पार्टी की दलित वोट बैंक में इतनी पकड़, इस क्षेत्र में इतने दलित वोटर, इन का नेता ये, इस पार्टी का दलित वोटर का बैंक इतना, और यह सब होने के बावजूद इस समाज के ये बेचारे पिछड़े लोग ‘जय भीम’ के नारे लगाते हुए इन को वोट भी दे देते हैं. लेकिन चुनाव के बाद इन की हालत फिर भी वैसी की वैसी ही रहती है.
क्या इसी दिन के लिए डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने महात्मा गांधी के साथ साल 1932 में पूना समझौता किया था? इस दलित और पिछड़े तबके के कल्याण का दावा करने के लिए, इन के हक के लिए लड़ने को ले कर कई पार्टियों का गठन हुआ, जिस में सब से प्रमुख कांशीराम की लीडरशिप में बहुजन समाज पार्टी आई.
कांशीराम, जिन्होंने दलित तबके की जद्दोजेहद के लिए सवर्ण तबके के खिलाफ अपने तल्ख तेवर और तीखे नारे ‘ठाकुर, बाभन, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस4’ और ‘तिलक, तराजू और तलवार, इन को मारो जूते चार’ दिए.
इन नारों के दम पर बहुजन समाज पार्टी ने काफी हद तक दलित तबके के दिल में अपनी जगह बना ली थी, लेकिन मायावती ने कांशीराम के जीतेजी साल 1997 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अपनी पौलिसी की उलट सोच वाली भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर सरकार चलाने में न केवल समर्थन दिया, बल्कि खुद मुख्यमंत्री बनीं.
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