Beautiful Story: शायद बर्फ पिघल जाए

‘‘हमारा जीवन कोई जंग नहीं है मीना कि हर पल हाथ में हथियार ही ले कर चला जाए. सामने वाले के नहले पर दहला मारना ही क्या हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया है?’’ मैं ने समझाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘अब अपनी उम्र को भी देख लिया करो.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी उम्र को?’’ मीना बोली, ‘‘छोटाबड़ा जैसे चाहे मुझ से बात करे, क्या उन्हें तमीज न सिखाऊं?’’

‘‘तुम छोटेबड़े, सब के हर काम में अपनी टांग क्यों फंसाती हो, छोटे के साथ बराबर का बोलना क्या तुम्हें अच्छा लगता है?’’

‘‘तुम मेरे सगे हो या विजय के? मैं जानती हूं तुम अपने ही खून का साथ दोगे. मैं ने अपनी पूरी उम्र तुम्हारे साथ गुजार दी मगर आज भी तुम मेरे नहीं अपने परिवार के ही सगे हो.’’

मैं ने अपना सिर पीट लिया. क्या करूं मैं इस औरत का. दम घुटने लगता है मेरा अपनी ही पत्नी मीना के साथ. तुम ने खाना मुझ से क्यों न मांगा, पल्लवी से क्यों मांग लिया. सिरदर्द की दवा पल्लवी तुम्हें क्यों खिला रही थी? बाजार से लौट कर तुम ने फल, सब्जी पल्लवी को क्यों पकड़ा दी, मुझे क्यों नहीं बुला लिया. मीना अपनी ही बहू पल्लवी से अपना मुकाबला करे तो बुरा लगना स्वाभाविक है.

उम्र के साथ मीना परिपक्व नहीं हुई उस का अफसोस मुझे होता है और अपने स्नेह का विस्तार नहीं किया इस पर भी पीड़ा होती है क्योंकि जब मीना ब्याह कर मेरे जीवन में आई थी तब मेरी मां, मेरी बहन के साथ मुझे बांटना उसे सख्त नागवार गुजरता था. और अब अपनी ही बहू इसे अच्छी नहीं लगती. कैसी मानसिकता है मीना की?

मुझे मेरी मां ने आजाद छोड़ दिया था ताकि मैं खुल कर सांस ले सकूं. मेरी बहन ने भी शादी के बाद ज्यादा रिश्ता नहीं रखा. बस, राखी का धागा ही साल भर बाद याद दिला जाता था कि मैं भी किसी का भाई हूं वरना मीना के साथ शादी के बाद मैं एक ऐसा अनाथ पति बन कर रह गया जिस का हर कोई था फिर भी पत्नी के सिवा कोई नहीं था. मैं ने मीना के साथ निभा लिया क्योंकि मैं पलायन में नहीं, निभाने में विश्वास रखता हूं, लेकिन अब उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं सब का प्यार चाहता हूं, सब के साथ मिल कर रहना चाहता हूं तो सहसा महसूस होता है कि मैं तो सब से कटता जा रहा हूं, यहां तक कि अपने बेटेबहू से भी.

मीना के अधिकार का पंजा शादी- शुदा बेटे के कपड़ों से ले कर उस के खाने की प्लेट तक है. अपना हाथ उस ने खींचा ही नहीं है और मुझे लगता है बेटा भी अपना दम घुटता सा महसूस करने लगा है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है बहू से ज्यादा घुलनेमिलने की. पराया खून पराया ही रहता है,’’ मीना ने सदा की तरह एकतरफा फैसला सुनाया तो बरसों से दबा लावा मेरी जबान से फूट निकला.

‘‘मेरी मां, बहन और मेरा भाई विजय तो अपना खून थे पर तुम ने तो मुझे उन से भी अलग कर दिया. मेरा अपना आखिर है कौन, समझा सकती हो मुझे? बस, वही मेरा अपना है जिसे तुम अपना कहो…तुम्हारे अपने भी बदलते रहते हैं… कब तक मैं रिश्तों को तुम्हारी ही आंखों से देखता रहूंगा.’’

कहतेकहते रो पड़ा मैं, क्या हो गया है मेरा जीवन. मेरी सगी बहन, मेरा सगा भाई मेरे पास से निकल जाते हैं और मैं उन्हें बुलाता ही नहीं…नजरें मिलती हैं तो उन में परायापन छलकता है जिसे देख कर मुझे तकलीफ होती है. हम 3 भाई, बहन जवान हो कर भी जरा सी बात न छिपाते थे और आज वर्षों बीत गए हैैं उन से बात किए हुए.

आज जब जीवन की शाम है, मेरी बहू पल्लवी जिस पर मैं अपना ममत्व अपना दुलार लुटाना चाहता हूं, वह भी मीना को नहीं सुहाता. कभीकभी सोचता हूं क्या नपुंसक हूं मैं? मेरी शराफत और मेरी निभा लेने की क्षमता ही क्या मेरी कमजोरी है? तरस आता है मुझे कभीकभी खुद पर.

क्या वास्तव में जीवन इसी जीतहार का नाम है? मीना मुझे जीत कर अलग ले गई होगी, उस का अहं संतुष्ट हो गया होगा लेकिन मेरी तो सदा हार ही रही न. पहले मां को हारा, फिर बहन को हारा. और उस के बाद भाई को भी हार गया.

‘‘विजय चाचा की बेटी का  रिश्ता पक्का हो गया है, पापा. लड़का फौज में कैप्टन है,’’ मेरे बेटे दीपक ने खाने की मेज पर बताया.

‘‘अच्छा, तुझे बड़ी खबर है चाचा की बेटी की. वह तो कभी यहां झांकने भी नहीं आया कि हम मर गए या जिंदा हैं.’’

‘‘हम मर गए होते तो वह जरूर आता, मीना, अभी हम मरे कहां हैं?’’

मेरा यह उत्तर सुन हक्काबक्का रह गया दीपक. पल्लवी भी रोटी परोसती परोसती रुक गई.

‘‘और फिर ऐसा कोई भी धागा हम ने भी कहां जोड़े रखा है जिस की दुहाई तुम सदा देती रहती हो. लोग तो पराई बेटी का भी कन्यादान अपनी बेटी की तरह ही करते हैं, विजय तो फिर भी अपना खून है. उस लड़की ने ऐसा क्या किया है जो तुम उस के साथ दुश्मनी निभा रही हो.

खाना पटक दिया मीना ने. अपनेपराए खून की दुहाई देने लगी.

‘‘बस, मीना, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि कल क्या हुआ था. जो भी हुआ उस का इस से बुरा परिणाम और क्या होगा कि इतने सालों से हम दोनों भाइयों ने एकदूसरे की शक्ल तक नहीं देखी… आज अगर पता चला है कि उस की बच्ची की शादी है तो उस पर भी तुम ताना कसने लगीं.’’

‘‘उस की शादी का तो मुझे 15 दिन से पता है. क्या वह आप को बताने आया?’’

‘‘अच्छा, 15 दिन से पता है तो क्या तुम बधाई देने गईं? सदा दूसरों से ही उम्मीद करती हो, कभी यह भी सोचा है कि अपना भी कोई फर्ज होता है. कोई भी रिश्ता एकतरफा नहीं चलता. सामने वाले को भी तो पता चले कि आप को उस की परवा है.’’

‘‘क्या वह दीपक की शादी में आया था?’’ अभी मीना इतना ही कह पाई थी कि मैं खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ.

मीना का व्यवहार असहनीय होता जा रहा है. यह सोच कर मैं सिहर उठता कि एक दिन पल्लवी भी दीपक को ले कर अलग रहने चली जाएगी. मेरी उम्र भर की साध मेरा बेटा भी जब साथ नहीं रहेगा तो हमारा क्या होगा? शायद इतनी दूर तक मीना सोच नहीं सकती है.

सहसा माली ने अपनी समस्या से चौंका दिया, ‘‘अगले माह भतीजी का ब्याह है. आप की थोड़ी मदद चाहिए होगी साहब, ज्यादा नहीं तो एक जेवर देना तो मेरा फर्ज बनता ही है न. आखिर मेरे छोटे भाई की बेटी है.’’

ऐसा लगा  जैसे किसी ने मुझे आसमान से जमीन पर फेंका हो. कुछ नहीं है माली के पास फिर भी वह अपनी भतीजी को कुछ देना चाहता है. बावजूद इस के कि उस की भी अपने भाई से अनबन है. और एक मैं हूं जो सर्वसंपन्न होते हुए भी अपनी भतीजी को कुछ भी उपहार देने की भावना और स्नेह से शून्य हूं. माली तो मुझ से कहीं ज्यादा धनवान है.

पुश्तैनी जायदाद के बंटवारे से ले कर मां के मरने और कार दुर्घटना में अपने शरीर पर आए निशानों के झंझावात में फंसा मैं कितनी देर तक बैठा सोचता रहा, समय का पता ही नहीं चला. चौंका तो तब जब पल्लवी ने आ कर पूछा, ‘‘क्या बात है, पापा…आप इतनी रात गए यहां बैठे हैं?’’ धीमे स्वर में पल्लवी बोली, ‘‘आप कुछ दिन से ढंग से खापी नहीं रहे हैं, आप परेशान हैं न पापा, मुझ से बात करें पापा, क्या हुआ…?’’

जरा सी बच्ची को मेरी पीड़ा की चिंता है यही मेरे लिए एक सुखद एहसास था. अपनी ही उम्र भर की कुछ समस्याएं हैं जिन्हें समय पर मैं सुलझा नहीं पाया था और अब बुढ़ापे में कोई आसान रास्ता चाह रहा था कि चुटकी बजाते ही सब सुलझ जाए. संबंधों में इतनी उलझनें चली आई हैं कि सिरा ढूंढ़ने जाऊं तो सिरा ही न मिले. कहां से शुरू करूं जिस का भविष्य में अंत भी सुखद हो? खुद से सवाल कर खुद ही खामोश हो लिया.

‘‘बेटा, वह…विजय को ले कर परेशान हूं.’’

‘‘क्यों, पापा, चाचाजी की वजह से क्या परेशानी है?’’

‘‘उस ने हमें शादी में बुलाया तक नहीं.’’

‘‘बरसों से आप एकदूसरे से मिले ही नहीं, बात भी नहीं की, फिर वह आप को क्यों बुलाते?’’ इतना कहने के बाद पल्लवी एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘आप बड़े हैं पापा, आप ही पहल क्यों नहीं करते…मैं और दीपक आप के साथ हैं. हम चाचाजी के घर की चौखट पार कर जाएंगे तो वह भी खुश ही होंगे…और फिर अपनों के बीच कैसा मानअपमान, उन्होंने कड़वे बोल बोल कर अगर झगड़ा बढ़ाया होगा तो आप ने भी तो जरूर बराबरी की होगी…दोनों ने ही आग में घी डाला होगा न, क्या अब उसी आग को पानी की छींट डाल कर बुझा नहीं सकते?…अब तो झगड़े की वजह भी नहीं रही, न आप की मां की संपत्ति रही और न ही वह रुपयापैसा रहा.’’

पल्लवी के कहे शब्दों पर मैं हैरान रह गया. कैसी गहरी खोज की है. फिर सोचा, मीना उठतीबैठती विजय के परिवार को कोसती रहती है शायद उसी से एक निष्पक्ष धारणा बना ली होगी.

‘‘बेटी, वहां जाने के लिए मैं तैयार हूं…’’

‘‘तो चलिए सुबह चाचाजी के घर,’’ इतना कह कर पल्लवी अपने कमरे में चली गई और जब लौटी तो उस के हाथ में एक लाल रंग का डब्बा था.

‘‘आप मेरी ननद को उपहार में यह दे देना.’’

‘‘यह तो तुम्हारा हार है, पल्लवी?’’

‘‘आप ने ही दिया था न पापा, समय नहीं है न नया हार बनवाने का. मेरे लिए तो बाद में भी बन सकता है. अभी तो आप यह ले लीजिए.’’

कितनी आसानी से पल्लवी ने सब सुलझा दिया. सच है एक औरत ही अपनी सूझबूझ से घर को सुचारु रूप से चला सकती है. यह सोच कर मैं रो पड़ा. मैं ने स्नेह से पल्लवी का माथा सहला दिया.

‘‘जीती रहो बेटी.’’

अगले दिन पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार पल्लवी और मैं अलगअलग घर से निकले और जौहरी की दुकान पर पहुंच गए, दीपक भी अपने आफिस से वहीं आ गया. हम ने एक सुंदर हार खरीदा और उसे ले कर विजय के घर की ओर चल पड़े. रास्ते में चलते समय लगा मानो समस्त आशाएं उसी में समाहित हो गईं.

‘‘आप कुछ मत कहना, पापा,’’ पल्लवी बोली, ‘‘बस, प्यार से यह हार मेरी ननद को थमा देना. चाचा नाराज होंगे तो भी हंस कर टाल देना…बिगड़े रिश्तों को संवारने में कई बार अनचाहा भी सहना पड़े तो सह लेना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, दीपक कितना भाग्यवान है कि उसे पल्लवी जैसी पत्नी मिली है जिसे जोड़ने का सलीका आता है.

विजय के घर की दहलीज पार की तो ऐसा लगा मानो मेरा हलक आवेग से अटक गया है. पूरा परिवार बरामदे में बैठा शादी का सामान सहेज रहा था. शादी वाली लड़की चाय टे्र में सजा कर रसोई से बाहर आ रही थी. उस ने मुझे देखा तो उस के पैर दहलीज से ही चिपक गए. मेरे हाथ अपनेआप ही फैल गए. हैरान थी मुन्नी हमें देख कर.

‘‘आ जा मुन्नी,’’ मेरे कहे इस शब्द के साथ मानो सारी दूरियां मिट गईं.

मुन्नी ने हाथ की टे्र पास की मेज पर रखी और भाग कर मेरी बांहों में आ समाई.

एक पल में ही सबकुछ बदल गया. निशा ने लपक कर मेरे पैर छुए और विजय मिठाई के डब्बे छोड़ पास सिमट आया. बरसों बाद भाई गले से मिला तो सारी जलन जाती रही. पल्लवी ने सुंदर हार मुन्नी के गले में पहना दिया.

किसी ने भी मेरे इस प्रयास का विरोध नहीं किया.

‘‘भाभी नहीं आईं,’’ विजय बोला, ‘‘लगता है मेरी भाभी को मनाने की  जरूरत पड़ेगी…कोई बात नहीं. चलो निशा, भाभी को बुला लाएं.’’

‘‘रुको, विजय,’’ मैं ने विजय को यह कह कर रोक दिया कि मीना नहीं जानती कि हम यहां आए हैं. बेहतर होगा तुम कुछ देर बाद घर आओ. शादी का निमंत्रण देना. हम मीना के सामने अनजान होेने का बहाना करेंगे. उस के बाद हम मान जाएंगे. मेरे इस प्रयास से हो सकता है मीना भी आ जाए.’’

‘‘चाचा, मैं तो बस आप से यह कहने आया हूं कि हम सब आप के साथ हैं. बस, एक बार बुलाने चले आइए, हम आ जाएंगे,’’ इतना कह कर दीपक ने मुन्नी का माथा चूम लिया था.

‘‘अगर भाभी न मानी तो? मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं…’’ निशा ने संदेह जाहिर किया.

‘‘न मानी तो न सही,’’ मैं ने विद्रोही स्वर में कहा, ‘‘घर पर रहेगी, हम तीनों आ जाएंगे.’’

‘‘इस उम्र में क्या आप भाभी का मन दुखाएंगे,’’ विजय बोला, ‘‘30 साल से आप उन की हर जिद मानते चले आ रहे हैं…आज एक झटके से सब नकार देना उचित नहीं होगा. इस उम्र में तो पति को पत्नी की ज्यादा जरूरत होती है… वह कितना गलत सोचती हैं यह उन्हें पहले ही दिन समझाया होता, इस उम्र में वह क्या बदलेंगी…और मैं नहीं चाहता वह टूट जाएं.’’

विजय के शब्दों पर मेरा मन भीगभीग गया.

‘‘हम ताईजी से पहले मिल तो लें. यह हार भी मैं उन से ही लूंगी,’’ मुन्नी ने सुझाव दिया.

‘‘एक रास्ता है, पापा,’’ पल्लवी ने धीरे से कहा, ‘‘यह हार यहीं रहेगा. अगर मम्मीजी यहां आ गईं तो मैं चुपके से यह हार ला कर आप को थमा दूंगी और आप दोनों मिल कर दीदी को पहना देना. अगर मम्मीजी न आईं तो यह हार तो दीदी के पास है ही.’’

इस तरह सबकुछ तय हो गया. हम अलगअलग घर वापस चले आए. दीपक अपने आफिस चला गया.

मीना ने जैसे ही पल्लवी को देखा सहसा उबल पड़ी,  ‘‘सुबहसुबह ही कौन सी जरूरी खरीदारी करनी थी जो सारा काम छोड़ कर घर से निकल गई थी. पता है न दीपक ने कहा था कि उस की नीली कमीज धो देना.’’

‘‘दीपक उस का पति है. तुम से ज्यादा उसे अपने पति की चिंता है. क्या तुम्हें मेरी चिंता नहीं?’’

‘‘आप चुप रहिए,’’ मीना ने लगभग डांटते हुए कहा.

‘‘अपना दायरा समेटो, मीना, बस तुम ही तुम होना चाहती हो सब के जीवन में. मेरी मां का जीवन भी तुम ने समेट लिया था और अब बहू का भी तुम ही जिओगी…कितनी स्वार्थी हो तुम.’’

‘‘आजकल आप बहुत बोलने लगे हैं…प्रतिउत्तर में मैं कुछ बोलता उस से पहले ही पल्लवी ने इशारे से मुझे रोक दिया. संभवत: विजय के आने से पहले वह सब शांत रखना चाहती थी.

निशा और विजय ने अचानक आ कर मीना के पैर छुए तब सांस रुक गई मेरी. पल्लवी दरवाजे की ओट से देखने लगी.

‘‘भाभी, आप की मुन्नी की शादी है,’’ विजय विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कृपया, आप सपरिवार आ कर उसे आशीर्वाद दें. पल्लवी हमारे घर की बहू है, उसे भी साथ ले कर आइए.’’

‘‘आज सुध आई भाभी की, सारे शहर में न्योता बांट दिया और हमारी याद अब आई…’’

मैं ने मीना की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘तुम से डरता जो है विजय, इसीलिए हिम्मत नहीं पड़ी होगी… आओ विजय, कैसी हो निशा?’’

विजय के हाथ से मैँ ने मिठाई का डब्बा और कार्ड ले लिया. पल्लवी को पुकारा. वह भी भागी चली आई और दोनों को प्रणाम किया.

‘‘जीती रहो, बेटी,’’ निशा ने पल्लवी का माथा चूमा और अपने गले से माला उतार कर पल्लवी को पहना दी.

मीना ने मना किया तो निशा ने यह कहते हुए टोक दिया कि पहली बार देखा है इसे दीदी, क्या अपनी बहू को खाली हाथ देखूंगी.

मूक रह गई मीना. दीपक भी योजना के अनुसार कुछ फल और मिठाई ले कर घर चला आया, बहाना बना दिया कि किसी मित्र ने मंगाई है और वह उस के घर उत्सव पर जाने के लिए कपड़े बदलने आया है.

‘‘अब मित्र का उत्सव रहने दो बेटा,’’ विजय बोला, ‘‘चलो चाचा के घर और बहन की डोली सजाओ.’’

दीपक चाचा से लिपट फूटफूट कर रो पड़ा. एक बहन की कमी सदा खलती थी दीपक को. मुन्नी के प्रति सहज स्नेह बरसों से उस ने भी दबा रखा था. दीपक का माथा चूम लिया निशा ने.

क्याक्या दबा रखा था सब ने अपने अंदर. ढेर सारा स्नेह, ढेर सारा प्यार, मात्र मीना की जिद का फल था जिसे सब ने इतने साल भोगा था.

‘‘बहन की शादी के काम में हाथ बंटाएगा न दीपक?’’

निशा के प्रश्न पर फट पड़ी मीना, ‘‘आज जरूरत पड़ी तो मेरा बेटा और मेरा पति याद आ गए तुझे…कोई नहीं आएगा तेरे घर पर.’’

अवाक् रह गए सब. पल्लवी और दीपक आंखें फाड़फाड़ कर मेरा मुंह देखने लगे. विजय और निशा भी पत्थर से जड़ हो गए.

‘‘तुम्हारा पति और तुम्हारा बेटा क्या तुम्हारे ही सबकुछ हैं किसी और के कुछ नहीं लगते. और तुम क्या सोचती हो हम नहीं जाएंगे तो विजय का काम रुक जाएगा? भुलावे में मत रहो, मीना, जो हो गया उसे हम ने सह लिया. बस, हमारी सहनशीलता इतनी ही थी. मेरा भाई चल कर मेरे घर आया है इसलिए तुम्हें उस का सम्मान करना होगा. अगर नहीं तो अपने भाई के घर चली जाओ जिन की तुम धौंस सारी उम्र्र मुझ पर जमाती रही हो.’’

‘‘भैया, आप भाभी को ऐसा मत कहें.’’

विजय ने मुझे टोका तब न जाने कैसे मेरे भीतर का सारा लावा निकल पड़ा.

‘‘क्या मैं पेड़ पर उगा था और मीना ने मुझे तोड़ लिया था जो मेरामेरा करती रही सारी उम्र. कोई भी इनसान सिर्फ किसी एक का ही कैसे हो सकता है. क्या पल्लवी ने कभी कहा कि दीपक सिर्फ उस का है, तुम्हारा कुछ नहीं लगता? यह निशा कैसे विजय का हाथ पकड़ कर हमें बुलाने चली आई? क्या इस ने सोचा, विजय सिर्फ इस का पति है, मेरा भाई नहीं लगता.’’

मीना ने क्रोध में मुंह खोला मगर मैं ने टोक दिया, ‘‘बस, मीना, मेरे भाई और मेरी भाभी का अपमान मेरे घर पर मत करना, समझीं. मेरी भतीजी की शादी है और मेरा बेटा, मेरी बहू उस में अवश्य शामिल होंगे, सुना तुम ने. तुम राजीखुशी चलोगी तो हम सभी को खुशी होगी, अगर नहीं तो तुम्हारी इच्छा…तुम रहना अकेली, समझीं न.’’

चीखचीख कर रोने लगी मीना. सभी अवाक् थे. यह उस का सदा का नाटक था. मैं ने उसे सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘विजय, तुम खुशीखुशी जाओ और शादी के काम करो. दीपक 3 दिन की छुट्टी ले लेगा. हम तुम्हारे साथ हैं. यहां की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन भाभी?’’

‘‘भाभी नहीं होगी तो क्या हमें भी नहीं आने दोगे?’’

चुप था विजय. निशा के साथ चुपचाप लौट गया. शाम तक पल्लवी भी वहां चली गई. मैं भी 3-4 चक्कर लगा आया. शादी का दिन भी आ गया और दूल्हादुलहन आशीर्वाद पाने के लिए अपनीअपनी कुरसी पर भी सज गए.

मीना अपने कोपभवन से बाहर नहीं आई. पल्लवी, दीपक और मैं विदाई तक उस का रास्ता देखते रहे. आधीअधूरी ही सही मुझे बेटी के ब्याह की खुशी तो मिली. विजय बेटी की विदाई के बाद बेहाल सा हो गया. इकलौती संतान की विदाई के बाद उभरा खालीपन आंखों से टपकने लगा. तब दीपक ने यह कह कर उबार लिया, ‘‘चाचा, आंसू पोंछ लें. मुन्नी को तो जाना ही था अपने घर… हम हैं न आप के पास, यह पल्लवी है न.’’

मैं विजय की चौखट पर बैठा सोचता रहा कि मुझ से तो दीपक ही अच्छा है जिसे अपने को अपना बनाना आता है. कितने अधिकार से उस ने चाचा से कह दिया था, ‘हम हैं न आप के पास.’ और बरसों से जमी बर्फ पिघल गई थी. बस, एक ही शिला थी जिस तक अभी स्नेह की ऊष्मा नहीं पहुंच पाई थी. आधीअधूरी ही सही, एक आस है मन में.

आफ्टर औल बराबरी का जमाना है

शाम को घर लौटने पर सारा घर अस्तव्यस्त पा कर गिरीश को कोई हैरानी नहीं हुई. शायद अब उसे आदत सी हो चुकी थी. उसे हर बार याद हो आता प्रसिद्ध लेखक चेतन भगत का वह लेख, जिस में उन्होंने जिक्र किया है कि यदि घर का मर्द गरम रोटियों का लालच त्याग दे तभी उस घर की स्त्री घरेलू जिम्मेदारियों के साथसाथ अपने कैरियर पर भी ध्यान देते हुए उसे आगे बढ़ा सकती है. इस लेख का स्मरण गिरीश को शांतचित्त रहने में काफी मददगार साबित होता. जब शुमोना से विवाह हेतु गिरीश को परिवार से मिलवाया गया था तभी उसे शुमोना के दबंग व्यक्तित्व तथा स्वतंत्र सोच का आभास हो गया था.

‘‘मेरा अपना दिमाग है और वह अपनी राह चलता है,’’ शुमोना का यह वाक्य ही पर्याप्त था उसे यह एहसास दिलाने हेतु कि शुमोना के साथ निर्वाह करना है तो बराबरी से चलना होगा.

गिरीश ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी. घर के कामकाज में जितना हो सकता मदद करता. उदाहरणस्वरूप, सुबह दफ्तर जाने से पूर्व वाशिंग मशीन में कपड़े धो जाता या फिर कभी कामवाली के छुट्टी मार जाने पर शुमोना घर की साफसफाई करती तो वह बरतन मांज देता. हां, खाना बनाने में उस का हाथ तंग था. कभी अकेला नहीं रहा तो स्वयं खाना बनाना सीखने की नौबत ही नहीं आई. मां के हाथ का खाना खाता रहा. किंतु नौकरी पर यहां दूसरे शहर आया तो पहले कैंटीन का खाना खाता रहा और फिर जल्द ही घर वालों ने सुखसुविधा का ध्यान रखते हुए शादी करवा दी.

घर में घुसने के साथ ही गिरीश ने एक गिलास ठंडा पानी पिया और फिर घर को व्यवस्थित करने में जुट गया. शुमोना अभी तक दफ्तर से नहीं लौटी थी. आज कामवाली फिर नहीं आई थी. अत: सुबह बस जरूरी काम निबटा कर दोनों अपनेअपने दफ्तर रवाना हो गए थे.

‘‘अरे, तुम कब आए? आज मैं थोड़ी लेट हो गई,’’ घर में प्रवेश करते हुए शुमोना बोली.

‘‘मैं भी बस अभी आया. करीब 15 मिनट पहले,’’ गिरीश घर को व्यवस्थित करते हुए बोला.

‘‘आज फिर हमारी टीम में जोरदार बहस छिड़ गई, बस इसीलिए थोड़ी लेट हो गई. वह संचित है न कहने लगा कि औरतों के लिए प्रमोशन पाना बस एक मुसकराहट फेंकने जितना कठिन है. बताओ जरा, यह भी कोई बात हुई. मैं ने भी खूब खरीखरी सुनाई उसे कि ये मर्द खुद को पता नहीं क्या समझते हैं. हम औरतें बराबर मेहनत कर शिक्षा पाती हैं, कंपीटिशन में बराबरी से जूझ कर नौकरी पाती हैं और नौकरी में भी बराबर परिश्रम कर अपनी जौब बचाए रखती हैं. उलटा हमें तो आगे बढ़ने के लिए और भी ज्यादा परिश्रम करना पड़ता है. ग्लास सीलिंग के बारे में नहीं सुना शायद जनाब ने.’’

‘‘तुम मानती हो ग्लास सीलिंग? लेकिन तुम्हें तो कभी किसी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा?’’

‘‘मुझे इसलिए नहीं करना पड़ा, क्योंकि मैं एक सशक्त स्त्री हूं, एक सबला हूं, कोई अबला नहीं. कोई मर्द मुझ से जीत कर तो दिखाए.’’

‘‘अब इस मर्द पर तो जुल्म मत करो, डार्लिंग. कुछ खानावाना खिला दो,’’ गिरीश से भूख बरदाश्त नहीं हो रही थी.

‘‘अभी तुम ही ग्लास सीलिंग न होने की बात कर रहे थे न? मैं भी तुम्हारी तरह दफ्तर से आई हूं. तुम्हारी तरह थकी हूं और तुम हो कि…’’

‘‘क्या करूं, खाने के मामले में मैं तुम पर आश्रित जो हूं वरना तुम्हारी कामवाली के न आने पर बाकी सारा काम मैं तुम्हारे साथ करता हूं. अब ऐसा भी लुक मत दो जैसे तुम पर कोई जुल्म कर रहा हूं. चाहे तो खिचड़ी ही बना दो.’’

शुमोना ने मन मार कर खाना बनाया, क्योंकि पहले ऐसा होने पर जबजब उस ने बाहर से खाना और्डर किया, तबतब गिरीश का पेट खराब हो गया था. गिरीश को सफाई का मीनिया था. किंतु शुमोना को अस्तव्यस्त सामान से कोई परेशानी नहीं होती थी. वह खाना खाते समय टेबल पर रखा सामान उठा कर सोफे पर रख देती और सोफे पर पसरने से पूर्व सोफे का सामान उठा कर टेबल पर वापस पहुंचा देती.

गिरीश टोकता तो पलटवार कर कहती, ‘‘तुम्हें इतना अखरता है तो खुद ही उठा दिया करो न. आखिर मैं भी तुम्हारी तरह कामकाजी हूं, दफ्तर जाती हूं. आफ्टर औल बराबरी का जमाना है.’’

एक बार गिरीश की मां आई हुई थीं. दोनों के बीच ऐसी बातचीत सुन उन से बिना टोके रहा नहीं गया.

बोलीं, ‘‘बराबरी की बात तो ठीक है और होनी भी चाहिए, लेकिन समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ काम अलगअलग मर्द और औरत में बांट दिए गए हैं. मसलन, घर संभालना, खानेपीने की जिम्मेदारी औरतों पर, जबकि घर से बाहर के काम, ताकत, बोझ के काम मर्दों पर डाल दिए गए.’’

लेकिन उन की बात को शुमोना ने एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया. यहां तक कि कमरे के अंदर जब गिरीश शुमोना को बांहों में भरता तो वह अकसर यह कह कर झटक देती, ‘‘तुम मेरी शुरुआत का इंतजार क्यों नहीं कर सकते, गिरीश?’’

‘‘मैं तो कभी जोरजबरदस्ती नहीं करता, शुमोना. तुम्हारा मन नहीं है तो कोई बात नहीं.’’

‘‘मुझ से जबरदस्ती कोई नहीं कर सकता. तुम भी नहीं.’’

‘‘मैं भी तो वही कह रहा हूं कि मैं कोई जबरदस्ती नहीं करता. इस में बहस का मुद्दा क्या है?’’ शुमोना की बेबात की अकड़ में गिरीश परेशान हो उठता.

कुछ माह बाद शुमोना की मां उन के घर रहने आईं. अपनी बेटी की गृहस्थी को देख कर वे बहुत खुश हुईं. मगर उन के समक्ष भी गिरीश शुमोना के बीच होती रहती बराबरी की बहस छिड़ी. गिरीश को अचानक टूअर पर जाना पड़ा. उस ने अपने औफिस से शुमोना को फोन कर के कहा कि उस का बैग तैयार कर दो.

‘‘ऊंह, बस, दे दिया और्डर. मेरे भी अपने काम हैं. अपना काम खुद क्यों नहीं करता गिरीश? अगर उसे कल टूअर पर जाना है, तो जल्दी घर आए और अपना बैग लगाए. शादी से पहले भी तो सब काम करता था न. आफ्टर औल बराबरी का जमाना है.’’

‘‘यह क्या बात हुई, शुमोना? तुम उस की पत्नी हो. यदि तुम उस का घरबार नहीं संभालोगी तो और कौन संभालेगा? अगर अकेलेअकेले ही जीना है तो शादी किसलिए करते हैं? कल को तुम कहने लगोगी कि मैं बच्चे क्यों पैदा करूं, गिरीश क्यों नहीं,’’ शुमोना की मां को उस का यह रवैया कतई रास न आया.

‘‘आप तो मेरी सास की भाषा बोलने लगी हो,’’ उन के मुख से भी ऐसी वाणी सुन शुमोना विचलित हो उठी.

अब उन्होंने थोड़ा नर्म रुख अपनाया, ‘‘बेटी, सास हो या मां, बात दोनों पते की करेंगी. बुजुर्गों ने जमाना देखा होता है. उन के पास तजरबा होता है. होशियारी इसी में है कि छोटों को उन के अनुभव का फायदा उठाना चाहिए.’’

‘‘पर मां, मैं ने भी तो उतनी ही शिक्षा प्राप्त की है जितनी गिरीश ने. मेरी जौब भी उतनी ही कठिन है जितनी गिरीश की. फिर मैं ही क्यों गृहस्थी की जिम्मेदारी ओढ़ूं? आप तो जानती हैं कि मैं शुरू से नारीवाद की पक्षधर रही हूं.’’

‘‘तुम ज्यादती कर रही हो, शुमोना. नारीवाद का अर्थ यह नहीं कि औरतें हर बात में मर्दों के खिलाफ मोरचा खोलना शुरू कर दें. घरगृहस्थी पतिपत्नी की आपसी सूझबूझ तथा तालमेल से चलती है. जहां तक संभव है, गिरीश तुम्हारी पूरी मदद करता है. अब कुछ काम जो तुम्हें संभालने हैं, वे तो तुम ही देखोगी न.’’

मगर मां की मूल्यवान सीख भी शुमोना की नजरों में बेकार रही.

शादी को साल बीततेबीतते गिरीश ने स्वयं को शुमोना के हिसाब से ढाल लिया

था. वह अपनी पत्नी से प्यार करता था और बस यह चाहता था कि उस की पत्नी खुश रहे. किंतु शुमोना का नारीवाद थमने का नाम नहीं ले रहा था. गिरीश के कुछ सहकर्मी, दोस्त घर आए. उन की नई बौस की बात चल निकली, ‘‘पता नहीं इतनी अकड़ू क्यों है हमारी बौस? किसी भी बात को बिना अकड़ के कह ही नहीं पाती.’’

गिरीश के एक सहकर्मी के यह कहते ही शुमोना बिफर पड़ी, ‘‘किसी भी औरत को अपने बौस के रूप में बरदाश्त करना मुश्किल हो रहा होगा न तुम मर्दों के लिए? कोई आदमी होता तो बुरा नहीं लगता, मगर औरत है इसलिए उस की पीठ पीछे उस का मजाक उड़ाओगे, उस की खिल्ली उड़ाओगे, उस के साथ तालमेल नहीं बैठाओगे.’

‘‘अरे, भाभी को क्या हो गया?’’

‘‘शुमोना, तुम हम सब की फितरत से भलीभांति वाकिफ हो, जबकि हमारी बौस को जानती भी नहीं हो. फिर भी तुम उन की तरफदारी कर रही हो?’’ शुमोना के इस व्यवहार से गिरीश हैरान था.

अब तक वह जान चुका था कि शुमोना के मन में मर्दों के खिलाफ बेकार की रंजिश है. वह मर्दों को औरतों का दुश्मन समझती है और इसीलिए घर के कामकाज में बेकार की बराबरी व होड़ रखती है.

उस रात गिरीश तथा शुमोना डिनर पर बाहर गए थे. खापी कर जब अपनी गाड़ी में घर लौट रहे थे तब कुछ मनचले मोटरसाइकिलों पर पीछे लग गए. करीब 3 मोटरसाइकिलों पर 6-7 लड़के सवार थे, जो गाड़ी के पीछे से सीटियां बजा रहे थे और हूहू कर चीख रहे थे.

‘‘मैं ने पहले ही कहा था कि इस रास्ते से गाड़ी मत लाओ पर तुम्हें पता नहीं कौन सा शौर्टकट दिख रहा था. अब क्या होगा?’’ शुमोना काफी डर गई थी.

‘‘क्या होगा? कुछ नहीं. डर किस बात का? आफ्टर औल बराबरी का जमाना है.’’

गिरीश के यह कहते ही शुमोना की हवाइयां उड़ने लगीं. वह समझ गई कि उस की बारबार कही गई यह बात गिरीश को भेद गई है.

अब तक वह बहुत घबरा गई थी. अत: बोली, ‘‘गिरीश, तुम मेरे पति हो. मेरा ध्यान रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है. बराबरी अपनी जगह है और मेरी रक्षा करना अपनी जगह. तुम अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हट सकते.’’

गिरीश ने बिना कोई उत्तर दिए गाड़ी इतनी तेज दौड़ाई कि सीधा पुलिस स्टेशन के पास ला कर रोकी. वहां पहुंचते ही मोटरसाइकिल सवार नौ दो ग्यारह हो गए. घर पहुंच कर दोनों ने चैन की सांस ली, किंतु किसी ने भी एकदूसरे से कोई बातचीत नहीं की. गिरीश चुप था, क्योंकि वह तो शुमोना को सोचने का समय देना चाहता था और शुमोना खामोश थी, क्योंकि वह आहत थी. उस ने अपने मुंह से अपनी कमजोरी की बात कही थी.

अगली सुबह गिरीश अपने दफ्तर चला गया और शुमोना अपने औफिस. कंप्यूटर पर काम करते हुए शुमोना ने देखा कि उस के ईमेल पर गिरीश का मैसेज आया है. लिखा था-

‘दुलहन के सिंदूर से शोभित हुआ ललाट, दूल्हेजी के तिलक को रोली हुई अलौट.

रोली हुई अलौट, टौप्स, लौकेट, दस्ताने, छल्ला, बिछुआ, हार, नाम सब हैं मर्दाने.

लालीजी के सामने लाला पकड़े कान, उन का घर पुर्लिंग है, स्त्रीलिंग दुकान.

स्त्रीलिंग दुकान, नाम सब किस ने छांटे, काजल, पाउडर हैं पुर्लिंग नाक के कांटे.

कह काका कवि धन्य विधाता भेद न जाना, मूंछ मर्दों की मिली किंतु है नाम जनाना…

‘‘शायद तुम ने काका हाथरसी का नाम सुना होगा. यह उन्हीं की कविता है. मर्द और औरत का द्वंद्व बहुत पुराना है, किंतु दोनों एकदूसरे के पूरक हैं यह बात उतनी ही सही है जितना यह संसार. यदि आदमी और औरत सिर्फ एकदूसरे से लड़ते रहें, होड़ करते रहें तो किसी भी घर में कभी शांति नहीं होगी. कभी कोई गृहस्थी फूलेगी फलेगी नहीं और कभी किसी बच्चे का बचपन खुशहाल नहीं होगा. इस बेकार की भावना से बाहर आओ शुमोना और मेरे प्यार को पहचानो.’’

उस शाम गिरीश के घर आते ही डाइनिंग टेबल पर गरमगरम भोजन उस की राह देख रहा था. मुसकराती शुमोना उस की बाट जोह रही थी. उसे देखते ही हंसी और फिर उस के गले में बांहें डालते हुए बोली, ‘‘अपना काम मैं कर चुकी हूं. अब तुम्हारी बारी.’’

खाने के बाद गिरीश शुमोना को बांहों में उठाए कमरे में ले चला. शुमोना उस के कंधे पर झुकी मुसकराए जा रही थी.

काली सोच : क्या वो खुद को माफ कर पाई

अंधविश्वास, पुरातनपंथी और कट्टरवादी सोच ने न जाने कितनों का घर उजाड़ा है. शुभा की आंखों पर भी न जाने क्यों इन्हीं सब का परदा पड़ा हुआ था, जिस का परिणाम इतना भयावह होगा, इस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

लेखन कला मुझे नहीं आती, न ही वाक्यों के उतारचढ़ाव में मैं पारंगत हूं. यदि होती तो शायद मुझे अपनी बात आप से कहने में थोड़ी आसानी रहती. खुद को शब्दों में पिरोना सचमुच क्या इतना मुश्किल होता है?

बाहर पूनम का चांद मुसकरा रहा है. नहीं जानती कि वह मुझ पर, अपनेआप पर या किसी और पर मुस्कुरा रहा है. मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह भी पूनम की ऐसी ही एक रात थी जब मैं अस्पताल के आईसीयू के बाहर बैठी अपने गुनाहों के लिए बेटी से माफी मांग रही थी, ‘मुझे माफ कर दे बेटी. पाप किया है मैं ने, महापाप.’

मानसी, मेरी इकलौती बेटी, भीतर आईसीयू में जीवन और मौत के बीच झूल रही है. उस ने आत्महत्या करने की कोशिश की, यह तो सभी जानते हैं पर यह कोई नहीं जानता कि उसे इस हाल तक लाने वाली मैं ही हूं. मैं ने उस मासूम के सामने कोई और रास्ता छोड़ा ही कहां था?

कहते हैं आत्महत्या करना कायरों का काम है पर क्या मैं कायर नहीं जो भविष्य की दुखद घटनाओं की आशंका से वर्तमान को ही रौंदती चली आई?

हर मां का सपना होता है कि वह अपनी नाजों से पाली बेटी को सोलहशृंगार में पति के घर विदा करे. मैं भी इस का अपवाद नहीं थी. तिनकातिनका जोड़ कर जैसे चिडि़या अपना घोंसला बनाती है. वैसे ही मैं भी मानसी की शादी के सपने संजोती गई. वह भी मेरी अपेक्षाओं पर हमेशा खरी उतरी. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. शांत, सुसभ्य, मृदुभाषिणी मानसी घरबाहर सब की चहेती थी. एक मां को इस से ज्यादा और क्या चाहिए?

‘देखना अपनी लाडो के लिए मैं चांद सा दूल्हा लाऊंगी,’ मैं सुशांत से कहती तो वे मुसकरा देते.

उस दिन मानसी की 12वीं कक्षा का परिणाम आया था. वह पूरे स्टेट में फर्स्ट आईर् थी. नातेरिश्तेदारों की तरफ से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. हमारे पड़ोसी व खास दोस्त विनोद भी हमारे घर आए थे मिठाई ले कर.

‘मिठाई तो हमें खिलानी चाहिए भाईसाहब, आप ने क्यों तकलीफ की,’ सुशांत ने गले मिलते हुए कहा तो वे बोले, ‘हां हां, जरूर खाएंगे. सिर्फ मिठाई ही क्यों? हम तो डिनर भी यहीं करेंगे, लेकिन पहले आप मेरी तरफ से मुंह मीठा कीजिए. रोहित का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया है.’

‘फिर तो आज दोहरी खुशी का दिन है. मानसी ने 12वीं में टौप किया है. मैं ने मिठाई की प्लेट उन की ओर बढ़ाई.’

‘आप चाहें तो हम यह खुशी तिहरी कर लें,’ विनोद ने कहा.

‘हम समझे नहीं,’ मैं अचकचाई.

‘अपनी बेटी मानसी को हमारे आंचल में डाल दीजिए. मेरी बेटी की कमी पूरी हो जाएगी और आप की बेटे की,’ मिसेज विनोद बड़ी मोहब्बत से बोली.

‘देखिए भाभीजी, आप के विचारों की मैं इज्जत करती हूं, लेकिन मुंह रहते कोई नाक से पानी नहीं पीता. शादीविवाह अपनी बिरादरी में ही शोभा देते हैं,’ इस से पहले कि सुशांत कुछ कहते मैं ने सपाट सा उत्तर दे दिया.

‘जानती हूं मैं. सदियों पुरानी मान्यताएं तोड़ना आसान नहीं होता. हमें भी काफी वक्त लगा है इस फैसले तक पहुंचने में. आप भी विचार कर देखिएगा,’ कहते हुए वे लोग चले गए.

‘इस में हर्ज ही क्या है शुभा? दोनों बच्चे बचपन से एकदूसरे को जानते हैं, समझते हैं. सब से बढ़ कर बौद्धिक और वैचारिक समानता है दोनों में. मेरे खयाल से तो हमें इस रिश्ते के लिए हां कह देनी चाहिए.’ सुशांत ने कहा तो मेरी त्योरियां चढ़ गईं.

‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. आलते का रंग चाहे जितना शोख हो, उस का टीका नहीं लगाते. कहां वो, कहां हम उच्चकुलीन ब्राह्मण. हमारी उन की भला क्या बराबरी? दोस्ती तक तो ठीक है, पर रिश्तेदारी अपनी बराबरी में होनी चाहिए. मुझे यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं है.’

‘एक बार खुलेमन से सोच कर तो देखो. आखिर इस में बुराई ही क्या है? दीपक ले कर ढूंढ़ेंगे तो भी ऐसा दामाद हमें नहीं मिलेगा’, सुशांत ने कहा.

‘मुझे जो कहना था मैं ने कह दिया. तुम्हें इतना ही पसंद है तो कहीं से मुझे जहर ला दो. अपने जीतेजी तो मैं यह अनर्थ नहीं होने दूंगी. अरे, रिश्तेदार हैं, समाज है उन्हें क्या मुंह दिखाएंगे. दस लोग दस तरह के सवाल पूछेंगे, क्या जवाब देंगे उन्हें हम?’

मैं ने कहा तो सुशांत चुप हो गए. उस दिन मैं ने मानसी को ध्यान से देखा. वाकई मेरी गुडि़या विवाहयोग्य हो गई थी. लिहाजा, मैं ने पुरोहित को बुलावा भेजा.

‘बिटिया की कुंडली में तो घोर मंगल योग है बहूरानी. पतिसुख से यह वंचित रहेगी. पुरोहित के मुख से यह सुन कर मेरा मन अनिष्ट की आशंका से कांप उठा. मैं मध्यवर्गीय धर्मभीरू परिवार से थी और लड़की के मंगला होने के परिणाम से पूरी तरह परिचित थी. मैं ने लगभग पुरोहित के पैर पकड़ लिए, ‘कोई उपाय बताइए पुरोहितजी. पूजापाठ, यज्ञहवन, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. मुझे कैसे भी इस मंगल दोष से छुटकारा दिलाइए.’

‘शांत हो जाइए बहूरानी. मेरे होते हुए आप को परेशान होने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है,’ उन्होंने रसगुल्ले को मुंह में दबाते हुए कहा, ‘ऐसा कीजिए, पहले तो बिटिया का नाम मानसी के बजाय प्रिया रख दीजिए.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है पंडितजी. इस उम्र में नाम बदलने के लिए न तो बिटिया तैयार होगी न उस के पापा. वे कुंडली मिलान के लिए भी तैयार नहीं थे.’

‘तैयार तो बहूरानी राजा दशरथ भी नहीं थे राम वनवास के लिए.’ पंडितजी ने घोर दार्शनिक अंदाज में मुझे त्रियाहट का महत्त्व समझाया व दक्षिणा ले कर चलते बने.

‘आज से तुम्हारा नाम मानसी के बजाय प्रिया रहेगा,’ रात के खाने पर मैं ने बेटी को अपना फैसला सुना दिया.

‘लेकिन क्यों मां, इस नाम में क्या बुराई है?’

‘वह सब मैं नहीं जानती बेटा, पर मैं जो कुछ भी कर रही हूं तुम्हारे भले के लिए ही कर रही हूं. प्लीज, मुझे समझने की कोशिश करो.’

उस ने मुझे कितना समझा, कितना नहीं, यह तो मैं नहीं जानती पर मेरी बात का विरोध नहीं किया.

हर नए रिश्ते के साथ मैं उसे हिदायतों का पुलिंदा पकड़ा देती.

‘सुनो बेटा, लड़के की लंबाई थोड़ा कम है, इसलिए फ्लैटस्लीपर ही पहनना.’

‘लेकिन मां फ्लैटस्लीपर तो मुझ पर जंचते नहीं हैं.’

‘देखो प्रिया, यह लड़का 6 फुट का है. इसलिए पैंसिलहील पहनना.’

‘लेकिन मम्मी मैं पैंसिलहील पहन कर तो चल ही नहीं सकती. इस से मेरे टखनों में दर्द होता है.’

‘प्रिया, मौसी के साथ पार्लर हो आना. शाम को कुछ लोग मिलने आ

रहे हैं.’

‘मैं नहीं जाऊंगी. मुझे मेकअप पसंद नहीं है.’

‘बस, एक बार तुम्हारी शादी हो जाए, फिर करती रहना अपने मन की.’

मैं सुबकने लगती तो प्रिया हथियार

डाल देती.

पर मेरी सारी तैयारियां धरी की धरी रह जातीं जब लड़के वाले ‘फोन से खबर करेंगे’, कहते हुए चले जाते या फिर दहेज में मोटी रकम की मांग करते, जिसे पूरा करना किसी मध्यवर्गीय परिवार के वश की बात नहीं थी.

‘ऐसा कीजिए बहूरानी, शनिवार की सुबह 3 बजे बिटिया से पीपल के फेरे लगवा कर ग्रहशांति का पाठ करवाइए,’ पंडितजी ने दूसरी युक्ति सुझाई.

‘तुम्हें यह क्या होता जा रहा है मां, मैं ये जाहिलों वाले काम बिलकुल नहीं करूंगी,’ प्रिया गुस्से से भुनभुनाई, ‘पीपल के फेरे लगाने से कहीं रिश्ते बनते हैं.’

‘सच ही तो है, शादियां यदि पीपल के फेरे लगाने से

तय होतीं तो सारी विवाहयोग्य लड़कियां पीपल के इर्दगिर्द ही घूमती नजर आतीं,’ सुशांत ने भी हां में हां मिलाई.

‘चलो, माना कि नहीं होती पर हमें यह सब करने में हर्ज ही क्या है?’

‘हर्ज है शुभा, इस से लड़कियों का मनोबल गिरता है. उन का आत्मसम्मान आहत होता है. बारबार लड़के वालों द्वारा नकारे जाने पर उन में हीनभावना घर कर जाती है. तुम ये सब समझना क्यों नहीं चाहतीं. मानसी को पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने दो. उसे जो बनना है वह बन जाने दो. फिर शादी भी हो जाएगी,’ सुशांत ने मुझे समझाने की कोशिश की.

‘तब तक सारे अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाएंगे, फिर सुनते रहना रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ताने.’

‘रिश्तेदारों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे. उन की बातों से डर कर क्या हम बेटी की खुशियों, उस के सपनों का गला घोंट दें.’

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं क्या इस की दुश्मन हूं. अरे, लड़कियां चाहे कितनी भी पढ़लिख जाएं, उन्हें आखिर पराए घर ही जाना होता है. घरपरिवार और बच्चे संभालने ही होते हैं और इन सब कामों की एक उम्र होती है. उम्र निकलने के बाद यही काम बोझ लगने लगते हैं.’

‘तो हमतुम मिल कर संभाल लेंगे न इन की गृहस्थी.’

‘संभालेंगे तो तब न जब ब्याह होगा इस का. लड़के वाले तो मंगला सुनते ही भाग खड़े होते हैं.’

हमारी बहस अभी और चलती अगर सुशांत ने मानसी की डबडबाई आंखों को देख न लिया होता.

सुशांत ने ही बीच का रास्ता निकाला था. वे कहीं से पीपल का बोनसाई का पौधा ले आए थे, जिस से मेरी बात भी रह जाए और प्रिया को घर से बाहर भी न जाना पड़े.

साल गुजरते जा रहे थे. मानसी की कालेज की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी.

अंधविश्वास, पुरातनपंथी और कट्टरवादी सोच ने न जाने कितनों का घर उजाड़ा है. शुभा की आंखों पर भी न जाने क्यों इन्हीं सब का परदा पड़ा हुआ था, जिस का परिणाम इतना भयावह होगा, इस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

लेखन कला मुझे नहीं आती, न ही वाक्यों के उतारचढ़ाव में मैं पारंगत हूं. यदि होती तो शायद मुझे अपनी बात आप से कहने में थोड़ी आसानी रहती. खुद को शब्दों में पिरोना सचमुच क्या इतना मुश्किल होता है?

बाहर पूनम का चांद मुसकरा रहा है. नहीं जानती कि वह मुझ पर, अपनेआप पर या किसी और पर मुस्कुरा रहा है. मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह भी पूनम की ऐसी ही एक रात थी जब मैं अस्पताल के आईसीयू के बाहर बैठी अपने गुनाहों के लिए बेटी से माफी मांग रही थी, ‘मुझे माफ कर दे बेटी. पाप किया है मैं ने, महापाप.’

मानसी, मेरी इकलौती बेटी, भीतर आईसीयू में जीवन और मौत के बीच झूल रही है. उस ने आत्महत्या करने की कोशिश की, यह तो सभी जानते हैं पर यह कोई नहीं जानता कि उसे इस हाल तक लाने वाली मैं ही हूं. मैं ने उस मासूम के सामने कोई और रास्ता छोड़ा ही कहां था?

कहते हैं आत्महत्या करना कायरों का काम है पर क्या मैं कायर नहीं जो भविष्य की दुखद घटनाओं की आशंका से वर्तमान को ही रौंदती चली आई?

हर मां का सपना होता है कि वह अपनी नाजों से पाली बेटी को सोलहशृंगार में पति के घर विदा करे. मैं भी इस का अपवाद नहीं थी. तिनकातिनका जोड़ कर जैसे चिडि़या अपना घोंसला बनाती है. वैसे ही मैं भी मानसी की शादी के सपने संजोती गई. वह भी मेरी अपेक्षाओं पर हमेशा खरी उतरी. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. शांत, सुसभ्य, मृदुभाषिणी मानसी घरबाहर सब की चहेती थी. एक मां को इस से ज्यादा और क्या चाहिए?

‘देखना अपनी लाडो के लिए मैं चांद सा दूल्हा लाऊंगी,’ मैं सुशांत से कहती तो वे मुसकरा देते.

उस दिन मानसी की 12वीं कक्षा का परिणाम आया था. वह पूरे स्टेट में फर्स्ट आईर् थी. नातेरिश्तेदारों की तरफ से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. हमारे पड़ोसी व खास दोस्त विनोद भी हमारे घर आए थे मिठाई ले कर.

‘मिठाई तो हमें खिलानी चाहिए भाईसाहब, आप ने क्यों तकलीफ की,’ सुशांत ने गले मिलते हुए कहा तो वे बोले, ‘हां हां, जरूर खाएंगे. सिर्फ मिठाई ही क्यों? हम तो डिनर भी यहीं करेंगे, लेकिन पहले आप मेरी तरफ से मुंह मीठा कीजिए. रोहित का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया है.’

‘फिर तो आज दोहरी खुशी का दिन है. मानसी ने 12वीं में टौप किया है. मैं ने मिठाई की प्लेट उन की ओर बढ़ाई.’

‘आप चाहें तो हम यह खुशी तिहरी कर लें,’ विनोद ने कहा.

‘हम समझे नहीं,’ मैं अचकचाई.

‘अपनी बेटी मानसी को हमारे आंचल में डाल दीजिए. मेरी बेटी की कमी पूरी हो जाएगी और आप की बेटे की,’ मिसेज विनोद बड़ी मोहब्बत से बोली.

‘देखिए भाभीजी, आप के विचारों की मैं इज्जत करती हूं, लेकिन मुंह रहते कोई नाक से पानी नहीं पीता. शादीविवाह अपनी बिरादरी में ही शोभा देते हैं,’ इस से पहले कि सुशांत कुछ कहते मैं ने सपाट सा उत्तर दे दिया.

‘जानती हूं मैं. सदियों पुरानी मान्यताएं तोड़ना आसान नहीं होता. हमें भी काफी वक्त लगा है इस फैसले तक पहुंचने में. आप भी विचार कर देखिएगा,’ कहते हुए वे लोग चले गए.

‘इस में हर्ज ही क्या है शुभा? दोनों बच्चे बचपन से एकदूसरे को जानते हैं, समझते हैं. सब से बढ़ कर बौद्धिक और वैचारिक समानता है दोनों में. मेरे खयाल से तो हमें इस रिश्ते के लिए हां कह देनी चाहिए.’ सुशांत ने कहा तो मेरी त्योरियां चढ़ गईं.

‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. आलते का रंग चाहे जितना शोख हो, उस का टीका नहीं लगाते. कहां वो, कहां हम उच्चकुलीन ब्राह्मण. हमारी उन की भला क्या बराबरी? दोस्ती तक तो ठीक है, पर रिश्तेदारी अपनी बराबरी में होनी चाहिए. मुझे यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं है.’

‘एक बार खुलेमन से सोच कर तो देखो. आखिर इस में बुराई ही क्या है? दीपक ले कर ढूंढ़ेंगे तो भी ऐसा दामाद हमें नहीं मिलेगा’, सुशांत ने कहा.

 

खोया हुआ आशिक : शालिनी के लौटने पर क्यों परेशान थी विनीता

‘‘हैलोविन्नी… कैसी हो मेरी जान… अरे, मैं शालिनी बोल रही हूं… तुम्हारी शालू’’ सुन कर विनीता को समझने में कुछ समय लगा, मगर फिर जल्दी ही जैसे दिमाग सोते से जागा.

‘‘अरे, शालू तुम? अचानक इतने सालों बाद? तुम तो नितेश से शादी कर के अमेरिका चली गई थी… आज इतने सालों बाद अचानक मेरी याद कैसे आई? क्या इंडिया आई हो?’’ विनीता ने अपने मन की घबराहट छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे बाप रे, इतने सारे सवाल एकसाथ? बताती हूं… बताती हूं… अभी तो बातें शुरू हुई हैं…’’ शालिनी ने अपनी आदत के अनुसार ठहाका लगाते हुए कहा.

‘‘पहले तू यह बता कि मेरे खोए हुए आशिक यानी जतिन के बारे में तुझे कोई खबर है क्या? शायद मेरी तरह उस ने भी हमारे अतीत के कुछ पन्ने संभाल कर रखें हों…’’ शालिनी का सवाल सुनते ही विनीता के हाथ से मोबाइल छूटने को हुआ. वह उसे कैसे बताती कि उस का खोया हुआ आशिक ही अब उस का पाया हुआ प्यार है… जिन अतीत के पन्नों की बात ‘शालू कर रही थी वही पन्ने उस के जाने के बाद विनीता वर्तमान में पढ़ रही है… हां, वही जतिन जो कभी शालू का आशिक हुआ करता था आज विनीता का पति है.’

विनीता को एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा तो उस ने 4-5 बार ‘‘हैलो… हैलो…’’ कह कर फोन काट दिया और फिर उसे स्विच औफ भी कर दिया. वह फिलहाल शालू के किसी भी सवाल का जवाब देने की स्थिति में नहीं थी.

विनीता बैडरूम में आ कर कटे पेड़ की तरह ढह गई. न जाने कितनी ही बातें… कितनी ही यादें थीं, जो 1-1 कर आंखों के रास्ते गुजर रही थी. कौन जाने… आंखों से यादें बह रही थीं या आंसुओं का सैलाब… कैसे भूल सकती है विनीता कालेज के आखिरी साल के वे दिन जब शालिनी ने अचानक नितेश से शादी करने के अपने पापा के फैसले को हरी झंडी दे दी थी. विनीता ने क्या कम समझाया था उसे?

‘‘शालू, तुम जतिन के साथ ऐसा कैसे कर सकती हो? उसे कितना भरोसा है तुम पर… बहुत प्यार करता है तुम से… वह टूट जाएगा शालू… मुझे तो डर है कि कहीं कुछ उलटासीधा न कर बैठे…’’ विनीता को शालू की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था. एक वही तो थी इस रिश्ते की चश्मदीद गवाह.

‘‘बी प्रैक्टिकल यार. प्यार अलग चीज है और शादी अलग… नितेश से जो मुझे मिल सकता है वह जतिन कभी नहीं दे सकता… नीतेश एअर इंडिया में पायलट है… महानगर में शानदार फ्लैट… अच्छी नौकरी… हैंडसम पर्सनैलिटी… रोज विदेश के दौरे… क्या

ये सब जतिन दे पाएगा मुझे? उसे तो अभी

सैटल होने में ही बरसों लग जाएंगे… तब तक

तो मैं बूढ़ी हो जाऊंगी…’’ शालू ने आदतन ठहाका लगाया.

‘‘देख शालू, तुझे जो करना है वह कर,

मगर प्लीज… फाइनल ऐग्जाम तक इस बारे में जतिन को कुछ मत बताना वरना वह एग्जाम भी नहीं दे पाएगा… उस का फ्यूचर खराब हो जाएगा…’’ विन्नी उस के सामने लगभग गिड़गिड़ा उठी.

‘‘ओके डन… मगर तू क्यों इतनी मरी जा रही है उस के लिए?’’ शालू विन्नी पर कटाक्ष करते हुए क्लास से चली गई.

फाइनल परीक्षा खत्म हो गई. आखिरी पेपर के बाद तीनों कालेज कैंटीन में मिले थे. तभी शालू ने नितेश के साथ अपनी सगाई की खबर सार्वजनिक की थी. विनीता की नजर लगातार जतिन के चेहरे पर ही टिकी थी. वह संज्ञा शून्य सा बैठा था. उन दोनों को सकते में छोड़ कर शालू कब की जा चुकी थी. विनीता किसी तरह जतिन को वहां से उठा कर ला पाई थी.

नितेश से शादी कर के 2 ही महीनों में शालू अमेरिका चली गई. फाड़ कर फेंक गई थी अपने अतीत के पन्ने… पीछे छोड़ गई थी टूटा… हारा… अपना आशिक… जिसे विनीता ने न केवल संभाला, बल्कि संवार निखार भी दिया. शालू की बेवफाई के गम को भुलाने के लिए जतिन ने अपने आप को पढ़ाई में डुबो दिया. विनीता ने उस के आंसुओं को कंधा दिया. वह लगातार उस का हौसला बढ़ाती रही. आखिर जतिन की मेहनत और विनीता की तपस्या रंग लाई. प्रशासनिक अधिकारी तो नहीं, मगर जतिन एक राजपत्रित अधिकारी तो बन ही गया था. अपनी सफलता का सारा श्रेय विनीता को देते हुए एक दिन जब जतिन ने उसे शादी के लिए प्रोपोज किया तो वह भी न नहीं कह सकी और घर वालों की सहमति से दोनों विवाहसूत्र में बंध गए. बेशक यह पहली नजर वाला प्रेम नहीं था, मगर हौलेहौले हो ही गया था.

तभी लैंडलाइन की घंटी ने उसे वर्तमान में ला दिया.

‘‘अरे, क्या बात है… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? मोबाइल स्विच औफ क्यों आ रहा है?’’ जतिन की आवाज में खुद के लिए इतनी फिक्र महसूस कर विनीता को दिली राहत मिली.

‘‘अच्छा… मोबाइल स्विच औफ है? मैं ने देखा नहीं… शायद चार्ज करना भूल गई,’’ विनीता साफ झूठ बोल गई.

‘‘सुनो, मुझे दोपहर बाद टूअर पर निकलना है. ड्राइवर को भेज रहा हूं, मेरा बैग पैक कर के दे देना. घर नहीं आ पाऊंगा, जरूरी मीटिंग है,’’ जतिन ने जल्दबाजी में कहा.

जतिन के टूअर अकसर ऐसे ही बनते. मगर हर बार की तरह इस बार विनीता परेशान नहीं हुई, बल्कि उस ने राहत की सांस ली, क्योंकि वह इस समय सचमुच एकांत चाहती थी ताकि शालिनी से आने से बनी इस परिस्थिति पर कुछ सोचविचार कर सके.

‘क्या होगा अगर उस ने घर आने और मेरे पति से मिलने की जिद की तो? क्या कहूंगी मैं शालू से? क्या जतिन से शादी कर के मैं ने कोई अपराध किया है?’ इन्हीं सवालों के जवाब वह एकांत में अपनेआप से पाना चाहती थी. पूरा दिन वह मंथन करती रही. उस की आशंका के अनुरूप अगले ही दिन दोपहर में शालिनी का फोन आ गया. अब तक विनीता अपनेआप को इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी.

‘‘यार विन्नी, तुम तो बड़ी छिपी रुस्तम निकली… मेरी ही थाली पर हाथ साफ कर लिया… मेरे आशिक को अपना पति बना लिया… मैं ने कल ही जतिन की फेसबुक आईडी देखी तो पता चला… क्या तुम्हारी पहले से ही प्लानिंग थी?’’ शालू का व्यंग्य सुन कर विन्नी गुस्से और अपमान से तिलमिला उठी.

‘‘नहीं शालू… थाली पर हाथ साफ नहीं किया, बल्कि जिस पौध को तुम कुचल कर खत्म होने के लिए फेंक गई थी मैं ने उसे सहेज कर फिर से गमले में लगा दिया… अब उस के फूल या फल, जो भी हों, वे मेरी ही झोली में आएंगे न… चल छोड़ ये बातें… तू बता क्या चल रहा है तेरी लाइफ में? कितने दिन के लिए इंडिया आई हो? अकेली आई हो या नितेश भी साथ है?’’ विन्नी ने संयत स्वर में पूछा.

‘‘अकेली आई हूं, हमेशा के लिए… हमारा तलाक हो गया.’’

‘‘क्यों? कैसे? वह तो तुम्हारे हिसाब से बिलकुल परफैक्ट मैच था न?’’

‘‘अरे यार, दूर के ढोल सुहावने होते हैं… नितेश भी बाहर से तो इतना मौडर्न… और भीतर से वही… टिपिकल इंडियन हस्बैंड… यहां मत जाओ… इस से मत मिलो… उस से दूर रहो… परेशान हो गई थी मैं उस से… खुद तो चाहे जिस से लिपट कर डांस करे… और कोई मेरी कमर में हाथ डाल दे तो जनाब को आग लग जाती थी… रोज हमारा झगड़ा होने लगा… बस, फिर हम आपसी सहमति से अलग हो गए. अब मैं हमेशा के लिए इंडिया आ गई हूं,’’ शालू ने बड़ी ही सहजता से अपनी कहानी बता दी जैसे यह कोई खास बात नहीं थी, मगर विनीता के मन में एक अनजाने डर ने कुंडली मार ली.

‘‘अगर यह हमेशा के लिए इंडिया आ गई है, तो जतिन से मिलने की कोशिश भी जरूर करेगी… कहीं इन दोनों का पुराना प्यार फिर से जाग उठा तो? कहते हैं कि व्यक्ति अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलता… फिर? उस का क्या होगा?’’ विनीता ने डर के मारे फोन काट दिया.

विनीता के दिल में शक के बादलों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया. उस का शक विश्वास में बदलने लगा जब एक दिन उस ने फेसबुक पर नोटिफिकेशन देखा, ‘‘जतिन बिकम्स फ्रैंड विद शालिनी.’’

‘‘जतिन ने मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा? हो सकता है शालिनी इन से मिली भी हो…’’ विनीता के दिल में शक के नाग ने फुफकार भरी. विनीता अपने दिल की बात किसी से भी शेयर नहीं कर पा रही थी. धीरेधीरे उस की मनोस्थिति उस पर हावी होने लगी. नतीजतन उस के व्यवहार में एक अजीब सा रूखापन आ गया. जतिन जब भी उसे हंसाने की कोशिश करता वह बिफर उठती.

‘‘तुम्हें पता है शालिनी वापस लौट आई है?’’ एक दिन औफिस से आते ही जतिन ने विस्फोट किया.

‘‘हां, उस ने एक दिन मुझे फोन किया था. मगर तुम्हें किस ने बताया?’’ विनीता ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा. जतिन की आंखों में उसे जरा भी चोरी नजर नहीं आई, बल्कि उन में तो विश्वास भरी चमक थी.

‘‘अरे, उसी ने आज मुझे भी फोन किया था. उसे टाइम पास करने के लिए कोई जौब चाहिए. मुझ से मदद मांग रही थी.’’

‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’

‘‘1-2 लोगों से कहा है… देखो, कहां बात बनती है.’’

‘‘मगर तुम्हें क्या जरूरत है किसी पचड़े में पड़ने की?’’

‘‘अरे यार, इंसानियत नाम की भी कोई चीज होती है या नहीं… चलो छोड़ो, तुम बढि़या सी चाय पिलाओ,’’ कहते हुए जतिन ने बात खत्म कर दी.

मगर यह बात इतनी आसानी से कहां खत्म होने वाली थी. विनीता के कानों में रहरह कर शालिनी की चैलेंज देती आवाज गूंज रही थी. अब उस के पास शालिनी के फोन आने बंद हो गए थे. इस बात ने भी विनीता की रातों की नींद उड़ा दी थी.

‘‘अब तो सीधे जतिन को ही कौल करती होगी… मैं तो शायद कबाब में हड्डी हो चुकी हूं,’’ विनीता अपनेआप से ही बातें करती परेशान होती रहती. इन सब के फलस्वरूप वह कुछ बीमार भी रहने लगी थी.

‘‘मेरे कहने पर एक होटल में शालिनी को एचआर की जौब मिल गई. इस खुशी में वह आज मुझे इसी होटल में ट्रीट देना चाहती है… तुम चलोगी?’’ एक शाम जतिन ने घर आते ही कहा.

‘‘पूछ रहे हो या चलने को कह रहे हो?’’ विनीता भीतर ही भीतर सुलग रही थी.

‘‘आजकल तुम्हें बाहर का खाना सूट नहीं करता न, इसलिए पूछ रहा हूं,’’ जतिन ने सहजता से कहा.

विनीता कुछ नहीं बोली. चुपचाप हारे हुए खिलाड़ी की तरह जतिन को अपने से दूर जाते देखती रही.

धीरेधीरे उस ने चुप्पी ही साथ ली. उस ने जतिन से दूरी बढ़ानी शुरू करदी. उन के रिश्ते में ठंडापन आने लगा. वह मन ही मन अपनेआप को जतिन से तलाक के लिए तैयार करने लगी. वहीं जतिन इसे उस की बीमारी के लक्षण समझ कर बहुत ही सामान्य रूप से ले रहा था. हमेशा की तरह वह उसे घर आते ही औफिस से जुड़ी मजेदार बातें बताता था. इन दिनों उस की बातों में शालिनी का जिक्र भी होने लगा था. हालांकि शालू कभी उन के घर नहीं आई, मगर जतिन के अनुसार वह कभीकभार उस से मिलने औफिस आ जाती. वह भी 1-2 बार उस के बुलावे पर होटल गया था.

जतिन की साफगोई के विपरीत विनीता इसे अपने खिलाफ शालिनी की साजिश समझ रही थी. भीतर ही भीतर घुटती विनीता आखिरकार एक दिन हौस्पिटल के बिस्तर पर पहुंच गई. जतिन घबरा गया. वह समझ नहीं पा रहा था कि हंसतीखेलती विन्नी को अचानक क्या हो गया है. ठीक है वह पिछले दिनों कुछ परेशान थी, मगर स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी, यह उस ने कल्पना भी नहीं की थी. जतिन उस का अच्छे से अच्छा इलाज करवा रहा था. जतिन की गैरमौजूदगी में एक दिन अचानक शालिनी उस से मिलने हौस्पिटल आई. विन्नी अनजाने डर से सिहर गई.

‘‘थैंक यू विन्नी, तुम्हारी बीमारी ने मेरा रास्ता बहुत आसान कर दिया… तुम जतिन से जितनी दूर जाओगी, वह उतना ही मेरे करीब आएगा…’’ शालिनी ने बेशर्मी से कहा. उस ने जतिन के साथ अपनी कुछ सैल्फियां भी उसे दिखाईं जिन में वह उस के साथ मुसकरा रहा था, साथ ही कुछ मनगढ़ंत चटपटे किस्से भी परोस दिए. शालू की बातें देखसुन कर विनीता ने मन ही मन इस रिश्ते के सामने हथियार डाल दिए.

‘‘जतिन, तुम शालू को अपना लो… अब तो तलाक की बाध्यता भी नहीं रहेगी… मैं ज्यादा दिन तुम्हें परेशान नहीं करूंगी…’’

विनीता के मुंह से ऐसी बात सुन कर जतिन चौंक गया. बोला, ‘‘आज तुम ये कैसी पागलों सी बातें कर रही हो? और यह शालू कहां से आ गई हमारे बीच में?’’

‘‘तुम्हें मुझ से कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं है. मुझे शालू ने सब बता दिया,’’ विन्नी ने किसी तरह अपनी सुबकाई रोकी, मगर आंखें तो फिर भी छलक ही उठीं.

‘‘तुम उस सिरफिरी शालू की बातों पर भरोसा कर रही हो मेरी बात पर नहीं… बस, इतना ही जानती हो अपने जतिन को? अरे, लाखों शालू भी आ जाएं तब भी मेरा फैसला तुम ही रहोगी… मगर शायद गलती तुम्हारी भी नहीं है… जरूर मेरे ही प्यार में कोई कमी रही होगी… मैं ही अपना भरोसा कायम नहीं रख पाया… मुझे माफ कर दो विन्नी… मगर इस तरह मुझ से दूर जाने की बात न करो…’’ जतिन भी रोने को हो आया.

‘‘यही सब बातें मैं अपनेआप को समझाने की बहुत कोशिश करती हूं. मगर दिल में कहीं दूर से आवाज आती है कि विन्नी तुम यह कैसे भूल रही हो कि शालू ही वह पहला नाम है जो जतिन ने अपने दिल पर लिखा था और फिर मैं दो कदम पीछे हट जाती हूं.’’

‘‘मुझे इस बात से इनकार नहीं कि शालू का नाम मेरे दिल पर लिखा था… मगर तुम्हारा नाम तो खुद गया है मेरे दिल पर… और खुदी हुई इबारतें कभी मिटा नहीं करतीं पगली…’’

‘‘तुम ने मुझे न केवल जिंदगी दी है,

बल्कि जीने के मकसद भी दिए हैं. तुम्हारे बिना न मैं कुछ हूं और न ही मेरी जिंदगी. अगर इस बीमारी की वजह शालू है, तो मैं आज इसे जड़ से ही खत्म कर देता हूं… अभी होटल के मालिक को फोन कर के शालू को नौकरी से हटाने को कह देता हूं, फिर जहां उस की मरजी हो चली जाए,’’ कह जतिन ने जेब से मोबाइल निकाला.

‘‘नहीं जतिन, रहने दीजिए… शायद सारी गलती मेरी ही थी… मुझे अपने प्यार पर भरोसा रखना चाहिए था… मगर मैं नहीं रख पाई… आशंकाओं के अंधेरे में भटक गई थी… मेरी आशंकाओं के बादल अब छंट चुके हैं… हमारे रिश्ते को किसी शालू से कोई खतरा नहीं…’’ विनीता मुसकरा दी.

तभी जतिन का मोबाइल बज उठा. शालिनी कौलिंग देख कर वह मुसकरा दिया. उस ने मोबाइल को स्पीकर पर कर दिया.

‘‘हैलो जतिन, फ्री हो तो क्या हम कौफी साथ पी सकते हैं? वैसे भी विन्नी तो हौस्पिटल में है… आ जाओ,’’ शालिनी ने मचलते हुए कहा.

‘‘विन्नी कहीं भी हो, हमेशा मेरे साथ मेरे दिल में होती है. और हां, यदि तुम ने मुझे ले कर कोई गलतफहमी पाल रखी है तो प्लीज भूल जाओ… तुम मेरी विन्नी की जगह कभी नहीं ले सकती… नाऊ बाय…’’ जतिन बहुत संयत था.

‘‘बाय ऐंड थैंक्स शालू… हमारे रिश्ते को और भी ज्यादा मजबूत बनाने के लिए…,’’ विन्नी भी खिलखिला कर जोर से बोली और फिर जतिन ने फोन काट दिया. दोनों देर तक एकदूसरे का हाथ थामे अपने रिश्ते की गरमाहट महसूस करते रहे.’’

उलझन : शीला जीजी क्यों ताना मार रही थी

आश्चर्य में डूबी रश्मि मुझे ढूंढ़ती हुई रसोईघर में पहुंची तो उस की नाक ने उसे एक और आश्चर्य में डुबो दिया, ‘‘अरे वाह, कचौरियां, बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है. किस के लिए बना रही हो, मां?’’

‘‘तेरे पिताजी के दोस्त आ रहे हैं आज,’’ उड़ती हुई दृष्टि उस के थके, कुम्हलाए चेहरे पर डाल मैं फिर चकले पर झुक गई.

‘‘कौन से दोस्त?’’ हाथ की किताबें बरतनों की अलमारी पर रखते हुए उस ने पूछा.

‘‘कोई पुराने साथी हैं कालिज के. मुंबई में रहते हैं आजकल.’’

जितनी उत्सुकता से उस के प्रश्न आ रहे थे, मैं उतनी ही सहजता से और संक्षेप में उत्तर दिए जा रही थी. डर रही थी, झूठ बोलते कहीं पकड़ी न जाऊं.

गरमागरम कचौरी का टुकड़ा तोड़ कर मुंह में ठूंसते हुए उस ने एक और तीर छोड़ा, ‘‘इतनी बढि़या कचौरियां आप ने हमारे लिए तो कभी नहीं बनाईं.’’

उस का फूला हुआ मुंह और उस के साथ उलाहना. मैं हंस दी, ‘‘लगता है, तेरे कालिज की कैंटीन में आज तेरे लिए कुछ नहीं बचा. तभी कचौरियों में ज्यादा स्वाद आ रहा है. वरना वही हाथ हैं और वही कचौरियां.’’

‘‘अच्छा, तो पिताजी के यह दोस्त कितने दिन ठहरेंगे हमारे यहां?’’ उस ने दूसरी कचौरी तोड़ कर मुंह में ठूंस ली थी.

‘‘ठहरे तो वह रमाशंकरजी के यहां हैं. उन से रिश्तेदारी है कुछ. तुम्हारे पिताजी ने तो उन्हें आज चाय पर बुलाया है. तू हाथ तो धो ले, फिर आराम से प्लेट में ले कर खाना. जरा सब्जी में भी नमक चख ले.’’

उस ने हाथ धो कर झरना मेरे हाथ से ले लिया, ‘‘वह सब चखनावखना बाद में होगा. पहले आप बेलबेल कर देती जाइए, मैं तलती जाती हूं. आशु नहीं आया अभी तक स्कूल से?’’

‘‘अभी से कैसे आ जाएगा? कोई तेरा कालिज है क्या, जो जब मन किया कक्षा छोड़ कर भाग आए? छुट्टी होगी, बस चलेगी, तभी तो आएगा.’’

‘‘तो हम क्या करें? अर्थशास्त्र के अध्यापक पढ़ाते ही नहीं कुछ. जब खुद ही पढ़ना है तो घर में बैठ कर क्यों न पढ़ें. कक्षा में क्यों मक्खियां मारें?’’ उस ने अकसर कक्षा छोड़ कर आने की सफाई पेश कर दी.

4 हाथ लगते ही मिनटों में फूलीफूली कचौरियों से परात भर गई थी. दहीबड़े पहले ही बन चुके थे. मिठाई इन से दफ्तर से आते वक्त लाने को कह दिया था.

‘‘अच्छा, ऐसा कर रश्मि, 2-4 और बची हैं न, मैं उतार देती हूं. तू हाथमुंह धो कर जरा आराम कर ले. फिर तैयार हो कर जरा बैठक ठीक कर ले. मुझे वे फूलवूल सजाने नहीं आते तेरी तरह. समझी? तब तक तेरे पिताजी और आशु भी आ जाएंगे.’’

‘‘अरे, सब ठीक है मां. मैं पहले ही देख आई हूं. एकदम ठीक है आप की सजावट. और फिर पिताजी के दोस्त ही तो आ रहे हैं, कोई समधी थोड़े ही हैं जो इतनी परेशान हो रही हो,’’ लापरवाही से मुझे आश्वस्त कर वह अपनी किताबें उठा कर रसोई से निकल गई. दूर से गुनगुनाने की आवाज आ रही थी, ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे, महके यों ही जीवन में…’

मैं अवाक् रह गई. अनजाने में वह कितना बड़ा सत्य कह गई थी, वह नहीं जानती थी. सचमुच इन के कोई दोस्त नहीं वरन दफ्तर के साथी रमाशंकर की बहन और बहनोई आ रहे थे रश्मि को देखने.

लेकिन बेटे वालों के जितने नाजनखरे होते हैं, उस के हिसाब से कितनी बार यह नाटक दोहराना पड़ेगा, कौन जानता है. और लाड़दुलार में पली, पढ़ीलिखी लड़कियों का मन हर इनकार के साथ विद्रोह की जिस आग से भड़क उठता है, मैं नहीं चाहती थी, मेरी सीधीसादी सांवली सी बिटिया उस आग में झुलस कर अभी से किसी हीनभावना से ग्रस्त हो जाए.

इसी वजह से वह जितनी सहज थी, मैं उतनी ही घबरा रही थी. कहीं उसे संदेह हो गया तो…

भारतीय परंपरा के अनुरूप हमारे माननीय अतिथि पूरे डेढ़ घंटे देर से आए. प्रतीक्षा से ऊबे रश्मि और आशु अपने पिता पर अपनी खीज निकाल रहे थे, ‘‘रमाशंकर चाचाजी ने जरूर आप का अप्रैल फूल बनाया है. आप हैं भी तो भोले बाबा, कोई भी आप को आसानी से बुद्धू बना लेता है.’’

‘‘नहीं, बेटा, रमाशंकरजी अकेले होते तो ऐसा संभव था, क्योंकि वह अकसर ऐसी हरकतें किया करते हैं. पर उन के साथ जो मेहमान आ रहे हैं न, वे ऐसा नहीं करेंगे. नए शहर में पहली बार आए हैं इसलिए घूमनेघामने में देर हो गई होगी. पर वे आएंगे जरूर…’’

‘‘मान लीजिए, पिताजी, वे लोग न आए तो इतनी सारी खानेपीने की चीजों का क्या होगा?’’ रश्मि को मिठाई और मेहनत से बनाई कचौरियों की चिंता सता रही थी.

‘‘अरे बेटा, होना क्या है. इसी बहाने हमतुम बैठ कर खाएंगे और रमाशंकरजी और अपने दोस्त को दुआ देंगे.’’

बच्चों को आश्वस्त कर इन्होंने खिड़की का परदा सरका कर बाहर झांका तो एकदम हड़बड़ा गए.

‘‘अरे, रमाशंकरजी की गाड़ी तो खड़ी है बाहर. लगता है, आ गए हैं वे लोग.’’

‘‘माफ कीजिए, राजकिशोरजी, आप लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी, जिस के लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं,’’ क्षमायाचना के साथसाथ रमाशंकरजी ने घर में प्रवेश किया, ‘‘पर यह औरतों का मामला जहां होता है, आप तो जानते ही हैं, हमें इंडियन स्टैंडर्ड टाइम पर उतरना पड़ता है.’’

वह अपनी बहन की ओर कनखियों से देख मुसकरा रहे थे, ‘‘हां, तो मिलिए मेरी बहन नलिनीजी और इन के पति नरेशजी से, और यह इन के सुपुत्र अनुपम तथा अनुराग. और नलिनी बहन, यह हैं राजकिशोरजी और इन का हम 2, हमारे 2 वाला छोटा सा परिवार, रश्मि बिटिया और इन के युवराज आशीष.’’

‘‘रमाशंकरजी, हमारे बच्चों को यह गलतफहमी होने लगी थी कि कहीं आप भूल तो नहीं गए आज का कार्यक्रम,’’ सब को बिठा कर यह बैठते हुए बोले.

रमाशंकरजी ने गोलगोल आंख मटकाते हुए आशु की तरफ देखा, ‘‘वाह, मेरे प्यारे बच्चो, ऐसी शानदार पार्टी भी कोई भूलने की चीज होती है भला? अरे, आशु बेटा, दरवाजा बंद कर लो. कहीं ऐसा न हो कि इतनी अच्छी महक से बहक कर कोई राह चलता अपना घर भूल इधर ही घुस आए,’’ अपने चिरपरिचित हास्यमिश्रित अभिनय के साथ जिस नाटकीय अदा से रमाशंकरजी ने ये शब्द कहे उस से पूरा कमरा ठहाकों से गूंज गया.

प्रतीक्षा से बोझिल वातावरण एकाएक हलका हो गया था. बातचीत आरंभ हुई तो इतनी सहज और अनौपचारिक ढंग से कि देखतेदेखते अपरिचय और दूरियों की दीवारें ढह गईं. रमाशंकरजी का परिवार जितना सभ्य और सुशिक्षित था, उन के बहनबहनोई का परिवार उतना ही सुसंस्कृत और शालीन लगा.

चाय पी कर नलिनीजी ने पास रखी अटैची खोल कर सामान मेज पर सजा दिया. मिठाई के डब्बे, साड़ी का पैकेट, सिंदूर रखने की छोटी सी चांदी की डिबिया. फिर रश्मि को बुला कर अपने पास बिठा कर उस के हाथों में चमचमाती लाल चूडि़यां पहनाते हुए बोलीं, ‘‘यही सब खरीदने में देर हो गई. हमारे नरेशजी का क्या है, यह तो सिर्फ बातें बनाना जानते हैं. पर हम लोगों को तो सब सोचसमझ कर चलना पड़ता है न? पहलीपहली बार अपनी बहू को देखने आ रही थी तो क्या खाली हाथ झुलाती हुई चली आती?’’

‘‘बहू,’’ मैं ने सहसा चौंक कर खाने के कमरे से झांका तो देखती ही रह गई. रश्मि के गले में सोने की चेन पहनाते हुए वह कह रही थीं, ‘‘लो, बेटी, यह साड़ी पहन कर आओ तो देखें, तुम पर कैसी लगती है. तुम्हारे ससुरजी की पसंद है.’’

रश्मि के हाथों में झिलमिलाती हुई चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी, गले में सोने की चेन…यह सब क्या हो रहा है? हम स्वप्न देख रहे हैं अथवा सिनेमा का कोई अवास्तविक दृश्य. घोर अचरज में डूबी रश्मि भी अलग परेशान लग रही थी. उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि उसे कोई देखने आ रहा है.

हाथ की प्लेटें जहां की तहां धर मैं सामने आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्षमा कीजिए, नलिनीजी, हमें भाईसाहब ने इतना ही कहा था कि आप लोग रश्मि को देखने आएंगे, पर आप का निर्णय क्या होगा, उस का तो जरा सा भी आभास नहीं था, सो हम ने कोई तैयारी भी नहीं की.’’

‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, सरला बहन? बेटी तो आप की है ही, अब हम ने बेटा भी आप को दे दिया. जी भर के खातिर कर लीजिएगा शादी के मौके पर,’’ उन का चेहरा खुशी के मारे दमक रहा था, ‘‘अरे, आ गई रश्मि बिटिया. लो, रमाशंकर, देख लो साड़ी पहन कर कैसी लगती है तुम्हारी बहूरानी.’’

‘‘हम क्या बताएंगे, दीदी, आप और जीजाजी बताइए, हमारी पसंद कैसी लगी आप को? हम ने हीरा छांट कर रख दिया है आप के सामने. अरे भई, अनुपम, ऐसे गुमसुम से क्यों बैठे हो तुम? वह जेब में अंगूठी क्या वापस ले जाने के इरादे से लाए हो?’’ रमाशंकरजी चहके तो अनुपम झेंप गया.

‘‘हमारी अंगूठी के अनुपात से काफी दुबलीपतली है यह. खैर, कोई बात नहीं. अपने घर आएगी तो अपने जैसा बना लेंगे हम इसे भी,’’ नलिनीजी हंस दीं.

पर मैं अपना आश्चर्य और अविश्वास अब भी नियंत्रित नहीं कर पा रही थी, ‘‘वो…वो…नलिनीजी, ऐसा है कि आजकल लड़के वाले बीसियों लड़कियां देखते हैं…और इनकार कर देते हैं…और आप…?

‘‘हां, सरला बहन, बड़े दुख की बात है कि संसार में सब से महान संस्कृति और सभ्यता का दंभ भरने वाला हमारा देश आज बहुत नीचे गिर गया है. लोग बातें बहुत बड़ीबड़ी करते हैं, आदर्श ऊंचेऊंचे बघारते हैं, पर आचरण ठीक उस के विपरीत करते हैं.

‘‘लेकिन हमारे घर में यह सब किसी को पसंद नहीं. लड़का हो या लड़की, अपने बच्चे सब को एक समान प्यारे होते हैं. किसी का अपमान अथवा तिरस्कार करने का किसी को भी अधिकार नहीं है. हमारे अनुपम ने पहले ही कह दिया था, ‘मां, जो कुछ मालूम करना हो पहले ही कर लेना. लड़की के घर जा कर मैं उसे अस्वीकार नहीं कर सकूंगा.’

‘‘इसलिए हम रमाशंकर और भाभी से सब पूछताछ कर के ही मुंबई से आए थे कि एक बार में ही सब औपचारिकताएं पूरी कर जाएंगे और हमारी भाभी ने रश्मि बिटिया की इतनी तारीफ की थी कि हम ने और लड़की वालों के समस्त आग्रह और निमंत्रण अस्वीकार कर दिए. घरघर जा कर लड़कियों की नुमाइश करना कितना अपमानजनक लगता है, छि:.’’

उन्होंने रश्मि को स्नेह से निहार कर हौले से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘बेटी का बहुत चाव था हमें, सो मिल गई. अब तुम्हें 2-2 मांओं को संभालना पड़ेगा एकसाथ. समझी बिटिया रानी?’’ हर्षातिरेक से वह खिलीखिली जा रही थीं.

‘‘अच्छा, बहनजी, अब आप का उठने का विचार है या अपनी लाड़ली बहूरानी को साथ ले कर जाने का ही प्रण कर के आई  हैं?’’ रमाशंकरजी अपनी चुटकियां लेने की आदत छोड़ने वाले नहीं थे, ‘‘बहुत निहार लिया अपनी बहूरानी को, अब उस बेचारी को आराम करने दीजिए. क्यों, रश्मि बिटिया, आज तुम्हारी जबान को क्या हो गया है? जब से आए हैं, तुम गूंगी बनी बैठी हो. तुम भी तो कुछ बोलो, हमारे अनुपम बाबू कैसे लगे तुम्हें? कौन से हीरो की झलक पड़ती है इन में?’’

रश्मि की आंखें उन के चेहरे तक जा कर नीचे झुक गईं तो वह हंस पड़े, ‘‘भई, आज तो तुम बिलकुल लाजवंती बन गई हो. चलो, फिर किसी दिन आ कर पूछ लेंगे.’’

तभी इन्होंने एक लिफाफा नरेशजी के हाथों में थमा दिया, ‘‘इस समय तो बस, यही सेवा कर सकते हैं आप की. पहले से मालूम होता तो कम से कम अनुपमजी के लिए एक अंगूठी और सूट का प्रबंध तो कर ही लेते. जरा सा शगुन है बस, ना मत कीजिएगा.’’

हम लोग बेहद संकोच में घिर आए थे. अतिथियों को विदा कर के आए तो लग रहा था जैसे कोई सुंदर सा सपना देख कर जागे हैं. चारों तरफ रंगबिरंगे फूलों की वादियां हैं, ठंडे पानी के झरझर झरते झरने हैं और बीच में बैठे हैं हम और हमारी रश्मि. सचमुच कितना सुखी जीवन है हमारा, जो घरबैठे लड़का आ गया था. वह भी इंजीनियर. भलाभला सा, प्यारा सा परिवार. कहते हैं, लड़की वालों को लड़का ढूंढ़ने में वर्षों लग जाते हैं. तरहतरह के अपमान के घूंट गले के भीतर उड़ेलने पड़ते हैं, तब कहीं वे कन्यादान कर पाते हैं.

क्या ऐसे भले और नेक लोग भी हैं आज के युग में?

नलिनीजी के परिवार ने लड़के वालों के प्रति हमारी तमाम मान्यताओं को उखाड़ कर उस की जगह एक नन्हा सा, प्यारा सा पौधा रोप दिया था, मानवता में विश्वास और आस्था का. और उस नन्हे से झूमतेलहराते पौधे को देखते हुए हम अभिभूत से बैठे थे.

‘‘अच्छा, जीजी, चुपकेचुपके रश्मि बिटिया की सगाई कर डाली और शहर के शहर में रहते भी हमें हवा तक नहीं लगने दी?’’ देवरानी ने घुसते ही बधाई की जगह बड़ीबड़ी आंखें मटकाते हुए तीर छोड़ा.

‘‘अरे मंजु, क्या बताएं, खुद हमें ही विश्वास नहीं हो रहा है कि कैसे रश्मि की सगाई हो गई. लग रहा है, जैसे सपना देख कर जागे हैं. उन लोगों ने देखने आने की खबर दी थी, पर आए तो पूरी सगाई की तैयारी के साथ. और हम लोग तो समझो, पानीपानी हो गए एकदम. लड़के के लिए न अंगूठी, न सूट, न शगुन का मिठाईमेवा. यह देखो, तुम्हारी बिटिया के लिए कितना सुंदर सेट और साड़ी दे गए हैं.’’

मंजु ने सामान देखा, परखा और लापरवाही से एक तरफ धर कर, फिर जैसे मैदान में उतर आई, ‘‘अरे, अब हमें मत बनाइए, जीजी. इतनी उमर हो गई शादीब्याह देखतेदेखते, आज तक ऐसा न देखा न सुना. परिवार में इतना बड़ा कारज हो जाए और सगे चाचाचाची के कान में भनक भी न पड़े.’’

‘‘मंजु, इस में बुरा मानने की क्या बात है. ये लोग बड़े हैं. जैसा ठीक समझा, किया. उन की बेटी है. हो सकता है, भैयाभाभी को डर हो, कहीं हम लोग आ कर रंग में भंग न डाल दें. इसलिए…’’

‘‘मुकुल भैया, आप भी…हम पर इतना अविश्वास? भला शुभ कार्य में अपनों से दुरावछिपाव क्यों करते?’’ छोटे भाई जैसे देवर मुकुल से मुझे ऐसी आशा नहीं थी.

‘‘अच्छा, रानीजी, जो हो गया सो तो हो गया. अब ब्याह भी चुपके से न कर डालना. पहलीपहली भतीजी का ब्याह है. सगी बूआ को न भुला देना,’’ शीला जीजी दरवाजे की चौखट पर खड़ेखड़े तानों की बौछार कर रही थीं.

‘‘हद करती हैं आप, जीजी. क्या मैं अकेले हाथों लड़की को विदा कर सकती हूं? क्या ऐसा संभव है?’’

‘‘संभवअसंभव तो मैं जानती नहीं, बीबी रानी, पर इतना जरूर जानती हूं कि जब आधा कार्य चुपचाप कर डाला तो लड़की विदा करने में क्या धरा है. अरे, मैं पूछती हूं, रज्जू से तुम ने आज फोन करवाया. कल ही करवा देतीं तो क्या घिस जाता? पर तुम्हारे मन में तो खोट था न. दुरावछिपाव अपनों से.’’

शीला जीजी हाथ का झोला सोफे पर पटक कर स्वयं भी पसर गईं, ‘‘उफ, इन बसों का सफर तो जान सोख लेता है. पर क्या किया जाए, सुन कर बैठा भी तो नहीं गया. जैसे ही यह दफ्तर से आए, सीधे बस पकड़ कर चले आए. अपनों की मायाममता होती ही ऐसी है. भाई का जरा सा सुखदुख सुनते ही छटपटाहट सी होने लगती है. पर तुम पराए घर की लड़की, क्या जानो, हमारा भाईबहन का संबंध कितना अटूट है.’’

शीला जीजी के शब्द कांटों की तरह कलेजे को आरपार चीरे डाल रहे थे.

‘‘ला तो रश्मि, जरा दिखा तो तेरे ससुराल वालों ने क्या पहनाया तुझे? सुना है बड़े अच्छे लोग हैं…बड़े भले हैं…रज्जू ने फोन पर बताया. दूर के ढोल ऐसे ही सुहावने लगते हैं. अपने सगे तो तुम्हारे दुश्मन हैं.’’

‘‘अच्छा, मामीजी, जल्दी से पैसे निकालिए, बहन की सगाई हुई है. कम से कम मुंह तो मीठा करवा दीजिए सब का,’’ शीला जीजी के बेटे ने जैसे मुसीबतों के पहाड़ तले से खींच कर उबार लिया मुझे.

‘‘हां…हां, अरुण, एक मिनट ठहरो, मैं रुपए लाती हूं,’’ कहती हुई मैं वहां से उठ गई.

देखतेदेखते अरुण रुपयों के साथ इन का स्कूटर भी ले कर उड़ गया. लौटा तो मिठाई, नमकीन मेज पर रखते हुए बोला, ‘‘मामीजी, मिठाई वाले का उधार कर आया हूं. पैसे कम पड़ गए. आप बाद में आशु से भिजवा दीजिएगा 30 रुपए. पता लिखवा आया हूं यहां का.’’

मैं सकते में खड़ी थी. 50 का नोट भी कम पड़ गया था. कैसे? पर जब मेज पर नजर पड़ी तो कारण समझ में आ गया. एक से एक बढि़या मिठाइयां मेज पर बिखरी पड़ी थीं और शीला जीजी और मुकुल भैया अपने बच्चों सहित बड़े प्रेम से मुंह मीठा कर रहे थे. लड़की की सगाई जो हुई थी हमारी.

‘‘अच्छा, तो अकेलेअकेले बिटिया रानी की सगाई की मिठाई उड़ाई जा रही है,’’ दरवाजे पर मेरे मझले मामामामी अपने बेटेबहुओं के साथ खड़े थे, ‘‘क्यों, सरला, तेरा नाम जरूर सरला है, पर निकली तू विरला. क्यों री, तेरे एक ही तो मामा बचे हैं लेदे के और उन्हें भी तू ने समधियों से मिलवाना जरूरी नहीं समझा? अरे बेटा, हम लोग बुजुर्ग हैं, तजरबेकार हैं, शुभ काम में अच्छी ही सलाह देते. याद है, तेरे ब्याह पर मैं ने ही तुझे गोद में उठा कर मंडप में बिठाया था?’’

उफ्, किस मुसीबत में फंस गए थे हम लोग. छोटाबड़ा कोई भी हम पर विश्वास करने को तैयार नहीं था. नाहक ही सब को फोन कर के दफ्तर से खबर करवाई. कल की खुशी की मिठाई मुंह में कड़वी सी हो गई थी.

‘‘मामाजी, बात यह हुई कि हमें खुद ही पता नहीं था. वे लोग रश्मि को देखने आए थे…’’ खीजा, झुंझलाया स्वर स्वयं मुझे अपने ही कानों में अटपटा लग रहा था.

पर मामाजी ने मेरी बात बीच में ही काट दी, ‘‘अरे, हां…हां, ये सब बहाने तो हम लोग काफी देर से सुन रहे हैं. पर बेटा, बड़ों की सलाह लिए बिना तुम्हें ‘हां’ नहीं कहनी चाहिए थी. खैर, अब जो हो गया सो हो गया. अच्छाबुरा जैसा भी होगा, सब की जिम्मेदारी तुम्हीं पर होगी.

‘‘पर आश्चर्य तो इस बात का है कि राजकिशोरजी ने भी हम से दुराव रखा. आज की जगह कल फोन कर लेते तो हम समधियों से बातचीत कर लेते, उन्हें जांचपरख लेते. खैर, तुम लोग जानो, तुम्हारा काम. हम तो सिर्फ अपना फर्ज निभाते आए हैं.

‘‘पुराने लोग हैं, उसूलों पर चलने वाले. तुम लोग ठहरे नए जमाने के आधुनिक विचारों वाले. चाहो तो शादी की सूचना का कार्ड भिजवा देना, चले आएंगे. न चाहो तो कोई बात नहीं. कोई गिला- शिकवा करने नहीं आएंगे उस के लिए.’’

समझ में नहीं आ रहा था, यह क्या हो रहा है. सिर भन्ना गया था. बेटी की शादी की बधाई तथा उस के सुखमय भविष्य के लिए आशीषों की वर्षा की जगह हम पर झूठ, धोखेबाजी, दुरावछिपाव और न जाने किनकिन मिथ्या आरोपों की बौछार हो रही थी और हम इन आरोपों की बौछार तले सिर झुकाए बैठे थे…आहत, मर्माहत, निपट अकेले, निरुपाय.

सब को विदा करतेकराते रात के साढ़े 9 बज गए थे. मन के साथ तन भी एक अव्यक्त सी थकान से टूटाटूटा सा हो आया था. घर में मनहूस सी शांति पसरी पड़ी थी. मौन इन्होंने ही तोड़ा, ‘‘लगता है, रश्मि की सगाई की खबर सुन कर कोई खुश नहीं हुआ. अपनी सगी बहन…अपना भाई…’’ धीरगंभीर व्यथित स्वर.

घंटों से उमड़ताघुमड़ता अपमान और दुख आंखों की राह बह निकला.

‘‘ओफ्फोह, मां, आप भी बस, रोने से क्या वे खुश हो जाएंगे? सब के सब कुढ़ रहे थे कि दीदी का ब्याह इतनी आसानी से और इतने अच्छे घर में क्यों तय हो गया. बस, यही कुढ़न हमारे ऊपर उलटेसीधे तानों के रूप में उड़ेल गए. उंह, यह भी कोई बात हुई,’’ कुछ ही घंटों में आशु भावनाओं की काफी झलक पा गया था.

‘‘छि: बेटा, ऐसे नहीं कहते. वे हमारे बड़े हैं…अपने हैं…उन के लिए ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिए.’’

‘‘उंह, बड़े आए अपने. 80 रुपए की मिठाइयां खा गए, ऊपर से न जाने क्या- क्या कह गए. ऐसे ही नाराज थे तो मिठाई क्यों खाई? क्यों मुंह मीठा किया? प्लेटों पर तो ऐसे टूट रहे थे जैसे मिठाई कभी देखी ही न हो. इतना गुस्सा आ रहा था कि बस, पर आप के डर से चुप रह गया कि बोलते ही सब के सामने मुझे डांट देंगी.’’

16 वर्षीय आशु भी अपना आक्रोश मुझ पर निकाल रहा था, ‘‘सब से अच्छा यही है कि दीदी की शादी में किसी को न बुलाया जाए. चुपचाप कोर्ट में जा कर शादी कर ली जाए.’’

मैं गुमसुम सी खड़ी थी. समझ नहीं आ रहा था कि क्या खून के रिश्ते इतनी आसानी से झुठलाए जा सकते हैं?

शायद नहीं…तो फिर?

आशु के तमतमाए चेहरे पर एक दृष्टि डाल, मैं मेज पर फैली बिखरी प्लेटें समेटने लगी. कैसे हैं ये मन के बंधन, जो नितांत अनजान और अपरिचितों को एक प्यार भरी सतरंगी डोर से बांध देते हैं तो अपने ही आत्मीयों को पल भर में छिटका कर परे कर देते हैं.

कैसी विडंबना है यह? जो आज की टूटतीबिखरती आस्थाओं और आशाओं को बड़े यत्न से सहेज कर मन में प्रेम और विश्वास का एक नन्हा सा पौधा रोप गए थे. वे कल तक नितांत पराए थे और आज उस नवजात पौधे को जड़मूल से उखाड़ कर अपने पैरोंतले पूरी तरह कुचल कर रौंदने वाले हमारे अपने थे. सभी आत्मीय…

इन में से किसे अपना मानें, किसे पराया, कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा है. द्

नया सफर: ससुराल के पाखंड और अंधविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू

“पापा, मैं यह शादी नहीं करना चाहती. प्लीज, आप मेरी बात मान लो…”

“क्या कह रही हो तुम? आखिर क्या कमी है मुनेंद्र में? भरापूरा परिवार है. खेतखलिहान हैं उस के पास. दोमंजिले मकान का मालिक है. घर में कोई कमी नहीं. हमारी टक्कर के लोग हैं,” उस के पिता ने गुस्से में कहा.

“पर पापा, आप भी जानते हैं, मुनेंद्र 5वीं फेल है जबकि मैं ग्रैजुएट हूं. हमारा क्या मेल?” मंजू ने अपनी बात रखी.

“मंजू, याद रख पढ़नेलिखने का यह मतलब नहीं कि तू अपने बाप से जबान लड़ाए और फिर पढ़ाई में क्या रखा है? जब लड़का इतना कमाखा रहा है, वह दानधर्म करने वाले इतने ऊंचे खानदान से है फिर तुझे बीच में बोलने का हक किस ने दिया? देख बेटा, हम तेरे भले की ही बात करेंगे. हम तेरे मांबाप हैं कोई दुश्मन तो हैं नहीं,” मां ने सख्त आवाज में उसे समझाने की कोशिश की.

“पर मां आप जानते हो न मुझे पढ़नेलिखने का कितना शौक है. मैं आगे बीएड कर टीचर बनना चाहती हूं. बाहर निकल कर काम करना है, रूपए कमाने हैं मुझे,” मंजू गिड़गिड़ाई.

“बहुत हो गई पढ़ाई. जब से पैदा हुई है यह लड़की पढ़ाई के पीछे पड़ी है. देख, अब तू चेत जा. लड़की का जन्म घर संभालने के लिए होता है, रुपए कमाने के लिए नहीं. तेरे ससुराल में इतना पैसा है कि बिना कमाई किए आराम से जी सकती है. चल, ज्यादा नखरे मत कर और शादी के लिए तैयार हो जा. हम तेरे नखरे और नहीं सह सकते. अपने घर जा और हमें चैन से रहने दे,” उस के पिता ने अपना फैसला सुना दिया था.

हार कर मंजू को शादी की सहमति देनी पड़ी. मुनेंद्र के साथ सात फेरे ले कर वह उस के घर आ गई. मंजू का मायका बहुत पूजापाठ करने वाला था. उस के पिता गांव के बड़े किसान थे. अब उसे ससुराल भी वैसा ही मिला था. पूजापाठ और अंधविश्वास में ये लोग दो कदम आगे ही थे.

किस दिन कौन से रंग के कपड़े पहनने हैं, किस दिन बाल धोना है, किस दिन नाखून काटने हैं और किस दिन बहू के हाथ दानपुण्य कराना है यह सब पहले से निश्चित रहता था.

सप्ताह के 7 में से 4 दिन उस से अपेक्षा रखी जाती थी कि वह किसी न किसी देवता के नाम पर व्रत रखे. व्रत नहीं तो कम से कम नियम से चले. रीतिरिवाजों का पालन करे. मंजू को अपनी डिगरी के कागज उठा कर अलमारी में रख देने पड़े. इस डिगरी की इस घर में कोई अहमियत नहीं थी.

उस का काम केवल सासससुर की सेवा करना, पति को सैक्स सुख देना और घर भर को स्वादिष्ठ खाना बनाबना कर खिलाना मात्र था. उस की खुशी, उस की संतुष्टि और उस के सपनों की कोई अहमियत नहीं थी.

समय इसी तरह गुजरता जा रहा था. बहुत बुझे मन से मंजू अपनी शादीशुदा जिंदगी गुजार रही थी. शादी के 1 साल बीत जाने के बाद भी जब मंजू ने सास को कोई खुशखबरी नहीं सुनाई तो घर में नए शगूफे शुरू हो गए.

सास कभी उसे बाबा के पास ले जाती तो कभी टोटके करवाती, कभी भस्म खिलाती तो कभी पूजापाठ रखवाती. लंबे समय तक इसी तरह बच्चे के जन्म की आस में परिवार वाले उसे टौर्चर करते रहे. मंजू समझ नहीं पाती थी कि आखिर इस अनपढ़, जाहिल और अंधविश्वासी परिवार के साथ कैसे निभाए?

इस बीच खाली समय में बैठेबैठे उस ने फेसबुक पर एक लड़के अंकित से दोस्ती कर ली. अंकित पढ़ालिखा था और उसी की उम्र का भी था. दोनों बैचमेट थे. उस के साथ मंजू हर तरह की बातें करने लगी. अंकित मंजू की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता. उसे नईनई बातें बताता. दोनों के बीच थोड़ा बहुत अट्रैक्शन भी था मगर अंकित जानता था कि मंजू विवाहित है सो वह कभी अपनी सीमारेखा नहीं भूलता था.

एक दिन उस ने मंजू को बताया कि वह सिंगापुर अपनी आंटी के पास रहने जा रहा है. उसे वहां जौब भी मिल जाएगी. इस पर मंजू के मन में भी उम्मीद की एक किरण जागी. उसे लगा जैसे वह इन सारे झमेलों से दूर किसी और दुनिया में अपनी जिंदगी की शुरुआत कर सकती है.

उस ने अंकित से सवाल किया,” क्या मैं तुम्हारे साथ सिंगापुर चल सकती हूं?”

“पर तुम्हारे ससुराल वाले तुम्हें जाने की अनुमति दे देंगे?” अंकित ने पूछा.

“मैं उन से अनुमति मांगने जाऊंगी भी नहीं. मुझे तो बस यहां से बहुत दूर निकल जाना है, ” मंजू ने बिंदास हो कर कहा.

“इतनी हिम्मत है तुम्हारे अंदर?” अंकित को विश्वास नहीं हो रहा था.

“हां, बहुत हिम्मत है. अपने सपनों को पूरा करने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.”

“तो ठीक है मगर सिंगापुर जाना इतना आसान नहीं है. पहले तुम्हें पासपोर्ट, वीजा वगैरह तैयार करवाना पड़ेगा. उस में काफी समय लग जाता है. वैसे मेरा एक फ्रैंड है जो यह काम जल्दी कराने में मेरी मदद कर सकता है. लेकिन तुम्हें इस के लिए सारे कागजात और पैसे ले कर आना पड़ेगा. कुछ औपचारिकता हैं उन्हें पूरी करनी होगी,” अंकित ने समझाया.

“ठीक है, मैं कोई बहाना बना कर वहां पहुंच जाऊंगी. मेरे पास कुछ गहने पड़े हैं उन्हें ले आऊंगी. तुम मुझे बता दो कब और कहां आना है.”

अगले ही दिन मंजू कालेज में सर्टिफिकेट जमा करने और सहेली के घर जाने के बहाने घर से निकली और अंकित के पास पहुंच गई. दोनों ने फटाफट सारे काम किए और मंजू वापस लौट आई. घर में किसी को कानोंकान खबर भी नहीं हुई कि वह क्या कदम उठाने जा रही है.

इस बीच मंजू चुपकेचुपके अपनी पैकिंग करती रही और फिर वह दिन भी आ गया जब उसे सब को अलविदा कह कर बहुत दूर निकल जाना था. अंकित ने उसे व्हाट्सऐप पर सारे डिटेल्स भेज दिए थे.

शाम के 7 बजे की फ्लाइट थी. उसे 2-3 घंटे पहले ही निकलना था. उस ने अंकित को फोन कर दिया था. अंकित ठीक 3 बजे गाड़ी ले कर उस के घर के पीछे की तरफ खड़ा हो गया. इस वक्त घर में सब सो रहे थे. मौका देख कर मंजू बैग और सूटकेस ले कर चुपके से निकली और अंकित के साथ गाड़ी में बैठ कर एअरपोर्ट की ओर चल पड़ी.

फ्लाइट में बैठ कर उसे एहसास हुआ जैसे आज उस के सपनों को पंख लग गए हैं. आज से उस की जिंदगी पर किसी और का नहीं बल्कि खुद उस का हक होगा. वह छूट रही इस दुनिया में कभी भी वापस लौटना नहीं चाहती थी.

रास्ते में अंकित जानबूझ कर माहौल को हलका बनाने की कोशिश कर रहा था. वह जानता था कि मंजू अंदर से काफी डरी हुई थी. अंकित ने अपनी जेब से कई सारे चुइंगम निकाल कर उसे देते हुए पूछा,”तुम्हें चुइंगम पसंद हैं?”

मंजू ने हंसते हुए कहा,”हां, बहुत पसंद हैं. बचपन में पिताजी से छिप कर ढेर सारी चुइंगम खरीद लाती थी.”

“पर अब भूल जाओ. सिंगापुर में चुइंगम नहीं खा पाओगी.”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि वहां चुइंगम खाना बैन है. सफाई को ध्यान में रखते हुए सिंगापुर सरकार ने साल 1992 में चुइंगम बैन कर दिया था.”

अंकित के मुंह से यह बात सुन कर मंजू को हंसी आ गई. चेहरा बनाते हुए बोली,” हाय, यह वियोग मैं कैसे सहूंगी?”

“जैसे मैं सहता हूं,” कहते हुए अंकित भी हंस पड़ा.

“वैसे वहां की और क्या खासियतें हैं? मंजू ने उत्सुकता से पूछा.

“वहां की नाईटलाइफ बहुत खूबसूरत होती है. वहां की रातें लाखों टिमटिमाती डिगाइनर लेजर लाइटों से लैस होती हैं जैसे रौशनी में नहा रही हों.

“तुम्हें पता है, सिंगापुर हमारे देश के एक छोटे से शहर जितना ही बड़ा होगा. लेकिन वहां की साफसुथरी सड़कें, शांत, हराभरा वातावरण किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी है. वहां संस्कृति के अनोखे और विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं. वहां की शानदार सड़कों और गगनचुंबी इमारतों में एक अलग ही आकर्षण है. सिंगापुर में सड़कों और अन्य स्थलों पर लगे पेड़ों की खास देखभाल की जाती है और उन्हें एक विशेष आकार दिया जाता है. यह बात इस जगह की खूबसूरती को और भी बढ़ा देते हैं. ”

“ग्रेट, पर तुम्हें इतना सब कैसे पता? पहले आ चुके हो लगता है?”

“हां, आंटी के यहां कई बार आ चुका हूं।”

सिंगापुर पहुंच कर अंकित ने उसे अपनी आंटी से मिलवाया. 2-3 दिन दोनों आंटी के पास ही रुके.

आंटी ने मंजू को सिंगापुर की लाइफ और वर्क कल्चर के बारे में विस्तार से समझाते हुए कहा,” वैसे तो तेरी जितनी शिक्षा है वह कहीं भी गुजरबसर करने के लिए काफी है. पर याद रख, तू फिलहाल सिंगापुर में है और वह डिगरी भारत की है जिस का यहां ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला.

“तेरे पास जो सब से अच्छा विकल्प है वह है हाउसहोल्ड वर्क का. सिंगापुर में घर संभालने के लिए काफी अच्छी सैलरी मिलती है. वैसे कपल्स जो दिन भर औफिस में रहते हैं उन्हें पीछे से बच्चों और बुजुर्गों को संभालने के लिए किसी की जरूरत पड़ती है. यह काम तू आसानी से कर सकेगी. बाद में काम करतेकरते कोई और अच्छी जौब भी ढूंढ़ सकती है.”

मंजू को यह आइडिया पसंद आया. उस ने आंटी की ही एक जानपहचान वाली के यहां बच्चे को संभालने का काम शुरू किया. दिनभर पतिपत्नी औफिस चले जाते थे. पीछे से वह बेबी को संभालने के साथ घर के काम करती. इस के लिए उसे भारतीय रुपयों में ₹20 हजार मिल रहे थे. खानापीना भी घर में ही था. ऐसे में वह सैलरी का ज्यादातर हिस्सा जमा करने लगी.

धीरेधीरे उस के पास काफी रुपए जमा हो गए. घर में सब उसे प्यार भी बहुत करते थे. बच्चों का खयाल रखतेरखते वह उन से गहराई से जुड़ती चली गई थी. अब उसे अपनी पुरानी जिंदगी और उस जिंदगी से जुड़े लोग बिलकुल भी याद नहीं आते थे. वह अपनी नई दुनिया में बहुत खुश थी. अंकित जैसे सच्चे दोस्त के साथसाथ उसे एक पूरा परिवार मिल गया था.

अपनी मालकिन सीमा की सलाह पर मंजू ने ऐडवांस कंप्यूटर कोर्स भी जौइन कर लिया ताकि उसे समय आने पर कोई अच्छी जौब का मौका भी मिल जाए. वह अब सिंगापुर और यहां के लोगों से भी काफी हद तक परिचित हो चुकी थी. यहां के लोगों की सोच और रहनसहन उसे पसंद आने लगी थी. यहां का साफसुथरा माहौल उसे बहुत अच्छा लगता. अंकित से भी उस की दोस्ती काफी खूबसूरत मोड़ पर थी. अंकित को जौब मिल चुकी थी और वह एक अलग कमरा ले कर रहता था.

हर रविवार जिद कर के वह मंजू को आसपास घुमाने भी ले जाता. वह मंजू की हर तरह से मदद करने को हमेशा तैयार रहता. कभीकभी मंजू को लगता जैसे वह अंकित से प्यार करने लगी है. अंकित की आंखों में भी उसे अपने लिए वही भाव नजर आते. मगर सामने से दोनों ने ही एकदूसरे से कुछ नहीं कहा था.

एक दिन शाम में अंकित उस से मिलने आया. उस ने घबराए हुए स्वर में मंजू को बताया,”मंजू, तुम्हारे पति को कहीं से खबर लग गई कि तुम मेरे साथ कहीं दूर आ गई हो. दरअसल, किसी ने तुम्हें मेरे साथ एअरपोर्ट के पास देख लिया था. यह सुन कर तुम्हारा पति मेरे भाई के घर पहुंचा और डराधमका कर सच उस से उगलवा लिया कि हम सिंगापुर में हैं.

“दोनों को यह लग रहा है कि तुम मेरे साथ भाग आई हो. हो सकता है कि तुम्हारा पीछा करतेकरते वे यहां भी पहुंच जाएं.”

“लेकिन उन के लिए सिंगापुर आना इतना आसान तो नहीं और यदि वे यहां आ भी जाते हैं तो उस से पहले ही मुझे यहां से निकलना पड़ेगा.”

“हां पर तुम जाओगी कहां?” चिंतित स्वर में अंकित ने पूछा.

“ऐसा करो मंजू तुम मलयेशिया निकल जाओ. वहां मेरी बहन रहती है. उस के घर में बूढ़े सासससुर और एक छोटा बेबी है. जीजू और दीदी जौब पर जाते हैं. पीछे से सास बेबी को संभालती हैं. मगर अब उन की भी उम्र काफी हो चुकी है. तुम कुछ दिनों के लिए उन के घर में फैमिली मैंबर की तरह रहो. मैं तुम्हारे बारे में उन्हें सब कुछ बता दूंगी. तुम बेबी संभालने का काम कर लेना. बाद में जब तुम्हारे पति और भाई यहां से चले जाएं तो वापस आ जाना. अंकित तुम्हें वहां भेजने का प्रबंध कर देगा,” सीमा ने समाधान सुझाया.

मंजू ने अंकित की तरफ देखा. अंकित ने हामी भरते हुए कहा,” डोंट वरी मंजू मैं तुम्हें सुरक्षित मलेशिया तक पहुंचाऊंगा मगर वीजा बनने में कुछ समय लगेगा. तब तक तुम्हें यहां छिप कर रहना होगा.”

“हां, अंकित मुझे अपनी पढ़ाई भी छोड़नी होगी. मैं नहीं चाहती कि मेरा पति या भाई मुझे पकड़ लें और फिर से उसी नरक में ले जाएं जहां से बच कर मैं आई हूं. आई विल बी ग्रेटफुल टू यू अंकित.”

“ओके, तुम डरो नहीं मैं इंतजाम करता हूं,” कह कर अंकित चला गया और मंजू उसे जाता देखती रही. फिर वह सीमा के गले लग गई. सीमा बड़ी बहन की तरह प्यार से उस का माथा सहलाने लगी.

इस बात को कई दिन बीत गए. एक दिन मंजू कंप्यूटर क्लास से निकलने वाली थी कि उसे अपने भाई की शक्ल वाला लड़का नजर आया. वह इस बात को मन का भ्रम मान कर आगे बढ़ने को हुई कि तभी उसे भाई के साथ अपना पति मुनेंद्र भी नजर आ गया. मंजू वहीं ठहर गई. वह नहीं चाहती थी कि उन दोनों को उस की झलक भी मिले. उस का पति और भाई इधरउधर देखते दूसरी सड़क पर आगे बढ़ गए तो वह दुपट्टे से चेहरा ढंक कर बाहर निकली और तेजी से अपने घर की तरफ चल दी. उसे बहुत डर लग रहा था. वह समझ गई थी कि उस का भाई और पति उस की तलाश में सिंगापुर पहुंच चुके हैं और अब यहां उस का बचना मुश्किल है.

घर आ कर उस ने सारी बात सीमा और अंकित को बताई. जाहिर था कि अब मंजू का सिंगापुर में रहना खतरे से खाली नहीं था. अब तक अंकित ने मंजू की वीजा का इंतजाम कर दिया था. अगले दिन ही उस के जाने का प्रबंध कर दिया गया. अपना सामान पैक करते समय मंजू सीमा के गले लग कर देर तक रोती रही. बच्चे भी मंजू को छोड़ने को तैयार नहीं थे.

छोटी परी ने तो उसे कस कर पकड़ लिया और कहने लगी,” नहीं दीदी, आप कहीं नहीं जाओगे हमें छोड़ कर.”

मंजू का दिल भर आया था. उस की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. अंकित के साथ एअरपोर्ट की तरफ जाते हुए भी वही सोच रही थी कि एक अनजान देश में अनजानों के बीच उसे अपने परिवार से कहीं ज्यादा प्यार मिला. यही नहीं, अंकित जैसा दोस्त मिला जो रिश्ते में कुछ न होते हुए भी उस के लिए इतनी भागदौड़ करता रहता है, उसे सुरक्षा देता है, उस की परवाह करता है. काश अंकित हमेशा के लिए उस का बन जाता. इसी तरह हमेशा उस के बढ़ते कदमों को हौंसला और संबल देता.

मंजू ने इन्हीं भावों के साथ अंकित की तरफ देखा. अंकित की नजरों में भी शायद यही भाव थे. एक अनकहा सा प्यार दोनों की आंखों में झलक रहा था पर दोनों ही कुछ कह नहीं पा रहे थे. अंकित ने उदास स्वर में कहा,”अपना ध्यान रखना मंजू।”

“देखो, तुम भी बच के रहना. कहीं वे तुम्हें देख न लें,” मंजू ने भी चिंतित हो कर कहा.

“नहींनहीं आजकल मेरी नाईटशिफ्ट चल रही है. मैं दिन में वैसे भी घर में ही रहता हूं सो पकड़ में नहीं आने वाला. अगर वे मुझे खोजते हुए घर तक आ भी गए तो मैं यही कहूंगा कि तुम मेरे साथ आई जरूर थी मगर अब कहां हो यह खबर नहीं है. तुम घबराओ नहीं आराम से रहना और अपना ध्यान रखना.”

मलयेशिया की फ्लाइट में बैठी हुई मंजू का दिल अभी भी अंकित को याद कर रहा था. शायद वह अंकित से दूर जाना नहीं चाहती थी. वह एक नए सफर की तरफ निकल तो चुकी थी पर इस बार पीछे जो छूट रहा था वह सब फिर से पा लेने की चाहत थी.

शादी की उम्र : शाहिदा ने क्यों फोड़े दिल के छाले

शाहिदा ने मोबाइल फोन पर फेसबुक में झांका कि कुछ नया तो नहीं और फिर कुलसुम को दिखाया कि वह अपनी डीपी में कैसी लग रही है. इस के बाद वह बोली, ‘‘हां कुलसुम, कल जो लड़का तुम्हें मैट्रीमोनियल साइट के मारफत मिला था और उस के घर वाले आए थे, उस में क्या हुआ?’’

‘‘और तो सब ठीक है शाहिदा आंटी,’’ कुलसुम बोली, ‘‘जरा एक अड़चन है.’’

‘‘कैसी अड़चन?’’ कुलसुम ने मोबाइल बंद किया और फिर गला साफ करते हुए बोली, ‘‘आंटी, यों तो लड़का खातेपीते घर का है, हैल्दी भी है और एमएनसी में नौकरी भी है, लेकिन…’’

कुलसुम कुछ कहतेकहते रुक गई, तो शाहिदा ने ही बात आगे बढ़ाई, ‘‘क्या चालचलन ठीक नहीं है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. लड़का बहुत शरीफ है. पर एक तो पापा का हाथ तंग है और लड़का तलाकशुदा है. पहली से उस का 3-4 साल का बच्चा भी है. कस्टडी तो मां के पास है, पर हर हफ्ते एक रात के लिए आता है, इसलिए जरा हिचकिचाहट हो रही है.’’

इस बार शाहिदा उठी और खिड़की के बाहर खड़ी हो कर कुछ सोचने लगी. फिर आ कर बोली, ‘‘देखो कुलसुम, तुम पैसों की परवाह मत करो. पापा को कहो कि जितनी रकम चाहिए, मुझ से ले लें. धीरेधीरे अदा कर देना. और तलाकशुदा जैसी जरा सी बात के लिए अच्छे लड़के को मत ठुकराओ. बच्चे को एक और मां का प्यार दे कर अपने पति का दिल जीतो.’’

कुलसुम ने शाहिदा की ओर देखा और बोली, ‘‘शाहिदा आंटी, एक सवाल पूछूं?’’

शाहिदा ने एक सवालिया निगाह से देखा, तो कुलसुम ने कहा, ‘‘माफ करें, मेरा सवाल आप की निजी जिंदगी से जुड़ा है. आप किसी भी लड़की की शादी कराने में बहुत ज्यादा दिलचस्पी लेती हैं, रुपएपैसों की मदद भी करती हैं. मेरी कई सहेलियों के साथ आप ने ऐसा किया है. लेकिन मालदार और अच्छी नौकरी के बावजूद भी आप कुंआरी रह गईं, ऐसा क्यों हुआ?’’

अचानक अधेड़ उम्र की शाहिदा की आंखें छलछला आईं. कुलसुम को लगा कि शायद उस ने यह सब पूछ कर अच्छा नहीं किया. वह उठते हुए बोली, ‘‘आंटी माफ करना, शायद मैं कुछ गलत पूछ गई. आप का दिल दुखाने का मेरा इरादा कतई नहीं था.’’

‘‘नहींनहीं, बैठो कुलसुम. मैं आज तुम्हें सबकुछ बताऊंगी,’’ शाहिदा एक टिशू से आंखें पोंछती हुई बोलीं, ‘‘मैं अपने अमीर मांबाप की एकलौती लड़की थी. लाड़प्यार से पलने की वजह से और अमीर घराना होने से थोड़ा गुमान मुझ में भी आ गया था.

‘‘जब मैं 15 साल की हुई, तो मैं ने पाया कि चौकीदार का जवान लड़का, जो देखने में भलाचंगा था, मेरी तरफ खिंचने लगा था और एक दिन मौका पा कर उस ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा था, ‘शाहिदा, मैं आप को दिलोजान से चाहता हूं. मैं आप के लिए कुछ भी कर सकता हूं.’

‘‘मैं ने फुरती से अपना हाथ छुड़ा कर एक चांटा उस के गाल पर मारा और कहा, ‘तो डूब मर चुल्लू भर पानी में. अपनी औकात देखी है. हमारे टुकड़ों पर पलने वाला हम पर ही डोरे डाल रहा है.’

‘‘वह बेचारा फिर कभी दिखाई नहीं दिया. अपनी जिंदगी में आए प्यार के इस पाले इजहार को मैं बिलकुल भूल गई. जब मैं 19 साल की हुई, तो रिश्ते के एक चाचा ने अपने बेटे से मेरा निकाह करने की बात चलाई. उन के बेटे में कोई कमी नहीं थी. हां, यह बात जरूर थी कि वे हमारी बराबरी के नहीं थे. फिर लड़का मामूली किरानी था. मुझ पर उन दिनों एमबीए करने का भूत सवार था.

‘‘उन की बात सुन कर अम्मी भी भड़क उठी थीं, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह कहने की. कम से कम अपनी औकात तो देखी होती. फिर आप के साहबजादे करते क्या हैं, किरानीगीरी. मेरी बेटी के 12वीं में 95 परसैंट मार्क्स आए थे. वैसे भी, ऐसी हैसियत के तो हमारे यहां नौकरचाकर हैं. जितनी तनख्वाह आप के बेटे को मिलती होगी, उतने की तो आज भी शाहिदा एक पोशाक पहन कर फाड़ डालती है. अगर अच्छी नौकरी मिल गई तो न जाने क्या होगा.’

‘‘वे लोग मुंह लटकाए वापस चले गए. अम्मी की बातें मुझे बहुत अच्छी लगी थीं. मैं ने मन में सोचा कि अच्छा फटकारा. चले आए थे मुंह उठा कर.

‘‘तीसरी बार एक अच्छे घर से रिश्ता आया. उस समय मैं 25 साल की हो चुकी थी. लड़के वाले हमारी टक्कर के तो न थे, लेकिन फिर भी अच्छे पैसे वाले थे. लड़का भी ठीक था. पर एक सरकारी कंपनी में इंजीनियर था. उस के पिता का कहना था कि हम बरात में बाजा नहीं लाएंगे. शोरशराबों से क्या होता है? वे समाज सुधारक थे और शादीब्याह सीधी तरह करने वाले थे.

‘‘इस बार मेरे अब्बा भड़क गए थे, ‘अमा लड़की ब्याहने आना चाहते हो या मातमपुर्सी करने. दुनिया के लोग बेवकूफ हैं, जो इतनी धूमधाम से शादियां करते हैं?’

‘‘मैं भी एक ग्रेट इंडियन वैडिंग चाहती थी, जिस में खूब धूमधड़ाम हो.

‘‘बहरहाल, बात बनी नहीं और वह रिश्ता भी इनकार कर दिया गया. अगला रिश्ता भी इनकार कर दिया गया. यह रिश्ता भी एक अच्छे घराने से आया था. लड़के ने मुझ से कहा कि पापा को कहो कि कोई सामान न दें. मेरी बचत, उस की बचत और दहेज के सामान की बचत से 1 करोड़ हो जाएंगे और वह स्टार्टअप शुरू करेगा. हम बराबर के पार्टनर तो होंगे ही.

‘‘अम्मी ने गाल फुलाते हुए कहा, ‘क्या हमारे पैसों की और बेटी के पैसों की उम्मीद पर ही हाथ पर हाथ धरे अभी तक लड़का बैठा हुआ है?’

‘‘इस तरह वह रिश्ता भी न हो सका. मैं अब तक एक एमएनसी में अच्छा कमाने लगी थी. मेरी खुद की चाहत अच्छे पढ़ेलिखे लड़के की होने लगी.

‘‘मेरी उम्र के 28वें साल में मौका आया. एक सांवले लड़के ने मुझे प्रपोज किया. वह एक दूसरी कंपनी में डायरैक्टर के पद पर था. वह न तो काला ही था, न साउथ इंडियनों की तरह. न मुझे पसंद था और न घर वालों को. मन ही मन मैं उसे काला बंदर कह कर हंस दी थी.

‘‘हालांकि उम्र के इस दौर में मुझे सोचना चाहिए था कि आखिर किसी न किसी को तो हमसफर बना ही लेना चाहिए. लड़की की उम्र निकल जाए तो फिर सबकुछ हाथ से निकल जाता है. और बेशुमार दौलत भी उम्र वापस नहीं ला सकती. पर, मैं अपने मांबाप की लाड़ली अपनी नौकरी और दौलत के नशे में चूर इस पर गहराई से न सोच सकी.

‘‘उम्र के 30वें साल में एक से शादी की बात चली. उस में कहीं कोई कमी न थी. लड़का डिप्टी कलक्टर था. हम कई बार मिले. एक बार रात भी बिताई. उस रात देखा कि लड़के वाले करीबकरीब हमारी टक्कर के थे. पर लड़का जरा सा लंगड़ाता था.

‘‘अम्मी को बताया तो उन्होंने कहा, ‘भई, पैसा और रसूख तो आताजाता रहता?है. लेकिन कम से कम लड़का तो ऐसा हो, जिस के साथ लड़की घूमफिर सके.’

‘‘मुझे भी लगा कि कहीं टांग में कैंसर वगैरह न हो. जब सहेलियों को बताया तो वे बोलीं, ‘चल कर ले न तैमूर लंग से शादी. अरे, उसे कहो कहीं लंगड़ीलूली लड़की देखे.’

‘‘फिर कई और रिश्ते आए. पर किसी में मुझे कमी आई, किसी में अम्मी को कमी नजर आई, तो किसी में मेरी सहेलियों को. मेरी सब सहेलियां शादीशुदा हो चुकी थीं और उन के खाविंद मुझ पर मरते थे. शायद वे लड़कियां चाहती थीं कि मेरी शादी ही न हो. फिर लड़के मिलने कम हो गए. मैं उम्र की 34वीं मंजिल पार कर गई.

‘‘उम्र का यह वह ढलान था, जब लड़की को शादी कर लेनी चाहिए. पर दौलत के नशे में मैं ने कुछ न सोचा. उम्र के इस मोड़ पर मैं भी एक मर्द साथी की कमी महसूस कर रही थी और मैं ने तय कर लिया था कि अब किसी भी रिश्ते के आने पर, चाहे वह आम आमदनी वाले का ही क्यों न हो, मैं टांग नहीं अड़ाऊंगी. 2-3 से मेलजोल भी हुआ, पर रात को पता लगा कि वे तो सब शादीशुदा हैं या आधेअधूरे.

‘‘मैं 36 साल की थी, तब एक रिश्ता आया. लड़का तलाकशुदा था. उस की घरवाली भाग गई थी. 2 बच्चे थे. मैं ने इस बार सोच लिया था कि तलाकशुदा है तो क्या हुआ? बच्चे हैं तो क्या हुआ? मैं सब संभाल लूंगी.

‘‘औरत की समझदारी से ही गृहस्थी चलती है. मैं भी बच्चों को प्यार दूंगी. घर को खुशहाल बना दूंगी. पर बात मुझ तक आने का मौका ही नहीं मिला. अम्मीजान तो मुंहफट थीं ही, सो रिश्ते लाने वाले के मुंह पर ही कह मारा, ‘तलाकशुदा है तो कहीं बेवा या तलाकशुदा को तलाशो. हमारी लड़की में कोई कमी थोड़े ही है, जो सैकंडहैंड के मत्थे मढ़ दें.’

‘‘और बस यही आखिरी रिश्ता था. फिर कोई रिश्ता नहीं आया. कुछ ही दिनों में मांबाप ढेर सी दौलत छोड़ कर मर गए. मैं नौकरी में आगे बढ़ती गई, पर मैं एक मर्द साथी के लिए बेचैन हो उठी थी. जो मिलते थे, केवल 2-4 रात बिताते. एक मिला, पर रात को बिस्तर पर हैवान होने लगा. मैं रात को सिर्फ नाइटी में उस के घर से निकल कर भागी थी.

‘‘आखिर एक दिन हिम्मत कर के अपने बूढ़े चौकीदार से पूछा, ‘बाबा, आप का लड़का था न रमजानी. कहां है वह?’

‘‘बूढ़े चौकीदार ने मुसकरा कर कहा, ‘बेटी, वह मुंबई में गोदी में मजदूरी करता है. अचानक उस की याद कैसे आ गई.’ ‘‘मैं ने अपनी आंखें बचाते हुए कहा, ‘यों ही पूछा था. शादी तो अब कर ही ली होगी.’

‘‘बूढ़ा चौकीदार हंसा और बोला, ‘शादी… अब तो उस के बच्चे भी शादी लायक हो गए हैं.’

‘‘फिर मुझे पता चला कि उन सभी लड़कों की शादियां हो चुकी हैं, जिन के लिए मेरे साथ तार जुड़ने आए थे. और अब सभी बालबच्चों में घिर कर जिंदगी गुजार रहे हैं. और मैं अपने और अपने मांबाप की झूठी शान की वजह से उन मंजिलों को पार कर गई थी, जो एक बार छूट जाने के बाद फिर कभी नहीं मिलती.

‘‘मैं इस इंतजार में रही कि अब जो भी रिश्ता आएगा, उसे फौरन मंजूर कर लूंगी, पर फिर कोई रिश्ता नहीं आया और मैं रिश्ते के इंतजार में उम्र को पीछे छोड़ने लगी.

‘‘अब आईने में खड़ी अपनेआप को देखती हूं कि मेरे सिर के बाल सफेद हो रहे हैं. चेहरा भी कुछ ढीला पड़ रहा है. मैं समझ गई हूं कि अब किसी रिश्ते का इंतजार बेकार है. एक औरत के रूप में मैं वह सबकुछ खो चुकी थी, जो उम्र के एक खास पड़ाव तक ही रहता है. बस, फिर मैं अपने अकेलेपन में कैद हो कर रह गई.’’

अपनी कहानी सुना कर शाहिदा ने अपनी आंखों को टिशू से एक बार फिर साफ किया. उन्होंने अब चाय का ठंडा होता कप उठाया. थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद वे बोलीं,

‘‘कुलसुम, औरत बिना मर्द के बिलकुल बेजान है. मैं नहीं चाहती कि मेरी तरह कोई और लड़की वह सुख झेले, जो मैं झेल रही हूं. तुम फौरन जा कर अम्मीअब्बा को मेरे पास भेज दो. मैं उन्हें समझाऊंगी.’’

कुलसुम ने अपनी अम्मीअब्बा को शाहिदा के पास भेजा. शाहिदा ने उन्हें तलाकशुदा के साथ शादी करने के लिए राजी कर लिया. कुलसुम की शादी में शाहिदा ने उधार की रकम तो दी ही, अपनी तरफ से बहुतकुछ खर्च भी किया. कुलसुम को विदा करा कर जब वे अपने घर आई, तो उन्हें ऐसा लगा मानो उन की ही शादी हो गई है.

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